पुणे
शहर के नजदीक
ही स्थित
प्रकृति के
सुंदर माहौल
में सासवड
की लंबी— चौड़ी
जमीन आश्रम के
लिए बहुत
उपयुक्त थी।
हम सभी मित्र
इस स्थल को
सुंदर से
सुंदर और जल्दी
से जल्दी
विकसित करने
में पूरी
मेहनत कर रहे
थे। यह तो
स्पष्ट ही लग
रहा था कि
पुणे में जगह
बहुत छोटी पड़ने
वाली है, और
दुनिया भर से
मित्रों का
आने का प्रवाह
बढ़ता ही जा
रहा था। सासवड
में चारों तरफ
निर्माण काम
अपनी पूरी
तेजी पर था।
लेकिन
स्थानीय
लोगों द्वारा
और राजनैतिक
पार्टियों
द्वारा विरोध
भी बढ़ता जा
रहा था।
कितने
आश्चर्य की
बात है कि जब
बुद्ध शरीर में
हों और वे
संपूर्ण मानव
जाति के लिए
बहुत उपयोगी
हो सकते हैं
तब अधिकांश
लोग उनका
विरोध करते
हैं, उनके
काम में हर
तरह का अवरोध
पैदा करते हैं
और एक बार जब
वे चले जाते
हैं तो उन्हीं
के आसपास
विश्व प्रसिद्ध
तीर्थों का
निर्माण कर
लेते हैं। यह
सिलसिला हर
बुद्ध के साथ
चलता आ रहा था
और ओशो भी
उसमें अपवाद
नहीं थे।
सभी
तरह के
विरोधों के
बीच हम अपनी
पूरी लगन से
अपना कार्य
जारी रखे थे।
इधर
पुणे में भी
ओशो का विरोध बढ़ता
जा रहा था।
जैसे—जैसे
पूरे संसार से
लोगों का आना
बढ़ता जा रहा
था वैसे—वैसे
स्थानीय स्तर
पर समस्याएं
बढ़ती जा रही थीं।
और फिर ओशो की
ललकार तो पूरे
परवान पर थी।
हर आयाम से
ओशो पूरी
दुनिया के हर
स्थापित शक्ति
संगठन पर चोट
किये चले जा
रहे थे। जितनी
ओशो की चोट
बढ़ती उतनी ही
तिलमिलाहट
बढ़ती। किसी के
पास ओशो की
बातों का जवाब
नहीं था। जो
ओशो कह रहे थे
वह इतना
स्पष्ट व सत्य
था कि हर
प्रतिभावान
व्यक्ति को
उनकी बात समझ
आ रही थी।
संसार के सभी
धर्मों के लोग
ओशो के पास आ
रहे थे।
स्वाभाविक ही
पंडित—पुजारियों
की तो नीवें
हिल चुकी थीं।
उन्हें समझ
नहीं आ रहा था
कि इस सत्य की
आधी को रोका
कैसे जाए। और
ओशो की बातें
इतनी तार्किक
थीं कि उसका
विरोध किया भी
नहीं जा सकता
था। ऐसे में
तरह—तरह के बेबुनियादी
आरोप और निंदा
बढ़ती चली गई।
जितना विरोध
संसार भर में
बढ़ रहा था
उसका असर स्थानीय
स्तर पर भी आ
रहा था।
पुणे
शहर के बीच
स्थित आश्रम
को इन विरोधों
से बचाना और
ओशो के जीवन
को सुरक्षित
रखना बहुत बड़ी
चुनौती बनती
जा रही थी।
ओशो पर एक जान
लेवा प्रयास
हो चुका था।
इधर ओशो का
स्वास्थ्य भी
उतना अच्छा
नहीं हो पा
रहा था जितना
कि होना चाहिए।
हर तल पर
चिंता और
असुरक्षा
बढती जा रही
थी। ओशो पूरा
प्रयास कर रहे
थे कि शहर से
दूर कहीं बडी
जगह पर बड़ा
कम्यून
स्थापित किया
जाए। इस हेतु
देश भर में
विभिन्न
जगहें देखी जा
रही थीं लेकिन
जैसे ही लोगों
को पता चलता
कि ओशो उस तरफ
आ सकते हैं
विरोध चल
निकलता। ओशो
इसे बहुत
स्वाभाविक
मानते।
इन्हीं
चुनौतियों के
बीच हमें अपना
काम जारी रखना
था।
यह
समय था जब हर
प्रकार के
विकल्प पर
सोचा—विचारा
जा रहा था। जो
भी श्रेष्ठ
विकल्प हो उस
दिशा में काम
करने की पूरी
तैयारी थी।
ऐसे समय में
कुछ मित्रों
ने ओशो को
विदेश जाने की
सलाह दी।
इसमें शीला का
निवेदन सबसे
अधिक था। शीला
कम्यून का काम
संभाल रही थी।
वह अमेरीका
से ही आई थी।
उसे अमरीका के
बारे में
पर्याप्त
जानकारी थी।
ओशो स्वयं भी
यह मानते रहे
थे कि अमरीका
में अधिक
स्वतंत्रता
है,
और लोग अधिक
जागरुक हैं।
वहां ओशो को
अपना काम करने
में अधिक
आसानी होगी।
इन्हीं
सभी पहलुओं पर
सोच—विचारने
के बाद ओशो का
अमरीका जाना
तय हुआ। इस
बात को अंतिम
समय तक गुप्त
रखा गया था कि ओशो
भारत से बाहर
जा रहे हैं।
जिस दिन ओशो
की गाडी आश्रम
से बाहर जा
रही थी हम कुछ
मित्रों को यह
जानकारी थी कि
ओशो अमरीका जा
रहे हैं। समय
ऐसा था कि कुछ
पता नहीं चल
रहा था कि जो
भी हो रहा है
वह ठीक है या
गलत। जहां एक
ओर ओशो के
स्वास्थ्य और
उनके काम की चिंता
थी तो दूसरी
तरफ भारत से
बाहर जाने का
मतलब अधिक
असुरक्षा में
जाना था। मन
में बहुत उथल—पुथल
मची थी। जब
ओशो पुणे से
चले गये, भारत
से चले गये......पीछे
रह गया आश्रम,
पीछे रह गए
हम......एक तरफ खुश
भी कि ओशो का
अच्छा इलाज हो
पाएगा, लेकिन
साथ ही विचलित
भी कि अब हम सब
किस दिशा में
जाने वाले हैं।
एक अनजाने से
मोड़ पर हम खड़े
थे। उस समय
जरा भी पता
नहीं था कि यह
अमरीका प्रवास
क्या कुछ
दिखाने वाला
है।
आज
इति।
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