मानवीय पहलूयुक्त
भगवत्ता के
प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—ग्यारहवां)
दिनांक
30 सितंबर, 1970;
संध्या,
मनाली (कुल्लू)
"भगवान
श्री, कृष्णा
अर्थात
द्रौपदी के
चरित्र को लोग
बड़ी गर्हित
दृष्टि से
देखते हैं, तथा कृष्ण
का उससे वृहत
अनुराग है। इस
सब की चर्चा
करें और आज के
संदर्भ में
द्रौपदी का
चरित्र
स्पष्ट करें।'
पुरुषों
के
व्यक्तित्व
में जैसे
कृष्ण को समझना
उलझन की बात
है, वैसे ही
स्त्रियों के
व्यक्तित्व
में द्रौपदी
को समझना भी
उलझन की बात
है। और लोगों
को जो गर्हित
दिखाई पड़ता है,
उनके दिखाई
देने में वे
अपने संबंध
में ज्यादा
खबर देते हैं,
द्रौपदी के
संबंध में कम।
जो हमें दिखाई
पड़ता है, वह
हमारे संबंध
में खबर होती
है। हम वही
देख पाते हैं,
जो हम हैं।
हम अपने
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं देख
पाते हैं।
द्रौपदी
का
व्यक्तित्व
हमें कठिन
मालूम पड़ेगा।
एक साथ पांच
व्यक्तियों
को प्रेम, एक साथ पांच
की पत्नी होना
बहुत मुश्किल
है। समझना
होगा। लेकिन
इससे केवल
हमारे संबंध
में सूचना
मिलती है और
हमारी
आकांक्षाओं, अपेक्षाओं
की खबर मिलती
है। प्रेम का
व्यक्तियों
से बहुत संबंध
नहीं है। और
अगर कोई प्रेम
एक से ही किया
जा सकता हो, तो वह प्रेम
बहुत दीन-हीन
हो जाता है।
इसे थोड़ा
समझना होगा।
हम
सबका आग्रह तो
यही होता है
कि प्रेम एक
से हो। हम सब
तो यही
चाहेंगे कि
कोई फूल
रास्ते पर खिले
तो वह एक के
लिए खिले। कोई
गीत गाया जाये
तो वह एक के
लिये गाया
जाये। कोई
वर्षा हो तो वह
एक खेत पर हो।
कोई सूरज
निकले तो एक आंगन
में चमके। हम
सबका मन यह
होता है कि जो
भी हो उस पर
हमारी पूरी
मालकियत और
पूरा "पजेसन' हो जाए। हम
ही उसको पूरा
घेर कर बैठ
जाएं। अगर मुझे
कोई प्रेम
करता है तो वह
सिर्फ मुझे ही
प्रेम करे, उसका प्रेम
किन्हीं और
द्वारों और
धाराओं से न
बह जाए। कहीं
बंट न जाए।
क्योंकि हम
चूंकि प्रेम
को नहीं समझते
हैं, इसलिए
हम ऐसा भी
समझते हैं कि
अगर वह बंट
जाएगा तो मेरे
लिए कम हो
जाएगा। प्रेम
जितना फैलता
है, उतना
बढ़ता है। और
प्रेम जितना बंटता है, उतना बढ़ता
है। और जब हम
प्रेम को एक
ही धारा में
बहाने की बहुत
चेष्टा करते
हैं, जो कि
अनैसर्गिक है,
अप्राकृतिक
है, जोर-जबर्दस्ती
है, तो
अंतिम परिणाम
सिर्फ इतना ही
होता है कि और कहीं
तो प्रेम नहीं
बहता, जहां
हम बहाना
चाहते हैं
वहां भी नहीं
बहता है।
एक
छोटी-सी कहानी
मुझे याद आती
है। एक
भिक्षुणी
थी--बौद्ध
भिक्षुणी।
उसके पास एक
छोटी-सी बुद्ध
की चंदन की
प्रतिमा थी।
वह अपने बुद्ध
को सदा अपने
साथ रखती थी।
भिक्षुणी थी, मंदिरों में,
विहारों में ठहरती
थी, लेकिन
पूजा अपने ही
बुद्ध की करती
थी। एक बार वह
उस मंदिर में
ठहरी जो हजार
बुद्धों का
मंदिर है, जहां
हजार
बुद्ध-प्रतिमाएं
हैं, जहां
मंदिर के
कोने-कोने में
प्रतिमाएं-ही-प्रतिमाएं
हैं। वह सुबह
अपने बुद्ध को
रख कर पूजा
करने बैठी, उसने धूप
जलाई। अब धूप
तो कोई आदमी
के नियम मानती
नहीं! उलटा ही
हो गया। हवा
के झोंके ऐसे
थे कि उसके
छोटे-से बुद्ध
की नाक तक तो
धूप की सुगंध
न पहुंचे और
पास जो
बड़ी-बड़ी बुद्ध
की प्रतिमाएं
बैठी थीं, उन
तक सुगंध
पहुंचने लगी।
वह तो बहुत
चिंतित हुई।
ऐसा नहीं चल
सकता है। तो
उसने एक
छोटी-सी टीन
की पोंगरी
बनाई और अपने
धूप पर ढांकी
और अपने
छोटे-से बुद्ध
की नाक के पास
चिमनी का द्वार
खोल दिया, ताकि
धूप की सुगंध
अपने ही बुद्ध
को मिले। सुगंध
तो मिल गई
अपने बुद्ध को,
लेकिन
बुद्ध का मुंह
काला हो गया।
वह बड़ी मुश्किल
में पड़ी, चंदन
की प्रतिमा थी,
वह सब खराब
हो गई। उसने
जाकर मंदिर के
पुजारी को कहा
कि मैं बड़ी
मुश्किल में
पड़ गई हूं।
मेरे बुद्ध की
प्रतिमा खराब
हो गई, कुरूप
हो गई, अब
मैं क्या करूं?
तो उस
पुजारी ने कहा
कि जब भी कोई
उन सत्यों को
जो सब तरफ
फैलते हैं, एक दिशा में बांधता है,
तब ऐसी ही
दुर्घटना और
ऐसी ही
कुरूपता हो
जाती है।
प्रेम
को
मनुष्य-जाति
ने अब तक
संबंध की तरह
सोचा है, "रिलेशनशिप'
की तरह। दो
व्यक्तियों
के बीच संबंध
की तरह। प्रेम
को हमने अब तक
"स्टेट आफ
माइंड' की
तरह नहीं समझा,
कि एक
व्यक्ति की भावदशा
प्रेम की है।
द्रौपदी को
समझने में वही
कठिनाई है।
यदि
मैं
प्रेमपूर्ण
हूं, तो एक के
प्रति ही
प्रेमपूर्ण
नहीं हो सकता
हूं।
प्रेमपूर्ण
होना मेरा
स्वभाव हो
जाएगा। मैं
अनेक के प्रति
प्रेमपूर्ण
हो जाऊंगा--एक-अनेक
का सवाल ही
नहीं रह जाता,
मैं
प्रेमपूर्ण
हो पाऊंगा।
अगर मैं एक के
प्रति ही
प्रेमपूर्ण
हूं और शेष के
प्रति प्रेमपूर्ण
नहीं हूं, तो
मैं एक के
प्रति भी
प्रेमपूर्ण
नहीं रह पाऊंगा।
तेईस घंटे
मुझे अप्रेम
में जीना पड़ता
है--दूसरों के
साथ होता हूं,
एक घंटा
जिससे प्रेम
करता हूं उसके
साथ होता हूं।
तेईस घंटे
अप्रेम का
अभ्यास चलता
है, एक
घंटे में
टूटता नहीं
फिर। फिर एक
घंटे में, जिसे
हम प्रेम कहते
हैं वह भी
प्रेम नहीं हो
पाता, अप्रेम
ही हो जाता
है।
लेकिन
समस्त जगत के
प्रेमी, नासमझ
ही कहना चाहिए,
उन्हें प्रेम
का कोई पता
नहीं, प्रेम
को बांध लेना
चाहेंगे। और
जैसे ही हम प्रेम
को बांधते
हैं, प्रेम
हवाओं की तरह
है, मुट्ठी
जोर से बांधी
तो हवा मुट्ठी
में नहीं रह
जाती, मुट्ठी
खुली हो तो ही
रहती है। जोर
से बांधी तो
हवा बाहर हो
जाती है। खुली
मुट्ठी में
नहीं होती है।
प्रेम को
बांधने की
चेष्टा में ही
प्रेम मरता है
और सड़
जाता है। और
हम सबने अपने
प्रेम को मार
डाला है और सड़ा
लिया है--उसे
बांधने की
चेष्टा में।
द्रौपदी
को हमें समझना
इसीलिए
मुश्किल पड़ता है
कि पांच
व्यक्तियों
को कैसे प्रेम
कर सकी होगी!
हमें ही नहीं
पड़ता है मुश्किल, उन भाइयों
को भी मुश्किल
पड़ता था। हमें
पड़े तब भी ठीक
है। उन पांच
भाइयों को भी
मुश्किल पड़ता
था और वे भी
मन-मन में
सोचे जाते थे
कि जरूर इसका
किसी एक से
ज्यादा होगा।
सबसे एक-सा
कैसे हो सकता
है? अर्जुन
पर सबकीर्
ईष्या थी।
सबको डर था कि
अर्जुन से
इसका लगाव ज्यादा
है। वे पांच
भाई भी नहीं
समझ पाए हैं द्रौपदी
को। उन्होंने
भी शर्तबंदी
कर रखी थी, दिन
बांट रखे थे।
द्रौपदी जब एक
को प्रेम करती
है तो दूसरे
से मिलती
नहीं। और यह
भी तय कर रखा था
कि जब एक भाई
द्रौपदी के
पास हो, तो
दूसरा भूलकर
भी भीतर न
झांके। वे
पांच भाई भी
द्रौपदी को
नहीं समझ पाए
हैं। उनकी भी
कठिनाई वही है
जो हमारी
कठिनाई है। हम
सोच ही नहीं
सकते कि प्रेम
एक धारा हो
सकती है, जो
व्यक्तियों
की तरफ नहीं
बहती, व्यक्ति
से बहती है।
हम यह सोच ही
नहीं पा सकते,
क्योंकि
हमने तो कभी
व्यक्ति को
छोड़कर प्रेम को
सोचा ही नहीं
है। इसलिए
द्रौपदी हमें
उलझन बन
जाएगी। और
हमारे मन में
हम कितना ही
समझाने की
कोशिश करें, ऐसा लगेगा
कि द्रौपदी
में
कहीं-न-कहीं
कुछ वेश्या
छिपी है।
क्योंकि
हमारी सती की
जो परिभाषा है,
वही
द्रौपदी को
वेश्या बना
देगी।
लेकिन
कभी आपने खयाल
किया है कि इस
देश की परंपरा
ने द्रौपदी को
पांच कन्याओं
में गिना है।
पांच
पवित्रतम
स्त्रियों
में गिना है।
बड़े अजीब लोग
रहे होंगे, जिन्होंने
द्रौपदी को
पांच
श्रेष्ठतम महासतियों
में गिना है।
जरूर
जिन्होंने
गिनती की होगी,
उनको भी यह
तथ्य तो साफ
जाहिर है। इस
तथ्य में कोई
छिपाव नहीं
है। इस तथ्य
को जानते हुए
यह गिनती की
गई है। यह बड़ी
अर्थपूर्ण
है। यह इस बात
की सूचक है कि
प्रेम एक से
है या अनेक से
है, यह
सवाल नहीं है,
प्रेम है या
नहीं, यह
सवाल है। और
यदि प्रेम है
तो वह अनंत
धाराओं में बह
सकता है। पांच
तो सिर्फ
प्रतीक ही है।
पांच की तरफ
बह सकता है, पचास की तरफ
बह सकता है, लाख की तरफ
बह सकता है।
और जिस दिन हम
इस पृथ्वी पर
प्रेमपूर्ण
व्यक्ति पैदा
कर सकेंगे, उस दिन यह
प्रेम की जो
व्यक्तिगत
मालकियत है, यह बिलकुल
बेमानी हो
जाएगी। ऐसा
नहीं है कि किसी
को हम
जबर्दस्ती
करें कि वह एक
को प्रेम न
करे, ऐसा
नहीं है। ऐसा
नहीं है कि हम
इससे उलटा नियम
बना लें कि जो
एक को प्रेम
करता है, वह
पाप करता है।
वह फिर वही
नासमझी दूसरे
छोर से हो
जाएगी। नहीं,
हम यह जानकर
चलें कि जो
जिसकी
सामर्थ्य है
वैसा करता है
और हम अपने
व्यक्तित्व
को और अपनी सामर्थ्य
को दूसरे के
ऊपर थोपते न
चले जाएं।
द्रौपदी
में प्रेम का
बहाव है। और
वह बहाव द्रौपदी
ने एक क्षण को
भी इनकार नहीं
किया। यह बड़ी
अजीब घटना थी।
यह बड़े खेल
में घट गई थी।
द्रौपदी को
लेकर आए थे और
पांचों
भाइयों ने कहा
था कि हम एक
बहुत अदभुत
चीज ले आए
हैं। मां ने
कहा कि अदभुत
ले आए हो तो
पांचों बांट
लो। उन्हें
कभी कल्पना भी
न थी।
उन्होंने तो
सिर्फ मजाक
किया था और
मां को छकाना
चाहते थे।
उन्हें पता भी
न था कि मां कह
देगी कि बांट
लो पांचों। और
फिर जब मां ने
कह दिया था तो
कोई उपाय न
रहा था। फिर
वे पांचों ही
एक साथ
द्रौपदी के
पति हो गए।
लेकिन
द्रौपदी ने एक
क्षण को भी
इससे कोई
इनकार नहीं
किया। उसके
प्रेम में
अनंतता के
कारण ही यह
संभव हो सका।
वह सब, पांचों
को प्रेम दे
सकी और इससे
प्रेम चुका नहीं।
पांचों को
प्रेम दे सकी,
प्रेम घटा
नहीं। पांचों
को प्रेम दे
सकी, लेकिन
इससे कहीं कोई
दुविधा और
कहीं द्वैत उसके
मन में नहीं
आया है। यह
बहुत ही अदभुत
स्त्री होनी
चाहिए।
अन्यथा
स्त्री साधारणतःर्
ईष्या में
जीती है। अगर
हम पुरुष और
स्त्री के
व्यक्तित्वों
का एक खास
चिह्न खोजना
चाहें, तो
पुरुष अहंकार
में जीते हैं,
स्त्रियांर् ईष्या में
जीती हैं। असल
मेंर्
ईष्या जो है, वह
अहंकार का "पैसिव' रूप
है। अहंकार जो
है, वहर् ईष्या का "एक्टिव' रूप है।
अहंकार सक्रियर्
ईष्या है,र्
ईष्या
निष्क्रिय
अहंकार है।
स्त्रियां तो निरंतरर्
ईष्या में
जीती हैं।
लेकिन यह
स्त्री बिनार्
ईष्या के
प्रेम में जी
सकी, और इन
पांचों
भाइयों से कई
अर्थों में
ऊंचे उठ गई।
ये पांचों भाई
बड़ी तकलीफ में
रहे हैं। द्रौपदी
को लेकर भीतर
एक निरंतर
द्वंद्व और
संघर्ष चलता
ही रहा है।
लेकिन
द्रौपदी
निर्द्वंद्व
और शांत इस
बहुत अजीब
घटना को गुजार
गई।
हमारी
समझ में जो
तकलीफ होती है, वह हमारे
कारण होती है।
हम प्रेम को
एक और एक के
बीच का संबंध
मानते हैं। है
नहीं प्रेम
ऐसा। और इसलिए
हम फिर प्रेम
के लिए
बहुत-बहुत
झंझटों में
पड़ते हैं और
बहुत
कठिनाइयां
खड़ी कर लेते
हैं। प्रेम
ऐसा फूल है, जो कभी भी और
किसी के लिए
भी आकस्मिक
रूप से खिल
सकता है। न उस
पर कोई बंधन
है, न उस पर
कोई मर्यादा
है। और बंधन
और मर्यादा जितनी
ज्यादा होगी,
उतना हम एक
ही निर्णय कर
सकते हैं कि
हम उस फूल को
ही न खिलने
दें। फिर वह
एक के लिए भी
नहीं खिलता।
फिर हम बिना
प्रेम के जी
लेते हैं।
लेकिन हम बड़े
अजीब लोग हैं।
हम बिना प्रेम
के जी लेना
पसंद करेंगे,
लेकिन
प्रेम की
मालकियत
छोड़ना पसंद न
करेंगे। हम यह
पसंद कर लेंगे
कि जिंदगी
हमारी रिक्त प्रेम
से गुजर जाए, लेकिन हम यह
बर्दाश्त न
करेंगे कि
जिसे हमने प्रेम
किया है उसके
लिए कोई और भी
प्रेमपात्र हो
सके। यह हम
बर्दाश्त न
करेंगे। हम बिना
प्रेम के रह
जाएं, यह
चलेगा; हमारे
भवन पर प्रेम
की वर्षा न हो,
यह चलेगा, लेकिन पड़ोसी
के भवन पर हो
जाए, हमारे
भवन के साथ, तो भी नहीं
चलेगा।
अहंकार औरर्
ईष्या अदभुत
कष्ट में
डालते हैं।
फिर
साथ ही यह भी
खयाल रहे कि
यह जो घटना है
द्रौपदी की, यह अकेली
घटना नहीं है।
ऐसा है कि
द्रौपदी की
घटना शायद
आखिरी घटना
है। द्रौपदी
के पहले जो
समाज था जगत
में, वह
मातृसत्ता का
था। हजारों
वर्षों तक "मेट्रिआर्क
सोसाइटी' थी।
उसमें कोई
स्त्री किसी
पुरुष की नहीं
होती थी। और
इसलिए मां का
तो पता चलता
था, पिता
का कोई पता
नहीं चलता था।
ऐसा मालूम
होता है कि
द्रौपदी की
घटना उस लंबी
शृंखला की
आखिरी कड़ी है।
इसलिए उस वक्त
में किसी ने
इस पर एतराज
नहीं उठाया। "पॉलिगैमी'
समाप्त
होने के करीब
थी। आखिरी कड़ी
है यह। एक स्त्री
के
बहु-पति, आज
भी कुछ आदिम
समाज जो जिंदा
हैं जमीन पर, उनमें चलती
है वह व्यवस्था।
ऐसा प्रतीत
होता है कि
द्रौपदी की घटना
उस लंबी
शृंखला की, मरती हुई
शृंखला की
आखिरी कड़ी है।
इसलिए उस समाज
को बहुत अड़चन
न हुई मालूम।
किसी ने इस पर
कोई एतराज न
उठाया। नहीं
तो मां को भी
क्या तकलीफ थी
कि अपना
वक्तव्य बदल
देती। लड़के
अगर आज्ञा
मानने को भी
उत्सुक थे, तो मां तो
अपनी आज्ञा
बदल सकती थी।
पता चलने पर
कि नहीं, कोई
चीज नहीं ले
आए हैं, एक
पत्नी ले आए
हैं, इसको
पांच में कैसे
बांटा जा सकता
है। लेकिन मां
ने आज्ञा न
बदली। और अगर
आज्ञा अनैतिक
होती तो लड़के
भी प्रार्थना
तो कर ही सकते
थे कि यह आज्ञा
बदल लें, क्योंकि
हमसे भूल हो
गई। इसमें कोई
अड़चन न थी।
लेकिन न मां
ने आज्ञा बदली,
न लड़कों ने
आज्ञा बदलने
की कोई
प्रार्थना की,
न उस समाज
में किसी ने
इस पर कोई
एतराज उठाया कि
यह गलत हो गया
है। उसका कुछ
कारण इतना ही
है कि वह समाज
जिस व्यवस्था
में जी रहा था,
उस व्यवस्था
में यह घटना
अनैतिक नहीं
मालूम पड़ी
होगी।
हमेशा
ऐसा होता है
कि एक-एक समाज
की अपनी धारणाएं
दूसरे समाज को
बड़ा अनैतिक
बना देती हैं।
मुहम्मद ने नौ
शादियां
कीं। और कुरान
में प्रत्येक
व्यक्ति को
चार शादी करने
की आज्ञा दी।
आज हम सोचने
बैठते हैं तो
बड़ा अनैतिक मालूम
पड़ता है, यह
क्या पागलपन
है! एक
व्यक्ति चार
शादी करे, और
खुद मुहम्मद
नौ शादी करें!
और मुहम्मद भी
बड़े अनूठे
आदमी हैं।
पहली शादी जब
इन्होंने की तो
उनकी उम्र कुल
चौबीस साल थी
और उनकी पत्नी
की उम्र चालीस
साल थी। लेकिन
जिस समाज में
मुहम्मद थे, उस समाज में
एक बहुत अदभुत
घटना घट गई थी
जिसकी वजह से
यह बिलकुल
स्वाभाविक था
और अनैतिक
नहीं समझा
गया। जिस
कबीले में वे
थे, वह एक
लड़का कबीला
था। पुरुष तो
कट जाते थे और
मर जाते थे।
स्त्रियां
इकट्ठी हो गई
थीं बहुत बड़ी
संख्या में।
और यही नैतिक
था उस घड़ी में
कि एक-एक
पुरुष चार-चार
शादी कर ले।
अन्यथा जो तीन
स्त्रियां बच
जाती
थीं--स्त्रियां
चौगुनी--वह
जो तीन
स्त्रियां बच
जाती हैं, उनका
क्या होगा? और तीन
स्त्रियां
अगर जीवन में
प्रेम को न पा सकें,
अतृप्त
रहें, तो
समाज बहुत
अनैतिक और
बहुत
व्यभिचारी हो
जाएगा। इसलिए
मुहम्मद ने
कहा कि चार
शादी
प्रत्येक
पुरुष कर ले, यह बड़ी
धार्मिक
व्यवस्था है।
और खुद तो
हिम्मत करके
नौ शादियां
कीं। वह सिर्फ
यह कहने को कि
अगर मैं चार
की कहता हूं
तो मैं नौ
करके बताये
देता हूं। अरब
में किसी को
अड़चन न हुई इस
बात से, क्योंकि
बात सीधी और
साफ थी। इसमें
कोई अनैतिकता
नहीं दिखाई
पड़ी थी।
द्रौपदी
के मामले को
लेकर मेरी समझ
यह है कि कोई
अड़चन नहीं हुई
क्योंकि जो
युग था, वह
धीरे-धीरे मर
रही थी यह
व्यवस्था, बहु-पति
की व्यवस्था
मर रही थी, लेकिन...और
मरेगी, क्योंकि
स्त्री और
पुरुष अगर
बराबर संख्या
में होते चले
जाएं तो न तो बहु-पति
की व्यवस्था
चल सकती है, न बहु-पत्नी
की व्यवस्था
चल सकती है।
किन्हीं कारणों
से पुरुष और
स्त्रियों का
संतुलन बिगड़
जाता है तो
ऐसी व्यवस्थायें
चल सकती हैं।
तो उस
दिन तो यह
अनैतिक न था।
आज भी मैं
मानता हूं कि
जिस स्त्री ने
पांच को एक-सा
प्रेम दिया, पांच के
प्रेम में
जीयी, वह
साधारण
स्त्री न थी।
असाधारण
स्त्री थी। और
उसके पास
प्रेम का
अजस्र स्रोत
था, इसलिए
ही यह संभव हो
सका था।
लेकिन
हमें सोचने
में कठिनाई
होती है, वह
हमारे कारण
होती है।
"भगवान
श्री, आपने
कहा है कि
कृष्ण न मित्र
बनाते, न
शत्रु बनाते।
लेकिन अपने
बालसखा
सुदामा से
उनका इतना
प्रेम है कि
सिंहासन
छोड़कर उसके
लिए भागे आते
हैं। और तीन
मुट्ठी चावल
पाकर उसे
त्रिलोक का
वैभव दे डालते
हैं। कृपया, कृष्ण-सुदामा
के इस विशेष
मैत्री-संबंध
पर प्रकाश
डालें।'
विशिष्ट
मैत्री-संबंध
नहीं है, बस
मैत्री-संबंध
है। यहां भी
हमारी ही
तकलीफ है।
हमें लगता है
कि तीन मुट्ठी
चावल के लिए
तीनों लोक का
साम्राज्य दे
डालना, जरा
ज्यादा है।
लेकिन सुदामा
के लिए तीन
मुट्ठी चावल
देना जितना
कठिन था, कृष्ण
के लिए तीन लोकों
का साम्राज्य
देना उतना
कठिन नहीं है।
उसका हमें
खयाल नहीं है।
सुदामा के लिए
तीन मुट्ठी
चावल भी बहुत
बड़ी बात थी, बहुत
मुश्किल था।
इसमें अगर दान
दिया है तो सुदामा
ने ही दिया
है। इसमें दान
कृष्ण का नहीं
है। लेकिन
आमतौर से हमें
यही दिखाई
पड़ता रहा है
कि दान दिया
है कृष्ण ने।
सुदामा क्या
लाया था! तीन
मुट्ठी चावल
ही लाया था! फटे
कपड़े में
बांधकर!
लेकिन
हमें पता नहीं
कि सुदामा
कितनी दीनता में
जी रहा था।
उसके लिए एक
दाना भी
जुटाना और लाना
बड़ा कठिन था।
और कृष्ण के
लिए तीन लोक
का साम्राज्य
देना भी कठिन
नहीं था।
इसलिए कोई कृष्ण
ने सुदामा पर
उपकार कर दिया
हो, इस भूल
में कोई न
रहे। कृष्ण ने
सिर्फ "रिसपांस',
उत्तर दिया
है और उत्तर
बहुत बड़ा नहीं
है। बड़े-से-बड़ा
जो हो सकता था,
उतना है।
इसलिए तीन लोक
के साम्राज्य
की बात कही।
बड़ी-से-बड़ी जो
कल्पना है कवि
की, वह यह
है कि तीन लोक
हैं और तीनों
लोक का साम्राज्य
है। लेकिन एक
गरीब हृदय के
पास, जिसके
पास कुछ भी
नहीं है, तीन
चावल के दाने
भी नहीं हैं, वह तीन
मुट्ठी चावल
ले आया है, उसे
हम कब समझ
पाएंगे? नहीं,
कृष्ण देकर
भी तृप्त नहीं
हुए हैं।
क्योंकि जो
सुदामा ने
दिया है वह
बहुत असाधारण
है। और जो
कृष्ण ने दिया
है, उनकी
हैसियत के
आदमी के लिए
बहुत साधारण है।
इसलिए ऐसा मैं
नहीं मानता
हूं कि कोई
सुदामा के साथ
विशेष मैत्री
दिखाई गई है।
सुदामा आदमी
ऐसा है कि
सुदामा ने ही
विशेष मैत्री
दिखाई है।
कृष्ण ने
सिर्फ उत्तर
दिया है।
और
जैसा मैंने
कहा कि वे
मित्र और
शत्रु किसी के
भी नहीं हैं।
लेकिन सुदामा
जैसा मित्र, सुदामा की
तरफ से मैत्री
का इतना भाव
लेकर आए, तो
कृष्ण तो वैसा
ही "रिसपांस'
करते हैं
जैसे घाटियों
में हम आवाज
दें तो घाटियां
सात बार आवाज
को दोहराकर
लौटाती हैं। घाटियां
हमारी आवाज की
प्रतीक्षा
नहीं कर रही
हैं, न घाटियां
हमारी आवाज के
उत्तर देने के
लिए प्रतिज्ञाबद्ध
हैं, न
उसका कोई "कमिटमेंट'
है, लेकिन
जब हम घाटियों
में आवाज देते
हैं तो घाटियां
उसको सातगुना
करके वापस
लौटा देती
हैं। वह घाटियों
का स्वभाव है।
वह
प्रतिध्वनि, वह "इकोइंग'
घाटी का
स्वभाव है।
कृष्ण ने जो
उत्तर दिया है
वह कृष्ण का
स्वभाव है। और
सुदामा जैसा
व्यक्ति जब
सामने आ गया
हो और इतनी
प्रेम की आवाज
दी हो, तो
कृष्ण उसे अगर
हजारगुना
करके भी लौटा
दें तो भी कुछ
नहीं है। वह
कृष्ण का
स्वभाव है। यह
कोई भी कृष्ण
के द्वार पर
गया होता, सुदामा
का हृदय
लेकर...।
बड़े
मजे की बात है
कि गरीब हमेशा
मांगने जाता है, सुदामा देने
गया था। और जब
गरीब देने
जाता है तो
उसकी अमीरी का
कोई मुकाबला
नहीं। इससे
उलटी बात अमीर
के साथ घटती
है, अमीर
हमेशा देने
जाता है।
लेकिन जब अमीर
मांगने जाता
है, जैसे
बुद्ध की तरह
भिक्षा का
पात्र लेकर
सड़क पर खड़ा
हुआ, तब
मामला बिलकुल
बदल जाता है।
अगर बुद्ध की
तरह भिक्षा का
पात्र लेकर
सड़क पर खड़ा
हुआ, तब
मामला बिलकुल
बदल जाता है।
अगर बुद्ध और
सुदामा को साथ
सोचेंगे तो
खयाल में आ
सकेगा। इधर
सुदामा गरीब
है और देने
गया है, और
बुद्ध के पास
सब कुछ है और
भीख मांगने
चले गए हैं।
जब अमीर भीख
मांगने जाता
है तब अलौकिक
घटना घटती है
और जब गरीब
दान देने जाता
है, तब
अलौकिक घटना
घटती है। ऐसे
अमीर तो दान
देते रहते हैं
और गरीब
मांगते रहते
हैं, यह
बहुत सामान्य
घटना है।
इसमें कोई
विशेष बात
नहीं है।
सुदामा उसी
विशिष्ट हालत
में है जिस
हालत में
बुद्ध का सड़क
पर भीख मांगना
है। बुद्ध को
क्या कमी है
कि भीख मांगने
जाएं? सुदामा
के पास क्या
है जो देने को
उत्सुक हो गया
है? पागल
ही है। बुद्ध
भी पागल, वह
भी पागल। और
देने भी किसको
गया है! कृष्ण
को देने गया
है, जिनके
पास सब कुछ
है। लेकिन
प्रेम यह नहीं
देखता कि आपके
पास कितना है।
आपके पास कितना
ही हो तो भी
प्रेम देता
है। प्रेम यह
मान ही नहीं
सकता कि आपके
पास पर्याप्त
है।
इसे
थोड़ा समझना
चाहिए।
प्रेम
कभी यह मान ही
नहीं सकता कि
आपके पास पर्याप्त
है। प्रेम तो
देता ही चला
जाता है। ऐसी
कोई घड़ी नहीं
आती कि जब वह
कहे कि बस, अब काफी दे
चुके, बहुत
तुम्हारे पास
है, अब
देने की कोई
जरूरत न रही।
"इट इज़
नेवर इनफ'। कभी
पर्याप्त
होता ही नहीं।
प्रेम देता ही
चला जाता है, उलीचता ही
चला जाता है
और सदा कम ही
रहता है। अगर
हम एक मां से
पूछें कि तूने
अपने बेटे के
लिए इतना-इतना
किया, तो
अगर वह नर्स
होगी तो बताएगी
कि हां, इतना-इतना
किया। और अगर
वह मां होगी
तो वह कहेगी, कहां किया!
मुझे बहुत कुछ
करना था, वह
मैं कर नहीं
पाई। मां
हमेशा
लेखा-जोखा
रखेगी उसका, जो वह नहीं
कर पाई। और
अगर मां
लेखा-जोखा
रखती हो कि
कितना उसने
किया, तो
वह मां होने
के भ्रम में
है, उसने
सिर्फ नर्स का
काम किया है, इससे ज्यादा
कोई उसका काम
नहीं है? प्रेम
सदा लेखा-जोखा
रखता है कि
क्या मैं कर नहीं
पाया। कृष्ण
के पास क्या
कमी है? फिर
भी सुदामा
देने को आतुर
है। घर से
चलते वक्त
उसकी पत्नी ने
तो कहा है कि
कुछ मांग
लेना। लेकिन
वह देने को
चला आया है।
दूसरी
भी बात है, बड़े संकोच
से भरा है, अपनी
पोटली को बहुत
छिपा लिया है।
प्रेम देता भी
है और संकोच
भी अनुभव करता
है, क्योंकि
प्रेम को सदा
लगता है कि
देने योग्य है
क्या? प्रेम
देता भी है और
छिपाता भी है।
अंधेरे में
देना चाहता है,
अज्ञात
देना चाहता है,
बिना नाम के
देना चाहता है,
पता न चले।
तो वह अपनी
पोटली को
छिपाए हुए है
कि दूं कैसे!
देने योग्य है
भी क्या! ऐसा
नहीं है कि
चावल है, इसलिए;
अगर हीरे भी
लेकर सुदामा
गया होता तो
भी ऐसा ही
छिपाता। वह
सवाल चावल का
नहीं है, उसके
लिए तो हीरे
से भी ज्यादा
कीमती चावल
हैं। बड़ा सवाल
यह है कि
प्रेम कभी
घोषणा करके
नहीं देता। क्योंकि
जब घोषणा ही
हो गई तो
प्रेम कहां
रहा! वहां तो
अहंकार शुरू
हो गया। प्रेम
चुपचाप दे देता
है और भाग
जाता है। पता
भी न चल पाए कि
कौन दे गया।
और वह बड़ा डरा
हुआ है और
छिपाए हुए है।
वह घड़ी बड़ी
अदभुत रही
होगी। लेकिन
बड़े मजे की
बात है, और
कृष्ण उससे
आते ही से
पूछने लगते
हैं कि लाए
क्या हो? देने
को क्या लाए
हो? क्योंकि
कृष्ण यह मान
ही नहीं सकते
कि प्रेम बिना
देने के खयाल
से, और आ
गया हो। प्रेम
जब भी आता है
तो देने ही
आता है।
सुदामा है कि
छिपाए जा रहा
है। और कृष्ण
हैं कि खोजे
जा रहे हैं कि
लाए क्या हो? अब ऐसे
कृष्ण को क्या
कमी है, कि
सुदामा क्या
लाएगा जिससे
उनकी कोई बढ़ती
हो जाए! लेकिन
वे जानते हैं
कि प्रेम जब
भी आता है तो
देने ही आता
है, लेने
नहीं आता।
सुदामा जरूर
कुछ लाया ही
होगा। उसने
जरूर छिपा रखा
होगा, क्योंकि
वे जानते हैं
कि प्रेम सदा
छिपाता है। और
फिर उन्होंने
उसकी पोटली
खोज-बीन कर
छीन ही ली। और
फिर उस भरे
दरबार, जहां
कि खाली चावल
कभी भी न आए
होंगे, वे
उन चावलों को
खाने लगे।
इसमें
कोई विशेष
घटना नहीं है।
प्रेम के लिए
बड़ी सामान्य
घटना है।
लेकिन चूंकि
प्रेम ही हमें
सामान्य नहीं
रह गया, इसलिए
विशेष मालूम
पड़ता है।
"मेरा
प्रश्न ऐसा है
भगवान श्री, कि सुदामा
की दरिद्रता
को कृष्ण ने
दूर किया, पर
उसे देखकर
क्या कृष्ण को
समाज में जिस
कारण से
दरिद्रता है,
उसका खयाल न
आया और
उन्होंने
समाज की
अर्थ-व्यवस्था
को बदलने के
बारे में न
सोचा? महावीर
और बुद्ध न
सोचते तो एक
बात थी, पर
कृष्ण जैसा
व्यापक
व्यक्ति, जो
लौकिक विषयों
को भी पूरा
महत्व देता है,
क्यों नहीं
सोचता है?
धार्मिक
पुरुषों ने
शायद सोचा ही
नहीं। और जिसने
सोचा, कार्ल
माक्र्स ने, वह धार्मिक
न रहा। आप
अपने बारे में
भी बतलाएं कि
आप चूंकि धर्म
और आत्मा से
संबद्ध हैं, आप
अर्थ-व्यवस्था
के बारे में
कुछ सोचेंगे?
और किस रूप
में उसे
क्रियान्वित
किया जा सकेगा?'
यह
सवाल बहुत बार
उठता रहा है।
और यह इल्जाम
बुद्ध पर, कृष्ण पर, महावीर पर, जीसस पर, मुहम्मद
पर, सब पर
लगाया जा सकता
है कि उन्होंने
अर्थ-व्यवस्था
के संबंध में
क्यों न सोचा?
बहुत से
कारण हैं। वे
सोच ही नहीं
सकते थे। सोचने
का उपाय ही
नहीं था।
सोचने की
परिस्थिति ही
नहीं थी। हम
सोच पाते हैं,
क्योंकि
परिस्थिति
पैदा हो गई।
माक्र्स सोच पाया,
क्योंकि
माक्र्स के
पहले एक
"इंडस्ट्रियल
रेवल्यूशन',
एक
औद्योगिक
क्रांति हो
गई। औद्योगिक
क्रांति के
पूर्व जगत में
कोई भी
अर्थ-व्यवस्था
को रूपांतरण
करने की नहीं
सोच सकता।
उपाय नहीं है।
इसके कारण समझ
लेने जरूरी
हैं।
औद्योगिक
क्रांति के
पूर्व जो जगत
था, उस जगत के
पास आदमी का
श्रम ही
एकमात्र
उत्पादक
स्रोत था। और
आदमी के श्रम
से जितना पैदा
हो सकता था, उसको किसी
भी तरह बांटा
जाए, उससे
दरिद्रता
नहीं मिट सकती
थी। उससे
दरिद्रता
मिटने का उपाय
ही नहीं था।
दरिद्रता
लाजिमी थी।
विषमता भी
नहीं मिट सकती
थी। उसके भी कारण
हैं। उसकी मैं
बात करता हूं।
पहली
बात, दरिद्रता
नहीं मिट सकती
थी। दरिद्रता
मिटने के लिए
जितनी संपत्ति
चाहिए, उतनी
समाज के पास
संपत्ति न थी।
हां, इतना
ही हो सकता था
कि कुछ लोग जो
समृद्ध दिखाई
पड़ते थे, वे
मिटाए जो सकते
थे। उनको भी
दरिद्र बनाया
जा सकता था।
इतना हो सकता
था। अगर हजार
आदमी में एक
आदमी के पास
थोड़ी संपत्ति
दिखाई पड़ती थी,
तो उसको
मिटाया जा
सकता था। और
नौ सौ
निन्यानबे की
जगह एक हजार
आदमी दरिद्र
हो सकते थे।
मनुष्य अपने
श्रम से जो
संपत्ति पैदा
करता है, उससे
कभी दरिद्रता
के "लेवल' के
ऊपर नहीं जा
सकता। उस दिन
के बाद ही
दरिद्रता
मिटाने का
विचार उठ सकता
है जिस दिन से
आदमी के श्रम
की जगह यंत्र
का श्रम संपत्ति
पैदा करने
लगे। उस दिन
हम एक-एक आदमी की
जगह लाख-लाख
गुनी मशीनों
का उपयोग कर
पाते हैं।
संपत्ति वृहत
पैमाने पर
पैदा होनी
शुरू होती है
और पहली दफे
यह खयाल आना
शुरू होता है कि
अब दरिद्र
रखने की कोई
जरूरत न रही।
उसकी
ऐतिहासिक
आवश्यकता
समाप्त हो गई।
इसलिए
औद्योगिक
क्रांति के
बाद ही
माक्र्स सोच पाया।
अगर औद्योगिक
क्रांति के
बाद कृष्ण पैदा
होते तो
माक्र्स से
बहुत ज्यादा
साफ सोच पाते,
जितना साफ
माक्र्स नहीं
सोच पाया।
लेकिन कृष्ण
औद्योगिक
क्रांति के
पहले हैं। कोई
माक्र्स से भी
पूछे कि आप भी
औद्योगिक
क्रांति के
पहले क्यों न
पैदा हो गए!
ऐसा
नहीं है कि
मनुष्य के पास
चिंतन नहीं था
और ऐसा भी
नहीं है कि
मनुष्य को
दरिद्रता के
मिटाने का
खयाल पैदा
नहीं हुआ।
हुआ। बुद्ध को
भी हुआ, महावीर
को भी हुआ।
लेकिन बुद्ध
और महावीर ने
दरिद्रता को
मिटाने का
उपाय किया? मालूम है, खुद दरिद्र
हो गए। और कोई
उपाय नहीं था।
अगर दरिद्रता
पीड़ा देती है,
तो इसके
सिवाय कोई
उपाय नहीं कि
तुम भी दरिद्र
होकर खड़े हो
जाओ दरिद्रों
के साथ, और
क्या करोगे!
तो बुद्ध और
महावीर ने
अपनी संपत्ति
छोड़ दी।
महावीर ने तो
अपनी संपत्ति
बांट भी दी।
सारी संपत्ति
महावीर ने
बांट दी। जो
उनके हिस्से
में पड़ी थी, वह सब बांटकर
वह चले गए।
लेकिन उससे
दरिद्रता
नहीं मिटी। दरिद्रता
के मिटने से
उसका कोई
संबंध नहीं
है। यह एक
नैतिक उपाय तो
हुआ। महावीर
ने अपने मन की
पीड़ा तो मिटा
ली, लेकिन
दरिद्रता न
मिटी।
इसलिए
पुराने जगत के
समस्त
विचारकों ने
अपरिग्रह पर
जोर दिया है, परिग्रह मत
करो। इस पर वह
जोर नहीं दे
सकते कि कोई
दरिद्र न रहे,
वह इस पर ही
जोर दे सकते
हैं कि कोई
संपत्तिशाली
न रहे। इसके
सिवा कोई उपाय
नहीं है। यानी
उनके पास जो
मौजूदा
स्थिति थी, उस मौजूदा
स्थिति में एक
ही उपाय था कि
कोई अमीर न
रहे। इसलिए
सारे पुराने
धर्म
अपरिग्रह पर,
नॉन पजेसन'
पर, चीजों
के त्याग पर, धन के
संग्रह के
विरोध में खड़े
हैं। वे कहते
हैं, बांट
दो सब जो है।
लेकिन यह भी
वे जानते हैं
कि बंटने
से यह धनी
आदमी तो
अपरिग्रही हो
जाता है, लेकिन
जिसके पास
नहीं है उनके
पास कुछ भी
नहीं
पहुंचता। यह
उपाय ऐसा है, जैसे कोई
चम्मच रंग
लेकर और
समुद्र को
रंगने चला
जाए। एक बुद्ध
बंट जाते हैं,
खतम! एक
महावीर बंट
जाते हैं, खतम!
वह जो विराट
दरिद्रता का
सागर है, वह
उनके चम्मच को
घोलकर पी जाता
है। उससे कुछ
पता नहीं चलता,
उससे कहीं
कोई परिणाम
नहीं होता।
नहीं
सोचा जा सकता
था, इसलिए
नहीं सोचा
गया।
लेकिन, दूसरा सवाल
है कि विषमता
तो मिटाई जा
सकती थी।
दरिद्रता
नहीं मिटाई जा
सकती थी, विषमता
मिटाई जा सकती
थी, लेकिन
विषमता
मिटाने का
खयाल क्यों
पैदा न हुआ?
उसका
भी कारण है।
इसे थोड़ा ऐसे
समझना पड़ेगा।
विषमता
मिटाने का
खयाल तभी पैदा
होता है, जब
बहुत दूर तक
हमारे बीच
समानता आनी
शुरू हो जाती
है। उसके पहले
पैदा नहीं
होता। असल में
विषमता है, यह हमें तभी
पता चलता है
जब समाज "क्लासेज'
में बंटा
हुआ नहीं रह
जाता, बल्कि
सीढ़ियों में
बंट जाता है।
जैसे एक मेहतरानी
है एक गांव
की। अगर गांव
की महारानी
हीरों के हार
पहनकर निकले
तो मेहतरानी
को कोई भी तकलीफ
नहीं होती।
होती ही नहीं।
कोईर्
ईष्या नहीं पकड़ती।
क्योंकि
फासला इतना
बड़ा है किर्
ईष्या पकड़ने
का उपाय भी
नहीं।
"डिस्टेंस' बहुत बड़ा
है। कहां
मेहतरानी और
कहां महारानी!
इन दोनों के
बीच इतना
अंतराल है कि
मेहतरानी यह
सोच भी तो
नहीं सकती कि
वह महारानी सेर्
ईष्या करे।
लेकिन उसकी
पड़ोस की
मेहतरानी अगर एक
कंकड़-पत्थर
का हार भी
डालकर निकल
जाए, तो उसेर्
ईष्या शुरू हो
जाती है।
क्यों?
पड़ोस की
मेहतरानी
जहां है, वहां
वह भी हो सकती
है। इसमें कोई
असंभावना नहीं
है। इसलिएर्
ईष्या पकड़ती
है। जब तक
समाज में ऐसी
स्थिति थी कि
नीचे फैला हुआ
दरिद्रों का
विशाल जगत था,
और ठेठ
आसमान में
एकाध आदमी
समृद्ध था, तब तक फासले
इतने ज्यादा
थे कि समानता
की धारणा पैदा
नहीं हो सकती
थी। हम समानता
का दावा नहीं
कर सकते थे।
इसलिए इसका ही
उपाय सूझता था
कि जो जैसा है,
वैसा है।
लेकिन
औद्योगिक
क्रांति के
बाद फासले
टूटने शुरू
हुए और बीच
में सीढ़ियां
बन गईं। आज
शिखर पर कोई रॉकफेलर
होता है, नीचे
कोई मजदूर
होता है, लेकिन
यह विभाजन दो
वर्गों का
विभाजन नहीं
है, इसमें
सीढ़ियों का
विभाजन है, पायरी हैं। हर एक
के ऊपर कोई है,
उसके ऊपर
कोई है, उसके
ऊपर कोई है, और पूरा
समाज लंबी
सीढ़ी बन गया
है। इसमें बीच
की सीढ़ियां
सब जुड़ गई
हैं। इन बीच
की सीढ़ियों की
वजह से प्रत्येक
को यह खयाल
आता है कि
मुझसे जो आगे
है, मैं
उसके समान
क्यों नहीं हो
सकता!
प्रत्येक को
यह खयाल आता
है कि मुझसे
जो आगे है, मैं
उसके समान
क्यों नहीं हो
सकता!
समानता
का खयाल
वर्ग-विभक्त
समाज में नहीं
पैदा होता, सीढ़ी-विभक्त
समाज में पैदा
होता है।
समानता की
धारणा ही पैदा
नहीं होती।
लेकिन इसका यह
मतलब नहीं है
कि बुद्ध, महावीर
या कृष्ण ने
समानता की बात
नहीं की। जिस
समानता की बात
उस समय संभव
थी, उन्होंने
की है। वह
आत्मिक
समानता की बात
है। उस दिन
वही संभव था।
एक
आध्यात्मिक "इक्वेलिटी'
की बात संभव
थी कि सबके
भीतर जो प्राण
हैं, जो
आत्मा है, वह
समान है।
लेकिन सबके
बाहर जो
सुविधा-असुविधा
है--धन है, कपड़े
हैं, मकान
है, उनके
समान होने का
का कोई खयाल
पैदा नहीं हो
सकता था। इसका
कोई रास्ता
नहीं था। आज
हम सोच सकते
हैं। लेकिन एक
उदाहरण से
आपको मैं खयाल
दिलाऊं।
बहुत-सी बातें
हैं जो आज हम
नहीं सोच सकते,
जो कल आने
वाली पीढ़ियां
हम पर इल्जाम लगाएंगी।
आज हम नहीं
सोच सकते।
उदाहरण के लिए
एकाध बात आपसे
कहूं जो आने
वाली पीढ़ियां
आप पर इल्जाम लगाएंगी--
आज आप
यह सोच ही
नहीं सकते, आज आप हर
आदमी को
मजदूरी देते
हैं, जब वह
काम करता है।
आने वाली
पीढ़ियां आपसे
कहेंगी क्या
उस वक्त कोई
भी एक विचारक
पैदा न हुआ, जो कहता कि
खाने-पीने के
लिए काम की
जबर्दस्त शर्त
लगानी अनैतिक
है? जल्दी
वक्त आ जाएगा।
जल्दी वक्त आ
जाएगा जब सारी
"आटोमेटिक'
मशीनें
उत्पादन करने
लगेंगी, तो
बहुत सवाल आ
जाएगा कि अब
काम जरूरी
नहीं रहा।
प्रत्येक
आदमी को बिना
काम के मिल
जाना चाहिए।
और जो लोग काम
की भी मांग करेंगे,
उनको थोड़ा
कम मिलेगा, बजाय उनके
जो काम की
मांग नहीं
करेंगे।
क्योंकि वे
दो-दो चीजें
इकट्ठी
मांगते
हैं--काम भी मांगते
हैं, तनख्वाह
भी मांगते
हैं।
आज
अमरीका का
अर्थशास्त्री
निरंतर
चिंतित है कि
वह क्या, भविष्य
के लिए क्या
करे? हमारी
पुरानी आदत यह
है कि जो काम
करे, उसे
मिलना चाहिए।
भविष्य की
संभावना यह
है--सिर्फ पच्चीसत्तीस
साल के बाद--कि
जो काम करे, काम तो दे
नहीं सकते हम
सबका तो जो न
काम करे उसे
ज्यादा दिया
जाए--देना तो
पड़ेगा ही उसको,
क्योंकि
अगर फैक्ट्री
में आप कारें
भी बना लेंगे
और खरीदने के
लिए लोगों के
पास पैसा नहीं
होगा, तो
आप कारों को
बनाकर क्या
करेंगे? फैक्ट्री
पूरी-की-पूरी आटोमेटिक
हो जाएगी, जहां
लाख आदमी काम
करते थे, वहां
एक आदमी बटन
दबा कर काम कर
देगा, तो
वह जो लाख
आदमी बाहर चले
गए, अगर
उनको कुछ भी न
दें आप, तो
यह फैक्ट्री
की कारें कौन खरीदेगा? इन कारों को
खरीदने के लिए
देना तो पड़ेगा
ही। सारी
चीजों को
खरीदने के लिए
उनको देना
पड़ेगा। वे
बिना काम से
रहने को राजी
हैं--जो कि बड़ा
कठिन
पड़ेगा--अभी
हमको पता नहीं
है कि बिना
काम से राजी
रहना इतना
कठिन पड़ेगा जितना
सख्त मजदूरी
कठिन नहीं
पड़ी। तो
भविष्य में
कोई जरूर
कहेगा कि कैसे
लोग थे, न
कृष्ण, न
महावीर, न
माक्र्स, कोई
भी यह नहीं
सोच सका कि
आदमी से काम
लेना बड़ी
अनैतिक
अमानवीयता
है। क्योंकि
उसको भूख लगी
है, इसलिए
आप काम लेकर
रोटी देते
हैं। भूख लगी
है तो रोटी
मिलनी चाहिए।
काम का क्या
सवाल है!
लेकिन यह अभी
हम नहीं सोच
सकते। अभी
हमें सोचना
बहुत कठिन पड़ेगा
कि यह क्या
बात है! अभी तो
काम भी मिल
जाए तो भी
रोटी नहीं
मिलती, तो
बिना काम के
रोटी तो बहुत
मुश्किल है।
हर युग की
अपनी
व्यवस्था, अपनी
संभावना के
बीच चिंतन के
फूल खिलते
हैं।
कृष्ण
के वक्त में
विषमता का कोई
दंश नहीं है। "अनइक्वेलिटी' की कोई पीड़ा
नहीं है।
इसलिए "इक्वालिटी'
का, समानता
का कोई नारा
नहीं है। और
गरीब पीड़ित नहीं
है इस बात से
कि वह गरीब
है। अब देखें,
मजे की बात
है कि प्लेटो
जैसा विचारक,
जो कि
समानता का बड़ा
पुरस्कर्ता
है, वह भी
गुलामों को
मिटाया जाए
इसका खयाल ही
उसे नहीं आता।
बल्कि वह कहता
है, गुलाम
तो रहेंगे ही।
क्योंकि
यूनान में
गुलाम सहज बात
थी। बल्कि प्लेटो
यह कहता है कि
अगर गुलाम न
रहेंगे तो
समानता कैसे
रहेगी?
"फिर कुछ
चुने हुओं का
वर्ग हमेशा
हावी रहेगा?'
वे
रहे हैं। और "एलाइट
क्लास' हमेशा
हावी रहेगा, शक्लें बदल
सकती हैं उससे
और कोई फर्क
पड़ने वाला
नहीं है। कभी
वह मालिक की
तरह हावी होता
है, कभी
नेता की तरह
हावी होता है,
कभी राजा की
तरह हावी होता
है, कभी
गुरु की तरह
हावी होता है,
कभी
महात्मा की
तरह हावी होता
है, लेकिन "एलाइट' हमेशा
हावी होता है।
और ऐसा मैं
कोई युग नहीं देख
सकता, जिस
दिन कि चुने
हुए लोग हावी
नहीं होंगे।
असल में जब तक
चुने हुए लोग
रहेंगे तब तक
हावी होते
रहेंगे, इसमें
कोई उपाय नहीं
है। यह दूसरी
बात है, उनकी
शक्ल बदल जाए,
कभी हम उनको
कहें कि ये
राजा हैं और
कभी हम कहें
ये
राष्ट्रपति
हैं। कभी हम
कहें कि ये
सम्राट हैं और
कभी हम कहें कि
वे मंत्री
हैं। और कभी
हम कहें कि ये
महात्मा हैं
और कभी हम
कहें कि ये
भगवान हैं। और
हम नाम कुछ भी
देते रहें
लेकिन जब तक
मनुष्यों का विकास
समान तल पर
नहीं पहुंच
जाता कि हर
मनुष्य समान
तल पर पहुंच
जाए, समस्त
विकासों
की दृष्टि से
जैसा कि मैं
नहीं मानता कि
कभी हो पाएगा।
और वह समाज
बड़ा बेरौनक
और बहुत
बेहूदा होगा,
जिस दिन
सारे लोग समान
तल पर पहुंच
जाएंगे। बहुत
"बोरडम' का
होगा--अभी हम
सोच सकते हैं।
लेकिन चुने
हुए लोग
रहेंगे। कोई
अच्छा सितार बजाएगा, तो कम अच्छा
सितार बजानेवाले
पर हावी हो ही
जाने वाला है,
इसमें करियेगा
क्या! कोई
अच्छा नाचेगा
तो कम अच्छा नाचनेवाले
पर हावी हो ही
जाने वाला है,
इसमें करियेगा
क्या! अब कोई
आइंस्टीन
पैदा होगा, तो जो दो और
दो भी नहीं
जोड़ सकते उन
पर अगर हावी
हो जाए, तो
इसमें कसूर
किसका? इसमें
करियेगा
क्या? यह
स्थिति ऐसी है
कि इस स्थिति
में कोई-न-कोई
हावी होता
रहेगा। यह बात
पक्की है कि
पुराने ढंग के
हावी
होनेवाले
लोगों से जब
हम ऊब जाते हैं--ऊब
भी जाते हैं
और व्यवस्था
के लिए, भविष्य
के लिए वे
मौजूं भी नहीं
रह जाते, इसलिए
बदलाहट करनी
पड़ती है। अब
आज रूस है, हमने
बदल दिया है
सब, लेकिन
फिर दूसरे लोग
हावी हो गए।
वे पिछले लोगों
से कम हावी
नहीं हैं, बल्कि
ज्यादा ही
हावी हैं। आज
चीन है, हमने
एक को तो बदल
दिया, दूसरे
लोग हावी हो
गए।
जब तक
मनुष्य और
मनुष्य के बीच
फासले हैं, बुद्धि के, विचार के, क्षमताओं के,
प्रतिभाओं
के, शक्तियों
के, तब तक
असंभव है कि
कोई हावी नहीं
हो सकेगा। हो ही
जाएगा। और तब
तक यह असंभव
है कि कोई न
चाहेगा कि कोई
मुझ पर हावी
हो जाए। कोई
चाहेगा कि हावी
हो जाए।
क्योंकि वह भी
बिना उसके
नहीं जी सकेगा,
बिना हावी
हुए। तो
दुनिया में
बदलाहट चलती
रहेगी। एक युग
की बात हमें
बेहूदी लगने
लगती है, क्योंकि
हम दूसरी तरह
के हावीपन
को स्वीकार कर
लेते हैं।
कृष्ण
के वक्त में
यह सहज
स्वीकृत है।
गरीब गरीब
होने को राजी
है। अमीर के
मन में कोई
दंश नहीं है
अमीर होने का।
क्योंकि जब तक
गरीब गरीब होने
को राजी है।
अमीर के मन
में दंश हो
नहीं सकता।
अमीर "ऐट ईज' है। उसे कोई
तकलीफ नहीं है
इस बात की।
इसलिए समाज को
कोई चिंतन का
मौका पैदा
नहीं होता।
जैसे उदाहरण
के लिए, अभी
हम कहने लगे
कि गरीब और
अमीर समान
होने चाहिए।
उसका कुल कारण
यह नहीं है कि
हमारी बौद्धिक
प्रतिभा
कृष्ण से आगे
चली गई, उसका
कुल कारण इतना
है कि सामाजिक
व्यवस्था कृष्ण
से भिन्न हो
गई। लेकिन अभी
भी कोई आदमी यह
नहीं कह सकता
कि मैं कम
बुद्धि का हूं,
तो जो मुझसे
ज्यादा
बुद्धि का है,
हममें
समानता होनी
चाहिए। लेकिन
आज से पचास साल
बाद कम बुद्धि
का आदमी यह
अपील करना
शुरू कर देगा।
क्योंकि पचास
साल में हम वह
व्यवस्था खोज
लेंगे जिससे
बुद्धि में भी
कमी-बढ़ती की
जा सकती है।
अभी वह
व्यवस्था
हमारे पास
नहीं है, विकसित
हो रही है।
पचास साल बाद
हर बच्चा यह कहेगा
कि मैं जड़बुद्धि
होने को राजी
नहीं हूं, और
किसी आदमी को
यह हक नहीं है
कि वह
प्रतिभाशाली
हो जाए, होंगे
तो हम सब समान
रहेंगे।
यह उस
दिन उठ सकती
है, अभी नहीं
उठ सकती यह
आवाज। क्योंकि
अभी हमारे पास
व्यवस्था
नहीं है।
लेकिन अब हम
जो खोज कर रहे
हैं और मनुष्य
के "जीन' में,
उसके मूल
"सेल' में
जो प्रवेश हो
गया है, उससे
संभावना बढ़ गई
है। क्योंकि
मनुष्य के "जीन'
में
विज्ञान का जो
प्रवेश है, अब वह यह बात
तय कर सकेगा
कि इस बच्चे
की कितनी प्रतिभा
हो जो इस बीज
से पैदा होगा।
और जैसे अभी बाजार
में आप फूलों
के बीज का
पैकेट खरीदने
चले जाते हैं,
जिस पर फूल
की तस्वीर बनी
होती है ऊपर
कि अगर इस बीज
को इतनी खाद
और इतनी
व्यवस्था दी
गई तो यह बीज
इतना बड़ा फूल
बन सकेगा, उस
दिन एक बाप और
एक मां बाजार
में--सिर्फ
पचास साल के
भीतर--उस
पैकेट को खरीद
सकेंगे
जिसमें बच्चे
की तस्वीर बनी
होगी कि इसकी
आंखें इस रंग
की होंगी, इसके
बाल इस ढंग के
होंगे, इसकी
लंबाई इतनी
होगी, इसका
स्वास्थ्य
इतना होगा, इसकी उम्र
इतनी होगी--यह
"गारंटीड'
है कि सत्तर
साल तक नहीं
मरेगा, इसको
ये-ये
बीमारियां
नहीं होंगी और
इसकी प्रतिभा
का "आइ.क्यू.'
इतना होगा,
इसकी
बुद्धि का माप
इतना होगा। आप
चुनाव कर सकते
हैं। यह संभव
हो जाएगा। बीज
के बाबत भी
पहले संभव
नहीं था, आज
संभव है। आदमी
भी एक बीज से
जन्मता है।
आदमी के बीज
के बाबत भी
संभव हो सकता
है।
जिस दिन
यह संभव हो
जाएगा, उस
दिन हम
पूछेंगे कि
कृष्ण को कभी
खयाल न आया कि
यह प्रतिभा और
गैर-प्रतिभा
में समानता
होनी चाहिए। आ
कैसे सकती है?
इसके आने का
कोई उपाय नहीं
है।
"भगवान
श्री, सुदामा
के संबंध में
एक छोटा-सा
प्रश्न आया है।
जब सुदामा
कृष्ण के पास
कुछ लेने आए
तभी तीन लोक
का साम्राज्य
दिया गया।
लेकिन उसके
पहले कृष्ण ने
सुदामा को
क्यों कुछ
नहीं दिया? वह गरीब तो
बहुत था
बेचारा!'
इस
जगत में मिलता
कुछ भी नहीं
है। इस जगत
में मिलता कुछ
भी नहीं है, खोजना पड़ता
है। भगवान तो
यहीं मौजूद है
और ऐसा नहीं
कि आपकी पीड़ा
का उसको पता
नहीं है, लेकिन
आप पीठ करके
खड़े हैं। और
इतनी
स्वतंत्रता
आपको है कि आप
चाहें तो
भगवान को लें
और चाहें तो न
लें। जिस दिन
आपको मिलेगा,
उस दिन आप
भगवान से
शिकायत कर
सकते हैं कि
जब तक मैंने
तुझे नहीं
खोजा, तूने
ही मुझे क्यों
न खोज लिया? लेकिन भगवान
उस दिन कहेगा
कि जबर्दस्ती
तेरे ऊपर हावी
हो जाऊं, वह
भी परतंत्रता
हो सकती है।
स्वतंत्रता
का अर्थ ही
इतना है कि जो
हम खोजते हैं
वह हमें मिल
सके, जो हम
नहीं खोजते
हैं वह न मिल
सके। और ध्यान
रहे, कुछ
भी इस जगत में
नहीं मिलता है
बिना खोजे,
खोजना ही
पड़ता है।
सुदामा कैसा
है, यह
सवाल बड़ा नहीं
है। सुदामा
इनकार भी कर
सकता है। और
मैं मानता हूं
कि अगर कृष्ण
देने गए होते
सुदामा के घर,
तो शायद
इनकार भी कर
देता। जरूरी
नहीं था कि स्वीकार
करता। सुदामा
की तैयारी
होनी चाहिए। यह
सारी-की-सारी
घटनाएं बहुत
मनोवैज्ञानिक
अर्थ रखती
हैं। इनकी
अपनी "साइकलॉजिकल'
अर्थवत्ता
है। हम जो
खोजने जाएंगे,
जिस दिन
हमारी खोज की
तैयारी पूरी
होगी, उसी
दिन वह हमें
मिल सकता है।
उसके पहले
हमें नहीं
मिलेगा। पड़ा
हो बगल में तो
भी नहीं मिलेगा।
हमारी खोज ही
उसके मिलने का
द्वार बनेगी।
इसलिए सुदामा
गरीब है, अकेला
सुदामा गरीब
नहीं है, बहुत
लोग गरीब हैं।
और कृष्ण के
लिए इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता कि
सुदामा गरीब
है कि कोई और गरीब
है, बड़ा
फर्क जो पड़ता
है वह यह कि
सुदामा इतना
गरीब होकर भी
देने चला आया
है, आदमी
अमीर होने के
योग्य है।
यह जो
सुदामा की
स्थिति है, उसी से
परिवर्तन
शुरू होता है।
और हम ही, प्रत्येक
व्यक्ति
व्यक्ति की
हैसियत से अपने
परिवर्तन को
शुरू करता है,
बाकी फिर
सारी
शक्तियां
मिलती चली
जाती हैं। जिस
आदमी ने इस
पृथ्वी पर
गरीब होने का
तय किया है, उसे सब
गरीबी की
परिस्थितियां
मिल जाएंगी। जिस
आदमी ने इस
पृथ्वी पर अज्ञानी
रहने का तय
किया है, उसे
अज्ञानी होने
की सब
परिस्थितियां
मिल जाएंगी।
जिस आदमी ने
इस जगत में
ज्ञान के लिए
तय कर रखा है, उसे ज्ञान
के सब द्वार
खुल जाएंगे।
इस जगत में हम
जो मांगते हैं,
वह लौट आता
है, वह आ
जाता है। बहुत
गहरे में, हमारी
ही आकांक्षाएं,
हमारी ही
प्रार्थनाएं,
हमारी ही
अभीप्साएं हम
पर लौट आती
हैं। और जब अगर
कोई आदमी
समझता हो कि
मैं गरीब
क्यों हूं, तब अगर आप
उसके पूरे
व्यक्तित्व
का खोजेंगे तो
बहुत हैरान हो
जाएंगे, उसने
गरीब होने की
सारी
व्यवस्था कर
रखी है। वह
गरीब होने के
लिए
पूरा-का-पूरा
तत्पर है। और
अगर गरीब न हो
तो खुद भी चौंकेगा
कि यह क्या हो
गया! अज्ञानी
ने पूरी
व्यवस्था कर
रखी है अज्ञान
की। और अपने
अज्ञान की
सुरक्षा के सब
उपाय कर रहा
है। और अगर
कोई उसका अज्ञान
तोड़ने आए तो
क्रुद्ध हो
जाता है। और
अपने बागुड़-बगीचे
को डंडा लेकर
खड़ा हो जाता है
कि भीतर
प्रवेश मत कर
जाना।
नहीं, जो हम खोजने
जाते हैं, वही
होता है।
सुदामा जाता
है कृष्ण के
पास, तो
सुदामा को
कृष्ण मिल
पाते हैं।
कृष्ण का आना
उचित भी नहीं
है।
प्रतीक्षा
कृष्ण को करनी
चाहिए सुदामा
के आने तक। वह
प्रतीक्षा
जरूरी है। ऐसा
नहीं है कि
परमात्मा
आपसे नाराज है
और आपके पास
नहीं आ रहा
है। लेकिन
आपको उसके पास
जाना पड़ेगा।
और जिस दिन आप जाएंगे,
उस दिन आप
पाएंगे, वह
सदा तत्पर था
आपको मिलने
को। लेकिन आप
ही राजी नहीं
थे।
"द्रौपदी
वाले पहले
प्रश्न में, कृष्ण
द्रौपदी के
प्रति बहुत
अनुराग है, इसकी चर्चा
नहीं हुई। इस
पर कुछ सुनना
चाहेंगे।'
द्रौपदी
ऐसी है कि
कृष्ण का
अनुराग उस पर
हो। ऐसे तो
कृष्ण का
अनुराग सब पर
है। लेकिन
द्रौपदी के
पास पात्र बड़ा
है। सागर के
तट पर हम जाएं, तो
अपने-अपने
पात्र के
बराबर भर ले
आते हैं। सागर
तो बहुत बड़ा
है। और कभी
सागर कहता
नहीं कि कितना
बड़ा पात्र
लेकर मेरे पास
तुम आओ। जितना
बड़ा पात्र हो,
उतना लेकर
हम जाते हैं।
द्रौपदी
के पास
बड़े-से-बड़ा
पात्र है और
कृष्ण का बहुत
अनुराग उसे
उपलब्ध हुआ
है। और वह
अनुराग और वह
प्रेम बड़ा
गहरा, बड़ा
वायवी, जिसको
कहें "प्लेटॅनिक'--इतना गहरा
है कि कृष्ण
और द्रौपदी के
बीच किसी तरह
की शारीरिक
निकटता का कोई
आग्रह नहीं
है। लेकिन
जितने कृष्ण
द्रौपदी के
काम पड़ते हैं,
उतने किसी
के काम नहीं
पड़ते हैं। और
जब भी वक्त
आता है, तब
वे तत्काल
मौजूद हो जाते
हैं। जैसे कि
पीछे हम बात
कर रहे थे कि
उसे नग्न किया
जा रहा है, उघाड़ा
जा रहा है, तब
वे मौजूद हो
गए हैं।
एक तो
प्रेम है जो
मुखर होता है, जो बोलता है
और एक प्रेम
है जो मौन
होता है, बोलता
नहीं है। और
ध्यान रहे, बोले जाने
वाला प्रेम
बहुत गहरा
नहीं हो पाता,
छिछला हो
जाता है। वाणी
में कोई बहुत
गहराई नहीं
है। मौन रहे
जाने वाला प्रेम
बहुत गहरा हो
जाता है। मौन
की बड़ी गहराई
है। द्रौपदी
का प्रेम बड़ा
मौन है। बहुत
मौके पर दिखाई
पड़ता है, लेकिन
प्रगट और
आक्रामक नहीं
है। और मौन
जितने दूर तक
प्रभावित
करता है
प्रेमी को, उतना कोई और
प्रेम
प्रभावित
नहीं करता है।
कृष्ण काम तो
पड़ जाते हैं
द्रौपदी के
जगह-जगह, लेकिन
कृष्ण का यह
प्रेम और
द्रौपदी का यह
कृष्ण के
प्रति लगाव
कहीं बहुत
स्थूल घटनाओं
में रूपांतरित
नहीं होता।
असल में स्थूल
में रूपांतरित
होने का आग्रह
ही तब होता है
जब हम सूक्ष्म
में नहीं मिल
पाते हैं।
अन्यथा प्रेम
दूर भी रह
सकता है, कोसों
दूर रह सकता
है। अन्यथा
प्रेम समय में
भी फासले पर
हो सकता है।
अन्यथा ऐसा भी
हो सकता है कि
प्रेम कभी
निवेदन भी न
करे कि प्रेम
है। इतना चुप
भी हो सकता
है।
लेकिन
कृष्ण जैसे
व्यक्ति को
इतनी चुप्पी
भी समझ में आ
सकती है। सभी
को समझ में
नहीं आएगी। इसलिए
प्रेम न भी हो
हमारे भीतर, तो भी वाणी
से प्रगट करने
से काम चलता
है। क्योंकि
वाणी समझ में
आती है, प्रेम
तो समझ में
आता नहीं। अभी
प्रेम पर किताबें
लिखी जाती
हैं।
मनोवैज्ञानिक
प्रेम पर किताबें
लिखते हैं। तो
वे उसमें इस
बात पर बहुत
जोर देते हैं
कि चाहे प्रेम
हो या न हो, चाहे
प्रेम का क्षण
हो या न हो, लेकिन
प्रगट जरूर
करते रहो। पति
जब सांझ को घर
लौटे, तो
चाहे वह
थका-मांदा हो,
चाहे वह
कितना ही
परेशान हो, मनोवैज्ञानिक
कहते हैं उसे
आकर एकदम
पत्नी को
देखकर खिल
जाना चाहिए।
चाहे यह अभिनय
करना पड़े।
एकदम उसे कुछ
ऐसी बातें
कहनी चाहिए जो
प्रेमपूर्ण
हैं। जब वह
सुबह जाने लगे
तो उसे बड़ी
पीड़ा दर्शानी
चाहिए कि
पत्नी से कुछ
घंटों के लिए
छूट रहा है।
चाहे उसे बड़ा
सुख मिल रहा
हो। यह
मनोवैज्ञानिक
ठीक कहते हैं।
वह इसलिए ठीक
कहते हैं कि हम
शब्दों पर जी
रहे हैं। यहां
असली प्रेम का
मतलब किसे है,
प्रयोजन
किसे है! हम
शब्दों पर
जीते हैं। एक
आदमी ने आपका
कुछ थोड़ा-सा
काम किया और
आप उसे सिर झुका
कर कर धन्यवाद
दे देते हैं।
आपने धन्यवाद
अनुभव किया या
नहीं किया, यह सवाल
नहीं है बड़ा।
लेकिन आप सिर
झुका कर धन्यवाद
दे देते हैं।
उस आदमी को तो
धन्यवाद मिल
जाता है, आपने
दिया या नहीं,
यह सवाल
नहीं।
क्योंकि
शब्दों में हम
जीते हैं।
लेकिन अगर
आपने धन्यवाद
न दिया, चाहे
भीतर अनुभव भी
किया, तो
भी वह आदमी
दुखी होकर चला
जाता है कि
कैसे पागल
आदमी हैं, मैंने
इतना काम किया,
धन्यवाद तक
न दिया।
हम मौन
को नहीं समझ
पाते, इसलिए
वाणी में ही
हमारा सब चलता
है। लेकिन
ध्यान रहे, यह कभी खयाल
में आया हो, न आया हो,, जब
हम किसी के
प्रति बहुत
प्रेम में भरे
होते हैं तो
वाणी एकदम
निरस्त हो
जाती है। जब
हम किसी के
प्रति बहुत
प्रेम से भरे
होते हैं तो
अचानक पाते
हैं अब बोलने
को कुछ भी
नहीं बचा, कहने
को कुछ भी
नहीं बचा।
प्रेमी बहुत
तय करते हैं
कि जब अपने प्रेमपात्रों
को मिलेंगे तो
यह कहेंगे, यह कहेंगे, यह कहेंगे
और जब मिलते
हैं तब अचानक
पाते हैं कि
कुछ याद नहीं
पड़ता क्या
कहना था! सब
चुप हो गया है,
सब मौन हो
गया है। बीच
में मौन खड़ा
हो जाता है।
द्रौपदी
और कृष्ण का
प्रेम बड़ा मौन
है। वह और
मुखर प्रेमों
की तरह नहीं
है। लेकिन
कृष्ण पर
उसकी...उसकी
गहरी....उसकी
गहरी संवेदना
कृष्ण पर हुई
है। इसलिए
जितने काम वह
द्रौपदी के
पड़े उतने वह
किसी के काम
पड़े नहीं हैं।
और पूरी
महाभारत की कथा
में कृष्ण
छाया की तरह
द्रौपदी की
रक्षा करते
रहे हैं। वह
बड़ा दूर का
नाता है।
उसमें बहुत
साफ-साफ बीच
में घटनाएं
नहीं दिखाई
पड़ती हैं।
लेकिन बहुत
छाया-संबंध
है। वह बहुत
चुपचाप "इंटिमेटली' चलता रहता
है।
"पश्चिम
के सागरत्तट
की सुरक्षा
तथा बाहरी
आक्रमण से
बचने के लिए कृष्ण
ने मथुरा का
त्याग और
द्वारका का
वास किया था।
सुना है कि
मथुरा के लोग
भगवान कृष्ण को
आपत्ति समझते
थे, क्योंकि
उनके कारण ही जरासंध
आदि राजा
मथुरा पर
आक्रमण करने
पर तुले थे। कृष्ण
को भी जरासंध
हरा सका, यह
उनके चरित्र
के मानवीय अंश
का छोर नहीं
है क्या?'
जीवन
में हार और
जीत कपड़े के आड़े और
तिरछे तानों-बानों की
तरह होती है।
अकेली जीत से
कोई जीवन नहीं
बनता। खड़े
ताने रह जाते
हैं, आड़े ताने नहीं
होते। अकेली
हार से कोई
जीवन नहीं बनता,
आड़े ताने रह
जाते हैं, खड़े
ताने नहीं
होते। जीवन के
कपड़े की जो
बुनावट है वह
हार और जीत के
इकट्ठे साथ, सफलता और
असफलता के
इकट्ठे साथ, गलत और सही
के इकट्ठे साथ
से बुना जाता
है। जीवन है, तो वह दोनों
हैं।
इसलिए
असली सवाल यह
नहीं है कि कब
कृष्ण हार जाते
हैं किससे और
कब जीत जाते
हैं। असली
सवाल जो है वह
यह है कि टोटल
जिंदगी का
परिणाम जीत है
कि हार है।
सभी की जिंदगी
के लिए। यह
सवाल नहीं है
कि आप कब हार
गए थे और कब
जीत गए थे; क्योंकि हो
सकता है, आपकी
हार जीत के
लिए सीढ़ी बनी
हो। और यह भी
हो सकता है कि
आपकी जीत
सिर्फ एक बड़ी
हार में कूदने
के लिए खाई बन
गई हो। जिंदगी
के ताने-बाने
विराट, जटिल
हैं। यहां सब हारें हारें
नहीं हैं, यहां
सब जीतें जीतें
नहीं हैं।
इसलिए आखिरी
जो निर्णय है
वह यह नहीं
होता है कि
आदमी कब असफल
हुआ और कब सफल
हुआ; कब
हारा, कब
जीता? असली
सवाल यह है कि
उसकी पूरी
जिंदगी की कथा
का सार निचोड़
जीत है कि हार?
इसलिए
बहुत
स्वाभाविक है
कि कृष्ण की
जिंदगी में भी
कुछ हार के
क्षण हों।
जिंदगी है तो
होंगे। अगर
भगवान को भी
जीना हो, तो
भी उसे आदमी
की तरह ही
जीना होगा।
जिंदगी में तो
उसे आदमी की
तरह ही खड़ा
होना होगा। और
जिंदगी के
सुख-दुख उसे
एक-साथ
स्वीकार करने
पड़ेंगे। अगर
जो आदमी हारने
को तैयार नहीं
है, उसे
पक्का कर लेना
चाहिए कि उसे
जीतने का खयाल
छोड़ देना
चाहिए।
कृष्ण
की जिंदगी में
दोनों हैं।
इसलिए जिंदगी
मेरे लिए
मानवीय किसी
हीनता के अर्थ
में नहीं हो
जाती, बल्कि
गरिमा के अर्थ
में हो जाती
है। यानी कृष्ण
हार भी सकते
हैं, इतने
अदभुत आदमी
हैं। जीत की जिद्द
नहीं है।
जीतेंगे ही, जीतकर ही
रहेंगे, जीतते
ही रहेंगे, ऐसा अभिमान
भी नहीं है।
हार भी आ सकती
है। भागना भी
आ सकता है।
कहीं पलायन भी
हो सकता है, कहीं से जगह
भी छोड़नी
पड़ सकती है।
यह सब स्वीकार
है। जिंदगी के
सब ताने-बाने,
जैसे हैं वे
स्वीकृत हैं।
इसमें चुनाव
नहीं है कि हम
यही करके
रहेंगे। बस
इतना ही हम
राजी हैं, आगे
हम राजी नहीं
हैं। तो कृष्ण
की बहुत जगह जो
"हयूमनिटी'
है, वह
कई जगह बुद्ध
और महावीर की "डिविनिटी'
के सामने
छोटी मालूम
पड़ेगी। बुद्ध
और महावीर एकदम
"डिवाइन' मालूम
पड़ते हैं, एकदम
दिव्य मालूम
पड़ते हैं, उनमें
मानवीयता
बिलकुल नहीं
मालूम पड़ती।
लेकिन ध्यान
रहे, बहुत
दिव्यता
अमानवीयता भी
हो जाती है।
बहुत दिव्यता
में, वह जो
मानवीय
नाजुकता है, वह जो "डेलिकेसी'
है, वह
खो जाती है और
चीजें सख्त हो
जाती हैं।
कृष्ण
सख्त होने को
राजी नहीं
हैं। इसलिए
जिनको हम मानवीय
कमजोरियां
कहते हैं, वे कृष्ण
में सब-की-सब
स्वीकृत हैं।
कहावत है अंग्रेजी
में, "टु एर इज हयूमन', भूल
करना मानवीय
है। लेकिन
इससे उलटी
कहावत नहीं है,
"नेवर टु एर इज इनहयूमन'। पर वह भी सच
है। कभी भी
भूल न करना
बड़ा अमानवीय
हो जाना है।
पर भूल को भूल
की तरह लेने
की जरूरत
कृष्ण को नहीं
मालूम पड़ती
है। वह जिंदगी
में आया हुआ
हिस्सा है, वह उसे लिए
चले जाते हैं।
और यह
भी सच है कि
उन्हें मथुरा
छोड़ देनी पड़ी।
कृष्ण जैसे
व्यक्ति को
बहुत जगहें छोड़नी पड़
सकती हैं। वे
कई जगह उपद्रव
के सिद्ध हो
सकते हैं। कई
जगह उन्हें
सहने के लिए
धीरे-धीरे
असमर्थ हो
सकती हैं। कई
जगह आखिर में
उनसे कह सकती
हैं कि आपसे
हम क्षमा चाहते
हैं, आप हट
जाएं--क्योंकि
कृष्ण के साथ
चलना और कृष्ण
के साथ जीना
और कृष्ण को
समझना आसान
नहीं है। तो
वे हट जाते
हैं। इस हटने
में कोई
उन्हें
कठिनाई नहीं
होती। वे ऐसे
ही हट जाते
हैं, क्योंकि
वे पैर जमाकर
कहीं भी खड़े
नहीं हो गए हैं
कि वहां होने
का उन्होंने
निश्चय कर रखा
है। वे हट
जाते हैं।
हटने में वे
बड़ी सरलता का
उपयोग करते
हैं, चुपचाप
हट जाते हैं।
फिर पीछे
लौटकर भी नहीं
देखते। इधर
पीछे जो
उन्हें प्रेम
करते हैं, परेशान
हैं, खबरों
पर खबरें
भेजते हैं, चिट्ठियों पर चिट्ठियां
लिखते हैं, पता लगाते
हैं कि वे याद
भी करते हैं
कि नहीं करते
हैं, लेकिन
वे दूसरी जगह
पहुंच गए हैं।
अब वे दूसरी
जगह को याद
करेंगे कि इस
जगह को याद
करेंगे! वे भूल
गए हैं। वे
जहां हैं, वहां
पूरे हैं।
इसलिए कठोर भी
मालूम पड़ते
हैं।
कृष्ण
की जिंदगी एक
बहाव है। हवाएं
पूरब जाती हैं
तो वे पूरब
चले जाते हैं, हवाएं पश्चिम
जाती हैं तो
वे पश्चिम चले
जाते हैं। कृष्ण
का अपना आग्रह
नहीं है कि
मैं यहीं रहूंगा,
ऐसा ही
रहूंगा, ऐसा
ही होने की
मैंने कसम खा
रखी है, ऐसा
कुछ भी नहीं
है। जिंदगी
जहां ले जाती
है, वे
राजी हैं। और
लाओत्से का एक
वचन है, वह
मैं कहूं आपको,
लाओत्से
कहता है, हवाओं
की तरह हो
जाओ। जब हवाएं
पूरब जाएं तो
पूरब, जब हवाएं
पश्चिम जाएं
तो पश्चिम, तुम आग्रह
मत करो कि मैं
यहां ही जाऊंगा।
एक
छोटी-सी झेन
कहानी है। एक
नदी पर तीव्र
पूर है। जोर
का बहाव
है--बाढ़ है आई
हुई। पागल
दौड़ती है नदी।
और दो घास के
छोटे-से तिनके
उसमें बह रहे
हैं। एक तिनके
ने नदी की बाढ़
में अपने को आड़ा डाल
रखा है और नदी
से लड़ रहा है।
कुछ फर्क नहीं
पड़ रहा है नदी
को। उसे पता
भी नहीं है कि
यह तिनका नदी
से लड़ रहा है।
लेकिन तिनका
है कि मरा जा
रहा है, तिनका
है कि लड़े जा
रहा है। लड़
रहा है, फिर
भी बह तो रहा
ही है।
क्योंकि नदी
बही जा रही
है। कोई तिनके
के लड़ने से
नदी रुकती
नहीं। दूसरे
तिनके ने नदी
में अपने को
सीधा छोड़ दिया
है, लंबाई
में। और वह
बड़ा आनंदित है
और बड़ा नाच रहा
है, क्योंकि
वह यह सोच रहा
है कि नदी को
बहने का मैं
रास्ता दे रहा
हूं। नदी मेरे
सहारे बही जा
रही है। नदी
को कोई फर्क
नहीं पड़ता।
नदी को उन दोनों
तिनकों का भी
पता नहीं है, लेकिन उन
तिनकों को
बहुत फर्क पड़ता
है।
जिंदगी
में दो ही तरह
के लोग हैं। आग्रहशील--ऐसे
ही होंगे, यही होंगे, यही करेंगे,
ऐसे लोग उस
तिनके की तरह
हैं जो नदी
में अपने को आड़ा डाल
देते हैं।
इससे नदी को
कोई फर्क नहीं
पड़ता, जीवन
की धारा चली
जाती है। वे आड़े ही
बहते रहते हैं,
लेकिन कष्ट
बड़ा भोगते
हैं। ऐसे भी
लोग हैं जो
जिंदगी में
नदी की धार
में अपने को
सीधा लंबा छोड़
देते हैं। वे
कहते हैं कि
हम साथ-साथ
हैं। हम
तुम्हें साथ
ही दे रहे हैं!
नदी, बहो!
हमारे साथ ही
बहो! वे बड़े
आनंदित होते
हैं और नाच
पाते हैं।
कृष्ण के
ओंठों पर
बांसुरी संभव
हो सकी, क्योंकि
वह लंबी धारा
में अपने को
छोड़े हुए आदमी
हैं। जिंदगी
की धार के साथ
वह एक हैं। आड़े
नहीं हैं, नहीं
तो बांसुरी
मुश्किल थी।
महावीर के ओंठ
पर बांसुरी
नहीं रख सकते
आप। एकदम फेंक
देंगे कि क्या
पागलपन कर रहे
हो! कृष्ण के
ओंठ पर बांसुरी
रखी जा सकती
है। यह आदमी
बांसुरी बजा
सकता है। उसका
कुल कारण इतना
ही है कि नदी
की, जीवन
की धारा से
कोई ऐसा
संघर्ष नहीं
है; नदी
जहां ले जाती
है, जाने
को राजी है।
अगर मथुरा से
नदी बह गई, तो
द्वारका में
बहेगी, हर्ज
क्या है! अगर
मथुरा के घाट
से छूट गया सब
तो द्वारका
में घाट बन
जाएगा, हर्ज
क्या है? अनाग्रहशील व्यक्तित्व
का वह लक्षण
है।
"भगवान
श्री, कालयवन मानता है कि
कृष्ण भागते
हैं, मगर
कृष्ण भगाते
हैं उसे और ले
जाते हैं उस
गुफा में जहां
मुचकुंद सोया
हुआ है।
मुचकुंद जागता
है और उसकी
दृष्टि से, पुराणकार कहते हैं, कालयवन जल जाता है।
वह क्या
तात्पर्य
रखता है?'
इन
सारे शब्दों
के प्रतीक
अर्थ हैं। यह
कृष्ण की कथा
में बहुत कुछ
जुड़ा है। बहुत
कुछ सिर्फ प्रतीक
है, "मेटाफर'
है। बहुत
कुछ किन्हीं
घटनाओं से
संबंधित है। बहुत
कुछ किसी "फिलासॅफी',
किसी "मेटाफिजिक्स'
से संबंधित
है, यह सब
जुड़ा है।
कृष्ण किसी को
भगाते हैं, ऐसा हमें
दिखाई पड़ सकता
है। जो भाग
रहा है, उसको
भी दिखाई पड़
सकता है कि
मुझे भगा रहे
हैं। लेकिन
जहां तक मेरी
समझ है, कृष्ण
जैसा व्यक्ति
किसी को भगाता
नहीं, भागने
की घटना घट
सकती है।
स्थिति ऐसी हो
सकती है कि
भागना किसी के
लिए अनिवार्य
हो जाए और
कृष्ण को पीछा
करना
अनिवार्य हो
जाए। अब इसमें
बड़ा तय करना
मुश्किल है।
मैंने
सुना है कि एक बादमी
सुबह एक गाय
के गले में
रस्सी बांधकर
ले जा रहा है।
और रास्ते के
लोगों में से
कोई एक फकीर ने, एक सूफी
फकीर ने उससे
पूछा है कि
तुम गाय से बंधे
हो कि गाय
तुमसे बंधी है?
उस आदमी ने
कहा, पागल
हो गए हो! मैं
गाय को बांधे
हुए हूं। मैं
क्यों गाय से
बंधा होने लगा?
तो उस फकीर
ने पूछा, फिर
मैं तुमसे एक
काम कहता हूं,
अगर गाय छोड़
दी जाए और
भागे, तो
तुम गाय के
पीछे भागोगे
कि गाय
तुम्हारे पीछे
भागेगी? उस आदमी ने
कहा, मुझे
गाय के पीछे
भागना पड़ेगा।
तो उस फकीर ने
कहा, फिर
बंधा कौन है
किससे?
असल
में बांधना
हमेशा दोतरफ
होता है। जो
भगा रहा है, वह कृष्ण को
भगा रहा है
अपने पीछे कि
कृष्ण भागकर
उसको आगे भगा
रहे हैं, इसको
एक हिस्से में
तोड़कर तय
करना मुश्किल
हो जाएगा।
इतना ही हम कह
सकते हैं कि
भागना घटित हो
रहा है। उसमें
एक आगे है और
एक पीछे है।
हां, इसमें
कौन कहां है
और कौन भगा
रहा है, कौन
भाग रहा है, ऐसा तय करना
मुश्किल है।
लेकिन कृष्ण
के व्यक्तित्व
को देखकर हम
सोच सकते हैं
कि वह चूंकि इतने
सहज जीते हैं,
इसलिए किसी
चीज से उनका
अगर संघर्ष भी
है, तो वह
संघर्ष भी
किसी सहयोगता
से ही फलित
हुआ है। वह
किसी सीधे
बहाव से ही फलित
हुआ है।
और जब
कथा कहती है
कि कालयवन
जल जाता है, तो मेरा
अपना मानना है
कि यह काल के
जल जाने का प्रतीक
है। यह समय के
जल जाने का
प्रतीक है, यह "टाइम' के जल जाने
का प्रतीक है।
समय ही शायद
हमारी जिंदगी
की सबसे बड़ी
दुविधा, तनाव
और तकलीफ है।
समय ही शायद
हमारा संताप
और "एंग्विश' है। समय ही
शायद हमारा
खिंचा हुआ
होना है। समय
जल जाए; इसे
हम ऐसा कह
सकते हैं कि
काल ही शायद
सिर्फ एकमात्र
राक्षस है, काल ही है
जिससे हमारा
संघर्ष चल रहा
है प्रतिफल और
काल ही है जो
हमें लील
जाएगा और समाप्त
कर देगा।
लेकिन कभी-कभी
कोई काल को
लील जाता है
और समाप्त कर
देता है।
कभी-कभी कोई
समय को मिटा
देता है और
समय के अतीत
हो जाता है।
कभी-कभी समय
जल जाता है।
किनसे
जल जाता है? कौन समय को
जला देते हैं?
आप कह
रहे हैं न, कृष्ण आगे
भाग रहे हैं।
जो समय के
पीछे भागेगा,
वह समय को
नहीं जला
सकेगा। जो समय
के आगे भागेगा,
वह समय को
ही जला सकता
है। हां, समय
के पीछे जो
भागेगा, वह
तो कभी समय को
नहीं जला
सकेगा। वह तो
समय का अनुगामी
होकर जियेगा।
लेकिन जो समय
के आगे भागने
लगता है, वह
समय को जला
सकता है, क्योंकि
समय सिर्फ
छाया रह जाती
है और वह समय के
आगे हो जाता
है। वह समय को
जला सकता है।
और सोये हुए
मुचकुंद की
आंख खुलने से
जल जाता है।
मैंने
कहा कि यह
मेरे लिए
प्रतीक-कथा
है। असल में
सोई हुई आंख
के लिए ही समय
है। खुली हुई
आंखों के लिए समय
नहीं है। हम
जितने "अनअवेयर' हैं, हम
जितने सोये
हुए हैं और
जितने
"अनकांशस' हैं,
उतना ही समय
है। जिस दिन
हम पूरे "कांशस'
हैं और पूरे
जागे हुए हैं
और आंख खुली
है, उसी
दिन समय जल
जाता है। किसी
की भी आंख खुल
जाए--और हम सभी
गुफाओं में
सोये हुए हैं,
कृष्ण की मौजूदगी
किसी गुफा में
सोये हुए आदमी
की आंख खोलने
का कारण बन
सकती है और
कृष्ण के पीछे
आता हुआ समय
उसकी खुली आंख
में भी जल
सकता है। उसके
लिए भी जल
सकता है।
कृष्ण के लिए
तो मैं मानता
हूं, समय
नहीं है, मुचकुंद
के लिए रहा
होगा। वह जल
सकता है।
इन
प्रतीकों को
अगर हम कभी
जीवन-सत्यों
की तरफ शोध
में लगाएं, तो बड़ी
आश्चर्यजनक
अनुभूतियां
उपलब्ध होती हैं
और बड़ी
आश्चर्यजनक अंतर्दृष्टियां
उपलब्ध होती
हैं, लेकिन
हम इन सबको
कथाएं मानकर
बैठ गए हैं।
और इन सबको
कथाएं मानकर
हम कहे चले
जाते हैं। हम सब
इनको
ऐतिहासिक
घटनाएं मानकर
दोहराए चले
जाते हैं।
लेकिन
ऐतिहासिक
घटनाओं से
ज्यादा कहीं
मनुष्य के
चित्त पर घटी
हुई संभावनाओं,
मनुष्य के
चित्त में
छिपी हुई "पोटेंशियलिटीज',
मनुष्य के
चित्त में
होने वाली
विराट लीला के
ये हिस्से
हैं। लेकिन इस
भांति हमने
कभी उन पर
बहुत गौर से
देखने की
कोशिश नहीं की
है। इससे बहुत
अड़चन हुई है।
और इसलिए कृष्ण
जैसे
व्यक्तित्व
हमें
धीरे-धीरे
झूठे मालूम
पड़ने लगते
हैं। क्योंकि
इतना सब कुछ
उनमें मिल
जाता है कि
उसे तय करना
मुश्किल हो जाता
है कि यह कैसे
संभव हो सकता
है! कृष्ण
जैसे व्यक्तियों
की बड़ी "साइकोलॉजिकल
कमेंट्री'
की जरूरत है
कि उनका
पूरा-का-पूरा
व्यक्तित्व मनस-शास्त्र
के हिसाब से
खोला जा सके।
और एक
आखिरी बात
आपसे कहूं, और वह यह
कहना चाहूंगा
कि पुराने
आदमी के पास दूसरा
उपाय न था।
उसने जो
मनस-सत्य भी
जाने थे, उनको
भी वह कथा के
प्रतीकों में
ही रख सकता था।
उनमें ही उनको
ढांक
सकता था।
उनमें ही उनको
छिपा सकता था।
उसके सिवा कोई
मार्ग ही नहीं
था उसके पास।
लेकिन आज हमारे
पास मार्ग है
कि उनको खोज
लें। जीसस ने एक
जगह कहा है कि
मैं तुममें
ऐसी भाषा में
कहता हूं कि
जो समझ सकते
हैं वे समझ
लेंगे, और
जो नहीं सकते,
उन्हें कोई
हानि न होगी।
मैं तुमसे ऐसी
भाषा में कहता
हूं कि जो समझ
सकते हैं, वे
समझ लेंगे, और जो नहीं
समझते, उन्हें
कोई हानि न
होगी, वे
एक कहानी
सुनने का मजा
ले लेंगे।
हम सब
कहानी सुनने
का मजा लेते
रहे हजारों
साल तक। और
धीरे-धीरे
कुंजियां भी
खो गईं जिनसे
उन कहानियों
को खोला जा
सकता था और
"डिकोड' किया
जा सकता था।
इधर जो बातें
मैं कर रहा
हूं, शायद
उससे कुछ
कुंजियां
आपके खयाल में
आएं और कुछ
"डिकोड' आप
कर सकें, कुछ
कथा-प्रतीक
खुल जाएं और
जीवन के सत्य
बन जाएं। तो
सच में ही ऐसा
उनका अर्थ है,
इससे मुझे
प्रयोजन नहीं
है। आपके चित्त
के लिए अगर
वैसा अर्थ खुल
जाए, तो वह
आपके लिए
हितकर हो सकता
है, कल्याणकारी
हो सकता है, मंगलदायी हो सकता है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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