दिनांक 29 अप्रेेेल 1976 ओशो आश्रम पूूूूना।
योग—सूत्र:
(विभूतिपाद)
सत्त्वपुरुषके
शुद्धिसाम्पे
कैबल्यम्।। 56।।
जब
पुरुष और सत्व
के मध्य शुद्धता
में साम्य
होता है, तभी
कैवल्य
उपलब्ध हो
जाता है।
छान्दोग्य
उपनिषद में एक
सुंदर कथा है।
आओ हम इसी से
आरंभ करें।
सत्यकाम
ने अपनी मां जाबाला
से पूछा. मां, मैं परम
ज्ञान के
विद्यार्थी
के रूप में
जीवन जीना
चाहता हूं।
मेरा
पारिवारिक
नाम क्या है? मेरे पिता
कौन हैं?
मेरे
बच्चे, मां ने
उत्तर दिया, मुझे ज्ञात
नहीं; अपनी
युवावस्था
में जब मैं
सेविका का
कार्य करती थी
तो मैंने अनेक
पुरुषों का
संसर्ग करते
हुए अपने गर्भ
में तुम्हें
धारण किया था,
मैं नहीं
जानती कि
तुम्हारा
पिता कौन है—: मैं
जाबाला हूं और
तुम सत्यकाम
हो, इसलिए
तुम स्वयं को
सत्यकाम
जाबाल कहो।
तब वह
बालक उस समय
के महान ऋषि
गौतम के पास
गया और उनसे
स्वयं को
शिष्य की
भांति
स्वीकार किए जाने
के लिए कहा।
वत्स, तुम
किस परिवार से
हो? ऋषि ने
पूछा।
सत्यकाम
ने उत्तर
दिया. मैंने
अपनी मां से
पूछा था कि
मेरा गोत्र, पारिवारिक
नाम क्या है? और उन्होंने
उत्तर दिया :
मुझे शात नहीं;
अपनी
युवावस्था
में जब मैं
सेविका का
कार्य करती थी
तो मैंने अनेक
पुरुषों का
संसर्ग करते
हुए अपने गर्भ
में तुम्हें
धारण किया था,
मैं नहीं
जानती कि
तुम्हारा
पिता कौन है—
मैं जाबाला
हूं और तुम
सत्यकाम हो, इसलिए तुम
स्वयं को
सत्यकाम
जाबाल कहो, श्रीमन् अत:
मैं सत्यकाम
जाबाल हूं।
ऋषि ने
उससे कहा : एक
सच्चे बाह्मण, सत्य के
सच्चे खोजी के
सिवा यह कोई
नहीं कह सकता।
वत्स, तुम
सत्य से
विचलित नहीं
हुए हो। मैं
तुम्हें उस
परम ज्ञान की
शिक्षा दूंगा।
साधक
का पहला गुण
प्रमाणिक
होना, सत्य
से विचलित न
होना, किसी
प्रकार से भी
धोखा न देना
है,।
क्योंकि यदि
तुम दूसरों को
धोखा देते हो,
तो
अंततोगत्वा
अपनी धोखेबाजियो
से तुम ही
धोखा खाते हो।
यदि तुम एक ही
झूठ को अनेक
बार बोलो तो
यह तुमकी करीब—करीब
सच जैसा ही
प्रतीत होने
लगता है। जब
दूसरे
तुम्हारे
झूठों में
विश्वास करने
लगते हैं, तो
तुम भी उनमें
विश्वास करना
आरंभ कर देते
हो। विश्वास
छूत की बीमारी
है।
इसी
प्रकार से हम
उस उपद्रव में
आ गए हैं, जिसमें हम
अभी हैं।
पहला
असत्य जिसको
हमने सत्य की
भांति स्वीकार
कर लिया है वह
है, मैं
शरीर हूं। हर
व्यक्ति
इसमें
विश्वास रखता
है। तुम ऐसे
समाज में
जन्में हो, जिसको
विश्वास है कि
हम शरीर हैं।
प्रत्येक
शरीर की भांति
प्रतिक्रिया
करता है, कोई
भी आत्मा की
भांति
प्रत्युत्तर
नहीं देता।
और
प्रतिक्रिया
तथा
प्रत्युत्तर
के बीच का भेद
याद रखो।
प्रतिक्रिया
यांत्रिक है, प्रत्युत्तर
सजग, बोधपूर्ण,
चेतन है। जब
तुम एक बटन
दबाते हो और
पंखा घूमना
आरंभ कर देता
है तो यह
प्रतिक्रिया
है। जब तुम
बटन दबाते हो,
तो पंखा
सोचना शुरू
नहीं करता कि
क्या मैं
घूमूं या न
घूमूं। जब तुम
प्रकाश खोलते
हो, विद्युत
प्रत्युत्तर
नहीं देती, यह
प्रतिक्रिया
करती है। यह
यांत्रिक है।
बिजली के
सक्रिय हो
जाने में और
तुम्हारे द्वारा
बटन दबाए जाने
में कोई
अंतराल नहीं
होता। वहां
विचार का, जागरुकता
का, चेतना
का, जरा सा
अंतराल भी
नहीं होता।
यदि
तुम अपने जीवन
में
प्रतिक्रिया
करते चले जाओ—किसी
ने तुम्हारा
अपमान किया है
और तुम क्रोधित
हो उठे, किसी ने कुछ
कह दिया है और
तुम उदास हो
गए, किसी
ने कुछ बात कह
दी है, तुम
अति प्रसन्न
हो गए हों—यदि यह
प्रतिक्रिया
है, बटन
दबा कर सक्रिय
हो जाने की
प्रतिक्रिया,
तो धीरे—
धीरे तुम
विश्वास करना
आरंभ कर दोगे
कि तुम शरीर
हो।
यह
शरीर एक
यांत्रिकता
है। यह तुम
नहीं हो। तुम
इसमें रहते हो, यह
तुम्हारा
आवास है, लेकिन
तुम यह नहीं
हो। तुम
पूर्णत: भिन्न
हो।
यह वह
पहला झूठ है
जो जीवन को
पंगु बना देता
है। फिर एक
दूसरा असत्य
है कि मैं मन
हूं। और यह
पहले से अधिक
गहरा है, स्पष्ट है, क्योंकि मन
शरीर की तुलना
में तुम्हारे
अधिक निकट है।
तुम विचार
सोचते रहते हो,
स्वप्न
देखते रहते हो
और वे
तुम्हारे
इतना निकट आ
जाते हैं, कि
तुम्हारे
अस्तित्व को
करीब—करीब
छूने लगते हैं,
तुमको
चारों ओर से
घेरे हुए, तुम
उनमें भी
विश्वास करने
लगते हो। तब
तुम मन हो
जाते हो। मन
भी
प्रतिक्रिया
करता है।
जिस
क्षण तुम
प्रत्युत्तर
देना आरंभ
करते हो तुम
आत्मा हो जाते
हो।
प्रत्युत्तर
का अभिप्राय
है कि अब तुम यांत्रिक
ढंग से
प्रतिक्रिया
नहीं कर रहे
हो। तुम मनन
करते हो, तुम ध्यान
करते हो, तुम
अपनी चेतना को
निर्णय करने
के लिए अंतराल
देते हो।
निर्णायक
तत्व तुम हो।
कोई तुम्हारा
अपमान करता है,
प्रतिक्रिया
में निर्णायक
तत्व वह है।
तुम बस
प्रतिक्रिया
करते हो, वह
तुम्हारी
क्रिया को
प्रभावित
करता है।
प्रत्युत्तर
में तुम
निर्णायक
तत्व हो; किसी
ने तुम्हारा
अपमान किया है—यह
बात प्राथमिक
नहीं है, यह
बात दूसरे
स्थान पर है।
तुम इस पर
विचार करते हो।
तुम निर्णय
करते हो यह
करना है या वह
करना है। तुम
इससे
उद्वेलित
नहीं हुए हो।
तुम
अस्पर्शित
रहते हो, तुम
अलग रहते हो, तुम दृष्टा
बने रहते हो।
इन
दोनों
असत्यों को
खंडित करना
पड़ेगा। ये
आधारभूत
असत्य हैं, मैं उन
लाखों
असत्यों को
नहीं गिन रहा
हूं जो आधारभूत
नहीं है। तुम
स्वयं का नाम
के साथ
तादात्म्य
किए चले जाते
हो। नाम महज
एक उपयोगिता
एक लेबल है।
तुम नाम के
साथ नहीं आते
हो और तुम नाम
के साथ जाते
भी नहीं हो।
नाम तो बस
समाज के
द्वारा उपयोग
में लाया जाता
है, किसी
समाज में नाम
के बिना रह
पाना कठिन
होगा। वरना तो
तुम नाम विहीन
हो। फिर तुम
सोचते हो कि
तुम किसी धर्म,
किसी
निश्चित जाति
से जुडे हुए हो।
तुम सोचते हो
कि तुम एक
व्यक्ति से
संबंधित हो जो
तुम्हारा
पिता है, एक
स्त्री जो
तुम्हारी
माता है। हां
तुम उनके
माध्यम से आए
हो, लेकिन
तुम उनसे
संबंधित नहीं
हो। वे रास्ता
रहे हैं, तुमने
उनसे यात्रा
की है किंतु
तुम भिन्न हो।
खलील
जिब्रान की
श्रेष्ठ कृति 'दि
प्रॉफेट' में
एक स्त्री
मसीहा
अलमुस्तफा से
पूछती है, हमें
हमारे बच्चों
के बारे में
कुछ बताइए, और
अलमुस्तफा
कहता है, वे
तुम्हारे
द्वारा आते है,
लेकिन
तुम्हारे
नहीं हैं, उनको
प्रेम करो, किंतु अपने
विचार उन पर
आरोपित मत करो।
उन्हें प्रेम
करो, क्योंकि
प्रेम स्वतंत्रता
देता है, लेकिन
उन पर मालकियत
मत करो।
तुम्हारा
अंतर्तम
केंद्र किसी
से संबद्ध नहीं
है, इस
पर किसी की
मालकियत नहीं
है। यह कोई
वस्तु नहीं है,
इस पर
मालकियत नहीं
की जा सकती।
तुम्हारी देह
पर मालकियत की
जा सकती है, तुम्हारे मन
पर भी मालकियत
की जा सकती है।
जब तुम
मुसलमान हो
जाते हो, तो तुम्हारे
मन पर लोगों
की मालकियत हो
जाती है, जो
स्वयं को
मुसलमान कहते
हैं। जब तुम
हिंदू हो जाते
हो, तुम्हारा
मन उन लोगों
द्वारा
अधिकृत कर
लिया जाता है,
जो स्वयं को
हिंदू कहते
हैं। जब तुम
साम्यवादी हो
जाते हो, तुम
पर दास कैपिटल,
का कब्जा हो
जाता है। जब
तुम ईसाई बन
जाते हो तुम
पर बाइबिल का
स्वामित्व
होता है। जब
तुम स्वयं को
देह के रूप
में सोचते हो,
तो तुम
स्वयं काले या
गोरे की भांति
सोच लेते हो।
तुम्हारा
अंतर्तम
केंद्र न ईसाई
है, न
हिंदू
तुम्हारा
अंतर्तम
केंद्र न तो
गोरा है, न
काला, तुम्हारा
अंतर्तम
केंद्र न तो
साम्यवादी है और
न ही गैर—साम्यवादी।
तुम्हारा
अंतर्तम
केंद्र शरीर
और मन से नितांत
अलग रहता है।
यह शरीर से
परे है और मन
से उच्चतर है।
मन इसे छू
नहीं सकता, शरीर इस तक
पहुंच नहीं
सकता।
महर्षि
गौतम ने
सत्यकाम
जाबाल को
क्यों स्वीकार
कर लिया? वह सच्चा था।
वह धोखा दे
सकता था, उसका
भटक जाना आसान
था। इस संसार
में लोगों से
कहते फिरना, मैं नहीं
जानता, मेरा
पिता कौन है, अत्यंत
अपमान जनक है।
और मां भी
सच्ची थी।
बच्चे को धोखा
दे देना आसान
है, क्योंकि
बच्चे के पास
यह खोजने का
कोई साधन नहीं
है कि तुम उसे
धोखा दे रही
हो या नहीं।
जब कोई बच्चा
अपनी मां से
पूछता है, संसार
को किसने
बनाया? तो
मां के लिए यह
कह देना बहुत
सरल है, ईश्वर
ने संसार को
बनाया—बिना इस
बात को जरा भी
जाने कि वह
क्या कह रही है।
यही इस
बात का मूलभूत
कारण है कि
बच्चे जब बड़े हो
जाते हैं तो
वे अपने मां—बाप
के करीब— करीब
विरोधी क्यों
हो जाते हैं; वे उनको
कभी क्षमा
नहीं कर सकते,
क्योंकि
मां—बाप ने
बहुत अधिक झूठ
बोला है।
उन्होंने
बच्चों की नजर
में अपनी सारी
इज्जत खो दी
है। माता—पिता
कहे चले जाते
हैं, क्यों?
हमने तुमको
प्रेम किया।
हमने तुमको
बड़ा किया। हम
जो
सर्वश्रेष्ठ
कर सकते थे, वह हमने
किया। बच्चे
हमारा सम्मान
क्यों नहीं
करते? तुमने
अपने असत्यों
के कारण अवसर
खो दिया है।
एक बार बच्चा
खोज लेता है
कि माता और
पिता असत्य
बोल रहे हैं, सारा सम्मान
खो जाता है।
एक छोटे असहाय
बच्चे से धोखा?
उन बातों को
कहना जिनके
बारे में
तुम्हें कुछ भी
पता नहीं?
—वह
जाबाला एक
दुर्लभ मां थी।
उसने कहा, मुझे
शात नहीं, तुम्हारा
पिता कौन है? उसने
स्वीकार किया
कि जब वह युवा
थी तो वह अनेक
पुरुषों के
साथ रही थी, उसने अनेक
पुरुषों को
प्रेम किया था,
इसलिए वह
नहीं जानती है
कि पिता कौन
है। एक सच्ची
मां। और बच्चा
भी बहादुर था।
उसने यही अपने
गुरु से कहा, उसने ठीक—ठीक
वे ही शब्द
दोहरा दिए जो
मां ने कहे थे।
यह
सत्य गौतम को
जंच गया। और
उन्होंने कहा, तुम एक
सच्चे
ब्राह्मण हो।
यह ब्राह्मण
होने की
परिभाषा है, एक सच्चा
व्यक्ति ही
ब्राह्मण है।
ब्राह्मण को
किसी जाति से
कुछ भी लेना
देना नहीं है।
यह शब्द ही
ब्रह्म से आता
है, इसका
अर्थ है
परमात्मा का
खोजी, एक
सच्चा
प्रमाणिक
खोजी।
स्मरण
रखो जितना
अधिक तुम
असत्यों में
संलग्न होते
जाते हो, आरंभ में वे
चाहे कितने
लाभकारी
प्रतीत होते हों,
अंत में तुम
पाओगे कि
उन्होंने
तुम्हारे
समग्र
अस्तित्व को
विषाक्त कर
दिया है।
प्रमाणिक
बनो। यदि तुम
प्रमाणिक हो
तो कभी न कभी
तुम खोज हो लोगे
कि तुम देह
नहीं हो।
क्योंकि
प्रमाणिकता
एक असत्य में
विश्वास नहीं
करती रह सकती
है। स्पष्टता
का उदय होता
है, आंखें
और ग्रहणशील
हो जाती हैं
और तुम देख
सकते हो कि तुम
शरीर में
निश्चित रूप
से हो लेकिन
तुम शरीर नहीं
हो। जब हाथ
टूट जाता है
तो तुम नहीं
टूटते। जब
तुम्हारे
पांव में
अस्थिभंग
होता है तो तुम
खंडित नहीं
होते। जब सर
में दर्द होता
है, तो तुम
सरदर्द को
जानते हो, तुम
स्वयं तो
सरदर्द नहीं
हो। जब
तुम्हें भूख
अनुभव होती है,
तुम जानते
हो कि भूख लगी
है, लेकिन
तुम भूखे नहीं
हो। धीरे—
धीरे मूलभूत
असत्य विनष्ट
हो जाता है।
तब तुम और
गहराई में जा
सकते हो और
अपने विचारों,
स्वप्नों
को अपनी चेतना
में तैरता हुआ
देख सकते हो।
तभी तुम विभेद
कर सकते हो, अंतर कर
सकते हो—जिसे
पतंजलि विवेक
कहते हैं—तभी
तुम विभेद कर
सकते हो कि
क्या बादल है
और क्या आकाश।
विचार
रिक्त स्थान
में घूमते
बादलों की
भांति हैं। वह
रिक्त स्थान
ही वास्तविक
आकाश है, बादल नहीं —
वे आते हैं और
चले जाते हैं।
विचार नहीं
बल्कि वह
रिक्त स्थान,
जिस में वे
विचार प्रकट
और विलीन होते
हैं।
अब मैं
तुम्हें
तुम्हारे
अस्तित्व की
एक परम आधारभूत
यौगिक संरचना
के बारे में
बताता हूं।
जैसे
कि भौतिकविद
सोचते हैं कि
यह सब और कुछ नहीं
बल्कि
इलेक्ट्रानों, विद्युत—ऊर्जा
से निर्मित है,
योग की सोच
है कि यह सब और
कुछ नहीं वरन
ध्वनि—अणुओं
से निर्मित है।
अस्तित्व का
मूल तत्व, योग
के लिए, ध्वनि
है, क्योंकि
जीवन और कुछ
नहीं बल्कि एक
तरंग है। जीवन
और कुछ नहीं
बल्कि ध्वनि
की एक
अभिव्यक्ति
है। ध्वनि से
हमारा आगमन
होता है और
पुन: हम ध्वनि में
विलीन हो जाते
हैं। मौन, आकाश,
शून्यता, अनस्तित्व,
तुम्हारा
अंतर्तम
केंद्र, चक्र
की धुरी है।
जब तक कि तुम
उस मौन, उस
आकाश तक न आ
जाओ, जहां
तुम्हारे
शुद्ध
अस्तित्व के
अतिरिक्त और
कुछ नहीं बचता,
मुक्ति
उपलब्ध नहीं
होती। यह योग
का संरचना
तंत्र है।
वे
तुम्हारे
अस्तित्व को
चार पर्तों
में बांटते
हैं। मैं जो
तुमसे बोल रहा
हूं यह अंतिम
पर्त है। योग
इसको वैखरी
कहता है, इस शब्द का
अर्थ है : फलित,
पुष्पित हो
जाना। लेकिन
इसके पूर्व कि
मैं तुमसे
बोलूं इसके पूर्व
कि मैं किसी
बात का
उच्चारण करूं,
यह मेरे लिए
एक अनुभूति का
आकार, एक
अनुभव का रूप
ग्रहण कर लेती
है, यह
तीसरी पर्त है।
योग इसे
मध्यमा, बीच
की कहता है।
लेकिन इसके
पूर्व कि भीतर
कुछ अनुभव हो
यह बीज—रूप
गतिशील होता
है। सामान्यत:
तुम इसका
अनुभव नहीं कर
सकते हो जब तक
कि तुम बहुत
ध्यानपूर्ण न
हो, जब तक
कि तुम पूरी
तरह से इतने
शांत न हो चुके
हो कि ऐसे बीज
में जो
अंकुरित भी न
हुआ हो, में
होने वाले
प्रकंपन को भी
अनुभव कर सको,
जो बहुत
सूक्ष्म है।
योग इसे
पश्यंती कहता
है, पश्यंती
का अर्थ है.
पीछे लौट कर
देखना, स्रोत
की ओर देखना।
और इसके परे
तुम्हारा
आधारभूत
अस्तित्व है जिससे
सब कुछ निकलता
है, यह 'परा'
कहलाता है।
परा का अर्थ
है : जो सबसे
परे है।
अब इन
चार पर्त्तों
को समझने का
प्रयास करो।
परा सभी रूपों
से परे कुछ है।
पश्यंती बीज
के समान है।
मध्यमा वृक्ष
जैसी है।
वैखरी फलित हो
जाने, पुष्पित
हो जाने जैसी
है।
मैं
पुन:
छान्दोग्य
उपनिषद से एक
कथा तुम्हें
सुनाता हूं :
उस
वटवृक्ष से
मेरे लिए एक
फल तोड़ कर तो
लाना, महर्षि
उद्दालक ने
अपने पुत्र से
कहा।
यह
लीजिए
पिताश्री, श्वेतकेतु
ने कहा।
इसे
तोड़ो।
यह टूट
गया, ऋषिवर।
इसके
तुम्हें भीतर
क्या दिखाई दे
रहा है?
इसके
बीज, असंख्य
हैं ये तो।
उनमें
से एक को तोड़ो।
यह टूट
गया, ऋषिवर।
तुम्हें
क्या दिखाई दे
रहा है?
कुछ
नहीं, ऋषिवर,
बिलकुल कुछ
भी नहीं।
पिता
ने कहा. वत्स, वह
सूक्ष्म सार
जिसको तुम
वहां नहीं देख
पा रहे हो, उसी
सार—तत्व से
यह वटवृक्ष
अस्तित्व में
आता है।
विश्वास करो
वत्स कि यह सार—तत्व
है, जिसमें
सारी चीजों का
अस्तित्व है।
यही सत्य है।
यही स्व है।
और श्वेतकेतु
वही तुम हो—तत्वमसि
श्वेतकेतु!
वटवृक्ष
एक बड़ा वृक्ष
है। पिता ने
एक फल लाने को
कहा, श्वेतकेतु
उसे लेकर आया।
फल वैखरी है—वह
चीज पुष्पित
हो चुकी है, फल लग गए। फल
सर्वाधिक
परिधिगत घटना
है, मूर्तमान
होने की
पराकाष्ठा।
पिता कहता है,
इसे तोड़ो।
श्वेतकेतु
उसे तोड़ता है—लाखों
बीज हैं उसके
भीतर। पिता
कहते हैं, एक
बीज चुन लो, इसे भी तोड़ो।
वह उस बीज को
भी तोड़ता है।
अब हाथ में
कुछ न रहा। अब
बीज के भीतर
कुछ भी नहीं
है। उद्दालक
ने कहा : इस शून्यता
से बीज आता है,
इस बीज से
वृक्ष का जन्म
होता है, वृक्ष
में फल लगते
हैं। लेकिन
आधार है—शून्यता,
मौन, आकाश,
अमूर्त, निराकार,
पार, वह
जो सबसे परे
है।
वैखरी
की अवस्था में
तुम बहुत अधिक
संशयग्रस्त
होते हो, क्योंकि तुम
अपने
अस्तित्व से
सर्वाधिक दूर हो।
यदि तुम अपने
अस्तित्व में
थोड़ा गहरे
उतरो, जब
तुम 'मध्यमा'
के तीसरे
बिंदु के निकट
आते हो तब तुम
अपने अस्तित्व
के और समीप आ
जाते हो। यही
कारण है कि
इसे मध्यम, सेतु कहा
जाता है। इसी
प्रकार से एक
ध्यानी अपने
अस्तित्व में
प्रवेश करता
है। इसी
प्रकार से
मंत्र का प्रयोग
किया जाता है
जब तुम
किसी मंत्र का
प्रयोग करते
हो और तुम उसे
लयपूर्वक
दोहराते हो—ओम
ओम ओम.. .पहले
इसे जोर से
दोहराना है
वैखरी। फिर
तुमको अपने
ओंठ बंद करना
पड़ते हैं और
अंदर इसे
दोहराना होता
है—ओम ओम ओम..
.कोई ध्वनि
बाहर नहीं आती
: मध्यमा। फिर
तुम्हें भीतर
दोहराना भी
छोड़ देना पड़ता
है दोहराना
स्वत: होता है; इसके साथ
तुम इस भांति
लयबद्ध हो
जाते हो कि जब
तुम इसे
दोहराना छोड़
देते हो और यह
अपने आप से ही
जारी रहता है—ओम
ओम ओम... अब इसको
दोहराने के
स्थान पर तुम श्रोता
बन जाते हो, तुम सुन
सकते हो, निरीक्षण
कर सकते हो और
देख सकते हो :
यह पश्यंती बन
गया है।
पश्यंती का
अर्थ है. पीछे
लौट कर स्रोत
को देखना। अब
तुम्हारी आंखें
स्रोत की ओर
घूम गई हैं तब
धीरे— धीरे यह
ओम भी निराकार
में विलीन हो
जाता है अचानक
वहां शून्यता
होती है और
कुछ भी नहीं
होता। तुम ओम
ओम ओम... नहीं
सुनते; तुम
कुछ भी नहीं
सुनते। न तो
वहां सुनने के
लिए कुछ होता
है, न ही
सुनने वाला
होता है। सभी
कुछ तिरोहित
हो चुका है।)
'तत्वमसि
श्वेतकेतु!' उद्दालक ने
अपने पुत्र से
कहा, तुम
वही हो। वही
शून्यता, जहां
मंत्रोच्चारक
और मंत्रोच्चार
दोनों विलीन
हो चुका है।
अब यदि
तुम वस्तुओं
से अत्याधिक
आसक्त हो, तो तुम
वैखरी की दशा
में रहोगे।
यदि तुम अपने
शरीर से
अत्याधिक
आसक्त हो, तो
तुम मध्यमा की
दशा में रहोगे।
यंदि तुम अपने
मन से
अत्याधिक
आसक्त हो, तुम
पश्यंती की
अवस्था में
रहोगे। और यदि
तुम जरा भी
आसक्त नहीं हो,
तो अचानक
तुम परा में, जो परे है, जो सबके पार
है, उसमें
विलीन हो जाते
हो। यही
मुक्ति है।
मुक्त
होने का
अभिप्राय है.
घर वापस लौट
आना। हम दूर
निकल गए हैं, हूं. .जरा
देखो।
शून्यता से
बीज आता है, फिर बीज से
अंकुर, और
फिर एक विशाल
वृक्ष, फिर
फल और फूल।
चीजें कितनी
दूर तक जाती
हैं। लेकिन फल
पुन: पृथ्वी
पर वापस गिर
पड़ता है; वर्तुल
पूरा हुआ। मौन
आरंभ है, मौन
ही अंत है।
शुद्ध आकाश से
हमारा आगमन
होता है और
शुद्ध आकाश
में हम चले
जाते हैं। यदि
वर्तुल पूरा न
हो तो
तुम्हारा
अस्तित्व किसी
विशेष बात से ग्रसित
रहेगा, जहां
पर तुम लगभग
जड़ हो जाओगे।
और तुम गतिशील
न हो पाओगे, और तुम
गत्यात्मकता,
ऊर्जा, जीवन
को खो चुके
होते हो।
योग
तुमको इतना
जीवंत कर देना
चाहता है कि
तुम जीवन का सारा
वर्तुल पूर्ण
कर सको, और तुम पुन:
ठीक प्रारंभ
पर आ सको। अंत
और कुछ नहीं
वरन ठीक
प्रारंभ है।
लक्ष्य और कुछ
नहीं वरन
स्रोत है। ऐसा
नहीं है कि हम
कोई पहली बार
परमात्मा को उपलब्ध
करने जा रहे
हैं। पहली बात
तो यह कि वह
हमारे पास था।
हमने उसे खोया
है। हम उसे
पुन: प्राप्त,
उपलब्ध कर
रहे होंगे।
परमात्मा कभी
कोई खोज नहीं
होता, यह
सदैव पुनखोंज
है। हम उस
शांति, मौन
और आनंद के
गर्भ में रहे
थे, लेकिन
हम बहुत दूर
निकल गए थे।
बहुत
दूर निकल जाना
भी विकास का
ही एक अंग था, क्योंकि
यदि तुम अपने
घर से कभी
बाहर नहीं निकले
हो, तुम
कभी न जान
पाओगे कि घर
क्या है। यदि
तुम घर से कभी
बहुत दूर नहीं
गए, तो तुम
अपने घर का
सौंदर्य, शांति,
सुविधा और
विश्राम कभी न
जान पाओगे।
अपने स्वयं के
घर आने के लिए
व्यक्ति को
अनेक द्वारों
पर दस्तक देनी
'पड़ती है।
अपने आप पर
वापस लौटने के
लिए व्यक्ति
को अनेक चीजों
से ठोकर खानी
पड़ती है। उचित
पथ पर आ पाने
के लिए
व्यक्ति को
भटकना पड़ता है।
विकास
के लिए यह
आवश्यक, परम आवश्यक
है, किंतु
किसी एक स्थान
से आसक्त नहीं
होना है। लोग
आसक्त हैं।
कुछ लोग अपने
शरीर से, अपनी
शारीरिक
आदतों से
आसक्त हैं।
कुछ लोग अपने
मन, विचारधाराओं,
विचारों, स्वप्नों
के ढंग—ढांचों
से आसक्त हैं।
कठोपनिषद
कहता है. 'विषयों से
परे
ज्ञानेंद्रिया
हैं।
ज्ञानेंद्रियों
से परे मन है।
मन के पार
बुद्धि है।
बुद्धि के पार
आत्मा है।
आत्मा के पार
अरूप है। अरूप
से परे ब्रह्म
है। और ब्रह्म
के पार कुछ भी
नहीं है।’ यही
अंत है, शुद्ध
चैतन्य।
और इस
शुद्ध चैतन्य
को अनेक पथों
से उपलब्ध
किया जा सकता
है। असली बात
पथ नहीं है।
असली बात है
साधक की
प्रमाणिकता।
मेरा जोर इसी
पर है।
तुम
किसी भी पथ से
यात्रा कर
सकते हो। यदि
तुम
निष्ठावान और
प्रमाणिक हो
तो तुम लक्ष्य
पर पहुंचोगे।
कुछ पथ कठिन
हो सकते हैं, कुछ पथ
सरलतर हो सकते
हैं, किन्हीं
के दोनों ओर
हरियाली हो
सकती है, कुछ
मरुस्थलों से
होकर निकल
सकते हैं, किन्हीं
के चारों ओर
सुंदर
दृश्यावलियां
हो सकती हैं, कुछ ऐसे हो
सकते हैं
जिनके चारों
ओर कोई दृश्यावली
न हो, यह
दूसरी बात है;
लेकिन यदि
तुम
निष्ठावान और
ईमानदार और
प्रमाणिक और
सच्चे हो तब
प्रत्येक पथ
लक्ष्य तक ले
जाता है।
श्रीमद्भगवतगीता
में कृष्ण ने
कहा है. लोग चाहे
जिस रास्ते पर
यात्रा करें
वह मेरा पथ है।
इससे अंतर
नहीं पड़ता कि
वे किस रास्ते
पर कहा चल रहे
हैं, वह
मुझ तक लाता
है।
तो इसे
सरलतापूर्वक
एक बात में
संक्षिप्त किया
जा सकता है कि
प्रमाणिकता
ही पथ है।
इससे अंतर
नहीं पड़ता कि
तुम कौन से पथ
पर चलते हो, यदि तुम
प्रमाणिक हो
तो प्रत्येक
पथ उसी तक ले
जाता है। और
इससे विपरीत
बात भी सत्य
है, इससे
कोई अंतर नहीं
पड़ता कि तुम
किस पथ पर चलते
हो, यदि
तुम प्रमाणिक
नहीं हो तो
तुम कहीं नहीं
पहुंचोगे।
तुम्हारी
प्रमाणिकता
ही तुम्हें घर
वापस लाती है
और कोई नहीं।
सारे पथ दूसरे
स्थान पर हैं।
आधारभूत बात
है. प्रमाणिक
होना, सच्चा
होना।
एक
सूफी कहानी है:
किसी
व्यक्ति ने
सुना कि यदि
वह सूर्योदय
के समय
मरुस्थल में
एक निश्चित
स्थान पर दूर
स्थित पर्वत
की ओर मुंह
करके खड़ा हो
जाए तो उसकी
छाया से किसी
गढ़े हुए बड़े
खजाने का पता
लग जाएगा। उस
व्यक्ति ने
दिन की पहली
किरण फूटने से
पूर्व ही अपना
स्थान छोड़
दिया और वहां
पहुंच कर सूर्योदय
के समय
निर्धारित
स्थान पर खड़ा
हो गया। रेत
की सतह पर
उसकी लंबी और
पतली छाया पड़
रही थी। कितना
किस्मत वाला
हूं मैं, उसने सोचा
और स्वयं को
विशाल खजाने
के मालिक की
भांति अपनी
कल्पना में
देखा। उसने
खजाने के लिए
खुदाई आरंभ कर
दी। वह अपने
कार्य में
इतना रम गया
कि उसको ध्यान
ही न रहा कि
सूर्य आकाश
में ऊपर उठ
रहा है और उसकी
छाया छोटी
होती जा रही
है, और
तभी
उसने इस बात
को देखा। अब
यह अपने
पुराने आकार
से लगभग आधी
हो गई थी। उसे
चिंता हुई और
वह पुन: नये
स्थान पर
खोदने लगा।
कुछ घंटों बाद, दोपहर
में वह
व्यक्ति पुन:
वहीं खड़ा हुआ।
अब उसकी कोई
छाया नहीं थी।
वह बहुत
चिंतातुर हो
गया। उसने
रोना और
चिल्लाना
शुरू कर दिया—उसका
सारा श्रम
व्यर्थ गया था।
अब कहां है वह
स्थान?
तभी एक
सूफी सदगुरु
वहां से निकला, जो उस पर
हंसने लगा और
बोला, छाया
अब बिलकुल ठीक
खजाने की ओर
संकेत कर रही है।
वह तुम्हारे
भीतर है।
सारे
रास्ते उस तक
पहुंचा सकते
हैं क्योंकि
एक अर्थ में
वह मिला ही
हुआ है। वह
तुम्हारे
भीतर है। तुम
कुछ नया नहीं
खोज रहे हो।
तुम कुछ ऐसा
खोज रहे हो
जिसे तुम भुला
चुके हो, और तुम
वास्तव में
इसे कैसे भूल
सकते हो? यही
कारण है हम
आनंद की खोज
किए चले जाते
हैं क्योंकि
हम इसे भुला
नहीं सकते। यह
हमारे भीतर
प्रतिध्वनित
होता रहता है।
आनंद की खोज, हर्ष की खोज,
सुख की खोज
और कुछ नहीं
बल्कि
परमात्मा की
खोज है। तुमने
संभवत: 'परमात्मा'
शब्द
प्रयोग न किया
हो, इससे
कोई अंत्र
नहीं पड़ता, लेकिन आनंद
की सारी खोज
परमात्मा की
खोज है—किसी
ऐसी बात की
खोज है जिसे
थे कि
तुम्हारा था
और तुमने उसे
खो
तुम
जानते दिया।
इसीलिए
सारे संतों ने
कहा है : 'स्मरण करो।’
बुद्ध इसे 'सम्यक
स्मृति, ' ठीक
से याद रखना, कहते हैं।
नानक इसे 'नाम—स्मरण,
' नाम को याद
रखना, पते
को याद करना, कहते हैं।
क्या तुमने
नहीं देखा है
कि अनेक बार
ऐसा होता है—तुम्हें
कोई बात पता
है, तुम
कहते हो, 'यह
ठीक मेरी जीभ
की नोक पर रखी
है, लेकिन
फिर भी याद
नहीं आ रही है।’
परमात्मा
तुम्हारी जीभ
की नोक पर है।
एक
छोटे से स्कूल
में रसायन
विज्ञान के
अध्यापक ने
ब्लैक बोर्ड
पर एक
रासायनिक
यौगिक का सूत्र
लिख दिया और
उसने एक छोटे
से बच्चे को
खड़े होकर
बताने को कहा
कि यह सूत्र
किस यौगिक का
प्रतिनिधित्व
करता है? बच्चे ने
देखा और वह
बोला : सर, यह
तो बस मेरी
जीभ की नोक पर
रखा है, लेकिन
मुझे याद नहीं
आ रहा है।
शिक्षक
ने कहा : इसे थूक
दो! इसे फौरन थूक
दो! यह
पोटेशियम
साइनाइड, तीव्रतम विष
है।
परमात्मा
भी जीभ की नोक
पर है। और मैं
तुमसे कहूंगा, इसे गटक लो!
इसको गटक जाओ!
इसे बाहर मत थूको!
यह परमात्मा
है! उसे
तुम्हारे
रक्त में घुल—मिल
जाने दो। उसे
अपने अंतर्तम
की तरंगों का
अवयव बन जाने दो।
उसको अपने
अस्तित्व के
भीतर का गीत, नृत्य बन
जाने दो।
शरीर
के साथ यह
तादात्म एक
आदत है और कुछ
नहीं। जब
बच्चा पैदा
होता है तो
उसे पता नहीं
होता कि वह
कौन है और मां—बाप
को कुछ पहचान
निर्मित करना
पड़ती है, अन्यथा वह
इस संसार में
खो जाएगा।
उन्हें उसको
बताना पड़ता है
कि वह कौन है।
वे भी नहीं
जानते हैं।
उन्हें एक
झूठा लेबल
निर्मित करना
पड़ता है। उसको
वे एक नाम दे
देते है, वे
उसे एक दर्पण
दे देते हैं
और वे उससे
कहते हैं, देखो,
यह है
तुम्हारा
चेहरा। देखो,
यह है
तुम्हारा नाम
है। देखो, यह
है तुम्हारा
घर है। देखो, यह है
तुम्हारी
जाति, तुम्हारा
धर्म, तुम्हारा
देश। ये
पहचाने उसे
अनुभव करने
में सहायक
होती हैं कि
वह—बिना जाने
कि वह कौन है, कौन है। ये
आदतें हैं।
फिर
धीरे— धीरे
उसका मन
विकसित होना
आरंभ होता है।
यदि वह हिंदू
घर में जन्मा
है, तो
वह गीता पढ़ता
है, गीता
की बात सुनता
है। यदि उसका
जन्म ईसाई घर
में हुआ है, तो उसे चर्च
लाया जाता है।
एक नई पहचान
आरंभ हो जाती
है, यह
अंतर्तम
पहचान है—वह
ईसाई, हिंदू
मुसलमान बन
जाता है। उसका
जन्म भारत में
हुआ था, वह
भारतीय बन
जाता है। चीन
में वह चीनी
बन जाता है।
और वह स्वयं
को उस देश की
परंपराओं से
संबद्ध करना
आरंभ कर देता
है। एक चीनी
व्यक्ति
स्वयं को चीनी
परंपरा और इतिहास,
चीन के अतीत
से पहचानता है।
फिर व्यक्ति
घर जैसा अनुभव
करता है—उसकी
जड़ें सारी
परंपरा में
होती हैं। यदि
व्यक्ति
भारतीय है, उसकी जड़ें
भारतीय
परंपरा में
होती हैं, व्यक्ति
बेघर नहीं
होता। उस
व्यक्ति ने
परंपरा में, देश में, इतिहास
में, महानायकों—राम,
कृष्य में
अपना ठिकाना
बना लिया है—वह
अब घरेलूपन
अनुभव करता है।
व्यक्ति ने
अपना स्थान
खोज लिया है, लेकिन यह
कोई वास्तविक
स्थान नहीं है।
यह पहचान
मात्र एक
उपयोगिता है।
और फिर
यह आदत इतनी
मजबूत हो जाती
है कि यदि
किसी दिन
तुम्हें पता
लगे कि जो तुम
स्वयं को समझ
रहे थे—भारतीय, हिंदू
मुसलमान, ईसाई,
चीनी, कितना
मूढ़तापूर्ण
है यह सब, वह
तुम नहीं हो—लेकिन
फिर भी पुरानी
आदत छूटेगी
नहीं।
बर्ट्रेड
रसल ने लिखा
है कि उसे पता
है कि अब वह
ईसाई नहीं रहा, लेकिन
किसी वजह से वह
बार— बार इसे
भूलता रहता है।
वह सारे
संस्कार...।
तुम परंपरा के
विरोध में जा
सकते हो, लेकिन
फिर भी तुम
इससे चिपकोगे।
वे लोग भी जो
क्रांतिकारी
हो गए, अपनी
परंपरा से, भले ही वह
नकारात्मक
ढंग हो, आसक्त
रहते हैं। यदि
कोई हिंदू
हिंदू धर्म के
विरोध में चला
जाता है, फिर
भी वह कृष्ण
के विरोध में
बात करेगा, फिर भी वह
राम के विरोध
में बात करेगा।
यदि कोई
मुसलमान अपनी
परंपरा के
विरोध में जाता
है, फिर भी
वह कुरान की
आलोचना करेगा;
निःसंदेह
अब वह आलोचना
कर रहा है, मोहम्मद
की आलोचना कर
रहा है, किंतु
वह परंपरा से
चिपका रहता है।
यथार्थत:
विद्रोही वह
है जो परंपरा
को इतनी गहराई
से, इतना
आत्यंतिक रूप
से त्याग देता
है कि वह इसके
विरुद्ध भी
नहीं होता। वह
न पक्ष में
होता है, न
विपक्ष में, तब व्यक्ति
मुक्त है। यदि
तुम विरोध में
हो, तो तुम
अभी भी मुक्त
नहीं हो। यदि
तुम किसी बात
के विरोध में
हो, तो तुम
पाओगे कि तुम
उसी चीज से
बंध गए हो, एक
गांठ लग गई है।
और
आदतें अचेतन
में चली जाती
हैं। मैं एक
बहुत बड़े
विद्वान, बहुत
प्रसिद्ध, बहुत
शिक्षित और
वास्तव में
महान
बुद्धिजीवी
को जानता हूं।
वे एक लंबे
समय, कोई
चालीस सालों
से जे. कृष्णमूर्ति
के
अनुयायी थे।
और जब कभी वे
मुझे मिलने
आएंगे, वे
बार—बार
कहेंगे, ध्यान
व्यर्थ बात है।
आप लोगों को
क्या सिखा रहे
हैं? कृष्णमूर्ति
कहते हैं—ध्यान
व्यर्थ बात है,
सारे मंत्र
बस
पुनरुक्तियां
हैं; और
सभी ध्यान—प्रयोग,
सभी विधियां
मन को संस्कारित
करती हैं। और
मैं ध्यान
नहीं करता।
मैंने
उन पर सत्य की
चोट करने के
लिए उचित समय की
प्रतीक्षा की।
फिर वे बीमार
पड़े, उन्हें
दिल का दौरा
पड़ा। उनको
देखने के लिए
मैं भागा हुआ
गया और वे
दोहरा रहे थे.
राम राम राम.......मैं
इस पर विश्वास
न कर सका।
मैंने उनका
सिर हिलाया और
कहा. यह आप
क्या कर रहे
है? राम
राम राम.......आप तो
कृष्णमूर्ति
के अनुयायी
हैं। क्या आप
भूल गए?
वे
बोले, उस
बारे में सब
कुछ भूल जाएं।
मैं मर रहा
हूं। और कौन
जाने? हो
सकता है कि
कृष्णमूर्ति
गलत हों। और
बस राम राम
राम दोहराने
में कोई हर्जा
भी नहीं है, और इससे
बहुत
सांत्वना मिल
रही है। इस
आदमी को क्या
हुआ? चालीस
साल तक कृष्णमूर्ति
को सुना, लेकिन
उसका हिंदू मन
वहीं रहा।
अंतिम क्षण
में मन
प्रतिक्रिया
आरंभ कर देगा।
नहीं, वे
विद्रोही
नहीं हैं। वे
सोच रहे थे कि
वे विद्रोही
हैं। वे हर
बात से संघर्ष
कर रहे थे, वे
उस सभी के
विरोध में थे
जो हिंदू कहते
हैं, और
अंतिम क्षण
में उनकी
विचारधारा की
हवाई इमारत ढह
जाती है।
जीवन
आमतौर पर एक
आदत, एक
यांत्रिक आदत
है और कुछ
नहीं। जब तक
कि तुम जागरूक
न हो, जब तक
कि तुम
वास्तविक रूप
से बोधपूर्ण न
हो जाओ, इससे
बाहर आ पाना
दुष्कर होगा।
मैंने
एक जुआरी के
बारे में सुना
है
एक
पुराना जुआरी
मर गया और
उसका भूत कई
सप्ताहों तक
इधर—उधर उदास
होकर घूमता
रहा। यद्यपि
वह स्वर्ग में
प्रवेश का
अधिकारी था, लेकिन
उसने पाया कि
वह इस स्थान
से ऊब चुका है—न
जुआ, न कोई
जुआरी, तो
स्वर्ग या
बहिश्त में
जाने का क्या
उपयोग?
आखिरकार
उसने सेंट
पीटर से पूछ
ही लिया कि
क्या वह बाहर
जाकर अन्य
स्थानों को एक
बार देख सकता
है?
मुझे
भय है कि यह
असंभव है, सेंट
पीटर ने कहा, यदि तुम
नीचे वहां चले
गए तो तुमको
पुन: प्रवेश
की अनुमति
नहीं मिलेगी।
लेकिन
मैं तो बस
चारों ओर एक
निगाह डालना
चाहता हूं
जुआरी के भूत
ने कहा।
अब
सेंट पीटर उसे
एक विशिष्ट
पास जारी करने
के लिए सहमत
हो गए जिससे
उसे चौबीस
घंटे बाहर रहने
की अनुमति मिल
रही थी।
बाहर
निकल कर जुआरी
ने नरक का एक
चक्कर लगाया, और वह आया
तो जो पहली
चीज उसने देखी,
वह थी उसके
पुराने
परिचितों का
समूह पोकर खेल
रहा था। लेकिन
उन्होंने उसे
अपने खेल में
शामिल करने से
इनकार कर दिया,
क्योंकि
उसके पास धन
नहीं था।
मैं इस
मामले को
जल्दी ठीक कर
दूंगा, उसने कहा और
वह बरामदे से
नीचे उतर कर
चला गया। दस
मिनट बाद ही
वह दस डालर के
नोटों की
गड्डियां
दिखाता हुआ
लौट आया।
इतने
सारे रुपये
तुम्हें कहां
से मिल गए? उनमें से
एक ने पूछा।
मैंने
अपना पास बेच
दिया है, जुआरी ने
उत्तर दिया।
आदतें
बहुत कुछ कर
सकती हैं, तुम
स्वर्ग को भी
इनकार कर सकते
हो। आदत के
प्रभाव में
तुम करीब—करीब
अचेतन और असहाय
होते हो। यही
कारण है कि
योग का जोर
तुम्हारी
ग्रंथियों के
प्रति अधिक
जागरूकता
लाने पर है।
जितना अधिक
तुम याद रख
सकते हो याद
रखी कि तुम शरीर
नहीं हो। और
एक बात और याद
रखो, आदत
को तोड़ना कठिन
है, लेकिन
यदि तुम इसके
स्थान पर
दूसरी आदत बना
लो तो यह उतना
कठिन नहीं है।
और यह ऐसे ही
हुआ करता है, लोग आदतों
को बदलते चले
जाते हैं। यदि
तुम उनसे कहो,
तुम शरीर
नहीं हो, वे
सोचना शुरू कर
देंगे कि वे
मन हैं। फिर
कुछ नहीं
बदलता है, बस
आदत का नाम
बदल जाता है।
यही
मैं देखता हूं।
यदि मैं किसी
को कहूं
धूम्रपान छोड़
दो, वह
पान खाना आरंभ
कर देता है।
यदि मैं उसे
पान खाना
छोड़ने को कहूं
वह च्यूइंगगम
चबाना शुरू कर
देता है। और
यदि तुम उसे
इससे भी रोक
दो, वह
बहुत अधिक
बोलना आरंभ कर
देता है, यह
भी वही बात है।
आरंभ में वह
बस धूम्रपान
कर रहा था, कम
से कम वह
स्वयं को ही
नुकसान
पहुंचा रहा था
किसी और को
नहीं। अब वह
धूम्रपान
नहीं कर सकता,
इसलिए वह
बहुत अधिक
बोलता है; अब
वह दूसरों की
शांति और मौन
को भी नष्ट कर
रहा है।
धूम्रपान
करने वाला एक
प्रकार से
अच्छा है, वह
अपने तक सीमित
रहता है।
स्त्रियां
बहुत अधिक
बातचीत किया
करती हैं, एक
बार वे
धूम्रपान
आरंभ कर दें, उनकी बातचीत
कम हो जाती है।
वस्तुत:
तुमने भी
ध्यान दिया
होगा, जब
कभी तुमको
घबड़ाहट अनुभव
होती है, तुम
धूम्रपान
आरंभ कर देते
हो। यह
धूम्रपान तो
बस घबड़ाहट से
बचने के लिए
है। और यही तब
भी होता है जब
तुम बातचीत
शुरू करते हो।
तुमको घबड़ाहट
अनुभव हो रही
है, तुम
स्वयं को किसी
बात के द्वारा
वहां से हटा देना
चाहते हो।
मैंने
एक सुंदर
कहानी सुनी है
एक
अठारह वर्षीय
नवयुवक के
क्रिया—कलापों
से उसके माता—पिता
बेहद चिंतित
रहा करते थे।
क्योंकि वह
अपने सजीले
वस्त्र पहनने
के लिए अपने
कमरे में
घंटों व्यतीत
कर देता था, उसे अपने
जूते पॉलिश
करने और अपने
बाल संवारने
में बहुत सारा
समय लगता था, फिर वह सीधे
रसोई घर में
जाता और अपने
बाएं कान पर
गाजर का पौधा
चिपका कर
नृत्य करने के
लिए डिस्को
में चला जाता
था।
स्वाभाविक था
कि उसके माता—पिता
यह सब देख कर
चिंतित हुए और
उन्होंने
उसको मनोचिकित्सक
के पास जाने
के लिए राजी
कर लिया। वह
मनोचिकित्सक
के कार्यालय
में दूल्हे की
भांति सजा—
धजा, अपने
बाएं कान पर
अजवाइन का
पौधा लगा कर
प्रविष्ट हुआ।
चिकित्सक ने
कोमलता से
बातें करते
हुए उसे बताया
कि उसके माता—पिता
उसके तर में
चिंतित है,
और फिर उसने
पूछा, आप
अपने बाएं.
कान में
अजवाइन का
पौधा क्यों लगा
रखा है? क्या
इसका कोई खास
कारण है?
लड़का
थोड़ा
आश्चर्यचकित
दिखा और बोला, निःसंदेह
कारण है।
मम्मी के पास
आज गाजरें
नहीं थीं।
अब यदि
गाजर छोड़ दी
जाए, तो
अजवाइन......लेकिन
लोग आदतें
बदलते रहते
हैं।
कभी—कभी
ऐसा भी होता
है कि तुम
गंदी आदत को
अच्छी आदत में
बदल सकते हो, और हर
व्यक्ति
प्रसन्न होगा,
और
प्रत्येक
संतुष्ट हो
जाएगा। लेकिन
योग संतुष्ट
नहीं होगा।
तुम धूम्रपान
छोड़ सकते हो
और तुम मंत्र
का जाप आरंभ
कर सकते हो।
अब यदि तुम एक
दिन अपना
मंत्र न
दोहराओ तो
तुमको वैसी ही
बैचेनी होगी
जैसी कि तुमको
तब होती थी जब
तुम धूम्रपान
किया करते थे,
और यदि तुम
एक दिन
धूम्रपान न कर
पाए—दिनचर्या
का पालन करने
की वही
अभिलाषा, जो
कुछ तुम किया
करते थे
यांत्रिक रूप
से वही करने
की इच्छा। तुम
गंदी आदत को
अच्छी आदत में
बदल सकते हो, लेकिन आदत
फिर भी आदत
रहती है। समाज
की निगाहों
में यह अच्छा
दिख सकता है, लेकिन
तुम्हारे आंतरिक
विकास के लिए
इसका कोई अर्थ
नहीं है।
सारी
आदतें छोड़
देनी पड़ेगी।
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
तुम
अस्तव्यस्त
हो जाओ, मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
जीवन को पूरी
तरह उत्तप्त
होकर ऊलजलूल
ढंग से टेढ़ा—मेढ़ा
होकर जीया जाए;
नहीं, बल्कि
अपने जीवन का
निर्णय अपने
होश से होने दो।
यह
संभव है कि
तुम सुबह
जल्दी ही पांच
बजे, एक
आदत की तरह
सोकर उठ सकते
हो, और यह भी
संभव है कि
आदत की भांति
नहीं बल्कि
होश के माध्यम
से सुबह जल्दी
ही पांच बजे
सोकर उठ जाएं।
और दोनों इतने
भिन्न हैं, उनकी
गुणवत्ता
पूर्णत: अलग
है। जब कोई
व्यक्ति बस एक
आदत की भांति
पांच बजे सोकर
उठता है तो वह
बस उतना ही
यांत्रिक है जितना
कि वह व्यक्ति
जो आदतवश नौ बजे
सोकर उठता है।
दोनों एक ही
नाव में सवार
हैं। और जो
व्यक्ति पांच
बजे सोकर उठा
है वह भी उतना ही
मूढ़ है जितना
कि वह व्यक्ति
जो नौ बजे
सोकर उठता है,
क्योंकि
मूढ़ता इससे
जरा भी
संबंधित नहीं है
कि तुम कब
सोकर उठते हो।
मूढ़ता का सवाल
तब उठता है कि
तुम आदत से
जीते हो या
बोध से।
यदि
तुम
होशपूर्वक
जीते हो तो
तुम सजग रहोगे।
भले ही सुबह
के नौ बजे हों, लेकिन
यदि तुम
बोधपूर्वक
सोकर उठे हो
तो तुम संवेदनशील
होओगे, तुम
चीजों को
स्पष्टता से
देखोगे, और
हर चीज सुंदर
होगी। एक लंबे
आराम के बाद, सारी
ज्ञानेंद्रियों
के विश्राम कर
चुकने के बाद
वे पुन: जीवंत
और अधिक जीवंत
हो जाएंगी।
धूल लुप्त हो
चुकी है, सब
कुछ स्पष्ट है।
अपनी परा—
अवस्था की
गहराई में
विश्राम करके,
तुम अपनी
नींद में सारे
विचारों को, शरीर को
भुला कर, सबसे
परे, तुम
अपने घर की
यात्रा कर
चुके हो। वहां
से तुम पुन: युवा,
ताजे होकर
वापस आते हो।
लेकिन यदि यह
केवल एक आदत
है तो यह किसी
अन्य आदत की
भांति व्यर्थ
है।
धर्म
कोई आदत का
सवाल नही है।
यदि तुम चर्च
या मंदिर में
मात्र एक आदत, एक
औपचारिकतावश,
एक का पालन
करते हुए, जो
तुम्हें करना
ही है, तुमको
इसके लिए
प्रशिक्षित
किया गया है, चले जाते हो,
तो यह
व्यर्थ है।
यदि तुम मंदिर
में सजग होकर
जाते हो, तो
मंदिर की
घंटियां
तुम्हारे लिए
एक अलग अर्थ, एक भिन्न
महत्व रखेंगी।
वे मंदिर की
घंटियां
तुम्हारे
हृदय में कुछ
झंकृत कर
देंगी। तब
चर्च की शांति
तुम्हें एक
नितांत नवीन
ढंग से घेर
लेगी।
अत:
स्मरण रखें, यह कोई
आदत का प्रश्न
नहीं है। धर्म
कोई अभ्यास का
प्रश्न नहीं—
है। तुम्हें
समझना ही होगा,
और इसी
भांति पतंजलि
तुम्हें धीरे—
धीरे और—और
समझ देते हुए,
तुम्हें पथ
के बारे में
और—और बताते
हुए यहां तक
ले आए हैं।
जितना
अधिक तुम
स्पष्ट हो
जाते हो उतना
ही अधिक तुम
हर कहीं, हर पत्ती, हर फूल पर
लिखा हुआ
संदेश पढ़ सकते
हो। यह संदेश
परमात्मा का
है। उसके
हस्ताक्षर
सभी जगह हैं।
तुम्हें
भगवतगीता में
जाने की कोई
जरूरत नहीं है,
तुमको
बाइबिल और
कुरान में
जाने की कोई
आवश्यकता
नहीं रही।
कुरान और
भगवतगीता और
बाइबिल सारे
अस्तित्व पर
लिखे हुए हैं।
तुमको केवल
गहराई से
देखने वाली आंखों
की आवश्यकता
है।
मैंने
सुना है, लंदन की एक
विवाहित
नवयुवती को
विश्वास था कि
वह गर्भवती थी
और वह इसकी
पुष्टि हेतु
चिकित्सक के
पास गई।
डाक्टर ने
शीघ्रता से
उसकी जांच की
और आश्वस्त
किया कि उसका
अनुमान सही है।
फिर उसको
आश्चर्यचकित
करते हुए उस
डाक्टर ने रबर—स्टैंप
लेकर उसके उदर
पर लगा दी और
कहा, बस सब
हो गया।
उस
महिला ने अपने
पति को यह
विचित्र घटना
सुनाई, तो पति ने
पूछा, इसमें
क्या लिखा है?
ठीक है, इसे
पढ़ लो, उसने
उत्तर दिया।
पति ने
देखा कि लिखावट
पढ़े जाने के
लिए बहुत छोटी
थी, लेकिन
आवर्धक लेंस
से सब कुछ साफ
दिखने लगा।
उसमें लिखा था,
जब आप इसे
आवर्धक लेंस
के बिना पढ़
सकें तो अपनी
पत्नी को
अस्पताल ले
आएं।
अभी तो
तुमको—बुद्ध
के जीसस के
कृष्ण के पतंजलि
के आवर्धक लेंस
की आवश्यकता
पड़ती है। और
फिर भी तुम पढ़
नहीं सकते
क्योंकि तुम्हारी
आंखें लगभग
अंधी हैं। एक
बार तुम्हारी आंखें
साफ हो जाएं, तो उसका
संदेश हर कहीं
है। और यह
संदेश इतना
स्पष्ट है कि
तुम तो बस
हैरान रह
जाओगे कि इतने
दिनों से तुम
इससे चूकते कैसे
रहे, तुम
इसे देख कैसे
न पाए। यह हर
तरफ था, चारों
ओर था, प्रत्येक
दिशा और, आयाम
से वह
तुम्हारे
द्वार पर
दस्तक दे रहा
था।
किंतु
यदि शरीर में
जीते हो तो तुम
इसको नहीं
सुनोगे। यदि
तुम मन में
जीते हो, तो तुम इसे
थोड़ा बहुत
सुनोगे, लेकिन
फिर इसके बारे
में सिद्धात
गढ़ लोगे और तुम
चूक जाओगे।
यदि तुम मन से
और गहराई, पश्यंती
में, जहां
ध्यान
तुम्हें ले
जाते हैं, उतरो
तो तुम संदेश
को पढ़ने में
समर्थ हो
जाओगे और तुम
सिद्धांतीकरण
का शिकार नहीं
बनोगे, तुम
दार्शनिक
विवेचना नहीं
करोगे। ओर एक
बार तुम इसके
बारे में
दार्शनिक
विवेचना न करो,
एक बार तुम
परमात्मा के
बारे में
विचार न करो
थी— तुम उसको
देखो, और
चारों ओर, इधर
उधर भटकने के
स्थान पर सीधे
ही उसमें प्रविष्ट
हो जाओ, तो
तुम पश्यंती
का अतिक्रमण
कर लेते हो, बीज
प्रस्फुटित
हो जाता है।
तुम परा, उस
पार की खाई, शून्यता में
गिर जाते हो।
वर्तुल
पूरा हो गया; मौन से
मौन तक, आकाश
से आकाश तक, परमात्मा से
परमात्मा तक।
आरंभ
परमात्मा है
और अत भी
परमात्मा है।
आदि और अंत—वह
दोनों है।
अब
सूत्र :
सत्वपुरुषयो
शुद्धि
साम्ये
कैवल्यम्।
'जब
पुरुष और सत्व
के मध्य
शुद्धता में
साम्य होता है,
तभी कैवल्य
उपलब्ध होता है।’
योग
अस्तित्व को
दो में बांटता
है। अमूर्त एक
है, लेकिन
मूर्त दो है, क्योंकि
मूर्तमान
होने की
प्रक्रिया
में ही चीजें
दो हो जाती
हैं?
उदाहरण के लिए,
तुम एक
गुलाब की झाड़ी
को, सुंदर
पुष्पों को देखते
हो। तुम बस
देखते हो, तुम
कुछ कहते नहीं
हो। तुम बस
गुलाब को
देखते हो, अपने
भीतर एक शब्द
भी नहीं बोलते।
यह अनुभव एक
है। अब यदि
तुम किसी से
कहना चाहो, ये फूल
सुंदर हैं, जिस क्षण
तुम कहते हो, ये फूल
सुंदर हैं, तुमने
कुरूपता के
बारे में भी
कुछ कह दिया
है। वे फूल
कुरूप नहीं
हैं। सौंदर्य
के साथ
कुरूपता
प्रविष्ट हो
जाती है। यदि
कोई पूछता है,
सौंदर्य
क्या है? तुम्हें
इसकी
व्याख्या
करने के लिए
कुरूपता का
उपयोग करना
पड़ेगा।
यदि
तुम किसी
स्त्री को
देखो और कोई
शब्द तुम्हारे
भीतर न उठे, तो यह
अनुभव एक
अद्वैत है।
जिस क्षण तुम
कहते हो, मैं
तुमसे प्रेम
करता हूं तुम
घृणा को भीतर ले
आए हो।
क्योंकि
प्रेम को घृणा
के बिना नहीं
समझाया जा
सकता! दिन को
रात के नहीं समझाया
जा सकता और
जीवन को
मृत्यु के
बिना नहीं
समझाया जा
सकता। समझाने
के लिए_ विपरीत
को भीतर लाना
पड़ता है।
वैखरी
की दशा में सब
कुछ सुस्पष्ट, द्वैत है,
रात्रि
दिवस से भिन्न
है मृत्यु
जीवन से अलग है,
सौंदर्य
कुरूपता से
भिन्न है, प्रकाश
अंधकार से अलग
है—हर चीज
अरस्तु के ढंग
से विभाजित है,
उनके मध्य
कोई सेतु नहीं
है। थोड़ा गहरे
उतरो। मध्यमा
की अवस्था में
विभाजन आरंभ
हो जाता है।
किंतु इतना
स्पष्ट नहीं
होता, दिन
और रात, संध्या
या प्रात: की
भांति मिलते
हैं, विलय
हो जाते हैं।
थोड़ा और गहरे
उतरो।
पश्यंती की
दशा में, वे
बीज—रूप में
हैं, अभी
द्वैत का उदय —नहीं
हुआ है, तुम
कह नहीं सकते
कि क्या चीज
क्या है; हर
चीज में भेद
नहीं किया जा
सकता। थोडा और
गहरे उतरी।
परा की अवस्था
अदृश्य या
अदृश्य—कोई
विभाजन नहीं
है।
अभिव्यक्ति
की दशा में
योग
वास्तविकता
को दो में
बांटता है :
पुरुष और
प्रकृति।
प्रकृति का
अर्थ है :
पदार्थ।
पुरुष का
अभिप्राय है :
चैतन्य। अब जब
तुम शरीर—मन
के साथ, प्रकृति के
साथ, कुदरत
के साथ, पदार्थ
के साथ, तादात्म्य
कर लेते हो, तो दोनों
प्रदूषित हो
जाते हैं।
प्रदूषण सदैव
द्विपक्षीय
होता है।
उदाहरण के लिए
यदि तुम पानी
और दूध को
मिला दो, तो
तुम कहते हो, अब दूध
शुद्ध नहीं
रहा लेकिन
तुमने कुछ
नहीं देखा, पानी भी अब
शुद्ध नहीं
रहा। क्योंकि
पानी, मुक्त
में मिल जाता
है अत: कोई
चिंता नहीं
लेतीं; यह
तो एक बात है; लेकिन जब
तुम पानी और
दूध मिलाते हो,
दोनों
अशुद्ध हो
जाते हैं। यह
बात कुछ खास
है, क्योंकि
दोनों शुद्ध
थे—पानी पानी
था, दूध
दूध था—दोनों
शुद्ध थे। यह
एक चमत्कार है।
दो शुद्धताएं
मिलती हैं और
दोनों अशुद्ध
हो जाती हैं।
अशुद्धता
में कुछ भी
निंदा योग्य
नहीं है। इसका
अर्थ बस यह है
कि विजातीय
पदार्थ
प्रविष्ट ही
गया है। यह
केवल इतना
कहता है कि
कुछ ऐसा जिसका
अंतर्तम
स्वभाव भिन्न
है प्रविष्ट
हो गया वह यही
बात है।
यह
सूत्र बहुत
सुँदर है। ’विभूतिपाद'
इस सूत्र पर
समाप्त हो
जाता है, यह
सूत्र इसकी
पराकाष्ठा है।
यह सूत्र कहता
है : जब तुम देह
के साथ तादात्मय
कर लेते हो, तो तुम
अशुद्ध हो, देह अशुद्ध
है। जब तुम मन
के साथ
तादात्म्य कर
लेते हो, तो
तुम अशुद्ध हो,
मन अशुद्ध
है। जब तुमने
तादात्म नहीं
किया हुआ हो, दोनों शुद्ध
हो जाते हैं।
अब यह
विरोधाभास
जैसा प्रतीत
होगा। एक
सिद्ध या एक
बुद्ध वह है
जिसने पा लिया
है उसका मन
शुद्धता में
कार्य करता है।
उसकी मेधा
शुद्धता में
कार्य करती है, उसकी
सारी
प्रतिभाएं
शुद्ध हो जाती
हैं। और उसकी
चेतना
शुद्धता में
कार्य करती है।
दोनों अलग हैं—दूध
दूध है, पानी
पानी है।
दोनों पुन:
शुद्ध हो गए
हैं।
यह
सूत्र कहता है
: 'जब
पुरुष और सत्व
के मध्य
शुद्धता में
साम्य होता है,
तभी कैवल्य
उपलब्ध हो
जाता है।’
सत्य, प्रकृति,
कुदरत, पदार्थ
की पराकाष्ठा
है। सत्य का
अभिप्राय है
बुद्धिमत्ता
और पुरुष का
अर्थ है बोध।
यह तुम्हारे
भीतर लगी हुई
सूक्ष्मतम
गांठ है, क्योंकि
वे काफी समान
हैं।
बुद्धिमत्ता
और बोध इतने
समान हैं कि
अनेक बार तुम
सोचना आरंभ कर
सकते हो कि
बुद्धिमान
व्यक्ति
बोधपूर्ण
व्यक्ति होता
है। ऐसा नहीं
है।
आइंस्टीन
बुद्धिमान
हैं, आत्यंतिक
रूप से
बुद्धिमान
हैं, लेकिन
वे बुद्ध नहीं
हैं, वे
बोधपूर्ण
नहीं हैं। वे
सामान्य
व्यक्ति से भी
कम बोधपूर्ण
हो सकते हैं—क्योंकि
वे अपनी
बुद्धि में
बहुत अधिक
संलग्न हैं।
ऐसा हुआ कि
आइंस्टीन बस
से कहीं जा
रहे थे, परिचालक,
कंडक्टर ने
आकर टिकट के
लिए उनसे रुपये
मांगे।
उन्होंने
उसको रुपये दे
दिए। परिचालक
ने आइंस्टीन
को छुट्टे
पैसे वापस किए।
आइंस्टीन ने
उनको गिना और
गिनने में
गलती कर बैठे—जब
कि वे संसार
के महानतम
गणितज्ञ थे—और
उन्होंने कहा
: तुमने मुझको पूरे
पैसे वापस
नहीं किए हैं,
मुझे कुछ
सिक्के और दो।
कंडक्टर
ने पैसे
दुबारा गिने, वह बोला :
क्या आपको अंक—ज्ञान
नहीं है?
उसे पता
नहीं था कि ये
सज्जन
अल्वर्ट
आइंस्टीन हैं।
गणित के
क्षेत्र में
ऐसी महान
प्रतिभा कभी
नहीं हुई।
और
परिचालक ने
कहा : क्या
आपको अंक—ज्ञान
नहीं है?
अंकों
के बारे में
इन सज्जन से
अधिक कभी किसी
ने नहीं जाना, लेकिन
क्या हो गया?
जो लोग
प्रतिभाशाली
होते हैं, लगभग
हमेशा ही वे
भुलक्कड़
होते हैं। वे
अपनी
बुद्धिमत्ता
से इतने अधिक
आसक्त और संचालित
होते हैं कि
बाहर के संसार
की अनेक बातों
में वे
भुलक्कड़ हो
जाते हैं।
मैंने
एक महान
मनोविश्लेषक, एक बेहद
बुद्धिमान
व्यक्ति के
बारे में सुना
है। वह अपने
प्रयोगों में
इतना अधिक खो
गया कि दो या
तीन दिन तक वह
अपने घर ही
नहीं गया।
उसकी पत्नी
चिंतित हुई।
तीसरे दिन वह
और अधिक
प्रतीक्षा न
कर सकी तो उसने
फोन किया और
वह बोली, तुम
क्या कर रहे
हो? वापस
लौटो, मैं
तुम्हारी
प्रतीक्षा कर
रही हूं। और
रात्रि—भोज
तैयार है।
वह
बोला, ठीक
है, मैं आ
जाऊंगा। पता
क्या है?
वह
पूरी तरह से
भूला हुआ था—अपनी
पत्नी, और घर और पता
भी।
बुद्धिमत्ता
अनिवार्यत:
जागरूकता
नहीं है।
जागरूकता
अनिवार्य रूप
से
बुद्धिमत्ता
है। एक
व्यक्ति जो
जागरूक है, बुद्धिमान
होता है; लेकिन
एक व्यक्ति जो
बुद्धिमान है,
उसका
जागरूक होना
आवश्यक नहीं है;
इसकी कोई
अनिवार्यता
नहीं है।
लेकिन दोनों
बहुत पास हैं।
बुद्धिमत्ता
शरीर—मन का
भाग है और
जागरूकता परम
का, पार का,
पुरुष का
अवयव है।
आकाश
पृथ्वी से मिलता
है। वह बिंदु, वह
क्षितिज जहां
आकाश पृथ्वी
से मिलता है, वही बिंदु
है वहां से
तादात्म को
पूर्णत: भंग करना
है—वहां से
जहां
बुद्धिमत्ता
और जागरूकता
मिलते हैं।
दोनों बहुत
समान हैं।
बुद्धिमत्ता
शुद्धीकृत
पदार्थ है, इतना
परिशुद्ध कि
तुम इसमें जा
सकते हो और
कोई सोच सकता
है कि 'मैं
जागरूक हो
चुका हूं।’ इसी कारण से
बहुत से
दर्शनशास्त्री
अपना जीवन
व्यर्थ गंवा
देते हैं, वे
सोचते हैं कि
बुद्धिमत्ता
ही उनकी
जागरूकता है।
धर्म
जागरूकता की
खोज है, दर्शनशास्त्र
बुद्धिमत्ता
की खोज है।
'जब
पुरुष और सत्व
के मध्य
शुद्धता में साम्य
होता है, तभी
कैवल्य
उपलब्ध हो
जाता है।’
लेकिन
कैवल्य कैसे
उपलब्ध हो? पहले
तुम्हें सत्य,
बुद्धिमत्ता
की शुद्धि
उपलब्ध करनी
पड़ेगी। अत: और
गहरे उतरो।
वैखरी है
मूर्तमान
बुद्धिमत्ता,
मध्यमा है
संसार के लिए
नहीं बल्कि
केवल तुम्हारे
लिए मूर्तमान
बुद्धिमत्ता,
पश्यंती है
बीज—रूप में
बुद्धिमत्ता,
और परा है
जागरूकता।
धीरे— धीरे
स्वयं को
विरक्त करो, विवेकपूर्वक
देह को एक
यंत्र, एक
माध्यम, एक
ठिकाने के रूप
में देखना
आरंभ करो, और
तुम इसको
जितना अधिक
संभव हो सके
उतना स्मरण
करो। धीरे—
धीरे यह स्मरण
स्थायी हो
जाता है। फिर
मन पर कार्य
आरंभ कर दो।
स्मरण रखो कि
तुम मन नहीं
हो। यह स्मरण
तुम्हें
भिन्न होने
में सहायता
करेगा।
एक बार
तुम शरीर—मन
से अलग हो जाओ, तुम्हारा
सत्य शुद्ध हो
जाएगा। और
तुम्हारा
पुरुष सदैव
शुद्ध था, बस
पदार्थ के साथ
तादात्म्य के
कारण ही यह
अशुद्ध
प्रतीत हो रहा
था। एक बार
दोनों दर्पण
शुद्ध हो जाएं,
कुछ भी
प्रतिबिंबित
नहीं होता।
दोनों दर्पण
आमने—सामने
हैं, कुछ
भी
प्रतिबिंबित
नहीं हो रहा
है, वे
रिक्त रहते
हैं।
परम
शून्यता की यह
दशा मुक्ति है।
मुक्ति संसार
से नहीं है।
यह तादात्म्य
से मुक्ति है, तादात्म्य
मत करो, किसी
बात के साथ
तादात्म्य मत
करो। सदैव
स्मरण रखो कि
तुम साक्षी हो,
साक्षी के
बिंदु को मत
खोओ, फिर
एक दिन आंतरिक
बोध हजारों
सूर्यों के
साथ उगने की
भांति उदित हो
जाता है।
यही है
जिसको पतंजलि
कैवल्य, मुक्ति कहते
हैं।
इस
शब्द कैवल्य
को समझना
पड़ेगा।
भारत
में विभिन्न
स्हस्यदर्शियों
द्वारा परम
अवस्था के लिए
भिन्न शब्दों
का प्रयोग
किया गया है।
महावीर इसे
मोक्ष कहते
हैं। मोक्ष का
ठीक से अनुवाद
'परममुक्ति'
की भांति
किया जा सकता
है, कोई
बंधन नहीं है,
सारे बंधन
गिर चुके हैं।
बुद्ध ने 'निर्वाण'
शब्द
प्रयुक्त
किया है, निर्वाण
का अभिप्राय
है : 'अहंकार
का मिट जाना।’
जैसे कि तुम
प्रकाश बुझा
दो और बस लौ
विलीन हो जाए,
बस इसी
प्रकार से
अहंकार का
प्रकाश खो जाता
है, तुम्हारा
वजूद मिट जाता
है। बूंद
समुद्र में
विलीन हो गई
है या सागर
बूंद में समा
गया है। यह
विलय हो जाना,
तिरोहित हो
जाना है।
पतंजलि
'कैवल्य'
का प्रयोग
करते हैं, इस
शब्द का
अभिप्राय है 'परम एकांत।’
यह न तो
मोक्ष है और न
निर्वाण।
इसका अर्थ है :
परम एकांत; तुम इस
अवस्था में आ
चुके हो जहां
तुम्हारे लिए
कोई और नहीं
होता। किसी
अन्य का
अस्तित्व नहीं
है, केवल
तुम, सिर्फ
तुम, बस
तुम। वस्तुत:
अपने आपको 'मैं' पुकारना
संभव नहीं है,
क्योंकि 'मैं' का
प्रयोग 'तू
के संदर्भ में
होता है और 'तू मिट चुका
है। तुम मोक्ष
मुक्ति में हो
इसे और अधिक
कहते रहना
संभव नहीं है,
क्योंकि जब
सारे बंधन खो
गए हैं तो
मुक्ति का क्या
अर्थ रह गया? यदि कारागृह
संभव है तो
मुक्ति भी
संभव है। तुम
मुक्त हो
क्योंकि बस
पड़ोस में ही कारागृह
का अस्तित्व
है। तुम कारागृह
के भीतर नहीं
हो, अन्य
लोग हैं जो
कारागृह के
भीतर हैं, लेकिन
सिद्धांतत:
संभवत: किसी
भी दिन तुमको
भी कारागृह
में डाला जा
सकता है। यही
कारण है कि
तुम मुक्त हो,
लेकिन यदि
कारागृह पूरी
तरह से, अत्यंतिक
रूप से, मिट
चुका हो, तो
स्वयं को
मुक्त कहने का
क्या अर्थ रहा।
कैवल्यम्, मात्र
एकांत। लेकिन
याद रखो, इस
एकांत का
तुम्हारे
अकेलेपन से
कुछ भी लेना—देना
नहीं है।
अकेलेपन में
दूसरे का
अस्तित्व, उसका
अनुभव होता है,
उसकी
अनुपस्थिति
का अनुभव किया
जाता है। यही
कारण है कि
अकेलापन एक
उदास घटना है।
तुम अकेले हो,
इसका अर्थ
है. तुम दूसरे
की आवश्यकता
अनुभव कर रहे
हो। एकांत, जब दूसरे की
आवश्यकता
तिरोहित हो
चुकी है। तुम
अपने आप में
पर्याप्त हो,
अपने आप में
परम हो, कोई
आवश्यकता
नहीं, कोई
अभिलाषा नहीं,
कहीं जाना
नहीं। इसीलिए
पतंजलि कहते
हैं : तुम घर आ
गए हो। उनकी
परिभाषा में
यही मुक्ति है,
उनके लिए
यही निर्वाण
या मोक्ष है।
तुम पर
भी झलकियां आ
सकती हैं। यदि
तुम शांत बैठ
जाओ और स्वयं
को अलग कर लो...।
पहले स्वयं को
वस्तुओं से
अलग कर लो।
अपनी आंखें
बंद कर लो, संसार को
भूल जाओ, यदि
उसका
अस्तित्व है
भी तो उसे
स्वप्न की भांति
लो। फिर अपने
विचारों को
देखो और स्मरण
रखो कि तुम
विचार नहीं हो,
वे तैरते
हुए बादल हैं।
अपने आप को
उनसे अलग कर
लो. वे खो चुके
हैं। फिर एक
विचार उठता है
कि तुम अलग हो।
यह पश्यंती है।
उसे भी गिरा
दो, क्योंकि
वरना तुम वहीं
अटक जाओगे।
उसे 'भी
गिरा दो, इस
विचार के भी
बस साक्षी हो
रहो। अचानक
तुम्हारी
शून्यता का
विस्फोट हो
जाएगा। यह
मात्र एक
क्षणांश के
लिए हो सकता
है—लेकिन
तुम्हारे पास
ताओ का, योग
और तंत्र का
स्वाद होगा, तुम्हारे
पास सत्य का
स्वाद होगा।
और एक बार यह
तुम्हें मिल
जाए तो इस तक
पहुंचना
सरलतर और सरलतर
हो जाता है।
इसे होने दो, इसके प्रति
खुले रहो, इसके
लिए उपलब्ध
रहो।
प्रतिदिन यह
और—और सरलतर
हे। जाता है।
जितना अधिक
तुम इस पथ पर
यात्रा करते
हो उतना ही पथ
अधिक
सुस्पष्ट हो
जाता
एक दिन
तुम भीतर जाते
हो और कभी
बाहर नहीं लौटते..
.कैवल्यम्।
यही है जिसको
पतंजलि परम
मुक्ति कहते
हैं। पूरब में
यही लक्ष्य है।
पूरब
के लक्ष्य
पाश्चात्य
लक्ष्यों से
कहीं अधिक ऊपर
पहुंचते हैं।
पश्चिम में
स्वर्ग अंतिम
बात प्रतीत
होती है; पूरब में
ऐसा नहीं है।
ईसाई, मुसलमान,
यहूदी उनके
लिए स्वर्ग
अंतिम बात है;
इसके परे
कुछ भी नहीं
है। लेकिन
पूरब में हमने
और कार्य किया
है, हमने
सत्य में और
गहरी खुदाई की
है। हमने उसे
परम अंत तक
खोदा है, जब
तक अचानक
खुदाई
शून्यता के
सम्मुख न
पहुंच जाए और अब
खोदने के लिए
कुछ न रहे।
स्वर्ग
एक अभिलाषा है, प्रसन्न
रहने की इच्छा
है; नरक एक
भय है, अप्रसन्न
रहने का भय।
नरक है संचित
संताप, स्वर्ग
है हर्ष का
संचय। लेकिन
वे मुक्ति
नहीं हैं।
मुक्ति तब है
जब तुम न पीड़ा
में हो और न
हर्ष में।
स्वतंत्रता
तभी है जब
द्वैत गिरा
दिया गया हो।
स्वाधीनता
तभी है जब न तो
नरक हो और न
स्वर्ग : कैवल्यम्।
तब व्यक्ति
अपनी परम
शुद्धता को
उपलब्ध कर
लेता है।
पूरब
में लक्ष्य
रहा है, और मैं
सोचता हूं कि
इसी को सारी
मानवता का लक्ष्य
होना चाहिए।
आज इतना
ही।
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