पूरब और पश्चिम का अभिनव संतुलन—(प्रवचन—आठवां)
अध्याय—17
सूत्र:
श्रद्धया
परया तप्तं
तयस्तन्त्रिविधं
नरै ।
अफलाकंक्षिभिर्युक्तै:
सात्त्विकं पश्चिक्षते।।
17।।
सत्कारमानपूजार्थ
तपो दम्भेन
चैव यत्।
क्रियते
तदिह प्रोक्तं
राजसं
चलमब्रुवम्।।
18।।
मूढग्राहेणात्मनार्थं
यत्पीडया
क्रियते तय: ।
परस्योत्सादनार्थं
वा
तत्तामसमुदहतम्।।
19।।
है अर्जुन,
कल को न चाहने
वाले
निष्कामी
योगी परूषों
द्वारा परम आ
से किए हुए उस
पूर्वोक्त
तीन प्रकार के
तय को तो सात्विक
कहते हैं।
और जो तय
सत्कार,
मान और पूजा के
लिए अथवा केवल
पाखंड से ही
किया जाता है
वह अनिशचय और
क्षणिक कल
वाला तय का
राजस कहा गया
है।
और जो तय
मूढतापूर्वक
हठ से मन,
वाणी और शरीर
की बढ़ी के
सहित अथवा
दूसरे का
अनिष्ट करने
के लिए किया
जाता है वह तय
तामस कहा गया
है।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न : आपने
कहा कि हिंदू
मनीषा कभी आत्यंतिक
रूप से
बुद्धिमान थी
और धर्म की
परम ऊंचाइयों
को छूने में
वह सफल हुई।
उसके ही
परिणाम में
देवता, द्विज,
गुरु और
ज्ञानी हुए; उपनिषद, गीता,
धम्मपद और
जिन—वाणी हुई।
फिर क्या कारण
है कि वही
जाति हजार
वर्षों से पतन
के महागर्त
में गिरी और
उसके उठने के
कोई आसार नजर
नहीं आते?
परमात्मा
बाहर भी है और
भीतर भी।
वस्तुत: बाहर
और भीतर का
भेद अज्ञान—आधारित
है। बाहर भी
उसी का है, भीतर
भी उसी का है, एक ही आकाश
व्याप्त है।
लेकिन मन के
लिए सदा आसान
है चुनाव करना।
मन चुनने की
कला है। तो या
तो मन बाहर
देखता है या
भीतर। अगर मन
दोनों को देख
ले, तो मन
मिट जाता है।
दोनों को एक
साथ देख लेने
वाला व्यक्ति
न तो अंतर्मुखी
होता है, न
बहिर्मुखी।
कार्ल
गुस्ताव जुग
ने आदमियों के
दो विभाजन किए
हैं, अंतर्मुखी,
इंट्रोवर्ट
और बहिर्मुखी,
एक्सट्रोवर्ट।
अंतर्मुखी
धीरे— धीरे
बाहर से संबंध
छोड़ देता है; बहिर्मुखी
धीरे— धीरे
अंतर से संबंध
छोड़ देता है।
दोनों के जीवन
एकांगी हो
जाते हैं।
जैसे तराजू का
एक ही पलड़ा
भारी हो जाता
है, तो एक
जमीन छूने
लगता है, एक
आकाश में अटक
जाता है। चाहिए
ऐसा जीवन का
तराजू कि काटा
मध्य में सधा
रहे, बाहर
और भीतर दोनों
समान अनुपात
में सधे।
यह
अब तक नहीं हो
पाया। पूरब ने
भीतर को साधने
में बाहर की
उपेक्षा कर दी।
वहीं पूरब का
पतन हुआ। वहीं
भारत गिरा और
अब तक नहीं उठ
पाया। पश्चिम
ने बाहर को
सम्हालने में
भीतर खो दिया।
दोनों के
आकर्षण हैं।
दोनों के लाभ
हैं। दोनों की
हानियां हैं।
अंतर्मुखी
व्यक्ति शांत
हो जाता है, जीवन
में तनाव कम
हो जाता है, भाग—दौड़ रुक
जाती है।
लेकिन
अंतर्मुखी
व्यक्ति अगर
अतिशय से अंतर्मुखता
से भर जाए, तो
धीरे— धीरे
दीन हो जाएगा।
शांति तो
रहेगी, लेकिन
दरिद्र हो
जाएगा। भीतर
तनाव न रहेगा,
लेकिन बाहर
जीवन की सुख—सुविधा
खो जाएगी।
बहिर्मुखी
व्यक्ति बाहर
तो बड़ा आयोजन
कर लेता है, भीतर
चिंता से भर
जाता है। तो
बाहर तो बहुत
सुख हो जाएगा,
भीतर उसी
मात्रा में
दुख संगृहीत
हो जाएगा।
भारत
की मनीषा ने
बड़े ऊंचे शिखर
छुए,
लेकिन वे
शिखर
अंतर्मुखता
के थे, अधूरे
थे। परमात्मा
पूरा न था
उनमें।
पश्चिम
ने बड़े शिखर
छू लिए हैं।
पश्चिम के भवन
पहली दफा
गगनचुंबी हुए
हैं,
आकाश को छू
रहे हैं। बड़ा
फैलाव है
विज्ञान का।
शक्ति बढ़ी है
विनाश की, सृजन
की। लेकिन
भीतर आदमी
बिलकुल ही
पीड़ा, ग्लानि,
पाप, अंधकार
से भरा है।
बाहर तो खूब
रोशनी हो गई
है, बाहर
की रात तो
करीब—करीब मिट
गई है। भीतर
की रात अमावस
हो गई है।
वहां चांद का
कोई दर्शन ही
नहीं होता, वहां तारे
भी छिप गए हैं।
और
ध्यान रखना कि
मन को हमेशा
सुविधा है दो
में से एक को
चुनना, क्योंकि
मन द्वंद्व है।
एक को चुनो, द्वंद्व
जारी रहता है,
संघर्ष
जारी रहता है।
दोनों को एक
साथ चुन लो, द्वंद्व मिट
जाता है, अद्वैत
फलित हो जाता
है।
न
तो पश्चिम
अद्वैतवादी
है और न पूरब।
कभी—कभी इक्के—दुक्के
लोग
अद्वैतवादी
हुए हैं; कोई
समाज, कोई
राष्ट्र अभी
तक अद्वैतवादी
नहीं हो पाया।
जो कहता है कि
ब्रह्म ही है
और माया नहीं
है, वह भी
अद्वैतवादी
नहीं है।
क्योंकि वह
माया को इनकार
कर रहा है, एक
को इनकार कर
रहा है। उसका
एक का स्वीकार
दूसरे के
इनकार पर
निर्भर है। और
जिसे तुमने
इनकार किया है,
उसकी कमी
खलती रहेगी।
कितने ही जोर
से इनकार करो,
तुम्हारे
इनकार करने
में भी पता
चलता है कि तुम
उसे स्वीकार
करते हो, अन्यथा
क्या जरूरत है
कहने की?
सुबह
जागकर तुम
दुनिया को
थोड़े ही
समझाते हो कि
रात जो देखा, वह
सपना था, झूठा
था। लेकिन
ब्रह्मज्ञानी
समझाए फिरता
है, सब
संसार माया है।
अगर है ही
नहीं, तो
कृपा करके बंद
करो बकवास।
किसके संबंध
में बता रहे
हो? अगर
संसार माया है,
तो किसको
समझा रहे हो? क्योंकि
जिसको तुम
समझा रहे हो, वही तो
संसार है। अगर
संसार माया है,
तो किसको
छोड्कर जा रहे
हो? माया
को कोई छोड्कर
जा सकता है? जो है ही
नहीं, उसे
छोड़ोगे कैसे?
सपनों का
किसी ने कभी
त्याग किया? सपने जाने
जा सकते हैं; त्याग क्या
होगा? त्याग
कैसे करोगे? कुछ भी तो
नहीं है हाथ
में, जिसको
छोड़ दोगे; सपना
है।
लेकिन
जिनको तुम
ब्रह्मज्ञानी
कहते हो, वे
माया का त्याग
करते हैं, संसार
को छोड़ते हैं,
और समझाए
चले जाते हैं कि
सब माया है, सब सपना है।
किसको समझाते
हो? लगता
है, खुद को
समझाते हैं।
आधे को छोड़
दिया है, उस
की पीड़ा खलती
है। वही दुख
प्रवचन बन
जाता है। वही
दुख समझाना बन
जाता है। वे
तुम्हें नहीं
समझा रहे हैं,
वे अपने को
ही समझा रहे
हैं, क्योंकि
वह आधा माग कर
रहा है कि मुझे
स्वीकार करो।
उसे उन्हें
सतत इनकार
करना होता है।
पश्चिम
में ठीक उलटी
बात चलती है।
वह यह है कि
पश्चिम के
विचारक कहे
जाते हैं कि ईश्वर
नहीं है।
इसमें तुम
थोड़ा समझो। वे
कहते हैं, ईश्वर
है ही नहीं; आत्मा है ही
नहीं।
जो
नहीं है, उसके
पीछे क्यों
पड़े हो? एक
दफा कह दिया, बात खतम हो
गई, शात हो
जाओ। और जो
नहीं है, उसके
न होने को
सिद्ध करने के
लिए बड़े—बड़े
शास्त्र
क्यों लिखते
हो?
ऐसे
लोग हैं, जिनका
पूरा जीवन.
इसी में लग
जाता है, सिद्ध
करने में, कि
ईश्वर नहीं है।
और वे कोई
छोटे—मोटे लोग
नहीं, बर्ट्रेंड
रसेल जैसे विचारशील
लोग, वे भी
इसमें लगा
देते हैं समय
को कि ईश्वर
नहीं है। जैसे
यह कोई बहुत
महत्वपूर्ण
बात है। जो है
ही नहीं, उसको
सिद्ध क्या
करना है? उसका
मूल्य ही क्या
है? इसे
तुम समझोगे, तो तुम्हें
रहस्य समझ में
आ जाएगा।
पश्चिम सिद्ध
करता है, आत्मा
नहीं है, ईश्वर
नहीं है। पूरब
सिद्ध करता है,
संसार नहीं
है, बाहर
सब माया है।
दोनों की
तरकीब यह है
कि एक बच जाए, तो सुविधा
हो जाए।
पश्चिम
कहता है, भीतर
नहीं है, बाहर
है।
लेकिन
बाहर कैसे हो
सकता है बिना
भीतर के? तुमने
कोई ऐसी चीज
देखी, जिसमें
बाहर ही हो और
भीतर न हो? बाहर
के साथ भीतर
जुड़ा है, नहीं
तो तुम उसे
बाहर भी कैसे
कहोगे?
हम
मकान के बाहर
बैठे हैं, क्योंकि
मकान का भीतर
भी है। अगर
भीतर हो ही न, तो इस जगह को
तुम मकान के
बाहर कहोगे? किस कारण से
कहोगे? किस
अपेक्षा से
कहोगे? भीतर
के आधार पर ही
कुछ बाहर होता
है। अगर सच
में ही भीतर
कुछ नहीं है, तो बाहर भी
कुछ नहीं है।
अगर सिद्ध हो
जाए कि आत्मा
नहीं है, तो
सिद्ध हो गया
कि संसार भी
नहीं है।
और
पूरब में, भारत
में लोग सिद्ध
किए जाते हैं
कि बाहर नहीं
है, झूठा
है सब।
लेकिन
भीतर हो कैसे
सकता है बिना
बाहर के? ये तो
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं। ये तो एक
ही सचाई के दो
रूप हैं। और
ये दोनों रूप
अनिवार्य हैं।
भीतर मिट
जाएगा, अगर
बाहर नहीं है।
इसलिए
अगर तुम ठीक—ठीक
तार्किकों
में विचरण
करोगे, तो
भारत में एक
बहुत प्रगाढ़
तार्किक हुआ,
नागार्जुन।
उसने दोनों
तर्कों का एक
साथ उपयोग
किया है। वह
कहता है कि
बाहर नहीं है,
यह
तो
वेदांतियों
ने सिद्ध कर
दिया, इसलिए
भीतर हो नहीं
सकता।
क्योंकि भीतर
शब्द ही
व्यर्थ हो गया,
उसमें कोई
सार ही न रहा।
उसमें सब सार
बाहर शब्द से
आता था। तो वह
कहता है, न
बाहर है, न
भीतर है, कुछ
है ही नहीं।
यही
बात नास्तिक
की तरफ से भी
कही जा सकती
है कि तुमने
सिद्ध कर दिया, भीतर
नहीं है, सिद्ध
हो गया, बाहर
भी नहीं है।
लेकिन यह
निष्पत्ति कि
न बाहर है न
भीतर है, बड़ी
व्यर्थ मालूम
पड़ती है। तुम
कौन हो फिर? कहा हो? किससे
बोल रहे हो? कौन बोल रहा
है? किसको
समझा रहे हो? नींद में
बड़बड़ा रहे हो?
लेकिन एक
बात तो पक्की
है कि नींद
में बड़बड़ाता
हुआ आदमी तो
है।
नागार्जुन तो
है, जो
कहता है, कुछ
भी नहीं है।
यह नागार्जुन
बाहर है या
भीतर? निश्चित
ही भीतर है, और बाहर के
लोगों को समझा
रहा है।
दोनों
हैं। लेकिन
दोनों को कोई
कभी स्वीकार
नहीं कर पाया।
क्योंकि मन दो
को साथ
स्वीकार करने
में बड़ी अड़चन
अनुभव करता है।
क्योंकि तब तो
एक संतुलन
जमाना होगा।
उसी संतुलन को
मैं संन्यास
कहता हूं।
पूरब
का संन्यास
डूब गया।
ऊंचाइयां छुई
उसने। कभी—कभी
कोई बुद्ध, महावीर
पैदा हुआ।
लेकिन यह पूरा
समाज तो बुद्ध,
महावीर
नहीं हो सका।
एक बुद्ध के
लिए करोड़ों
लोग बुद्ध रह
गए। यह कोई
सौदा करने
जैसा नहीं
मालूम पड़ता।
और कभी कोई
एकाध छू ले, तो वह अपवाद
है। और उस एक
के छूने की
वजह से
तुम्हें ऐसा
लगा कि बिलकुल
ठीक है, बस,
भीतर को पकड
लो; आत्मा
को पकड़ लो, बाहर
को जाने दो।
बाहर चला गया।
अब तुम रो रहे
हो, अब तुम
परेशान हो।
गुलामी, दरिद्रता,
दीनता, बीमारी,
सब भारत को
घेर लीं।
पश्चिम
भी कोई एकाध
आइंस्टीन
पैदा कर देता
है कभी—कभी
बाहर का जानने
वाला। लेकिन
उससे भी कोई
हल नहीं होता।
बहुजन समाज तो
तनाव, चिंता
से भरा रह
जाता है।
क्या
यह नहीं हो
सकता कि तुम
बाहर— भीतर को
एक साथ
स्वीकार कर लो? दोनों
हैं, तुम्हारे
स्वीकार, अस्वीकार
करने से कोई
भी फर्क नहीं
पड़ता; सिर्फ
तुम झंझट में
पड़ते हो।
ऐसा
समझो कि तुम
श्वास लेते हो; वह
बाहर आती है, भीतर जाती
है। तुम अगर
जिद्द कर लो
कि हम तो भीतर
ही ले जाएंगे,
बाहर न जाने
देंगे, तो
भी तुम मरोगे।
या दूसरा आदमी
जिद्द कर ले
कि हम भीतर न
जाने देंगे, बाहर ही
रोककर रखेंगे,
वह भी मरेगा।
पूरब भी मरा, पश्चिम भी
मरा, क्योंकि
दोनों ने आधे
को अंगीकार
किया। मैं उसी
को साहसी कहता
हूं, जो
दोनों को एक
साथ स्वीकार
कर ले। जो कहे,
हम तराजू के
दोनों पलड़ों
को बराबर
रखेंगे। पूरब
ने भी गंवाया,
पश्चिम ने
भी गंवाया। और
डर यह है कि जब
एक चीज को तुम
खो देते हो, तो दूसरी
अति पर जाने
की आकांक्षा
पैदा होती है।
जैसे
भारत है अब।
अब भारत में
किसी को धर्म
में बहुत
उत्सुकता नहीं
है। काफी दुख
झेल लिया धर्म
का। और काफी परेशानी
उठा ली इस
परमात्मा के
साथ। और इस
आत्मा की खोज
में खूब
गंवाया। और
ध्यान, समाधि
बहुत लगाई; न तो रोटी
बरसी। उससे, न धन उगा, न
खेत भरे, न
वर्षा हुई।
कुछ भी न हुआ।
तो
अब तो भारत की
मनीषा
इंजीनियर
होना चाहती है, गणितश
होना चाहती है,
वैज्ञानिक
होना चाहती है।
तो भारत के
बेटे पश्चिम।
जाते हैं, बड़े
इंजीनियर, बड़े
वैज्ञानिक
होने के लिए।
पश्चिम के
बेटे भारत आते
हैं, संन्यास
की तलाश में, ध्यान की
खोज में।
क्योंकि
पश्चिम भी थक
गया। बहुत धन
हुआ, बहुत
विज्ञान हुआ,
कुछ सार न
पाया; सब
व्यर्थ लगता
है।
बड़ी
अनूठी घटना घट
रही है।
पश्चिम पूरब
जैसा होता जा
रहा है, पूरब
पश्चिम जैसा
होता जा रहा
है। धीरे—
धीरे पूरब तो
कम्युनिस्ट
होता जा रहा
है; करीब—करीब
हो चुका है।
एशिया करीब—करीब
कम्युनिस्ट
हो चुका है।
जो नहीं हैं
कम्युनिस्ट, वे भी अधूरे
हैं। उनका भी
ज्यादा देर
भरोसा नहीं है।
कब सांस टूट
जाएगी, कुछ
पक्का नहीं है।
पूरब तो
कम्युनिस्ट
हो रहा है।
कम्युनिस्ट
है बहिर्वाद, आत्यंतिक
बहिर्वाद। न
कोई आत्मा है,
न कोई ईश्वर
है, सिर्फ
पदार्थ है और
पदार्थ का भोग
है। इस पदार्थ
को हम सामूहिक
रूप से भोग
लें, साथ—साथ
भोग लें; समाप्ति
है। जन्म के
साथ शुरुआत है,
मृत्यु के
साथ अंत है।
बीच के थोड़े
से दिन हैं; उनको चाहे
दुख में बिता
लो, चाहे
सुख में। थोड़ी
सुविधा हम बना
लें, ठीक
से भोजन मिल
जाए, कपड़े
हों, छप्पर
हों, बात
समाप्त है।
पूरब
कम्युनिस्ट
हो रहा है और
पश्चिम में
व्यापक रूप से
ध्यान की
महिमा बढ़ती
जाती है। क्या
कारण होगा? जब
तुम एक चीज से
काफी परेशान
हो जाते हो, तो तुम
दूसरी अति पर
जाने लगते हो।
जो आदमी
ज्यादा भोजन
कर लेता है, वह उपवास
करता है। थक
गया। जो आदमी
ज्यादा भोग
लेता है, वह
ब्रह्मचर्य
का व्रत ले
लेता है। थक
गया।
लेकिन
मध्य में
रुकना कला है।
थकने से कोई
निर्णय मत
लेना।
क्योंकि फिर
तुम वही भूल
करोगे, जो
तुमने पहले की
थी। पहली भी
भूल यही थी कि
आधे को चुना
था। अब आधे से
घबड़ा गए, तो
दूसरा आधा
तुम्हें बहुत
महत्वपूर्ण
मालूम पड़ रहा
है। इतना।
महत्वपूर्ण
मालूम पड़ रहा
है कि यह खतरा
है कि तुम
पहले आधे को
छोड्कर दूसरे
को पकड़ लोगे।
ऐसी
है तुम्हारी
हालत, जैसे एक
पैर से चलने
की कोशिश की [,! है और न चल
पाए; गिरे,
लंगडाए, चोट
खाई, तो
धीरे— धीरे
दूसरे ' पैर
की जरूरत
मालूम होने
लगी। वह जरूरत
इतनी ज्यादा
मालूम।!? होने
लगी, इतने
ज्यादा तुम
आविष्ट हो गए
उस जरूरत से, कि तुमने
पहले पैर को
छोड़ ही दिया
कि यह तो फिजूल
है। वह दूसरा
पैर ही असली
है। अब तुम
दूसरे से चलने
की कोशिश
करोगे। फिर
तुम लंगड़ाओगे;
फिर तुम
गिरोगे।
दोनों
पैर चाहिए।
दोनों पंख
चाहिए। दोनों आंख
चाहिए। दोनों
कान चाहिए।
द्वंद्व पूरा
का पूरा तुम
अंगीकार कर लो, तो
निर्द्वंद्व
हो जाते हो।
अगर
तुम बाहर भी
जीओ,
भीतर भी जीओ,
बाहर— भीतर
का भेद ही छोड़
दो, तो तुम
न पूरब के रह
जाते, न
पश्चिम के।
ठीक अर्थों
में तुम पहली
दफा समग्र
मनुष्यता के
अंग बनते हो।
पहली बार तुम
समग्र बनते हो।
और समग्रता
सबसे बड़ी
मनीषा है।
पूरब
भी चूका है, पश्चिम
भी चूका है।
और अभी मौका
है; क्योंकि
बदलाहट हो रही
है। इस बदलाहट
के क्षण में
अगर समझ आ जाए.।
बड़ा
कठिन दिखता है।
पश्चिम को
समझाना
मुश्किल है कि
विज्ञान को नष्ट
मत करो, अन्यथा
तुम पछताओगे,
हम पछता रहे
हैं। नहीं समझ
में आता।
पश्चिम
के जवान लड़के
विज्ञान में
बिलकुल
उत्सुक नहीं
हैं। विज्ञान
दुश्मन मालूम
पड़ता है।
विज्ञान का
अर्थ मालूम
पड़ता है, हिरोशिमा,
नागासाकी।
विज्ञान का
अर्थ मालूम
पड़ता है, मरती
हुई प्रकृति,
मरते हुए
पक्षी, मरती
हुई झीलें, मरता हुआ
सागर।
विज्ञान का
अर्थ मालूम
होता है, एक
भयंकर दानव है
टेक्नालाजी
का, वह
आदमी को कसे
जा रहा है।
बर्कले
विश्वविद्यालय
में पिछले
वर्ष लड़कों ने, जैसे
तुम होली
जलाते हो, होलिका
को जलाते हो, वैसे
उन्होंने
रॉल्स रॉयस
कार को जलाया।
नई गाड़ी को
चंदा करके
खरीदा और
बर्कले
विश्वविद्यालय
के प्रांगण
में रखकर नई
गाड़ी की होली
की, प्रतीक
की तरह जलाया
कि यह प्रतीक
है टेक्नालाजी
का। हम टेक्नालाजी
के दुश्मन हैं।
इसलिए
हिप्पी पैदा
हो रहा है
पश्चिम में।
हिप्पी का
मतलब है, जो
विज्ञान के
विरोध में है।
जो साबुन का
उपयोग नहीं
करता, क्योंकि
वह
अप्राकृतिक
है। जो तेल
नहीं डालता, क्योंकि वह
तो सब बाहर का
रंग—रोगन है।
जो नियम—नीति
नहीं मानता, क्योंकि
बहुत मान लिया,
कुछ सार न
पाया। जो
विश्वविद्यालय
पढ़ने नहीं
जाता, क्योंकि
जो पढ़ लिए, उन्होंने
क्या किया? बरबाद कर
दिया'।
विज्ञान में
उसकी
उत्सुकता
नहीं है।
बिजली में
उसको रस नहीं
है। वह चाहता
है, कहीं
किसी जंगल के
एक झोपड़े में
रात के अंधेरे
में सोए, दीया
भी जलाए न।
पश्चिम
में हिप्पी
पैदा हो रहा
है। हिप्पी का
अर्थ है, बाहर
से बगांवत, भीतर की खोज।
पूरब
में ठीक उलटी
घटना घट रही
है। पूरब का
लड़का
इंजीनियर, डाक्टर
बनना चाहता है।
और पूरब के हर लड़के
की आकांक्षा
है कि पश्चिम
जाकर बड़ी
डिग्रियां
लेकर लौटे, और टेक्नालाजी
सीखकर लौटे, और यंत्रों
को जान ले, और
नए यंत्र बनाए।
खेती को
वैज्ञानिक
ढंग से किया
जाए। हर चीज
वैज्ञानिक हो,
ताकि
प्रचुरता से
उपलब्ध हो सके।
हम काफी दीन
रह लिए, दुखी
हो लिए।
पर
मैं तुमसे
कहता हूं...
जैसा मैं
पश्चिम से
कहता हूं कि
विज्ञान को
छोड़ा कि तुम
हजार, दो हजार
साल में भारत
जैसी दीनता को
पहुंच जाओगे,
भूखे मरोगे।
आज तुम्हें जो
संपन्नता
दिखाई पड़ रही
है पश्चिम में,
वह प्रकृति
से आई हुई
संपन्नता
नहीं है, वह
विज्ञान ने दी
है, वह
बाहर जीने की
कला से आई है।
आज
तुम्हें पूरब
में जो दिखता
दिखाई पड़ती है, वह
उसी भूल से आई
है, जो तुम
पश्चिम में कर
सकते हो, कि
हमने कह दिया,
सब बेकार है,
बाहर तो कुछ
सार नहीं। जब
माया ही है, तो कौन
फिक्र करे? कौन
प्रयोगशाला
बनाए? कौन
खोज करे? क्या
लेना—देना है?
सपने में
कोई ज्यादा रस
ही नहीं है।
भीतर जाओ, अंतर्मुखी
हो जाओ। हम
होकर देख लिए
हैं।
और
मैं पूरब के
लोगों से भी
कहना चाहता
हूं कि पश्चिम
के लोगों को
समझो।
उन्होंने
विज्ञान का
खूब विस्तार
करके देख लिया
है और वे थक गए
हैं,
घबड़ा गए हैं।
जिंदगी नष्ट
हो गई। टेक्नालाजी
बड़ी हो गई, आदमी
छोटा हो गया। टेक्नालाजी
इतनी बड़ी होती
जा रही है कि
आदमी उसमें
सिकुड़ता ही
जाता है, खोता
जाता है।
यंत्र ही चला
रहे हैं।
यंत्र ही
मालिक हो गए
हैं। हर चीज
यंत्र से पूछी
जा रही है।
अब
तो कंप्यूटर
पैदा हो गए
हैं। तो अब तो
तुम्हें कोई
जरूरी सवाल भी
पूछना है, निर्णय
भी करना है, तो वह भी
आदमी से पूछना
ठीक नहीं है, कंप्यूटर से
पूछना ठीक है।
क्योंकि आदमी
से भूल हो
सकती है, कंप्यूटर
से भूल नहीं
होती।
कंप्यूटर
तुम्हें बता
देगा कि इस
स्त्री से विवाह
करना उचित है
या नहीं। तुम
दोनों अपने—अपने
जीवन की
संक्षिप्त
रूपरेखा
कंप्यूटर को
दे दो, वह
हिसाब लगाकर
बता देगा कि
इस स्त्री के
साथ तुम्हारी
कैसी जिंदगी
रहेगी। साथ
रहोगे, तो
कितना झगड़ा
होगा, कितना
मेल होगा, कितनी
कलह रहेगी।
जो
ज्योतिषी कभी
नहीं कर पाए, वह
कंप्यूटर
आसानी से कर
देता है।
क्योंकि
दोनों के गुणों
को वह पहले
समझ लेता है, फिर दोनों
के गुणों का
पूरा गणित लगा
देता है। वह
कह देता है कि
साठ प्रतिशत
सफलता होगी, चालीस
प्रतिशत
असफलता होगी।
अगर चालीस
प्रतिशत असफल
होने को राजी
हो, कर लो।
अन्यथा दूसरी
स्त्री खोजो।
सभी
चीजें धीरे—
धीरे यंत्र के
हाथ में चली गई
हैं।
पश्चिम
ने करके देख
लिया, थक गया, तुम भी करके
देख लिए, तुम
भी थक गए। अब
डर यह है कि
तुम वह चुन लो,
जो भूल
पश्चिम ने की
थी। और पश्चिम
वह चुन ले, जो
भूल तुमने की
थी। और फिर
वही चक्कर
शुरू जाए। ' इसलिए मेरा
एक अभिनव
प्रयास है; वह सभी
संभावनाओं के
ऊपर देखने की
चेष्टा है; बड़ा आशावादी
भाव है वह। वह
भाव यह है कि
मनुष्य दोनों
में एक साथ जी
सकता है; क्योंकि
दोनों दो नहीं
है। अगर वे दो
होते, तब
तो जी ही नहीं
सकता था।
कहां
बाहर शुरू
होता है, कहां
भीतर शुरू
होता है? भोजन
तुम करते हो, बाहर से
भीतर डालते हो,
फिर भोजन
पचता है, खून—मांस—मज्जा
बनता है, भीतर
हो गया। न
केवल भोजन
पचकर भीतर बन
जाता है, फिर
भोजन की ही
सूक्ष्म
ऊर्जा उठती है
और विचार बनती
है, सपने
बनती है, कविता
का जन्म होता
है। कविता को
तो बाहर न
कहोगे। प्रेम
को तो बाहर न
कहोगे। जब तुम
किसी स्त्री
के प्रेम में
पड़ जाते हो, तो तुम
कहोगे, यह
भीतर से आ रहा
है कि बाहर से!
इसे तो भीतर
कहोगे!
लेकिन
भूखे भजन न
होईं गुपाला!
भजन भी पैदा
नहीं होता
भूखे को तो, प्रेम
कैसे पैदा
होगा। वह भी
भोजन की ही
सूक्ष्मतम
ऊर्जा है, जो
प्रेम बनती है,
भजन बनती है।
इसलिए
तो उपनिषदों
ने कहा, अन्न
ब्रह्म है।
बड़े गहरे लोग
रहे होंगे।
अन्न और
ब्रह्म को जोड़
दिया। बाहर और
भीतर को एक कर
दिया। क्या
बचा? अन्न
तो छोटी से
छोटी चीज है।
और ब्रह्म बड़ी
से बड़ी चीज है।
लेकिन
उपनिषदों ने
कहा, अन्न
ब्रह्म! अन्न
ब्रह्म है।
छोटे से छोटा
बड़े से बड़ा है।
बाहर से बाहर
भी भीतर से
भीतर! है।
भीतर से भीतर
भी बाहर से
बाहर है।
जब
तुम क्रोध से
भरते हो, उठाकर
एक पत्थर किसी
के सिर में
मार देते हो।
पत्थर बाहर है,
क्रोध भीतर
है। जिस आदमी
का सिर टूट
जाता है, वह
भी बाहर है।
खून बहता है, वह भीतर से
आता है। उसके
भीतर भी क्रोध
पैदा होता है,
वह भीतर है।
सब
संयुक्त है।
बाहर और भीतर
विभाजित नहीं
हैं। जिस दिन
तुम्हें यह
खयाल आ जाए, उस
दिन तुम्हारे
जीवन में बड़ी
समझ पैदा होगी।
तब तुम एक को
पकड़कर जीने की
कोशिश छोड़
दोगे। वह
एकागी चेष्टा
से ही गृहस्थ
पैदा होता है
और पुराना
संन्यासी
पैदा होता है।
वे दोनों
एकांगी हैं।
लेकिन तुमने
कभी खयाल नहीं
किया कि वह
संन्यासी भी
गृहस्थ को
छोड्कर जा
नहीं सकता।
भोजन
के लिए, वस्त्र
के लिए गृहस्थ
पर निर्भर
रहना पड़ता है।
और गृहस्थ भी
संन्यासी को
छोड्कर नहीं
जा सकता।
प्रवचन सुनने
के लिए, जब
पत्नी से झगड़ा
हो जाए तो
थोड़ी सात्वना
के लिए, जब
घर में बहुत
उपद्रव मचे तो
थोड़ी शांति के
लिए, वह
संन्यासी के
द्वार पर खड़ा
रहता है।
बाहर
के लिए
संन्यासी
गृहस्थ के
द्वार पर खड़ा रहता
है;
भीतर के लिए
गृहस्थ
संन्यासी के
द्वार पर खड़ा रहता
है। शांति
चाहिए, तो
जाओ संन्यासी
को खोजो। ध्यान
चाहिए, तो
संन्यासी को
खोजो। और
संन्यासी को
भूख लगती है, तो चला
गृहस्थ की खोज
में। फिर भी
तुम्हें
दिखाई न पड़ा
कि संन्यासी
और गृहस्थ आधे—
आधे हैं! ये
पूरे नहीं हैं।
और पूरा
मनुष्य ही
तृप्त होता है।
पूर्णता ही
तृप्ति है।
और
पूर्णता का एक
ही उपाय मैं
जानता हूं
दूसरा उपाय है
भी नहीं। और
वह पूर्णता यह
है कि तुम
संन्यासी और
गृहस्थ एक साथ
हो जाओ। तुम
रोटी अपने ही
गृहस्थ से
मांग लो, दूसरे
गृहस्थ से
मांगने की
क्या जरूरत
है! जो तुम ही
कर सकते हो, उसके लिए
दूसरे के
द्वार पर जाने
की क्या जरूरत
है! और शांति
भी तुम अपनी
ही साध लो, किसी
से क्या
मांगना है!
दोनों
तुम्हारे
भीतर उपलब्ध
हैं, तुम
व्यर्थ ही
भिखारी बन
जाते हो।
बंटे
हुए संन्यासी
भी भिखारी हो
जाते हैं।
गृहस्थ भी
भिखारी हो जाता
है। अनबंटे, अखंड,
तुम दोनों
हो जाते हो।
दोनों जो एक
साथ है, वही
अद्वैत को
उपलब्ध है।
भारत
की गरिमा ने
बहुत कुछ पाया, लेकिन
वह एकांगी था;
इसलिए दुख
उत्पन्न हुआ।
पश्चिम ने भी
बहुत पाया है,
वह भी एकागी
है। और मेरे
लिए सवाल न तो
बाहर की खोज
का है, न
भीतर का। मेरे
लिए एकांगी
होना रोग है।
तो तुम किस
ढंग से फैली
हो, इससे
बहुत फर्क
नहीं पड़ता; तुम दीन
रहोगे। दोनों
को साध लो। और
अड़चन जरा भी
नहीं है।
कई
लोग मुझसे आकर
पूछते हैं कि
दोनों को कैसे
साधें? तुम
कभी मुझसे
नहीं पूछते कि
दोनों श्वास
कैसे चलती हैं?
दोनों पैर
कैसे चलते हैं?
दोनों हाथ
कैसे चलते हैं?
सिर्फ इसी
के लिए तुम
क्यों पूछते
हो! क्योंकि
हजारों साल से
तुम को यही
सिखाया गया है
कि दोनों में द्वंद्व
है।
दोनों
में द्वंद्व
है ही नहीं।
साधना है ही
नहीं। वे
दोनों सधे ही
हुए हैं, कृपा
करके इतना समझ
लो। सधे ही
हुए हैं, नहीं
तो तुम जी ही
नहीं सकते।
प्रतिपल बाहर
से भीतर जा
रही है ऊर्जा,
भीतर से
बाहर आ रही है।
तुम तो बाहर
और भीतर के
मिलन हो, द्वार
हो। जहां से
आकाश भीतर बन
रहा है, और
पुराना आकाश,
जो
जराजीर्ण हो
गया, बाहर
जा रहा है।
नया आकाश भीतर
आ रहा है, पुराना
आकाश बाहर जा
रहा है।
नया
भोजन तुम भीतर
ले रहे हो, पुराना
मल—मूत्र होकर
बाहर जा रहा
है। कल उसे
बाहर से ही
लिया था, अब
फिर वापस जा
रहा है। नया
बच्चा पैदा हो
रहा है, का
आदमी मर रहा
है। नया बच्चा
बाहर आ रहा है,
का आदमी कब
में जा रहा है।
कुछ भी नहीं
है, सिर्फ
बाहर और भीतर
का संतुलन है।
का चुक गया, उसने बाहर
से जो—जो लेना
था, ले
लिया, अब
सब वापस लौटना
है। प्रतिपल
ऐसा हो रहा है।
श्वास
भीतर आ रही है, बाहर
जा रही है।
भीतर आती है, तब आक्सीजन
से भरी हुई
आती है। भीतर
आक्सीजन तो
तुम्हारे खून
में मिल जाती
है, तुम्हारा
प्राण बन जाती
है। कार्बन
डाय आक्साइड
शेष रह जाता
है, वह
बाहर जा रहा
है। उसकी बाहर
को जरूरत है।
ये जो वृक्ष
खड़े हैं, ये
कार्बन डाय
आक्साइड पीने
के लिए
तुम्हारे पास
खडे हैं। ये
वृक्ष कार्बन
डाय आक्साइड
को पीये जाते
हैं। इसलिए तो
तुम जब वृक्ष
को जलाते हो, तो कोयला
पैदा होता है।
कोयला यानी
कार्बन। और
वृक्ष
आक्सीजन को
छोड़ रहे हैं।
उनकी श्वास का
ढंग भिन्न है।
वे कार्बन को
पीते हैं और
आक्सीजन को
छोडते हैं।
तुम आक्सीजन
पीते हो और
कार्बन को
छोड़ते हो।
बिना वृक्षों
के तुम जिंदा
न रह सकोगे।
इसलिए
पश्चिम में
बड़ा आंदोलन
इकॉलाजी का चल
रहा है कि
वृक्ष मत काटो, नए
वृक्ष लगाओ।
क्योंकि
वृक्ष अगर सब
कट गए, आदमी
मर जाएगा।
तुमने
कभी सोचा ही
नहीं कि वृक्ष
से तुम्हारी
जिंदगी जुड़ी
थी। वह बाहर
है,
लेकिन एक
क्षण को बिना
वृक्ष के तुम
नहीं रह सकते।
वृक्ष तो
चाहिए ही। वह
शुद्ध कर रहा
है हवा को
तुम्हारे लिए।
तुम उसके लिए
तैयार कर रहे
हो। तुम एक ही
बड़े यंत्र के
दो हिस्से हो।
तुम्हारे बिना
वृक्ष भी
मुश्किल में
पड़ेगा। अगर
सारे पशु—पक्षी
और मनुष्य मर
जाएं, वृक्ष
सूख जाएंगे।
क्योंकि कौन
उन्हें
कार्बन डाय
आक्साइड देगा?
अगर सब
वृक्ष काट
डाले जाएं, आदमी, पशु
—पक्षी, सब
मर जाएंगे।
कौन उन्हें
आक्सीजन देगा?
जीवन
संयुक्त खेल
है। यहां सब
जुड़ा है। किस
घड़ी तुम बाहर
कहते हो, किस
घड़ी तुम भीतर
कहते हो? कैसे
तुम बांटते हो?
इसलिए
मुझसे जब कोई
पूछता है, तो
मैं बड़ी अड़चन
में पड़ता हूं।
मुझसे कोई
पूछता है, कैसे
साधें? मैं
उससे पूछता
हूं इसकी
फिक्र ही छोड़ो।
तुम देखो कि
कैसा सधा हुआ
है। तुम कृपा
करके अड़चन न
डालो। तराजू
बिलकुल सधा
हुआ है। अगर
तुमने कृपा की
और समझपूर्वक
बाधा न डाली, हस्तक्षेप न
किए, तो सब
सधा ही हुआ है।
इसलिए
सम्यक बोध
जीवन का
संन्यास है।
वहा तुम पाओगे, दोनों
जुड़े हैं।
भोजन
लेते हो। भोजन
बाहर है, भूख
भीतर है।
दोनों के बीच
बड़ा संतुलन है।
दोनों के बीच
गहरा संतुलन
है। भूख का
अर्थ है, भोजन
की मांग, बाहर
की मांग भीतर
से। फिर जब
तुमने भोजन कर
लिया, भूख
विदा हो गई।
जब भोजन मिल
गया. तो भूख की
कोई जरूरत न
रही, मांग
न रही। अब
भोजन भीतर
बनने लगा। अब
भोजन
तुम्हारे
भीतर का
हिस्सा होने
लगा।
अगर
तुम चाहो तो
महीने, दो
महीने भूखे रह
सकते हो। वह
भी तुम इसीलिए
भूखे रह सकते
हो कि अतीत
में तुमने जो
भोजन किया था।
उपवास भी भोजन
पर निर्भर है।
अगर तुम अतीत
में भी भूखे
रहे हो, तो
उपवास न कर
सकोगे।
कुछ
आश्चर्य नहीं
है कि महावीर
महीनों उपवास कर
सके।
राजपुत्र थे।
शुद्धतम र
श्रेष्ठतम, शक्तिशाली
भोजन जीवनभर
उपलब्ध हुआ था।
अगर
महावीर की नकल
कोई गरीब आदमी
करेगा, तो
मरेगा। वह जो
जीवनभर
पौष्टिक आहार
उपलब्ध हुआ था,
उसके आधार
पर उपवास हो
रहा है।
क्योंकि
उपवास के लिए
जरूरी है कि
तुम्हारे शरीर
में चर्बी
इकट्ठी हो।
चर्बी का मतलब
है, संगृहीत
भोजन, जो
तुमने वक्त—बेवक्त
के लिए इकट्ठा
कर रखा है।
तो
हर आदमी, अगर
ठीक स्वस्थ हो,
तो तीन
महीने तक के
लिए भोजन
इकट्ठा रखता
है शरीर में
वक्त—बेवक्त
के लिए। कभी
जंगल में भटक
गए, और
भोजन न मिला; कोई मुसीबत
आ गई, भोजन
न मिला, कोई
बीमारी हो गई,
भोजन न कर
सके, तो तीन
महीने तक
इमरजेंसी, संकटकालीन
व्यवस्था है
कि तीन महीने
तक तुम्हें
शरीर ही भोजन
देता रहेगा।
लेकिन वह भोजन
भी बाहर से
आया है। अब यह
बड़े मजे की
बात है। लोग
समझते हैं, उपवास भीतर
है और भोजन
बाहर है।
लेकिन बिना
भोजन के उपवास
नहीं हो सकता।
और उलटी बात
भी सच है, बिना
उपवास के भोजन
नहीं हो सकता।
इसलिए
हर दो भोजन के
बीच में आठ
घंटे का उपवास
करना पड़ता है।
वह जो आठ घंटे
का उपवास है, वह
फिर भोजन की
तैयारी पैदा
कर देता है।
इसलिए
अगर तुम दिनभर
खाते रहोगे, तो
भूख भी मर
जाएगी, भोजन
का मजा भी चला
जाएगा। भोजन
का मजा भूख में
है। यह तो बड़ी
उलटी बात हुई!
भोजन का मजा
भूख में है।
जितनी प्रगाढ़
भूख लगती है, उतना ही
भोजन का रस
आता है।
इसका
तो यह अर्थ
हुआ कि ध्यान
का रस विचार
में है। तुमने
जितना विचार
कर लिया होता, उतनी
ही ध्यान की
आकांक्षा
पैदा होती।
इसका तो अर्थ
हुआ कि
ब्रह्मचर्य
की जड़ें
कामवासना में
हैं; कि
तुमने जितना
काम भोग लिया
होता, उतने
ब्रह्मचर्य
के फूल
तुम्हारे
जीवन में खिलते।
ये
मेरी बातें
तुम्हें
उलटबासिया
लगेंगी, क्योंकि
जिन्होंने
तुम्हें
समझाया है अब
तक, उन्होंने
खंड करके
समझाया है।
उन्होंने कहा,
कामवासना
ब्रह्मचर्य के
विपरीत है।
उन्होंने कहा,
संसार
संन्यास के
विपरीत है।
उन्होंने हर
चीज के बीच
द्वंद्व और
संघर्ष और कलह
पैदा कर दी है।
ये जो कलह
पैदा करने
वाले लोग हैं,
इनको तुम
गुरु समझ रहे
हो। यही
तुम्हें
भटकाए हैं।
मैं
चाहता हूं कि
तुम्हारे
जीवन में अकलह
हो जाए, एक
संवाद छिड़ जाए,
संगीत बजने
लगे। अलग—अलग
स्वर न रह
जाएं, सब
एक संगीत में
समवेत हो जाएं।
तुम्हारे
भीतर एक कोरस
का जन्म हो, जिसमें सभी
जीवन की
तरंगें
संयुक्त हों,
बाहर और
भीतर मिले, शरीर और
आत्मा मिले, परमात्मा और
प्रकृति मिले।
इसलिए
कबीर कह सके
कि वे ही
विरले योगी
हैं,
जे धरनी
महारस चाखा।
विरले योगी वे
ही हैं।
परमात्मा का
जिन्होंने
अकेले रस चखा,
वे कोई बहुत
विरले योगी
नहीं हैं।
अधूरे हैं, आधे हैं।
पूरे तो वे ही
हैं, जे
धरनी महारस
चाखा।
जिन्होंने
धरती के महारस
को भी चखा।
परमात्मा को
तो पीया ही, धरती को भी
पीया। आत्मा
को तो जाना ही,
पदार्थ को
भी जाना। भीतर
तो मुड़े ही, बाहर के
विपरीत नहीं;
बाहर के
सहारे मुड़े।
भीतर गए और
बाहर की नाव
पर गए। उनको
कबीर ने कहा
विरले योगी।
उन्हीं
विरले
योगियों से
संसार उस शांति
को उपलब्ध
होगा, जो पूरब
जानता है; और
उस सुख को
उपलब्ध होगा,
जो पश्चिम
जानता है। और
जहां सुख और शांति
के पलड़े बराबर
हो जाते हैं, वहीं जीवन
में संयम पैदा
होता है। संयम
यानी संतुलन।
पूरब
भी असंयमी है
और पश्चिम भी
असंयमी है।
इसलिए दोनों
दुखी हैं।
असंयम दुख है।
संयम महासुख
है।
दूसरा
प्रश्न : आपने
कहा है कि
झुकना एक
महाघटना का
सूत्रपात है।
क्या खड़े रहना, अकड़े
रहना, किसी
महाअनुभव पर
नहीं ले जाता?
जाता
है। वही झुकने
पर ले जाता है।
अकड़े रहो, खड़े
रहो। झुकोगे,
जब अकड़ से
थक जाओगे, परेशान
हो जाओगे।
कितनी देर
अकड़े खड़े रह
सकते हो? विश्राम
तो करोगे? अकडू
की पीड़ा, संताप,
दुख
आत्यंतिक रूप
से झुकने की
तरफ ले जाता
है, विनम्रता
की तरफ ले
जाता है।
अहंकार का
आखिरी कदम निरअंहकारिता
है। कब तक
अहंकारी बने
रहोगे? जब
पत्थर की तरह
सिर पर अहंकार
बोझिल हो
जाएगा, छाती
में हृदय को
धड़कने न देगा,
प्रेम को
मार डालेगा, ध्यान का
उपाय न छोडेगा,
शांति का
सुराग भी न
मिलने देगा, अंशांति का
दावानल जलेगा,
भीतर तुम
लपटें ही
लपटें हो
जाओगे, जलोगे
ही, दग्ध
ही होओगे और
कभी कोई वर्षा
न होगी, तब
क्या करोगे? तब एक क्षण
में छोड्कर इस
अहंकार को तुम
झुक जाओगे।
इसलिए
कुनकुने
अहंकारी
खतरनाक हैं।
थोड़े— थोड़े
अहंकारी, थोड़े—
थोड़े विनम्र,
ये खतरनाक
लोग हैं। ये
कभी धर्म को
उपलब्ध नहीं
होते। ये
कुनकुने पानी
की तरह हैं; कभी भाप
नहीं बनते। ये
सौ डिग्री पर
ही नहीं
पहुंचते, तो
भाप कैसे
बनेंगे? न
तो शीतल हो
पाते हैं, क्योंकि
वह अहंकार
इनको गरमाए
रखता है। और न
इतने गरम हो
पाते, क्योंकि
झूठी सज्जनता,
विनम्रता, आचरण, व्यवहार,
कुशलता, वह
इनको शीतल
बनाए रखती है।
न गरम हो पाते,
न ठीक शीतल
हो पाते।
दोनों के बीच
सड़ते हैं।
अगर
तुम अहंकार के
ही पीछे लगे
रहो,
तो आज नहीं
कल निरअहंकार
घटेगा। इसलिए
मेरी दृष्टि
में हर बच्चे
को अहंकार की
शिक्षा दी
जानी चाहिए, ताकि कहीं
वह कुनकुना न
रह जाए। उसे
अहंकार की खूब
प्रगाढ़
शिक्षा दी
जानी चाहिए, ताकि आज
नहीं कल
अहंकार का दंश
इतना भयंकर हो
उठे कि वह
अपने अनुभव से
ही अहंकार छोड़
दे और निरअंहकारिता
की तरफ यात्रा
करे। किसी
बच्चे को मत
सिखाओ कि
विनम्र हो जाओ।
विनम्रता कोई
सिखा नहीं
सकता, स्वानुभव
से आती है।
तुम तो यही
सिखाओ कि
अहंकार!
अहंकार को
इतना प्रगाढ़
और निखरा हुआ
कर दो बच्चे
में कि वह तलवार
की धार हो जाए;
खुद को ही
काटने लगे। और
तब तुम पाओगे,
बच्चा एक
दिन खुद ही
अपने अनुभव से
प्रौढ़ हो गया
है।
इधर
मेरे अनुभव
में रोज यह
बात आती है।
पश्चिम का
मनोविज्ञान
अहंकार पर जोर
देता है। वह
कहता है, स्वस्थ
आदमी को
सघनीभूत
अहंकार चाहिए।
और पूरब का
धर्म जोर देता
है कि परम
स्वास्थ्य के
लिए निरअंहकारिता
चाहिए। ये
विपरीत मालूम
पड़ते हैं, ये
विपरीत नहीं
हैं। और मेरे
अनुभव में बड़ी
अनूठी बात आती
है।
पूरब
के आदमी मेरे
पास आते हैं, पश्चिम
से आदमी मेरे
पास आते हैं।
जब कोई भारतीय
आता है, तो
वह पैर ऐसे ही
छू लेता है।
उसमें कोई
विनम्रता
नहीं होती, आदतवश छू
लेता है। और
उसके चेहरे पर
कुछ नहीं
दिखाई पड़ता।
छू रहा है, सदा
से छूता रहा
है, एक
औपचारिक नियम
है, एक
कर्तव्य है।
छूने में कोई
भाव नहीं है, कोई श्रद्धा
नहीं है, न
कोई निरअंहकारिता
है।
पश्चिम
का आदमी आता
है,
छूने में
बड़ी कठिनाई
पाता है, पैर
छूना उसे बड़ा
मुश्किल
मालूम पड़ता है।
वह उसकी
शिक्षा का अंग
नहीं है। उसे
बड़ी कठिनाई
होती है।
ध्यान करता है,
सोचता है, विचार करता
है, अनुभव
करता है, तब
किसी दिन पैर
छूने आता है।
लेकिन तब पैर
छूने में अर्थ
होता है।
पूरब
का आदमी पैर
छू लेता है
सरलता से, लेकिन
उस सरलता में
गहराई नहीं है,
उथलापन है।
पश्चिम के
आदमी के लिए
बड़ा कठिन है
पैर छूना, लेकिन
जब छूता है, तो उसमें अर्थ
है। क्या कारण
है?
पश्चिम
में विनम्रता
सिखाई नहीं
जाती, स्वस्थ
अहंकार
सिखाया जाता
है। और मेरी
अपनी धारणा है
कि दोनों सही
हैं। पहले कदम
पर स्वस्थ
अहंकार
सिखाया जाना
चाहिए, ताकि
दूसरे कदम पर
विनम्रता की
शिक्षा संभव हो
सके। पश्चिम
यात्रा की
शुरुआत करता
है और पूरब
में यात्रा का
अंत है।
और
यही सब चीजों
के संबंध में
सही है। पहले विज्ञान
सिखाया जाना
चाहिए, क्योंकि
वह यात्रा का
प्रारंभ है।
फिर धर्म, क्योंकि
वह यात्रा का
अंत है। पहले
विचार करना
सिखाया जाना
चाहिए, प्रशिक्षण
विचार का। फिर
ध्यान।
क्योंकि वह
निर्विचार है।
वह अंतिम बात
है।
पश्चिम
में जो हो रहा
है,
वह
प्रत्येक
व्यक्ति के
जीवन के
प्राथमिक चरण
में होना ही
चाहिए। और जो
पूरब की आकांक्षा
है, वह
प्रत्येक
व्यक्ति के
अंतिम चरण में
होना चाहिए।
पैंतीस वर्ष
का
जीवन
पश्चिम जैसा
और पैंतीस
वर्ष का आखिरी
जीवन पूरब जैसा, तो
तुम्हारे
भीतर सम्यक
संयोग फलित
होगा।
तीसरा
प्रश्न:
सदगुस्थ्यों
की लीलाएं अलग—अलग
क्यों हैं?
क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति अलग—अलग
है। और
प्रत्येक
व्यक्ति
अनूठा, अद्वितीय
है, बेजोड़
है। तुम भी
बेजोड़ हो, तो
सदगुरुओं का
तो कहना ही
क्या! तुम भी
दूसरे जैसे
नहीं हो; तुम्हारे
जैसा कोई आदमी
कहीं नहीं है।
जैसे
तुम्हारे
अंगूठे का
चिह्न अलग है
और दुनिया में
किसी दूसरे का
वैसा चिह्न
नहीं है—न
मौजूद किसी का;
न अतीत में
कोई हुआ, उसका,
न भविष्य
में कोई होगा,
उसका। जब
अनूठा तक इतना
अलग है, तो
आत्मा का तो
क्या कहना! तुम्हारी
आत्मा का
हस्ताक्षर
बिलकुल अलग है,
कभी किसी ने
नहीं किया, कभी कोई
नहीं करेगा।
यह
तो साधारणजन
की बात है, जो
जमीन पर जीते
हैं, भीड़
में जीते हैं,
अनुकरण में
जीते हैं, वे
भी भिन्न—भिन्न
हैं। तुमने
कभी एक जैसे
दो आदमी देखे?
दो जुड़वां
भाई भी एक
जैसे नहीं होते।
अगर तुम
निरीक्षण करो,
तो फर्क
पाओगे।
शरीरशास्त्री
कहते हैं कि
यह कोई बाद
में फर्क हो
जाता है, ऐसा
भी नहीं। दो
बच्चे भी मां
के पेट में एक
जैसे नहीं
रहते। कोई
टलें फटकारता
है, कोई
बिलकुल शात
रहता है, कोई
उपद्रव मचाता
है। वह पहले
ही से कोई क्रांतिकारी
है, वह
पैदा होते ही
से कोई विप्लव
खड़ा करने की
तैयारी कर रहा
है। कोई
बिलकुल शात
रहता है, मां
के पेट को पता
ही नहीं चलता,
हलन—चलन भी
नहीं होती। वह
कभी—कभी
चौंकती भी है
कि बच्चा
जिंदा है या
मरा। वह पहले
ही से साधु है।
डाक्टरों
का अनुभव है।
जो बच्चों को
जन्म दिलवाते
हैं कि बच्चे
पैदा होते से
ही अलग—अलग
होते हैं। कोई
बच्चा पैदा
होते से ही
बड़ी शांति का
भाव प्रकट
करता है। कोई
बच्चा पैदा
होते ही से
भयंकर चीख—पुकार
मचाता है। कोई
बच्चा पैदा
होते से ही आंख
खोलता है, लोगों
को गौर से
देखता है। कोई
बच्चा आंख बंद
किए पड़ा रहता
है। एक उदासी;
कोई
उत्सुकता
नहीं। कोई
बच्चा पहले ही
से गोबर—गणेश
होता है, पड़
जाता है। कोई
बच्चा पहले ही
से चारों तरफ
सजग होकर सारी
दुनिया को
जानने को
उत्सुक हो
जाता है।
यात्रा शुरू
हो गई।
दो
बच्चे एक जैसे
जन्म के क्षण
में भी नहीं
होते। मां के
गर्भ में भी
नहीं होते।
यह
तो भीड़ में
रहने वाले
लोगों का जीवन
है,
जहां
अनुकरण नियम
है, जहां
वैसे ही कपड़े
पहनो, जैसे
दूसरे पहनते
हैं; वैसे
ही बाल कटाओ, जैसे दूसरे
कटाते हैं।
नहीं तो तुम
कुछ विचित्र
समझे जाओगे और
लोग उसको
अच्छा न
मानेंगे। लोग
समझेंगे कि
तुम उनकी
आलोचना कर रहे
हो या उनके
कपड़ों की या
उनके बालों की।
लोग चाहते हैं
कि लोग एक—दूसरे
के जैसे हों।
वहां भी इतना
भेद है कि
वहां भी कोई
एक जैसा नहीं
है।
लेकिन
सदगुरु का तो
अर्थ है, वह
जमीन पर नहीं
है अब, शिखर
की तरह हो गया,
गौरीशंकर।
तो दो शिखर
पहाड़ों के, आकाश में
अलग—अलग उठे, तो बिलकुल
अलग हो जाते
हैं। जमीन पर
इतना भेद है, तो शिखरों
में तो बहुत
भेद हो जाता
है।
इसलिए
दो गुरु एक
जैसे नहीं
होते। इससे
बड़ी अड़चन पैदा
हुई है। अड़चन
पैदा यह हुई
है कि जो एक
गुरु के प्रेम
में पड़ जाता
है,
वह यह समझ
ही नहीं पाता
कि दूसरे गुरु
कैसे गुरु हैं?
क्योंकि
उसके पास एक
मापदंड हो
जाता है।
जिसने
महावीर को
प्रेम किया, वह
मोहम्मद को
कैसे प्रेम
करे? उसकी
एक कसौटी है।
वह देखता है
कि नग्न खडे
हैं या नहीं? अभी वस्त्र
का त्याग किया
या नहीं? और
मोहम्मद
वस्त्र पहने
खड़े हैं, तो
मुश्किल हो गई।
और
मोहम्मद तो
ठीक ही हैं, रामचंद्र
धनुष लिए खड़े
हैं। और कृष्ण
का तो कहना ही
क्या? वे
मोर—मुकुट
बांधे खड़े हैं।
वस्त्र तो
छोड़े ही नहीं
हैं, मोर—मुकुट
और बांध लिया।
बांसुरी बजा
रहे हैं।
स्त्रियां आस—पास
नाच रही हैं।
तो
जिसने महावीर
को कसौटी बना
लिया, उसके
लिए कृष्ण कोई
हालत में
ज्ञानी नहीं
हो सकते।
और
जिसने कृष्ण
को बना लिया
मापदंड, वह
महावीर को
कैसे बरदाश्त
करेगा। कृष्ण
में ऐसा रस
उसे मालूम
होगा कि
महावीर बिलकुल
सूखे
रेगिस्तान
मालूम पड़ेंगे।
मोर—मुकुट
कैसा सोहता है
कृष्ण पर!
बांसुरी की
कैसी धुन है!
नाच का कैसा
मजा! कैसा
उत्सव! और ये
महावीर खड़े
हैं नग्न, भूत—प्रेत
मालूम होते
हैं। ये क्या
कर रहे हैं
नग्न वृक्ष के
नीचे खडे? कुछ
गाओ। अरे, नाचो।
बांसुरी
बजाओ; मोर—मुकुट
बांधो। लेकिन
महावीर
महावीर हैं।
महावीर का
मानने वाला
कृष्ण को
देखता है कि ये
तो कुछ नाटकीय
हैं।
ड्रामैटिक
मालूम होते
हैं, कोई
अभिनेता हैं,
कि किसी
नौटंकी में
काम करते हैं।
ये मोर—मुकुट
बांधे किस लिए
खड़े हो? ज्ञानी
को इसमें क्या
रस! और यह
बांसुरी किस लिए
बजा रहे हो? यह तो
अज्ञानी काफी
हैं बजाने के
लिए। तुम तो
फेंको इसे। यह
कैसा राग—रंग
हो रहा है? वीतराग
बनो। ये
स्त्रियां
किसलिए नाच
रही हैं? यह
द्वंद्व कब तक
चलेगा? तो
अभी कामवासना
शात नहीं हुई?
नहीं, एक
का भक्त दूसरे
के प्रति अंधा
हो जाता है।
और कठिनाई यह
है कि दो
सदगुरु एक से
होते ही नहीं।
बड़ी
खुली आंख
चाहिए, जब
तुम पहचान
पाओगे कि ये
तो आवरण हैं।
हर गुरु के
अलग हैं। हर
गुरु की लीला
अलग है, होगी
ही। क्योंकि
वह अपने
स्वभाव से
जीता है। कोई
कृष्ण महावीर
का अनुकरण
नहीं करते, न कोई
महावीर किसी
कृष्ण का
अनुकरण करते
हैं। परम
ज्ञानी
अनुकरण करता
ही नहीं। वह
तो अपने शुद्ध
स्वभाव में
जीता है। जो
घटता है, घटता
है।
कृष्ण
कोई बांसुरी
बजा थोड़े ही
रहे हैं, बांसुरी
बज रही है।
महावीर कोई
नग्न होकर खड़े
थोड़े ही हो गए
हैं, इसका
कोई अभ्यास
थोड़े ही किया
है। नग्नता
फलित हुई है।
यह घटी है। यह
कोई अभ्यास
नहीं है, आयोजन
नहीं है। इसके
लिए कोई
चेष्टा नहीं
की है; कपड़े
उतारकर, झाडू
के नीचे आंख
बंद करके
अभ्यास नहीं
किया है। यह
घटी है।
महावीर
ने घर छोड़ा।
जब घर छोडा, तो
एक ही वस्त्र
था। जब वे घर
से छोड्कर गए,
तो राह में
एक भिखारी
मिला और उसने
कहा कि कुछ मुझे
भी दे जाएं।
वह
सब लुटा दिया
था;
उनके पास जो
संपत्ति थी, वह तो शहर
में लुटा आए।
जो धन था, वह
सब उन्होंने
बांट दिया, जो—जो उनकी
निजी चीजें
थीं, वे सब
उन्होंने
बांट दीं। कुछ
भी न बचा। एक
वस्त्र, एक
चादर को लपेटे
आए हैं। और अब
यह भिखारी मिल
गया गांव के
बाहर। उसने
कहा कि मुझे
भी कुछ देते
जाएं! मैं
वहां तो आ न
पाया; लूला—लंगड़ा
हूं। और उस
भीड़ में मेरी
कौन सुनता?
अब
इसको कैसे मना
करें! तो आधा
कपड़ा फाड़कर
उसे दे दिया।
अब वह आधा ही
बचा।
फिर
जंगल में जा
रहे हैं कि एक
झाड़ी में वह
आधा कपड़ा उलझ
गया। कीटों
वाली झाड़ी थी।
वह इस बुरी
तरह उलझ गया
कि बिना झाड़ी
को नुकसान
पहुंचाए उस
कपड़े को बाहर
नहीं निकाला
जा सकता था।
तो महावीर ने
सोचा, इतनी
मुझे जरूरत भी
है कि इस झाड़ी
को नुकसान पहुंचाऊं?
कि इसके
कांटे तोडू और
इसके पत्ते
गिराऊं? तो
आधा उस भिखारी
ने ले लिया, आधा इस झाड़ी
की इच्छा है; तो आधा उसको
दे दिया। ऐसी
सरलता से नग्न
हो गए। वह कोई
अभ्यास न था।
नग्नता फलित
हुई।
कृष्ण
का राग भीतर
बड़ी वीतरागता
को छिपाए है।
महावीर की
वीतरागता के
भीतर बजती हुई
राग की बडी
गहरी बांसुरी
है। महावीर की
वीतरागता
बाहर है और वह
जो धुन बज रही
है आनंद की, वह
भीतर है। उसे
उतारा भी कैसे
जा सकता है
बांसुरी में।
कृष्ण की धुन
बांसुरी पर बज
रही है, हृदय
में वीतरागता
है, वीतरागता
को कपडों से
या कपड़ों के
अभाव से कैसे
प्रकट किया जा
सकता है?
जिसके
पास दृष्टि है, वह
दोनों के भीतर
वही देख लेगा।
वह दृष्टि
चाहिए, आंख
चाहिए। और
अनुयायियों
के पास तो आंख
होती नहीं। वे
तो अंधे ही
होते हैं, तभी
तो अनुयायी
होते हैं। वे
एक को पकड़
लेते हैं जड़
की तरह और इस
कारण वंचित रह
जाते हैं।
तुम्हारी
हालत ऐसी है, जैसे
आकाश में
हजारों—हजारों
तारे हैं और
तुम एक तारे
को पकड़कर बैठे
हो। और तुम
कहते हो, हम
दूसरा तारा तो
देखेंगे नहीं;
क्योंकि यह
देखो, हमारा
तारा, इसमें
लाल चमक है, दूसरे तारे
में कहां है!
वह तारा है ही
नहीं। यह देखो
हमारा तारा, इसकी यह
खूबी है। जब
तक यह खूबी
सभी तारों में
न होगी, तब
तक हम किसी को
तारा भी
स्वीकार नहीं
कर सकते। ऐसे
तुम अपने हाथ
से दीन हो
जाते हो।
तारों को तो
कोई नुकसान
नहीं पहुंचता;
तारे तो बने
रहते हैं; रात
का पूरा आकाश
तारों से भरा
है, लेकिन
तुम व्यर्थ
दीन हो जाते
हो।
तुम
पूरे आकाश का
आनंद ले सकते
थे। तुम समग्र
चेतना के आनंद
के वंशधर हो
सकते थे। तुम
महावीर, बुद्ध,
कृष्ण, मोहम्मद,
क्राइस्ट, जरथुस्त्र,
लाओत्से, सभी के
वसीयतदार हो
सकते थे। तुम
सभी के बेटे
हो सकते थे; कोई अड़चन न
थी। सबका खुला
आकाश तुम्हें
छाया देता, विश्राम
देता, रोशनी
देता, लेकिन
तुम अपने हाथ
से दीन—दरिद्र
बने हो। तुम
एक को पकड़
लेते हो, उसको
कसौटी बना
लेते हो। और
उस कारण तुम
गरीब रह जाते
हो। और आकाश तैयार
था पूरा का
पूरा उंडल
पड़ने को।
ऐसा
मैं जानकर
तुमसे कहता
हूं। जितना ही
मैंने गौर से
देखा और पाया, उतना
ही पाया कि
रूप कितने ही
अलग हों, भीतर
एक ही अरूप का
वास है। ढंग
कितने ही
भिन्न हों, भीतर एक ही
बोध सतत
प्रवाहित है।
गीत कितने ही
भिन्न हों, वाद्य कितने
ही भिन्न हों,
एक ही संगीत
बज रहा है।
लेकिन
तुम ऊपर के
साज—सामान को
देखते हो। कोई
वीणा बजा रहा
है,
कोई सितार
बजा रहा है, किसी ने
इकतारा उठा
लिया है। तुम
यह नहीं देख
पाते कि वह जो
संगीत पैदा हो
रहा है, उसका
गुणधर्म एक है।
वह इकतारे से
भी पैदा होता
है। वह वीणा
से भी पैदा
होता है। वह
सारंगी से भी
पैदा होता है।
कोई
बुद्ध सारंगी
हैं,
कोई महावीर
इकतारा हैं, कोई कृष्ण
कुछ और हैं।
अनेक हैं
वाद्य, संगीत
एक है। अनेक
हैं रूप, अरूप
एक है। अनेक
हैं लीलाएं, लीला करने
वाला एक है।
अब
सूत्र:
हे अर्जुन, फल
को न चाहने
वाले
निष्कामी
योगी पुरुषों
द्वारा परम
श्रद्धा से
किए हुए उस
तीन प्रकार के
तप को सात्विक
कहते हैं। और
जो तप सत्कार,
मान और पूजा
के लिए अथवा
केवल पाखंड से
ही किया जाता
है, वह
अनिश्चित और
क्षणिक फल
वाला तप यहां
राजस कहा गया
है।
और जो तप
मूढ़तापूर्वक, हठ
से मन, वाणी
और शरीर की
पीड़ा। के सहित
अथवा दूसरे का
अनिष्ट करने
के लिए किया
जाता है, वह
तप तामस कहा
गया है।
फल
को न चाहना
सत्य का
शुद्धतम
लक्षण है।
जीवन में तुम
जो भी करते हो, फल
की चाह से ही
करते हो, अन्यथा
करोगे ही
क्यों? मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
कहते हैं कि
यह संभव ही
कैसे है कि फल
की हम आकांक्षा
न करें? क्योंकि
अगर आकांक्षा
ही न करें, तो
हम कृत्य ही
क्यों करेंगे?
अगर मैं
उनको कहता हूं, ध्यान तो
तुम करो, लेकिन
फल का कोई
विचार मत करो।
तो वे कहते
हैं, तो हम
आपके पास
आएंगे ही
क्यों? हम
आए ही इसलिए
हैं कि शांति
चाहिए। आप
कहते हो, ध्यान
से शांति
मिलेगी, तो
हम ध्यान करते
हैं; क्योंकि
शांति चाहिए।
अब
एक बड़ी जटिल
समस्या खड़ी
होती है।
क्योंकि जब तक
तुम कुछ
चाहोगे, ध्यान
न लगेगा।
ध्यान से शांति
मिलती है, इसमें
कोई शक—शुबहा
नहीं है।
इसमें सारी
दुनिया के
ध्यानी एक मत
हैं। ध्यान से
शांति मिलती
है, इसमें
एक मत हैं; और
एक और अजीब
शर्त से भी एक
मत हैं कि जब
तक तुम चाहते
हो, तब तक
नहीं मिलती।
क्योंकि चाह अंशांति
है।
चाहने
में ही तो
सारी अंशांति
है। चाहने के
कारण ही तो
तुम तने हो, चाहने
के कारण ही तो
भीतर एक
बेचैनी है।
तुम ध्यान
कैसे कर
पाओगे!
ध्यान
का अर्थ है, सिर्फ
हो जाना। चाह
के कारण तुम
कभी भी सिर्फ
नहीं हो पाते।
आगे कुछ
खींचता रहता
है। ध्यान का
अर्थ है, अभी
और यहीं हो
जाना। और चाह
तो भविष्य में
खींचती रहती
है—कल।
जब
तुम चाह से
भरे होते हो, तब
तुम ध्यान थोड़े
ही करते हो, तुम किनारे
खड़े ध्यान के
देखते हो, कब
मिलेगी शांति?
अभी तक नहीं
मिली? घंटा
बीतने के करीब
आ गया और शांति
का कोई पता
नहीं है।
तो
ध्यान
तुम्हें और अशांत
कर देगा। तुम
वैसे ही अशांत
थे। अशांत थे, धन
चाहते थे, नहीं
मिला। अशांत
थे, सुंदर
स्त्री चाहते
थे, नहीं
मिली। और मिल
भी जाए, तो
बहुत फर्क
नहीं पड़ता; क्योंकि
मिलते से ही
सुंदर स्त्री
सुंदर नहीं रह
जाती। मिलते
से ही जितना
धन मिले, वह
काफी नहीं रह
जाता। मिले न
मिले, कोई
फर्क नहीं
पड़ता। सफलता
चाहते थे, वह
न मिली। पद
चाहते थे, वह
न मिला। कभी
मिलता ही नहीं,
क्योंकि जो
भी पद मिल जाए,
वही छोटा पड़
जाता है। पद
की आकांक्षा
बड़ी है, विराट
है, उसका
कोई अंत नहीं
है।
हर
जगह तुम पाओगे, कुछ
अड़चन खड़ी हो
जाती है। जब
तक चाह है, तब
तक अड़चन खड़ी
होती ही रहेगी।
तुम
भटके, संसार
से थके—मांदे
मेरे पास आए।
अब तुम कहते
हो, शांति
चाहिए। अब तुम
शांति को चाह
बना रहे हो।
धन नहीं मिला,
उससे तुम
काफी अशांत हो
गए। पद नहीं
मिला, उससे
अशांत हो गए।
अब तुम कहते
हो, शांति
चाहिए। तुम
समझे नहीं, तुम जागे
नहीं।
धन
की खोज के
कारण थोड़ी अंशांति
थी। और
तुम्हारे
धर्मगुरु भी
ऐसी
मूढ़तापूर्ण
बातें
तुम्हें समझा रहे
हैं कि धन की
चाह छोड़ो, तो
अंशांति मिट
जाएगी। गलती
कह रहे हैं।
चाह छोड़ने से अंशांति
मिटती है, धन
की चाह से कुछ
लेना—देना
नहीं है।
मोक्ष की चाह
भी उतनी ही अंशांति
ले आएगी।
चाह
अंशांति है।
चाह की विषय—वस्तु
का कोई अर्थ
नहीं है।
मोक्ष, धन, परमात्मा, शांति, कुछ
भी चाहो, अंशांति
पैदा होगी। न
चाहो, शांति
मौजूद है। चाह
के पीछे अंशांति
छाया की तरह
आती है। और
जहां चाह नहीं
रह जाती, वहा
शांति आती
थोड़े ही है।
तुम अचानक
जागकर पाते हो,
शांति सदा
थी, चाह के
कारण चूकते थे।
शांति
स्वभाव है, उसे
मांगना नहीं
है, चाहना
नहीं है। वह बाहर
नहीं है। उसे
तुमने कभी
खोया नहीं है।
वह तुम्हारा
होने का भीतरी
ढंग है। लेकिन
चाह के कारण
तुम भीतरी को
देख नहीं पाते।
दौड़ते हो, भागते
हो; भाग—दौड़
में अपने को
ही भूल जाते
हो।
तो
उनसे अगर मैं
कहता हूं कि शांति
तो मिलेगी, वह
पक्का है।
लेकिन तुम
कृपा करके चाहो
मत।
उनकी
अड़चन भी मैं
समझता हूं।
उनका गणित भी
साफ है। वे
कहते हैं, अगर
हम चाहें ही न,
तो हम आपके
पास क्यों आएं?
हम चाहते
हैं, इसीलिए
तो आए हैं।
मैं
उनसे कहता हूं
कि मेरे पास
तक आ गए, चाह
इतना कर दी, यही काफी है।
अब कृपा करके
सिर्फ ध्यान
करो, चाहो
मत कुछ।
समझाता हूं तो
अधूरे मन से
वे सिर भी
हिलाते हैं।
ही भी भरते
हैं। बात तो
उनको भी कहीं
समझ में पड़ती
है। एकदम पकड़
में तो नहीं
आती। पकड़ में
आ जाए, तो
ध्यान की
जरूरत ही नहीं
रह जाती। बात
ही खतम हो गई।
यह बात दिख गई
कि चाह ही तो
मुझे अशांत
किए है........।
थोड़ी
देर को सोचो, अगर
तुम्हारी कोई
चाह न हो, तो
तुम कैसे अशांत
हो पाओगे? क्या
कोई उपाय कर
सकते हो तुम
बिना चाह के
अशांत होने का?
क्या कोई
ढंग है
तुम्हारे पास?
उछलोगे,
कूदोगे, मगर
अशांत हो
सकोगे अगर चाह
न हो?
चाह
न हो,
तो अंशांति
का उपाय ही न
रहा, मूल
बीज ही खो गया।
ध्यान की भी
कोई जरूरत
नहीं है।
लेकिन
अधूरे मन से, उनको
भी बात जंचती
तो है। बुद्धि
को समझ में भी
आती है कि
शायद ऐसा ही
हो। फिर आप
कहते हैं, तो
होगा ही। तो
हम कोशिश
करेंगे।
अच्छा हम चाह
छोड़ देते हैं।
लेकिन भीतर
गहरे में वह
चाह इसीलिए
छोड़ते हैं कि
शांति मिल जाए।
तीन
दिन बाद वे
फिर हाजिर हैं, कि
तीन दिन हो गए
छोड़े हुए, अभी
तक मिली नहीं।
क्या
खाक छोड़ी
होगी! छोड़ने
का मतलब ही यह होता
है कि अब इसको
उठाना ही मत,
अब इसकी बात
ही मत करना।
यह बात ही
व्यर्थ हो गई।
तीन दिन बाद
फिर तुम आकर
कहते हो कि
चाह छोड़ दी, तीन दिन हो
गए, अभी तक
शांति मिली
नहीं। तो तुम
किनारे खड़े
देखते रहे।
ध्यान तुमने
किया नहीं।
तुम्हारा
ध्यान चाह पर
लगा रहा।
ध्यान हो न
पाया; मांग
कायम रही।
थोड़ा सरका दी
होगी भीतर को,
थोड़ी हटा दी
होगी अंधेरे
में, थोड़ा
उस तरफ से पीठ
कर ली होगी।
लेकिन तुम
जानते हो, वह
खड़ी है। और जब
तक वह खड़ी है, तब तक सत्व
का उदय नहीं
होता।
इसलिए
सात्विक
साधना का पहला
सूत्र कृष्ण
कहते हैं, फल
को न चाहने
वाले.।
यही
निष्काम दशा
है। काम की
दशा है, जब
तुम्हारा रस
सदा फल में
होता है, कृत्य
में नहीं। वह
काम की दशा है।
और जब
तुम्हारा रस
कृत्य में
होता है, फल
में नहीं, तब
वह निष्काम
दशा है। जैसे
सुबह—सुबह तुम
घूमने निकले
हो। सूरज उगा।
पक्षी गीत
गाते हैं।
वसंत आ गया है।
सब तरफ बहार
है। तुम मस्ती
में गीत
गुनगुनाते
चले जा रहे हो।
कोई अगर तुमसे
पूछे, कहां
जा रहे हो, तुम
क्या कहोगे? तुम कहोगे, बस, घूमने
निकले हैं।
कहीं जा नहीं
रहे हैं।
यही
रास्ता है, यही
वृक्ष होंगे,
यही सूरज
होगा, यही
वसंत होगा; दोपहर तुम
दफ्तर की तरफ
चले जा रहे हो
या दुकान की
तरफ, लेकिन
अब वह
गुनगुनाहट
नहीं है। सब
वही है; तुम
भी वही हो, हवाएं
वही, कुछ
बदला नहीं, मधुमास अभी
चला नहीं गया।
फूल अब भी
खिले हैं, पक्षी
अब भी गीत गा
रहे हैं।
लेकिन अब
तुम्हें कुछ
सुनाई नहीं
पड़ता। सूरज
रोशनी देता
नहीं मालूम
पड़ता अब, सिर्फ
ताप पैदा करता
है। पक्षियों
के गीत बाजार
के शोरगुल को
सिर्फ बढ़ा रहे
हैं। वृक्षों
की हरियाली, वृक्षों के
फूल, अब
तुम्हें सुख
नहीं देते, बल्कि एक
पीड़ा देते हैं
कि तुम्हें
दफ्तर जाना पड
रहा है। सब
कुछ वही है, लेकिन अब
तुमसे कोई
पूछे, कहा
जा रहे हो? तुम
दफ्तर जा रहे
हो। तुम्हारे
चेहरे का ढंग
बदल गया, बड़ा
तनाव है।
लक्ष्य है अब;
सुबह
लक्ष्य न था।
फल है अब, सुबह
फल न था।
संन्यासी
का जीवन सुबह
घूमने जैसा है।
गृहस्थ का
जीवन दोपहर
दफ्तर जाने
जैसा है। बस, इतना
ही फर्क है।
कोई पहाड़ नहीं
जाना है।
दफ्तर ऐसे ही
जाना है, जैसे
तुम सुबह
घूमने निकले।
दुकान पर ऐसे
ही जाकर बैठ
जाना है, जैसे
क्लब में आकर
मित्रों से
गपशप करने चले
आए हो। काम
ऐसे ही करना
है, जैसे
खेल हो। बस, निष्काम सध
जाता है।
अर्जुन
भागना चाहता
है युद्ध से।
वह कहता है कि
यह करने योग्य
नहीं है।
हिंसा होगी
बहुत। पाप
लगेगा बहुत।
जन्मों—जन्मों
तक सडूगा
नरकों में और
मिलने को कुछ
भी नहीं है।
राज्य मिल भी
गया अगर, तो
इतने हिंसा—पात
के बाद, इतने
लोगों का जीवन
लेने के बाद, अपने ही लोग!
और उस तरफ भी
मेरे ही सगे—संबंधी
हैं, इस
तरफ भी। दोनों
तरफ कोई भी
मरेगा, मेरे
ही लोग मरेंगे,
अपने ही
संबंधी
मरेंगे।
मित्र, प्रियजन
बंटे खड़े हैं।
नहीं, यह
इस योग्य नहीं
मालूम पड़ता।
कृष्ण
का जोर क्या
है अर्जुन से? जोर
है कि तू फल की
क्यों सोचता
है! अगर
अर्जुन कृष्ण
से कहता—अचानक
उतर गया होता
नीचे रथ से और
कहता—कि जाता
हूं। बात खतम
हो गई। तो
कृष्ण रोक न
पाते। रोकने
की जरूरत भी न
थी। कृष्ण
प्रसन्नता से
कहते कि इस
क्षण की मैं प्रतीक्षा
करता था। भला
हुआ। बात खतम
हो गई।
लेकिन
अर्जुन यह
नहीं कहता है
कि मैं जाता
हूं। अर्जुन
फल की बातें
कर रहा है। वह
कह रहा है, क्या
फल मिलेगा? सार क्या है?
कृत्य का
सवाल नहीं है।
अर्जुन
राजी है, अगर
हिंसा करनी
पड़े, कोई
अड़चन नहीं है।
लेकिन अगर
अपने लोग न
होते, पराए
होते, तो
काट देता घास—पात
की तरह। सदा
काटता ही रहा
था, कोई
नया न था यह
मामला।
योद्धा था, क्षत्रिय था।
लोगों को काट—पीट
दे, तो हाथ
भी धोने की
आदत न थी।
अचानक कैसे यह
संन्यास उठा
है? यह
संन्यास नहीं
है। यह मोह—
भाव है। और
अचानक कैसे फल
की चर्चा चली
कि नर्क जाना
पड़े, पाप
लगे! जन्मों—जन्मों
तक यह मेरे
ऊपर कलंक बना
रह जाएगा!
यह
भविष्य की
छाया उठी है
मोह के कारण, ज्ञान
के कारण नहीं।
ज्ञान सदा
वर्तमान में
है। मोह सदा
भविष्य में है।
मोह सदा अज्ञान
में है। फल की
सोच रहा है।
और यह भी देख
रहा है कि अगर
धन मैंने पा
भी लिया।
धन
पाना चाहता है, नहीं
तो युद्ध तक
आने की जरूरत
क्या थी? यह
तो आखिरी घड़ी
में आकर उनको
बुद्धि आ रही
है। अब तक
क्या करते थे?
यह तो पहले
ही सोच सकते
थे कि इतने
लोग मरेंगे, मिलेगा
क्या? सार
क्या है?
सिंहासन
पर बैठ ही
जाऊंगा, तो
अर्जुन कहता है,
क्या फायदा?
क्योंकि
जिनके लिए
सिंहासन पर
बैठा जाता है,
वे तो सब
कब्रों में
होंगे। बच्चे
मर जाएंगे, जो प्रसन्न
होते कि पिता
सिंहासन पर
बैठे। मित्र
मर जाएंगे, जो भेंट
लाते कि
अर्जुन, तो
अंततः तुम
सम्राट हो गए।
प्रियजन मर
जाएंगे, जो
उत्सव मनाते।
बैठ जाऊंगा, मरघट पर रखा
होगा मेरा
सिंहासन।
उस
सिंहासन पर
बैठने में रस
नहीं मालूम
होता। नहीं कि
उसको त्याग आ
गया है। नहीं
कि संन्यास का
भाव उदय हुआ
है। बस, देखकर
कि फल कुछ सार
का नहीं मालूम
पड़ता; सौदा
महंगा लग रहा
है उसको। करने
योग्य नहीं
लगता। जाएगा
ज्यादा, मिलेगा
कम। यह उसकी
काम की दशा है।
और
कृष्ण की पूरी
चेष्टा यही है
कि लड़, न लड, यह
बहुत बड़ा सवाल
नहीं है।
लेकिन
निष्काम हो जा।
लड, न लड़, यह बहुत
सवाल नहीं है।
तू बस, फल
की आकांक्षा
छोड़ दे।
फल
की आकांक्षा
छोडते ही एक
अपूर्व घटना
घटती है कि
तुम परमात्मा
के उपकरण हो
जाते हो। फिर
वह जो कराता
है,
तुम करते हो।
नहीं कराता, नहीं करते।
अगर
परमात्मा
नहीं चाहता है
युद्ध कराना, तो
नहीं होगा।
अर्जुन बैठा
हंसता रहेगा।
कृष्ण कहते
रहें गीता। वे
लाख समझाएं, वह कहेगा कि
चुप रहो।
बेकार की
बातें मत करो।
बात ही नहीं
उठ रही है। यह
होने को ही
नहीं है।
परमात्मा
उपकरण नहीं
बना रहा है।
बनाए, तो
लड़ने को तैयार
हूं। न बनाए
तो मैं क्या
कर सकता हूं!
लेकिन कर्ता—
भाव मेरा नहीं
है अब। लड़ाएगा,
तो लडूंगा।
अर्थात
लड़ाएगा, तो
वही लडेगा; मैं नहीं
लडूंगा। नहीं
लड़ाका, तो
वही भागेगा; मैं नहीं
भाग्ता।
संन्यास उसका,
गृहस्थी
उसकी, अब
मेरा कुछ भी
नहीं है।
यह
सोचने जैसा है।
जब तक फल की आकांक्षा
है,
तब तक तुम
अड़े रहते हो।
जैसे ही फल की
आकांक्षा गई,
तुम हट जाते
हो। तुम फल की
आकांक्षा हो।
अहंकार फल की आकांक्षा
है। अहंकार को
हटाना हो, तो
फल की आकांक्षा
छोड़ देनी पड़े।
तब कृत्य ही
पर्याप्त है।
फिर
कल का भरोसा
क्या? कल होगा
ही, यह
किसे मालूम है?
और अर्जुन
ऐसा क्यों
सोचता है कि
ये ही लोग मरेंगे
और वह न मर
जाएगा? और
सिंहासन
मिलेगा ही?
मुल्ला
नसरुद्दीन
फ्रांस गया था
घूमने। पत्नी
को साथ ले गया
था। एक तो
पेरिस जाना और
पत्नी के साथ
जाना, वैसे ही
अड़चन की बात
है। पेरिस और
पत्नी के साथ
जमता ही नहीं।
पत्नी को साथ
ले जाना हो, काशी, मक्का,
मदीना ठीक
है, तीर्थयात्रा!
पत्नी मानी
नहीं, पेरिस
ले गया। पेरिस
में देखी
सुंदर
स्त्रियां
उपलब्ध; बड़ी
बेचैनी होने
लगी। और यह
पत्नी पीछे
लगी है। यह तो
बोझ हो गई। आए,
न आए, बराबर
हो गया।
तो
मुल्ला ने बीच
सड़क पर रुककर
कहा कि अगर हम
दो में से
किसी को कुछ
हो जाए, तो
फिर मैं पेरिस
में ही रहूंगा।
उसका
मतलब समझ रहे
हो?
अगर हम दो
में से किसी
को कुछ हो जाए,
तो मैं
पेरिस में ही
रहूंगा।
यह
अर्जुन क्या
कह रहा है
कृष्ण से? कल
पक्का है
सिंहासन मिल
ही जाएगा तुझे?
ये मर
जाएंगे
दुश्मन, तू
नहीं मरेगा? तू बचा
रहेगा? लाशें
इन्हीं की
बिछेगी, तू
सिंहासन पर
होगा? कल
का इतना पक्का
भरोसा क्या है?
कोई कारण तो
दिखाई नहीं
पड़ता। कोई
योद्धा उस तरफ
कमजोर नहीं
हैं। बल करीब—करीब
संतुलित है।
कौन जीतेगा, कौन हारेगा,
यह बस जरा—सी
बारीक रेखा है
हार और जीत
में। अर्जुन
को इतना पक्का
क्या है?
लेकिन
हर अहंकार
अपने को
केंद्र मानकर
सोचता है। फलाकांक्षी
अपने को
केंद्र मानकर
सोचता है।
कृष्ण
कहते हैं, सत्व
का लक्षण है, फलाकांक्षा
का छूट जाना।
तू निष्काम—
भाव से हो जा।
आज इस क्षण जो
कर्तव्य है कर,
कल की मत
सोच। कर्तव्य
का क्या फल
होगा, यह
परमात्मा पर
छोड़, हमारे
हाथ में नहीं
है।
तुम
भी जानते हो, कई
बार तुम अच्छा
करते हो और
बुरा हो जाता
है। और कई बार
बुरा करना
चाहते थे और
अच्छा हो जाता
है।
ऐसा
हुआ चीन में
कि एक आदमी—उससे
चीन में आक्यूपक्चर
नाम के
चिकित्सा—शास्त्र
का जन्म हुआ—स्प
आदमी के पैर
में लंगड़ापन
था सदा, बचपन
से था। और
किसी दुश्मन
ने छिपकर उसको
तीर मार दिया।
वह उसे मार
डालना चाहता
था। लेकिन तीर
उसको कुछ ऐसी
जगह लगा कि
उसका लंगड़ापन
ठीक हो गया।
उससे
आक्यूपंक्चर
का पूरा
चिकित्सा—शास्त्र
पैदा हुआ।
तो
चीन में यह
पता चल गया कि
कुछ ऐसे
हिस्से हैं
शरीर में कि
अगर वहा कोई
तीखा औजार
चुभाया जाए, तो
शरीर—ऊर्जा की
गति बदल जाती
है।
तो
वह जो लंगड़ा
था आदमी, वह
इसीलिए लंगड़ा
था कि ऊर्जा
ठीक धारा में
नहीं बह रही
थी। विद्युत
शरीर की ठीक
धारा में नहीं
बह रही थी, थोड़ी
तिरछी थी।
धारा तिरछी थी,
तो पैर
तिरछा था।
क्योंकि पैर
तो ऊर्जा का
अनुसरण करता
है। तीर लगने
से धारा झटककर
सीधी बहने लगी;
पैर सीधा हो
गया। फिर तो
आक्यूपंक्वर
का पूरा
शास्त्र पैदा
हुआ।
जिसने
मारा था, उसने
सोचा भी न
होगा कि तीर
मारने से यह
आदमी मरेगा तो
नही, उलटा,
लंगड़ा था, ठीक हो
जाएगा। न केवल
यह ठीक होगा, बल्कि इसके
आधार पर एक
शास्त्र का
जन्म होगा, जिससे
हजारों साल तक
लाखों लोग ठीक
होंगे।
फिर
तो धीरे— धीरे
उन्होंने सात
सौ बिंदु खोज
लिए,
आक्यूपक्चर
ने, आदमी
के शरीर में।
और हर बिंदु
से संबंधित
बीमारियां
हैं।
आक्यूपंक्चर
कुछ भी नहीं
करता है—बडी
अनूठी कला है—सिर्फ
सुई चुभोता है।
अब तो तीर भी
नहीं चुभोता।
क्योंकि उतने
बड़े की भी
जरूरत नहीं है।
इतनी छोटी—सी
सुई चुभोता है
कि तुम्हें
पता ही नहीं
चलता। सिर में
दर्द है और
हाथ में सुई
चुभाके वे, और अचानक
तुम्हारा
दर्द तिरोहित
हो जाता है।
पेट में तकलीफ
है, कहीं
पीठ में सुई
चुभोएंगे।
उनके हिसाब
हैं कि कहां
सुई चुभाने से
कहा की धारा
में रूपांतरण
होता है। एक
शास्त्र, एक
विज्ञान का
जन्म हो गया।
बुरा
करने जाओ, भला
हो जाता है।
कभी तुम भला
करने जाते हो
और बुरा हो
जाता है। कहना
बिलकुल
मुश्किल है।
समझो, हिटलर
छोटा था, और
कुएं में गिर
पड़ता, तो
तुम बचाते कि
नहीं? बचाते,
भागते, छोटा
बच्चा गिर
पड़ा! अब इस
छोटे बच्चे का
कोई पता तो
नहीं है कि
कितना जहरीला
सांप होने
वाला है। तुम
इसको बचा लेते।
फिर
हिटलर ने कोई
एक करोड़ आदमी
मारे।
तुम्हारा कुछ
हाथ होता इसकी
हिंसा में कि
नहीं? अगर
तुमने न बचाया
होता इसे, कुएं
में डूब जाने
दिया होता, तो दुनिया
कहती कि तुमने
पाप किया। बचा
लिया, तो
दुनिया कहती
कि तुमने बड़ा
पुण्य किया।
लेकिन आसान
नहीं है मामला
इतना। वह जो
करोड़ आदमी
इसने मारे, उसमें
तुम्हारा भी
हाथ है। तुम न
बचाते तो। यह
तो बड़ी झंझट
की बात है।
तुम
अच्छा करते हो, बुरा
हो जाता है।
बुरा करते हो,
अच्छा हो
जाता है।
तुम्हारे
हाथ में करना
मात्र है, कृष्ण
कहते हैं।
क्या होगा, यह तुम
समष्टि के हाथ
में छोड़ दो।
तुम इसकी जिद
में ही मत पड़ो,
तुम यह सोचो
ही मत कि क्या
होगा। तुम
इतना ही सोचो
कि जो हो रहा
है, उसको
मैं कैसे पूरी
तरह, पूरे
कर्तव्य— भाव
से कर पाऊं।
हे अर्जुन, फल को न
चाहने वाले
निष्कामी
योगी पुरुषों
द्वारा परम
श्रद्धा से
किए हुए उस तीन
प्रकार के तप
को सात्विक
कहते हैं। कल
जो हमने तीन
प्रकार के तप
समझे, वे
सात्विक हैं,
यदि किसी ने
निष्काम— भाव
से किए हैं।
कुछ चाहा नहीं।
खुद निमित्त
होकर किए हैं।
कुछ मांगा
नहीं। और परम
श्रद्धा से
किए हैं।
स्वभावत:, निष्काम—
भाव तभी हो
सकता है, जब
तुम्हारी
श्रद्धा परम
हो। तुम फल की आकांक्षा
क्यों करते हो?
क्योंकि
तुम्हें
पक्का भरोसा
नहीं है कि फल
आएगा। अन्यथा आकांक्षा
क्यों करोगे?
तुम
बीज बोते हो, फिर
तुम बैठकर आकांक्षा
करते हो कि
पौधे अंकुरित
हों। अगर तुम
बिलकुल सिक्खड
किसान हो, नए—नए
खेती में उतरे
हो या बागवानी
में, तो
तुम बड़ी चिंता
करोगे, रात
सो न सकोगे, सुबह उठ—उठकर
बार—बार जाओगे,
दिन में कई
दफा देखोगे, अभी तक
अंकुर आए या
नहीं आए?
छोटे
बच्चे आम की
गोई बो देते
हैं। कम से कम
मेरे गांव में
वैसा होता था।
तो बचपन में
मैंने भी आम
की गोई लाकर
अपने आयन में
बो दी। लेकिन
बच्चों की
धीरज कितनी? घडीभर
बाद फिर जाकर
उखाड़कर देखते,
अभी तक आया
कि नहीं आया? इतनी जल्दी
आम नहीं आते, वह भी पक्का
है। कभी बड़ों
ने कहा भी कि
क्या कर रहे
हो? इस तरह
तो कभी नहीं
आएंगे। लेकिन
उत्सुकता मानती
नहीं, कि
शायद आ गया हो।
रात सो नहीं
पाते, नींद
में आम की गोई
अभी फूटी या
नहीं, अंकुर
लगे या नहीं।
पता नहीं, फल
लग गए हों।
रात भी बच्चा
उठकर जाता है,
एक नजर डाल
आता है आंगन
में, अभी
भी आया नहीं?
यह
सारी चिंता
इसलिए हो रही
है कि बच्चे
को कुछ पता
नहीं है, कुछ
बोध नहीं है।
माली भी बोता
है आम की गोई, लेकिन चिंता।
नहीं करता।
क्योंकि वह
जानता है, आएंगे।
आम की गोई बो
दी है, कृत्य
पूरा कर दिया
है, जरूरत
जैसी थी, वैसा
खाद दे दिया
है, पानी
था, पानी
दे दिया है, सुविधा जुटा
दी सब, बात
खतम हो गई।
करना पूरा हो
गया। फल हमारे
हाथ में थोड़े
ही है। और फिर
श्रद्धा होती
है, आएगा।
जो
जानता है, उसकी
श्रद्धा होती
है। अज्ञानी
अश्रद्धालु
होता है। शानी
श्रद्धालु
होता है। और
इस सूत्र का
उलटा भी सच है।
जितने तुम
श्रद्धालु हो
जाओगे, उतने
ज्ञानी हो
जाओगे। जितने
अश्रद्धालु
हो जाओगे, उतने
अज्ञानी हो
जाओगे। वे
दोनों जुड़ी
हैं बातें।
श्रद्धा
ज्ञान का एक
पहलू है, अश्रद्धा, अज्ञान का
एक पहलू है।
परम
श्रद्धालु का
अर्थ है, जो
जानता है, करने
योग्य कर दिया,
होने योग्य
होता रहेगा।
अगर करने
योग्य ठीक से
कर दिया है, तो होने
योग्य होगा ही।
उस पर क्या
सोचना?
अगर
तुमने ध्यान
कर लिया, शांति
होगी ही। तुम
ध्यान की
फिक्र करो, तुम शांति
की फिक्र मत
करो। अगर
तुमने
प्रार्थना कर
ली, तुम
प्रकाश से भर
ही जाओगे। तुम
प्रकाश का
विचार ही मत
करो। तुम
सिर्फ
प्रार्थना कर
लो। अगर तुम
ठीक से जी लिए
हो, तो तुम
मुक्त हो ही
जाओगे। तुम
मुक्ति की
चिंता मत करो।
ठीक से जीने
वाला सदा
मुक्त हो गया
है।
जीवन
में फल तो आते
ही हैं, कृत्य
भर पूरा हो
जाए। क्योंकि
कृत्य में ही
छिपा है फल।
कृत्य है बीज,
उसी में
छिपा है फल।
यह शब्द फल
अच्छा है। बीज
में छिपा है
फल। फल का
अर्थ सिर्फ
परिणाम ही नहीं
होता। फल को
हम फल इसीलिए
कहते हैं, परिणाम
को हम इसीलिए
फल कहते हैं, क्योंकि वह
बीज में छिपा
है।
तुम
बीज की फिक्र
कर लो, फल तो
अपने से आ
जाता है। कोई
बीज निष्फल
नहीं जाता। और
अगर गया, तो
उसका केवल
इतना ही अर्थ
है कि तुमने
कर्तव्य न
किया। जो करने
योग्य था, उसमें
कमी की, और
जो होने योग्य
था, उसमें
समय बिताया।
तुम सोचते रहे
फल की और
कृत्य
उपेक्षित पड़ा
रहा। कर्तव्य
पूरा न हुआ, तो ही फल
चूकता है।
इसलिए
परम श्रद्धा
से..........।
परम
श्रद्धा का
अर्थ है, जहां
रत्ती—मात्र
भी संदेह नहीं।
और अगर तुम
जीवन को गौर
से देखोगे, तो संदेह
मिट जाएगा।
संदेह का कोई
कारण नहीं है।
मेरे
पास एक सज्जन
आए और
उन्होंने कहा
कि मैं अच्छा
करता हूं.।
कैसे भरोसा आए? आप
कहते हैं, भरोसा
आ जाए। करता
हूं अच्छा।
जिनके साथ
अच्छा करता
हूं वे भी
बुराई लौटाते
हैं। तो
श्रद्धा बढ़े
कैसे? घटती
है। मैं करता
हूं अच्छा, लौटता है
बुरा। मैं
करता हूं नेकी,
लौटती है
बदी। तो वे
कहते हैं कि
श्रद्धा कैसे
करें? उनकी
बात ठीक है।
कि अगर तुम
भला करो लोगों
के साथ और लोग
तुम्हारे साथ
बुरा करें, तो साफ है कि
श्रद्धा उठ
जाती है। क्या
भरोसा कि मैं
जीवनभर अच्छा
जीऊं और मोक्ष
मिले? क्योंकि
यहां तो यही
दिखाई पड़ रहा
है कि बुरा
करने वाले मजा
ले रहे हैं, भला करने
वाले दुख पा
रहे हैं। साधु
सड़ रहे हैं, असाधु
सिंहासनों पर
विराजमान हैं।
और
कृष्ण कहते
हैं,
साधुओं के
उद्धार के लिए
ओर असाधुओं के
विनाश के लिए
युगों—युगों
में आऊंगा।
बात उलटी
दिखती है। या
तो उन्होंने
अपना बदल दिया
वचन। ऐसा
दिखता है कि
साधुओं का
विनाश हो रहा
है और असाधु
सिंहासनों पर
बैठे हैं।
कैसे श्रद्धा
हो?
उन
मित्र को
मैंने कहा कि
तुम्हें
बिलकुल पक्का
है कि तुमने
भला किया? अगर
अश्रद्धा ही
करनी है, तो
वहा से शुरू
करो। शुरुआत
से शुरू करो।
क्योंकि
तुमने कुछ
किया, वह
शुरुआत है।
दूसरे ने कुछ
किया, वह
तो
प्रतिक्रिया
है, वह तो
अंत है। पहले
वहीं से शुरू
करो। तुमने सच
में ही भला
करना चाहा था?
दिखावा
हो सकता है
भले का हो। यह
हो सकता है कि
तुम एक आदमी
को पांच रुपया
दान दे दो।
लेकिन
तुम्हारा
इरादा उसकी
गरीबी में
सहायता करने
का न हो।
तुम्हारा
इरादा यह हो
कि अब यह तुम
पर निर्भर हो
जाए।
तुम्हारा
इरादा यह हो
कि अब तुम
जहां मिलो, वहीं
यह नमस्कार
करे और चरण
छुए।
तुम्हारा
इरादा यह हो
कि पांच रुपए
में तुम इसे
गुलाम बना लो।
और
मजा यह है कि
यह इरादा तुम्हें
भी साफ न हो।
और जीवन बड़ा
जटिल है। यहां
तुम जो करते
हो,
उसका फल
नहीं मिलता।
यहां वस्तुत:
करने के पीछे
जो छिपा हुआ
राज है, उसी
के फल मिलते
हैं।
तुमने
बुरा ही किया
होगा, अनजाने
किया होगा, तभी बुरा
लौट आया है।
क्योंकि नीम
के बीज जो
बोता है, तभी
नीम के फल
लगते हैं। तुम
कहते हो, हमने
आम के बीज बोए
थे और नीम के
फल लग रहे हैं।
यह
मैं कैसे
मानूं? कहीं
भूल हो गई।
तुम्हारे
पैकेट पर लिखा
रहा होगा, आम
के बीज। पैकेट
के भीतर नीम
के बीज ही रहे
होंगे। कहीं
कुछ चूक हो गई।
यह तो संभव ही
नहीं है कि आम
के बीज बोओ और
नीम के फल लग
जाएं। शक ही
करना है, तो
अपने पर करो।
बस, यही
फर्क है।
धार्मिक
व्यक्ति अगर
शक भी करता है, तो
अपने पर। और
अधार्मिक अगर
शक करता है, तो दूसरे पर।
दूसरे का ही
शक बढ़ते—बढ़ते
परमात्मा के
प्रति संदेह
बन जाता है।
और अपने पर शक
करते—करते
अहंकार गिर
जाता है।
क्योंकि
अहंकार
संदिग्ध हो
जाता है।
स्वयं पर
जिसने संदेह
किया, वह
परमात्मा पर
श्रद्धा करने
लगेगा। और
स्वयं पर
जिसने कभी
संदेह न किया,
वह
परमात्मा पर
संदेह करेगा।
परम
श्रद्धा का
अर्थ है, जिसने
जीवन के अनुभव
से जाना कि
बीओ, जो
बोओगे, वही
काटोगे।
इसलिए अब काटने
की चिंता क्या?
अब उसकी बात
ही क्या उठानी?
अब उसकी
चर्चा ही क्या
करनी?
ध्यान
रखना, फल की
बहुत चर्चा
करने वाले
जितनी ऊर्जा
फल की चर्चा
में लगाते हैं,
उतनी ही
ऊर्जा कृत्य
में चूक जाती
है और उतना ही
फल विकृत हो
जाता है। फिर
जब फल विकृत
होता है, तो
एक दुष्टचक्र
शुरू हो गया।
दुबारा वे और
भी घबड़ा जाते
हैं, और भी
फल विकृत हो
जाता है।
तीसरी बार
संदेह पूरा हो
जाता है, फल
नष्ट हो जाते
हैं।
संदेह
से कभी किसी
ने सत्य के फल
नहीं काटे; श्रद्धा
से काटे हे
श्रद्धा
और निष्काम
भाव से जो
किया जाए वह
सात्विक तप है।
इसलिए
तपस्वी कुछ
मांगता नहीं।
वह यह नहीं
कहता कि
परमात्मा
वैकुंठ देना, कि
मोक्ष देना, कि स्वर्ग
में मकान
बिलकुल बगल
में देना। वह
कुछ भी नहीं
मांगता। वह
कहता है, वह
बात ही क्या
उठानी! वह
तेरी चिंता।
वह हम क्यों
फिक्र करें? तूने जन्म
दिया, तूने
जीवन दिया, तू श्वास
देता है। तूने
बिना मांगे
इतना दिया, बिना पूछे
दिया। हम
क्यों चिंता
करें कि तू और
देगा या नहीं
देगा? जितना
दिया है, उसे
जरा गौर से
देखो, श्रद्धा
का आविर्भाव
होगा। जो नहीं
दिया है, उस
पर ध्यान लगाओ,
संदेह का
आविर्भाव
होगा।
श्रद्धा
से भरा हुआ
कृत्य
सात्विक है।
और
जो तप सत्कार, मान
और पूजा के
लिए अथवा केवल
पाखंड से किया
जाता है, वह
अनिश्चित और
क्षणिक फल
वाला तप यहां
राजस कहा गया
है।
तुम
ऐसी भी
तपश्चर्या कर
सकते हो, जो
केवल सत्कार
के लिए हो।
तुम
प्रतीक्षा कर
रहे हो, कब
बैंड—बाजे
बजे! कब जुलूस
निकले! कब
शोभा—यात्रा
हो! तो तुम
उपवास कर सकते
हो लंबे।
लेकिन
प्रतीक्षा
बैंड—बाजों पर
लगी है।
बच्चे
हो। जिससे
स्वर्ग का
आनंद मिल सकता
था,
उससे तुम
बैंड—बाजे का
शोरगुल
सुनोगे। तुम
कुछ बहुत
होशियार नहीं
हो। तुम भला
कितना ही अपने
को समझदार समझ
रहे हो, मगर
चूक रहे हो।
जिससे वर्षा
हो सकती थी
आनंद की, उससे
सिर्फ थोड़े से
खुशामदी
मिलकर
तुम्हारी प्रशंसा
करेंगे। खतम
हो गई बात।
तुम चूक गए।
इतना मिल सकता
था, न
मांगते तो।
मांगा कि
क्षुद्र
मिलता है।
जिसका कोई भी
सार नहीं।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं,
क्षणिक फल
वाला तप........।
क्षणभर
को शोरगुल
होगा, लोग
चर्चा करेंगे,
बात खतम हो
जाएगी। लहर
उठेगी पानी पर,
मिट जाएगी।
बस इतना ही
सुख पाएगा
राजसी
व्यक्ति।
राष्ट्रपति
हो गए तुम; क्या
करोगे? लोग
आकर भेंट कर
जाएंगे, प्रसन्नता
हो जाएगी। और
दूसरे दिन ये
ही लोग
गालियां देने
लगेंगे और
पत्थर फेंकने
लगेंगे।
फूलमालाएं
पहना देंगे।
क्या, होगा
क्या? राष्ट्रपति
होकर तुम
पाओगे क्या? सिंहासन पर
बैठ जाओगे। तो
अपने घर की छत
पर ही एक
कुर्सी रखकर
बैठ गए ऊंचाई
पर। सारा
संसार नीचा कर
दिया। पाओगे
क्या? मिलने
को क्या है? मिलने को
कुछ भी नहीं।
क्षणिक
फल वाला........।
थोड़ा—सा
कुछ लहर उठेगी
चारों तरफ, खो
जाएगी।
तप, सत्कार
के लिए किया
जाए, मान
के लिए किया
जाए, पूजा
के लिए किया
जाए, या
केवल पाखंड से
किया जाए......।
पाखंड
का मतलब ही यह
है कि तुम
करना भी नहीं
चाहते थे, करने
का कोई भाव भी
नहीं था, कोई
श्रद्धा भी
नहीं थी कि
इससे कोई सार
होगा।
लोकोपचार के
लिए, लोग
धार्मिक
समझते हैं, कर देते हो।
मंदिर भी हो
आते हो, कभी
उपवास भी रख
लेते हो, कभी
व्रत भी कर
लेते हो।
लोगों को
दिखाने के लिए;
एक पाखंड
बना रहता है।
उससे
भी लाभ हैं।
पाखंड के लाभ
हैं,
इसलिए तुम
करते हो।
क्योंकि अगर
तुम धार्मिक
आदमी हो........।
मैंने
सुना है कि एक
दुकान थी सोने—जवाहरातों
की। उसके
मालिक ने अपने
नौकरों को बड़ी
कला सिखा रखी
थी। जैसे ही
कोई आदमी
प्रविष्ट
होता, उसने
पहले ही एक
मनोवैज्ञानिक
बिठा रखा था, जो जांच—पड़ताल
करे कि है भी
इसके पास कुछ
या नहीं! खीसे
में कुछ वजन
है, गर्मी
है? फिर
अगर दिखती
गर्मी, तो
वह उस आदमी को
देखकर कहता, हरि—हरि।
वह
भीतर हरि—हरि
कहता; वह कहता
कि है, लूटने
योग्य है। हरि—हरि।
हरि का मतलब
होता है, चोर,
चुराया जा
सकता है, हरण
किया जा सकता
है। हरि का
मतलब होता है,
हरण किया जा
सकता है।
लेकिन
वह आदमी बड़ा
प्रभावित
होता कि कैसी
दुकान है
साधुओं की। तो
दूसरे आदमी के
पास आता
काउंटर पर, वह
भी जांच—पड़ताल
करता, दिखाता
चीजें। कहता,
केशव—केशव।
वे सब संकेत
थे। उनकी लिपि
थी। जो हिसाब
लगाता, बिल
बनाता, वह
कहता, राम—राम।
वह यह कह रहा
है कि मरा, मरा।
वह सब कोड है
उनका।
मगर
वह आदमी यह
सोचकर कि कैसे
सात्विक
पुरुष लोग हैं, न
तो मोल— भाव
करता; क्योंकि
इनसे क्या मोल—
भाव करना! न
ठीक से देखता
कि ये हिसाब
में क्या लगा
रहे हैं। न यह
देखता कि ये
हीरे दिखा रहे
हैं और पत्थर
दे रहे हैं।
दिखा कुछ रहे
हैं, रख
कुछ रहे हैं।
मगर वहां
अहर्निश
परमात्मा के
नामों की गंज
चलती रहती।
पाखंड
का उपयोग है।
अगर तुम मंदिर
जाते हो, तो
तुम्हारी
दुकान में
सहायता मिलती
है। लोग सोचते
हैं, साधु
पुरुष है। झूठ
थोड़े ही
बोलेगा! जेब
थोड़े ही
काटेगा!
राम
चदरिया ओढ़े
बैठे हो तुम।
तो तुम चाहे
कसाई भी क्यों
न होओ, दूसरा
आदमी सोचेगा,
बेचारा राम
चदरिया ओढ़े
बैठा है। साधु
पुरुष है।
धन्यभाग जो
दर्शन हुए। और
वह छुरी छिपाए
है। मुंह में
राम बगल में
छुरी। छुरी को
छिपाना हो, तो मुंह में
राम बड़ा
उपयोगी है।
तो
कुछ हैं, जो पाखंड
के लिए कर रहे
हैं। कुछ हैं,
जो तप
सत्कार के लिए
कर रहे हैं, जिनकी आकांक्षा
है कुछ पाने
की, फल की।
उन्हें थोड़ा—सा
फल भी मिलेगा।
लेकिन वह फल
पानी पर बनी
हुई लकीर जैसा
होगा। इस तरह
के तप को राजस
कहा है। और
फिर ऐसे भी
हैं, जो
मूढ़तापूर्वक,
हठ से, मन,
वाणी और
शरीर को पीड़ा
के सहित अथवा
दूसरे का
अनिष्ट करने
के लिए कर रहे
हैं, वह तप
तामस कहा गया
है।
ऐसे
लोग भी हैं, जो
मूढ़तापूर्वक.।
जिद्दी
हैं,
हठी हैं, अकड़े हैं, दंभी हैं।
वे यह करके
दिखा रहे हैं
कि जो कोई
नहीं कर सकता,
वह हम करके
दिखा रहे हैं।
कीटों पर लेट
जाते हैं। वे
तुमसे यह कह
रहे हैं कि
तुम सब कायर
हो, हमको
देखो!
वैसे
वे मूढ़ हैं, क्योंकि
इससे कुछ
मिलने वाला
नहीं है। इससे
उतना भी नहीं
मिलने वाला है,
जितना राजस
को मिल जाता
है। क्योंकि
क्षणभंगुर
प्रतिष्ठा भी
मिल जाती है, क्षणभंगुर
मान—सम्मान भी
मिल जाता है।
वह भी मिलने
वाला नहीं है।
ज्यादा से
ज्यादा
राहगीर खड़े हो
जाएंगे और चले
जाएंगे कि ठीक
है।
मदारीगिरी से
ज्यादा क्या
इसका मूल्य हो
सकता है? लेकिन
मूढ़ व्यक्ति
भी तप कर सकते
हैं।
मेरे
अनुभव में ऐसा
आया कि मूड
व्यक्ति
जिद्दी होते
हैं। और
जिद्दी होने
के कारण कोई चीज
करना हो, तो
जिसको
सात्विक
वृत्ति का
व्यक्ति
मुश्किल पाए,
राजस
व्यक्ति भी
थोड़ा कठिन पाए,
मूढ़ बिलकुल
कठिन नहीं
पाता। मूढ़ को
कोई ऐसी चीज
करने को कह दो,
जिसमें कोई
सार भी न हो, सिर्फ उसके
अहंकार को पकड़
जाए, तो वह
कर लेता है।
तो इस तरह
मैंने अनुभव
किया है कि
अधिक तपस्वी
तीसरी कोटि के
होते हैं।
अब
एक आदमी दो
महीने तक
उपवास करता है।
इसे न तो
उपवास से पहले
कभी कुछ मिला, क्योंकि
यह बहुत बार
कर चुका है। न
इसके जीवन में
कोई ऊर्जा का
आविर्भाव हुआ,
न कोई
ज्योति जगी, न कोई धुन
बजी, न कोई
वीणा छिड़ी।
कुछ भी नहीं
हुआ है। लेकिन
फिर कर रहा है,
फिर कर रहा
है। यह जिद्दी
है, हठी है।
यह दुष्ट
प्रकृति का है।
यह दूसरे को
नहीं सता रहा
है, अपने
को ही सता रहा
है।
दुनिया
में दो तरह के
दुष्ट हैं। एक, जो
दूसरों को
सताते हैं। और
एक, जो
अपने को सताते
हैं। और ध्यान
रखना, पहले
तरह के दुष्ट
उतने खतरनाक
नहीं हैं।
क्योंकि
दूसरा कम से
कम अपनी रक्षा
तो कर सकता है।
दूसरे प्रकार
के दुष्ट बहुत
खतरनाक हैं, जो अपने को
सताते हैं।
वहां कोई
रक्षा करने
वाला भी नहीं
है।
अब
अगर तुम अपने
ही शरीर में
कांटे चुभाओ, तो
कौन रक्षा
करेगा? खुद
को ही भूखा
मारो, कौन
रक्षा करेगा?
अंग काट
डालो, आंखें
फोड़ लो, कान
फोड़ दो, कौन
रक्षा करेगा?
सडाओ अपने
को, कौन
रक्षा करेगा?
लेकिन
ये दूसरे तरह
के दुष्ट बड़े
तपस्वी हो जाते
हैं। इनके
जीवन में
सिवाय मूढ़ता
के कुछ भी
नहीं होता।
तुम कोई लपट न
देखोगे इनके
जीवन में
प्रतिभा की।
जाओ, काशी
की सड्कों पर
बैठे लोगों को
देखो।
तीर्थों में
तुम्हें इस
तरह के मूढ़
मिल जाएंगे।
तुम उनके
चेहरे पर
सिर्फ जघन्य
अंधकार पाओगे,
घनीभूत
अंधकार पाओगे।
उनकी आंखों
में तुम्हें
कोई ज्योति न
मिलेगी। तुम
उन्हें दुष्ट
पाओगे।
तुमने
कभी नागा
संन्यासी
देखे कुंभ के
मेले पर! ये
उसी तरह के
लोग हैं, जिस
तरह के लोग
अपराधी होते
हैं। इनमें—उनमें
कोई फर्क नहीं
है। और बड़े
मजे की बात है,
अपने अखाड़े
में तो वे
कपड़ा
पहनते हैं और
जब वे जुलूस
निकालते हैं, तब
वे नंगे हो
जाते हैं। और
भाला और छुरे
और तलवारें
लेकर चलते हैं।
तुम उनकी आंखों
में पाओगे, महापाप, घृणित
भाव, हिंसा,
मूढ़ता। और
खतरनाक हैं वे।
वे किसी भी
वक्त झगड़े के
लिए तैयार हैं।
कोई
बीस वर्ष पहले
कुंभ में जो
भयंकर उत्पात
हुआ,
वह उन्हीं
के कारण हुआ।
क्योंकि वे
किसी को पहले
स्नान नहीं
करने देते।
अहंकारी की
वही तो दौड़ है।
वे पहले स्नान
करेंगे। फिर
दूसरे कोई
व्यक्ति
प्रवेश कर
सकते हैं। और
दूसरे लोगों
ने प्रवेश
करने की कोशिश
की, तो
उपद्रव मच गया।
उसी उपद्रव
में सैकड़ों
लोग मरे।
साधुओं को जरा
गौर से देखना,
क्योंकि
उनमें तीन तरह
के साधु हैं।
नब्बे
प्रतिशत तो
उसमें सिर्फ
हठी हैं। हठ
ही उनका
गुणधर्म है।
इसलिए वे कुछ
भी कर सकते
हैं, यह
खयाल रखना।
क्योंकि हठी व्यक्ति
कुछ भी कर
सकता है।
उसमें से नौ
प्रतिशत तुम
पाओगे कि
राजसी हैं, जो मान—प्रतिष्ठा
के लिए कर रहे
हैं। कभी भूल
से तुम्हें वह
एक आदमी
मिलेगा, जो
सात्विक है।
जो उपवास कुछ
पाने के लिए
नहीं कर रहा
है, जिसका
उपवास आनंद है।
जिसका उपवास
परमात्मा के
निकट होने की
सिर्फ एक दशा
है।
फर्क
समझ लो।
सात्विक
व्यक्ति
उपवास करता है।
उपवास का अर्थ
है,
उसके पास
होना, आत्मा
के पास होना
या परमात्मा
के पास होना।
शब्द का भी
वही अर्थ है।
उसका भूखे
मरने से कोई
लेना—देना
नहीं है सीधा।
लेकिन जब
सात्विक
व्यक्ति उसके
निकट होता है,
तो शरीर को
भूल जाता है।
कुछ घड़ियों के
लिए न भूख
लगती है, न
प्यास लगती है।
भीतर ऐसी धुन
बजने लगती है।
जैसे तुम भी
कभी—कभी नृत्य
देखने बैठे हो,
कोई सुंदर
नर्तक नाच रहा
है; या कोई
गीत गा रहा है,
और गीत ऐसा
प्यारा है कि
धुन बंध गई, तारी लग गई; तो तीन घंटे
तुम्हें न भूख
लगती है, न
प्यास लगती है।
तुम सब भूल ही
जाते हो। जब
संगीत बंद
होता है, अचानक
तुम्हें पता
चलता है कि
पेट में तो
हाहाकार मचा
है, भूख
लगी है, कंठ
सूख रहा है।
इतनी देर तक
पता क्यों न
चला! ध्यान
लीन था।
सात्विक
व्यक्ति का
उपवास ऐसा है
कि उसका ध्यान
इतना भीतर
परमात्मा में
लीन होता है
कि वह भूल ही
जाता है, प्यास
लगी है, भूख
लगी है। जब
लौटता है अपने
ध्यान से, तब
भूख और प्यास
का पता चलता
है। इसलिए
उसका नाम
उपवास है, परमात्मा
के निकट वास।
राजस
व्यक्ति अनशन
करता है, उपवास
नहीं। अनशन का
मतलब है, उसकी
कोई चेष्टा है।
जैसे कि
मोरारजी
देसाई ने किया।
वह उपवास नहीं
है, वह
अनशन है। उसको
उपवास कहना
गलत है। उसके
पीछे
आकांक्षा है।
अब
मोरारजी
देसाई
सात्विक
उपवास कर भी
कैसे सकते हैं।
सारी चेष्टा
यह है कि अब यह
जिंदगी जा रही
है हाथ से और
प्रधानमंत्री
वे हो नहीं
पाए। डिप्टी
कलेक्टर से
शुरू हुए और
डिप्टी प्राइम
मिनिस्टर पर
अंत हो गए। वह
डिप्टी पीछा
कर रहा है
उनका। वे
डिप्टी से अब
घबडाए हुए हैं।
मरते वक्त तक
डिप्टी लिखा
रह जाएगा।
प्रमुख नहीं
हो पा रहे हैं।
और मरता क्या
न करता! अब वे
दाव पर लगा
देते हैं, कोई
भी क्षुद्र
बात हो।
अब
यह इतनी फिजूल
बात थी, जिसका
कोई अर्थ ही
नहीं है।
गुजरात में
चुनाव दो
महीने पहले
होते कि दो महीने
बाद, इसका कोई
भी अर्थ नहीं
है। कुछ लेना—देना
नहीं है।
लेकिन राजसी
हैं, राज
की आकांक्षा
है। कोई
महत्वाकांक्षा
है भारी। दौड़
लगी है।
मोरारजी का
उपवास उपवास
नहीं कहा जाना
चाहिए। वह
भाषा के साथ
व्यभिचार है।
गांधी के
उपवास भी
उपवास नहीं
हैं। क्योंकि
उसमें भी आकांक्षा
है। कभी उपवास
है अंबेदकर को
झुकाने के लिए।
कैसे उपवास हो
सकता है? हिंसा
है सीधी। अब
एक आदमी मरने
लगे, छोटी—सी
बातों पर मरने
लगे, तो
किसी को भी
लगता है कि
चलो।
इंदिरा
कोई झुकी नहीं
है मामले में, झुकने
का कोई कारण न
था। सिर्फ एक
मूढ़तापूर्ण
बात थी, जिसमें
एक आदमी नाहक
मरे और उलझन
पैदा हो, जिसमें
कोई सार नहीं।
ठीक है।
वही
अंबेदकर ने
किया, जब देखा
कि गांधी मरने
को ही उतारू
हैं, तो
अंबेदकर झुक
गया। मैं
मानता हूं कि
उसके झुकने
में ज्यादा
अहिंसा है।
उतनी अहिंसा
गांधी के
उपवास में
नहीं।
क्योंकि वह
चाहता तो अड़ा
रह जाता कि
नहीं झुकते, मरो, मर
जाना है तो।
क्या फर्क
पड़ता है!
अड़ा
रह सकता था
अंबेदकर। और
उससे संभावना
थी कि अड़ा रहे, क्योंकि
वह भी जिद्दी
आदमी था।
लेकिन वह झुक
गया। देखा कि
इतने मूल्य की
बात ही नहीं
है कि गांधी
की हत्या अपने
सिर पर ली जाए।
ठीक है।
गांधी
के उपवास भी
आकांक्षा से
प्रेरित हैं, उनके
पीछे परिणाम
हैं, वे
आग्रह हैं।
और
ध्यान रहे, जहां
आग्रह है, वहां
सत्याग्रह तो
हो ही नहीं
सकता।
सत्याग्रह
शब्द ही गलत
है, क्योंकि
सत्य का कोई
आग्रह नहीं
होता। ज्यादा
से ज्यादा
निवेदन हो
सकता है, आग्रह
क्या होगा? आग्रह का तो
मतलब ही यह है
कि ऐसा करना
पड़ेगा। नहीं
करोगे, तो
हम मरने को
तैयार हैं।
कुछ
लोग हैं, जो
कहते हैं, नहीं
करोगे, तो
हम मार
डालेंगे
तुम्हें। कुछ
लोग हैं, जो
कहते हैं, नहीं
करोगे, तो
हम मार
डालेंगे हमें।
मगर मारने की
जिद्द है।
हिंसा की हवा
पैदा करना है।
नहीं, राजसी
व्यक्ति कभी
भी उपवास नहीं
कर सकता।
गांधी इस बात
को समझते थे।
वे आदमी ईमानदार
थे। मोरारजी
तो समझते
होंगे कि
उपवास ही है।
न तो उतनी समझ
है गांधी जैसी,
न उतना ईमान
है। वे आदमी
ईमानदार थे।
इसलिए
लुई फिशर ने
गांधी के
संबंध में एक
लेख लिखा और
उसमें लिखा कि
गांधी एक ऐसे
धार्मिक
पुरुष हैं, जो
राजनीतिक होने
की जीवनभर
चेष्टा करते
रहे हैं। तो
गांधी ने
उत्तर दिया कि
गलती है बात।
मैं पुरुष तो
राजनीतिक हूं
धार्मिक होने
की चेष्टा
करता रहा हूं।
वे
ईमानदार हैं।
वे जानते हैं
कि सत्व नहीं
है उनका लक्षण; रजस
है। रजस यानी
राजनीति, सत्व
यानी धर्म। वे
जो भी कर रहे
हैं, वह
निष्काम नहीं
है, उसमें
कामना है। भला
कामना दूसरों
के हित के लिए
हो।
लेकिन
तुम कौन हो तय
करने वाले कि
दूसरे का हित
क्या है? और जब
तुम आग्रह करो
और कहो कि
तुम्हारे हित
में हम मरने
को खड़े हैं, अगर न मानी
हमारी तो हम
मर जाएंगे, तो तुम
दूसरे के गले
में फांसी लगा
रहे हो। यह फांसी
ठीक नहीं है।
मैंने
सुना है, एक
लफंगे ने एक
सुंदर स्त्री
के घर पर धरना
दे दिया और
उपवास कर दिया।
और उसने कहा, जब तक तुम
विवाह करने के
लिए राजी न
होओगी, आमरण
उपवास!
बड़ी
मुसीबत हो गई।
वह स्त्री भी
घबडाई, घर के
लोग भी घबडाए।
और वह बोरिया—बिस्तर
बांधे सामने
बैठा है। और
कहीं भी बैठ
जाओ बोरिया—बिस्तर
बांधकर, फोटोग्राफर
आ गए और अखबार
वाले आ गए। वे
तो इस उपद्रव
की तलाश में
हैं। समाचार
की सुर्खी मिल
गई। नेतागण आ
गए ट्रेड
यूनियनिस्ट आ
गए। उन्होंने
कहा, हड़ताल
करवा देंगे।
तुम बिलकुल
जमे रहो।
सरकार को
डांवाडोल कर
देंगे। यह तो
प्रेम का
मामला है; इसमें
तो आदमी........।
घबड़ा
गए घर के लोग।
दो दिन हड़ताल
चली। बड़ी
मुसीबत हो गई।
किसी समझदार
से,
किसी के से
जाकर पूछने गए,
अब क्या
करें? उसने
कहा, तुम
घबड़ाओ मत। मैं
रास्ता बताता
हूं। एक बूढ़ी
वेश्या है, जिसकी तरफ
अब कोई देखता
भी नहीं। तुम
उसको दस—पच्चीस
रुपया दे दो।
वह हड़ताल कर
दे इसके खिलाफ
आमरण, कि
जब तक तुम
हमसे विवाह न
करेगा, तब
तक..। उसका भी
बोरिया—बिस्तर
लगा दो।
तब
तो पूरे गांव
में तहलका मच
गया। उसने भी
बोरिया—बिस्तर
लगा दिया।
लफंगे ने देखा
कि यह तो
मुसीबत हो गई।
वह उसी रात
भाग गया।
तो
मोरारजी का
अनशन तुड़वाने
के लिए और कोई
उनसे भी
ज्यादा मरा
हुआ का आदमी
खोज लेना था, वह
ज्यादा सरल
बात थी कि वह
कहता कि हम मर
जाएंगे, अगर
तुमने अनशन न
तोड़ा। फिजूल
की बकवास है।
लेकिन राजस
चित्त कुछ
पाने के लिए, आकांक्षा
के लिए, फल
के लिए उत्सुक
है।
और
तीसरा जो है, वह
तो सिर्फ
मूढ़तावश करता
है। उसके मन
में तो सिर्फ
हिंसा और
अज्ञान है।
हठ
से,
मन, वाणी
और शरीर को
पीड़ा
पहुंचाकर........।
वह
अपने को कष्ट
पहुंचाता है।
या ज्यादा से
ज्यादा उसकी आकांक्षा
होती है, तो
दूसरे का
अनिष्ट करने
की होती है।
मैंने
सुना है, एक
बड़ी पुरानी
कहानी है
पंचतंत्र में,
कि एक आदमी
को निरंतर
भक्ति करने से
कोई देवता
प्रसन्न हो
गया। और उसने
कहा, माग
ले, तू जो
भी मांगता हो।
तो उसने कहा, जो भी मैं
मांगूं कभी भी
वह मुझे मिले,
यही मैं
मांगता हूं।
होशियार आदमी
रहा होगा, गणितज्ञ
रहा होगा, एक
मांग में खतम
हो जाएगी बात,
तो उसने कहा
कि मैं यही
मांगता हूं कि
जो भी कभी
मांगूं वह
मुझे मिल जाए।
देवता
ने देखा कि यह
तो चालाकी कर
रहा है। वरदान
एक दिया था, इसने
तो करोड़ मांग
लिए, अनंत
मांग लिए।
देवता ने कहा,
वही देता
हूं लेकिन
सिर्फ एक शर्त
है, कि जो
तुझे मिलेगा,
वह तेरे
पड़ोसियों को
दुगना होकर
मिलेगा।
बस, बात
खतम हो गई। अब
वह आदमी बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया। यही
तो मूढ़ आदमी
की दिक्कत है।
उसको खुद से
कोई मतलब नहीं
है। खुद को
चाहे दुख भी
मिले तो चलेगा,
किसी को सुख
न मिल जाए।
अब
वह बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया। उसने
मांगा महल।
महल तो बन गया।
लेकिन दुगने
बड़े महल
पड़ोसियों के
बन गए। वह फिर
नीचे के नीचे
रह गया। उसने
कहा,
यह तो कोई
सार न रहा।
इससे तो झोपड़ा
ही बेहतर था।
फल क्या है
इसका! उसने
मांगा धन, दुगना
धन पड़ोसियों
के घर में बरस
गया। उसने कहा,
ऐसे नहीं
चलेगा। यह
देवता तो चालाकी
कर गया।
तो
उसने कहा, मेरी
एक आंख फोड़।
उसकी एक फूटी;
पड़ोसियों
की दोनों फूट
गईं। उसने कहा,
अब मेरे घर
के सामने एक
बड़ा कुआं बना
दे। उसके घर
के सामने एक कुआं
बना, पड़ोसियों
के घर के
सामने दो बन
गए।
अब
उसको तृप्ति
हुई। खुद की आंख
गई,
उसकी कोई
चिंता नहीं।
अब तृप्ति हो
गई कि अंधे
कुओं में
गिरेंगे।
जाएंगे कहां?
सारा पड़ोस
अंधा हो गया, दो—दो कुएं
हर घर के
सामने हो गए।
अब उसको शांति
हुई।
वह
जो मूढ़ चित्त
का व्यक्ति है, उसको
अपने सुख में
रस नहीं होता।
उसका एक ही
सुख होता है
कि दूसरों को
वह कितना दुखी
करे।
और
बहुत बार
तुम्हारे
भीतर भी वह
स्वर होता है।
तुम्हें इसकी
फिक्र नहीं
होती कि
तुम्हें कितना
मिल रहा है, तुम्हें
इसकी फिक्र
होती है कि
पड़ोसी को कितना
मिल रहा है।
अगर उसको कम
मिल जाए, तो
तुम्हें
जितना मिल रहा
है, उतने
में भी सुख
मालूम पड़ता है।
उसको ज्यादा
मिल जाए और
तुम्हें भी
ज्यादा मिल
जाए, तो भी
रस नहीं मालूम
होता, क्योंकि
उसको भी
ज्यादा मिल
गया।
मूढ़
चित्त दूसरे
को दुख देने
में अपना सुख
मानता है। यह
तमस का लक्षण
है। राजस
व्यक्ति अपने
को सुख देने
में सुख मानता
है। सत्व का
व्यक्ति दूसरे
को सुख देने
में सुख मानता
है।
और
तुम्हारे
जीवन की सारी
गतिविधियां
इन तीन हिस्सों
में बंटी हैं।
और अपनी हर
गतिविधि का
गौर से
निरीक्षण
करना। वह सत्य
है,
रजस है या
तमस है? और
चेष्टा करना
तमस से रजस
में उठने की, रजस से सत्व
में उठने की।
अगर
कोई
स्वाध्यायपूर्वक
अपनी
वृत्तियों का, अपनी
दृष्टियों का,
धारणाओं का,
मनोभावों
का ठीक—ठीक
अध्ययन करता
रहे, तो उस
अध्ययन से ही
तुम्हारे
भीतर सीढ़ियां
लग जाएंगी। और
जैसे—जैसे तुम
सत्य के करीब
आते हो, वैसे—वैसे
श्रद्धा के
करीब आते हो।
जैसे—जैसे
सत्य के करीब
आते हो, वैसे—वैसे
भगवत्ता के
करीब आते हो।
भगवान
दूर नहीं है।
उतना ही दूर
है,
जितनी
तुम्हारे
जीवन की दूरी
सत्व से है।
वह दूरी तुम
पूरी कर लो, भगवान बरस
जाता है। कबीर
ने कहा है, गगन
घटा घहरानी
साधो!
साधुओ!
आकाश में
परमात्मा की
घटा गहन हो गई।
क्योंकि
श्रद्धा का
जन्म हुआ है, क्योंकि
सत्व की
उपलब्धि हुई
है।
आज
इतना ही।
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