योग—सत्र:
बंधकारणशैथिल्यात्प्रचारसंवेदनाच्च
चित्तस्य
परिशरीरावेश:।।
39।।
बंधन
के कारण का
शिथिल पड़ना
और संवेदन—ऊर्जा
भरी
प्रवाहिनियों
को जानना
मन को
पर—शरीर में
प्रवेश करने
देता है।
उदानजयाज्जलपड्ककण्टकादिष्वसड्ग
उत्क्रांतिश्च।।
40।।
उदना—उर्जा
प्रवाहिनी को
सिद्ध करने से, योगी
पृथ्वी से
ऊपर उठ पाता
है। और किसी
आधार, किसी
संपर्क के
बिना पानी,
कीचड़,
कांटों को पार
कर लेता है।
समानजयाज्ज्वलनम्।।
41।।
समान
ऊर्जा
प्रवाहिनी को
सिद्ध करने से,
योगी
अपनी जठर अग्नि
को प्रदीप्त
कर सकता है।
श्रोत्राकाशयों:
संबंधसंयमाद्दिव्यं
श्रोत्रम्।।
42।।
आकाश
और कान के बीच
के संबंध पर
संयम ले आने
से
परा—भौतिक
श्रवण उपलब्ध
हो पाता है।
कायाकाशयो:
संबंधसंयमाल्लधुलूलसमापत्तेश्चाकाशगमनम्।।
43।।
शरीर
और आकाश के
संबंध पर संयम
ले आने से और
साथ ही भार—विहीन
चीजों—
जैसे
रूई आदि से
अपना तादात्म्य
बना लेने से
योगी
आकाशगामी हो
सकता है।
सौ वर्ष पहले
दुनिया के
महानतम
विचारकों में
से एक, फ्रेडरिक
नीत्शे ने यह
घोषणा कर दी
कि परमात्मा
मर गया है।
नीत्शे ऐसी
बात की घोषणा
कर रहा था जो
प्रत्येक
व्यक्ति के
सामने स्पष्ट
होती जा रही
थी। उसने तो
दुनिया के उन
सभी विचारकों
की, विशेषकर
जो लोग
विज्ञान में
उत्सुक थे उन
लोगों के मन
की बात कह दी
थी। क्योंकि
विज्ञान रोज —रोज
तथाकथित
धर्मों के
अंधविश्वास
के विरुद्ध
जीत रहा था—और
विज्ञान की
इतनी अधिक जीत
हो रही थी, विज्ञान
दुनिया पर इस
तेजी से छा
रहा था कि यह
लगभग
सुनिश्चित ही
था कि भविष्य
में परमात्मा
का अस्तित्व
नहीं रह सकता,
धर्म का
अस्तित्व
नहीं बच
सकेगा। इस बात
को पूरी
दुनिया में
अनुभव किया जा
रहा था कि अब
परमात्मा
इतिहास का
हिस्सा हो गया
है, और अब
परमात्मा
म्प्रइजयम
में
लाइब्रेरी में,
किताबों
में रहेगा, लेकिन मानव
चेतना में
नहीं रहेगा।
ऐसा लगने लगा
था जैसे कि
पदार्थ ने
परमात्मा के
साथ अंतिम
निर्णायक
युद्ध जीत
लिया है।
जब
नीत्शे ने यह
घोषणा की कि
परमात्मा मर
गया है, तो उसका
इतना ही मतलब
था कि अब जीवन
किसी रूप में
नियति या
भाग्य का खेल
नहीं रहेगा। जीवन
अब सांयोगिक
घटना है।
क्योंकि
परमात्मा जीवन
को जोड्ने
वाले नियम के
अतिरिक्त और
कुछ नहीं है।
परमात्मा
जीवन को
जोड्ने वाली
एक इकाई है।
परमात्मा वह
ऊर्जा है
जिसने हर चीज
को परस्पर
जोड़ा हुआ है।
परमात्मा वह
परम नियम है जिसने
अव्यवस्था के
बीच
सुव्यवस्था
का निर्माण
किया हुआ है।
अगर
परमात्मा न हो
तो परस्पर
जोड्ने का
नियम भी नहीं
रहेगा, संसार में
फिर से
अराजकता
अव्यवस्था हो
जाएगी, जीवन
एक संयोग
मात्र रह
जाएगा।
परमात्मा के साथ
ही सभी आदेश
समाप्त हो
जाते हैं।
परमात्मा के
साथ ही सभी
नियम और सिद्धांत
और आदेश मिट
जाते हैं। और
परमात्मा के
साथ ही जीवन
को समझने की सारी
संभावना मिट
जाती है। और
परमात्मा के
साथ ही मनुष्य
भी बिदा हो
जाता है।
नीत्शे
ने घोषणा कर
दी कि
परमात्मा मर
गया है और
मनुष्य अब
स्वतंत्र है।
लेकिन सचाई तो
यह है जब
परमात्मा मर
गया है, तो मनुष्य
का अस्तित्व भी
नहीं रह जाता
है। तब तो
मनुष्य एक
पदार्थ मात्र
रह जाता है, इसके
अतिरिक्त और
कुछ नहीं—फिर
मनुष्य की
व्याख्या की
जा सकती है, फिर मनुष्य
कोई रहस्य
नहीं रह जाता,
उसमें कोई
गहराई नहीं रह
जाती, उसका
कोई विराट रूप
नहीं रह जाता,
उसका कोई
अर्थ नहीं रह
जाता, उसका
कोई महत्व
नहीं रह जाता
है —फिर तो
मनुष्य मात्र एक
सांयोगिक
घटना बनकर रह
जाता है। फिर
तो आदमी का
जन्म भी
सांयोगिक
घटना होगी, और मृत्यु
भी सांयोगिक
घटना होगी।
लेकिन
नीत्शे पूरी
तरह से गलत
सिद्ध हो गया।
ऐसा मालूम
होता है कि वह
विज्ञान की
युवावस्था का
युग रहा होगा, उन्नीसवीं
शताब्दी का
समय विज्ञान
के परिपक्व
होने का समय
था। और जैसा
कि प्रत्येक
युवा आत्म —विश्वास
से भरा होता
है, बहुत
ज्यादा
आशावादी होता
है, असल
में तो
मूढ़तापूर्ण
ढंग से
आशावादी होता
है, ठीक
यही अवस्था
विज्ञान की भी
थी।
तिब्बत
में एक कहावत
है कि प्रत्येक
युवा व्यक्ति
वृद्ध आदमी को
मूढ़ मानता है, और
प्रत्येक
वृद्ध आदमी
जानता है कि
सारे युवा मूढ़
हैं। युवा
व्यक्ति तो
केवल मानते
हैं, लेकिन
वृद्ध लोग तो
जानते हैं। उस
समय विज्ञान
युवावस्था
में था, और विज्ञान
को अपने ऊपर
बहुत अधिक
आत्मविश्वास
था। उसने यह
भी घोषित कर
दिया कि
परमात्मा मर
गया है और
धर्म की अब
कोई
प्रासंगिकता
नहीं है वह
अप्रासंगिक
हो गया है।
उन्होंने
घोषणा की कि
धर्म मनुष्य
जाति के बचपन
का हिस्सा था।
फ्रायड ने एक
पुस्तक धर्म
के बारे में
लिखी, ’दि
फ्यूचर आफ एन
इन्यूजन’ —कि
यह मात्र एक
भ्रांति है इल्यूजन
है और सच में
कहीं कोई
भविष्य नहीं
है, कहीं
कोई खूचर नहीं
है।
लेकिन
फिर भी
परमात्मा का
अस्तित्व बना
रहा, और
इन सौ वर्षों
में एक
चमत्कार घटित
हुआ। अगर
नीत्शे वापस
लौटकर आए, तो
वह भरोसा नहीं
कर पाएगा कि
यह क्या हो
गया। विज्ञान
जितना पदार्थ
में गहरा उतरता
गया, उतना
ही उसे समझ
में आने लगा
कि पदार्थ की
कोई सत्ता
नहीं है।
परमात्मा का
अस्तित्व बना
रहा, पदार्थ
की मृत्यु हो
गई।
वैज्ञानिक
शब्दावली से
पदार्थ तो
लगभग बिदा ही
हो गया।
सामान्य भाषा
में उसका
अस्तित्व बना
हुआ है और अगर
ऐसा है भी तो
पुरानी आदत के
कारण, वरना
तो अब पदार्थ
है ही नहीं।
विज्ञान
ने जितनी अधिक
खोज की, जितना वे
गहराई में गए,
उतना ही वे
जानते गए कि
ऊर्जा है
पदार्थ नहीं।
पदार्थ एक
भ्रांति थी।
ऊर्जा इतनी
तीव्रता से
इतनी अदभुत
गति से, बढ़ती
है कि वह ठोस
होने का भ्रम
देती है। वह
ठोसपन मात्र
एक भांति है।
परमात्मा भ्रांति
नहीं है। जगत
का ठोस दिखाई
पड़ना भ्रांति
है। इन
दीवारों का
ठोसपन
अवास्तविक है,
वे ठोस
दिखाई पड़ती
हैं, क्योंकि
ऊर्जा —कण, इलेक्ट्रास
इतनी तीव्र
गति से घूम
रहे हैं कि उनकी
गति देखी नहीं
जा सकती।
जब
बिजली का पंखा
तेजी से चल
रहा होता है, तुमने उस
पर कभी ध्यान
दिया है? जब
पंखा तेज
रफ्तार से चल
रहा होता है, .तब पंखे की
पंखुड़ियां
दिखाई नहीं
पड़ती हैं। और
अगर पंखा सच
में तीव्र गति
से चल रहा हो, जैसे कि
इलेक्ट्रांस
चलते हैं, तो
उस पर बैठा जा
सकता है, और
उस पर से
गिरने की भी
संभावना नहीं
होती, और न
ही कोई गति का
अनुभव होता
है। अगर पंखे
को गोली मारी
जाए तो वह
उसके बीच में
से नहीं निकल
सकती, क्योंकि
गोली की गति
उतनी नहीं
होगी जितनी कि
पंखे की गति
होती है।
ऐसा ही
हो रहा है।
पदार्थ मिट
गया है, अब उसकी कोई
तर्क संगति
नहीं रही है।
लेकिन
फिर भी
विज्ञान ने जो
कुछ खोजा है
वह वस्तुत:
कोई अन्वेषण
नहीं है; वह पुनर्अन्वेषण
है। योग इसके
विषय में कम
से कम पांच हजार
वर्ष पहले से
बात कर रहा
है। योग उस
ऊर्जा को
प्राण कहता है,
यह प्राण
शब्द बहुत
महत्वपूर्ण
है, बहुत
अर्थपूर्ण
है। यह
संस्कृत की दो
मूल धातुओं से
आया है। एक है
प्रा। प्रा का
अर्थ होता है
ऊर्जा की प्राथमिक
इकाई, ऊर्जा
की सर्वाधिक
आधारभूत
इकाई। और ण का
अर्थ होता है
ऊर्जा। प्राण
का अर्थ है
ऊर्जा की सर्वाधिक
आधारभूत
इकाई। पदार्थ
तो केवल सतह पर
है, ऊपर—ऊपर
है। प्राण ही
है जो
वास्तविक है —और
वह वस्तु की
भांति तो बिलकुल
भी नहीं है।
वह वस्तु की
भांति नहीं है
या फिर उसे ना—कुछ
कह सकते हैं —नथिंग।
नथिंग का मतलब
है नो —थिंग।
ना—कुछ का
मतलब है वस्तु
नहीं। ना—कुछ
का अर्थ कुछ
भी न होना
नहीं है; ना
—कुछ का तो
केवल इतना ही
अर्थ है कि वह
कुछ नहीं है, कोई वस्तु
नहीं है। वह
ठोस नहीं है, वह थिर नहीं
है, वह
प्रकट नहीं है,
वह साकार
नहीं है। वह
मौजूद है, लेकिन
फिर भी उसे
छुआ नहीं जा
सकता। वह
मौजूद है, लेकिन
फिर भी उसे
देखा नहीं जा
सकता। वह
प्रत्येक
घटना के साथ
भी है और
प्रत्येक
घटना के पार
भी है। फिर भी
वह सर्वाधिक
आधारभूत इकाई
है, उसके
बाहर नहीं हुआ
जा सकता।
संपूर्ण
जीवन की
आधारभूत इकाई
प्राण ही है।
पेड़ — पौधे, पशु —पक्षी,
कंकड़ —पत्थर
परमात्मा, सभी
अलग — अलग तल पर,
अलग — अलग
समझ लिए गए
हैं, जबकि
वे सभी एक ही
प्राण की
.अभिव्यक्ति
हैं। वही
प्राण अलग —
अलग रूपों में,
अलग— अलग
ढंगों में
अभिव्यक्त
होता है —लेकिन
फिर भी
आधारभूत इकाई
एक ही है। जब
तक तुम स्वयं
के भीतर प्राण
को नहीं जान
लेते, तब
तक परमात्मा
को भी नहीं
जान सकोगे। और
अगर तुम उसे
स्वयं के भीतर
नहीं जान सकते,
तो तुम उसे
बाहर भी नहीं
जान सकते, क्योंकि
भीतर तो वह
तुम्हारे
निकटतम है।
इसीलिए
पतंजलि ने इसे
अल्वर्ट
आइंस्टीन से भी
पांच हजार
वर्ष पूर्व
जान लिया था।
इस बात को
समझने के लिए
विज्ञान के
लिए पांच हजार
वर्ष का समय
काफी लंबा समय
है। लेकिन
विज्ञान ने इस
बात को समझने
के लिए जो भी
प्रयास किए
बाहर — बाहर से
किए। पतंजलि
ने अपने ही अस्तित्व
की गहराई में
डुबकी लगाकर
उसे जाना, उनका वह
आत्मगत अनुभव
था। और
विज्ञान उसे
जानने की
कोशिश
वस्तुगत रूप
से करता रहा।
अगर किसी के
बारे में
वस्तुगत ढंग
से कुछ जानना
चाहा तो फिर
तुमने बहुत
लंबा रास्ता
पकड़ लिया। इसीलिए
विज्ञान को
इतनी देर लगी।
अगर तुम अपने
भीतर उतर जाओ,
तो तुमने
उसे जानने का
सबसे छोटा
मार्ग खोज लिया।
साधारणतया
तो हमें कुछ
पता ही नहीं
है कि हम कौन
हैं? हम
कहां हैं? हम
यहां कर क्या
रहे हैं? लोग
मेरे पास आकर
कहते हैं, ’हम
कौन हैं? हम
किसलिए हैं? हम यहां पर
क्या कर रहे
हैं?’ मैं
उनकी उलझन को
समझ सकता हूं, लेकिन जहां
कहीं भी तुम
हो, और जो
कुछ भी तुम कर
रहे हो, समस्या
तो वही की वही
रहने वाली है —जब
तक कि तुम उस
स्रोत को ही न
जान लो जहां
से तुम आते हो,
जब तक तुम
अपने
अस्तित्व के
उस आधारभूत
ढांचे को ही न
समझ लो, जब
तक तुम अपने
प्राण को, अपनी
ऊर्जा को ही न
जान लो —समस्या
रहने ही वाली
है।
मैंने
सुना है एक
बार ऐसा हुआ
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
खेत में गया
और वहां पर जाकर
उसने अपना
झोला खरबूजों
से भर लिया।
जब मुल्ला खेत
से बाहर आ रहा
था कि इतने
में मालिक आ पहुंचा।
मुल्ला
ने सफाई देते
हुए कहा, ’मैं यहां से
गुजर रहा था, तभी अचानक
तेज हवाएं
चलीं, और
उन हवाओं ने
मुझे उड़ाकर इस
खेत में डाल
दिया।’
मालिक
ने पूछा, ’खरबूजों के
बारे में क्या
कहना है?’
‘हवा
इतनी तेज थी
श्रीमान कि
मेरे हाथ जो
भी चीज लगी
मैंने उसे
कसकर पकड़
लिया। और इसी
कारण खरबूजे
उखड़ गए हैं।’
‘लेकिन
इन खरबूजों को
तुम्हारे
झोले में
किसने डाल
दिया है?’
मुल्ला
ने कहा, ’सच —सच बता
दूं। मैं खुद
भी हैरान हूं
कि आखिर ऐसे हुआ
कैसे।’
यही
हालत हम सब की
है। हम यहां
कैसे आए? क्यों आए? किसने हमें
झोले में डाल
दिया? हर
कोई चकित है।
लोग
कहते हैं, दर्शन —शास्त्र
विस्मय से निर्मित
हुआ है। लेकिन
हमेशा विस्मय
में ही मत जीए
चले जाना, अन्यथा
विस्मय भी एक
तरह की भटकन
हो जाएगी। फिर
कभी पहुंचना
नहीं हो
सकेगा।
विस्मित होते
जाने से बेहतर
है कुछ करने
का प्रयास
करना। तुम यहां
पर हो, इतना
तो सुनिश्चित
है। तुम इस
बात के प्रति
सचेत हो कि तुम
हो, इतना
भी सुनिश्चित
है। अब ये दो
बातें योग के प्रयोगों
के लिए
पर्याप्त
हैं। तुम हो
तुम्हारा
अस्तित्व है।
इस बात के
प्रति तुम
सचेत हो कि
तुम्हारा
अस्तित्व है
और तुम्हारे
भीतर चेतना का
अस्तित्व है।
यह दो बातें
योग के प्रयोगों
के लिए, अपने
जीवन को प्रयोगशाला
बना देने के
लिए पर्याप्त
हैं।
योग को
कार्य करने के
लिए कृत्रिम
और जटिल चीजें
नहीं चाहिए।
योग सरलतम है।
योग के लिए दो
बातें
पर्याप्त हैं
कि तुम हो और
तुम्हारी जागरूकता
है। यह दोनों
बातें तुम में
हैं, प्रत्येक
व्यक्ति के
पास यह दोनों
बातें हैं।
किसी भी
व्यक्ति में
इन दोनों की
कमी नहीं है।
तुम्हारे पास
एक सुनिश्चित
अनुभूति है कि
तुम हो। और
निस्संदेह
तुम उस
सुनिश्चित
अनुभूति के
प्रति सचेत भी
हो। यह दोनों
बातें
पर्याप्त
हैं। इसीलिए
योगियों के
पास कोई
प्रयोगशालाएं
नहीं थीं, कोई
परिष्कृत
उपकरण भी नहीं
थे — और उन्हें
कोई राकफेलर
या फोर्ड से
मिलने वाले किसी
अनुदान की कोई
आवश्यकता
नहीं थी।
उन्हें थोड़े
से ’भोजन
और पानी की
आवश्यकता
होती थी, और
इसी के लिए वे
शहर में
भिक्षा
मांगने के लिए
आते थे, और
फिर कई —कई
दिनों के लिए
अंतर्धान हो
जाते थे। एक
या दो सप्ताह
के बाद वे फिर
भिक्षा
मांगने के लिए
आते, और
फिर अंतर्धान
हो जाते।
योग ने
सबसे बड़ा
प्रयोग किया
है मनुष्य
जाति के
यथार्थ के जगत
का सबसे बड़ा
प्रयोग किया
है। और केवल
दो छोटी सी
बातों को लेकर, लेकिन वे
बातें कोई
छोटी नहीं
हैं। जब कोई
व्यक्ति
उन्हें जान
लेता है, तो
वह सर्वाधिक
विराट घटनाओं
में से एक
घटना है।
तो आज
के सूत्रों के
बारे में जो
सबसे महत्वपूर्ण
बात है, वह है प्राण
का आविष्कार।
यह योग के
मंदिर की आधारशिला
है। हम श्वास
लेते हैं। तो
योग का कहना
है कि हम केवल
वायु को ही
श्वास में
नहीं भर रहे
हैं, हम
प्राण को भी
श्वास में भर
रहे हैं। असल
में वायु तो
प्राण के लिए
एक वाहन मात्र
है, एक
माध्यम मात्र
है। हम केवल
श्वास के
द्वारा जीवित
नहीं रह सकते।
श्वास तो घोड़े
की तरह है, और
हमने अभी तक
घुड़सवार को
जाना ही नहीं
है। उस पर
सवारी करने
वाला प्राण
है। अब बहुत
से मनस्विद इस
रहस्य से
परिचित हो गए
हैं — अब वे उसे
जान गए हैं, जो श्वास पर
सवारी करता
हुआ आता है, श्वास पर
सवारी करता
हुआ जाता है, जो निरंतर
भीतर —बाहर
आता —जाता
रहता है।
लेकिन फिर भी
इसे पश्चिम
में अभी तक
वैज्ञानिक
तथ्य के रूप
में मान्यता
नहीं मिली है।
ऐसा होना
चाहिए, क्योंकि
आधुनिक
विज्ञान का
कहना है कि
पदार्थ का
अस्तित्व
नहीं है, हर
चीज ऊर्जा के
रूप में ही
अस्तित्व
रखती है। चाहे
पत्थर हो या
चट्टान हो सभी
ऊर्जा के रूप हैं,
हम भी वही
ऊर्जा हैं।
इसलिए हमारे
भीतर भी बहुत
सी ऊर्जाओं की
लहरें लहरा
रही हैं।
फ्रायड
का परिचय इस वास्तविकता
से संयोगवशात
हो गया था।
मैं कहता हूं, ’संयोगवशात,
’ क्योंकि
उसकी आंखें
खुली न थीं, उसकी आंखों
पर पट्टी बंधी
हुई थी। वह
कोई योगी न
था। वह फिर से
उसी
वैज्ञानिक
दृष्टि की पकड़
में आ गया जो
प्रत्येक चीज
को विषय —वस्तु
में
परिवर्तित कर
देती है। उसने
इसे ’लिबिडो’
कहकर
पुकारा।
अगर
तुम योगियों
से पूछो तो वे
कहेंगे
लिबिडो का
अर्थ है, रुग्ण —प्राण।
जब प्राण
गतिवान नहीं
होता, जब
प्राण ऊर्जा
रुक जाती है, जब प्राण
ऊर्जा
अवरुद्ध हो
जाती है, इसी
तथ्य को —फ्रायड
ने जाना था।
और फ्रायड की
बात को समझा जा
सकता है, क्योंकि
फ्रायड केवल
रुग्ण लोगों
के साथ, स्नायु
रोगियों, पागलों,
और
विक्षिप्त
लोगों के साथ
काम कर रहा
था। रुग्ण और
मानसिक रूप से
अस्वस्थ
लोगों के साथ
काम —करते वह
यह जान गया कि
उनके शरीर में
कोई रुकी हुई
ऊर्जा है, और
जब तक वह
ऊर्जा
निर्मुक्त
नहीं होती, वे फिर से
स्वस्थ नहीं
हो सकेंगे।
योगियों का
कहना है कि
लिबिडो का
अर्थ है, प्राण
के साथ कुछ
गलत घट गया
है। वह रुग्ण
प्राण है।
लेकिन फिर भी
फ्रायड संयोगवशांत
उस बात से
टकरा गया जो
आगे भविष्य
में बहुत संकेतपूर्ण
हो सकती है।
और
फ्रायड के
शिष्यों में
से एक शिष्य, विलियम
रेक इसमें और
भी गहरे गया।
लेकिन उसे
अमेरिका की
सरकार ने पकड़
लिया, क्योंकि
जो कुछ वह कह
रहा था उसे वह
बहुत वैज्ञानिक
रूप से, बहुत
ठोस वस्तुगत
रूप से
प्रमाणित
नहीं कर सकता
था। वह एक
पागल आदमी की
तरह जेल में
मरा। अमरीकी
सरकार ने उसे
पागल करार दे
दिया था। पश्चिम
में जन्मे अभी
तक के महानतम
व्यक्तियों
में से वह एक
था। लेकिन फिर
वही कि वह आंखों
पर पट्टी
बांधकर काम कर
रहा था। वह
अभी भी कोई ऐसा
कार्य नहीं कर
रहा था जैसा
कि एक योगी
करता है। उसका
कारण उसकी
वैज्ञानिक
दृष्टि थी।
रेक ने
उसी ऊर्जा से
संपर्क बनाना
चाहा था जिसे
योगी प्राण
कहते हैं, और रेक ने
उसे ’ ऑरगान
’ कहा। यह ’ ऑरगान ’ ’लिबिडो
’ से अच्छा
शब्द है।
क्योंकि
लिबिडो शब्द
से कुछ ऐसा
आभास होता है
जैसे काम —
ऊर्जा सब कुछ
है।’ ऑरगान
’ उससे
ज्यादा अच्छा
शब्द है, ज्यादा
विराट है, ज्यादा
व्यापक है, लिबिडो से
कहीं ज्यादा
बड़ा है। ऑरगान
शब्द से ऐसा
आभास होता है,
वह ऊर्जा को
यह संभावना
देता है कि वह
कामवासना के
पार जाए और
स्वयं के
अस्तित्व की
उन ऊंचाइयों
को छू ले जो कि
कामवासना
नहीं है!
लेकिन रेक
स्वयं
मुश्किल में
पड़ गया, क्योंकि
उसने इस बात
को इतना अधिक
अनुभव किया और
उसने इस पर
इतना अधिक
ध्यान दिया कि
वह प्राण
ऊर्जा को, ऑरगान
को डिब्बों
में संचित
करने लगा।
उसने ऑरगान
बाक्सेज
बनाए।
इसमें
कुछ गलत नहीं
है, योगी
तो इस पर
सदियों से काम
करते आए हैं।
इसीलिए योगी
छोटी —छोटी
गुफाओं में
रहते थे। —जो
बाक्स के जैसी
ही होती थीं। गुफा
में केवल एक
छोटा सा
दरवाजा होता
था और कोई
खिड़की या
झरोखा
इत्यादि नहीं
होता था। अब देखने
में तो वे
गुफाएं
स्वास्थ्य के
लिए बहुत ही
हानिप्रद
मालूम पड़ती
हैं — और कैसे
योगी उन
गुफाओं में कई
—कई वहाँ वर्षों
तक रहते रहे? भीतर हवा
जाने का कोई
साधन नहीं था,
क्योंकि
गुफा में कहीं
कोई खिड़की, झरोखे
इत्यादि नहीं
होते थे, क्रास
वेंटिलेशन
बिलकुल भी
नहीं होता था।
वे गुफाएं
एकदम अंधेरे
से, सीलन
से और गंदगी
से भरी होती
थीं—और योगी
उन गुफाओं में
एकदम अच्छे से
और स्वस्थ
जीते थे। यह
एक चमत्कार ही
था।
योगी
वहां क्या कर
रहे थे और वे
कैसे वहा रह
रहे थे? आधुनिक वैज्ञानिक
अवधारणा के
अनुसार तो
उनकी मृत्यु
हो जानी चाहिए
थी, या फिर
उन्हें रुग्ण
लोगों की तरह
उदास और दुखी
होना चाहिए था;
लेकिन योगी
कभी दुखी नहीं
रहे। बल्कि
योगी एक सामान्य
आदमी की
अपेक्षा कहीं
अधिक प्राण —ऊर्जा
से भरे हुए
ओजस्वी और
तेजस्वी थे।
ऐसा क्यों था?
वे क्या कर
रहे थे? उनके
साथ क्या हौ
रहा था? वे
ऑरगान
निर्मित कर
रहे थे —और
ऑरगान को एक
सुनिश्चित
स्थान में
रहने देने के
लिए क्रास
वेंटिलेशन, वायु की
आवश्यकता
नहीं होती; असल में तो
क्रास
वेंटिलेशन
ऑरगान को
एकत्रित होने
ही न देगा, क्योंकि
अगर वहां पर
हवा होती है
तो ऑरगान ऊर्जा
तो घुड़सवार की
तरह है —वह हवा
पर सवार होकर
बाहर निकल
जाती है।
इसलिए किसी
तरह के द्वार —दरवाजों
की आवश्यकता
नहीं होती थी;
किसी भी तरह
से वायु नहीं
आनी चाहिए; तब ऑरगान की
पर्तों पर
पर्तें
एकत्रित होती
चली जाती हैं
और उससे
व्यक्ति का
विकास होता है,
और उस ऑरगान
के आधार पर वह
जीवित रह सकता
है।
विलियम
रेक ने छोटे —छोटे
ऑरगान
बाक्सेज बनाए
थे, और
उनके माध्यम
से उसने बहुत
से त्त्वा
लोगों की मदद
भी की थी। वह
रोगी से कहता
था, ऑरगान
बाक्स में लेट
जाओ और वह
बाक्स को बंद
कर देता था और
उस बाक्स में
वह रोगी को आराम
करने के लिए
कहता था। और
एक घंटे के
बाद जब
व्यक्ति उससे
बाहर आता, तो
अपने को अधिक
प्राणवान, जीवंत,
रोएं —रोएं
में ऊर्जा के
प्रवाह को
अनुभव करता
था। और बहुत
से लोगों ने
कहा भी कि
ऑरगान बाक्स
के साथ थोड़े
से प्रयोग के
बाद उनकी
बीमारिया
गायब हो गईं।
ऑरगान
बाक्स इतना
प्रभावशाली
और इतना असरकारी
था कि देश के
कानून की फिकर
किए बिना
विलियम रेक ने
उनको विशाल
पैमाने पर
बनाकर बेचना
शुरू कर दिया।
अंत में फूड
और ड्रग विभाग
वालों ने उसे
पकड़ लिया, और उसे
अपनी बात को
प्रमाणित
करने के लिए
कहा गया।
अब इस
बात को
प्रमाणित
करना थोड़ा
कठिन है, क्योंकि
ऊर्जा दिखाई
तो देती नहीं
है। ऊर्जा किसी
को दिखायी
नहीं जा सकती
है। उसे तो
अनुभव किया जा
सकता है, और
यह एक बहुत ही आंतरिक
अनुभव है।
अलबर्ट
आइंस्टीन से
किसी ने नहीं
कहा इलेक्ट्रान
दिखाने के लिए, लेकिन
फिर भी उसकी
बात पर भरोसा
किया गया, क्योंकि
लोगों ने
हिरोशिमा और
नागासाकी को देखा
है। उसके
परिणाम को
देखा जा सकता
है, कारण
को नहीं देखा
जा सकता। अब
तक किसी ने भी
अणु को नहीं
देखा है, फिर
भी अणु है, क्योंकि
उसके परिणाम
को देखा जा
सकता है।
बुद्ध
ने सत्य को
परिभाषित
करते हुए कहा
है कि सत्य वह
है जो परिणाम
ले आए। बुद्ध
की सत्य की यह परिभाषा
बहुत ही सुंदर
है। सत्य की
इतनी सुंदर
परिभाषा इसके
पहले और इसके
बाद कभी नहीं
की गई. कि सत्य
वह जो परिणाम
ले आए। अगर
परिणाम ला सके
तो वह सत्य
है।
किसी ने
भी अणु को
देखा नहीं है, लेकिन
फिर भी हमें
उसके
अस्तित्व को
हिरोशिमा और
नागासाकी के
कारण स्वीकार
करना पड़ता है।
लेकिन विलियन
रेक और उसके
रोगियों की
बात किसी ने
नहीं सुनी। और
ऐसे बहुत से
लोग थे जो इस
बात के लिए
प्रमाण—पत्र
देने के लिए
तैयार थे कि ’हम स्वस्थ
हुए हैं, ’लेकिन
ऐसा ही होता
है—और जब कोई
दृष्टिकोण
सामान्य रूप
से स्वीकृत हो
जाता है तो
लोग अंधे हो
जाते हैं।
उन्होंने कहा,
’ये सब लोग
सम्मोहित हो
गए हैं। पहली
तो बात यह है
कि वे बीमार
ही न हुए
होंगे। या फिर
उन्होंने
इसकी कल्पना
कर ली होगी कि
वे स्वस्थ हो
गए हैं। या
फिर यह मान्यता
के अतिरिक्त
और कुछ नहीं
है।’ अब
तुम हिरोशिमा
और नागासाकी
में मर गए
लोगों के पास
जाकर तो यह कह
नहीं सकते कि
’तुम लोगों
ने यह कल्पना
कर ली है कि
तुम मर गए हो’, वे वहा हैं
ही नहीं।
थोड़ा
इस बात को
देखने की
कोशिश करो
जीवन की
अपेक्षा
मृत्यु कहीं
अधिक विश्वसनीय
है। और
वर्तमान
आधुनिक संसार
जीवनोन्मुखी
होने की
अपेक्षा
मृत्योन्मुखी
अधिक है। अगर
कोई व्यक्ति
किसी की हत्या
कर दे, तो
उसकी खबर सभी
अखबारों में
छप जाएगी; वह
सुर्खियों
में छा जाएगा।
लेकिन अगर कोई
व्यक्ति किसी
में नए जीवन
का संचार कर
दे, तो कोई
भी व्यक्ति
इसे कभी नहीं
जान पाएगा। अगर
कोई किसी की
हत्या कर दे
तो उसका नाम
प्रसिद्ध हो
जाएगा, वह
फेमस हो
जाएगा। लेकिन
अगर कोई
व्यक्ति किसी
में जीवन का
संचार कर दे, तो कोई उसके
ऊपर भरोसा न
करेगा। लोग
कहेंगे, तुम
चालाक हो, धूर्त
हो, धोखेबाज
हो।
ऐसा
हमेशा से होता
आया है। किसी
ने जीसस पर भरोसा
नहीं किया, लोगों ने
उन्हें मार ही
डाला। किसी को
सुकरात पर
भरोसा नहीं
आया, लोगों
ने उसकी हत्या
कर दी। लोगों
ने तो ईसप जैसे
निर्दोष और
बाल सुलभ आदमी
की—जो कि एक
प्रसिद्ध
कहानी वाचक था—उस
तक की हत्या
कर दी। उसने
कुछ नहीं किया
था, उसने
कभी कोई धर्म
या दर्शन—शास्त्र
खड़े नहीं किए
थे, और वह
किसी के
विरुद्ध कुछ
भी नहीं कह
रहा था—वह तो
बस थोड़ी सी
सुंदर नीति—कथाओं
की रचना कर
रहा था। लेकिन
उन कथाओं ने ही
लोगों को
नाराज और
रुष्ट कर दिया,
क्योंकि उन
कथाओं के
माध्यम से वह
इतने सीधे —सरल
ढंग से
सच्चाइयों की
अभिव्यक्ति
कर रहा था कि
उसका कत्ल कर
दिया गया।
हम उन
लोगों की किसी
न किसी तरह से
हत्या कर देते
हैं, जो
जीवन के प्रति
विधायक हैं, जिनका जीवन
के प्रति
स्वीकार भाव
है, जो
जीवन को आगे
बढ़ाते हैं, जीवन में
वृद्धि करते
हैं, जीवन
में कुछ नया
जोड़ते हैं। हम
उनसे प्रमाण—पत्रों
की मांग करते
हैं, उनसे
प्रूफ मांगते
हैं।
अगर
कोई मेरे पास
आकर मुझसे
पूछे कि मैं यहां
क्या कर रहा हूं, तो यह
बताना बहुत
कठिन होगा।
अगर मैं
उन्हें अपना
प्रमाण दू तो
वे कहेंगे कि
तुम पागल हो
गए हो। अब यह
बात जरा सोचने
जैसी है। अगर
कोई मेरे
विरोध में है,
तो लोग उसका
भरोसा कर
लेंगे; अगर
कोई मेरे पक्ष
में है, तो
वे उसका भरोसा
नहीं करेंगे।
अगर कोई विरोध
में है—तो
चाहे वह कितना
ही मूढ़ क्यों
न हो—वे उसके
साथ किसी
विवाद में न
पड़ेंगे। वे
कहेंगे, ठीक
ही कह रहा है।
और अगर कोई
मेरे साथ है
और मेरे पक्ष
में है —तो
चाहे वह कितना
ही बुद्धिमान
क्यों न हो—वे
उस पर हंसेंगे,
उसका मजाक
उडाके, और
जान करके
कहेंगे, मुझे
पता है, तुम
सम्मोहित हो
गए हो।
जरा डा
फडनीस से पूछो; लोग उनसे
कहते हैं कि
वे सम्मोहित
हो गए हैं।
यही
तर्क का दुष्चक्र
है। अगर मैं
तुम्हें
आश्वस्त कर
दूं, तो
तुम सम्मोहित
मालूम पड़ते हो;
अगर मैं
तुम्हें
आश्वस्त न कर
पाऊं, तो
मुझे गलत समझा
जाता है। तो
हर ढंग से मैं
गलत ही सिद्ध
होता हूं। अगर
कोई आश्वस्त
है..
ऐसा
हुआ था।
स्वभाव यहां
पर हैं। अभी
कुछ साल पहले
वे अपने दो
भाइयों के साथ
यहां आए थे, वे तीनों
भाई मेरे साथ
वाद—विवाद
करने के लिए
आए थे। और उन
तीनों में स्वभाव
सबसे अधिक
विवादी थे; लेकिन फिर
भी स्वभाव
ईमानदार और
सीधे —सरल
आदमी हैं।
धीरे — धीरे
स्वभाव के
संदेह दूर हो
गए। वह दूसरे
दो भाइयों के
साथ अगुआ बन
कर आए थे, फिर
वे ही टिक गए।
तो दूसरे
दोनों भाई
उनके विरोधी
हो गए। अब वे
कहते हैं कि
स्वभाव
सम्मोहित हो
गए हैं। उन
दोनों भाइयों
ने आना बंद कर
दिया, वे
मेरी बात नहीं
सुनेंगे। अब
वे भयभीत हैं
कि अगर स्वभाव
सम्मोहित हो सकता
है, तो वे
भी सम्मोहित
हो सकते हैं।
अब वे बचते हैं,
और अपने
बचाव के लिए
उन्होंने एक
सुरक्षा का उपाय
खोज लिया है।
अगर
मैं दूसरे भाई
का संदेह दूर
कर सकता हूं —क्योंकि
मैं जानता हूं
कि एक अब भी
मान सकता है —तब
जो एक भाई बच
रहेगा वह और
भी अधिक
सुरक्षा के उपाय
खोजेगा, और फिर वह
कहेगा, दो
भाई तो गए काम
से। और वह जो
एक भाई बचा है,
वह भी एक
अच्छे दिल का
इंसान है, उसके
लिए भी
संभावना है।
तब तो पूरा का
पूरा परिवार
यही सोचेगा कि
तीनों पागल हो
गए हैं। इसी
तरह से चीजें
चलती जाती
हैं। अगर तुम
अपनी बात
स्वीकृत नहीं
करवा सकते, मनवा नहीं
सकते तो तुम
गलत हो, अगर
तुम करवा सकते
हो, तो भी
तुम गलत हो।
तो
बहुत से लोग
जो बुद्धिमान
थे —उनमें पी एच.
डी थे, प्रोफेसर
थे, मनस्विद
थे —जिनके पास
प्रमाण —पत्र
थे —लेकिन फिर
भी न्यायालय
ने उन लोगों
की नहीं सुनी।
उन्होंने कहा
कि इन लोगों की
आपस में साजिश
है। यह लोग
षड्यंत्रकारी
हैं। पहले
हमें दिखाओ कि
वह ऑरगान
ऊर्जा है कहा;
बाक्स
खोलकर हमें
दिखाओ कि वह
कहा है। यह तो
एक साधारण सा
बाक्स है, इसमें
तो कुछ भी
नहीं है। और
तुम इसे बेच
रहे हो, लोगों
को धोखा दे
रहे हो, उनके
साथ छल—कपट और
चालबाजी कर रहे
हो।
विलियम
रेक की मृत्यु
जेल में हुई।
ऐसा जान पड़ता
है कि मनुष्य —जाति
अपने अतीत के
इतिहास से कभी
कुछ नहीं सीखेगी, वह उसी
बात की
पुनरावृत्ति
बार —बार करती
रहेगी।
आखिर
प्रेम का इतना
विरोध क्यों
है? क्योंकि
ऑरगान ऊर्जा
प्रेम ऊर्जा
है। लोग जीवन
के इतने विरोध
में क्यों हैं?
और मृत्यु
के इतने पक्ष
में क्यों हैं?
हमारे भीतर
कोई चीज ऐसी
है जो विकसित
नहीं हुई है।
हम इतने ऊर्जा
—विहीन, इतने
बेजान हो गए
हैं कि हमें
भरोसा ही नहीं
आता है कि
जीवन में कुछ
श्रेष्ठ
संभावनाएं भी
हैं। और अगर
कोई उस ऊंचाई
को उपलब्ध हो
जाता है, तो
हमें भरोसा
नहीं आता कि
ऐसा भी संभव
हो सकता है।
हमें इनकार
करना ही पड़ता
है। क्योंकि
यह बात हमारे
लिए अपमानजनक
है।
अगर
मैं कहूं कि
मैं भगवान हूं, तो यह बात
तुम्हारे लिए
अपमानजनक हो
सकती है। मैं
तो इतना ही कह
रहा हूं कि
तुम सब भी
भगवान हो सकते
हो, उससे
कम पर कभी
राजी मत होना।
लेकिन
तुम अपमानित
अनुभव करने
लगते हो। और
ध्यान रहे हम
अपनी
संभावनाओं का
केवल दो
प्रतिशत
हिस्से का ही
उपयोग करते
हैं; हमारी
संभावनाओं का
अट्ठानवे
प्रतिशत हिस्सा
तो व्यर्थ ही
जा रहा है। यह
तो ऐसे ही
जैसे जीने के
लिए सौ दिन
मिले हों और
हम केवल दो
दिन जीकर ही
मर गए। यहां
तक कि बड़े —बड़े
विचारक, चित्रकार,
संगीतकार
और
प्रतिभाशाली
लोग भी अपनी
संभावनाओं का
पंद्रह
प्रतिशत
हिस्सा ही
उपयोग करते
हैं।
अगर
व्यक्ति अपनी
परम ऊर्जा को
उपलब्ध हो जाए, तो वह
भगवान हो जाता
है।
मैं एक
कथा के माध्यम
से समझाना
चाहूंगा.
कोहेन
की भेंट अचानक
लेवी इसाकस से
हो गई, जो
कि बेहद उदास
दिखाई पड़ रहा
था। उसने पूछा,
’क्या बात
है?’
खामोश
रहने वाला
इसाकस बोला, ’मेरा
दीवाला निकल
गया है, मेरा
काम — धंधा
ठप्प हो गया
है।’
कोहेन
बोला, ’ओह,
ऐसा है
क्या। अच्छा
तो तुम्हारी
पत्नी के नाम
जो जमीन —जायदाद
है, उसका
क्या हुआ?’
‘मेरी
पत्नी के नाम
कोई जमीन—जायदाद
नहीं है।’
‘अच्छा
तो तुम्हारे
बच्चों के नाम
जो जमीन—जायदाद
है, उसका
क्या हुआ?’
‘मेरे
बच्चों के नाम
कोई जमीन —जायदाद
नहीं है।’
कोहेन
ने लेवी के कंधे
पर हाथ रखते
हुए कहा, ’लेवी, तुम
बहुत गलत सोच
रहे हो।
तुम्हारा
दीवाला नहीं
निकला है, तुम
बर्बाद हो गए
हो।’
अभी जहां
पर तुम खड़े हो
वहां पर
तुम्हारी ऐसी
ही अवस्था है.
तुम्हारा
केवल दीवाला
ही नहीं निकला
है, तुम
बर्बाद भी हो
गए हो। अगर
तुम प्राणवान
नहीं होते, अगर तुम फिर
से अपने
प्राणों को और
ऊर्जा को प्रज्वलित
नहीं करते, तो तुम
बर्बाद ही हो—और
तुम इस मिथ्या
विचार के साथ
भ्रम में ही
जीते रहोगे कि
तुम जिंदा हो।
और चूंकि
तुम्हें अपने
आसपास के
लोगों का, भीड़
का समर्थन
प्राप्त है, क्योंकि वे
भी उतने ही
निष्प्राण हैं
जितने कि तुम,
इसीलिए तुम
सोचते हो कि
ऐसा ही होता
होगा, यही
नियम है। ऐसा
नियम नहीं है।
धर्म
की यात्रा का
प्रारंभ केवल
तभी होता है जब
कोई इस सूत्र
को समझ लेता
है कि जो कुछ
भी कर रहा है
वह अभी कुछ भी
नहीं है। जीवन
का स्वर्णिम
अवसर खोया जा
रहा है। जब तक
अपने भीतर के
परमात्मा का
अनुभव नहीं कर
लो, किसी
भी बात से
संतुष्ट मत हो
जाना। यह ठीक
है, रात्रि
के विश्राम के
लिए कहीं ठहर
जाओ, लेकिन
सुबह होते ही
फिर चल पड़ना।
परमात्मा को ही
अपने जीवन की
कसौटी मानना,
इससे कम पर
राजी मत होना।
और स्मरण रहे
कि तुम्हारी
भगवत्ता ही
तुम्हारी
संतृप्ति हो
सकेगी।
और जिस
दिन तुम खिल
उठते हो, तुम्हारे
प्राण खिल
उठते हैं, तुम
भगवान हो जाते
हो। अभी तो
तुम्हारे
प्राण पृथ्वी
पर घिसट रहे
हैं—खड़े होकर
चल भी नहीं पा
रहे हैं।
मैंने
सुना है, एक भिखारी
ने एक मकान का
द्वार
खटखटाया।
मकान मालकिन ने
दरवाजा खोला।
जैसे ही
दरवाजा खुला,
भिखारी ने
एकदम
साष्टांग
प्रणाम किया।
वह उस स्त्री
के चरणों पर
पूरी
तरह से गिर
गया। वह
भिखारी मजबूत, तंदरुस्त,
स्वस्थ और
युवा आदमी था।
स्त्री बोली,
’यह आप क्या
कर रहे हैं? आप लोगों के
चरणों पर झुक—झुककर
अपनी शक्ति को
क्यों व्यर्थ
नष्ट कर रहे
हैं। आप कुछ
काम क्यों
नहीं करते। आप
लोगों के
चरणों में गिर
—गिरकर भीख
क्यों मांगते
हैं?’ उस
भिखारी ने
स्त्री की तरफ
देखा और बोला,
’देवी, मैं
वैज्ञानिक मन
का आदमी हूं।
मैं अल्काबेटिकली
चलता हूं,
मैं वर्णमाला
के अनुसार
चलता हूं।’
स्त्री
बोली, ’वर्णों
के कम से आखिर
आपका मतलब
क्या है?’
भिखारी
बोला, ’आस्किंग—ए।
बेगिग—बी।
क्रालिग—सी।
वर्क इज वेरी —वेरी
फॉर अवे! वर्क
तो अल्फाबेट
में बहुत दूर पड़ता
है!’
अल्फाबेटिकली!
इतने
अल्फाबेटिकली
मत बनो।
अगर
तुम अपने प्राणों
को केवल
कामवासना के
उद्देश्यों
के लिए
प्रयुक्त कर
रहे हो, तो तुम
पृथ्वी पर
रेंग रहे हो।
जब तक कि
ऊर्जा सहस्रार
तक न पहुंचे, जब तक ऊर्जा
प्राणों के
शिखर तक ही न
पहुंचे, तुम
आकाश में उड़ान
नहीं भर सकते।
तब तक कैद में
रहोगे, बंधन
में रहोगे और
हमेशा दुखी, पीड़ित ही
रहोगे। आनंद
तो केवल तभी
है जब उड़ान आकाश
में हो। आकाश
खुला, विराट,
और असीम हो
जब तभी आनंद
है। जब
व्यक्ति अपने
अस्तित्व की
परम ऊंचाई को
अपने
आत्यंतिक
शिखर को छू
लेता है तभी
आनंद है।
अब
सूत्र।
‘बंधन
के कारण का
शिथिल पड़ना
औरं संवेदन —ऊर्जा
भरी प्रवाहिनियो
को जानना मन
को पर—शरीर
में प्रवेश
करने देता है।’
‘बधकारणशैथिल्यात्।
बंधन के कारण
का शिथिल पड़ना.......।’
बंधन
का कारण क्या
है? तादात्म्य।
अगर शरीर के
साथ
तादात्म्य
स्थापित हो
जाए, तो
शरीर से बाहर
निकलना नहीं
हो सकता। जहां
—जहां
तादात्म्य
स्थापित हो
जाता है, वहीं
—वहीं बंधन हो
जाता है। अगर
तुम सोचते हो
कि तुम शरीर
हो, तो यह
सोचना ही
तुम्हें वह न
करने देगा, जिसे केवल
तभी किया जा
सकता है जब कि
तुम जान लो कि
तुम ’ शरीर
नहीं हो। अगर
तुम सोचते कि
तुम मन हो, तो
मन ही एकमात्र
संसार बन जाता
है, फिर
तुम मन के पार
नहीं जा सकते।
तुमने
एक खास किस्म
की भाषा सीख
ली है —और उसी
भाषा के
द्वारा तुम
सभी अनुभवों
की व्याख्या
करते चले जाते
हो। फिर अगर
तुम्हें ऐसा व्यक्ति
भी मिल जाए जो
शरीर के पार
चला गया हो, तो तुम
उसके अनुभवों
को भी अपने
अनुभव के तल पर
ले आओगे। तुम
अपने ढंग से
ही उसकी
व्याख्या
करोगे। अगर
तुम्हें
बुद्ध भी मिल
जाएं, तो
तुम्हें उनका
बुद्धत्व
दिखाई नहीं
पड़ेगा, तुम्हें
केवल उनका
शरीर दिखाई
पड़ेगा। क्योंकि
हम केवल वही
देख सकते हैं
जो हम स्वयं
हैं। हम उससे
अधिक कुछ नहीं
देख सकते। हम
ही अपनी सीमा
हैं, हम ही
अपना बंधन
हैं।
स्मरण
रहे, क्षुद्र
चीजों के साथ
तादात्म्य
स्थापित मत करना।
ऐसे
बहुत से लोग
हैं जो केवल
खाने के लिए
ही जी रहे
हैं। वे जीने
के लिए नहीं
खाते हैं, वे खाने
के लिए जीते
हैं। और वे
खाते ही रहते
हैं, खाते
ही चले जाते
हैं। वे बस
भोजन ही बन
जाते हैं और
कुछ नहीं। वे रेफ्रिजरेटर
की तरह भोजन
को अपने में
भरते चले जाते
हैं। और वे
निरंतर खाते
चले
जाते हैं और
वे सोचते भी
नहीं हैं, कि वे कर
क्या रहे हैं?
भोजन ही
उनका एकमात्र
जीवन होता है—फिर
अगर पूरा जीवन
नीरस हो जाए
तो कोई खास
बात नहीं है।
एक बार
मुल्ला
नसरुद्दीन
बीमार पड़ गया।
उसकी पत्नी ने
पूछा, ’क्या
मैं डाक्टर को
बुला लाऊं?
मुल्ला
बोला, ’नहीं,
पशुओं के
डाक्टर को
बुलाओ।’
मुल्ला
की पत्नी बोली, ’आप कहना
क्या चाहते
हैं? आप
पागल हो गए
हैं या फिर
आपको बुखार
बहुत तेज चढ़ा
हुआ है? आप
पशुओं के डाक्टर
को ही क्यों
बुलाना चाहते
हैं?’
मुल्ला
बोला, ’मैं
पशुओं की तरह
ही जी रहा
हूं। मैं
खच्चर की भांति
काम में जुटा
रहता हूं,
मुझे लगता है
जैसे मैं गधा
हूं और मैं
गाय के साथ
सोता हूं। तुम
पशुओं के
डाक्टर को ही
बुलाओ, मैं
कोई आदमी थोड़े
ही हूं। केवल
पशुओं का डाक्टर
ही मेरी हालत
को समझ सकता
है।’
थोड़ा
अपने ऊपर
ध्यान दो, अपना
निरीक्षण करो
कि तुम अपने
साथ क्या कर
रहे हो? बस,
जैसे —तैसे
जीवन को
व्यतीत कर रहे
हो। बस, भोजन
से स्वयं को
भर रहे हो, या
फिर ज्यादा से
ज्यादा
कामवासना के
आसपास चक्कर
काट रहे हो या
स्त्री या पुरुषों
के पीछे भाग
रहे हो।
एक
बहुत ही
प्यारी
स्त्री ने मुझ
से पूछा है, ’भगवान, मैं अकेली
रहूं या मैं
पुरुषों के
पीछे भागती रहूं?’
वह
स्त्री अपने
यौवन को पार
कर चुकी है, उसका
यौवन बीत चुका
है। अब तो
अकेले और
आनंदित रहने
का समय है, अब
तो पुरुषों के
पीछे भागना
मूढ़ता ही
होगी। तो
मैंने उससे
कहा कि’ अब
इसकी कोई
जरूरत नहीं।’
लेकिन
पश्चिम में
ऐसी अड़चन है
कि एक वृद्ध
स्त्री को भी
युवा होने का
दिखावा करना
पड़ता है। और
वे पुरुषों के
पीछे भागती
रहती हैं, क्योंकि
वहां पर केवल
यही उनका जीवन
है। अगर पश्चिम
में स्त्री या
पुरुष की
कामवासना
तिरोहित हो
जाती है, तो
वे लोग समझने
लगते हैं कि
अब जीवन का
कोई अर्थ नहीं
है, क्योंकि
अब किसके लिए
जीना? उनके
लिए जीवन का
अर्थ केवल
स्त्री —पुरुष
के पीछे भागना
ही है।
उस
स्त्री को बात
समझ आई। जब
तुम मेरे निकट
होते हो, तो किसी भी
चीज को समझना
बहुत आसान
होता है।
लेकिन जब तुम
दूर चले जाते
हो, तो
समस्याएं फिर
लौट आती हैं, क्योंकि वह
समझ आने का
कारण मैं ही
था। मैं तुम
पर आविष्ट हो
गया था, मेरे
प्रकाश में
तुम बहुत सी
चीजों को
आसानी से देख
सकते हो।
दूसरे
दिन उसने पत्र
लिखा, ’भगवान,
आपने ठीक
कहा। मुझे
किसी के पीछे
नहीं भागना
चाहिए। लेकिन
आकस्मिक घटित
होने वाले
प्रेम
संबंधों के
बारे में मैं
क्या करूं?’
तुम
फिर से वहीं
पहुंच जाते
हो। रेंगो मत, उठकर खड़े
हो जाओ।
उपनिषद
कहते हैं, उत्तिष्ठ:
जागृत
प्राप्य
वरन्नी
बौधयात्! उठो,
जागृत हो
जाओ। क्योंकि
जाग्रत होना
ही उठने का, ऊपर उठने का
और ऊंची उड़ान
लेने का
एकमात्र उपाय
है।
बंधन
का कारण
तादात्म्य
है।
सूत्र
कहता है, ’बंधन के
कारण का शिथिल
पड़ना.....।’
अगर
तुम स्वयं को
अपने शरीर से
थोड़ा सा भी
निर्मुक्त कर
सको, शिथिल
कर सको, और
मन से
अलग हटा सको, तो तुम एक
विराट अनुभव
को प्राप्त हो
जाओगे। और वह
अनुभव है : तुम
दूसरे के शरीर
में प्रवेश कर
सकते हो।
लेकिन
यह विराट
अनुभव क्यों
है? क्योंकि
अगर हम दूसरे
के शरीर में
प्रवेश कर सकें,
तो शरीर से
तादात्म्य
हमेशा के लिए
समाप्त हो जाता
है। तब इस बात
का बोध हो
जाता है, कि
इससे पहले भी
हम बहुत से
शरीरों में
प्रवेश कर
चुके हैं, इससे
पहले भी हम कई
शरीरों में रह
चुके हैं। उस
समय भी हमने
प्रेम किया, प्रेम की
पीड़ा उठाई, घृणा की, और
भी न जाने किन—किन
परिस्थितियों
में से गुजरे;
लेकिन जब
शरीर के बाहर
आकर हम यह सब
देखते हैं, तो फिर कोई
सा भी शरीर हो,
हम शरीर से
ऊपर उठकर पूरा
खेल देख सकते
हैं।
अगर
तुम्हारा
शरीर के साथ
अत्यधिक
तादात्म्य न
हो, ’और
शरीर के साथ
किसी तरह का
बंधन न हो, तो
इसके लिए
प्रयास कर
सकते हो।
इसी
भांति मृत
शरीर में
प्रवेश किया
जा सकता है।
बुद्ध अपने
शिष्यों को
मरघट पर भेजा
करते थे। सूफी
लोगों ने इस
विधि पर बहुत
काम किया है, वे मरघट
में रहते थे।
लोग लाशों को
लेकर आते, और
जब किसी शरीर
को जलाया जाता,
तो वे उस
शरीर में
प्रवेश करने
का प्रयास
करते। अगर तुम
दूसरे के शरीर
में प्रवेश कर
सको, तो यह
बिलकुल
स्पष्ट दिखाई
पड़ जाता है कि
शरीर तो मात्र
एक घर है, जहां
कि हम रहते
हैं। अगर
तुम्हारा
अपना मकान हो
और तुम हमेशा
से उसी में
रहते आए हो, तो धीरे —
धीरे उस मकान
के साथ
तादात्म्य
स्थापित हो जाता
है। तुम सोचने
लगते हो कि
मैं मकान हूं।
लेकिन अगर तुम
अपने किसी
मित्र के घर
चले जाओ, तो
तुम्हें इस
बात का अहसास
होगा कि तुम
मकान नहीं हो,
तुम्हारा
घर तो पीछे
छूट गया है, तुम अब
दूसरे के घर
में हो। तुब
दृष्टि एकदम साफ
हो जाती है।
और यह
जो तादात्म्य
है, अगर
यह दिखाई पड़ने
लगे, तो
धीरे — धीरे
उसमें
शिथिलता आने
लगती है, फिर
धीरे — धीरे
तादात्म्य कम
होने लगता है।
तो तादात्म्य
का शिथिल होना
या कम होना भी
साधक के लिए
बहुत सहयोगी
है। अगर
व्यक्ति अपने
बंधनों को शिथिल
कर दे, अपने
बंधनों को खोल
दे, तो भी
वह दूसरों के
लिए बहुत गहरे
में सहयोगी हो
सकता है।
शक्तिपात की
विधियों में
से एक विधि यह
भी है।
जब कभी
कोई सदगुरु
अपने किसी
शिष्य की मदद
करना चाहता है, उसके
ऊर्जा के
प्रवाह को, ऊर्जा के
मार्ग को
निर्बाध करना
चाहता है —अगर
शिष्य की
ऊर्जा का
प्रवाह
अवरुद्ध हो
गया है—तो
सदगुरु उस पर
उतर आता है, उस पर छा
जाता है। और
सदगुरु की
विराट ऊर्जा,
जो शुद्ध और
असीम होती है,
शिष्य की
ऊर्जा में
प्रवाहित
होने लगती है।
और शिष्य की
ऊर्जा जो
अवरुद्ध हो गई
थी, वह फिर
से प्रवाहित
होने लगती है।
तब शिष्य की
ऊर्जा अपने से
गतिमान होने
लगती है। यही
है शक्तिपीत
की. संपूर्ण
कला। अगर
शिष्य सच में
सद्गुरु के प्रति
समर्पित हो, तो सदगुरु
शिष्य पर छा
जाता है, उसे
अपनी ऊर्जा से
चारों ओर से
.घेर लेता है, उस पर
आविष्ट हो
जाता है।
और अगर
एक बार शिष्य
में सदगुरु की
ऊर्जा प्रवाहित
हो जाती है, सदगुरु
के ’प्राण’
शिष्य के
आसपास छा जाते
हैं, शिष्य
में उतर आते
हैं, तो
फिर शिष्य की
यात्रा बहुत
आसान हो जाती
है। जो काम वह
वर्षों में
नहीं कर सकता,
जिस काम को
करने में उसे
कई वर्ष लग
जाएंगे, क्योंकि
वह इस पर काम
करता रहेगा, करता रहेगा...
क्योंकि काम
कठिन है, मार्ग
में बहुत से
अवरोध हैं, बहुत सी
बाधाएं हैं; वे कई —कई
जन्मों से
एकत्रित होती
जा रही हैं; और ऊर्जा
बहुत थोड़ी है,
बहुत ही
अल्प है, कहना
चाहिए, ऊर्जा
की थोड़ी सी
बूंदें ही
हैं। वे ऊर्जा
की बूंदें इस
विराट
रेगिस्तान
में फिर —फिर
खो जाती हैं।
वह ऊर्जा बार—बार
अवरुद्ध हो
जाती है।
लेकिन अगर
सदगुरु शिष्य
में निर्झर की
तरह प्रवेश कर
जाए, तो
बहुत सी चीजें
अपने से ही बह
जाती हैं। और
जब सदगुरु
शिष्य से बाहर
आ जाता है, तो
शिष्य एकदम
बदल जाता है —वह
अधिक स्वच्छ,
अधिक युवा,
अधिक ऊर्जा
से भरा हुआ हो
जाता है.. और
उसके सभी ऊर्जा
के मार्ग खुल
जाते हैं। फिर
शिष्य का थोड़ा
सा प्रयास, और वह
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो
सकता है।
जब कोई
सदगुरु किसी
शिष्य के शरीर
में प्रवेश करता
है, तो
वह एक बहुत ही
स्वर्ण अवसर
को, एक बड़ी
संभावना को
छोड़ जाता है।
अगर शिष्य उसका
सदुपयोग कर
सके तो वह
बहुत ही आसानी
से, सीधे —सरल
ढंग से, बिना
किसी प्रयास
के बुद्धत्व
को उपलब्ध हो
सकता है।
ऐसी
कुछ विधियां
हैं ’ उन
विधियों को
सिद्धों की
विधियां कहा
जाता है। वे
अपने शिष्यों
को किसी विशेष
विधि पर कार्य
नहीं करने
देते हैं।
सिद्ध शिष्य
को केवल अपने
निकट बैठने और
प्रतीक्षा
करने के लिए
कहते हैं। उनका
भरोसा सत्संग
में होता है।
और यह
बहुत ही अदभुत
और शक्तिशाली
विधि है, लेकिन
सत्संग के लिए
श्रद्धा और
समर्पण की आवश्यकता
होती है। अगर
थोड़ा सा भी, रंच मात्र
भी संशय भीतर
है तो सत्संग
नहीं हो सकता।
थोडी सी भी
बाधा या
प्रतिरोध हुआ
तो सत्संग
फलित नहीं हो
सकता। उसके
लिए व्यक्ति
को पूरी तरह
से खुला हुआ
और ग्राहक
होना चाहिए।
व्यक्ति को
चंद्र— भाव, स्त्रैण —
भाव में होना
चाहिए, केवल
तभी सदगुरु
अपना कार्य कर
सकता है।
‘बंधन
के कारण का
शिथिल पड़ना और
संवेदन—ऊर्जा
भरी
प्रवाहिनियों
को जानना मन
को पर —शरीर
में प्रवेश
करने देता है।’
इसके
लिए दो बातें
आवश्यक हैं।
पहली तो बात
है, बंधन
का शिथिल होना;
और दूसरी
बात है, जागरूकता,
होश और बोध
कि शरीर को
कहा से छोड़ना
है और फिर कहां
से कैसे वापस
स्वयं के शरीर
में प्रवेश
करना है —और
दूसरे के शरीर
में कैसे
प्रविष्ट
होना है। क्योंकि
अगर यह मालूम
न हो कि कहां
से तुम्हें
अपने शरीर से
निकलना है, तो फिर तुम
वापस शरीर में
प्रवेश नहीं
कर पाओगे।
इसलिए केवल
बंधनों का
शिथिल होना
पर्याप्त
नहीं है; अराने
शरीर के आंतरिक
जगत के प्रति
सजग और जागरूक
होना भी
आवश्यक है।
साधारणतया
तो हम केवल
बाह्य शरीर को
ही, चमड़ी
को ही जानते
हैं। इसी कारण
लोग चमड़ी पर पाऊडर
लगाते हैं, सुगंध लगाते
हैं, इत्र —फुलेल
लगाते हैं। ही,
वही तो है
उनका पूरा
शरीर। वे शरीर
के भीतर छिपी
हुई
प्रक्रिया को
जानते ही नहीं
हैं। उसके प्रति
जागरूक ही
नहीं हैं।
उन्हें केवल
चमड़ी का, ऊपर
की सतह का ही
पता है, जो
कि बाह्य आवरण
के अतिरिक्त
और कुछ नहीं
है। यह तो ऐसे
ही है जैसे
तुम ताजमहल
देखने जाओ और तुम
ताजमहल के
बाहर ही बाहर
घूमते रहो और
बाहर की
दीवारों को
देखकर ही वापस
लौट आओ। या
तुम स्वयं को
दर्पण में
देखो, और
दर्पण तो
मात्र चमड़ी को,
बाहरी
ढांचे को ही
प्रतिबिंबित
करता है; और
तुम उसी बाह्य
आवरण के
साथ ही
तादात्म्य
स्थापित कर
लेते हो। और
सोचने लगते हो, ’मैं यही
हूं।’ लेकिन
तुम वह नहीं
हो। तुम उससे
अधिक हो, उससे
अधिक विराट हो
—लेकिन तुम
भीतर कभी
देखते ही नहीं
हो।
पहले
शरीर के साथ
जो तादात्म्य
बना हुआ है
उसे तोड़ दो, फिर अपनी आंखें
बंद कर लो और
शरीर को भीतर
से अनुभव करने
का प्रयास
करो। शरीर को
भीतर से
स्पर्श करने
का प्रयास करो,
और देखो कि
उसकी भीतरी
अनुभूति कैसी
है। केंद्रित
हो जाओ, और
वहा से चारों
ओर देखो—और तब
समस्त
रहस्यों के पर्दे
तुम्हारे
सामने खुलते
चले जाएंगे।
इसी तरह से
योगी—कहा से
शरीर से बाहर
जाया जा सकता
है और कैसे फिर
से शरीर में
प्रवेश हो
सकता है, और
कैसे दूसरे के
शरीर में
प्रवेश कर
सकते हैं—ऊर्जा
के मार्ग, केंद्र,
नाड़ियों और
ऊर्जा —
क्षेत्रों की
क्रियाओं के
विषय में जान
सके।
इसके
लिए आंतरिक
शरीर विज्ञान
का ज्ञान होना
आवश्यक है।
अगर आंतरिक
शरीर विज्ञान
का ज्ञान न हो, तो इसे
नहीं जाना जा
सकता। ऐसा
बहुत बार हो
चुका है।
इसीलिए
पतंजलि सूत्र
दे देते हैं, उसके
विस्तार में
नहीं जाते, क्योंकि अगर
विस्तार से
व्याख्या हो
जाए तो ऐसे
मूड लोग हैं
जो इसे करने
के प्रयास में
लग जाएंगे।
इसीलिए इन
सूत्रों में
अंतर —विज्ञान
के कोई विवरण
नहीं दिए गए
हैं। इन सूत्रों
को पढ़ने मात्र
से कुछ नहीं
किया जा सकता।
सच तो यह है जो
भी
व्यावहारिक
और वास्तविक
विवरण हैं, उन्हें
तुम्हारे
सामने खोला ही
नहीं गया है।
पतंजलि ने
उन्हें
छिपाकर रखा
है।
वे
विवरण केवल
उनके लिए हैं
जो सदगुरु के
साथ काम कर
रहे हैं।
उन्हें सबके
बीच नहीं कहा
जा सकता है।
क्योंकि कुछ
लोग ऐसे भी
हैं जो जिज्ञासा
से भरे हुए
हैं, और
वे
जिज्ञासावश
इसका प्रयोग
करने लगेंगे और
कभी ऐसा भी
संभव हो सकता
है कि प्रयोग
करते समय वे
शरीर से बाहर
निकल जाएं, लेकिन फिर
वे शरीर के
भीतर प्रवेश
नहीं कर पाएंगे।
या कभी वे
दूसरे के शरीर
में प्रवेश कर
जाएं और फिर
संभव है कि
बाहर न आ
पाएं। तब वे
स्वयं के लिए
और दूसरे के
लिए भी समस्या
खड़ी कर देंगे।
इसलिए
इस बारे में विस्तार
से कुछ नहीं
बताया गया है; सदगुरु
और शिष्य की
अंतरंगता में
ही इन्हें शिष्य
को सौंपा गया
है। यह सूत्र
तो केवल इशारे
मात्र हैं।
‘उदना
ऊर्जा —प्रवाहिनी
को सिद्ध करने,
से योगी
पृथ्वी से ऊपर
उठ पाता है और
किसी आधार, किसी संपर्क
के बिना पानी,
कीचड़, काटो
को पार कर
लेता है।’
जब
पहली बार
एस्किमो जाति
के बारे में
पता चला, तो पता
लगाने वाले यह
जानकर बड़े
हैरान हुए यह कि
बर्फ के लिए
उन लोगों के
पास करीब—करीब
एक दर्जन शब्द
हैं—एक दर्जन!
उन्हें भरोसा
ही नहीं आया
कि एक दर्जन
शब्दों की
जरूरत भी हो
सकती है। ’स्नो
’ शब्द काफी
है। या ज्यादा
से ज्यादा एक
शब्द और हो सकता
है — ’आइस, ’वह फिर भी
ठीक है। लेकिन
एस्किमो
लोगों के पास
बर्फ के लिए
लगभग एक दर्जन
शब्द तो हैं
ही और उससे
अधिक शब्द भी
हो सकते हैं।
वे बर्फ में
ही जीते हैं, बर्फ के
अनेक रंग—रूप
देखते हैं। वे
उसे कई—कई ढंग
से जानते हैं।
जो व्यक्ति
उष्ण—प्रदेश
में रहता है, वह तो इस बात
की कल्पना भी
नहीं कर सकता
कि बर्फ के
लिए एक दर्जन
शब्दों की
क्या
आवश्यकता है।
योगी
लोगों का कहना
है कि व्यक्ति
में प्राण के
पांच भिन्न —भिन्न
रूप, क्रियाएं
और ऊर्जा
क्षेत्र होते
हैं। हम तो
यही कहेंगे कि
श्वास कहना
पर्याप्त है।
हम तो केवल दो
ही बातें
जानते हैं—श्वास
को बाहर छोड़ना,
श्वास को
भीतर लेना—इतना
ही। लेकिन
योगी तो प्राण
के संसार में
जीते हैं। और
वे इसके
सूक्ष्म भेद
को समझते हैं,
इसलिए
उन्होंने
इसको पांच भागों
में विभक्त किया
है। उन पांचों
भागों को समझ
लेना, वे
बहुत
महत्वपूर्ण
हैं। पहला है
प्राण, दूसरा
है अपान, तीसरा
है समान, चौथा
है उदान, पांचवा
है व्यान। यह
व्यक्ति के
भीतर प्राण के
पांच विस्तार
हैं, और
प्रत्येक
भीतर अलग— अलग
काम कर रहा
है।
प्राण
है पहला
श्वसन। दूसरा
है अपान, वह
मलोत्सर्ग
में मदद देता
है, वह मल
आदि शरीर से
निकालने में
मदद करता है।
अंतड़ियों की
सफाई अपान से
होती है। और
अगर तुम जान
लो कि कैसे इस
पर काम करना
है, तो तुम
इस ढंग से
अंतड़ियों की
सफाई कर सकते
हो जैसा कि
कोई और नहीं
कर सकता। योगियों
की आते
सर्वाधिक साफ
होती हैं। और
यह बहुत ही
महत्वपूर्ण
है, क्योंकि
एक बार जब आते
पूरी तरह साफ
हो जाती हैं, जब अंतडिया
एकदम साफ हो
जाती हैं, तो
पूरा शरीर
एकदम हलका, भार विहीन
हो जाता है, जैसे कि उड़.
रहे हो। शरीर
का भार समाप्त
हो जाता है।
साधारणतया
तो अंतड़ियों
में बहुत सा
कचरा और मल
भरा रहता है—जीवनभर
मल की पर्तों
पर पर्तें
चढ़ती चली जाती
हैं।
अंतड़ियों की
भीतरी
दीवारों पर मल
इकट्ठा होता
जाता है, वह सूखता
जाता है और वह
कठोर होता
जाता है। जो भीतर
जहर बनाता
रहता है, उसी
से भारी पन
आता है। अगर
अंतड़ियां साफ
हों, तो यह
पृथ्वी के
गुरुत्वाकर्षण
के प्रति तुम्हें
ज्यादा खोल
देता है। योग
ने पेट की
सफाई पर बहुत
जोर दिया है —ताकि
भीतर कोई
विषैला
पदार्थ न बच
पाए वरना वे
खून में चक्कर
काटते रहते
हैं, और वे
मस्तिष्क में
घूमते रहते
हैं और वे
व्यक्ति के
आसपास एक
विशेष तरह का
ऊर्जा —
क्षेत्र
निर्मित कर
देते हैं। जो
कि बोझिल, उदास,
और कालिमा
लिए होता है।
जब
अंतड़ियां
पूरी तरह से
स्वच्छ और साफ
हो जाती हैं, तो
व्यक्ति के
सिर के चारों
ओर एक प्रकार
का आभा—मंडल
निर्मित हो
जाता है। और
जिन लोगों के
पास भी आंखें
हैं, वे
इसे बड़ी आसानी
से देख सकते
हैं। और जब
अंतड़ियां
पूरी तरह से
स्वच्छ और साफ
हो जाती हैं, तो व्यक्ति
को ऐसा लगता
है जैसे कि
उसको पंख लग
गए हों।
दूसरा
है अपान, मलोत्सर्ग
से संबंधित।
तीसरा
है समान, वह पाचन
शक्ति और शरीर
को ऊष्मा
प्रदान करता है।
अगर तीसरे की
क्रियाशीलता
का ज्ञान हो
जाए, और
इसके प्रति
सजगता आ जाए
कि वह कहां
प्रतिष्ठित
है, तो
पाचन —क्रिया
एकदम ठीक हो
जाती है।
साधारणतया
भोजन तो हम
अधिक कर लेते
हैं, लेकिन
उसे पचा नहीं
पाते। कुछ लोग
हैं कि खाए चले
जाते हैं, और
फिर भी
संतुष्ट नहीं
होते। भोजन
पचे या न पचे, लेकिन कुछ
लोग हैं कि
ठूंस —ठूंस कर
खाते चले जाते
हैं। अगर
व्यक्ति समान का
उपयोग करना
जानता हो, तौ
भोजन की थोड़ी
सी मात्रा भी
भोजन मई अधिक
मात्रा की
अपेक्षा अधिक
ऊर्जा देगी।
इसीलिए
योगी बिना
अपने शरीर को
कोई क्षति पहुंचाए
कई —कई दिन तक
उपवास कर पाते
हैं। कभी—कभी
वे थोड़ा सा
भोजन ले लेते
हैं, और
उस भोजन को
पूरी तरह से
पचा लेते हैं,
उसे
आत्मसात
कर लेते हैं।
तुम्हारा
भोजन तो पूरी तरह
पच भी नहीं
पाता है।
इसीलिए आदमी
का मल दूसरे
जानवरों के
लिए भोजन बन
जाता है और वे
उसे पचा सकते
हैं। उस मल
में बहुत सा
भोज्य —पदार्थ
अभी भी शेष बच
रहता है।
और
तीसरे, समान के
द्वारा ही
शरीर को ऊष्मा
भी मिलती है।
तिब्बत में
समान के आधार
पर ही एक पूरी
पद्धति ही
शरीर ऊष्मा
निर्माण की
विकसित कर ली
है। वे एक
सुनिश्चित
ढंग से, एक
सुनिश्चित
लयबद्धता में
श्वास लेते
हैं, जिससे
समान की ऊष्मा
किरणें शरीर
के भीतर एक
विशेष ढंग से
कार्य कर
सकें। और उससे
वे काफी ऊष्मा
निर्मित कर
लेते हैं। वे
अपने भीतर
इतनी ऊष्मा निर्मित
कर लेते हैं
कि चारों ओर
बर्फ गिर रही
हो और तिब्बती
लामा पसीने से
भीगा खुले
आकाश के नीचे
नंगा खड़ा रह
सकता है। अगर
चारों ओर बर्फ
ही बर्फ हो, तो साधारण
आदमी तो ठंड
के मारे जमने
ही लगेगा।
इतनी बर्फ में
घर से बाहर भी
निकलना संभव
नहीं है। और
तिब्बती लामा
है कि पसीने
से तर—बतर
गिरती हुई
बर्फ के नीचे
खड़ा रहेगा।
तिब्बत
में चिकित्सक
की जो परीक्षा
ली जाती है, उनमें से
यह भी एक परीक्षा
है। जब तिब्बत
में कोई
चिकित्सक
बनता है तो
पहले उसे एक
परीक्षा देनी
होती है, जिसमें
उसे अपनी शरीर—
अग्नि को
निर्मित करना
पड़ता है। अगर
वह उसे निर्मित
नहीं कर सकता,
तो उसे
डाक्टर होने
का
सर्टिफिकेट
नहीं दिया जाता
है। यह बहुत
कठिन कार्य
है। संसार में
कोई भी दूसरी
चिकित्सा—प्रणाली
चिकित्सक से
इतनी बड़ी
अपेक्षा नहीं रखती
है। यह कोई
मौखिक
परीक्षा ही
नहीं है, यह
कुछ ऐसा नहीं
है कि जिसे
किसी तरह से
रट लिया और
परीक्षा में
जाकर लिख
दिया।
व्यक्ति को सिद्ध
करना होता है
कि सच में
उसने अपनी
शरीर—ऊष्मा पर
काबू पा लिया है,
क्योंकि
फिर जीवन भर
उसे अपने
मरीजों की
ऊष्मा—ऊर्जा
पर कार्य करना
होता है। अगर
उस ऊष्मा पर
तुम्हारा ही
पूरा अधिकार
नहीं है, तो
कैसे तुम
दूसरों पर काम
कर सकते हो?
इसलिए
पूरी रात
गिरती हुई
बर्फ में
परीक्षार्थी
को बाहर खड़े
रहना पड़ता है।
पूरी रात में
नौ बार
परीक्षक आता
है और हर बार
शरीर को छूकर
देखता है कि
उसे पसीना आ
रहा है या
नहीं। अगर वह
उतनी शरीर —ऊष्मा
निर्मित कर
सकता है, तो समान का
मालिक होता
है। अब वह
चिकित्सक बन सकता
है, अब वह
चिकित्सक
बनने के योग्य
हो गया। अब
उसका स्पर्श
ही रोगी को
चमत्कारिक
ढंग से ठीक कर
देगा।
तिब्बत
में वे
चिकित्सक को
सिखाते हैं कि
जब रोगी के
हाथ को या
नाड़ी को पकड़ो, तो एक खास
ढंग से श्वास
लो, केवल
तभी चिकित्सक
रोगी की श्वास
—प्रक्रिया को
ठीक से जान
सकेगा। और जब
एक बार रोगी
की श्वास—प्रक्रिया
को चिकित्सक
ठीक से जान
लेता है, तो
वह रोगी की
पूरी बीमारी
को जान लेता
है। और अब
चिकित्सक को
पता होता है
कि क्या करना
चाहिए। साधारणतया
तो डाक्टर
मरीज के
लक्षणों की
जांच करते समय,
स्वयं उस
स्थिति में
नहीं जाते
जिसमें रोगी है।
लेकिन तिब्बत
में —और उनकी
पूरी विधि
पतंजलि के योग
पर आधारित है —पहले
तो डाक्टर को
स्वयं उस
विशेष आयाम
में आना होता
है जहां वह
रोगी को अनुभव
कर सके, देख
सके कि रोगी
की समस्या
कहां है, क्या
है, कैसी
है —रोगी की
श्वास
प्रक्रिया
में कहां पर
बाधा है, कहा
पर उसकी श्वास
अवरुद्ध है, कहां पर
आघात करना है,
कहां सब से
ज्यादा काम
करना है।
यही
बात
एक्यूपंक्चर
के संबंध में
भी सच है। एक्यूपंक्चर
ताओवादी योग
से विकसित हुआ
है। भीतर
ऊर्जा की, प्राण की
क्रियाएं, गतियों
को देखते हुए
उन्हें यह
ज्ञात हो गया
कि शरीर में
सात सौ बिंदु
हैं। जो कि
ऊर्जा बिंदु
हैं, और उन बिंदुओं
पर दबाव डालने
भर से शरीर का
पूरा ऊर्जा
क्षेत्र
परिवर्तित और
रूपांतरित हो
सकता है। जब
तुम्हारे सिर
में दर्द हो
तो एक्यूपंक्चर
करने वाला
चिकित्सक
शायद
तुम्हारा सिर
न छू पाए; उसकी
कोई जरूरत भी
नहीं। वह कहीं
और छुएगा, क्योंकि
शरीर की ऊर्जा
विपरीत ध्रुवता
में, ऋणात्मक
और धनात्मक
में अस्तित्व
रखती है। अगर
तुम्हारे सिर
में दर्द है
तो कहीं दूसरी
जगह, कहीं
विपरीत ध्रुव
पर वह बिंदु
को खोजकर उसे
सुई से भेद
देगा।
सुई से
भेदने की भी
जरूरत नहीं
होती है।
एक्यूप्रेशर
में —अपने
अंगूठे का
थोड़ा सा दबाव
और सिर का
दर्द गायब हो
जाता है। और
यह चमत्कार है
कि ऐसा होता
कैसे है? सुई को
चुभाने से या
हाथ के अंगूठे
से दबाने से
पूरा ऊर्जा
क्षेत्र
रूपांतरित हो
जाता है। दूसरी
जगह पर उसे
दबाने से
ऊर्जा का
प्रवाह जो कि
अवरुद्ध हो
गया था, वापस
प्रारंभ हो
जाता है, अब
व्यक्ति के
पास एक अलग ही
ऊर्जा होती
है।
पश्चिम
में अब
एक्यूपंक्चर
अधिकाधिक
वैज्ञानिक
रूप लेता जा
रहा है, और विशेषकर
सोवियत रूस
में। क्योंकि
रूस में एक नए
ढंग की
फोटोग्राफी
खोज ली गई है
क्रिलियान
फोटोग्राफी।
और वे सात सौ
बिंदु उस
फोटोग्राफी
द्वारा उतारे
चित्रों से
देखने संभव हैं।
और ठीक उन्हीं
सात सौ
बिंदुओं को
बिना किसी
माध्यम के, बिना किसी
फोटोग्राफी
के, बिना
किसी कैमरे के
ताओवादी
योगियों ने
जाना। उन्हें
इन बिंदुओं का
पता अपने ही
भीतर उतरने पर
चला।
चौथा
है उदान, वाणी और
संप्रेषण। जब
तुम बोलते हो,
तो चौथे
प्रकार के
प्राण का उपयोग
होता है। और
इस प्राण को
प्रशिक्षित
किया जा सकता
है। अगर यह
प्राण
प्रशिक्षित
कर लिया जाए
तो व्यक्ति के
बोलने में, भाषण देने
में, गीत
गाने में एक
तरह का
सम्मोहन
होगा। तब वाणी
में एक तरह का
सम्मोहन
होगा। तब बस, आवाज को
सुनकर ही लोग
चुंबक की तरह
खिंचे चले आते
हैं।
और ठीक
ऐसा ही
संप्रेषण के
साथ भी होता
है। जिन लोगों
को संप्रेषण
करना कठिन
होता है —और
बहुत से लोग
हैं जो इसी
कठिनाई में
हैं कि दूसरे
व्यक्ति के
साथ कैसे
संबंधित हों, दूसरे के
साथ कैसे
कम्यूनिकेट
करें, कैसे
बातचीत करें,
कैसे प्रेम
करें, कैसे
मैत्री बनाएं
कैसे दूसरे के
सामने खुल
सकें, बंद
न रहें—उन सभी
की उदान को
लेकर ही कोई न
कोई कठिनाई है।
वे नहीं जानते
कि इस प्राण
ऊर्जा का
उपयोग कैसे
करना है, जो
कि व्यक्ति को
प्रवाहमान
बनाती है और
ऊर्जा को खोल
देती है और तब
आसानी से
दूसरे के साथ
संप्रेषण हो
सकता है, दूसरे
तक पहुंचना हो
सकता है और तब
फिर कहीं कोई
अवरोध नहीं
रहता।
और
पांचवीं है
व्यान, समन्वय और
संघटन।
पांचवीं
व्यक्ति को
संघटित रखतो
है। जब पांचवीं
शरीर को छोड़
देती है, तो व्यक्ति
की मृत्यु हो
जाती है। तब
शरीर विघटित
होना शुरू हो
जाता है। अगर
पांचवीं मौजूद
रहती है, तो
चाहे पूरी की
पूरी श्वास
प्रक्रिया
क्यों न रुक
जाए, व्यक्ति
जीवित रहेगा।
यही तो
योगी कर रहे
हैं। जब योगी
जनता के सामने
प्रदर्शन
करके यह
दिखाते हैं कि
वे अपनी हृदयगति
को रोक सकते
हैं, तो
वे पहले के
चार प्राणों
को रोक देते
हैं —पहले चार
प्राणों को —वे
पांचवें
पर ठहर जाते
हैं। लेकिन पांचवी
प्राण ऊर्जा
इतनी सूक्ष्म
है कि आज तक
कोई ऐसा यंत्र
नहीं बना है
जो उसका पता
लगा सके। तो दस
मिनट तक सभी
तरह से डाक्टर
या कोई भी
व्यक्ति
निरीक्षण कर
सकता है और
उन्हें लगेगा कि
योगी मर गया
है। और डाक्टर
इसका प्रमाण—पत्र
भी दे देंगे
कि वह मर गया
है, और
योगी फिर से
जीवित हो
जाएगा, फिर
से उसकी श्वास
प्रारंभ हो
जाएगी, फिर
से उसका हृदय
धड़कना
प्रारंभ कर
देगा।
पांचवी
प्रक्रिया
सर्वाधिक
सूक्ष्म है, और यही वह
धागा है जो
व्यक्ति को एक
जैविक एकता
में, ऑरगेनिक
यूनिटि में
बांधकर रखता
है।
अगर
पांचवें को
जान लिया, तो
परमात्मा को
जाना जा सकता
है, उससे
पहले
परमात्मा को
नहीं जाना जा
सकता। क्योंकि
हमारे भीतर
पांचवें का
वही कार्य है
जो कि
परमात्मा का
उसकी समग्रता
में कार्य है।
परमात्मा
व्यान है। वह संपूर्ण
अस्तित्व को
एकसाथ जोड़े
हुए है —चांद—तारे,
सूरज, संपूर्ण
ब्रह्मांड को,
सब को एक
दूसरे के साथ
जोड़े हुए है।
अगर
तुम अपने शरीर
को जान लो, तब तुम
जानोगे कि
शरीर एक लघु
जगत है, जो
कि संपूर्ण
ब्रह्मांड का
प्रतिनिधि
है। संस्कृत
में देह को
पिंड कहते हैं,
लघु
ब्रह्मांड, और जो लघु
ब्रह्मांड है,
वही है
संपूर्ण
ब्रह्मांड।
और व्यक्ति का
शरीर
ब्रह्मांड का
ही एक लघु रूप
है। उसमें वह
सभी कुछ है जो
इस संपूर्ण
अस्तित्व में
है, उससे
कुछ भी कम
नहीं है। अगर
व्यक्ति अपनी
समग्रता को, अपनी
पूर्णता को
जान ले, तो
वह संपूर्ण
अस्तित्व की
समग्रता को
जान सकता है।
हमारी
समझ उतनी ही
होती है, जहां हम खड़े
होते हैं। अगर
कोई कहता है
कोई परमात्मा
नहीं है, तो
वह केवल इतना
ही कह रहा है
कि वह अपने ही
अस्तित्व के
किसी एकात्मक
तत्व को, अपने
ही परमात्मा
को नहीं जान
पाया है —बस, वह इतना ही
कह रहा है।
ऐसे आदमी के
साथ झगड़ा मत
करना, उसके
साथ किसी तर्क
में मत पड़ना, क्योंकि
विवाद या तर्क
उस व्यक्ति को
व्यान का कोई
अनुभव नहीं दे
सकते। किसी भी
तरह के प्रमाण
उसे व्यान का
अनुभव नहीं दे
सकते।
योगी
कभी तर्क में
नहीं पड़ते। वे
कहते हैं आओ, हमारे
साथ प्रयोग
में उतरो —परिकल्पना
के रूप में।
हम जो कहते
हैं, उसे
मानने की कोई
जरूरत नहीं।
बस कोशिश करो,
केवल यह समझने
की कोशिश करो
कि यह है
क्या। जब तुम
अपने व्यान को
अनुभव कर लोगे,
तो
परमात्मा का
आविर्भाव हो
जाता है। तब
परमात्मा ही
चारों ओर, संपूर्ण
अस्तित्व में
फैलता चला
जाता है।
मैं
तुमसे एक कथा
कहना चाहूंगा
एक
मकान मालकिन
ने अपनी
समस्या का
समाधान करने
के लिए
किराएदार से
कहा। वह उससे
कहने लगी, ’मेरे पास
पिंजरे में ये
दो तोते हैं; एक पुरुष
तोता है और एक
स्त्री तोता
है, लेकिन
मुझे यह समझ
नहीं आ रहा है
कि इनमें से कौन
सा नर है और
कौन सी मादा
है। क्या यह
जानने में आप मेरी
कुछ मदद कर
सकते हैं?’
किराएदार
ने कहा, ’देखिए
श्रीमती जी, मुझे तोतों
के बारे में
कुछ भी मालूम
नहीं है।
लेकिन फिर भी
मैं बताता हू
कि क्या करना
चाहिए—आप एक
काला कपड़ा
उनके पिंजरे
पर डाल दें, आधे घंटे के
लिए उन्हें
अकेला छोड़
दें। फिर वह
काला कपड़ा हटा
दें और देखें
कि कौन से
तोते के पंख
अस्त —व्यस्त
हैं। वही नर
तोता होगा।’
मकान
मालकिन ने
वैसा ही किया, उसने
पिंजरे पर
काला कपड़ा डाल
दिया। उस कपड़े
को आधे घंटे
तक पिंजरे पर
पड़ा रहने दिया।
फिर उसने कपड़े
को हटा दिया।
जैसा कि मालूम
ही था, उनमें
से एक तोते के
पंख थोड़े अस्त—व्यस्त
थे।
वह
बोला, ’देखो
जान लिया न, यही है नर
तोता।’
वह
बोली, ’ही,
एकदम ठीक।
लेकिन आगे
भविष्य में
मैं यह कैसे जान
पाऊंगी?’
इस पर
वह किराएदार
बोला, ’इसकी
गर्दन में एक
छोटा सा रिबन
बाध दो, तो
तुम्हें
मालूम रहेगा
कि कौन सा नर
तोता है।’
और
मकान मालकिन
ने वैसा ही
किया।
उसी
शाम धर्म
पुरोहित चाय—नाश्ते
के लिए उस
महिला के घर
आया। तोते ने
एक नजर उसकी
टाई को देखा
और बोला, ’तो अच्छा!
क्या आपको भी
उन्होंने इस
हालत में पकड़ा
है।’
जो कुछ
भी हमारे
अनुभव में आता
है, वही
हमारे लिए
सारे जगत की
व्याख्या बन
जाता है। हम
अपने अनुभवों
की सीमा में
बंधे हुए हैं,
हम उन्हीं
सीमाओं में
जीते हैं, उन्हीं
बंधी —बधाई
सीमित दृष्टि
से संसार को
देखते हैं। इसलिए
अगर कोई कहता
हो कि
परमात्मा
नहीं है, तो
उसके प्रति
करुणा का
अनुभव करना।
उस पर नाराज
मत होना। ऐसा
कहकर वह केवल
इतना ही कह
रहा है कि
उसका अभी
परमात्मा के
साथ कोई संबंध
स्थापित नहीं हो
पाया है। उसने
अपने भीतर, अपने अंतर —
अस्तित्व में
परमात्मा की
रोशनी की एक
किरण भी नहीं
देखी है। वह
कैसे भरोसा कर
सकता है कि
जीवन का और
प्रकाश का
स्रोत सूर्य
वहां पर विद्यमान
है। नहीं, वह
भरोसा नहीं कर
सकता। वह पूरी
तरह से अंधा होता
है, अभी
उसने प्रकाश
’की एक भी
किरण अपनी आंखों
से नहीं देखी
है। ऐसे
व्यक्ति के
ऊपर करुणा करना,
उसकी मदद
करना। उसके
साथ तर्क में
मत पड़ना, क्योंकि
किसी भी तरह
का तर्क या
वाद —विवाद
उसके लिए
सहयोगी न
होगा।
कोई भी
व्यक्ति किसी
दूसरे
व्यक्ति को इस
पर विश्वास
नहीं दिलवा
सकता कि
परमात्मा है।
विश्वास के
साथ इसका कुछ
लेना—देना
नहीं है, उसका तो
स्वयं के
रूपांतरण के
साथ संबंध है,
वह तो एक
रूपांतरण है।
‘उदना
ऊर्जा —प्रवाहिनी
को सिद्ध करने
से योगी
पृथ्वी से ऊपर
उठ पाता हैं, और किसी
आधार, किसी
संपर्क के
बिना पानी, कीचड़, काटो
को पार कर
लेता है।’
अगर
व्यक्ति
स्वयं के साथ
समस्वरता पा
लेता है और
उदना के नाम
से पहचाने
जाने वाले
प्राण को
सिद्ध कर लेता
है, तो
वह हवा में
ऊपर उठ सकता
है। क्योंकि
यह उदना ही है
जो व्यक्ति को
गुरुत्वाकर्षण
के साथ जोड़ कर
रखती है।
तुम
आकाश में
पक्षियों को, बड़े —बड़े
पक्षियों को
उड़ते हुए
देखते हो। अभी
भी वैज्ञानिकों
के लिए यह एक
रहस्य ही बना
हुआ है कि
पक्षी इतने
भार के साथ
कैसे उड़ते
हैं। ये पक्षी
प्रकृति की ओर
से ही उदना के
बारे में
जानते हैं; इसलिए उनके
लिए उड़ना सहज
और स्वाभाविक
होता है। वे
एक विशेष ढंग
से श्वास लेते
हैं। अगर तुम
भी उसी ढंग से
श्वास को ले
सको, तो
तुम पाओगे कि
तुम्हारा
संबंध
गुरुत्वाकर्षण
से टूट गया
है।
गुरुत्वाकर्षण
के साथ जो व्यक्ति
का संबंध है
वह उसके अंतर—
अस्तित्व से
ही है, वह
उसके भीतर से
ही है। इसलिए
इसे तोड़ा भी
जा सकता है।
और
बहुत लोगों के
साथ अनजाने
में ऐसा घटित
भी हुआ है। कई
बार ध्यान
करते समय बैठे
—बैठे अचानक
तुम्हें ऐसा
लगता है कि
तुम ऊपर उठ
रहे हो। जब
अपनी आंखें
खोलते हो, तो अपने
को जमीन पर
बैठा हुआ पाते
हो। आंखें बंद
करते हो, तो
ग्र फिर ऐसा
लगता है जैसे
कि ऊपर उठ रहे
हो। ऐसा संभव
है कि
तुम्हारा
भौतिक शरीर
ऊपर न भी उठता
हो, लेकिन
तुम्हारे
भीतर गहरे में
कुछ अलग हो
गया होता है, कुछ टूट गया
होता है और तब
तुम अपने और
गुरुत्वाकर्षण
के बीच एक
अंतराल का
अनुभव करने
लगते हो।
इसीलिए तुम्हें
ऐसा अनुभव
होता है कि
तुम ऊपर उठ
रहे हो। यह
बात अगर रोज—रोज
गहरी होती चली
जाए, तो एक
दिन ऐसा संभव
हो सकता है कि
तुम ऊपर उठ सकी।
बोलीविया
में एक स्त्री
है। जिसका सभी
तरह से
वैज्ञानिक
ढंग से
निरीक्षण और
परीक्षण किया
गया है, वह स्त्री
पृथ्वी से ऊपर
उठ जाती है।
वह कुछ क्षणों
के लिए जमीन
से चार फीट
ऊपर उठ जाती
है —बस ध्यान
करने से। वह
आख बंद करके
ध्यान में बैठ
जाती है और वह
ऊपर उठने लगती
है।
‘समान
ऊर्जा
प्रवाहिनी को
सिद्ध करने से,
योगी अपनी
जठर अग्नि को
प्रदीप्त कर
सकता है।’
तब भोजन
को बड़ी आसानी
से और पूरी
तरह से पचाया
जा सकता है।
और केवल यही
नहीं, जब
जठर अग्नि
प्रज्वलित हो
जाती है, तो
पूरी देह के
आसपास विशेष
आभा मंडल बन
जाता है। एक
विशेष प्रकार
की अग्नि, एक
तरह की जीवंतता
का आविर्भाव
हो जाता है।
और यह
अग्नि योगी को
अपने पूरे
शरीर को शुद्ध
करने में
सहयोगी होती
है। क्योंकि
यह अग्नि भीतर
के सभी कूड़े —कचरे
को, दुर्गंध
को, उन
सबको जो वहां
पर नहीं रहना
चाहिए, उनको
जला देती है।
जठर अग्नि
शरीर के भीतर
की सारी
अशुद्धियों
और विष —तत्वों
को जलाकर नष्ट
कर देती है।
और यह अग्नि, अगर सच में
ही इसे
समग्ररूपेण
प्रज्वलित
किया जा सके, तो मन को भी
जला सकती है।
इस अग्नि में
विचार जलकर
राख हो सकते
हैं, इच्छाएं
जलकर भस्म हो
सकती हैं। और
पतंजलि कहते
हैं, अगर
एक बार इस
अग्नि को जान
लो, एक
विशेष ढग की
श्वास
प्रक्रिया के
द्वारा एक
विशेष प्राण
ऊर्जा को पा
लिया और उसे
भीतर संचित कर
लिया, तो
जीने की आकांक्षा
ही समाप्त हो
जाती है —तब
इच्छा का, आकांक्षा
का बीज ही
जलकर राख हो
जाता है। फिर उसके
बाद जन्म नहीं
होता। इसे ही
पतंजलि निर्बीज
समाधि कहते
हैं —जहां बीज
भी जलकर
समाप्त हो
जाता है।
‘आकाश
और कान के बीच
के संबंध पर
संयम ले आने
से पर। — भौतिक
श्रवण उपलब्ध
हो जाता है।’
संस्कृत
के आकाश शब्द
को अंग्रेजी
में ईथर कहते
हैं। आकाश
शब्द
परमात्मा से
कहीं अधिक व्यापक, विराट और
बोधगम्य है।
आकाश का अर्थ
होता है वह
अंतराल, वह
शून्यता जो
सभी को घेरे
हुए है। आकाश
का अर्थ होता
है वह
महाशून्य
जिससे हर चीज
आती है और उसी
में विलीन हो
जाती है। वह
अनंत, अनादि
शून्यता जो
प्रारंभ से है
और जो अंत में
भी बच रहेगी।
सभी कुछ इसी
शून्यता में
से आता है और
इसी में
समाहित हो
जाता है। लेकिन
इसका
अभिप्राय
किसी तरह के
रिक्तता या
खालीपन से
नहीं हैं। यह
शून्यता
नकारात्मक
नहीं है। यह
शून्यता पूरी
तरह से पोटेंनशियल
है, जिसमें
अनंत शक्ति
छिपी हुई है, जिसमें अनंत
संभावनाएं
छिपी हुई हैं।
यह सकारात्मक
है, लेकिन
फिर भी आकार —विहीन
है, उसका
कोई रूप या
आकार नहीं है।
इसी
आकाश का जिसका
कोई आकार नहीं
है, जो
चारों ओर से
घेरे हुए है, और जो कान से
संबंध है उस
पर संयम पा
लेने से
योग की
खोज है यह कि
कान की
समस्वरता
आकाश से सधी
हुई है, इसीलिए
व्यक्ति को
ध्वनियां
सुनाई देती
हैं। ध्वनियां
आकाश में, ईथर
में निर्मित
होती हैं और
देह के भीतर
जो कान है, वह
आकाश से जुड़ा
होता है। आंखें
सूर्य से जुड़ी
हुई हैं, कान
आकाश से, ईथर
से जुड़े हुए
हैं। अगर
व्यक्ति अपनी
समाधि को आकाश
और कान से जोड़
ले, तो जो
कुछ भी वह
सुनना चाहता
है, वह सब
सुनने के योग्य
हो जाएगा।
ऊपर से
देखने पर यह
चमत्कार लग
सकता है, लेकिन फिर
भी इसमें कोई
चमत्कार नहीं
है। इसके पीछे
वैसे ही
वैज्ञानिक
नियम हैं जैसे
कि टेलीविजन
और रेडियो के
पीछे हैं। बस
एक तरह की समस्वरता
की आवश्यकता
होती है। अगर
कान आकाश के
साथ एक विशेष
समस्वरता. को
पा लेते हैं, तो व्यक्ति
वह सुनने लगता
है, जो
सामान्यतया
नहीं सुना जा
सकता। तब
दूसरे के
विचारों को भी
सुना जा सकता
है।
केवल
इतना ही नहीं, उन
विचारों को भी
सुना जा सकता
है जो कि
हजारों साल
पहले कहे और
बोले गए थे।
बुद्ध को फिर
से सुना जा
सकता है। फिर
से कृष्ण— अर्जुन
संवाद सुना जा
सकता है। जीसस
को सर्मन आन
माऊंट देते
हुए फिर से
सुना जा सकता
है। क्योंकि
जो कुछ भी इस
अस्तित्व में
कहा गया है, या बोला गया
है, वह सब
आकाश में रहता
है। वह कभी भी
इस अस्तित्व
से बाहर नहीं
जाता, वह
कभी मिटता
नहीं है; बहुत
ही सूक्ष्म
रूप से वह
हमेशा
विद्यमान
रहता है।
थियोसोफी में
वे इसे आकाशी
रिकार्ड कहते
हैं। हर चीज
आकाश के
रिकार्ड में
टेप है, बस
एक बार उसकी
कुंजी को खोज
लो। और वह
कुंजी कान और
आकाश के बीच
के संबंध पर
संयम ले आने
से उपलब्ध हो
जाती है।
‘शरीर
और आकाश के
संबंध पर संयम
ले आने से और
साथ ही भार—विहीन
चीजों—जैसे
रुई आदि से
अपना
तादात्म्य
बना लेने से
योगी
आकाशगामी हो सकता
है।’
और अगर
व्यक्ति शरीर
और आकाश के
संबंध पर संयम
ले आता है .....।
आकाश
का कोई आकार
नहीं है, आकाश आकार
विहीन है, निराकार
है। आकाश हमको
चारों ओर से
घेरे हुए है, लेकिन उसकी
कोई सीमा नहीं
है। आकाश के
सागर में हमारा
शरीर एक लहर
है। जन्म से
पहले वह
अप्रकट रूप से
आकाश में था, और मृत्यु
के पश्चात वह
फिर आकाश ’ विलीन
हो जाएगा। अभी
भी लहर आकाश
से जुड़ी है; वह उससे अलग
नहीं है। बस, अपनी को उस
लहर पर और
संबंध पर
केंद्रित करो
जो संबंध लहर
और सागर का है,
और तब
व्यक्ति अपनी
इच्छा के
अनुरूप प्रकट
या विलीन हो
सकता है।
योगी
स्वयं को
एकसाथ कई जगह
पर प्रकट कर
सकता है; वह अपने एक
शिष्य से
कलकत्ता में
मिल सकता है और
दूसरे से बंबई
में और किसी
तीसरे से
केलीफोर्निया
में। एक बार
व्यक्ति इस
अनंत सागर के
साथ समस्वर
होना सीख ले, तो वह
अपरिसीम रूप
से शक्तिशाली
हो जाता है।
लेकिन
इस बात को
खयाल में ले
लेना कि इन
सभी बातों की
आकांक्षा
नहीं करनी है।
अगर तुम इनकी आकांक्षा
करोगे, तो ये बंधन
बन जाएंगी। यह
तुम्हारी
लालसा नहीं
होनी चाहिए।
और जब यह अपने
से घटित हो, तो उन्हें
परमात्मा के
चरणों में
अर्पित कर देना।
परमात्मा से
कहना, मुझे
इनका क्या
करना है? जो
कुछ भी
तुम्हें मिले,
उसे
त्यागते चले
जाना, उसे
वापस
परमात्मा के
चरणों में ही
चढ़ा देना। क्योंकि
उससे भी अधिक
अभी आने को है,
लेकिन उसे
भी चढ़ा देना।
फिर भी और
बहुत कुछ आएगा;
उसे भी चढ़ा
देना। और फिर
एक ऐसा बिंदु
आता है, जहां
तुमने सब कुछ
त्याग दिया है,
सब कुछ
परमात्मा के
चरणों में चढ़ा
दिया है, तब
परमात्मा
स्वयं
तुम्हारे पास
चला आता है। जब
तुम अपने पास
कुछ भी बचाकर
नहीं रखते हो,
सभी कुछ
परमात्मा के
चरणों में चढ़ा
देते हो, तो
उस त्याग के
परम क्षण में
परमात्मा
स्वयं तुम्हारे
पास चला आता
है।
इसलिए
मेहरबानी
करके इनके लिए
लालची और लोभी
मत बन जाना।
और इनका मैंने
तुम्हें कोई
विवरण भी नहीं
दिया है।
इसलिए अगर तुम
लोभी बन भी जाओ, तो तुम्हें
कुछ मिलने
वाला नहीं है।
उनके विवरण और
ब्योरे तो परम
स्वात के
क्षणों में ही
दिए जा सकते
हैं। उनका
हस्तांतरण
केवल व्यक्ति
से व्यक्ति को
ही हो सकता
है। और
तुम्हें इस
बात की कोई
आवश्यकता
नहीं है कि
उनकी
व्याख्याओं
और विवरणों के
लिए तुम मेरे
पास आओ। जब भी
तुम तैयार
होगे, जहां
भी तुम होंगे,
वहीं वे
तुम्हें दे दी
जाएंगी। केवल
बात तुम्हारी
तैयारी की है।
अगर तुम तैयार
हो, तो वे
तुम्हें दे दी
जाएंगी। और वे
केवल तुम्हारी
तैयारी के
अनुपात में ही
दी जाएंगी, ताकि
तुम्हें भी
किसी तरह की
हानि न पहुंचे
और तुम दूसरों
को भी किसी
तरह की हानि न
पहुंचा सको।
वरना आदमी तो
बड़ा खतरनाक
जानवर है।
उस
खतरे का हमेशा
ध्यान रखना।
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें