प्रश्नसार:
1—क्या
सार्त्र में
झेन—चेतना है?
2.
हरमन हेस के
सिद्धार्थ ने
बुद्ध से कहा :
मुझे अपने ही
ढंग से चलते
जाना है—या मर
जाना है। इस
पर आप कुछ
कहेंगे?
3—अगर
कहीं कोई व्यक्ति
रूप परमात्मा
नहीं है, तो आप हर
सुबह मेरे
मनोविचारों
का उत्तर क्यों
देते है?
4—उस
करीब—करीब
योगी ह्रदय के
विषय में आपके
उत्तर न मुझे
निम्नलिखित
संवाद की याद
दिला दी है:
पत्नी:
प्रिय, जब से हमारा
विवाह हुआ तुम
मुझे ज्यादा
प्यार करते
हो या कम?
पति:
ज्यादा या
कम।
पहला प्रश्न:
भगवान
एक बार आपने
सार्त्र के
विषय में
बोलते हुए कहा
था कि एक
इंटरव्यू में
जब उससे पूछा
गया कि आपके
जीवन में सबसे
ज्यादा
महत्वपूर्ण क्या
है? तो
सार्त्र ने
उत्तर दिया
था. 'सभी
कुछ— जीवन को
प्रेम करना
जीवन को जीना
सिगरेट पीना
सभी कुछ।’
और इस
पर बोलते हुए
आपने कहा था
कि यह उत्तर
बहुत कुछ झेन
की भांति है
लेकिन क्या
सार्त्र में
झेन—चेतना है?
इसीलिए
मैंने कहा था, यह उत्तर
बहुत कुछ झेन
की भांति है।
पूरी तरह झेन
नहीं है, लेकिन
बहुत कुछ झेन
की भांति है।
वह करीब —करीब
उस सीमा' पर
है जहां कि वह
झेन हो सकता
है। वह वहीं
का वहीं चिपका
हुआ भी रह
सकता है जहां कि
वह खड़ा हुआ है,
और तब वह
झेन न बन
सकेगा। लेकिन
अगर वह छलांग
लगा सके तो
झेन बन सकता
है। सार्त्र
वहीं खड़ा है जहां
बुद्ध भी
संबोधि को
उपलब्ध होने
से पहले खड़े थे,
लेकिन
बुद्ध भविष्य
के लिए खुले
हुए थे। बुद्ध
अभी खोज रहे
थे, वे अभी
यात्रा पर थे।
और सार्त्र
अपनी
नकारात्मकता
में ही ठहर
गया था। जीवन
में
नकारात्मकता
जरूरी है, लेकिन
पर्याप्त
नहीं। इसीलिए
मैं तुमसे
निरंतर कहे
चला जाता हूं
कि जब तक तुम
परमात्मा के
प्रति न कहने
में सक्षम
नहीं हो जाते,
तुम हा कहने
में भी कभी
सक्षम न हो
पाओगे। लेकिन
केवल न कहना
ही पर्याप्त
नहीं है। न
कहना आवश्यक
है, लेकिन
व्यक्ति को
आगे जाते जाना
है —न से ही तक, नकारात्मक
से विधायक तक।
सार्त्र
अभी भी
नकारात्मक को
ही पकड़े हुए
है, नहीं
को ही पकड़े
हुए है। अच्छा
है वह कम से कम
वहां तक तो आ
पहुंचा, लेकिन
केवल
नकारात्मकता
पर्याप्त
नहीं है। एक
कदम और, फिर
जहां
नकारात्मकता
भी खो जाती है,
जहां
नकारात्मकता
को भी नकार
दिया जाता है।
नकारात्मक को
नकार देना
पूर्णरूपेण
विधायक हो
जाना है। और
जब कोई
नकारात्मकता
को भी नकार
देता है, तब
उसके संपूर्ण
अस्तित्व से
ही आती है।
समझो
कि तुम उदास
हो। और तुम
अपनी उदासी को
भी स्वीकार कर
लेते हो, तुम उदासी
को इस भांति
स्वीकार कर
लेते हो जैसे
कि 'यही
अंत है।’ तब
यात्रा रुक
जाती है। तब
फिर कोई खोज, कोई तलाश
शेष नहीं रह
जाती है —तब
तुम नकार में
ही ठहर जाते
हो। तुम अपना
घर न में ही, नकार में ही
बना लेते हो।
तब तुम गतिमान
नहीं रह जाते
हो, तुम जड़
हो जाते हो, अवरुद्ध हो
जाते
हो। फिर
नहीं ही
तुम्हारी
जीवन —शैली बन
जाती है। कभी
भी किसी चीज
को अपनी जीवन —शैली
मत बनने देना।
अगर तुमने
नहीं को
उपलब्ध कर
लिया है तो
वहीं पर मत
रुक जाना।
क्योंकि खोज
अंतहीन है।
चलते जाना, चलते ही
चले जाना...।
एक दिन
जब नहीं के
एकदम गहन तल
तक पहुंच
जाओगे, तब तुम ऊपर
सतह की ओर
बढ़ने लगते हो।
नहीं में
जितने गहरे जा
सकते हो, उतने
गहरे जाओ। एक
दिन तुम नहीं
के गहनतम तल
तक पहुंच
जाओगे। फिर
उसी जगह पर
टर्निंग
पाइंट आता है
जब तुम विपरीत
दिशा की ओर
बढ़ने लगते हो।
तब हा का जगत
प्रारंभ होता
है। पहले तुम
नास्तिक थे, अब तुम
आस्तिक हो
जाते हो। अब
तुम संपूर्ण
अस्तित्व के
प्रति ही कहने
में सक्षम हो
जाते हो। तब
वही उदासी
आनंद में बदल
जाती है, तब
वही नहीं ही
में बदल जाती
है। लेकिन यह
भी अंत नहीं
है। आगे और
आगे बढ़ते चले
जाना है। जैसे
नहीं चला गया,
ऐसे ही एक
दिन ही भी चला
जाएगा।
यही है
झेन का सार कि
जहां ही और
नहीं दोनों खो
जाते हैं, और
व्यक्ति पूरी
तरह से धारणा—विहीन
हो जाता है।
तब किसी भी
तरह का कोई
विचार नहीं रह
जाता है —बस
उसके पास एक
सुस्पष्ट —साफ
नग्न —निर्वसन
दृष्टि बच
रहती है, जो
किसी भी चीज
से आच्छादित
नहीं होती है —यहां
तक कि अब हं।
भी नहीं बचता
है। किसी तरह
का कोई विचार,
कोई मत, कोई
सिद्धांत, कोई
शिक्षा नहीं
बच रहती है —फिर
कोई भी विचार
अवरुद्ध नहीं
करता है, कोई
बाधा शेष नहीं
रह जाती है।
इसे ही पतंजलि
निर्बीज
समाधि कहते
हैं, बीज
रहित समाधि
कहते हैं।
क्योंकि हा
में तो फिर भी
कहीं न कहीं
बीज निहित रह
सकता है।
जिस
क्षण हा भी
बिदा हो जाता
है, वही
घड़ी रूपांतरण
की घड़ी है। यह
वह बिंदु है जहां
व्यक्ति पूरी
तरह से
तिरोहित हो
जाता है, और
साथ ही साथ
उसी पल, उसी
क्षण समग्र भी
हो जाता है।
इसी कारण
बुद्ध
परमात्मा के
लिए न तो कभी
हा कहेंगे, और न ही कभी न
कहेंगे। अगर
कोई बुद्ध से
पूछे, 'ईश्वर
है?' तो
ज्यादा से
ज्यादा वे
मुस्कुरा देंगे।
वह मुस्कान
उनके ज्ञान को
दर्शाती है।
वे ही भी नहीं
कहेंगे, वे
न भी नहीं
कहेंगे, क्योंकि
वे जानते हैं
कि दोनों ही
बातें रास्ते
के पड़ाव हैं, मंजिल नहीं—
और अंततः
दोनों ही
बातें बचकानी
हैं। वस्तुत:
किसी भी चीज
के साथ जब कोई
चिपकने लगता
है तो वह
बचकानी हो
जाती है।
क्योंकि केवल
एक बच्चा ही
किसी चीज से
चिपकता है, उसे पकड़ता
है। परिपक्व
व्यक्ति की तो
सारी पकड़ छूट
जाती है। और
परिपक्वता
वही है जिसमें
किसी तरह की
कोई पकड़ न हो —यहां
तक कि ही की
पकड़ भी —न हो।
बुद्ध
जितने
ईश्वरमय हैं, उतने ही
ईश्वर —विहीन
भी हैं। जो
लोग भी
बुद्धत्व को
उपलब्ध होते
हैं, वे ही
और नहीं दोनों
के पार उठ
जाते हैं, वे
दोनों के पार
चले जाते हैं।
स्मरण
रहे, सार्त्र
कहीं न कहीं
अभी भी नहीं
के छोर को, नकार
के छोर को ही
पकड़े हुए है।
इसीलिए वह
निरंतर उदासी,
हताशा, चिंता,
पीड़ा—व्यथा
की ही चर्चा
किए चला जाता
है। नकार की
ही चर्चा किए
चला जाता है।
उसने एक
पुस्तक लिखी
है, जो कि
उसकी एक बड़ी
महान
साहित्यिक
रचना है, 'बीइंग
एंड नथिगनेस।’
इस पुस्तक
में उसने यह
प्रमाणित
करने की कोशिश
की है कि बीइंग,
अस्तित्व
जैसा कुछ भी
नहीं है —उसने
उस पुस्तक में
अस्तित्व को
समग्र रूप से नकारा
है। इसके
बावजूद भी वह
उसे ही पकडे
रहे।
फिर भी
सार्त्र एक
प्रामाणिक
व्यक्ति है।
उसकी नहीं में, उसकी
नकार में
सच्चाई है।
उसने इस नकार
कहने को
अर्जित किया
है। उसने केवल
परमात्मा को
अस्वीकार ही
नहीं किया है
वह उस
अस्वीकार में
जीया भी है।
और इसके लिए
उसने पीड़ा
उठायी है, दुख
उठाया है, इसके
लिए उसने
त्याग किया है।
इसलिए उसकी
नकार में, नहीं
में एक
प्रामाणिकता
है।
तो
दुनिया में दो
तरह के
नास्तिक होते
हैं —जैसा कि
प्रत्येक
आयाम में, प्रत्येक
दिशा में दो
तरह की
संभावनाएं
होती हैं
प्रामाणिक और
अप्रामाणिक।
व्यक्ति
किन्हीं गलत
कारणों से भी
नास्तिक बन
सकता है। एक
कम्युनिस्ट
भी नास्तिक
होता है, लेकिन
वह सच्चा
नास्तिक नहीं
होता है। उसके
नास्तिक होने
के कारण झूठे
होते हैं, उसके
नास्तिक होने
के कारण
बनावटी होते
हैं। उसने
अपनी नकार को,
नहीं को
जीया नहीं है।
उसके लिए उसने
कुछ दाव पर
नहीं लगाया है।
नहीं
को, नकार
को जीने का
मतलब
नकारात्मकता
की वेदी पर स्वयं
को बलिदान कर
देने जैसा
होता है।
भयंकर पीड़ा और
विषाद को
झेलना पड़ता है।
व्यक्ति
अंधकार में
टटोलता हुआ
भटकता रहता है,
और कभी—कभी
मन की उस
निराश अवस्था
में चला जाता
है जहां सिवाय
अंतहीन
अंधकार के और
कुछ नहीं बचता
है और जीवन
में किसी तरह
की कोई आशा
नहीं रह जाती है।
नहीं को जीने
का मतलब है
बिना किसी
उद्देश्य के,
बिना किसी
अर्थ के जीना।
और उस समय
किसी भी तरह
से किसी भी
प्रकार के भ्रम
का निर्माण
नहीं करना है;
क्योंकि
बहुत से
प्रलोभन
मौजूद होते
हैं। क्योंकि
जब गहन अंधकार
हो तो ऐसे
बहुत से प्रलोभन
उठते हैं कि
कम से कम सुबह
का सपना ही
देख लो, सुबह
के बारे में
विचार ही कर
लो, अपने
आसपास सुबह को
पा लेने का एक
भ्रम ही खड़ा
कर लो। और जब
आशा का
निर्माण होने
लगता है, तो
उसमें
विश्वास भी
आने लगता है, क्योंकि
बिना विश्वास
के आशा संभव
ही नहीं है।
अगर व्यक्ति
विश्वास करता
है तो आशा कर
सकता है। जबकि
विश्वास भी
अप्रामाणिक
होता है, अविश्वास
भी
अप्रामाणिक होता
है।
सार्त्र
की नहीं में, नकार में
सचाई है। वह
उस नकार में
जीया है; उसने
उसके लिए पीड़ा
झेली है।
इसलिए वह किसी
भी विश्वास को
नहीं पकड़
सकेगा। कैसा
भी प्रलोभन हो,
वह स्वप्न
नहीं देखेगा।
वह किसी भी
तरह की आशा के
लिए या भविष्य
के लिए, या
परमात्मा के
लिए, या
स्वर्ग के लिए
वह स्वप्न
नहीं देख
सकेगा—नहीं, वह किसी
प्रलोभन में
नहीं पड़ेगा।
वह अपनी नकार
में अडिग
रहेगा। वह
तथ्य के साथ
जुड़ा रहेगा और
उसके लिए तथ्य
यह है कि जीवन
का कोई अर्थ
नहीं है। कहीं
कोई परमात्मा
इत्यादि आकाश
में बैठा हुआ
दिखायी नहीं
पड़ता है, आकाश
खाली नजर आता
है। इस दुनिया
में कहीं कोई
न्याय दिखायी
नहीं पड़ता है।
अस्तित्व तो
बस एक
सांयोगिक
घटना है—इस
दुनिया में
कहीं कोई
सुव्यवस्था
या संगति नहीं
है, बल्कि
असंगति और
अव्यवस्था है।
और
अव्यवस्था के
साथ रहना थोड़ा
कठिन होता है, या कहना
चाहिए कि
असंभव ही होता
है। कहना
चाहिए इतनी
अव्यवस्था के
बीच रहना या
तो यह अमानवीय
कार्य है, या
अतिमानवीय
कार्य है —इतनी
अव्यवस्था के
बीच रहना और
कोई दिवास्वप्न
नहीं देखना।
क्योंकि उस
अव्यवस्था के
बीच व्यक्ति
को ऐसा लगने
लगता है जैसे
कि वह पागल हो
रहा है। यही
वह अवस्था है
जहां नीत्शे
एग्गल हो गया
था—उसी अवस्था
में जिसमें
सार्त्र है।
नीत्शे पागल
हो गया। इस नए
विचार को
प्रतिष्ठित
करने वाला वह
पहला आदमी था,
प्रथम पथ —प्रदर्शक
जिसने
प्रामाणिकता
के साथ नहीं के
लिए प्रयास
किया। लेकिन
अंत में वह
स्वयं
विक्षिप्त हो
गया था। अगर
बहुत से लोग
नहीं को जीने
की कोशिश
करेंगे तो
पागल हो ही
जाएंगे —क्योंकि
तब तो फिर
दुनिया में
कहीं कोई
प्रेम नहीं रह
जाएगा, किसी
तरह की कोई
आशा नहीं रह
जाएगी, कहीं
तब फिर जीने
का कोई अर्थ
नहीं रह जाएगा।
तब व्यक्ति का
जन्म अकारण
होता है, सांयोगिक
होता है। इसी
कारण उसके
भीतर और बाहर
एक तरह की
रिक्तता होती
है, एक तरह
का खालीपन
होता है
क्योंकि जीवन
का कहीं कोई
उद्देश्य या
लक्ष्य नहीं
रह जाता है।
तब कहीं कुछ
पकड़ने को नहीं
रह जाता है, तब जीवन में
कहीं जाना
नहीं है —फिर
इस पृथ्वी पर
होने के लिए, या रहने का
कोई कारण नहीं
बचता है।
इसलिए
नकार में जीवन
को जीना बहुत
ही कठिन है, लगभग
असंभव ही है।
सार्त्र
ने इस नकार को
अर्जित किया
है, वह
इसमें जीया है।
सार्त्र एक
ईमानदार आदमी
है—एक ईमानदार
अदम। उसने
परमात्मा की
अवज्ञा की।
उसने नहीं
कहने का साहस
किया। और उसे
आशाओं के, स्वप्नों
के, इच्छाओं
के बगींचे के
बाहर उठाकर
फेंक दिया गया।
सार्त्र एकदम
अकेला नग्न और
निर्वसन होकर
इस तटस्थ, भावना
से शून्य ठंडे
संसार में
जीया था।
सार्त्र
एक सुंदर
व्यक्ति है, लेकिन
अभी उसे एक
कदम उठाने की
और आवश्यकता
है। उसे थोड़े
से साहस की और
आवश्यकता है।
क्योंकि उसने
अभी भी शून्य
की गहराई को
स्पर्श नहीं
किया है।
और वह
शून्य की
गहराई को छूने
के योग्य
क्यों नहीं हो
पाया? क्योंकि
उसने शून्य के
विषय में
दर्शन —सिद्धांत
बना लिया था।
अब वह दर्शन
ही उसे अपने
अर्थ दे देता
है। वह उदासी
की बात करता
है। क्या
तुमने कभी
किसी आदमी को
अपनी उदासी के
विषय में बात
करते हुए देखा
है? वह बात
इसलिए करता है,
क्योंकि
बात करना
उदासी को भगा
देने में मदद
करता है।
इसीलिए तो लोग
उदासी के बारे
में बात किए
चले जाते हैं।
लोग अपने दुखी
जीवन के बाबत
बात किए चले
जाते हैं। वे
केवल बात करने
के लिए ही बात
करते हैं, और
थोड़ी देर बाद
सब भूल जाते
हैं।
सार्त्र
निरंतर कहे
चले जाता है, इस बारे
में तर्क करता
चला जाता है
कि जीवन में
कुछ भी
अर्थपूर्ण
नहीं है, पूरा
जीवन ही
अर्थहीन है, व्यर्थ है।
अब यही बात कि
जीवन अर्थहीन
है, व्यर्थ
है सार्त्र के
लिए
अर्थपूर्ण हो
गयी—कि .अब इस
बात के लिए कि
जीवन अर्थहीन
है, व्यर्थ
है, इसके
लिए तर्क करना
है, इसके
लिए संघर्ष
करना 'है।
यही वह बिंदु
है जहां
सार्त्र चूक
गया। अगर वह
थोड़ा और गहरे
जाता, तो
शून्य की अनंत
गहराई निकट ही
थी। अगर वह
नकार की थोड़ी
और गहराई में
चला जाता, तो
वापस वह हां
की तरफ, विधायक
की तरफ लौट
आता।
नहीं
से ही ही का
जन्म होता है।
अगर नहीं से हां
का जन्म न हो
तो जरूर कहीं
कुछ गड़बड़ है।
वरना तो ऐसा
होना ही चाहिए।
तुम देखते हो
न, रात्रि
के गहन अंधकार
में से ही भोर
का जन्म होता
है। अगर
रात्रि के बाद
भोर न हो, सूरज
नहीं उगे तो
कहीं कुछ जरूर
गड़बड़ है। और
ऐसा भी हो
सकता है कि
सूरज मौजूद भी
हो, लेकिन
आदमी ने अपने
मन में सोच
लिया हो कि आंखें
नहीं खोलनी
हैं। वह
अंधकार का
अभ्यस्त हो
गया होता है, या फिर वह
अंधा हो गया
होता है, या
फिर आदमी अंधकार
में इतना रह
लिया है कि
प्रकाश से
उसकी आंखें
चौंधिया जाती
हैं और उसे
अंधा बना देती
हैं।
इस
जीवन में या
आगे के जीवन
में एक कदम और, और
सार्त्र सच
में झेन हो
जाएगा। वह हां, कहने के
योग्य हो
जाएगा। और वह
ही नहीं के ही
कारण कह पाएगा।
लेकिन स्मरण
रहे, उसकी
ही प्रामाणिक
और सच्ची नहीं
के कारण ही
होगी।
क्या
कभी तुमने
किसी स्त्री
की झूठी
गर्भावस्था
की घटना पर
ध्यान दिया है? एक
स्त्री को ऐसा
विश्वास हो
जाता है कि वह
गर्भवती है।
और केवल मात्र
विश्वास करने
के कारण, केवल
मात्र विचार
के द्वारा ही
वह आत्म—सम्मोहित
हो जाती है कि
वह गर्भवती है।
उसे लगने लगता
है कि उसका
पेट बढ़ रहा है —और
पेट सच में ही
बढ़ने लगता है।
हो सकता है
वहां हवा के
अतिरिक्त और
कुछ न हो। और
उसका पेट हर
महीने बड़ा और
बड़ा, और
बड़ा होता चला
जाता है। बस
उसका मन, उसका
विचार पेट में
हवा भरने में
मदद करता है।
और वहां है
कुछ भी नहीं—
भीतर कोई गर्भ
नहीं है, कोई
बच्चा नहीं है।
वहा एक झूठा
गर्भ है, इससे
किसी बच्चे का
जन्म न होगा।
जब कोई
व्यक्ति बिना
किसी मूल्य को
चुकाए, बिना किसी
अर्जन के, बिना
जीए 'नहीं'
कहता है—उदाहरण
के लिए अब रूस
में 'नहीं'
कहना एक
शासकीय नियम
ही बन गया है।
वहां हर आदमी
कम्युनिस्ट
हो गया है, और
हर आदमी
नास्तिक बन
गया है। अब यह
जो नहीं होगी,
यह बोगस और
बनावटी होगी,
उसमें कोई
अर्थ नहीं
होगा—उतनी ही
बोगस और
बनावटी जितनी
कि भारतीयों
की ही होती है।
अब यह जो नहीं
है, यह एक
तरह का
कृत्रिम गर्भ
है। लेकिन रूस
में यह
प्रशासकीय
धर्म है, अब
यह जो नहीं है,
वह वहा की
सरकार के
द्वारा
प्रचारित है।
रूस में हर एक
स्कूल में, कालेज में
और
यूनिवर्सिटी
में, नहीं
की ही पूजा हो
रही है। अब
नास्तिकता ही
रूस का धर्म
बन गई है, और
हर एक व्यक्ति
को नास्तिकता
की शिक्षा दी
जा रही है।
तो रूस
में यह नहीं
कृत्रिम गर्भ
की तरह होगा।
उनकी नहीं भी
दूसरों के
द्वारा नापी —तौली
हुई होगी।
जैसे कि कोई
व्यक्ति ईसाई
घर में या
हिंदू घर में
या मुसलमान घर
में पैदा हो
जाए और फिर
उसे उसी धर्म
के अनुसार
शिक्षा दी जाए
जिसमें कि वह
पैदा हुआ है, तो धीरे —
धीरे वह उसी
में विश्वास
करने लगता है।
एक
छोटा बच्चा
अगर अपने पिता
को प्रार्थना
करते हुए
देखता है तो
वह भी
प्रार्थना
करने लगता है, क्योंकि
बच्चे हमेशा
अपने बड़ों का
अनुकरण करते
हैं। अगर पिता
चर्च में जाता
है, तो
बच्चा चर्च
चला जाता है।
जब वह यह
देखता है कि यहां
पर तो हर कोई
किसी न किसी
बात में
विश्वास कर रहा
है, तो वह
भी विश्वास का
दिखावा करने
लगता है।
अब इसी
से कृत्रिम
गर्भ का जन्म
होता है। अब
पेट तो बढ़ता
चला जाएगा, लेकिन
उसमें से किसी
बच्चे का जन्म
नहीं होगा, उसमें से
किसी जीवन का
जन्म न होगा।
केवल बढे हुए
पेट के कारण
व्यक्ति जरूर
कुरूप हो जाएगा।
झूठी 'ही' भी
हो सकती है, झूठी 'नहीं'
भी हो सकती
है, तब फिर
उसमें से कुछ
भी बाहर नहीं
आएगा। वृक्ष
की पहचान उसके
फल से होती है,
और कार्य का
पता उसके
परिणाम से ही
चलता है। हम
प्रामाणिक
हैं या नहीं, इसका पता
हमारे
पुनर्जन्म से
ही चलता है।
यह तो हुई एक
बात।
दूसरी
बात ध्यान में
रखने की यह है
कि शायद तुम
सच में ही
गर्भ धारण किए
हो, लेकिन
अगर मां बच्चे
को जन्म देने
से ही मना कर
दे, तो वह
बच्चे को ही
मार डालेगी।
गर्भ में अगर
बच्चा
हो, तो भी उस
बच्चे को जन्म
देने के लिए मां
को सहयोग तो
करना ही पड़ता
है। जब नौ
महीने के
विकास के बाद
बच्चा गर्भ से
बाहर आना
चाहता है, तो
मां को भी
सहयोग करना
पड़ता है।
क्योंकि
बच्चे को जन्म
देने में मा
सहयोग नहीं
देती है, इसीलिए
उसे इतनी अधिक
पीड़ा झेलनी
पड़ती है।
बच्चे का जन्म
इतनी
स्वाभाविक, और प्राकृतिक
घटना है कि
मां को कोई
पीड़ा होनी ही
नहीं चाहिए।
और जो
लोग जानते हैं, उनका
कहना है कि
अगर मां बच्चे
को जन्म देने
में सहयोग करे
तो बच्चे के
जन्म की घटना
स्त्री के
जीवन के
सर्वाधिक
आनंदमयी
घटनाओं में से
एक है। उस
स्त्री के लिए
उस जैसी आनंद
की कोई और बात
नहीं है।
स्त्री के लिए
कोई भी संभोग
का अनुभव इतना
गहरा और आनंद
का अनुभव नहीं
होता है जितना
कि जब एक
स्त्री बच्चे
के जन्म की
प्रक्रिया
में सहभागी हो
रही होती है।
एक नए जीवन को
जन्म देने में,
एक नए
अस्तित्व के
जन्म के साथ
स्त्री का
रोयी —रोयी
तरंगायित और आंदोलित
हो जाता है।
बच्चे को जन्म
देने में वह
परमात्मा का
माध्यम बन
जाती है। तब
वह स्रष्टा बन
जाती है। उसके
शरीर का रोआं—रोआं,
उसके शरीर
का पोर—पोर एक
नयी धुन के
साथ थिरकने
लगता है, उसके
अस्तित्व में
एक नया गीत, नई धुन
सुनायी देने
लगती है। वह
परम आनंद में
डूब जाती है।
कोई भी संभोग
का अनुभव इतना
गहरा नहीं
होता, जितना
कि स्त्री के
मां बनने का
अनुभव होता है।
लेकिन
अभी तो ठीक
इसके विपरीत
हो रहा है।
स्त्री का रोआं
—रोआं आनंदित
होने की
अपेक्षा, वह एक भयंकर
पीड़ा से
गुजरती है। और
वह पीड़ा से
इसलिए गुजरती
है, क्योंकि
बच्चे को जन्म
देते समय वह
संघर्ष करती
है। बच्चा
बाहर आ रहा
होता है, बच्चा
गर्भ छोड़ रहा
होता है, बच्चा
बाहर आने को
तैयार होता है
—वह बाहर बड़े
विशाल संसार
में आने को
तैयार होता है
—और मां बच्चे
को पकड़े रहती
है, उसे
बाहर आने में
मदद नहीं देती
है। वह बंद
रहती है, बच्चे
को बाहर आने
में मदद करना
तो दूर, वह
उसके बाहर आने
में बाधा
डालती है। वह
खुली नहीं
होती है। अगर
स्त्री सच में
ही बंद रहे तो
बच्चे को मार भी
डाल सकती है।
ऐसा ही
सार्त्र के
साथ हो रहा है
सार्त्र के गर्भ
में बच्चा
तैयार है, और उसने
सच में गर्भ
धारण किया है,
लेकिन अब वह
बच्चे को जन्म
देने से भयभीत
है। अब नहीं
ही उसके जीवन
का एकमात्र
ध्येय बन गया
है, जैसे
कि स्वयं गर्भ
ही ध्येय हो, बच्चा ध्येय
न हो। जैसे कि
किसी स्त्री
को गर्भ ढोने
में इतना आनंद
आता हो कि
बच्चे को जन्म
देने से वह
भयभीत हो कि
अगर बच्चा
पैदा हो गया
तो वह कुछ खो
देगी। लेकिन
गर्भावस्था
जीवन—शैली
नहीं बननी
चाहिए।
गर्भावस्था
तो एक
प्रक्रिया है,
वह प्रारंभ
होती है और
समाप्त होती
है। उसे पकड़ना
नहीं चाहिए।
सार्त्र उसे
पकड रहा है, उससे चिपक
रहा है, वहीं
पर वह चूक रहा
है। दुनिया
में ऐसे बहुत
से नास्तिक
हैं, जो
व्यर्थ के
नास्तिक हैं।
दुनिया में
ऐसे बहुत थोड़े
से नास्तिक
हैं, जो
सच्चे अर्थों
में नास्तिक
हैं। लेकिन
अगर कोई सच्चे
अर्थ में
नास्तिक हो, तब भी वह चूक
सकता है।
किसी
भी तरह के
विचार को, या
दृष्टि को
अपना सिद्धांत
मत बन जाने
देना, क्योंकि
अगर एक बार वह
हमारा सिद्धांत
बन जाती है तो
उसके साथ
हमारा अहंकार
जुड़ जाता है, और तब फिर हम
उसका सब भांति
बचाव करते हैं,
उसके बचाव
के लिए तर्क
करते हैं, और
उसे सिद्ध
करने के लिए
सभी प्रकार के
प्रमाण
जुटाते हैं।
अमिताभ
ने एक छोटी सी
कहानी भेजी है।
उसे समझना ठीक
होगा
ब्रुकलिन
के एक यहूदी
संत ने एक
दूसरे यहूदी संत
से पूछा, 'वह हरी चीज
क्या है जो
दीवार पर लटकी
रहती है और
सीटी बजाती है?'
एक
पहेली : कि वह
हरी चीज कौन
सी है, जो
दीवार पर लटकी
रहती है और
सीटी बजाती है?
दूसरे
यहूदी संत ने
गंभीरता पूर्वक
कहा, 'मैं
नहीं जानता।’
पहले
संत ने कहा, 'एक लाल
हिलसा।’
दूसरा
संत बोला, 'मगर
तुमने तो कहा
था कि वह हरी
है।’
पहला
संत, 'तुम
उसको हरे रंग
में रंग सकते
हो।’
लाल
हिलसा, लेकिन फिर
भी तुम उसे
रंग तो सकते
हो!
दूसरा
संत 'लेकिन
तुमने तो कहा
था कि वह
दीवार पर लटकी
रहती है।’
पहला
संत. 'निश्चित
ही तुम उसे
दीवार पर लटका
सकते हो।’
दूसरे
संत ने कहा, 'लेकिन
तुमने तो कहा
था वह सीटी
बजाती है।’
पहला
संत 'ऐसे
वह सीटी नहीं
बजाती है।’
इस तरह
लोग बात को
आगे और आगे
चलाए चले जाते
हैं। मौलिक
बात तो बचती
नहीं है, लेकिन तो भी
उसे पकड़े चले
जाते हैं। और
फिर यही उनकी
इगो —ट्रिप बन
जाती है, उनका
अहंकार बन
जाता है।
सार्त्र
एक प्रामाणिक
और ईमानदार
आदमी है, लेकिन उसकी
पूरी यात्रा
इगो —ट्रिप बन
गयी है, अहंकार
की यात्रा बन
गयी है। उसे
थोड़े से साहस
की और हिम्मत
की आवश्यकता है।
ही, मैं
तुम से कहता
हूं कि नहीं
कहने के लिए
साहस चाहिए; लेकिन ही
कहने के लिए
तो और भी अधिक
साहस चाहिए।
क्योंकि नहीं
कहने में तो
अहंकार भी
सहयोगी हो
सकता है, उसमें
तो अहंकार का
भी पोषण हो
सकता है।
प्रत्येक
नहीं के साथ
अहंकार
सहयोगी हो
सकता है। नहीं
कहना— अच्छा
लगता है, क्योंकि
उससे अहंकार
को पोषण मिलता
है, उससे
अहंकार और
अधिक मजबूत
होता है।
लेकिन ही कहने
में समर्पण
चाहिए; इसलिए
हा कहने के
लिए अधिक साहस
की आवश्यकता होती
है।
सार्त्र
को अपने ढंग
में, अपने
व्यवहार में
पूरी तरह से
रूपांतरण की
जरूरत है, जहां
कि अंततः नहीं
ही में रूपांतरित
हो जाती है।
तब सार्त्र
झेन की भांति
न होगा, वह
झेन ही होगा।
और झेन
के भी पार है
बुद्धावस्था।
बुद्धावस्था
है झेन के भी
पार. परम
संबोधि, पतंजलि की
निर्बीज
समाधि, बीज
रहित समाधि—जहां
हां भी गिर
जाता है, क्योंकि
ही भी नहीं के
विरुद्ध ही
होता है। जब
नहीं सच में
गिर जाता है, तो ही को
ढोने की भी
जरूरत नहीं रह
जाती है।
हम
क्यों कहते
हैं कि
परमात्मा है? क्योंकि
हमें इस बात
का भय है कि
कौन जाने शायद
परमात्मा न हो।
हम नहीं कहते
कि अभी दिन है।
हम नहीं कहते
कि यही
सूर्योदय है,
क्योंकि हम
जानते हैं कि
ऐसा है ही। जब
कभी हम जोर
देते हैं कि
यह ऐसा है, तो
हमारे गहरे
अचेतन में
कहीं भय छिपा
होता है। हम
भयभीत होते
हैं कि शायद
ऐसा न भी हो।
उसी भय के
कारण हम जोर
दिए चले जाते
हैं, और ही
कहे चले जाते
हैं। और इसी
तरह से लोग
कट्टर और
मतांध बन जाते
हैं। और फिर
वे अपनी मतांध
धारणाओं के
लिए मरने —मारने
को भी तैयार
हो जाते हैं।
दुनिया
में इतनी
मतांधता
क्यों है? क्योंकि
लोग सच में ही
जानते नहीं
हैं। भीतर से
तो वे भयभीत
हैं। वे भय
भीत हैं — अगर
कोई आदमी नहीं
कह देता है, तो वह
दूसरों के लिए
चिंता का कारण
बन जाता है।
क्योंकि
दूसरे लोग भी
नहीं कहना तो
चाहते हैं, लेकिन वे
अपनी नहीं को
अभी भी कहीं
भीतर छिपाए
हुए रहते हैं।
अगर कोई नहीं
कह देता है तो
उनकी नहीं भी
जीवंत होने
लगती है, और
तब वे स्वयं
से ही भयभीत
होने लगते हैं।
इसीलिए वे
मतांधता की
आडू में एकदम
बंद जीवन जीते
हैं, ताकि
कोई उनके
विचारों को, सिद्धांतो
को हिला न
डाले।
लेकिन
जो सच में ही
ही को उपलब्ध
हो जाता है, उसे ही
कहने की भी
क्या जरूरत
होगी? बुद्ध
परमात्मा के
विषय में कुछ
नहीं कहते हैं
? कोई बात
ही नहीं करते
हैं परमात्मा
की। बुद्ध तो
बस हा और नहीं
की पूरी की पूरी
मूढ़ता पर
मुस्कुराते
हैं। बुद्ध के
पास जीवन की
कोई व्याख्या
नहीं है।
क्योंकि
बुद्ध के लिए
जीवन
परिपूर्ण है —आत्यंतिक
रूप से
परिपूर्ण और
परिशुद्ध है।
परमात्मा के
बारे में कुछ
बताने के लिए
किसी विचारधारा
की, या
किसी सिद्धांत
की आवश्यकता
नहीं होती है।
परमात्मा को
सुनने के लिए
तो 'बस मौन
और शांत होना
पर्याप्त है।
हम परमात्मा
में हो सकते
हैं, उसे
महसूस कर सकते
हैं, उसमें
जी सकते हैं।
लेकिन हमेशा
स्मरण रहे. जो
लोग बहुत
ज्यादा ही से
जुड़े होते हैं,
वे जरूर
कहीं न कहीं
अपने भीतर
नहीं को दबा
रहे होते हैं।
दूसरा
प्रश्न पूछा
है अमिताभ ने :
हरमन
हेस के
सिद्धार्थ ने
बुद्ध से कुछ
इस प्रकार कहा
है :
'ओ
श्रेष्ठतम
असीम
प्रतिष्ठा के
स्वामी निस्संदिग्ध
रूप से मैं
आपकी देशनाको
पर श्रद्धा करता
हूं आपके
द्वारा बताई
हुई हर बात
एकदम स्पष्ट
और
स्वयंसिद्ध
है आप संसार
को एक समग्र
अटूट
श्रृंखला के
रूप में बताते
हैं जो पूर्णरूपेण
सुसंगत है और
बड़े और छोटे
सभी को एक ही धारा—
प्रवाह में
आबद्ध किए हुए
है एक क्षण को
भी मुझे आपके
बुद्ध होने के
प्रति संदेह
नहीं होता है
आप उस
परमावस्था को
उपलब्ध हो गए
हैं जहां पहुंचने
के लिए न जाने
कितने लोग
प्रयासरत हैं।
आपने स्वयं के
असाध्य श्रम
और खोज से
बुद्धत्व को
हासिल किया है।
आपने किन्हीं
भी धर्म—
देशनाओं
द्वारा कुछ भी
नहीं सीखा है
और इसीलिए मैं
सोचता हूं ओ
श्रेष्ठतम
असीम
प्रतिष्ठा के
स्वामी कि कोई
भी व्यक्ति
धर्म— देशनाओं
द्वारा
मुक्ति नहीं
पा सकता है आप
अपनी देशनाओं
के माध्यम से
किसी को यह नहीं
बता सकते कि
आपको संबोधि
के क्षण में
क्या घटित हुआ—
वह रूपांतरण
जिसे बुद्ध ने
स्वयं अनुभव
किया वह
गुह्यतम
रहस्य क्या है—
जिसे लाखों—
लाखों लोगों
में सिर्फ
बुद्ध ने
अनुभव किया।
'इसीलिए
मुझे अपने ही
ढंग से चलते जाना
है— किसी
दूसरे और
बेहतर सदगुरु
की तलाश नहीं
करनी है
क्योंकि कोई
और बेहतर है
ही नहीं
पहुंचना तो
अकेले ही है—
या मर जाना है।’
भगवान
इस पर आप कुछ
कहेंगे?
हरमन हेस की
सिद्धार्थ
बहुत ही विरल
पुस्तकों में
से एक है, वह पुस्तक
उसकी अंतर्तम
गहराई से आयी
है। हरमन हेस
सिद्धार्थ से
ज्यादा सुंदर
और मूल्यवान
रत्न कभी न
खोज पाया, जैसे
वह रत्न तो
उसमें विकसित
ही हो रहा था।
वह इससे अधिक
ऊंचाई पर नहीं
जा सकता था।
सिद्धार्थ, हेस की
पराकाष्ठा है।
सिद्धार्थ
बुद्ध से कहता
है, 'आप
जो कुछ कहते
हैं सच है।
इससे विपरीत
हो ही कैसे
सकता है? आपने
वह सब समझा
दिया है जिसे
पहले कभी नहीं
समझाया गया था,
आपने सभी
कुछ स्पष्ट कर
दिया है। आप बड़े
से बड़े सदगुरु
हैं। लेकिन
आपने संबोधि
स्वयं के
असाध्य श्रम
से ही उपलब्ध
की है। आप कभी
किसी के शिष्य
नहीं बने।
आपने किसी का
अनुसरण नहीं
किया, आपने
अकेले ही खोज
की। आपने
अकेले ही
यात्रा करके
संबोधि
उपलब्ध की है,
आपने किसी
का अनुसरण
नहीं किया।’
'मुझे
आपके पास से
चले जाना
चाहिए,' सिद्धार्थ
गौतम बुद्ध से
कहता है, 'आप
से ज्यादा बड़े
सदगुरु को
खोजने के लिए
नहीं, क्योंकि
आपसे बड़ा
सदगुरु तो कोई
है ही नहीं।
बल्कि इसलिए
कि सत्य की
खोज मुझे
स्वयं ही करनी
है। केवल आपकी
इस देशना के
साथ मैं सहमत
हूं....।’
क्योंकि
बुद्ध की यह
देशना है अप्प
दीपो भव! अपने
दीए स्वयं
बनो! किसी का
अनुसरण मत करो, खोजो, अन्वेषण
करो, लेकिन
किसी का
अनुसरण मत करो,
किसी के पीछे
मत चलो।’
मैं
इससे सहमत' हूं, 'सिद्धार्थ
ने कहा, 'इसलिए
मुझे जाना ही
होगा।’
सिद्धार्थ
उदास है।
बुद्ध को
छोड्कर जाना
उसके लिए बड़ा
कठिन रहा होगा; लेकिन
उसे जाना ही
होगा—क्योंकि
उसे सत्य को
खोजना है, सत्य
को जानना है, या फिर मर
जाना है। उसे
अपना मार्ग
खोजना है।
इस
संबंध में
मेरी अपनी
दृष्टि क्या
है?
संसार
में दो तरह के
लोग हैं।
निन्यानबे
प्रतिशत लोग
हैं जो अकेले
नहीं जा सकते।
अकेले अगर वे
खोजने का
प्रयास
करेंगे, तो वे हमेशा
गहरी नींद में
ही सोए रहेंगे।
अकेले यात्रा
करना, स्वयं
के सहारे यात्रा
करना, इसकी
संभावना कम ही
होती है।
उन्हें कोई
चाहिए जो कि
उन्हें जगा दे;
उन्हें कोई
चाहिए जो
उन्हें
झंझोड़कर, उन्हें
आघात करके, उन्हें चोट
करके उन्हें
उनकी नींद से
जगा दे।
उन्हें कोई
चाहिए जो उनकी
मदद करे। लेकिन
दूसरी तरह के
लोग भी हैं।
जो कि केवल एक
प्रतिशत हैं,
जो अपना
मार्ग स्वयं
ही खोज —सकते
हैं।
बुद्ध
इसी प्रथम रूप
से संबंधित
हैं। बुद्ध
विरले लोगों
में से हैं, जो एक
प्रतिशत ही
होता है।
सिद्धार्थ भी
इसी एक
प्रतिशत वाले
मार्ग का प्रतिनिधित्व
करता है। वह
बुद्ध को
समझता है, वह
बुद्ध से
प्रेम करता है,
वह बुद्ध का
आदर करता है, उसकी बुद्ध
पर श्रद्धा है,
वह बुद्ध के
प्रति भक्ति—
भाव से भरा है।
बुद्ध को
छोड्कर जाते
समय उसका हृदय
बहुत ही उदास
और पीड़ा से भर
गया, लेकिन
साथ ही वह
जानता है कि
उसे जाना ही
होगा। उसे
अपना मार्ग
स्वयं ही
खोजना होगा।
उसे सत्य को
स्वयं ही पाना
होगा। वह
बुद्ध की छाया
नहीं बन सकता
है, बुद्ध
की छाया बनना
उसके लिए संभव
नहीं है, क्योंकि
उसका वैसा ढंग
नहीं है।
लेकिन इसका यह
मतलब भी नहीं
है कि
प्रत्येक व्यक्ति
को अपने से ही
खोज करनी है।
इस सदी
में दो लोग
बहुत
महत्वपूर्ण
हुए हैं. गुर्जिएफ
और कृष्णमूर्ति।
उनके होने के
ढंग बिलकुल
भिन्न हैं।
कृष्णमूर्ति इस
बात पर जोर
देते हैं कि
प्रत्येक
व्यक्ति को
स्वयं पर ही
निर्भर होना
०? पतंजलि. योग —सूत्र
भाग 4
है।
अकेले ही
खोजना है और
अकेले ही
पहुंचना है।
और गुर्जिएफ
का जोर इस बात
पर है कि
सामूहिक प्रयास
की आवश्यकता
है —अकेले तो
व्यक्ति कभी
भी कैद से
बाहर नहीं आ सकेगा।
उन सभी
शक्तियों से
जो मनुष्य के
लिए कैद का निर्माण
कर रही हैं, उनका
सामना करने के
लिए सभी
कैदियों को
एकसाथ मिलना
होगा। और सभी
कैदियों को एकसाथ
कैद से बाहर
आने के साधन
और तरीके
खोजने होंगे —और
उन्हें किसी
ऐसे व्यक्ति
का सहयोग
चाहिए जो कैद
से बाहर हो।
अन्यथा वे
बाहर आने का
मार्ग न खोज
पाएंगे, वे
खोज न पाएंगे
कि इस कैद से
बाहर कैसे
निकलना है।
उन्हें किसी
ऐसे व्यक्ति
का सहयोग और
मदद चाहिए जो
कभी जेल में
था और किसी
भांति बाहर
निकल आया है.
ऐसा व्यक्ति
ही सदगुरु
होता है।
दोनों
में कौन ठीक
है? कृष्णमूर्ति
को मानने वाले
गुर्जिएफ की न
सुनेंगे, गुर्जिएफ
को मानने वाले
कृष्णमूर्ति
की न सुनेंगे,
और अनुयायी
हमेशा यही
सोचते हैं कि
दूसरा गलत है।
लेकिन मैं तुम
से कहता हूं
कि दोनों सही
हैं, क्योंकि
मनुष्य —जाति
में दोनों तरह
के लोग हैं।
और कोई
किसी से ऊपर
नहीं है। तुम
किसी भी तरह
के मूल्यांकन
करने की कोशिश
मत करना। ठीक
ऐसे ही जैसे
कोई स्त्री है
और कोई पुरुष
है—कोई किसी
से ऊंचा नहीं
है कोई किसी
से नीचा नहीं
है, उनकी
शरीर संरचना
अलग — अलग ढंग
की है। कुछ
लोग हैं जो
अकेले ही पा
सकते हैं और
उन्हें किसी
की मदद की और
सहयोग की
जरूरत नहीं है
—लेकिन इसमें
और कुछ लोग
हैं जिन्हें
खोज के लिए
किसी की मदद
और सहयोग
चाहिए रहता है।
कोई किसी से
ऊंचा नहीं है
और कोई किसी
से नीचा नहीं
है, हर
व्यक्ति का
अपना— अपना
ढंग है।
जो
व्यक्ति
अकेले नहीं पा
सकता है, उस व्यक्ति
के लिए 'समर्पण
मार्ग होगा, प्रेम उसका
मार्ग होगा, भक्ति उसका
मार्ग होगा, श्रद्धा
उसका मार्ग
होगा। ऐसा मत
सोचना कि
श्रद्धा आसान
है। श्रद्धा
उतनी ही कठिन
है जितना कि
अकेले अपने से
बढ़ना। कई बार
तो श्रद्धा
उससे भी अधिक
कठिन होती है।
और कुछ ऐसे
लोग भी हैं जो
अकेले ही
यात्रा पर जाएंगे,
अकेले ही
खोज पर जाएंगे।
अभी
कुछ दिन पहले
एक युवक मेरे
पास आया, और उसने मुझ
से पूछा, 'क्या
मैं स्वयं
अकेले ही खोज
नहीं कर सकता
हूं? क्या
मुझे आपका
शिष्य होना
पड़ेगा?
क्या मुझे
संन्यासी
होना होगा?
क्या मैं अपने
से सत्य की
खोज पर नहीं
जा सकता?
क्या मैं
स्वयं ही
मार्ग नहीं
खोज सकता?' मैंने
उससे कहा, 'तो
फिर तुम मुझसे
यह पूछने भी
क्यों आए गुम
तुम उस ढंग के
नहीं हो जो
अपने से मार्ग
पर बढ़ सके।
इतनी सी बात
का निर्णय भी
तुम नहीं करू
सकते, तुम
मुझसे पूछते
हो! तो फिर
क्या खाक किसी
बात का निर्णय
तुम अपने से
कर पाओगे?
यह भी तुम
मुझसे पूछने आ
गए। इस बात का
निर्णय भी
मुझे करना है —तो
तुम शिष्य हो
ही!' लेकिन
वह बहस करने
लगा, वह
बोला, 'लेकिन
आप तो कभी
किसी गुरु के
शिष्य नहीं
रहे।’ मैंने
कहा, 'यह
ठीक है, लेकिन
मैं कभी किसी
से पूछने भी
नहीं गया। इस
के लिए मैं
कभी किसी के
पास पूछने
नहीं गया।’
और
मेरी समझ यह
है. कि जो लोग
अकेले ही
स्वयं की खोज
के लिए जाते
हैं उनमें
विरले ही ऐसे
होते हैं जो
उपलब्ध होते
हैं —क्योंकि
बहुत बार
अहंकार कहेगा
कि तुम विरले व्यक्ति
हो, कि
तुम अपने आप
अकेले ही बढ़
सकते हो, किसी
का अनुसरण
करने की कोई
जरूरत नहीं है;
और इस तरह
से तुम्हारा
अहंकार ही
तुम्हें धोखा
देगा, तुम
अपने ही
अहंकार के
द्वारा धोखा
खा जाओगे।
तुम
किसी का
अनुसरण न करो, तुम अपने
ही अहंकार, अपनी ही
कल्पना का
अनुगमन करो—और
यह बात
तुम्हें न
जाने कितनी
खाइयों और खड्डों
में ले जाएगी।
और सच तो यह है,
अहंकार की
आड़ में तुम
स्वयं का ही
अनुगमन कर रहे
होते हो, तुम
आगे नहीं बढ़
रहे होते हो, तुम स्वयं
के ही पीछे —पीछे
चल रहे होते
हो। और जबकि
तुम अभी स्वयं
ही उलझे हुए
और अस्त —व्यस्त
हो। ऐसी उलझन
से भरी भ्रांत
अवस्था में
तुम कहां जाओगे?
कैसे जाओगे?
इस बात
को ठीक से और
स्पष्ट रूप से
समझ लेना।
हमेशा अपने
अंतस की आवाज
सुनना। कहीं
यह तुम्हारा
अहंकार तो
नहीं जो कह
रहा हो कि
किसी के
अनुयायी मत बनो? अगर यह
अहंकार कह रहा
है, तो फिर
तुम कहीं के न
रहोगे। फिर तो
तुम अहंकार के
घेरे में ही
उलझ जाओगे और
उसी घेरे में
चक्कर लगाते
रहोगे। फिर तो
किसी का
अनुसरण करना
ही अच्छा है।
फिर तो किसी
ऐसे समूह को
जो एक ही यात्रा
—पथ के सहभागी
हों, या
किसी सदगुरु
को खोज लेना।
इस अहंकार को
गिर जाने दो
कि तुम अकेले
ही खोज सकते
हो। क्योंकि
यही अहंकार
तुम्हें और —
और नासमझियों
में और व्यर्थ
के खाई —खड्डों
में ले जाएगा।
थोड़ा
सिद्धार्थ के
इन शब्दों की
ओर ध्यान दो।
वह कहता है:
'इसीलिए
तो मुझे अपने
ही ढंग से
चलते जाना है —किसी
दूसरे और
बेहतर सदगुरु
की तलाश नहीं
करनी है, क्योंकि
कोई और बेहतर
है ही नहीं........ '
सिद्धार्थ
बुद्ध से बहुत
अधिक प्रेम
करता है, वह बुद्ध का
आदर करता है।
वह कहता है, आप जो कुछ भी
कहते हैं
बिलकुल
स्पष्ट है।
इससे पहले कभी
किसी ने इतने
स्पष्ट ढंग से
नहीं समझाया
है। चाहे आप
बड़ी बात के
विषय में कहें
या छोटी बात के
विषय में, जो
कुछ भी आप
कहते हैं पूरी
तरह बोधमय
होती है, हृदय
को छूती है, हृदय को
परिवर्तित
करती है, और
आपकी बातों के
साथ मुझे एक
तरह की
समानुभूति
अनुभव होती है।
यह सब मैं
भलीभांति
जानता हूं।
फिर वह
आगे कहता है, 'आप
उपलब्ध हो
चुके हैं। मैं
आप से दूर
इसलिए नहीं जा
रहा हूं कि
आपके प्रति
मुझे कुछ
संदेह है।
नहीं, मुझे
आपके प्रति
बिलकुल संदेह
नहीं है। मेरी
आप पर श्रद्धा
है। मैंने
आपके
सान्निध्य
में, आपके
माध्यम से कुछ
अज्ञात की
झलकें पायी
हैं। आपके
माध्यम से
मैंने यथार्थ
को देखा है, सचाई का
साक्षात्कार
किया है। मैं
आपके प्रति
अनुगृहीत हूं, लेकिन फिर
भी मुझे जाना
होगा।’
सिद्धार्थ
का
व्यक्तित्व
ही ऐसा नहीं
है जो शिष्यत्व
ग्रहण कर सकता
हो। इसके बाद
वह संसार में
वापस लौट जाता
है, और
वह संसार में
जीने लगता है।
कुछ समय तक
सिद्धार्थ एक
वेश्या के साथ
रहता है। उसके
साथ रहकर वह
यह जानने —समझने
की कोशिश करता
है कि भोग का, आसक्ति का, मोह का, बंधन
का रंग—ढंग और
रूप क्या होता
है। उसके साथ
रहकर वह संसार
के रंग —ढंग और
पाप की
प्रक्रिया की
जानकारी
प्राप्त करता
है। और इस तरह
संसार को
भोगते हुए उसे
धीरे — धीरे
बहुत सी
पीड़ाओं, निराशाओं,
हताशाओ से
गुजरकर उसमें
बोध का उदय
होता है। उसका
मार्ग लंबा है,
लेकिन वह
बिना किसी भय
के
निर्भीकतापूर्वक,
थिर मन से
आगे बढ़ता चला
जाता है। उसके
लिए उसे चाहे
कोई भी कीमत
क्यों न चुकानी
पड़े, वह
तैयार है, या
तो मरना है या
पाना है।
सिद्धार्थ ने
अपने स्वभाव
को पहचान लिया
है और वह उसी
के अनुरूप चल
पड़ता है।
अपने
सहज —स्वभाव
को पहचान लेना
आध्यात्मिक
खोज में सर्वाधिक
आधारभूत और
महत्वपूर्ण
बात है। अगर
व्यक्ति इस
बात को लेकर
दुविधा में है
कि उसका
स्वभाव या
स्वरूप किस
प्रकार का है —क्योंकि
लोग मेरे पास
आते हैं, और आकर वे
कहते हैं, 'आप
कहते हैं कि
अपने सहज—स्वभाव
को, अपने
स्वरूप को
पहचान लेना सब
से
महत्वपूर्ण बात
है, लेकिन
हम तो जानते
ही नहीं कि
हमारा स्वभाव
किस प्रकार का
है, हमारा
स्वरूप किस
प्रकार का है'
—तो फिर एक
बार
सुनिश्चित
रूप से समझ
लेना कि तुम्हारा
ढंग अकेले
होने का नहीं
है। क्योंकि
तुम तो अपने
स्वभाव, अपनी
प्रकृति के
बारे में भी
सुनिश्चित
नहीं हो, उसका
निर्णय भी
किसी और को
करना है, फिर
तो तुम अकेले
बढ़ ही न सकोगे।
फिर इस अकेले
होने के
अहंकार को छोड़
देना। फिर तो
वह केवल
तुम्हारा
अहंकार ही है।
ऐसा है, छिपे हुए
गड्ढे बहुत से
होते हैं। अगर
तुम जाकर कृष्णमूर्ति
के शिष्यों को
देखो तो सभी
तरह के लोग
वहां इकट्ठे
हो गए हैं।
सिद्धार्थ की
तरह के लोग
नहीं—क्योंकि
ऐसे लोग क्यों
जाएंगे
कृष्णमूर्ति के
पास? इस
तरह के लोग, जिन्हें कोई
गुरु चाहिए—और
फिर भी वे
अपने अहंकार
को गिराने के
लिए तैयार
नहीं हैं, इस
तरह के लोगों
को तुम
कृष्णमूर्ति
के आसपास इकट्ठा
हुआ पाओगे। यह
एक सुंदर व्यवस्था
है।
कृष्णमूर्ति
कहते हैं, 'मैं
कोई गुरु नहीं
हूं ' इससे
उनके आसपास जो
लोग इकट्ठे
होते हैं, उनके
अहंकार
सुरक्षित
रहते हैं।
कृष्णमूर्ति
नहीं कहते, 'समर्पण करो,'
इसलिए उनके
साथ किसी को
कहीं कोई अड़चन
नहीं आती है।
सच तो यह है, कृष्णमूर्ति
उन लोगों के
अहंकार को
बढ़ाते हैं, उनके अहंकार
को पोषित करते
हैं, उनके
अहंकार में
वृद्धि करते
हैं कि 'हर
व्यक्ति को
अपना मार्ग, अपना पथ
अकेले ही
खोजना है।’ और यह सब
सुनना, जो
लोग उनके
आसपास इकट्ठे
होते हैं, उन्हें
अच्छा लगता है।
और वे लोग इसी
तरह से कई—कई
वर्षों से कृष्णमूर्ति
को सुनते चले
आ रहे हैं।
ऐसे
बहुत से लोग
हैं, जो
कृष्णमूर्ति
को चालीस वर्ष
से सुनते चले
आ रहे हैं। कई
बार
कृष्णमूर्ति
को सुनने वाले
लोग मेरे पास
आ जाते हैं।
और मैं उनसे
पूछता हूं अगर
सच में ही
तुमने कृष्णमूर्ति
को सुना है, समझा है, तो
तुम उनके पास
जाना बंद
क्यों नहीं कर
देते? क्योंकि
वे कहते हैं
कि कोई गुरु
नहीं है, और
वे तुम्हारे
गुरु नहीं हैं,
और सिखाने
को कुछ' है
नहीं और सीखने
को भी कुछ
नहीं है, जीवन
में स्वयं के
कठोर श्रम से
ही व्यक्ति को
खोज करनी है, व्यक्ति को
स्वयं ही
पहुंचना है।
तो फिर तुमने
कृष्णमूर्ति
के साथ चालीस
वर्ष क्यों नष्ट
किए? और
मैं उनके चेहरे
से पहचान सकता
हूं कि पूरी
समस्या यह है
कि उन्हें
गुरु की जरूरत
है, लेकिन
वे समर्पण
नहीं करना
चाहते। इसलिए
यह एक तरह का
आपस में अच्छा
समझौता है कृष्णमूर्ति
कहते हैं कि
समर्पण करने
की कोई जरूरत
नहीं है, और
वे ऐसा ही
लोगों को
सिखाते चले
जाते है, और
उन्हें सुनने
वाले ऐसा
सुनते चले
जाते हैं और
यही सीखते चले
जाते हैं।
कृष्णमूर्ति
की अपेक्षा
गुर्जिएफ के
पास तुम कहीं
अधिक बेहतर
लोगों को
पाओगे—जों लोग
समर्पण कर
सकते हैं, जो
समर्पण करने
के लिए तैयार हैं,
जो समर्पण
करने को एकदम
तैयार हैं।
लेकिन इसमें
बचने के
रास्ते भी हैं।
क्योंकि ऐसे
लोग भी हैं जो
कुछ भी करना
नहीं चाहते
हैं। और जब वे
कुछ करना नहीं
चाहते हैं तो
वे सोचते हैं
कि यही समर्पण
है। कुछ ऐसे
लोग भी हैं जो
कुछ
भी नहीं
करना चाहते।
वे कहते हैं, 'हम
समर्पण कर
देते हैं।
लेकिन अब पूरी
जिम्मेवारी
आपकी है।’ अब
अगर कुछ गलत
हो गया तो आप
उत्तरदायी
होंगे। लेकिन
गुर्जिएफ ऐसे
लोगों को अपने
पास नहीं फटकने
देंगे। इस
मामले में
गुर्जिएफ
बहुत कठोर थे।
गुर्जिएफ इस
तरह के लोगों
के लिए ऐसी
परिस्थिति
उत्पन्न कर
देते थै कि इस
तरह के आलतू —फालतू
के लोग अपने
आप से ही कुछ
घंटों में ही
वहां से भाग
खड़े होते थे।
कैवल कुछ थोड़े
से ऐसे विरले
लोग, जिन्होंने
सच में ही
समर्पण किया
हो वहां टिक पाते
थे।
उदाहण
के लिए, एक बार एक
बहुत ही कुशल
संगीतज्ञ
गुर्जिएफ के
पास आया। वह
संगीतज्ञ
अपनी कला के
लिए बहुत
विख्यात था।
गुर्जिएफ ने
उस संगीतज्ञ
से कहा, अपना
संगीत बंद करो
और जाकर बगीचे
में गट्टे खोदो।
अरि प्रतिदिन
बारह घंटे उसे
बगीचे में
गड्डे खोदने
हैं। उस
संगीतज्ञ ने
ऐसा कठोर श्रम
पहले तो कभी
किया नहीं था।
उसने हमेशा
संगीत को ही
बजाया था—साज
ही बिठाया था।
चूंकि वह
संगीतज्ञ था,
उसने हमेशा
संगीत ही
बजाया था, तो
उसके हाथ भी
बहुत ही नाजुक
और कोमल थे, उसके हाथ
कोई मजदूर के
या किसी
श्रमिक के
कठोर हाथ तो
थे नहीं। उसके
हाथ अत्यंत
सुकोमल स्त्रैण
हाथ थे, और
वे हाथ केवल
एक ही कार्य
जानते थे —वे
हाथ केवल
संगीत बजा
सकते थे।
जीवनभर तो
उसने संगीत
बजाया है, और
अब यह आदमी
कहता है दूसरे
दिन से ही उस
संगीतज्ञ ने
बगाचे में
जाकर गड्डे
खोदने शुरू कर
दिए।
इस तरह
दिन भर वह
गड्डा खोदता
अरि शाम को
गुर्जिएफ आता
और उससे कहता, 'अच्छा, बहुत अच्छा।
अब मिट्टी को
वापस गडुाएं
में डाल दो।
गड्डों को
वापस मिट्टी
से भर दो। और
जब तक तुम
गड्डों को
वापस मिट्टी
से भर न दो, तब
तक सोना मत।’ और वह फिर से
चार —पांच
घंटे तक
लगातार गड्डे
भरता रहता था —
और ठीक वैसे
ही मिट्टी
भरनी होती थी,
जैसे वे
पहले थे —क्योंकि
गुर्जिएफ
सुबह आकर
देखेगा। सुबह
गुर्जिएफ आता
और कहता, 'ठीक
है। अब दूसरे
गड्डे खोदो।’
और ऐसा कोई
तीन महीने तक
चला।
ऐसे
देखो तो गड्डे
खोदना व्यर्थ
का काम है, लेकिन
सवाल यह है कि
अगर तुमने
समर्पण कर
दिया है, तो
कर ही दिया है।
फिर तुम्हें
इस बात की
फिकर लेने की
जरूरत नहीं है
कि गुर्जिएफ
तुमसे क्या
करवा रहा है।
तुमको तो अपने
मन की, अपने
तर्क को, अपने
विवाद को
समर्पित कर
देना है।
तीन
महीने में उस
संगीतज्ञ का
रूप ही बदल
गया, वह
आदमी ही कुछ
और हो गया। तब
गुर्जिएफ ने
उस संगीतज्ञ
से कहा, अब
तुम संगीत बजा
सकते हो। अब
तुम्हारे
भीतर एक नए
संगीत ने जन्म
ले लिया है, जो पहले
वहां नहीं था।
अब तुमने
अज्ञात को जान
लिया है, अब
तुमने अज्ञात
के संगीत को
सुन लिया खै।
उस संगीतज्ञ
ने गुर्जिएफ
से शिष्यत्व
ग्रहण किया, उसने
गुर्जिएफ पर
श्रद्धा की, और जैसा
गुर्जिएफ ने
उससे कहा वैसा
उसने किया।
जो लोग
धोखा देने की
कोशिश करेंगे, ऐसे लोग
गुर्जिएफ के
पास न टिक
सकेंगे, वे
तुरंत भाग
निकलेंगे।
कृष्णमूर्ति के
साथ ऐसे लोग
रह सकते हैं।
क्योंकि
कृष्णमूर्ति
के साथ करने
को तो कुछ है
नहीं, न ही
ध्यान करने को
कुछ है... और
कृष्णमूर्ति ठीक
कहते हैं!
लेकिन वे केवल
एक प्रतिशत
लोगों के लिए
ही ठीक हैं।
और यही है
समस्या
क्योंकि तब वे
एक प्रतिशत लोग
कभी
कृष्णमूर्ति
को सुनने न
जाएंगे। वे
स्व प्रतिशत
लोग अपने से
ही चलते हैं।
अगर ऐसा आदमी
कभी संयोगवशांत
कृष्णमूर्ति
को मिल भी गया,
तो वह उनको
धन्यवाद देगा।
और आगे चल
पड़ेगा। यही तो
सिद्धार्थ ने
किया।
सिद्धार्थ
का बुद्ध से
मिलना हुआ।
उसने बुद्ध को
सुना। जो कुछ
बुद्ध कह रहे
थे उस सौंदर्य
को उसने अनुभव
किया। उनकी
उपलब्धि, उनकी संबोधि
को
सिर्द्धीर्थ
ने महसूस किया।
बुद्ध की
ध्यान की
ऊर्जा ने
सिद्धार्थ के
हृदय को छुआ।
बुद्ध के
सानिध्य में
उसने अज्ञात
के आमंत्रण की
पुकार सुनी, लेकिन
सिद्धार्थ
अपने स्वभाव
को समझता था, अपने स्वभाव
को पहचानता था।
और फिर भी वह
अपने हृदय में
गहन श्रद्धा,
प्रेम, और
उदासी के साथ
वहां से चला
जाता है। वह
कहता है, 'मैं
आपके साथ रहना
चाहता हूं,
लेकिन मैं
जानता हूं कि
मुझे जाना
होगा।’
वह
बुद्ध को
छोड्कर अपने
किसी अहंकार
के कारण नहीं
गया। वह किसी
और बड़े सदगुरु
की तलाश में
नहीं गया। वह
गया, क्योंकि
वह जानता है
कि वह किसी का
अनुयायी नहीं
बन सकता है।
उसका मन कहीं
कोई बाधा नहीं
डाल रहा है, उसने बुद्ध
को बिना किसी
मन के अवरोध
के सुना, उसने
बुद्ध को
पहचाना, उसने
बुद्ध को समझा।
उसने बुद्ध को
पूरी समग्रता
से पहचाना और
समझा, इसीलिए
उसे जाना पड़ा।
अगर
कोई व्यक्ति
कृष्णमूर्ति
को सच में ही
ठीक से समझ ले, तो उसे
कृष्णमूर्ति
को छोड्कर
जाना ही पड़ेगा।
तब ऐसे
व्यक्ति के
पास बने रहने
में कोई सार नहीं
है, तब उसे
जाना ही पडेगा।
तुम गुर्जिएफ
के साथ रह
सकते हो। तुम
कृष्णमूर्ति
के साथ नहीं
रह सकते, क्योंकि
उनकी पूरी
देशना ही
अकेले की है, किसी मार्ग
का अनुसरण
नहीं करना है —सत्य
का कोई मार्ग
नहीं है, सत्य
का द्वार तो
द्वारविहीन
द्वार है —और
उस द्वार तक
पहुंचने की
केवल एक ही
विधि है और वह
है होशपूर्ण,
जागरूक, और
सचेत होने की।
और कुछ भी
नहीं करना है।
जब यह बात समझ
आ जाती है, तो
तुम अनुगृहीत
अनुभव करते हो,
तब तुम
श्रद्धा से भर
उठते हो और
अपने मार्ग पर
बढ़ते चले जाते
हो। लेकिन यह
बात केवल एक
प्रतिशत
लोगों के लिए
ही है।
और
स्मरण रहे, अगर
तुम्हारा
वैसा ढंग नहीं
है, तुम्हारा
वैसा स्वभाव
नहीं है, तो
वैसा होने का
दिखावा मत
करना।
क्योंकि तुम
अपनी निजता को,
अपने
स्वभाव को बदल
नहीं सकते हो।
और कोई भी
व्यक्ति अपने
स्वभाव के
अनुकूल होकर
ही अपने
स्वभाव के पार
जा सकता है, अपने स्वभाव
के प्रतिकूल
होकर नहीं।
तीसरा
प्रश्न:
अगर
कहीं कोई
व्यक्तिरूप
परमात्मा नहीं
है तो आप हर
सुबह मेरे
मनोविचारो का
उत्तर क्यों
देते हैं?
अगर
सुनना रहे तो मेरे
पश्चिम लौटने
पर भी क्या
यही
प्रक्रिया निरंतर
बनी रहेगी?
हां, मैं हर
सुबह
तुम्हारे मन
में चलते हुए
विचारों का
उत्तर देता हू।
चाहे तुम
मुझसे प्रश्न
पूछो या न
पूछो, चाहे
तुम मुझे
प्रश्न लिखकर
भेजो या न
भेजो। मैं
तुम्हारे मन
में चलते हुए
विचारों का
उत्तर देता हूं, क्योंकि
कहीं कोई
व्यक्तिरूप
परमात्मा नहीं
है। जब मैं
कहता हूं कि
कहीं कोई
व्यक्ति के
रूप में
परमात्मा
नहीं है, तो
मेरा इससे
अभिप्राय
क्या है, प्रयोजन
क्या है?
अगर
कहीं कोई
व्यक्ति रूप
परमात्मा
होगा तब तो वह
बहुत ज्यादा
व्यस्त हो
जाएगा, तब तो तुम्हारे
प्रश्नों का
उत्तर देना ही
असंभव हो जाएगा।
वह अत्याधिक
व्यस्त हो
जाएगा—फिर तो
उसके समक्ष
सारे
ब्रह्मांड की
समस्याएं आ
खड़ी होंगी।
क्योंकि यह
पृथ्वी ही तो
कोई अकेली
पृथ्वी नहीं
है। जरा सोचो,
अगर किसी
व्यक्ति को, परमात्मा को
केवल इसी
पृथ्वी की ही समस्याओं
को लेकर सोचना
पड़े और तमाम
चिंताओं और
परेशानियों
और प्रश्नों
पर विचार करना
पड़े, तो नह
निश्चित रूप
से पागल हो
जाएगा—और यह
पृथ्वी तो कुछ
भी नहीं है।
यह पृथ्वी तो
धूल का एक कण
मात्र है।
वैज्ञानिक
कहते हैं और
ऐसा लगभग
सुनिश्चित ही
है कि जैसी यह
पृथ्वी है, और इस
पृथ्वी पर
जितना विकसित
जीवन है, इसी
तरह की पचास
हजार
पृथ्वियां
हैं, जिनमें
से कुछ
पृथ्वियां तो
इस पृथ्वी से
भी ज्यादा
विकसित हैं —यह
तो केवल
अनुमान है —
पचास हजार
पृथ्वियां इस
पृथ्वी से भी
ज्यादा
विकसित हैं, जितना गहरे
हम ब्रह्मांड
में जाएंगे, उतनी ही
सीमाएं दूर
होती चली जाती
हैं, दूर
होती ही चली
जाती हैं। और
एक बिंदु ऐसा
आता है जब
सीमाएं
तिरोहित हो जाती
हैं, क्योंकि
यह ब्रह्मांड
असीम है, इसका
कोई ओर —छोर
नहीं है। अगर
कोई
व्यक्तिरूप
परमात्मा
होता तो या तो
वह बहुत पहले
ही पागल हो
गया होता, या
फिर उसने
आत्महत्या कर
ली होती।
क्योंकि
जब कहीं कोई
व्यक्तिरूप
परमात्मा नहीं
है, तो
चीजें बड़ी
सीधी और सरल
हो जाती हैं।
तब संपूर्ण
अस्तित्व ही
परमात्मामय
हो जाता है।
तब कहीं कोई
चिंता नहीं
बचती है, कहीं
कोई फिक्र
नहीं है, कहीं
कोई भीड़ — भाड़
नहीं है।
परमात्मा की आभा
इस संपूर्ण
अस्तित्व पर
इस संपूर्ण
ब्रह्मांड पर
फैली हुई है, वह किसी
व्यक्तिगत
परमात्मा तक
ही सीमित नहीं
है।
जब मैं
तुम्हारे
प्रश्नों का
उत्तर देता
हूं, और
अगर मैं कोई
व्यक्ति रूप
होऊं तो फिर
प्रश्नों के
उत्तर देना
बहुत —कठिन हो
जाएगा। फिर
तुम लोगों की
संख्या तो
अधिक है, और
मैं अकेला हूं।
अगर मेरे ऊपर
तुम सभी के मन
एकसाथ कूद पड़े,
तो मैं पागल
ही हो जाऊंगा।
चूंकि मेरे
भीतर कोई
व्यक्ति नहीं
रह गया है, इसलिए
पागल होने की
कोई संभावना
नहीं है। मैं
तो एक खाली
घाटी के समान
हूं। वहां पर
कोई भी नहीं
है जो कि
प्रतिध्वनित
हो रहा हो, बस
खाली घाटी ही
प्रतिध्वनित
हो रही है। या
फिर समझो कि
मैं दर्पण
मात्र हूं।
तुम मेरे
सामने आते हो.
उस समय
प्रतिबिंब
बनता है और
फिर
प्रतिबिंब
चला जाता है।
दर्पण फिर
खाली का खाली
हो जाता है।
मैं
यहां पर
व्यक्ति के
रूप में मौजूद
नहीं हूं। मैं
तो केवल एक
शून्यता की
भांति
तुम्हारे बीच
मौजूद हूं
इसलिए
तुम्हारे
प्रश्नों या
विचारों के
उत्तर देना
मेरे लिए किसी
तरह का कोई प्रयास
नहीं है। और
बात एकदम सीधी
और साफ है, चूंकि
तुम मेरे
सामने मौजूद
होते हो, तो
जैसे तुम हो, मैं तुम्हें
वैसा का वैसा
प्रतिबिंबित
कर देता हूं।
और दर्पण के
लिए
प्रतिबिंब
करना कोई
प्रयास नहीं
है.....।
किसी
ने माइकल
स्थूलों से
पूछा, 'तुम्हारे
कार्य में एक
तरह की
अंतःप्रेरणा
मालूम होती है।’
माइकल
एंजलो ने कहा,
'ही, तुम
ठीक कहते हो।
ऐसा ही है।
लेकिन वह केवल
एक प्रतिशत ही
है। एक
प्रतिशत
अंतःप्रेरणा
है और
निन्यानबे प्रतिशत
मेरा अथक श्रम
है।’ और वह
ठीक कहता है।
लेकिन
मेरे साथ अथक
श्रम जैसी कोई
बात नहीं है।
मेरे साथ तो
सौ प्रतिशत
अंतःप्रेरणा
ही है। मैं
तुम्हारी
समस्याओं के
बारे में नहीं
सोचता हूं।
यहां तक कि
मैं तुम्हारी
बिलकुल फिक्र
ही नहीं करता
हूं। मैं
तुम्हारे लिए
चिंतित नहीं
हूं। मैं
तुम्हारी
किसी तरह की
कोई मदद करने
की कोशिश नहीं
कर रहा हूं।
तुम मौजूद हो, मैं
मौजूद हूं. बस,
इस मौजूदगी
में ही दोनों
के बीच कुछ
घटित हो जाता
है —मेरे
शून्य और तुम्हारी
उपस्थिति के
बीच कुछ घटित
हो जाता है जिसका
न तो मेरे से
कोई संबंध है,
और न ही
जिसका
तुम्हारे साथ
कुछ संबंध है।
बस, ऐसे ही
जैसे एक खाली,
रिक्त, शून्य
घाटी में तुम
कोई गीत गाते
हो, और
खाली घाटी उसे
दोहरा देती है,
उसे
प्रतिध्वनित
कर देती है।
तो
इससे कुछ अंतर
नहीं पड़ेगा कि
तुम यहां पर
रहो या कि
पश्चिम में
रहो। अगर
तुम्हें अपने
भीतर कुछ अंतर
महसूस होता है, तो वह
तुम्हारे ही
कारण है, मेरे
कारण नहीं। जब
तुम मेरे निकट
होते हो, मेरे
करीब होते हो,
तो तुम
ज्यादा खुला
हुआ अनुभव
करते हो। और
यह भी
तुम्हारा
विचार मात्र
ही है
तुम्हारी ही
धारणा है कि
तुम यहां पर हो,
इसलिए तुम
ज्यादा खुला
हुआ अनुभव
करते हो। फिर
जब तुम पश्चिम
चले जाते हो, यह भी
तुम्हारी ही
धारणा है, तुम्हारा
ही विचार है —कि
अब तुम मुझसे
बहुत दूर हो, अब तुम मेरे
प्रति खुले
हुए कैसे हो
सकते हो —इस
धारणा और विचार
के कारण तुम
बद हो जाते हो।
इस
धारणा को गिरा
देना। और जहां
कहीं भी तुम
हो, मैं
तुम्हें
उपलब्ध रहता
हूं। क्योंकि
मेरी
उपस्थिति कोई
व्यक्तिगत
उपस्थिति
नहीं है, इसलिए
इसे समय और
स्थान से नहीं
जोड़ा जा सकता है।
इसका समय और
स्थान से कोई
संबंध नहीं है।
तुम चाहे
पश्चिम चले
जाओ, या
पृथ्वी के
किसी भी छोर
पर चले जाओ, लेकिन बस
तुम मेरे
प्रति खुले
हुए रहना।
और इसे
थोड़ा आजमाकर
देखना। तुम
में से बहुत
से लोग यहां
से जाने को
हैं। रोज सुबह, भारतीय
समय के अनुसार
आठ बजे, उसी
भांति बैठ
जाना जैसे कि
तुम यहां
बैठते हो। और
तुम उसी तरह
प्रतीक्षा
करना जैसे कि
तुम यहां
प्रतीक्षा
करते हो, और
तुरंत
तुम्हें
अनुभव होगा कि
तुम्हारी समस्याओं
के उत्तर मिल रहे
हैं। और मेरे
निकट होने की
अपेक्षा यह अनुभूति
कहीं ज्यादा
सुंदर होगी, क्योंकि तब
शरीर की
निकटता न
रहेगी। और तब
यह अनुभव और अधिक
प्रगाढ़ होता
है। और अगर
तुम ऐसा कर
सको तो सभी
तरह के स्थान
की दूरी खो
जाती है।
क्योंकि
सदगुरु और
शिष्य के बीच
कहीं कोई स्थान
की दूरी नहीं
होती है।
और तब
फिर एक और
चमत्कार की
संभावना है तब
एक दिन समय को
भी गिरा देना।
क्योंकि एक न
एक दिन मैं इस
शरीर को छोड़
दूंगा, मैं यहां
तुम्हारे बीच
शरीर में
मौजूद नहीं रहूंगा।
अगर मेरे शरीर
छोड़ देने के
पहले तुम समय
का अतिक्रमण
नहीं कर पाते
हो, तब तो
फिर मैं
तुम्हें
उपलब्ध नहीं
रह सकूंगा, तब तो मैं
तुम्हें
अनुपलब्ध ही
रहूंगा। ऐसा
नहीं है कि
मैं अनुपलब्ध
रहूंगा, मैं
तो उपलब्ध
रहूंगा ही, लेकिन यह
तुम्हारा ही
विचार होगा कि
मैं संसार से बिदा
हो चुका हूं
तो तुम मुझसे
कैसे जुड़ सकते
हो. तब तुम
मेरे प्रति
बंद हो जाओगे।
यह
तुम्हारा
अपना विचार है।
तो सबसे पहले
समय और स्थान
से जुड़े विचार
को गिरा देना।
तो जहां कहीं
भी तुम हो, भारतीय
समय के अनुसार
ठीक आठ बजे
ध्यान में बैठना,
और फिर समय
को भी गिरा
देना। किसी भी
समय ध्यान में
बैठने की
कोशिश करना।
पहले स्थान की
सीमा को गिरा
देना, फिर
समय की सीमा
को भी गिरा
देना। और यह
जानकर तुम
आनंदित होगे
कि जहां कहीं
भी तुम हो, मैं
तुम्हें
उपलब्ध हू।
फिर कहीं कोई
समस्या नहीं
रह जाती है, तब फिर कोई
प्रश्न नहीं
रह जाता है।
बुद्ध
ने जब शरीर
छोड़ा तो उनके
बहुत से शिष्य
रोने —चिल्लाने
लगे, लेकिन
कुछ शिष्य थे
जो बस शांत और
मौन बैठे रहे।
उन शिष्यों
में मंजुश्री
भी वहां था।
वह बुद्ध के
प्रमुख
शिष्यों में
से एक शिष्य
था, वह पेड़
के नीचे बैठा
हुआ था, वह
वैसा का वैसा
ही बैठा रहा।
उसने जब सुना
कि बुद्ध ने
शरीर छोड़ दिया
है, तो वह
ऐसे ही बैठा
रहा जैसे कि
कुछ हुआ ही न
हो। यह मनुष्य—जाति
के इतिहास की
बड़ी से बड़ी
घटनाओं में से
एक घटना है।
क्योंकि इस
पृथ्वी पर कभी
—कभार ही
बुद्ध जन्म
लेते हैं, तो
बुद्ध के
संसार से चले
जाने की बात
ही नहीं उठती
है; कभी
सदियों में
ऐसा घटित होता
है। मंजुश्री
के पास किसी
ने जाकर कहा
कि 'यहां
इस वृक्ष के
नीचे बैठे हुए
आप क्या कर
रहे हैं? क्या
आपको यह बात
सुनकर इतना
अधिक सदमा
पहुंचा है कि
आप हिल — डुल भी
नहीं रहे हैं?
क्या आपको
नहीं मालूम है
कि बुद्ध ने
शरीर छोड़ दिया
है।’ मंजुश्री
हंसा और बोला,
'उनके जाने
के पहले ही
मैंने समय और
स्थान की दूरी
को गिरा दिया
था। वे जहां
कहीं भी होंगे,
मेरे लिए
उपलब्ध
रहेंगे।
इसलिए मुझे
ऐसी व्यर्थ की
सूचनाएं मत दो।’
मंजुश्री
अपनी जगह से
हिला भी नहीं।
बुद्ध के
अंतिम समय में
वह बुद्ध के
दर्शन के लिए
भी नहीं गया।
वह एकदम शांत
औंर मौन था।
वह जानता था
कि बुद्ध की
मौजूदगी किसी
समय और स्थान
में सीमित
नहीं है।
बुद्ध.
उन लोगों को
ही उपलब्ध
होते हैं ' जो उनके
प्रति सुलभ
होते हैं, जो
उनके प्रति
खुले होते हैं।
मैं तुम्हें
उपलब्ध
रहूंगा अगर
तुम मेरे प्रति
खुले हुए और
सुलभ रहे।
इसलिए मेरे
प्रति खुलना
और उपलब्ध
होना सीख लेना।
अंतिम
प्रश्न:
भगवान
उस करीब— करीब
योगी हृदय के
विषय में आपके
उत्तर ने मुझे
निम्नील्नृखित
संवाद की याद
दिला दी है.
पत्नी— 'प्रिय जब
से हमारा
विवाह हुआ तुम
मुझे ज्यादा प्यार
करते हो या कम?'
पति—'ज्यादा
या कम'।
कम और ज्यादा
की भाषा में
प्रेम के विषय
में पूछना
मूढ़ता है, क्योंकि
प्रेम न तो
ज्यादा हो
सकता है और न
ही कम हो सकता
है। या तो
प्रेम होता है
और या फिर
नहीं होता है।
प्रेम की कोई
मात्रा नहीं
होती; प्रेम
तो गुण है।
उसे मापा नहीं
जा सकता है।
प्रेम को अधिक
या कम की भाषा
में नहीं सोचा
जा सकता। यह
प्रश्न ही
असंगत है।
लेकिन प्रेमी
हैं कि पूछते
ही चले जाते
हैं, क्योंकि
वे जानते ही
नहीं हैं कि
प्रेम होता क्या
है। प्रेम के
नाम पर वे जो
कुछ भी जानते
हैं वह कुछ और
ही होता होगा,
वह प्रेम
नहीं हो सकता
है। क्योंकि
प्रेम की कोई
मात्रा नहीं
होती।
कैसे
तुम ज्यादा
प्रेम कर सकते
हो? कैसे
तुम कम प्रेम कर
सकते हो?
या तो
तुम प्रेम
करते हो, या तुम
प्रेम नहीं
करते हो।
या तो
प्रेम
तुम्हें
चारों ओर से
घेर लेता है और
तुम्हें
पूर्णरूप से
भर देता है, या फिर
प्रेम
पूर्णरूप से
तिरोहित हो
जाता है और
होता ही नहीं
है —फिर प्रेम
का एक निशान
भी नहीं बचता
है। प्रेम एक
संपूर्णता है।
उसे विभक्त
नहीं किया जा
सकता है, प्रेम
का विभाजन
संभव ही नहीं
है। प्रेम
अविभाज्य
होता है। अगर
प्रेम
अविभाज्य
नहीं है तो
सचेत हो जाना।
तो फिर जिसे
तुमने अभी तक प्रेम
जाना है वह
खोटा सिक्का
है। ऐसे प्रेम
को छोड़ देना—और
ऐसे प्रेम को
जितनी जल्दी छोड़
सको उतना ही
अच्छा है — और
असली सिक्के
की, असली
प्रेम की तलाश
करना।
असली
और नकली प्रेम
में क्या फर्क
होता हैँ? असली और
नकली प्रेम
में फर्क यह
है कि जब तुम खोटे
सिक्के की
भांति नकलीपन
लिए प्रेम
करते हो, तो
तुम बस कल्पना
ही कर रहे
होते हो कि
तुम प्रेम कर रहे
हो। यह मन की
चालाकी ही
होती है। तुम
कल्पना करते
हो कि तुम
प्रेम करते हो
—जैसे कि सारा
दिन भूखे रहो,
उपवास करो
और रात तुम
सोने के लिए
जाओ और सपने में
देखो कि भोजन
कर रहे हो।
क्योंकि आदमी
इतना प्रेम
विहीन जीवन
जीता है कि मन
प्रेम के सपने
ही देखता रहता
है और अपने
आसपास प्रेम
के झूठे, एकदम
झूठे सपने
गढ़ता रहता है।
वे सपने किसी
भाति जीवन
जीने में
तुम्हारी मदद
करते हैं। और
इसीलिए सपने
बार —बार
टूटते हैं, प्रेम
बिखरता है और
तुम फिर से
कोई दूसरा
प्रेम का सपना
बुनने लगते हो
—लेकिन फिर भी
कभी इस बात के
प्रति कभी जागरूक
नहीं होते कि
इन सपनों से
प्रेम में कोई
मदद मिलने
वाली नहीं है।
किसी
ने गुर्जिएफ
से पूछा कि
प्रेम कैसे
करें?
गुर्जिएफ
ने कहा, पहले
प्रामाणिक
होओ, अन्यथा
सभी प्रेम
झूठे होंगे।
अगर तुम्हारा
प्रेम
प्रामाणिक है,
और तुम सच
में ही प्रेम
करते हो, और
तुम्हारे
प्रेम में होश
और बोध है, तभी
केवल प्रेम की
संभावना होती
है, वरना
प्रेम की कोई
संभावना नहीं
है।
प्रेम
तो आदमी की
छाया की भाति
होता है। केवल
बुद्ध, क्राइस्ट, पतंजलि ही
प्रेम कर सकते
हैं। तुम तो
अभी जैसे हो, प्रेम नहीं
कर सकते हो।
क्योंकि
प्रेम तो
तुम्हारे होने
का एक ढंग है।
अभी तुम्हारा
होना ही पूर्ण
नहीं है, अभी
तो तुम पूरी
तरह से जागरूक
भी नहीं हो तो
फिर
प्रेमपूर्ण
कैसे हो सकते
हो।
प्रेम
में जागरूकता
और होश की
आवश्यकता
होती है। सोए —सोए, नींद में,
मूर्च्छा
में तुम प्रेम
नहीं कर सकते
हो। अभी तो
तुम्हारा जो
प्रेम है, वह
प्रेम की
अपेक्षा घृणा
अधिक है —इसीलिए
किसी भी क्षण
तुम्हारा
प्रेम खटाई में
पड़ जाता है, किसी भी
क्षण प्रेम
टूट जाता है।
किसी भी क्षण
तुम्हारा
प्रेम
ईर्ष्या बन
जाता है।
तुम्हारा
प्रेम किसी भी
क्षण घृणा बन
जाता है।
तुम्हारा प्रेम
सही अर्थों
में प्रेम है
ही नहीं।
तुम्हारा
तथाकथित
प्रेम एक
शारीरिक
आवश्यकता है।
उसमें कोई
स्वतंत्रता
नहीं है।
उसमें
परतंत्रता ही
अधिक होती है —और
फिर
परतंत्रता
किसी भी
प्रकार की
क्यों न हो, वह कुरूप और
असुंदर होती
है। एक सच्चा
और वास्तविक
प्रेम
व्यक्ति को
मुक्त करता है,
वह व्यक्ति
को पूर्ण
स्वतंत्रता
देता है।
उसमें कोई
शर्त नहीं
होती है, वह
बेशर्त होता
है। वह कुछ
मांगता नहीं
है। वह तो बस
अपने प्रेम को
बांटता है, और दूसरे
लोगों को
उसमें सहभागी
बनाता है। और
इस बात के लिए
प्रसन्न और
अनुगृहीत
होता है कि
मैं अपने
प्रेम में
दूसरों को
सहभागी बना
सका, उसे
दूसरों के साथ
बांटना संभव
हो पाया। और
तुमने उसे
स्वीकार किया
इसके लिए वह
अनुगृहीत
होता है।
सच्चे
प्रेम में
किसी तरह की
मांग नहीं
होती है। यह
बात दूसरी है
कि सच्चे
प्रेम के पास
बहुत कुछ चला
आता है, लेकिन उसकी तरफ
से कोई मांग
नहीं होती है।
अभी
हमारे लिए ऐसा
प्रेम कैसे
संभव हो सकता
है? क्योंकि
अभी मुक्त
बहने की हमारी
तैयारी ही नहीं
है। इसलिए हम
प्रेम के नाम
पर दूसरों को
धोखा दिए चले
जाते हैं। और
ऐसा नहीं है कि
हम दूसरों को
ही धोखा देते
हैं सच तो यह
है हम स्वयं
को भी धोखा
देते हैं। और
इसीलिए हम
देखते हैं, और लगभग
प्रतिदिन
प्रत्येक
विवाह में यह
मजाक घटित
होता है। पति
को हमेशा
चिंता लगी
रहती है कि
उसकी पत्नी
उसे प्रेम
करती है या
नहीं? पत्नी
को चिंता
सताती रहती है
कि उसका पति
उसे प्रेम
करता है या
नहीं —कम या
ज्यादा, कितना
प्रेम करता है।
ऐसे
व्यर्थ के
प्रश्न पूछा
ही मत करो।
तुम स्वयं को
देखना कि क्या
तुम प्रेम
करते हो? क्योंकि
इसमें केवल
दूसरे
व्यक्ति का, सामने वाले
व्यक्ति का ही
सवाल नहीं है।
वह कितना
प्रेम करता है,
या वह कितना
प्रेम करती है,
यह प्रश्न
ही गलत है।
हमेशा अपने से
ही पूछना कि
क्या तु म
प्रेम करते हो?
और अगर तुम
प्रेम नहीं
करते हो तो
तुम और अधिक प्रामाणिक
और प्रेम के
प्रति सच्चे
होने का प्रयास
करना।
और तब
फिर चाहे
प्रेम के लिए
सब कुछ दाव पर
लगाना पड़े तो
लगा देना।
क्योंकि
प्रेम इतना
बहुमूल्य है
कि उसके लिए सब
कुछ दाव पर
लगाना पड़े, तो भी वह
कम है। जब तक
व्यक्ति के
पास प्रेम
नहीं है, तब
तक बाहर के
सभी भोग —
विलास के साधन
और जो कुछ भी
पास है वह सभी
कुछ व्यर्थ है।
प्रेम के लिए
तो सब कुछ
दांव पर लगा
देना।
क्योंकि
प्रेम से
ज्यादा कुछ भी
मूल्यवान नहीं
है। जब तक तुम प्रेम
की गुणवत्ता
को नहीं पा
लेते हो र तब
तक तुम्हारे
बाहर के सभी
कोहिनूर और
हीरे —जवाहरात
दो कौड़ी के
हैं, उनका
कोई मूल्य
नहीं है। और
अगर प्रेम की
संपदा
तुम्हारे पास
हो, तो
परमात्मा .की
भी आवश्यकता
नहीं होती है,
प्रेम ही
अपने आप में
पर्याप्त
होता है। मेरे
देखे, अगर
व्यक्ति सच
में ही प्रेम
करे, तो ' परमात्मा ' शब्द संसार
से बिदा हो
जाएगा इसकी
कोई जरूरत न
रहेगी। प्रेम
हो अपने आप
में इतना
परिपूर्ण
होगा कि वह
परमात्मा की
जगह ले लेगा।
अभी तो लोग
हैं कि
परमात्मा के
बारे में बोलते
ही चले जाते
हैं, क्योंकि
वे अपने जीवन
में प्रेम से
पूरी तरह से
खाली और रिक्त
हैं। प्रेम
उनके जीवन में
है नहीं, और
वे परमात्मा
हो जाने की
कोशिश कर रहे
हैं। लेकिन
परमात्मा तो
निष्प्राण है —एक
संगमरमर की
ठंडी प्रतिमा,
जिसमें कोई
प्राण नहीं
हैं।
प्रेम
ही सच्चा
परमात्मा है।
प्रेम ही
एकमात्र
परमात्मा है।
और परमात्मा
कभी कम या
ज्यादा नहीं
होता—या तो
होता है और या
फिर नहीं होता
है। तुम
परमात्मा को
खोजना।
तुम्हें एक
गहन खोज की
आवश्यकता है, और ध्यान
रहे परमात्मा
की खोज के लिए
एक निरंतर
सजगता की
आवश्यकता
होती है। बिना
सजगता के परमात्मा
को नहीं खोजा
जा सकता है।
और एक
बात स्मरण रहे, अगर तुम
प्रेम कर सको,
तो तुम
प्रेम करने
में ही
परिपूर्ण हो
जाओगे। और अगर
तुम प्रेम कर
सको, तो
तुम उत्सव मना
सकोगे, और
इस अस्तित्व
के प्रति तुम
अनुगृहीत
होगे, और
तब तुम अपने
पूरे हृदय के
साथ अस्तित्व
को धन्यवाद दे
सकोगे। अगर
तुम प्रेम
करने में
समर्थ हो, तो
मात्र शरीर
में होना ही
अदभुत
आनंददायी हो जाता
है। फिर किसी
दूसरी चीज की
आवश्यकता
नहीं होती है।
तब प्रेम ही
आशीष बन जाता
है।
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