क्षण-क्षण
जीने के महाप्रतीक
कृष्ण—(प्रवचन—आठवां)
दिनांक
29 सितंबर, 1970;
प्रात:, मनाली (कुल्लू)
"भगवान
श्री, कृष्ण
के बाल्यकाल
की तथा अन्य
इतनी कथाएं हैं--जैसे
चाणूर
तथा मुष्टिक
नाम के
पहलवानों को पछाड़ना; कंस-वध; कालिया-मर्दन;
कीर्ति, अघ,
बक, घोटक,
पूतना आदि
असुरों का नाश;
दावानल को
पी जाना; इत्यादि-इत्यादि।
तो, क्या
ये सब सत्य
कथाएं हैं, या प्रतीक
हैं? और
इनमें से
कौन-कौन सी लक्षणाएं
और प्रतीक
हैं। साथ ही, गीता के वचन
"विनाशाय
च दुष्कृताम्'
से आप अर्थ
लेते हैं कि
दुष्टों का
परिवर्तन करते
हैं, उनका
सुधार करते
हैं। लेकिन
कृष्ण ने
उपरोक्त दुष्टों
का वध क्यों
किया और कराया?'
इस
संबंध में एक
बात तो सबसे
पहले यह समझनी
जरूरी है, जो
कि सदा से ही
लोगों को उलझन
में डालती रही
है; छोटा-सा
बच्चा है
कृष्ण, इतने
शक्तिशाली
लोगों को हरा
कैसे सकेगा? लोगों के
पास एक ही
उपाय था इस
पहेली को हल
करने का।
और
वह उपाय यह था
कि वह कृष्ण
को भगवान मान
लें, परम
शक्तिवान मान
लें। फिर सारी
पहेलियां
हल हो जाती
हैं। लेकिन
इसका भी मतलब
गहरे में यही
हुआ कि छोटी
शक्ति पर बड़ी
शक्ति विजय पा
जाती है। कोई
राक्षस है, कोई
शक्तिशाली
पहलवान है, कृष्ण दिखाई
पड़ते हैं छोटे,
लेकिन वे महाशक्तिवान
हैं। लेकिन
मेरा मानना है
कि इस तरह की
व्याख्या ने
कृष्ण के
व्यक्तित्व
को समझा ही
नहीं। इस तरह
की जो
व्याख्या है,
वह मूलतः
गलत, भ्रांत
है। क्योंकि
उसमें जो आधार
में बात है, वह यही है कि
बड़ी शक्ति
छोटी पर जीत जाती
है। मैं कुछ
और कहना
चाहूंगा, उसे
समझना जरूरी
होगा।
इस जगत
में जो जीतना
नहीं चाहता, वह
जीत जाता है
और जो जीतना
चाहता है, वह
हार जाता है।
इन सारी कथाओं
में मेरे लिए
अर्थ ऐसा
है--जो जीतना
नहीं चाहता, वह जीत जाता
है, जो
जीतना चाहता
है, वह हार
जाता है। असल
में जीतने की
चाह में ही
बहुत गहरे में
हार छिपी है।
और जो जीतना
नहीं चाहता, इस भाव में
ही वह जीता ही
हुआ है यह भाव
छिपा है। इसे
ऐसा समझें अगर
कि जो आदमी
जीतना चाहता है,
वह गहरे में
"इनफीरिऑरिटी
कांप्लेक्स'
से पीड़ित
है। जो आदमी
जीतना चाहता
है, वह हीनभाव
से पीड़ित है।
वह जानता तो
है कि हीन है, जीतकर सिद्ध
करना चाहता है
कि हीन नहीं
है। जो आदमी
जीतने के लिए
आतुर ही नहीं
है, वह
अपनी
श्रेष्ठता
में
प्रतिष्ठित
है। उसे कहीं
कोई हीनता ही
नहीं है जिसे
असिद्ध करने
के लिए जीत
अनिवार्य हो।
इसे
अगर हम "ताओ' से
समझेंगे तो
बहुत आसानी हो
जाएगी।
लाओत्से
ने एक दिन
अपने मित्रों
को कहा है कि मुझे
जिंदगी में
कोई हरा नहीं
सका। तो एक
व्यक्ति ने
उससे खड़े होकर
पूछा कि वह
राज हमें भी बताओ, वह
"सीक्रेट', क्योंकि
जीतना तो हम
भी चाहते हैं
और हम भी चाहते
हैं कि कोई
हमें हरा न
सके। लाओत्से
हंसने लगा, उसने कहा कि
फिर तुम न समझ
सकोगे उस राज
को। क्योंकि
तुमने पूरी
बात भी न सुनी
और बीच में ही पूछ
बैठे। मैंने
कहा था, मुझे
जिंदगी में
कोई हरा न
सका...पूरा
वाक्य तो कर
लेने दो।
लाओत्से ने
पूरा वाक्य
किया, उसने
कहा, मुझे
जिंदगी में
कोई हरा न सका,
क्योंकि
मैं हारा ही
हुआ था। मैं
पहले से ही
हारा हुआ था।
मुझे जीतना
मुश्किल था, क्योंकि
मैंने जीतना
ही नहीं चाहा
था। तो उसने
उन लोगों से
कहा कि तुम
अगर सोचते हो
कि तुम मरे
राज को समझ
जाओगे, तो
गलती में हो।
तुम जीतने की
आकांक्षा
करते हो, वही
तुम्हारी हार
बन जाएगी।
सफलता की
आकांक्षा ही
अंत में
असफलता बनती
है, और
जीवन की अति
आकांक्षा ही
अंत में
मृत्यु बन
जाती है, स्वस्थ
होने का
पागलपन ही
बीमारी में ले
जाता है।
जिंदगी बहुत
अदभुत है।
यहां हम जिस
चीज को बहुत
जोर से मांगते
हैं, उसी
को खो देते
हैं। जिस चीज
को हम मांगते
नहीं, वह
मिल जाती है।
असल में हम
मांगते नहीं,
इसका मतलब
ही यही है कि
वह मिली ही
हुई है।
कृष्ण
बड़े
शक्तिशाली
हैं इसलिए जीत
जाते हैं, ऐसा
मैं न कहूंगा,
क्योंकि यह
तो फिर वही
शक्ति का
पुराना कानून हुआ
कि छोटी मछली
को बड़ी मछली
खा जाती है, इसमें कृष्ण
की कोई विशेषता
न होगी। अगर
राक्षस बड़े
शक्तिशाली होते
तो वे जीत
जाते। यह तो
फिर गणित हुआ
शक्ति का। यह
तो गणित हुआ
तराजू पर वजन
का कि जहां वजन
ज्यादा था, वहां नीचे
बैठ जाएगा।
इसमें कृष्ण
की कोई बड़ी जीत
नहीं है।
लेकिन जिन
लोगों ने भी
आज तक कृष्ण
की जीत की
व्याख्या की
है, वह इसी
तरह सोच सके।
क्योंकि उनके
पास एक ही गणित
है।
जीसस
का एक वचन है, "ब्लेसेड आर द मीक,
बिकाज़ दे शैल इनहेरिट
द अर्थ'।
धन्य हैं
विनम्र, क्योंकि
पृथ्वी का
राज्य उन्हीं
का होगा। बड़ी
उलटी बात है।
धन्य हैं
विनम्र
क्योंकि पृथ्वी
के मालिक वे
ही होंगे। कृष्ण
जीतने को
बिलकुल आतुर
ही नहीं हैं।
बच्चे जीतने
को आतुर होते
भी नहीं, सिर्फ
खेलने को आतुर
होते हैं। जीत
बड़े बाद में
आती है, जब
चित्त बड़े
बीमार हो जाते
हैं, रुग्ण
हो जाते हैं।
कृष्ण तो खेल
रहे हैं। वह बड़े
राक्षसों से
लड़ रहे हैं, तब भी खेल
में हैं।
राक्षस जीतने
के लिए आतुर
हैं, और एक
विनम्र बच्चे
से, जिसे
जीतने का कोई
खयाल ही नहीं।
जो अभी खेल रहा
है। जो एकदम
मासूम और
नाजुक है।
उससे वे राक्षस
हार जाते हैं।
हार जाएंगे।
जापान
में एक कला है, जिसका
नाम है, जूडो। या दूसरा
है, जिजुत्सू। इस कला के
संबंध में दोत्तीन
बातें खयाल
में ले लें तो
बड़ा अच्छा
होगा। जूडो
कुश्ती की कला
है, लेकिन
उसका राज बड़ा
उलटा है। जूडो
की कला जो
सीखता है लड़ने
के लिए, उसके
नियम हमारी
लड़ाई के नियम
से बिलकुल
उलटे हैं। अगर
मैं आपसे लडूं,
तो मैं आप
पर चोट
करूंगा। आप
चोट का बचाव
करेंगे। आप
मुझ पर चोट
करेंगे, मैं
चोट का बचाव
करूंगा। यह
साधारण लड़ने
का नियम है। जूडो का
नियम उलटा है।
जूडो का
नियम यह है कि
मैं आप पर
हमला कभी न
करूं, जिसने
हमला किया है
वह हार जाएगा;
क्योंकि
हमले में
शक्ति व्यय
होती है। मैं
हमले को उकसाऊं,
दूसरे को
प्रेरित करूं
कि वह हमला
करे। और मैं
बिलकुल "एट ईज़', अपने
में रहूं, मैं
जरा भी हिलूं-डुलूं
भी नहीं। मैं
कुछ करूं ही
नहीं, मैं
सिर्फ दूसरे
को उकसाऊं
कि वह हमला
करे। मैं उसे
क्रोधित करूं,
मैं उसे भड़काऊं,
मैं उसे जलाऊं
और मैं शांत
रहूं। और जब
वह हमला करे
तो मैं "रेज़िस्ट'
न करूं। जब वह
मेरे ऊपर चोट
करे, घूंसा
मारे, तो
मैं उसके
घूंसे के
विरोध में
अपने शरीर को अकड़ाऊं न।
शरीर को ढीला
और "रिलेक्स'
छोड़ दूं कि
उसको घूंसा
मेरा शरीर पी
जाए।
कभी
आपको खयाल है
कि एक शराबी
के साथ बैठ
जाएं एक बैलगाड़ी
में और बैलगाड़ी
उलट जाए
रास्ते में, तो
आपको चोट लगेगी,
शराबी को
नहीं लगेगी।
कभी सोचा कि
राज क्या है? शराबी
ज्यादा
ताकतवर है, इसलिए चोट
नहीं लगी? आप
कमजोर हैं, इसलिए चोट
लग गई? नहीं,
जब गाड़ी
उलटी तो आप
होश में हैं।
गाड़ी के उलटते
ही आपको लगा
कि अब चोट
लगेगी, अब
मैं बचूं। और
आप सख्त हो गए,
"स्ट्रेन्ड'
हो गए; आपकी
नसें, आपकी
हड्डियां सब
मजबूती से
जमीन के खिलाफ
खड़ी हो गईं
बचाव के लिए।
आप कड़े हो
गए। शराबी को
पता ही नहीं
है कि गाड़ी
उलट गई। या
गाड़ी पहले से
ही उलटी हुई
थी उनके लिए, उसमें कोई
खास फर्क नहीं
है। वह गिर गए,
वह गिरने के
साथ "को-ऑपरेट'
किए।
उन्होंने गिरने
के साथ सहयोग
किया--वह जमीन
के खिलाफ अकड़े
नहीं, जमीन
के साथ एक हो
गए। तो शराबी
जब गिरता है
तो वह बोरे की
तरह गिरता है।
इसलिए शराबी
रोज रात गिरते
हैं, चोटें
नहीं खाते। आप
उतने गिरें
तो पता चल
जाए। बच्चे
रोज गिरते हैं,
हड्डियां
नहीं टूटती
हैं। आप उतने गिरें तो
एक ही दिन में
सब नष्ट हो
जाए। क्या बात
है? बच्चे
की ताकत
ज्यादा है कि
बच्चा गिरता
है, हड्डी
नहीं टूटती? नहीं, बच्चा
गिरने के साथ
भी एक हो जाता
है। विरोध नहीं
करता गिरने
का। गिरने में
भी साथ देता
है। गिरते
वक्त भी राजी
होता है। "एक्सेप्टिबिलिटी'
है गिरते
वक्त।
तो जूडो
की कला कहती
है कि जब
तुम्हें कोई
मारे, तब तुम
राजी हो जाओ पिटने को, और जरा भी
कहीं भीतर से
विरोध न करना।
बड़ी कठिन कला
है। राजी हो
जाना, पी
जाना उसके
घूंसे को। तो
एक तो खुद
हमला मत करना,
क्योंकि
हमले में
शक्ति व्यय
होती है। और
जब कोई दूसरा
घूंसा मारे, तो उसके
घूंसे को भी
पी जाना, तो
उसकी शक्ति भी
तुम्हें मिल
जाती है। और
इसलिए जूडो
में बड़ा
पहलवान हार
सकता है और
कमजोर आदमी जीत
सकता है। जीत
जाता है।
मैं
ऐसा नहीं कह
रहा हूं कि
कृष्ण जूडो
जानते थे। सभी
बच्चे जूडो
जानते ही हैं।
वही उनकी
जिंदगी का राज
है,
बच्चे की
जिंदगी का।
कृष्ण जीत सके
अगर--सभी कथाएं
ऐतिहासिक हैं,
यह मैं नहीं
कह रहा हूं; मैं तो उसके
भीतर जो
मनोवैज्ञानिक
सत्य है उसकी
बात कर रहा
हूं--कृष्ण
अगर जीत सके, तो खेल था
उनके लिए, अभिनय
था। मौज थी, मजा था। हमलेवर
वे न थे, जीतने
किसी को निकले
न थे। कोई
दूसरा जीतने
आया था। और
मैं मानता हूं
कि कृष्ण जैसे
बच्चे पर अगर
किसी पहलवान
ने हमला किया,
तो हम कह
सकते हैं कि
यह पहलवान हार
जाएगा। क्योंकि
जो बच्चे पर
हमला करने गया
है, वह
भीतर से बड़ा
हारा हुआ आदमी
होना चाहिए।
बहुत, उसके
भीतर बहुत "कांफिडेंस'
होना नहीं
चाहिए। उसके
भीतर
आत्मविश्वास
बिलकुल नहीं
है। एक
छोटे-से बच्चे
पर इतना बड़ा पहलवान
हमला करने गया
है, यही इस
बात की सूचना
है कि यह
हारेगा। यह
हार ही चुका
है। इसको लड़ने
की कोई जरूरत
नहीं थी। इसको
पहले ही मान
लेना था कि
हार चुका है।
हम सदा हमला
जब करते हैं
किसी पर, हमला
करने को
उत्सुक होते
हैं जब किसी
पर, तब
बहुत गहरे में
हमने उससे
अपनी हीनता
स्वीकार कर
ली। असल में
जो श्रेष्ठ
हैं वे किसी
पर हमला करते
ही नहीं, क्योंकि
ऐसा कोई आदमी
नहीं दिखाई
पड़ता जिससे वे
हीन हैं और
हमला करें।
हमले की कोई
जरूरत नहीं होती।
भीतर की हीनता
का कीड़ा हमला
करवा देता है।
कृष्ण
का कमजोर होना, बालक
होना, कृष्ण
का लड़ने के
लिए आतुर न
होना, कृष्ण
का किसी पर
जीतने के लिए
आकांक्षी न
होना ही राज
है। घटनाएं
ऐतिहासिक हैं
या नहीं, यह
मुझे मतलब
नहीं, लेकिन
जूडो की
पूरी-की-पूरी "फिलासफी', जुजुत्सू की
पूरी-की-पूरी
कला कृष्ण की
जिंदगी में
शुरू होती है।
मैं तो कहूंगा
कि कृष्ण जो
हैं वह जुजुत्सू
के पहले
मास्टर हैं। न
तो किसी को
जापान में पता
है, न किसी
को चीन में
पता है, न
किसी को
हिंदुस्तान
में पता है कि
इस आदमी के
सारी विजय का
राज क्या है।
इस आदमी के
विजय का राज
ही यही है कि
यह विजय करना ही
नहीं चाहता, इसे खेल है
सब। उस खेल
में यह तल्लीन
हो जाता है।
दूसरा
तनावग्रस्त
है, दूसरा
चिंतित है, जीने को
आतुर है, परेशान
है, वह
अपने भीतर
बंटा और कटा
हुआ है, टूट
रहा है, अपने-आप
हार जाएगा।
बच्चे को
हराना मुश्किल
है, यही
अर्थ है।
"भगवान
श्री, यशोदा
को मुख में
ब्रह्मांड का
दर्शन कराना और
अर्जुन को
युद्ध में
विश्वरूप का
दर्शन कराना,
इन दोनों
घटना विशेष का
आप तात्पर्य
बतलाएं और यह
भी बताएं कि
क्या
दिव्य-दृष्टि
देकर वापस भी
ली जा सकती है,
जैसा कि
कृष्ण ने अर्जुन
को देकर वापस
ले ली थी?'
आंखें
नहीं हैं
हमारे पास, अन्यथा
सब जगह हमें
विराट का
दर्शन हो जाए।
आंखें नहीं
हैं हमारे पास,
अन्यथा सभी
जगह
ब्रह्मांड
है। कृष्ण तो
सिर्फ
निमित्त हैं।
यशोदा को
दिखाई पड़ सहता
है ब्रह्मांड
उनके मुख में।
ऐसे भी किस
मां को अपने बेटे
के मुख में
ब्रह्मांड
नहीं दिखाई
पड़ता है! ऐसे
भी किस मां को
अपने बेटे में
ब्रह्म नहीं
दिखाई पड़ता!
खो जाता है
धीरे-धीरे, यह बात
दूसरी। लेकिन,
पहले तो
दिखाई पड़ता
है! यशोदा को
दिखाई पड़ सका कृष्ण
के मुंह में
विराट, ब्रह्म,
ब्रह्मांड,
सभी मां को
दिखाई पड़ता है।
लेकिन यशोदा
पूरे अर्थों
में मां थी, इसलिए पूरी
तरह दिखाई पड़
सका है। और, कृष्ण पूरे
अर्थों में
बेटा था, इसलिए
निमित्त बन
सका। इसमें
कुछ "मिकरेल'
नहीं है।
इसमें कोई
चमत्कार नहीं
है। अगर आप प्रेम
से मुझे भी
देख सकें, तो
ब्रह्मांड
दिखाई पड़ सकता
है। देखने वाली
आंखें चाहिए,
एक। और
योग्य
निमित्त
चाहिए। एक
छोटे-से फूल में
दिख सकता है
सारा जगत। है
भी छिपा। यहां
अणु-अणु में
विराट छिपा
है। एक
छोटी-सी बूंद
में पूरा सागर
छिपा है। एक
बूंद को कोई
पूरा देख ले
तो पूरा सागर
दिख जाएगा।
अर्जुन
को भी दिखाई
पड़ सका, वह भी
कुछ कम प्रेम
में न था
कृष्ण के। ऐसी
मैत्री कम घटित
होती है
पृथ्वी पर, जैसी वह
मैत्री थी। उस
मैत्री के
क्षण में अगर
कृष्ण
निमित्त बन गए
और अर्जुन को
दिखाई पड़ सका,
तो कुछ
आश्चर्य नहीं
है, न कोई
चमत्कार है।
और ऐसा नहीं
है कि एक ही
बार ऐसा हुआ
है, ऐसा
हजारों बार हुआ
है। उल्लेख
नहीं होता है,
यह बात
दूसरी है; संगृहीत
नहीं होता है,
यह बात
दूसरी है।
यह
जरूर समझने
जैसा है कि
क्या दी गई
दिव्य-दृष्टि
वापस ली जा
सकती है?
न तो
दिव्य-दृष्टि
दी जा सकती है, और
न वापस ली जा
सकती है। किसी
क्षण में
दिव्य-दृष्टि
घटित होती है
और खो सकती
है।
दिव्य-दृष्टि
एक "हैपेनिंग'
है। किसी
क्षण में आप
अपनी चेतना के
उस शिखर को छू
लेते हैं, जहां
से सब साफ
दिखाई पड़ता
है। लेकिन उस
शिखर पर जीना
बड़ा कठिन है।
जन्म-जन्म लग
जाते हैं उस
शिखर पर जीने
के लिए। उस
शिखर से वापिस
लौट जाना पड़ता
है। जैसे जमीन
से आप छलांग
लगाएं, तो
एक क्षण को
जमीन के "ग्रेवीटेशन'
के बाहर हो
जाते हैं।
खुले आकाश में,
मुक्त
पक्षियों की
तरह हो जाते
हैं। एक क्षण
के लिए। लेकिन
बीता नहीं
क्षण कि आप
जमीन पर वापिस
हैं। एक क्षण
को पक्षी होना
आपने जाना। ठीक
ऐसे ही चेतना
का "ग्रेवीटेशन'
है, चेतना
की अपनी कशिश
है, चेतना
के अपने
चुंबकीय
तत्त्व हैं जो
उसे नीचे पकड़े
हुए हैं। किसी
क्षण में, किसी
अवसर में, किसी
"सिचुएशन' में
आप इतनी छलांग
ले पाते हैं
कि आपको विराट
दिखाई पड़ जाता
है--एक क्षण
को। जैसे
बिजली कौंध गई
हो। फिर आप
वापिस जमीन पर
आ जाते हैं। निश्चित
ही अब आप वही
नहीं होते जो
इस दर्शन के
पहले थे। हो
भी नहीं सकते।
क्योंकि एक
क्षण को भी
अगर इस विराट
को देख लिया, तो अब आप वही
नहीं हो सकते
जो पहले थे।
आप दूसरे हो
गए। लेकिन वह
जो दिखा था, वह खो गया।
जैसे
रात अंधेरी है
और बिजली कौंध
जाए। एक क्षण
को फूल दिखाई
पड़ें, पहाड़
दिखाई पड़ें और
खो जाएं, फिर
घना अंधकार हो
जाए। लेकिन अब
मैं वही नहीं
हूं, जो
पहले अंधकार
में था। पहले
तो मुझे पता
भी नहीं था कि
पहाड़ भी हैं, वृक्ष भी
हैं, फूल
भी हैं। अब
मुझे पता है।
अंधकार घना
है। लेकिन अब
उन फूलों को
अंधकार मुझसे
छीन नहीं
सकता। अब उन
पहाड़ों को
अंधकार मुझसे
छीन नहीं
सकता। वे
मैंने जान लिए,
अब वे मेरे
हिस्से हो गए
हैं। अब मैं
जानता हूं, चाहे देखूं
और चाहे न देखूं;
चाहे पता
चले, चाहे
पता न चले; लेकिन
बहुत गहरे में
मैं जानता हूं,
चाहे देखूं
और चाहे न देखूं;
चाहे पता
चले, चाहे
पता न चले; लेकिन
बहुत गहरे में
मैं जानता हूं
कि पहाड़ हैं, वृक्ष हैं, फूल हैं।
उनकी अज्ञात सुगंधें
मुझे छुएंगी,
उनकी
अज्ञात हवाओं
में मुझे
संदेश
मिलेगा। अंधकार
उन्हें छिपा
सकता है, अब
लेकिन मुझसे
मिटा नहीं
सकता।
दिव्य-दृष्टि
कोई देता
नहीं। लेकिन
कृष्ण कहते
मालूम पड़ते
हैं कि मैं
तुझे
दिव्य-दृष्टि
देता हूं।
इससे कठिनाई
पैदा होती है।
असल में आदमी
की भाषा बड़ी
उलझन से भरी
है। यहां हमें
ऐसे शब्दों के
प्रयोग करने
पड़ते हैं जो
कि वस्तुतः
जीवंत नहीं
हैं। यहां
हमें
देने-लेने की
बात बोलनी
पड़ती है। हम
अक्सर कहते
हैं कि मैं
फलां व्यक्ति
को प्रेम देता
हूं। लेकिन प्रेम
दिया जा सकता
है?
प्रेम कोई
वस्तु है, जो
दे देगा? प्रेम
घटित होता है,
दिया नहीं
जाता। लेकिन
भाषा ऐसा कहती
है कि मैं
प्रेम देता
हूं। मां कहती
है, मैं
बेटे को प्रेम
देती हूं।
किसी मां ने
बेटे को कभी
प्रेम दिया है?
प्रेम हुआ
है। "इट हैज़
हैपेंड', वह घटित हुआ
है, दिया
नहीं गया। ठीक
उसी तरह भाषा
की बात है, और
ज्यादा बात
नहीं है। न
कोई प्रेम
देता है, न
कोई लेता है।
प्रेम घटता
है। घट भी
सकता है, खो
भी सकता है। ऊंचाइयां
घटती हैं और
खो जाती हैं।
ऊंचाइयों पर
रहना मुश्किल
है। हिलेरी
और तेनसिंग
एवरेस्ट पर
गए। झंडा गाड़ा,
वापिस लौट
आए। एवरेस्ट
पर रहना
मुश्किल है। ऊंचाइयों
पर रहना
मुश्किल है।
लेकिन
एवरेस्ट पर
किसी दिन रहा
जा सकेगा, हम
इंतजाम कर
लेंगे--लौटना
नहीं होगा, रुक भी सकेंगे,
चेतना की
ऊंचाइयों पर
रुकना तो बहुत
मुश्किल होता
है। बहुत
मुश्किल हो
जाता है चेतना
की ऊंचाइयों
पर रुकना।
लेकिन, रुका
जाता है।
कृष्ण जैसे
व्यक्ति
रुकते हैं।
अर्जुन जैसे
व्यक्ति
छलांग लगाते
हैं, देखते
हैं, वापिस
लौट आते हैं।
यह घटना घटती
है, यह लेना-देना
नहीं है।
लेकिन हमारी
भाषा लेने-देने
में सोचती है।
इससे बहुत
कठिनाई होती
है। हम कहते
हैं, हमने
फलां व्यक्ति
को सहानुभूति
दी। सहानुभूति
कोई देता है? बस घटती है।
जो ठीक शब्द
है, वह यह
है कि कृष्ण
और अर्जुन के
बीच उस क्षण
में
दिव्य-दृष्टि
घटी। उसमें कृष्ण
निमित्त बने,
अर्जुन
छलांग लगाने
वाला बना।
लेकिन भाषा में
इसे कैसे
कहेंगे? भाषा
में इसे ऐसे
ही कहेंगे कि
दिव्य-दृष्टि
दी। जैसा
मैंने कहा कि
मैं यहां बैठा
हूं और अगर
मुझे पूरे
प्रेम से कोई
खुली आंख से
देख सके तो
कुछ घट सकता
है। लेकिन जब
आपको घटेगा तो
आप भी कहेंगे
कि आपने दिया।
लेकिन मैं
कहां देने
वाला हूं!
शायद भाषा में
कहना पड़े तो
मैं भी कहूं
कि मुझसे आपको
मिला। लेकिन
मुझसे क्या मिल
सकता है!
"केमिस्ट्री'
में शब्द है,
उसे समझना
चाहिए। वह है,
"केटेलेटिक एजेंट'।
"केटेलेटिक
एजेंट' उस
चीज को कहते
हैं जिसकी मौजूदगी
में कोई चीज
घट जाती है।
लेकिन वह कोई
भी भाग नहीं
लेता। जैसे कि,
उदाहरण के
लिए, हाइड्रोजन
और आक्सीजन को
अगर हमें
मिलाना हो और
पानी बनाना हो,
तो बीच में
विद्युत की
मौजूदगी
चाहिए। अगर बीच
में विद्युत
मौजूद न हो, तो
हाइड्रोजन
आक्सीजन
अलग-अलग
रहेंगे, मिल
न सकेंगे।
आकाश में भी
जो बिजली
चमकती है वह इसीलिए
चमकती है, अन्यथा
आकाश के
हाइड्रोजन और
आक्सीजन पानी
नहीं बन
सकेंगे। वह
बिजली की चमक
की वजह से पानी
बन जाता है
बादल। लेकिन
बड़ी खोज करके
भी यह पता
नहीं चलता है
कि बिजली का
कोई "कंट्रीब्यूशन'
है। कोई "कंट्रीब्यूशन'
नहीं है।
बिजली कुछ
करती नहीं।
आक्सीजन और हाइड्रोजन
को मिलाने के
लिए बिजली कुछ
भी नहीं करती।
बिजली से कुछ
भी नहीं जाता,
लेकिन
सिर्फ
मौजूदगी, "जस्ट प्रेज़ेंस',
उसकी
मौजूदगी भर
जरूरी है।
उसकी बिना
मौजूदगी के
नहीं होगा।
उसकी मौजूदगी
में हो जाएगा।
ऐसे "केमिस्ट्री'
में बहुत "केटेलेटिक
एजेंट' हैं
जिनकी
मौजूदगी
जरूरी है।
लेकिन सब तरफ
की नाप-जोख से
पता चलता है
कि उनसे कुछ
जाता नहीं, उनसे कुछ
खोता नहीं, उनसे कुछ
होता नहीं।
कृष्ण
जो हैं, वह "केटेलेटिक
एजेंट' हैं।
और जिनको हम
अब तक गुरु
समझते रहे हैं
वह बड़ी भ्रांति
है। दुनिया
में कोई गुरु
नहीं हैं, सिर्फ
"केटेलेटिक
एजेंट' हैं।
चेतना में भी
घटनाएं घट
सकती हैं किसी
की मौजूदगी
में, जो कि
बिना मौजूदगी
में शायद न घटें।
कृष्ण की
मौजूदगी में
घटना घटती है।
अर्जुन बेचारा
निश्चित ही
कहेगा कि आपने
मुझे दी। रामकृष्ण
की मौजूदगी
में
विवेकानंद
को कुछ
घटित होता है।
विवेकानंद
जरूर ही
कहेंगे कि
आपने मुझे
दिया। और
रामकृष्ण अगर
भाषा में, बहुत
झंझट में न पड़ना
चाहते हों तो
वह भी कहेंगे,
ठीक है।
भाषा की झंझट
में कभी लोग पड़ना भी
नहीं
चाहते...मेरे
जैसे लोगों को
छोड़कर। लेने-देने
से काम चल
जाता है।
लेकिन वह शब्द
उचित नहीं है,
"एप्रोपिएट'
नहीं है।
ठीक जगह पर
नहीं है। और
आदमी के पास दूसरा
कोई शब्द भी
नहीं है।
एक
चित्रकार से
पूछें, वानगाग से पूछें।
पूछें कि
तुमने यह जो
चित्र बनाया...तो
वानगाग
कहेगा, मैंने
बनाया नहीं है,
यह मुझसे
बना। मगर हम
कहेंगे, इससे
क्या फर्क
पड़ता है? फर्क
बहुत पड़ता है।
और हो सकता है
इस झंझट में वानगाग भी
न पड़े और वह
कहे कि हां, मैंने बनाया
है। क्योंकि
सारी दुनिया
ने देखा उसे
बनाते हुए। यह
कोई झूठी बात
नहीं है। गवाह
मिल जाएंगे कि
यह आदमी बना
रहा था। लेकिन
वानगाग
की अंतरात्मा
तो कहती है कि
मैंने बनाया
नहीं, मुझसे
बना। यह घटना
घटी। यह एक "हैपेनिंग'
है, यह "डूइंग' नहीं
है। यह मेरे
भीतर से हुआ।
यह मैंने नहीं
बनाया, यह
मुझसे बनवा
लिया गया। मैं
सिर्फ मौजूद
था, मैं
सिर्फ गवाह
था।
तो
दिव्य-दृष्टि
की जो घटना
घटी है कृष्ण-
अर्जुन के बीच, वह
एक बार नहीं, बहुत बार
घटी है। कभी
बुद्ध- मौगल्लान
के बीच घटी है,
कभी बुद्ध-सारिपुत्त
के बीच घटी है,
कभी
महावीर-गौतम
के बीच घटी है,
कभी जीसस और
ल्यूक के
बीच घटी है, कभी
रामकृष्ण-विवेकानंद
के बीच घटी है,
हजारों-लाखों
दफे घटी है।
वह चमत्कार
नहीं है। इस
जगत में
चमत्कार होते
ही नहीं।
अज्ञान नहीं
समझ पाता और
चमत्कार समझ
लेता है। सब
चमत्कार
अज्ञान से
पैदा होते
हैं। चमत्कार
हो ही नहीं
सकते। जो भी
हो रहा है, सब
सत्य है, सब
तथ्य है। इस
जगत में सब तथ्य
है, सब
सत्य है।
लेकिन जब हम
नहीं समझ पाते
तो चमत्कार हो
जाता है।
"क्या
दिव्य-दृष्टि घबराने
वाली होती है,
जैसी
अर्जुन को हुई
है?'
पूछा
जाता है कि
क्या
दिव्य-दृष्टि घबड़ाने
वाली होती है? जैसा
अर्जुन घबड़ा
गया था। घबड़ाने
वाली हो सकती
है। अगर पूर्व
तैयारी न हो, तो अचानक
पड़ा हुआ सुख
भी घबड़ा जाता
है। लाटरी मिल
जाए तो पता
चलता है।
गरीबी बहुत कम
लोगों की जान
ले पाती है, अमीरी एकदम
से टूट पड़े तो
आदमी मर ही
जाए।
मैं एक
कहानी निरंतर
कहता रहता हूं
कि एक आदमी को
लाटरी मिल गई।
उसकी पत्नी
बहुत घबड़ाई, क्योंकि
एकदम पांच लाख
रुपये मिल गए
थे। वह बहुत
डरी और उसने
सोचा कि पति
तो अभी दफ्तर
गया है--वह
किसी दफ्तर
में क्लर्क
है--वह लौटेगा,
पांच रुपये
भी मुश्किल से
मिलते हैं, पांच लाख!
पता नहीं झेल
पाएगा कि नहीं
झेल पाएगा। तो
पास में चर्च
था, वहां
गई और पादरी
से कहा कि मैं
बड़ी मुश्किल
में पड़ गई हूं,
पति लौटते
होंगे और आते
से ही एक बड़ी
खतरनाक खबर
देनी है कि
पांच लाख की
लाटरी मिल गई
है। कहीं ऐसा
न हो कि उनके
हृदय पर आघात
ज्यादा पड़ जाए।
उस पादरी ने
कहा, घबड़ाओ मत, मैं आ
जाता हूं।
पादरी
आकर बैठ गया।
उसकी पत्नी ने
कहा कि करेंगे
क्या? उसने
कहा कि इस सुख
को "इंस्टालमेंट'
में देना
पड़ेगा, टुकड़ों में देना
पड़ेगा। आने दो
पति को। मैंने
योजना बना रखी
है। पति आया
तो उसने कहा
कि तुम्हें पता
है, पचास
हजार रुपये
तुम्हें
लाटरी में
मिले हैं? सोचा
कि पहले पचास
हजार। जब पचास
हजार सह लेगा
तो कहेंगे, नहीं, लाख।
जब लाख भी सह
जाएगा, देखेंगे
नहीं मरता है,
तो डेढ़
लाख, ऐसा बढ़ेंगे।
लेकिन उस
क्लर्क ने कहा
कि पचास हजार
मिल गए हैं! सच
कहते हैं? अगर
पचास हजार मिल
गए हैं तो
पच्चीस हजार
तुम्हें चर्च
को देता हूं।
हार्ट फेल हो
गया पादरी का।
पच्चीस हजार,
उसने कहा!
क्या कह रहे
हो? पच्चीस
हजार इकट्ठे
पड़ गए उस पर।
अर्जुन
पर जो घटना
घटी,
वह बहुत
आकस्मिक थी। सारिपुत्त
या मौगल्लान
पर जो घटना
घटी, वह
आकस्मिक नहीं
थी। उसकी बड़ी
पूर्व तैयारियां
थीं। जो लोग
ध्यान की दिशा
में यात्रा कर
रहे हैं, उनके
लिए दिव्यता
का अनुभव कभी
भी घबड़ाने
वाला नहीं
होगा। लेकिन
जिन लोगों ने
ध्यान की दिशा
में कोई
यात्रा नहीं
की है, उनके
लिए दिव्यता
का प्राथमिक
अनुभव बहुत घबड़ाने
वाला, बहुत
"शैटरिंग'। क्योंकि
इतना आकस्मिक
है और इतना
आनंदपूर्ण है
कि दोनों
बातों को ही
सहना मुश्किल
हो जाता है।
इतना आकस्मिक
है, इतना
आनंदपूर्ण है
कि हृदय की
धड़कन रुक सकती
है, ठहर
सकती है, प्राण
अकुला जा सकते
हैं। दुख कभी
इतना नहीं घबड़ाता,
क्योंकि
दुख की हमारी
आदत होती है, सदा तैयारी
होती है। दुख
तो रोज ही हम
भोगते हैं।
सुबह से सांझ
तक दुख में ही
जीते हैं। दुख
ही दुख में
पलते हैं और
बड़े होते हैं।
दुख हमारा ढंग
है जीने का।
इसलिए
बड़े-से-बड़े दुख
आ जाएं तो भी
हम दो-चार दिन
में निपट जाते
हैं, फिर
अपनी जगह लौट
आते हैं।
लेकिन सुख
हमारे जीवन का
ढंग नहीं है।
अगर छोटा-सा
भी सुख आ जाए, तो रात की
नींद हराम हो
जाती है। चैन
खो जाती है।
और अर्जुन पर
जो सुख उतरा, वह साधारण
सुख न था, वह
आनंद था। और
एक क्षण में
उतर आया था, उसकी "इंटेंसिटी'
बहुत थी। वह
घबड़ा गया और
चिल्लाने लगा
कि बंद करो, वापिस लो।
मेरी
सामर्थ्य के
बाहर है यह
देखना।
स्वाभाविक था
यह, यह
बिलकुल
स्वाभाविक है।
बहुत मजे की
बात है, लेकिन
ऐसा ही है।
दुनिया
में इतने
शक्तिशाली
लोग तो बहुत
हैं जो
बड़े-से-बड़े
दुख को झेल
लें,
इतने
शक्तिशाली
लोग बहुत कम
हैं जो बड़े
सुख को झेल
लें।
प्रार्थनाएं
हम सुख के लिए
करते हैं, लेकिन
अगर एकदम से
मिल जाए तो
पता चले, कि
हम चिल्लाएं कि
बस बंद करो, यह नहीं सहा
जा सकेगा, इसे
वापिस लौटा
लो। इसलिए
भगवान भी "इंस्टालमेंट'
में सुख
देता है।
क्षण-क्षण, धीरे-धीरे, मुश्किल-मुश्किल
से; बहुत
रोओ, बहुत चिल्लाओ, बहुत मांगो,
धीरे-धीरे।
और जब कभी
आकस्मिक घट
जाती है घटना,
बड़ी
तीव्रता के
किसी क्षण में,
तो घबराने
वाली होती है।
"भगवान
श्री, पहले
प्रश्न का
दूसरा हिस्सा
रह गया था--"विनाशाय
च दुष्कृताम्'
से आप अर्थ
लेते हैं, दुष्टों
का नाश नहीं, परिवर्तन।
लेकिन कृष्ण
ने बहुत से
दुष्टों का वध
क्यों किया, उन्हें
परिवर्तित
क्यों नहीं
किया?'
यह
भी समझना
चाहिए।
हमें
जो वध दिखाई
पड़ता है, कृष्ण
के लिए वह वध
नहीं है। जो
भी गीता को
समझते हैं, समझ सकेंगे।
हमें जो वध
मालूम पड़ता है,
वह कृष्ण के
लिए वध नहीं
है, एक।
कृष्ण की तरफ
से न कोई मारा
जाता है, न
कोई मारा जा
सकता है। फिर
कृष्ण क्या कर
रहे हैं? लेकिन
हमें तो दिखाई
पड़ता है कि
उन्होंने
किसी राक्षस
को, किसी
पूतना को, किसी
को मार डाला।
इसको
समझने के लिए
थोड़े गहरे
जाना पड़ेगा और
समझ के बाहर
के कुछ सूत्र
भी खयाल में
लेने पड़ेंगे।
अगर इसे ठीक
से धर्म के
पूरे विज्ञान
की भाषा में
समझें, तो
इसका मतलब
केवल इतना हुआ
कि एक विशेष
राक्षस या एक
विशेष दुष्ट
के संस्थान को
नष्ट कर दिया।
एक विशेष
दुष्ट के
संस्कारों के
जाल को, शरीर
को, चित्त
को पूरी तरह
नष्ट कर दिया।
और उसके भीतर
की आत्मा को
पुरानी आदतों
के जाल और
संस्कारों से
मुक्त कर
दिया। धर्म के
अर्थों में
इतना ही होगा।
और अगर कृष्ण
को ऐसा दिखाई
पड़ता है कि यह
आदमी इस शरीर
के साथ रूपांतरित
नहीं हो सकता,
तो इसके लिए
नए शरीर की
यात्रा पर भेज
देना सहयोगी
होता है। अगर
यह शरीर उतनी जड़ता को
उपलब्ध हो गया
है कि अब
इसमें
परिवर्तन असंभव
है, इसे
नया शरीर मिल
जाए तो आसान
होगा। जैसे एक
बूढ़े आदमी को
अगर स्कूल
भेजना हो, एक
सत्तर साल के
आदमी को अगर
प्राइमरी
स्कूल में
भर्ती कराना
हो, तो जिस
दिन विज्ञान
के पास सुविधा
हो जाएगी, हम
भी वही करेंगे
जो कृष्ण ने
किया।
विज्ञान के
पास धीरे-धीरे
सुविधा होती
जा रही है। तब
हम इस बूढ़े
आदमी को
प्रौढ़-शिक्षा
में भर्ती न करेंगे।
बल्कि इस बूढ़े
आदमी को नया
बच्चे का शरीर
देना
चाहेंगे।
क्योंकि
प्रौढ़ को
शिक्षित करना
बहुत मुश्किल
है, क्योंकि
वह इतना
शिक्षित हो
चुका होता है,
उसकी स्लेट
पर इतना लिखा
जा चुका होता
है कि अब उस पर
नए अक्षर की
रेखाएं
खींचनी बड़ी
कठिन हो जाती
हैं, और
खिंच भी जाएं
तो दिखाई भी
नहीं पड़तीं।
और आदतों का
जाल इतना घना
हो जाता है कि
उन आदतों के
जाल से छूटना
मुश्किल हो
जाता है। समझ में
आ जाए तो भी
आदतों का जाल
पीछा करता है।
खयाल में भी आ
जाए तो भी
आदतों का ताल
पीछा करता है।
इसलिए
यह बड़े मजे की
बात है कि
रावण राम के
हाथों से मरकर
धन्यवाद दे
पाता है।
कृष्ण के हाथों
से जो मरे हैं, वे
भी धन्यवाद दे
पाते हैं।
बहुत गहरी
अंतरात्मा
में उनके
धन्यवाद उठता
है। एक जाल
टूटा। एक जाल
नष्ट हुआ। और
एक नई यात्रा
क, ख, ग
से शुरू हो
सकती है।
लेकिन हमें तो
यही दिखाई
पड़ेगा कि मार
डाला उस आदमी
को। अगर मेरी
तरफ से समझें
तो मैं कहूंगा,
नई जिंदगी
दी उस आदमी
को। नई शुरुआत
दी उस आदमी
को। उसकी
यात्रा को फिर
क, ख, ग
से शुरू किया।
सफेद, "क्लीन'
स्लेट दी, साफ-सुथरी
उसे स्लेट दे
दी।
कृष्ण
के हिसाब में, या
मेरे हिसाब
में, कोई
मरता नहीं।
मरने का कोई उपाय
नहीं है। इसका
मतलब यह नहीं
है कि आप हिंसा
करने निकल
जाएं और किसी
को भी मारने
लगें। हां, उस दिन आपको
मारने की
आज्ञा दी जा
सकती है जिस दिन
आपको यह पता
चल जाए कि कोई
मरता नहीं।
लेकिन ध्यान
रहे उस दिन
मरने की भी
खुद की तैयारी
इतनी ही होनी
चाहिए, तभी
पता चला समझा
जाएगा। तो
कृष्ण वह
तैयारी पूरी
दिखाते हैं।
मौत के मुंह
में वह
जगह-जगह उतर
जाते हैं। वही
कसौटी है।
छोटा-सा बच्चा,
भयंकर सर्प
से जूझ जाता
है। छोटा-सा
बच्चा है, महाशक्तिशाली राक्षसों
से उलझ जाता
है। क्या खबर
क्या दे रहा
है? वह खबर
केवल इतनी दे
रहा है कि
मरता कोई
नहीं। मौत
एकमात्र
असत्य है। "द ओनली इलूज़न'। एकमात्र
भ्रम है।
एकमात्र माया
है, जो है
नहीं और दिखाई
पड़ती है।
मृत्यु यदि
असत्य है, तो
फिर हम शरीर
को बदलने की
भी जरूरत
अनुभव कर सकते
हैं।
ऐसा
समझें। आपकी
एक "किडनी' खराब
हो गई है और
डाक्टर उसे
अलग करके
दूसरी "किडनी'
लगा देता
है। तो हमें
कोई तकलीफ
नहीं होती। लेकिन
एक अर्थ में
आपका शरीर बदल
दिया गया है।
आपका हृदय
खराब हो गया
है और आपको
दूसरा फेफड़ा प्लास्टिक
का लगा दिया
जाता है। एक
अर्थ में आपका
शरीर बदल दिया
गया। अभी हम पार्ट्स
में बदल पा
रहे हैं, लेकिन
आज नहीं कल, हम पूरे
शरीर को बदल
पाएंगे, इसमें
कठिनाई नहीं
है। अभी तक
प्रकृति शरीर
को बदलती थी, कृष्ण के
जमाने तक में
विज्ञान इतना
विकसित न था
कि वह
वैज्ञानिक को
कहते कि इस
राक्षस के शरीर
को बदल दो।
प्रकृति को ही
सौंपना पड़ता,
गर्दन
काटकर
प्रकृति को
सौंप देते कि बदलो।
भविष्य में इस
बात की
संभावना हो
जोगी कि अगर
हम किसी
अपराधी को, किसी "क्रानिक
क्रिमिनल'
को, किसी
ऐसे आदमी को
कि जिसको किसी
तरह नहीं बदला
जा सकता--सजा
नहीं देंगे, उसके पूरे
शरीर को
रूपांतरित कर
देंगे। यह आदमी
की विज्ञानशाला
में भी कल हो
सकेगा। तभी हम
कृष्ण को पूरा
समझ पाएंगे, उसके पहले
समझना बहुत
मुश्किल है, क्योंकि अभी
हमारे पास
बहुत साफ तथ्य
नहीं हैं।
इसलिए
मैं नहीं
मानता हूं कि
दुष्टों को
नष्ट किया; मैं
मानता हूं, दुष्टों को
रूपांतरित
किया। सिर्फ
रूपांतरण की
यात्रा पर वे
भेज दिए गए
हैं। वे प्रकृति
की
प्रयोगशाला
में वापिस
लौटा दिए गए हैं।
प्रकृति की
"वर्कशाप' में
वापिस भेज दिए
गए हैं कि
कृपा करके
इनको फिर से
शरीर दो, फिर
से आंखें दों,
फिर से मन
दो, ताकि
इनकी फिर से
नई यात्रा
शुरू हो सके।
"इस
प्रकार नया
शरीर मिलने भर
से अतीत के
संस्कारों व
मन वाला
सूक्ष्म शरीर
भी बदल जाता
है क्या?'
वह
अपने-आप नहीं
बदल जाता, लेकिन
कृष्ण जैसे
आदमी के हाथ
से मरने का
मौका मिले तो
उसमें बहुत
फर्क पड़ता है।
सभी को नहीं
मिलता, बहुत
पुण्य कर्मों
के फल से
मिलता है।
साधारणतः
नहीं बदल
जाता। अगर एक
आदमी मरता है, तो
शरीर ही बदलता
है, उसके
भीतर का और
कुछ भी नहीं
बदलता। लेकिन
कृष्ण जैसे
आदमी के हाथ
से मरना बड़ी
भारी घटना है,
क्योंकि
"एजेंट' मौजूद
है। उस आदमी
की मौजूदगी
में यह घटना
घट रही है
तुम्हारे
मरने की, और
तुम्हारे
शरीर के छूटते
ही उस आदमी के
व्यक्तित्व
से जो
सूक्ष्मतम
किरणों का जाल
फैलता है, वह
तुममें "एब्जार्व'
हो जाएगा, उसे तुम पकड़
पाओगे, वह
तुम पी जाओगे।
जो तुम्हारा
शरीर बाधा दे
रहा था कृष्ण
से मिलने से, वह बीच से हट
जाएगा तो
कृष्ण से
मिलना आसान हो
जाएगा। उस
मिलने में
बहुत कुछ
होगा। वह मिलन
अर्जुन के लिए
ऐसे ही हो
पाता है
क्योंकि
अर्जुन इस
शरीर के बाहर
छलांग लगा पाता
है। हम प्रेम
में शरीर के
बाहर छलांग
लगा लेते हैं।
शत्रुता में
हम शरीर के
बाहर नहीं छलांग
लगाते, शरीर
के भीतर शरीर
को दुर्ग की
तरह बनाकर बैठ
जाते हैं।
प्रेम
और घृणा का
वही फर्क है।
अगर मेरा आपसे
प्रेम है, आपका
मुझसे प्रेम
है, तो
प्रेम की घड़ी
में हम
एक-दूसरे के
शरीर के बाहर
छलांग लगा
जाते हैं, और
वहां मिल जाते
हैं जहां शरीर
नहीं मिलते। लेकिन
अगर मेरी आपसे
घृणा है, तो
हम दोनों
अपने-अपने
शरीरों को
दुर्ग बनाकर,
किले बनाकर
भीतर बैठ जाते
हैं। शरीर के
बाहर बिलकुल
नहीं निकलते।
आपका शरीर
मुझे दिखाई
पड़ता है, आपको
मेरा शरीर
दिखाई पड़ता है,
हमारा मिलन
ज्यादा-से-ज्यादा
शरीर के तल पर
हो सकता है, और कहीं
नहीं हो सकता।
लेकिन प्रेम
में शरीर के
बाहर छलांग
लगा जाते हैं।
अर्जुन
को मारने की
जरूरत नहीं
पड़ती बदलने के
लिए,
क्योंकि वह
प्रेम से भरा
है। किसी को
मारने की
जरूरत पड़ती है
बदलने के लिए,
क्योंकि वह
घृणा से भरा
है, उसके
दुर्ग को ढहा
देना होगा। तब
वह शरीर के बाहर
आ जाएगा। और
घड़ी वही पैदा
हो जाएगी जो
अर्जुन के साथ
बिना मारे
होती है। वह
किसी दुष्ट के
साथ मारकर
पैदा होती है।
लेकिन कृष्ण
की अनुकंपा
दोनों पर
बराबर है।
उसमें कोई फर्क
नहीं है।
लेकिन मैंने
कहा कि यह समझ
के थोड़ा बाहर
हो जाएगा।
इसलिए इसे
समझने की
कोशिश मत करना,
सुनना, और
भूल जाना।
"भगवान
श्री, मार्शल
मैकलूहान
का सूत्र है:
"मीडियम इज
मेसेज', माध्यम ही
संदेश है।
किसी आलोचक ने
"मेसेज' की जगह "मसाज'
शब्द रख
लिया और अभिनव
अर्थ प्रदान
किया। वैसे ही
हम कृष्ण की
मुरली को
जीवात्मा की
परमात्मा को
प्रेम-पुकार
कहें तो क्या
बाधा है?
महाभारत
के समय कृष्ण
का पांचजन्य
शंख बजाना, तथा
बांसुरी के
साथ सुदर्शन
चक्र का होना,
क्या ये कोई
प्रतीकात्मक
अर्थ रखते हैं?
रासक्रीड़ा के
अंतर्गत
भागवत में एक
श्लोक है, जिसमें
ब्रज-सुंदरियों
के साथ खेलते
कृष्ण का
वर्णन--"यथा
अर्भक स्व
प्रतिबिंब विभ्रमः', यह "इमेज', यह
भाव-कल्पना
क्या अर्थ
रखता है? और
एक रहस्यवादी
कहते हैं कि
जीवात्मा का
अहंकार
परमात्मा का
भोजन है। क्या
इसी विधान के
अनुलक्ष्य
में रासलीला करते
कृष्ण गोपिकाओं
के
अहंकार-मर्दन
के लिए अचानक
अदृश्य हो गए
थे?'
मार्शल
मेकलूहान
अदभुत विचारक
हैं। उनका
वक्तव्य
"मीडियम इज
मेसेज'--माध्यम
ही संदेश
है--बड़ा कीमती
है। ऐसा सदा
से नहीं समझा
जाता रहा।
समझा ऐसा जाता
रहा है कि
संदेश अलग बात
है, माध्यम
अलग बात है।
संदेश माध्यम
के द्वारा प्रगट
होता है, लेकिन
संदेश ही
माध्यम नहीं
है और माध्यम
ही संदेश नहीं
है।
द्वैतवादी
दृष्टि सदा ही
इस तरह के
फासले तोड़ती
है। वह "डुआलिस्ट
माइंड' सब
चीजों को दो
हिस्सों में
तोड़ लेता है।
वह कहता है, शरीर अलग है,
आत्मा अलग
है। शरीर
माध्यम है, आत्मा संदेश
है। वह कहता
है, गति
अलग है, गतिवान
अलग है। वह
कहता है, प्रकाश
अलग है, प्रकाशवान
अलग है। वह
कहता है, जगत
अलग है, परमात्मा
अलग है।
ठीक यह
जो द्वैतवादी
दृष्टि है, वही
अभिव्यक्ति
के माध्यम और
अभिव्यक्ति
के संदेश में
चलती रही है।
मार्शल मेकलूहान
को मैं अद्वैतवादी
कहता हूं। उसे
पता है या
नहीं, यह
मैं नहीं
जानता, मैं
उसे अद्वैतवादी
कहता हूं।
उसने माध्यम
और संदेश के
संबंध में
पहली दफा
अद्वैत की
घोषणा की है।
वह यह कह रहा है
कि जो आप कहते
हैं वह, और
जिस ढंग से आप
कहते हैं और
जिस मार्ग से
और विधि से और
माध्यम से आप
कहते हैं, ये
दो चीजें नहीं
हैं, ये एक
ही चीज हैं।
इसे समझने के
लिए थोड़ी-सी
बातें समझनी
जरूरी होंगी।
एक
मूर्तिकार एक
मूर्ति बनाता
है। लेकिन मूर्तिकार
अलग होता है, मूर्ति
अलग होती है।
इसे हम देख सकते
हैं साफ।
मूर्ति बनती
जाती है, और
मूर्तिकार
बनाता जाता है,
फिर मूर्ति
बन जाती है, मूर्तिकार
अलग खड़ा हो
जाता है, मूर्ति
अलग खड़ी हो
जाती है। बड़ा
ही गहरा अद्वैतवादी
चाहिए, जो
कह सके कि
मूर्तिकार और
मूर्ति एक
हैं। बड़ी
कठिनाई
पड़ेगी। हमारी
आंखें गवाही न
देंगी। हमारे
हाथ स्वीकार न
करेंगे।
हमारा मन, हमारी
बुद्धि कहेगी,
क्या
पागलपन की
बातें कर रहे
हो? मूर्तिकार
और मूर्ति अलग
हैं। कल
मूर्तिकार मर
जाएगा और
मूर्ति
रहेगी। बहुत
गहरी आंखें चाहिए
जो कहें कि अब
मूर्तिकार मर
कैसे सकेगा जब
तक मूर्ति
रहेगी! बहुत
गहरी आंखें
चाहिए, जो
देख सकें कि
अब मूर्तिकार
कितना ही दूर
चला जाए लेकिन
दूर जा कैसे
सकेगा! अब
"स्पेस' का
संबंध न रहा।
अब इन दोनों
के बीच एक
आत्मिक एकता
है, एक
तादात्म्य है, जो अब अनंत
तक रहेगा, जो
नहीं मिट
सकता। लेकिन,
मूर्तिकार
के साथ देखने
में हमें बहुत
कठिनाई पड़ेगी,
इसलिए इस
उदाहरण को छोड़
दें, नृत्यकार
को लें, और
कृष्ण के
ज्यादा निकट
पड़ेगा वह।
नाच
रहा है एक
नर्तक। नर्तक
और नृत्य दो
हैं या एक? यहां
बहुत आसानी
पड़ेगी। नर्तक
को अलग कर लें
तो नृत्य खो
जाता है, नृत्य
को अलग कर लें
तो नर्तक
नर्तक नहीं रह
जाता, साधारण
आदमी हो जाता
है। नर्तक और
नृत्य एक हैं।
बांसुरी और बांसुरीवादक
एक हैं। गीत
और गायक एक
हैं, प्रकृति
और परमात्मा
एक हैं। कहा
जाने वाला और
जिस माध्यम से
कहा गया, वह
एक है। लेकिन
बहुत-सी चीजों
में देखने में
आसानी पड़ेगी,
क्योंकि
हमारी स्थूल
आंखें भी
पहचान सकेंगी कि
बात ठीक है कि
नर्तक और
नृत्य एक हैं।
लेकिन, अगर
बहुत
द्वैतवादी
दृष्टि हो, तो यहां भी
हम दो में तोड़
सकते हैं।
बिलकुल तोड़
सकते हैं।
क्योंकि
नृत्य तो बाहर
होने वाली प्रगट
एक क्रिया है
और नर्तक भीतर
छिपा एक प्राण
है। प्राण
नहीं नाच रहा,
प्राण तो
नाच के बीच खड़ा
है। नाच बाहर
चल रहा है।
द्वैतवादी कह
सकता है कि
नर्तक चाहे तो
अपने नृत्य को
देख सकता है, साक्षी हो
सकता है। तब
वह दो हो
जाएंगे। जो हमें
दो दिखाई पड़ते
हैं वह भी एक
हो सकते हैं
गहरी दृष्टि
से, जो
हमें एक दिखाई
पड़ता है, उथली
दृष्टि से वह
भी दो हो सकता
है।
लेकिन, बांसुरी
बजाई जा
रही है। कहां
है वह जगह, जहां
से बांसुरी
बजाने वाले
ओंठ और
बांसुरी अलग
होते हैं? और
अगर वे सच ही
अलग हैं तो
ओंठ बांसुरी
बजा कैसे सकते
हैं? फिर
तो बीच में
"गैप' पड़
जाएगा, बीच
में जगह छूट
जाएगी। ओंठ
अलग हो जाएंगे,
बांसुरी
अलग हो जाएगी।
जुड़ेंगे
कैसे, एक
कैसे होंगे? स्वर ओंठों
पर पैदा होंगे,
बांसुरी तक
पहुंचेंगे
कैसे? नहीं,
बांसुरी और
ओंठ अलग-अलग
दिखाई भर पड़ते
हैं। अगर ठीक
से समझें तो
बांसुरी
ओंठों का बढ़ा
हुआ रूप है। "इंस्ट्रूमेंटल'
रूप है, बढ़
गया आगे, फैल
गया आगे।
ऐसा और
तरह से
समझें--जैसा
मार्शल मैकलूहान
को पसंद पड़े, वैसा
समझें। एक
दूरबीन है, हम आंख पर
लगाकर देखते
हैं आकाश की
तरफ। जो तारे
हमें नहीं
दिखाई पड़ते थे
खुली आंख से, वे दूरबीन
से दिखाई पड़ने
लगेंगे।
दूरबीन और आंख
अलग हैं, या
कि ऐसा कहें
कि दूरबीन आंख
का बढ़ा हुआ
रूप है? विज्ञान
ने आंख को बढ़ा
दिया। दूरबीन
को जोड़कर
आंख बड़ी हो
गई। जब मैं
अपने हाथ से
आपको छूता हूं,
तो मैं छूता
हूं या मेरा
हाथ छूता है? दिखता तो
मेरा हाथ छूता
हुआ है। लेकिन
मेरे हाथ और
मुझमें कहीं
फासला है, कहीं
फर्क है, कहीं
कोई अंतराल है,
कहीं कोई जगह
है, जहां
मैं खत्म होता
हूं, मेरा
हाथ शुरू होता
है? नहीं, मेरा हाथ
मेरा
"एक्सटेंशन' है, मेरा
बढ़ाव है। और
समझ लें कि
हाथ में मैं
एक लकड़ी ले
लूं और फिर
लकड़ी से आपको छूऊं, तब
आप शायद
कहेंगे अब आप
नहीं छू रहे
हैं। लेकिन अब
भी मैं ही छू
रहा हूं, लकड़ी
मेरे हाथ का
और भी बढ़ाव
है। जब
टेलीफोन से
मैं आपसे बात
कर रहा हूं तब
भी मेरे ओंठ
ही बात कर रहे
हैं। टेलीफोन
सिर्फ मेरे
ओंठों का
वैज्ञानिक
बढ़ाव है। अगर
हम इस भांति
देखें, तो
दूरबीन से मैं
तारों को देख
सकता हूं, इसका
मतलब ही यही
है कि तारों
और मेरी आंख
के बीच कोई आंतरिक
संबंध होना
चाहिए, अन्यथा
देख कैसे
सकूंगा? कान
से तो मैं
तारों को नहीं
देख पाता, आंख
से मैं संगीत
को नहीं सुन
पाता। आंख और
तारों के बीच
कोई तालमेल, कोई जोड़, कोई
"हार्मनी' चाहिए।
कोई अंतर्संबंध
चाहिए, कोई
"इंटिमेसी'
चाहिए। तो
दूरबीन ही
नहीं है मेरा
बढ़ाव, तारे
भी मेरी आंख
के बढ़ाव हैं।
या उलटी तरफ
से सोचें, तो
तारों का बढ़ाव
मेरी आंख है।
तब हमें
अद्वैत दिखाई
पड़ेगा। तब
चीजें हमें एक
दिखाई पड़ेंगी।
तब चीजों में
हमें एक अंतफलाव
दिखाई पड़ेगा।
और तब सब एक हो
जाएगा। "देन
मीडियम इज
द मेसेज'। तब फिर
माध्यम ही
संदेश है और
संदेश ही
माध्यम है।
ठीक
पूछते हैं कि
कृष्ण की यह
बांसुरी और ये
बांसुरी पर बजाए गए
स्वर
परमात्मा की
तरफ की गई
प्रार्थनाएं
नहीं हैं? प्रार्थना
मैं न कहूंगा।
क्योंकि
कृष्ण जैसा
आदमी
प्रार्थना
नहीं करता।
प्रार्थना
किससे करेगा?
प्रार्थना
में थोड़ा
फासला हो जाता
है।
प्रार्थना
में थोड़ा भेद
हो जाता है। प्रार्थना
में प्रार्थी
अलग हो जाता
है उससे, जिससे
प्रार्थना
करता है।
प्रार्थना
द्वैत है। इसे
थोड़ा समझना
अच्छा होगा।
प्रार्थना
द्वैत है।
नहीं, कृष्ण
बांसुरी
बजाते वक्त
प्रार्थना
में नहीं, ध्यान
में हैं।
ध्यान अद्वैत
है। और
प्रार्थना और
ध्यान शब्द
में यही फर्क
है।
प्रार्थना
द्वैतवादी की
खोज है। वह कहता
है, इधर
मैं हूं, उधर
परमात्मा है,
निवेदन
करता हूं।
ध्यान अद्वैतवादी
की स्थिति है।
वह कहता है; वहां कोई
परमात्मा
नहीं, यहां
मैं नहीं, बीच
में दोनों के
सब हैं। कृष्ण
की बांसुरी
प्रार्थना का
उठा हुआ गीत
नहीं, ध्यान
से उठा हुआ
स्वर है। यह
किसी
परमात्मा से
की गई
प्रार्थना
नहीं, यह
स्वयं को दिया
गया धन्यवाद
है। "सेल्फ कांग्रेचुलेशन'
है, स्वयं
को दिया गया
धन्यवाद है।
स्वयं के प्रति
प्रगट गई
अनुगृहीत
भावना। यह
अनुग्रह-भाव है,
यह "ग्रेटीटयूड'
है, "प्रेयर'
नहीं। यह
अनुग्रह-बोध
है, यह
अहोभाव है, क्योंकि
प्रार्थना
में पैर उतने
मुक्त नहीं हो
सकते जितने
अहोभाव में
होते हैं।
प्रार्थना
में संकोच और
डर तो बना ही
रहता है।
प्रार्थना
में भय और
आकांक्षा तो
बनी ही रहती
है। प्रार्थना
सुनी जाएगी, नहीं सुनी
जाएगी, इसका
संशय तो बना
ही रहता है।
कोई
प्रार्थना सुनने
वाला है या
नहीं, इसका
संदेह तो खड़ा
ही रहता है।
अनुग्रह
में कोई सवाल
नहीं रह जाता।
कोई सुनता है
या नहीं सुनता
है,
यह सवाल ही
नहीं है। कोई गुनता है, नहीं गुनता
है, यह
सवाल ही नहीं
है। कोई मानेगा,
नहीं
मानेगा, यह
सवाल ही नहीं
है। यह किसी
के लिए "एड्रेस्ड'
नहीं है।
ध्यान जो है,
"अनएड्रेस्ड'
है। इस पर
किसी का कोई
पता ही नहीं
है। सीधा अनुग्रह
का भाव है, जो
समस्त के
प्रति
निवेदित है।
आकाश सुने तो
सुने, फूल
सुने तो सुने,
बादल सुने
तो सुने, हवाएं ले
जाएं तो ले
जाएं न ले
जाएं तो न ले
जाएं। इसके
पीछे कोई
आकांक्षा
नहीं है। "देअर
इज नो एंड
टु इट'। यह
अपने-आप में
पूरी है बात।
बांसुरी बज गई
है, बात
खत्म हो गई
है। कृष्ण ने
अपने हृदय को
निवेदन कर
दिया, "अनएड्रेस्ड'। यह किसी के
प्रति नहीं है
निवेदन। यह
निपट निवेदन
है। इसीलिए
कृष्ण आनंद से
बजा सके इस बांसुरी
को। मीरा उतने
आनंद से नहीं
नाच सकी। मीरा
ध्यान में
नहीं है, प्रार्थना
में है। मीरा
के लिए कृष्ण
वहां पराए की
तरह खड़े हैं।
कितने ही निकट
हों, पर
पराए हैं।
कितने ही पास
हों, पर
फिर भी दूर
हैं। और कितने
ही हों, फिर
भी एक नहीं हो
गए हैं।
इसलिए
मीरा के नाचने
में वह
स्वतंत्रता
नहीं है, जो
कृष्ण के
नाचने में है।
मीरा के घुंघरुओं
में
परतंत्रता का
तो थोड़ा-सा
स्वर है। मीरा
के भजन में
दुख है, पीड़ा
है। कृष्ण की
बांसुरी में
सिवाय आनंद के
और कुछ भी
नहीं है। मीरा
के भजन में
आंसू भी हैं--"एड्रेस्ड'
है न भजन, किसी का पता
लिखा है; पहुंचेगा
नहीं, सुनेगा
नहीं; पता
नहीं आएगा, नहीं आएगा; सेज उसने
तैयार कर रखी
है, निवेदन
भेज दिया है, प्रतीक्षा
जारी है। मीरा
के भजन के
पीछे कोई लक्ष्य
है। मीरा के
भजन के पीछे
कोई आकांक्षा
है, अभीप्सा
है, इसलिए
मीरा की आंख
में आंसू भी
हैं, मीरा
के मन में
प्रतीक्षा भी
है, पूरी
होगी कि नहीं
होगी
आकांक्षा, इसका
भय भी है।
इसका कंपन भी
है। कृष्ण के
मन में कोई
कंपन नहीं है।
ये ध्यान से
उठे हुए स्वर
हैं, किसी
परमात्मा के
प्रति
प्रेरित नहीं,
बल्कि किसी परमात्मा
से ही उठे हुए
हैं। अनंत के
प्रति विस्तीर्ण,
"अनएड्रेस्ड',
कोई
पता-ठिकाना
नहीं है।
कृष्ण किसीलिए
बांसुरी नहीं
बजा रहे हैं, अकारण बजा
रहे हैं। या
इसीलिए बजा
रहे हैं कि अब
और करने का
कोई कारण नहीं
रहा, अब
बांसुरी ही बजाई जा
सकती है।
आमतौर
से हम बांसुरी
को चैन से जोड़ते
हैं। हम कहते
हैं,
फलां आदमी
चैन की
बांसुरी बजा
रहा है। असल
में बांसुरी
का मतलब ही यह
है कि कोई
आदमी चैन में है।
कोई आदमी "एट ईज' हो
गया, अब
बांसुरी
बजाने के
सिवाय कोई बचा
नहीं कुछ करने
को। नाहक का
काम है, बेकार
काम है, कुछ
फल तो होता
नहीं। कुछ आता
तो नहीं, कुछ
मिलता तो
नहीं। लेकिन
कुछ मिल गया
है, कुछ पा
लिया गया है, वह फूट-फूटकर
बह जाता है।
"भगवान
श्री, आप
बहुधा कहा
करते हैं कि
"प्रेयर इज
ए स्टेट आफ
कांशसनेस'।
और कभी-कभी यह
भी कहा करते
हैं कि
"प्रेयर इज
ए स्टेट आफ ग्रेटीटयूड'। तब फिर "प्रेयर'
अद्वैत
क्यों न होगा?'
नहीं, ऐसा
मैं कभी नहीं
कहता। मैं ऐसा
कभी नहीं कहता
कि "प्रेयर इज ए स्टेट
आफ माइंड'।
मैं कहता हूं,
"प्रेयरफुलनेस इज ए
स्टेट आफ
माइंड'। "प्रेयरफुलनेस'। प्रार्थना
नहीं, प्रार्थनामयता। प्रार्थना
नहीं, प्रार्थनापूर्ण होना।
एक
आदमी सुबह
प्रार्थना कर
रहा है, यह और
बात है। एक
आदमी उठता है,
बैठता है, चलता है और प्रार्थनापूर्ण
है। वह जूता
भी पहनता है
तो प्रार्थनापूर्ण
है। वह जूते
को भी उठाकर
रखता है तो
ऐसे ही रखता
है जैसे भगवान
की मूर्ति को
रखता हो। वह
आदमी प्रार्थनापूर्ण
है। वह रास्ते
के किनारे एक
फूल के पास
खड़ा होता है
तो भी वैसे ही
खड़ा होता है
जैसे स्वयं
परमात्मा
उसके सामने
खड़ा हो तो खड़ा
होगा। यह आदमी
प्रार्थनापूर्ण
है, यह कभी
प्रार्थना कर
नहीं रहा है।
इसने प्रार्थना
कभी की नहीं।
"प्रेयर' को
नहीं कहता हूं
मैं कभी कि वह
चेतना है। "प्रेयरफुलनेस',
प्रार्थनापूर्ण हृदय। यह
बड़ी और बात
है। प्रार्थनापूर्ण
हृदय का मतलब
फिर ध्यान हो
जाता है, फिर
कोई फर्क नहीं
रहता।
प्रार्थना
तो करते ही वे
हैं,
जो प्रार्थनापूर्ण
नहीं हैं। प्रार्थनापूर्ण
प्रार्थना
करेगा कैसे? वह तो
प्रार्थना को
जीता है, वह
तो प्रार्थना
होता है। वह
कुछ और करता
ही नहीं, और
कर ही नहीं
सकता।
प्रार्थना तो
वही करेगा जो
और कुछ भी
करता रहता है।
दुकान भी करता
है, घृणा
भी करता है, क्रोध भी
करता है, बाजार
भी करता है, कुछ और भी
करता है, उसी
में
प्रार्थना भी
उसकी बड़े
कामों की "लिस्ट'
में एक चीज है,
एक "आइटम' है। उसको भी
करता है।
लेकिन प्रार्थनापूर्ण
तो वह है कि
दुकान भी करता
है तो
प्रार्थना करता
है।
अब
कबीर है, कबीर कपड़ा भी
बुन रहा है, तो कोई उससे
कहता है कि
तुम अब क्यों कपड़ा
बुनने में लगे
हो? तो वह
कहता है, यह
मेरी
प्रार्थना
है। वह कहता
है, मैं चलता
हूं तो वह
मेरा ध्यान है,
मैं उठता
हूं तो वह
मेरा ध्यान है,
मैं खाता
हूं तो वह
मेरा ध्यान है,
मैं कपड़ा
बुनता हूं तो
वह मेरा ध्यान
है। वह कहता
है--साधो, सहज
समाधि भली। जो
करते हो, वही
समाधि है; वही
मेरा ध्यान है,
वही मेरी
प्रार्थना
है। वह बाजार
बेचने जा रहा
है कबीर अपने
कपड़ों को, तो
नाचता हुआ चला
जा रहा है। वह
बाजार में ग्राहक
उससे कपड़ा
खरीदने आए हैं
तो वह उनसे
कहता है कि
राम, ऐसी
बढ़िया चीज
मैंने पहले
कभी बनाई नहीं,
इसमें
प्रार्थना को
भी इसके
धागे-धागे में
मैंने बुन
दिया है। राम
कहता है उसे
कबीर, जो
खरीदने आया
है। अब इसके
लिए न कोई
खरीददार है, न कोई
बेचनेवाला
है। इधर राम
ही बनाने वाला
है, राम ही
पहनने वाला
है। इधर राम
ही बुनने वाला
है, राम ही
बुना जा रहा
है। यह स्थिति
प्रार्थनापूर्ण
है, यह "प्रेयरफुल'
है। इसलिए
कबीर को कभी
किसी ने
प्रार्थना
करते नहीं
देखा कि वह
मस्जिद में
चला गया हो और
चिल्ला रहा हो,
अजान कर रहा
हो। कि कभी
मंदिर में चला
गया हो और कह
रहा हो, हे
भगवान! बल्कि
वह निरंतर कह
रहा है कि
क्या तुम्हारा
भगवान बहरा है,
जो तुम इतने
जोर से चिल्ला
रहे हो? ऐ
मुल्ला, तू
इतनी जोर से
क्यों
चिल्लाता है,
क्या तेरा
भगवान बहरा है?
क्योंकि हम
तो बिना
चिल्लाए ही
पाते हैं कि
वह सुन लेता
है। हम तो
बिना कहे पाते
हैं कि वह समझ
लेता है। तू
इतने जोर से
क्यों चिल्ला
रहा है? क्या
तेरा भगवान
बहरा हो गया
है? तो
कबीर मजाक
करते हैं बहुत
उन सबकी जो
प्रार्थना कर
रहे हैं। और
यह आदमी प्रार्थनापूर्ण
है, इसलिए
मजाक कर सकता
है। अन्यथा
मजाक नहीं कर
सकता। तो प्रार्थनापूर्ण
होने को तो
मैं कहता हूं,
प्रार्थना
के लिए नहीं
कहता हूं।
"वह
चक्र-सुदर्शन
और पांचजन्य
के बारे में
प्रश्न था, तथा रासक्रीड़ा
के संबंध
में--"यथा
अर्भक स्व
प्रतिबिंब विभ्रमः'?'
कृष्ण
के
व्यक्तित्व
से जुड़ी हुई
सारी बातों के
बड़े प्रतीक
अर्थ हैं।
होने ही
चाहिए। कृष्ण
जैसे व्यक्ति
के साथ जो भी
जुड़ा है, वह निर्मूल्य
नहीं हो सकता।
अमूल्य हो
सकता है।
लेकिन हम उसका
मूल्य भी समझ
पाएं तो बहुत
है, अमूल्य
को समझना तो
थोड़ी कठिनाई की
बात है।
कृष्ण
का पांचजन्य, उनका
शंख बड़े
प्रतीक अर्थ
रखता है। आदमी
की पांच
इंद्रियां
हैं, आदमी
के पांच द्वार
हैं, आदमी
अपने पांच
द्वारों के
माध्यम से
उद्घोष करता
है। उसके जीवन
का सारा
उद्घोष पांच
द्वारों के
किया गया
उद्घोष
है--उसकी आंख
से, उसकी
नाक से, उसके
कान से, उसके
मुंह से। पांच
इंद्रियां
पांच द्वार हैं
जगत से हमारे
संबंध के। और
जब कथाकार
कहते हैं कि
कृष्ण ने
पांचजन्य
बजाया, उसका
कुल मतलब इतना
है कि युद्ध
में वे अपनी पांचों
इंद्रियों
सहित समग्र
रूप से मौजूद
हुए। इससे
ज्यादा कोई
मतलब नहीं है।
युद्ध उनके
लिए कोई एक
काम न था, उनके
लिए कोई चीज
काम न थी।
कबीर जैसा कपड़ा
बेचने बाजार
चला गया था, पूरा-का-पूरा,
ऐसे ही
कृष्ण
पांचजन्य
बजाकर उद्घोष
करते हैं कि
मैं
पूरा-का-पूरा
युद्ध में आ
गया हूं। कुछ
पीछे छोड़ आया
नहीं। वह पीछे
छोड़कर चलते ही
नहीं। वह
पूरे-के-पूरे,
जहां होते
हैं पूरे होते
हैं। इसलिए
पांच इंद्रियों
के प्रतीक
पांचजन्य को
वह बजाते हैं
और वह कहते
हैं कि मेरी
समस्त
इंद्रियों
सहित मैं यहां
मौजूद हूं।
मेरी मौजूदगी
की घोषणा है।
वह सारे शंख
अपनी-अपनी
मौजूदगी की
घोषणा करते
हैं। सबके
शंखों के
अलग-अलग नाम
हैं। और
प्रत्येक
अपना-अपना शंख
बजाता है, वह
उसकी घोषणा
है। प्रत्येक
शंख का
अलग-अलग स्वर
है। और
प्रत्येक शंख
का प्रत्येक
व्यक्ति के
आंतरिक
व्यक्तित्व
से संबंध है।
लेकिन कृष्ण
के शंख का
मुकाबला कोई
भी नहीं है।
समग्र रूप से
वहां कोई भी
उपस्थित नहीं
है, समग्र
रूप से वह
अकेले ही
उपस्थित हैं।
और मजे की बात
है कि वही
वहां युद्ध
करने को
उपस्थित नहीं
है। वह आदमी
वहां लड़ने आया
ही नहीं, "नानकमीटेड',
वहां खड़ा
है।
सच बात
यह है कि पूरा
वही खड़ा हो
सकता है जिसका
कोई "कमिटमेंट' नहीं
है। अगर "कमिटमेंट'
है तो अधूरे
ही खड़े होंगे
आप। "कमिटमेंट'
में
कुछ-न-कुछ
पीछे छूट ही
जाता है, कुछ
बाकी रह जाता
है। कम-से-कम
वह तो छूट ही
जाता है जो "कमिट' करता
है। वह पीछे
छूट जाता है।
"वन कैन बी
टोटल ओनली
व्हेन वन इज
अनकमीटेड'। जब कोई भी "कमिटमेंट'
नहीं हैं तब
तो कोई बात ही
नहीं है। हम
पूरे ही होते
हैं, कोई
वजह ही नहीं
है। इसलिए
कृष्ण वहां
युद्ध करने को
आए नहीं, लेकिन
पूरे युद्ध
में हैं। और
पांचजन्य
इनकी घोषणा
देता है कि यह
आदमी पूरा
यहां मौजूद
है। "टोटल
प्रेजेंस' की
खबर वह पांच
इंद्रियों के
प्रतीक
पांचजन्य से
होगी। यह आदमी
युद्ध में
मौजूद है।
युद्ध करने को
मौजूद नहीं।
इसका केवल
मतलब इतना है
कि यह तय करके
आया नहीं।
युद्ध करने का
कोई भी निर्णय
इसके मन में
नहीं है।
युद्ध से इसे
कोई प्रयोजन
भी नहीं है, इसे कुछ
मिलने-जाने
वाला भी नहीं
है, इसका
युद्ध से कोई
संबंध भी नहीं
है। "नो-पार्टी
' है यह
आदमी। कौन जीतता
है, कौन
हारता है, इससे
इसे कुछ बनता-बिगड़ता
नहीं। इसका
अपना कोई हित,
कोई
स्वार्थ नहीं
है। लेकिन फिर
भी यह आदमी एक
क्षण आता है
युद्ध का और
युद्ध में उतर
जाता है और
सुदर्शन चक्र
को हाथ में ले
लेता है--वह उनके
चक्र का नाम
है।
वह नाम
भी बड़ा
प्रतीकात्मक
है।
असल
में जिन लोगों
ने काव्य लिखे
उन्होंने शब्दों
के साथ बड़ी
मेहनत की है।
काव्य का तो
प्राण ही शब्द
है। और शब्दों
के साथ बड़ी
उन्होंने
छेनी-हथौड़ी
लेकर सैकड़ों
वर्ष तक मेहनत
की है।
अब
कृष्ण का जो
चक्र है, उसको
नाम दिया है
सुदर्शन का।
मृत्यु का वह
वाहक है और
नाम सुदर्शन
का है। मृत्यु
देखने में
सुंदर नहीं होती,
न सुदर्शन
होती है, लेकिन
कृष्ण के हाथ
में मृत्यु भी
सुदर्शन बन जाती
है। उतना ही
अर्थ है। हम
एटम बम को
सुदर्शन चक्र
का नाम नहीं
दे सके। एटम
जैसा ही संघातक
है वह। अचूक
है उसकी चोट।
मौत उसकी
निश्चित है
उससे। वह
छूटता है तो
बस मारकर ही
लौटता है।
मृत्यु जहां
बिलकुल
निश्चित हो, वहां भी हम
उस मृत्यु के
शस्त्र को
सुदर्शन कहेंगे?
लेकिन कहा
तो है। असल
में कृष्ण
जैसे आदमी के हाथ
में मृत्यु भी
सुदर्शन हो
जाती है।
हिटलर जैसे
आदमी के हाथ
में फूल भी
सुदर्शन नहीं
रह जाता है।
सवाल यह नहीं
है कि क्या है
आपके हाथ में,
सवाल सदा
यही है कि हाथ
किसका है।
कृष्ण के हाथ
से मरना भी
आनंदपूर्ण हो
सकता है। और
उस युद्ध के
स्थल पर खड़े
हुए मित्र और
विपक्षी भी इस
बात को
स्वीकार करते
हैं कि उनके
हाथ से मरना आनंदपूर्ण
हो सकता है।
वह भी सौभाग्य
का क्षण हो
सकता है।
इसलिए उनके
शस्त्र को भी नाम
जो देते हैं
हम, वह
सुदर्शन का
नाम दिया है।
एक
क्षण आता है
युद्ध का, वह
सुदर्शन हाथ
में लेकर
युद्ध में कूद
पड़ते हैं। यह
उनके "स्पांटेनियस',
सहज होने का
प्रतीक है।
ऐसा आदमी क्षण
में जीता है,
"मॉमेंट टु मॉमेंट'। ऐसा आदमी
पिछले क्षण से
बंधा हुआ नहीं
होता है। अगर
ठीक से समझें
तो ऐसे आदमी
की कोई "प्रॉमिस'
नहीं होती।
संभवतः जेसपर्स
ने आदमी की
परिभाषा की
है--बहुत
परिभाषाएं आदमी
की की जा सकती
हैं, कोई
कहता है, "मैन
इज ए रेशनल
बीइंग', मनुष्य
बुद्धिमान
प्राणी है। जेसपर्स
ने जो परिभाषा
की है वह है, "मैन इज ए प्रॉमिसिंग
एनिमल'।
आदमी जो है, वह वचन देने
वाला प्राणी
है। कृष्ण
आदमी नहीं हैं।
वह वचन देता
नहीं। हां, गांधी उनमें
आएंगे, वचन
देन वाले
प्राणियों
में आएंगे।
कृष्ण वचन
देनेवाला
प्राणी नहीं
है। क्षण में
जीने वाला
आदमी है। जो
क्षण ले आएगा,
वैसा
जिएगा। अगर
क्षण ने ऐसी
स्थिति पैदा
कर दी तो यह
अपने को
रोकेगा नहीं।
क्षण अगर
युद्ध ले आया,
तो युद्ध
में उतर
जाएगा।
क्षण-क्षण
जीवन का जो
अर्थ होता
है--और
निश्चित ही
केवल
क्षण-क्षण जीने
वाला आदमी ही
मुक्त जी सकता
है। क्योंकि जिसने
वचन दिए हैं, वह अतीत से
बंध जाता है।
जो पीछे से
बंध जाता है, जो पीछे से बंधकर
जीने लगता है,
उसकी
भविष्य की
स्वतंत्रता
रोज संकीर्ण
होती चली जाती
है। और अतीत
भविष्य पर
बोझिल होने लगता
है।
तो
कृष्ण लड़ने
में उतर जाते
हैं। आए नहीं
थे लड़ने को, युद्ध
करने का कोई
खयाल न था, कोई
बात न थी, उतर
जाते हैं
युद्ध में। यह
बड़ी कठिनाई की
बात रही है।
जो लोग कृष्ण
पर सोचते रहे
हैं, उन्हें
बड़ी मुश्किल
की बात रही है
कि वह युद्ध
में क्यों उतर
गए? कारण
सिर्फ इतना ही
है कि वैसा
आदमी भरोसे का
आदमी नहीं है।
"ही कैन नाट बी
रिलाइड अपॉन।' ऐसे
आदमी पर
बिलकुल पक्का
भरोसा नहीं
किया जा सकता।
ऐसा आदमी जो
स्थिति होगी
वैसा जिएगा। और
आप उससे यह
नहीं कह सकते
कि कल तो आप
ऐसे थे, आज
आप ऐसे? वह
कहेगा, कल
अब नहीं है।
गंगा का पानी
बहुत बह चुका।
अब गंगा जहां
है, वहां
है। आज मैं
ऐसा हूं; और
कल मैं कैसा
होऊंगा, कुछ
भी नहीं कहा
जा सकता। कल
आएगा, तभी
हम जानेंगे।
इस तरह के
आदमी की
भविष्यवाणी
नहीं बताई जा
सकती।
ज्योतिषी ऐसे
आदमी के साथ
हार जाते हैं।
ज्योतिषी ऐसे
आदमी के साथ
कभी नहीं जीत
पाते।
क्योंकि
ज्योतिषी
बताता है भविष्य
को। वह आज के
आदमी को देखकर
कहता जाएगा।
क्योंकि
कृष्ण कल क्या
करेंगे, यह
बिलकुल नहीं
कहा जा सकता।
आज के कृष्ण
से कुछ निकलता
ही नहीं कल के
कृष्ण के लिए।
कल का कृष्ण
कल पैदा होगा,
आज का कृष्ण
आज पैदा हुआ
है।
इसे
थोड़ा ठीक से
देख लें।
दो तरह
की जिंदगियां
होती हैं। एक
जिंदगी होती
है,
शृंखलाबद्ध।
और एक जिंदगी
होती है, "एटॉमिक'।
एक जिंदगी
होती है "सीरीज़'
की तरह, और
एक जिंदगी
होती है अणुओं
की तरह। जो
आदमी शृंखला
में जीता है, उसके कल और
आज के बीच
सेतु होता है।
उसका आज उसके
कल से निकलता
है। उसकी
जिंदगी उसके
मरे हुए
हिस्सों से
निकलती है।
उसका ज्ञान
उसकी स्मृति
से निकलता है।
उसका आज का
होना उसके कल की
राख से निकलता
है, उसकी
जिंदगी का फूल
उसकी कब्र पर
खिलता है।
लेकिन
एक दूसरा जीवन
है। यह जीवन
शृंखला का जीवन
नहीं है, आणविक
जीवन है।
उसमें आज का
होना कल से
नहीं निकलता,
आज से ही
निकलता है। यह
आज का जो सारा
अस्तित्व है,
इससे ही
निःसृत होता
है। मेरे कल
का जो शृंखलाबद्ध
स्मृति का
अस्तित्व है,
मेरा जो
संस्कार का
अस्तित्व है,
मेरी जो
"कंडीशनिंग' है, उससे
नहीं निकलता
है मेरा आज का
होना। आज के इस
विराट
अस्तित्व से,
आज के "एक्ज़िस्टेंस'
से, आज
के अस्तित्व
से निःसृत
होता है। "एक्ज़िस्टेंसियल'
है। आज के
क्षण से
निकलता है, आने वाले
क्षण में फिर
उस क्षण से
निकलता है, फिर आने
वाले क्षण में
उस क्षण से
निकलता है। शृंखला
ऐसे जीवन में
भी होती है, लेकिन सेतुबद्ध
नहीं होती।
रोज-रोज
प्रतिपल
निकलता है।
ऐसा आदमी हर
क्षण को जीता
है और हर क्षण
को मर जाता
है। आज जीता
है, आज मर
जाता है। आज
रात सोता है, आज के लिए मर
जाता है। कल
सुबह फिर जीता
है, फिर
जगता है।
प्रतिपल जीना
और प्रतिपल मर
जाना--"डाइंग
टु एवरी मॉमेंट',
तभी वह
प्रतिपल नया
होकर जन्म
लेता है। तो
प्रतिपल नया
है और कभी
पुराना नहीं
पड़ता। वैसा
आदमी सदा जवान
है। ऐसा आदमी
सदा युवा है, ऐसा आदमी
सदा ताजा है।
और उसका जो
होना निकलता
है वह समग्र
अस्तित्व से
निकलता है, इसलिए उसका
होना भागवत
है।
हम
भगवान का जो
अर्थ करें, मैं
जो करूं भगवान
का अर्थ, वह
यही है। भगवान
का जीवन "एटामिक'
है, आणविक
है, "एक्ज़िस्टेंसियल'
है, अस्तित्व
से निकलता है,
सत से
निकलता है, रोज-रोज
प्रतिपल, पल-पल
निकलता है, होता है।
उसका न कोई
अतीत है, न
कोई भविष्य है,
सिर्फ
वर्तमान है।
कृष्ण को अगर
भगवान कहा जा सका,
भागवत
चेतना कहा जा
सका, "डिवाइन
कांशसनेस' कहा
जा सका, उसका
और कोई अर्थ
नहीं है। उसका
यह मतलब नहीं
है कि कहीं कोई
भगवान बैठा है
और वह इस आदमी
में उतर आया
है। इसका इतना
ही मतलब है कि
भगवान अर्थात
समग्र, "दि
टोटल', इस
आदमी का होना
समग्र से ही
निकलता चला
जाता है।
इसलिए इस आदमी
में अगर हम
कभी "कंसिस्टेंसी'
खोजने जाएं
तो थोड़ी दिक्कत
में पड़ेंगे।
ऐसे आदमी में
अगर हम संगति खोजने
जाएं, शृंखला
खोजने जाएं, तो हमें
बहुत-सी चीजों
को "इगनोर'
करना
पड़ेगा। या
बहुत-सी चीजों
को जबर्दस्ती
समझाना
पड़ेगा। या
बहुत-सी चीजों
को किसी तरह
तालमेल
बिठाना
पड़ेगा। या
कहना पड़ेगा
लीला है। जब
हमारी समझ में
नहीं पड़ेगा तो
कहना पड़ेगा
समझ में नहीं
पड़ता है, लीला
है। लेकिन
कठिनाई और
अड़चन जो आ रही
है वह "सीरियल एक्ज़िस्टेंस'
और "स्पांटेनियस
एक्ज़िस्टेंस'--शृंखलाबद्ध
अस्तित्व और
सहज अस्तित्व,
इनको न
समझने से आती
है।
"भगवान
श्री, राम
का जीवन तो
वाल्मीकि ने
राम के होने के
पहले लिख दिया
था। वे भी
भगवान थे। तो
उनका जीवन
शृंखलाबद्ध
कैसे हुआ?'
यह
सवाल बहुत
अच्छा पूछा
है। यह पूछा
है कि राम का
जीवन तो
वाल्मीकि ने
राम के होने
के पहले लिख
दिया था।
लिखा
जा सकता है।
राम का जीवन
लिखा जा सकता
है। वह
मर्यादा के
आदमी थे। यह
मजाक छिपी है
उसमें कि
वाल्मीकि ने
जो पहले लिखा
राम का जीवन, उसका
मतलब कुल इतना
है कि राम
आदमी ऐसे हैं
कि उनका जीवन
पहले ही से
लिखा जा सकता
है कि वह क्या
करेंगे। वह
चरित्र है।
क्या करेंगे,
क्या नहीं
करेंगे, इसके
बाबत पहले से
पक्का हुआ जा
सकता है। ऐसा नहीं
है कि वाल्मीकि
ने लिख दिया
था। इस घटना
में बड़ा मजाक
छिपा हुआ है, और इस मुल्क
ने बड़े गहरे
मजाक किए हैं
जो कि हम पकड़न
नहीं पाते। इस
घटना में यह
छिपा है, कि
इतना बंधा हुआ
जीवन है राम
का कि राम के
जीने के पहले
ही वाल्मीकि
कवि लिख सकता
है। इतना "सीरियल
एक्ज़िस्टेंस'
है। राम के
बाबत पक्का
हुआ जा सकता
है कि तुम
क्या करोगे? राम पैदा न
हों, उसके
पहले कहा जा
सकता है कि यह
आदमी पैदा होकर
क्या करेगा? ऐसा नहीं है
कि वाल्मीकि
ने पहले लिख
दिया। लिखा तो
पीछे ही गया, लेकिन राम
का जीवन
"सीरियल' होने
की वजह से यह
मजाक प्रचलित
हो गया उन वर्गों
में, जो
मजाक का मतलब
समझते हैं। यह
मजाक प्रचलित
हो गया कि राम
की भी कोई
जिंदगी है, यह तो एक
चरित्र है, जैसे कि एक
फिल्म लिखी
जाती है। पहले
लिख दी जाती
है, फिर
खेली जाती है।
यह तो पहले
लिख दी गई है, इसकी
"स्क्रिप्ट' पहले लिखी
जा सकती है।
राम का मामला सब
सुनिश्चित है,
"सर्टेन'
है, उसके
बाबत कहा जा
सकता है कि
सीता चोरी
जाएगी तो राम
क्या करेंगे।
यह भी कहा जा
सकता है कि सीता
को लंका से ले
आएंगे तो
अग्नि-परीक्षा
जरूर लेंगे।
यह सब कहा जा
सकता है। और
इतने के बावजूद
भी, अग्नि-परीक्षा
हो जाए फिर भी
एक धोबी कह देगा
कि हमें संदेह
है, तो
निकाल बाहर
करेंगे। यह सब
मामला, बिलकुल
पक्का है।
कृष्ण के
मामले में
पक्का कुछ भी
नहीं कहा जा
सकता।
"भगवान
श्री, आप
मार्टिन बूबर
की भाषा में
कृष्ण को "इंटरप्रीट'
करते हैं?'
नहीं, मार्टिन
बूबर
घूम-फिर कर
द्वैतवादी
है। मार्टिन बूबर अद्वैतवादी
नहीं है। असल
में मार्टिन बूबर की जो
जड़ें हैं, वे
हिब्रू और ज्यू
विचार में
हैं। तो
मार्टिन बूबर
जो कहता है वह
ज्यादा-से-ज्यादा
मैं और तू के बीच
गहरी-से-गहरी
आंतरिकता
पैदा हो, संबंध
पैदा हो, इसके
लिए तो आतुर
है। मैं और
तू--"आई' और
"यू' के बीच
एक बड़ा आंतरिक
भाव पैदा
हो--इतना भाव
हो कि मैं तू तक
बह जाए, तू
मैं तक आ जाए, लेकिन मैं
और तू को
मिटाने की
तैयारी
मार्टिन बूबर
की नहीं है।
असल में
मार्टिन बूबर
जिस परंपरा से
आता है, उस
परंपरा में ही
द्वैत को
मिटाने की
तैयारी नहीं
है। जीसस को
यहूदियों ने
सूली इस वजह
से दी कि जीसस
ने ऐसे
वक्तव्य दे
दिए जो अद्वैतवादी
थे। जीसस ने
कह दिया--"आई
एंड माइ
फादर आर वन'। यह खतरनाक
हो गया। यहूदी
विचार इसको न
समझ सका।
यहूदियों ने
कहा, यह
बर्दाश्त के
बाहर है। तुम
कितना ही कुछ
कहो, परमात्मा
ऊपर है और तुम
चरणों में हो।
तुम यह घोषणा
नहीं कर सकते
कि तुम
परमात्मा हो।
मुसलमानों ने
सूफियों को
सताया और
सूलियां दीं।
इसका कारण वही
यहूदी विचार
की परंपरा है।
जब मंसूर ने
कहा, अनलहक--मैं ही
ईश्वर हूं--तो
फिर बर्दाश्त
के बाहर हो गया।
कहा कि तुम
कितने ही ऊपर
उठो, लेकिन
तुम ईश्वर
नहीं हो सकते।
मुहम्मद को भी
ईश्वर होने का
दर्जा नहीं दे
सका मुसलमान।
मुहम्मद को भी
कहा, संदेशवाहक
है, पैगंबर
है, अवतार
नहीं है।
क्योंकि
ईश्वर अलग है
और हम अलग
हैं। हम उसके
चरणों में हो
सकते हैं।
ऊंची-से-ऊंची
ऊंचाई जो है, वह उसके
चरणों में है।
"सुपरमैन'
हो गया न वह? मैं
ही ब्रह्म हो
जाता हूं का
क्या
तात्पर्य?'
"सुपरमैन' कहना
मुश्किल है।
जब हम कहते
हैं कि मैं
ब्रह्म हो
जाता है, तो
"मैन' बचता
ही नहीं। आदमी
बचता ही नहीं।
जब मैं ब्रह्म
हो
जाता है तो
ब्रह्म ही
बचता है। आदमी
नहीं बचता। वह
"शियर ट्रांसेडेंस'
है, उसके
बाद कुछ बचता
नहीं। बस, अतिक्रमण
है।
राम के
बाबत संभव है।
मजाक गहरा है।
लेकिन हम बहुत
गंभीर लोग हैं, और
जो लोग राम
वगैरह पर
विचार करते
हैं वे भारी
गंभीर लोग हैं,
वे मजाक को
नहीं समझ पाते,
वे बेचारे
गंभीरता से
व्याख्याएं
किए चले जाते
हैं। मजाक यह
है कि राम तुम
आदमी ऐसे हो
कि वाल्मीकि
कवि तुम्हारी
कथा पहले ही लिख
दे सकता है।
इससे ज्यादा
कुछ नहीं, इससे
ज्यादा कोई
दिक्कत तुम
में नहीं है।
"शृंखलाबद्ध
जीवन में और
सहज जीवन में
स्मृतियां
क्या खतम हो
जाएंगी?'
नहीं, शृंखलाबद्ध
जीवन में आपका
होना आपकी
स्मृति से
निकलेगा। सहज जीवन
में आपका होना
अपनी स्मृति
का उपयोग करेगा।
इतना फर्क
होगा। आप तो
प्रतिपल नए
होंगे, सहज
जीवन में, अगर
आप चाहेंगे तो
आपकी स्मृति
का उपयोग करेंगे!
स्मृति आपके
चित्त के
संग्रह में
पड़ी रहेगी, मौजूद रहेगी,
मिट नहीं
जाएगी, बनी
रहेगी। लेकिन
वह ऐसे ही
होगी जैसे
आपके घर में
नीचे के तलघर
में बहुत-सा
सामान भरा है,
जब जरूरत
होती है, आप
निकाल लेते
हैं। इसलिए
बुद्ध ने जो
नाम दिया है, उसको नाम
दिया है, उन्होंने
कहा है, आगार;
कहा है, आवास।
स्मृति-आगार।
वह एक संग्रह
है, "स्टोरहाउस आफ
कांशसनेस'।
चेतना का एक
संग्रह है। जो
पड़ा है एक
तरफ। जब जरूरत
आपको
होगी--आपके "स्पांटेनियस'
एक्ज़िस्टेंस'
को भी जरूरत
पड़ेगी स्मृति
की। आपको अपने
घर वापस लौटना
होगा, तो
आपको अपने घर
की स्मृति की
जरूरत पड़ेगी।
आप उसका उपयोग
करेंगे।
"अर्जुन
को समझाते
वक्त क्या
पुराण-स्मृतियों
ने "प्राब्लम'
नहीं दिया?'
वह
दूसरी बात है, वह
दूसरी बात है।
अभी जो मैं कह
रहा हूं वह यह
कह रहा हूं कि
सहज जीवन वाले
व्यक्ति की
स्मृति नष्ट
हो जाएगी।
स्मृति पूरी
ताजी, पूरी
जीवंत मौजूद
रहेगी, लेकिन
सहज जीवन वाली
चेतना
प्रतिपल नई
होकर उसका
उपयोग करेगी,
उसकी मालिक
होगी। शृंखलाबद्ध
जीवन की चेतना
में नया
व्यक्ति होगा
ही नहीं, पिछली
स्मृतियां ही
नए व्यक्ति को
जन्म देती रहेंगी।
वह मालिक हो
जाएंगी
स्मृतियां, और व्यक्ति
गुलाम हो
जाएगा।
अब आप
जो पूछते हैं, क्या
पूछते हैं?
"कृष्ण-अर्जुन
के आपस के जो "रिलेशंस' हैं, वहां
कृष्ण क्या
किसी वक्त
स्मृति-आगार
से कुछ उपयोग
नहीं किए, और
पूरे समय अपना
जीवन "स्पांटेनियस'
रखा?'
जीवन
तो हर वक्त "स्पांटेनियस' है।
स्मृति का
उपयोग वह करते
हैं, वह तो
मैं कह रहा
हूं। वह मैं
कह रहा हूं, स्मृति का
उपयोग करने
में वह मालिक
हैं, और आप
अपनी स्मृति
के उपयोग करने
में मालिक
नहीं हैं।
स्मृति ही
आपका उपयोग कर
रही है। आप
नहीं कर रहे
हैं उपयोग।
एक
आदमी आपके पास
बैठा है। आप
उससे पूछते
हैं,
आप किस जाति
के हैं? वह
कहता है, मैं
मुसलमान हूं।
बस, मुसलमान
के बाबत आपकी
एक स्मृति है,
आप इस आदमी
पर लागू कर
देंगे। इस
मुसलमान से
उसका कोई
लेना-देना
नहीं है। आपके
गांव में कोई
मुसलमान
गुंडा होगा, उसने मंदिर
में आग लगा दी
होगी, यह
बिचारे से
उसका कोई
संबंध नहीं
है। अब आप दूर
सरक कर बैठ गए,
कि मुसलमान
है! अब आप
स्मृति के
गुलाम हुए। अब
आपने स्मृति
की गुलामी
शुरू कर दी।
हिंदुस्तान
के हिंदू किसी
मुसलमान को
मार डालेंगे,
पाकिस्तान
के किसी हिंदू
से बदला लिया
जाएगा। क्या
पागलपन है!
स्मृति काम कर
रही है। बस, स्मृति से
ही आप जी रहे
हैं। किसी और
को मार रहे
हैं किसी और
के लिए। दो
मुसलमानों के
बीच क्या
संबंध है? दो
हिंदुओं के
बीच क्या
संबंध है? लेकिन
नहीं, मुसलमान
के बाबत आपकी
स्मृति हर
मुसलमान पर आप
लागू कर
लेंगे। बड़ी
गलती बात कर
रहे हैं। स्मृति
आपको उपयोग कर
रही है, आप
स्मृति का
उपयोग नहीं कर
पा रहे हैं।
अगर आप कर रहे
होते तो आप
कहते, ठीक
है, यह
आदमी "एक्स' मुसलमान है,
वह "वाई' मुसलमान
था, इसका
उसका कोई मतलब
नहीं है। ठीक
है, इतना
हम समझें कि
तुम उसी धर्म
को मानते हो, जिसको वह
आदमी मानता
था। लेकिन
इससे क्या फर्क
पड़ता है! इससे
आप सरकेंगे
नहीं दूर, इससे
आप कोई निर्णय
नहीं लेंगे।
इससे इस आदमी की
बाबत आप
पूर्वधारणा
तय नहीं
करेंगे। इस आदमी
को देखेंगे, समझेंगे, उस समझ से ही
आप जियेंगे।
सहज
जीवन स्मृति
का उपयोग है।
शृंखलाबद्ध
जीवन स्मृति
की दासता है।
"आपने
कहा कि कृष्ण
के हाथों जो
मरता है वह
पुण्य-कर्म का
फल है। और यह
बात जब आप
कहते हैं तो मन
में एक
आनंददायक
पीड़ा होती है।
एक दूसरा प्रश्न
करूं, जवाब
दें, न दें।
जो यह नाटक आप
कर रहे हैं, यह क्या
अकारण ही है?'
बिलकुल
अकारण है।
बिलकुल अकारण
है,
हूंऽऽ...। यह
नाटक हो रहा
है, हूंऽऽ...।
और
पुण्य-कर्म का
फल है, ऐसा जब
कहता हूं तो
मेरा मतलब
सिर्फ इतना है
कि इस जीवन
में जो भी
घटित होता है,
इस "मैनिफेस्टेड',
इस प्रगट जगत
में जो भी
घटित होता है,
वह अकारण
नहीं है।
कृष्ण से अगर
मिलना भी हो जाता
है, तो भी
इस घटना के
जगत में कृष्ण
से मिलना भी
आकस्मिक और "एक्सिडेंटल'
नहीं है। तो
कृष्ण के हाथ
से मरना तो हो
ही नहीं सकता
आकस्मिक। इस
जगत में
आकस्मिक कुछ
भी नहीं है।
किसी से हम मिले
हैं, मिल
रहे हैं; किसी
से हम लड़े हैं,
लड़ रहे हैं;
किसी से हम
प्रेम में हैं,
प्रेम कर
रहे हैं; किसी
के हम मित्र
हैं, किसी
के हम शत्रु
हैं, यह
हमारे पूरे
होने से, हमारे
पूरे अनंत
होने से निकला
है। इस होने
में
आकस्मिकता
नहीं है।
प्रगट जगत में
कुछ भी आकस्मिक
नहीं है। और
जब प्रगट जगत
में कुछ अकारण
प्रगट होता है,
तब हमें
चमत्कार
मालूम होने
लगता है।
क्योंकि वह अप्रगट
जगत की खबर
लाता है।
कृष्ण का होना
बिलकुल अकारण
है। अर्जुन से
कृष्ण का
संबंध अकारण
नहीं है।
अर्जुन से
कृष्ण की तरफ
तो बिलकुल ही
अकारण नहीं
है।
इसे थोड़ा
समझने में
कठिनाई
पड़ेगी।
कृष्ण
जैसे व्यक्ति
के साथ हमारे
संबंध "वन वे
ट्रैफिक' के होते
हैं। हम उसे
प्रेम करते
हैं। वह हमें
प्रेम करता है,
ऐसा नहीं
कहा जा सकता
है। वह
प्रेमपूर्ण
है, बस
इतना ही कहा
जा सकता है।
हम उसके पास
जाते हैं, उसका
प्रेम हमें
मिलता है।
इसलिए यह हो
सकता है कि हम
समझते हों कि
वह हमें प्रेम
करता है।
लेकिन वह
सिर्फ
प्रेमपूर्ण
है। हम उसके
पास जाते हैं,
प्रेम हम पर
भरता है।
हमारी तरफ से
हम प्रेम करते
हैं। लेकिन
"वन वे
ट्रैफिक' है।
दूसरी तरफ से
प्रेम आता
नहीं, दूसरी
तरफ प्रेम है।
हमारी तरफ से
जाता है हमको
आता हुआ मालूम
पड़ता है, वह
हमारी समझ है।
कृष्ण
की तरफ से
किसी का मारा
जाना बिलकुल
अकारण है।
लेकिन जो मारा
गया है, वह
अकारण नहीं
है। उसकी तरफ
से कारण है।
वह अपनी
जिंदगी की
लंबी
शृंखलाबद्ध
व्यवस्था में जी
रहा है, वह
कोई सहज जीवन
नहीं है उसका।
असल में
राक्षस का
जीवन सहज कैसे
हो सकता है! या
जिनका भी जीवन
सहज नहीं है
उनका जीवन
राक्षस से
अन्यथा कैसे
हो सकता है!
उसका जीवन सहज
नहीं है, शृंखलाबद्ध
है, वह तो
अपने अतीत से
जी रहा है।
इसलिए अगर वह
कृष्ण के हाथ
से मरता है, तो उसके
अतीत की
शृंखला के आगे
ही जुड़ी हुई
यह कड़ी है।
उसके अतीत से
ही निकलती है।
कृष्ण के लिए
अकारण है। वह
नहीं मरता तो
कृष्ण उसको ढूंढ़ते
हुए नहीं
फिरते। वह आ
गया है सामने,
बात और है।
अगर कृष्ण
किसी को प्रेम
कर रहे हैं, वह नहीं
मिलता तो वह
उसे ढूंढ़ते
नहीं फिरते।
वह सामने आ
गया है, बात
और है। अगर
कृष्ण को कोई
भी न मिले, वह
अकेले जंगल
में बैठे हों,
तो भी प्रेम
करते
रहेंगे--उस
जंगल के शून्य
को, उस
निपट एकांत को,
उस निर्जन
को उनका प्रेम
मिलता रहेगा।
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ेगा।
"आप जो
कुछ कृष्ण के
बारे में कह
रहे हैं, उनके
गुणों को
वर्णन कर रहे हैं,
और ऐसा लगता
है जैसे उनकी
भक्ति के
प्रवाह में हम
बह गए हैं।
ऐसा क्या संभव
नहीं है कि
उनमें कुछ दोष
भी हों? क्या
यह जरूरी है
कि उनके हर
कर्म को "जस्टिफाई'
ही करते
चलें--चाहे वह
रासलीला हो, चाहे वह वस्त्रहरण
हो, चाहे अश्वत्थामा
मारा गया हो
यह झूठ
बुलवाना हो
युधिष्ठिर
जैसे आदमी से?
इस धारा में
ही यदि हम
सोचते चलें तो
मुझे लगता है
कि बहुत
वैज्ञानिक
हमारी "एप्रोच'
न हो पाएगी।'
यह
बात बहुत ठीक
है। यह बात
बिलकुल ठीक है
कि हम कृष्ण
में थोड़े दोष
क्यों न देखें? लेकिन,
देखने की
कोशिश
वैज्ञानिक
होगी? देखने
की चेष्टा
वैज्ञानिक
होगी? नहीं,
हम दोष न
देखें, ऐसा
अगर तय करके
चलें, वह
भी वैज्ञानिक
न होगा। हम
दोष देखें ही,
ऐसा सोच कर
चलें, वह
भी वैज्ञानिक
न होगा।
वैज्ञानिक तो
इतना ही होगा
कि हम कृष्ण
को देखें, और
कृष्ण जैसे
दिखाई पड़ें
वैसा देखें।
मुझे जैसे
दिखाई पड़ रहे
हैं वैसा मैं
कर रहा हूं।
आप भी वैसा ही
देखें ऐसा आग्रह
करूं, तो
अवैज्ञानिक
हो जाएगा।
आपको वैसे
दिखाई पड़ जाएं,
ठीक है, न
दिखाई पड़ जाएं,
ठीक है।
आपको दोष
दिखाई पड़ें, बराबर देखें,
मेरी
बिलकुल न
मानें। मुझे
जैसे दिखाई पड़
रहे हैं, मैं
वैसे ही देख
सकता हूं।
अन्यथा देखने
की कोशिश करूं
तो बात
वैज्ञानिक हो
जाएगी, वह
सिर्फ कोशिश
हो जाएगी।
दूसरी
बात--दूसरी
बात भी सोचने
जैसी है कि
वैज्ञानिक "एप्रोच'! थोड़ा
सोचने जैसा है
कि क्या जगत
में सभी चीजें
ऐसी हैं जिन
पर वैज्ञानिक
"एप्रोच'
लागू हो सके?
क्या कुछ
चीजें ऐसी भी
हैं जिन पर
वैज्ञानिक "एप्रोच' लागू करना
अवैज्ञानिक
हो? कुछ
चीजें ऐसी
हैं। अब जैसे
प्रेम पर हम
वैज्ञानिक
ढंग से सोच ही
नहीं सकते हैं,
उपाय ही
नहीं है। यह
प्रेम का होना
ही अवैज्ञानिक
है। अगर हम
वैज्ञानिक
ढंग से सोचें
तो हमें इनकार
ही करना पड़ेगा
कि प्रेम है
ही नहीं। यानी
और कोई अंत
नहीं होगा
उसका। उसका
परिणाम सिर्फ
एक ही होगा कि
हमें प्रेम को
इनकार करना पड़ेगा।
प्रेम का होना
ही
अवैज्ञानिक
है। अब इसमें
कठिनाई जो है,
कि या तो
प्रेम को
अवैज्ञानिक
ढंग से सोचना
पड़े--और मैं
मानता हूं कि
यही
वैज्ञानिक
होगा प्रेम के
बाबत। यही "साइंटिफिक
एटीटयूड'
होगी, क्योंकि
प्रेम जैसा है
वैसा ही सोचियेगा
न? और या
फिर हम प्रेम
के संबंध में
वैज्ञानिक ढंग
से सोचें और
पाएं कि प्रेम
है ही नहीं।
इसे हम
ऐसा समझें--
जैसा
मैंने अभी कहा
था,
आंख देखती
है, कान
सुनते हैं।
अगर हम आंख के
ढंग से कान की
सुनी हुई
चीजों को
सोचें तो
मुश्किल हो
जाएगी। आंख तो
कह देगी कि
कान देखते ही
नहीं।
स्वभावतः। और
आंख सुन सकती
नहीं। तो आंख
यह तो मानेगी
कैसे कि कान
सुनते हैं? आंख यह दो
बातें तय
करेगी। पहली
बात तो यह तय करेगी
कि कान देखते
नहीं, जो
कि ठीक है, उसका
तय करना।
दूसरी बात वह
यह तय करेगी
कि कान सुनते
नहीं--क्योंकि
आंख तो सुन
सकती नहीं--जो
कि गलत होगा
उसका तय करना।
वैज्ञानिक
जो प्रक्रिया
है,
वह
प्रक्रिया
ऐसी है कि
उसकी पकड़ में
"मैटर' के
अतिरिक्त और
कुछ कभी आता
नहीं। पदार्थ
के अतिरिक्त
और कभी कुछ
आता नहीं। आंख
की पकड़ में प्रकाश
के अतिरिक्त
और कभी कुछ
आता नहीं। कान
की पकड़ में
ध्वनि के
अतिरिक्त और
कभी कुछ आता नहीं।
वैज्ञानिक
प्रक्रिया जो
है, "साइंटिफिक एप्रोच'
जो है, उसकी
"मेथडॉलाजी'
ऐसी है कि
उसकी पकड़ में
पदार्थ के
अतिरिक्त कभी
कुछ आता नहीं।
फिर एक ही
उपाय रह जाता
है कि वैज्ञानिक
कह दे कि
पदार्थ के
अतिरिक्त कुछ
भी नहीं है।
अब तो
वैज्ञानिक और
मुसीबत में पड़
गया है।
क्योंकि
पदार्थ को
खोजते-खोजते
वह उस जगह पहुंच
गया, जहां
कि अब पदार्थ
भी पकड़ में
नहीं आता। तो
इस पिछले
पंद्रह-बीस
वर्षों में
विज्ञान को यह
स्वीकृति
देनी पड़ी कि
कुछ ऐसा भी है
जो हमारी पकड़
में नहीं आता।
अगर वह इनकार
कर दें कि "इलेक्ट्रान्स'
नहीं हैं
क्योंकि
हमारी पकड़ में
नहीं आते, तो
फिर "एटम' छूट
जाता है पकड़
से--क्योंकि
वह पकड़ में
आता है लेकिन
वह उन्हीं पर
खड़ा है जो पकड़
में नहीं आते।
इसलिए
अब विज्ञान को
पिछले बीस साल
में बड़ा सिर
झुकाकर एक
स्वीकृति
देनी पड़ी है, वह
यह है कि कुछ
है जो हमारी
पकड़ में नहीं
आता, लेकिन
है। लेकिन
विज्ञान एकदम
स्वीकृति नहीं
देगा। वह यह
कहता है कि आज
नहीं कल, वह
हमारी पकड़ में
आ जाएगा। हम
कोशिश करते
रहेंगे पकड़ने
की। लेकिन और
भी बहुत-सी
चीजें, हो
सकता है किसी
दिन "इलेक्ट्रान'
पकड़ में आ
जाएं, लेकिन
लगता नहीं कि
किसी दिन
प्रेम भी किसी
प्रयोगशाला
की पकड़ में आ
जाएगा। और अगर
हम प्रेम को पकड़ने गए, तो शायद हो
सकता है फेफड़ा
पकड़ में आ जाए,
हृदय पकड़
में नहीं
आएगा। इसलिए
वैज्ञानिक मानने
को तैयार नहीं
हैं कि हृदय
जैसी कोई चीज
आपके भीतर है।
वह कहता है, फुफ्फस है, फेफड़ा
है, सब है, यह हृदय की
बातचीत मत करो,
यह कविता
है। वह कहता
है, हृदय
जैसी कोई चीज
नहीं है।
लेकिन हम कैसे
मान लें कि
हृदय नहीं है।
क्योंकि
हमारे
अपने-अपने
निजी अनुभव
में तो हृदय
आता है। बहुत
क्षण हैं जब
हम फेफड़े से
नहीं जीते, हृदय से
जीते हैं।
फेफड़े से तो
हम चौबीस घंटे
जीते हैं, लेकिन
कुछ क्षण ऐसे
भी आ जाते हैं
जो फेफड़े के ऊपर
हावी हो जाते
हैं और हृदय
के हो जाते
हैं। और ऐसा
हृदय कभी-कभी
महत्वपूर्ण
हो जाता है कि
हम फेफड़े को
बलिदान कर
देते हैं हृदय
के लिए।
एक
आदमी मर जाता
है प्रेम के
लिए। फेफड़ा जिलाए
रखता है, और एक
आदमी मर जाता
है उस हृदय के
लिए जो है ही नहीं।
मगर अब एक
आदमी मरता है,
अब इसके लिए
क्या करेंगे?
या तो हम कह
दें कि यह मरा
ही नहीं, यह
मरना झूठ है।
मगर यह आदमी
मरा। हमने मजनूं
को देखा, यह
हृदय के पीछे
दीवाना है। या
तो हम कह दें
यह दीवानगी झूठ
है, लेकिन
झूठ भी कहिए
तो भी क्या, यह है तो!
इसको इनकार
कैसे करिएगा,
मजनूं है तो! यह गलत
होगा, पागल
होगा, लेकिन
कहीं है तो!
इसका होना भी
है तो! यह लैला
को सोचता है, काव्य करता
है, गीत
गाता है, भीतर
जीता है, लेकिन
कहीं जीता तो
है! और फेफड़े
की जांच करने
से कहीं लैला
पकड़ में आती
नहीं, लेकिन
इसके हृदय में
कहीं चलती चली
जाती है। इसके
फेफड़े की हम
सब जांच करते
हैं, लैला
कहीं पकड़ में
आती नहीं, लैला
का प्रेम कहीं
पकड़ में नहीं
आता। इसके फेफड़े
को रखते हैं
तो धड़कन पकड़
में आती है, खून की गति
पकड़ में आती
है, आक्सीजन
पकड़ में आती
है, सब पकड़
में आती है, एक चीज चूक
जाती है, जिसके
लिए यह पूरे
फेफड़े को
छोड़ने को
तैयार है।
यानी जिस
प्रेम के लिए
सब छोड़ने को
तैयार है--यह
सांस, यह
फेफड़ा, यह फुफ्फस, यह शरीर--वह
पकड़ में नहीं
आती। या तो--दो
ही उपाय
हैं--या तो हम
कह दें कि वह
है नहीं। लेकिन
कैसे कह दें? और या फिर यह
उपाय है कि हम
वैज्ञानिक
ढंग को छोड़कर
किसी और ढंग
से उसे खोजें।
कृष्ण, वैज्ञानिक
ढंग की पकड़ से
अगर हम चलेंगे
तो एक महापुरुष
रह जाएंगे।
जिनमें दोष भी
होंगे, अच्छाईयां भी होंगी, बुराइयां भी होंगी।
लेकिन ध्यान
रहे, वह
कृष्ण न रह
जाएंगे। मैं
जिस कृष्ण की
तलाश की बात
कर रहा हूं, वह किसी एक
महापुरुष की
बात नहीं कर
रहा हूं। मैं
एक "फेनामिना',
एक घटना की
बात कर रहा
हूं। यह घटना
वैज्ञानिक
पकड़ से समझ
में नहीं
आएगी। और इतना
तो आप समझ ही
सकते हैं कि
मैं आदमी
विज्ञान-विरोधी
नहीं हूं। यानी
मैं विज्ञान
को वहां तक
खींचता हूं
जहां तक वह कई
बार खिंचता भी
नहीं। जहां वह
बिलकुल सांस तोड़कर, दम
तोड़कर
गिर जाता है
तभी छोड़ता
हूं। नहीं तो
मैं खींचता ही
चला जाता हूं
आखिरी दम तक
उसको।
मुझ पर अगर
कोई इल्जाम भी
हो सकता है तो
वह अति
वैज्ञानिकता
का हो सकता है,
कम
वैज्ञानिकता
का नहीं हो
सकता। मैं
खींचता तो
बहुत हूं, लेकिन
मैं क्या करूं?
एक जगह आ
जाती है जहां
विज्ञान दम
तोड़ देता है।
और दो उपाय
हैं, या तो
मैं भी वहीं
खड़ा रह जाऊं, लेकिन मुझे
आगे भी "स्पेस'
दिखाई पड़ती है।
"तो
क्या कभी-कभी
मन और हृदय, विचार और
भाव एक नहीं
हो जाते?'
कई
बार एक हो
जाते हैं। और
जब वे एक हो
जाते हैं तब
बड़ी
महत्वपूर्ण
घटना घटती है।
हां, वह
यह पूछ रहे
हैं कि
कभी-कभी मन और
हृदय, विचार
और भाव एक
नहीं हो जाते?
हो
जाते हैं।
बहुत गहरे में
तो एक होते ही
हैं। बहुत ऊपर
ही अलग-अलग
होते हैं। जैसे
वृक्ष की
शाखाएं ऊपर
अलग-अलग होती
हैं और नीचे
पींड में एक
हो जाती हैं।
ऐसा ही विचार
भी हमारी एक
शाखा है हमारे
होने की। भाव
भी हमारी एक
शाखा है, हमारे
होने की।
ऊपर-ही-ऊपर
अलग-अलग होते
हैं, बहुत
गहरे में तो
एक होते हैं।
और जिस दिन हम
यह जान लेते
हैं कि विचार और
भाव एक हैं, उस दिन
विज्ञान और
धर्म दो नहीं
रह जाते। उस दिन
विज्ञान की एक
सीमा हो जाती
है, और एक
अतिक्रमण का
जगत भी हो
जाता है जहां
धर्म शुरू
होता है।
कृष्ण धर्मपुरुष
हैं। और मैं
उन्हें धर्मपुरुष
की तरह ही बात
कर रहा हूं।
और जैसे वे
मुझे दिखाई
पड़ते हैं वैसी
ही मैं बात कर
रहा हूं।
उसमें आप
उन्हें वैसा
मानकर चलेंगे, ऐसा
आग्रह जरा भी
नहीं है। मुझे
जैसा दिखाई पड़ते
हैं, उसमें
से अगर
थोड़ा-सा भी
आपको दिखाई
पड़ा, तो वह
आपको बदलनेवाला
सिद्ध हो सकता
है।
फिर
अब कल बात करेंगे।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं