ओशो
से मिलने के
बाद। अपना
सारा काम छोड़
कर उनके कार्य
में पूरी तरह
से संलग्न
होने के बाद, कुछ
भी ऐसा शेष
नहीं बचा
जिसके बारे
में सोचूं या
उसे समय दूं।
ओशो व उनका
कार्य ही पूरी
तरह से मेरी
अपनी दुनिया
हो गई। ओशो जब
भारत से बाहर
चले गये और
पुणे का आश्रम
धीरे— धीरे
सिमटने लगा तो
हर समय यही
खयाल बना रहता
कि अब क्या? यही सोच बनी
रहती कि ओशो
कहां अपना नया
कम्यून शुरू
करते हैं, वहीं
फिर चले
जाएंगे।
इसी
बीच उधर
अमरीका से
खबरें आने लगी
ओशो ओरेगॉन
चले गये हैं।
वहां पर बहुत
बड़ी जमीन ले
ली गई है और
वहां पर कम्यून
की स्थापना हो
रही है। ये
खबरें बहुत
प्रसन्नता
देतीं और बहुत
राहत मिलती कि
ओशो स्वस्थ
हैं,
उनका कार्य
बडे पैमाने पर
शुरू होने
वाला है, उनका
कम्यून बनाने
का सपना साकार
होने वाला है
और हम भी उसी
दुनिया में
ओशो के पास जा
पाएंगे।
अमरीका
में बन रहे
रजनीशपुरम्
की खबरें सुन
कर मन होता कि
जल्दी से
जल्दी वहां
जाया जाए।
लेकिन मा शीला
का पत्र आया
कि यदि आप
यहां आना चाहते
हैं तो नौ लाख
रुपये जमा
करवाकर यहां आ
सकते हैं।
मैंने सोचा यह
भी खूब रही।
मैं तो अपना
सारा कारोबार
व धन कमाने के
स्रोत छोड़ आया
था। इतना
रुपया कहां से
लाऊं और फिर
परिवार था, अपनी
जिम्मेदारियां
थीं। इतनी बड़ी
धन राशि
जुटाना इतना
आसान नहीं था।
मैंने सोचा कि
ओशो अमरीका
क्या गये वहां
का असर ही पड़
गया दिखता है।
इस
खबर से मन
दुखी तो हुआ
लेकिन कहीं
दिल में भरोसा
भी था कि ओशो
कुछ न कुछ
जरूर करेंगे।
लेकिन कुछ ही
दिन बीते कि
मुझे खबर मिली
कि अब आना हो
तो इक्कीस लाख
रुपये देने
होंगे। मैंने
सोचा यह तो और
भी मुश्किल हो
गया। तब मुझे
लगा कि अब
बैठे रहने से
बात नहीं बनेगी।
एक बार अमरीका
जाकर स्वयं
ओशो से मिलता
हूं। और इस
तरह मैं
अमरीका पहुंच
गया। कम्यून
को देखा तो मन
प्रसन्न हो
गया। बहुत ही
प्यारा बना
हुआ था। वहां
जाकर देखा कि
ओशो तो मौन
में हैं और
किसी से मिलते
भी नहीं हैं, बात
नहीं करते हैं।
वहां कई दूसरे
मित्र मिले
जिन्होंने
बताया कि ओशो
तो मिलते भी
नहीं है, बात
भी नहीं करते
हैं। मैंने
सोचा कि अब
क्या होगा। जब
वे किसी से
नहीं मिल रहे
हैं तो मैं
किस खेत की
मूली हूं।
एक
दिन अचानक
शीला मेरे
कमरे में आई
और बोली कि
स्वभाव आज शाम
को ओशो से
मिलना है तो
तैयार रहना पर
किसी को बताना
मत। मेरी खुशी
का तो कोई ठिकाना
नहीं रहा, ओशो
से मिलना होने
वाला है, उनके
पास जाना हो
रहा है, उनसे
बात करने का
मौका मिलने
वाला है, मैं
अपने जीवन में
शायद ही इतना
उत्साहित कभी रहा
होऊंगा, जितना
उस दिन हो रहा
था।
आखिर
शाम को शीला
फिर आई और
मेरे को ओशो
से मिलाने के
लिए ले चली।
मेरा दिल धक, धक,
धक कर रहा
था। चार—पांच
कमरों से होते
हुए हम आखरी
कमरे में पहुंचे
जहां ओशो
विराजमान थे।
ओशो को देख कर
मन गदगद हो
गया। चरण
स्पर्श करने
के बाद जब
बैठा तो ओशो
ने पूछा, 'स्वभाव
आने में बड़ी
देर कर दी?' मैंने
कहा, 'प्रभु,
नौ लाख
रुपये मांगे
गये थे, तो
इतने रुपयों
का इंतजाम
करना मेरे लिए
संभव नहीं हो
रहा था।’ ओशो
बोले, 'मैंने
कब कहा रुपयों
के लिए?' शीला
वहीं मौजूद थी।
मैंने उसकी
तरफ इशारा
करके बताया कि
शीला का पत्र
आया था। तब शीला
ने बताया कि ' मैंने तो
इसलिये लिख
दिया था कि
स्वभाव के पास
होंगे तो यहां
काम आ जाएंगे।’
इस तरह यह
बात खतम हो गई।
ओशो
का भारत से
यहां आ जाना, पुणे
आश्रम का
सीमित हो जाना,
रजनीशपुरम्
आने के लिए
बड़ी धन राशि
की मांग.. .जैसे—तैसे
यहां पहुंचे
तो पता चला कि ओशो
तक पहुंचना
लगभग
नामुमकिन.. .इन
सब बातों ने
बहुत दिल तोड़
दिया था। मन
में गुस्सा भी
आ जाता, घुटन
भी होती, कभी—कभार
नकारात्मकता
भी आ जाती... और
अब ओशो के सामने
बैठा हूं तो
सब पिघल गया।
ओशो
ने निर्वाणो
को बोला कि 'स्वभाव
के लिये कैप
लाओ।’ वो
कुछ ही देर
में बहुत सारी
कैप ले आई।
तरह—तरह की
कैप्स मुझे
पहना कर देखी
गईं। फिर एक
कैप ओशो को
पसंद आई। इतना
होते—होते मैं
ओशो के प्रेम
से सराबोर हो
गया, सारी
पीड़ा, घुटन,
नकारात्मकता
पल में जैसे
छू मंतर हो गई।
ओशो के प्रेम
और करुणा के
आशीर्वाद से
मैं भीग गया।
ओशो ने शून्यों
को बोला कि ' कल स्वभाव
को हवाई जहाज
से सारी जगह
दिखाओ और जहां
हवाई जहाज
नहीं जाता
वहां कार से
लेकर जाओ।’ दूसरे दिन
मुझे निजी
हवाई जहाज से
पूरे रजनीशपुरम्
का भ्रमण
कराया।
दुनिया भर से
आए ओशो
प्रेमियों के
अथक प्रयास
सवा सौ एकड़
जमीन पर फलते—फूलते
कम्यून को
आकाश में उड़ते
देखना अपने
आपमें एक रोचक
अनुभव था।
इतनी ऊंचाई से
जहां तक नजर
जाए वहां तक
कम्यून का
विस्तार, निश्चित
ही मन को बहुत
भला लगा।
ओशो
का हमेशा सपना
रहा है कि
उनका अपना एक
संसार हो जहां
वे अपने लोगों
के साथ पूरी
स्वतंत्रता
से जी सकें।
बाहर के जगत में
रहते बाहरी
दबावों और
परेशानियों
से अपने को
बचाने बहुत
शक्ति जाया
होती है, उससे
बचा जा सके और
सारी ऊर्जा को
उन लोगों पर खर्च
किया जा सके
जो रूपांतरण
की तैयारी
दिखाते हैं।
एक हंसता, नाचता,
गाता, सृजनात्मक,
ध्यानी
संसार जो पूरे
विश्व के लिए
एक मॉडल बन
सके कि जीवन
हर पल इतना
उत्सवपूर्ण व
आनंद से भरा हो
सकता है।
रजनीशपुरम्
की जगह तो
बहुत बड़ी थी
पर पूरी तरह
से बंजर, कहीं
हरियाली का
नामोनिशान तक
नहीं। मैं देख
कर दंग रह गया।
जब अगले दिन
ओशो से फिर
मिलना हुआ तो
उन्होंने
पूछा कि ' कैसी
लगी जगह?' मैंने
कहा, 'आपने
पसंद की है तो
सुंदर ही होगी
और उपयोगी
होगी, लेकिन
कहीं हरियाली
दिखाई नहीं दी।
पूरी तरह से
जगह तो बंजर
है।’ ओशो
ने मेरी बात
सुन ली।
रजनीशपुरम्
प्रवास के
दौरान मैं भी
वहां कार्य
करने लगा। एक
अंतरराष्ट्रीय
स्तर का बहुत
ही सुंदर कम्यून
का निर्माण
तेज गति से हो रहा
था। पूरी
दुनिया से आए
हजारों—लाखों
मित्र अपनी—अपनी
कला,
सृजन व श्रम
का भरपूर
योगदान दे रहे
थे। प्रेम, शांति व
ध्यान की
ऊर्जा से
लबालब इतना
विशाल कम्यून
इतनी तेज गति
से फलफूल रहा
था कि बस मन आनंदित
हो जाता।
लेकिन इसी के
साथ स्थापित
धर्मों, राजनेताओं
व स्थानीय
लोगों का
विरोध भी तेज
हो रहा था।
वहां हमारी एक
मित्र थीं।
उसने बड़ी अजीब
बात कही कि यह
जगह भी ज्यादा
नहीं चल
पायेगी। इतना
विरोध हो रहा
है, इतने
दबाव बने हैं
कि यह जगह भी
उजड़ जाएगी।
मैं कुछ समय
बाद वापस भारत
आ गया।
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