जाना कहां है—(प्रवचन—बीसवां)
दिनांक 20 अप्रेेेल 1976 ओशो आश्रम पूूूूना।
प्रश्न–सार:1--मैं स्वयं को खोया—खोया महसूस करता हूं। पुराने जीवन में वापस लौटने के लिए कोई मार्ग नहीं बचा है और आगे भी कोई मार्ग दिखाई नहीं पड़ रहा है।
2--पतंजलि ने यह सब क्यों लिखा और आपने योग—सूत्र पर बोलना क्यों चुना, जबकि दोनों में से कोई भी हमें साधना की मूलभूत कुंजियां देने को तैयार नहीं हैं?
3--कई वर्षों से मैं साक्षी— भाव में जी रहा हूं। पर वह मुझे रोग जैसा क्यों लगता है?
4--आपके साथ मेरा अंतरंग संबंध है, फिर भी मुझे कुछ घट क्यों नहीं रहा है?
5--आपके वक्तव्य में यह विरोधाभास क्यों है?
6--मेरा मन पुराने से कैसे नाता तोड़े, ताकि नये के साथ सके?
7--अगर किसी ने लोओत्सु से संन्यास लेने के लिए पूछा होता तो उनका उत्तर होता.....
8--मेरा आपके साथ ठीक—ठीक संबंध क्या है?
9--क्या मैं ठीक मार्ग पर हूं?
10--आपके आश्रम की व्यवस्था तीन धूर्तो के हाथ में है, जो सुंदर और सरल स्त्रियों के भेषं में हैं।
पहला प्रश्न:
मैं स्वयं को खोया— खोया महसूस करता हूं। अपने पुराने जीवन में वापस लौटने के लिए कोई मार्ग नहीं बचा है— सभी सेतु टूट चुके है— और मुझे आगे भी कोई मार्ग दिखायी नहीं पड़ रहा है।
कोई मार्ग है भी नहीं। मार्ग केवल मन का एक भ्रम है। मन लक्ष्यों तक पहुंचने के, आकांक्षाओं की पूर्ति के सपने ही देखता रहता है। मार्ग तो आकांक्षा करने वाले मन की छाया है। पहले तुम किसी चीज की आकांक्षा करते हो। निस्संदेह वह आकांक्षा केवल भविष्य में होती है और भविष्य का अभी कुछ पता नहीं है। जो है ही नहीं उसे, जो है उससे कैसे जोड़ा जा सकता है? तो तुम उसमें से कोई रास्ता बना लेते हो। यह एक कल्पना ही होती है, एक भ्रम ही होता है। लेकिन उस मार्ग के चक्कर में तुम उससे जुड़ जाते हो, जो नहीं है और इस तरह से तुम्हारी यात्रा की शुरुआत हो जाती है। सच तो यह है तुम स्वयं को ही धोखा दे रहे होते हां, स्वयं के साथ एक खेल खेल रहे होते हो।
कहीं कोई मार्ग नहीं है, इसलिए मार्ग की कोई जरूरत नहीं है। तुम पहले से ही वहा पर विद्यमान हो। वह कुछ ऐसा नहीं है जिसे उपलब्ध करना. है, वह मिला ही हुआ है। और अगर गहरे से देखा जाए तो धर्म कोई मार्ग नहीं है, बल्कि केवल एक बोध है, एक अनुभूति है, सत्य का रहस्योदघाटन है—इस बात का बोध कि तुम पहले से ही वहां पर हो। तुम्हारी अभीप्सा, आकांक्षाएं, इच्छाएं और वासनाएं तुम्हें तुम्हारे अस्तित्व की वास्तविकता को नहीं देखने देतीं।
इसलिए अच्छा हुआ कि पुराने सेतु टूट गए और कहीं कोई मार्ग दिखायी नहीं पड़ रहा है। आगे कोई मार्ग है भी नहीं। यही तो मैं तुम्हारे साथ करना चाहता हूं। मैं तुमसे तुम्हारे सारे मार्ग छीन लेना चाहता हूं। जब तुम्हारे पास कोई मार्ग न बचेगा, और तुम्हें लगेगा कि अब कहां जाएं तब तुम भीतर जाओगे। अगर तुम्हारे सभी मार्ग—स्वयं से भागने की सभी संभावनाएं समाप्त हो जाएं, या तुम से छीन ली जाएं—तो फिर तुम क्या करोगे? तब तुम स्वयं पर लौट आओगे।
इस पर थोड़ा विचार करना। इस पर थोड़ा ध्यान करना। यह भी एक तरह की तुम्हारी आकांक्षा है, दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा है। इसी से सारी भ्रांतिया खड़ी होती हैं। तुम हमेशा प्रतिस्पर्धा में लगे रहते हो, और इस प्रतिस्पर्धा में हमेशा कोई न कोई तुमसे आगे होता है। और तुम —उसे पीछे छोड्कर
आगे निकल जाना चाहते हो। इसलिए और तेज दौड़ते हो। फिर उसके लिए चाहे कुछ भी करना पड़े —चाहे वह न्यायसंगत हो या न हो, चाहे वह ठीक हो या गलत—तुम सब कुछ भूलकर बस उससे आगे निकल जाना चाहते. हो, उसे पराजित कर देना चाहते हो।
इस तरह से तुम सत्य को उपलब्ध नहीं हो सकते। इस ढंग से तो तुम अपने अहंकार को ही थोड़ा और सजा लोगे। फिर तुमने एक को हराया या अनेकों को हराया, इसी तरह से तुम आगे और आगे दौड़ते चले जाते हो। और इस तरह से अहंकार की परितुष्टि होती चली जाती है। और तुम अहंकार के बोझ से दबते चले जाओगे, और एक दिन अहंकार के इस विराट जंगल में खो जाओगे। प्रतिस्पर्धा इस दुनिया की सर्वाधिक अधार्मिक बातों में से एक बात है, लेकिन हर कोई वही कर रहा है। किसी के पास बडा मकान है। तुम्हारा मन तुरंत उससे बड़े मकान की आकांक्षा करने लगता है। किसी के पास सुंदर कार है। तुरंत तुम्हारे मन में उससे बड़ी कार की आकांक्षा उठ खड़ी होती है। किसी की पत्नी सुंदर है या किसी का चेहरा सुंदर है या किसी की आवाज मधुर है, तुरंत आकांक्षा उठ खड़ी होती है।
इस बात की आकांक्षा उठ खड़ी होती है कि दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करनी है, दूसरे के मुकाबले कुछ न कुछ सिद्ध करके ही रहना है, कि दूसरे के साथ संघर्ष करना है, कि किसी न किसी तरह से हर हाल में कुछ न कुछ पाकर ही रहना है। इस बात को न जानते हुए कि यह सब क्या है, फिर भी अंधेरी घाटी में यह सोचते हुए भटकते रहते हो कि कहीं न कहीं लक्ष्य तो होगा ही।
और जन्मों —जन्मों तक तुम ऐसे ही जीए चले जा सकते हो। यही तो अब तक तुम करते रहे हो। ऐसे तो कभी कहीं पहुंचना न हो सकेगा। तुम हमेशा दौड़ते रहोगे और कभी पहुंचोगे नहीं, क्योंकि मंजिल तो तुम्हारे भीतर ही है। लेकिन उस तक पहुंचने के लिए सभी प्रकार की प्रतिस्पर्धाएं और आकांक्षाओं को गिराना पड़ता है।
और ध्यान रहे, प्रतिस्पर्धा के पुराने नाम को नए नाम में परिवर्तित कर देना बहुत आसान है। किसी पुरानी प्रतिस्पर्धा को छोड्कर, किसी नई चीज को फिर उसी ढंग से पकड़ लो, लेकिन आकांक्षा वही की वही रहती है। अभी तुम्हारी आकांक्षा, इच्छा, वासना संसार से जुड़ी हुई है। फिर संसार की वासनाओं को तुम छोड़ देते हो। तब धर्म के नाम पर, आध्यात्मिकता के नाम पर, तुम्हारे मन में नई आकांक्षा और वासना का जन्म हो जाता है, तब फिर से तुम नए ढंग की प्रतिस्पर्धा में शामिल हो गए। तब फिर वही अहंकार प्रवेश कर लेता है।
मैंने एक कथा सुनी है। इसे ध्यानपूर्वक सुनना।
दो भाइयों की मृत्यु एक साथ, एक ही समय में हुई। और दोनों साथ—साथ ही पर्ली गेट पहुंच गए। वहां पर सेंट पीटर ने उनका इंटरव्यू लिया।
उसने पहले भाई से पूछा, ’क्या पृथ्वी पर आप एक भले इंसान रहे हैं?’
उसने जवाब दिया, ’हा, बिलकुल संत शिरोमणि, मैं ईमानदार, शांत, संयमी, और परिश्रमी रहा—और स्त्रियों को लेकर मेरे साथ कभी कोई झंझट नहीं हुई।’
सेंट पीटर ने कहा, ’अच्छे बालक, और उसे एक चमचमाती हुई सफेद रोल्स रायस दे दी। अच्छा बने रहने के लिए यह तुम्हारा पुरस्कार है।’
फिर उसने दूसरे भाई से पूछा, ’और तुम्हारा क्या कहना है अपने बारे में?’
पहले उसने एक लंबी श्वास छोड़ी, ’मैं तो अपने भाई से हमेशा बहुत अलग तरह का रहा हूं। मैं चालाक, धूर्त, शराबी और निकम्मा था—और स्त्रियों के संबंध में तो एकदम शैतान था।’
सेंट पीटर ने कहा, ’ ओह अच्छा, लड़के तो लड़के ही रहेंगे। और कम से कम तुम यह बात स्वीकार तो कग्ते हो। तब तुम इसे ले सकते हो। और उसने उसके हाथ में मिनी —मायनर की चाबियां पकड़ा दीं।’
वे दोनों भाई जैसे ही अपनी— अपनी कारों में बैठने ही वाले थे कि उनमें से जो शरारती था वह खूब जोर—जोर से हंसने लगा।
तो जो दूसरा भाई था उसने पूछा, ’तो इस में हंसने की क्या बात है?’
वह बोला, ’मैंने अभी— अभी बड़े धर्माध्यक्ष को बाइक चलाते हुए देखा।’
तुम्हारा पूरा का पूरा आनंद हमेशा तुलना में ही होता है। तुलना तुम्हें इस बात की अनुभूति देती है कि तुम कहा हो—उस आदमी से पीछे हो जिसके पास रोल्स रायस है या उस आदमी से आगे हो जिसके पास बोइक है। ऐसी परिस्थिति में यह मालूम हो जाता है कि तुम कहां हो, कहा पर खड़े हुए हो। नक्शे पर तो तुम स्वयं को बता सकते हो, लेकिन स्वयं को जानने के लिए कि तुम कहा हो यह कोई ठीक ढंग नहीं है। क्योंकि नक्शे पर तो तुम कहीं हो ही नहीं, नक्शा एक भ्रांति है। तुम नक्शे के कहीं पार हो। न तो कोई तुम से आगे है और न ही कोई तुम से पीछे है। तुम अकेले हो, नितांत अकेले। तुम अपने आप में बेजोड़ हो, अनूठे हो। और दूसरा कोई नहीं है जिससे कि तुलना करनी है। इसी कारण से लोग स्वयं के भीतर जाने से भयभीत होते हैं। क्योंकि तब वे अपने ही एकांत में प्रवेश करते हैं, जहां सभी मार्ग और सारी संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं, मिट जाती हैं। सभी तरह के काल्पनिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक नक्शे —सब तिरोहित हो जाते हैं। तब व्यक्ति अपने अस्तित्व के परम एकांत में पहुंच जाता है और उसे मालूम नहीं होता कि वह कहां है।
ठीक ऐसा ही कुछ तुम्हारे साथ भी हुआ है : ’मैं स्वयं को खोया —खोया महसूस करता हूं—अपने पुराने जीवन में वापस लौटने का कोई मार्ग नहीं बचा है—सभी सेतु टूट चुके हैं। और मुझे आगे भी कोई मार्ग दिखायी नहीं पड रहा है।’
इसे ही मैं ध्यान का प्रारंभ कहता हूं, अपने अंतर— अस्तित्व में प्रवेश करने की शुरुआत कहता हूं। भयभीत मत होना; अन्यथा तुम फिर से अपने ही स्वप्नों के शिकार हो जाओगे। बिना किसी डर के, निर्भीकता और साहस के साथ उसमें प्रवेश करो। अगर तुम्हें मेरी बात समझ में आती है, तो फिर इसमें कोई कठिनाई नहीं है। बस, थोड़ी सी समझ की आवश्यकता है।
निस्संदेह, अभी तुम्हें यह पता न चलेगा कि तुम कहां हो। तुम यह तो जान सकोगे कि तुम कौन हो, लेकिन तुम यह न जान पाओगे कि तुम कहा हो। क्योंकि यह ’कहां ’ शब्द हमेशा दूसरों से ही संबंधित होता है।’कौन ’ तुम्हारा अपना स्वभाव होता है, ’कहां ’ किसी दूसरे से संबंधित होता है, तुलनात्मक होता है।
और अब अतीत से संबंधित किसी तरह के सेतु नहीं बचेंगे; और निस्संदेह अब भविष्य के लिए भी किसी तरह के सेतुओं की कोई संभावना नहीं रही। अतीत जा चुका है, भविष्य का अभी
कुछ पता नहीं है। अतीत स्मृति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, और भविष्य आशा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अतीत जा चुका है, और भविष्य अभी केवल एक सपना है। दोनों का ही अस्तित्व नहीं है। हमें वर्तमान में ही जीना होता है... और वर्तमान का क्षण इतना विराट, इतना असीम है कि व्यक्ति उसमें ऐसे खो जाता है जैसे कि पानी की बूंद समुद्र में खो जाती है। खोने कै लिए तैयार रहो। अस्तित्व के इस विराट सागर में विलीन होने को, अपना अस्तित्व मिटाने को तैयार रहो।
मन तो अभी भी अतीत की, पुराने से तादात्म्य की, परिचित की, साफ—सुथरे की ही आकांक्षा करेगा—कि तुम कहां हो, कि तुम कौन हो? लेकिन यह सभी खेल भाषा के ही खेल हैं।
मैंने एक कथा सुनी है
एक अंग्रेज जो अमरीका घूमने गया था, पश्चिमी अमरीका के एक व्यक्ति से उसने कहा, ’तुम्हारा देश तो अदभुत है। सुंदर —सुंदर स्त्रियां, बड़े —बड़े विराट नगर! लेकिन फिर भी तुम्हारे यहां कोई अभिजात वर्ग नहीं है।’
अमरीकी ने पूछा, ’क्या नहीं है?’
‘अभिजात वर्ग नहीं है।’
अमरीकी व्यक्ति ने पूछा, ’यह क्या होता है?’
वह बोला, ’ ओह, क्या बताऊं आपको, वे लोग जो कभी कुछ नहीं करते, जिनके माता —पिता ने कभी कुछ नहीं किया, दादा—परदादा ने कभी कुछ नहीं किया—जो परिवार हमेशा—हमेशा से सुख—सुविधाओं में, ऐशो— आराम में रहते आए हैं, उनको अभिजात वर्ग कहते हैं।’
अमरीकी बोला, ’ ओं हां! हमारे यहां वैसे लोग हैं, लेकिन हम उन्हें आवारा या घुमक्कड़ कहते हैं।’
लेकिन जब तुम किसी को अभिजात कहते हो, तो यह प्रतिष्ठापूर्ण मालूम होता है। और जब तुम किसी को होबो कहकर बुलाते हो, तो अचानक एवरेस्ट के शिखर से व्यक्ति एक गहरी खाई में गिर जाता है। लेकिन अभिजात लोग आवारा हैं, और आवारा लोग स्वयं को अभिजात व्यक्तियों जैसा समझते हैं।
मैंने सुना है, दो घुमक्कड़ आराम से चांदनी रात में बैठे हुए एक—दूसरे से बातचीत कर रहे थे। उनमें से एक ने पूछा, ’तुम अपनी जिंदगी में क्या बनना चाहते हो?’
दूसरा कहने लगा, ’मैं तो प्रधानमंत्री बनना चाहूंगा।’
पहले ने कहा, ’क्या? तुम्हारे जीवन में कोई और महत्वाकांक्षा नहीं है क्या?’
एक घुमक्कड़ सोच रहा है प्रधानमंत्री बनने की। घुमक्कड़ के अपने जीवन —मूल्य होते हैं। अगर तुम अपने पिछले संदर्भों को ध्यान से देखो, तो वे हैं क्या? भाषा के खेल हैं। कोई कहता है कि वह ब्राह्मण है। क्योंकि समाज चार वर्ण —व्यवस्थाओं को मानता है। भारत में ब्राह्मण सबसे ऊंची जाति है, और शूद्र सबसे नीचे की जाति है।
अब इस तरह की जाति —व्यवस्था संसार में अन्यत्र कहीं भी नहीं है, यह केवल भारत में ही है। निस्संदेह, यह वर्ण —व्यवस्था काल्पनिक है। अगर व्यक्ति स्वयं ही न कहे कि वह ब्राह्मण है, तो पता लगाना मुश्किल है कि कौन ब्राह्मण है। सभी का खून एक जैसा है, सभी की हड्डियां एक
जैसी हैं —खून, हड्डी के परीक्षण से, या किसी एक्स—रे से नहीं मालूम पड़ता कि कौन ब्राह्मण है और कौन शूद्र है।
लेकिन भारत में यह खेल बहुत समय से चलता चला आ रहा है। इस कारण से भारत के मन में इसकी जड़ें बहुत गहरी चली गई हैं। जब कोई कहता है कि वह ब्राह्मण है, तो जरा उसकी आंखों में झांककर देखना, उसकी आंखों में, उसके हाव— भाव को देखना—उसके हाव— भाव में अहंकार फूट रहा होता है। जब कोई कहता है कि वह शूद्र है, तो जरा उसे ध्यानपूर्वक देखना। वह शब्द ही अपमानित है, वह शब्द ही उसे अपराध भाव से भर देता है। दोनों ही इंसान हैं, लेकिन समाज द्वारा स्वीकृत लेबल चिपका देने से ही उनकी मानवता नष्ट हो जाती है।
जब कोई कहता है कि वह धनवान है, तो इससे उसका क्या मतलब होता है? इससे उसका मतलब होता है कि बैंक में उसके पास कुछ धन है।
लेकिन यह भी एक खेल है, रुपया—पैसा एक खेल है। क्योंकि समाज धन में विश्वास करता है, तो इस कारण से यह खेल इसी तरह चलता चला जाता है।
मैंने एक कंजूस के बारे में सुना है—जिसने सोने का खजाना अपने बगीचे में कहीं छिपाकर रखा हुआ था। प्रतिदिन वह बगीचे में जाता और थोड़ी मिट्टी हटाता और अपनी सोने की ईंटों को देखता, और फिर से उन्हें छिपा देता। और फिर बहुत ही खुशी—खुशी, प्रसन्न चित्त, और मुस्कुराते हुए वापस लौट आता।
लेकिन धीरे — धीरे उसके एक पड़ोसी को कुछ शक होने लगा, क्योंकि प्रतिदिन वह ऐसा करता था—ऐसा लगता था जैसे कि वह कोई धार्मिक क्रिया —कांड कर रहा हो। प्रतिदिन सुबह ही सुबह वह वहा आता—जैसे कि प्रार्थना करने आया हो — थोड़ी सी जमीन को खोदता, अपनी सोने की ईंटों को सुबह के सूरज की किरणों में चमकते हुए देखता, और उनको देखते ही उसके भीतर भी कुछ खिल जाता, और फिर सारे दिन वह बहुत खुश रहता।
एक रात पड़ोसी ने सोने की सारी ईंटें निकाल लीं। सोने की ईंटों के स्थान पर उसने सामान्य ईंटें वहां पर रख दीं और उन्हें फिर से वैसे ही मिट्टी से ढंक दिया। दूसरे दिन जब वह कंजूस आया तो उसने खूब जोर—जोर से रोना चिल्लाना शुरू कर दिया और कहने लगा वह तो लुट गया, वह तो मर गया। उसका पड़ोसी जो कि बगीचे में ही खड़ा हुआ था, उसने पूछा, ’क्या हुआ, तुम क्यों रो रहे हो?’ वह बोला, ’मैं लुट गया हूं! मेरी सोने की बीस ईंटें चोरी चली गई हैं।’
पड़ोसी बोला; ’चिंता मत करो, क्योंकि ऐसे भी तुम उनका कुछ उपयोग तो करने वाले थे नहीं। तो तुम पहले जो कुछ कर रहे थे, वह इन मिट्टी की ईंटों को लेकर भी कर सकते हो। हर रोज सुबह आना, जमीन को खोदना, ईंटों को देख लेना और खुश ही लेना और वाप्रस लौट जाना। क्योंकि पहली तो बात यह है कि तुम उनका कभी उपयोग करने वाले नहीं हो, तो चाहे वे सोने की हों या मिट्टी की हों, उससे अंतर क्या पड़ता है?’
तुम्हारे पास धन हो सकता है, लेकिन उससे कुछ अंतर नहीं पड़ता। तुम्हारे पास धन नहीं भी हो सकता है, उससे भी कुछ अंतर नहीं पड़ता। हो सकता है समाज ने तुम्हें बहुत सम्मप्त दिया हो, तुम्हारे पास बड़ी—बड़ी डिग्रियां हों, बड़े—बड़े पुरस्कार हों, प्रशंसा मिली हो, सर्टिफिकेट हों—उसका
कोई मूल्य नहीं है, यह तो एक खेल है। जब तक तुम इस खेल के पार नहीं हो जाते और तुम्हें इस बात का बोध नहीं हो जाता कि इस खेल में तुम स्वयं को कभी न खोज पाओगे, कि तुम कौन हो. तब तक समाज तुम्हें मूर्ख बनाता रहेगा और तुम्हें भ्रांत धारणाएं दिए चला जाएगा कि तुम कौन हो—और तुम उन धारणाओं में ही आस्था और विश्वास करते हुए जीए चले जाओगे। तब तुम्हारा पूरा जीवन व्यर्थ गया।
इसलिए जब पहली बार ध्यान फलित होता है तो ध्यान तुम्हें मिटाने लगता है—तुम्हारा नाम खो जाता है, तुम्हारी जाति मिट जाती है, तुम्हारा तथाकथित धर्म बिदा हो जाता है, तुम्हारी राष्ट्रीयता समाप्त हो जाती है— धीरे — धीरे व्यक्ति अपनी विशुद्ध निर्विकार एकांत में नग्न और अकेला रह जाता है। शुरू में थोड़ा भय भी लगता है, क्योंकि पैर जमाकर खड़े होने के लिए कहीं कोई जगह नहीं मिलती और न ही अहंकार को टिके रहने के लिए कोई जगह मिलती है। कहीं से कोई सहयोग नहीं मिलता है, उसके सभी सहारे गिर जाते हैं। और अहंकार का पुराना पूरा का पूरा ढांचा चरमरा भर गिर जाता है।
जब भी ऐसा हो तो एक ओर खड़े हो जाना, और खूब जोर से हंसना और उस ढांचे को गिर जाने देना। और इस बात पर जोर से हंसना कि अब पीछे लौटने के लिए कहीं कोई मार्ग नहीं बचा है, पीछे लौटने का कोई उपाय शेष नहीं बचा है।
सच तो यह है, पीछे लौटने का कहीं कोई मार्ग या कोई उपाय है भी नहीं; लोगों को केवल ऐसा लगता है कि पीछे लौटना संभव है। लेकिन पीछे कोई लौट ही नहीं सकता है। समय में पीछे लौटने का कोई उपाय ही नहीं है। तुम फिर से बच्चे नहीं बन सकते, तुम अपनी मां के गर्भ में फिर से नहीं जा सकते। लेकिन यह भांति, यह भ्रम, यह धारणा कि ऐसा संभव है, तुम्हारे मन पर छाया रहेगा और तुम्हारे विकास में बाधा पहुंचाता रहेगा, तुम्हें विकसित नहीं होने देगा।
मैंने ऐसे बहुत से लोग देखे हैं जो अपने प्रेम संबंधों में भी अपनी मां की ही तलाश करते रहते हैं, जो कि एक निपट मूढ़ता है। सौ में से निन्यानबे पुरुष अपनी प्रेमिका में अपनी मां को ही खोजते रहते हैं। मां तो अब अतीत में खो चुकी, अब वे फिर से मां के गर्भ में तो प्रविष्ट हो नहीं सकते हैं। क्या कभी तुमने इस बात पर. गौर किया है? अपनी प्रेमिका की गोद में लेटे हुए, तुमको ऐसा लगता है जैसे कि तुमने अपनी मां ’ को पा लिया हो।
पुरुष स्त्री के स्तनों में इतना उत्सुक क्यों है? यह उत्सुकता बुनियादी रूप से मां की ही तलाश है। क्योंकि बच्चे ने मां को स्तनों के माध्यम से ही जाना था और वह अभी भी मां की ही तलाश में है। इसलिए जिस स्त्री के स्तन सुंदर, वर्तुलाकार और बड़े होते हैं, वह स्त्री पुरुषों के लिए अधिक आकर्षक हो जाती है। सपाट स्तनों वाली स्त्री में पुरुषों को कोई आकर्षण नहीं होता। क्यों? क्या बात है? इसमें स्त्री की कोई गलती नहीं हैं, गलती मन की है। तुम मां की तलाश कर रहे हो—और सपाट स्तनों वाली स्त्री तुम्हारी कल्पना में कोई सहयोग नहीं कर पाती है। तुम्हारे भ्रांत कल्पना चित्र में वह स्त्री अनुकूल नहीं बैठती। फिर वह तुम्हारी मां कैसे हो सकती है? उसके तो स्तन ही नहीं हैं? पुरुष के लिए स्तन प्राथमिक आवश्यकता होते है।
अगर खजुराहो या पुरी के मंदिरों को जाकर देखो तो तुम वहां इतने बड़े —बड़े स्तनों वाली मूर्तिया देखोगे, जो कि असंभव सी प्रतीत होती हैं। इतने बड़े स्तनों को लेकर आखिर स्त्रियां चलती
कैसे होंगी! उन स्तनों का वजन ही इतना अधिक है। लेकिन इससे इस बात का ही पता चलता है कि पुरुष फिर से पीछे लौटकर मां की तलाश कर रहा है, वह फिर से मां को ही खोज रहा है।
तब फिर अगर तुम्हारा प्रेम जीवन अस्त—व्यस्त हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। क्योंकि जो स्त्री तुम्हें प्रेम कर रही है, वह किसी बच्चे की तलाश में नहीं है। स्त्री को एक प्रेमी की, प्रियतम की, दोस्त की तलाश होती है। वह तुम्हारी मा नहीं बनना चाहती। वह तुम्हारी मित्र, तुम्हारी संगिनी, तुम्हारी पत्नी बनना चाहती है। और तुम उस स्त्री से मां बनने की मांग कर रहे होते हो। वह तुम्हारी देखभाल करे, ऐसे खयाल रखे जैसे कि तुम्हारी मां रखती थी। और तुम स्त्री से मां की ही अपेक्षा निरंतर किए चले जाते हो, और वह इस बात को पूरा नहीं कर पाती है। और फिर इसी कारण पति—पत्नी के संबंधों में द्वंद्व खड़ा हो जाता है।
पीछे लौटना किसी के लिए संभव नहीं है। जो बीत गया सो बीत गया। अतीत तो अतीत ही है, उसे फिर से नहीं लौटाया जा सकता। यही समझ कि अतीत को लौटाना संभव नहीं है, व्यक्ति को विकसित होने में, आगे की यात्रा में सहयोगी होती है। तब व्यक्ति अतीत की मांग नहीं करता, अतीत के पीछे नहीं भागता है।
और स्मरण रहे, अगर तुम अतीत से चिपके रहोगे तो तुम भविष्य को भी पकड़ोगे। और तुम्हारा भविष्य तुम्हारे अतीत के थोड़े —बहुत संशोधन के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। और भविष्य में तुम जिन खुशियों की कामना करते हो, वह अतीत के दुखों को छोड्कर अतीत की खुशियों से ही जुड़ी होती हैं। तुम्हारा भविष्य तुम्हारे अतीत का ही नया रूप है, उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। तुम्हारा भविष्य हृदय की आकांक्षाओं के ज्यादा करीब होता है, उसमें अतीत की दुख और पीड़ा तो भूल जाती है, और सुख और खुशी की बातों का खयाल बढ़—चढ़कर रह जाता है।
जब अतीत गिर जाता है तो भविष्य भी गिर जाता है, क्योंकि वह अतीत का ही नया रूप होता है। और जब अतीत और भविष्य दोनों गिर जाते हैं, तो व्यक्ति वर्तमान के क्षण में, अभी और यहीं में ठहर जाता है।
फिर अगर मैं तुमसे कहूं, ’बगीचे में सरू का वृक्ष लगा है, उसकी ओर देखो जरा!’ या फिर मैं अपने हाथ में फूल ले लूं और तुम उसे देखो। और अगर तुम उसे केवल वर्तमान के क्षण में, अभी और यहीं देख सको तो एक रहस्यपूर्ण घटना भीतर घटने लगती है तब उस फूल को देखते—देखते तुम्हारे भीतर का फूल खिलने लगता है। तुम्हारे तन, मन, आत्मा पर कुछ आच्छादित होने लगता है —कुछ ऐसा जो अस्तित्व से आया होता है। वह कोई स्वप्न नहीं होता है। उसमें कुछ भ्रम नहीं होता है। उसमें धारणा, विचार, दृश्य, चित्र कुछ भी नहीं होता है। उसमें केवल अदभुत शून्यता और खालीपन होता है —जो सुंदर होता है, फिर भी समग्ररूपेण शून्य होता है।
भयभीत मत होना। ऐसे ही धीरे — धीरे वर्तमान में ठहरना हो जाता है और स्वयं से मिलन हो जाता है।
दूसरा प्रश्न:
पतंजलि ने यह सब क्यों लिखा: और आपने योग— सूत्र पर बोलना क्यों चुना जब कि दोनों में से कोई भी हमें साधना की मूलभूत कुंजियां देने को तैयार नहीं?
मूलभूत कुंजियों को आपस में सहभागी बनाया जा सकता है, लेकिन उन पर बात नहीं की जा सकती। पतंजलि ने ये सूत्र इसीलिए लिखे, ताकि वे तुम्हें आवश्यक मूलभूत कुंजियां दे सकें, लेकिन उन कुछ महत्वपूर्ण कुंजियों को सूत्र के रूप में नहीं डाला जा सकता। सूत्र तो केवल परिचय मात्र होते हैं, सूत्र तो केवल सत्य की भूमिका मात्र होते हैं।
इसे थोड़ा समझना। पतंजलि के योग—सूत्र उस हस्तांतरण की भूमिका ही हैं, जिसे वे घटित करना चाहते हैं। यह सूत्र तो बस प्रारंभिक संकेत हैं। इन सूत्रों के माध्यम से वे केवल यह बता देते हैं कि कुछ ऐसा है जो संभव हो सकता है। वे तुम्हें आशा बंधा देते हैं, वे तुम्हें भरोसा दिला देते हैं, उसकी कुछ झलक दिखला देते हैं। फिर पतंजलि के निकट आने के लिए बहुत कुछ करना होता है। गहन आत्मीयता के क्षण में वे कुंजियां शिष्य को हस्तांतरित कर दी जाती हैं।
और इसीलिए मैंने योग—सूत्रों पर बोलना चुना है। यह बोलना तो तुम्हें प्रलोभन देने के लिए है, तुम्हें फुसलाने के लिए है, ताकि तुम मेरे निकट आ सको। यह बोलना तो जिस प्यास को तुम जन्मों—जन्मों से अपने भीतर लिए घूम रहे हो, उसे बुझाने में मदद करना है। लेकिन तुम्हें कुछ पता नहीं है कि कैसे उस प्यास को बुझाना है। और जब तुम्हें उस प्यास को बुझाने का कोई उपाय नहीं सूझता, तो तुम उसे भुला देना चाहते हो। तुमने उस प्यास को अपनी चेतना से हटा दिया है। उसे तुमने अपने अचेतन के अंधेरे तलों में धकेल दिया है, क्योंकि उससे तुम्हें अड़चन होती थी। अगर व्यक्ति में कोई विशेष तरह की प्यास हो और वह उसे बुझा नहीं सके, तो उसका चेतना में बने रहना बहुत बोझिल और कष्टप्रद हो जाता है। वह बहुत झंझटपूर्ण हो जाता है। वह प्यास तुम्हारे द्वार पर हमेशा दस्तक देती रहेगी। वह प्यास तुम्हें और कुछ नहीं करने देगी, इसीलिए तुम उस प्यास को अपने अचेतन के अंधकार में धकेल देते हो।
पतंजलि के योग—सूत्रों पर यह जो प्रवचन माला चल रही है, वह इसलिए ही है कि तुम उस उपेक्षित प्यास को अपनी चेतना के केंद्र में ले आओ, और यह कोई वास्तविक कार्य नहीं है, यह तो— केवल कार्य का प्रारंभ है। वास्तविक काम तो तब शुरू होता है जब तुम प्यास को पहचान लेते हो, उस प्यास को स्वीकार कर लेते हो; और तुम परिवर्तित होने को, रूपांतरित होने को, नए होने को तैयार हो जाते हो—जब तुम इस अनंत यात्रा पर साहस पूर्वक जाने को तैयार हो जाते हो, एक ऐसी यात्रा जो अज्ञात और अज्ञेय है। यह प्रवचन तो बस तुम्हारे भीतर प्यास और अभीप्सा को जगाने के लिए हैं, ताकि तुम उस यात्रा पर जा सको।
यह योग—सूत्र तो केवल तुम्हारे भीतर प्यास जगाने के लिए हैं, तुम्हारे लिए एपीटाइजर की तरह हैं। असली बात तो लिखी ही नहीं जा सकती, कही ही नहीं जा सकती, लेकिन फिर भी ऐसा कुछ लिखा और कहा जा सकता है जो तुम्हें प्रामाणिक बात के अधिक निकट ले आए। मैं तो उन कुंजियों के हस्तांतरण के लिए तैयार हूं —लेकिन तुम्हें अपनी चेतना को विशेष तल तक लाना होगा, तुम्हें अपनी समझ के एक विशेष तल तक लौना होगा। केवल तभी तुम उन कुंजियों को समझ सकोगे।
मैंने सुना है:
दो भिखारी जो नशे में धुत्त थे, घास पर लेटे हुए थे। सूर्य चमक रहा था, पास ही कल—कल करती नदी चह रही थी, सभी कुछ शांत और सुखद था।
पहले भिखारी ने अपना विचार व्यक्त किया, ’तुम्हें मालूम है, इस समय तो मैं किसी के भी साथ अपनी जगह नहीं बदलूंगा, चाहे उस आदमी के पास एक लाख रुपए ही क्यों न हों।’
उसके साथी ने पूछा, ’पांच लाख हों तो।’
‘पांच लाख हों, तो भी नहीं।’
उसके मित्र ने बोलते हुए कहा, ’अच्छा, दस लाख के बारे में क्या खयाल है?’
पहला भिखारी उठकर बैठ गया और बोला, ’यह बात अलग है। अब तो तुम उस रकम की बात कर रहे हो जिसे सही मायने में रुपया कहा जा सकता है?’
ये प्रवचन तो तुम्हें झलक दिखाने जैसे ही हैं। ये तुम्हें असली रुपए देने जैसे नहीं हैं, बल्कि ये तो तुम्हें असली रुपए की झलक दिखाने जैसे हैं। जिससे तुम्हारे भीतर की जन्मों —जन्मों से दबाई हुई प्यास, अभीप्सा, अतृप्ति फिर से जाग उठे, वह फिर से तुम्हें आंदोलित कर दे और वह अतृप्ति तुम्हारे भीतर लपट बन जाए; तब तुम मेरे निकट आ सकोगे।
तीसरा प्रश्न:
कई वर्षों से मैं साक्षी—भाव में जी रहा हूं और वह मुझे रोग जैसा लगता है। तो क्या दो तरह के साक्षी—भाव होते हैं? और मेरा जो साक्षी—भाव है वह गलत है? कृपया समझाएं।
गलत होना ही चाहिए, वरना यह रोग की प्रतीति नहीं हो सकती है। स्व—बोध आत्म—बोध नहीं है, और यही समस्या है। आत्म —बोध एकदम अलग ही बात है। वह स्व —बोध बिलकुल नहीं है, सच तो यह है स्व —बोध आत्म—बोध के मार्ग में बाधा है। तुम ’स्व—केंद्रित मन द्वारा ध्यानपूर्वक अवलोकन और निरीक्षण करने का प्रयत्न कर सकते हो। लेकिन यह चैतन्य —जागरूकता नहीं है, यह साक्षीभाव नहीं है, क्योंकि इसमें एक तरह का तनाव होता है, इसमें विश्रांति नहीं होती।
अधिकांश लोगों के साथ ऐसा ही होता है। लोग इसी तरह से बात किए चले जाते हैं। मेरे देखने में आज तक ऐसा कोई व्यक्ति नहीं आया जो वार्तालाप में कुशल न हो, लोग बोलने में खूब कुशल होते हैं। बातचीत करना एकदम मानवीय और स्वाभाविक बात है। लेकिन अगर किसी से कहो कि मंच पर खड़े होकर बोलो, यहां तक कि चार सौ, हजार लोगों की छोटी सभा में अगर किसी को खड़ा कर दो तो वह भय के मारे कांपने लगता है और उसका गला रुंधने लगता है, उसके मुंह से शब्द नहीं निकलते, वह एकदम पसीना —पसीना हो जाता है। होता क्या है? वैसे तो वह हमेशा खूब बोलता था, इतना बोलता था कि सुनने वाले की सीमा के बाहर होता था और अचानक. अचानक एक शब्द उसके मुंह से नहीं निकलता!
तब वह अपने प्रति सचेत हो जाता है। इतने सारे लोग उसे देख रहे हैं, उस पर ध्यान केंद्रित किए हैं; तो उसे लगता है जैसे कि उसकी प्रतिष्ठा दाव पर लगी हुई है। अगर वह कुछ गलत बोलता है या गलत बोलते समय कुछ निकल जाता है, तो उसे लगता है लोग उसके बारे में क्या सोचेंगे? उसने इस बारे में कभी सोचा नहीं था, लेकिन अब इतने सारे लोग उसके सामने हैं —और शायद यह वही लोग होंगे जिनसे वह अब तक यही सब बातें करता रहा है—लेकिन अब मंच पर खड़े होकर उन लोगों को देखते हुए, और अब वही लोग एकसाथ उसकी ओर देख रहे हैं, उन सबकी आंखें तीर की भाति उसे बेध रही हैं, उसी पर केंद्रित हैं—उस समय वह व्यक्ति अहंकार —बोध से भर जाता है। अब उसका अहंकार दाव पर लगा होता है; यही बात तनाव का कारण बन जाती है।
ध्यान रहे, साक्षी— भाव में अहंकार —बोध नहीं होता है। साक्षी— भाव में तो अहंकार को तो गिराना पड़ता है। और इसके लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। यह तो विश्रांति की अवस्था में लेट—गो की अवस्था में सहज —स्फूर्त घटित होना चाहिए।
मैं तुमसे एक कथा कहना चाहूंगा:
एक पादरी अपने दिल का बोझ एक रब्बी से यह कहते हुए मिटा रहा था, ’ओह रब्बी परिस्थितियां बड़ी खराब चल रही हैं। डाक्टर मुझसे कहता है कि मैं बहुत बीमार हूं और मेरा एक बड़ा आपरेशन करना होगा।’
रब्बी बोला, ’इससे भी बुरा हो सकता था।’
पादरी बिना रुके कहने लगा, ’मेरा धर्म संघ मुझे एक दूसरी धर्म सेवा के लिए भेज रहा है क्योंकि मेरे उपदेश बहुत बेकार हैं और घरों से मेरी कोई मांग नहीं।’
रब्बी ने कहा, ’इससे भी ज्यादा बुरा हो सकता था।’
‘मेरे घर की देखभाल करने वाली ने अपना नोटिस दे दिया है, मेरे आर्गन बजाने वाले ने त्यागपत्र दे दिया है और धर्म वेदी की सेवा करने के लिए कोई लड़का नहीं मिलता, ’ पादरी जो रोने —रोने को हो रहा था अपनी कहता ही चला गया।
रब्बी ने कहा, ’इससे भी ज्यादा बुरा हो सकता था।’
‘पेरिस का खजांची पूरी की पूरी जमा —पूंजी लेकर कहीं चंपत हो गया है और बिशप निरीक्षण पर आने वाले हैं, मेरी के बच्चों में एक गर्भवती है, छत से पानी टपकता है और मेरी की कार चोरी चली गयी है, ’ पादरी कराहते हुए स्वरों में बोला।
रब्बी ने कहा, ’इससे भी ज्यादा बुरा हो सकता था।’
पादरी, जो अंततः रब्बी के करुणाहीन व्यवहार से दुखी हो गया था, बोला, ’ आखिर इससे भी बुरा क्या हो सकता है।’
रब्बी ने कहा, ’यह सब मेरे साथ भी हो सकता था।।’
अगर तुम अहंकार के ढंग से ही सोचते रहोगे तो तुम्हारा साक्षीभाव भी एक रोग हो जाएगा तब तुम्हारा ध्यान एक रोग हो जाएगा, तब तुम्हारा धर्म एक रोग हो जाएगा। अहंकार के साथ तो हर चीज डिस —ईस, रोग ही बन जाएगी। अहंकार तुम्हारे अस्तित्व की सबसे पीड़ादायी चीज है। वह उस चुभे हुए कांटे की तरह है; जो पीड़ा दिए ही चला जाता है। अहंकार एक घाव है।
तो फिर क्या करोगे?
पहली बात, जब तुम ध्यानपूर्वक देखने का प्रयास करो, तो पहली बात पतंजलि जो कहते हैं वह है : दृश्य पर एकाग्रता लाओ, द्रष्टा पर एकाग्रता मत लाओ।
दृश्य से शुरू करना— धारणा, एकाग्रचित्तता। वृक्ष को देखते समय वृक्ष ही रह जाए। तुम स्वयं को पूरी तरह भूल जाओ, तुम्हारी कोई आवश्यकता भी नहीं है। वृक्ष को, हरियाली को, गुलाब को देखने में तुम्हारी मौजूदगी बाधा बनेगी। जब गुलाब को देखो, तो बस गुलाब ही रह जाए। उस समय तुम स्वयं को पूरी तरह से भूल जाना—तुम्हारा पूरा ध्यान गुलाब पर केंद्रित रहे। गुलाब ही बच रहे द्रष्टा नहीं बचे केवल दृश्य ही बचे। यह है संयम का प्रथम चरण।
फिर दूसरा चरण गुलाब को हटा देना, गुलाब पर ध्यान मत देना। अब गुलाब की चेतना पर ध्यान केंद्रित करना लेकिन अभी भी कोई द्रष्टा की आवश्यकता नहीं है, केवल मात्र यह बोध चाहिए कि तुम देख रहे हो, कि तुम देखने वाले हो।
और केवल तभी तीसरे चरण में प्रवेश हो सकता है, जो तुम्हें उसके करीब ले आएगा जिसे गुर्जिएफ ने स्व—स्मरण कहा है, या जिसे कृष्णमूर्ति जागरूकता कहते हैं, या उपनिषद जिसे साक्षीभाव कहते हैं। लेकिन पहले दो चरणों को संपन्न करना ही पड़ता है; तभी तीसरे चरण में प्रवेश हो सकता है। तीसरे से प्रारंभ मत करना। पहले दृश्य, फिर चेतना, फिर उसके पश्चात द्रष्टा।
जब दृश्य जाता है और चेतना पर कोई तनाव नहीं रहता, तब द्रष्टा तो होता है, लेकिन कोई दृश्य नहीं बचता। व्यक्ति होता है, लेकिन कोई ’मैं’ नहीं बचता, बस व्यक्ति का अस्तित्व होता है। व्यक्ति होता है, लेकिन ’मैं’ हूं, ऐसी कोई अनुभूति नहीं होती है। ’मैं’ की सीमा खो जाती है, केवल होना अस्तित्व रखता है। वही होना ईश्वरीय होता है।’मैं ’ को गिरा देना और केवल होने का अस्तित्व रहने देना।
और अगर तुम बहुत लंबे समय से साक्षीभाव पर काम कर रहे हो, तो कुछ महीने, कम से कम तीन महीने के लिए इसे बिलकुल बंद कर दो, इसके साथ और काम मत करना। अन्यथा जो पुराना ढर्रा, नई जागरूकता को नष्ट कर सकता है। तुम तीन महीने का अंतराल दे दो। और तीन महीने तक तुम रेचन वाली ध्यान विधियों को करो —सक्रिय, कुंडलिनी, नटराज—इस प्रकार की विधियां जिनमें सारा जोर कुछ करने पर है। और वह करना तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण होगा। नृत्य करो, नृत्यकार की अपेक्षा नृत्य महत्वपूर्ण होता है। नृत्यकार को तो स्वयं को नृत्य में पूरी तरह छोड़ देना होता है।
तो तीन महीने के लिए साक्षी — भाव को भूल जाओ और किसी गतिशील ध्यान में डूब जाओ। यह साक्षी— भाव से एकदम अलग है। किसी चीज में डूबने का मतलब है स्वयं को पूरी तरह से भुला देना, उसमें पूरी तरह से डूब जाना। नृत्य करना अच्छा होगा, गाना अच्छा होगा — और उसमें पूरी तरह से खो जाना और स्वयं को संपूर्ण रूप से भुला देना। अपने को उससे अलग — थलग मत रखना।
अगर तुम इस भांति नृत्य कर सको कि केवल नृत्य ही बच रहे और नर्तक खो जाए, तो अचानक एक दिन तुम पाओगे कि नृत्य भी खो जाता है। और तब जो जागरूकता होती है, वह न तो मन की होती है और न ही वह अहंकार की होती है।
असल में तो उस जागरूकता का अभ्यास नहीं किया जा सकता है, जागरूकता आ सके उसकी तैयारी के लिए तो कुछ और करना पड़ता है, लेकिन उसके पीछे जागरूकता अपने से आ जाती है। तुम्हें तो केवल उसके प्रति अपने को खुला रखना है।
चौथा प्रश्न:
’ये बातें केवल शिष्य और सदगुरु के अंतरंग संबंधों में ही हस्तांतरित की जा सकती हैं’ तो हम यहां क्या कर रहे हैं? आपके साथ मेरा इसी तरह का नाता है और फिर भी मुझे कुछ घट नहीं रहा है!’
तुम निर्णय नहीं ले सकते हो कि मेरे साथ तुम्हारा वैसा नाता है या नहीं। केवल मैं ही निर्णय ले सकता हूं। हो सकता है तुम्हारा लालच तुम से कहता हो कि तुम्हारा मुझसे इस तरह का नाता है। तुम्हारी आकांक्षा तुम से कह सकती है कि तुम पूरी तरह से तैयार हो, लेकिन तुम्हारा यह कहना कि तुम तैयार हो, तुम्हें तैयार नहीं बना देता है। जब तक मैं ही न जान लूं इसे, तब तक कुछ भी हस्तांतरित नहीं किया जा सकता।
और अगर तुम स्वयं के भीतर देखो, तो तुम भी यह देख पाओगे कि तुम तैयार नहीं हो। यहं। पर होना मात्र ही पर्याप्त नहीं है। संन्यासी मात्र हो जाना ही काफी नहीं है—आवश्यक है, फिर भी पर्याप्त नहीं है। कुछ और चाहिए, ऐसा समर्पण या त्याग चाहिए, जिसमें कि तुम विलीन हो जाओ तुम मिट जाओ, तुम खो जाओ। जब तुम नहीं रहते, तब उन कुंजियों को दिया जा सकता है, इससे पहले नहीं। अगर तुम इसी की ओर आख लगाए बैठे हो, इसी की प्रतीक्षा कर रहे हो, तो वह देखना और प्रतीक्षा करना ही बाधा बन जाएगी।
मैं तुमसे एक छोटी सी कथा कहना चाहूंगा
तीन नए—नए दीक्षित हुए शिष्य ट्रापिस्ट मानेस्ट्री में आए। एक वर्ष के बाद वे सुबह के नाश्ता के लिए बैठे। मठ का धर्माध्यक्ष उनमें से एक नए शिष्य से बोला:
‘भाई पाल, तुम पूरे एक साल से हमारे साथ हो और तुमने मौन रहने का अपना वचन पूरा किया है। तुम अगर चाहो तो अब बोल सकते हो। क्या तुम्हें कुछ कहना है?’
‘हां, आदरणीय मठाधीश, मुझे यह नाश्ता अच्छा नहीं लगता।’
‘ठीक है, शायद हम इस बारे में कुछ न कुछ करेंगे।’
इस बीच कुछ भी नहीं किया गया, मौन का एक वर्ष और बीत गया। एक बार फिर वे नाश्ते की मेज पर मिले और मठाधीश ने दूसरे युवा शिष्य से पूछा:
‘भाई पीटर, मैं दो वर्ष तक तुम्हारे शांत और मौन रहने के लिए तुम्हारी प्रशंसा करता हूं। अगर तुम्हारी इच्छा हो तो अब तुम बोल सकते हो। क्या तुम्हें कुछ कहना है?’
‘हां, धर्माध्यक्ष। मैं तो नाश्ते में कुछ भी गलत नहीं देखता।’
तीसरा वर्ष बीत गया, मौन का एक और वर्ष। फिर मठाधीश ने तीसरे नए शिष्य से पूछा :
‘भाई स्टीफन, तुमने जो पूरे तीन वर्षों तक मौन —शांत रहने का वचन पूरा किया उसके लिए मैं तुम्हारी बहुत सराहना करता हूं। अगर तुम्हारी इच्छा हो तो अब तुम कुछ बोल सकते हो। क्या तुम्हें कुछ कहना है?’
‘हां धर्माध्यक्ष, मुझे कहना है। मैं नाश्ते के लिए लगातार चलने वाले इस झगड़े —झंझट को सहन नहीं कर सकता।’
उनके वे तीन वर्ष सुबह के नाश्ते को लेकर ही नष्ट हो गए, और मन की गहराई में कहीं यह समस्या बनी ही रही। उन तीनों ने उत्तर अलग—अलग ढंग से दिए, लेकिन वे तीनों जुड़े एक ही बात से हैं। उनके उत्तरों की भिन्नता केवल सतही है। कहीं गहरे में वे सब उसी से ग्रस्त हैं।
तुम केवल तभी तैयार हो सकते हो जब सारी ग्रस्तताएं समाप्त हो जाएं। बाहर से मौन हो जाना बहुत आसान है, लेकिन भीतर का बोलना तो जारी ही रहता है। तब केवल बाहर से न बोलना
मौन नहीं है; ऐसा मौन तो दिखावे का मौन है। सच तो यह है कि जो लोग बाहर से मौन होते हैं, बातचीत नहीं करते हैं, तब उनका मन अधिक बोलता रहता है। क्योंकि वैसे तो वे दूसरों के साथ बातचीत कर लेते हैं, तो मन का प्रवाह बाहर निकल जाता है। जब वे मौन रहते हैं, तो प्रवाह के बाहर आने के लिए कोई द्वार नहीं बचता है, सारे द्वार — दरवाजे बंद होते हैं, इसलिए मन भीतर ही भीतर स्वयं से बोलता चला जाता है। मन स्वयं के ही चक्कर में, स्वयं के ही जंजाल में फंसता चला जाता है, और स्वयं से ही बोले चला जाता है।
इन तीन वर्षों में, वे तीनों ही नए शिष्य स्वयं से भीतर ही भीतर बातचीत करते रहे। ऊपर से देखने पर तो, सतह पर तो सब कुछ बिलकुल शांत और मौन दिखाई पदूता है, लेकिन गहरे में ऐसा नहीं था।
इसलिए जब भी तुम तैयार होते हो. और तुम कोई निर्णय नहीं ले सकते, यह बात तुम्हारे निर्णय के लिए नहीं छोड़ी जा सकती है। जो लोग उसके लिए तैयार हैं, उन्हें कुंजियां दे दी गयी हैं; और जो तैयार होने को हैं, उनके लिए कुंजियां सदा तैयार ही हैं।’ वस्तुत: एक क्षण भी खोया नहीं जाता है। जिस क्षण तुम तैयार होते हो, तत्क्षण, उसी समय कुंजी दे दी जाती हैं। वह जो कुंजी है, वह कोई वस्तु नहीं है कि मैं तुम्हें बुलाकर तुम्हारे हाथ में पकड़ा दूं, उसका तो हस्तांतरण ही हो सकता है —जब तुम मेरे साथ लयबद्ध हो जाते हो, मेरी तुम्हारी धड़कन इतनी एक हो जाती है कि तुम्हें किन्हीं कुंजियों की भी कोई फिकर नहीं रहती, तब तो तुम सब कुछ मेरे ऊपर ही छोड़ देते हो।
यही तो है समर्पण। तुम कहते हो, ’जब भी — अगर कभी आपको ठीक लगे, तो मैं तैयार हूं। अगर आपको लगे कि अभी समय नहीं आया है, तो मैं अनंत — अनंत समय तक प्रतीक्षा करने के लिए तैयार हूं। अगर यह नहीं भी घटती है तो कोई बात नहीं।’
केवल उसी समग्र स्वीकार भाव में, तुम मेरे प्रति सच में खुले होते हो, अन्यथा तो तुम मेरा उपयोग करना चाहते हो।
तुम मेरा उपयोग नहीं कर सकते। मैं तुम्हारे लिए उपलब्ध हूं, लेकिन फिर भी तुम मेरा उपयोग नहीं कर सकते। तुम तो बस मेरे प्रति खुले, ग्रहणशील हो सकते हो। और जब तुम इतने संतुष्ट और संतृप्त हो जाओगे, वह सभी बाहरी संतुष्टियों और तृप्तियों से अलग होगी।
लेकिन उसके लिए चाहिए अनंत धैर्य, एक शून्य प्रतीक्षा।
अगला प्रश्न भी कुछ इसी तरह का है:
भगवान अपने पिछले एक प्रवचन में आपने यह स्वीकार किया है कि आप अपनी ओर से साधकों को आत्मा की अज्ञात ऊंचाइयों की ओर ले जाने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं आगे आपने कहा है, मैं ऐसे लोगों की प्रतीक्षा में हूं जो आत्मा के अज्ञात शिखरों तक के लिए किसी भी तरह के प्रयोग करने के लिए तैयार हैं। जब से मैने आपके ये वचन हैं आपकी इस का सामना करने के लिए मैं स्वयं को तैयार कर रहा हूं व्यक्तिगत रूप से आपके दर्शन करते हुए जब मैने यह स्वीकार किया कि मैं अपनी ओर से तैयार हूं तब आपने बताया कि आप उस समय तैयार नहीं। आपके वक्तव्य में यह विरोधाभास क्यों है? कृपया मेरी शंकाओं का समाधान करें।
कहीं कोई विरोधाभास नहीं है—केवल शिष्टाचार है। तुम तैयार नहीं हो; लेकिन मैं तुम्हें चोट नहीं पहुंचाना चाहता हूं, इसलिए मैंने कहा कि मैं तैयार नहीं हूं।
यही तनाव और उत्सुकता और लोभ ही है, जो अशांति दे रहा है। अगर तुम तैयार हो और मैं तुम से कहता हूं प्रतीक्षा करो, तो तुम मेरी सुनोगे।
यह प्रश्न आनंद समर्थ का है। अभी कुछ दिन पहले भी वह यही पूछने के लिए आए थे, और मैंने उनसे बार—बार कहा था प्रतीक्षा करो। और समर्थ ने कहा, अब मैं और प्रतीक्षा नहीं कर सकता। आपने तो पहले ही कह दिया है, जब कभी कोई तैयार होगा तो मैं उसे हस्तांतरण करने के लिए तैयार हूं। अब मैं तैयार हूं; तो फिर आप मुझसे क्यों कहते हैं कि प्रतीक्षा करो? और मैंने फिर से उनसे कहा, प्रतीक्षा करो। लेकिन वह सुनता ही नहीं।
तुम मेरी बात सुनने को भी तैयार नहीं। यह तुम्हारा किस तरह का समर्पण है? तुम पूरी तरह से बहरे हो और फिर भी तुम सोचते हो कि तुम तैयार हो।
तुम लोभी हो, इतना मैं जरूर समझता हूं। तुम में अहंकार है, उसकी खबर मुझे है। तुम जल्दी में हो, मुझे उसका भी पता है। और तुम चाहते हो कि तुम्हें बड़े सस्ते में चीजें मिल जाएं, यह भी मैं समझता हूं। लेकिन तुम तैयार नहीं हो।
मैं तुमसे एक कथा कहूंगा
दो नन जो कि एक देहाती इलाके से गुजर रही थीं, उसी समय उनकी कार में पेट्रोल खतम हो गया। वे कुछ मील पैदल चलीं और चलते —चलते आखिरकार एक फार्महाउस में पहुंच गई ’, वहां पर उन्होंने अपनी समस्या के बारे में बताया।
किसान ने कहा, ’ आप टैरक्टर में से कुछ पेट्रोल ले सकती हैं, लेकिन उसे रखने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है।’
फिर कुछ देर सोचने के बाद उस किसान ने एक पुराना पीट जैसे —तैसे ढूंढ निकाला। उस पीट में पेट्रोल भरकर दोनों नन अपनी कार की ओर लौटीं और कार में पेट्रोल डालने लगीं।
उसी समय एक रब्बी वहां से अपनी कार में गुजरा। उसने जब यह दृश्य देखा, तो वह रुक गया और उन ननों से कहने लगा, ’सिस्टर्स, मैं तुम्हारे धर्म से सहमत नहीं हूं —लेकिन फिर भी मैं तुम्हारी आस्था की प्रशंसा करता हूं।’
मैं भी तुम्हारी तैयारी से राजी नहीं, लेकिन मैं तुम्हारे विश्वास की कद्र करता हूं। मैं मानता हूं, प्यास जाग गयी है। अच्छा है। लेकिन प्यास स्वयं में पर्याप्त तैयारी नहीं होती। प्यास तो प्रारंभ है, लेकिन अंत नहीं। उसे मौन में बढ़ने दो, धैर्य से विकसित होने दो, और एक गहरे सहज —स्फूर्त प्रवाह में उसे विकसित होने दो। जल्दी मत करो। धीरे — धीरे बढ़ना, मेरे साथ बहने की कोशिश करना। और मुझसे आगे निकलने की कोशिश मत करना—वह तो संभव ही न होगा।
छठवां प्रश्न:
प्यारे भगवान आपके साथ मुझे शांति मिलती है। लेकिन फिर भी यह कैसे हो कि बंदर की तरह उछल— कूद करने वाला यह मन पुराने के साथ नाता तोड़ ले ताकि नए के साथ चल सके? — माइकल स्टुपिड।
अच्छा है, बहुत अच्छा है। यह ’माइकल वाइज’ से ज्यादा अच्छा है। तुम ज्यादा बुद्धिमान हो रहे हो, अपनी मूढ़ता को स्वीकार कर लेना बुद्धिमत्ता की ओर बढ़ने का पहला एक कदम है।
लेकिन होशियार बनने की कोशिश मत करो। तुम मुझे धोखा नहीं दे सकते, क्योंकि अगला प्रश्न फिर माइकल वाइज का है।
अगला प्रश्न:
प्यारे भगवान आपके साथ बडी शांति मिली। अगर किसी ने लाओत्सु से संन्यास लेने के लिए पूछा होता तो उनका उत्तर होता : ’क्या! संसार के और खंड करने हैं? फूलों की कोई यूनिफार्म नहीं होती; और क्या सूर्योदय सुंदर नहीं है?’
या. ’अगर कोई इतना पागल है कि तुम्हारा मन ले ले तो दे दो उसे ’
या ’फूल ने तो उत्तर दे ही दिया; मेरी कोई जरूरत नहीं ’
— माइकल वाइज ( स्टुपिड)
फिर से माइकल वाइज, अब ’स्टुपिड ’ ब्रैकेट में लिखा है। तो तुम तुम्हारी बुद्धिमत्ता से तो गिर ही गए।
और तुम कोई लाओत्सु नहीं हो। अगर तुम होते, तो पहली तो बात यही कि तुम यहां होते ही नहीं। फिर तुम यहां क्या करते?
और मैं तुमसे एक बात कहता हूं. अगर मैं लाओत्सु से ऐसा कहूं, तो वह संन्यास ले लेंगे। लेकिन मैं उनसे कहने वाला नहीं। कहने का अर्थ क्या है? क्यों के आदमी को परेशान करना?
आठवां प्रश्न. आप मेरे गुरु नहीं हैं लेकिन फिर भी आप मेरे मार्गदर्शक हैं। आप और मैं एक जैसा सोचते हैं एक जैसी अनुभूति है हमारी? आप जो कुछ भी कहते हैं मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं पहले से ही जानता हूं; आप तो उसे स्मरण रखने में मेरी मदद कर रहे हैं। मैं बहुत वर्षों से आपको सुन रहा हूं और मैं आपके साथ पूरी तरह से समानुभूति अनुभव करता हूं अगर ऐसी बात है तो मेरा आपके साथ ठीक— ठीक संबंध क्या है?
मुझे लगता है तुम मेरे गुरु हो।
नौवां प्रश्न:
भगवान आपने बहुत बार अपने प्रवचनों में कहा है कि ’मत सोचना कि तुम अपने से यहां आ गए हो। मैने जाल फेंका है और तुम्हें चुना है ’ मैं जानता हूं यह सच है लेकिन आप यह कैसे जान लेते हैं कि कोई उसे ग्रहण करने के लिए तैयार है जिसे आप करुणावश बांटना चाहते हैं?
मैं बहुत छोटी उम्र से पंद्रह साल की उम्र से आत्म— बोध पाने के लिए तड़पता रहा और मुझे सदगुरु की तलाश रही वही तलाश मुझे डिवाइन लाइफ सोसायटी के स्वामी शिवानंद संत लीलाशाह और साधु वासवानी के पास ले गई जिनसे मुझे कुछ ज्ञान— रत्न भी मिले लेकिन फिर भी आत्म— बोध का कोहिनूर वहां नहीं मिला। मैने राधास्वामी को चिन्मयानंद को डोगरे महाराज को और स्वामी अखंडानंद को सुना— लेकिन फिर भी आत्म— बोध की प्राप्ति कहीं नहीं हुई
मैने चार— पांच साल पूर्व आपके कुछ प्रवचन सुने थे और जुहू बीच पर आपके संन्यासियों के साथ कुछ ध्यान भी किए थे और वे मुझे अच्छे भी लगे थे लेकिन वे मुझे पूरी तरह से आपकी ओर नहीं खीच पाए ऐसा तो अभी पिछले साल ही हुआ मैं आपके पास आलोचक की भांति आया था। लेकिन कुछ ध्यान प्रयोगों ने और तीन— चार प्रवचनों ने मुझे पक्के तौर पर आश्वस्त और रूपांतरित कर दिया। और घटना घट गयी... मैने समर्पण कर दिया
मुझे पूरा विश्वास है कि मैं सदगुरु के हाथों में सुरक्षित हूं— जो मुझे प्रतिपल ठीक मार्ग दिखा रहे हैं। मैं आनंद में डूबा हुआ हूं या कहूं कि आनंद ही आनंद है लेकिन संबोधि की परम अवस्था उपलब्ध नहीं हुई है। मैं वर्तमान क्षण में जी रहा हूं। मुझे अतन्तई या भविष्य की फिकर नहीं है।
क्या मैं ठीक मार्ग पर हूं? कृपया बताएं।
तुम ठीक मार्ग पर हो, लेकिन अंततः मार्ग भी छोड़ना पड़ता है, क्योंकि परम जगत में सारे मार्ग गलत हो जाते हैं। मार्ग स्वयं में ही गलत होता है। कोई मार्ग वहां तक नहीं ले जाता। अंततः सभी मार्ग भटकाने वाले सिद्ध होते हैं। परमात्मा तक पहुंचने का विचार ही गलत है। परमात्मा पहले से ही तुम तक पहुंचा हुआ है; तुम्हें तो बस उसे जीना शुरू करना है। इसलिए सारे प्रयास एक तरह से व्यर्थ ही हैं।
तुम यहां पर मेरे पास हो। तो मुझे तुमसे सारे मार्गों को छीन लेने दो। केवल हीरे और जवाहरातों को ही नहीं, बल्कि कोहिनूर को भी छीन लेने दो। मुझे तुम्हें खाली करने दो। मुझसे अपने को भरने की कोशिश मत करना, क्योंकि तब मैं तुम्हारे मार्ग में रुकावट बन जाऊंगा। मुझसे सावधान रहना। मेरे पर रुक जाने की आवश्यकता नहीं, सभी तरह के बंधन खतरनाक होते हैं। तुम्हें चित्त की उस अवस्था को उपलब्ध होना है, जहां किसी तरह की कोई पकड़ नहीं रह जाती। मेरे साथ रहो, मगर मुझसे मोह मत बनाओ। मुझे सुनो, लेकिन उस सुनने को ज्ञान मत बना लेना। मेरी गपशप सुनो, लेकिन उन्हें धर्म —कथाएं मत बना देना। मेरे साथ होने से आनंदित होओ, लेकिन फिर भी मुझ पर निर्भर मत होओ। किसी भी तरह की कोई निर्भरता मत बनाओ; वरना मैं तुम्हारा मित्र नहीं, तब तो मैं एक शत्रु हो गया।
तो फिर तुम क्या करोगे? तुम संत लीलाशाह, स्वामी शिवानंद, स्वामी अखंडानंद के पास गए। तुम उन सब को पीछे छोड़ आए। तुम्हें मुझे भी छोड़ना होगा। और मैं इसमें तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता। अगर मैं तुम्हारी मदद करता हूं, तो मैं तुम्हारे मार्ग की बाधा बन जाऊंगा।
इसलिए मुझसे प्रेम करो, मेरे सान्निध्य में उठो —बैठो, मेरी उपस्थिति को अनुभव करो, लेकिन उस पर निर्भर मत हो जाओ।
और तुम क्यों पूछ रहे हो कि तुम ठीक मार्ग पर हो या नहीं?
क्योंकि मन उसे पकड़ना चाहता है। इसलिए हर बात पक्की हो, सुनिश्चित हो। और सही मार्ग हो, तो तुम कहोगे, ’अब ठीक है। अब मैं अपनी आंखों पर पट्टी बाध सकता हूं। अब कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं।’ कहीं जाने —की जरूरत है भी नहीं। लेकिन इसलिए नहीं कि तुम्हें मुझे पकड़े रहना है। कहीं जाने की जरूरत इसलिए नहीं है, क्योंकि तुम पहले से ही वहां हो जहां कि तुम जाना चाहते हो। मुझे तो तुम स्वयं को जान सकी इसमें मदद करनी है।
यह बहुत ही नाजुक और सूक्ष्म बात है, क्योंकि जो मैं कहता हूं अगर वह तुम्हें अच्छी लगती है, तो इस बात की अधिक संभावना है कि तुम उससे भी फिलोसफी, उससे भी सिद्धांत निर्मित कर लो। जो कुछ मैं कहता हूं अगर वह तुम्हें आश्वस्त करता है—जैसा कि प्रश्नकर्ता कह रहा है कि ’ ’मैं पक्के तौर पर आश्वस्त हो गया हूं ’….. तो मैं तुम्हारे साथ किसी वाद—विवाद में नहीं पड़ रहा हूं, और मैं तुम्हें कोई तर्क भी नहीं दे रहा हूं। मैं तो पूरी तरह से तर्कातीत और असंगत हूं। मेरा तो सारा प्रयास यही है कि तुम्हारे मन से सारे तर्क गिरा दूं; ताकि तुम शब्दों, सिद्धांतों, मतों, धर्मशास्त्रों से अलग—निर्विकार, शुद्ध, निर्दोष, दूषित बच जाओ। जिससे तुम अपनी चेतना की शुद्ध निर्मल गुणवत्ता को उपलब्ध कर सको। तुम्हारे भीतर केवल एक शून्य, विराट आकाश शेष रह जाए।
मेरा संपूर्ण प्रयास यहां पर यही है कि तुम्हें लक्ष्य दे दूं र मार्ग न दूं। मेरा प्रयास तुम्हें समग्र को, संपूर्ण को दे देने का है। मैं तुम्हें साधन—मार्ग इत्यादि नहीं दूंगा। मैं तुम्हें साध्य, परम साध्य देना चाहता हूं। वर्तमान के क्षण में मन हिचकिचाहट अनुभव करता है। मन साधनों को, मार्गों को जानना चाहता है, ताकि अंतिम साध्य तक पहुंचा जा सके। मन विधि चाहता है। मन मार्ग चाहता है। मन पहले आश्वस्त होना चाहता है और फिर रूपांतरित होना चाहता है।
मैं मन की इस धारणा को मिटा देना चाहता हूं, उसे किसी तरह का भरोसा या आश्वासन नहीं देना चाहता। इसलिए अगर तुम सच में मेरे ऊपर श्रद्धा रखते हो, मेरे ऊपर भरोसा करते हो. तो मन को गिरा देना। अगर तुमने मुझे देखा और सुना है, और तुम मुझसे प्रेम करते हो, तो मेरे साथ किसी तरह की विचारधारा और सिद्धांत को मत जोड़ना। इसे शुद्ध, निर्विकार प्रेम ही रहने देना, जिसमें कोई विचार, कोई सिद्धांत न जुड़ा हो। तुम मुझसे प्रेम करो, मैं तुम्हें प्रेम करूं, इसमें कोई कारण निहित नहीं होना चाहिए। यह प्रेम बेशर्त होना चाहिए, इसमें कोई शर्त नहीं होनी चाहिए।
अगर तुम इस कारण से मेरे प्रेम में पड़े हो कि मैं जो कहता हूं वह तुम्हें सत्य मालूम पड़ता है, तो यह प्रेम बहुत समय तक टिकने वाला नहीं है; और अगर यह टिक भी गया, तो यह वह प्रेम न होगा जो कि परमात्मा का होता है। तब यह प्रेम मन की धारणा और तर्क की तरह ही होगा। और उस ढंग से मैं खतरनाक आदमी हूं, क्योंकि आज जो मैं कहूंगा तुम उसके प्रति आश्वस्त हो जाओगे, और कल मैं ठीक उसके विपरीत कहूंगा—और तब तुम क्या क्या करोगे? तब तुम उलझन और परेशानी में पड़ जाओगे।
तुम मेरे साथ केवल तभी रह सकते हो, जब तुम मन को आश्वस्त करने का प्रयत्न नहीं करते, तब मैं तुम्हें उलझन और परेशानी में नहीं डाल सकूंगा, क्योंकि तब तुम किसी विचार को नहीं पकड़ोगे। तब मैं कितनी ही बातें करता रहूं, कभी एक बात को एक ढंग से कहूं, कभी उसी बात को दूसरे ढंग से कहूं, तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा। यह सभी तुम्हारे मन को मिटा देने की विधियां हैं।
और इस भेद को तुम्हें समझ लेना है। अगर तुम किसी सदगुरु के पास जाते हो, तो उसके पास अपना एक अनुशासन होता है, अपना एक धर्मशास्त्र होता है, कुछ सुनिश्चित धारणाएं और
सिद्धांत होते हैं। ऐसे भी सदगुरु हैं जिनका सिद्धांत ही सिद्धांत—शून्यता का होता है, या कहो कि उनका कोई सिद्धांत ही नहीं होता—लेकिन फिर वह सिद्धांत —शून्यता का उनका सिद्धांत ही अपने में बहुत कठोर होता है, और वही उनका धर्मशास्त्र बन जाता है। मेरे पास कोई धारणा या सिद्धांत नहीं है, यहां तक कि सिद्धांत—शून्यता का भी सिद्धांत नहीं है।
अगर तुम मन के द्वारा मुझे समझने की कोशिश करोगे, तो मैं तुम्हें परेशानी में डाल दूंगा, तुम्हें गड़बड़ा दूंगा, और तुम अधिकाधिक उलझन में पड़ते चले जाओगे। बस, तुम तो मुझे सुनना। इसे मेरे साथ होने का एक बहाना होने देना, और इस बारे में सब कुछ भूल जाना कि मैं क्या कहता हूं। मैं जो कहता हूं उसे एकत्रित मत करते चले जाना, उसे संचित मत कर लेना। मन को संचय करने की पुरानी आदत है, या कहें कि मन संचय है। अगर संचय करना बंद कर दो, तो मन धीरे — धीरे अपने से मिटने लगता है। और अलग — अलग दृष्टिकोणों से मुझे सुनते हुए, जो कि एक —दूसरे के एकदम विपरीत हैं, धीरे — धीरे तुम जान लोगे कि सारे दृष्टिकोण खेल मात्र हैं।
और ध्यान रहे, कोई सा भी दृष्टिकोण तुम्हें सत्य तक नहीं ले जा सकता। जब तुम सभी दृष्टिकोण, सभी विचार दृष्टियां, सोचने के सारे डरें गिरा देते हो, तो अचानक तुम पाते हो कि सत्य आ उतरा है। अभी तक तुम धारणा और दृष्टिकोणों में ही इतने उलझे रहे, उनको लेकर ही इतने चिंतित और परेशान रहे कि इसी कारण तुम सत्य को न जान सके।
जो जैसा मौजूद है वही सत्य है। बुद्ध ने इसे तथाता कहा है। तथाता का अर्थ है. जैसा है ऐसा ही, वह मौजूद है ही—जैसा जो है वही सत्य है।
तो जब तुम किसी न किसी भांति यहां तक आ ही गए हो, तो इस अवसर को, इस द्वार को चूक मत जाना।
और तुमने पूछा है, ’ आप कैसे इसकी व्यवस्था करते हैं। आप यह कैसे जान लेते हैं कि जिसे आप करुणावश बांटना चाहते हैं, कोई उसे ग्रहण करने के लिए तैयार है?’
इन बातों को घटाया नहीं जाता है, यह तो अपने से घटती हैं। अगर तुम प्यासे हो, तो पानी के स्रोत को खोज ही लेते हो। और अगर जल का स्रोत अस्तित्व रखता है, तो जल का वह स्रोत हवाओं के द्वारा, अपनी शीतलता के द्वारा, अपनी ठंडक के द्वारा— और.. और अगर कहीं कोई नदी या सरिता बह रही होती है, तो वह हवाओं के माध्यम से चारों ओर अपना संदेश फैला देती है। और कोई थके —मांदे, प्यासे यात्री को जब वह ठंडी हवा छूती है, तो वह समझ लेता है कि अब इसी ओर जाना है, यही मार्ग है। इधर कहीं ही पानी का झ रना होगा।
न तो नदी को कुछ मालूम होत है यात्री के बारे में कि वह वहां है या नहीं, और न ही यात्री को कुछ ठीक —ठीक मालूम होता है कि नदी वहां है या नहीं, लेकिन तो भी दोनों एक दूसरे को खोज लेते हैं : बिना कहे ही संदेश स्वयं पहुंच जाता है और यात्री पता लगा लेता है कि यह ठंडी हवा कहां से आ रही है।
इस खोज में कई बार वह गिरता है, चोट खाता है, भटकता है, लेकिन फिर भी शीतल हवा का कहीं कुछ पता नहीं रहता; वह फिर से प्रयास करता है। गलतियां कर—कर के उसे ज्ञात हो जाता है कि अगर वह एक सुनिश्चित दिशा में बढ़ता चला जाता है, तो हवा शीतल से शीतल होती चली
जाती है। और जलधारा ने अपना संदेश किसी पते पर नहीं भेजा है। वह किसी एक के लिए नहीं होती। वह तो किसी भी उस थके हुए यात्री के लिए होती है, जो प्यासा है।
मेरे साथ भी घटनाएं इसी ढंग से घट रही हैं। ऐसा नहीं है कि मैं यहां कुछ आयोजन कर रहा हूं। वह बात ही करीब—करीब पागल कर देने वाली होगी। मैं कैसे कोई व्यवस्था बना सकता हूं? यह कोई कार्य और कारण का नियम तो है नहीं; यह तो समक्रमिकता, सिन्क्रानिसिटी का नियम है। मैं यहां पर मौजूद हूं; एक तरह की शांत और शीतल हवाएं चारों ओर संसार में बह रही हैं। जहां कहीं भी कोई प्यासा होता है, वह मेरे पास आने की अभीप्सा से भर जाता है। इसी तरह से तो तुम सब लोग आए हो।
और जब तुम यहां पर होते हो, तो यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम पानी पीते हो या नहीं। तुम्हारा मन तुम्हारे लिए अड़चनें पैदा कसता है, क्योंकि अगर तुम पानी पीना चाहते हो तो पानी पीने के लिए तुम्हें नीचे झुकना पड़ेगा, समर्पण करना पड़ेगा, अपने हाथों की अंजुली बनाकर नदी की ओर झुकना पड़ेगा; केवल तभी तुम्हें नदी उपलब्ध हो सकेगी। केवल तभी तुम पानी को पीकर अपनी प्यास बुझा सकते हो, वरना तुम किनारे पर ही खड़े रह जाओगे। तुम में से कई जो नए आए हैं, वे महीनों से किनारे पर ही खड़े हैं—वें प्यासे हैं, अत्यधिक प्यासे हैं—लेकिन अहंकार कहता है, ’ऐसा मत करना, झुकना मत। स्वयं को समर्पित मत करना।’ फिर नदी तुम्हारे पास से बहती रहेगी और तुम प्यासे के प्यासे ही खड़े रह जाओगे। यह सब तुम पर निर्भर है।
इसके लिए किसी तरह का आयोजन या व्यवस्था इत्यादि नहीं है। बहुत से लोग यही सोचते हैं कि मैं कोई सूक्ष्म संदेश भेजता हूं, फिर तुम आते हो। नहीं, संदेशा तो भेजा जा रहा है, लेकिन किसी नाम—पते पर नहीं। वह किसी के नाम से नहीं भेजा जाता—ऐसा हो भी नहीं सकता। लेकिन इस संसार में जो भी कहीं तैयार है, उस तक संदेशा पहुंच ही जाएगा और वह कभी न कभी आ ही जाएगा। वह इस दिशा में बढ़ने ही लगेगा। वह शायद जानता भी न हो कि वह कहां जा रहा है। हो सकता है वह भारत घूमने के लिए आ रहा हो, मेरे पास आ भी नहीं रहा हो। तब हो सकता है कि बंबई के एअर पोर्ट से उसकी दिशा बदल जाए, वह पूना की ओर बढ़ने लगे, वह पूना आ जाए। या फिर यह भी हो सकता है वह पूना में मुझसे मिलने न आ रहा हो, यहां अपने किसी मित्र से मिलने आ रहा हो। घटनाएं रहस्यपूर्ण ढंग से घटती हैं, गणित की तरह हिसाब—किताब से नहीं।
लेकिन इन सब बातों की चिंता तुम मत करना। यह एक व्यवस्था से संचालित हो रही हैं या कि अपने से हो रही हैं, इससे तुम्हें कोई सरोकार नहीं होना चाहिए। तुम यहां पर हो, तो इस स्वर्ण अवसर को मत चूक जाना। और मैं तुम्हें मंजिल ही दे देने को तैयार हूं। इसलिए मार्गों की, विधियों की बात ही मत पूछो। और मैं तुम्हारे सामने सत्य को उदघटित कर देने के लिए तैयार हूं इसलिए तर्क की बात ही मत उठाना।
अंतिम प्रश्न :
प्यारे भगवान मैं आपका ध्यान इस ओर दिलाना चाहता हूं कि आपके आश्रम की व्यवस्था इस समय तीन धूर्तों के हाथ में है जो सुंदर और सरल स्त्रियों के भेष में हैं हो सकता है यह प्रश्न आपको अच्छा न लगे इसलिए मैं उपनाम का उपयोग कर रहा हूं— नीमो।
मुझे कोई बात नाराज नहीं करती, मेरी प्रसन्नता— अप्रसन्नता का इनसे कोई लेना —देना नहीं है। और इसे खयाल में ले लेना कि परमात्मा तक्र को भी संसार का काम—काज चलाने के लिए शैतान की मदद लेनी पड़ती है। शैतान के बिना तो वह भी संसार का काम —काज चला नहीं पाता है। इसलिए मुझे शैतानों को चुनना ही पड़ा। और फिर मैंने सोचा, इसे कुछ सुंदर ढंग से ही क्यों न किया जाए? —उन्हें स्त्रियां ही होने दो। फिर सुरुचि और सौंदर्य से ही बात क्यों न घटे? शैतानों को तो आना ही है। तो मैंने स्त्रियों को चुना—अभी तो और भी चाहिए।
और फिर नाम को छिपाने की या उपनाम की भी कोई जरूरत नहीं है, जरा भी जरूरत नहीं है। तुम बिलकुल बता सकते हो कि तुम कौन हो, नाम छिपाने की कोई जरूरत नहीं है।
मैं तुमसे एक कथा कहना चाहूंगा:
एक पादरी और एक रब्बी अपने — अपने धर्म संस्थानों की अर्थ —व्यवस्था को लेकर बातचीत कर रहे थे।
पादरी ने कहा, ’हम लिफाफे से एकत्रित हुई धनराशि से बहुत अच्छी तरह से काम चला लेते हैं।
रब्बी ने पूछा, ’लिफाफे से एकत्रित धनराशि —वह क्या होती है?’
‘हम प्रत्येक घर में छोटे —छोटे लिफाफे दे देते हैं, और परिवार का हर सदस्य प्रतिदिन कुछ पैसे उसमें डाल देता है। फिर परिवार के वे लोग धन इकट्ठे करने वाले पात्र में वही लिफाफा रख देते हैं। लिफाफों पर किसी भी तरह का कोई चिह्न नहीं बनाते, नंबर इत्यादि नहीं लिखते, इसलिए व्यक्ति का नाम अज्ञात ही रहता है।’
रब्बी ने खुश होकर कहा, ’बड़ी अच्छी योजना है। मैं भी इसे आजमाने की कोशिश करूंगा।’ एक सप्ताह बाद पादरी की रब्बी से फिर भेंट हुई तो उससे उसने यूं ही पूछ लिया कि वह लिफाफा योजना कैसी चल रही है।
रब्बी ने बताया, ’अच्छी बहुत अच्छी चल रही है। मैंने छह सौ पाउंड के चेक बिना नाम के इकट्ठे किए हैं।’
पादरी ने हैरानी से भर कर पूछा, ’बिना नाम के चेक?’
‘हां —उन पर हस्ताक्षर नहीं हैं।’
यहूदी यहूदी ही रहते हैं। मेरे साथ यहूदी बनकर मत रहना तुम हस्ताक्षर कर सकते हो।
और फिर से खयाल में ले लो —और भी कई शैतान चाहिए। अगर तुम्हें कोई मिल जाए, खास करके सुंदर वेश में, जो कि स्त्री के रूप में छिपा हुआ हो —तो तुरंत उन्हें ले आना। मुझे और भी चाहिए।
पश्चिम के मन में परमात्मा और शैतान के बीच एक विभाजन बना हुआ है, पूरब के लोगों के मन के साथ ऐसा नहीं है। वहां विपरीत भी एक ही है। इसलिए अगर तुम पूरब के देवताओं का जीवन देखो, तो तुम चकित रह जाओगे, वे दोनों हैं—शैतान भी हैं और परमात्मा भी। वे कहीं अधिक पूर्ण हैं, अधिक पवित्र हैं। पश्चिम के देवता तो मुर्दा मालूम पड़ते हैं। क्योंकि जीवन की जीवंतता तो शैतान के पास चली गयी है। पश्चिम का परमात्मा एकदम सीधा—सज्जन मालूम पड़ता है। तुम उसे इंग्लिश जैंटलमेन की संज्ञा दे सकते हों—बुराई से बिलकुल अछूता। उसे मनोविश्लेषण की आवश्यकता है। और निस्संदेह शैतान कहीं अधिक जीवंत होता है। वह भी खतरनाक है।
सभी विभाजन खतरनाक हैं। उन्हें आपस में मिल जाने दो, एक हो जाने दो। मेरे आश्रम में शैतान और देवता के बीच भेद नहीं है। मैं सभी को समाहित कर लेता हूं। इसलिए जो कुछ भी तुम हो, जैसे भी तुम हो, उसी रूप में मैं तुम्हें समाहित कर लेने के लिए तैयार हूं। और मैं सभी तरह की ऊर्जाओं का उपयोग कर लेता हूं। और अगर बुराई का उपयोग अच्छाई के लिए किया जाए, तो वह अदभुत रूप से सृजनात्मक हो जाती है। मेरे इस आश्रम में कुछ भी अस्वीकृत नहीं है, इसलिए तुम सारी पृथ्वी पर कहीं भी ऐसा आश्रम न पाओगे। और यह तो एक शुरूआत है। जब और शैतान आ जाएंगे, तब तुम देखना।
आज इतना ही।
(चौथा भाग—समाप्त)
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