बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

कृष्‍ण--स्‍मृति--(प्रवचन--07)

जीवन में महोत्सव के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—सातवां)


दिनांक 28 सितंबर, 1970;
सांय, मनाली (कुलू)

"आपने कहा कि आप विवाह को अनैतिक कहते हैं। और सर्वाधिक विवाह कृष्ण करते हैं। क्या वे विवाह रूपी अनैतिकता को प्रोत्साहित करते हैं?'

विवाह को अनैतिक कहा मैंने, विवाह करने को नहीं। जो लोग प्रेम करेंगे, वे भी साथ रहना चाहेंगे। इसलिए प्रेम से जो विवाह निकलेगा, वह अनैतिक नहीं रह जाएगा। लेकिन हम उल्टा काम कर रहे हैं। हम विवाह से प्रेम निकालने की कोशिश कर रहे हैं, जो कि नहीं हो सकता। विवाह तो एक बंधन है और प्रेम एक मुक्ति है। लेकिन जिनके जीवन में प्रेम आया है, वे भी साथ जीना चाहें, स्वाभाविक है।
लेकिन साथ जीना उनके प्रेम की छाया ही हो। जिस दिन विवाह की संस्था नहीं होगी, उस दिन स्त्री और पुरुष साथ नहीं रहेंगे, ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं। सच तो मैं ऐसा कह रहा हूं कि उस दिन ही वे ठीक से साथ रह सकेंगे। अभी साथ दिखाई पड़ते हैं, साथ रहते नहीं। साथ होना ही संग होना नहीं है। पास-पास होना ही निकट होना नहीं है। जुड़े होना ही एक होना नहीं है।
विवाह की संस्था को मैं अनैतिक कह रहा हूं। और विवाह की संस्था चाहेगी कि प्रेम दुनिया में न बचे। कोई भी संस्था सहज उदभावनाओं के विपरीत होती है। क्योंकि तब संस्थाएं नहीं टिक सकतीं। दो व्यक्ति जब प्रेम करते हैं, तब वह प्रेम अनूठा ही होता है। वैसा प्रेम किन्हीं दो व्यक्तियों ने कहीं किया होता है। लेकिन दो व्यक्ति जब विवाह करते हैं तब वह अनूठा नहीं होता। तब वैसा विवाह करोड़ों लोगों ने किया है। विवाह एक पुनरुक्ति है, प्रेम एक मौलिक घटना है। जितना विवाह प्रभावी होगा, उतना ही प्रेम का गला घुटता चला जाएगा। लेकिन, जिस दिन हम प्रेम को प्राथमिकता दे सकेंगे जीवन में और दो व्यक्तियों का साथ रहना एक समझौता नहीं होगा, उनके प्रेम का सहज फल होगा, उस दिन विवाह नहीं होगा इस अर्थ में जिस तरह आज है। न इस तरह तलाक होगा, जैसा आज है। दो व्यक्ति साथ रहना चाहें, यह उनका आनंद है। इसमें समाज को कोई बाधा नहीं है।
मैंने विवाह संस्था की तरह अनैतिक है, ऐसा कहा। विवाह प्रेम की छाया की तरह बिलकुल स्वाभाविक है। उसमें कोई अनैतिकता नहीं है।

"भगवान श्री, विवाह के संबंध में आपने अभी-अभी जो चर्चा की, उसे ध्यान में रख यह भी दर्शाने की कृपा करें कि जिस दिन हम प्रेम का आधार बनाएंगे, उस दिन बच्चों का क्या होगा? वे किसके कहलाएंगे? और, क्या ये "सोशल प्रॉब्लम' नहीं बन जाएंगे?'

हुत-सी कठिनाइयां दिखाई पड़ेंगी। लेकिन वे कठिनाइयां इसलिए दिखाई पड़ती हैं कि हम पुरानी धारणाओं को आधार बनाकर ही सोचते हैं। जैसे, सच तो यह है कि जिस दिन हम प्रेम को परम मूल्य दे सकें, उस दिन बच्चे व्यक्तियों के हैं, ऐसा मानने की बात ही बेमानी है। बच्चे हैं भी नहीं व्यक्तियों के। सदा थे भी नहीं। एक युग था जब पिता का तो कोई पता नहीं चलता था, मां का ही पता होता था। मातृसत्ता का युग था। इसलिए जानकर आपको हैरानी होगी कि पिता शब्द बहुत पुराना नहीं है। काका, "अंकल' शब्द ज्यादा पुराना है। मां बहुत पुराना शब्द है और पिता बहुत नया शब्द है। पिता तो आया तब, जब हमने विवाह की व्यक्तिगत व्यवस्था सुनिश्चित कर दी, अन्यथा पिता का तो कोई पता न चलता था। कबीले के सभी लोग पितातुल्य थे। मां का पता चलता था। पूरा कबीला बच्चों के प्रति प्रेमपूर्ण भाव रखता था। और बच्चे चूंकि किसी के भी नहीं थे, इसलिए सभी के थे। किसी के हैं, इससे फायदा पहुंचा है, ऐसा नहीं है। बच्चे सभी के होंगे, फायदा और बड़ा पहुंच सकता है।
जिस दिन हम प्रेम को आधार बनाएंगे, उस दिन बच्चों का क्या होगा? सवाल उठता है, क्या वह "सोशल प्रॉब्लम' बन जाएंगे? नहीं, अभी बच्चे सामाजिक समस्या हैं, क्योंकि अभी हमने बच्चों को व्यक्तियों के ऊपर छोड़ दिया है। और फिर भविष्य में जो नित-नवीन बहुत कुछ संभव होता जा रहा है, उसे देखते हुए समझ लेना चाहिए कि हमने जो पीछे आधार बनाए थे वे कोई टिकने वाले नहीं हैं।
जैसे, पुरानी दुनिया में बच्चों के पैदा होने के लिए कम-से-कम बाप का जिंदा होना तो जरूरी था। भविष्य में नहीं रहेगा। आज भी नहीं है। अगर मैं मर जाऊं तो भी मेरे वीर्यकण संरक्षित रखे जा सकते हैं हजार साल तक, दस हजार साल तक। मैं तो नहीं रहूंगा, मेरा बच्चा दस हजार साल बाद पैदा हो सकता है। मां अब तक अनिवार्य रही है, लेकिन भविष्य में अनिवार्य नहीं रह जाएगी। जिस दिन भी हम व्यवस्था, खोज ही लिए हैं करीब-करीब, उस दिन हम मां को नौ महीने पेट में बच्चे को ढोने का व्यर्थ बोझ नहीं देंगे। उस दिन बच्चे को हम, जो मां के पेट में सुविधा उपलब्ध हो सकती है वह यंत्र में भी सुविधा उपलब्ध हो सकती है और ज्यादा व्यवस्थित उपलब्ध है। उस दिन तो कौन मां है, कौन पिता है, कहना मुश्किल हो जाएगा। हमें पूरा ढांचा बदलना पड़ेगा। पूरी समाज की स्त्रियां मां हैं और पूरे समाज के पुरुष पिता हैं। और उन बच्चों को सबका होकर बड़ा होना पड़ेगा। निश्चित ही सब बदलेगा।
जो मैं कह रहा हूं, वह वैज्ञानिक ढंग से भी जो काम दुनिया में चल रहा है, उसकी वजह से भी जरूरी हो जाएगा। अभी हमें खयाल में नहीं आता, क्योंकि हम पुराने ढंग से सोचते चले जाते हैं। आपके घर बच्चा पैदा होता है, तो आप डाक्टर की दवाई लाते हैं, सबसे अच्छे डाक्टर की। आप यह नहीं सोचते कि मैं इसका पिता हूं तो मैं खुद ही दवाइयां बनाकर इसको पिला दूं। आप कपड़ा बनवाते हैं, सबसे अच्छे दर्जी से, यह नहीं सोचते कि मैं इसका पिता हूं तो मैं ही कपड़ा बनाकर पहनाऊं। अगर समझ थोड़ी और गहरी बढ़ेगी तो आप यह भी न चाहेंगे कि आपका बच्चा आपके वीर्यकण से ही पैदा हो, अगर इससे अच्छा वीर्यकण समाज में उपलब्ध हो सकता है। अच्छा है कि आपका बच्चा लंगड़ा-लूला पैदा न हो, अच्छा है कम बुद्धि का पैदा न हो। अच्छा है कि श्रेष्ठतम बीज उसे उपलब्ध हो सके। मां भी न चाहेगी कि मां होने के लिए वह नौ महीने बच्चे को पेट में घसीटे, जब कि उससे बेहतर सुविधाएं उपलब्ध हो गई हैं, बच्चा ज्यादा स्वस्थ पैदा हो सकता हो, ज्यादा बुद्धिमान पैदा हो सकता हो। तो मां और पिता का अब तक जो "फंक्शन' रहा है, वह भविष्य में रहने वाला नहीं है। और जिस दिन मां और पिता का "फंक्शन' विदा हो जाएगा, उस दिन आपके विवाह का क्या वजूद रह जाता है, विवाह का क्या आधार रह जाता है। उसका कोई मतलब नहीं रह जाता। उस दिन प्रेम ही आधार रह जाता है। टेक्नॉलॉजी भी मनुष्य को उस जगह ला रही है, मनुष्य के मन की समझ भी उस जगह ला रही है, जहां व्यक्तिगत दावेदारी समाप्त हो जाती है।
इसका यह मतलब नहीं है कि सारी समस्याएं समाप्त हो जाती हैं। हर नए प्रयोग के साथ नई समस्याएं होती हैं। बड़ा सवाल यह नहीं है कि समस्याएं रोज बेहतर होती जाएं। कल की समस्याओं से आज की समस्याएं बेहतर हों। ऐसा नहीं है कि हम विवाह को हटा देंगे तो मनुष्य और मनुष्य के बीच के सारे संघर्ष विदा हो जाएंगे। नहीं लेकिन वे संघर्ष विदा हो जाएंगे जो विवाह के कारण ही पैदा होते हैं और वे काफी बड़ी मात्रा में हैं। कुछ नई बातें पैदा होंगी, कुछ नई समस्याएं पैदा होंगी। पृथ्वी पर रहने के लिए समस्याएं जरूरी हैं। उनको हम हल करेंगे, उन्हीं में हमारा विकास है। उनसे हम लड़ेंगे और आगे बढ़ेंगे
एक बात जरूर ध्यान में ले लेने जैसी है, और कठिनाई उसी से आती है। कठिनाई इससे आती है कि जिस ढांचे में हम रहने के आदी हो गए हैं, उस ढांचे की समस्याओं को भी हम सहने के आदी हो गए हैं। अगर उससे बेहतर व्यवस्था भी मिल सकती हो, तो उस बेहतर व्यवस्था के साथ नई समस्याएं मिलेंगी जिनके हम आदी नहीं हैं। और उससे कठिनाई होती है। लेकिन बुद्धि का काम यही है कि वह उन समस्याओं को समझे,  हल करे,  और सोचे कि पुरानी समस्याओं से अगर बेहतर समस्याएं मिलती हों, तो हम परिवर्तन करें। ऐसा मेरा मानना यह है कि मनुष्य के जीवन में जब तक प्रेम का फूल पूरी तरह न खिले, तब तक उसके व्यक्तित्व में रौनक, तब तक उसके व्यक्तित्व में जिसको हम कहें नमक, वह नहीं उत्पन्न होता। उसका जीवन फीका-फीका हो जाता है। और मैं मानता हूं कि फीके व्यक्तित्व के बजाय समस्याओं से भरे हुए तेज और चमकदार व्यक्तित्व का मूल्य है। एक छोटी-सी कहानी, फिर हम दूसरा सवाल लें--
मैंने सुना है कि एक बगीचे में एक छोटा-सा फूल--घास का फूल--दीवाल की ओट में ईंटों में दबा हुआ जीता था। तूफान आते थे, उस पर चोट नहीं हो पाती थी। ईंटों की आड़ थी। सूरज निकलता था, उस फूल को नहीं सता पाता था, उस पर ईंटों की आड़ थी। बरसा होती थी, बरसा उसे गिरा नहीं पाती थी, क्योंकि वह जमीन पर पहले ही से लगा हुआ था। पास में ही उसके गुलाब के फूल थे।
एक रात उस घास के फूल ने परमात्मा से प्रार्थना की कि मैं कब तक घास का फूल बना रहूंगा। अगर तेरी जरा भी मुझ पर कृपा है तो मुझे गुलाब का फूल बना दे। परमात्मा ने उसे बहुत समझाया कि तू इस झंझट में मत पड़, गुलाब के फूल की बड़ी तकलीफें हैं। जब तूफान आते हैं, तब गुलाब की जड़ें भी उखड़ी-उखड़ी हो जाती हैं। और जब गुलाब में फूल खिलता है, तो खिल भी नहीं पाता है कि कोई तोड़ लेता है। और जब बरसा आती है तो गुलाब की पंखुड़ियां बिखर कर जमीन पर गिर जाती है। तू इस झंझट में मत पड़, तू बड़ा सुरक्षित है। उस घास के फूल ने कहा कि बहुत दिन सुरक्षा में रह लिया, अब मुझे कुछ झंझट लेने का मन होता है। आप तो मुझे बस गुलाब का फूल बना दें। सिर्फ एक दिन के लिए सही, चौबीस घंटे के लिए सही। पास-पड़ोस के घास के फूलों ने समझाया, इस पागलपन में मत पड़, हमने सुनी हैं कहानियां कि पहले भी हमारे कुछ पूर्वज इस पागलपन में पड़ चुके हैं, फिर बड़ी मुसीबत आती है। हमारा जातिगत अनुभव यह कहता है कि हम जहां हैं, बड़े मजे में हैं। पर उसने कहा कि मैं कभी सूरज से बात नहीं कर पाता, मैं कभी तूफानों से लड़ नहीं पाता, मैं कभी बरसा को झेल नहीं पाता। उन पास के फूलों ने कहा, पागल, जरूरत क्या है? हम ईंट की आड़ में आराम से जीते हैं। न धूप हमें सताती, न बरसा हमें सताती, न तूफान हमें छू सकता।
लेकिन वह नहीं माना और परमात्मा ने उसे वरदान दे दिया और वह सुबह गुलाब का फूल हो गया। और सुबह से ही मुसीबतें शुरू हो गईं। जोर की आंधियां चलीं, प्राण का रोआं-रोआं उसका कांप गया, जड़ें उखड़ने लगीं। नीचे दबे हुए उसके जाति के फूल कहने लगे, देखा पागल को, अब मुसीबत में पड़ा। दोपहर होते-होते सूरज तेज हुआ। फूल तो खिले थे, लेकिन कुम्हलाने लगे। बरसा आई, पंखुड़ियां नीचे गिरने लगीं। फिर तो इतने जोर की बरसा आई कि सांझ होते-होते जड़ें उखड़ गईं और वह वृक्ष फूलों का पौधा जमीन पर गिर पड़ा। जब वह जमीन पर गिर पड़ा तब वह अपने फूलों के करीब आ गया। उन फूलों ने उससे कहा, पागल, हमने पहले ही कहा था। व्यर्थ अपनी जिंदगी गंवाई। मुश्किलें ले लीं नई अपने हाथ से। हमारी पुरानी सुविधा थी, माना कि पुरानी मुश्किलें थीं, लेकिन सब आदी था, परिचित था, साथ-साथ जीते थे, सब ठीक थे। उस मरते हुए गुलाब के फूल ने कहा, नासमझो, मैं तुमसे भी यही कहूंगा कि जिंदगी भर ईंट की आड़ में छिपे हुए एक घास का फूल होने से चौबीस घंटे के लिए गुलाब का फूल हो जाना बहुत आनंदपूर्ण है। मैंने अपनी आत्मा पा ली, मैं तूफानों से लड़ लिया, मैंने सूरज से मुलाकात ले ली, मैं हवाओं से जूझ लिया, मैं ऐसे ही नहीं मर रहा हूं, मैं जीकर मर रहा हूं। तुम मरे हुए जी रहे हो।
निश्चित ही जिंदगी को अगर हमें जिंदा बनाना है, तो बहुत-सी जिंदा समस्याएं खड़ी हो जाएंगी। लेकिन होनी चाहिए। अगर हमें जिंदगी को मुर्दा बनाना है, तो हो सकता है हम सारी समस्याओं को खत्म कर दें, लेकिन तब आदमी मरा-मरा जीता है।
तो मैं मानता हूं कि नई समस्याएं तो होंगी ही, होनी ही चाहिए, और मनुष्य को इतना भरोसा और आत्मविश्वास होना चाहिए कि वह नई समस्याओं से जूझ सकेगा। कोई कारण नहीं है। अभी हमने जो व्यवस्था बनाई है, वह सारी-की-सारी व्यवस्था भय पर खड़ी है। सब तरह के भय, सब तरह के "फियर'। उसका उद्गम ही "फियर ओरियेंटेशन' है। वह उसी में से जन्मती है कि ऐसा हो जाएगा, ऐसा हो जाएगा, ऐसा हो जाएगा, इसका क्या होगा, उसका क्या होगा। यह सब भय सोचकर हम घर में रुके रह जाते हैं। और हम कभी यह नहीं सोचते कि हमको हो क्या रहा है? क्या होगा, इस डर से नया कदम नहीं उठाते और जो हो रहा है उसको देखते नहीं, क्योंकि उसे देखेंगे तो नया कदम उठाना पड़ेगा। और फिर पता नहीं क्या हो जाए। इसलिए जैसा है उसे हम बोझ की तरह ढोए चले जाते हैं।
मैंने शायद ही, इधर मुझे लाखों लोगों से मिलने का मौका आया है, बहुत निकट से उनकी आंखों में, उनके हृदय में झांकने का मौका आया, मैंने ऐसा पुरुष नहीं देखा जो विवाह से तृप्त हो। मैंने ऐसी स्त्री नहीं देखी जो विवाह में आनंदित हो। लेकिन अगर उनसे भी कहा जाए तो वे कहेंगे कि ये-ये समस्याएं उठ जाएंगी। लेकिन बड़ा मजा यह है कि तुम यहां समस्या के बिना जी रहे हो, वहां की समस्याओं का तुम्हें पता है, खयाल है; सिर्फ चौबीस घंटे उनमें गुजरते हो, इसलिए पता नहीं चलता। आदी हो गए हो। वह तो हम पिंजड़े के पंछी को भी अगर कहें कि खुले आकाश में उड़, तो वह कहेगा, बहुत दिक्कतें आएंगी, यहां सब सुरक्षा है। दिक्कतें आएंगी भी। और पिंजड़े के पंछी को और भी आ जाएंगी क्योंकि उसे खुले आकाश में उड़ने का अनुभव भी नहीं रहा है। लेकिन, माना कि पिंजड़े में बड़ी सुरक्षा है, लेकिन कहां खुले आकाश का आनंद, कहां पिंजड़े की सुरक्षा। तो कब्र में भी बहुत सुरक्षा है।

"स्वामी सहजानंद का आरोप है कि कृष्ण की रसिक-पद्धति से लोग तरे हैं कम, मरे हैं ज्यादा। उसके दो कारण हैं। एक तो कृष्ण की गोपी बनकर ही भक्ति करने की पद्धति, जैसे गुजरात में "महाराज लायबल केस' बना। और दूसरा जीवन को उत्सव मानने में मनुष्य की भोगवृत्ति को मिलता हुआ प्रोत्साहन।
दूसरा सवाल कि रामभक्त हनुमान में जो ब्रह्मचर्य, शौर्य, प्रेरणा और वैराग्य-विवेक के गुण मिलते हैं और उनमें जितनी प्रवृत्तिवादी "एक्टिविटी' है, उतनी कृष्णभक्त मीरा, नरसी और सूरदास में नहीं है। मतलब यह कि कृष्ण-पूजक अंतर्मुखी प्रवृत्ति के ज्यादा हैं और सामाजिक कार्य की दिशा में उनका योगदान नहीं-जैसा है। आपके विचार?
तीसरा सवाल कि कृष्ण, राम, महावीर तथा बुद्ध किसी को चित्रकारों ने और पुराणकारों ने दाढ़ी-मूंछ नहीं बतलाई, सिर्फ क्राइस्ट को है। इसका क्या मतलब है?'

हली बात, जीवन एक काम है या उत्सव? अगर जीवन एक काम है, तो बोझ हो जाएगा। अगर जीवन एक काम है, तो कर्तव्य हो जाएगा। अगर जीवन एक काम है, तो हम उसे ढोएंगे और किसी तरह निपटा देंगे। कृष्ण जीवन को काम की तरह नहीं, उत्सव की तरह, एक "फेस्टिविटी' की तरह लेते हैं। महोत्सव है एक। जीवन एक आनंद का उत्सव है, काम नहीं है। ऐसा नहीं है कि उत्सव की तरह लेते हैं तो काम नहीं करते हैं। काम तो करते हैं। लेकिन काम उत्सव के रंग में रंग जाता है। काम नृत्य-संगीत में डूब जाता है। निश्चित ही, बहुत काम न हो पाएगा इस भांति, थोड़ा ही हो पाएगा। "क्वांटिटी' ज्यादा नहीं होगी, लेकिन "क्वालिटी' का कोई हिसाब नहीं है! परिणाम तो कम होगा, मात्रा कम होगी, लेकिन गुण बहुत गहरा हो जाएगा।
कभी आपने सोचा कि काम वाले लोगों ने, जो हर चीज को काम में बदल देते हैं, जिंदगी को कैसा तनाव से भर दिया है। जिंदगी की सारी "एंग्जाइटी', सारी चिंता, यह अति कामवादी लोगों की उपज है। वे कहते हैं, करो, एकदम करते रहो, करो या मरो। उनका नारा यह है--"डू ऑर डाय'। जिंदा हो तो  करो कुछ, अन्यथा मरो। कोई एक काम करो। और उनके पास कोई और दृष्टि नहीं है, लेकिन किसलिए करो? आदमी करता किसलिए है? आदमी करता इसलिए है कि थोड़ी देर जी सके। और जीने का क्या मतलब होगा फिर? फिर जीने का मतलब उत्सव होगा। हम काम भी इसलिए कर सकते हैं कि किसी क्षण में हम नाच सकें। लेकिन काम इतने जोर से पकड़ लेता है कि फिर नाचने का तो मौका ही नहीं आता, गीत गाने का मौका ही नहीं आता; बांसुरी बजाने के लिए फुर्सत कहां रह जाती है, दफ्तर से घर हैं, घर से दफ्तर हैं; घर दफ्तर आ जाता है दिमाग में बैठकर, दिमाग में बैठकर दफ्तर घर पहुंच जाता है, सब गड्डमड्ड हो जाता है, सब उलझ जाता है; फिर जिंदगी भर दौड़ते रहते हैं इस आशा में कि किसी दिन वह क्षण आएगा, जिस दिन विश्राम करेंगे और आनंद ले लेंगे। वह क्षण कभी नहीं आता। वह आएगा ही नहीं। कामवृत्ति वाले आदमी को वह क्षण कभी नहीं आता है।
कृष्ण जीवन को देखते हैं उत्सव की तरह, महोत्सव की तरह, एक खेल की तरह, एक क्रीड़ा की तरह। जैसा कि फूल देखते हैं, जैसा कि पक्षी देखते हैं, जैसा कि आकाश के बादल देखते हैं, जैसा कि मनुष्य को छोड़कर सारा जगत देखता है। उत्सव की तरह। कोई पूछे इन फूलों से कि खिलते किसलिए हो, काम क्या है? बेकाम खिले हुए हो? तारों से कोई पूछे कि चमकते किसलिए हो? काम क्या है? पूछे कोई हवाओं से, बहती क्यों हो? काम क्या है?
मनुष्य को छोड़कर जगत में काम कहीं भी नहीं है। मनुष्य को छोड़कर जगत में महोत्सव है। उत्सव चल रहा है प्रतिपल। कृष्ण इस जगत के उत्सव को मनुष्य के जीवन में भी ले आते हैं। वे कहते हैं, मनुष्य का जीवन भी इस उत्सव के साथ एक हो जाए। ऐसा नहीं है कि उत्सव में काम नहीं होगा। ऐसा नहीं है कि हवाएं नहीं दौड़ रही हैं। दौड़ रही हैं। ऐसा नहीं है कि चांदत्तारे नहीं चल रहे हैं। ऐसा नहीं है कि फूलों को खिलने के लिए कुछ नहीं करना पड़ता है, बहुत कुछ करना पड़ता है। लेकिन करना गौण हो जाता है, होना महत्वपूर्ण हो जाता है। "डूइंग' पीछे हो जाती है, "बीइंग' पहले हो जाता है। उत्सव पहले हो जाता है, काम पीछे हो जाता है। काम सिर्फ उत्सव की तैयारी होती है। दुनिया की सारी आदिम जातियों के पास अगर हम जाएं तो वह दिन भर काम करते हैं, ताकि रात नाच सकें; रात ढोल बजे और गीत हो। लेकिन सभ्य आदमी के पास जाएं तो वह दिन भर काम करता है, रात भर काम करता है। और उससे कोई पूछे कि वह काम किसलिए कर रहा है? तो वह कहता है, कल विश्राम कर सकें। विश्राम को "पोस्टपोन' करता है, काम को करता चला जाता है, फिर वह कल कभी नहीं आता। तो मैं कृष्ण के इस महोत्सववादी रुख से राजी हूं। फिर मेरा देखना यह है कि इतना काम करके भी आदमी ने कर क्या लिया? अगर काम करना अपने में ही लक्ष्य है, तब तो बात दूसरी है। लेकिन इतना काम करके हमने कर क्या लिया है?
सिसीफस की कहानी है कि देवताओं ने उसे श्राप दिया है कि वह एक पत्थर की चट्टान को पहाड़ पर चढ़ाकर ले जाए और जब वह "पीक' पर, चोटी पर पहुंचेगा तो पत्थर फिर खिसक कर नीचे चला जाएगा। सिसीफस फिर नीचे जाए, फिर पहाड़ तक खींचे तो वह फिर नीचे चला जाएगा। सिसीफस फिर नीचे जाएगा। वह सिसीफस नीचे से ऊपर तक खींचता है, बड़े काम में लगा रहता है, पहाड़ पर पहुंचता है, फिर पत्थर नीचे खिसक जाता है, फिर वह नीचे आता है, फिर वह पत्थर को ऊपर चढ़ाने लगाता है। काम वाले आदमी की जिंदगी सिसीफस की जिंदगी हो जाती है। चढ़ाता रहता है पत्थरों को, पत्थर गिरते रहते हैं, वह चढ़ाता रहता है। कभी चढ़ाने में लगा रहता है, कभी नीचे गए पत्थर को दौड़कर पकड़ने में लगा रहता है। लेकिन पूरी जिंदगी में वह क्षण नहीं आता जब विराम हो, विश्राम हो, उत्सव हो। वह हो नहीं सकता।
इन काम करने वाले लोगों ने सारी दुनिया को "मैड हाउस' बना दिया है, बिलकुल पागलखाना कर दिया है। और एक-एक आदमी पागल हो गया है। सब दौड़े जा रहे हैं कि कहीं पहुंचना है, यह मत पूछो...मैंने सुना है एक आदमी के बाबत कि वह तेजी से टैक्सी में सवार हुआ और उसने कहा, जल्दी चलो। टैक्सी वाले ने जल्दी टैक्सी चला दी। थोड़ी देर बाद उसने पूछा, लेकिन चलना कहां है? उसने कहा, यह सवाल नहीं है, सवाल जल्दी चलने का है।
हम सब जिंदगी में ऐसे ही सवार हैं। जल्दी चलो। कहां जा रहे हैं आप? सब चिल्ला रहे हैं, "हरी अप'। लेकिन कहां? जोर से करो जो भी कर रहे हो। लेकिन क्यों? क्या होगा इसका फल? क्या पाने की इच्छा है? उसका कुछ पता नहीं। लेकिन इतना समय भी नहीं कि इसको सोचें। इतने में देरी हो जाएगी, पड़ोसी आगे निकल जाएगा। हम सब भागे जा रहे हैं। काम करने वाले लोगों ने, ये अति कामवादी, जिनको दिखाई पड़ता है कि काम ही सब कुछ है, उन्होंने भारी नुकसान पहुंचाए हैं। एक नुकसान तो इन्होंने पहुंचाया है कि जिंदगी से उत्सव के क्षण छीन लिए हैं। दुनिया में उत्सव कम होते जा रहे हैं। रोज कम होते जा रहे हैं। उत्सव की जगह मनोरंजन आता जा रहा है, जो कि बहुत भिन्न बात है। उत्सव की जगह मनोरंजन आ रहा है, जो बिलकुल भिन्न बात है। उत्सव में स्वयं सम्मिलित होना पड़ता है, मनोरंजन में दूसरे को सिर्फ देखना पड़ता है। मनोरंजन "पैसिव' है, उत्सव बहुत "एक्टिव' है। उत्सव का मतलब है, हम नाच रहे हैं। मनोरंजन का मतलब है, कोई नाच रहा है, हमने चार आने दिए और देख रहे हैं। लेकिन कहां नाचने का आनंद और कहां नाच देखने का आनंद। इतना काम हमने कर लिया है कि शाम थक जाते हैं, तो किसी को नाचते हुए देखना चाहते हैं।
कहीं, कामू ने कहीं एक बात लिखी है कि जल्दी वह वक्त आ जाएगा कि आदमी प्रेम भी अपने नौकरों से करवा लिया करेंगे। उसके लिए फुर्सत भी तो चाहिए। काम से फुर्सत कहां है? एक नौकर रख लेंगे घर में कि तू प्रेम का काम कर दिया कर, क्योंकि मुझे तो फुर्सत नहीं होती। इतना काम में लगा हुआ हूं कि यह प्रेम का गोरखधंधा...प्रेम तो उत्सव है। प्रेम से कुछ फल तो निकलता नहीं आगे। अपने में ही जो है, है। तो इसको कौन करेगा? काम वाले लोग नहीं करेंगे। इसके लिए तो सेक्रेटरी रखा जा सकता है, जो इसको निपटा लेगा। काम की अति दौड़ ने उत्सव के क्षण गंवा दिए हैं और उत्सव से जो पुलक आती थी जीवन में, जो थिरक आती थी, वह खो गई है। इसलिए कोई आदमी प्रसन्न नहीं है, प्रमुदित नहीं है, खिला हुआ नहीं है।
इसका "सब्स्टीच्यूट' हमें खोजना पड़ा मनोरंजन। क्योंकि कोई तो क्षण चाहिए जब हम कुछ न करें, विश्राम में हों। लेकिन हम जो मनोरंजन खोजे हैं, वह उधार उत्सव है। दूसरा कर रहा है और हम देख रहे हैं। वह ऐसे है जैसे दूसरा प्रेम कर रहा है, हम देख रहे हैं। फिल्म में आप क्या करते हैं? कोई प्रेम कर रहा है, आप देख रहे हैं। कृपा करें, आप भी प्रेम करें, यह "सब्स्टीच्यूट' काम न करेगा। यह बिलकुल झूठा है, कागजी है, इससे कोई हल होने वाला नहीं है। इससे आप खयाल में होंगे कि काम हो गया, लेकिन आपकी वह जो प्रेम की आकांक्षा थी, वह नहीं तृप्त होगी। वह और भूखी हो जाएगी, और प्यासी हो जाएगी।
कृष्ण उत्सववादी हैं, वह जीवन को एक महालीला, एक महा उत्सव की तरह लेते हैं। इन काम करने वालों ने जगत को कोई फायदा पहुंचाया हो, ऐसा तो नहीं दिखाई पड़ता, जगत को उलझाया बुरी तरह। जटिल बहुत कर दिया। और इतना जटिल हो गया वह कि आदमी उसमें जी सके ठीक से, यह भी कठिनाई मालूम होने लगी है।
यह भी ठीक है कि अगर हम राम के भक्त को देखें--हनुमान को देखें, तो वह बड़े कर्मठ, निष्ठावान, ब्रह्मचारी, शक्त्तिशाली, वह सब दिखाई पड़ते हैं। कृष्ण का भक्त वैसा नहीं दिखाई पड़ता। मीरा है--नाचती है, गाती है, लेकिन वह बात नहीं दिखाई पड़ती। वह दिखाई नहीं पड़ेगी। क्योंकि राम जिंदगी को काम की तरह देखते हैं। कृष्ण जिंदगी को उत्सव की तरह देखते हैं। उत्सव की तरह देखना बात ही और है। लेकिन, अगर आपको चुनाव करना पड़े कि हनुमान के साथ चौबीस घंटे रहना कि मीरा के साथ, सोचना पड़ेगा। थोड़ा सोचना पड़ेगा। तब आपको पता चलेगा कि हनुमान से अगर छुट्टी रहे तो ठीक। इनका करियेगा क्या? इनके साथ चौबीस घंटे गुजारना एक कमरे में मुश्किल हो जाएगा। मीरा के साथ चौबीस जिंदगी भी गुजारी जा सकती है। यह भी सच है कि कृष्ण भक्त, कृष्ण को प्रेम करने वाला, वह जो "आउटर एक्टिविटी' है, वह जो "एक्स्ट्रोवर्शन' है, वह जो बहिर्मुखता है, उससे धीरे-धीरे हटता जाता है। वह किसी भीतरी गहरे रस में डूबता जाता है। डूबेगा। क्योंकि उसे दिखाई पड़ता है कि तुम बड़ा अदभुत खो रहे हो, ना-कुछ के लिए।
और जिस दिन दुनिया में मीराएं बढ़ जाएं उस दिन दुनिया में बड़ी शांति होगी, हनुमान बढ़ जाएं तो बड़ा उपद्रव होगा। गांव-गांव अखाड़े खुल जाएंगे और जगह-जगह उपद्रव होने लगेगा। तो एकाध हनुमान चल सकते हैं एकाध गांव में, ज्यादा नहीं चल सकते। मीरा, मीरा का तारतम्य, मीरा का संबंध जीवन के बहुत गहरे तलों से है। हनुमान बेचारे काम करने वाले एक सेवक हैं, एक "वालंटियर' हैं। "वालंटियर' को जैसा होना चाहिए, वैसे वे हैं। वे किसी के लिए जी रहे हैं--काम में लगे हैं, धुन के पक्के हैं, सेवक हैं, वह सब ठीक है। लेकिन, मीरा के आनंद की धुन "बीइंग' की धुन है, "डूइंग' की नहीं। वह कुछ करने का मजा नहीं है, होने के क्षण का मजा है। होना ही आनंदपूर्ण है। और अगर गीत वह गा रही है तो गीत गाना काम नहीं है, उसके होने के आनंद से निकली हुई अभिव्यक्ति है। वह इतने आनंद में है कि उससे गीत ही निकल सकता है।
तो मैं चाहूंगा कि जगत धीरे-धीरे संगीत से भरे, गीत से भरे, नृत्य से भरे, उत्सव से भरे। और जिसको हम बाहर का जगत कहते हैं, काम की जो दुनिया है, इस काम की दुनिया का इतना ही उपयोग है कि हम इसमें इतने दूर तक हों जितने दूर तक भीतर जाने के लिए जरूरी हो। इससे ज्यादा होने की जरूरत नहीं है। और रोटी कमानी पड़ेगी, लेकिन रोटी कमाना जिंदगी नहीं है। रोटी कमानी ही इसलिए पड़ती है कि कमा लिया और फिर जिएं। लेकिन कुछ लोग रोटी पर रोटी का ढेर लगाते चले जाते हैं। वे खाना भूल जाते हैं। जब तक रोटियां इकट्ठी हो पाती हैं तब तक भूख भी मर चुकी होती है, क्योंकि इतने दिन खाया नहीं। तब वे अचानक खड़े रह जाते हैं कि क्या करें?
सिकंदर हिंदुस्तान आता था तो वह डायोजनीज से मिला था। डायोजनीज ने उससे पूछा था कि तुम कहां जा रहे हो? यह क्या कर रहे हो? सिकंदर ने कहा कि पहले मुझे एशिया माइनर जीतना है। डायोजनीज ने कहा कि समझा। फिर क्या इरादा है? उसने कहा, हिंदुस्तान जीतना है। फिर? उसने कहा, सारी दुनिया जीतना है। डायोजनीज ने पूछा, फिर?...वह ऐसा रेत पर लेटा था, सुबह धूप निकली थी, नग्न रेत पर पड़ा था...उसने कहा, फिर? सिकंदर ने कहा कि फिर तो विश्राम का इरादा है। डायोजनीज खूब खिलखिलाकर हंसने लगा, और पीछे मांद में उसका कुत्ता, जो इसका साथी था उसे आवाज दी कि सुन, इधर आ। यह पागल सिकंदर को देख। हम अभी आराम कर रहे हैं, यह इतना उपद्रव करके आराम करेंगे। और सिकंदर से डायोजनीज ने कहा, अगर आखिर में आराम ही करना है, आओ, लेट जाओ, नदी के तट पर। जगह यहां काफी है। हम दोनों समा जाएंगे। और मैं आराम कर ही रहा हूं, सिकंदर। इतना करके आराम ही करने का इरादा है न? तो आराम तो अभी किया जा सकता है। सिकंदर ने कहा, बात तो तुम्हारी जंचती है, लेकिन अभी नहीं कर सकता हूं, पहले सब जीत लूं। तो डायोजनीज ने कहा, जीत से और विश्राम का क्या संबंध है? क्योंकि हम बिना जीते कर रहे हैं। सिकंदर ने कहा, बात तो जंचती है, लेकिन अब तो मैं निकल चुका यात्रा पर। आधा नहीं लौट सकता हूं। तो डायोजनीज ने कहा, आधे ही लौटोगे, किसकी यात्रा कब पूरी होती है। और यह हुआ, हिंदुस्तान से लौटकर सिकंदर वापस यूनान नहीं पहुंच पाया, बीच में ही मर गया।
सब सिकंदर मर जाते हैं। आधी यात्रा पर मर जाते हैं। रोटियां इकट्ठी हो जाती हैं, खाने का वक्त नहीं आता। साज-सामान इकट्ठा हो जाता है, बजाने का वक्त नहीं आता।  साज ठोंक-पीटकर ठीक कर लिया जाता है। लेकिन जब तक ठोंक-पीट पूरी होती है तब तक हाथ शून्य हो चुके होते हैं, फिर कुछ करने को नहीं बचता।
नहीं, जीवन को तो लेना पड़ेगा उत्सव से ही, वही जीवन की धुनें हैं। आपसे कोई पूछे--गहरे में आप ही अपने से पूछें--कि आप जो कर रहे हैं, वह जीने के लिए कर रहे हैं कि करने के लिए जी रहे हैं? तो आपको उत्तर साफ हो सकेगा। और तब आपको कृष्ण बहुत निकट मालूम पड़ेंगे। आप जीने के लिए कर रहे हैं सब कुछ, करने के लिए नहीं जी रहे हैं। और अगर जीने के लिए कर रहे हैं सब कुछ, तो फिर ठीक है, इतना ही करना काफी है जितने से जिया जा सके। ज्यादा क्यों करना? उसका कोई अर्थ नहीं है।
स्वभावतः, अगर यह वृत्ति फैल जाए तो बहुत से उपद्रव बंद हो जाएंगे। क्योंकि बहुत से उपद्रव हमारे अत्यधिक करने से पैदा हो रहे हैं। दुनिया ज्यादा शांत, ज्यादा आनंदमय, ज्यादा प्रफुल्लित, ज्यादा प्रमुदित होगी। निश्चित ही कुछ बातें चली जाएंगी--चिंताएं चली जाएंगी, तनाव चले जाएंगे, पागलखाने चले जाएंगे, हजारों मानसिक बीमारियां चली जाएंगी, यह जरूर नुकसान होगा। इतनी चीजें चली जाएंगी।
इसलिए मैं तो कहूंगा कि मैं कृष्ण के उत्सववादी चित्त के साथ राजी हूं।
इस देश में न राम को, न कृष्ण को, न बुद्ध को, न महावीर को--जैनों के चौबीस तीर्थंकर में किसी को भी नहीं--दाढ़ी-मूंछ नहीं है उनकी प्रतिमाओं में, न ही उनके चित्रों में।
क्या कारण होंगे इसके पीछे?
ऐसा मैं नहीं मानता हूं कि इन सबको दाढ़ी-मूंछ नहीं रही होगी। एकाध को हो सकता है न रही हो, सबको न रही होगी, ऐसा मैं नहीं मान सकता। तथ्यगत वह नहीं है। लेकिन फिर भी, हमने नहीं दी है। तो कुछ कारण होंगे। कई कारण हैं।
बड़ा कारण। पहला कारण तो दाढ़ी-मूंछ आने के पहले व्यक्ति की जो वय है, वह सबसे ज्यादा "फ्रेश' और ताजी है। उसके बाद फिर सब ढलने लगता है। वह ताजगी का, "फ्रेशनेस' का आखिरी क्षण है। उसके बाद चीजें उतरनी शुरू हो जाती हैं। हमने इन लोगों का ताजगी का अनंत सागर अनुभव किया है। इन्हें हमने कभी उतरते नहीं देखा जिंदगी में, इन्हें हमने सदा ताजे देखा है। ऐसा नहीं कि ये बूढ़े नहीं हुए, ऐसा नहीं कि इनका शरीर नहीं ढला। ऐसा नहीं कि इनके जीवन में वार्द्धक्य के क्षण नहीं आए। वह सब आए, लेकिन इनकी चेतना को हमने सदा किशोर देखा है। "इटर्नल यंग'। उन्हें हमने कभी भी--उनकी चेतना की जो हमारी समझ है वह हमने पाई है कि वह सदा ही किशोर है। वे उतने ही ताजे हैं, उनकी ताजगी में, उनकी चेतना की ताजगी में कभी कोई फर्क नहीं पड़ा है। और ये सारी मूर्तियां और सारे चित्र व्यक्तियों के चित्र नहीं हैं, व्यक्तियों की मूर्तियां नहीं हैं। उन व्यक्तियों के भीतर हमने जो झांका है, उसके चित्र हैं। "कांस्टेंट फ्रेशनेस', एक युवापन, जो सदा उनके साथ है। कृष्ण को बूढ़ा हम सोच भी नहीं सकते। कोई उपाय नहीं है। ऐसा नहीं है कि वे बूढ़े नहीं हुए। वे बूढ़े हुए लेकिन हम सोच नहीं सकते इस आदमी को, यह बूढ़ा कैसे होगा! और कुछ ऐसे बच्चे भी होते हैं जिनको हम सोच भी नहीं सकते कि ये बच्चे हैं, वे पहले से ही बूढ़े होते हैं।
अभी एक गांव में मैं गया और एक लड़की ने मुझसे कहा--उसकी उम्र कोई तेरह-चौदह साल थी--उसने मुझे कहा कि मुझे तो मुक्ति चाहिए। अब यह लड़की बूढ़ी हो गई। मैंने उससे कहा कि तू बूढ़ी हो गई? मुक्ति की बात! अभी जीया भी नहीं। अभी बंधन में पड़ी भी नहीं, अभी खुलने की बात। लेकिन पर उसने कहा कि मेरे घर में तो, बड़ा धार्मिक घर है, वह मुझे अपने घर ले गई, धार्मिक घर जैसा होता है--उदास, मरा हुआ, मां भी मरी हुई, सारा घर उपवास की छाया में दबा हुआ। स्वभावतः। तो यह लड़की बूढ़ी हो गई। अगर इस लड़की का चित्र बनाना पड़े, तो उसको चौदह साल की उम्र देना "अनआथेंटिक' होगा, अप्रामाणिक होगा। इस लड़की का चित्र बनाना पड़े, तो कैमरा तो चित्र उसका लेगा उसमें चौदह साल आएंगे, लेकिन अगर कोई चित्रकार इसका चित्र बनाए तो अस्सी साल की उम्र बनानी चाहिए। इसके चित्त की उम्र वह हो गई।
बुद्ध, महावीर, कृष्ण, राम, ये सदा "यंग' हैं। लेकिन, हम पच्चीस साल का भी बना सकते थे उनका चेहरा, तब उन पर दाढ़ी-मूंछ होती। वह तेरह-चौदह साल वाला चेहरा, जिसकी दाढ़ी-मूंछ नहीं है, वह हमने क्यों बनाया? उसके पीछे कारण हैं। जो चीज शुरू हो गई, फिर उसका अंत आता है। अगर दाढ़ी-मूंछ हो गई शुरू, अब वह जाएगी भी, गिरेगी भी, बुढ़ापा आएगा भी। तो इसलिए हमने उस जगह से, जहां से वह शुरू ही नहीं हुई है, उसको हमने "लास्ट प्वाइंट' समझ लिया। उसके बाद हमने उनका चित्रण नहीं किया। एक कारण।
दूसरा कारण, पुरुष के मन में सौंदर्य का जो खयाल है, वह स्त्रैण है। पुरुष के मन में सौंदर्य की जो प्रतिमा है, वह स्त्री की है। पुरुष के मन में सौंदर्य की प्रतिमा पुरुष की नहीं है। और ये सारे कवि, और ये सारे चित्रकार, और ये सारे शास्त्रकार पुरुष हैं। अगर कृष्ण को सुंदर बनाना है--और सुंदर बनाना ही है, क्योंकि कृष्ण से ज्यादा सुंदर क्या हो सकता है--तो जो चेहरे की शक्ल होगी, वह स्त्रैण होगी। इसलिए बुद्ध की, कृष्ण की, सबके चेहरे की शक्ल स्त्रैण है। चेहरे पर जो बिंब है, वह स्त्री का है। पुरुष का नहीं है। पुरुष की समझ सौंदर्य की स्त्रैण है। इसलिए सारी दुनिया में जैसे हमारी समझ बढ़ती चली गई, पुरुष ने अपनी दाढ़ी-मूंछ काटकर अलग कर दी। कारण वही है। पहले उसने राम, बुद्ध की साफ की, बाद में अपनी साफ कर दी। उसके मन में खयाल है कि चेहरा तो स्त्री का सुंदर है। तो स्त्री के चेहरे जैसा कैसे उसका चेहरा हो जाए, इसकी चेष्टा में सतत लगा हुआ है।
हालांकि यह बात स्त्री की तरफ से सच नहीं है। यह बात स्त्री की तरफ से सच नहीं है। स्त्री के मन में जो सौंदर्य का अर्थ है, वह सदा पुरुष जैसा है। स्त्री के मन में दूसरी स्त्री बहुत सुंदर नहीं मालूम हो सकती। स्वभावतः, स्त्री के मन में जो सौंदर्य का बिंब है, वह पुरुष के चिह्न का है। अगर स्त्रियां राम, कृष्ण और बुद्ध की मूर्तियां और चित्र बनातीं, तो मेरी अपनी समझ है कि उसमें दाढ़ी-मूंछ अनिवार्य होती। क्योंकि स्त्रियों को वह जंचता ही नहीं, वह स्त्रैण मालूम पड़ते हैं। और मैं आज भी नहीं मानने को राजी हूं यह कि दाढ़ी-मूंछ अलग करने के बाद स्त्री को कोई चेहरा बहुत प्रीतिकर लगता है। नहीं लग सकता। क्योंकि जिस चेहरे से दाढ़ी-मूंछ विदा हो गई, उस चेहरे से पुरुष का कुछ हिस्सा विदा हो जाता है। हो जाता है। आप जरा उल्टा करके सोचें, कि स्त्रियां दाढ़ी-मूंछ लगा लें, तब आपको कितनी प्रीतिकर लगेंगी? आप भी दाढ़ी-मूंछ काटकर उतने ही प्रीतिकर लगते होंगे। स्त्रियां चाहे कहें, चाहे न कहें, क्योंकि स्त्रियों को कहने की स्वतंत्रता भी नहीं रह गई है। उनके सोचने के ढंग भी पुरुष ने तय कर दिए हैं। इसलिए वे कभी "असर्ट' भी नहीं कर सकती हैं। लेकिन आप ध्यान रखें कि जब भी किसी युग में पुरुष-सौंदर्य प्रगट होता है, तो दाढ़ी-मूंछ लौट आती है। दाढ़ी-मूंछ की रौनक वापिस लौट आती है। लेकिन, कभी भी, कहीं भी, जब भी कहीं ऐसा होता है कि पुरुष-सौंदर्य स्थापित होता है, तो दाढ़ी-मूंछ वापिस लौट आती है। लेकिन वह स्त्री को देख-देखकर अगर हम अपना चेहरा निर्धारित करेंगे, तो उसमें दाढ़ी-मूंछ चली जाएगी।
स्त्रियां भी पुरुष जैसे होने की बड़ी कोशिश में लगी रहती हैं। सारी दुनिया में चल रही है दौड़। स्त्रियां पुरुष जैसे कपड़े पहना चाहेंगी, क्योंकि उनके मन में सौंदर्य का अर्थ पुरुष है। पुरुष जैसी घड़ियां बांधना चाहेंगी, क्योंकि उनके मन में सौंदर्य का अर्थ पुरुष है। पुरुष जैसे काम करना चाहेंगी क्योंकि उनके मन में सौंदर्य का प्रतीक पुरुष है। अगर स्त्रियों का समाज किसी दिन जीत गया--जिसका कि डर रोज-रोज पैदा होता जा रहा है--क्योंकि पुरुष काफी दिन मालकियत कर लिया, अब पलड़ा बदलेगा। बहुत दिन हो गई, आप स्त्री के ऊपर बैठे-बैठे, अब स्त्री आपके ऊपर आएगी। जिस दिन स्त्री आपके ऊपर आएगी, कुछ आश्चर्य न होगा कि स्त्री दाढ़ी-मूंछ लगाने की कोशिश करे। कोई आश्चर्य न होगा। आज हमें आश्चर्य लगता है, क्योंकि वह घटना हमारे खयाल में नहीं आती। वैसे वह और तरह से दाढ़ी-मूंछ लगाने की कोशिश में लगी हुई है। वह ठीक पुरुष जैसे होने की कोशिश में लगी हुई है--सब भांति वह पुरुष के बगल में खड़ी हो जाए, पुरुष की दूसरी "कॉपी' बनकर। पुरुष भी उस कोशिश में लगा रहा है। यह "एब्सर्ड' कोशिश है। इसका कोई मतलब नहीं है।
जिन चित्रकारों ने, जिन मूर्तिकारों ने कृष्ण, राम और बुद्ध की मूर्तियां अंकित की हैं, वे पुरुष हैं और स्त्रैण सौंदर्य उनके मन में है, इसलिए ये कोई चित्र और प्रतिमाएं "आथेंटिक' नहीं हैं, प्रामाणिक नहीं हैं। अगर आप जैनों के चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाएं देखें तो आपको पता चल जाएगा कि वे बिलकुल एक जैसे हैं। अगर उनके नीचे बने हुए चिह्न अलग कर दिए जाएं तो उनमें कोई फर्क नहीं है। अगर बुद्ध और महावीर की प्रतिमाओं पर से सिर्फ कपड़े का भेद अलग कर दिया जाए तो वे बिलकुल एक जैसी हैं, उनमें कोई फर्क नहीं रह जाता। क्या ये सब शक्लें एक जैसी रही होंगी? नहीं, ये शक्लें एक जैसी नहीं हो सकतीं। एक जैसी शक्लें कब होती हैं! लेकिन बनाने वाले चित्रकार के पास एक जैसे प्रतीक हैं। वह बुद्ध को बनाने वाला चित्रकार भी बुद्ध की मूर्ति को सुंदरतम बनाने की कोशिश कर रहा है। महावीर का चित्रकार भी महावीर की मूर्ति को सुंदरतम बनाने की कोशिश कर रहा है। और तब वह सुंदरतम बनाने की कोशिश में वे शक्लें एक जैसी हो जाने वाली हैं। वे करीब-करीब एक-जैसी हो गई हैं।

"कर्म उतना ही करना काफी है जितने से जिआ जा सके, ज्यादा क्यों करना, अगर यह वृत्ति रह जाए और कर्म करने वाले न हों तो मीरा के हाथ में तंबूरा भी नहीं आए और हम जो "टेप' कर रहे हैं भगवान श्री का प्रवचन, वह "टेपरिकार्डर' और "लाउड-स्पीकर' भी नहीं हो। वह भी कर्म की ईज़ाद है, वही प्रश्न रह जाता है। कृपया इसे समझाएं? और जीवन को उत्सव मनाने वालों से गरीबी कैसे दूर होगी?'

हां, यह भी सोचने जैसा है कि मीरा के हाथ में जो तंबूरा आया, वह कर्म करने वाले लोगों की वजह से आया कि उत्सव मनाने वाले लोगों की वजह से आया? तंबूरा कर्म करने वाले पैदा नहीं करते। कुदाली बनाते हैं, तंबूरा नहीं बनाते। तंबूरे का कर्म से कोई लेना-देना नहीं है। कुदाली बनाते हैं, कुल्हाड़ी बनाते हैं, तलवार बनाते हैं, तंबूरा बनाने से कर्म करने वाले का क्या लेना-देना! तंबूरा तो बनाते ही वे लोग हैं जो जिंदगी को खेल की तरह ले रहे हैं। जिंदगी में जो भी श्रेष्ठ आया है, चाहे तंबूरा हो, चाहे ताजमहल हो, वह उन लोगों के मन से आता है, उन लोगों के सपनों से आता है, जो जिंदगी को एक उत्सव बना रहे हैं। स्वभावतः, ये उत्सव मनाने वाले लोगों भी उन लोगों का उपयोग करेंगे, जो जिंदगी को काम समझे हुए हैं। लेकिन जो लोग उसे काम समझकर कर रहे हैं, वे भी चाहते तो उत्सव समझकर कर सकते थे। मैं मानता हूं कि आप ताजमहल को देखकर जितने आनंदित होते हैं, उतना ताजमहल की ईंट रखने वाले मजदूर आनंदित नहीं हुए, वे काम कर रहे थे। जिन्होंने ताजमहल बनाया था वे उतने आनंदित नहीं थे, उनके लिए वह काम था। लेकिन, क्या वजह है, क्या ईंट उत्सव की तरह नहीं रखी जा सकती? मैं एक कहानी निरंतर कहता हूं--
एक मंदिर बन रहा है और एक आदमी वहां से गुजरा है और उसने पत्थर तोड़ते एक आदमी से, मजदूर से पूछा है कि तुम क्या कर रहे हो? तो उस आदमी ने उसकी तरफ देखा भी नहीं और क्रोध से कहा कि अंधे तो नहीं हो? देखते नहीं कि पत्थर तोड़ रहा हूं? आंखें हैं कि नहीं? वह आदमी आगे बढ़ा। और उसने दूसरे मजदूर से पूछा--हजारों मजदूर पत्थर तोड़ रहे हैं--उसने दूसरे से पूछा कि मेरे मित्र, क्या कर रहे हो? उस आदमी ने उदासी से अपनी छैनी-हथौड़ी नीचे रख दी, उस आदमी की तरफ देखा और कहा कि दिखाई तो यही पड़ रहा है कि पत्थर तोड़ रहा हूं, ऐसे रोटी कमा रहा हूं। बच्चों के लिए, बेटों के लिए, पत्नी के लिए रोटी कमा रहा हूं। उसने फिर अपना तोड़ना शुरू कर दिया। वह आदमी तीसरे आदमी के पास पहुंचा जो मंदिर की सीढ़ियों के पास पत्थर तोड़ रहा था और गीत भी गा रहा था। उसने उससे पूछा कि क्या कर रहे हो? उसने कहा, क्या कर रहा हूं? भगवान का मंदिर बना रहा हूं। उसने फिर पत्थर तोड़ना शुरू कर दिया और गीत गाना शुरू कर दिया। ये तीनों आदमी एक ही काम कर रहे हैं, तीनों पत्थर तोड़ रहे हैं। लेकिन इन तीनों का सोचने का ढंग पत्थर तोड़ने के बाबत भिन्न है। वह जो तीसरा आदमी है, उसने पत्थर तोड़ने को उत्सव बना लिया है।
मैं नहीं कहता हूं कि लोग गरीबी न मिटाएं, मैं नहीं कहा हूं कि लोग यंत्र न बनाएं, मैं नहीं कहता हूं कि लोग समृद्धि पैदा न करें, लेकिन इस सबको भी उत्सव की तरह ही, इस सबको भी काम की तरह नहीं। गरीबी अगर काम की तरह मिटाई गई, तो हो सकता है गरीबी तो मिट जाए, लेकिन गरीब आदमी दुनिया से नहीं मिटेगा। लेकिन अगर गरीबी उत्सव की तरह मिटाई गई, तो हो सकता है गरीबी उतनी जल्दी शायद न भी मिटे, लेकिन गरीब आदमी मिट सकता है।
हम जो कह रहे हैं, उसके प्रति हमारा "ऐटिटयूड' क्या है, वह सवाल है। और जब इस "ऐटिटयूड' का, इस भाव का परिवर्तन होता है, तो हमारी सारी गतिविधि बदल जाती है। एक माली भी सुबह आकर इस बगीचे में काम करता है, लेकिन इसे उत्सव की तरह नहीं ले पाता। कौन उसे रोक रहा है कि उत्सव की तरह न ले? माना कि वह रोटी कमा रहा है, रोटी बराबर कमा रहा है, कमाए, लेकिन यह खिलते हुए फूलों को उत्सव की तरह न ले, यह कौन रोक रहा है? और इनको उत्सव की तरह न लेकर वह कौन-सा ज्यादा कमा ले रहा है। मैं तो मानता हूं कि अगर वह इसको आनंद की तरह ले, इसको...काम तो है ही, रोटी कमा ही रहा है, वह गौण है...लेकिन उसके चित्त में प्रमुख अगर यह फूलों का आनंद और इनके खिलने की खुशी हो जाए, तो वह माली, सिर्फ नौकर नहीं रह जाएगा, वह बहुत गहरे अर्थों में इन फूलों का मालिक भी हो जाएगा, बिना मालिक बने। और जब फूल खिलेंगे तब उसे एक आनंद भी मिलेगा, जो अकेले काम से कभी नहीं मिल सकता है। गरीबी भी मिटानी है, दुख भी मिटाना है, लेकिन वह काम की भांति नहीं; वह भी जीवन के उत्सव में सब लोग सम्मिलित हो सकें, इसलिए।
जब मैं कहा हूं कि गरीबी मिटानी है, तो मेरा मतलब बहुत ज्यादा यह नहीं होता कि गरीब बहुत तकलीफ में है इसलिए मिटानी है। मेरा मतलब इतना ही होता है कि गरीब रहते हुए जीवन के महोत्सव में भागीदार होना बहुत मुश्किल है, इसलिए मिटानी है। मैं जब गरीबी मिटाना चाहता हूं, तो मेरे लिए मतलब इतना ही नहीं है कि उसका पेट खाली है, वह भर दिया जाए किसी तरह। न, मेरे मन में खयाल यह है कि उसकी आत्मा को भरना मुश्किल पड़ेगा, जब तक पेट नहीं भर जाता। और उसकी आत्मा तो उत्सव से भरेगी, पेट काम से भरेगा।
और आत्मा की तरफ अगर ध्यान हो तो हम जीवन के सब कामों को उत्सव बना ले सकते हैं। उस खेत में हम गङ्ढे भी खोद सकते हैं और गीत भी गा सकते हैं। सदा से ऐसा था ही। आज फैक्ट्री उतनी आनंदपूर्ण नहीं रह गई। लेकिन आज नहीं कल, मैं आपसे कहता हूं, फैक्ट्री में गीत वापस लौटेगा। किसान अपने खेत पर काम कर रहा था, वह काम तो था ही, लेकिन वह गीत भी गा रहा था। उसके गीत की वजह से काम में बाधा नहीं पड़ती थी, काम में सिर्फ गति आती थी। लेकिन फैक्ट्री में तो गीत गाने की सुविधा नहीं है। वहां सिर्फ काम रह गया है, सात घंटे। आदमी थका हुआ लौट आता है, टूटा हुआ आता है। आज नहीं कल, और जिन मुल्कों में इस पर काम चलता है, खोज होती है, वह मुल्क इसके करीब आते जा रहे हैं कि फैक्ट्री में जो आदमी काम कर रहा है, अगर अकेला काम ही रहेगा, तो खतरा है बहुत। इसके काम को आनंद में रूपांतरित करना होगा। बहुत दिन दूर नहीं, जबकि फैक्ट्री में भी गीत गाया जा सके। और उत्सव के लिए क्षण खोजे जा सकें। खोजने ही पड़ेंगे, अन्यथा आदमी उदास और रिक्त होता चला जाएगा।
एक स्त्री घर में खाना बना रही है। वह खाना ऐसे भी बना सकती है जैसा होटल में रसोइया बनाता है। तब काम हो जाएगा। वह खाना ऐसे भी बना सकती है जब कोई अपने प्रेमी की प्रतीक्षा करता है और खाना बनाता है। तब काम उत्सव हो जाएगा। और दोनों हालत में काम होता है।
इसलिए मैंने ऐसा कहा।

"आपने कहा कि कृष्ण चित्त की भूमिका से ऊपर उठ गए हैं। और यह भी कहा कि चित्त की सहज प्रेरणाओं से प्रेरित होकर उन्होंने गोपियों के वस्त्रों का अपहरण किया। जो व्यक्ति चित्त के ही ऊपर उठ गया, क्या वह भी चित्त की सहज प्रेरणा से प्रेरित होगा? और अगर होगा तो पशु भी इस प्रकार उसके ही समान हो गया?'

मैंने कहा कि कृष्ण चित्त के पार हो गए थे। इसका मतलब यह नहीं कि कृष्ण का चित्त नहीं रह गया था।
चित्त के पार होने का मतलब इतना ही है कि चित्त के पार जो है, कृष्ण उसे भी जान गए, पहचान गए थे। चित्त तो था ही। समाहित था। कृष्ण का व्यक्तित्व चित्त से बड़ा व्यक्तित्व हो गया था, उसमें चित्त की भी जगह थी।
चित्त के पार हो जाने के दो अर्थ हो सकते हैं। चित्त की दुश्मनी में पार हो गए हों, तो चित्त कटकर अलग टूट जाता है। लेकिन अगर चित्त की मैत्री में पार हुए हैं, तो चित्त सम्मिलित होता है, समाहित होता है। इस बड़ी घटना में जो चित्त के पार घट रही है, चित्त भी अपना हिस्सा रखता है, वह भी अपनी जगह होता है। जब मैं कहता हूं कि मैं शरीर के पार हो गया, तो इसका मतलब यह नहीं कि मैं शरीर नहीं रह गया। इसका केवल इतना ही मतलब है कि मैं सिर्फ शरीर नहीं रह गया। शरीर तो हूं ही, और भी कुछ हूं, "समथिंग एडेड', "समथिंग प्लस'। शरीर कट नहीं गया, कुछ और भी जुड़ गया। कल तक मैं सोचता था, शरीर ही हूं, अब मैं जानता हूं कि और भी कुछ हूं। शरीर तो हूं ही, वह जो और कुछ है उसने शरीर के होने को मिटा नहीं डाला, और "रिच' और समृद्ध कर दिया। आत्मा भी हूं। और जब कोई व्यक्ति जानता है परमात्मा को भी, तो ऐसा नहीं है कि आत्मा मिट जाती है, तब यह जानता है कि परमात्मा भी हूं। और आत्मा और चित्त, सब उस बड़े विराट में समाहित होते चले जाते हैं। कुछ खोता नहीं, जुड़ता जाता है।
तो कृष्ण को जब मैं कहता हूं चित्त के पार हो गए थे, तो मेरा मतलब यह है कि उन्होंने उसे भी जान लिया था जो चित्त के पार फैला है। लेकिन चित्त तो वे थे ही। वह दुश्मन नहीं हैं चित्त के। वह चित्त के शत्रु नहीं हैं, उससे लड़कर पार नहीं हो गए थे, उसको जीकर पार हो गए थे। और इसलिए जब मैं कहता हूं कि उनके सहज चित्त से जो उठा था वह हुआ था, तो मेरा मतलब यही है कि अब उनके भीतर सब सहज ही हो सकता है।
चित्त में, असहज तभी तक होता है जब तक चित्त के भीतर हमारी लड़ाई होती है। एक हिस्सा कहता है करो, एक कहता है मत करो। लड़ाई होती है। तब चीजें असहज हो जाती हैं। जब पूरा चित्त इकट्ठा होता है, तो जो होना होता है, वह हो जाता है, जो नहीं होना होता, वह नहीं होता है। तब सहज होता है। लेकिन यह बात बहुत अच्छी पूछी है कि फिर पशुओं में और उनमें फर्क क्या रह जाएगा?
एक हिसाब से बिलकुल नहीं, एक हिसाब से बहुत ज्यादा। एक हिसाब से बिलकुल नहीं। पशु भी सहज हैं, लेकिन बिना जानते हुए, बेहोशी में। कृष्ण भी सहज हैं, लेकिन जानते हुए, होश में। सहजता समान है, बोध भिन्न है। पशु भी सहज है, जो हो रहा है हो रहा है। लेकिन इसका पशुओं को कोई बोध नहीं है कि जो हो रहा है, वह हो रहा है। इसकी कोई "अवेयरनेस', इसकी कोई प्रज्ञा नहीं है। यंत्रवत हो रहा है। कृष्ण को जो हो रहा है, इसका साक्षी भी पीछे खड़ा है, जो देख रहा है कि ऐसा हो रहा है। पशु के पास साक्षी नहीं है।
कृष्ण चित्त के पार चले गए हैं, पशु अभी चित्त के पहले हैं। कृष्ण चित्त के "बियांड', पशु चित्त के "बिलो'। अभी पशु के पास चित्त भी नहीं है, अभी पशु के पास शरीर ही है। "इंस्टिंक्ट' हैं, अभी वृत्तियां हैं, और ये यंत्रवत काम करा रही हैं और वह काम कर रहा है। अभी पशु के पास चित्त भी नहीं है। इसलिए चित्त के पार जो गया है उसमें और चित्त के नीचे जो है, एक तारतम्य होगा।
बहुत पुरानी, फकीरों में एक कहावत है कि जब कोई परम ज्ञान को उपलब्ध होता है तो परम अज्ञानी जैसा हो जाता है। उसमें थोड़ी सचाई है। क्योंकि परम अज्ञानी में...जैसा हम जड़भरत को जानते हैं। अब जड़भरत नाम दिया है, उस परम ज्ञानी को! लेकिन हो गया वह जड़ जैसा। एक अर्थ में जो पूर्ण ज्ञान है, वह उस पूर्ण अज्ञान जैसा मालूम पड़ेगा। कम-से-कम पूर्णता तो समान है, एक बात वह दोनों में है। ज्ञान में भी कोई बेचैनी नहीं रह गई, क्योंकि सब जान लिया गया। अज्ञान में कोई बेचैनी नहीं है क्योंकि अभी कुछ जाना ही नहीं गया है। बेचैनी होने के लिए कुछ तो जाना जाना चाहिए! पशु, जो हो रहा है, इसको उसे कोई बोध नहीं है। कृष्ण, जो हो रहा है, हो रहा है, बोध पूरा है। यह अबोध में नहीं हो रहा है। इसलिए हम कहते हैं, जब संत अपने पूरे व्यक्तित्व को उपलब्ध होता है तो वह बच्चों जैसा हो जाता है।
जीसस से कोई पूछता है कि आपके प्रभु के राज्य में क्या होगा? या जो आदमी प्रभु को उपलब्ध हो जाएगा वह कैसा होगा? तो जीसस कहते हैं, वह व्यक्ति जो प्रभु को उपलब्ध हो जाएगा, बच्चों जैसा होगा। लेकिन जीसस यह नहीं कहते कि बच्चे उसे उपलब्ध हो गए हैं। नहीं तो सभी बच्चे उपलब्ध हो गए हों। न, वह कहते हैं, बच्चों जैसा, बच्चा नहीं। बच्चों जैसा, "जस्ट लाइक चिल्ड्रन'। अगर वह कहें कि बच्चा हो जाएगा, तो फिर बच्चे तो बच्चे हैं ही, फिर इसमें और उपद्रव की क्या जरूरत है। नहीं, बच्चा अभी नीचे है। "बिलो' है; वह "बियांड' होगा। बच्चे को अभी तनाव में जाना पड़ेगा, वह तनाव में जाकर निकल चुका है। बच्चा अभी "पोटेंशियली' सब बीमारियां लिए हुए है, वह सारी बीमारियों के पार हो गया है। अभी पशु को उन सारी बीमारियों से गुजरना पड़ेगा जो आदमी की हैं, और कृष्ण उन सारी बीमारियों के पार गुजर गए हैं। इतना फर्क है और इतनी समानता भी है।

"भगवान श्री, आपने स्वधर्म और निजधर्म की चर्चा की, उसमें जो श्लोक का पहला भाग है वह यह कहता है कि स्वधर्म विगुण भी श्रेष्ठ है। स्वधर्म अगर निजता है, तो वह विगुण, गुणरहित कैसे हो सकता है? क्या कोई निजता गुणरहित भी होती है?'

से आखिरी सवाल समझें, फिर हम ध्यान के लिए बैठेंगे। पूछते हैं कि स्वधर्म विगुण होगा, गुणरहित होगा, ऐसा कैसे हो सकता है? निजता विगुण कैसे हो सकती है?
इसमें दो बातें खयाल में लेनी जैसी हैं। एक तो, चीजें अपने मूल में सदा ही निर्गुण, विगुण होती हैं। सिर्फ अभिव्यक्ति में गुण उपलब्ध होता है। जैसा अभी एक बीज है। अभी यह विगुण है, अभी इसमें कोई गुण नहीं है। सिर्फ बीज होने का गुण है। सिर्फ "पोटेंशियलिटी' है। इसमें लाल फूल खिलेंगे, अभी खिले नहीं हैं। कल यह फूल बन जाएगा। तब लाल फूल खिलेंगे। फूल गुणवान हो जाएगा। उसकी सुगंध होगी खास, उसका रंग होगा खास, उसका व्यक्तित्व होगा खास, लेकिन बीज में चीजें गुणशून्य हैं। अभिव्यक्ति में प्रगट होकर गुण को उपलब्ध होंगी।
जगत गुण है, परमात्मा निर्गुण है। परमात्मा बीज-रूप है। जब प्रगट होता है तब गुण दिखाई पड़ते हैं, जब अप्रगट हो जाता है तो गुण खो जाते हैं। एक आदमी अच्छा है, एक आदमी बुरा है; एक आदमी चोर है, एक आदमी साधु है; दोनों सो गए, दोनों विगुण हो गए। सुषुप्ति में कोई गुण नहीं रह जाता--साधु साधु नहीं रह जाता, चोर चोर नहीं रह जाता। और सुषुप्ति में निजता के बहुत करीब होते हैं, एकदम करीब होते हैं, वहां कोई गुण नहीं रह जाता। सुषुप्ति में चोर चोर नहीं है, साधु साधु नहीं है। हां, जागेंगे तो चोर चोर हो जाएगा, साधु साधु हो जाएगा। जागते ही गुण आएंगे, सोते ही गुण सो जाएंगे। सुषुप्ति में हम अपनी निजता के बहुत करीब होते हैं, समाधि में तो हम निजता में ही पहुंच जाते हैं। तो ठीक निजता का जो अनुभव है, स्वभाव का जो अनुभव है, वह निर्गुण होगा। लेकिन स्वभाव की जो अभिव्यक्ति है, "मेनीफेस्टेशन' है, वह सगुण होगी। सगुण और निर्गुण दो चीजें नहीं हैं। सगुण और निर्गुण विरोधी चीजें नहीं हैं। सगुण निर्गुण की अभिव्यक्ति का नाम है। और निर्गुण सगुण के अप्रगट अवस्था का नाम है।
तो स्वभाव की दो स्थितियां होंगी, निजता की दो स्थितियां होंगी। एक तो वह निजता, जो अप्रगट है, बीज-रूप है, गर्भ में है; अभी प्रगट नहीं हो गई, अभी सोई है, अपने में डूबी है। लीन है। और एक वह निजता, जो प्रगट हो गई। और जब प्रगट होती है निजता तो आकार ले लेती है, गुण ले लेती है। असल में कोई अभिव्यक्ति निराकार नहीं हो सकती, और कोई अभिव्यक्ति निर्गुण नहीं हो सकती। जैसे ही कोई चीज प्रगट होगी, उसका रूप, रंग, आकार प्रगट होगा। प्रगट होने का मतलब ही यह है कि उसे रूप, रंग में होना पड़ेगा।
एक छोटी-सी कहानी याद आती है। एक झेन कहानी है। एक झेन साधु अपने शिष्यों को चित्र बनाना सिखाता है। चित्रों से ध्यान के मार्ग पर ले जाता है। कहीं से भी जाया जा सकता है। जगत में जो भी कोई जगह है, वहीं से ध्यान तक जाया जा सकता है। उसके दस शिष्य एक दिन सुबह इकट्ठे हुए हैं और उसने कहा कि तुम जाओ और एक चित्र की मैं तुम्हें रूपरेखा देता हूं। वह रूपरेखा यह है कि एक गाय, घास से भरे मैदान में, घास चर रही है। तुम यह चित्र बना लाओ। लेकिन ध्यान रहे चित्र निर्गुण हो।
वे दसों चित्रकार गए और बहुत मुश्किल में पड़ गए। फकीर का काम ही यह है कि किसी को मुश्किल में डाले। और कोई काम नहीं है। क्योंकि मुश्किल में डाले तो शायद स्वयं का खयाल भी आ जाए। वे बड़ी मुश्किल में पड़ गए कि निर्गुण कैसे होगा यह? रंग का तो उपयोग करना पड़ेगा। कम-से-कम गाय को आकार तो देना पड़ेगा, घास भी बनानी तो पड़ेगी।
नौ चित्रकार बनाकर लाए। उन्होंने ऐसा बनाया कि बहुत साफ-साफ न दिखाई पड़े, लेकिन फिर भी गाय तो थी ही। घास भी ऐसा बनाया, ठीक "एब्सटे्रक्ट आर्ट' का उपयोग किया होगा कि चीजें साफ-सुथरी नहीं हैं। लेकिन फिर भी रंग का उपयोग करना पड़ा। एक-दूसरे के चित्र देख कर वे पूछने लगे, गाय कहां है? तो एक चित्रकार ने यह भी कहा कि जब मैं बना रहा था तब तो मुझे पक्का पता था, अब मुझे जरा शक है। क्योंकि निर्गुण बनाने की कोशिश की है, तो अब मैं पक्का नहीं कह सकता, किस जगह है? लेकिन उस गुरु ने नौ के ही चित्र फेंक दिए और कहा कि निर्गुण में रंग कैसा? गाय कैसी? दसवां आदमी खाली कोरा कागज लेकर आ गया। उसने कहा, यह रहा। तो उन बाकी नौ चित्रकारों ने पूछा कि गाय कहां है? उसने कहा, गाय ने चर लिया। चीजें लौट गईं। यह निर्गुण चित्र है। गाय घर चर रही है, लेकिन चर चुकी है। घास समाप्त हो गई, कोरा कागज रह गया।
निर्गुण निजता की जो बहुत गहराई है, वहां तो सब निराकार है, निर्गुण है; विगुण, गुणरहित है। अभिव्यक्ति जब गाय घास चरती है तब प्रगट होती है। फिर घास भी आती है, फिर गाय भी आती है, फिर सब खेल होता है। फिर सब विदा हो जाता है।
यह जगत का इतना बड़ा विस्तार कभी विगुण में था। कभी यह सब शून्य में जन्मा, कभी यह फिर शून्य में समाहित हो जाएगा। सब जन्मता है, सब समाहित हो जाता है। जहां से जन्मता है, वहीं लौट जाता है। और वह जो शून्य की अवस्था है उसमें पूर्ण छिपा है, अपने पूर्ण गुणों को लेकर, लेकिन विगुण है, निर्गुण है, अभी उसमें गुण नहीं आया, अभी आएगा।
इस अर्थ में निजता के दो रूप हुए--सभी चीजों के दो रूप हैं--"मैनिफेस्टेड', "अनमैनिफेस्टेड'; प्रगट, अप्रगट। प्रगट में गुण दिखाई पड़ते हैं, अप्रगट में निर्गुण रह जाता है।
इसलिए कृष्ण को भी दो तरफ से देखना है--एक तो उनका जो दिखाई पड़ता है व्यक्तित्व, और एक वह जो दिखाई पड़ता है। जो अश्रद्धालु है, वह सिर्फ उसी को देख पाएगा जो दिखाई पड़ता है। और जिसके जीवन में श्रद्धा भी जन्मी है, वह उसको भी देख पाएगा जो नहीं दिखाई पड़ता है। तर्क, चिंतन, मनन, विचार, "मैनिफेस्टेड' से आगे नहीं जाएगा, प्रगट के आगे नहीं जाएगा, गुण के आगे नहीं जाएगा। ध्यान, प्रार्थना, श्रद्धा, "अनमैनिफेस्टेड' में प्रवेश कर जाएगी। वह जो नहीं दिखाई पड़ता है, जो अदृश्य है, उसमें प्रवेश कर जाएगा। लेकिन जो अभी "मैनिफेस्टेड' को भी नहीं पकड़ पाते वे "अनमैनिफेस्टेड' को नहीं पकड़ पाएंगे।
इसलिए तर्क का, विचार का एक काम है कि वह वहां तक पहुंचा दे, उस सीमांत तक, जहां अभिव्यक्त समाप्त होता है और अनभिव्यक्त शुरू होता है। फिर वहां छलांग लगानी पड़ेगी। फिर वहां अपनी बुद्धि से कूद जाना पड़ेगा। फिर अपने ही चित्त के आगे चले जाना होगा। फिर "बियांड वनसेल्फ' फिर खुद को ही पार कर जाना होगा। फिर खुद को ही "ट्रांसेंड' कर जाना होगा। लेकिन उसका यह मतलब नहीं है कि जो जाएगा, फिर ज्ञान में जो दिखाई पड़ेगा, उसमें जो पहले जाना था वह कट जाएगा। नहीं, वह उसमें समाहित हो जाएगा। और जिस दिन "मैनिफेस्टेड' और "अनमैनिफेस्टेड', प्रगट और अप्रगट दोनों इकट्ठे हो जाते हैं, उस दिन एब्सोल्यूट, जिसको हम पूर्ण सत्य कहें, उसका साक्षात्कार है।
अब दोत्तीन बातें ध्यान के संबंध में समझ लें। एक तो, जो प्रयोग हमने पहले दिन किया था, दस मिनिट शांत खड़े रहना थोड़े से ही मित्रों को संभव हो पाता है, कोई बीस प्रतिशत लोगों को। अस्सी प्रतिशत लोगों को, पुराना जो आजोल या नारगोल में ध्यान का प्रयोग चलता था, वही ठीक पड़ जाता है। इसलिए आज से हम आजोल में किए गए प्रयोग को ही जारी रखेंगे। और दोनों तरह के प्रयोग जारी रखें तो मेरे सुझाव में कठिनाई होगी और आपको कनफ्यूजन होता है, वह कठिनाई खड़ी हो जाती है। इसलिए इस प्रयोग को, कुछ नए मित्र होंगे, वे समझ लें।
सबसे पहले तो संकल्प करना है, चालीस मिनट आंख बंद रखने का। कुछ भी हो जाए, आंख नहीं खोलनी है। बहुत मन होगा कि खोलें। लेकिन अगर भीतर देखना हो तो बाहर देखना थोड़ी देर के लिए छोड़ देना जरूरी है। और इस संकल्प का भी बड़ा फायदा है। अगर चालीस मिनट भी आंख सतत बंद रखी जा सकी, तो आपकी विल, आपके संकल्प को जागृति होती है।
तो जब मैं कहूं कि चालीस मिनट आंख बंद रहेगी, तो जब तक मैं न कहूं, तब तक आपको नहीं खोलनी है। कभी किसी की भूल से खुल जाती है--खोलता नहीं, अचानक खुल जाती है--तो उसे तत्काल बंद कर लेनी है। उसके लिए कोई परेशान नहीं होना है।
दूसरी बात, संकल्प हम करेंगे हाथ जोड़कर परमात्मा के समक्ष कि हम अपनी पूरी शक्ति लगाएंगे। एक बार हमें साफ होना चाहिए कि हमें पूरी शक्ति लगानी है। यह पक्का खयाल होना चाहिए कि पूरी शक्ति लगानी है। क्योंकि कई बार ऐसा होता है कि कुछ पानी अट्ठानबे डिग्री से वापस लौट आते हैं और भाप नहीं बन पाते, दो ही डिग्री का फासला था, थोड़ी और ताकत लगाते तो पार हो जाते--लेकिन दो इंच पहले लौट आए। और कुछ पता नहीं है कि वह सीमा कहां आती है जहां से पार होते हैं। इसलिए आप अपनी तरफ से पूरी शक्ति ही लगाएं।
पहले चरण में दस मिनट तक गहरी श्वास लेनी है। जिनको श्वास की कोई तकलीफ हो, वे धीमे लें, लेकिन गहरी लें। और जिनको कोई तकलीफ न हो, वे श्वास को गहरे होने की फिक्र न करें--फास्ट होने की फिक्र करें, तेजी की फिक्र करें। जिनको श्वास की कोई तकलीफ है, वे आहिस्ता से गहरी ले जाएं, जितनी गहरी जा सके। और गहरी बाहर निकाल दें धीरे से, गहराई की फिक्र कर लें। जिनको श्वास की कोई तकलीफ नहीं है और जिन मित्रों ने आजोल में प्रयोग किया है, वे फास्ट ब्रीदिंग करें, तेजी से भीतर ले जाएं, तेजी से बाहर फेंकें, जैसे धौंकनी चलती है लुहार की। पूरा खाली कर देना है सारी श्वास और नई ताजी हवाएं भीतर ले जानी हैं।
पांच मिनट के प्रयोग के बाद ही आपके शरीर के भीतर विद्युत का संचार शुरू हो जाएगा, "इलेक्ट्रिफाइड' आप होने लगेंगे। और शरीर में कंपन शुरू होंगे तो उनको होने देना है। अगर शरीर नाचने भी लगे इस बीच तो फिकर नहीं करनी, नाचने देना है। दस मिनट तक गहरी श्वास, तेज श्वास पर प्रयोग करेंगे।
दस मिनट के बाद मैं कहूंगा कि अब आप अपने शरीर को सहयोग करें। तो शरीर नाचता हो तो नाचें, रोता हो तो रोएं, हंसता हो तो हंसें, चिल्लाता हो तो चिल्लाएं। इन दस मिनट में शरीर जो भी करता हो उसको को-आपरेट करें, उसे पूरा सहयोग दें। अगर हाथ थोड़ा सा हिल रहा है तो आप पूरी तरह उसको हिला डालें। अगर थोड़े से नाच रहे हैं तो पूरी तरह नाच हो जाएं।
कुछ मित्र कहते हैं कि उन्हें कुछ भी नहीं होता।
हमारे दमन की परतें गहरी हैं। तो जैसे आप गहरी श्वास ले रहे हैं वह भी आप कर रहे हैं। अपने आप वह भी नहीं हो रहा है। वैसे ही जो भी आपको सुविधापूर्ण लगता हो वह आप करना शुरू कर दें, होने की भी प्रतीक्षा मत करें। एक-दो दिन करेंगे, फिर वह होना शुरू हो जाएगा। धारा टूट जाएगी। नाचना है तो नाचने लगें। चिल्लाना है, चिल्लाने लगें। कुछ तो करें! उस दस मिनट में जो भी करना चाहें करें, लेकिन करें पूरी ताकत से। उसमें फिर संकोच न लें।
और तीसरे दस मिनट में नाचना जारी रहेगा, अपने मन के भीतर पूछना है, मैं कौन हूं? इतने जोर से पूछना है कि बस मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? यही धुन रह जाए। दो मैं कौन हूं के बीच में जगह न छूटे। हो सकता है कि आप जोर से पूछें तो बाहर आवाज निकलने लगे, तो कोई डर की जरूरत नहीं, बाहर भी निकलने दें। नाचना जारी रखें, कूदना जारी रखें और मैं कौन हूं? यह पूछें।
तीस मिनट पूरे होने पर फिर दस मिनट के लिए हम विश्राम में चले जाएंगे। ये पूरे पहाड़ विश्राम में हैं, ये पूरे पौधे विश्राम में हैं, हम इनके साथ एक हो जाएंगे। यहां जो लोग देखने के लिए इकट्ठे हो गए हैं, उनसे मेरी प्रार्थना है कि वे बिलकुल चुपचाप खड़े होकर देखते रहेंगे, जरा बात नहीं करेंगे। देखें मजे से, आराम से बैठ जाएं, लेकिन बात बिलकुल नहीं करें ताकि यहां बाधा न पड़े।
अब आप लोग अपनी-अपनी जगह खड़े हो जाएं, थोड़े फैल जाएं।
बातचीत न करें। वातावरण को खराब न करें। चुपचाप खड़े हो जाएं। आपके खड़े होने से बातचीत का क्या संबंध? चुपचाप अपनी-अपनी जगह खोज लें, थोड़ा फासला कर लें। क्योंकि लोग कूदेंगे, नाचेंगे, तो उनको जगह रहे। और जिनको जोर से तेजी से कूदना है, वे थोड़ा भीड़ के बाहर खड़े हों। किसी को भी बीच में कपड़े अलग करने का खयाल आ जाए तो संकोच की जरूरत नहीं है, चुपचाप अलग कर दें। पहले ही किसी को खयाल हो कि उसे सुविधा होती है कपड़ा अलग करने में, वह पहले ही अलग कर दे सकता है। बीच में भी खयाल आ जाए, चुपचाप कपड़े उतार कर रख दें, उसकी चिंता न करें।
ठीक है, मैं मान लूं कि आपने अपनी जगह देख ली, आपके आस-पास जगह थोड़ी है ऐसा खयाल रख कर खड़े हों। क्योंकि यह प्रयोग तो बहुत तीव्र है। और बहुत तीव्रता से परिणाम होंगे। इसलिए जगह बना कर खड़े हों।
देखें, यहां पीछे जो लोग खड़े हैं बातचीत नहीं चलेगी। देखें, जो लोग देखने आ गए हैं, वे मजे से देखें। अपनी जगह पर खड़े रहें या बैठ जाएं, लेकिन बातचीत बिलकुल न करें, जिससे ध्यान करने वालों को कोई बाधा न हो। इतनी भर कृपा करें।
आंख बंद कर लें। आंख बंद कर लें। यह आंख चालीस मिनट के लिए बंद होती है। अब चालीस मिनट तक आंख नहीं खोलनी है। संकल्पपूर्वक आंख बंद रखनी है। जब तक मैं न कहूं तब तक आंख नहीं खोलनी है।
दोनों हाथ जोड़ लें। परमात्मा को साक्षी रख कर संकल्प कर लें। चारों तरफ वह मौजूद है। संकल्प करें। मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा। मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा। मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा।
अब शुरू करें। तीव्र और गहरी श्वास शुरू करें।
जोर से, जोर से, जोर से, गहरी और तेज।...जोर से, जोर से, पूरी ताकत लगानी है। फेफड़ों को खाली कर देना है, सारी श्वास बाहर-भीतर, बाहर-भीतर, जैसे लुहार की धौंकनी चलती है, ऐसी ताकत से पूरी तरह खाली कर डालें। शरीर की शक्ति जागनी शुरू हो जाएगी, भीतर विद्युत फैलने लगेगी। शरीर डोलने-नाचने लगेगा, नाचने दें। आप पूरी ताकत श्वास पर लगाएं। जो भी हो रहा है होने दें, आप श्वास पर पूरी ताकत लगाएं। देखें, चूकें न, पूरी ताकत से फेफड़ों को ताजा कर लें। सब बाहर फेंक दें। सब कचरा बाहर कर दें।....
जोर से, जोर से, जोर से, गहरी श्वास, तेज श्वास।...जोर से, जोर से, गहरी श्वास, गहरी श्वास, पूरी शक्ति लगा दें।...
पांच मिनट बचे हैं, पूरी शक्ति लगाएं। अपने को बिलकुल बदल डालें। पूरी शक्ति जागेगी, उसे जागने दें। देखें, पीछे न रहें। कोई पीछे न रह जाए। अपनी तरफ खयाल करें, पूरी शक्ति लगाएं। गहरी, गहरी, गहरी, डोलने दें शरीर को, नाचने दें शरीर को। गहरी, गहरी और गहरी श्वास। गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, तेज और गहरी।...
जोर से, जोर से, दो मिनट बचे हैं, पूरी शक्ति लगाएं, फिर हम दूसरे चरण में प्रवेश करेंगे। जो पूरी शक्ति लगाएगा वही दूसरे में जा भी सकेगा। दो मिनट के लिए अपने को पूरा दांव पर लगा दें। श्वास, श्वास, श्वास ही श्वास रह जाए। इस श्वास के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है जगत में बस, बाहर-भीतर, बाहर-भीतर, श्वास ही श्वास। शक्ति जागेगी, शरीर डोलेगा, कांपेगा, नाचेगा, उसकी फिक्र न करें, रोकें न। गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास।...गहरी श्वास, जोर से, जोर से।...
एक मिनट बचा है, मैं जब कहूं एक, दो, तीन, तो पूरी ताकत लगा देनी है। एक, लगाएं, पूरी ताकत लगाएं।...दो, पूरी ताकत लगाएं।...तीन, एक मिनट के लिए अब पूरी ताकत लगा दें।...
बिलकुल ठीक, बिलकुल ठीक, थोड़ा और--लगाएं, पूरी ताकत लगाएं। कुछ सेकेंड हैं, पूरी ताकत लगाएं, फिर हम दूसरे चरण में प्रवेश करेंगे।...बिलकुल ठीक, कुछ सेकेंड और--पूरी ताकत।...
अब दूसरे चरण में प्रवेश करें, शरीर को जो होता है होने दें। अब दूसरे चरण में प्रवेश करें, नाचें, डोलें, चिल्लाएं, रोएं, हंसें, जो भी करना है पूरी ताकत से करें। शुरू करें, दस मिनट के लिए नाचें, दिल खोल कर नाचें।...
जोर से, जोर से, नाचें--पूरी ताकत लगाएं; हंसें, जोर से हंसें; चिल्लाना है, जोर से चिल्लाएं, शरीर को को-आपरेट करें, पूरा साथ दें। नाचें, नाचें, नाचें, हंसें, रोएं, चिल्लाएं।...
नाचें, नाचें, नाचें। जोर से, आनंद से नाचें, पूरे आनंद भाव से नाचेंहंसें, रोएं, चिल्लाएं, जो भी हो रहा है पूरे आनंद भाव से करें। कमी न करें, कंजूसी न करें, पूरी ताकत से करें। आनंद से, आनंद से, नाचें, नाचें, नाचें।...
जोर से, जोर से, जोर से, पांच मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगा कर नाच लें, सब गिर जाने दें, मन में जो भी है। पूरी ताकत से नाचेंहंसें, रोएं, चिल्लाएं, तीव्रता से और शरीर को जो भी हो रहा है पूरी ताकत से करें। नाचें, नाचें, नाचें, जोर से। कोई खड़ा न रह जाए, पूरी ताकत लगाएं, अपनी जगह पर ही लेकिन--दूसरी जगह पर न जाएं। पूरे जोर से।...
जोर से, जोर से, बिलकुल थका डालें, बिलकुल थका डालें। अब दो ही मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं, फिर हम तीसरे चरण में प्रवेश करेंगे। नाचें, दिल खोल कर रोएं, हंसें, चिल्लाएं।...
जोर से, जोर से; चिल्लाना है, जोर से चिल्लाएं; हंसना है, जोर से हंसें; नाचना है, जोर से नाचें। जोर से, जोर से, दिल खोल कर पूरा खाली कर लें, जो भी हो रहा है होने दें। बिलकुल ठीक, बिलकुल ठीक, और जोर से, और जोर से, नाचें, नाचें, नाचें।...
जोर से, जोर से, पूरी घाटी गूंज जाए। नाचें, चिल्लाएं, जोर से। कुछ सेकेंड बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं, पूरी ताकत लगा दें। नाचें, हंसें, चिल्लाएं, पूरी ताकत लगा दें।...बहुत ठीक, बहुत ठीक, कुछ सेकेंड और हैं, पूरी ताकत लगाएं।...
अब तीसरे चरण में प्रवेश करें, नाचना जारी रखें, भीतर पूछें, मैं कौन हूं? नाचना जारी रखें, भीतर पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? दस मिनट में मन को थका डालना है। पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? तूफान उठा दें। भीतर बिलकुल तूफान उठा दें। नाचें, पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? एक ही सवाल भीतर, नाचें, और पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूछें, पूछें, भीतर और गहरे और गहरे और गहरे, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूछें। पांच मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
नाचें, नाचें, पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? यह पूरी घाटी गूंजने लगे एक ही सवाल से, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? कोई फिकर नहीं, बाहर आवाज निकल जाए निकल जाने दें। पूछें, मैं कौन हूं?...
पूछें, पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? नाचते रहें, नाचते रहें, कूदते रहें, पूछें, मैं कौन हूं? बाहर आवाज निकल जाए कोई फिकर नहीं।...
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूछें, थोड़ा ही समय और बचा है। तीन मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं, फिर हम विश्राम में चले जाएंगे। थका डालें अपने को, पूरी तरह थका डालें। नाचें, चिल्लाएं, पूछें, मैं कौन हूं?...
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? दो मिनट बचे हैं--पूरी ताकत लगाएं। मैं जब कहूं एक, दो, तीन तब पूरी शक्ति से कूद पड़ें। मैं कौन हूं? नाचें, नाचें, नाचें, मैं कौन हूं? चिल्लाएं, पूछें, मैं कौन हूं? नाचें, पूछें, मैं कौन हूं?...
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? एक मिनट बचा है, पूछें, जोर से पूछें, नाचें और पूछें, मैं कौन हूं? एक, पूरी ताकत लगा दें। दो, पूरी ताकत लगा दें। तीन, पूरी ताकत लगा दें। दिल खोल कर चिल्लाएं और पूछें, मैं कौन हूं?...
नाचें, कुछ सेकेंड जोर से नाचें और चिल्लाएं, मैं कौन हूं?...
नाचें, नाचें और पूछें, मैं कौन हूं? जोर से पूछें, मैं कौन हूं?...
बस! अब रुक जाएं। ठहर जाएं। अब सब छोड़ दें, नाचना छोड़ दें, पूछना छोड़ दें। अब बिलकुल दस मिनट के लिए विश्राम में पड़ जाएं। दस मिनट के लिए अब सब छोड़ दें--नाचें भी नहीं, पूछें भी नहीं, शांत पड़े रहें--दस मिनट के लिए मौन में डूब जाएं। जैसे बूंद सागर में खो जाती है ऐसे खो जाएं। चारों ओर वही परमात्मा है, उसके साथ एक हो जाएं। जैसे मिट गए, जैसे मर गए, जैसे समाप्त हो गए। अब वही बचा, परमात्मा के सिवाय और कुछ भी नहीं है। हम तो नहीं हैं।...
परमात्मा ही परमात्मा है। चारों ओर वही है, स्मरण करें, बाहर भी वही भीतर भी वही, आती श्वास भी उसकी जाती श्वास भी उसकी। चारों ओर परमात्मा के सिवाय और कुछ भी नहीं है। स्मरण करें, स्मरण करें, प्रकाश ही प्रकाश शेष रह गया है, आनंद ही आनंद शेष रह गया है, रोआं-रोआं आनंद से भर गया है। भीतर प्रकाश ही प्रकाश भर गया है। अमृत की वर्षा हो रही है, डूब जाएं, नहा लें, परमात्मा के सिवाय और कोई नहीं है। स्मरण करें, स्मरण करें, पहचानें, हम तो मिट ही गए परमात्मा ही शेष रह गया।...
आनंद ही आनंद, प्रकाश ही प्रकाश, अमृत ही अमृत। खो गई बूंद सागर में, खो गई बूंद सागर में, वही रह गया, वही है, परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। पहचानें, पहचानें, स्मरण करें, परमात्मा ही परमात्मा, चारों ओर वही है। वृक्षों में वही, आकाश में वही, भीतर वही, बाहर वही। स्मरण करें, स्मरण करें, स्मरण करें।...
आनंद ही आनंद, प्रकाश ही प्रकाश, डूब जाएं, डूब जाएं, खो जाएं, खो जाएं, बिलकुल खो जाएं, बूंद सागर में गिर गई।...
परमात्मा के अतिरिक्त और कोई नहीं है। वही है, चारों ओर वही है, सब कुछ वही है, स्मरण करें, स्मरण करें, पहचानें। आनंद ही आनंद, प्रकाश ही प्रकाश।...
सब शांत हो गया, भीतर आनंद के झरने फूट रहे हैं। सब अंधकार मिट गया, भीतर प्रकाश ही प्रकाश शेष रह गया। सब आकार मिट गए, निराकार ही मौजूद रह गया। पहचानें, पहचानें, सब रूप खो गया, अरूप ही शेष रह गया। स्मरण करें, स्मरण करें।...
अब दोनों हाथ जोड़ लें, परमात्मा को धन्यवाद दे दें। दोनों हाथ जोड़ लें, सिर झुका लें, उसके अज्ञात चरणों में गिर जाएं, समर्पित हो जाएं। धन्यवाद दे दें।
उसकी अनुकंपा अपार है। प्रभु की अनुकंपा अपार है। प्रभु की अनुकंपा अपार है। जोड़े रहें हाथ। झुकाए रहें सिर। उसकी अनुकंपा अपार है। प्रभु की अनुकंपा अपार है।
देखें, देखने वाले चुपचाप खड़े रहें, बातचीत न करें।
उसकी अनुकंपा अपार है। प्रभु की अनुकंपा अपार है। अब दोनों हाथ नीचे गिरा लें। धीरे-धीरे आंख खोलें। आंख न खुलती हो तो दोनों हाथ आंख पर रख लें, फिर धीरे-धीरे आंख खोलें। उठते न बने तो दो-चार गहरी श्वास लें, फिर धीरे-धीरे उठ आएं।
जो पड़े रह जाएं और पड़े रहना चाहें थोड़ी देर, उन्हें कोई दूसरा न उठाए। और जो लोग कैम्पस में उठ गए हैं ध्यान के बाहर, वे धीरे-धीरे चले जाएंगे। किसी को बैठे रहना है, पड़े रहना है, वह पड़ा रहे। छह बजे उन्हें उठा दिया जाएगा। बाकी जो लोग उठ गए हैं, धीरे-धीरे जाएं।
ध्यान की हमारी बैठक पूरी हो गई।


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