अध्याय—11
सूत्र-
मा ते व्यथा
मा च
विमूढभावो
दृष्ट्वा
रूपं
घोरमीदृड्ममेदम्।
व्यपेतभी:
प्रीतमना:
पुनस्त्वं तदेव
मे रूपमिद प्रयश्य।।
49।।
संजय
उवाच:
ड़त्यर्जुनं
वासुदेवस्तथोक्ला
स्वकं रूयं दर्शयामास
भूय:।
आश्वासयामास
व भीतमेनं
भूत्वा पुन: सौम्यवगुर्महात्मा।।
50।।
अर्जुन
उवाच:
दृष्ट्रवेदं
मानुष रूपं तव
सौम्य
जनार्दन।
हदानीमस्थि
संवृत: सचेता: प्रकृतिं
गत:।। 5।।
इस
प्रकार के
मेरे हस
विकराल रूप को
देखकर तेरे को
व्याकुलता न
होवे और
मूलभाव भी न
होवे और भयरहित
प्रीतियुक्त
मन वाला तू उस
ही मेरे हम शंख
चक्र गदा पद्य
सहित
चतुर्भुज रूप
को फिर देख।
उसके
उपरांत संजय
बोला हे राजन—
वासुदेव
भगवान ने
अर्जुन के
प्रति इस
प्रकार कहकर
फिर वैसे ही
अपने
चतुर्भूज रूप
को दिखाया और
फिर महात्मा
कृष्ण ने
सौम्यमूर्ति
होकर हम भयभीत
हुए अर्जुन को
धीरज दिया।
उसके उपरांत
अर्जुन बोला
हे जनार्दन आपके
हल अतिशांत
मनुष्य रूप को
देखकर अब मैं
शांतचित्त
हुआ अपने
स्वभाव को
प्राप्त हो
गया हूं।
प्रश्न
एक मित्र
ने पूछा है कि
क्या कोई
मनुष्य बच्चे
की भांति सरल
हो, जिसे
कोई भी ज्ञान
नहीं, परमात्मा
को पा सकता है?
यदि हां, तो कैसे?
जीसस का बहुत
प्रसिद्ध वचन
है.....। पूछा
किसी ने कि
कौन आपके
राज्य का
प्रवेश का अधिकारी
होगा? प्रभु
के राज्य में
कौन प्रवेश कर
सकेगा? तो
जीसस ने कहा, जो बच्चों
की भांति सरल
और निर्दोष
हैं वे।
लेकिन
इसमें बहुत
कुछ समझने
जैसा है।
एक तो, जीसस ने
यह नहीं कहा
कि जो बच्चे
हैं वे। जीसस
ने कहा, जो
बच्चों की
भांति सरल हैं
वे। नहीं तो
सभी बच्चे
परमात्मा में
प्रवेश कर जाएंगे।
बच्चे की
भांति सरल कौन
होगा? बच्चा
कभी नहीं हो
सकता। बच्चे
की भांति सरल
का अर्थ ही यह
हुआ कि जो बच्चा
नहीं है और
बच्चे की
भांति सरल है।
शरीर की उम्र
बढ़ गई हो, मन
की उम्र बढ़ गई
हो, संसार
को जान लिया
हो, फिर भी
जो बच्चे की
भांति सरल हो
जाता है।
तो एक
तो बचपन है, जो मां—बाप
से मिलता है।
वह शरीर का
बचपन है। वह
बचपन अज्ञान
से भरा हुआ है।
उस बचपन में
परमात्मा को
जानने का कोई
उपाय नहीं है।
बच्चा सरल है,
लेकिन अज्ञान
के कारण सरल
है। यह सरलता
झूठी है।
बच्चे की
सरलता झूठी
है! इसे ठीक से
समझ लें।
क्योंकि
सरलता के पीछे
वह सब जहर
छिपा है, जो
कल जटिल बना
देगा। यह
सिर्फ ऊपर—ऊपर
है। भीतर तो, बच्चे के
भीतर वही सब
छिपा है, जो
जवानी में
निकलेगा, बुढ़ापे
में निकलेगा।
वह सब मौजूद
है। यह बच्चा
ऊपर से सरल है,
भीतर तो
जटिल है। और
ऊपर भी इतना
सरल नहीं है, जितना हम
मानते हैं।
फ्रायड
की खोजों ने
काफी जाहिर कर
दिया है कि
बच्चे भी बहुत
जटिल हैं। आप
सोचते ही हैं
कि बच्चा
क्रोध नहीं
करता सच तो यह
है कि बच्चे
जितना क्रोध
करते हैं, बड़े नहीं
कर पाते। आप
सोचते ही हैं
कि बच्चा
ईर्ष्या से
नहीं भरता, बच्चे भयंकर
रूप से
ईर्ष्यालु
होते हैं। और
दूसरे के हाथ
में खिलौना देखकर
उनको जितनी
बेचैनी होती
है, उतना
दूसरे की कार
देखकर आपको
नहीं होती। और
आप सोचते ही
हैं कि बच्चों
में घृणा नहीं
होती। और
सोचते ही हैं
कि बच्चों में
हिंसा नहीं होती।
बच्चे भयंकर
रूप से हिंसक
होते हैं। और
जब तक कीड़ा
उनको दिखाई पड़
जाए कोई चलता
हुआ, उसको
तोड़—मरोड़ न
डालें, तब
तक उनको चैन
नहीं मिलती।
बच्चा
तोड्ने में भी
काफी रस लेता
है, विध्वंस
में भी काफी
रस लेता है।
ईर्ष्या से भी
भरा होता है, हिंसा से भी
भरा होता है।
और आप सोचते
ही हैं कि
बच्चे में
कामवासना नहीं
होती, वह
भी भ्रांति है।
क्योंकि
आधुनिकतम
सारी खोजें
कहती हैं कि
बच्चे में
सारी
कामवासना भरी
है, जो बाद
में प्रकट
होने लगेगी।
आप
खयाल करें।
हालांकि
हमारा मन बहुत—सी
बातों को
मानने को
तैयार नहीं
होता, क्योंकि
हमारी बहुत—सी
धारणाओं को
चोट लगती है।
घर में अगर
लड़का पैदा
होता है, तो
लड़के और बाप
के बीच थोड़ी—सी
कलह बनी ही
रहती है। वह
दो पुरुषों की
कलह है। और
मनोविज्ञान
कहता है कि एक
स्त्री के लिए
ही वह कलह है, मां के लिए।
वह जो बच्चा
है और बच्चे
का बाप जो है, वे दोनों
अधिकारी
हैं एक स्त्री
के। और बच्चा
पसंद नहीं
करता कि बाप
ज्यादा बाधा डाले।
और बाप भी
ज्यादा पसंद
नहीं करता कि
बच्चा इतना
बीच में आ जाए
कि पत्नी और
उसके बीच खड़ा
हो जाए। बाप
की दोस्ती
बेटे से
मुश्किल से
होती है।
लेकिन मां की
दोस्ती बेटे
से हमेशा होती
है।
बेटी
हो, तो
बाप की दोस्ती
होती है, मां
की दोस्ती
नहीं हो पाती।
बेटी और मां
के बीच
सूक्ष्म कलह
निर्मित हो
जाती है। जैसे—जैसे
लड़की बड़ी होने
लगेगी, वैसे—वैसे
मां और लड़की
के बीच उपद्रव
शुरू हो जाएगा।
जैसे—जैसे
लड़का बड़ा होने
लगेगा, बाप
और लड़के के
बीच उपद्रव
शुरू हो जाएगा।
फ्रायड कहता
है, यह
सेक्स जेलेसी
है; यह
कामवासना ही
इसके पीछे मूल
आधार है।
बच्चा
उतनी ही
कामवासना से
भरा है, जितना कोई
और। फर्क
सिर्फ इतना है
कि अभी उसकी
कामवासना का यंत्र
तैयार हो रहा
है। जिस दिन
यंत्र तैयार
हो जाएगा, वासना
फूट पड़ेगी।
चौदह वर्ष में,
तेरह वर्ष
में वासना फूट
पड़ेगी। यंत्र
तो बन रहा है, वासना भीतर
पूरी है, वह
रास्ता खोज
रही है। यंत्र
पूरे होते से
ही उसका
विस्फोट हो
जाएगा।
बच्चे
को हम जितनी
सरलता मानकर
चलते हैं, वह मानी
हुई है। और उस
मानने का कारण
भी अहंकार है।
क्योंकि हर
आदमी यह मानना
चाहता है कि
बचपन में मैं
बड़ा पवित्र था।
इस भ्रांति के
दो कारण हैं, एक तो आपको
बचपन की ठीक—ठीक
याद नहीं। और
दूसरा, जिंदगी
इतनी बुरी है
और जिंदगी
इतनी बेहूदी और
कष्ट और संकट
से भरी है कि
मन कहीं न
कहीं राहत
खोजना चाहता
है। तो कम से
कम बचपन
स्वर्ग था, इसको मान
लेने से थोड़ी
राहत मिलती है।
दो ही
उपाय हैं, या तो आगे
स्वर्ग मानें
भविष्य में, जो कि
मुश्किल है, क्योंकि
वहां मौत
दिखाई पड़ती है।
इसलिए आगे
स्वर्ग को
मानने में बड़ा
मुश्किल होता
जाता है। और
रोज आपकी उलझन
बढ़ती जाती है।
इसलिए आगे
स्वर्ग होगा,
इसमें
भरोसा नहीं
बैठता, आगे
नर्क हो सकता
है। लेकिन
स्वर्ग कैसे
होगा आगे! रोज
जब उलझन बढ़ती
जाती है और
जिंदगी टूटती
जाती है और
आदमी का होने
लगता है, तो
आगे नर्क
दिखाई पड़ता है।
तो
आदमी कहीं तो
राहत चाहता है, सांत्वना
चाहता है।
लौटकर अपने
बचपन में
स्वर्ग को रख
लेता है। तो
सभी लोग बचपन
की याद करते
रहते हैं कि
बडा सुखद था।
यह सुखद होना
एक भ्रांति है,
मन के लिए
एक सांत्वना
है। न तो बचपन
सुखद है...।
बच्चों
से पूछें। सभी
बच्चे जल्दी
बड़े होना
चाहते हैं।
कोई बच्चा
बच्चा नहीं
रहना चाहता, क्योंकि
बचपन उसे दुखद
मालूम पड़ रहा
है। बचपन के
अपने दुख हैं,
जो आप भूल
गए हैं। वे
बच्चों का
निरीक्षण
करने से पता
चलते हैं।
एक तो
बच्चे को लगता
है, वह
बिलकुल
परतंत्र है, कोई
स्वतंत्रता
नहीं। हर बात
में किसी की
हां और किसी
की न को
स्वीकार करना
पड़ता है।
बच्चा जल्दी
बड़ा होना
चाहता है। यह
गुलामी है।
बच्चा कमजोर
है, सब
ताकतवर हैं
उसके आस—पास।
इससे उसके
अहंकार को
भारी ठेस लगती
है। वह भी बड़ा
होना चाहता है,
और कहना
चाहता है, मैं
भी कुछ हूं।
हर चीज पर
निर्भर है।
खुद कुछ भी
नहीं कर सकता।
असहाय है, हेल्पलेस
है।
इसलिए
बच्चा सुख में
नहीं हो सकता।
यह सुख के का
खयाल है, धारणा है, पीछे लौटकर।
फिर आपको याद
कितनी है? पांच
साल के पहले
की तो याद
होती नहीं है।
मुश्किल से, कोई बहुत
अच्छी
याददाश्त हो,
तो चार साल;
उसके पहले
की आपको याद
नहीं होती।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
चार साल पहले
की आपको याद
क्यों नहीं है? स्मृति
तो होनी
चाहिए! आप
जिंदा रहे!
मां के पेट से
पैदा हुए, चार
साल तक आप
जिंदा थे, घटनाएं
घटीं। उनकी
स्मृति क्यों
खो जाती है? आपका मन
उनकी स्मृति
को खो क्यों
देता है? तो
बड़ी अनूठी बात
हाथ में आई है।
और वह यह कि
चार साल की
जिंदगी इतनी
दुखद है कि मन
उसे याद नहीं
करना चाहता।
दुख को हम
भुलाना चाहते
हैं।
लेकिन
हम भूल भी
नहीं सकते, क्योंकि
जो घट गया है, वह स्मृति
में दबा है।
इसलिए अगर
आपको बेहोश
किया जाए, सम्मोहित,
हिप्नोटाइज
किया जाए, तो
आपको सब याद आ
जाता है। ठीक
पहले दिन जब
आप पैदा हुए
और जो आपने
पहली चीख—पुकार
मचाई थी, इस
दुनिया में
आते ही से जो
आपने दुख की
पहली घोषणा की
थी, उससे
लेकर सब याद आ
जाता है। गहरे
सम्मोहन में
आपके मन की
सारी परतें
उघड आती हैं
और सब याद आ
जाता है।
सम्मोहन
के जो नतीजे
हैं, वे
ये हैं कि
बचपन बहुत
दुखद है।
इसलिए हम उसे
भूल गए हैं।
जो दुखद है, उसे याद
करना मन नहीं
चाहता। जो
सुखद है, उसे
याद करना
चाहता है।
तो हम
बचपन में जो
सुख है, उसको चुन
लेते हैं। और
जो दुख है, उसे
भूल जाते हैं।
उसी सुख को
इकट्ठा करके
बाद में हम
कहते हैं, बचपन
स्वर्ग था। न
तो बचपन
स्वर्ग है, न बचपन में
कोई ऐसी सरलता
है, जैसा
हम सोचते हैं।
लेकिन सरलता
लगती है, उसके
कुछ कारण जरूर
होने चाहिए।
एक तो
बच्चा क्षण—
क्षण जीता है।
यह बात सच है।
न तो अतीत का
बहुत हिसाब
रखता है, क्योंकि
हिसाब रखने के
लिए जितनी
बुद्धि चाहिए,
वह उसके पास
नहीं है। न
भविष्य की
योजना बनाता
है, क्योंकि
भविष्य की
योजना के लिए
जितनी समझ चाहिए,
वह भी उसके
पास नहीं है।
वह क्षण— क्षण
जीता है, जैसे
पशु जीते हैं।
अभी जी लेता
है।
इसलिए
बच्चा आप पर
नाराज हो जाता
है, घडी भर
बाद भूल जाता
है। इसलिए
नहीं कि उसको
क्रोध नहीं था,
बल्कि
इसलिए कि अभी
हिसाब रखने
वाला मन विकसित
नहीं हुआ है।
घडीभर पहले
नाराज हो लिया,
घडीभर बाद
हंसने लगा। वह
भूल गया कि
नाराज हुआ था,
अब हंसना
नहीं चाहिए इस
आदमी के साथ।
इन दोनों के
बीच संबंध
बिठालने की
बुद्धि अभी
विकसित नहीं
हुई है।
तो
बच्चे की सारी
सरलता उसके
क्षण— क्षण
जीने, बुद्धिहीन
होने, अज्ञान
में होने के
कारण है। ऐसी
सरलता से कोई
परमात्मा को
नहीं पा सकता।
एक और सरलता
है, जो
जीवन के सारे.
अनुभव को जानने
के बाद, इस
अनुभव को
उतारकर रख
देने से
उपलब्ध होती
है।
जिंदगी
एक बोझ है
अनुभव का।
बच्चा बड़ा हो
रहा है, अनुभव
इकट्ठा कर रहा
है। एक दिन
ऐसी घड़ी अगर
आपके जीवन में
आ जाए कि आपको
पता लगे, यह
सारा अनुभव
व्यर्थ है। यह
जो जाना, जो
सीखा, जो
जीया, सब
व्यर्थ है, कचरा है। और
आप इस सारे
कचरे को पटक
दें अपने सिर
से नीचे, तो
आपको एक नया
बचपन मिलेगा।
आप फिर वैसे
सरल हो जाएंगे,
जो निर्भार
होने से कोई
भी हो जाता है।
वह
सरलता जीसस का
मतलब है, कि जो
बच्चों की
भांति सरल
होंगे।
बच्चों की
भांति सिर्फ
उदाहरण है।
संत फिर से
बच्चे की
भांति हो जाता
है। या ठीक से
हम कहें, तो
संत सच में
पहली बार
बच्चा होता है।
क्योंकि कोई
बच्चा बच्चा
है नहीं। उसके
भीतर सब रोग
छिपे हैं, जो
बड़े हो रहे
हैं। समय की
देर है, सब
रोग प्रकट हो
जाएंगे। रोग
मौजूद हैं, उनका बीज
तैयार है।
सिर्फ पानी
पड़ेगा, धूप
लगेगी और सब
प्रकट हो
जाएगा।
तो
बच्चे की जो
सरलता है, वह झूठी
है। संत की
सरलता ही
सच्ची है।
क्योंकि अब
रोग छूट गए।
अब भीतर कुछ
बचा नहीं; संत
खाली है।
खालीपन सरलता
है। अनुभव से
खाली, ज्ञान
से खाली, जीवन
के सारे बोझ
से खाली, रिक्त,
शून्य। अब
उसने जो भी
जाना, सब
पटक दिया। अब
चेतना अकेली
रह गई है।
ऐसा
समझें कि एक
दर्पण है।
दर्पण पर कोई
आता है, तो चित्र
बनता है। ठीक
ऐसे ही हमारे
भीतर प्रज्ञा
है, बुद्धि
है। उस पर सब
चित्र बनते
हैं। संसार भर
के चित्र बनते
हैं। जो भी
सामने आता है
जाता है, उसके
चित्र बनते
हैं।
लेकिन
दर्पण दो तरह
के हो सकते
हैं। एक दर्पण
तो होता है
फोटोग्राफर
के कैमरे में, जहां
प्लेट लगी है।
वह भी दर्पण
है, लेकिन
खास तरह का
दर्पण है।
उसमें खास
रासायनिक
तत्व लगाए गए
हैं। उसमें जो
प्रतिबिंब
बनेगा, वह
बनेगा ही नहीं,
पकड़ भी लिया
जाएगा। वह जो
फोटोग्राफर
की प्लेट है, एक दफा काम
में आ सकती है।
उसमें फिर जो
पकड़ गया, तो
प्लेट खराब हो
गई। अब उसका
दुबारा उपयोग
नहीं हो सकता।
दर्पण
है, उसका
हजार बार
उपयोग हो सकता
है। क्योंकि
दर्पण में
प्रतिबिंब
बनता है, लेकिन
पकड़ता नहीं है।
आप गए, प्रतिबिंब
चला गया, दर्पण
फिर खाली हो गया।
आदमी
अपने मन का दो
तरह से उपयोग
कर सकता है, फोटो—
प्लेट की तरह
या दर्पण की
तरह। जो आदमी
फोटो—प्लेट की
तरह अपने मन
का उपयोग करता
है, वह सब
चीजों को
संगृहीत करता
जाता है, पकड़ता
जाता है।
जिंदगी में जो
भी होता है, सब इकट्ठा
करता जाता है—
कूड़ा—करकट, गाली—गलौज, किसने क्या
कहा क्या नहीं
कहा; क्या
पढ़ा, क्या
सुना— जो भी
होता है, सब
इकट्ठा करता
जाता है।
यही
इकट्ठा बोझ
भीतर आत्मा का
बुढ़ापा हो
जाता है। यह
जो बोझ है, यही
बुढ़ापा है
आध्यात्मिक
अर्थों में।
शरीर हो सकता
है आपका जवान
भी हो। लेकिन
यह जो बोझ है
भीतर, यही आध्यात्मिक
बुढ़ापा है।
जिस
दिन आपको यह
समझ में आ
जाता है कि
मैं मन का एक
और तरह का
उपयोग भी कर
सकता हूं मिरर
लाइक, दर्पण
की तरह; आप
इस सारे बोझ
को पटक देते
हैं और खाली
दर्पण हो जाते
हैं। यह जो
खाली दर्पण हो
जाना है, यह
है बचपन
आध्यात्मिक
अर्थों में—निबोंझ,
निर्भार।
जीसस
इसकी बात कर
रहे हैं। अगर
आप ऐसे बच्चे
हो सकते हैं, तो
परमात्मा को
पाने के लिए
और कुछ भी न
करना पड़ेगा।
इतना करना
काफी है।
लेकिन
इसका मतलब यह
हुआ कि बच्चे
तो न पा सकेंगे।
आपको एक दफे
भटकना पड़ेगा।
एक दफे बोझ
इकट्ठा करना
पड़ेगा। अनुभव
से गुजरना पड़ेगा, संसार की
पीड़ा झेलनी
पड़ेगी। और इस
पीड़ा के झेलने
के बाद अगर आप
इस सबको छोड़ने
को राजी हो
जाएं, तो
ही आपकी
जिंदगी में
असली बचपन का
जन्म होगा।
इसलिए
हमने इस मुल्क
में
ब्राह्मणों
को द्विज कहा
है। सभी
ब्राह्मण
द्विज नहीं
होते। सभी
ब्राह्मण
ब्राह्मण भी
नहीं होते।
लेकिन हमारे
कहने में बड़ा
अर्थ है।
द्विज का अर्थ
है, ट्वाइस
बॉर्न, जिसका
दुबारा जन्म
हुआ। उसको ही
द्विज कहा
जाता है, जिसने
इस बचपन को पा
लिया, जिसका
दुबारा जन्म
हो गया। जो
फिर से ऐसे
पैदा हो गया, जैसे गर्भ
से ताजा आ रहा
हो— कुंआरा, अछूता, जगत
में जिसने
रहकर भी कुछ
पकड़ा नहीं।
कबीर
ने कहा है, ज्यों की
त्यों धर
दीन्ही
चदरिया। कहा
कि बहुत जतन
से ओढी तेरी
चादर, और
फिर जैसी थी, वैसी रख दी, जरा भी दाग
नहीं लगने
दिया। यह बचपन
का मतलब है।
जिंदगी में
जीए, लेकिन
इस जिंदगी की
काल कोठरी में
कोई कालिख न
लगी। या लगी भी,
तो उसे
पोंछने की
क्षमता जुटा
ली। और जब
वापस निकले इस
कोठरी के बाहर,
तो वैसे
शुभ्र थे, जैसे
इस कोठरी में
कभी गए ही न
हों।
जीवन
के अनुभव से
गुजरना तो
जरूरी है, अन्यथा
जीवन का कोई
उपयोग ही नहीं
रह जाता। इतना
ही उपयोग है।
ध्यान रहे, यहां जो भी
दुख—सुख घटित होता
है, उसका
इतना ही उपयोग
है कि आप इस
बोझ को समझ—समझकर
एक दिन इसके
पार उठ सकें।
और जिस दिन आप
पार उठ जाते
हैं, उसी
दिन दुख—सुख
बंद हो जाते
हैं और आनंद
की वर्षा शुरू
हो जाती है।
पूछा
है कि फिर
क्या करना
जरूरी है?
कुछ भी
करना जरूरी
नहीं है। इतना
अगर कर लिया
कि जिंदगी के
कचरे को हटा
दिया मन से और
खाली कर लिया
मन और दर्पण
की तरह शांत
हो गए, तो
सब हो गया।
परमात्मा तत्क्षण
दिखाई पड़
जाएगा। वह
भीतर मौजूद ही
है। हम इतने
भरे हैं, उस
भरे के कारण
वह दिखाई नहीं
पड़ता। वह निकट
ही मौजूद है, लेकिन हमारी
आंखों में
इतने कंकड़—पत्थर
पड़े हैं कि वह
दिखाई नहीं
पड़ता। बचपन की
आंख मिल जाए
ताजी, कुंआरी।
वह अभी और
यहीं उपलब्ध
हो जाता है।
एक
दूसरे मित्र
ने पूछा है कि:
स्वीडन
के एक
वैज्ञानिक
डाक्टर
जैक्सन ने आत्मा
को तौलने के
संबंध में कुछ
खोज की है और
कहा है, आत्मा का
वजन इक्कीस ग्राम
है। अगर आत्मा
तौली जा सकती
है, तो फिर
उसे पकड़ा भी
जा सकता है।
और अगर आत्मा
को पकड़ सकते
हैं, तो
फिर उसे उपयोग
में भी ला
सकते हैं।
क्या आत्मा की
तौल हो सकती
है?
डा. जैक्सन की
खोज मूल्यवान
है। इसलिए
नहीं कि
उन्होंने
आत्मा तौल ली
है, जिसे
उन्होंने
तौला है, उसे
वे आत्मा समझ
रहे हैं।
लेकिन उनकी
तौल मूल्यवान
है।
आदमी
सैकड़ों
वर्षों से
कोशिश करता
रहा है कि जब
मृत्यु घटित
होती है, तो शरीर से
कोई चीज बाहर
जाती है या
नहीं जाती है?
और बहुत
प्रयोग किए गए
हैं।
इजिप्त
में तीन हजार
साल पहले भी
आदमी को इजिप्त
के एक फैरोह
ने कांच की एक
पेटी में बंद
करके रखा मरते
वक्त।
क्योंकि अगर
आत्मा जैसी
कोई चीज बाहर
जाती होगी, तो पेटी
टूट जाएगी, कांच फूट
जाएगा, कोई
चीज बाहर
निकलेगी।
लेकिन कोई चीज
बाहर नहीं
निकली।
स्वभावत:, दो ही
अर्थ होते हैं।
या तो यह अर्थ
होता है कि
आत्मा को बाहर
निकलने के लिए
कांच की कोई
बाधा नहीं है।
जैसे कि सूरज
की किरण निकल
जाती है कांच
के बाहर, और
कांच नहीं
टूटता। या यह
अर्थ होता है।
या तो यह अर्थ
होता है कि
कोई चीज बाहर
नहीं निकली।
फैरोह
ने तो यही
समझा कि कोई
चीज बाहर नहीं
निकली।
क्योंकि कोई
चीज बाहर
निकलती, तो कांच
टूटता। समझा
कि कोई आत्मा
नहीं है।
फिर और
भी बहुत
प्रयोग हुए
हैं। रूस में
भी बहुत
प्रयोग हुए कि
आदमी मरता है, तो उसके
शरीर में कोई
भी अंतर पड़ता
हो, तो हम
सोचें कि कोई
चीज बाहर गई।
लेकिन अब तक
कोई अंतर का
अनुभव नहीं हो
सका था।
जैक्सन
की खोज
मूल्यवान है
कि उसने इतना
तो कम से कम
सिद्ध किया कि
कुछ अंतर पड़ता
है, इक्कीस
ग्राम का सही।
अंतर पड़ता है,
इतनी बात तय
हुई कि आदमी
जब मरता है, तो अंतर पड़ता
है। मृत्यु और
जीवन के बीच
थोड़ा फासला है,
इक्कीस
ग्राम का सही!
अंतर पड़ जाता
है।
अब यह
जो इक्कीस
ग्राम का अंतर
पड़ता है, स्वभावत:
जैक्सन
वैज्ञानिक है,
वह सोचता है,
यही आत्मा
का वजन होना
चाहिए।
क्योंकि
वैज्ञानिक
सोच ही नहीं
सकता कि बिना वजन
के भी कोई चीज
हो सकती है।
वजन
पदार्थवादी
मन की पकड है।
बिना वजन के
कोई चीज कैसे
हो सकती है!
वैज्ञानिक
तो सूरज की
किरणों में भी
वजन खोज लिए
हैं। वजन है, बहुत
थोड़ा है। पांच
वर्गमील के
घेरे में
जितनी सूरज की
किरणें पड़ती
हैं, उनमें
कोई एक छटांक
वजन होता है।
इसलिए एक किरण
आपके ऊपर पड़ती
है, तो
आपको वजन नहीं
मालूम पड़ता।
क्योंकि पांच
वर्गमील में
जितनी किरणें
पड़े दोपहर में,
उनमें एक
छटांक वजन होता
है।
लेकिन
वैज्ञानिक तो
तौलकर चलता है।
मेजरेबल, कुछ भी हो जो
तौला जा सके, तो ही उसकी
समझ गहरी होती
है। एक बात
अच्छी है कि
जैक्सन ने
पहली दफा
मनुष्य के
इतिहास में
तौल के आधार
पर भी तय किया
कि जीवन और
मृत्यु में
थोड़ा फर्क है।
कोई चीज कम हो
जाती है।
स्वभावत:, वह
सोचता है कि
आत्मा इक्कीस
ग्राम वजन की
होनी चाहिए।
अगर
आत्मा का कोई
वजन है, तो वह आत्मा
ही नहीं रह
जाती, पहली
बात। क्योंकि
आत्मा और
पदार्थ में हम
इतना ही फर्क
करते हैं कि
जो मापा जा
सके, वह
पदार्थ है।
अंग्रेजी
में शब्द है
मैटर, वह
मेजर से ही
बना हुआ शब्द
है, जो
तौला जा सके, मापा जा सके।
हम माया कहते
हैं, माया
शब्द भी माप
से ही बना हुआ
शब्द है, जो
तौली जा सके, नापी जा सके,
मेजरेबल, माप्य हो।
तो
पदार्थ हम
कहते हैं उसे, जो मापा
जा सके, तौला
जा सके। और
आत्मा हम उसे
कहते हैं, जो
न तौली जा सके,
न मापी जा
सके। अगर
आत्मा भी नापी
जा सकती है, तो वह भी
पदार्थ का एक
रूप है। और
अगर किसी दिन
वितान ने यह
खोज लिया कि
पदार्थ भी
मापा नहीं जा
सकता, तो
हमें कहना
पड़ेगा कि वह
भी आत्मा का
विस्तार है।
यह जो
इक्कीस ग्राम
की कमी हुई है, यह आत्मा
की कमी नहीं
है, प्राणवायु
की कमी है।
आदमी जैसे ही
मरता है, उसके
शरीर के भीतर
जितनी
प्राणवायु थी,
वह बाहर हो
जाती है। और
आपके भीतर
काफी
प्राणवायु की
जरूरत है, जिसके
बिना आप जी
नहीं
सकते।
आक्सीजन की
जरूरत है भीतर, जो
प्रतिपल जलती
है और आपको
जीवित रखती है।
सब
जीवन एक तरह
की जलन, एक तरह की आग
है। सब जीवन
आक्सीजन का
जलना है। चाहे
दीया जलता हो,
तो भी
आक्सीजन जलती
है; और
चाहे आप जीते
हों, तो भी
आक्सीजन जलती
है। तो एक
तूफान आ जाए
और दीया जल
रहा हो, तो
आप तूफान से
बचाने के लिए
एक बर्तन दीए
पर ढांक दें।
तो हो सकता है
तूफान से दीया
न बुझता, लेकिन
आपके बर्तन
ढांकने से बुझ
जाएगा।
क्योंकि
बर्तन ढांकते
ही उसके भीतर
जितनी आक्सीजन
है, उतनी
देर जल पाएगा,
आक्सीजन के
खत्म होते ही
बुझ जाएगा।
आदमी भी एक
दीया है।
आक्सीजन भीतर
प्रतिपल जल
रही है। आपका
पूरा शरीर एक
फैक्टरी है, जो आक्सीजन
को जलाने का
काम कर रहा है,
जिससे आप जी
रहे हैं।
तो
जैसे ही आदमी
मरता है, भीतर की
सारी
प्राणवायु
व्यर्थ हो
जाती है, बाहर
हो जाती है।
उसको जो पकड़ने
वाला भीतर
मौजूद था, वह
हट जाता है, वह छूट जाती
है। उस
प्राणवायु का
वजन इक्कीस
ग्राम है।
लेकिन
विज्ञान को
वक्त लगेगा
अभी कि
प्राणवायु का
वजन नापकर वह
तय करे। और
अगर जैक्सन को
पता चल जाए कि
यह प्राणवायु का
नाप है, तो सिद्ध हो
गया कि आत्मा
नहीं है, प्राणवायु
ही निकल जाती
है।
इससे
कुछ सिद्ध
नहीं होता।
क्योंकि
आत्मा को
वैज्ञानिक
कभी भी न पकड़
पाएंगे। और
जिस दिन पकड़
लेंगे, उस दिन आप
समझिए कि आत्मा
नहीं है।
इसलिए
विज्ञान से
आशा मत रखिए
कि वह कभी
आत्मा को पकड़
लेगा और
वैज्ञानिक
रूप से सिद्ध
हो जाएगा कि
आत्मा है। जिस
दिन सिद्ध हो
जाएगा, उस दिन आप
समझना कि
महावीर, बुद्ध,
कृष्ण सब
गलत थे। जिस
दिन वितान कह
देगा आत्मा है,
उस दिन
समझना कि आपके
सब अनुभवी नासमझ
थे, भूल
में पड़ गए थे।
क्योंकि
वितान के
पकड़ने का ढंग
ऐसा है कि वह सिर्फ
पदार्थ को ही
पकड़ सकता है।
वह वितान की
जो पकड़ने की
व्यवस्था है,
वह जो
मेथडॉलाजी है,
उसकी जो
विधि है, वह
पदार्थ को ही
पकड़ सकती है, वह आत्मा को
नहीं पकड़ सकती।
पदार्थ
वह है, जिसे
हम विषय की
तरह, ऑब्जेक्ट
की तरह देख
सकते हैं। और
आत्मा वह है, जो देखती है।
विज्ञान
देखने वाले को
कभी नहीं पकड़
सकता; जो
भी पकड़ेगा, वह दृश्य
होगा। जो भी पकड़
में आ जाएगा, वह देखने
वाला नहीं है,
वह जो दिखाई
पड़ रहा है, वही
है। द्रष्टा
विज्ञान की
पकड़ में नहीं
आएगा। और धर्म
और विज्ञान का
यही फासला है।
अगर
विज्ञान
आत्मा को पकड़
ले, तो
धर्म की फिर
कोई भी जरूरत
नहीं है। और
अगर धर्म
पदार्थ को पकड़
ले, तो
विज्ञान की
फिर कोई भी
जरूरत नहीं है।
हालांकि
दोनों तरह के
मानने वाले
पागल हैं। कुछ
पागल हैं, जो
समझते हैं, धर्म काफी
है, विज्ञान
की कोई जरूरत
नहीं है। वे
उतने ही गलत
हैं, जितने
कि कुछ वैज्ञानिक
समझते हैं कि
वितान काफी है
और धर्म की
कोई जरूरत
नहीं है।
विज्ञान
पदार्थ की पकड़
है, पदार्थ
की खोज है।
धर्म आत्मा की
खोज है, अपदार्थ
की, नॉन—मैटर
की खोज है। ये
दोनों खोज अलग
हैं। इन दोनों
खोज के आयाम
अलग हैं। इन
दोनों खोज की
विधियां अलग
हैं।
अगर
विज्ञान की
खोज करनी है, तो
प्रयोगशाला
में जाओ। और
अगर धर्म की
खोज करनी है, तो अपने
भीतर जाओ। अगर
विज्ञान की
खोज करनी है, तो पदार्थ
के साथ कुछ
करो। अगर धर्म
की खोज करनी
है, तो
अपने चैतन्य
के साथ कुछ
करो।
तो इस
चैतन्य को न
तो टेस्ट—टयूब
में रखा जा
सकता है, न तराजू पर
तौला जा सकता
है, न काटा—पीटा
जा सकता है
सर्जन की टेबल
पर, कोई
उपाय नहीं है।
इसका तो एक ही
उपाय है कि
अगर आप अपने
को सब तरफ से
शांत करके
भीतर खड़े हो
जाएं जागकर, तो इसका
अनुभव कर सकते
हैं। यह अनुभव
निजी और
वैयक्तिक है।
एक
मित्र ने यह
सवाल भी पूछा
है कि धर्म और
विज्ञान में
क्या फर्क है?
यही
फर्क है। विज्ञान
है परंपरा, समूह की।
धर्म है निजी
अनुभव, व्यक्ति
का। विज्ञान
प्रमाण दे
सकता है, धर्म
प्रमाण नहीं
दे सकता। धर्म
केवल अनुभव दे
सकता है, प्रमाण
नहीं।
विज्ञान
कह सकता है, सौ
डिग्री पर
पानी गर्म
होता है। हजार
लोगों के
सामने पानी
गर्म करके
बताया जा सकता
है। सौ डिग्री
पर पानी गर्म
हो जाएगा, प्रमाण
हो गया। धर्म
जिन बातों की
चर्चा करता है,
वे किसी के
सामने भी
प्रकट करके
नहीं बताई जा सकतीं,
जब तक कि वह
दूसरा आदमी
अपने भीतर
जाने को राजी
न हो। और वह भी
भीतर चला जाए,
तो किसी दिन
दूसरे के
सामने प्रमाण
नहीं दे सकेगा।
धर्म
के पास कोई
प्रमाण नहीं
है, सिर्फ
अनुभव है।
विज्ञान के पास
प्रमाण है, अनुभव कुछ
भी नहीं है।
तो अगर आपको
प्रमाण
इकट्ठे करने
हों, तर्क
इकट्ठे करने
हों, तो
विज्ञान उचित
है। और अगर
आपको जीवन का
अनुभव पाना हो,
जीवन के
रहस्य में
उतरना हो, तो
धर्म की जरूरत
है।
और
धर्म और
विज्ञान
पृथ्वी पर सदा
बने रहेंगे, क्योंकि
उनके आयाम अलग
हैं, उनकी
दिशाएं अलग
हैं। जैसे आंख
देखती है और
कान सुनता है।
अगर आंख सुनने
की कोशिश करे,
तो पागल हो
जाएगी। और अगर
कान देखने की
कोशिश करे, तो पागल हो
जाएगा। उनके
आयाम अलग हैं,
उनके
डाइमेन्शन
अलग हैं।
विज्ञान
और धर्म का
क्षेत्र ही
अलग है। वे
कहीं एक—दूसरे
को ओवरलैप
नहीं करते, एक—दूसरे
के ऊपर नहीं
आते। अलग—अलग
हैं। इसलिए
कोई झगड़ा भी
नहीं है, कोई
कलह भी नहीं
है। न तो
विज्ञान धर्म
को गलत सिद्ध
कर सकता है और न
सही। और न
धर्म विज्ञान
को गलत सिद्ध
कर सकता है और न
सही। उनका कोई
संबंध ही नहीं
है। उनके
यात्रा—पथ अलग
हैं, उनका
कहीं मिलना
नहीं होता।
इसलिए
दोनों की भाषा
को अलग रखने
की कोशिश करें, तो आपके
अपने जीवन में
सुविधा बनेगी।
जहां पदार्थ
की बात सोचते
हों, वहां
विज्ञान की
सुनें; और
जहां चेतना की
बात सोचते हों,
वहां विज्ञान
की बिलकुल मत
सुनें, वहां
धर्म की सुनें।
और इन दोनों
को मिलाएं मत।
इन दोनों को
आपस में गड्ड—मड्ड
मत करें।
अन्यथा आपका
जीवन एक
कनफ्यूजन हो
जाएगा।
तो
डाक्टर
जैक्सन जो
कहते हैं, वे ठीक
कहते हैं।
उन्होंने एक
कीमती बात
खोजी। लेकिन
वह आत्मा का
वजन नहीं है।
वह ज्यादा से
ज्यादा
प्राणवायु का
वजन हो सकता
है। आत्मा का
कोई वजन नहीं
है।
एक
मित्र ने पूछा
है :
ओशो, गीता
जैसे अमृत—तुल्य
परम रहस्यमय
उपदेश को
भगवान ने
अर्जुन को ही
क्यों दिया? अर्जुन में
ऐसी कौन—सी
योग्यता थी कि
वह इसके लिए
पात्र था? उसका
ऐसा कौन—सा
श्रेष्ठ तय था?
कुछ बातें
खयाल में लेने
जैसी हैं, वे गीता
को समझने में
उपयोगी होंगी,
स्वयं को
समझने में भी।
अर्जुन
का कोई भी तप
नहीं है। तप
की भाषा ही
अलग है।
अर्जुन का
प्रेम है, तप नहीं
है। तप की
भाषा अलग है।
तप की भाषा है
संकल्प की
भाषा। एक आदमी
कहता है कि
मैं पाकर
रहूंगा। अपनी
सारी ताकत लगा
दूंगा। जो भी
त्याग करना है,
करूंगा। जो
भी खोना है, खोऊंगा। जो
भी श्रम करना
है, करूंगा।
अपनी सारी
ताकत लगा
दूंगा।
आपको
खयाल है, हिंदुस्तान
में दो
संस्कृतियां
हैं। एक तो है
आर्य
संस्कृति और
दूसरी है
श्रमण संस्कृति।
श्रमण
संस्कृति में
जैन और बौद्ध
हैं। आर्य
संस्कृति में
बाकी शेष लोग
हैं।
कभी
आपने समझा इस
श्रमण शब्द का
क्या अर्थ होता
है? श्रमण
का अर्थ है, श्रम करके
ही पाएंगे।
चेष्टा से
मिलेगा
परमात्मा— तप
से, साधना
से, योग से।
मुफ्त नहीं
लेंगे।
प्रार्थना
नहीं करेंगे,
प्रेम में
नहीं पाएंगे;
अपना श्रम
करेंगे और पा
लेंगे। एक
सौदा है, जिसमें
अपने को दांव
पर लगा देंगे।
जो भी जरूरी
होगा, करेंगे।
भीख नहीं
मांगेंगे, भिक्षा
नहीं लेंगे, कोई अनुग्रह
नहीं स्वीकार
करेंगे।
तो
महावीर परम
श्रमण हैं। वे
सब दांव पर
लगा देते हैं
और घोर संघर्ष, घोर
तपश्चर्या
करते हैं।
महातपस्वी
कहा है उन्हें
लोगों ने।
बारह वर्ष तक,
बारह वर्ष
तक निरंतर खड़े
रहते हैं धूप
में, छांव
में, वर्षा
में, सर्दी
में। बारह
वर्ष में कहते
हैं कि सिर्फ
तीन सौ साठ दिन
उन्होंने
भोजन किया।
मतलब ग्यारह
वर्ष भूखे, बारह वर्ष
में। कभी एक
दिन भोजन किया,
फिर महीने भर
भोजन नहीं
किया, फिर
दो महीने भोजन
नहीं किया। सब
तरह अपने को
तपाया और तप
कर पाया।
यह
समर्पण के
विपरीत मार्ग
है, संकल्प
का। इसमें
अहंकार को
तपाना है। और
इसमें अहंकार
को पूरी तरह
दांव पर लगाना
है। इसमें
अहंकार को
पहले ही छोड़ना
नहीं है।
अहंकार को
शुद्ध करना है।
और शुद्ध करने
की प्रक्रिया
का नाम तप है।
अहंकार को
शुद्ध करने की
प्रक्रिया का
नाम तप है।
जैसे
सोने को हम आग
में डाल देते
हैं। तप जाता
है। जो भी
कचरा होता है, जल जाता
है। फिर
निखालिस सोना
बचता है।
महावीर कहते
हैं कि जब
निखालिस
अस्मिता बचती है
तपने के बाद, सिफ मैं का
भाव बचता है, शुद्ध मैं
का भाव, तपते—तपते—
तपते, तब
आत्मा
परमात्मा हो
जाती है। वह
शुद्धतम
अहंकार ही
आत्मा है। यह
एक मार्ग है, इसमें सोने
को तपाना
जरूरी है।
एक
दूसरा मार्ग
है, जो
समर्पण का है,
जिसमें
तपाने वगैरह
की चिंता नहीं
है। सोने को, कचरे को, सबको
परमात्मा के
चरणों में डाल
देना है। सोने
को कचरे से
अलग नहीं करना
है। कचरे सहित
सोने को भी
परमात्मा के
चरणों में डाल
देना है। और
कह देना है, जो तेरी
मर्जी
समर्पण
का अर्थ है, अपने को
छोड़ देना है
किसी के हाथों
में। 'अब
वह जो चाहे।
यह छोड़ना ही
घटना बन जाती
है। यह प्रेम
का मार्ग है।
आप तभी छोड़
सकते हैं, जब
प्रेम हो।
संकल्प में
प्रेम की कोई जरूरत
नहीं है; समर्पण
में प्रेम की
जरूरत है।
अर्जुन
का प्रेम है
कृष्ण से गहन, वही उसकी
पात्रता है।
वहां प्रेम ही
पात्रता है।
उसका प्रेम
अतिशय है। उस
प्रेम में वह
इस सीमा तक
तैयार है कि
अपने को सब
भांति छोड़ सका
है।
क्या
घटना घटती है
जब कोई अपने
को छोड़ देता
है? हमारी
जिंदगी का
कष्ट क्या है?
कि हम अपने
को पकड़े हुए
हैं, हम
अपने को
सम्हाले हुए
हैं। यही
हमारे ऊपर
तनाव है, यही
हमारे मन का
खिंचाव है कि
मैं अपने को
सम्हाले हुए
हूं पकड़े हुए
हूं।
आपको
पता है, चिकित्सक
कहते हैं कि
अगर कोई आदमी
बीमार हो और
उसे नींद न आए,
तो फिर
बीमारी ठीक
नहीं हो पाती।
कोई भी बीमारी
हो, बीमारी
के ठीक होने
के लिए नींद
आना जरूरी है।
क्यों? दवा
से ठीक करें।
लेकिन
चिकित्सक
पहले नींद की
फिक्र करेगा।
नींद की दवा
देगा, कि
पहले नींद आ
जाए। क्यों? क्योंकि आप
बीमार हैं, और जब तक आप
जग रहे हैं, आप बीमारी
को जोर से
पकड़े रहते हैं,
उसको छोड़ते
नहीं हैं।
कांशस, सचेतन
जकड़ बनी रहती
है बीमारी की
आपकी छाती के
ऊपर, मन के
ऊपर— मैं
बीमार हूं मैं
बीमार हूं!
नींद में
गिरते ही सब
आपके हाथ से
छूट जाता है।
और जैसे ही
छूटता है, वैसे
ही प्रकृति
काम शुरू कर
देती है। सुबह
तक आप बेहतर
हालत में उठते
हैं।
रोज
सांझ आप थके
सोते हैं।
क्यों थकते
हैं आप? थकते हैं
इसलिए कि आपको
लग रहा है कि
मैं कर रहा
हूं। मैं कर
रहा हूं? तो
थक जाते हैं।
रात नींद में
खो जाते हैं, सुबह ताजे
हो जाते हैं।
क्योंकि कम से
कम रात आपको
कुछ नहीं करना
पड़ा। छोड़ दिया,
जो हुआ।
नींद में आप
गिर जाते हैं
उस स्रोत में,
जहां आपके
श्रम की कोई
भी जरूरत नहीं
है।
प्रेम
जागते हुए
नींद में गिर
जाना है। थोड़ा
कठिन लगेगा
समझना। प्रेम
का मतलब है, होशपूर्वक,
जागते हुए
किसी में गिर
जाना और छोड़
देना अपने को
कि अब मैं
नहीं हूं तू
है। प्रेम एक
तरह की नींद
है जाग्रत।
इसलिए प्रेम
समाधि बन जाती
है। कोई ध्यान
करके पहुंचता
है, तब बड़ा
श्रम करना
पड़ता है। कोई
प्रेम करके
पहुंच जाता है,
तब श्रम
नहीं करना
पड़ता।
लगेगा
कि प्रेम बहुत
आसान है।
लेकिन इतना
आसान नहीं है।
शायद ध्यान ही
ज्यादा आसान है।
अपने हाथ में
है। कुछ कर
सकते हैं।
प्रेम आपके
हाथ में कहां? हो जाए, हो जाए; न
हो जाए, न
हो जाए। लेकिन
अगर छोड़ने की
कला धीरे—
धीरे आ जाए..।
हमें
पता नहीं कि
जिंदगी में जो
भी महत्वपूर्ण
है, वह
छोड़ने की कला
से मिलता है।
कुछ लोगों को
नींद नहीं आती,
इन्सोमेनिया,
अनिद्रा की
बीमारी हो
जाती है। तो
हजार उपाय
करने पड़ते हैं,
फिर भी नींद
नहीं आती।
जितना वे उपाय
करते हैं, उतनी
ही नींद
मुश्किल हो
जाती है।
उन्हें
एक सूत्र का
पता नहीं है
कि नींद चेष्टा
से नहीं आ
सकती। आपको
अगर नींद न
आती हो— यहां
काफी लोग
होंगे, जिनको नहीं
आती होगी। और
अगर आपको अब
भी नींद आती
है, तो आप
प्रिमिटिव
हैं, थोड़े
असभ्य हैं।
सभ्य आदमी को
कहां नींद!
सभ्य आदमी तो
इतना बेचैन हो
जाता है कि
नींद—वींद
कहां! अगर
आपको नींद आती
है, तो
आपमें बुद्धि
की कमी है।
बुद्धिमान
आदमी को कहां
नींद! उसकी
बुद्धि चलती ही
रहती है। वह
लाख कोशिश
करता है सोने
की, बुद्धि
चलती चली जाती
है। लोग
चेष्टा करते
हैं।
आज
अमेरिका में
करीब—करीब
पचास से साठ
प्रतिशत लोग
बिना शामक दवा
के नहीं सो
सकते। और
अमेरिकी मनस
वैज्ञानिकों
का कहना है कि
इस सदी के
पूरे होते—होते
ऐसा आदमी
खोजना
मुश्किल हो
जाएगा
अमेरिका में, जो बिना
दवा के सोता
है। वह अनूठी
चीज हो जाएगा,
कि कोई आदमी
सिर रख लेता
है तकिए पर और
सो जाता है!
ऐसे
लोगों की
तकलीफ है कि
कैसे सोए! तो
कोई कहता है, गिनती
करो एक से सौ
तक, फिर सौ
से वापस एक तक!
कोई कहता है, मंत्र पढ़ो।
कोई कहता है, राम—राम जपो।
कोई कुछ कहता
है, कोई
कुछ कहता है।
लोग करते भी
हैं। और जितना
करते हैं, उतना
ही पाते हैं
कि नींद और
भाग गई।
क्योंकि नींद
के आने का एक
ही सूत्र है
कि आप कुछ मत
करें। आप
चुपचाप पड़
जाएं, ताकि
नींद आ सके।
जब आप
नहीं करते हैं
कुछ, तब
नींद आती है।
नींद के लाने
के लिए कुछ
करना नहीं
पडता। कुछ भी
करना बाधा है।
नींद उतरती है
आपके ऊपर, जब
आप कुछ भी
नहीं करते।
अगर आपको नींद
न आती हो, तो
मजे से पड़े
रहें। और नींद
न आने का मजा
लेते रहें।
नहीं आ रही, मजा है।
नींद आ जाएगी।
आप नींद के
लिए सीधा कुछ
मत करें। सीधी
चेष्टा बाधा
है।
फ्रांस
के एक बहुत
बड़े विचारक, गहन
अनुभवी, कुए
ने एक सूत्र
विकसित किया
है। वह सूत्र
है, ला आफ
रिवर्स
इफेक्ट, विपरीत
परिणाम का
नियम। कुछ
चीजें हैं कि
जिनमें आप अगर
प्रयास करें,
तो उलटा
परिणाम हाथ
आता है।
नींद
वैसी ही चीज
है, आपको
उलटा परिणाम
हाथ आएगा। अगर
आप लाने की
कोशिश करेंगे,
नींद नहीं
आएगी। अगर आप
सब कोशिश छोड़
देंगे, थक
जाएंगे कोशिश
कर—करके, छोड़
देंगे, नींद
आ जाएगी।
नींद
गहन चीज है, आपके हाथ
में नहीं है।
परमात्मा और
भी गहन है।
नींद तो
प्रकृति है।
परमात्मा और
भी गहन है। वह
आपके हाथ में
बिलकुल नहीं
है।
यह
समर्पण के
सूत्र के कहने
वालों का नियम
है कि आप
परमात्मा को
पकड़ने, खोजने की
चेष्टा मत
करें। आप
सिर्फ अपने को
उसमें छोड़ दें,
जैसे नींद
में छोड़ देते
हैं। डूब जाएं।
कह दें कि तू
है और अब मैं
नहीं हूं। अब
तुझे जो करना
हो, उसके
लिए मैं राजी
हूं।
नियति
की बात इसमें
सहयोगी होगी।
केवल नियति को
मानने वाला ही
पूरा समर्पण
कर सकता है।
जो मानता है
कि मैं कुछ कर
सकता हूं वह
समर्पण नहीं
कर सकता।
मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि संकल्प
से नहीं पहुंचा
जा सकता।
संकल्प से लोग
पहुंचे हैं, संकल्प
से पहुंचा जा
सकता है। मगर
गीता का वह
मार्ग नहीं है।
और अर्जुन की
वह पात्रता
नहीं है।
इसलिए
अर्जुन ने कोई
तप नहीं किया
है। अगर आप
प्रेम को ही
तप कहें, तब बात
दूसरी है।
प्रेम भी तप
है। क्योंकि
जो करता है, वह प्रेम
में वैसे ही
जलता है, जैसे
कोई आग में
जलता हो। और
शायद प्रेम की
आग और भी गहन
आग है। और
शायद साधारण
आग ऊपर—ऊपर
जलाती होगी, प्रेम की आग
भीतर तक राख
कर जाती है।
अगर प्रेम को
भी तप कहें, तब मुझे कोई
अड़चन नहीं है।
लेकिन तब भाषा
को साफ समझ
लेना जरूरी है।
तप
उनका मार्ग है, जो कहते
हैं, हम
कोशिश करके पा
लेंगे। प्रेम
उनका मार्ग है,
जो कहते हैं,
हमारी
कोशिश से क्या
होगा! हम
असहाय हैं।
तुम उठा लो।
इसलिए
तप के मार्ग
पर ईश्वर को
मानने की भी
जरूरत नहीं है।
महावीर
ने ईश्वर को
नहीं माना।
बुद्ध ने
ईश्वर को नहीं
माना।
प्राचीन योग—सूत्रों
ने कहा है कि
मानो ईश्वर को
तो ठीक है; न मानो, तो भी चलेगा।
योग साधो, घटना
घट जाएगी।
ईश्वर को
मानने, न
मानने की कोई
जरूरत नहीं है।
लेकिन
प्रेम के
मार्ग पर तो
ईश्वर को
मानकर ही चलना
होगा। नहीं तो
समर्पण कैसे
करिएगा? किसको
समर्पण
करिएगा? ईश्वर
हो या न हो, अगर
आप समर्पण कर
सकते हैं, तो
आप पा लेंगे
परम अनुभूति।
इसलिए
प्रेम का
मार्ग मानकर
चलता है कि
ईश्वर है परम केंद्र
जीवन का, अस्तित्व का।
उसमें हम अपने
को छोड़ देते
हैं। हम अपनी
तरफ से अपने
को नहीं ढोते।
प्रेम के पथिक
का कहना है कि
सब तरह के
प्रयास ऐसे ही
हैं, जैसे
कोई आदमी अपने
जूते के फीते
पकड़कर खुद को
उठाने की
कोशिश करे। यह
नहीं हो सकता।
छोड़ दो।
कृष्ण
के सामने
अर्जुन की एक
ही योग्यता है
कि वह छोड़ सका
पूरा का पूरा।
अगर आप भी छोड़
सकते हैं, तो जो
अर्जुन को घटा,
वह आपको भी
घट जाएगा।
नहीं छोड़ सकते
हैं, तो
बेहतर है फिर
अर्जुन के
रास्ते पर न
चलें। फिर
महावीर का
रास्ता है, पतंजलि का
रास्ता है, उस पर चलें।
फिर चेष्टा
करें, श्रम
करें।
हम ऐसे
बेईमान हैं कि
हम दोनों के
बीच समझौता खोज
लेते हैं।
चेष्टा भी
नहीं छोड़ते, और चाहते
हैं, मुफ्त
में मिल भी
जाए। कहते हैं,
हम अपने को
छोड़ेंगे भी
नहीं, और
वैसी ही घटना
घट जाए, जैसी
अर्जुन को घटी।
पर अर्जुन को
घटी इसलिए कि
वह छोड़ सका।
आपको पता है, आप अगर
जिंदा आदमी
हों और तैरना
नहीं जानते, तो नदी में
डूबकर मर
जाएंगे। अगर
आपको नदी में
फेंक दें और
आप तैरना न
जानते हों, तो आप डूबकर
मर जाएंगे।
लेकिन आपने एक
बात कभी देखी,
कि जब आप मर
जाएंगे, तब
आपकी लाश ऊपर
तैरने लगेगी!
उसको नदी न
डुबा सकेगी!
बड़े
मजे की बात है!
जिंदा आदमी
डूब मरा; मुर्दे को
नदी नहीं डुबा
पा रही है!
मुर्दे की क्या
खूबी है? मुर्दे
की पात्रता
क्या है? और
आपकी क्या कमी
थी? जिंदा
थे, तब फंस
मरे। और अब
मरकर मजे से
ऊपर तैर रहे
हैं, और
नदी अब कुछ भी
नहीं कर सकती!
मुर्दे
की एक ही
पात्रता है कि
अब उसने नदी
पर अपने को
छोड़ दिया।
उसकी और कोई
पात्रता नहीं
है। अब वह लड़
नहीं सकता, यही उसकी
योग्यता है।
आप लड़ रहे थे, वही आपकी
अयोग्यता। थी।
नदी से जो
लड़ेगा, वह
डूबेगा।
जिसको
हम तैरने वाला
कहते हैं, वह क्या सीख
लेता है, आपको
पता है! तैरना
कोई कला थोड़े
ही है। वह यही
सीख लेता है
कि नदी में
मुर्दा कैसे
हुआ जाए, बस।
तैरना कोई कला
है? तैरने
में करते क्या
हैं आप? हाथ—पैर
थोड़े तड़फड़ा
लेते हैं। वह
भी जो सिक्खड़
है, वह
तड़फड़ाता है।
जो जानता है, वह हाथ—पैर
छोड्कर भी नदी
पर तैर लेता
है। वह मुर्दा
होना सीख गया
है। अब वह नदी
से लड़ता नहीं
है। वह नदी के
खिलाफ कोई
कोशिश नहीं
करता। वह नदी
को कहता है कि
तू भी ठीक, मैं
तेरे साथ राजी
हूं! वह तैरने
लगता है।
नदी
में मुर्दे की
भांति हो जाएं, तो आप
अर्जुन हो
जाएंगे। फिर
कोई आपको डुबा
न सकेगा।
अर्जुन की
योग्यता थी कि
वह अपने को
छोड़ सका। वही
भक्त की
योग्यता है।
एक
मित्र ने पूछा
है कि:
शायद
मैं ठीक से
समझ नहीं पाया।
आप कहते हैं, प्रार्थना
में मांगें मत;
कोई वासना,
आकांक्षा न
करें। क्या
आपका यह मतलब
है कि
प्रार्थना
में कुछ मांगा
जाए, तो वह
पूरा नहीं
होगा?
नहीं; मेरा यह
मतलब नहीं है।
वह तो पूरा हो
जाएगा, प्रार्थना
बेकार हो
जाएगी। आपने
सस्ते में
प्रार्थना
बेच दी। जिससे
परमात्मा मिल
सकता था, उससे
आपने एक बेटा
पा लिया।
जिससे
परमात्मा मिल
सकता था, उससे
आपने कोई
नौकरी पा ली।
आपने बहुत
सस्ते में
प्रार्थना
बेच दी!
यह
मेरा मतलब
नहीं है कि
प्रार्थना
में आप मांगेंगे, तो पूरा
नहीं होगा।
पूरा हो जाएगा,
यही खतरा है।
क्योंकि तब आप
प्रार्थना के
साथ गलत संबंध
जोड़ लेंगे और
व्यर्थ की
चीजें मांगते
चले जाएंगे।
वह पूरा हो
जाएगा। पूरा
इसलिए नहीं हो
जाएगा कि
परमात्मा
आपकी
प्रार्थना
पूरी करने आ
रहा है। इसलिए
भी नहीं।
क्योंकि आपकी
क्षुद्र
प्रार्थनाओं
का क्या मूल्य
है!
प्रार्थना
इसलिए पूरी हो
जाती है कि
प्रार्थना
अगर आपने पूरे
भाव से की है, तो आप ही
उसके पूरे
करने के लिए
तत्पर हो जाते
हैं। अगर आपने
प्रार्थना
पूरे भाव से
की है, तो
आपका मन सशक्त
हो। जाता है।
अगर आपने
प्रार्थना
पूरे भाव से
की है, तो
आपके मन की शक्ति
ही उस
प्रार्थना के
कार्य को पूरा
करवा देती है।
कोई
आपकी
प्रार्थना
में आ नहीं
रहा है। आप
अकेले ही हैं।
वह मोनोलाग है, एकालाप
है, उसमें
कोई दूसरा
उत्तर नहीं दे
रहा है। लेकिन
अगर आपने
बलपूर्वक कोई
प्रार्थना की
है, तो उस
प्रार्थना को
बलपूर्वक
करने में आप
बलशाली हो गए।
और वह जो
बलशाली हो
जाना है आपके
मन का, वही
सूक्ष्म
शक्तियों को
विकीर्णित कर
देता है और
घटना घट जाती
है। अगर संदेह
से की है, तो
घटना नहीं
घटती। क्योंकि
संदेह अगर साथ
मौजूद है, तो
आप बलशाली हो
ही नहीं पाते।
लेकिन
प्रार्थना
पूरा कर देगी।
आप जो भी
मांगेंगे, पूरा हो
जाएगा। यह
मेरा मतलब
नहीं था। मेरा
मतलब यह था कि
जब आप मांगते
हैं, तब वह
प्रार्थना
नहीं रही, मांग
ही हो गई।
प्रार्थना
तो वह शुद्ध
क्षण है, जब आपका और
विराट का मिलन
होता है। वहां
छोटी—छोटी
मांगें बीच
में खड़ी न
करना। उन
क्षुद्र
बातों के कारण
आडू पड़ जाएगी।
और छोटी—छोटी
चीजें इतनी
बड़ी आडू बन
जाती हैं, जिसका
हिसाब नहीं है।
कभी
खयाल किया, आंख में
एक छोटा—सा
तिनका चला जाए,
और सामने
हिमालय भी खड़ा
हो, तो फिर
हिमालय भी
दिखाई नहीं
पड़ता; आंख
बंद हो जाती
है। एक छोटा—सा
तिनका पूरे
हिमालय को ढंक
देता है; आंख
ही बंद हो
जाती है। छोटी—सी
मांग आंख को
बंद कर देती
है। फिर
परमात्मा
सामने भी खड़ा
हो, तो
दिखाई नहीं
पड़ता।
परमात्मा के
पास मांगते
हुए मत जाना।
इसका यह मतलब
नहीं है कि
आपके मन की
ताकत नहीं है।
आपके मन की
बड़ी ताकत है।
और अगर आप
पूरे भरोसे से
कोई बात को तय
कर लें, वह
हो जाएगी।
उसको कोई
परमात्मा बीच
में आपके पूरा
करने नहीं आता।
आप ही पूरा कर
लेते हैं।
इतने के लिए
तो आप भी काफी
परमात्मा हैं!
ये जो
मन की क्षमताएं
हैं— मन की
क्षमताएं हैं, अगर आप
कोई विचार
बहुत गहरे में
मन में ले लेते
हैं, तो
आपका मन उस
विचार को पूरा
करने में
संलग्न हो
जाता है। और
आपके पास न
मालूम कितनी
सूक्ष्म
शक्तियां हैं,
जिनका आपको
पता नहीं है, जिनका आपको
खयाल नहीं है।
समझें।
आपको नौकरी
नहीं मिल रही
है। आप पच्चीस
इंटरव्यू दे
आए। और जहां
भी जाते हैं, वहीं से
खाली हाथ लौट
आते हैं। कभी
आपने सोचा कि
जब आप
इंटरव्यू
देकर खाली हाथ
लौटते हैं, तो उसमें
इंटरव्यू
लेने वाले का
तो थोड़ा हाथ है
ही, आपका
भी काफी हाथ
है। ज्यादा
आपका ही हाथ
है।
आप जिस
ढंग से प्रवेश
करते हैं उसके
दफ्तर में।
आपकी शक्ल—सूरत
आपने जैसी बना
रखी है, कुटी—पिटी, हारी हुई।
भीतर से आप
डरे हुए हैं
और पहले ही
सोच रहे हैं कि
नौकरी तो
मिलनी नहीं है।
ये
वाइब्रेशंस
आप लेकर उसके
दफ्तर में
प्रवेश करते
हैं। वह आपकी
तरफ देखकर ही
निगेटिव हो
जाता है।
आप
उसको निगेटिव
कर रहे हैं।
आप उसको नकार
से भर देते
हैं। आपको
देखकर ही उसके
मन में आकर्षण
पैदा नहीं होता
कि खींच ले
आपको पास या
आपके पास खिंच
जाए, ऐसा
लगता है कि कब
आदमी यह बाहर
निकले। और
जैसे ही आप
उसके चेहरे पर
देखते हैं कि
इसको लग रहा
है कि कब यह
आदमी बाहर
निकले, आप
और कंप जाते
हैं। आपको
पक्का हो जाता
है कि गई, यह
नौकरी भी गई!
यह आप ही कर
रहे हैं।
अगर आप
प्रार्थना कर
सकें किसी
मंदिर में जाकर, चाहे
वहां कोई
देवता हो या न
हो, यह
सवाल बड़ा नहीं
है। असली हो
देवता, नकली
हो, यह भी
सवाल नहीं है।
अगर आप किसी
मंदिर में
जाकर
प्रार्थना कर
सकें पूरे
भरोसे के साथ;
यह
प्रार्थना
किसी देवता को
नहीं बदलेगी,
आपको बदल
देगी। आप उस
मंदिर से जब
लौटेंगे, अब
भरोसा होगा।
आत्मविश्वास
होगा। पैरों
में ताकत होगी।
आंखों में
रौनक होगी।
और जब
आप दफ्तर में
प्रवेश
करेंगे किसी
नौकरी के, तो आपके
भीतर एक यस
मूड होगा, एक
हां का भाव
होगा कि नौकरी
मिलने वाली है,
प्रार्थना
पूरी होने
वाली है। अब
कोई रोक नहीं
सकता, परमात्मा
मेरे साथ है।
यह जो आप भीतर
प्रवेश कर रहे
हैं, आपकी
तरंगें अब
दूसरी हैं, पाजिटिव हैं,
विधायक हैं।
जो भी आदमी
आपको देखेगा,
वह खिचेगा,
आकर्षित
होगा। आप
मैग्नेट बन गए।
प्रार्थना
ने किसी
परमात्मा के
विचार को नहीं
बदला; प्रार्थना
ने आपको बदल
दिया।
और
आपकी
प्रार्थनाएं
परमात्मा के
विचार को कैसे
बदल पाएंगी? इसका तो
मतलब यही हुआ
कि जब तक आपने
प्रार्थना
नहीं की थी, परमात्मा
कुछ गलती में
था! आपने सलाह
दी, तब
उनको अक्ल आई!
अब तक नौकरी
नहीं दिलवा
रहे थे, अब
नौकरी दिलवा
रहे हैं।
या तो
इसका यह मतलब
होता है, या इसका यह
मतलब होता है
कि रिश्वत की
तलाश में था
परमात्मा! जब
तक आप हाथ—पैर
न जोड़ो, फूल—पत्ती
न चढ़ाओ, नारियल
न पटको, सिर
न पटको
उनके
पैरों में, तब तक वे
राजी न होंगे।
आपकी स्तुति
की खोज थी, खुशामद,
कोई रिश्वत!
तो यह तो
ब्लैकमेलिंग
है। आदमी को।?
नौकरी
दिलवाना है, तो पहले सिर
पटकवाओ।
नहीं, न
परमात्मा
आपकी रिश्वत
की तलाश में
है, न आपकी
स्तुति की, न आपकी
प्रार्थना की।
लेकिन जो आप
कर रहे हैं, उससे आप बदल
रहे हैं। आप
दूसरे आदमी
होकर प्रवेश
कर रहे हैं।
यह जो
आपका आकर्षण
है पाजिटिव
बिंदु का, विधायक
बिंदु का, इसका
परिणाम होगा।
नौकरी मिल
सकती है। और
नौकरी मिल
जाएगी, तो
आपका एक भाव
दृढ़ हो जाएगा
कि प्रार्थना
से मिली। अब
आप और मजबूत
हो जाएंगे। अब
दुबारा किसी
दूसरी जगह
प्रार्थना
करके जाएंगे,
तो आपके
पैरों की ताकत
अलग होगी। आप
हवा में
उड़ेंगे। यह
आत्मविश्वास
काम करता है।
प्रार्थना
आत्मविश्वास
देती है।
आत्मविश्वास
आपकी
शक्तियों को
विधायक बना देता
है। अविश्वास
अपने पर, नकारात्मक
बना देता है।
तो यह
मैंने नहीं
कहा कि प्रार्थना
करेंगे, तो कोई मांग
पूरी नहीं
होगी। पूरी हो
जाएगी, यही
खतरा है। पूरी
न होती, तो
शायद आप। कभी
न कभी
प्रार्थना
में मांग बंद
कर देते। वह
पूरी हो जाती
है, तो मांग
आदमी जारी
रखता है।
धन्यभागी
हैं वे, जिनकी
प्रार्थनाएं
कभी पूरी नहीं
होतीं।
क्योंकि तब उनको
समझ में आ
जाएगा कि
प्रार्थना
में मांग व्यर्थ
है। तो शायद
किसी दिन वे
उस सार्थक
प्रार्थना को कर
सकें, जिसमें
मांग नहीं
होती, सिर्फ
भाव होता है।
ठीक से
समझ लें, प्रार्थना
मांग नहीं, दान है। अगर
आप परमात्मा
को अपने को
देने गए हैं, तो
प्रार्थना है;
अगर उससे
कुछ लेने गए
हैं, तो
प्रार्थना
नहीं है।
अब हम
सूत्र लें।
इस
प्रकार के
मेरे इस
विकराल रूप को
देखकर तेरे को
व्याकुलता न
होवे और
मूढ्भाव भी न
होवे और
भयरहित, प्रीतियुक्त
मन वाला तू उस
ही मेरे इस
शंख, चक्र,
गदा, पद्य
सहित
चतुर्भुज रूप
को फिर देख।
कृष्ण
ने कहा, मैं लौट आता
हूं वापस
साकार में, सगुण में, ताकि तुझे
भय न होवे, तेरे
मन को राहत
मिले, सांत्वना
मिले। इसलिए
मैं अपने उसी
रूप में वापस
लौट आता हूं जिसकी
तू मांग कर
रहा है।
यहां
एक बात समझ
लेने जैसी
जरूरी है कि
विराट का और व्यक्ति
का संबंध मां
और बेटे का संबंध
है। कहता हूं
मां और बेटे
का; बाप
और बेटे का
नहीं—सोचकर।
पीछे आपसे बात
करूंगा।
विराट और
व्यक्ति के
बीच जो संबंध
है वह मां और
बेटे का संबंध
है। क्योंकि
हम विराट से
उत्पन्न होते
हैं। उसकी ही
लहरें, उसकी
ही तरंगें हम
हैं। वही
हममें खिला।
वही हममें फूल—पत्ता
बना। वही
हमारा
व्यक्तित्व
है।
तो
हमारे और
विराट के बीच
जो संबंध है, वह वही
होगा जो एक
मां और बेटे
के बीच है।
क्योंकि मां
के गर्भ में
बेटा बड़ा होता
है उसके अंग
की भांति, उसके
शरीर की भांति।
कुछ भेद नहीं
होता। मां
मरेगी, तो
उसका बेटा मर
जाएगा। और
बेटा भीतर मर
जाए, तो
मां की मौत घट
सकती है।
दोनों एक हैं।
एक से ही जुड़े
हैं। बेटा
अपनी सांस भी
नहीं लेता, मां से ही
जीता है। मां
का ही प्राण
उसका प्राण है।
मां के साथ एक
साथ एक है।
जैसे लहर सागर
के साथ एक है।
फिर यह
बेटा पैदा
होता है। तो
जैसे मां का
ही एक हिस्सा
बाहर गया, जैसे मां
का ही एक अंग
अनंत की
यात्रा पर
निकला। यह
कहीं भी रहे, कितना ही
दूर रहे, मां
से बहुत
सूक्ष्म
तंतुओं से
जुड़ा रहता है।
अगर सच
में ही मां और
बेटे की घटना
घटी हो..। सच
में इसलिए
कहता हूं कि
सभी के भीतर
नहीं भी घटती।
कुछ माताएं
केवल जननी
होती हैं, माताएं
नहीं। कोई
बहुत भाव से
जन्म नहीं
देतीं। एक
जबरदस्ती थी,
एक बोझ था, एक काम था, निपटा दिया।
इन माताओं का
बस चलेगा, तो
आज नहीं कल, जैसा आज वे
बच्चे के पैदा
होने के बाद
नर्स को पालने
के लिए रख
लेती हैं, आज
नहीं कल वे
किसी नर्स को
गर्भ के लिए
भी रख लेंगी!
और पश्चिम में
उपाय हो गए
हैं अब कि
आपका बेटा
किसी दूसरे के
गर्भ में बड़ा
हो सकता है।
तो जो सुविधा—संपन्न
हैं, वे
अपने गर्भ में
बड़ा नहीं
करेंगी, वे
किसी और के
गर्भ में बड़ा
कर लेंगी।
मां का
मतलब तो यह है
कि इस बेटे
में मैं जन्मी, इस बेटे
में मेरा जीवन
आगे फैला।
जैसे वृक्ष की
एक शाखा दूर
आकाश में निकल
जाए, बस
ठीक मेरी एक
शाखा आगे गई।
जीवन
इतना इकट्ठा
मालूम पड़े जिस
मां को भी, उसके और
उसके बेटे के
बीच हजारों
मील के बीच भी
संबंध होता है।
इस पर बड़ा काम
हुआ है। और
अगर बेटा
बीमार पड़ जाए,
तो मां
बेचैन हो जाती
है। हजारों
मील के फासले
पर! अगर बेटा
मर जाए, तो
मां को तत्क्षण
आघात पहुंचता
है।
अभी
रूस के कुछ
वैज्ञानिक
पशुओं के साथ
प्रयोग कर रहे
थे, तो
बहुत चकित हुए।
और पता चला कि
पशुओं में
मातृत्व शायद
ज्यादा है
मनुष्यों की
बजाय! खरगोश
पर वे प्रयोग
कर रहे थे। तो
खरगोश के
बच्चों को रखा
गया ऊपर और
उनकी मां को
वे ले गए नीचे
समुद्र में एक
पनडुब्बी में।
और उन्होंने
बच्चों को ऊपर
सताना शुरू
किया, जब
मां पनडुब्बी
में नीचे थी।
जैसे ही
उन्होंने
बच्चों को
सताना शुरू
किया, मां
वहां बेचैन हो
गई। उन्होंने
सब यंत्र लगा
रखे थे, ताकि
उसकी बेचैनी
नापी जा सके
कि वह कितनी
परेशान है। और
जब उन्होंने
बच्चों को मार
डाला, तो
उसकी परेशानी
का कोई अंत
नहीं था, वह
बेहोश हो गई
परेशानी में।
यह
प्रयोग कोई सौ
बार किया। और
हर बार अनुभव
हुआ कि वह
खरगोश और उसकी
मां के बीच
समय और स्थान
का कोई फासला
नहीं है। उनके
भीतर कुछ
अंतरंग
वार्ता चल रही
है। निरंतर
कोई अंतरंग
संबंध चल रहा
है। कोई ध्वनि—तरंगें
उन दोनों को
जोड़े हुए हैं।
तो मां
और बेटे के
बीच जैसा
संबंध है, उससे भी
गहन— उदाहरण
के लिए कह रहा
हूं मां और
बेटे का—
अस्तित्व और
आपके बीच
संबंध है। आप
अस्तित्व के ही
हिस्से हैं।
अस्तित्व ही
आपमें फैल गया
है और दूर तक।
आप अस्तित्व
हैं।
इसका
क्या अर्थ है? इसका
अर्थ यह है कि
अस्तित्व
आपको दुख नहीं
देना चाहता।
अस्तित्व
आपको भयभीत भी
नहीं करना
चाहता। क्यों
करना चाहेगा?
मां बेटे को
क्यों दुख
देना चाहेगी?
अस्तित्व
आपको परेशान
नहीं करना
चाहता। और अगर
आप परेशान हैं,
तो वह आप
अपने ही कारण
होंगे। अगर
भयभीत हैं, तो अपने ही
कारण होंगे।
अगर दुखी हैं,
तो अपने ही
कारण होंगे।
अस्तित्व
आपको दुखी
नहीं करना
चाहता।
जीवन
तो आपको पूरे
आनंद का मौका, सुविधा, अवसर, सामर्थ्य,
सब देता है।
आप ही कुछ
गड़बड कर लेते
हैं। आप ही
बीच में खड़े
हो जाते हैं
और अस्तित्व
और अपने बीच
बाधा बन जाते
हैं। यह जो कृष्ण
का कहना है कि
मैं वापस लौट
आता हूं। यह
इसका सूचक है
कि अस्तित्व
से आप जो भी
गहन भाव से
प्रार्थना
करेंगे, अस्तित्व
से जो भी गहन
भाव से आप
कहेंगे, प्रेमपूर्वक
अस्तित्व से
जो भी आप
निवेदन
करेंगे, अस्तित्व
बहरा नहीं है,
अस्तित्व
हृदयहीन नहीं
है।
यही
विज्ञान और
धर्म की समझ
का भेद है।
वितान कहता है, अस्तित्व
है हृदयहीन, हार्टलेस।
कुछ भी करो, अस्तित्व
तुम्हारी सुनने
वाला नहीं है।
कुछ भी करो, अस्तित्व के
पास कान नहीं
हैं कि
तुम्हारी
सुने। कुछ भी
करो, अस्तित्व
को पता भी
नहीं चलेगा।
यह विज्ञान की
दृष्टि है।
अस्तित्व है
गहन उपेक्षा
में। तुम क्या
हो, हो या
नहीं हो, कोई
प्रयोजन नहीं
है।
धर्म
कहता है, यह असंभव है।
अगर हम
अस्तित्व के
ही हिस्से हैं,
तो यह असंभव
है कि अस्तित्व
हमारे प्रति
इतना उपेक्षा
से भरा हो।
अस्तित्व
हमारे प्रति
किसी गहरे
लगाव में न हो,
यह नहीं
माना जा सकता,
क्योंकि हम
अस्तित्व से
पैदा हुए हैं।
अगर हम
अस्तित्व से
ही पैदा हुए
हैं और उसी में
लीन हो जाएंगे,
तो हम उसी
का खेल हैं।
तो अस्तित्व
प्रतिपल हमारे
प्रति सजग है,
और
अस्तित्व
हृदयपूर्ण है।
वह जो
मुसलमान अपनी
मस्जिद के
मीनार पर खड़े
होकर अजान दे
रहा है, कबीर ने
उसकी खूब मजाक
की है। वह
मजाक एक अर्थ
में सही और एक
अर्थ में
बिलकुल गलत है।
कबीर ने कहा
है कि क्या
तेरा खुदा
बहरा हो गया है,
जो तू इतने
जोर से चिल्ला
रहा है! यह बात
सच है। इतने
जोर से
चिल्लाने की
कोई जरूरत भी
नहीं है। मौन
में भी कहा जा
सकता है, तो
भी वह सुन
लेगा। यह मतलब
है कबीर का।
लेकिन
यह जो जोर से
चिल्ला रहा है, इसकी भी
एक सचाई है।
यह असल में यह
कह रहा है कि
मैं तो बहुत
कमजोर हूं
मेरी आवाज तुझ
तक पहुंचे न
पहुंचे, तो
अपनी पूरी
ताकत लगाकर
चिल्ला रहा
हूं। और यह
भरोसा है मेरा
कि तू बहरा
नहीं है, सुन
ही लेगा। जोर
से इसलिए नहीं
चिल्ला रहा
हूं कि तू
बहरा है, जोर
से इसलिए
चिल्ला रहा
हूं कि मैं
कमजोर हूं।
तो
कबीर की बात
एक अर्थ में
ठीक है, खुदा बहरा
नहीं है।
लेकिन दूसरी
बात में गलत
है। यह जो
अजान देने
वाला है, यह
कमजोर है। यह
सिर्फ अपनी
कमजोरी जाहिर
कर रहा है। यह
कह रहा है, मैं
असहाय हूं।
बच्चा
देखता है कि
मां नहीं है
पास, तो
जोर से
चिल्लाने
लगता है, रोने
लगता है।
इसलिए नहीं कि
मां बहरी है, बल्कि सिर्फ
इसलिए कि
बच्चा कमजोर
है। उसकी आवाज
का उसे खुद ही
भरोसा नहीं है।
इसलिए जोर से
चिल्ला रहा है।
यह जो
सूत्र है, कृष्ण
कहते हैं, मैं
वापस लौट आता
हूं यह इस बात
की खबर है कि
अस्तित्व
वैसा ही हो
जाएगा, जैसी
आपकी गहरी—गहरी
मौन
प्रार्थना
होगी। जैसा
गहरा भाव होगा,
अस्तित्व
वैसा ही राजी
हो जाएगा।
इसके
बड़े
इंप्लीकेशंस
हैं, इसकी
बड़ी
रहस्यपूर्ण
उपपत्तिया
हैं। इसका
मतलब यह हुआ
कि आप जो भी कर
रहे हैं, वह
भी! अस्तित्व
ने रूप ले
लिया है आपकी
वासनाओं के
कारण। आपने।
मांगी थी एक
सुंदर स्त्री,
वह आपको मिल
गई। आपने
मांगा था एक
मकान, वह
घटित हो गया।
आपने चाहा था
एक सुंदर शरीर, स्वस्थ
शरीर, वह
हो गया।
आप
कहेंगे, नहीं होता।
मांगी थी
सुंदर स्त्री,
मिल गई
कुरूप। मांगा
था सुंदर—स्वस्थ
शरीर, मिल
गई बीमारियों
वाली देह।
लेकिन
उसमें भी आप
खयाल करें कि
उसमें भी आपकी
ही मांग रही
होगी। आपको जो
भी मिल गया है, उसमें
कहीं न कहीं
आपकी मांग रही
होगी। आपकी
मांगें बड़ी
कंट्राडिक्टरी
हैं, विरोधाभासी
हैं। इसलिए
अस्तित्व भी
बड़ी दिक्कत
में होता है।
क्योंकि आप एक
तरफ से जो
मांगते हैं, दूसरी तरफ
से खुद ही गलत
कर लेते हैं।
अभी एक
लड़की मेरे पास
आई और उसने
कहा कि मुझे पति
ऐसा चाहिए, शेर जैसा।
सिंह हो। दबंग
हो। लेकिन सदा
मेरी माने! अब
मुश्किल हो गई।
अब इनको एक
ऐसा पति
मिलेगा जो
देखने में शेर
हो और भीतर से
बिलकुल भेड़—बकरी
हो। तब इसको
तकलीफ होगी।
इसकी मांगें
विरोधी हैं।
जो दबंग होगा,
वह तुझसे
क्यों दबेगा?
वह सबसे
पहले तुझी को
दबाएगा। सबसे
निकट तेरे। को
ही पाएगा। अब
इस स्त्री की
जो मांग है, विरोधाभासी
है, कट्राडिक्टरी
है। हालांकि
उसे खयाल भी
नहीं है।
पुरुष
ऐसी स्त्री
चाहता है, जो बहुत
सुंदर हो। ऐसी
स्त्री जरूर
चाहता है, जो
बहुत सुंदर हो,
लेकिन साथ
में वह ऐसी
स्त्री भी
चाहता है, जो
बिलकुल पक्की
पतिव्रता हो।
साथ में वह यह
भी चाहता है
कि किसी आदमी
की नजर मेरी
स्त्री की तरफ
बुरी न पड़े।
अब वह सब
उपद्रव की
बातें चाह रहा
है। बहुत
सुंदर स्त्री
होगी, दूसरों
की नजर भी
पड़ेगी। और
ध्यान रहे, बहुत सुंदर
स्त्री भी
बहुत सुंदर
पुरुष की तलाश
कर रही है, आपकी
तलाश नहीं कर
रही है।, तो
पतिव्रता
होना जरा
मुश्किल है।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला
नसरुद्दीन
बहुत देर तक
अविवाहित रहा।
लोग उससे
पूछते कि
मुल्ला विवाह
क्यों नहीं कर
लेते? वह
कहता कि मैं
एक पूर्ण स्त्री
की तलाश कर
रहा हूं
सर्वांग
सुंदर, सती,
सीता—सावित्री,
ऐसी कुछ।
लोगों ने पूछा
कि तुम के हुए
जा रहे। हो, तलाश कब
पूरी होगी? क्या इतने
दिन से खोजते—खोजते
तुम्हें कोई
पूर्ण स्त्री
नहीं मिली? उसने कहा, एक दफे मिली,
लेकिन मुसीबत,
वह भी किसी
पूर्ण पुरुष
की तलाश कर
रही थी! मिली, बाकी मैं
उसके योग्य
नहीं था।
हमारी
वासनाएं हैं
विरोधी। हम जो
मांग करते हैं, वे एक—दूसरे
को काट देती
हैं।
अस्तित्व
हमारी सब
मांगें पूरी
कर देता है, यह जानकर आप
हैरान होंगे।
लेकिन आपको
पता ही नहीं, आप क्या
मांगते हैं।
कल जो मांगा
था, आज
इनकार कर देते
हैं। आज जो
मांगते हैं, सांझ इनकार
कर देते हैं।
आपको पता ही
नहीं कि आपने
इतनी मांगें
अस्तित्व के
सामने रख दी
हैं कि अगर वह
सब पूरी करे, तो आप पागल
होंगे ही, कोई
और उपाय नहीं
है। और उसने
सब पूरी कर दी
हैं।
जिन्होंने
धर्म में गहन
प्रवेश किया
है, वे
जानते हैं कि
आदमी की जो भी
मांगें हैं, वे सब पूरी
हो जाती हैं।
यही आदमी की
मुसीबत है।
ये कृष्ण
राजी हो गए, यह इस बात
की खबर है कि
अस्तित्व
राजी है, जरा
सोच—समझकर
उससे कुछ
मांगना।
बेहतर हो मत
मांगना; उसी
पर छोड़ देना
कि जो तेरी मर्जी।
तब आपकी
जिंदगी में
कष्ट नहीं
होगा, क्योंकि
तब उसकी मर्जी
में कोई विरोध
नहीं है।
समर्पण का यही
अर्थ है कि तू
जो ठीक समझे, वह करना।
हम में
से जो बड़े से
बड़े लोग हैं, वे भी
इतनी हिम्मत
नहीं कर पाते।
जीसस
सूली पर लटके
हैं। आखिरी
क्षण में जब
फांसी लगने
लगी और हाथ—पैर
में खीले ठोंक
दिए गए, तो जीसस के
मुंह से निकला,
हे
परमात्मा! यह
तू मुझे क्या
दिखा रहा है?
शिकायत
का स्वर था।
क्या दिखा रहा
है? इसका
मतलब साफ। था
कि यह मैंने
सोचा नहीं था
कि तू मुझे यह
दिखाएगा! यह
भी मैंने ' नहीं
सोचा था कि
मुझे और तू यह
दिखाएगा! यह
भी कभी सोचा
नहीं था कि
तेरे भक्त को,
तेरे बेटे
को, इकलौते
बेटे को, और
ऐसी तकलीफ
झेलनी पड़ेगी!
इसमें सब बात
आ गई। इसमें
पूरी इच्छा का
जाल आ गया।
लेकिन
जीसस बहुत सजग
आदमी थे, तत्क्षण
उन्हें समझ भी
आ गई कि भूल हो
गई। इस वाक्य
को बोलते ही, कि यह तू मुझे
क्या दिखा रहा
है, समझ आ
गई कि भूल हो
गई। दूसरा
वाक्य
उन्होंने कहा,
नहीं—नहीं।
तेरी मर्जी
पूरी हो। तू
जो कर रहा, है,
वही ठीक है।
इस
क्षण में ही
जीसस
क्राइस्ट हो
गए। इस एक
वाक्य के
फासले में
दूसरे आदमी हो
गए। एक क्षण
पहले जब जीसस
ने कहा, यह तू मुझे
क्या दिखा रहा
है! यह मनुष्य
की आवाज है, जिसमें
मनुष्य की
वासनाएं
ईश्वर के
अनुकूल—प्रतिकूल
खड़ी हैं।
जिसमें
मनुष्य कह रहा
है कि आखिरी
मेरी इच्छा
पूरी होनी
चाहिए। तू भी
मेरी इच्छा
पूरी कर, तो
ही मैं
प्रसन्न
रहूंगा। मेरी
प्रसन्नता में
शर्त है, जो
मैं चाहता हूं
वह हो। और
आदमी को पता
नहीं कि वह जो
चाहता है, वह
अगर पूरा हो
जाए, तो वह
कभी प्रसन्न
नहीं होता।
मगर सोचता है।
एक क्षण में
जीसस ने कहा
कि दाइ विल बी
डन—तेरी मर्जी
पूरी हो। मैं
छोड़ता हूं।
भूल हो गई।
क्षमा कर दे।
आदमी विलीन हो
गया। ईश्वर, भगवत्पुरुष
प्रकट हो गया।
इसी क्षण जीसस,
मरियम का
बेटा, ईश्वर
का बेटा
क्राइस्ट हो
गया।
फर्क
हो गया। ये दो
व्यक्तित्व
हैं अलग—अलग।
जीसस मर गया, सूली के
पहले। सूली
जीसस को नहीं
लगी। वह तो
जीसस इसी वक्त
बंद हो गया, जब उसने कहा
कि तेरी मर्जी।
सूली क्राइस्ट
को लगी। इसलिए
फिर सूली सूली
नहीं थी। फिर
सूली भी आनंद
था। फिर कोई
फर्क न रहा।
फिर सूली भी
उससे मिलन का
द्वार है। फिर
वह चाहता है
सूली, तो
यही सेज है
उसकी। फिर
इसमें कोई
फर्क नहीं है।
कृष्ण
ने कहा कि मैं
पूरा किए देता
हूं। तू जैसा
चाहता है, वैसा मैं
वापस हुआ जाता
हूं।
वासुदेव
भगवान ने
अर्जुन के
प्रति इस
प्रकार कहकर
फिर वैसे ही
अपने
चतुर्भुज रूप
को दिखाया। और
फिर महात्मा
कृष्ण ने
सौम्यमूर्ति
होकर इस भयभीत
हुए अर्जुन को
धीरज दिया।
जैसा
मैं अभी कह
रहा था कि
जीसस और
क्राइस्ट का
फर्क, ऐसा
संजय और व्यास
ने बड़ा फर्क
कर दिया।
कहा, वासुदेव
भगवान ने
अर्जुन के
प्रति दयावान
होकर अपने
चतुर्भुज रूप
को ग्रहण किया
और फिर महात्मा
कृष्ण ने......।
फिर
भगवान कृष्ण
नहीं कहा संजय
ने। क्योंकि
जैसे ही वे
सीमा में आ गए, वे जैसे
ही रूप में
बंध गए, जैसे
ही उनकी चारों
भुजाएं प्रकट
हो गईं, और
जैसे ही
अर्जुन के
मनोनुकूल वे
खड़े हो गए, भगवान
शब्द छोड़ दिया।
तत्क्षण कहा,
महात्मा कृष्ण
ने
सौम्यमूर्ति
होकर इस भयभीत
हुए अर्जुन को
धीरज दिया।
महात्मा
और परमात्मा
में इतना ही
फर्क है।
परमात्मा
आपकी मर्जी के
अनुकूल नहीं
चल सकता। आपको
उसकी मर्जी के
अनुकूल चलना
होगा।
महात्मा आपके
धीरज और
सांत्वना के
लिए बहुत बार
आपकी मर्जी के
अनुकूल भी
चलता है। वह
दया से भरा है।
मैं पढ़ रहा था, एक यहूदी
विचारक है, अब्राहिम
हैसिल। उसने
एक बहुत
पुरानी यहूदी
किताब से
उल्लेख किया
है। बड़ा मीठा
वचन है। हिबू
में है। उसका
अंग्रेजी
अनुवाद उसने
किया है। वह
बड़ा अजीब
मालूम पड़ता है।
वाक्य यह है, गॉड इज नाट
योर अंकल, ही
इज नाट नाइस, ही इज नाट
गुड; गॉड
इज एन अर्थकेक।
ईश्वर आपके
चाचा नहीं हैं,
न भले हैं, न दयावान
हैं; ईश्वर
एक भूकंप है।
ईश्वर
तो भूकंप है।
इसलिए जो मरने
को तैयार हैं, वही
उसमें प्रवेश
कर पाते हैं।
लेकिन अगर
हमारी मांग
सीमा की है, तो महात्मा
प्रकट होते
हैं। महात्मा
ईश्वर का वह
रूप है, जो
हमारे अनुकूल
है। इसे थोड़ा
ठीक से समझ
लें। महात्मा
परमात्मा का
वह रूप है, जो
हमारे अनुकूल
है।
इसलिए कृष्ण
को हमने पूर्ण
अवतार कहा, क्योंकि
बहुत जगह वह
हमारे अनुकूल
नहीं हैं। राम
को हमने आशिक
अवतार कहा, क्योंकि वे
बिलकुल हमारे
अनुकूल हैं।
राम में भूल—चूक
खोजनी
मुश्किल है।
कृष्ण में भूल—चूक
काफी हैं। भूल—चूक
इसलिए नहीं कि
उनमें भूल—चूक
हैं। भूल—चूक
इसलिए हैं कि
हमारे साथ
तालमेल नहीं खाता।
राम और
सीता का संबंध
समझ में आता
है। कृष्ण और
उनकी गोपियों
का संबंध
सज्जन से
सज्जन आदमी को
जरा चिंता में
डाल देता है
कि यह जरा ठीक
नहीं है। जरा
ऐसा लगता है
कि यह बात न ही
उठाओ। कृष्ण
में कुछ है, जो हमें
डराता भी है।
इसलिए
हम उनको पूर्ण
अवतार कहे हैं, क्योंकि
हम उनसे पूरे
राजी नहीं हो
पाते। वे
पूर्ण हैं। हम
इतने अधूरे
हैं कि हम
उनके आधे
हिस्से से ही
राजी हो सकते
हैं। राम को
हमने अधूरा
अवतार कहा है,
क्योंकि हम
उनसे पूरे
राजी हो जाते
हैं। हम पूरे
राजी हो जाते
हैं, वे
हमारे इतने
अनुकूल हैं कि
पूरे नहीं हो
सकते, बात
जाहिर है।
हमसे इतना
उनका मेल है
कि वे अधूरे
ही होंगे। वे
आशिक अवतार
होंगे।
इसलिए
व्यास कहते
हैं, महात्मा
कृष्ण ने
सौम्यमूर्ति
होकर इस भयभीत
अर्जुन को
धीरज दिया।
हे
जनार्दन, आपके इस
अतिशांत
मनुष्य रूप को
देखकर अब मैं
शांत—चित्त
हुआ अपने
स्वभाव को
प्राप्त हो
गया हूं।
अर्जुन
ने कहा कि यह
देखकर आपका
सीमा में वापस
लौट आना, मैं अपने
स्वभाव को
उपलब्ध हो गया
हूं।
यह
स्वभाव क्या
है अर्जुन का?
मनुष्य
का स्वभाव
सशर्त है। वह
कहता है, ऐसे होओ, ऐसे
होओगे तो ही।
सुना
है मैंने कि
तुलसीदास एक
बार...। पता
नहीं कहां तक
सच है। लेकिन
कहानी है कि
तुलसीदास एक
बार कृष्ण के मंदिर
में गए
वृंदावन। तो
वे तो थे राम
के भक्त। और
वे तो
धनुर्धारी
राम को ही सिर
झुकाते थे।
वहां देखा कि कृष्ण
बांसुरी लिए
खड़े हैं। तो कहा
गया है कि
तुलसीदास ने
कहा कि ऐसे
नहीं, जब
तक धनुष—बाण
हाथ न लोगे, तब तक मैं न
झुकूंगा।
यह एक
अर्थ में बड़ी
अजीब—सी बात
है। इसका मतलब
हुआ कि आदमी
भगवान पर भी
शर्तें लगाता
है कि ऐसे हो
जाओ, तो
ही! मेरे
अनुकूल हो जाओ,
तो ही! इसका
तो मतलब यह
हुआ कि भक्त
भगवान को भी
बांधता है।
सोचता है, भगवान
मुझे मुक्त
करें, लेकिन
चेष्टा यह
करता है कि
मैं भी भगवान
को बांध लूं।
लेकिन
इसका एक और
अर्थ भी है।
और वह यह कि
मैं हूं
मनुष्य। मेरी
प्रीति—अप्रीति
है। मेरे लगाव—अलगाव
हैं। मैं
तुम्हें उसी
रूप में देखना
चाहता हूं जो मेरे
अनुकूल हो। और
इसलिए देखना
चाहता हूं उस
रूप में, ताकि मैं
जैसा हूं वैसा
का वैसा
तुम्हारे चरणों
में झुक सकूं।
मेरा जैसा
स्वभाव है, उसका ध्यान
रखो। वह यह
नहीं कह रहे
हैं कि
तुम्हारा
बांसुरी लिए
हुए रूप जो है,
वह भगवान का
नहीं है। होगा।
मेरे लिए नहीं
है। मेरी
पात्रता नहीं
है उस रूप को
स्वीकार करने
की। तुम तो
धनुष—बाण लेकर
राम हो जाओ, तो मैं
तुम्हारे
चरणों में झुक
जाऊं।
कथा
बड़ी मीठी है।
और कथा यह है
कि मूर्ति बदल
गई, और
कृष्य की
मूर्ति की जगह
राम धनुष—बाण
लिए प्रकट हुए,
तो
तुलसीदास
झुके।
अर्जुन
कह रहा है, अब मैं
अपने स्वभाव
में आ गया, तुम्हें
वापस वही
देखकर, जो
तुम थे।
अर्जुन
अपने स्वभाव
के बाहर चला
गया था?
एक
अर्थ में चला
गया था। और एक
अर्थ में अपने
गहरे स्वभाव
में चला गया था।
इस अर्थ में
बाहर चला गया
था कि मनुष्य
की बुद्धि के
जो परे है, वह उसके
दर्शन में आ
गया और वह
भयभीत हो गया।
उसकी सारी की
सारी
मनुष्यता
डांवाडोल हो
गई। मनुष्य की
पकड़ में न आ
सके, ऐसा
उसे दिख गया।
और एक अर्थ
में वह अपने
गहरे स्वभाव
में चला गया
था। लेकिन वह
स्वभाव
कास्मिक है, वह स्वभाव
जागतिक है; वह मनुष्य
का नहीं है।
अर्जुन
कह रहा है, मैं अपने
स्वभाव में आ
गया।
परमात्मा
के साथ साधक
और भक्त का
यही फर्क है, यह खयाल
आखिरी ले लें।
साधक
कहता है, तुम जैसे हो,
वैसा ही मैं
तुम्हें
देखने आऊंगा;
अपने को
बदलूंगा। यह
संकल्प का
रास्ता है। वह
कहता है, मैं
अपने को
बदलूंगा। अगर
तुम ऐसे हो, तो मैं अपने
को बदलूंगा।
अपनी नई आंख
पैदा करूंगा।
और तुम जैसे
हो, वैसा
ही तुम्हें
देखूंगा।
कृष्णमूर्ति
का सारा जोर
यही है कि उस
पर कोई धारणा
लेकर मत जाना।
अपनी सब धारणा
छोड़ देना।
सत्य जैसा है, उसे तुम
वैसे ही देखने
को राजी होना।
उसके लिए खुद
को जितना
तपाना पड़े, गलाना पड़े, मिटाना पडे,
खुद की
मूर्च्छा
जितनी तोड़नी
पड़े, तोड़ना।
लेकिन खुद को
निखारना, उस
पर कोई आग्रह
मत करना कि तू
ऐसा हो जा।
साधक
संकल्प से
अपने को बदलता
है। और एक दिन, जिस दिन
शून्य हो जाता
है, शांत, शुद्ध, उस
दिन सत्य को
देख लेता है।
भक्त!
भक्त कहता है
कि मैं जैसा हूं
हूं। मैं अपने
को बदलने वाला
नहीं, तुम्हीं
मुझे बदलना।
और जब तक मैं
ऐसा हूं तब तक
मेरी शर्त है
कि तुम ऐसे
प्रकट होना।
भक्त यह कहता
है कि मेरा
आग्रह है कि
जब तक मैं नहीं
बदला हूं और
मैं अपने को
क्या बदल
सकूंगा, तुम्हीं
बदल सकोगे। और
तुम भी मुझे
तभी बदल सकोगे,
जब मेरा
तुमसे नाता, तालमेल बन
जाए। अभी मैं
जैसा हूं इससे
ही संबंध बनाओ।
तो तुम इस
शक्ल में आ
जाओ, इस
रूप में खड़े
हो जाओ। मैं
तुम्हें
कृष्ण की तरह,
राम की तरह,
क्राइस्ट
की तरह चाहता
हूं ताकि मेरा
संबंध बन जाए।
संबंध बन जाए,
तो फिर तुम
मुझे बदल लेना।
यह बड़ी
मजेदार बात है।
भक्त यह कह
रहा है कि मैं
अपने को क्या
बदलूंगा? कैसे
बदलूंगा? मुझे
कुछ भी तो पता
नहीं है। और
मेरी
सामर्थ्य, शक्ति
कितनी है? कि
कैसे अपने को
शुद्ध करूंगा?
मैं तो
अशुद्ध, जैसा
भी हूं, यह
हूं। तुम ऐसे
ही मुझे
स्वीकार कर लो।
लेकिन इस
अशुद्ध आदमी
की धारणा है।
तो तुम इस
शक्ल में आ
जाओ, ताकि
मेरा संबंध
जुड़ जाए। एक
दफा संबंध जुड़
जाए और मैं
तुम्हारी नाव
में सवार हो
जाऊं, फिर
तुम जहां मुझे
ले जाओ, ले
जाना। लेकिन
अभी मेरी
मर्जी की नाव
बनकर आ जाओ।
दोनों
ही तरह घटना
घटती है। जो
अपनी सब
धारणाओं को गिरा
देता है, उसके लिए
कोई नाव की
जरूरत नहीं रह
जाती। उसे उस
पार जाने की
भी जरूरत नहीं
रह जाती, वह
इसी पार मुक्त
हो जाता है।
लेकिन
दुरूह है
मार्ग। एक—एक
इंच अपने को
बदलना है।
जिसको बदलना
है, उसके
ही द्वारा
बदलाहट लानी
है, इसलिए
बड़ा कठिन है।
जैसे बीमार
अपना ही इलाज
कर रहा है।
डाक्टर
भी बीमार हो
जाए, तो
दूसरे डाक्टर
के पास जाता
है, क्योंकि
खुद का इलाज
करने में
घबड़ाहट लगती
है। दूसरे के
इलाज में तो
एक दूरी होती
है, तटस्थता
होती है, निरीक्षण,
डायग्नोसिस
आसान होती है।
खुद का ही
इलाज करना हो,
तो बड़ा
मुश्किल हो
जाता है। कोई
बड़े से बड़ा
सर्जन भी खुद
का आपरेशन न
करेगा। हाथ
कंप जाएंगे।
खुद का तो दूर
है, बड़ा
सर्जन अपनी
पत्नी का भी
आपरेशन करने
को राजी नहीं
होता। अगर
पत्नी से झगड़ा
हो, तो बात
दूसरी है।
थोड़ा लगाव हो,
तो राजी
नहीं होगा।
अगर मार ही
डालना चाहता
हो, तो बात
अलग है। नहीं
तो डरेगा, क्योंकि
हाथ कंपने
लगेगा। राग
बीच में आ
जाता है।
और
अपने को ही
बदलना है, तो अपने
से तो बहुत
राग है। इसलिए
भक्त कहता है,
यह अपने बस
की बात नहीं
कि हम अपने को
बदल लें। हम
तो जैसे हैं, वैसे हैं।
हम अपने को
छोड़ सकते हैं
तेरे चरणों
में, बुरे—
भले, चोर—बेईमान,
जैसे भी हैं,
छोड़ सकते
हैं। तू ही
बदल लेना।
यह भी
संभव होता है।
और इन दो में
साफ होना
जरूरी है, नहीं तो
आदमी दोनों
में डोलता
रहता है।
दोनों के बीच
कोई मार्ग
नहीं है। या
तो स्पष्ट समझ
लेना कि मुझे
खुद ही बदलना
है, तब फिर
किसी
परमात्मा को,
किसी गुरु
को, किसी
को बीच में
लाने की जरूरत
नहीं है। फिर
कितनी ही हो
लंबी यात्रा
और कितने ही
अनंत युग लगें,
लड़ते रहना।
वह भी बुरा
नहीं है। वह
भी मनुष्य की
गरिमा के
अनुकूल है।
लेकिन
अगर लगता हो
कि यह हमसे न
हो सकेगा, यह लड़ाई
लंबी है, और
हम चुक जाएंगे,
टूट जाएंगे,
तो फिर
व्यर्थ लड़ना
मत। फिर
समर्पण कर
देना। सीधा
इसी क्षण छोड़
देना। यह भी
मनुष्य की
गरिमा के
अनुकूल है।
क्योंकि वही
समर्पण भी कर
पाता है, जो
कम से कम इतना
तो अपना मालिक
है कि छोड़ सके।
आप वही छोड़
सकते हैं, जिसके
आप मालिक हैं।
ये दो
हैं रास्ते, समझौता
कोई भी नहीं
है। इनमें से
जो ठीक—ठीक
चुन लेता है
अपने अनुकूल
रास्ता, वह
पहुंच जाता है;
व्यर्थ
भटकाव से बच
जाता है।
आज
इतना ही।
रुके
पांच मिनट, कोई उठे न।
कीर्तन में
सम्मिलित हों।
और बैठे ही न
रहें। दर्शक न
रहें।
सम्मिलित हो
जाएं।
भागीदार हो
जाएं। ताली तो
पीट ही सकते
हैं। कड़ी तो
दोहरा ही सकते
हैं।
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