दिनांक
7 अक्टूबर, 1974.
श्री
ओशो आश्रम,
पूना।
भगवान
!
महान
सुलतान महमूद
एक दिन अपनी
राजधानी गजनी
की सड़कों पर
घूम रहे थे।
उन्होंने
देखा कि एक गरीब
भारिक पीठ पर
भारी पत्थर का
बोझ लिये दम तोड़
रहा है। उसकी
हालत से
द्रवीभूत
होकर महमूद ने
शाही ढंग से
हुक्म दिया, 'ओ
भारिक, उस
पत्थर को नीचे
गिरा दे।'
तुरंत
ही आज्ञा का
पालन हुआ। पर
पत्थर उस रास्ते
पर राहगीरों
की बाधा बन कर
बहुत वर्षों
पड़ा रहा। अंत
में अनेक
नागरिकों ने
बादशाह से
प्रार्थना की
कि वे उस
पत्थर के
हटाये जाने का
हुक्म निकालें।
प्रशासकीय
बुद्धि से
विचार कर सुलतान
ने कहा, 'जो हुक्म के
द्वारा किया
गया है, वह
वैसे ही समान
हुक्म से रद्द
नहीं किया जा
सकता।
क्योंकि उससे
लोग यही
सोचेंगे कि शाही
फरमान झक से
प्रेरित होते
हैं। पत्थर
जहां है, वहीं
रहेगा।'
नतीजा
हुआ कि सुलतान
महमूद के जीते
जी वह पत्थर
वहीं रहा। और
जब वे मरे, तब भी शाही
हुक्म के आदर
के लिए उसे
नहीं हटाया
गया।
वह
कहानी
जग-जाहिर हो
गई। लोगों ने
तीन ढंग से
उसकी
व्याख्या की।
जो राज्य के खिलाफ
थे, उन्होंने
समझा कि यह
पत्थर उस
हुकूमत की
मूर्खता का
सबूत है जो
अपने को किसी
भी कीमत पर
कायम रखना
चाहती है।
सत्ता के
प्रति
श्रद्धालु लोगों
ने कहा कि
कितनी भी
असुविधापूर्ण
हो, राजाज्ञा
का पालन होना
चाहिए।
और
जो लोग सही
समझ रखते थे, उन्होंने
वही शिक्षा
ग्रहण की, जो
कि सुलतान ने
गैर-समझदारों
के बीच अपनी
प्रतिष्ठा की
चिंता किये
बिना देनी
चाही थी। क्योंकि
उस असुविधा की
जगह पर एक
रुकावट खड़ी कर
और उसके वहां
रहने देने के
कारणों को
प्रचलित कर
महमूद
समझदारों से
कहना चाहते थे
कि उन्हें
लौकिक-सत्ता
को मानना चाहिये;
साथ ही यह
भी समझना
चाहिए कि वे
लोग मनुष्यता के
बहुत काम के
नहीं हैं जो
हठधर्मी से, अनम्य
मतवादों
९टदसिमगपइसम
कवहउं० के
द्वारा शासन
करते हैं।
भगवान!
इस सूफी
प्रबोध कहानी
का अभिप्राय
क्या है?
जीवन, एक महान संतुलन
है। और जो उस
संतुलन को
समझने में
असमर्थ रह
जाये, वह
अतियों में
भटक जाता है।
संसार एक अति
है, मोक्ष
दूसरी अति है।
बुद्धिमान
दोनों के बीच जीता
है। ऐसे जीता
है, जैसे
मोक्ष और
संसार एक है।
ज्यादा भोजन
कर लेना एक
अति है, उपवास
करना दूसरी
अति है।
समझदार मध्य
में खड़ा होता
है। जहां
सम्यक आहार
जीवन का ढंग
होता है। जीवन
की शैली
निर्मित करते
समय, संतुलन
को सदा ध्यान
में रखना
जरूरी है।
बुद्ध ने अपने
मार्ग को 'मज्झिम
निकाय' कहा
है--बीच का
मार्ग। कन्फ्यूसियस
ने अपने विचार
को 'गोल्डेन मीन'--स्वर्ण
पथ कहा है।
कन्फ्यूसियस
एक गांव के
पास से गुजरता
था। और उसने
गांव के लोग, जो उसे
रास्ते पर
मिले, उनसे
पूछा, 'तुम्हारे
गांव में कोई
बुद्धिमान
आदमी है?' तो
उन लोगों ने
कहा, 'निश्चित!
बहुत
बुद्धिमान
आदमी है एक
हमारे गांव
में, वृद्ध
है, अनुभवी
है, परम
ज्ञानी है।' कन्फ्यूसियस ने कहा, 'कैसे
तुमने जाना कि
वह परम ज्ञानी
है?' तो उन
लोगों ने कहा,
'कोई भी काम
करने के पहले
वह कम से कम
तीन बार विचार
करता है।' कन्फ्यूसियस ने कहा, 'एक
बार विचार
करना कम है, तीन बार
विचार करना
थोड़ा ज्यादा
हो गया। बुद्धिमान
सिर्फ दो बार
विचार करता
है।'
बुद्धिमान
सदा मध्य को
खोज लेता है।
निर्बुद्धि
हमेशा अति पर
चला जाता है।
और एक अति से
दूसरी अति पर
जाना
निर्बुद्धि
के लिए सदा
आसान है। अगर
तुम कृपण हो, कंजूस हो, तो सारे धन
को त्याग कर
देना बहुत
आसान है। यह बात
कठिन लगेगी
समझने में कि
कृपण और कैसे
त्याग करेगा?
लेकिन
कृपणता एक अति
है। और मन एक
अति से दूसरी
अति पर सरलता
से चला जाता
है। जैसा घड़ी
का पेंडुलम
बायें से
दायें चला
जाता है, दायें
से बायें चला
आता है। बीच
में कभी नहीं ठहरता।
ठहर जाये तो
पूरी घड़ी रुक
जाये।
कृपण
अक्सर त्यागी
हो जाते हैं।
और अगर वे त्यागी
न भी हों तो
त्यागियों का
बड़ा सम्मान
करते हैं। तुम
कंजूसों को
हमेशा
त्यागियों के
चरणों में सिर
झुकाते
पाओगे। एक अति
दूसरी अति के
सामने सिर
झुकाती है।
सिर झुकाने का
मतलब भी यही
है कि हम भी
चाहेंगे कि
ऐसे ही हो
जायें। सिर हम
वहीं झुकाते
हैं जहां जैसे
हम होना चाहते
हैं। हिंसक
लोग अक्सर
अहिंसक आदमी
की प्रशंसा
करते हुए पाये
जायेंगे...दूसरी
अति!
यह
जानकर
तुम्हें
हैरानी होगी
कि भारत में
अहिंसा का जो
जीवन-दर्शन
पैदा हुआ, वह क्षत्रिय
घरों से आया, ब्राह्मण घर
से नहीं।
महावीर, बुद्ध,
पार्श्वनाथ,
जैनों के
चौबीस
तीर्थंकर सब क्षत्रिय
हैं। वहां
हिंसा घनी थी।
वहां चौबीस घंटे
तलवार हाथ में
थी। वहां
अहिंसा पैदा
हुई। एक भी
ब्राह्मण
अहिंसक नहीं
हुआ इस अर्थ
में, जैसा
महावीर और
बुद्ध अहिंसक
हैं।
अगर
हिंसक खोजना
हो बड़े से बड़ा
हिंदू, भारतीय
परंपरा में, तो परशुराम
है। वह
ब्राह्मण घर
में पैदा हुआ
और पृथ्वी को
अनेक बार
क्षत्रियों
से समाप्त
किया। हिंसक
पैदा हुआ
ब्राह्मण घर
में। अहिंसक
पैदा हुए
हिंसक घरों
में; कारण
क्या है? समझ
में आता है
अगर ब्राह्मण
घर में अहिंसक
पैदा होते।
सीधी बात थी, कि ब्राह्मण
घर में अहिंसक
पैदा होना ही
चाहिए। लेकिन
मन अति पर
जाता है। एक
अति से दूसरी
अति पर जाता है।
तुम
हमेशा पाओगे, समृद्ध समाज
में उपवास का
सम्मान होगा।
जहां ज्यादा
खाने की
सुविधा है, वहां उपवास
समादृत होगा।
गरीब समाज में
अगर धार्मिक
दिन आ जाये, तो उत्सव
मनाने का एक
ही ढंग
होगा--पकवान।
अच्छे से
अच्छा भोजन।
अमीर घर में
अगर धार्मिक
दिन आये तो
मनाने का एक
ही ढंग
होगा--उपवास।
जैन उपवास
करते हैं, क्योंकि
इस देश में
सबसे ज्यादा
समृद्ध, सबसे
ज्यादा धन
उनके पास है।
गरीब कैसे
धार्मिक दिन
को उपवास करे?
उपवास तो वह
साल भर ही
करता है। तो
जब धार्मिक दिन
आता है तो
उससे विपरीत
कुछ करे; तो
वह नये कपड़े
पहनता है, अच्छे
से अच्छा भोजन
बनाता है। वह
उसका धार्मिक
उत्सव है।
आदमी
कैसे धार्मिक
उत्सव मनाता
है यह अगर तुम्हें
पता चल जाये
तो तुम्हें
उसकी आर्थिक
स्थिति
तत्काल पता चल
जायेगी। अगर
उपवास करके मनाता
है तो ज्यादा
खाने की स्थिति
में है। अगर
भोज करता है, मित्रों को
निमंत्रित
करता है, तो
गरीब स्थिति
है। क्योंकि
धर्म हमारे
संसार का
विपरीत है। वह
दूसरी अति है।
उसे हम उल्टे
हो जायें तो
ही मना पाते
हैं।
और ऐसा
हमारे पूरे
जीवन में है।
अगर व्यभिचारी
कभी भी बदलेगा
तो एकदम
ब्रह्मचारी
हो जायेगा। और
ब्रह्मचारी
अगर कभी भी
गिरेगा तो एकदम
व्यभिचारी हो
जायेगा। बीच
में, सम पर रुक
जाना अति कठिन
है। और जीवन
की बड़े से बड़ी
कला यह है कि
कैसे अति से
बचा जाये।
क्योंकि इधर
कुआं है, उधर
खाई है।
पर
क्या कारण है
कि आदमी अति
में इतना रस
लेता है? क्योंकि
अति में
अहंकार को
तृप्ति है। या
तो तुम्हारे
पास दुनिया का
सबसे ज्यादा
धन हो तो
अहंकार खड़ा होता
है; या तुम
सारे धन को
लात मार कर
निकल जाओ, दुनिया
के सबसे बड़े
त्यागी हो जाओ,
तो अहंकार
तृप्त होता
है। मध्य में
अहंकार को तृप्त
होने की कोई
जगह नहीं है।
मध्य में अहंकार
मर जाता है।
जैसे घड़ी बंद
होती है ऐसे
अहंकार की
टिक-टिक भी
बंद हो जाती
है। इसलिए कोई
भी मध्य में
रुकना नहीं
चाहता। और समत्व
सार है। सारा
जीवन अगर समत्व
पर खड़ा हो
जाये, तो
तुम
बुद्धिमान हो
गये।
यह
कहानी
सूफियों की समत्व के
लिए है। इस
कहानी में
प्रवेश से पहले
कुछ और बातें
समझ लें।
एक
सूफी फकीर हुआ
अलहिल्लाज
मंसूर। उसे
फांसी की सजा
दी गई।
क्योंकि उसने
घोषणा कर दी
कि मैं ब्रह्म
हूं। मैं
स्वयं भगवान
हूं--अनलहक।
उसने
उपनिषदों का
परम वचन बोल
दिया, 'अहं
ब्रह्मास्मि।'
मुसलमान
नियम के
विपरीत है यह।
क्योंकि इस्लाम
कहता है कि
तुम भक्त हो
सकते हो, भगवान
नहीं। और
भगवान होने की
घोषणा में
खतरा है। हो
सकता है, यह
अहंकार की
घोषणा हो। हो
सकता है, तुम
सिर्फ
विक्षिप्त हो
गये। हो सकता
है, यह
तुम्हारे
भीतर का रोग
ही बोल रहा
है। क्योंकि
अहंकार तो
चाहता है
परम-पद। तो
अहंकार घोषणा कर
सकता है 'अनलहक' की,
'अहं
ब्रह्मास्मि'
की।
और जब
मंसूर ने
घोषणा की, तो इस्लाम
मंसूर के
खिलाफ था। उसे
पकड़वा
बुलाया खलीफा
ने, और कहा
कि तुम क्षमा
मांग लो, प्रायश्चित
कर लो, अन्यथा
फांसी पर लटका
दिए जाओगे।
खलीफा भी आदर
करता था मंसूर
का। महल में
कई वर्षों तक
मंसूर को रखा,
लेकिन
मंसूर ने कहा,
'बदलने का
कोई उपाय नहीं,
क्योंकि यह
मैं नहीं कह
रहा हूं। यह
तो वही बोल
रहा है। अब
उसको कौन समझाये?
और वह फांसी
से डरता नहीं
है। क्योंकि
वह मरने वाला
तत्व नहीं है।
मैं होता तो
डर भी जाता। रास्ता
बना लेता
निकलने का
बाहर। लेकिन
मैं हूं नहीं,
वही है और
वही बोल रहा
है। अब उसको
कौन समझाये?
तुम
प्रतीक्षा मत
करो। फांसी
लगानी है, फांसी
लगा दो।'
खलीफा
बड़ी मुश्किल
में था। और
बड़ी अदभुत
घटना है, क्योंकि
खलीफा सम्मान
भी करता था
मंसूर का कि आदमी
कीमती है। बस,
यह एक बात न
कहे कि मैं
भगवान हूं, तो सब ठीक
है। कोई अड़चन
नहीं है। फिर
इस्लाम से कोई
विरोध नहीं
है। बाकी इसका
पूरा जीवन इस्लाम
के नियमों से
भरा है। जैसा
शुद्ध
धार्मिक आदमी
हो वैसा है।
बस, यह एक
बात इस्लाम के
विरोध में
जाती है। इतनी
सी बात बदलने
में क्या हर्ज
है? तो
खलीफा ने
प्रतीक्षा की।
फिर खलीफा ने
खुद ही पूछा, अब मैं क्या
करूं? तो
कहते हैं
मंसूर ने कहा,
'तू चिंता
मत कर और मुझे
फांसी लगा दे।
इससे बड़ा लाभ
होगा।' पूछा
खलीफा ने, 'क्या
लाभ होगा?'
तो
मंसूर ने कहा, 'लाभ यह होगा,
मुझे तो कोई
हानि होने
वाली नहीं
फांसी से। आज
नहीं कल यह
शरीर तो छूटेगा।
यह कैसे छूटता
है यह बात गौण
है। बीमारी से
छूटता है, बिस्तर
पर छूटता है, फांसी के
तख्ते पर
छूटता है, यह
बात फिजूल है।
और मैं जानता
हूं भलीभांति
कि इसके छूटने
से कोई फर्क
नहीं पड़ता है।
यह वस्त्रों
जैसा है। मैं
फिर भी
रहूंगा। वह जो
कह रहा है, अहं
ब्रह्मास्मि,
उसका कोई
अंत नहीं।
इसलिए मुझे तो
कोई हानि नहीं
होगी, लोगों
को बड़ा लाभ
होगा।
क्योंकि जो
अहंकार के वश
ईश्वर होने की
घोषणा करेंगे,
वे डर
जायेंगे। वे
फांसी के लिए
राजी न होंगे।'
अहंकार
सबसे ज्यादा
मरने से डरता
है। क्योंकि
अहंकार की ही
मृत्यु होती है, आत्मा की तो
मृत्यु होती
नहीं। अहंकार
जिस चीज से
सर्वाधिक
भयभीत है, वह
मृत्यु है।
अहंकार
सिंहासन
चाहता है, सूली
नहीं। तो अगर
परमात्मा के
नाम पर सिंहासन
मिल रहा हो, तो ठीक! सूली
मिलती हो तो
अहंकार
तत्क्षण पैर पीछे
लौटा लेगा।
मंसूर
ने कहा, 'तुम
मुझे सूली दे
दो। मुझे कोई
हानि न होगी।
क्योंकि मौत
तो होनी ही थी,
हो जायेगी।
कोई फर्क न
पड़ेगा। और यह
शरीर बाधा है,
गिर जायेगा,
तो अनंत से
मेरा मिलना
शाश्वत हो
जायेगा। यह शरीर
आखिरी वस्त्र
है, जिसके
कारण मैं उससे
थोड़ा दूर हूं।
वह भी बात समाप्त
हो जायेगी।
मुझे लाभ ही लाभ
है और सबको भी
लाभ है।
अहंकार से कोई
घोषणा न कर
सकेगा। और
जिनको अनुभव
होगा, उनकी
घोषणाओं को
कोई फांसियां
कभी नहीं रोक
सकीं।'
मंसूर
की ही सहमति
से मंसूर को
सूली दी गई।
मंसूर
मुसलमान भी
रहा और परम
वेदांती भी।
और मंसूर राजी
था, क्योंकि
अज्ञानी के
लिए नियम की
जरूरत है। और
ज्ञानी के लिए
कोई नियम की
जरूरत नहीं
है। ज्ञानी के
लिए न कोई
कुरान है, न
कोई गीता है, न कोई
बाइबिल है।
ज्ञानी के लिए
कोई मर्यादा नहीं
है। लेकिन फिर
भी ज्ञानी
मर्यादा से
जीता रहा है; सिर्फ
अज्ञानी को
खयाल में रख
कर। क्योंकि
अगर ऐसा लगे
कि ज्ञानी की
कोई मर्यादा
नहीं है, तो
अज्ञानी तो
अमर्याद होनी
ही चाहता है।
उसकी तो
वासनायें
चाहती हैं परम
स्वच्छंदता।
ज्ञानी के लिए
जो
स्वतंत्रता
है, वह
अज्ञानी के
लिए
स्वच्छंदता
बन जायेगी। ज्ञानी
भी तुम्हारे
नियम मानकर
चलता है, भलीभांति
जानते हुए कि
तुम्हारे नियम
व्यर्थ हैं।
लेकिन
तुम्हारे लिए
सार्थक हैं।
जब तक तुम
अंधे हो, तब
तक तुम्हारे
हाथ में लकड़ी
चाहिए जिससे
टटोल-टटोल कर
तुम चलते रहो।
ज्ञानी जानता
है कि जब
आंखें आ जायें
तो लकड़ी फेंक
देनी है।
लेकिन तुम्हारे
सामने वह लकड़ी
फेंकता भी
नहीं। सिर्फ
इस खयाल से कि कहीं
तुम लकड़ी न
फेंक दो। तुम
नकलची हो।
तुमने
कहानी सुनी है, सभी ने सुनी
है कि एक
टोपियों का
सौदागर राह पर
रुका। थक गया
था, झपकी
लग गई। वह एक
टोपी लगाये
हुए था। और
उसके पास एक
बड़ी टोकरी थी
जिसमें सौ दो
सौ टोपियां थीं।
जिन्हें
बेचने वह
बाजार जा रहा
था। बंदरों ने
उसे टोपी
लगाये देख
लिया। वे सब
नीचे आकर, एक-एक
टोपी ले कर, लगा कर
वृक्ष पर बैठ
गये। जब उसकी
नींद खुली, तो देखा कि
सब टोपियां जा
चुकीं। ऊपर
देखा तो बंदर
बड़े प्रसन्न
हैं। सब टोपी
लगाये बैठे हुए
हैं। वह बड़ी
मुश्किल में
पड़ा। उसे जाना
था बाजार। अब
वह बाजार भी
क्या जाये!
क्या बेचने को?
टोकरी खाली
थी। तब उसे
खयाल आया कि
लोग कहते हैं
बंदर नकलची
होते हैं। तो
उसने अपनी
टोपी निकाल कर
फेंक दी।
फेंकते ही
सारे बंदरों
ने भी टोपियां
निकाल कर फेंक
दीं। उसने
टोपियां इकट्ठी
कर लीं और
बाजार चला
गया।
कहते
हैं, कोई बीस
साल बाद उसका
बेटा उसी
रास्ते से
टोपियां लेकर
बाजार बेचने
जा रहा था।
फिर यही घटना
घटी। उसी वृक्ष
के नीचे बेटा
सोया, क्योंकि
बेटे अक्सर
वहीं सोते हैं
जहां बाप सोते
रहे। वही करते
हैं जो बाप
करते रहे। बाप
के पीछे चलना
बेटे का धर्म
है। वहीं
टोकरी रख कर
विश्राम किया।
बंदरों ने भी
अपने बापों की
प्रक्रिया को
दुहराया। अब
तो वे बंदर न
थे, मर
चुके थे। नये
बंदर थे, वे
भी उतरे, उन्होंने
टोपियां पहन
कर जाकर वृक्ष
पर बैठ गये।
सौदागर ने आंख
खोली। याद आई
बाप की कहानी,
कि पिता ने
कहा था, ऐसा
हुआ था। तो
उसने भी अपनी
टोपी निकाल कर
फेंक दी। एक
बंदर नीचे
उतरा जिसके
पास टोपी नहीं
थी; उस
टोपी को भी
लेकर ऊपर चला
गया। क्योंकि
सौदागर ने ही
अपने बेटे को
कहानी नहीं
कही थी, बंदरों
ने भी अपने
बेटों को
कहानी कह दी
थी, कि आगे
खयाल रखना।
बंदर
जैसे नकलची
हैं, वैसा
आदमी है।
लेकिन बंदर
शायद सम्हल भी
जायें, आदमी
बिलकुल नहीं
सम्हलता।
बंदर सचेत हो
गये थे। अब
उन्होंने वही
भूल न की, जो
पहले कर चुके
थे। लेकिन
आदमी का बेटा
अब भी वही भूल
कर रहा था।
मर्यादा
ज्ञानी के लिए
बिलकुल नहीं
है लेकिन चारों
तरफ बंदरों का
समाज है।
तुम्हें देख
कर उसे
मर्यादा से
चलना पड़ता है।
अब हम
इस कहानी को
समझने की
कोशिश करें।
महान
सुलतान महमूद
एक दिन अपनी
राजधानी गजनी
की सड़कों पर
घूम रहे थे।
उन्होंने
देखा कि एक गरीब
भारिक, पीठ
पर भारी पत्थर
का बोझ लिए दम
तोड़ रहा है। उसकी
हालत से
द्रवीभूत
होकर महमूद ने
शाही ढंग से
हुक्म दिया, 'ओ भारिक!
पत्थर को नीचे
गिरा दे।'
एक
गरीब मजदूर
कहीं पत्थर को
ले जा रहा है।
पसीने से
तरबतर है, कमर टूटी जा
रही है फिर भी
ढो रहा है।
महमूद ने कहा,
पत्थर को
नीचे गिरा दे।
सम्राट की
आज्ञा हुई तो
उसने पत्थर
नीचे गिरा
दिया।
तुरंत
ही आज्ञा का
पालन हुआ; पर पत्थर उस
राह पर
राहगीरों की
बाधा बन कर
वर्षों पड़ा
रहा।
अब उसे
हटाये कोई
कैसे? सम्राट
की आज्ञा हुई
थी गिराने की।
जरूर कोई मतलब
रहा होगा।
इसी
तरह तो हम
अंधी-लकीरों
के पीछे चलते
हैं। यह तो
सूफियों की
कहानी है; सच हो, न
भी हो। लेकिन
ठीक ऐसी
वास्तविक
घटना इंग्लैंड
में घटी है।
विक्टोरिया
के महल के
नीचे एक आदमी
तीस साल तक
खड़ा रहा पहरे
पर। फिर वह
रिटायर हो
गया। अवकाश
प्राप्त हो
गया, तो
उसके बेटे को
वही नौकरी मिल
गई। वह भी बीस
साल तक वहां
खड़ा रहा। और
तब खोजबीन हुई
कि इस आदमी को
यहां खड़ा किसलिए
किया गया है? क्योंकि कुछ
काम तो इसके
पास है नहीं।
तब पता चला कि
पचास साल पहले
जब इसका बाप
नौकर था, तो
सीढ़ियों पर
पेंट किया गया
था। और कोई
आदमी सीढ़ियों
को न छूये
इसलिए इसके
बाप को खड़ा
किया गया था।
वह पेंट तो
कभी का सूख
चुका। वह तो
दो चार दिन
में सूख गया, लेकिन वह
आदमी खड़ा ही
रहा। क्योंकि
आज्ञा कभी दी
नहीं गई कि
यहां से हटे।
तीस साल उसने
नौकरी पूरी
की। बीस साल
उसके बेटे ने
भी नौकरी की।
वह तो जल्दी
हुई कि पकड़
गया। नहीं तो
सदियों तक कोई
न कोई आदमी
वहां खड़ा ही
रहता। अब उस
बेटे को भी
पता नहीं था
कि मैं किसलिए
खड़ा हूं। वह
अपनी तनख्वाह
ले लेता था हर
महीने जा कर
और हर महीने
सुबह वक्त पर
आकर खड़ा हो
जाता, सांझ
विदा हो जाता।
यह तो
इतिहासज्ञों
को खोजबीन
करनी पड़ी कि
यह आदमी ऐसा
पहली दफा खड़ा
क्यों किया
गया था? तब
पता चला कि
कभी पेंट किया
गया था सीढ़ी-दरवाजों
पर, और कोई
आदमी छू कर
कपड़े खराब न
कर ले, तो
एक आदमी खड़ा
किया था कि
लोगों को
सावधान कर दे।
और लोग
ऐसे हैं, यह
काम तो तख्ती
लिख कर भी हो
सकता था।
लेकिन अगर
तख्ती लगी हो
कि पेंट गीला
है मत छूओ,
तो तुम छू
कर देखोगे।
आदमी ही ऐसा
है! जहां
तख्ती लगी हो
कि छू कर मत देखो,
वहां तुम
जरूर छू कर देखोगे।
जिज्ञासा पैदा
होती है।
तुम्हारी सभी जिज्ञासायें
ऐसी व्यर्थ की
जिज्ञासायें
हैं। जिनमें
कोई भी सार
नहीं है।
इसीलिए आदमी
खड़ा किया था।
यह
पत्थर वर्षों
पड़ा रहा।
क्योंकि
सम्राट ने आज्ञा
दी है तो जरूर
कोई विशेष
अर्थ होगा।
अगर
तुम अपने जीवन
के नियमों की
खोज करो, तो
तुम उनमें से
नब्बे
प्रतिशत ऐसे
ही नियम पाओगे
जो कभी के
व्यर्थ हो गये
हैं। समय बीत
चुका। कभी
उनमें कोई
सार्थकता रही
होगी, अब
उनमें कोई
सार्थकता
नहीं है। अब
तुम राह पर
पड़े पत्थरों
की भांति उनको
स्वीकार कर
रहे हो। हटा
भी नहीं सकते,
क्योंकि
बड़ी प्राचीन
परंपरा है।
बड़ा पुराना
उनका सम्मान
है। बदल भी
नहीं सकते, क्योंकि तुम
बदलने वाले
कौन? जब
ज्ञानियों ने
दिए नियम, सम्राटों
ने दिए तो तुम
बदलने वाले
कौन? आदमी
इसी तरह
रोज-रोज दबता
जाता है, क्योंकि
नियम रोज बढ़ते
जाते हैं।
पुराने तो खींचने
ही पड़ते हैं, नई
परिस्थितियां
नये नियम बनाती
हैं। और
धीरे-धीरे ऐसी
स्थिति आ जाती
है कि
तुम्हारे सिर
शास्त्रों से,
परंपराओं
से, सिद्धांतों
से दब जाते
हैं। तुम चल
भी नहीं सकते।
तुम हिल भी
नहीं सकते।
तुम गौर से
देखो, तुम्हारे
चारों तरफ
बंधन खड़े हैं।
और अगर तुम एक-एक
बंधन के पीछे
खोजबीन करो तो
तुम कहीं न
कहीं इसी
कहानी को
पाओगे।
किसी
सम्राट ने दयावश
किसी मजदूर को
पत्थर गिरा
देने की आज्ञा
दी थी। आज्ञा
सिर्फ इसीलिए
थी कि वह
मजदूर इतना बड़ा
पत्थर ढो रहा
था कि मर
जाता। इससे
ज्यादा, तात्कालिक
से ज्यादा
उसका कोई
मूल्य नहीं था।
तत्क्षण से
ज्यादा कोई
मूल्य न था।
उस समय, उस
घड़ी मूल्यवान
था। लेकिन हम
सोचते हैं, जब एक दफे
कोई चीज
मूल्यवान रही
तो वह सदा मूल्यवान
रहनी ही
चाहिए।
इसे
ठीक से समझ लो; इस जगत का
कोई नियम, जो
आदमी बनाता है,
शाश्वत
नहीं है। इस
जगत के सभी
नियम क्षणिक
हैं। आदमी जो
भी बनाता है, वह क्षणिक
होगा।
तुम्हारे सब
शास्त्र, सब
परंपरायें
क्षणिक हैं, लेकिन तुम
इस भ्रांति
में हो कि वे
सभी सनातन हैं।
तब तुम ढोये
चले जाते हो।
तब बिना चिंता
किए--तब तुम यह
भी भूल जाते
हो कि इनका
अर्थ क्या है?
इतिहास के धुंधलके
में सत्य खो
जाता है।
सिर्फ एक
मुर्दा लीक हाथ
में रह जाती
है।
गौर से
अपने जीवन का
निरीक्षण
करना, वहां
तुम्हें बहुत
से पत्थर
मिलेंगे जो
किसी महमूद ने
गिरवा दिए।
उनकी वजह से
तुम चल भी नहीं
सकते। हिल भी
नहीं सकते।
करीब-करीब
हिलना असंभव
हो गया है।
कभी उनकी
सार्थकता थी,
लेकिन जिस
चीज में कभी
सार्थकता
होती है, उसका
यह अर्थ नहीं
है कि उसमें
सदा सार्थकता
हो।
परिस्थिति
सार्थक बनाती
है।
परिस्थिति तो रोज
बदल जाती है
और तुम्हारे
नियम बिलकुल
जड़ हैं। वे
कभी नहीं
बदलते।
मेरे
एक मित्र हैं, वे एक शोध के
सिलसिले में
तिब्बत गये।
ब्राह्मण हैं,
तो नियम से
ब्रह्म-मुहूर्त
में उठना और
स्नान करना, पूजा-पाठ
करना, फिर
भोजन करना।
तिब्बत में
बड़ी मुश्किल
में पड़ गये।
क्योंकि
जानलेवा ठंड!
तिब्बत के
धर्मग्रंथों
में तो लिखा
है कि हर आदमी
को कम से कम साल
में एक बार
स्नान जरूर
करना चाहिए।
बस, इतना
ही नियम है, क्योंकि ठंड
ऐसी है। और
प्रयोजन भी नहीं
है। क्योंकि न
पसीना है, न
धूल है, न
गंदगी है, तो
रोज सुबह शरीर
को अकारण कष्ट
देना। और खतरनाक
है सुबह शरीर
को खोलना पांच
बजे। कि उससे
तो हृदय की
धड़कन ही बंद
हो जाये, खून
जम जाये, बर्फीली सर्दी है।
वे तीन
दिन रुके और
भाग खड़े हुए।
क्योंकि उन्हें
रोज तो...! वह शोध
कार्य पूरा
नहीं हो सका।
क्योंकि यह
कैसे हो सकता
है? जो सदा से
चला आया, कि
सुबह पांच बजे
स्नान करके
पूजा-पाठ करके,
फिर ही कुछ
भोजन किया जा
सकता है। वह
तो पूरा करना
ही पड़ेगा। वे
बड़े विद्वान
हैं। लेकिन जब
वे लौट आये और
मैंने पूछा
कैसे इतनी
जल्दी लौट आये?
क्योंकि कम
से कम एक वर्ष
उन्हें वहां
रहना था। तो
मैंने कहा कि
मुझे
तुम्हारी
बुद्धि पर भी
शक होता है।
तुम
बुद्धिमान तो
हो ही नहीं, तुममें
बुद्धि नाम
मात्र को भी
है, इस पर
भी मुझे शक
होता है।
लेकिन
ऐसा कुछ
उन्होंने ही
किया ऐसा नहीं
है। मैं बोधगया
में था, तो
तिब्बती लामा
मुझसे मिलने
आते। उनके पास
बैठना असंभव
है, क्योंकि
ऐसी भयंकर
दुर्गंध आती
है। वे भी वही नियम
पालन कर रहे
हैं कि साल
में एक दफा
स्नान करना
काफी
है--हिंदुस्तान
में! न वे कपड़े
बदलते हैं। और
कपड़े भी वे कई
पहने रहते हैं
एक के ऊपर एक।
वे भी अपने
नियम से चल
रहे हैं।
सारी
दुनिया में हर
आदमी अपने
नियम से चल
रहा है--परिस्थिति
बदल जाये तो
भी! भारत आज
वही नहीं है, जो दस हजार
साल पहले था।
वही नहीं है, जो वेद के
समय में था।
वही नहीं है, जो बुद्ध के
समय में था।
सब कुछ बदल
गया, लेकिन
आदमी का मन
बिलकुल जड़ है।
और जब आदमी का
मन बदलाहट के
साथ नहीं बदलता,
तो समझना
मुर्दा है। जब
बदलाहट के साथ
बदल जाता है
तभी जीवित
होता है।
इसलिए
प्रतिपल
प्रवाहित मन
चाहिए।
प्रतिपल नदी
की धार की
तरह--जीवंत, प्रवाहमान,
डायनेमिक। रुक जाये, बरफ की तरह
जम जाये, डबरा
बन जाये, बहे
न, तो
गंदगी पैदा
होती है।
इस
दुनिया में
इतनी गंदगी है
उसमें दो कारण
हैं। ज्यादा
गंदगी उन
लोगों के कारण
है जिनके नियम
जड़ हैं और जो डबरे बन
गये हैं। और
थोड़ी गंदगी
उनके कारण है
जो कि किसी भी
नियम को नहीं
मानते और सारे
नियम तोड़ देते
हैं। दुनिया
में दो तरह के
अपराधी हैं।
एक तो वे
अपराधी हैं जो
जड़ नियमों से जकड़
गये हैं; और
एक वे अपराधी
हैं जो आज के
नियम को भी
मानने को
तैयार नहीं।
ये दो
अतियां हैं।
एक सब कुछ
मानने को
तैयार है, उसमें से
कुछ भी छोड़ेगा
नहीं। और एक
कुछ भी मानने
को तैयार नहीं
है। वह यह भी
मानने को तैयार
नहीं है कि
सड़क पर बायें
चलना है।
क्योंकि वह कहता
है, हम
स्वतंत्र
हैं।
मैंने
सुना है रूस
जब स्वतंत्र
हुआ, उन्नीस
सौ सत्रह में
क्रांति के
बाद, तो एक
बूढ़ी महिला
सड़क पर बीच
में चलने लगी।
पुलिसवाले ने
कहा कि 'मां
किनारे से चलो,
बायें चलो।'
उसने कहा, 'छोड़ो बकवास! वह
जार के जमाने
का नियम था, अब हम स्वंतत्र
हैं और जहां
जिसको चलना है
वहां चलेगा।'
एक इस
तरह के लोग
हैं। और एक वे
लोग हैं, जो
पत्थर की लकीर
बना लेते हैं
जीवन में। ये
दोनों खतरनाक
हैं। ये दोनों
अतियां हैं, जड़ता की तरफ ले
जानेवाली
हैं। चाहिए
जीवंत, लोचपूर्ण,
फ्लेक्सिबल चित्त, जो
हर स्थिति के
अनुसार ढल
जाये और हर
स्थिति के
प्रति
संवेदन-शील
हो। जो तिब्बत
में जाये तो
पांच बजे उठ
कर स्नान न
करने लगे। और
जो भारत में
आये तो पांच
बजे उठकर रोज
स्नान करने
लगे। लोचपूर्ण
चित्त चाहिए।
जितना लोचपूर्ण
चित्त होगा
उतने ही तुम
जीवंत हो।
बच्चे और बूढ़े
में यही फर्क
है। बच्चा
जीवित है, क्योंकि
उसका चित्त लोचपूर्ण
है। बूढ़ा मृत
है, क्योंकि
सब जड़ हो गया, सब सिकुड़ कर
पत्थर हो गया।
सब चीजें जम
गईं। बूढ़े को
झुकाना
मुश्किल है।
बच्चे रोज
गिरते हैं घर
में, तुमने
देखा! अगर
इतना बूढ़ा
आदमी गिरे, तो दो दिन
जिंदा नहीं रह
सकता। सब तरफ फ्रैक्चर
हो जायेंगे।
अस्पताल में
पड़ा रहेगा। और
बच्चा रोज
गिरता है, चोट
नहीं खाता, क्या बात है?
लोचपूर्ण है। और जैसे
शरीर की
हड्डियां सूख
जाती हैं, मांस-पेशियां
सख्त हो जाती
हैं, उनसे बुढ़ापा
आता है। ऐसे
ही और भी एक
गहरा बुढ़ापा
है, जो मन
का है। जब मन
की सब मांसपेशियां
सूख जाती हैं,
हड्डियां
जड़ हो जाती
हैं, जब कि
तुम हिल भी
नहीं सकते, वह एक तरह का
पक्षाघात है।
वह एक तरह की पैरेलिसिस
है।
पत्थर
वहीं पड़ा रहा।
राहगीरों को
मुसीबत हो गई।
लेकिन सम्राट
की आज्ञा से
जो पत्थर गिरा
है, उसे कोई
साधारण आदमी
तो उठा नहीं
सकता। सम्राट
की ही आज्ञा
वापिस चाहिए।
अंत
में अनेक
नागरिकों ने
बादशाह से
प्रार्थना की
कि वे उस
पत्थर को
हटाये जाने का
हुक्म निकालें।
यह बात
ही
मूर्खतापूर्ण
थी। सम्राट से
प्रार्थना
करने की कोई
जरूरत ही नहीं
थी। यह बात ही
व्यर्थ थी।
क्योंकि
वस्तुतः यह
कोई आज्ञा न
थी। और न कोई
सदा के लिए
बनाया गया
नियम था। यह
तो एक क्षण की
परिस्थिति
थी। सामयिक थी
बात। पत्थर
सदा के लिए
वहां पड़ा रहे, ऐसी कोई
आज्ञा भी न दी
गई थी। भारिक
को कहा था पत्थर
गिरा दे, मर
जायेगा। घड़ी
भर बाद दो
आदमी उस पत्थर
को हटा देते, तो सम्राट
कुछ पता लगाने
भी उत्सुक
नहीं था। सवाल
भी नहीं था।
लेकिन
जब वह कई वर्ष
तक पड़ा रहा, किसी ने उसे
हटाया नहीं, और उसके बाद
भी नागरिक डेपुटेशन
लेकर पहुंचे
महमूद के पास,
कि आप कृपा
करें और आज्ञा
दें, ताकि
उसे हटा दिया
जाये। तो फिर
महमूद ने सोचा
कि अब हटाना
उचित होगा या
नहीं। क्योंकि
जहां लोग इतने
अंधे हों, वहां
आंखवाले
को एक-एक कदम
सम्हाल कर
रखना चाहिए।
प्रशासकीय
बुद्धि से
विचार कर
महमूद ने कहा, 'जो हुक्म से
किया गया था, वह वैसे ही
समान हुक्म से
रद्द नहीं
किया जा सकता।'
क्यों?
'क्योंकि
उससे लोग यही साचेंगे
कि शाही फरमान
झक से प्रेरित
होते हैं।
पत्थर जहां है
वहीं रहेगा।'
हटा
दिया गया होता
पत्थर, तो
कोई सवाल न
था। पूछने गये
उससे पता चलता
है कि तुम
खतरनाक लोग
हो। अगर एक
पत्थर
तुम्हें हटाने
की आज्ञा दी
जाये तो तुम
इससे यही
निष्कर्ष
लोगे कि
सम्राट की
आज्ञाओं का
कोई मूल्य नहीं
है, झक से
पैदा होते
हैं। तब तुम
दूसरे नियम भी
तोड़ दोगे जो
कि पत्थर नहीं
हैं। तो इस एक
पत्थर के पड़े
रहने से इतनी
अड़चन नहीं है,
जितनी कि सब
नियमों के टूट
जाने से अड़चन
होगी। तुम
खतरनाक आदमी
हो। और यह
ध्यान रख लेने
जैसा है कि
आदमी की
श्रद्धा या तो
अखंड होती है
या होती ही
नहीं। खंडित
श्रद्धा जैसी
कोई चीज
दुनिया में
नहीं है।
यह इस
कहानी का
प्राण है।
अखंड श्रद्धा
होती है, खंडित
श्रद्धा जैसी
कोई चीज नहीं
होती। और अगर
एक किनारे से
श्रद्धा टूट
जाये, तो
सब किनारे से
टूट जाती है।
अगर किसी आदमी
में तुम्हें
एक बात पर अविश्वास
आ जाये, तो
सभी बातों पर
अविश्वास आ
जाता है।
इसलिए
धार्मिकों के
सामने बड़ी
जटिल समस्या है।
जैसे जब पहली
दफा कॉपरनिकस
ने कहा कि
सूरज पृथ्वी
का चक्कर नहीं
लगाता, पृथ्वी
सूरज का चक्कर
लगाती है; तो
सारी ईसाइयत
ने विरोध
किया। ऐसा
नहीं है कि
ईसाई पोप इतनी
बात नहीं समझ
सका कि कॉपरनिकस
जो कह रहा है
वह सही है। यह
बात सही थी।
इसमें कोई
संदेह न था।
ये वैज्ञानिक
प्रमाण इसके
लिए उपलब्ध हो
गये थे कि
सूरज चक्कर
नहीं लगा रहा है,
पृथ्वी
चक्कर लगा रही
है। लेकिन फिर
भी पोप ने कहा
कि तुम क्षमा
मांग लो। घुटने
टेक कर
पश्चात्ताप
कर लो कि
तुमसे भूल हो
गई।
क्यों? क्योंकि पोप
ने कहा कि
असली सवाल यह
है ही नहीं कि
पृथ्वी चक्कर
लगा रही है कि
सूरज चक्कर लगा
रहा है। लेकिन
बाइबिल में
लिखा है कि
सूरज चक्कर
लगा रहा है।
और अगर एक बात
गलत हो गई तो
जीसस पर पूरी
श्रद्धा समाप्त
हो जायेगी।
क्योंकि
श्रद्धा अखंड
होती है, खंडित
नहीं होती।
अगर जीसस एक
बात में गलती
कर सकते हैं
तो और बातों
में क्यों
नहीं? और
अगर ईश्वर के
पुत्र हैं और
इतना भी पता
नहीं है कि
चक्कर पृथ्वी
लगा रही है कि
सूरज, तो
और क्या पता
होगा? कॉपरनिकस को पता चल
गया और जीसस
को पता नहीं
है? तो कॉपरनिकस
से भी जिनकी
बुद्धि छोटी
सिद्ध हो
जाये--एक मामले
में भी, उनकी
दूसरी बातों
में कितने दूर
तक साथ जाना उचित
है? संदेह
खड़ा होगा।
अब यह
बड़ी सोचने की
बात है कि
क्या लोगों के
मन में संदेह
खड़ा करना इतना
मूल्यवान है? या पृथ्वी
चक्कर लगाती
है कि सूरज, यह मूल्यवान
है? जो लोग
भी बहुत ऊपर
से देखेंगे
उनको लगेगा, पोप गलती कर
रहा है। सत्य
को तो स्वीकार
करना चाहिए।
और पोप ने
चाहे स्वीकार
न भी किया हो, इन दो सौ, तीन
सौ वर्षों में
आखिर हमें
स्वीकार करना
ही पड़ा। सत्य
से बचा भी
नहीं जा सकता।
लेकिन पोप ने
जो शंका की थी
वह सही सिद्ध
हुई। कॉपरनिकस
सही सिद्ध
नहीं हुआ, पोप
की शंका ही
सही सिद्ध
हुई।
जैसे-जैसे यह
बात स्वीकृत
हो गई, वैसे-वैसे
जीसस के वचनों
पर श्रद्धा
चली गई। अब
सवाल यह है कि
जीसस के वचनों
पर जो श्रद्धा
थी वह
तुम्हारे
जीवन को एक
परम आनंद से
भर सकती थी।
वह परम आनंद
पृथ्वी चक्कर
लगाती है, इससे
नहीं उपलब्ध
होने वाला है।
तुमने पाया बहुत
कुछ नहीं, खोया
बहुत कुछ।
महमूद
के सामने भी
यही सवाल खड़ा
हुआ कि ये लोग जो
पत्थर को अपने
आप हटा न सके, बिलकुल अंधे
हैं। पत्थर
किसी
अभिप्राय से
गिराया भी
नहीं गया था।
अभिप्राय था,
तो क्षणिक
था। सिर्फ उस
मजदूर को
सहायता पहुंचाने
की दृष्टि थी।
वह दबा जा रहा
था, मरा जा
रहा था। और यह
कोई इरादा न
था कि पत्थर सदा
वहां पड़ा रहे।
लेकिन वर्षों
पड़ा रहा। और
लोगों ने सोचा
कि इसके भीतर
जरूर कोई
अभिप्राय
होना चाहिए।
अब ये लोग जो
इतने मूढ़
हैं, अगर
इनसे कहा जाये
कि पत्थर हटा
दो, तो
निश्चित ही ये
मूढ़
दूसरा नतीजा
लेंगे। और वह
नतीजा यह होगा
कि राजा की
आज्ञाओं का
कोई अर्थ नहीं
है। यह तो ऐसे
ही है कि
पत्थर गिरा दो,
उठा दो। आज
हां, कल
नहीं। इनकी
बात का कोई
भरोसा नहीं।
और दूसरे
नियमों का क्या
होगा?
इसलिए
महमूद ने सोचा
और कहा कि जो
हुक्म से किया
गया वह वैसे
ही समान हुक्म
से रद्द नहीं
किया जा सकता।
क्योंकि उससे
लोग यही
सोचेंगे कि शाही
फरमान झक से
पैदा होते
हैं। पत्थर
जहां है वहीं
रहेगा।
क्योंकि अब सवाल
पत्थर के हटने
न हटने का
नहीं है, न
सुविधा-असुविधा
का है। अब
सवाल यह है कि
पत्थर के साथ
राजा के और
नियम भी हट
जायेंगे। अब तो
पत्थर के साथ
ही वे रुक
सकते हैं।
इसलिए
क्षुद्र
बातों पर भी
जोर देना पड़ा
है धर्मों को।
वे क्षुद्र
बातें
मूल्यवान
नहीं हैं, वह तुम्हारी
वजह से हैं।
क्योंकि
तुम्हारे लिए
जरा भी एक चीज
टूटी, कि
सब टूटता है।
और तुम इतने
बुद्धिमान
नहीं हो कि
व्यर्थ को
व्यर्थ की तरह
देख सको और
सार्थक को
सार्थक की
तरह। तब किसी
से पूछने की
जरूरत नहीं है,
व्यर्थ को
तुम खुद ही
हटा दो। तुम
पूछने जाते हो
उससे ही पता
चलता है कि
तुम्हारे पास
इतना बोध भी नहीं
है कि राह पर
गिरे पत्थर को
तुम हटा सको।
तुम बिलकुल बोधहीन
हो। और जो बोधहीन
हैं उनके साथ
बड़े सोचकर
चलना पड़ेगा।
कितनी परंपरायें
तुम माने चले
जा रहे हो। और
उनका सारा बोध
खो गया है, अर्थ खो गया
है। तुम भी
जानते हो वे
मूर्खतापूर्ण
हैं, फिर
तुम क्यों
उन्हें ढो रहे
हो? क्योंकि
राजाज्ञा
नहीं मिली है
उनको हटाने की।
कौन देगा
राजाज्ञा? वेद
के ऋषियों ने
अगर कोई नियम
बनाये थे तो
अब वेद के ऋषि
नहीं हैं, जो
आज्ञा दे
सकें। वह तो
महमूद जिंदा
था, तो भी
उसने आज्ञा न
दी। और वेद के
ऋषि तो जिंदा
नहीं हैं, इसलिए
अब कौन आज्ञा
देगा? मनु
ने जो स्मृति
बनाई है, तुम
उसे आज भी
माने जा रहे
हो। अब मनु
मौजूद नहीं है,
आज्ञा को
रद्द कौन
करेगा? लेकिन
तुम्हारी
बुद्धिमत्ता
इतनी भी नहीं
है कि तुम देख
सको कि बात
कितनी व्यर्थ
हो गई है।
हरिजन
समाप्त हो
जाना चाहिए।
मनु की आज्ञा
से जी रहा है।
तुम्हारे पास
जरा भी आंखें
हों तो तुम
देख सकते हो
कि अब दुनिया
में कोई वर्ण
की व्यवस्था
टिक नहीं
सकती। सड़
गई! वह प्रयोग
असफल गया। बड़ा
महान प्रयोग
था, लेकिन
असफल गया। वह
पूरा नहीं हो
सका। और अब पूरा
नहीं हो
सकेगा। क्योंकि
अब सारे जगत
का मन समता के
विचार से भरा
है। इसलिए अब
दुनिया में जो
भी प्रयोग हो
सकते हैं--सफल
या असफल, वे
समता के
प्रयोग
होंगे। अब
वैषम्य की कोई
धारणा चल नहीं
सकती। वह
परिस्थिति
बदल गई है। मनु
के वक्त एक
महान प्रयोग
चल रहा था। वह
इससे कम महान
प्रयोग नहीं
था, जो
माक्र्स के
हिसाब से चल
रहा है।
समानता का प्रयोग
चल रहा है। तब
एक और दूसरा
प्रयोग चल रहा
था, वह
प्रयोग भी
इतना ही महान
था, वह
असफल गया। तुम
उसे पूरा नहीं
कर पाये। वह प्रयोग
मैं तुमसे
कहूं, तो
तुम्हें थोड़ा
खयाल आ सके।
वह
प्रयोग यह था, और वह
प्रयोग बहुत
प्रत्यक्ष
में नहीं है, क्योंकि वह
आधार धर्म था
उसका; और
अप्रत्यक्ष
और अदृश्य की
दिशा थी। अगर
समाज को
वर्णों में
बांट दिया
जाये; और
चार तरह के
व्यक्तित्व
हैं दुनिया
में। इस संबंध
में
वैज्ञानिक भी
राजी हैं कि
चार तरह के
लोग हैं।
इसलिए
हिंदुओं की
गहरी चिंतना
का विरोध नहीं
है। चार तरह
के लोग निश्चित
हैं।
शूद्र
वह है, जो
परम आलस्य से
भरा है। जिसे
कुछ करने की
इच्छा नहीं
है। कुछ होने
की इच्छा नहीं
है। खाना मिल
जाये, वस्त्र
मिल जायें, बस काफी है।
वह जी लेगा।
और जो इस तरह
जी रहा है, वह
शूद्र है।
तुममें से
अधिक लोग
शूद्र की
भांति जी रहे
हैं। तुम किसी
और को शूद्र
मत कहना। तुम
क्या कर रहे
हो? खाना-कपड़े,
इनको कमा
लेना। रात सो
जाना, सुबह
उठ कर फिर
कमाने में लग
जाना। जन्म से
लेकर मृत्यु
तक तुम्हारी
प्रक्रिया
शूद्र की है।
इसलिए मनु
कहते हैं कि
हर आदमी शूद्र
की भांति पैदा
होता है। सब
आदमी शूद्र की
भांति पैदा
होते हैं।
ब्राह्मणत्व
तो एक उपलब्धि
है।
दूसरा
वर्ग है, जिसके
लिए जीवन लग
जाये लेकिन धन
इकट्ठा करना है,
पद इकट्ठा
करना है, वह
वैश्य है।
चाहे सब खो
जाये, आत्मा
बिक जाये उसकी,
कोई हर्जा
नहीं है, लेकिन
तिजोरी भरनी
चाहिए। आत्मा
बिलकुल खाली
हो जाये, लेकिन
तिजोरी भरी
होनी चाहिए।
बैंक-बैलेंस असली
परमात्मा है।
धन असली धर्म
है। वह भी
तुम्हारे
भीतर है। उसको
मनु ने वैश्य
कहा है।
इस
वैश्य शब्द को
थोड़ा सोचो। जो
स्त्री अपने शरीर
को बेचती है, उसे हम
वेश्या कहते
हैं। और जो
अपनी आत्मा को
बेचता है उसे
मनु ने वैश्य
कहा है। वह
वेश्या से
बुरी हालत में
है।
एक
दूसरा वर्ग है, जिसकी
जिंदगी में
अहंकार के
सिवाय और कुछ
भी नहीं है।
जो किसी भी
तरह, 'मैं
सब कुछ हूं', बस, इस
मूंछ पर ही
ताव देता रहता
है। वह
क्षत्रिय है।
वह हमेशा
तलवार पर धार
रखता रहता है।
उसको अहंकार
के सिवाय कोई
रस नहीं। धन
जाये, जीवन
जाये, सब
दांव पर लगा
देगा। लेकिन
दुनिया को
दिखा देगा, कि मैं कुछ
हूं। ना-कुछ
नहीं। वह एक
वर्ग है।
और एक
चौथा वर्ग है, जो सिर्फ
ब्रह्म की
तलाश में है।
जो कहता है: और
सब व्यर्थ है।
न तो आलस्य का
जीवन अर्थपूर्ण
है, क्योंकि
वह प्रमाद है।
होश चाहिये। न
धन के पीछे
दौड़
अर्थपूर्ण है,
क्योंकि वह
कहीं भी नहीं
ले जाती। उससे
कोई कहीं
पहुंचता
नहीं। धन तो
मिल जाता है, आत्मा खो
जाती है। नहीं,
ब्रह्म से
कम पर राजी
नहीं होना है।
तीसरी दौड़
अहंकार की दौड़
है, कि मैं
सब कुछ हूं।
ब्राह्मण
कहता है, तुम
कुछ भी नहीं
हो, तभी तो
जीवन का परम
धन उपलब्ध
होगा। जब तुम
नहीं रहोगे, तभी तो
ब्रह्म
उतरेगा।
आलस्य तोड़ना
है शूद्र जैसा;
धन की दौड़ छोड़नी है
वैश्य जैसी; अहंकार
छोड़ना है
क्षत्रिय
जैसा; तब
कभी कोई
ब्राह्मण हो
पाता है।
ये चार
व्यक्तित्व
के ढंग हैं।
ऐसे चार तरह
के लोग हैं
जमीन में। इन
चार में तुम
बराबर बांट
लोगे। पांचवां
आदमी तुम न
पाओगे। और चार
से कम में भी
काम न चलेगा, तीन से भी
काम न चलेगा।
इसलिए दुनिया
में जितने भी
मनुष्यों को
बांटने के
प्रयोग हुए
हैं, सबने
चार में बांटा
है। जुंग ने
अभी-अभी बांटा,
उसने भी चार
में ही बांटा;
नाम कुछ भी
दिए हों।
इसलिए बात तो
बड़ी गहरी थी।
फिर
हिंदुओं ने यह
देखा कि जब एक
आत्मा मरती है, एक शरीर को
छोड़ती है, तो
अगर वह शूद्र
की आत्मा रही
हो पूरे जीवन,
तो वह पुनः
ऐसे घर की खोज
करती है, जो
उसे फिर से
शूद्र होने का
मौका दे। जो
आत्मा
ब्राह्मण की
आत्मा रही हो
जीवन भर, वह
पुनः ऐसे
वातावरण की
खोज करती है
जहां उसे फिर
से
ब्राह्मणत्व
को बढ़ाने, निखारने का मौका
मिले।
हिंदुओं ने एक
बड़ा अनूठा
प्रयोग किया
और वह यह, कि
अगर हम समाज
को चार
हिस्सों में
बांट दें तो
आत्माओं को
चुनाव करने की
बड़ी सुविधा हो
जायेगी। और तब
धीरे-धीरे अड़चनें
कम हो जायेंगी।
क्योंकि
अच्छा होगा कि
ब्राह्मण
ब्राह्मण के
घर पैदा हो, तो आत्मा को
गति मिलेगी।
ब्राह्मण
शूद्र के घर
में पैदा हो
जाये, तो
अड़चन होगी।
क्योंकि
चारों तरफ का
वातावरण विपरीत
होगा। वे सब शूद्र
होंगे और इसको
मूढ़
कहेंगे।
मैंने
सुना है, एक
यहूदी फकीर तालमुद पर
व्याख्या लिख
रहा था बीस
सालों से।
भूखा मरता था
लेकिन तालमुद
की व्याख्या
में लगा
था--यहूदियों
की गीता। सारा
गांव उसे
सम्मान करता
था, लेकिन
सारा गांव मन
ही मन सोचता
था, पागल
है। क्योंकि भोजन
घर में नहीं
है, कपड़े-लत्ते
नहीं हैं, बीस
साल से वे ही
कपड़े पहने हुए
है। बीस साल
से घर में कोई
रंग-रोगन नहीं
हुआ। भूखा
मरता है, भीख
से जीता है, लेकिन बस, दिन-रात
चौबीस घंटे तालमुद की
व्याख्या लिख
रहा है।
आखिर
गांव के धनपति
ने, जो उसका
सम्मान भी
करता था और
दया भी, उसे
बुलाया और एक
दिन कहा कि
मेरी बात सुनो,
अगर तुमने
यह तालमुद
की व्याख्या
लिख भी ली, तो
क्या मिल
जायेगा? उस
आदमी ने गौर
से इस धनपति
को देखा और
उसने कहा कि
और अगर मैं
इसे न लिखूं,
तो मुझे कुछ
मिल जायेगा? तुम कहते हो,
तालमुद की
व्याख्या
लिखने पर मुझे
क्या मिल
जायेगा; मैं
तुमसे पूछता
हूं, अगर
मैं न लिखूं,
इसे छोड़ दूं
तो कुछ पक्का
है मिल जाने
का? तुम्हारे
जैसा धन मैं
इकट्ठा कर लूं,
तो मुझे कुछ
मिल जायेगा?
कहते
हैं, धनपति
मुसीबत में पड़
गया। क्योंकि
धन तो उसने इकट्ठा
कर लिया था, मिला कुछ भी
नहीं था। और
उस ब्राह्मण
ने, उस
यहूदी फकीर ने
कहा, 'तुम
धन इकट्ठा कर
लिए हो और
तुम्हें कुछ
भी नहीं मिला।
मेरी
व्याख्या अभी
पूरी नहीं हुई,
लेकिन मैं
तुमसे कहता
हूं काफी मुझे
मिल गया है।
लेकिन किसी और
आयाम में है
वह संपदा।'
तो
हिंदुओं ने
चार हिस्सों
में बांट दिया
समाज, ताकि
आत्मा को
सुविधा हो
जाये खोजने
की। बड़ा प्रयोग
था, लेकिन
वह असफल गया।
वह सफल नहीं
हो पाया। बड़े प्रयोग
अक्सर असफल
जाते हैं।
क्योंकि आदमी
इतना क्षुद्र
है। छोटे
प्रयोग भी सफल
नहीं हो पाते,
तो बड़े
प्रयोग तो
कैसे सफल
होंगे? वह
आध्यात्मिक
प्रयोग था।
अब
सारी दुनिया
समता के खयाल
से भरी है। यह
आर्थिक
प्रयोग है। यह
भी बड़ा प्रयोग
है। उससे तो
बड़ा नहीं, लेकिन यह भी
सफल होता नहीं
दिखाई पड़ता।
रूस में असफल
हो गया है।
कहीं और सफल
होगा इसकी आशा
नहीं है, लेकिन
प्रयास जारी
है। अब भी जो
मनु को खींच रहा
है, जब कि
हवा माक्र्स
से भर गई है, उसे पता
नहीं कि
दुनिया बदल गई
है। वह किन
नियमों को
खींच रहा है।
अब वे नियम
व्यर्थ हो गये
हैं। वे किसी
प्रयोग के
नियम थे।
ऐसा
समझो कि बैलगाड़ी
से हम चलते थे
और अब हवाई
जहाज से तुम
चल रहे हो।
लेकिन एक बैलगाड़ी
का चाक अपने
साथ रखे हुए
हो, क्योंकि
तुम कहते हो
यह बड़ा जरूरी
है। यह जरूरी
था। यह बैलगाड़ी
में जरूरी था।
लेकिन अब बैलगाड़ी
में कोई चल ही
नहीं रहा। न
तुम खुद चल
रहे हो। हवाई
जहाज पर सवार
हो, लेकिन
यह सोच कर कि
बाप-दादे
हमेशा एक स्पेयर
चाक रखते थे।
कभी टूट जाये,
कुछ हो जाये,
इसलिए तुम
भी रखे हुए
हो। और इसको
ढो रहे हो और इससे
परेशान हो।
थके जा रहे
हो।
अक्सर
तुम्हारे
नियम ऐसे ही
हैं जो कभी
कारगर थे।
किसी और यंत्र
में सार्थक
थे। अब वह
यंत्र ही जा
चुका। अब वह
व्यवस्था न
रही। अब सब
तरफ हवा बदल
गई और तुम
इंतजाम
पुराना ढो रहे
हो। और जीओगे
तो तुम नये
ढंग से, इसलिए
बड़ी अड़चन पैदा
होती है।
महमूद
के गांव में
यही हुआ होगा--गजनी में।
सड़क पर पत्थर
पड़ा था।
राजाज्ञा से
गिरा था इसलिए
हटाये कौन? और मैं
तुमसे कहता
हूं अगर लोगों
ने चुपचाप हटा
दिया होता तो
महमूद इतना
नासमझ नहीं था
कि कहता कि
तुमने क्यों
हटाया?
मैं
तुमसे कहता
हूं कि अगर
तुम हटा दो
मनु की स्मृति
को, तो मनु की
आत्मा जहां भी
होगी प्रसन्न
होगी। क्योंकि
तुम जो कर रहे
हो, वह मूढ़ता
है। और मनु
किसी तरह की मूढ़ता के
लिए राजी नहीं
हो सकते। उन
जैसे बहुत
थोड़े बुद्धिमान
लोग जमीन पर
हुए हैं। मगर
अब कोई उपाय
नहीं है। अब
तो मनु अगर आ
भी जायें और तुमसे
कहें कि अब
मैं दुबारा
लिखता हूं
स्मृति तो तुम
कहोगे, तुमसे
हमारा क्या
संबंध? वह
जो हमारी
पुरानी
स्मृति है, और पुराने
मनु हैं, वह
तुम नहीं हो।
तीर्थंकर रोज
आते हैं, लेकिन
तुम पुराने
तीर्थंकर से
इतने भरे हो
कि तुम नये
तीर्थंकर को
सुन नहीं
पाते। मनु रोज
पैदा होते हैं,
लेकिन
पुराने मनु से
खाली हो जाये
मन, तो नये
मनु की भाषा
तुम्हारी समझ
में आये।
प्रशासकीय
बुद्धि से
विचार कर
सुलतान ने कहा, 'जो हुक्म से
किया गया है, वह वैसे ही
समान हुक्म से
रद्द नहीं
किया जा सकता।
क्योंकि उससे
लोग यही
सोचेंगे कि
शाही फरमान झक
से प्रेरित
होते हैं।
पत्थर जहां है
वहीं रहेगा।'
इस
जीवन में
चुनाव अक्सर
छोटी बुराई और
बड़ी बुराई के
बीच है। पत्थर
रास्ते पर है
इससे अड़चन है, असुविधा है,
यह छोटी
बुराई है।
महमूद
निश्चित
बुद्धिमान आदमी
है। उसने सोचा,
इसको हटा
देने से राजा
पर भरोसा उठ
जाता है। और
एक बार राजा
पर से भरोसा
उठ जाये, तो
उसे लौटाना
असंभव है।
यही तो
हो रहा है
सारी दुनिया
में। लेकिन
तुम देखते
नहीं और तब
बड़ी हैरानी की
घटनायें घटती हैं।
इस
मुल्क में
उदाहरण के लिए, गुलामी थी, अंग्रेजों के
खिलाफ मुल्क लड़ा। वह
लड़ना तो
बिलकुल जरूरी
था, लेकिन लड़नेवालों
ने और लड़ाने
वालों नेताओं
ने कभी यह न
सोचा कि एक
बार राज्य पर
भरोसा उठ जाये
तो तुम इसे
वापिस न ला
सकोगे।
इसलिए
आजादी तो आ गई, लेकिन राज्य
पर भरोसा
वापिस नहीं
आया। आज जो उपद्रव
है, वह
उसका परिणाम
है। एक दफा
भरोसा उठ जाये
तो लौटाना कुछ
आसान है? तुम्हारे
बड़े नेता
जिन्होंने
आजादी लाने के
लिए तुम्हें लड़ाया, उन्हें
किसे भी इस
बात का बोध
नहीं था कि इस
आजादी की लड़ाई
में राज्य पर
भरोसा भी अपने
आप खो जायेगा।
आजादी आ गई।
अब तकलीफ यह
है कि राज्य पर
किसी का भरोसा
नहीं है।
राज्य का कोई
सम्मान नहीं
है। सिपाही को
तुम देखते हो
खड़ा हुआ
दुश्मन की
तरह। वह तुम
सीख गये
भलीभांति। अब
बहुत मुसीबत
है। अब
व्यवस्था
लानी मुश्किल
है। अब इस
मुल्क में
व्यवस्था
लानी बड़ी कठिन
बात है। और एक
बार तुमने
लड़ाई सिखा दी,
तो लड़ाई
जारी है। हुकूमत
तो बदल गई। अब
तुम्हारी ही
हुकूमत है, लेकिन लड़ाई
जारी है।
जयप्रकाश
नारायण जो
ब्रिटिश
राज्य में
करते, वह अब
भी कर रहे
हैं। जो
मूर्खता
दुश्मन के साथ
क्षम्य थी, वही मूर्खता
अपनों के साथ
जारी है। आजादियां
अक्सर अराजकताएं
बन जाती हैं।
इसलिए मैं
उसको कुशल नेता
कहता हूं जो
आजादी के लिए
भी लड़े और
आजादी को
अराजकता न
बनने दे।
तुम्हारे
नेताओं में से
किसी ने भी
इतनी कुशलता
प्रदर्शित
नहीं की।
उन्होंने
तुम्हें भड़का
तो दिया, लड़ा भी
दिया, लेकिन
उनमें कोई भी
दूरदर्शी न था
कि यह देख ले, कि आजादी
आने के बाद
फिर क्या करोगे?
फिर राज्य
को
पुनर्स्थापित
कैसे करोगे?
महमूद
यही कह रहा
है--कि नहीं, पत्थर अब
वहीं रहेगा।
राज-आज्ञा का
सम्मान बना
रहना उचित है।
पत्थर का
रास्ते पर
अड़चन की तरह
पड़े रहना छोटी
असुविधा है, छोटी बुराई
है। सिलसिला
एक बार शुरू
हो, तो
नियम समाप्त
होता जाता है।
नीत्से
ने घोषणा की
कि ईश्वर मर
गया है। और जब ईश्वर
मर जाये तो
राजा ज्यादा
दिन तक जिंदा
नहीं रह सकता।
क्योंकि
समस्त दुनिया
के राजा ईश्वर
के प्रतिनिधि
थे। ईश्वर मर
गया, अब नंबर
राजा का है।
राजा भी मर
गया दुनिया से
और जब राजा मर
जाये तो पिता
बहुत दिन तक
जिंदा नहीं रह
सकता।
क्योंकि पिता
घर में राजा
की हैसियत था।
अब
पिता मर रहा
है। अब तुम
चीख-पुकार
मचाते हो कि
पिता का
सम्मान नहीं
है। वह हो
नहीं सकता। जब
परमात्मा का
सम्मान न हो, तो पिता का
सम्मान कितनी
देर तक हो
सकता है? एक
बार पक्का पता
चल गया कि जगत
में कोई पिता
नहीं है, कोई
परमात्मा
नहीं है, तो
परिवार में
पिता कितनी
देर तक टिक
सकता है? जीवन
एक सुसंबद्धता
है। ऊपर
परमात्मा है
तो घर में
पिता है। परमात्मा
का सम्मान है
तो पिता का
सम्मान है।
लोग परमात्मा
को पिता अकारण
ही नहीं कहते
हैं। वह पिता
है अस्तित्व
में। जब अस्तित्व
में कोई पिता
न रहा, तो
तुम्हारा
पिता कितनी
देर तक पिता
रह जायेगा? तब तुम कहते
हो, ठीक है
कि तुम्हारे
द्वारा मैं
पैदा हुआ; लेकिन
पिता-विता
का क्या संबंध
है? और अब
विज्ञान कहता
है, पिता
की कोई जरूरत
भी नहीं है।
एक इंजेक्शन
से भी तुम
पैदा हो सकते
थे। तो पिता
का उतना ही
सम्मान रह
जायेगा, जितना
एक इंजेक्शन
की सिरिंज का
हो सकता है। और
क्या सम्मान
है?
और जब
पिता का
सम्मान न रह
जाये तो मां
कितनी देर तक
सम्मानित रह
सकती है? चीजें
जुड़ी हैं।
क्योंकि अगर
पिता सिरिंज
है, तो मां
क्या है, एक
गर्भ है। और
यह गर्भ तो वैज्ञानिक
की
प्रयोगशाला
में भी बन
जायेगा--बन ही
गया है। और जब
मां सम्मानित
न रह जाये, तो
तुम खुद अपना
सम्मान कितनी
देर तक करोगे?
जब कोई भी
सम्मानित
नहीं, तो
आत्म-सम्मान
खो जायेगा।
सम्मान की एक
शृंखला है।
वहां पिता, परम पिता है
आकाश में, वहां
से लेकर
तुम्हारी
आत्मा तक एक सुसंबद्ध
शृंखला है। सब
चीजें जुड़ी
हैं।
अक्सर
तर्कनिष्ठ
लोग एक चीज को
सिद्ध कर देते
हैं, यह गलत है;
बिना यह
सोचे, कि
इसके रिपरकशंस,
इसके सारे
परिणाम, प्रतिध्वनियां क्या
होंगी। यह
सिद्ध करना
बिलकुल आसान
है कि
परमात्मा
नहीं है।
क्योंकि कोई
भी सिद्ध नहीं
कर सका कि वह
है। लेकिन
सवाल यह है कि परमात्मा
जैसे ही
समाप्त होता
है, वैसे
ही जीवन की सुसंबद्धता,
जीवन का
सम्मान, जीवन
की श्रद्धा, जीवन के
प्रति एक
अहोभाव--ये सब
खो जाते हैं।
और तब आदमी
रोता है और
चिल्लाता है।
और कहता है: मैं
दुखी हूं और
जीवन में कोई
अर्थ नहीं है।
परमात्मा
से जुड़ा था
अर्थ। जिस दिन
तुमने परमात्मा
छोड़ा, उसी
दिन अर्थ खो
गया। अब जीवन
निष्प्रयोजन
है। अब यह एक
लंबी ऊब है।
एक परेशानी है,
किसी तरह
झेल लेनी है।
अब इसमें कोई
रस न रह गया।
रस उसी दिन
सूख गया, जिस
दिन परमात्मा
को तुमने
इंकार किया।
परमात्मा
है या नहीं यह
बड़ा सवाल नहीं
है। बड़ा सवाल
यह है कि जीवन
में रस हो।
जिन पुराने
ऋषियों ने
परमात्मा को
कहा था, उन्होंने
एक व्यवस्था
बनाई थी
तुम्हारे जीवन
को एक रस-धार
बनाने की। एक
नृत्य, एक
अहोभाव। अगर
यह पूरी
प्रकृति
शून्य है चेतना
से, तो
तुम्हारी
चेतना का
कितना मूल्य
हो सकता है? सारा
अस्तित्व
मूल्यवान हो,
तो इसके बीच
तुम भी
मूल्यवान हो।
परमात्मा
को वापिस लाना
पड़ेगा। वह हो
या न हो, यह
सवाल नहीं है।
आदमी को अगर
जिंदा रहना है
आनंद से, सौभाग्य
की भांति, तो
परमात्मा को
वापिस लाना पड?ेगा।
उसके बिना तुम
जिंदा नहीं रह
सकते। नीत्से
ने कहा कि
परमात्मा मर
गया। और सौ
साल भी नहीं
हुए कि आदमी
मरने के करीब
पहुंच गया।
सब
चीजें जुड़ी
हैं। तुम फूल
को तोड़ दो
वृक्ष से, जड़ों को
नुकसान
पहुंचना शुरू
हो जाता है।
तुम पत्ते हटा
दो, जड़ें
कटने लगती
हैं। सब चीजें
जुड़ी हैं। पत्ते
क्या हैं? जड़ों
के ही हाथ हैं,
आकाश में
फैले हुए।
पत्ते भी जड़ों
को भर रहे हैं,
जड़ें
पत्तों को भर
रही हैं।
परमात्मा
तुम्हारा ही
हाथ था आकाश
में फैला हुआ।
और जब तुम इतने
बड़े थे कि
आकाश तक
तुम्हारा हाथ
फैला था, तब
तुम धन्यभागी
थे। अब तुम
बिलकुल सिकुड़
गये। अब कहीं
हाथ फैलाने को
जगह न रही। अब
तुम रोज संकीर्ण
होते जा रहे
हो। अब न
परमात्मा है,
न पिता है, न मां है, न
तुम हो। अब
जीवन विशृंखल
है। अब जीवन
एक काव्य नहीं
है। टूटे-फूटे
शब्द रह गये
हैं, खंडहर
हैं।
महमूद
ने ठीक कहा कि
यह नहीं हो
सकता। पत्थर जहां
है वहीं रहेगा।
यह कहानी...।
नतीजा
यह हुआ कि
महमूद के जीते
जी वह पत्थर
वहीं रहा। और
जब वे मरे तब
भी शाही हुक्म
के आदर के लिए
उसे वहां से
नहीं हटाया
गया।
कहते
हैं, गजनी में वह
पत्थर अभी भी
है। वह पत्थर
वहीं पड़ा है।
अब महमूद के
बिना उसको कौन
हटाये? और
मुसलमान
पक्के लकीर के
फकीर! अब तो
हटाने की कोई
जगह ही न रही।
और पूछ भी
चुके थे गजनी
के महमूद से।
उसने मना भी
कर दिया था कि
पत्थर जहां है
वहीं रहेगा।
यह
कहानी
जगजाहिर हो
गई। लोगों ने
तीन ढंग से इसकी
व्याख्या की।
तीन
ढंग हैं
व्याख्या के।
एक तो उस आदमी
की व्याख्या
है, जो विरोध
में है। उसकी
व्याख्या
खंडन की होगी।
वह व्याख्या
में कांटे
देखेगा। एक उस
आदमी की व्याख्या
है, जो
पक्ष में है।
उसकी
व्याख्या
प्रेमपूर्ण होगी।
वह व्याख्या
में फूल
देखेगा। और एक
उस आदमी की
व्याख्या है,
जो
निष्पक्ष है।
न तो विरोध
में है और न
पक्ष में। उसकी
व्याख्या में
ही सार हो
सकता है।
क्योंकि जब
तुम पक्ष में
होते हो तब भी
तुम झुक जाते
हो; तब तुम
जरूरत से
ज्यादा झुक
जाते हो। जब
तुम विपक्ष
में होते हो, तब तुम अकड़
जाते हो, जब
तुम जरूरत से
ज्यादा अकड़
जाते हो। और
दोनों अतियां
हैं।
निष्पक्ष
मध्य में होता
है। वह तथ्य
को देखने की
कोशिश करता
है। विपक्ष में
जो है, वह
पहले से ही
मान्यता बना
कर बैठा है कि
गलत तो होना
ही चाहिए। अब
देर इतनी है
कि कैसे सिद्ध
करूं कि गलत
है। जो पक्ष
में है वह
पहले से मान
कर बैठा है, ठीक तो है ही,
वह तो पक्का
है। अब रह गई
बात इतनी कि
कैसे तर्क जुटाऊं,
जिससे ठीक
मालूम पड़े।
दोनों
अपने-अपने
मतों का अर्थ
खोज लेंगे।
तुम
अगर हिंदू हो, कुरान पढ़ो,
तो तुम्हें
सब गलतियां
दिखाई पड़ जायेंगी।
वे ही गलतियां
गीता में हैं
और तुम्हें
कभी दिखाई
नहीं पड़ीं।
मुसलमान
कुरान को पढ़े,
उसे एक गलती
न दिखाई
पड़ेगी। उसे
गीता दे दो, वह सब
गलतियां खोज
लेगा जो तुमने
कुरान में खोजीं।
बड़ी हैरानी की
बात है, बड़ा
चमत्कार है।
यह आदमी जब
गीता में देख
पाता है गलती,
तो वही गलती
कुरान में
क्यों नहीं
दिखती, जब
वह वहां मौजूद
है?
नहीं, हम उतना ही
देखते हैं
जितना हम
देखना चाहते
हैं। हमारा
देखना भी
चुनाव है। तुम
वही देखना
चाहते हो जो
तुम्हारी
पहले से
मान्यता है।
तुम उसी मान्यता
को प्रोजेक्ट
करते हो, उसी
का विस्तार कर
लेते हो। वही
तुम्हारी व्याख्या
बन जाती है।
अभी
मैं एक सिक्ख
की लिखी हुई
किताब पढ़ रहा
हूं। बड़ी
हैरानी की
बात। पर सिक्ख
को दिखाई पड़
सकती है वैसी
बात। शुरुआत
भूमिका में इस
आदमी ने लिखा
है कि सिक्ख
धर्म अकेला
धर्म है जो
भारत में पैदा
हुआ। मैं थोड़ा
चौंका कि यह कभी
मैंने सुना भी
नहीं। मैंने
कहा, अब पढ़ने
जैसा है। यह
आदमी क्या कह
रहा है! तो उसने
यह सिद्ध कर
दिया है।
सिद्ध करने की
तरकीब है।
तरकीब यह है
कि उसने पहले
ही कह दिया है
कि जैन धर्म
और बौद्ध धर्म
तो धर्म हैं
नहीं। क्योंकि
इनमें ईश्वर
नहीं है। जहां
ईश्वर नहीं वह
धर्म हो ही
नहीं सकता, इसलिए बात
के बाहर हो
गई। हिंदू
धर्म हिंदुस्तान
में पैदा नहीं
हुआ, आर्य
बाहर से आये।
इसलिए यह
विजातीय है।
सिर्फ एक धर्म
है वास्तविक
भारत में पैदा
हुआ, वह है:
सिक्ख धर्म।
आदमी
जो देखना चाहे
उसके लिए तर्क
खोज लेता है।
पक्ष पहले से
तय है। अब अगर
जैन को कहो कि
तुम्हारा
धर्म धर्म
नहीं है, तो
वह चकित होगा।
बौद्ध को कहो,
तुम्हारा
धर्म धर्म
नहीं है, वह
चकित होगा। और
हिंदू कभी
मानने को राजी
नहीं हैं कि
हम बाहर से
आये। हम सदा
से यहां हैं।
यह बाहर से आने
की बात विजातीयों
की तरकीब है
हमको भी
विजातीय
सिद्ध करने के
लिए।
इसलिए
हिंदू पंडित
सिद्ध करते
रहते हैं कि
आर्य बाहर से
नहीं आये। यही
गंगा-यमुना का
क्षेत्र उनका
क्षेत्र है।
सदा से वे
यहीं हैं।
ऐसी
बातें सिद्ध
करने की कोशिश
चलती है, जिसका
हिसाब लगाना
बहुत मुश्किल
है। क्योंकि
वेद में इस
तरह के लक्षण
हैं कि लगता
है कि आर्य
शायद बाहर से
आये हों।
क्योंकि वे छः
महीने की रात,
छः महीने के
दिन की चर्चा
करते हैं। तो
वह तो सिर्फ साईबेरिया
में होता है।
अगर सब आर्य न
भी आये हों, तो जिसका
वचन लिखा गया
है वेद में, वह कम से कम साईबेरिया
से आया होगा।
लेकिन हिंदू,
जो सिद्ध
करना चाहते
हैं कि आर्य
यहीं रहे वे कुछ
भी मान सकते
हैं, यह
नहीं मान
सकते। तो वे
क्या कहते हैं?
वे कहते हैं
कि यह इतनी
पुरानी बात है,
कोई एक लाख
वर्ष पुरानी,
तब हिमालय
नहीं था। और साईबेरिया
और भारत
बिलकुल जुड़े
थे। तो लोग
यात्रा करते थे।
आते-जाते थे।
लेकिन
आदिवासी वे
वहां के नहीं
हैं। हैं तो
वे आदिवासी
यहीं के।
हिमालय न हो, यह मानना
आसान है।
क्योंकि अगर
हिमालय हो, तो यात्रा
कठिन है। बहुत
कठिन है। यह
आसान है हिमालय
न मानना, कि
नहीं था; यह
मानना कठिन है
कि आर्य बाहर
से आये।
सिक्ख
को मानना
बिलकुल
सुविधापूर्ण
है कि आर्य
बाहर से आये, हिंदू धर्म
समाप्त! और
सिक्ख धर्म
कुछ भी नहीं है,
सिर्फ
हिंदू धर्म की
एक शाखा है।
उसे कोई भिन्न
धर्म कहना भी
उचित नहीं है।
लेकिन सिक्ख
उसको भिन्न
करने की कोशिश
करता है।
क्योंकि सिर्फ
शाखा में तो
अहंकार तृप्त
नहीं होता।
बौद्ध धर्म
हिंदू धर्म की
शाखा है।
कितनी ही दूर
चला जाये, लेकिन
हिंदू धर्म
में उसका मूल
है। उपनिषदों
में उसकी जड़ें
हैं। वह कहीं भी
चला जाये, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। वह
कितने ही
सिद्धांत खोज
ले। शाखा
कितनी दूर चली
जाये, क्या
फर्क पड़ता है?
बेटा कितनी
ही दूर चला
जाये बाप से, क्या फर्क
पड़ता है? ईसाइयत
बिलकुल
दुश्मन है
यहूदियों की,
फिर भी शाखा
है। इससे क्या
फर्क पड़ता है
कि जीसस
विपरीत चले
गये? लेकिन
वे बेटे तो
यहूदियों के
हैं। हैं तो
वे यहूदी।
उसका आधार तो
भीतर वही है।
लेकिन जो हम
मानना चाहते
हैं, वह
हमेशा आसान
है। और हम
उसके लिए तर्क
जुटा लेते
हैं। जो हम
नहीं मानना
चाहते, उसे
इंकार करना
आसान है, उसके
लिए भी हम
तर्क जुटा
लेते हैं।
तो
पक्ष और
विपक्ष, ये
दो अतियां
हैं। और दोनों
के मध्य में
बुद्धिमत्ता
है। प्रज्ञा
दोनों के मध्य
में है। प्रज्ञा
न तो किसी के
पक्ष में होती
है न विपक्ष में।
क्योंकि पक्ष
विपक्ष में
होने का मतलब
है, तुमने
निर्णय तो
पहले ही कर
लिया। अब कुछ
करने को बचा
नहीं है। अब
तो सिर्फ
सिद्ध करना
है। निर्णय तो
हो चुका। निष्कर्ष
तो तुमने
निकाल लिया।
अब तो
निष्कर्ष तक
जाने का
रास्ता भर बता
देना है, कैसे
तुम वहां तक
पहुंचे। यही
फर्क है।
प्रज्ञा पहले
निष्कर्ष
नहीं
निकालती।
पहले खोज करती
है और
निष्कर्ष बाद
में आता है।
पक्ष और
विपक्ष निष्कर्ष
पहले निकाल
लेते हैं, फिर
सिद्ध करने
में लग जाते
हैं।
लोगों
ने तीन ढंग से
इसकी
व्याख्या की।
जो राज्य के
खिलाफ थे, जो
अराजकतावादी
थे, अनारकिस्ट थे, उन्होंने
समझा कि यह
पत्थर उस
हुकूमत की
मूर्खता का
सबूत है, जो
अपने को किसी
भी कीमत पर
कायम रखना
चाहती है।'
यह
व्याख्या की
जा सकती है। क्रोपाटकिन
से पूछो, वह
यही व्याख्या
करेगा।
टालस्टाय से
पूछो, वह
यही व्याख्या
करेगा। जो
आदमी अराजक है,
जो मानता है
कि राज्य
बुराई है, वह
यही व्याख्या
करेगा कि हद्द
हो गई। यह तो बिलकुल
साफ है कि
राजसत्ता
मूर्खतापूर्ण
है। और इससे
ज्यादा और
क्या साफ होगा
कि रास्ते पर
पत्थर पड़ा है
जो अब तक नहीं
हटाया गया; क्योंकि
राज-आज्ञा है।
और इस तरह का
आदमी कहेगा, सभी राज-आज्ञायें
ऐसी ही हैं।
सभी राज-आज्ञायें
तोड़ देने जैसी
हैं। राज्य को
नष्ट कर दो। क्योंकि
राज्य जितना
कम हो उतना
अच्छा है। राज्य
जितना ज्यादा
हो उतना बुरा।
जब तक राज्य है
तब तक आदमी
स्वतंत्र न हो
सकेगा।
सत्ता
के प्रति
श्रद्धालु
लोगों ने कहा
कि चाहे कितनी
ही असुविधा हो, राज-आज्ञा
का पालन होना
ही चाहिए।
क्योंकि जरूर
उसके पीछे
छिपा कोई निहित
अभिप्राय है।
होगा
ही! अन्यथा
राजा आज्ञा
क्यों देगा? जरूर कुछ
निहित
अभिप्राय है,
भला वह हमें
दिखाई न पड़ता
हो, क्योंकि
हम नासमझ। भला
हमारी समझ में
न आता हो, क्योंकि
हम उतने दूरद्रष्टा
नहीं। भला
हमें भूल गया
हो कि उसका
अतीत क्या है।
लेकिन पीछे
कहीं छिपी
जड़ें होंगी, कोई प्रयोजन
होगा, कोई
अर्थ होगा, कोई रहस्य
होगा। ऐसे लोग
भी हैं जो हर
चीज में रहस्य
खोजने की
कोशिश करते
रहते हैं।
मैं एक
किताब पड़ रहा
था। एक बड़े
संन्यासी ने लिखी
है--'हिंदू
धर्म क्यों?' उसमें हर
चीज को सिद्ध
करने की कोशिश
की है कि वह
वैज्ञानिक
है। क्योंकि
विज्ञान की
प्रतिष्ठा
है। वैज्ञानिक
जो चीज नहीं
उसकी कोई
प्रतिष्ठा
नहीं। तो
हिंदू चोटी
क्यों बढ़ाते
हैं? तो उस
संन्यासी ने
लिखा है यह
चोटी उसी तरह
है, जैसा
कि बड़ी-बड़ी
बिल्डिंग पर
लोहे का सींखचा
लगाते हैं, बिजली से
बचाने को। ऐसा
चोटी बांध कर
खड़ी कर देते
हैं, उससे
बिजली से बचाव
होता है। अर्थ
तो होना ही चाहिए।
हिंदू
संन्यासी
लकड़ी की खड़ाऊं
पहनते हैं। एक
संन्यासी
मेरे पास कुछ
दिन रुके, तो उनकी खड़ाऊं
की वजह से बड़ा
उपद्रव मचता
था। बाहर आयें,
भीतर जायें,
कहीं भी
चलें, तो
खटर-खटर-खटर!
मैंने उनसे
पूछा कि इतना
शोरगुल इससे
होता है।
उन्होंने कहा,
'यह बड़ी
रहस्यपूर्ण
है।' 'क्या
रहस्य है इसका?'
तो
उन्होंने कहा,
'यह
ब्रह्मचर्य
में बड़ी सहायक
है।' 'कैसे?'
तो
उन्होंने कहा,
'एक नस है, जो इसकी वजह
से दबी रहती
है। और दबी
रहने से आदमी
ब्रह्मचारी
हो जाता है।'
आदमी
सभी तरह की मूर्खताओं
में भी रहस्य
खोजता है। और
ये ही आदमी जब
कुछ दिन मेरे
पास रहे, तो
मुझसे पूछने
लगे, ब्रह्मचर्य
कैसे साधा
जाये? 'तुम्हारी
नस तो दबी है, अब और क्या
करना? तुम
यह क्या पूछते
हो? यह तो
जिसकी नस न
दबी हो खड़ाऊं
में, वह
पूछे। तुमने
इतनी सरल
तरकीब निकाल
ली है
ब्रह्मचर्य
की। काश, इतना
आसान होता।' नहीं, उन्होंने
कहा कि वह है
तो सिद्धांत,
लेकिन
मुझसे नहीं सध
पा रहा है।
मैंने कहा, 'और बड़ी खड़ाऊं
बना लो। नस को
बिलकुल दबा
दो।' और
मैंने कहा, 'तुम बिलकुल
पागल हो। जाकर
नस का ऑपरेशन
ही क्यों नहीं
करवा देते?'
आदमी जो
भी है श्रद्धा
से भरा, वह
हर मूर्खता
में रहस्य
देखता है। जो
अश्रद्धालु
है, हर
रहस्य में
मूर्खता
देखता
है--दोनों गलत
हैं। और दोनों
के मध्य में
होना बड़ा कठिन
है। और जब तक
तुम मध्य में
न हो जाओ, तब
तक जीवन के
सत्य तुम्हें
दिखाई न
पड़ेंगे।
पर जो
लोग सही समझ रखते
थे...।
सही
समझ का अर्थ
है--'सम्यक
प्रज्ञा', राइट
अंडरस्टैंडिंग।
सही समझ का
अर्थ है, जो
न इस पक्ष में
न उस पक्ष
में। जिनका
कोई निर्णय न
था, जिनकी
आंखें खाली
थीं। जो पहले
से निष्कर्ष लेकर
न आये थे।
जिनका कोई
पक्ष न था। जो
निष्पक्ष थे।
जो जांच करने
को राजी थे।
जो सही
समझ रखते थे
उन्होंने वही
शिक्षा ग्रहण
की जो सुलतान
ने
गैर-समझदारों
के बीच अपनी प्रतिष्ठा
की चिंता किए
बिना देनी
चाही थी। क्योंकि
उस असुविधा की
जगह पर एक
रुकावट खड़ी कर
और उसे वहां
रहने देने के
कारणों को
प्रचलित कर
महमूद
समझदारों को
कहना चाहते थे
कि उन्हें
लौकिक सत्ता
को मानना
चाहिए। साथ ही
यह भी समझना
चाहिए कि वे
लोग मनुष्यता
के बहुत काम
के नहीं हैं
जो हठ धर्मी
से अनम्य मतवादों
के द्वारा
शासन करते
हैं।
महमूद
का नजरिया यह
था कि इस
पत्थर से दो
बातें लोगों
को जाहिर हो जायेंगी।
एक तो यह कि
जहां तक बन
सके, नियम का
पालन करना
चाहिए; चाहे
वह थोड़ा
असुविधापूर्ण
भी क्यों न
हो। क्योंकि
अगर सभी लोग
सुविधा देखते
हों तो कोई नियम
नहीं जी सकता।
यह
सुविधापूर्ण
हो सकता है तुम्हें
कि तुम दायें
चलो। यह
सुविधापूर्ण
हो सकता है
तुम्हें, कि
जब लाल प्रकाश
लगा है रास्ते
पर तब भी तुम
निकल जाओ, क्योंकि
तुम्हें
जल्दी
पहुंचना है।
यह तुम्हारे
लिए
सुविधापूर्ण
हो सकता है।
लेकिन अगर हर
आदमी अपनी
सुविधा सोच
रहा हो, तो
अंतिम परिणाम
यह होगा कि
सभी की सुविधा
नष्ट हो
जायेगी। यह
तुम कह सकते
हो कि मुझे
जल्दी पहुंचना
है इसलिए, लेकिन
सभी को जल्दी
पहुंचना है।
तब यह भी हो
सकता है कोई
भी न पहुंच
पाये। जिंदा
ही पहुंचना
मुश्किल हो जाये।
हम सब यही
करते हैं।
रास्ते पर तुम
देखते हो कि
पुलिस वाला
नहीं है, निकल
जाओ, क्योंकि
क्या है? सुविधा
इसी में है कि
निकल जाओ।
क्यों दस मिनट
खड़े रहो?
मेरे
एक मित्र इंगलैंड
में थे और एक
रात किसी भोज
से वापिस लौटे।
अंधेरी रात, कोहरे से
भरी! और एक
रास्ते पर न
कोई पुलिसवाला
है, न कोई
ट्रैफिक है, कोई दो बजे
रात की बात
है। और टैक्सी
का आदमी गाड़ी
रोक कर खड़ा हो
गया तो
उन्होंने कहा
कि क्या जरूरत?
न तो कोई
ट्रैफिक है, न कोई पुलिस
वाला है, सुनसान
पड़ा है
रास्ता। निकल
क्यों नहीं
जाते? उस टैक्सीवाले
ने पीछे देखा
और कहा कि यह
भारत नहीं है।
यह
सवाल नहीं है
कि सुविधा किसमें
है। क्योंकि
फिर कौन तय
करेगा? सब
अपनी सुविधा
खोजें तो सभी
की सुविधा खो
जाती है। और
सब थोड़ी सी
नियम की
असुविधा मानें,
तो सभी की
सुविधा
निश्चित होती
है। जहां बहुत
लोग जी रहे
हैं, वहां
दूसरों की
चिंता
अनिवार्य है।
अगर ठीक से
समझो, तो
वही स्वार्थ
भी है।
क्योंकि अंत
में दूसरे तुम्हारी
चिंता करें
तुम उनकी
चिंता करो, तो दोनों की
चिंता सध जाती
है।
तो
महमूद यह कहना
चाहता है कि
थोड़ी असुविधा
भी सहना पड़े
तो सहना जरूरी
है। क्योंकि
नियम असुविधा
तो देगा, स्वच्छंदता
जैसा
सुविधापूर्ण
तो नहीं हो सकता;
लेकिन लंबे
अर्से में
नियम ही
सुविधापूर्ण
होता है, स्वच्छंदता
नहीं। और
दूसरी बात वह
यह भी बताना
चाहता है कि
जो लोग इस तरह
की हठधर्मी
करते हैं कि
पत्थर भी गिरा
दें तो भी
आज्ञा को वापिस
नहीं लेते, उनसे भी
लोगों को
सावधान रहना
चाहिए।
क्योंकि इस
तरह के अनम्य
मतवादों के
द्वारा शासन
किया जाये तो
वह शासन जीवन
के हित में
नहीं होता, कल्याणकारी
नहीं होता।
अहित में हो
जाता है। दोनों
बातें महमूद
कहना चाहता है
इस पत्थर से
कि थोड़ी
असुविधा
मानने जैसी है,
लेकिन
अनम्यता, इन्फ्लैक्सिबिलिटी,
कि बिलकुल
जड़ हो जायें, उस स्थिति
में पत्थर को
खुद हटा देना
चाहिए। उस
स्थिति में
पत्थर को छाती
पर लेकर चलने
का कोई
प्रयोजन नहीं
है।
लेकिन
यह सूक्ष्म
बात हो गई। और
जटिल हो गई।
क्योंकि
दोनों अतियों
से बचना है।
असुविधा को
स्वीकार करना
है। क्योंकि
जहां समाज है, वहां थोड़ी
असुविधा आपको
होगी। आपको
थोड़ा झुकना
पड़ेगा, थोड़ा
समझौता करना
पड़ेगा। आप
अकेले हो, एक
बात है। लेकिन
जितने लोग
बढ़ते हैं, उतना
ही झुकना
पड़ेगा।
क्योंकि हम परस्परनिर्भर
हैं।
स्वतंत्रता
शब्द ठीक नहीं
है।
परतंत्रता शब्द
भी ठीक नहीं
है। वे दो
अतियां हैं।
ठीक शब्द क्या
होगा? 'मध्य'। मध्य शब्द
है
परस्पर-परतंत्रता;
या
परस्पर-स्वतंत्रता--इंटरडिपेंडेंस।
स्वतंत्रता
संभव नहीं है।
क्योंकि तुम
अगर पूरे
स्वतंत्र हो,
तो तुम
मरोगे इसी
वक्त। और तुम
दूसरों को भी
घातक हो
जाओगे। परतंत्रता
उचित नहीं है,
क्योंकि
उसमें आत्मा
नष्ट हो जाती
है, तुम
गुलाम हो जाते
हो। फिर जीवन
कहां चलता है?
जीवन चलता
है परस्परनिर्भरता,
इंटरडिपेंडेंस में। हम एक
दूसरे पर
निर्भर हैं। न
तो तुम स्वावलंबन
को इतना दूर
तक खींचना कि
बिलकुल अकेले
रह जाओ। और न परावलंबन
को इतनी दूर
तक ले जाना कि
तुम बचो ही न।
तुम बचो भी, तुम मिट भी न
जाओ, और
तुम इतने
ज्यादा भी न
हो जाओ कि
बिलकुल अकेले
रह जाओ; वहां
बीच के मध्य
में संगीत
पैदा होता है।
एक
छोटी सी घटना, और मैं अपनी
बात पूरी
करूं। बुद्ध
के पास एक
राजकुमार
संन्यस्त
हुआ। उसका नाम
था श्रोण। वह
बहुत भोगी
आदमी था। भोग
में जिंदगी
बिताई। फिर
त्यागी हो गया,
फिर
संन्यस्त हो
गया। और जब
भोगी त्यागी
होता है तो
अति पर चला
जाता है। वह
भी चला गया।
अगर भिक्षु
ठीक रास्ते पर
चलते, तो
वह आड़े-टेढ़े
रास्ते पर
चलता। अगर
भिक्षु जूता
पहनते, तो
वह कांटों में
चलता। भिक्षु कपड़ा
पहनते, तो
वह नग्न रहता।
भिक्षु एक बार
खाना खाते, तो वह दो दिन
में एक बार
खाना खाता।
सूख कर हड्डी
हो गया, चमड़ी
काली पड़ गई।
बड़ा सुंदर
युवक था, स्वर्ण
जैसी उसकी
काया थी।
दूर-दूर तक
उसके सौंदर्य
की ख्याति थी।
पहचानना
मुश्किल हो
गया। पैर में
घाव पड़ गये।
बुद्ध
छः महीने बाद
उसके द्वार पर
गये। उसके झोपड़े
पर उन्होंने
जाकर कहा, 'श्रोण, एक
बात पूछने आया
हूं। मैंने
सुना है कि जब
तू राजकुमार
था तब तुझे
सितार बजाने
का बड़ा शौक था,
बड़ा प्रेम
था। मैं तुझसे
यह पूछने आया
हूं कि सितार
के तार अगर बहुत
ढीले हों तो
संगीत पैदा
होता है?' श्रोण
ने कहा, 'कैसे
पैदा होगा? सितार के
तार ढीले हों
तो संगीत पैदा
होगा ही नहीं।'
बुद्ध ने
कहा, 'और
अगर तार बहुत
कसे हों तो
संगीत पैदा
होता है?' श्रोण
ने कहा, 'आप
भी कैसी बात पूछते
हैं! अगर बहुत
कसे हों तो
टूट ही जायेंगे।'
तो बुद्ध ने
कहा, 'तू
मुझे बता, कैसी
स्थिति में
संगीत
श्रेष्ठतम
पैदा होगा?' श्रोण ने
कहा, 'एक
ऐसी स्थिति है
तारों की, जब
न तो हम कह
सकते हैं कि
वे बहुत ढीले
हैं और न कह
सकते हैं कि
बहुत कसे हैं;
वही
समस्थिति है।
वहीं संगीत
पैदा होता है।'
बुद्ध
उठ खड़े हुए।
उन्होंने कहा, 'यही मैं
तुझसे कहने
आया था, कि
जीवन भी एक
वीणा की भांति
है। तारों को
न तो बहुत कस
लेना, नहीं
तो संगीत टूट
जायेगा। न
बहुत ढीला छोड़
देना, नहीं
तो संगीत पैदा
ही न होगा। और
दोनों के मध्य
एक स्थिति है,
जहां न तो
त्याग है और न
भोग; जहां
न तो पक्ष है न
विपक्ष; जहां
न तो कुआं है न
खाई; जहां
हम ठीक मध्य
में हैं। वहां
जीवन का परम-संगीत
पैदा होता है।'
यह
सूफी कथा भी
उसी परम संगीत
के लिए है। न
तो नियमों को
तोड़ कर
उच्छृंखल हो
जाना और न
नियमों को मान
कर गुलाम हो
जाना। दोनों
के मध्य नाजुक
है रास्ता।
इसलिए फकीरों
ने कहा है:
खड्ग की धार
है। इतना
बारीक है, जैसे तलवार
की धार हो।
मगर अगर समझ
हो, तो वह
पतला सा
रास्ता राजपथ
हो जाता है।
और जो
उस रास्ते पर
चलना सीख जाता
है, उसके
जीवन से सारे
कष्ट गिर जाते
हैं। अति कष्ट
लाती है, दुख
लाती है। दो
अतियां हैं।
एक नर्क ले
जाये, एक
स्वर्ग; मोक्ष
दोनों के मध्य
में है। जो
बहुत दिन स्वर्ग
में रहेगा, उसको स्वाद
बदलने के लिए
नर्क जाना
पड़ेगा। और जो
बहुत दिन तक
नर्क में
रहेगा, वह
स्वर्ग पाने
की क्षमता
अर्जित कर
लेता है। वे
दोनों एक दूसरे
में बदलाहट
करते रहते
हैं।
तुम्हें
पता न हो, या
पता हो; स्वर्ग
और नर्क के
बीच बड़ा
आवागमन चलता
है। और वहां
पासपोर्ट की
भी कोई जरूरत
नहीं। और दरवाजे
दूर-दूर नहीं
हैं, आमने-सामने
हैं। इधर से
लोग उधर जाते
हैं, उधर
से लोग इधर
आते हैं। कोई
रुकावट नहीं
है। जब ऊब
जाती है तबीयत,
तो लोग
स्वाद लेने
उधर चले जाते
हैं।
तुम्हें
पता है, दुख
से भी तुम ऊब
जाते हो, सुख
से भी तुम ऊब
जाते हो।
मिठाई खाते हो
उससे ऊब जाते
हो, नमकीन
से थोड़ा स्वाद
बदलते हो।
नमकीन खाते हो
उससे ऊब जाते
हो, मीठे
से थोड़ा स्वाद
बदलते हो।
आराम से ऊब
जाते हो श्रम
करते हो, श्रम
से ऊब जाते हो
विश्राम करते
हो। स्वर्ग और
नर्क के बीच
यात्रा चलती
रहती है।
दोनों के मध्य
में है मोक्ष।
नियम
बुद्धिपूर्वक
पाले जायें, मर्यादा
सम्यक हो, समझपूर्वक हो, तो
तुम्हें
गुलाम भी नहीं
बनायेगी, स्वच्छंद
भी नहीं
बनायेगी। और
तुम्हारे
जीवन में
परम-मुक्ति, परम-स्वतंत्रता
का उदय होगा।
वह
स्वतंत्रता न
तो
स्वच्छंदता
है, न
दासता है।
आज
इतना ही।
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