जब ओशो
ने पुणे आश्रम
छोड़ दिया तो
जैसे—जैसे
मित्रों को
पता लगता गया
सभी अपने—अपने
देश या घर
लौटने लगे।
जिस जगह पर
ओशो के आसपास
दुनिया भर से
आए मस्त—मौला
संन्यासियों
से हर पल
उत्साह, उमंग,
उत्सव जारी
रहता था, वहां
अब लोग धीरे—
धीरे विदा हो
रहे थे। कुछ
ही दिनों में
पुणे आश्रम
वीरान सा हो
गया। चारों
तरफ खाली—खाली,
सन्नाटा।
जहां
दिन दुगना रात
चौगुना विकास
हो रहा था, निर्माण
हो रहा था, वहां
अब चीजें बंद
होने लगीं, सब कुछ
समेटा जाने
लगा। यह तय
हुआ कि अब
पुणे आश्रम को
सीमित कर दिया
जाए।
जब अधिक
लोग यहां
रहेंगे ही
नहीं तो इतना
कुछ जमावड़ा
किस काम का।
यही सोच कर जितनी
भी चीजें थीं
वे बेचनी
शुरू कर दीं।
बुद्धा हॉल
में चीजें
लाकर इकट्ठा
रखते और खरीददार
आकर उन्हें ले
जाते।
एसी, बिजली
के सामान, फर्नीचर,
लकड़ियां,
यहां तक
संगमरमर भी
निकाल— निकाल
कर बेचना शुरू
हुआ। सब
बिक्री होने
लगा। यह सब
नजारा मैं
अपनी आंखों से
देखता था।
रोना भी आता
था कि यह सब
क्या हो गया।
सब का दामन पकडे
अपने को
समझाता। इस
तरह धीरे—
धीरे आश्रम का
कारोबार ठंडा
होने लगा, विदेशी
अपने देशों
में चले गए, भारतीय
मित्र अपने
घरों को लौट
गए। सासवड
का प्रोजेक्ट
ठप्प हो गया।
सब तरह का
कामकाज बंद हो
गया।
मां
मृदुला
और उनके दो
बच्चे आश्रम
की देख रेख
करने लगे।
धीरे— धीरे
फिर छोटे स्तर
पर आश्रम .में
गतिविधियां
होने लगीं।
ध्यान—साधनाएं
व सभी उत्सव
मनाने लगे। हर
उत्सव पर भारत
भर से एक—डेढ़
हजार मित्र आ
जाते। आश्रम
में फिर से
हलन—चलन होने
लगी। मन को
अच्छा लगता कि
चलो आश्रम बच
गया,
उसके
पुनर्निर्माण
में हम सभी
लगे रहे। बाद
में जयंती भाई
आश्रम को
संभालने लगे।
मैं कंधे से
कंधा मिलाकर
काम में सहयोग
करने लगा।
जयति भाई को
खयाल आया कि सासवड़ को
फिर से बनाया
जाए। मैं सासवड़
गया वहां देखा
सब खंडहर हो
गया था हम फिर
से उसके
पुनर्निर्माण
में लग गए।
आज
इति।
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