अध्याय—7
सूत्र:--
देवद्धिजगुरूप्राज्ञपूजनं
शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा
च शारीरं तप
उच्यते।। 14।।
अनुद्वेगकरं
वाक्यं
सत्यं
प्रियहितं च
यत्।
स्वाध्यायाभ्यमनं
चैव वाङ्मय तय
उच्यते।। 15।।
मन:प्रमाद
सौम्यत्वं
मौनमात्मीवनिग्रह:।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो
मानसमुच्यते।।
16।।
तथा हे
अर्जुन,
देवता,
द्विज अर्थात
ब्रह्मण,
गुरू और
ज्ञानीजनों
का पूजन एवं पवित्रता, सरलता, ब्राह्मचर्य
और अहिंसा,
यह शरीर
संबंधी तय कहा
जाता है।
तथा जो
उद्वेग को न
करने वाला प्रिय
और हितकारक एवं
यथार्थ भाषण है
और जो
स्वाध्याय का
अभ्यास है,
वह नि:संदेह
वाणी संबंधी
तय कहा जाता है।
तथा मन की
प्रसन्नता,
शांत भाव,
मौन, मन का
निष्ठ और भाव
की पवित्रता, ऐसे यह मन
संबंधीं तय
कहा जाता है।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न :
अर्जुन सामने
था,
कृष्ण की
गीता ने जन्म
लिया; जनक
के कारण
अष्टावक्र की
महागीता
साकार हुई। और
आप हैं कि
किसी अर्जुन
या जनक के
बिना ही परम
गीता कहे जा
रहे हैं। कैसे?
अर्जुन
को तुम पहचान
न पाते कृष्ण
की गीता के पूर्व; और
न ही तुम जनक
को पहचान पाते।
अर्जुन
अर्जुन हुआ
कृष्ण से
गुजरकर; वह
था नहीं। था
तो वह
तुम्हारे
जैसा ही। जनक
जनक हुए
अष्टावक्र की
महागीता से
गुजरकर; अन्यथा
वे तुम जैसे
ही थे।
आज
तुम्हें
अर्जुन की जो
महिमा दिखाई
पड़ती है, वह
महिमा कृष्ण
की अग्नि से
गुजरने के
कारण है। जब
कृष्ण ने गीता
कही थी, तो
वह महिमा कहीं
भी न थी। तब
अर्जुन एक बीज
था। कृष्ण ने
उस बीज को
सम्हाला, उस
बीज में छिपी
हुई संभावना
को पुकारा। उस
बीज में छिपी
संभावनाओं को
समझाया, फुसलाया,
राजी किया—कि
तू डर मत, अंकुर
को तोड़; फूट;
घबड़ा मत, युद्ध में
उतर, 'भाग
मत, पलायन
मत कर—भूमि
संवारी, बीज
को बोया। आज
तुम जो फूल
लगे देखते हो
अर्जुन में, वे सदा नहीं
थे।
कृष्ण
की गीता के
पहले तो
बिलकुल नहीं
थे। मात्र एक
संभावना थी, जो
पूरी हो भी
सकती थी, खो
भी जा सकती थी।
आज तुम्हें जो
दिखाई पड़ता है
विराट रूप
अर्जुन की
भव्यता का, वह कृष्ण के
सान्निध्य का
परिणाम है।
कृष्ण तो बीज
से ही बोले थे,
लेकिन
बोलने से बीज
वृक्ष हुआ।
इसलिए
तुम्हें यह
खयाल उठ सकता
है कि मैं किस अर्जुन
से बोल रहा
हूं?
आज तुम्हें
अर्जुन दिखाई
न पड़ेंगे।
अर्जुनों से
ही बोल रहा हूं, क्योंकि
किसी और से
बोलने का उपाय
ही नहीं है।
लेकिन अभी बीज
हैं, बीज
में तुम वृक्ष
को न पहचान
सकोगे।
अभी
यह बगिया बोने
की बिलकुल
शुरुआत है।
इसमें
तुम्हारे
भीतर जो छिपा
है,
उसे पुकार
रहा हूं।
तुम्हें राजी
कर रहा हूं कि
डरो मत, छोड़
दो खोल, छोड़
दो सुरक्षा, ले लो छलांग।
तुम
हिचकते हो, डरते
हो; स्वाभाविक
है। अर्जुन भी
डरा था, तभी
तो इतनी बड़ी
गीता चली। वह
डरता रहा और
मानने को राजी
न हुआ और
कृष्ण अनेक—अनेक
मार्गों से
उसे समझाने
लगे। वह सब
तरफ से बचने
का उपाय करने
लगा, लेकिन
बच न सका। तुम
भी बच न सकोगे।
उपाय तुम भी
कर रहे हो।
और
कृष्ण ने तो
एक अर्जुन से
कही थी, मैं
बहुत
अर्जुनों के
साथ एक साथ
मेहनत कर रहा
हूं। उसके
पीछे कारण हैं।
मनुष्य
का इतिहास
प्रतिपल सघन
होता जाता है, वह
किसी महाघटना
की ओर गतिमान
है। इसलिए
जैसे—जैसे वह
महाघटना करीब
आती है, वैसे—वैसे
और भी अधिक
अर्जुनों के
जागने की
संभावना
प्रगाढ़ होती
जाती है।
एक
बहुत बड़ा
रूपांतरण
करीब है, जब
बहुत—से बीज
एक साथ
टूटेंगे। और
जब बहुत—से
वृक्ष एक साथ
फूलों से लद
जाएंगे। वसंत
आने को है। और
जैसे सुबह आने
के पहले
अंधकार बहुत
गहन हो जाता
है, ऐसे ही
वसंत आने के
पहले भी ऐसा
लगता है कि सब
खो गया। बड़ी
अराजकता हो
जाती है।
मनुष्यता
एक खास घड़ी के
करीब पहुंच गई
है। जैसा
मैंने पहले
तुम्हें कहा
कि हर पच्चीस
सौ वर्ष में
मनुष्यता एक
बड़ी घड़ी के
करीब आती है।
कृष्ण के समय
में आई। फिर
पच्चीस सौ साल
बाद बुद्ध और
महावीर के समय
में आई। अब
फिर पच्चीस सौ
साल पूरे हो
रहे हैं, अब
फिर वह घड़ी
करीब आ रही है।
ये
आने वाले
पच्चीस वर्ष
मनुष्यता के
जीवन में बड़े
चिरस्मरणीय
रहेंगे। इन
पच्चीस
वर्षों में
हजारों बीज
फूटेंगे और हजारों
व्यक्ति जो
साधारण थे, अचानक
अर्जुन और जनक
हो जाएंगे।
तुम अगर चूके,
तो अपने ही
कारण चूकोगे।
फिर तुम
पच्चीस सौ
वर्ष तक
पछताओगे।
क्योंकि वैसी
घड़ी, पच्चीस
सौ वर्ष में
एक वर्तुल
पूरा होता है।
जैसे
पृथ्वी एक
वर्ष में
चक्कर लगाती
है सूर्य का, ऐसे
सूर्य पच्चीस
सौ वर्षों में
किसी महासूर्य
का एक चक्कर
पूरा करता है,
उसका एक
वर्ष पूरा
होता है। वह
एक वर्ष जब
पूरा होता है,
तो सारे
जीवन में बड़ी
उथल—पुथल होती
है, सब अतीत
व्यर्थ हो
जाता है। सब
मूल्य टूट
जाते हैं।
वैसी
ही घड़ी कृष्ण
के समय में थी।
सब
मूल्य टूट गए
थे। अधर्मी
जीतता मालूम
पड़ रहा था।
अर्जुन के पास
था क्या? फकीर
ही था, सब
खो चुका था।
युधिष्ठिर
भीख मांगते
फिर रहे थे।
धर्म भीख मांग
रहा था, अधर्म
सिंहासन पर था।
और कृष्ण के
वचन बड़े
महत्वपूर्ण
हैं कि जब—जब
अधर्म बढ़ जाता
है और धर्म की
हानि होती है,
मैं लौट आता
हूं—असाधु को
विनष्ट करने,
साधु को
बचाने।
कोई
कृष्ण लौट आते
हैं,
ऐसा नहीं है।
तब तुम भूल गए,
तुम समझे न
बात। हर
पच्चीस सौ
वर्ष में वैसी
अराजक घड़ी आती
है और क्या—चेतना
का जन्म होता
है। कृष्ण
नहीं लौटते, कृष्ण—चेतना!
कभी क्राइस्ट
के रूप में, कभी बुद्ध
के रूप में—वही
चेतना।
क्योंकि
चेतना में तो
कोई गुण— भेद
नहीं है। वही
सागर फिर से
बूँदों को
पुकारता है, नदियों, तालाबों
को पुकारता है
कि आ जाओ।
तो
आज तो तुम्हें
आसान दिखाई
पड़ता है कि
महाखोजी था
अर्जुन, जिज्ञासु
था, तो
कृष्ण बोले।
ठीक हजार साल
बाद जब मेरे
अर्जुन पक
जाएंगे, तब
लोग यही फिर
भी कहेंगे कि
मैं जिनसे
बोला, कैसे
महापुरुष थे!
अभी तुम्हें
वे महापुरुष दिखाई
नहीं पड़ सकते।
जब कृष्ण
अर्जुन से बोल
रहे थे, तब
भी किसी को नहीं
दिखाई पड़ रहा
था कि अर्जुन
कुछ खास है।
ऐसे कई योद्धा
थे वहा।
अर्जुन जैसी
सामर्थ्य के
बहुत लोग थे।
अर्जुन
की खूबी यह है
कि वह कृष्ण
से राजी हो गया।
उस राजी होने
में क्रांति
घटी,
रूपांतरण
हुआ। पुराना
गया, नए का
जन्म हुआ।
मृत्यु घटी
अर्जुन की।
अर्जुन कृष्ण
में मरा और
कृष्ण से
पुनरुज्जीवित
हुआ। कृष्ण
गर्भ बन गए
अर्जुन के लिए।
पुराना तो खो
गया, एक नए
व्यक्तित्व
का जन्म हुआ।
पुराना
तो डरा हुआ
व्यक्ति था; कितना
ही बहादुर हो,
लेकिन भय था
भीतर। पुराना
तो मोहग्रस्त
था, अपने—पराए
का भेद करता था।
यह जो नया अर्जुन
जन्मा, इसके
लिए अपना—पराया
कोई न रहा। या
सभी अपने हो
गए या सभी
पराए हो गए।
एक वीतराग दशा
का जन्म हुआ।
कृष्ण
में मरा
अर्जुन और
कृष्ण से
पुनरुज्जीवन
पाया। कृष्ण
गर्भ बने।
कृष्ण अर्जुन
के इस नए जन्म
की माता हैं।
ऐसे ही
अष्टावक्र से
जनक गुजरा; शरीर
से ऊपर उठ गया
उसी गुजरने
में।
मैं
भी अर्जुनों
से,
जनकों से ही
बोल रहा हूं।
आज तुम्हें वे
दिखाई नहीं
पड़ते। आज वे
दिखाई नहीं पड़
सकते। वे कल
दिखाई पड़ेंगे।
लेकिन तब तुम
देखने वाले न
रहोगे, दूसरे
देखने वाले
रहेंगे।
अभी
तुम इस ऊहापोह
में समय
व्यर्थ मत करो
कि मैं किससे
बोल रहा हूं।
मैं तुमसे बोल
रहा हूं
तुम्हारी
संभावना से बोल
रहा हूं; तुम्हारे
भविष्य से बोल
रहा हूं; तुम्हारी
नियति से बोल
रहा हूं। तुम
जो हो सकते हो,
उससे बोल
रहा हूं।
तुम
जो हो, वह कुछ
खास नहीं है।
उस पर ध्यान
ही मत दो। तुम
जो हो सकते हो,
वह
महिमापूर्ण है।
उस पर ध्यान
दो। तुम जो हो,
अभी तो बीज
हो, खोल
में बंद। मैं
तुम्हारे कल
से बोल रहा
हूं; जब
ऋतुराज आ
जाएगा, और
तुम्हारे फूल
लग जाएंगे, और पक्षी
तुम पर गीत
गाएंगे, और
राहगीर
तुम्हारे
नीचे छाया को
उपलब्ध होंगे,
और तुम अपनी
महिमा में
नाचोगे।
वह
सबकी संभावना है।
यहां हर
व्यक्ति
अर्जुन होने
को पैदा हुआ
है। उससे कम
परमात्मा
पैदा ही नहीं
करता। जानो, न
जानो, पहचानो,
न पहचानो, देर— अबेर
कितनी ही करो,
मगर
परमात्मा
अर्जुन से कम
आदमी पैदा
करता ही नहीं।
इसका
मतलब केवल
इतना है कि
परमात्मा
परमात्मा को
ही पैदा करता
है। कितना ही
छिपाकर रहो
तुम अपने हीरे
को मिट्टी में, लेकिन
हीरा मिट्टी
नहीं हो जाता।
अभी ऊपर से
तुम बिलकुल
मिट्टी मालूम
पड़ते हो। मैं
तुम्हारे
हीरे से बोल
रहा हूं।
कबीर
ने कहा है.
हीरा हेरायल
कीचड़ में।
जो
हीरा है, कीचड़
में खो गया है।
सदगुरु उसे
पुकारता है, कि तू कितना
ही कीचड़ में
खो गया हो, तू
कीचड़ नहीं हो
सकता। हीरा
हीरा ही रहेगा।
कीचड़ की पर्त—पर्त
जम जाए, सारी
पृथ्वी हीरे
को दबा ले, तो
भी हीरा हीरा
रहेगा।
मैं
तुम्हारे
हीरे से बोल
रहा हूं। अभी
तुम्हें भी
अपने हीरे का
पता नहीं है, इसलिए
तुम मुझसे
पूछते हो कि मैं
किससे बोल रहा
हूं! जिससे
मैं बोल रहा
हूं वही मुझसे
पूछता है, मैं
किससे बोल रहा
हूं! अर्जुन
को भी लगा
होगा कि ये
कृष्ण किससे
बोल रहे हैं?
अर्जुन
की तो कुछ समझ
में आता नहीं, जो
ये बोल रहे
हैं। यह तो
उसके सिर पर
से निकल जाता
है। इसलिए तो
बार—बार फिर
वह संदेह करता
है, बार—बार
प्रश्न उठाता
है। पकड़ बैठती
नहीं, हाथ
कुछ आता नहीं,
छूट—छूट
जाता है।
इसलिए तो बार—बार
पूछता है। फिर
जिज्ञासा खड़ी
करता है।
क्योंकि
कृष्ण ने जो
उत्तर दिया, उसने चोट
नहीं की, वह
खाली निकल गया।
अर्जुन
का बार—बार पूछना
यही तो कह रहा
है कि तुम
किससे बोल रहे
हो?
मुझसे बोलो।
लेकिन कृष्ण
उस अर्जुन से
नहीं बोल सकते,
जो है।
कृष्ण तो उसी
अर्जुन से बोल
सकते हैं, जो
हो सकता है।
कृष्ण तो
भविष्य से ही
बोल सकते हैं।
क्योंकि
कृष्ण का वह
भविष्य अब
वर्तमान हो गया
है। इसे तुम
ठीक से समझ लो।
जो
अर्जुन के लिए
भविष्य है, वह
कृष्ण का
वर्तमान है।
इतना ही तो
फर्क है। जो
अर्जुन का
भविष्य है, वह कृष्ण का
वर्तमान है।
और जो कृष्ण
का अतीत है, वह अर्जुन
का वर्तमान है।
कभी
कृष्ण भी
अर्जुन थे, वे
भी बीज थे। हर
एक को बीज से
गुजरना पड़ेगा;
हर वृक्ष को
बीज से गुजरना
पड़ेगा। तो हर
वृक्ष बीज रहा
है, यह तो
पक्का है। और
हर बीज से
वृक्ष हो सकता
है, यह भी
पक्का है।
लेकिन बीज
बहुत दिन तक
प्रतीक्षा भी
कर सकता है, हजारों—लाखों
साल तक। किसी
पत्थर की आडू
में दबा पड़ा
रहे, भूमि
न मिले, तो
लाखों वर्ष
पड़ा रह सकता
है।
मगर
फिर भी जैसे
हर वृक्ष बीज
से हुआ है, यह
पूर्णरूपेण
सत्य है; वैसे
ही हर बीज से
वृक्ष हो सकता
है, यह भी
पूर्णरूपेण
सत्य है। देर
हो सकती है, समय व्यतीत
हो सकता है, अनेक अवसर
चूक सकते हैं;
लेकिन
नियति पूरी
होकर रहती है।
कृष्ण
तो निमित्त
मात्र हैं।
गुरु तो
निमित्त
मात्र है। वह
तुम्हें
बनाता थोड़े ही
है। तुम जो
बनने को थे, वही
तुम्हें बता
देता है। तुम
जो बन ही रहे
थे, उसके
प्रति
तुम्हें जगा
देता है। तुम
जहां जा ही
रहे थे अंधे
की तरह, वहीं
तुम्हें वह आख
खोलकर चला
देता है। अंधे
की तरह चलते, तो बहुत
गिरते, भटकते,
टटोलते, देर
लगती पहुंचने
में। आख खोलकर
जल्दी पहुंच
जाते हो। अगर
आख ठीक से खोल
लो, तो
क्षणभर में
पहुंच जाते हो।
क्षणभर की भी
देर नहीं होती।
इसी क्षण
पहुंच सकते हो।
लेकिन
मनुष्य की आदत
है,
अतीत को
पकड़ना, ज्ञात
को पकड़ना, अज्ञात
से डरना। और
इतना ही काम
है कृष्ण का
कि वे तुम्हें
ज्ञात को
छोड़ने की
क्षमता दें और
अज्ञात में
उतरने का
अभियान, साहस,
दुस्साहस।
मैं
भी अर्जुनों
से ही बोल रहा
हूं। अर्जुन
के अतिरिक्त
मुझे और कोई
सुनने ही क्यों
आएगा? कोई
कारण ही नहीं
है। भूल—चूक
से एक दफा आ
जाएगा, तो
दुबारा नहीं
आएगा। मुझे
वही सुन सकता
है, जिसको
धीरे— धीरे
अपने भीतर के
अंकुर के
फूटने का
एहसास होने
लगा। पहली
पगध्वनियां
जिसे सुनाई
पड़ने लगीं।
जिसके भीतर
सरसराहट शुरू
हो गई। जिसके
भीतर खोज ने
पहला कदम ले
लिया है। वही
मुझे सुन सकता
है। वही सुनने
को राजी हो
सकता है। वही
समझ भी सकता
है।
समझ
आज पूरी नहीं
हो सकती है।
लेकिन समझ की
झलकें भी आ
जाएं, सिर्फ
झरोखा भी खुल
जाए, तो भी
काफी है।
एक
सूफी फकीर के
जीवन में
उल्लेख है।
सूफी फकीर का
दरबार लगा था।
और सूफी फकीर
की बैठक का
नाम दरबार है, क्योंकि
सूफी फकीर
सम्राट हैं।
सभी फकीर
सम्राट हैं।
वहा जो लोग
बैठे हैं, वह
दरबार है।
तो
फकीर का दरबार
लगा था। दस—पंद्रह
लोग बैठे थे।
और दरबारी भी
क्या सम्राट
का आदर करेंगे, जैसा
शिष्य सूफी
फकीरों का आदर
करते हैं, जिस
श्रद्धा से
बैठते हैं।
फकीर
घड़ी,
दो घड़ी शात
बैठा रहा, तब
उसने एक शिष्य
को इशारा किया;
उसे लेकर
खिड़की पर गया।
और कहा कि देख, बाहर देख! उस
युवक ने बाहर
खिड़की के
झांका; नाचने
लगा। बाकी
लोगों ने पूछा,
ऐसा क्या
देखा तुमने, जो नाच रहे
हो?
उस
शिष्य ने कहा, मैंने
तो नहीं देखा;
क्योंकि
मैं तो इस
खिड़की पर कई
बार खड़ा हुआ।
गुरु ने
दिखाया।
क्योंकि मैं
तो जो देखता
था, वह
बिलकुल
साधारण था।
लेकिन गुरु ने
जो दिखाया, वह असाधारण
है। गुरु की
आख से देखा।
मालूम
है मुझे कि
सैकड़ों जन्म
लग जाएंगे
शायद वहां तक
पहुंचते—पहुंचते, जो
मैंने देखा है।
लेकिन झलक मिल
गई। अब मेरी
श्रद्धा को
कोई तोड़ न
सकेगा। अब
इतना मैं
जानता हूं कि
है, मंजिल
है। स्वर्ण—शिखर
बहुत दूर से
दिखाई पड़े हैं।
यात्रा दूभर
होगी, शायद
पहुंचूं र न
पहुंचूं। राह
में कहीं खो
जाऊं, भटक
जाऊं। ऐसी
घड़ियां आएं, जब स्वर्ण—शिखर
दिखाई पड़ने
बंद हो जाएं।
आज जो गुरु की
आख से देखा है,
अपनी आख से
शायद दुबारा
देख भी न पाऊं।
लेकिन एक बात
पक्की है कि
वह है। और
उसके होने का
भरोसा राहगीर
के कदमों की
सामर्थ्य है।
कृष्ण
से श्रद्धा
मिली अर्जुन
को,
भरोसा मिला,
अपने होने
का विश्वास
मिला। संदेह
मिटा। अर्जुन
अंत में कहता
है, मेरे
सब संशय गिर
गए। मैं
श्रद्धा को
उपलब्ध हुआ
हूं।
जिस
दिन तुम भी कह
सकोगे कि
तुम्हारे सब
संशय गिर गए
और तुम
श्रद्धा को
उपलब्ध हुए हो, उसी
दिन तुम्हारे
भीतर का
अर्जुन
सक्रिय हो जाएगा।
लेकिन
इसे तो हजारों
वर्ष लगेंगे, जब
लोग पहचान
पाएंगे कि मैं
किन अर्जुनों
से बोल रहा था।
उसमें
तुम्हारी भी
गिनती रहे, इसका खयाल रखना।
दूसरा
प्रश्न : भक्त
भक्त ही बना
रहेगा, भगवान
कभी नहीं हो
सकता। जैसा कि
इस्लाम, ईसाइयत
और हिंदुओं
में भी
माधवाचार्य
मानते रहे हैं।
इस मत—प्रणाली
की आधारभूमि
क्या है? क्या
इसका भी एक
विधि, टेक्ष्मीक
की तरह उपयोग
किया जा सकता
है?
निश्चय
ही! यह एक विधि
है,
सिद्धांत
नहीं। सिद्धांत
तो कहे नहीं
जा सकते। सिद्धांत
तो शब्दों में
बंधते नहीं, अटते नहीं। सिद्धांत
तो सदा भाषा
के पार रह
जाते हैं। जो
भी कहा जाता
है, वे
विधिया हैं।
और विधियों को
अगर तुमने
सत्य समझ लिया,
तो तुम बड़े
भटक जाओगे।
यह
एक विधि है कि
भक्त कभी
भगवान नहीं हो
सकता। इस विधि
का राज क्या
है?
यह कोई सिद्धांत
नहीं है, यह
कोई अंतिम दशा
नहीं है। भक्त
निश्चित
भगवान होता है।
हो सकता है का
सवाल ही नहीं;
भक्त भगवान
है। सिर्फ उसे
पता नहीं है।
लेकिन
वह भी एक विधि
है कि भक्त
भगवान है, और
उसे उसका पता
नहीं। और यह
भी एक विधि है
कि भक्त भगवान
नहीं हो सकता।
दोनों के लाभ
हैं, दोनों
की हानियां
हैं। वह ठीक
से समझ लो।
फिर तुम्हें
जो जंच जाए।
इस्लाम, ईसाइयत
और हिंदुओं के
भी बहुत—से
संप्रदाय, भक्ति
संप्रदाय, मानते
हैं कि भक्त
कभी भगवान
नहीं हो सकता।
क्यों? क्योंकि
अभी तुम
अज्ञानी हो।
अभी तो तुम
भक्त भी नहीं
हो, भगवान
होना तो दूर।
इस अज्ञान में
मत तुम्हें यह
भांति पकड़ जाए
कि तुम भगवान
हो सकते हो......।
और
यह भांति पकड
सकती है।
क्योंकि जो
विधि यह कहती
है कि तुम
भगवान हो सकते
हो, वह यह भी
कहती है कि
तुम भगवान हो
सकते हो, क्योंकि
तुम भगवान हो।
अन्यथा तुम जो
नहीं हो, कैसे
हो सकोगे!
नहीं से तो
कुछ पैदा नहीं
होता, शून्य
से तो कुछ
जन्मता नहीं।
बीज
वृक्ष हो सकता
है,
क्योंकि
मूलत: बीज
वृक्ष है।
कंकड़ को बो दो,
खूब साज—सम्हाल
करो, तो भी
तो कंकड़ वृक्ष
नहीं होगा।
कंकड़ में है
ही नहीं वृक्ष,
तो कैसे
होगा? आम
का बीज बोओ, तो आम होता
है, नीम का
बीज बोओ, तो
नीम होती है।
नीम के बीज से
आम पैदा तो
नहीं होता। तो
बात जाहिर है
कि बीज में
वृक्ष छिपा
हुआ है, उसका
चू प्रिंट
मौजूद है।
तो
जो लोग कहते
हैं,
भक्त भगवान
हो सकता है, वे यह भी
कहेंगे कि
भक्त भगवान है,
तभी तो हो
सकता है। जो
तुम हो, वही
हो सकते हो।
अन्यथा तुम
कैसे होओगे? छिपे हो, प्रकट
हो जाओगे। बस,
इतना ही
फर्क होगा।
अभी अव्यक्त
हो, तब
व्यक्त हो
जाओगे। अभी
भूमि के नीचे
थे, तब
भूमि के ऊपर आ
जाओगे। बस
इतना ही। अभी
खोल में दबे
थे, खोल
टूट जाएगी। बस
इतना ही। अभी
सोए थे, तब
जग जाओगे। बस
इतना ही। अभी
स्मरण न था, तब स्मरण आ
जाएगा। लेकिन
तुम हो।
इस
विधि को मानने
वाला एक
खतरनाक मार्ग
सुझा रहा है।
दूसरी विधि को
मानने वाले
कहते हैं कि
भक्त भगवान
नहीं हो सकता।
क्योंकि
अज्ञानियों
को यह खयाल भी
दे देना, कि
तुम भगवान हो
सकते हो या
तुम भगवान हो,
खतरे से
खाली नहीं है।
क्योंकि
अज्ञानी अगर
इस बात को पकड़
ले, तो
इससे केवल
अहंकार
निर्मित होगा।
इससे न तो वह
भक्त बनेगा और
न भगवान बनेगा।
यह
डर है। शान के
खतरे हैं। ऐसे
जैसे छोटे
बच्चे को हम
हाथ में तलवार
दे दें। माना
कि रक्षा के
लिए दी है कि
तू इससे अपनी
रक्षा करना, कि
कोई तुझ पर
हमला करे, तो
तू अपनी रक्षा
कर लेना।
लेकिन जिसको
तुमने दी है, उसे अभी
इतनी अक्ल भी
नहीं है कि
रक्षा क्या है!
किससे करनी
है!
और
नंगी तलवार
खतरनाक है। डर
तो यही है कि
इसके पहले कि
कोई उस पर
हमला करे, वह
अपनी ही तलवार
से खुद को
नुकसान
पहुंचा लेगा;
हाथ—पैर काट
लेगा। या हो
सकता है, किसी
पागलपन के
क्षण में गरदन
पर रखकर देखे
.कि कैसे गरदन
कटती है। कटती
भी है या नहीं,
जरा जांच कर
लें! बच्चे के
हाथ में तलवार
देना खतरनाक
है।
तो
भक्ति
संप्रदाय
कहते हैं कि
यह बात कहना
लोगों से कि
तुम परमात्मा
हो,
खतरनाक है।
वैसे ही तो वे
अकड़े हुए हैं!
वैसे ही तो
अकड़ उनका
प्राण ले रही
है। कुछ नहीं
है उनके पास, तब तो देखो
उनकी अकड़
कितनी है!
आकाश छू रही
है। और तुम उसको
कह रहे हो कि
तुम भगवान हो।
दो कौड़ी पास
होती है, तो
उनके पैर जमीन
पर नहीं पड़ते।
जरा तिजोरी
में वजन आ
जाता है, तो
उनकी चाल बदल
जाती है। जरा
कपड़े—लत्ते
धुले पहन लिए,
तो सड़क पर
उनको देखो, कैसे चलने
लगते हैं! जरा
खीसे में पैसे
बजने लगे, आवाज
होने लगी, तो
वे सुनते हैं
परम नाद, ओंकार
सुनाई पड रहा
है।
ऐसे
मूढ़ों से यह
कहना कि तुम
परमात्मा हो, खतरे
से खाली नहीं
है। शायद
बच्चा तो
तलवार से बच
जाए, ये
मूढ़ न बच
सकेंगे। और यह
डर है। यह डर
बिलकुल
निश्चित है।
फिर बचा ही
क्या?
इसलिए
इस मुल्क को, जहां
वेदांत ने बड़ी
ऊंचाइयां लीं.....।
वेदांत का सार
ही यही है कि
तुम ब्रह्म हो।
अहं
ब्रह्मास्मि!
तुम परम हो।
तुमसे पार कुछ
भी नहीं।
परिणाम क्या
हुआ?
ये
अहं
ब्रह्मास्मि
को कहने वाले
लोग रूपांतरित
तो नहीं हुए, पतित
हुए। भयंकर
पतन हुआ। जो
संन्यासी
कहते हैं अहं
ब्रह्मास्मि,
तुम उनकी
अकड़ देखो।
विनम्रता तो
नहीं दिखाई
पड़ती। ब्रह्म
की विनम्रता
तो नहीं दिखाई
पड़ती, अहंकार
की अकड़ दिखाई
पड़ती है।
ब्रह्म
भी अहंकार का
आभूषण हो गया
है। वह मैं ही
कह रहा है कि
मैं ब्रह्म
हूं। और
ब्रह्म होने
की शर्त ही यह
है कि जब मैं
मिट जाए, तभी
कोई ब्रह्म
होता है।
भक्त
भगवान नहीं
होता। जब भक्त
मिट जाता है, तब
भगवान होता है।
जब मैं खो
जाता है, तभी
संभावना उठती
है इस नाद की, अहं
ब्रह्मास्मि!
इसके पहले
नहीं।
लेकिन
मुश्किल है।
अहं
ब्रह्मास्मि
की अकड़ तो आ
जाती है, अहंकार
तो जाता नहीं।
उलटा अहंकार
और सुरक्षित
हो जाता है।
इस विधि के
खतरे हैं, इस
विधि के लाभ
भी हैं। खतरा
तो यह है कि
अहंकार पकड़ ले।
और लाभ यह है
कि अगर यह भाव
तुम्हें पूरी
तरह से पकड़ ले
कि मैं ब्रह्म
हूं तो अहंकार
इतनी छोटी चीज
है और ब्रह्म
इतना विराट
भाव है, तो
वैसी ही घड़ी आ
जाएगी अहंकार
के लिए, जैसे
छोटा बच्चा
रबर के
गुब्बारे में
हवा भरता जाता
है, भरता
जाता है, भरता
जाता है। तुम
पूरा आकाश
थोड़े ही गुब्बारे
में भर सकते
हो। गुब्बारा
फूट जाएगा।
जब
ब्रह्म का भाव
तुममें भरेगा, तो
अहंकार का
पतला—सा छोटा—सा
रबर का
गुब्बारा, उस
की ताकत
कितनी! सीमा
कितनी! आंगन
भी तो उसमें
समा नहीं सकता,
इतना बड़ा
आकाश! तुम
भरते गए और
कहते गए, अहं
ब्रह्मास्मि,
अहं
ब्रह्मास्मि.।
एक घड़ी आएगी
कि यह फुग्गा
फूट जाएगा। यह
फुग्गा ऐसे
फूट जाएगा
जैसे कि पानी
का बबूला फूट
जाता है।
वह
तो प्रक्रिया
है। वह विधि
है। अगर ठीक
चले,
तो यह होगा।
अगर जरा ही
चूक गए, तो
तुम अपने पानी
के बबूले को
ही ब्रह्म—
भाव समझ लोगे।
वह खतरा है।
इसलिए
भक्त कहते हैं, ज्ञान
की चर्चा में
मत पड़ो। वे
कहते हैं, भक्त
कभी भगवान
नहीं होगा। यह
अहंकार से
बचाने की विधि
है, कि
भक्त भक्त ही
रहेगा।
परमात्मा के
चरण तक पहुंच
जाए, काफी
है।
क्यों
चरण तक काफी
है?
क्योंकि
चरण तक तुम
रहोगे, तो
अहंकार के
उठने का उपाय
न रहेगा।
इसलिए तो हम
भारत में चरण
छूते हैं।
गुरु का चरण
छूते हैं; पिता
का, मां का
चरण छूते हैं;
वृद्धजनों
का चरण छूते
हैं। ताकि
तुम्हें
झुकने का
अभ्यास हो। ये
सब अभ्यास हैं
परमात्मा के
चरण छूने का।
जो
तुमसे उम्र
में ज्यादा है, वह
तुमसे थोड़ा
सीनियर परमात्मा
है। थोड़ा—सा
ज्यादा रह
चुका है, अनुभवी
है : पैर छुओ।
जो तुमसे थोड़ा
ज्यादा जानता
है, उसके
पैर छुओ।
जिसने
तुम्हें जन्म
दिया है, उस
पिता के पैर
छुओ, मां
के पैर छुओ।
बड़े भाई के
पैर छुओ, ज्ञानी
के पैर छुओ, गुरुजनों के
पैर छुओ।
यह
सिर्फ अभ्यास
है,
ताकि तुम पैर
छूने में कुशल
हो जाओ, ताकि
तुम झुकने में
निष्णात हो
जाओ, ताकि
अहंकार को
हटाने में
तुम्हारी
योग्यता बढ़
जाए। तभी तो
एक दिन तुम
परमात्मा के
चरण छुओगे और
अपने को
बिलकुल चरणों
में रख दोगे।
बस, चरणों
तक पहुंच गए, इतनी ही
भक्त की
आकांक्षा है।
भक्त कहता है,
इससे पार की
हमें चाह नहीं।
हम तेरा सिर
नहीं होना
चाहते, क्योंकि
सिर से तो हम
वैसे ही
परेशान हैं।
छोटे सिर से
इतने परेशान
हैं, तेरा
बड़ा सिर और
मुश्किल में
डाल देगा। हम
चरण तक! चरण
काफी हैं।
बहुत मिल गया,
चरण मिल गए।
और क्या
चाहिए!
तो
भक्त कहते हैं, न
तेरा वैकुंठ
चाहिए न तेरा
ब्रह्मज्ञान
चाहिए, न
मोक्ष, न
निर्वाण, नहीं
कुछ। बस, तेरी
याद हृदय में
बनी रहे और तेरे
चरण न छूटें।
और कोई मांग
नहीं है। कुछ
नहीं चाहिए।
बस, तेरे
चरण हाथ से न
छूटें, इतना
चाहिए।
क्या
कह रहा है
भक्त? भक्त यह
कह रहा है, बस
मेरा विनम्र
भाव न छूटे; अहंकार भाव
न पकड़े।
क्योंकि
वैकुंठ में
अकड़ जाऊंगा, मुझे वैकुंठ
मिल गया, मोक्ष
मिल गया।
जिनको
तुम संन्यासी
कहते हो—शिवानद, अखंडानंद,
इत्यादि—इत्यादि—अगर
ये सब मोक्ष
में पहुंचते
हैं, तो
बड़ा उपद्रव
मचता होगा वहा।
अखंड अखाड़ा खड़ा
हो जाता होगा
उपद्रवियों
का। अहंकार से
भरे हुए लोग, अकड़े हुए
लोग। और यहां
तो इनको शिष्य
भी मिल जाते
हैं, वहां
शिष्य भी न
मिलेंगे।
वहां सभी
स्वामीजन हैं।
वहां कौन
किसको झुकेगा?
वहां लोग
झुकना ही भूल
गए होंगे।
मोक्ष में तो
सब उपद्रवी
इकट्ठे हो गए
होंगे।
भक्त
कहता है, तुम्हारा
मोक्ष
तुम्हीं
सम्हालो।
ज्ञानियों को
दे दो। हमें
तुम्हारे चरण
काफी हैं। बस,
हम चरणों
में पड़े रहें।
चरणों से च्यूत
मत करना, इतनी
भक्त की आकांक्षा
है।
मगर
इसी आकांक्षा
में भक्त को
वैकुंठ
उपलब्ध हो
जाता है।
क्योंकि
विनम्र के लिए
मोक्ष है। इसलिए
यह विधि है।
निरहंकारी के
लिए वैकुंठ है, यह
विधि है। नहीं
जिसने मांगा
चरणों से
ज्यादा, उसे
पूरा
परमात्मा मिल
जाता है। भक्त
भगवान हो जाता
है। बिना मांगे,
बिना कहे, वह घटना
घटती है आखिरी
में।
इस
विधि से भी, भक्ति
से भी भक्त
भगवान हो होता
है। क्योंकि
पैर में तो
फासला बना
रहेगा। फासले
में तो विरह
रहेगा, आग
जलेगी।
प्रेमी तब तक
तृप्त नहीं हो
सकता, जब
तक एक न हो जाए।
जरा—सा भी
फासला काफी
फासला मालूम
होगा। या तो
भक्त भगवान
में गिर जाए
या भगवान भक्त
में गिर जाए, तब तक
बेचैनी रहेगी।
पर यह घटना
घटती है।
भक्त
कहते हैं, इसकी
चर्चा मत करो।
रामानुज, निम्बार्क,
वल्लभ, वे
कहते हैं, इसकी
बात मत करो।
यह तो अपने से
हो जाता है, तुम इसकी
चर्चा ही मत
करो। तुम सौ
डिग्री तक
पानी गरम करो,
भाप की
चर्चा मत करो।
वह तो अपने से
हो जाता है।
उसकी कोई
चर्चा करनी है?
बात ही मत
उठाओ। क्योंकि
उसकी चर्चा
अज्ञानी सुन
ले, तो
खतरा है। वह
पहले ही से
अकड़ जाएगा।
अकड़ गया, तो
पहुंचने से
रुक जाएगा।
तो
इस विधि का
लाभ है एक कि
विनम्रता को
जन्माती है।
लेकिन खतरा भी
है। और खतरा
यह है कि यह
सत्य नहीं है।
यह विधि है, डिवाइस
है, लेकिन
सत्य के
अनुकूल नहीं
है। और जो सत्य
के अनुकूल
नहीं है, कहीं
वह तुम्हें
जोर से न पकड़
ले। नहीं तो
तुम वंचित रह
जाओगे। कहीं
यह बात
तुम्हारा
आधार न हो जाए
कि भक्त भगवान
को पा ही नहीं
सकता, भक्त
भक्त ही रहेगा,
भगवान हो ही
नहीं सकता।
अगर यह बात
तुम्हें बहुत
आग्रहपूर्ण
रूप से पकड़ ले,
तो यही
कारागृह हो
जाएगी। तो तुम
चरणों में ही
पड़े रह जाओगे।
तुम उससे आगे
न जा सकोगे।
तो
यह विधि कहीं
तुम्हारा
कारागृह न बन
जाए,
इसलिए
ज्ञानी कहता
है, यह
स्मरण रखना कि
यों तो तुम
भगवान ही हो; थोड़े भटक गए
हो, राह से च्यूत
हो गए, इधर—उधर
हो गए हो।
लेकिन हो तो भगवान
ही। इसलिए
आखिरी बात तो
खयाल में रखना।
अन्यथा तुम
पूजा—पत्री
में ही अटक
जाओगे। तुम
मंदिर—मस्जिद
में ही उलझ
जाओगे। और तुम
वहीं बस वही
गुणगान करते
रहोगे भक्ति का
कि तेरे चरण
काफी हैं।
उतने
से राजी मत
होना।
क्योंकि
उसमें
तुम्हारी
नियति पूर्ण
नहीं हो रही है।
और परमात्मा
भी उससे राजी
नहीं होगा।
परमात्मा भी
तभी राजी होगा, जब
तुम्हारा
परमात्म— भाव
प्रकट हौ, जब
तुम मूल—स्रोत
में गिर जाओ।
तो
कहीं यह सिद्धांत, यह
शास्त्र
तुम्हें पकड़ न
ले जोर से।
वह
पकड़ लेगा। वह
भक्तों को
इतने जोर से
पकड़ लेता है
कि वे ज्ञानियों
की बात सुनने
से डरते हैं।
इस्लाम
ने तो मैसूर
की हत्या कर
दी,
क्योंकि
उसने कहा, अनलहक!
मैं परमात्मा
हूं! वह भक्त
था। चरणों को
ही पकड़—पकड़कर
चला था। लेकिन
जब पहुंचा, तो उसके
मुंह से निकल
गया, अनलहक!
अहं
ब्रह्मास्मि!
मैं ब्रह्म
हूं!
बस, मुसलमानों
ने कत्ल कर
दिया उसका कि
यह आदमी कुफ्र
बोल रहा है, काफिर हैं।
यह बात तो सच
हो ही नहीं
सकती, क्योंकि
शास्त्र में
लिखा है कि
चरणों के पार जाने
का कोई उपाय
नहीं है। और
यह कह रहा है
कि मैं खुद ही
हो गया। यह
अहंकारी है।
अब
यह दूसरा खतरा
है कि तुम
ज्ञानी को
अहंकारी समझ
लो,
उसकी हत्या
कर डालों। और
इस्लाम ने जिस
दिन मैसूर को
मारा, उसी
दिन इस्लाम मर
गया, इस्लाम
की जान चली गई;
प्राण चला
गया; कचरा
हो गया; क्योंकि
मैसूर पैदा
होने की
हिम्मत खो गई।
फिर कोई दूसरा
मंसूर पैदा
होने का साहस
खो दिया। और
मंसूर, वही
तो नमक है
धर्म का। उसके
बिना तो सब
बेस्वाद हो
जाता है। कोई
चंदन, तिलक,
टीका लगाकर
घूमने वाले
लोगों से थोड़े
ही धर्म बनता
है। धर्म तो
उनसे ही बनता
है, जिनमें
परमात्मा आविर्भूत
हुआ है। और
जिनके भीतर से
अहर्निश
उदघोष उठ रहा
है कि मैं
ब्रह्म हूं।
बस, उन्हीं
से धर्म में
जान है, उन्हीं
से प्राण है।
भीड़— भड़क्का
उनका नहीं है।
वे पताका की
तरह हैं, जो
आकाश में उठी
है। स्वर्ण—शिखरों
की तरह हैं, जो मंदिर पर
चढ़े हैं। माना
कि बुनियाद
में जो पत्थर
पड़े हैं, वे
भी मंदिर को
सहारा देते
हैं। शिखर
उनके बिना भी
नहीं हो सकता।
लेकिन शिखर के
बिना मंदिर
कैसा बुरा
लगेगा! कैसा अधूरा
लगेगा!
इस्लाम
बिना शिखर का
मंदिर है। जिस
दिन मंसूर को
मारा, उसी दिन
शिखर गिर गया।
मंसूर को
मारने का मतलब
यह हुआ कि तुम
भूल ही गए कि
यह विधि विधि
थी, सिद्धांत
न था। सिद्धांत
तो मंसूर ही
था। आखिरी घड़ी
में सभी भक्तों
को ऐसा ही
लगेगा।
ईसाइयत ने भी
बड़ी मुश्किल
में डाल दिया
है। तो ईसाइयत
में संत होना
बंद ही हो गए।
आधी दुनिया
ईसाई है, लेकिन
संत होना बंद
हो गए। पादरी—पुरोहित
पैदा होते हैं,
संत पैदा
होते ही नहीं।
हो नहीं सकता,
होने नहीं
देंगे वे।
इकहार्ट
हुआ जर्मनी
में एक फकीर, मैसूर
जैसा फकीर
ईसाइयत में
पैदा हुआ।
उसको ईसाइयत
अंगीकार न कर
पाई। पोप ने
संदेशा भेजा
कि यह बातचीत
बंद कर दो, अन्यथा
खतरा होगा।
क्योंकि वह
ईश्वर की
बातचीत ऐसे
करने लगा, जैसे
वह ईश्वर हो
गया हो। वह
वही भाषा
बोलने लगा, जो उपनिषदों
की है। वह
कहने लगा, मैंने
ही बनाया
संसार को। ये
सब चांद—तारे
मेरा ही खेल
है। सृष्टि के
पहले दिन
मैंने ही गति
दी थी। सृष्टि
के अंतिम दिन
मैं ही सब को
सिकोड़ लूंगा।
वह
ठीक कह रहा था।
यह भक्त की
आखिरी दशा है।
वह प्रार्थना
कर—करके इस
घड़ी में
पहुंचा था। जब
तक प्रार्थना
करता था चर्च
में,
ठीक था, फिर
उसने
प्रार्थना
बंद कर दी।
क्योंकि वह
उसी घड़ी में आ
गया, जिसको
कबीर कहते हैं
कि कौन किसको
पूजे? दोनों
एक हो गए, दुई
मिट गई।
जब
उसने घोषणा कर
दी कि दुई मिट
गई,
कोई चर्च
नहीं है, कोई
पूजा नहीं है,
किसकी पूजा
करनी? तब
खतरा शुरू हो
गया। यह आदमी
खतरनाक बातें
कह रहा है। यह
आदमी या तो
भ्रष्ट हो गया
या परम शान को
उपलब्ध हो गया।
और साधारणजन
इसको भ्रष्ट
ही समझेंगे।
पोप
ने संदेश भेजा
कि तुम यह बात
बंद कर दो। यह
चर्चा नहीं
चलेगी। और
इकहार्ट जैसे
परम संत को
चर्च के बाहर
निकाल दिया
गया,
एक्सपेल कर
दिया गया। वह
ईसाई न रहा, जो परम ईसाई था,
जो जीसस
जैसा ईसाई था!
इसलिए
मैं कहता हूं
कि अगर
क्राइस्ट फिर
से पैदा हों, तो
ईसाई न हो
पाएंगे। उनको
ईसाई धर्म
बाहर कर देगा।
इकहार्ट को कर
दिया।
और
इकहार्ट के
वचन ऐसे कीमती
हैं,
जैसे कबीर
के। अगर
ईसाइयत में
कोई आदमी हुआ
कबीर के
मुकाबले, तो
इकहार्ट।
फिर
एक आदमी हुआ
जैकब बोहमे।
चमार था, कुछ
पढ़ा—लिखा न था।
कई बार ऐसा
हुआ है कि पढ़े—लिखे
चूक जाते हैं,
क्योंकि
पांडित्य जरा
जरूरत से
ज्यादा बोझिल
हो जाता है।
गैर पढ़े—लिखे
पा लेते हैं।
जैकब बोहमे भी
कबीर जैसा गैर
पढ़ा—लिखा था, कुछ नहीं
पढा—लिखा था।
मगर वह ऐसी
बातें बोलने
लगा कि पंडित
झेंप जाएं।
उससे ऐसे
शब्दों का
उच्चार होने
लगा। तत्क्षण
ईसाइयत ने उसे
बाहर किया, निकाल बाहर
किया कि वह
ईसाई नहीं है।
भ्रष्ट हो गया।
ईसाइयत
ने जिनको संत
घोषित किया है, उनमें
से कोई संत
नहीं है। और
जिनको उसने
बाहर किया, उनमें संत
हैं। विधि ने
गरदन पर फंदा
बना लिया, तो
खतरा है।
ध्यान
रखना, हर विधि
का लाभ है, हर
विधि का खतरा
है। कोई विधि
बिना खतरे के
नहीं है।
क्यों? क्योंकि
जिससे भी लाभ
हो सकता है, उससे हानि
हो ही सकती है।
कोई
विधि
होम्योपैथी
की दवा नहीं है।
होम्योपैथी
की दवा में
हानि नहीं
होती, वे कहते
हैं; लाभ
होता है, हानि
नहीं होती। यह
बात फिजूल है।
क्योंकि जिस
चीज से भी लाभ
होगा, उससे
हानि हो ही
सकती है। नहीं
तो लाभ भी
नहीं होगा।
जिस
तलवार से तुम
रक्षा कर सकते
हो,
उसी तलवार
से मारे भी जा
सकते हो। जिस
ध्यान से तुम
पहुंच सकते हो,
उसी ध्यान
से अटक भी
सकते हो। जिस
सीढ़ी से तुम
ऊपर जाते हो, वही सीढ़ी
तुम्हें
रोकने के लिए
जंजीर हो सकती
है। गुरु
सहारा बन सकता
है, गुरु
बाधा बन सकता
है। शास्त्र
पहुंचा सकते
हैं, शास्त्र
अटका सकते हैं।
इसलिए
बड़ी खुली आंखें, बड़ा
सजग हृदय
चाहिए। तो तुम
सभी विधियों
से पार हो
सकते हो, कोई
भी विधि काम
देगी।
इसलिए
तो मैं सभी
विधियों पर
बोले चला जाता
हूं। मेरा कोई
आग्रह नहीं है।
तुम्हें मैं
बता देता हूं
कि यह इसका
खतरा है, यह
इसका लाभ है।
खतरे से बचना।
कोई भी विधि
चुन लो।
अगर
तुम्हें ज्ञान
का मार्ग ठीक
लगता है, तो
तुम ईश्वर हो।
और भक्त भगवान
होता है, क्योंकि
भक्त भगवान है।
अगर
तुम्हें डर
लगता है अपने
अहंकार से कि
यह तो हमें
दिक्कत में
डाल देगा, तो
छोड़ो। कोई
अनिवार्यता
नहीं है। भक्त
भगवान नहीं हो
सकता, कभी
नहीं हो सकता।
क्योंकि
भगवान भगवान
है, भक्त
भक्त है।
भगवान
स्रष्टा है, भक्त तो
सृजन है, किया
हुआ है, उसके
हाथ का खेल है।
कैसे भक्त
भगवान हो सकता
है? पूजा
करो, अर्चना
करो, चरणों
तक जाओ, बस,
इससे आगे
जाने का कोई
उपाय नहीं है।
लेकिन
विधि को पकड़
मत लेना।
क्योंकि जब
तुम चरणों तक
पहुंच जाओगे, तो
परमात्मा
उठाकर
तुम्हें
आलिंगन करने
लगे, तब
तुम मत कहना
कि रुको, यह
हो ही नहीं
सकता। हम पहले
से ही मानते
हैं कि भक्त
कभी भगवान नहीं
हो सकता। यह
तुम क्या
कुफ्र कर रहे
हो? काफिर
कहीं के! पड़ा
रहने दो मुझे
चरणों में।
मुझे
तुम्हारे
हृदय का
आलिंगन नहीं
चाहिए। न मुझे
वैकुंठ चाहिए।
क्योंकि मेरे
गुरु ने यही
सिखाया है।
तब
तुम्हारी
विधि
परमात्मा से
बड़ी हो गई।
कोई विधि
परमात्मा से
बड़ी न हो, इसका
खयाल रखना।
जीवन बड़ा है, सभी विधियां
छोटे—छोटी हैं।
विधियां तो
रास्ते हैं, जीवन तो
पूरा आकाश है।
किसी शास्त्र
से जीवन छोटा
नहीं है, इसे
याद रखना।
और
सब सिद्धांत
तुम्हारे लिए
हैं,
तुम किसी सिद्धांत
के लिए नहीं
हो। सब सिद्धांतों
का उपयोग कर
लेना और फेंक
देना। सार
निकाल लेना, असार को छोड़
देना। अन्यथा
तुम पाओगे कि
जिसको तुमने
गले का हार समझकर
पहना था, वही
आखिरी में
फांसी हो गई।
बहुत लोगों को
मैं ऐसी फांसी
में अटके
देखता हूं।
अब
सूत्र:
तथा हे
अर्जुन, देवता,
द्विज, गुरु
.और ज्ञानीजनों
का पूजन एवं
पवित्रता, सरलता,
ब्रह्मचर्य
और अहिसा, यह
शरीर संबंधी
तप कहा जाता
है।
तथा जो
उद्वेग को न
करने वाला, प्रिय
और हितकारक
एवं यथार्थ
भाषण है और जो
स्वाध्याय का
अभ्यास है, वह निःसंदेह
वाणी संबंधी
तप कहा जाता
है।
तथा मन की
प्रसन्नता, शात
भाव, मौन, मन का
निग्रह और भाव
की पवित्रता,
ऐसे यह मन
संबंधी तप कहा
जाता है।
कृष्ण
कहते हैं, तप
तीन प्रकार के
हैं। क्योंकि
तुम्हारा
व्यक्तित्व
तीन परतों में
बंटा है। और
उन तीनों
परतों के तप
हैं। और ठीक
से समझ लेना
चाहिए
तपश्चर्या को।
क्योंकि
बहुतों ने बड़े
गलत ढंग से
समझा है।
अगर
आलसी व्यक्ति, तमस
से भरा
व्यक्ति तप
में उतरता है,
तो उसके तप
के ढंग बड़े
अनूठे होते
हैं। वह तप भी
करता है, तो
तप में उसके
प्रमाद की ही
छाया होती है,
उसके आलस्य
की और तमस की
ही। वह तप कर
सकता है। जैसे
कि वह एक ही
जगह बैठा रह
सकता है, जो
कि राजसी को
करना मुश्किल
होगा।
एक
गांव में मैं
मेहमान था।
लोग मेरे पास
आए,
उन्होंने
कहा, गांव
में एक परम
योगी हैं।
उनका नाम है, खडेश्री
बाबा। वे खड़े
ही रहते हैं।
बैठते ही नहीं,
सोते ही
नहीं। रात
सोते भी हैं, तो दोनों
हाथ
बैसाखियों पर
रखकर और छप्पर
से लटकती एक
रस्सी को
पकड़कर सो जाते
हैं। उनके पैर—क्योंकि
दस साल हो गए
उनको वैसा
करते—पैर हाथी—पांव
की बीमारी में
जैसे हो जाते
हैं, वैसे
हो गए हैं। अब
तो वे बैठना
भी चाहें, तो
बैठ नहीं सकते।
वे तो अकड़ गए।
सारे शरीर से
खून और मांस
पैरों में
इकट्ठा हो गया
है। वे चलना
भी चाहें, तो
अब चल नहीं
सकते। मगर
लोगों में
उनका भारी
प्रभाव है।
मैंने
लोगों से पूछा, माना
कि खड़े हैं दस
साल से। लेकिन
और क्या मामला
है? उन्होंने
कहा, और
क्या? यही
तो तप है। और
चाहिए भी क्या?
ऐसे
ही बाजार से
निकलते वक्त
मैंने भी
उन्हें देखा
झाडू के नीचे, जहां
वे खड़े हैं।
मुंह पर
मक्खियां उड़
रही हैं, एक
घिनौना
व्यक्तित्व, गंदा, तमस
से भरा हुआ।
लेकिन यह
तपश्चर्या है!
यह आदमी कुछ
भी नहीं कर
रहा है। लेकिन
हजारों रुपए
पूजा में चढ़ते
हैं; मंदिर
बनाया जा रहा
है; हजारों
लोग आते हैं ' जाते हैं।
यह आदमी अपना
सिर्फ खड़ा है।
प्रशंसा के
गीत चल रहे
हैं, पूजा—पत्री
हो रही है
इसकी।
इस
आदमी के चेहरे
को भी तो देखो!
इस पर सत्य की
कोई भी तो छाप
नहीं दिखाई
पड़ती। फूल
जैसी प्रफुल्लता
होनी चाहिए
सत्व में।
पक्षियों
जैसे उड़ने का
हलकापन होना
चाहिए सत्व
में।
गंगोत्री से
उतरती गंगा की
धारा जैसी
निर्दोष दशा
होनी चाहिए।
एक कुंवारापन
होना चाहिए आंखों
में,
कि तुम पास
जाओ, तो
तुम्हें लगे
कि तुम हलके
हो गए, स्नान
हो गया।
इस
आदमी के पास
जाकर तुम्हें
लगेगा कि घर
से तो स्वच्छ
आए थे, गंदे हो
गए। यह आदमी
एक रोग की तरह
वहां खड़ा है।
और सब तरह की
गंदगी फैला
रहा है।
क्योंकि वहीं
खड़े होकर
पेशाब करता है,
उसको
भक्तगण झेल
रहे हैं। वहीं
खड़े होकर पाखाना
करता है, मक्खियां
न होंगी
इकट्ठी, तो
क्या होगा? वहीं खाना खाता
है। सब वहीं चल
रहा है; क्योंकि
वह जगह छोड़ते
ही नहीं। यह
भयंकर तमस की
अवस्था है। यह
तप नहीं है।
फिर
राजसी तपस्वी
हैं,
जिनके तप का
कुल जोड़ रजस
है। भागते
फिरते हैं, दौड़ते फिरते
हैं।
एक
सज्जन मेरे
पास आए; संन्यासी
हैं। मैंने
पूछा कि क्या
कर रहे हैं? पदयात्रा!
पदयात्रा
किसलिए कर रहे
हैं? कुछ
मतलब? उन्होंने
कहा, नहीं,
यही मेरी
तपश्चर्या है।
एक
खड़े हैं, वे
खडेश्री बाबा।
एक ये
पदयात्री
बाबा, ये
पदयात्रा कर
रहे हैं! इनको
खड़े होने में
चैन नहीं है।
बैठ नहीं सकते।
आज यहां हैं, कल वहां हैं।
वे कहने लगे
कि मैं तो कोई
पच्चीस साल से
चल ही रहा हूं।
यही मेरी
तपश्चर्या है,
रुकना नहीं
है।
जाओगे
कहां? चल भी
लोगे तो क्या
होगा? कहां
पहुंच जाओगे
चलकर? नाहक
क्यों जमीन को
नाप रहे हो?
लेकिन
उनके भी मानने
वाले हैं। वे
कहते हैं, साधु
हो तो ऐसा।
तीन रात से
ज्यादा नहीं
रुकता कहीं भी।
वर्षा हो, सर्दी
हो, धूप हो,
वह भागा चला
जा रहा है।
यह
भी तो पूछो कि
यह जा कहा रहा
है?
ऐसे ही चलते—चलते
मर जाएगा, गिर
जाएगा। यह रुक
नहीं सकता।
रजस
गति है, तमस
अगति है।
तामसी चल नहीं
सकता, रुका
रहता है।
धक्का—मुक्की
करो, तो
थोड़ा—बहुत ले
जाओ। बाकी वह
जा नहीं सकता
अपने से। उसने
खड़े होने का
रास्ता खोज
लिया है; वह
भी तपस्वी हो
गया!
यह
रुक नहीं सकता।
यह दौड़ने वाला, बचकानी
बुद्धि का, रजस से भरा
हुआ व्यक्ति
है, इसको
ठहरना नहीं
आता। यह भाग
रहा है। अगर
इसको तुम रोक
दो, तो मन
में भाग—दौड़
जारी रखेगा।
पूरब
में लोग आलसी
हैं,
पश्चिम में
लोग राजसी हैं।
मेरे पास
पश्चिम से जो
लोग आते हैं, आज आए, कल
गोवा जा रहे
हैं। फिर दो—चार
दिन में गोवा
से लौट आए, अब
काठमांडू जा
रहे हैं। फिर
दो—चार दिन
में काठमांडू
से लौट आए, अब
मनाली जा रहे
हैं। काहे के
लिए जा रहे हो?
काठमांडू
किसलिए? बस,
एक खयाल है।
बहुत दिन से
खयाल है, काठमांडू
जाना है।
करोगे
क्या
काठमांडू
जाकर? जो
काठमांडू में
हैं, वे
कहां पहुंच गए
हैं? कोई
गोवा कोई
मोक्ष है? लेकिन
गोवा काबा बन
गया है, काशी
बन गया है।
चले जा रहे
हैं, और
लोग जा रहे
हैं, और
रुक नहीं सकते
हैं।
एक
भाग—दौड़ होती
है राजसी के
मन में। वह
भाग—दौड़ को ही
अपनी यात्रा
बना लेता है।
हिंदू
संन्यासियों
में मुझे
नब्बे
प्रतिशत संन्यासी
तामसी मालूम
पड़े। और जैन
संन्यासियों
में नब्बे
प्रतिशत राजसी
मालूम पड़े।
इसलिए जैन
संन्यासी
रुकेगा नहीं, यात्रा
ही करता रहता
है, पदयात्रा!
चार महीने
बरसात में
रुकना पड़ता
है, वह भी
कष्ट हो जाता
है। भागता
रहता है।
हिंदू
संन्यासी
जमकर बैठ जाते
हैं। इसलिए
जैन
संन्यासियों
ने आश्रम नहीं
बनाए।
क्योंकि
आश्रम राजसी
बनाए कैसे रम
उसको फुरसत कहां
है एक जगह
बैठने की? वह
परिव्राजक है।
इसका
कारण है।
क्योंकि जैन
और बौद्ध, दोनों
धर्म
क्षत्रियों
से आए।
क्षत्रिय
यानी राजस।
जैनियों के
चौबीस
तीर्थंकर
क्षत्रिय हैं।
बुद्ध भी
क्षत्रिय हैं।
तो राजस सूत्र
है उनका। न तो
बुद्ध ने
आश्रम बनाए, न जिनों ने
आश्रम बनाए।
दोनों ने
परिव्राजक
पैदा किए, चलते
रहो.।
बुद्ध
ने तो अपने
शिष्यों से
कहा,
चरैवेति!
चरैवेति! चलते
रहो, चलते
रहो, जाओ, विहार करो।
विहार का मतलब,
जाओ, चलो,
घूमो। एक
पूरे प्रांत
का नाम बिहार
हो गया, बुद्ध
के भिक्षुओं
के घूमने के
कारण।
उन्होंने
इतनी
परिक्रमा की
इस जगह की कि
पूरा प्रांत
बिहार कहलाने
लगा। बिहार का
मतलब, परिक्रमा
कर रहे हैं
लोग, घूम
रहे हैं।
किसलिए? अब
भी जारी है।
हिंदू
संन्यासियों
ने आश्रम बनाए, विहार
नहीं किया। तो
उन आश्रमों
में खूब संपदा
इकट्ठी हो गई
और खूब तमस
चलता है, चलेगा।
जैन
संन्यासी
चलते रहे।
चलते—चलते
उन्होंने ऐसी
स्थिति बना ली
कि सब साधना खो
गई,
चलना ही साधना
रह गई।
क्योंकि
रुकोगे नहीं,
साधना
करोगे कैसे?
अगर
मैं किसी जैन
संन्यासी को
कहता हूं कि
भई,
एक सालभर
रुककर ध्यान
कर लो। वे
कहते हैं, रुक
नहीं सकते।
अब
यात्रा में
कैसे ध्यान
करोगे? आज यह गांव,
कल दूसरा
गांव, परसों
तीसरा गांव; ज्यादा समय
पैदल चलने में
जाता है। फिर
जो थोड़ा—बहुत
समय मिलता है,
वह विश्राम
भी करना पड़ता
है; क्योंकि
कल उठकर फिर
चल देना है।
फुरसत नहीं है
ध्यान की। तो
जैन धर्म से
ध्यान और योग
खो गए।
क्योंकि उसके
लिए तो थोड़ी
सुविधा चाहिए
कि तुम घड़ी, दो घड़ी बैठ
सको विश्राम
से, आख बंद
कर सको। उसकी
सुविधा ही न
रही।
तो
जैन संन्यासी
क्या कर रहा
है?
न तो वह योग
साधता, न
वह ध्यान
साधता। बस, वह एक गांव
से दूसरे गांव
जाता है। और
लोगों को
समझाता है कि
ध्यान करो, योग करो, जो
उसने खुद कभी
नहीं किए।
क्योंकि उसको
फुरसत ही नहीं
करने की। जो
उसकी मान लेंगे,
वे भी उसी
जैसे किसी दिन
पदयात्री हो
जाएंगे, जब
उनको जोश चढ़
जाएगा। वे भी
नहीं करेंगे।
क्योंकि
गृहस्थी क्या
ध्यान करे!
क्या योग करे!
संन्यासी
करता है। और
संन्यासी को
फुरसत नहीं
रुकने की। एक
पागलपन है, होश नहीं है।
सत्व
को उपलब्ध
व्यक्ति रजस
और तमस के बीच
एक संतुलन
निर्धारित कर
लेता है। जब
जरूरी होता है, वह
विश्राम करता
है। जब जरूरी
होता है, तब
आश्रम बनाता
है। जब जरूरी
होता है, तब
परिव्राजक
होता है।
उचित
होगा कि
संन्यासी जब
जवान हो, तब
परिव्राजक हो,
तब रजस
महत्वपूर्ण
होता है।
लेकिन जैसे—जैसे
वृद्ध होने
लगे, आश्रम
में थिर हो
जाए। खबर
पहुंचानी हो
लोगों तक, तो
चले। जब खबर
पहुच जाए और
लोग आने लगें,
तब न चलता
रहे, तब
बैठ जाए।
क्योंकि अब
लोग आने लगे, अब उनको कुछ
करवाना है।
खबर ही तो
नहीं
पहुंचाते
रहना है
जिंदगीभर।
उनको कुछ
करवाना है।
पंद्रह साल तक
मैं दौड़ता रहा।
पैदल नहीं चला।
क्योंकि पैदल
चलता, तो
डेढ़ सौ साल
चलता, तब
इतना काम हो
पाता। उसकी
संभावना नहीं
है। क्योंकि
चलना ही अगर
लक्ष्य हो, —तब तो ठीक है।
पैदल ही चलना
ठीक है। लेकिन
चलना तो कोई
लक्ष्य नहीं
है। खबर
पडुचानी थी
लोगों तक, पहुंच
गई खबर।
अब
मैं बैठ गया।
अब जरूरी है
कि वे मेरे
पास आ जाएं; बैठें।
और जो मैं
चाहता हूं वह
कर लें। उसके
लिए तो बैठना
जरूरी है, शात
हो जाना जरूरी
है, गति को
रोक लेना
जरूरी है।
यह
कृष्ण अब तप
की व्याख्या
कर रहे हैं।
यह व्याख्या
सत्व के हिसाब
से है। इसका
रजस रूप भी
होगा, इसका
तमस रूप भी होगा।
पहले सत्व के
हिसाब से
व्याख्या समझ
लें, क्योंकि
वह तपश्चर्या
का शुद्धतम
रूप है, वह
निखरा सोना है,
कंचन है।
हे
अर्जुन, देवता......।
जहां—जहां
दिव्यता का
अनुभव हो, वहीं—वहीं
देवता। देवता
तो प्रतीक
शब्द है। ठीक
अगर समझना हो,
तो दिव्यता।
वह गुण है।
जहां—जहां दिव्यता
का अनुभव हो!
कहां
—कहां हो सकता
है?
अगर आख हो, तो सब जगह
होगा। आख न हो,
तो मुश्किल
पड़ेगी।
अन्यथा सुबह
तुम उठे, रात
का अंधेरा
टूटा। तमस गया।
सूर्य उगने
लगा। क्या
तुमने कभी
सूर्य में
देवता देखा? तुम्हें पता
ही नहीं है।
रात को जिसने
तोड़ दिया, अंधेरे
को जिसने मिटा
दिया, वह
दिव्य है।
इसलिए हिंदू
उसे देवता
कहते हैं। और
सूर्य को
नमस्कार करते
हैं।
यह
तो प्रतीक है।
ऐसे ही
तुम्हारे
भीतर भी किसी
दिन रात
टूटेगी, सूरज
उगेगा। लेकिन
इस प्रतीक को
तो थोडा
नमस्कार करो।
ताकि भीतर के
नमस्कार के
लिए द्वार
खुले। इस बाहर
के सूरज को
झुको, ताकि
भीतर के सूरज
की भी हिम्मत
बढ़े कि अगर पैदा
हो जाऊं तो
तुम इनकार न
कर दोगे, कि
पैदा हो जाऊं
तो तुम राजी
हो, कि
तुम्हें बोध
है। इसलिए
सूर्य देवता
है।
ये
तो प्रतीक हैं
काव्य के। कोई
सूर्य देवता
है,
ऐसा नहीं।
कुछ उसकी पूजा
करने से तुम्हें
मिल जाएगा, ऐसा नहीं है;
कि उसको तुम
राजी कर लोगे,
तो वह तुम
पर कुछ ज्यादा
किरणें बरसाएगा
और दूसरों पर
कुछ कम, ऐसा
नहीं है, कि
पापी की तरफ
अंधेरा कर
देगा और
पुण्यात्मा पर
रोशनी कर देगा,
ऐसा भी नहीं
है। सूरज कोई
व्यक्ति थोड़े
ही है। अगर
तुम ठीक से
समझो, तो
दिव्यता
तुम्हारी समझ
है, सूरज
का होना नहीं।
और तुम्हें जो
लाभ होगा, वह
तुम्हारी समझ
के कारण होगा,
सूरज के
कारण नहीं।
जब
तुम सुबह सूरज
को उगते देखकर
नमस्कार के भाव
से भर जाते हो, नमन
करते हो, वह
नमन इस बात की
घोषणा है कि
अंधकार को
तोड़ना है, प्रकाश
को लाना है।
वह इस बात का
तुम्हारा
अंतर्भाव है,
तमसो मा
ज्योतिर्गमय!
कि मुझे
अंधकार से
प्रकाश की तरफ
ले चल, हे
परमात्मा! मैं
प्रकाश को
नमस्कार करता
हूं प्रकाश के
स्रोत को
नमस्कार करता
हूं। यह देवता
है, इसने
बाहर की रात
मिटाई। मुझे
भीतर का कुछ
पता नहीं।
जैसे बाहर की
रात मिट गई, वैसे मेरी
भीतर की रात
को भी मिटा।
तमसो मा
ज्योतिर्गमय!
मुझे ले चल
अंधेरे से प्रकाश
की तरफ।
यह
तुम्हारा भाव
है। तुम्हारे
भाव से
तुम्हें लाभ
है। सूरज
तुम्हें कोई
लाभ नहीं
पहुंचा देगा।
न सूरज
तुम्हें कोई
हानि
पहुंचाता है।
लेकिन
तुम्हारी भाव—दशा
तुम्हें लाभ
पहुंचाएगी, हानि
पहुंचाएगी।
जिन्होंने
सूर्य को
नमस्कार किया,
बड़े कुशल
लोग हैं।
उन्होंने
अपने भीतर एक
परिवेश पैदा
कर लिया, एक
बीजारोपण
किया। तुमने
वृक्ष में फूल
खिले देखे और
तुम्हारे भीतर
एक नमन आया, तुम झुके।
वह भी देवता
हो गया। इसलिए
हिंदुओं के सभी
देवता हैं, वृक्ष, नदियां,
पहाड़, सूरज।
हिंदू समझ पाए
कला को।
उन्होंने
देवता का राज
पकड़ लिया। वह
देवता में
नहीं है, वह
तुम्हारे भाव
में है।
तो
जितनी जगह
तुम्हें
देवता मिल जाए, उतना
अच्छा; क्योंकि
उतनी बार भाव
का बार—बार
जन्म होगा, पुनरुक्ति
होगी, भाव
सघन होगा, प्रगाढ़
होगा, बैठेगा।
तो
हिंदुओं ने
सारे जगत को
देवता से भर
दिया। चांद भी
देवता है, सूरज
भी देवता है, वृक्ष भी
देवता हैं, गंगा भी, हिमालय
भी, कैलाश
भी। जहां आख
उठाओ, वहां
देवताओं का
वास है। तुम
देवताओं से
भाग न सकोगे।
सब तरफ से
तुम्हें
दिव्यता घेर
लेगी। इस
घिराव में
तुम्हारे
भीतर के देवता
का जन्म होगा।
तो
लक्षण पहला
कहते हैं
कृष्ण अर्जुन
से,
देवता, द्विज,
गुरु, ज्ञानीजनों
का पूजन।
पहला
देवता, क्योंकि
उससे ही
तुम्हारे
भीतर की चेतना
रूपांतरित
होगी। सारी
दुनिया हंसती
है, लेकिन
समझ नहीं पाती।
सारी दुनिया
हंसती है कि
हिंदू कैसे
पागल हैं, गंगा
की पूजा कर
रहे हैं! नदी
में क्या रखा
है? हमें
भी पता है।
रात दीया जला
घर में और
हिंदू
नमस्कार कर
रहे हैं। हमें
भी पता है कि
दीए में क्या
रखा है!
केरोसिन तेल
है, वह भी
शुद्ध नहीं।
उसमें भी पानी
मिला है। वह
हमें भी पता
है। नमस्कार
करने जैसा कुछ
नहीं है।
घासलेट के तेल
में क्या हो
सकता है
नमस्कार करने
जैसा? फिर
भी हम नमस्कार
कर रहे हैं।
असली
सवाल दीया
नहीं है। असली
सवाल नमस्कार
करना है। वह
तो बहाना है।
जहां मिल जाए, वहीं
हम बहाना खोज
लेते हैं। वह
बहाना तत्क्षण
तुम्हें बदलता
है।
समझो
कि तुम क्रोध
से भरे बैठे
थे और किसी ने
दीया जलाया......।
दीया
क्या, हिंदू
तो अब बिजली
भी जलाओ, तो
भी नमस्कार
करते हैं।
थोड़े डरते हैं,
झिझकते हैं,
पढ़े—लिखे
हुए तो जरा
देख लेते हैं
कि कोई देख तो
नहीं रहा।
ज्यादा ही
डरपोक हुए तो
भीतर— भीतर कर
लेते हैं, ऊपर
से नहीं प्रकट
करते। तरु लता
करती है, मगर
डरती नहीं है।
बिजली
जलती है; तुम
क्रोध से भरे
थे, नाराज
थे, अचानक
बिजली जली, सांझ हो गई।
तुमने हाथ
जोड़े; नमस्कार
किया। क्रोध
विसर्जित हो
गया; भाव—दशा
बदल गई।
क्योंकि कैसे
तुम क्रोध से
भरे नमस्कार
कर सकोगे! क्षण
में रूपांतरण
हो गया। हवा
दूसरी आ गई।
झोंका और आ
गया बाहर का, ले गया
क्रोध को; श्रृंखला
टूट गई। भीतर
की विचारधारा
क्रोध की तरफ
जा रही थी, वह
टूट गई, वह
नमन में बदल
गई।
पति
घर में आता है, पत्नी
पैर छू लेती
है। बेटा घर
लौटता है, मां
के पैर छूता
है। यह चलता
रहता है क्रम।
यह नमन
तुम्हारे
जीवन को
दिव्यता की
तरफ ले जाता
है।
देवताओं
से मतलब नहीं
है। तुम्हें
दिव्यता की
तरफ जाना है, तो
तुम जितने
देवता अनुभव
कर सको, उतना
सुगम हो जाएगा।
देवताओं का
नमस्कार
तुम्हें
दिव्य बनाएगा।
वह तो तरकीब
है, एक विधि
है।
द्विज,…..।
द्विज
का अर्थ है, ब्राह्मण।
द्विज का अर्थ
है, जिसका
दुबारा जन्म
हुआ। यह द्विज
शब्द बड़ा
महत्वपूर्ण
है। ऐसा
दुनिया की
किसी भाषा में
शब्द नहीं है,
द्विज।
क्योंकि जन्म
तो एक ही दफा
होता है।
दुबारा जन्म
का क्या मतलब?
लेकिन
हम कहते हैं, पहला
जन्म तो शरीर
का है। वह तो
मा—बाप से
होता है।
दूसरा जन्म
असली है; जिसमें
तुम अपनी
चेतना को जन्म
देते हो। उसे
हम द्विज कहते
हैं।
द्विज
वह है, जिसने
ब्रह्म को
जाना, जिसका
दूसरा जन्म हो
गया—शरीर का
नहीं, आत्मा
का, चैतन्य
का। मृण्मय का
नहीं, चिन्मय
का जिसके भीतर
आविर्भाव हुआ।
दीए को तो भूल
गया जो, ज्योति
हो गया। उसको
हम कहते हैं
द्विज।
ध्यानस्थ हुए
को, समाधिस्थ
हुए को, उसे
हम कहते हैं
ब्राह्मण।
ब्राह्मण
कोई किसी
ब्राह्मण के
घर में पैदा होने
से नहीं होता।
ब्राह्मण तो
द्विज होने से
होता है। पैदा
तो सभी शूद्र
होते हैं। फिर
उनमें से कुछ
ब्राह्मण हो
जाते हैं, अधिक
शूद्र ही रह
जाते हैं।
द्विज
का मतलब है, समाधि
से आविर्भाव
हुआ नए जीवन
का। पुराना
गया, नया
आया। पुराना
मरा, नए का
जन्म हुआ। फिर
से तुम बालक
हुए परमात्मा
के।
द्विज
को नमस्कार।
जिसके भीतर क्रांति
घट गई है, उसको
नमस्कार।
क्योंकि उससे
तुम्हारे
भीतर क्रांति
के घटने का
सूत्रपात
मिलेगा, संबंध
जुड़ेगा। वैसे
नमस्कार करते—करते
द्विज को
कितनी देर तक
तुम अपने शरीर
से चिपके
रहोगे? वह
नमस्कार
तुम्हें
तोड़ेगा अपने
ही शरीर से।
द्विज
को नमस्कार
करते—करते कभी—कभी
तो तुम्हें
द्विज की
क्षमता दिखाई
पड़ेगी। उसकी
गरिमा, उसका
गौरव, उसकी
आंखें, उसका
होना, उसका
ढंग, कभी
तो तुम
पहचानोगे। हो
सकता है, पहले
नमस्कार
औपचारिक ही हो;
शास्त्र
कहते हैं, इसलिए
हो।
लेकिन
अगर तुम द्विज
को नमस्कार
करते ही रहे, तो
किसी न किसी
क्षण में—जब
तुम्हारा मन
शात होगा, आनंदित
होगा, क्रोध
न होगा, दुख
न होगा, एक
भीतर सन्नाटा
होगा—किसी दिन
संयोग बैठ
जाएगा, उस
क्षण तुम्हें
द्विज का
दर्शन हो
जाएगा। उस
क्षण तुम
जिसको
नमस्कार करते
थे, वह
शरीर नहीं रह
जाएगा; भीतर
की ज्योति
तुम्हें
दिखाई पड़
जाएगी।
और
ध्यान रखो कि
जब तुम्हें
किसी में वह
ज्योति दिखाई
पड़ेगी, तभी
तुम अपने में
खोजना शुरू
करोगे।
अन्यथा तुम
कैसे खोजोगे
अपने में? किसी
में खजाना देख
लोगे, तो
तुम अपने घर
आकर खोदने
लगोगे। खजाना
कहीं दिखाई ही
न पड़ेगा, तो
तुम सोच भी न
पाओगे कि घर
में खजाना हो
सकता है। कहीं
खोजोगे तो ही,
किसी में
देख लोगे तो
ही, किन्हीं
आंखों में
तुम्हें सागर
दिखाई पड़
जाएगा, किसी
हृदय में
तुम्हें
विराट की थोड़ी—सी
झलक मिलेगी।
द्विज का अर्थ
है, कोई जो
जाग गया। शायद
उसके पास
क्षणभर को
तुम्हारी
नींद टूट जाए,
तुम करवट
बदल लो, एक
क्षण को आख
खोलकर देख लो।
एक क्षण भी
फिर क्रांति
हो जाती है।
एक चिनगारी आग
बन जाती है।
जरा—सी
चिनगारी, और
तुम फिर वही न
हो सकोगे।
द्विज
के पास होने
का मतलब है, बारूद
के पास होना।
तुम तो घास—पात
हो। एक
चिनगारी पड़ गई
कि लपटें लग
जाएंगी, सब
राख हो जाएगा।
फिर वही बचेगा,
जो जल नहीं सकता।
न हन्यते
हन्यमाने
शरीरे! फिर
वही बचेगा, जो शरीर के
मरने से मरता
नहीं। फिर वही
बचेगा, जिसे
शस्त्र छेद
नहीं सकते।
पर
द्विज के पास
ही पहली दफा
स्वाद लगेगा।
और एक दफा
स्वाद लग जाए, तब
कठिनाई नहीं।
मैं
जब स्कूल में
पढ़ता था, तो
पहली या दूसरी
कक्षा में एक
शिकारी की
कहानी थी। वह
क्यों वहां
रखी थी, पता
नहीं। किसने
रख दी थी, वह
भी पता नहीं।
कोई प्रयोजन
उस वक्त मालूम
नहीं पड़ता था।
कहानी
थी कि एक
शिकारी ने एक
सिंह को मारा, एक
सिंहनी को
मारा; जोड़े
को मार डाला।
तब उसे पता
चला कि जोड़े
के बच्चे भी
थे। तो सिंह
शावकों को, दो बच्चों
को वह घर ले
आया। एक तो
उनमें से मर
गया, एक
बड़ा हो गया।
उसे उसने शाक—सज्जी—दूध
पर ही पाला।
वह
सिंह शावक बड़ा
हुआ,
शाकाहारी।
वह उसके पास
बैठा रहता, जैसे बिल्ली
बैठती या
कुत्ता बैठता।
बच्चे उसके
साथ खेलते, वह बड़ा होता
गया। नए लोग
तो भयभीत हो
जाते, लेकिन
पूरा गांव
जानता था, वह
गांव में घूम
आता। लोग उसे
मिठाई खिलाते
और उसको प्रेम
करते।
एक
दिन शिकारी
बैठा था, वह भी
बैठा था, उसका
सिंह भी उसके
पास बैठा था।
शिकारी के पैर
में चोट लग गई
थी, और
थोड़ा—सा खून
बह रहा था। और
उस सिंह ने
उसे चाट लिया।
बस, फिर
खतरा हो गया।
स्वाद लग गया।
खून का स्वाद।
उसी वक्त
शिकारी खतरे
में पड़ गया।
क्योंकि उसने
सिंह की
गर्जना कर दी,
वह
शाकाहारी न
रहा।
शिकारी
को अपने प्राण
बचाने
मुश्किल हो गए, क्योंकि
सिंह ने
झपट्टा मार
दिया। कभी
उसने किसी पर
झपट्टा न मारा
था। उसे पता
ही न था कि खून
का स्वाद क्या
है। अब स्वाद
लग गया, तो
उसके रोएं—रोएं
में सोई हुई
प्रकृति जाग
गई।
उसके
कण—कण में
सिंह सोया था।
सिंह
शाकाहारी हो
गया था। उसको
पता ही नहीं
था,
इसलिए कोई
उपाय ही न था।
वह भूल ही
चुका होगा कि
सिंह है।
अचानक गर्जना
हौ गई। सारा
घर खतरे में
पड़ गया। सारा
गांव खतरे में
पड़ गया।
यह
जब मैंने
कहानी पढ़ी थी, तब
तो मुझे लगा
कि किसलिए है?
इसका क्या
मतलब है? क्या
प्रयोजन है? लेकिन अब
मैं सोचता हूं
यह कहानी जरूर
किन्हीं
ज्ञान के
स्रोतों से आई
होगी। कहानी
इतना ही कह
रही है कि जब
स्वाद लग जाए,
तब क्रांति
घट जाती है।
द्विज
के पास
तुम्हें
स्वाद लगेगा।
क्योंकि
द्विज से बह
रहा है
परमात्मा, जैसे
शिकारी से बह
रहा था खून।
एक दफा तुमने
चख लिया, जरा—सा
तुमने चख लिया,
फिर तुम वही
न हो सकोगे जो
तुम थे। कल तक
तुम अर्जुन थे,
अब एकदम
कृष्ण हो
जाओगे। एक
क्षण में सब
बदल जाता है।
लेकिन
कृष्ण का
स्वाद कैसे
लगेगा? कृष्ण
के पास आने की
व्यवस्था बनी
रहनी चाहिए।
उस व्यवस्था
को हिंदुओं ने
जमाया है
द्विज से। तो
वे कहते हैं
द्विज को, ब्राह्मण
को नमस्कार
करो, नमन
करो, उसका
पूजन करो, उसके
प्रति
श्रद्धा का
भाव रखो, तो
कभी न कभी, अनायास,
बिना
तुम्हारे
प्रयास के भी
द्वार खुल
जाएगा। बस एक
बार स्वाद
लगने की बात
है।
गुरु
और ज्ञानीजन........।
जिनसे
तुमने कुछ भी
सीखा हो। कुछ
भी,
इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता कि क्या।
यहां कोइ
सदगुरु की बात
नहीं हो रही
है, क्योंकि
द्विज में वह
बात हो गई।
द्विज के बाद
गुरु का नाम
लेना अब फिर
व्यर्थ पुनरुक्ति
है। कृष्ण
पुनरुक्ति
नहीं करेंगे।
वे एक शब्द
ज्यादा न
बोलेंगे, जो
जरूरी है उससे।
द्विज, देवता
में गुरु, सदगुरु
आ गया। यहां
तो गुरु से
मतलब है, जिससे
तुमने कुछ भी
सीखा हो, कुछ
भी, उसके
प्रति नमन।
जिससे तुमने क
ख ग घ सीखा, गणित
सीखा, भूगोल
सीखी, उसमें
कुछ भी नहीं
है नमन जैसा।
क्या है नमन
जैसा?
पश्चिम
में
विद्यार्थी
कहता है कि
तुम तनख्वाह
लेते हो, हम
फीस देते हैं,
बात खतम हो
गई। वही बात
अब
हिंदुस्तान
में भी
विद्यार्थी
कह रहा है कि
तुम नौकर हो।
बात खतम हो गई।
तुम्हें नमन
क्या करना? तुम्हारे
पैर क्या छूना?
हम
चूके जा रहे
हैं एक बड़ी
महत्वपूर्ण
बात से। वह
महत्वपूर्ण
बात यह है कि
जिससे तुमने
कुछ भी सीखा
हो,
उसके चरणों
में झुकना।
क्यों? क्योंकि
जो आखिरी
सीखना होने
वाला है, वह
चरणों में
बिना झुके न
होगा। यह गणित
है।
यहां
तो तुमने जो
सीखा है, वह दो
कौड़ी का है।
कोई हर्जा
नहीं, न
झुके तो भी
कोई गुरु
बिगाड़ नहीं
लेगा कुछ।
लेकिन झुकने
की कला कहां
सीखोगे? झुकने
का अभ्यास
कहां करोगे?
उथले
पानी में
तैरना सीखना
पड़ता है। तो
गुरु कितना ही
उथला हो। उथले
ही हैं, क्योंकि
क्या है
बेचारा वह।
प्राइमरी
स्कूल का एक
मास्टर है, वह कोई
सत्तर रुपया,
अस्सी
रुपया, सौ
रुपया महीना
पाता है। उसकी
क्या हैसियत
है! और तुम कभी
के उससे आगे जा
चुके। वह
मैट्रिक पास
है या पुराना
मिडिलची होगा,
तुम एम. ए. हो
गए, पी.एच.
डी हो गए, या
डी. लिट हो गए।
अब क्या है उस
गुरु में? तुम
उसके लिए
क्यों झुको? तुम उससे
ज्यादा जानते
हो, उसे
तुम्हारे लिए
झुकना चाहिए।
नहीं
लेकिन, जिससे
तुमने कभी भी
कुछ सीखा, उसके
प्रति झुकना।
वह तुम झुकते
ही रहना।
क्योंकि
आखिरी दिन ऐसी
घड़ी आएगी, जब
तुम झुकोगे, तब सीखना
होगा। अभी
सिखाने वाले
के प्रति
झुकते रहना, ताकि झुकने
का अभ्यास गहन
हो जाए और उस
परम सिखावन के
पहले ऐसा न हो
कि तुम अकड़े
खड़े रह जाओ।
हिंदुओं ने
पूरे जीवन का
शास्त्र बना
लिया है।
हिंदुओं से
ज्यादा कुशल
जाति खोजनी
असंभव है। मगर
उनके सब मूल्य
टूटे जा रहे
हैं। और उनके
मूल्यों को
समझाने वाला
भी कोई नहीं
है। और उनके
मूल्यों के जो
रखवाले हैं, वे बिलकुल
निर्बुद्धि
लोग मालूम
पड़ते हैं।
पुरी के
शंकराचार्य
जैसे लोग हैं,
जिनमें
साधारण
बुद्धि भी
नहीं है।
जब
भी कोई जाति
मरती है, तो
ऐसा हो जाता
है। उसमें
बुद्धओं के
हाथ में शक्ति
पहुंच जाती है,
फिर उसका
मरना निश्चित
हो जाता है।
गुरु
और
ज्ञानीजनों
का पूजन……।
गुरु
तो वह है, जिससे
तुमने सीखा हो।
और ज्ञानीजन
वे हैं, जिनसे
दूसरों ने भी
सीखा हो, तुमने
न भी सीखा हो, तो भी झुकना।
जिनसे दूसरों
ने भी सीखा हो,
जो दूसरों
के गुरु हों, उनके प्रति
भी झुकना।
क्योंकि यह
बड़ा सवाल नहीं
है कि तुमने
जिससे सीखा हो,
उसी के
प्रति झुको।
क्योंकि अगर
तुमने ऐसा
अभ्यास किया
कि तुम उसी के
प्रति झुकोगे,
जिससे
तुमने सीखा है,
तो इसमें भी
अहंकार है।
मैंने सीखा
इसलिए झुकता
हूं; एक
लेन—देन है।
झुकना शुद्ध
नहीं है।
झुकने में
थोड़ी अशुद्धि
है, थोड़ा
व्यवसाय है।
न, उनके
प्रति भी
झुकना, जिनकी
तुम्हें खबर
है कि वे
ज्ञानीजन हैं।
वे न भी हों—इसको
खयाल रखना—वें
ज्ञानीजन न भी
हों, अफवाह
तुमने सुनी हो।
तुम्हारे ऊपर
कोई यह जिम्मा
नहीं है कि
तुम पहले
पक्का प्रमाण
खोजो, अदालत
से
सर्टिफिकेट
लाओ कि यह
आदमी असली में
गुरु है कि
नही, योग्य
है कि नहीं, ज्ञानी है
कि नहीं, फिर
मैं झुकूंगा।
नहीं, यह
सवाल ही नहीं
है। हो सकता
है, वह
ज्ञानी न भी
हो, अज्ञानी
हो। हर्जा कुछ
नहीं है।
झुकने से लाभ
ही लाभ है।
और
मेरा अनुभव यह
है कि अगर तुम
अज्ञानी के
प्रति भी झुको, तो
दोनों को लाभ
होता है।
अज्ञानी भी
तुम्हारे
झुकने से थोड़ा
ज्ञानी होता
है। उसको भी
अपने अज्ञान
से थोड़ी
घबड़ाहट होती
है। कभी तुम
अज्ञानी के
प्रति झुको, तो उसको भी
लगता है, कुछ
करना पड़ेगा।
लोग झुक रहे
हैं, कुछ
बदलाहट करनी
पड़ेगी।
तुम
करके देखो। एक
आदमी को तुम
तय कर लो, उसको
पता न चलने दो,
सब उसके पैर
छूने लगो। तुम
पाओगे, महीनेभर
में तुमने उस
आदमी को बदल
डाला है।
क्योंकि अब वह
चोरी नहीं कर
सकता, शराब
नहीं पी सकता,
सिगरेट पीए,
तो डर लगता
है कि कोई पैर
छू ले उसी
वक्त, तो
कैसा बेहूदा
लगेगा!
इसलिए
मैं कहता हूं
हिंदू जाति
बहुत कुशल है।
झुकने से
तुम्हें लाभ
है। और जिसके
प्रति तुम
झुके, उसे भी
लाभ है।
क्योंकि तुम
जब भी किसी के
प्रति आदर
देते हो, तब
तुम उसके भीतर
एक आकांक्षा
पैदा करते हो
कि यह आदर के
योग्य तो
बनाना चाहिए।
इसलिए हमने इस
गणित का बड़ा
गहरा उपयोग
किया था। हमने
गुरुओं को और
गुरु की गहराई
में जाने में
सहयोग दिया था,
और शिष्य को
और शिष्यत्व
की गहराई में
जाने में। और
एक ही तरकीब
का। इसको कहते
हैं, एक
पत्थर से दो
पक्षी मार
लेना।
अगर
स्कूल के
बच्चे स्कूल
के गुरुओं को
आदर दें, तो गुरुओं
को बदल डालते
हैं।
मेरे
एक शिक्षक थे।
कोई खास भले
आदमी न थे।
उनके बाबत
बहुत बातें
मैं सुनता था।
मेरे घर के
लोग भी मुझसे
कहे कि तुम और
सबके पैर छुओ, ठीक,
लेकिन इस
आदमी के मत
छूना। मैंने
कहा कि मेरा
कोई यह हिसाब
नहीं है।
लेकिन यह आदमी
मुझे भूगोल
पढ़ाता है।
उतने से मेरा
संबंध है।
भूगोल यह
अच्छे ढंग से
पढ़ाता है।
यह
आदमी जुआ
खेलता है, ऐसी
मैंने खबर
सुनी है। यह
शराब पीता है,
यह भी मैंने
सुना है। यह
वेश्यागामी
है, यह भी
मैंने सुना है।
न केवल सुना
है, बल्कि
मैंने इसे
वेश्याओं के
इलाके में
जाते भी देखा
है और शराबघर
में भी बैठे
देखा है। मगर
इससे मेरा कोई
प्रयोजन नहीं।
क्योंकि
भूगोल यह ठीक
पढ़ाता है। और
इसके भूगोल
पढ़ाने में न
तो यह शराब
पीकर आता है, और न वेश्या
को लेकर आता
है। इसलिए
उससे मेरा कोई
लेना—देना
नहीं है। इसकी
जिंदगी बड़ी है।
अपना तो संबंध
भूगोल से है।
तो मैं तो
इसके पैर छूता
रहूंगा।
मैं
पहला ही
विद्यार्थी
था,
जो उसके पैर
छूता।
क्योंकि कोई
उसके पैर छूता
नहीं। कुछ
दिनों बाद उस
आदमी ने कहा
कि देखो भई, तुम भी मेरे
पैर मत छुओ।
मैंने कहा, क्यों? उसने
कहा कि
तुम्हें पता
नहीं कि मैं
आदमी बुरा हूं।
शिक्षक होने
की मेरी
योग्यता ही
नहीं। यह तो
मजबूरी में
नौकरी करनी
पड़ती है। और
तुमसे मैं सच—सच
कहे देता हूं
मैं आदमी
बिलकुल बुरा
हूं। सब बुरे
कृत्य मेरे
जीवन में हैं।
और तुम जब
मेरे पैर छूते
हो, तो
मुझे बड़ा कष्ट
होता है।
तो
मैंने कहा, वह
आपकी चिंता है।
मैं पैर छूना
जारी रखूंगा।
उसने कहा कि
तुम मुझे
मुश्किल में
डाले दे रहे
हो। क्योंकि
कल मैं शराबघर
में बैठा था।
तुम वहा से
निकले, तो
मुझे छिपना
पड़ा। मैं कभी
नहीं छिपा
अपनी जिंदगी
में। मुझे डर
लगा कि यह
लड़का कहीं देख
न ले, नहीं
तो यह क्या
सोचेगा! और यह
इतने भाव से
पैर छूता है।
मैंने
उस आदमी को
बदल ही डाला।
मैंने उस आदमी
का पीछा जारी
रखा।
कृष्ण
कहते हैं, ज्ञानीजनों
का भी पूजन.....।
जो
तुम्हारे
गुरु न भी हों, उनका
भी पूजन।
पवित्रता, सरलता,
ब्रह्मचर्य
और अहिंसा.....।
पवित्रता
का अर्थ होता
है,
प्रामाणिकता।
अपवित्र तुम
उसी क्षण हो
जाते हो, जब
तुम होते कुछ
हो और दिखाते
कुछ हो। कोई
आदमी चोरी
करने से
अपवित्र नहीं
होता। चोरी
करता है और
दिखलाता है कि
अचोर हूं तब
अपवित्र होता
है।
इसे
तुम ठीक से
समझ लो। कोई
आदमी झूठ
बोलने से
अपवित्र नहीं
होता। लेकिन
बोलता झूठ है
और दिखाता यह
है कि मैं सच बोलता
हूं तब
अपवित्र होता
है। जो आदमी
झूठ बोलता है
और कहता है, मैं
झूठ बोलने
वाला हूं वह
पवित्र है।
उसमें
अपवित्रता
नहीं है।
उसमें विपरीत
का मिश्रण
नहीं है। वह
सीधा, सरल
है। तो अगर
तुम्हें
पवित्रता
पानी हो जीवन
में, तो
तुम जैसे हो, वैसा ही
प्रकट कर देना—बुरे
हो तो बुरे, चोर हो तो
चोर, झूठे
हो तो झूठे, कामी हो तो
कामी—उसे तुम
छिपाना मत। बस,
छिपाने से
आदमी अपवित्र
होता है।
और
यह बड़े रहस्य
की बात है कि
जितना तुम
प्रकट कर दोगे, उतने
ही जल्दी तुम
बदलना शुरू हो
जाओगे।
क्योंकि
पवित्र
व्यक्ति
कितने दिन तक
चोर रह सकता
है? पवित्रता
इतनी बड़ी
अग्नि है कि
चोरी को जला
डालेगी।
प्रामाणिकता
इतनी बड़ी बात
है कि जो आदमी
झूठ बोलता है
और कहता है कि
मैं झूठ बोलता
हूं वह कितने
दिन तक झूठ
बोल सकेगा? उसने पहला
कदम सच की तरफ
उठा ही लिया।
सबसे बड़ा कदम
उसने उठा लिया
कि उसने
स्वीकार कर
लिया कि मैं
झूठ बोलता हूं
मैं झूठा आदमी
हूं। इससे बड़ा
सत्य की तरफ
कोई भी कदम
नहीं है। और
यह कदम इतना
बड़ा है कि सब
झूठ इस कदम
में दब जाएंगे
और मर जाएंगे।
जिस
आदमी ने
स्वीकार कर
लिया कि मैं
कामवासना से
भरा हूं उसने
ब्रह्मचर्य
की तरफ पहला
कदम उठा लिया।
इसीलिए तो
तुम्हारे
साधु—संन्यासी
ब्रह्मचारी
नहीं हो पाते।
क्योंकि
उन्होंने
पहला कदम ही
नहीं उठाया।
उन्होंने कभी
यह स्वीकार ही
नहीं किया कि
हम कामवासना
से भरे हैं।
वे पहले ही से
दावा कर रहे
हैं कि हम
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हैं।
और
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
करोड़ों में
कभी एक आदमी
होता है।
क्योंकि
कामवासना
शरीर के रोएं—रोएं
में भरी है।
और
हिंदुस्तान
में लाखों
संन्यासी
दावा कर रहे
हैं कि वे
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हैं।
इससे भयंकर
झूठ दुनिया
में कहीं चल
ही नहीं सकता।
हिंदुस्तान
जैसा पाखंड
तुम कहीं भी न
पा सकोगे। और
लोग मान भी
रहे हैं! बड़ा
खेल चल रहा है।
जिसने
स्वीकार कर
लिया कि
मुझमें
कामवासना है, यह
आदमी
प्रामाणिक है।
यह कभी
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
होकर रहेगा।
जिसने कहा, कामवासना
मुझमें है ही
नहीं, इसने
पहला झूठ
स्थापित कर
लिया। अब यह
कामवासना
नहीं है, इसको
ही छिपाने में,
इसको ही
दबाने में
इसकी सारी
जिंदगी लग
जाएगी।
प्रामाणिक, आथेंटिक
बनो।
तो
कृष्ण कहते
हैं,
पवित्रता।
फिर कहते हैं,
सरलता। जो
पवित्र होगा,
वह सरल हो
जाता है। सरल
का अर्थ है, जिसमें दाव—पेंच
न हों, चालाकी
न हो, एक
निर्दोषता हो।
बच्चे जैसा।
क्या
मतलब है बच्चे
जैसा होने का? बच्चे
पर तुम नाराज
हो जाओ, तो
वह क्रोध से
भर जाता है, आग में जलने
लगता है। लगता
है कि मकान को
मिटा देगा, कि दुनिया
को मिटा देगा,
अगर उसके
हाथ में ताकत
होती। कूदता—फांदता
है। चीजें तोड़
देता है। तुम
सोचोगे कि यह
बच्चा तो महान
भयंकर उपद्रव
है। यह किसी न
किसी दिन
हत्यारा
बनेगा।
और
पांच मिनट बाद
वह शाति से
तुम्हारे पास
बैठा है। बड़ा
आनंदित है, गीत
गुनगुना रहा
है। तुम भरोसा
ही नहीं कर
सकते कि
क्षणभर पहले
यह इतना क्रोध
से भरा था और
अब इतना सुंदर
और शात मालूम
हो रहा है!
क्या हो गया
इसको?
बच्चा
सरल है, उसके
पास गणित नहीं
है। जब क्रोध
होता है, तब
वह क्रोध
प्रकट करता है।
बच्चा जिस भाव—दशा
में होता है, वही भाव—दशा
प्रकट करता है।
तुम कभी क्रोध
में होते हो, लेकिन
मुस्कुराते
हो। क्योंकि
अभी
मुस्कुराना
लाभपूर्ण है,
क्रोध करना
खतरा है; महंगा
पड़ जाएगा।
मालिक
से दफ्तर में
तुम नाराज हो, लेकिन
हंस—हंसकर
बातें करते हो,
पूंछ
हिलाते हो।
तबीयत हो रही
है कि गरदन
दबा दें इसकी।
तुम हिसाब
बिठाते हो कि
इसमें तो
नुकसान होगा,
नौकरी हाथ
से चली जाएगी।
घर
आते हो, पत्नी
से कलह होती
है। कोई सदभाव
नहीं भीतर
पैदा होता, क्रोध पैदा
होता है। उसको
भी छिपाते हो।
क्योंकि
पत्नी से झंझट
लेने का मतलब
है, दिन, दो दिन
मुसीबत चलेगी।
उतना महंगा
सौदा नहीं
करना चाहते।
सब
तरफ से झूठ
इकट्ठा कर
लेते हो, धीरे—
धीरे
अप्रामाणिक
हो जाते हो।
तुम्हारी
हंसी से पक्का
पता नहीं चलता
कि तुम भीतर
हंस रहे हो।
तुम्हारे
रोने से पक्का
पता नहीं चलता
कि तुम भीतर
रो रहे हो।
भीतर कुछ, बाहर
कुछ। यह
जटिलता है।
और
फिर यह जटिलता
घनी होती जाती
है। जैसे—जैसे
अनुभव जीवन का
बढ़ता है, सब
चीजें जटिल हो
जाती हैं, उलझाव
हो जाता है।
जैसे रस्सी का
धागा उलझ गया
हो, कई
उलझन में पड़
गया हो, ऐसा
तुम्हारा
व्यक्तित्व
हो जाता है।
इसलिए
मैं कहता हूं
धार्मिक होना
बड़ी हिम्मत की
बात है।
क्योंकि
उसमें
तुम्हें कई
खतरनाक सौदे
करने पड़ेंगे।
जब तुम क्रोध
से भरो, तो
क्रोध को ही
प्रकट करना, चाहे कोई भी
परिणाम हो, चाहे कितना
ही उसका फल
भोगना पड़े।
फल
का हिसाब
जिसने लगाया, वह
चालाक है। असल
में फल का
हिसाब ही
चालाकी है। वह
सोच रहा है कि
इसका क्या
परिणाम होगा।
बच्चा नहीं
सोचता कि क्या
परिणाम होगा।
और
मैं तुमसे
कहता हूं कि
अगर तुम सरल
रहे,
तो तुम धीरे—
धीरे पाओगे, क्रोध विलीन
हो गया। अगर
तुम जटिल रहे,
तो क्रोध
सदा मौजूद
रहेगा। घृणा
गहन होती
जाएगी, प्राणों
के प्राण में
समा जाएगी।
नासूर की तरह
तुम्हारा
व्यक्तित्व
हो जाएगा।
उसमें से
परमात्मा की
सुगंध कैसे उठ
सकती है? उसमें
समाधि का दीया
कैसे जलेगा? नहीं, उसमें
कमल नहीं खिल
सकते। वहा
भूमि ही नहीं
रही। वहा तुमने
सब जटिल कर
लिया।
कृष्ण
कहते हैं, सरलता,
पवित्रता.....।
पहले
पवित्रता, फिर
सरलता। सरलता
का अर्थ है, जीवन के सभी
संवेगों को
बच्चे की तरह
जीना। धीरे—
धीरे तुम
पाओगे कि कोई
हानि नहीं
होती।
तुम्हारे
क्रोध को भी
लोग समझते हैं
कि यह आदमी
क्रोध भला कर
लेता हो, लेकिन
क्रोधी नहीं
है। तुम्हारे
क्रोध को लोग
क्षमा कर
देंगे; क्योंकि
लोग जानते हैं,
तुम सरल हो।
तुम किसी क्षण
में उबल पड़ते
हो, यह बात
ठीक है। लेकिन
तुम जटिल नहीं
हो।
जो
आदमी कभी
क्रोध नहीं
करता और सदा
क्रोध को ढोता
है,
उसका कोई
भरोसा नहीं
करता। वह आदमी
जटिल है। उसकी
बात का पक्का
भरोसा नहीं है।
वह पाखंडी है।
वह कहेगा कुछ,
करेगा कुछ।
उस पर तुम
भरोसा नहीं कर
सकते। धीरे—
धीरे वह जितनी
चालाकी करता
है, जितना
हिसाब लगाता
है, उतने
ही नुकसान में
पड़ता है।
सरल
व्यक्ति
अंततः ,चाहे
शुरू में थोड़ी
कठिनाई हो, बाद में हमेशा
परम धन को
उपलब्ध होता
है, परम
लाभ को उपलब्ध
होता है।
ब्रह्मचर्य.......।
इनमें
एक क्रम है।
अगर तुम
पवित्र हो, तो
सरल होना आसान
होगा। अगर सरल
हो, तो
ब्रह्मचर्य
आसान होगा।
पहले
कामवासना को
स्वीकार करो।
फिर कामवासना
को दबाओ मत, प्रकट होने
दो; उसे
जीओ। जीवन में
सभी कुछ जीने
के लिए है, ताकि
तुम उसके पार
जा सको। तब
ब्रह्मचर्य
उपलब्ध होता
है।
ब्रह्मचर्य
कामवासना के
विपरीत नहीं
है। कामवासना
के द्वारा पाए
गए अनुभव का
नाम है।
कामवासना से
गुजरे हुए
आदमी की संपदा
है। कामवासना
को जीया है
जिसने, जीकर
देखा है जिसने,
पीड़ा जानी,
व्यर्थता
जानी, वही
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
होता है। तब
ब्रह्मचर्य
कोई जबरदस्ती
थोपा गया नियम
नहीं होता, अनुशासन
नहीं होता; तुम्हारे
जीवन के अनुभव
से आया हुआ
सीधा—सीधा भाव
होता है। नहीं
कि तुम अब
लड़ते हो अपनी
कामवासना से।
नहीं, कामवासना
जा चुकी; तुमने
उसे जी लिया, वह बात खतम
हो गई।
इसे
तुम सूत्र की
तरह याद रखो, जिस
चीज को भी
समाप्त करना
हो, उसे
ठीक से जी लो।
अधूरी जीयी गई
चीज हमेशा
कायम रहती है,
सरकती है, सिर के आस—पास
घूमती रहती है।
अधूरे अनुभव
से कोई मुक्त
नहीं हो सकता।
कच्चा
फल कैसे वृक्ष
से गिरेगा? पत्थर
मारकर गिरा
सकते हो।
लेकिन फल में
भी घाव रह
जाएगा; वृक्ष
में भी घाव रह
जाएगा। और
कच्चा फल खाया
भी नहीं जा
सकता। और
कच्चे फल में
जो बीज हैं, वे भी
व्यर्थ हैं।
उनसे नये पौधे
पैदा नहीं हो
सकते। कच्चा
फल बिलकुल
बेकार है।
कच्चा
ब्रह्मचर्य
बिलकुल बेकार
है। उससे
ब्रह्म का कोई
अनुभव पैदा न
होगा। तुम भटक—
भटककर शरीर
में आओगे। जो
अधूरा है, वह
तुम्हें वापस
ले आएगा।
अधूरा
अनुभव संसार
में लौटने का
द्वार है।
अनुभव की
पूर्णता पार
ले जाती है, अतिक्रमण
करा देती है।
जान ही लो, परमात्मा
ने जो भी अवसर
दिया है। दुख—पीड़ा
झेल ही लो, ताकि
तुम पक जाओ।
उस पकने का ही
नाम अनुभव है।
जिसका
काम पक गया, वह
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हो
जाता है।
जिसका क्रोध
पक गया, वह
करुणा को
उपलब्ध हो
जाता है।
जिसकी घृणा पक
गई, वह
प्रेम को
उपलब्ध हो
जाता है।
जिसका भोग पक
गया, वह त्याग
को उपलब्ध हो
जाता है।
उपनिषद
कहते हैं, त्येन
त्यक्तेन भुंजीथा।
उन्होंने ही
जाना त्याग, जिन्होंने
भोग जाना।
उपनिषद
हिम्मतवर हैं;
कमजोरों का
धर्म नहीं है
वहा। कूड़ा—कर्कट
नहीं है वहां
व्यर्थ का।
सीधी साफ बात
है, विज्ञान
की बात है।
जानो, क्योंकि
जानना ही मुक्ति
है।
और
जो व्यक्ति
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
होता है, वह
अहिंसा को
उपलब्ध होता
है। क्यों? क्योंकि जब
तक तुम्हारी
कामवासना है,
तुम हिंसक
रहोगे।
कामवासना
हिंसा है।
कामवासना का
अर्थ है, दूसरे
का शोषण।
कामवासना का
अर्थ है, दूसरे
का उपयोग।
कामवासना का
अर्थ है, दूसरे
के शरीर की
वस्तु की
भांति
उपयोगिता है।
दूसरे पर
कब्जा करो।
इसलिए
तुम ध्यान रखो, कामवासना
ही तुम्हारे
मन में हिंसा
पैदा करती है।
इसलिए पति और
पत्नी लड़ते
रहते हैं।
जैसा पति—पत्नी
लड़ते हैं, ऐसा
दुनिया में
कोई नहीं लड़ता।
लड़ते ही रहते
हैं चौबीस
घंटे; क्योंकि
एक—दूसरे का
संबंध ही
कामवासना का
है।
जहां
कामवासना है, वहां
कलह, वहा
हिंसा जारी
रहेगी। और जो
तुम्हारी
कामवासना में
बाधा डालेगा,
उसे तुम
समाप्त कर
देना चाहोगे।
जो भी बीच में
आड़े आएगा, उसे
तुम मिटा देना
चाहोगे। जब
कामवासना ही
चली जाती है, तो अचानक
अहिंसा का
आविर्भाव
होता है।
अहिंसा का
अर्थ है, अब
मुझे दूसरे से
कोई प्रयोजन न
रहा; अब
मेरा आनंद
मुझमें है, दूसरे में
नहीं है। तो न
तो दूसरा उसे
छीन सकता है, न दे सकता है।
जब दूसरा मुझे
आनंद नहीं दे
सकता और न छीन
सकता है, तो
दूसरे को मैं
क्यों दुख
पहुंचाने
जाऊंगा!
जैसे—जैसे
आनंद अपने
भीतर गहन होता
है,
वैसे—वैसे
तुम्हारे
दूसरों के
प्रति जो भी
हिंसा के, लगाव
के, विरोध
के, मित्रता
के, शत्रुता
के संबंध थे, वे सब गिर
जाते हैं।
अहिंसक का न
तो कोई मित्र
है, न कोई
शत्रु।
अहिंसक अकेला
है। अहिंसक
अपने में जीता
है। उसे भीतर
का स्वर्ग मिल
गया। अब दूसरे
से उसका कोई
संबंध न रहा।
कामवासना
से भरा आदमी
हिंसक रहेगा
ही। क्योंकि
कामवासना की
बहुत जरूरतें
हैं। एक तो
सुंदर स्त्री
चाहिए, वह
तुम्हें
खोजनी पड़ेगी,
छीननी
पड़ेगी; क्योंकि
बड़ा बाजार है।
गरीब को सुंदर
स्त्री तो
नहीं मिल पाती।
जितना धन हो, उसको उतनी
सुंदर स्त्री
मिल पाती है।
अगर तुम्हें
अब जेकलिन
केनेडी से
विवाह करना हो,
तो ओनासिस
होना चाहिए; धन होना
चाहिए। सुंदर
स्त्री को तुम
बिना धन के तो
न पा सकोगे।
वहां बाजार है।
तो गरीब को गई
गुजरी स्त्री
मिलती है। ऐसी
मिल जाती है, जिसको कामचलाऊ
स्त्री कह
सकते हो।
तो
दौड़ है धन की।
कामवासना है, तो
धन चाहिए।
नहीं तो बिना
धन के कैसे
रहोगे? और
धन है, तो
एक स्त्री
नहीं पचास
स्त्रियां
मिल सकती हैं।
सम्राट
हजारों
स्त्रियों को
रखते थे; कोई
अड़चन न थी।
गरीब तो एक
स्त्री को भी
नहीं रख पाता!
गरीब को एक स्त्री
का भी विचार
उठता है, तो
सोचता है हजार
दफे कि विवाह
करना कि नहीं;
सम्हाल
पाएंगे कि
नहीं। अमीर
सैकड़ों
स्त्रियों से
संबंध बना
लेता है।
और
तुम यह मत
सोचना कि जिन
अमीरों की एक
पत्नियां हैं, उनके
और स्त्रियों
से संबंध नहीं
हैं। नहीं तो
अमीर होने का
फायदा ही क्या
है? सार
क्या है? अमीर
होने का मतलब
यह है कि
जितना ज्यादा
भोगा जा सके, उसकी भोग की
सुविधा धन है।
धन तो केवल
सुविधा है। तो
तुम जितनी
स्त्रियां
चाहो, उतनी
स्त्रियां
मिल सकती हैं।
पद
चाहिए! जिसके
पास पद है, उसे
स्त्रियों को
पाना आसान हो
जाता है। तो
वही आदमी कल
बाजार में
घूमता रहता था
तुम्हारे पूना
के, कोई
नहीं मिलता था।
वही अब
मिनिस्टर हो
जाए, तो
फिल्म
अभिनेत्रियां
उसके पैर
दबाने लगती हैं।
पद
हो,
धन हो, तो
कामवासना को
पूरा करना
आसान होता है।
पद न हो, धन
न हो, तो
तुम कैसे
कामवासना
पूरी करोगे? फिर धन और पद
के लिए हिंसा
करनी पड़ती है,
शोषण करना
पड़ता है।
युद्ध होते
हैं, स्त्रियों
के लिए, धन
के लिए, पद
के लिए, प्रतिष्ठा
के लिए।
हिंसा
तभी मिटती है, जब
कामवासना चली
जाती है। इसे
शरीर संबंधी
तप कृष्ण ने
कहा।
जो
उद्वेग को न
करने वाला, प्रिय
और हितकारी
यथार्थ भाषण है,
स्वाध्याय
का अभ्यास है,
वह
निःसंदेह
वाणी का तप है।
वाणी
ऐसी हो जो
प्रिय हो, हितकारक
हो। दूसरे से
तभी बोलो, जब
उसका कुछ हित
होने वाला हो
तुम्हारे
बोलने से, अन्यथा
मत बोलो।
तुम
बोले चले जाते
हो,
तुम्हें
दूसरे से कोई
प्रयोजन ही
नहीं है। यह
हिंसा है। वह
भागना चाहता
है, उसे
दफ्तर जाना है।
तुम रास्ते पर
पकड़ लिए हो और
तुम अपना बोले
चले जा रहे हो।
तुम्हें इसकी
फिक्र ही नहीं
कि वह सुनने
वाले को सुनना
है कि नहीं
सुनना है। वह
क्या कह रहा
है? क्यों
कह रहा है? उसका
चेहरा देखो, वह भागने को
तैयार खड़ा है।
लेकिन तुम कहे
चले जा रहे हो।
तुम हिंसा कर
रहे हो। वाणी
की हिंसा है।
वही
कहो,
जिससे
दूसरे का कोई
हित होता हो, अन्यथा चुप
रहो। क्या
जरूरत है! और
जिस ढंग से
कहो, वह
ढंग प्रीतिकर
हो। क्योंकि
सत्य भी तुम
इस तरह बोल
सकते हो, जैसे
गाली फेंके
कोई किसी की
तरफ। तुम काने
आदमी को काना
कह सकते हो, असत्य वह
नहीं है।
इसलिए दुनिया
का कोई भी संत
तुमसे यह नहीं
कह सकता कि
तुम असत्य
बोले। सत्य
तुम बिलकुल
बोले, अंधे
को तुमने अंधा
कहा।
लेकिन
सूरदास भी कह
सकते थे। और
सूरदास में एक
माधुर्य है।
तुमने अंधे को
अंधा कहकर चोट
पहुंचाई सत्य
से भी। तुमने
सत्य का ऐसा
उपयोग किया, जैसा
लोग असत्य का
करते हैं।
तुमने सत्य को
पत्थर की तरह
फेंका। उससे
तुम्हारे
भीतर का बोध
बढ़ेगा नहीं।
संवेदनशील
बनो, वही
कहो, जो
दूसरे के लिए
प्रीतिकर हो।
इसका यह अर्थ
नहीं है कि
तुम प्रीतिकर
करने के लिए
झूठ बोलो।
इसलिए कृष्ण
उसमें शर्त
देते हैं, उद्वेग
को न पैदा करे,
प्रिय हो, हितकारक हो,
यथार्थ हो,
सत्य हो।
कोई
यह नहीं कहते
कि तुम लोगों
की झूठी
प्रशंसा करो
कि उनको खूब
आनंद आए। कि
वे खुद अपना
चेहरा आईने
में देखने में
डरते हैं और
तुम कह रहे हो
कि तुम परम
सुंदर हो, कि
आप जैसा पुरुष
कहीं देखा
नहीं। धन्य
हैं कि दर्शन
हो गए!
झूठ
बोलने का भी
कोई प्रयोजन
नहीं है।
क्योंकि वह भी
हानिकर है। वह
भी इस आदमी
में अहंकार
जन्मा सकता है।
तुमने विष डाल
दिया।
और
जिससे
स्वाध्याय का
अभ्यास हो।
वही बात बोलो, जिसके
बोलने से
तुम्हारे
स्वयं के
अध्ययन में, स्वयं के
निरीक्षण में
गति आए। खयाल
करो, किसी
से तुम कुछ भी
बोल रहे हो, तो बोले मत
जाओ
मूर्च्छित।
ठीक भीतर
जागकर बोलो कि
जो मैं बोल
रहा हूं वह मैं
क्यों बोल रहा
हूं? अपने
कारण बोल रहा
हूं या दूसरे
के कारण बोल रहा
हूं? बोलना
मेरा पागलपन
है, इसलिए
बोल रहा हूं? कि मेरे मन
में कचरा भरा
है, उसे
खाली करने के
लिए बोल रहा
हूं? रेचन
कर रहा हूं? भीतर अध्ययन
करते रहो, क्यों
बोल रहा हूं? यह बात
मैंने क्यों
कही? क्या
कारण था? क्यों
मेरे भीतर उठी?
तो
वाणी मधुर हो, यथार्थ
हो, तुममें
या दूसरे में
व्यर्थ के
उद्वेग और तनाव
को पैदा न
करती हो, और
साथ ही साथ
तुम्हारा
स्वाध्याय
चलता रहे, तो
यह वाणी का तप
है।
मन
की प्रसन्नता, शात
भाव, मौन, मन का
निग्रह और भाव
की पवित्रता,
ऐसे यह मन
संबंधी तप है।
और
तीसरा तप है
मन संबंधी।
मन
की
प्रसन्नता......।
तुम
आमतौर से
पाओगे कि
धार्मिक जो
लोग बन जाते
हैं या सोचते
हैं कि धार्मिक
बन गए, वे
प्रसन्नता
छोड़ देते हैं।
वे उदास होकर
बैठ जाते हैं,
लंबे चेहरे
बना लेते हैं।
जैसे लगता है
कि धार्मिक
होने का उदासी
से कोई संबंध
है।
नहीं, कृष्ण
तो बड़ी उलटी
बात कह रहे
हैं। वे कहते
हैं, मन की
प्रसन्नता तप
है।
उदास
होना तो
सांसारिक
आदमी का लक्षण
होना चाहिए, साधु
का नहीं।
सांसारिक
उदास हो, समझ
में आता है, क्योंकि
इतने दुख में
जी रहा है, नरक
में पड़ा है।
लेकिन
मंदिरों में
बैठे साधु ऐसा
चेहरा बनाए बैठे
हैं, कि
जरूर कुछ गड़बड़
हो गई है।
इनका दिल भी
वहीं होने का
है, जहां
नरक है, बाजार
है।
दुर्घटनावश
ये मंदिर में
फंस गए हैं, इसलिए उदास
बैठे हैं।
अन्यथा मंदिर
में तो नाच
होगा, गीत
होगा, प्रसन्नता
होगी।
मन
की प्रसन्नता
को साधो।
जितने तुम मन
को प्रसन्न कर
सकोगे, तुम
पाओगे कि तुम
उतने ही मन के
पार जाने लगे।
मन की
प्रसन्नता मन
के पार ले
जाने का उपाय
है।
मन
की प्रसन्नता
ऐसे है, जैसे
फूल की गंध।
फूल तो पीछे
पड़ा रह जाता
है, गंध
ऊपर उठ जाती
है। जब
तुम्हारा मन
प्रसन्न होता
है, मन तो
नीचे पड़ा रह
जाता है, प्रसन्नता
की गंध ऊपर उठ
जाती है।
सिर्फ
प्रसन्नचित्त
लोगों ने ही
परमात्मा को
जाना है, वह
नाचते हुए
लोगों का
अनुभव है।
उदास, बीमार,
रुग्णचित्तों
का अनुभव नहीं
है। क्योंकि
परमात्मा
यानी परम
उत्सव।
प्रसन्न
होकर तैयारी
करो। नाचने का
थोड़ा अभ्यास
करो;
थोड़े पैरों
में अर बांधो,
कंठ को मधुर
करो, गीत
को गुंजने दो।
क्योंकि उस
परम उत्सव में
तुम तभी
सम्मिलित किए
जा सकोगे, जब
तुम्हारी
थोड़ी तैयारी
होगी।
मन
की प्रसन्नता
और शात भाव.......।
क्योंकि
मन की
प्रसन्नता
उथली भी हो
सकती है। जैसे
बाजार में खड़े
सड्कों पर लोग
हंसते हैं। वह
हंसना उथला है।
उसमें कोई
गहराई नहीं है।
वह ऐसे ही है, जैसे
छिछली नदी में
शोरगुल होता
है, कंकड़—पत्थरों
में आवाज होती
है। और गहरी
नदी में सब
शात हो जाता
है। गहरी नदी
भी प्रसन्न
होती है, लेकिन
शात होती है।
तुम गहरी नदी
की तरह शात भी
रहो और
प्रसन्न भी।
तुम्हारी प्रसन्नता
खिलखिलाहट की
तरह नहीं होगी,
स्मित की तरह
होगी, मुस्कुराहट
की तरह होगी।
और भीतर एक
शात
पृष्ठभूमि हो,
मौन। और
तुम्हारी
प्रसन्नता, तुम्हारी
हंसी कुछ कहे
न। सिर्फ
तुम्हें
प्रकट करे, कुछ कहे न।
कोई
गिर गया छिलके
पर फिसलकर, तुम
हंस दिए। यह
मौन नहीं है
हंसना। तुम
व्यंग्य कर
रहे हो। तुम
गाली से भी गहन
चोट पहुंचा
रहे हो उस
आदमी को, जो
गिर पड़ा है।
तुम्हारी
हंसी कुछ न
कहे, सिर्फ
तुम्हें कहे।
तुम्हारे मौन
को प्रकट करे
तुम्हारी
प्रसन्नता।
मन का निग्रह..।
मन
के निग्रह का
अर्थ है कि
तुम मन के
प्रति सदा
जागे रहो; मन
के साथ
तादात्म्य न
हो जाए। क्रोध
आए, तो भी तुम
जागकर जानते
रहो कि क्रोध
ने मुझे घेरा
है, लेकिन
मैं क्रोध
नहीं हूं। मैं
क्रोध से अलग
हूं। मैं
साक्षी हूं।
साक्षी— भाव
है मन का
निग्रह।
भाव
की पवित्रता।
कुछ
भी हो, तुम भाव
को अपवित्र मत
करो। एक आदमी
तुम्हें धोखा
दे दे, तो
दो उपाय हैं।
एक तो यह है कि
तुम भाव को
अपवित्र कर लो
कि यह आदमी
बुरा है और अब कभी
किसी का भरोसा
न करूंगा। और
इस आदमी का तो
अब कभी भरोसा
नहीं करूंगा।
और यह आदमी
चोर है, बेईमान
है। और तुमने
अपने भाव को
कलुषित कर
लिया।
बड़े
मजे की बात यह
है कि उसने
तुम्हें चोरी
करके जितना
नुकसान
पहुंचाया, उससे
ज्यादा
नुकसान तुम
अपने भाव को
अपवित्र करके
पहुंचा रहे हो।
यह भी हो सकता
था कि तुम
कहते कि
बेचारा आदमी,
शायद तकलीफ
में होगा, गरीबी
में होगा, मुसीबत
में होगा।
उपाय नहीं खोज
सका कोई, इसलिए
चोरी की है।
और मुझे अगर
समझ आ जाती कि
इसको चोरी
करनी पड़ेगी, तो मैं ऐसे
ही दे देता।
तुम
अपने भाव को
बचाओ; क्योंकि
अंतिम रूप से
भाव ही
तुम्हारी
संपदा है। इस
संसार में
किसने
तुम्हें धोखा
दिया, किसने
नहीं दिया, इसका कोई
हिसाब आखिरी
में नहीं
बचेगा।
तुम्हारा भाव
क्या रहा; बस,
वही बचेगा।
भाव
की पवित्रता, ऐसे
यह मन संबंधी
तप कहा जाता
है।
ये
तीन तप अगर
तुम साध सको, तो
तुम्हारे
भीतर सत्व का
उदय होगा। तुम
सात्विक हो
सकते हो।
हिंदी गीता बहुत अच्छी है।
जवाब देंहटाएंएक छोटे सुधार की आवश्यकता है। धारा 194 अध्याय 17 को 7 के स्थान पर सुधारा जा सकता है
ओशो की किताबें ऑनलाइन लाने के अच्छे काम के लिए श्री स्वामी आनंद मनसा का शुक्रिया