दिनांक
8 अक्टूबर, 1974.
श्री
ओशो आश्रम,
पूना।
भगवान!
सूफी
सत्य के खोजी
माने जाते
हैं--उस सत्य
के जो विषयगत
हकीकत
९ठइरमबजपअम
तमंसपजल० का
ज्ञान होता
है।
एक
अज्ञानी, लालची और प्रजापीड़क
राजा ने
निश्चय किया
कि मैं इस
सत्य को भी
अपने अधिकार
में ला कर
रहूंगा।
स्पेन के मुर्सिया
नामक स्थान का
स्वामी था वह
और नाम था
उसका रोडरिक।
उसने यह भी तय
किया कि तरागोना
के सूफी
उमर-अल-अलावी
को यह सत्य
बताने के लिए मजबूर
किया जाये।
फलतः
उमर को
गिरफ्तार कर राज-दरबार
में हाजिर
किया गया। रोडरिक
ने उनसे कहा, 'मैंने
निर्णय किया
है कि जो सत्य
आप जानते हैं
उसे आप मुझे
उन शब्दों में
बता देंगे
जिन्हें मैं
समझ सकूं। और
यदि ऐसा नहीं
हुआ तो आपको
अपनी जिंदगी
से हाथ धोना
पड़ेगा।'
उमर
ने उत्तर में
पूछा, 'इस
उदार दरबार
में क्या आप
उस जागतिक
व्यवस्था को
मानते हैं कि
जब कोई
व्यक्ति किसी
प्रश्न के
उत्तर में
सत्य कह दे और
यदि वह सत्य
उसे अपराधी न
बताये तो उसको
स्वतंत्र कर
दिया जाना
चाहिए?'
रोडरिक
ने कहा, 'ऐसा ही है।'
उमर
ने फिर कहा, 'जो लोग भी
यहां उपस्थित
हैं, उन्हें
मैं इस बात का
साक्षी बनाता
हूं। और अब एक
नहीं, तीनत्तीन सत्य आपको
मैं बताऊंगा।'
रोडरिक
ने तब कहा, 'हमें इस बात
का भी भरोसा
होना चाहिए कि
जिन्हें आप
सत्य कहते हैं,
वे वास्तव
में सत्य हैं।
इसलिए जो भी
कहें, उसके
साथ उसका सबूत
भी रहना जरूरी
है।'
उमर
बोले, 'आप
जैसे स्वामी
के लिए
जिन्हें हम एक
नहीं, तीनत्तीन सत्य देने
जा रहे हैं, हम ऐसे ही
सत्य देंगे जो
स्वयंसिद्ध
हैं।'
रोडरिक
अपनी
प्रशस्ति सुन
कर फैल गया।
उमर ने कहा, 'पहला सत्य
यह है, कि
मैं वह हूं
जिसे लोग तरागोना
का सूफी उमर
कहते हैं।
दूसरा यह, कि
आपने मुझे सच
कह देने पर
रिहा करने का
वचन दिया है।
और तीसरा यह, कि आप अपनी
धारणा का सत्य
चाहते हैं।'
इन
वचनों का असर
हुआ कि प्रजापीड़क
राजा को उमर
को रिहा कर
देना पड़ा।
भगवान!
इस सूफी
बोध-कथा का
अर्थ समझाने
की करुणा
करें।
सत्य
की खोज, कोई
बाह्य-खोज
नहीं है। सत्य
की खोज एक आंतरिक
पात्रता की
तैयारी है।
सत्य कहीं रखा
नहीं है, जिसे
आप उठा लेंगे;
आप जिस क्षण
तैयार होंगे,
उस क्षण
सत्य आप में
प्रवेश
करेगा।
सत्य
एक अनुभव है, वस्तु नहीं।
इसलिए कोई
दूसरा तो उसे
दे नहीं सकता।
वस्तुएं दी जा
सकती हैं, अनुभव
दिए नहीं जा
सकते।
वस्तुएं पात्रता
की चिंता नहीं
करतीं।
कोहिनूर
किसके पास है,
कोहिनूर को
इसकी जरा भी
चिंता नहीं।
एक भिखमंगे
के पास हो तो
ठीक; महारानी
विक्टोरिया
के पास हो तो
ठीक। कोहिनूर
व्यक्तियों
की चिंता नहीं
करता।
कोहिनूर एक जड़
पदार्थ है।
सत्य
कोई जड़ता
नहीं है। सत्य
तो तुम्हारी
संवेदनशीलता
पर निर्भर है।
सत्य हर किसी
के पास नहीं
हो सकता। एक
हाथ से दूसरे
हाथ में लिए
जाने का कोई
उपाय नहीं है।
सत्य तो वहीं
होगा जहां
सत्य को झेलने
की पात्रता
होगी। इसलिए
वास्तविक
खोजी अपने को
तैयार करता
है। वह इसकी
चिंता नहीं
करता कि सत्य
कहां है। वह
इसकी चिंता
करता है क्या
मैं योग्य हूं? वह इसकी
बिलकुल चिंता
नहीं करता कि
कौन मुझे सत्य
देगा। वह इसकी
ही चिंता करता
है कि सत्य मेरे
द्वार आयेगा
तो मेरा द्वार
खुला होगा या
नहीं। सत्य
मेरे द्वार पर
दस्तक देगा तो
मेरे कान सुन
सकेंगे या
नहीं।
सत्य
पर आक्रमण
नहीं किया जा
सकता। सत्य को
तो केवल ग्रहण
किया जा सकता
है। सत्य के
लिए तुम्हारा
पुरुष जैसा होना
जरूरी नहीं; स्त्री जैसा
होना जरूरी
है। सत्य तुम
में प्रवेश
करेगा, लेकिन
तुममें गर्भ
की योग्यता
चाहिए।
यह
सूफी कथा बड़ी
प्रीतिकर है।
और इसमें बहुत
सी बातें समाई
हुई हैं।
एक-एक बात को
हम समझने की
कोशिश करें।
सूफी
सत्य के खोजी
हैं--उस सत्य
के, जो
विषयगत
यथार्थ का
ज्ञान होता
है।
सत्य
की खोज दो तरह
की हो सकती
है। एक तो कि
आप सत्य के
संबंध में
सोचते रहें, विचारते
रहें। बड़ा
दर्शन, बड़े
सिद्धांत, बड़े
शास्त्र
इकट्ठे हो
जायें, लेकिन
सत्य आपको
उपलब्ध नहीं
होगा। शब्दों
की कतारें
लग जायेंगी।
शब्दों की भीड़
में यह भी हो
सकता है कि आप
भूल ही जायें
कि सत्य की
खोज पर निकले
थे। शब्दों के
जंगल में बहुत
लोग भटक गये
हैं। वृक्षों
के जंगल से तो
दिन, दो-चार
दिन में आदमी
खोज कर, रास्ता
निकाल कर, बाहर
आ जाता है।
शब्दों का
जंगल अनंत है।
वहां जो भटकता
है, लौटना
मुश्किल हो
जाता है।
पंडित
ऐसा ही भटका
हुआ आदमी है, जो सत्य के
जंगल में जाना
चाहता था, लेकिन
शब्द के जंगल
में खो गया
है। खोना तो
दोनों में
होता है।
लेकिन शब्द के
जंगल में तुम केवल
भटकते हो। और सत्य
के जंगल में
तुम मिट जाते
हो। तुम बचते
ही नहीं। वह
खोना परम है।
जो लोग विचार
करने में लगे
रहते हैं, वे
जिस सत्य को
उपलब्ध होंगे,
वह बौद्धिक
होगा। और जो
लोग शब्दों
में नहीं, विचारत्तर्क में नहीं, वरन ध्यान
में उसे खोजते
हैं...।
ध्यान
का अर्थ क्या
है? ध्यान का
अर्थ है
निर्मल, शांत,
मौन मन की
तैयारी। तुम
जैसे हो, तुम
इतने
उद्विग्न हो
कि सत्य को
तुम देख न पाओगे।
तुम्हारी
उद्विग्नता
बाधा बन
जायेगी। तुम
इतने तनाव से
भरे हो कि
सत्य
तुम्हारी पकड़
में न आयेगा।
तुम्हारा
तनाव ही द्वार
पर पत्थर बन
जायेगा। तुम
इतने अशांत हो,
जैसे झील
लहरों से भरी
हो; चांद
भी निकल आये
पूर्णिमा का,
तो भी उस
झील में उसका
प्रतिबिंब न
बन सकेगा। तुम्हारा
मन अगर
विचारों से
भरा है, तो
तुम उद्विग्न
झील की भांति
हो। चांद
रहेगा मौजूद,
चांद
तुममें उतर न
सकेगा।
प्रतिबिंब न
बनेगा। और कई
खंडों में प्रतिबिंब
बनेंगे जो
चांद जैसे
बिलकुल भी न होंगे।
यह भी हो सकता
है कि पूरी
झील पर चांदी
फैली हुई
मालूम पड़े, क्योंकि
चांद खंड-खंड
हो जायेगा।
लहरों में टुकड़े-टुकड़े
हो जायेगा।
फिर भी झील
चांद से वंचित
रह जायेगी।
ध्यान का अर्थ
है ऐसी झील बन
जाना, जिस
पर एक भी लहर न
उठती हो। सत्य
तो मौजूद ही
है। तुम दर्पण
बन जाओ, वह
दिखाई पड़
जाये।
सूफी
सत्य के खोजी
हैं। उस सत्य
के, जो
विषयगत
यथार्थ का
ज्ञान होता
है। जो ऑब्जेक्टिव
रिआलिटी
है।
एक तो
बौद्धिक सत्य
होता है, जहां
तुम्हें सत्य
का कोई सीधा
अनुभव नहीं होता।
सिर्फ शब्द
होते हैं
तुम्हारे
पास। जैसे एक
आदमी ने सुन
रखा है अग्नि
के संबंध में।
लेकिन अग्नि
कभी देखी नहीं।
अग्नि के
संबंध में
उसने सारी
बातें समझ रखी
हैं। अग्नि के
संबंध में जो
भी लिखा है सब
उसने पढ़ लिया
है, लेकिन
अग्नि उसने
देखी नहीं।
उसका जो ज्ञान
है वह विषयगत
नहीं है, ऑब्जेक्टिव नहीं है।
उसका ज्ञान
बौद्धिक है, शब्दगत है।
और यह
भी हो सकता है
कि एक आदमी ने
अग्नि के संबंध
कुछ भी न जाना
हो, कोई
शास्त्र न पढ़ा
हो, लेकिन
अग्नि से
परिचित हो।
उसका ज्ञान
हकीकत है।
उसने अग्नि को
देखा और जाना
है अनुभव से। सूफियों
की खोज
अनुभवगत सत्य
के लिए है।
सत्य कैसे
अनुभव बन जाये?
तो यह
पहली बात खयाल
रख लेनी जरूरी
है। समस्त धर्मों
की खोज अनुभव
के लिए है। और
समस्त दर्शन-शास्त्रों
की खोज
सिद्धांतों
के लिए है। और जितने
सिद्धांत
होंगे, उतनी
ही सिद्धावस्था
मुश्किल हो
जायेगी। जिस
दिन कोई
सिद्धांत न
होगा, उसी
दिन सिद्धावस्था
फलित हो जाती
है।
सूफियों
को तो तुम
पहचान भी नहीं
सकते। क्योंकि
अनुभव की खोज
तो बड़ी भीतरी
है। तुम्हारे
पड़ोस में सूफी
रहा है पचास
वर्ष तक, तो
भी तुम्हें
खयाल भी न
मिलेगा, भनक
भी न पड़ेगी।
क्योंकि सूफी
कहते हैं, अपने
को बाहर से छिपाओ।
कहीं लोगों को
खबर पड़ गई, तो
खुद तो वे
भटके ही हैं, तुम्हें भी
भटका देंगे।
अगर वे तुमसे
पूछने लगे, सत्य क्या
है? और तुम
शब्दों के मोह
में आ गये...और
अहंकार बड़े जल्दी
मोह में आ
जाता है।
अहंकार बड़े
जल्दी समझाना
चाहता है।
समझने की उतनी
तैयारी नहीं
है, जितनी समझाने
की उत्सुकता
होती है। अगर
लोगों को पता
चल गया कि तुम
सत्य के खोजी
हो, तो वे
तुम्हारे
पीछे इकट्ठे
हो जायेंगे।
और समय के
पहले अगर वे आ
गये, तुम
अभी गुरुता को
उपलब्ध न हुए
थे, अभी वह
अनुभव
तुम्हें मिला
न था जो
तुम्हारे अहंकार
को तोड़ जाता।
अभी भी अहंकार
बचा था, सूक्ष्म
हुआ था और अगर
तुम बताने में
पड़ गये, तो
सत्य की जगह
तुम शब्दों के
जंगल में खो
जाओगे।
शिष्य
तो भटकते ही
हैं, समय के
पहले गुरु भी
बुरी तरह भटक
जाता है। शिष्यों
से भी ज्यादा
भटक जाता है।
तो जब तक तुम्हें
यथार्थगत
हकीकत का पता
न चल जाये, जब
तक तुम्हारे
अनुभव का फूल
न खिल जाये, तब तक उचित
है किसी को
पता भी न चले।
तो
सूफी छिपाते
हैं। हो सकता
है सूफी चमार
हो और अपने
जूते सीता
रहता है दिन
भर। रात के
एकांत में
ध्यान करता
है। दिन में
जूते खरीदने
वालों को पता
भी नहीं चल
सकता कि यह
आदमी कौन है?
और
तुम्हारे पास
आंखें तो हैं
ही नहीं। तुम
बुद्ध को बोधिवृक्ष
के नीचे नहीं
पहचान पाते तो
अगर बुद्ध
जूते बेच रहे
हों तुम्हारे
गांव में, तब तो तुम
उन्हें कैसे
पहचान पाओगे?
पहचान
तुम्हारे पास
हो भी नहीं
सकती। क्योंकि
पहचान के लिए
भी तो थोड़ा सा
स्वाद चाहिए।
तुम उसी को पहचान
सकते हो जिसका
तुम्हें थोड़ा
स्वाद मिला हो।
जिसका
तुम्हें
स्वाद ही नहीं
मिला है, तुम
कैसे पहचानोगे?
हो सकता है
सूफी घड़े
बना रहा हो, बेच रहा हो, कपड़ा बुन रहा हो, सामान्य
जीवन में खोया
हो, लेकिन
भीतर उसकी खोज
चल रही है। और
खोज भीतरी है।
बाहर का उससे
कुछ लेना-देना
नहीं है।
अंततः
जिस दिन तुम
तैयार हो जाते
हो, जिस दिन
तुम्हारा
पात्र बिलकुल
खाली होता है,
उसी दिन
वर्षा हो जाती
है। कबीर ने
कहा है, 'गगन
गरजे
बरसे अमी।' उस दिन, जिस
दिन तुम तैयार
हो, उस दिन
गगन अपने आप
गरजने लगता है,
अमृत बरसने
लगता है।
तुम्हारी पात्रता
की भर
प्रतीक्षा
है। कुछ और
चाहिये नहीं।
और यह
पात्रता
योग्यता जैसी
नहीं है।
धार्मिक
पात्रता
सांसारिक
योग्यता जैसी
नहीं है, कि
कितनी
तुम्हारे पास
उपाधियां
हैं। विश्वविद्यालय
के कितने
सर्टिफिकेट
हैं। लोगों में
तुम्हारी
कितनी
मान्यता है, कितना धन है,
कितनी किसी
विशेष दिशा
में तुम्हारी
सफलता है! इन
सबसे कोई
संबंध नहीं
है। धार्मिक
पात्रता तुम्हारी
शून्यता पर
निर्भर है, योग्यता पर
नहीं। इसलिए
भिखमंगा भी
पहुंच सकता है
और सम्राट भी
वंचित रह जा
सकता है। इसलिए
बेपढ़ा-लिखा
भी पहुंच सकता
है और
पढ़ा-लिखा भी
भटक सकता है।
इसलिए ना कुछ
को भी मिलन हो
सकता है और जो सब
कुछ था, सिंहासन
पर विराजमान
था, वह भी
चूक जा सकता
है।
अक्सर
तो यही हुआ है; सिंहासनवाले चूक जाते
हैं और जिनके
पास कुछ नहीं
है, वे उसे
पा लेते हैं।
क्योंकि जब
कुछ नहीं होता
तो अहंकार को
खड़े होने की
जगह भी नहीं
होती। जब बाहर
कोई सहारा
नहीं होता, तो भीतर
अहंकार को
मजबूत करने की
सुविधा भी नहीं
होती। और
अहंकार खो
जाये, तुम्हें
ऐसी प्रतीति
होने लगे कि
मैं ना-कुछ हूं,
पात्र
तैयार होने
लगा। जिस दिन
पात्र बिलकुल खाली
है, और
तुम्हारे
भीतर कोई भी
नहीं, तुम
एक सूने घर हो
गये। उसी दिन
परमात्मा
तुम्हारे
द्वार पर दस्तक
दे देता है।
सूफी
सत्य के
विषयगत
यथार्थ के
खोजी हैं।
एक
अज्ञानी, लालची
और प्रजापीड़क
राजा ने
निश्चय किया
कि मैं सत्य
को भी अपने अधिकार
में लाकर
रहूंगा।
एक-एक
शब्द समझने
जैसा है, क्योंकि
बहुत बार तुम
भी इसी तरह के
निर्णय ले
लेते हो।
एक
अज्ञानी, लालची,
प्रजापीड़क राजा ने
निश्चय
किया...।
अज्ञानी
है, इस बात की
उसे चिंता
नहीं है कि
अज्ञान कटे। सत्य
को पाने की
आकांक्षा है।
तुम भी अज्ञान
को काटने को
तैयार नहीं हो,
सत्य को
पाने को
उत्सुक हो।
सच तो
यह है कि तुम
यह भी मानने
को तैयार नहीं
हो कि तुम
अज्ञानी हो।
और जिस बीमारी
को तुम
स्वीकार ही
नहीं करते उसे
तुम काटोगे
कैसे?
अज्ञानी
बड़ा नाराज
होता है यदि
उससे कह दो कि तुम
अज्ञानी हो।
ज्ञानी तो
शायद
मुस्कुरायेगा, उसे अगर
अज्ञानी कहो;
अज्ञानी
झगड़ने को खड़ा
हो जायेगा।
ज्ञानियों ने
तो खुद अपने
को अज्ञानी कह
दिया है।
लेकिन अज्ञानी
भूल कर यह
नहीं कहता कि
मैं अज्ञानी
हूं। फिर भी
वह सत्य की
खोज में रहता
है। अज्ञान को
बचाता है और
सत्य की खोज
करता है। ये
दोनों कैसे
होगा?
यह ऐसे
है जैसे कोई
आदमी घर में
अंधेरा भी बचाना
चाहता हो, रोशनी भी
लाना चाहता
हो। अगर
अंधेरा बचाना
है तो तुम
रोशनी लाआगे
नहीं, बातचीत
करोगे।
क्योंकि तुम
भी भलीभांति
जानते हो, रोशनी
आई कि अंधेरा
मिटा। तो तुम
चर्चा बहुत करोगे।
दीयों की
चर्चा, प्रकाश
की चर्चा, सिद्धांत,
शास्त्र सब
लाओगे; दीया
भर नहीं
लाओगे।
प्रकाश का
फार्मूला
लेकर आओगे, लेकिन
ज्योति कभी घर
में न जलाओगे।
क्योंकि अंधकार
को भी बचाना
है। मजा तो यह
है कि अगर कोई तुमसे
कहे कि
तुम्हारा घर
अंधेरा है, तो तुम
नाराज होते
हो।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं, सत्य की
खोज करनी है।
मैं उनसे कहता
हूं, सत्य
की तुम बात ही
मत करो। पहले
तो तुम यह
बताओ कि तुम
अज्ञानी हो कि
ज्ञानी? वे
बहुत चौंकते
हैं। वे कहते
हैं, 'ज्यादा
तो नहीं जानते,
थोड़े बहुत
शास्त्र पढ़े
हैं, लेकिन
बिलकुल
अज्ञानी भी
नहीं हैं।
गीता, उपनिषद
पढ़ा है, समझ
में आता है।
समझ तो है, सत्य
चाहिये।'
और
जहां समझ है
वहां क्या
सत्य को चाहना
पड़ेगा? जहां
समझ है वहां
सत्य घट जाता
है। समझ तो
सत्य का ही
दूसरा नाम है।
तुम अपने को
भ्रांति देते
हो कि समझते
तो तुम सब हो, अब बस, सत्य
को लाने की
बात है। जैसे
समझ के अलावा
भी कोई सत्य
है! तुम समझते
हो, बात
खत्म हो गई।
और क्या तुम
सोचते हो कि
ज्ञान भी थोड़ा
और ज्यादा हो
सकता है, कि
तुम कहते हो
थोड़ा-थोड़ा
ज्ञान है? ज्ञान
की कोई मात्रा
हो सकती है?
ज्ञान
की मात्रा तो
वैसी ही
भ्रांति है
जैसे कोई कहे, यह
थोड़ा-थोड़ा
वर्तुलाकार
है। यह वर्तुल
अधूरा है, आंशिक
है। वर्तुल
अधूरा तो हो
ही नहीं सकता,
वर्तुल का
अर्थ ही होता
है पूरा
वर्तुल। अधूरा
वर्तुल तो
होता ही नहीं।
सर्किल होगा
तो पूरा होगा;
नहीं तो
नहीं होगा।
कुछ और होगा।
शून्य क्या अधूरा
हो सकता है? आधा हो सकता
है? क्या
तुम यह कह
सकते हो, मैं
आधा शून्य हूं?
आधे शून्य
का तो अर्थ यह
हुआ, कि
भरे हो।
अन्यथा आधे
में क्या होगा?
कुछ
चीजें हैं
जिनके खंड
नहीं होते।
शून्य का कोई
खंड नहीं
होता। शून्य
या तो पूरा
अखंड, या
पूरा
अनुपस्थित।
वर्तुल के कोई
खंड नहीं होते।
सत्य के भी
कोई खंड नहीं
होते।
क्योंकि खंड
का तो यह अर्थ
होगा कि सत्य
को असत्य के
साथ रहना पड़ेगा।
और सत्य असत्य
के साथ कैसे
रह सकता है? खंड का तो यह
अर्थ होगा कि
परमात्मा को
तुम्हारी
क्षुद्रता के
साथ रहना
पड़ेगा। और
परमात्मा
तुम्हारी
क्षुद्रता के
साथ कैसे रह
सकता है? तुम्हारी
क्षुद्रता
पूरी जाये, तो ही वह आता
है।
लोग
सोचते हैं कि
थोड़ा ज्ञान
है। थोड़ा
ज्ञान कुछ भी
नहीं होता।
ज्ञान घटता है
तो पूरा घटता
है। इसलिए
ज्ञानियों
में कोई छोटा-बड़ा
नहीं होता है।
यद्यपि
अनुयायी
मानते हैं।
अगर बुद्ध के माननेवाले
हैं तो वे
कहते हैं, बुद्ध
परम-ज्ञानी
हैं। महावीर
भी ज्ञानी हैं,
लेकिन वह
ऊंचाई नहीं।
जैन महावीर को
ज्ञानी मानते
हैं। बुद्ध को
भी कहते हैं, हां ज्ञानी
हैं, लेकिन
अभी पूरे
ज्ञानी नहीं।
अधूरा
ज्ञान होता है? बुद्ध और
महावीर अगर
ज्ञानी हैं, तो कोई
नीचे-ऊपर न
रहा। दुनिया
के सभी ज्ञानी
एक ही जगह
पहुंच जाते
हैं। और
दुनिया के सभी
अज्ञानी भी एक
ही जगह होते
हैं।
तो तुम
यह मत सोचना
कि तुम थोड़े
ज्ञानी, थोड़े
अज्ञानी; ऐसा
होता ही नहीं।
यही धोखा है।
और यह धोखे में
अगर तुम पड़े
रहे तो तुम
अज्ञान को
मिटाने की कोशिश
न करोगे। तुम
सत्य को पाने
की कोशिश करोगे।
और अज्ञान
भीतर हो और
हाथ में सत्य
आ जाये, यह
असंभव है।
सत्य की तुम चिंता
ही छोड़ दो।
तुम तो इस
अज्ञान को
मिटा दो। तुम
इस भीतर के
अंधेरे को हटा
दो। अचानक तुम
पाओगे, सब
तरफ से सूरज
चले आ रहे
हैं। हर आयाम
से सत्य उतरने
लगा।
यह
आदमी अज्ञानी
था, लालची था,
प्रजापीड़क था। बहुत से
लोग परमात्मा
की तरफ भी
लालच के कारण
ही जाते हैं।
सत्य की खोज
भी लोभ ही
होता है।
तुमने सब कमा
लिया। इस राजा
को भी यही
खयाल होगा।
राज्य है, धन
है, संपदा
है, शक्ति
है, प्रतिष्ठा
है, सब मिल
गया। अब एक
चीज अखरती है
कि अभी तक
सत्य नहीं
मिला। वह भी
तिजोरी में
होना चाहिए।
महावीर
के पास एक
सम्राट गया और
उस सम्राट ने
कहा कि मैंने
सत्य की बड़ी
चर्चा सुनी
है। और इधर
आपके
संन्यासी
गांव-गांव
ध्यान की
चर्चा लगा रहे
हैं। ध्यान
मुझे भी
चाहिए।
महावीर को चुप
देख कर उसने
समझा कि शायद
महावीर को
ठीक-ठीक पता
नहीं कि मैं
कौन हूं। उसने
कहा आप निश्चिंत
रहें, जो भी
मूल्य होगा, चुका दूंगा।
धन मेरे पास
जरूरत से
ज्यादा है। तो
आप कोई चिंता
न करें। जो भी
कीमत हो, नगद
देने को राजी
हूं लेकिन
ध्यान मुझे
चाहिए।
महावीर
ने कहा, 'तुम
ऐसा करो कि
तुम्हारे
गांव में एक
गरीब आदमी है
और बहुत गरीब
है। एक-एक
पैसों के लिए
दीन है, उसको
धन की बड़ी
जरूरत है। और
वह ध्यान को
उपलब्ध हो गया
है। वह मेरा
शिष्य है। तुम
वहां चले जाओ,
और तुम उसको
ही राजी कर लो
बेचने के लिए।'
सम्राट
प्रसन्न
लौटा। महावीर
से तो थोड़ी सी
शंका भी थी, संदेह भी था,
कि इस आदमी
ने सब धन छोड़
दिया है, यह
धन के बदले
में ध्यान बेचेगा
या नहीं? लेकिन
यह गरीब आदमी,
गांव का
भिखमंगा, इसका
नाम भी कभी
सम्राट ने
नहीं सुना था।
उसने जा कर
उसके घर के
सामने सोने की
अशर्फियों
के ढेर लगा
दिए। वह आदमी
बाहर आया।
उसने सम्राट
से पूछा, 'आप
यह क्या कर
रहे हैं?' सम्राट
ने कहा, 'और
ज्यादा चाहिए?
तुझे जितना
चाहिए, बोल
दे। तू बोल, उतना हम
देंगे। लेकिन
ध्यान चाहिए।'
वह
आदमी हंसने भी
लगा, रोने भी
लगा। उसने कहा,
'महावीर ने
बड़ा गहरा मजाक
किया, आप
समझे नहीं।
ध्यान बेचा
नहीं जा सकता।
आप चाहें तो
मुझे खरीद
सकते हैं; लेकिन
मेरे ध्यान को
मैं कैसे दे
सकता हूं? ऐसा
नहीं है कि
देने में मेरा
कोई अस्वीकार
है। ऐसा भी
नहीं है कि न
देना
चाहूंगा।
देना भी चाहूं
तो भी नहीं दे
सकता हूं।' सम्राट
पूछने लगा, 'क्या अड़चन
है? तुम
मुझे कहो।' उस गरीब
आदमी ने कहा, 'अड़चन मेरी
तरफ से नहीं
है, ध्यान
का स्वभाव ऐसा
है। उसे कोई
किसी को कैसे
दे सकता है!'
बहुत
से लोग लालच
के कारण ही
सत्य की तरफ
जाते हैं। जब उनको
लगता है, सब
कमा लिया, अब
क्या बचा? तब
उनका अहंकार
कहता है
परमात्मा को
और कैद करके
घर में ले आओ।
तुम जैसे
महापुरुष
बिना ध्यान के?
सब
तुम्हारे पास
है। अब यह
ध्यान और अपनी
संपत्ति में
जोड़ दो। यह
परमात्मा भी कतार
में खड़ा कर दो
तुम्हारी
संपदा के, ताकि
तुम कह सको अब
मेरे पास ऐसा
कुछ भी नहीं, जो नहीं है।
अधिक
लोग सत्य की
खोज में सत्य
के खोजी की
तरह नहीं जाते, लोभी की तरह
जाते हैं।
इसलिए अक्सर
लोग बुढ़ापे
में उत्सुक
होते हैं। जब
मरने के दिन
करीब आने लगते
हैं, तब वे सोचते
हैं: अब सब तो
कमा लिया, अब
जरा परमात्मा
को भी कमा लें;
उस संसार
में काम
आयेगा। जब
उनके पास सब
होता है तब वे
सोचते हैं: अब
कुछ दान भी कर
दें, ताकि
उस लोक के लिए
भी व्यवस्था
हो जाये। स्वर्ग
में भी सम्मान
से प्रवेश हो
और वहां भी
ठीक परमात्मा
के आसपास रहने
की कोई जगह
मिले। वैसी
आकांक्षा से
भर कर लोभी
सत्य की खोज
में जाते हैं।
लोभियों
ने ही स्वर्ग
की धारणा की
है। अगर तुम
स्वर्ग को ठीक
से देखो तो वह
बिलकुल लोभी
की धारणा दिखती
है।
सोने-चांदी के
वृक्ष, हीरे-जवाहरातों
से पटे
हुए मार्ग, कल्पतरु, जिनके नीचे
बैठो और सभी
वासनायें
पूरी हो
जायें।
स्वर्ग किसी ज्ञानी
की कल्पना
नहीं मालूम
होती।
क्योंकि ज्ञानी
तो कल्पना
करता ही नहीं।
स्वर्ग तो लोभी
की कल्पना
मालूम होती
है। नर्क अपने
दुश्मनों के
लिए। स्वर्ग
अपने और अपने
मित्रों के लिए।
नर्क उनके लिए
जो हमसे
विपरीत हैं, और स्वर्ग
उनके लिए जो
हमारे साथ
हैं।
इसलिए
हर देश की
स्वर्ग की
धारणा भी अलग
है, क्योंकि
हर देश की
परिस्थितियां
अलग हैं। हिंदुओं
का जो स्वर्ग
है, वह
करीब-करीब
वातानुकूलित,
एयरकंडीशंड है।
क्योंकि
मुल्क गर्म है,
और यहां
लोभी सोच ही
नहीं सकता कि
स्वर्ग में भी
गर्मी! नर्क
जो है, वहां
भयंकर आग जल
रही है। वहां
ईंधन की कभी
कमी नहीं
पड़ती। वहां आग
जलती ही रहती
है सतत। आदमी कड़ाहों
में डाले जाते
हैं। वह हिंदू
की जो पीड़ा है,
इस मुल्क
में हिंदू
लोभी की, गर्मी
उसका सबूत है।
लेकिन
तिब्बत का
स्वर्ग? वह
ठंडा नहीं है,
वह शीतल नहीं
है। वहां
मंद-मंद शीतल
बयार नहीं
बहती। क्योंकि
तिब्बत ठंड से
परेशान है।
वहां सूरज हमेशा
निकला रहता
है। और नर्क
बर्फ, भयंकर
शीत से भरा
हुआ है। वहां
बर्फ ही जमी
है। तिब्बती
नर्क में आग
नहीं है।
क्योंकि आग तो
तिब्बत में
स्वर्ग जैसी
मालूम होती
है।
निश्चित
ही स्वर्ग और
नर्क से इन
धारणाओं का
कोई भी संबंध
नहीं है। आदमी
के लोभ, आदमी
के भय से इनका
संबंध है।
यह
आदमी लोभी है, प्रजापीड़क है, हिंसात्मक
है। और
हिंसात्मक मन
का लक्षण यह है
कि वह सोचता
है, हर चीज
जबर्दस्ती
पाई जा सकती
है। यह हिंसा
का मूल स्वभाव
है। हर चीज
जबर्दस्ती
पाई जा सकती
है। और यह
आदमी, जिसने
इतना बड़ा
राज्य बना
लिया हो, न
मालूम कितनों
को जबर्दस्ती
झुका दिया हो,
अगर यह ऐसा
माने कि सत्य
को भी
जबर्दस्ती घर
में लाया जा
सकता है, तो
आश्चर्य नहीं
है। यह
तर्कयुक्त
है। जब तुमने
सभी को झुका
लिया, तो
सत्य को क्यों
नहीं झुका
सकोगे? यह
इस तरह का
आदमी तलवार के
बल पर सत्य
लेने जाता है।
वह सत्य के
साथ भी हिंसक
व्यवहार करता है।
ऐसा आदमी
बलात्कारी
है। वह सत्य
के साथ भी
बलात, जबर्दस्ती,
जोर-जबर्दस्ती
दिखलाना
चाहता है।
लेकिन ध्यान
रहे, इस
जीवन में जो
भी श्रेष्ठ है,
जो भी श्रेयस
है, वह
बलात से
उपलब्ध नहीं
होता।
एक
स्त्री के साथ
बलात्कार
किया जा सकता
है, लेकिन
तुम उसके
प्रेम को न पा
सकोगे। शरीर
मिल जायेगा, हड्डी-मांस-मज्जा
मिल जायेगी, लेकिन प्रेम
नहीं पा
सकोगे। प्रेम
को झुकाने का
कोई उपाय है? शरीर झुक
जायेगा। और
अगर तुम प्रेम
की तलाश में
थे, तो तुम
हजारों शरीर
झुका लो तलवार
के बल, तो
भी तुम्हें एक
स्त्री का
प्रेम न मिल
सकेगा।
तुम
किसी आदमी की
गर्दन पर
तलवार रख कर
उसकी गर्दन को
पैर पर झुकने
के लिए मजबूर
कर सकते हो, शरीर झुक
जायेगा, श्रद्धा
न मिलेगी।
श्रद्धा को
झुकाने का कोई
भी तो उपाय
नहीं। सिर
कटने के डर से
झुक जायेगा।
मजा यह है कि
अगर पहले थोड़ी
बहुत श्रद्धा
रही होगी तो
वह भी खो
जायेगी। जिस
दिन तुम किसी
स्त्री के साथ
जबर्दस्ती
करोगे, उस
दिन अगर थोड़ा
प्रेम का झरना
बह भी रहा
होगा, वह
भी सूख जायेगा,
सदा के लिए
सूख जायेगा।
प्रेम या
श्रद्धा या
सत्य, कोई
झुका नहीं
सकता, जबर्दस्ती
नहीं पा सकता।
लेकिन
हमारे जीवन का
अनुभव यह है
कि यहां सभी चीजें, क्षुद्र
चीजें
जबर्दस्ती
मिल जाती हैं।
जो क्षुद्र का
गणित है, वह
विराट का गणित
नहीं है। और
जिन ढंगों से
तुमने
क्षुद्र को
पाया है, उन्हीं
ढंगों से
विराट को पाने
की कोशिश मत
करना। अन्यथा
तुम व्यर्थ ही
भटकोगे
और परेशान
होओगे।
विराट
को पाने का
गणित क्षुद्र
को पाने के
गणित से
बिलकुल
विपरीत है।
यहां
जबर्दस्ती
करने से चीजें
मिलती हैं, वहां तुमने
जबर्दस्ती की,
कि चीजें खो
जायेंगी।
यहां झुकाने
से लोग झुकते
हैं, वहां
तुम झुकोगे,
तो सत्य झुकेगा।
यहां संकल्प
से सब मिल
जाता है, वहां
समर्पण से सब
मिलता है।
इसीलिए
अहिंसा पर
इतना जोर है।
क्योंकि
अहिंसा के
बिना सत्य को
पाने का कोई
मार्ग नहीं
है।
महावीर
ने सत्य से भी
ऊपर अहिंसा को
रखा है। क्योंकि
अहिंसा अगर न
होगी तो सत्य
ही न मिलेगा।
अहिंसा का
अर्थ है इस बात
का अनुभव कि
जो विराट है, जो महान है, जो श्रेष्ठ
है, जो
सत्यम, शिवम,
सुंदरम है, उसे
तुमने झुकाना
चाहा, कि
बस, खो
जायेगा। वह
बहुत नाजुक
है। हिंसा
नहीं झेल सकता।
वह केवल
अहिंसक चित्त
को ही मिलता
है। जो झुकने
को राजी है, उसको मिलता
है।
यह
सम्राट
अज्ञानी था, लालची था, हिंसक था और
उसने निश्चय
किया कि मैं
इस सत्य को भी
अपने अधिकार
में ला कर
रहूंगा, जिसकी
सूफी चर्चा
करते हैं।
सुनी
होगी चर्चा
उसने सूफियों
की। सम्राट अक्सर
खाली होते
हैं। समय होता
है, करने को
भी कुछ नहीं
होता, सुन
ली होगी चर्चा,
दरबार तक
खबर आ गई
होगी।
सत्य
को भी अधिकार
में ला कर
रहूंगा...।
यह बात
ही गलत है।
सत्य
तुम्हारे
अधिकार में कभी
भी न आयेगा।
तुमको ही सत्य
के अधिकार में
जाना होगा।
अगर तुमने ऐसा
सोचा कि सत्य
को अधिकार में
ला कर रहूंगा, तो तुमने
दरवाजा बंद ही
कर लिया।
अधिकार में
केवल असत्य
लाया जा सकता
है। सत्य लाना
हो, अधिकार
में जाना
पड़ेगा। असत्य
के साथ जीतना
हो तो लड़ना
जरूरी है।
सत्य के साथ
जीतना हो तो हारना
जरूरी है।
ऐसा हम
कह सकते हैं, धन्य हैं वे,
जो हारने को
तैयार हैं
क्योंकि सत्य
उनका होगा। लेकिन
इस जिंदगी में
तो हारने से
कुछ भी नहीं मिलता।
जो भी है वह खो
जायेगा। यहां
तो इंच-इंच चीज
के लिए लड़ना
पड़ता है। यही
अनुभव उस जगत
में जाने में
बाधा हो जाता
है। तो तुम
जितने अनुभवी
हो इस जगत के, उतनी ही
मुसीबत होगी।
और यह
सम्राट तो
अनुभवी रहा
होगा।
स्पेन
के मुर्सिया
नामक इलाके का
स्वामी था वह
और नाम था
उसका रोडरिक।
उसने यह भी तय
किया कि तरागोना
के सूफी
उमर-अल-अलावी
को सत्य बताने
के लिए मजबूर
किया जाये।
यह
भाषा ही
मूर्खता की
है। लेकिन
सम्राटों से ज्यादा
मूढ़ आदमी
खोजने कठिन
हैं। क्योंकि
उनका सारा जीवन
का ढांचा
हिंसा, लोभ
और अज्ञान है।
यह बहुत
प्रसिद्ध
फकीर हुआ:
उमर-अल-अलावी।
ठीक उसी कोटि
का आदमी है
जैसे बुद्ध, महावीर, कृष्ण।
सोचा
उस सम्राट ने
कि अलावी को
पकड़ लिया जाये, और मजबूर
किया जाये कि
सत्य को बता।
फलतः
उमर को
गिरफ्तार कर राजदरबार
में हाजिर
किया गया। रोडरिक
ने उनसे कहा, 'मैंने
निर्णय किया
है कि जो सत्य
आप जानते हैं
उसे आप मुझे
उन शब्दों में
बता देंगे
जिन्हें मैं
समझ सकूं। और
यदि ऐसा नहीं
हुआ तो आपको
जिंदगी से हाथ
धोना पड़ेगा।
हिंसक
एक ही भाषा
समझता है। वह
भाषा है, मौत
की। वह सोचता
है मौत को
सामने खड़ा कर
दो, आदमी
हर चीज दे
देगा। उसे पता
ही नहीं है
सूफियों का, धार्मिकों
का, संतों
का, कि
उनके लिए मौत
खो चुकी है।
उन्हें तुम
मौत का भय
नहीं दे सकते।
उन्हें तुम
जीवन छीनने की
धमकी नहीं दे
सकते। तुम जो
छीन सकते हो, उसे वे पहले
ही छोड़ चुके
हैं। जिसे तुम
जीवन समझते हो,
उसे तो
उन्होंने
मृत्यु की
भांति छोड़
दिया। और जिसे
तुम मृत्यु
समझते हो, उसे
उन्होंने
हृदय के गहरे
अनुभव की तरह
अंगीकार कर
लिया है। उस
मृत्यु को
उपलब्ध हो कर
ही तो वे परम
जीवन को, परम
अमृत को जान
पाये हैं।
लेकिन आदमी तो
अपनी भाषा में
बोलता है।
रोडरिक
ने कहा कि
मैंने निर्णय
किया है कि जो
सत्य आप जानते
हैं उसे आप
मुझे उन
शब्दों में
बता देंगे...।
और यह
भी अज्ञानी की
शर्त होती है
हमेशा, कि
आप मुझे उन
शब्दों में
बता दें
जिन्हें मैं
समझ सकूं।
अज्ञानी का
आग्रह यह होता
है कि सत्य
मेरे तल पर
आकर मुझे
मिले। और सत्य
की यह शर्त है
कि तुम्हें
सत्य के तल तक
जाना होगा।
सत्य
तुम्हारे तल
तक नहीं आता।
और अगर तुमने
बहुत जिद्द
की, उसी जिद्द
के कारण पंडित
और पुरोहित
पैदा हुए हैं।
क्योंकि संत
तो वही भाषा
बोलेगा जो
सत्य की भाषा
है। लेकिन तुम
कहते हो, जो
हमारी समझ में
आ सके!
तो लोग
मिल जाते हैं, जो पुरोहित
हैं, पंडित
हैं, पादरी
हैं। वे वे ही
लोग हैं
जिन्होंने
सत्य को
तुम्हारी
भाषा में ला
कर खड़ा कर
दिया है। अब वह
सत्य नहीं
रहा। क्योंकि
तुम्हारी
भाषा में लाने
की चेष्टा ही
वही करेगा
जिसे उसका कोई
पता नहीं है।
जिसे उसका पता
है, वह
तुम्हें सत्य
की भाषा में
रूपांतरित
करेगा; न
कि सत्य को
तुम्हारी
भाषा में।
उसकी चेष्टा तुम्हें
बदलने की
होगी।
मैंने
सुना है: एक
स्कूल में
रविवार को
बाइबिल की एक
क्लास चलती
थी। और पादरी
ने बहुत सी
धर्म की बातें
समझाईं।
स्वभावतः
बच्चों की
भाषा में, क्योंकि बच्चे
ही वहां
इकट्ठे थे। और
अंत में उसने
कहा कि
परमात्मा सब
जगह है। उसका
वास हर जगह है,
वह
सर्वव्यापी
है। एक छोटा
सा बच्चा खड़ा
हुआ और उसने
कहा, एक
सवाल। क्या वह
मेरे पैंट के
खीसे में भी
है?
सवाल
संगत है।
पादरी थोड़ा
झिझका भी, क्योंकि
सवाल संगत
कितना ही हो, बहुत बचकाना
है। और
परमात्मा के
संबंध में ऐसी
बात ही पूछनी
थोड़ी सी
अपवित्र, अधार्मिक...।
लेकिन
इस बच्चे को
यह कहना भी
उचित नहीं है।
तो उसने कहा
कि देखो ऐसा
सवाल पूछना
उचित नहीं है, फिर भी मैं
कहता हूं कि
परमात्मा सब
जगह है।
उस
बच्चे ने कहा
कि ठीक-ठीक
जवाब दें। सब
जगह से मुझे
मतलब नहीं है।
मैं यह पूछता
हूं, क्या
मेरे पैंट के
खीसे में है? जब बच्चे ने
मजबूर कर दिया
तो उस पादरी
ने कहा कि हां,
वहां भी है।
उस बच्चे ने
कहा, पकड़े गये!
क्योंकि पैंट
में मेरे खीसा
ही नहीं है।
और
जिनको हम
बड़े-बूढ़े कहते
हैं वे भी
बच्चों से
ज्यादा नहीं
हैं। वे अपनी
भाषा में
उत्तर चाहते
हैं। और जब
उनकी भाषा में
उत्तर दिया
जायेगा तो तुम
पाओगे कि वे
उससे राजी ही
नहीं हैं।
क्योंकि उनकी
पैंट में खीसा
ही नहीं है।
पहले तुम सत्य
को उनकी भाषा
में लाओ। जब
तुम सत्य को
उनकी भाषा में
लाओगे तभी वह
असत्य हो जाता
है। फिर वे
तुमसे प्रमाण मांगेंगे।
और प्रमाण
असंभव हो
जायेंगे।
इसलिए
ज्ञानी या तो
चुप रह जाता
है, या बोलता
है तो अपनी ही
भाषा में
बोलता है। तुम्हारी
भाषा तक उसे
नहीं लाता। वह
तुम्हें खींचता
है सत्य के तल
तक। सत्य को
तुम्हारे तल तक
खींचने का कोई
उपाय नहीं है।
इस
सम्राट ने बड़ी
होशियारी की; वही सभी
बच्चे करते
हैं। नासमझ।
नासमझ की होशियारी!
उसने सोचा कि
हो सकता है यह
सूफी फकीर इस
तरह की भाषा
में बोले कि
हमारी समझ में
न आये। तो हम
कैसे पक्का
करेंगे कि यह
जो कह रहा है वह
सत्य है या
असत्य? तो
उसने पहले ही
शर्त लगा दी
कि ध्यान रखना,
उन्हीं
शब्दों में ही
बताना
जिन्हें मैं
समझ सकूं।
'मैंने
निर्णय किया
है,' उसने
कहा कि 'सत्य
को अधिकार में
करना है। और
सत्य को तुम उस
भाषा में कहना
जिसे मैं समझ
सकूं।'
सारा
जोर 'मैं' पर
है। 'मैं' की एक भाषा
है। तुम जो भी
भाषा जानते हो,
वह 'मैं'
की भाषा
है--अहंकार
की। और
तुम्हारी
भाषा में उसे
लाने का कोई
भी उपाय नहीं
है। तुम्हें
तो निर्भाषा
में जाना
होगा।
तुम्हें तो सब
भाषा भूल जानी
होगी।
तुम्हें तो
विचार ही छोड़
देने होंगे, शब्द ही छोड़
देने होंगे।
तुम जब मौन हो
जाओगे, तब
उसकी भाषा शुरू
होती है। आदमी
की भाषा है
शब्दों में, परमात्मा की
भाषा है मौन।
जब तुम मौन
होते हो तब
तुम उसकी भाषा
में जुड़ते हो।
तब संवाद शुरू
होता है।
इसलिए मौन का
इतना मूल्य
है।
'और
यदि ऐसा नहीं
हुआ,' कहा
उस सम्राट ने,
'तो आपको
जिंदगी से हाथ
धोना पड़ेगा।'
उमर ने
उत्तर में
पूछा...।
सूफी
बड़े सरल लोग
हैं। गंभीर भी
नहीं, जिद्दी
भी नहीं, बड़े
हल्के-फुल्के,
नाचते हुए,
हंसते हुए
लोग हैं।
सम्राट की मूढ़ता
साफ है।
तो उमर
ने कहा, 'इस
उदार दरबार
में...।'
उमर ने
सम्राट की
भाषा बोलनी
शुरू कर दी।
क्योंकि यह
सम्राट यही
भाषा समझ सकता
है। क्या है
भाषा? अहंकार
भाषा है।
उमर ने
कहा, 'इस उदार
दरबार में...।
यह 'उदार'
शब्द एकदम
झूठ है।
'इस
उदार दरबार
में क्या आप
उस जागतिक
व्यवस्था को
मानते हैं, कि जब कोई
व्यक्ति किसी
प्रश्न के
उत्तर में सत्य
कह दे और यदि
वह सत्य उसे
अपराधी न बताए,
तो उसको स्वतंत्र
कर दिया जाना
चाहिए?'
तो रोडरिक
ने कहा, 'ऐसा
ही है।'
क्योंकि
सम्राट भी यह
इंकार तो नहीं
कर सकता कि यह
दरबार उदार
नहीं है।
उमर ने
कहा, 'जो लोग
भी यहां
उपस्थित हैं
उन्हें मैं इस
बात का साक्षी
बनाता हूं। अब
मैं एक नहीं तीनत्तीन
सत्य आपको
बताऊंगा।'
सत्य
तो एक ही है।
तीन तो है भी
नहीं। उमर अब
मजाक कर रहा
है। सम्राट को
उसने जाल में
डाल दिया। उमर
ने पहचान ली, नब्ज पकड़
ली। जैसे ही
उसने कहा, 'यह
उदार दरबार', राजा फूल
गया होगा।
उसके बैठने का
ढंग बदल गया
होगा। उसकी
आंखों का रंग
बदल गया होगा।
तो यह सूफी भी
स्वीकार करता
है कि दरबार
उदार है। नब्ज
पर हाथ रख
लिया सूफी ने।
इसे
थोड़ा ध्यान
रखना जरूरी
है। सूफी
व्यर्थ की शहीदगी
में भरोसा
नहीं करते। और
मूर्खों के
हाथ मारे जाने
में कुछ भी
अर्थ नहीं है।
और यह आदमी
इतना नासमझ है, लोभी है, लालची
है, हिंसक
है। यह बात ही
हद दर्जे की
नासमझी की है,
कि मैं सत्य
पर अधिकार
करना चाहता
हूं। और तुम
मुझे सत्य
मेरी भाषा में
बता दो। यह
आदमी बचकाना
है। और जैसे
हम बच्चों के
साथ व्यवहार
करते हैं, उससे
ज्यादा
व्यवहार करना
इसके साथ उचित
नहीं है।
उमर ने
कहा, 'अब एक
नहीं, मैं तीनत्तीन
सत्य बताऊंगा।'
यहीं
बात व्यंग हो
गई। क्योंकि
सत्य तो एक ही है।
तीन तो असत्य
ही हो सकते
हैं। लेकिन
राजा और भी
प्रसन्न हुआ
कि मैं तो एक
पाना चाहता था।
देखो ताकत
सिंहासन की!
कि मैंने एक
मांगा था, यह आदमी तीनत्तीन
देने को राजी
है। मृत्यु से
कौन नहीं डरता?
तलवार
किसको नहीं
झुका लेती? एक सत्य
मांगो, तीन
आते हैं। एक
परमात्मा को
बुलाओ, तीन
दरवाजे पर
दस्तक देते
हैं।
रोडरिक
ने कहा, 'हमें
इस बात का भी
भरोसा होना
चाहिए कि
जिन्हें आप
सत्य कहते हैं,
वे वास्तव
में सत्य हैं।'
यह भी
अज्ञानी अपनी
तरफ से तय कर
लेना चाहता है
कि जिसे आप
सत्य कहते हैं, वह मुझे
भरोसा होना
चाहिए कि सत्य
है। जैसे कि
तुम परीक्षा
करनेवाले हो,
जैसे कि तुम
कसौटी हो, जैसे
कि तुम
निर्णायक हो,
न्यायाधीश
हो! तुम कैसे
निर्णय करोगे
कि सत्य सत्य
है? तुम्हारे
पास क्या
मापदंड है? क्या तराजू
है? तुम
कैसे तौलोगे,
कि जो सत्य
है वह सत्य है?
तुम्हारे
सब तराजू झूठी
दुनिया के
हैं। तुम्हारे
सब बांट-बटखरे
झूठी दुनिया
के हैं। तुम
उनसे ही तौलोगे।
तुम दृश्य से
अदृश्य को तौलोगे?
तुम पदार्थ
से परमात्मा
को तौलोगे?
तुम्हारे
सब नापजोख के
साधन वस्तुओं
को तौलने के
लिए हैं।
चेतना को
तौलने का
तुम्हारे पास
कोई उपाय
नहीं। तुम
कैसे जानोगे
कि सत्य सत्य
है?
लेकिन
सम्राट
होशियार है, चालाक है।
अज्ञानी काफी
चालाक होता
है। ज्ञानी तो
भोला-भाला हो
जाता है।
अज्ञानी बहुत कनिंग और
चालाक होता
है।
उसने
कहा, 'यह भी
ठीक है, कि
तीन तुम कहने
जा रहे हो।
लेकिन यह भी
हमें भरोसा
होना चाहिए कि
जिन्हें तुम
सत्य कहते हो
वे वास्तव में
सत्य हैं।'
'इसलिए
जो कहें उसके
साथ उसका सबूत
भी रहना जरूरी
है।'
यही तो
सभी
अज्ञानियों
की मांग है।
वे कहते हैं, जो भी कहा
जाये उसका
प्रमाण
चाहिए। अब
परमात्मा का
कोई प्रमाण हो
नहीं सकता।
क्या प्रमाण
हो सकता है? जैसे तुम
प्रमाण
मांगोगे वैसे
ही प्रमाण नहीं
हो जायेगा।
वैसे ही
प्रमाण के
प्रगट हो जाने
का कोई उपाय
नहीं। या तो
सभी कुछ उसका
प्रमाण है, या फिर कुछ
भी उसका
प्रमाण नहीं।
परमात्मा को इंकार
करना बहुत
आसान है, क्योंकि
प्रमाण क्या
है? आज तक कोई
भी तो
प्रमाणित
नहीं कर पाया।
और बुद्धि उसी
को प्रमाणित
कर सकती है जो
बुद्धि से
छोटा हो।
बुद्धि से बड़े
को प्रमाणित
करने का उपाय
क्या है? यह
तो वैसे ही है
जैसे कोई एक
चम्मच को लेकर,
चाहे वह
चम्मच सोने की
ही क्यों न हो,
सागर को
नापता रहे।
मैंने
सुना है कि अरिस्टोटल, बहुत बड़ा
यूनानी
दार्शनिक
समुद्र तट पर
टहल रहा था, बड़े विचारों
में खोया हुआ।
सत्य की
उलझनों में
उलझा हुआ, कोई
मार्ग खोजता
इस महान जीवन
की पहेली के
बाहर। बहुत
तर्कनिष्ठ
व्यक्ति था, तर्क का
पिता था। उसने
देखा कि एक
आदमी, जब
वह टहल रहा है,
उसने एक छोटा
सा गङ्ढा
खोदा हुआ है
और बार-बार जा
कर सागर से एक
लोटे में पानी
भर कर जा कर उस गङ्ढे में
डालता है।
तो जब
बहुत बार देखा
तो उसकी
जिज्ञासा बढ़ी
कि यह क्या कर
रहा है। तो अरिस्टोटल
ने उससे पूछा
कि मेरे भाई, बड़ी देर से
देख रहा हूं, तुम यह कर
क्या रहे हो? उस आदमी ने
कहा कि बिलकुल
तय ही कर लिया
कि सागर को खाली
करके रहूंगा। अरिस्टोटल
हंसने लगा।
उसने कहा, 'पागल
मैंने बहुत
देखे लेकिन
तुम्हारा कोई
मुकाबला नहीं
है। तुम इस
लोटे से इस
छोटे से गङ्ढे
में पूरे सागर
को खाली करने
का सोच रहे हो?'
वह
आदमी खिलखिला
कर हंसने लगा
और कहा, 'अपने
संबंध में तो
सोचो। तुम
क्या कर रहे
हो? क्या
इस लोटे से
बड़ी तुम्हारी
खोपड़ी है, जिससे
तुम सारे
परमात्मा को
नापने निकल
चले हो? और
अगर मैं पागल
हूं, तो
तुम्हारी
क्या स्थिति
है! क्योंकि
सागर कितना ही
बड़ा हो, फिर
भी सीमित है।
अगर उलीचता ही
रहूं तो कितना
ही काल लग
जाये लेकिन एक
दिन यह सागर
चुकेगा।
लेकिन तुम
जिसे उलीच रहे
हो वह अनंत
है। अनंत काल
भी बीत जाये
तो भी वह खाली
न हो सकेगा।'
दार्शनिक
बस, ऐसे ही
कामों में लगा
है। और हर
आदमी चाहता है
प्रमाण। तुम
प्रामाणिक
नहीं हो, लेकिन
सत्य के लिए
प्रमाण चाहते
हो।
तो रोडरिक
ने कहा, 'यह
पक्का भरोसा
होना चाहिए, कि तुम जो भी
कहो, हम
कैसे मानेंगे
वह सत्य है? उसका प्रमाण
साथ होना
चाहिए।'
उमर ने
कहा, 'आप, जैसे
स्वामी के
लिए...।'
उमर
बड़ी गहरी मजाक
कर रहा है।
इससे ज्यादा
गुलाम आदमी
खोजना
मुश्किल है।
जो सत्य को भी
अधिकार में
करने की भाषा
सोच रहा है, जो सत्य को
भी गुलाम कर
लेना चाहता है,
इससे
ज्यादा गुलाम
खोजना
मुश्किल है।
यह बिलकुल
अंधा है। यह
बिलकुल
जड़-बुद्धि है।
इसके
लिए उमर ने
कहा कि 'आप
जैसे स्वामी
के लिए
जिन्हें हम एक
नहीं तीनत्तीन
सत्य देने जा
रहे हैं, हम
ऐसे ही सत्य
देंगे जो
स्वयं सिद्ध
हैं--सेल्फइवीडेंट
हैं।'
प्रमाण
की कोई जरूरत
ही न होगी।
स्वयंसिद्ध उसे
कहते हैं, जो स्वयं ही
अपना प्रमाण
है। जिसके
बाहर से प्रमाण
की कोई जरूरत
नहीं।
रोडरिक
अपनी
प्रशस्ति सुन
कर फूल उठा; फैल गया।
अहंकार
प्रशस्ति
चाहता है, सत्य नहीं। अगर
उसमें थोड़ी सी
समझ होती, तो
वह मजाक को
समझ गया होता।
कि पहले तो
सत्य तीन नहीं
हो सकते।
दूसरी बात, सत्य का कोई
प्रमाण नहीं
मांगा जा
सकता। तुम्हें
रूपांतरित
होना पड़ेगा तो
सत्य
प्रमाणित होगा।
सत्य को कोई
तर्क सिद्ध कर
नहीं सकता और
न कोई तर्क
असिद्ध कर
सकता है। सत्य
तर्कातीत है।
मगर समझो यह
भी न दिखाई
पड़ता तो कम से
कम इतना दिखाई
पड़ना था
कि उमर जैसा
ज्ञानी उससे
कह रहा है, 'आप
जैसे स्वामी',
लेकिन
अहंकार कभी भी
समझ नहीं
पाता।
इसीलिए
तो दुनिया में
खुशामद सफल हो
जाती है। तुम
गधे से गधे
आदमी से भी
कहो कि आप
जैसा ज्ञानी
नहीं देखा, वह भी राजी
है। किसी को
समझ में नहीं
आता कि खुशामद,
प्रशस्ति
झूठी भी हो
सकती है। बड़े
से बड़ा झूठ बोलो
प्रशस्ति में,
स्वीकार
है। बहुत
समझदार को ही
दिखाई पड़ता है
कि गलत हो
गया।
एक
अंग्रेज कवि
हुआ ईट्स।
उसे नोबल प्राइज
मिली। और डबलिन
में, क्योंकि
वह आइरिश
था, उसका
स्वागत-समारोह
किया गया। वह
बड़ा विनम्र आदमी
था। बड़ा सच्चा
आदमी था। लोग
उसकी प्रशस्ति
में बड़ी-बड़ी
बातें कहने
लगे। उसकी
प्रशंसा के
लिए ही तो सभा
का आयोजन हुआ
था। खचाखच हॉल
भरा था। गांव
के सब धनपति, सब
शक्तिशाली, पदशाली लोग इकट्ठे
थे। और एक के
बाद एक लोग
उठे; मेयर
उठा, मंत्री
उठे, अधिकारी
उठे, धनपति
उठे, और
उसकी
प्रशस्ति में
उन्होंने
बातें कीं। वह
अपनी कुर्सी
में जैसे
डूबता गया।
संकोच से भर
गया। उसका सिर
भी नीचे झुक
गया। लोग समझे
कि शायद वह सो
गया। लेकिन
इतनी
प्रशस्ति में
कोई कभी सोता?
सोता आदमी
जग जाता है!
फिर
आखिरी
अध्यक्ष ने
घोषणा की, कि हम सबकी
तरफ से एक
छोटी सी
भेंट--कोई
पच्चीस हजार
पौंड--स्वीकार
करें। तो उसने
सिर उठाया और
पच्चीस हजार
पौंड का जो
चेक था, खड़े
हो कर उसको
देखा, उसको
नीचे गिरा कर
उसने कहा, कि
सिर्फ पच्चीस
पौंड के लिए
इतना झूठ मुझे
सुनना पड़ा।
अध्यक्ष
ने कहा, 'माफ
करें, आप
ठीक से पढ़
नहीं पाये।
पच्चीस हजार
पौंड! उसने
कहा, 'पच्चीस
हजार पौंड और
पच्चीस पौंड
में क्या कोई
बहुत फर्क है?
मगर झूठ
इतना सुनना
पड़ा। डेढ़
घंटे से बैठा
हुआ अपने
संबंध में झूठ
सुन रहा हूं।'
बहुत
मुश्किल है कि
तुम्हारे
संबंध में जब
कोई प्रशस्ति
में झूठ कहे, तो तुम समझ
पाओ कि झूठ
है। और इतना
ही मुश्किल है
जब तुम्हारी
निंदा में कोई
सत्य कहे तो
तुम समझ पाओ
कि सत्य है; निंदा का
सत्य भी झूठ
मालूम होता है,
प्रशस्ति
का झूठ भी
सत्य मालूम
होता है। ऐसी
अहंकार की गति
है।
और संतत्व
का फूल खिलता
है, जब तुम
निंदा में भी
सत्य को खोज
लेते हो और प्रशस्ति
में भी झूठ को
खोज लेते हो।
अगर ये दो बातों
पर तुम्हारी
नजर रहे, अहंकार
बचेगा नहीं।
जल्दी ही उसे
खो जाना पड़ेगा।
क्योंकि ये दो
ही उसके सहारे
हैं।
नहीं, वह राजा यह
भी न देख पाया
कि स्वामी जो
असली में है, वह उस गुलाम
को मालिक कह
रहा है, स्वामी
कह रहा है। उस
जैसा दुष्ट
आदमी नहीं था।
हिंसक, प्रजापीड़क,
लोभी, लालची।
उसको वह कह
रहा है, 'उदार
दरबार।' 'न्यायप्रिय
लोग।' नहीं,
उसे कुछ भी
समझ में न
आया। अहंकार
बिलकुल अंधा
है। वह
करीब-करीब
बेहोश, नशे
में है। रोडरिक
प्रशस्ति सुन
कर फैल गया।
ध्यान
रखना, जिस
चीज को भी
सुनकर तुम
फैलो, सचेत
हो जाना; जिस
चीज को भी
सुनकर तुम सिकुड़ो,
सचेत हो
जाना। निंदा सिकोड़ती
है, प्रशस्ति
फैलाती है।
दोनों खतरनाक
हैं। और तुम
धीरे-धीरे यह
कोशिश करना कि
न तो तुम फैलना
और न तुम सिकुड़ना।
अगर तुम्हारा
फैलना-सिकुड़ना
बंद हो जाये
तो तुम अपने
स्वभाव में
थिर होने लगोगे।
उमर ने
कहा, 'पहला
सत्य यह है, कि मैं वह
हूं जिसे लोग तरागोना
का सूफी उमर
कहते हैं।'
अब वह
मजाक की हद कर
रहा है।
क्योंकि तुम
जब
स्वयंसिद्ध
सत्य चाहते हो, प्रमाण
चाहते हो, तो
क्षुद्र
बातों के ही
प्रमाण हो
सकते हैं, विराट
का कोई प्रमाण
नहीं है।
विराट की
गवाही कौन
देगा? गवाही
तो वह दे सकता
है जो विराट
से पहले मौजूद
रहा हो।
प्रमाण कौन
लायेगा? क्योंकि
हम सब उसी के
अंग हैं, उससे
अलग नहीं।
क्षुद्र
बातों की
गवाही हो सकती
है। क्षुद्र
बातों के
प्रमाण हो
सकते हैं।
उमर ने
पूरी संरचना
कर ली। और तब
उसने बड़ी मजाक
की बातें
कहीं। उसने
कहा कि मैं वह
हूं जिसे लोग तरागोना
का सूफी उमर
कहते हैं।
इसको तो राजा
भी इंकार नहीं
करेगा।
क्योंकि अगर
इसको इंकार
करो तो बात
खत्म हो गई। छोड़ो, मुझे
जाने दो।
क्योंकि मैं
उमर नहीं हूं।
उमर--राजा भी
मानता है इसे,
कि यह है।
सारी बस्ती
मानती है कि
यह उमर है। यह
सूफी फकीर है।
'और
दूसरा यह है, कि आपने
मुझे सच कहने
पर रिहा करने
का वचन दिया
है।'
इसको
भी राजा इंकार
नहीं कर सकता।
क्योंकि उसने
इतने गवाह खड़े
कर लिए हैं
दरबार में।
'और
तीसरा यह है, कि आप अपनी
धारणा का सत्य
चाहते हैं।'
ये
तीनों फिजूल
की बातें हैं।
लेकिन तीनों
बड़ी सांकेतिक
हैं। प्रमाण
फिजूल का ही
हो सकता है, व्यर्थ का
हो सकता है।
और अगर तुम
अपनी ही भाषा
में चाहते हो,
तो तुम
जितने नीचे
होओगे उतना ही
झूठ होता जायेगा।
तुम्हारी
ऊंचाई और
नीचाई पर
निर्भर करता
है कि
तुम्हारे लिए
कौन सी चीज
प्रमाण बनेगी।
अगर तुम
पदार्थ को ही
प्रमाण मानते
हो तो फिर
परमात्मा को
तुम्हारे
सामने कहना भी
उचित नहीं है।
अन्यथा जो
कहेगा वह उसे
सिद्ध न कर
पायेगा।
परमात्मा
निश्चित स्वयंसिद्ध
है। लेकिन
तुम्हें उसकी
ऊंचाई तक उठना
पड़ेगा।
तीसरी
बात मजाक में
है लेकिन फिर
भी महत्वपूर्ण
है। और वह यह
है कि आप अपनी
धारणा का सत्य
चाहते हैं। हर
आदमी यही
चाहता है। और
जब तक आप अपनी
धारणा का सत्य
चाहते हैं, सत्य न
मिलेगा।
तुम्हारी
धारणा के लिए
सत्य झुकने को
क्यों राजी
होगा।
तुम्हारी
धारणा का मूल्य
ही क्या है? अज्ञान में
बनाई गई धारणा
का कितना अर्थ
है?
लेकिन
मैंने सुना है, तुलसीदास गये कृष्ण
के मंदिर में
तो उन्होंने
कहा, 'मैं न झुकूंगा, जब तक धनुष
बाण हाथ न लोगे।
क्योंकि मैं
तो राम का
भक्त हूं।' तो तुम अपनी
धारणा के लिए झुकोगे? मस्जिद के
सामने हिंदू न
झुकेगा
और हिंदू कहता
है, कण-कण
में परमात्मा
का वास है।
मस्जिद में
नहीं है? मस्जिद
गजब की चीज है!
मुसलमान
मंदिर के
सामने न झुकेगा,
हालांकि वह
कहता है, सब
उसी का खेल
है। तो इस
मूर्ति को
जिसको
मुसलमान तोड़ता
है, इसमें
वह नहीं है? और अगर वह है
तो तुम उसी को
तोड़ रहे हो।
लेकिन हर आदमी
अपनी धारणा का
सत्य चाहता
है। इसका अर्थ
हुआ कि तुम
सत्य से बड़े
हो और सत्य को
तुम्हारे
ढांचे में आना
पड़ेगा। तुम
सत्य से ऊपर
हो और सत्य को
अगर जरूरत हो
तुम्हारी, तो
तुम्हारे रंग
में नाचे, तुम्हारे
ढंग में नाचे,
तुम्हारी
धारणा का रूप
ले। यह अहंकार
की बड़ी से बड़ी
आकांक्षा हो
सकती है।
इसलिए
जब तक
तुम्हारे पास धारणायें
हैं तब तक
तुम्हारा
सत्य से मिलन
न होगा। जब तक
तुमने तय कर
रखा है
परमात्मा की
मूर्ति धनुष
लिए, बांसुरी
बजाते हुए, बुद्ध की
तरह बैठी हुई,
महावीर की
तरह नग्न खड़ी
हुई--तब तक
तुम्हारा परमात्मा
से कोई संबंध
न होगा।
क्योंकि
तुम्हारी इस
बचकानी धारणा
के लिए
परमात्मा इस
रूप में प्रगट
हो! जिस दिन
तुम सब धारणायें
छोड़ दोगे, धारणा-शून्य
हो जाओगे, उसी
दिन वह प्रगट
हो जायेगा।
क्योंकि न
उसका कोई रूप
है, न रंग
है। तुम्हारी
सब धारणायें
तुम्हारे
अज्ञान से ही
निर्मित हुई
हैं। तुम उनको
ढोओ मत।
अंधेरे में
तुमने जो
बनाया है वह
प्रकाश में मत
ले जाओ। वह ले
जाया भी नहीं
जा सकता। और अगर
तुमने जिद की
तो प्रकाश को आने
में अवरोध
होगा।
तुम तो
उससे कह दो, 'तू जिस रूप
में हो, हम
राजी हैं। तू
जैसा प्रगट हो,
हम राजी
हैं।' तुम
अपनी धारणा को
बीच से हटा
लो। क्योंकि
धारणा का अर्थ
हुआ कि
तुम्हारा मन,
तुम्हारी
बुद्धि बीच
में खड़ी है।
तुम्हारी आंखों
का रंग तुम
परमात्मा पर
डालना चाहते
हो। परमात्मा
कोई
प्रक्षेपण, प्रोजेक्शन नहीं है।
तुम्हें
बिलकुल
धारणा-शून्य,
धारणा-रिक्त,
धारणा के
वस्त्रों से
बिलकुल नग्न
हो जाना पड़ेगा।
तुम्हारी
धारणा के कारण
ही तुम कहते
हो, हमारी
भाषा में
समझायें।
हमारे प्रतीक
का उपयोग
करें।
मेरे
पास लोग आते
हैं। सिक्ख
आते हैं, वे
कहते हैं, गुरु-ग्रंथ-साहिब
पर आप बोलें, तो हमारी
समझ में
आयेगा।
मुसलमान आते
हैं, वे
कहते हैं, आप
बाइबिल, गीता
पर बोलते हैं,
आप कुरान पर
बोलें तब
हमारी समझ में
आयेगा। जैसे
समझ में तो
उन्हें पहले
ही आ गया है।
मैं वे जो
मानते हैं
उसकी स्वीकृति
दे दूं, तो
वे प्रसन्न
होंगे, फैल
जायेंगे। वे
जो मानते हैं
उसको इंकार कर
दूं तो वे
सिकुड़
जायेंगे, नाराज
हो जायेंगे।
जैसे सत्य तो
तुम्हें मिल ही
चुका है। पाने
को कुछ भी
नहीं है।
सिर्फ सहमति
जुटानी है।
इससे ज्यादा मूढ़ कोई भावदशा
नहीं है।
तुम्हें
सत्य मिल नहीं
गया है। मिल
ही गया होता
तो बात ही खतम
थी। फिर मेरे
पास आने की
कोई जरूरत
नहीं है। फिर
कुरान, बाइबिल,
गीता में भी
खोजने की कोई
जरूरत नहीं
है। सत्य
तुम्हें मिल
नहीं गया है।
लेकिन तुम
चाहते हो कि
सत्य वैसा ही
हो, जैसा
तुम मानते हो।
क्यों? क्योंकि
तुम्हारे अहंकार
को तृप्ति
मिलेगी। और
अहंकार बड़े
खेल खेलता है।
तुम अगर हिंदू
हो तो तुम
कहते हो गीता
से महान कोई
किताब नहीं
है। क्यों? सच में गीता
महान किताब है?
शायद तुमने
पढ़ी भी न हो
पूरी। लेकिन
गीता की महानता
के पीछे तुम
अपनी महानता
सिद्ध करना चाह
रहे हो। कि
मैं हिंदू हूं,
मेरी किताब
महान है।
तुम
किसी को गुरु
मानते हो, कोई उसकी
निंदा कर दे, लड़ने को खड़े
हो जाते हो।
क्यों? और
सारे गुरु यह
कह रहे हैं कि
निंदा और
प्रशंसा को
समान समझना।
क्यों तुम
लड़ने खड़े हो
जाते हो? क्योंकि
तुम्हारा
गुरु अगर छोटा
हो गया तो तुम
भी उसी अनुपात
में छोटे हो
गये। छोटे
गुरु के छोटे
शिष्य; बड़े
गुरु के बड़े
शिष्य। अगर
तुम्हारा
गुरु दुनिया
का सबसे बड़ा
गुरु है तो
तुम दुनिया के
सबसे बड़े
शिष्य। तुम
अपने अहंकार
को पोस रहे
हो। तुम्हारा
धर्म, तुम्हारी
किताब, तुम्हारा
मंदिर, तुम्हारा
गुरु, सबको
तुमने आभूषण
बनाया है अपने
अहंकार को बड़ा
करने के लिए। और
वही बाधा है।
इसे
ठीक से देखो
और इन बाधाओं
को गिरा दो।
कोई धारणा मत
रखो।
तुम्हारे
पक्षपात काम न
आयेंगे।
तुम्हें
रूपांतरित
पूरा ही होना
होगा। अधूरे-अधूरे
काम न चलेगा।
थोड़ा-थोड़ा
लीपा-पोती करने
से तुम शुद्ध
नहीं होओगे।
तुम्हें तो
इतना बदलना
होगा जैसे कि
अतीत बिलकुल
मर गया और तुम
बिलकुल नये हो
गये। तुम्हारे
अतीत और
तुम्हारे बीच
सब संबंध समाप्त
हो जाना चहिए।
जैसे वह किसी
और का अतीत
था। वे
किताबें किसी
और ने पढ़ी
थीं। और वे धारणायें
किसी और ने
बनाई थीं।
उससे
तुम्हारा कोई
लेना-देना
नहीं।
लेकिन रोडरिक
प्रसन्न हुआ।
इन
वचनों का असर
हुआ।
इन
वचनों से कोई
सत्य नहीं मिल
गया। इन वचनों
से कोई
उपलब्धि नहीं
हो गई। लेकिन
असर हुआ। असर
क्या हुआ? असर यह हुआ
कि सूफी उमर
भी मुझे
स्वामी कहता है।
और सूफी उमर
भी मेरे दरबार
को उदार कहता
है। और
निश्चित ही
सूफी उमर ने
तीन बातें
कहीं, जिनको
झूठ कहना
असंभव है।
स्वयं-प्रमाण,
स्वयंसिद्ध
बातें कह दीं।
और मैंने एक
सत्य मांगा था
और सूफी ने
तीन दिए। रोडरिक
के अहंकार को
बड़ी तृप्ति
हुई। बड़ा असर
हुआ प्रजापीड़क
को।
और
उसने उमर को
रिहा कर दिया।
लेकिन
सूफी हंसते
रहे हैं कि
उमर ने भी खूब
मजाक की। रोडरिक
खूब बुद्धू
बना। सूफी तब
से हंसते रहे
हैं। इस कहानी
को पढ़ते हैं
और हंसते हैं।
और सूफी कहते
हैं जब तुम बुद्धुओं
के जाल में पड़
जाओ, तो इस
कहानी को याद
रखना। न तो
उनसे व्यर्थ
विवाद करने का
कोई सार है, क्योंकि
विवाद में कुछ
अर्थ हल न
होगा। न ही उनको
गलत कहने का
कोई अर्थ है।
क्योंकि वे
इतने गलत हैं
कि गलत सुनने
को भी राजी न
होंगे। और न अकारण
मूर्खों के
हाथ में शहीद
हो जाने में
कोई प्रयोजन
है।
सूफी
कहते हैं अपने
को गंवाना भी
पड़े, तो उसके
योग्य कोई
आदमी भी तो हो!
सूफी उमर राजी
हो जाता मरने
को, अगर रोडरिक
को उससे कुछ
लाभ होनेवाला
होता।
सूफियों के लिए
मौत क्या है? खेल है। वह
तैयार हो
जाता। अगर उसे
लगता कि मेरी
सूली इसके
जीवन में सत्य
बन जायेगी, तो वह तैयार
हो जाता।
लेकिन सूफी
कहते हैं, हर
चीज का
मूल्यांकन
वस्तुगत करो।
यह आदमी इस
योग्य नहीं है
कि पैर में कांटा
भी चुभाओ,
मरने की तो
जरूरत क्या है?
और उमर सही
साबित हुआ।
क्योंकि उसकी
व्यर्थ की
बातों से वह
सम्राट राजी
हो गया।
इधर
मेरा रोज का
अनुभव है, लोग आते हैं,
बड़े प्रश्न
पूछते हैं।
लेकिन उनकी
कोई वस्तुतः
आकांक्षा
नहीं है। वह
कुछ और ही...कुछ
और आकांक्षा
है। यह सम्राट
रोडरिक
भी सत्य का
कोई खोजी, कोई
सत्य की खोज
में नहीं था।
क्योंकि यह तो
सत्य के खोजी
का ढंग ही
नहीं है।
कुरान में एक
वचन है कि
हमेशा सम्राट
फकीर के द्वार
पर जाये; फकीर
कभी सम्राट के
द्वार पर न
जाये।
सूफी
फकीर हुआ
जलालुद्दीन
रूमी। वह
अक्सर सम्राट
के दरबार में
भी जाता था।
लोगों को
संदेह हुआ और
उन्होंने कहा, यह तो कुरान
के खिलाफ है।
और मुसलमान तो
बड़े लकीर के
फकीर हैं। जब
किताब में
लिखा है तो बस,
खतम हो गई
बात। एक दिन
उन्होंने घेर
लिया रूमी को।
और उन्होंने कहा
कि तुम राजमहल
से लौट रहे
हो। और किताब
में साफ लिखा
है, मुहम्मद
का वचन है, कि
फकीर कभी
राजमहल न
जाये। अगर आना
हो तो राजा
फकीर के पास
आये।
जलालुद्दीन
खूब हंसने लगा
और उसने कहा
कि देखो मैं
तुमसे कहता
हूं, कि
चाहे फकीर
राजा के पास
जाये, और
चाहे राजा
फकीर के पास
आये, हमेशा
राजा को ही
फकीर के पास
आना पड़ता है।
पता
नहीं, उस
भीड़ को समझ
में आया कि
नहीं!
मेरे
दादा थे, वे बेपढ़े-लिखे
आदमी थे।
बिलकुल अनपढ़,
ग्रामीण!
लेकिन कभी-कभी
वे बात बड़ी
कीमत की कहते
थे। अक्सर
ग्रामीण और
अनपढ़ लोग कहते
हैं। क्योंकि
उनके पास तो
जो कुछ भी
संपदा है वह
थोड़े से अनुभव
की होती है।
वे एक छोटी सी
दूकान करते
थे। और ग्राहक
अगर बहुत मोल
तोल करने लगे,
तो वे उससे
कहते थे कि
देखो, तरबूज
चाहे छुरी पर
गिरे, चाहे
छुरी तरबूज पर,
हर हालत में
तरबूज कटता
है।
बस, यही रूमी ने
कहा कि चाहे
फकीर राजा के
घर जाये, चाहे
राजा फकीर के
घर, हर
हालत में राजा
फकीर के घर
आता है।
क्योंकि छुरी
के कटने का तो
कोई सवाल नहीं
है। जब भी कटेगा,
तरबूज
कटेगा। अगर
तुम्हारी
मर्जी है, तुम्हें
ज्यादा मजा
आता हो तो
तरबूज को छुरी
पर गिराओ,
इससे कोई
बहुत फर्क
नहीं पड़ता।
यह
सूफी फकीर उमर
और रोडरिक
का मिलना
व्यर्थ गया।
क्योंकि यह
सम्राट रोडरिक
कटने को राजी
नहीं था। अगर
कटने को राजी
होता, तो
उमर को बुलाने
की जरूरत भी न
थी। उसके झोपड़े
पर ही जाना
उचित था।
समर्पित
भाव से, श्रद्धा
से पूछे गये
प्रश्न उत्तर
की झलक ला सकते
हैं। झुक कर, विनम्र हो
कर की गई
प्रार्थना
पूरी हो सकती
है। जिस तरह
का आग्रह उसने
किया, उस
आग्रह के कारण
उमर ने सिर्फ
व्यंग किया, मजाक किया, जैसे कोई
बच्चों के साथ
मजाक करता है।
इस बात
को तुम भी
ध्यान रखना।
सत्य की खोज
में अगर तुम
किसी लोभ के
कारण गये हो, तो नहीं
पहुंच पाओगे
मंदिर तक। अगर
तुम मंदिर पर
हमला करना
चाहते हो, तुम्हारा
दिमाग सैनिक
का है, तो
भी तुम चूक
जाओगे। वहां
प्रेमी
पहुंचता है, सैनिक नहीं।
और अगर तुम
अपने अज्ञान
को बचा कर
सत्य को जानना
चाहते हो, तो
सत्य को कभी न
जान पाओगे।
क्योंकि
अज्ञान को बचा
कर दीया जलाने
का कोई उपाय
नहीं है।
आज
इतना ही।
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