मन गोरख मन गोविन्दौ—(प्रवचन—दूसरा)
दिनांक: 12 नवंबर, 1974;
श्री
ओशो आश्रम, पूना.
सूत्र:
मन
माया तो एक है, माया मनहिं
समाय।
तीन
लोक संशय पड़ा, काहिं कहूं समुझाय।।
बेढ़ा
दीन्हों खेत
को, बेढ़ा खेतहि खाय।
तीन
लोक संशय पड़ा, काहिं कहूं समुझाय।।
मन जानै सब
बात, जानत ही औगुन करै।
काहे
की कुसलात, कर दीपक कुंबै
पड़ै।।
मन
सागर मनसा लहरि, बूड़ै बहुत
अचेतन।
कहहिं
कबीर ते बांचि
हैं, जिनके
हृदय विवेक।।
मन
दीया मन पाइये, मन बिन मन
नहिं होइ।
मन
उन्मन उस अंड ज्यूं, अनल अकासां
जोइ।।
मन
गोरख मन गोविन्दौ, मन ही औघड़
होइ।
जे
मन राखै जतन
करि, तो आपै करता
सोइ।।
तन
के जोगी सब करै, मन को करै
न कोई।
मन
ऐसो निरमल
भया, जैसा
गंगा गीर।
पाछे—पाछे
हरि फैर, कहत
कबीर—कबीर।।
मन
माया तो एक है, माया मनहिं
समाय।
तीन
लोक संशय पड़ा, काहिं कहूं समझाय।।
जैसा
मैंने कल कहा, माया कोई
ब्रह्म के साथ
जुड़ा हुआ
दार्शनिक सिद्धांत
नहीं है, वरन
प्रत्येक
मनुष्य के मन
के साथ जुड़ी
प्रक्रिया
है। माया कोई अण्टालाजिकल,
कोई
सत्तात्मक
बात नहीं है, साइकोलाजिकल,
मनोवैज्ञानिक
बात है। इसलिए
जो माया के
सिद्धांत के
संबंध में
शास्त्रों की
खोज करते
रहेंगे, सिद्धांत
को जमाते
रहेंगे, तर्क
और विचार करते
रहेंगे, वे
माया को जानने
से चूक जाएंगे
और जो माया को ही
न जान पाया, वह ब्रह्म
को कैसे जान
पाएगा? जो
भ्रम को ही न
समझा, वह
सत्य कैसे
समझेगा? जिसने
ठीक से अंधेरे
को न पहचाना, उसके आलोक
को पहचानने का
भरोसा नहीं।
भूल को ठीक से
जान कर ही
व्यक्ति सत्य
के निकट
पहुंचता है।
जैसे—जैसे
असत्य की
पहचान बढ़ती है,
वैसे—वैसे
करीब आता है।
और रास्ता
नहीं है।
असत्य को
भलीभांति
पहचान लेना कि
असत्य है——और
सत्य के द्वार
खुल जाते हैं।
सबसे
पहली बात
पहचानने की
है: भूल क्या
है, संशय
कहां है, भ्रांति
कहां हुई है, भटके कहां
हैं।
मंजिल
की फिकर छोड़ो, भटकन को ठीक
से समझ लो, मंजिल
सामने आ जाती
है। मत चिंता
करो कि सत्य क्या
है। तुम जान
भी न सकोगे
सत्य अभी। कोई
उपाय नहीं है
सत्य को जानने
का, जब तक
असत्य के साथ
तुम जुड़े हो।
जब तक तुम असत्य
हो, सत्य
को कैसे जान
पाओगे? और
स्वयं के भीतर
सत्य को पाने
की क्या विधि
है? असत्य
को पहले
पहचानना
पड़ेगा।
तुम
जाते हो एक
चिकित्सक के
पास। वह इसकी
फिकर करता कि
स्वास्थ्य
क्या है, वह
इसकी चिंता
करनी है कि
बीमारी क्या
है। वह इस बात
की फिकर करता
है कि बीमारी
कहां है। वह
बीमारी का
निदान करता
है। स्वास्थ्य
की चिंता करना
व्यर्थ है, बीमारी का
ठीक निदान हो
जाए, बीमारी
पकड़ में आ जाए,
तो बीमारी
को नष्ट किया
जा सकता है।
और जब बीमारी
नहीं रह जाती,
तो जो शेष
बचता है वही
स्वास्थ्य
है। स्वास्थ्य
को सीधे पकड़ने
का कोई उपाय
नहीं है।
इसलिए तुम
सारे शास्त्र
देख डालों
दुनिया में
चिकित्सा के,
स्वास्थ्य
की कोई
परिभाषा न
पाओगे।
स्वास्थ्य की
कोई परिभाषा
हो भी नहीं
सकती। शब्दों
में बंधने का
उसे कोई उपाय
भी नहीं है।
स्वास्थ्य
शब्द बड़ा
महत्वपूर्ण
है। उसका अर्थ
है: स्वयं में
जो स्थिति हो
गया। आत्मस्थिति
का नाम
स्वास्थ्य
है। अपने से
जो भटक गया, उसका नाम
अस्वास्थ्य
है। जो खुद के
केंद्र से च्युत
हो गया वह
बीमार है, और
जो खुद के
केंद्र पर
वापस लौट आया,
वह स्वस्थ
है। स्वस्थ
यानि स्व—स्थिति।
लेकिन स्थित
होना हो तो
पहचानी पड़ती है
बीमारी।
निदान
स्वास्थ्य का
नहीं होता है,
रोग का होता
है। इलाज
स्वस्थ का
नहीं होता, रोग का होता
है। और जब रोग
नहीं होता, जब रोग
शून्य हो जाता
है, तब तुम
निरोग हो जाते
हो, तब तुम
स्वस्थ हो
जाते हो।
ब्रह्म
को पाने का
कोई उपाय नहीं
है। ब्रह्म तो
परम
स्वास्थ्य
है। माया को समझने
का उपाय है, वह बीमारी
है। और जैसे—जैसे
निदान साफ
होता जाए, जैसे—जैसे
तुम्हारी
आंखों माया को
पहचानने लगें,
वैसे—वैसे
माया तिरोहित
होने लगेगी।
एक बात
और समझ लेना।
चिकित्सक को
तो निदान भी करना
पड़ता है, फिर
इलाज करना
पड़ता है।
लेकिन आत्मा
की चिकित्सा
में निदान ही
इलाज है, निदान
ही उपचार है।
ठीक से पहचान
लिया, मुक्त
हुए, और
कोई अलग से
औषधि को जरूरत
नहीं है।
क्योंकि यह
बीमारी केवल
भ्रांति की
है। यह ऐसे ही
है, जैसे
दूर रास्ते पर
तुम आते हो
अंधेरे में, राह के
किनारे लगा
हुआ एक वृक्ष
का ठूंठ तुम्हें
लगता है कोई
आदमी खड़ा है, चोर—डाकू
खड़ा है। तुम
जैसे—जैसे
करीब आते हो
वैसे—वैसे
भ्रांति
मिटने लगती
है। और अगर
तुम्हारे हाथ
में दीया हो, तो तुम जान
लोगे कि ठूंठ
है। फिर क्या
तुम यह पूछोगे
कि वह जो मेरी
भ्रांति थी, कि आदमी खड़ा
है, जब
उससे कैसे
छुटकारा पाऊं?
नहीं, ठूंठ
को पहचान लेने
से ही, वह
जो आदमी होने
की भ्रांति
होती थी उससे
छुटकारा हो
गया।
असत्य
को ठीक से जान
लेना, सत्य
को पा लेने का
मार्ग है।
मार्ग भी नहीं,
सत्य को पा
ही लिया, जिसने
असत्य को
पहचान लिया।
इसलिए पहले
माया की बात
कर रहे हैं कि
माया क्या है।
पहला
सूत्र:
मन
माया तो एक है, माया मनहिं
समाय।
तीन
लोक संशय पड़ा काहिं
कहूं समझाय।।
और
माया के संबंध
में इतने
सिद्धांत गढ़े
गए कि भारत का
पूरा अतीत—इतिहास
माया के संबंध
में
सिद्धांतों
से भरा है।
इसलिए
कबीर कहते हैं, तीन लोक
संशय पड़ा, काहिं
कहूं समुझाय।
किसको
समझाएं? लोग
बड़ी चर्चा कर
रहे हैं। बड़े
तत्व विचार कर
रहे हैं, माया
के बड़े
सिद्धांत गढ़
रहे हैं।
तुम्हारा
सिद्धांत गलत
और मेरा ठीक, इसके लिए
बड़े तर्क जुटा
हैं, शास्त्रों
का उल्लेख कर
रहे हैं।
किसको समझाऊं:
तीन लोग संशय
पड़ा।
और बात
बड़ी सीधी और
सरल है। माया
को कहीं और खोजने
जाने की जरूरत
नहीं। मन माया
तो एक है। मन का
ही विस्तार
माया है।
माया
मनहिं समाय।
और
माया को नष्ट
नहीं करना
पड़ता। जैसे
तुमने पहचाना
कि माया मन
में ही समा
जाती है। माया
मन की विकृति
है, मन की
अप्राकृत दशा
है।
क्या
है बीमारी?
बीमारी
के लिए भी एक
चीज जरूरी है
कि तुम जिंदा
रहो। मेरे हुए
आदमी को कोई
बीमारी नहीं
होती। मरे बड़े
लाभ में हैं; बीमारी का
भय भी नहीं
होता; चिकित्सक
के द्वार पर
उन्हें दस्तक
भी नहीं देनी
पड़ती; इलाज
की परेशानी से
भी नहीं
गुजरना पड़ता। मरों का
लाभ बड़ा है।
अब दोबारा वे
मर भी नहीं
सकते, इसलिए
मरने का कोई
भय नहीं होता।
बीमारी
के लिए एक
जरूरी है कि
स्वास्थ्य ही
जीवन है।
बीमारी बिना
जीवन के नहीं
घट सकती। इसका
यह अर्थ हुआ
कि बीमारी
जीवन की ही एक
विकृति है।
जीवन कही कहीं
उलझ गए, जीवन
ही कहीं भटक
गया। जीवन की
धारा ही सागर
की तरफ न जा कर,
मरुस्थल की
तरफ मुड़ गई—पर
है धारा जीवन
की ही—चाहे
मरुस्थल चले
जाओ, चाहे
सागर चले जाओ।
मरुस्थल में
भटकाव हो जाएगा,
मरुस्थल
सोख लेगा जीवन
की ऊर्जा, को,
तुम्हें
निर्वाण कर
देगा, अशक्त
कर देगा। कोई
उपलब्धि न
होगी, तुम
सिर्फ भटकोगे
और भ्रष्ट और
नष्ट होओगे।
सागर में उपलब्धि
है।
सोचना
जरूरी है।
मरुस्थल में
भी नहीं खो
जाती है, सागर
नहीं मिलता।
सागर में भी
नदी खोती है, लेकिन सागर
को पा लेती
है। खोना
दोनों तरफ होता
है। दोनों
हालत में
मिटना पड़ता
है। लेकिन एक
मिटने में कोई
उपलब्धि नहीं
है, दूसरे
मिटने में सभी
कुछ उपलब्ध हो
जाता है।
संसार
में भी आदमी
खो जाता है, परमात्मा
में भी खोना
पड़ता है।
लेकिन संसार में
खो जाना ऐसे
है, जैसे
नदी मरुस्थल
में खो गई।
सूखती है, सड़ती है,
चीखती है, पुकारते हैं,
मुक्त होना
चाहती है, लेकिन
कोई मार्ग
नहीं मिलता।
हजार धाराओं
में बंट जाती
है। मरुस्थल
सोख लेता है।
न कोई मंजिल
आती है, न
कोई उपलब्धि,
न वह नृत्य
घटित होता, जो सागर से
मिलने के समय
घटित होता है।
वह परम समाधिस्थ
अवस्था नहीं
घटती; ऐसे
ही खो जाती है,
मुक्त खो
जाती है, बेचैनी
में खो जाती
है, विषाद
में खो जाती
है।
सागर
में भी खोती
है नदी खोना तो
एक जैसा है, लेकिन उस
खोने का मजा
और है! उस खोने
में आनंद ही
और है! उस में
दुख और पीड़ा
नहीं है, क्योंकि
यहां नदी खोती
है, वहां
नदी बड़ी होती
है। वस्तुतः
खोना नहीं है
वह, पाना
है। क्योंकि
नदी मिट जाएगी
नदी की तरह, एक क्षुद्र
संकीर्ण धारा
ही तरह; किनारे
खो जाएंगे, पुराना रूप,
नाम खो
जाएगा—विराट
हो जाएगा
लेकिन उसकी
जगह! नदी सागर
हो जाएगी। तब
तक क्षुद्र थी,
अब विराट हो
जाएगी। तब तक
बंधी थी,अब
अनबंधी
हो जाएगी। तब
तक सीमा में
थी, अब
असीम हो
जाएगी।
मनुष्य
भी दो तरह
खोता है, जीवन
की नदी भी दो
तरह खोती है।
एक तो माया।
माया का अर्थ
है मरुस्थल—जहां
तुम करते हो
बहुत हो, पाते
कुछ भी नहीं; दौड़ते तो
बहुत हो, पहुंचते
कहीं भी नहीं;
शोरगुल तो
बहुत मचाते हो,
लेकिन जीवन
में कोई संगीत
पैदा नहीं
होता; संघर्ष
बहुत करते हो,
विजय हाथ
नहीं आती; हार
ही हार हाथ
लगती है।
पराजय
संसार की कथा
है! वहां जो भी
जाता है, हारा
हुआ लौटता है।
वहां मिटना तो
है, लेकिन
वह मिटना सड़ने
जैसा है।
एक बीज
को पत्थर पर
रख दो, वहां
भी वह मिटेगा—बिना
अंकुर हुए।
उसी बीज को
भूमि में दबा
दो, वहां
भी मिटेगा—लेकिन
यहां मिटेगा
और नया अंकुर
आ जाएगा। अंकुर
की भांति
जीयेगा, बीज
की भांति
मिटेगा—विराट
वृक्ष हो
जाएगा। तुम
बीज को सड़ा
भी सकते हो, वही माया
है। तुम बीज
को वृक्ष भी
बना सकते हो, वही ब्रह्म
है। दोनों
तुममें छिपे
हैं।
माया
तुम्हारा ही
भटकाव है। और
ब्रह्म तुम्हारा
ही मार्ग पर आ
जाना है।
बीमारी भी
तुम्हारी है, स्वास्थ्य
भी तुम्हारा
है। बीमारी का
निंदा कर लेना
जरूरी है, ताकि
तुम भटक न
सको।
मन
माया तो एक है, माया मनहिं
समाय।
और जब
तुम जान लेते
हो, तो क्या
होता है माया
का? कांह खो जाती है
माया? वह
जो तुम्हारी
शक्ति भटक रही
थी, वह
भटकती नहीं, मार्ग पर आ
जाती है, सागर
की तरफ बहने
लगती है। सारी
माया मन में
ही समा जाती
है।
तुम
क्रोध करते हो, क्रोध माया
है। क्योंकि
उससे तुम
मिटोगे तो, पाओगे कुछ
भी नहीं। इससे
तुम माया की
परख की कसौटी
बना लो कि
जिससे
तुम्हारे
भीतर कुछ मिटता
हो, बनता
कुछ भी न हो; जिससे
तुम्हारे
भीतर विध्वंस
तो होता हो, सृजन बिलकुल
न होता हो; जिससे
तुम्हारे
भीतर बीज सड़
जाता हो, लेकिन
अंकुर न
निकलता हो; नदी नष्ट हो
जाती हो, सागर
न बनती हो।
इसे तुम कसौटी
बना लो।
विध्वंसात्मक
वृत्ति
बीमारी है।
स्वास्थ्य
सृजनात्मक
है। तुम क्रोध
करते हो, क्रोध
में शक्ति
जाती है, लेकिन
मिलता क्या है?
सिवाय
विषाद के कुछ
भी हनीं
मिलता है। तुम
रोते हो, चीखते—
चिल्लाते हो,
उदास होते
हो, उदासी
में शक्ति
खोती है
मरुस्थल में—पाते
क्या हो? उदासी
से कहीं कोई
फूल खिलते
हैं। उदासी से
कहीं जीवन में
कोई नृत्य आता
है! तुम घृणा
करते हो, तब
तुम शक्ति तो
व्यय कर रहे
हो, मिलेगा
क्या? निष्पत्ति
क्या है?
हमेशा
इसे कसौटी की
तरह जांचो
कि जो मैं
करने जा रहा
हूं, वह
मरुस्थल में
जाएगा, या
सागर में, और
अगर मरुस्थल
में जाता हो, तो सजग हो
जाओ। वह
यात्रा—पथ
नहीं है, वह
भटकाव है।
क्या होगा अगर
तुम क्रोध न
करोगे? तो
जो क्रोध की
शक्ति बचेगी,
वह कहां
जाएगी? वह
मन में समा
जाएगी। और जब
तुम क्रोध से
बच जाते हो, और क्रोध
में नष्ट होने
वाली शक्ति
उन्मुक्त हो
जाती है, और
मन में वापस
समा जाती—उसी
लौटती हुई
शक्ति का नाम
ही करुणा है।
जो शक्ति खो
रही थी
मरुस्थल में,
वह क्रोध
थी। जो शक्ति
मरुस्थल में
खोने से रुक
गई और स्वयं
में लीन हो गई,
सागर में
डूब गई, वही
करुणा है।
क्रोध
और करुणा एक
ही शक्ति के
दो नाम है।
क्रोध उसी
शक्ति की रोग
की अवस्था है।
करुणा उसी शक्ति
की स्वास्थ्य
की अवस्था है।
घृणा और प्रेम
ही शक्ति के
दो ढंग हैं।
जब घृणा की
शक्ति वापस
तुममें
प्रत्येक कृत्य
में लीन हो
जाती है, तो
अपार प्रेम का
उदय होता है।
बुद्धों से
बड़े प्रेमी
खोजना कठिन
है। क्राइस्ट
और कृष्ण से बड़े
प्रेमी खोजना
कठिन है। घृणा
लीन हो गई, मरुस्थल
में नहीं खोई,
सागर पा
लिया। बीज को
भूमि मिल गई।
मन माया
तो एक है, माया मनहिं
समाय।
तीन
लोक संशय पड़ा, काहिं कहूं समझाय।।
और
कबीर कहते हैं
कि लोग बड़े
विवाद कर रहे
हैं, और लोग
बड़े
शास्त्रार्थ
में लगे हैं, और लोग यह
सिद्ध करते
हैं, और वह
असिद्ध करते
हैं। और मन
माया तो एक
है। और वे
देखते ही नहीं
कि यह
तुम्हारा ही
होने का ढंग
है। निश्चित
ही गलत ढंग है—पर
तुम्हारा ही
होने का ढंग
है। माया
तुम्हारे गलत
होने का ढंग
है; ब्रह्म
तुम्हारे ठीक
होने का ढंग
है। और ध्यान
रहे, ब्रह्म
होने की
चेष्टा मत करो;
क्योंकि
उसे सीधा
खोजने का कोई
उपाय नहीं। तुम
सिर्फ माया से
बच जाओ, और
ब्रह्म मिल
जाएगा। इसलिए
समस्त साधना
निषेध है—माया
का, रोग का,
विकृति का।
जब विकृति
नहीं होती, तो शक्ति
अपने—आप सुकृत
हो जाती है।
बेढ़ा
दीन्हों खेतको, बेढ़ा खेतहि
खाय।
तीन
लोक संशय पड़ा काहिं
कहूं समुझाय।।
खेत के
चारों तरफ
बेढ़ा लगाते
हैं—खेत की
रक्षा के लिए।
मन भी बड़ा है
तुम्हारी
रक्षा के लिए
लेकिन तुम ऐसी
बाड़ भी लगा
सकते हो कि वह
पूरे खेत को खा
जाए। तुम ऐसी
बाड़ भी लगा
सकते हो कि वह
पूरे खेत पर
छा जाए। तो
बचाए तो नहीं, उलटा नष्ट
कर दे। बाड़ थी
खेत को बचाने
को लेकिन तुम
ऐसी बाड़ भी
लगा सकते हो
कि बाड़ का
जंगल हो जाए, खेत में जगह
न बचे कुछ और
फसल बोने को।
मन बाड़
है। उपयोगी है—बाड़
की तरह। लेकिन
अगर तुम्हें
खा जाए, अगर
तुम मन ही मन
हो जाओ, तो
बाड़ का क्या
प्रयोजन; खेत
ही न बचे!
ऐसा
अक्सर हो जाता
है। और माया
का दूसरा
सूत्र है।
जीवन
में बाड़ खेत
खा जाती है और
लोगों को पता
नहीं चलता।
समझो! जीवन को
चलाना है तो
रोटी की जरूरत
है; छाया की
भी जरूरत है।
एक तरह की
सुरक्षा भी चाहिए,
सुविधा भी
चाहिए; बिलकुल
आवश्यक है।
लेकिन फिर एक
आदमी जीवन भर मकान
ही बनाने में
लगा रहता है, मकान को ही
बड़ा करने में
लगा रहता है।
वह वक्त ही नहीं
आता, जब वह
रहता। मकान
में निवास
करता वह समय
ही नहीं आ
पाता। रोटी
चाहिए, कपड़े
चाहिए, तो
थोड़ा धन तो
चाहिए ही
होगा। लेकिन
फिर एक आदमी
धन की ही राशि
लगाने में जुड़
जाता है। फिर
वह भूल ही
जाता है। कि
धन एक बाढ़ थी—धन
खेत हो गई; बाढ़
खेत को खा गई!
धन की एक
जरूरत है।
जरूरत की एक
सीमा है। कोई
आवश्यकता असीम
नहीं है।
वासना असीम
है।
आवश्यकताएं
तो बड़ी छोटी
हैं—रोटी
चाहिए, पानी
चाहिए, कपड़ा चाहिए। अगर
दुनिया में
सिर्फ
आवश्यकताएं
हो तो एक भी
आदमी भूखा न
हो, एक भी
आदमी दीन न हो,
दरिद्र न
हो। क्योंकि
आवश्यकताएं
तो सीमित हैं!
पशु—पक्षियों
की पूरी हो
जाती हैं, कैसा
आश्चर्य कि
आदमी की पूरी
नहीं होती!
वृक्ष अपनी
आवश्यकता
पूरी कर लेते
हैं, जिनके
पास पैर भी
नहीं हैं कहीं
जाने को। एक ही
जगह खड़े रहते
हैं। और
आवश्यकताएं
हो जाती। पशु—पक्षी,
जिनके पास
बड़ी बुद्धि, विश्वविद्यालय
का शिक्षण
नहीं, वे
भी पूरी कर
लेते हैं अपनी
आवश्कताओं
को। आदमी
आवश्यकताओं
को क्यों पूरी
नहीं कर पाता?
लगता है
कहीं कुछ भूल
हो गई।
आवश्यकताएं
ठीक हैं, वासना
खतरनाक है।
फर्क क्या है?
आवश्यकता
तो बाड़ है; वासना
पूरा खेत हो
गई। तुम्हारी
जरूरतें तो पूरी
हो सकती हैं, लेकिन
तुम्हारी
कामनाएं पूरी
नहीं हो सकती।
जरूरत
पर रुक जाना
समझदारी है।
कामना में बढ़ते
जाना पागलपन
है। फिर उसका
कोई अंत नहीं।
देखो लोगों की
तरफ।
मैं एक
आदमी को जानता
हूं, जिसके
सात मकान हैं।
और कई हजार
रुपए महीने का
किराया आता
है। लेकिन उस
आदमी ने एक छोटी—सी
खोली ले ली है
किराए की, उसमें
रहता है! एक
साइकिल है उस
आदमी के पास
और वह है।
साइकिल का
उपयोग वह
किराए की
वसूली के लिए
करता है। खोली
में रहता है, खाना होटल
में खा लेता
है। उस आदमी
के एक बंगले
में मुझे रहने
का मौका मिला।
तो हर महीने
एक तारीख को
वह आ कर अपना
किराया ले
जाता। जो
मित्र उसके
बंगले में
रहते थे, जिनका
मैं मेहमान था,
उनसे मैंने
पूछा कि यह
आदमी कौन है!
वे हंसने लगे,
उन्होंने
कहा, यह
मकान—मालिक है,
उसके कपड़ों
में छेद है।
साइकिल भी न
मालूम पहला
संस्करण है।
वह दूर से आता
है तो पता
चलता है, खड़बड़—खड़बड़ चला आ
रहा है। उसको
देख कर कोई भी
नहीं कह सकता कि
इस आदमी के
पास सात मकान
हैं। सात
मकानों की
अंदाजन कीमत
बीस लाख रुपया
है। हजारों
रुपए वह
किराया वसूल
करता है, लेकिन
अपने लिए वह
एक खोली में
रहता है, पांच
रुपए महीने
किराए की? इस
आदमी के जीवन
को बाड़ खा गई।
एक बार
ऐसा हुआ कि
मेरे सामने एक
डाक्टर रहते थे।
मिलिटरी
के रिटायर्ड
डाक्टर थे।
उन्होंने कभी
शादी नहीं की।
मिलिटरी
में चोट लग
जाने की वजह
से वे समय के
पहले रिटायर
हुए। तो उनको
कोई मिलिटरी
से पेन्शन
मिलती थी, काफी अच्छी।
कोई लाख रुपए
का बंगला था, और कोई दो लाख
रुपया उनके
बैंक में जमा
था; लेकिन
उनका कुल भोजन;
चाय और पापड़!
बस वे उसी पर
जीते थे।
बीमार पड़े, हार्टअटैक हुआ, और
उनकी बोली बंद
हो गई। तो
उनका तो कोई
भी नहीं था।
आधे मकान को
उन्होंने
किराए पर दे
रखा था।
तो
किराएदार ने
मुझे आ कर कहा—मैं
सामने ही रहता
था कि डाक्टर
साह का मुंह
बंद हो गया है, वे बोल नहीं
पा रहे हैं।
और लगता है
बहुत संकट की
अवस्था में
हैं। तो मैं
गया। तो मैंने
उनसे कहा कि
डाक्टर को बुलाऊं?
तो
उन्होंने
इशारा किया कि
रुपये कौन
देगा! तो
मैंने कहा, उसकी आप
चिंता न करें।
डाक्टर को
बुलाया। डाक्टर
ने कहा, यह
तो ज्यादा
संकट की
अवस्था है, और इन्हें
इसी वक्त
अस्पताल ले
जाना पड़ेगा। तो
एम्बुलैन्स
बुलाई। एम्बुलैन्स
में चढ़ने
के पहले
उन्होंने
मुझसे कहा कि
ताला लगा कर चाबी
मुझे दे दें।
तो सामने उनके
उन्होंने ताला
लगाया—बोलती
बंद है, और
घंटे भर बाद
वे मर गए! लेकिन
उन्होंने
चाबी सामने ले
कर रखवा ली।
और जब वे मर गए
तो उनकी जेब
में पांच हजार
रुपए थे! और
मुझसे
उन्होंने कहा
कि डाक्टर की
फीस कौन दगा!
बोल भी नहीं
सकते थे!
बाड़
खेत बन जाती
है।
मन
उपयोगी है; अगर समझ हो
तो मन बड़ा
उपयोगी है। मन
राडार—यंत्र
है। हवाई जहाज
में यात्रा
करो, तो
राडार लगा
होता है, वह
दो सौ मील दूर
तक की खबर
देता रहता है।
चित्र आ जाते
हैं, क्योंकि
हवाई जहाज तो
इतना तीव्र
यान है कि अगर
दो सौ मील
पहले पता न
चले, तो
टक्कर ही हो
जाए। तो राडार
दो सौ मील तक—बादल
है, कोई
यान है, कोई
पक्षी है—परदे
पर फोटो आते
रहते हैं। सौ
मील पहले ही
तुम्हें बचाव
करना पड़ेगा
क्योंकि कोई
भी खतरा है, तीव्र गति
इतनी है कि
तुम अगर दो सौ
मील पहले नहीं
बचे, तो
खतरे में
पहुंच जाओगे।
मन एक
राडार यंत्र
है, जिससे
तुमको सब तरफ
की झलक मिलती
है। बड़ा उपयोगी
है—समझदार के
हाथों में; नासमझ के
हाथ में बड़ा
खतरा है।
नासमझ मन का
उपयोग ही नहीं
कर पाता, मन
ही उसका उपयोग
कर लेता है।
गुलाम मालिक
हो जाता है, मालिक गुलाम
हो जाता है।
यही तुम्हारी
दशा है।
गृहस्थ की यही
मेरी परिभाषा
है कि जिसकी
बाड़ खेत को खा
गई। और
संन्यासी की
मेरी यही
परिभाषा है—खेत
खेत है, बाड़—बाड़
है। न तो खेत
बाड़ को खाएगा,
न बाड़ खेत
को खाएगी;
क्योंकि
दोनों जरूरत
है। बाड़ चाहिए,
सुरक्षा
चाहिए खेत को।
बाड़ की
तरफ मन बड़ा
उपयोगी है।
उसकी जीवन में
बड़ी जरूरत है।
लेकिन रुक
जाने की समझ
होनी चाहिए, कहां रुक
जाए।
धन
आवश्यक है, लेकिन धन को
ही इकट्ठे
करते रहना
पागलपन है।
मकान जरूरी है,
लेकिन जीवन
भर मकान बनाते
रहना, और
मकान में रहने
की सुविधा ही
न मिल पाए, समय
ही न मिल पाए
और जीवन गंवा
देना, पागलपन
है। कपड़े
चाहिए लेकिन
एक आदमी कपड़े
ही इकट्ठा
करता रहे, कपड़ों
में ही खो जो।
अगर
ठीक—ठीक आदमी
विवेकपूर्ण
ढंग से जिए, तो मन से
ज्यादा कुशल
कोई यंत्र
नहीं है। अभी तक
कोई यंत्र
वैज्ञानिक
नहीं बन पाए, जो मन के
मुकाबले हो।
दूर देख सकता
है, पास
देख सकता है; परिस्थिति
के गणित को
पूरा समझ सकता
है; सुरक्षा
के उपाय खोज
सकता है; जीवन
को बचाने की
हजार विधियां
बना सकता है।
सब आवश्यक है।
लेकिन, यही
जीवन नहीं है।
द्वार पर आप
एक द्वारपाल
को खड़ा कर
देते हैं।
जरूरी हैं।
लेकिन आप खुद
ही द्वारपाल
की तरह खड़े
रहें, तो
आप पागल हैं।
फिर किसकी
रक्षा कर रहे
हैं?
लोग
अक्सर जीवन की
व्यवस्था
जुटाने में ही
जीवन को गंवा
देते हैं। जीने
का तो मौका ही
नहीं आ पाता।
तुम रोज टालते
जाते हो कि
जीएंगे कल, इंतजाम पहले
कर लें।
इंतजाम कभी
पूरा नहीं होगा।
जिओगे
कैसे?
ध्यान
रहे, जिसे
जीना है, उसे
अधूरे इंतजाम
में जीने की
कला खोजनी
पड़ती है।
इंतजाम तो कभी
पूरा नहीं
होगा; क्योंकि
मन बताए जाएगा;
यह त्रुटि
है, यह
त्रुटि है, यह और कर लो, यह और कर लो।
मन सूचना दिए
चला जाएगा कि
अभी रहने का
वक्त नहीं आया;
जब ताजमहल न
बन जाए, तब
तक रहोगे
कैसे! अगर मन
की ही मान कर
चलते रहे, तो
तुम्हें जीवन
का अवसर न
मिलेगा।
जीवन
छोटा है। मन
की कामनाओं का
कोई अंत नहीं है।
आवश्यकताएं
सीमित हैं, वे सब की
पूरी हो सकती
है।
अब
यहां एक बड़ी
मजेदार घटना
घटती है। या
तो आदमी
आवश्यकताओं
को वासना बना
लेता है, तब
उनका कोई अंत
नहीं है; और
जब इससे
परेशान हो
जाता है, तो
आवश्यकताओं
को भी काटने
में लग जाता
है, उसका
भी कोई अंत
नहीं है।
दो तरह
के लोग हैं
दुनिया में।
दो तरह के
पागलों से बनी
है यह पृथ्वी।
एक पागल हैं, जिन्होंने
आवश्यकताओं
में ही सब कुछ
गंवा दिया है,
फिर जब ये
पागल थोड़े
परेशान हो
जाते हैं अपनी
इस दौड़ से तो
दूसरा पागलपन
पैदा होता है—वह
इन्हीं का
शीर्षासन
करता हुआ रूप
है—वे आवश्यकताएं
काटने में लग
जाते हैं। वह
बराबर भोजन न
करेगा, उपवास
करेगा। या तो
तुम भोजन ही
भोजन करोगे, और या तुम
उपवास करोगे।
क्या बीच में
तुम्हारे
रुकने का कोई
भी उपाय नहीं?
क्या
संतुलन असंभव
है?
मुल्ला
नसरुद्दीन
बीमार था—खांसी, अस्थमा! गया
डाक्टर के पास,
तो डाक्टर
ने कहा, उसमें
बीमारी कुछ
नहीं है; तुम्हारे
कपड़े से, मुंह
से, धूम्रपान,
सिगरेट की
बात आती है।
कितनी सिगरेट
पीते हो?
उसने
कहा, ज्यादा
नहीं, यही
कोई दस बारह।
डाक्टर
ने कहा, बीमारी
कुछ भी नहीं
है। तुम्हारे
फेफड़ों में निकोटिन
इकट्ठा होता
जा रहा है, सिगरेट
का, इसको
कम करना
पड़ेगा। इलाज
की कोई जरूरत
नहीं है, धीरे—धीरे
सिगरेट कम कर
दो। तो ऐसा
करो कि भोजन
के बाद एक पी
लिया करो। फिर
बाद में, एक
महीने बाद
मुझे बताना, फिर धीरे—धीरे
सोचेंगे।
महीने
भर बाद नसरुद्दीन
आया तो डाक्टर
पहचान ही न
पाया; जैसे
सारे शरीर पर
सूजन चढ़ गई हो,
वह भी थोड़ा
घबड़ाया। उसने
कहा, क्या
सिगरेट कम
करने से ऐसी
अस्वस्थ हो गई?
और तुम
पहचान में ही
नहीं आते।
नसरुद्दीन
ने कहा, हुआ
तो सिगरेट की
वजह से ही सब
उपद्रव है।
पूछा
डाक्टर ने
क्या तुमने, मैंने जैसा
कहा था, वैसा
अनुकरण किया?
उसने कहा, उसी अनुसरण
में तो फंसा
हूं। अब दिन
में दस—बारह
बार भोजन करना
पड़ता है।
या तो
तुम भोजन के
पीछे पागल
रहोगे—और अगर
कभी इस पागल
पन से तुम बचे
तो तत्क्षण दूसरा
पागलपन खड़ा
है।
पागल
के भी अपने
तर्क होते
हैं। पागल भी
बड़ा संगत होता
है अपने
तर्कों में।
और एक बार
तुमने मन के तर्क
को मानना शुरू
कर दिया, तो
पागलपन
बदलेंगे। एक
पागलपन से
दूसरा पागलपन!
लेकिन तर्क
वही रहेगा।
क्या
है तर्क मन का?
मन का
तर्क यह है कि
जब एक बार
भोजन करने से
ऐसा मजा आता
है, तो बीस
बार करने से
बीस गुना
आएगा। गणित
साफ है। लेकिन
जिंदगी अगर
गणित होती तो
सब ठीक होता; जिंदगी गणित
नहीं है। एक
बाद भोजन करने
से फायदा होता
है, बीस
बार भोजन करने
से बीस गुना
फायदा नहीं
होता। फिर अगर
तुमने बीस
गुना भोजन
किया, तो
तुम आज नहीं
कल परेशान हो
जाओगे, बीमार
हो जाओगे, रुग्ण
हो जाओगे, सारा
शरीर इनकार
करेगा, भोजन
को फेंकना
चाहेगा।
जब तुम
ऊब जाओगे, तब तुम
कहोगे कि भोजन
से इतनी
दिक्कत होती
है, उपवास
ठीक है, भोजन
बंद ही कर दो।
अब भी गणित
साफ है कि जब
भोजन से इतना
नुकसान हो रहा
है और परेशानी
हो रही है, तो
भोजन ही मूल
जड़ है दुखी
की। इसलिए
सारी दुनिया
में उपवास के
पंथ है: बंद
करो भोजन। अब
तुम दूसरी अति
पर जा रहे हो, वहां भी दुख
पाओगे।
मध्य
में रुक जाना, मन से मुक्त
होने की
प्रक्रिया
है।
मन
जीता है
अतियों में, एक्स्ट्रीम में—घड़ी के पैण्डलुम
की भांति है; एक कोने से
दूसरे कोने पर
जाता है, बीच
में नहीं
रुकता। बीच
में रुका तो
घड़ी रुकी। जिस
दिन तुम बीच
में रुकोगे,
उस दिन मन
की घड़ी भी रुक
जाएगी। उसी
दिन माया रुकती
है। और माया
की सारी तड़पन
तुम में ही
समा जाती है।
और उस तड़पन
से बड़े विराट
सौंदर्य का
जन्म होता है।
बुद्धत्व का
जन्म होता है।
उससे कबीर
पैदा होता है,
कृष्ण, क्राइस्ट
पैदा होते
हैं।
बेढ़ा
दीन्हों खेत
को, बेढ़ा खेतहि खाय।
तीन
लोग संशय पड़ा, कहूं समुझाया।।
मन बड़ा
उपयोगी है—उपयोगी
करो; मालिक
बना लोग तो
बड़ा खतरनाक
है। मन की मत
सुनो। मन की
सलाह को मान
के मत चलो।
सुनो जरूर, लेकिन गुनो
खुद। मन कहे—सुनो;
लेकिन गुनो
खुद। और अगर
तुम निर्णय की
क्षमता जमा लो
भीतर, तो
मन तुम्हें
नुकसान न
पहुंचा
पाएगा। तब तुम
न तो अति भोजन
करोगे और न
अति उपवास
करोगे; तुम
सम्यक भोजन पर
ठहर जाओगे। और
सम्यक भोजन बड़ी
ही अनूठी बात
है; न शरीर
भूखा, न
ज्यादा भरा।
और तब जीवन मग
सब तरफ सम्यकत्व
का उदय होगा।
जहां—जहां
समता आएगी, जहां—जहां
तुम सम्यक
होओगे, बीच
में रुकोगे,
वहीं—वहीं सम्यकृत्व
का उदय होगा।
या तो तुम दिन—रात
बोलते रहे हो
या फिर कहते
हो, हम मौन
में रहेंगे।
क्या सम्यक
होना असंभव है?
या तो तुम
संसार में
रहोगे, या
हिमालय में
जाओगे! क्या
संसार में ऐसे
नहीं रहा जा
सकता कि जैसे
संसार बाहर हो
और भीतर न हो? तब सम्यकत्व
उदय होता है।
गुजरना पड़ेगा
संसार से, लेकिन
ऐसे गुजरो
कि संसार की
एक रेखा भी न
पड़े।
कबीर
ने कहा है, बहुत जतन
करके मैंने
चदरिया ओढ़ी
संसार की। खूब
जतन से ओढ़ी
चदरिया, ज्यों
की त्यों धरि
दीन्हीं।
जैसा पायी थी,
वैसी ही
वापिस लौटा दी;
न इधर गया, न इधर; न
गंदी की, और
न सफाई की—ज्यों
की त्यों दीन्ही
चदरिया, खूब
जतन कर ओढ़ी।
जतन की
ही सारी बात
है। जतन का
मतलब होता है:
होश, समझ, समम्यत्व बोध।
कहते
हैं कबीर, किसको
समझाऊं, कोई
सुनने को नहीं
है।
मेरी
भी ऐसी
प्रतीति है।
अगर आपको अति
को बात कही
जाए तो आप
समझने की तैयार
हैं।
अगर
तुमसे मैं
कहूं, उपवास
करो—तुम्हारी
समझ में आता
है। तुमसे मैं
कहूं, सम्यक
भोजन करो—तुम्हारी
समझ में नहीं
आता है। तुमसे
अगर मैं कहूं
छोड़ दो घर, यह
संसार दुख है—समझ
में आता है; क्योंकि
इसके पहले तुम
एक गति का
पालन कर रहे
हो कि भोग
संसार, यही
है आनंद। अब
वह अति चुक
गई। अब तुमने
काफी दुख उस
अति से पा
लिया। अब तुम
करीब—करीब
तैयार हो। कोई
तुम्हें कह दे
कि छोड़ दो सब, भागो यह तो सब
व्यर्थ है, असार है, तो
तुम भाग चड़े
होओ। इसलिए तो
दुनिया में भगोड़ों की
इतनी जमाते
हैं। वे भगोड़ों
की जमातें
तुम्हारे
कारण हैं। एक
गति जब थक जाता
है तो तुम
दूसरी अति पर
जाना चाहते हो,
इसलिए भगोड़ों
की जमातें
हैं।
तुम्हारे
तथाकथित साधु—संन्यासी
सिर्फ
पलायनवादी
हैं। वे
तुम्हारे रूप
हैं। तुम घड़ी
में बाएं पेण्डुलम
तुम्हारे
तथाकथित साधु—संन्यासी
सिर्फ
पलायनवादी
हैं। वे
तुम्हारे रूप
हैं। तुम घड़ी
के बाएं पेण्डलुम
हो, तो वो
दाएं हैं। तुम
स्त्रियों के
पीछे भाग रहे
हो, वे
स्त्रियों से
भाग रहे हैं!
तुम धन इकट्ठा
कर रहे हो, वे
धन छूने से
डरते हैं!
न तो
धन प्रेम के
योग्य है, और न भय के
योग्य; न
तो धन को
इकट्ठा करने
में कोई समझ
है, और न धन
से भयभीत हो
जाने में कोई
समझ है—धन का
उपयोग करने की
बात है। और धन
का सम्यक उपयोग
जो करना चाहता
है, वह न तो
धन को इकट्ठा
करेगा, और
न धन को छोड़कर
भाग खड़ा होगा।
क्योंकि धन तो
साधन है। साधन
का सम्यक
उपयोग हो सकता
है।
मेरी
भी अनुभव यह
है, क्योंकि
मेरी सारी
चेष्टा है
तुम्हें बीच
में रोक लेने
की। तो
तुम्हीं मेरी
बात समझ में नहीं
आती। तुम्हें
अति चाहिए।
तुम भोग चुके
हो एक अति, अब
तुम दूरी पर
जाने के लिए
तैयार हो। और
मैं कहता हूं,
बीच में रुक
जाओ। रुकना
तुम्हें आता
ही नहीं, दौड़ना
ही आता है।
दिशा कोई भी
हो, दौड़ने
के लिए तुम
तैयार हो। और
मैं कहता हूं,
तुम बैठ जाओ,
दौड़ो मत।
इसलिए
कबीर कहते हैं, तीन लोक
संशय पड़ा, काहिं
कहूं समझाय।
कबीर
एकदम
मध्यमार्गी
हैं। कबीर सम्यक्ति
हैं। उनका सम्यकत्व
समझने जैसा
है। रोज बाजार
जाते हैं, रोज कपड़ा
बुनते हैं, रोज बाजार
में बेचते हैं;
लेकिन सांझ
जो भी बचता है,
उसे बांट
देते हैं।
संसार छोड़ा
नहीं, लेकिन
फिर भी संसार
को पकड़ा नहीं
है। यही कला है।
संसार छोड़ा
नहीं, क्योंकि
कपड़ा
बुनते हैं, दुकान पर
जाते हैं, कपड़ा
बेचते हैं, धन कमाते
हैं, धन
लाते हैं, घर
की जरूरतें
पूरी होती हैं;
सांझ को जो
बचता है, बांट
देते हैं। रात
संन्यासी हैं,
दिन गृहस्थ
हैं।
तुम्हारे
संन्यासी दिन
में संन्यासी, रात गृहस्थ;
ऊपर—ऊपर
संन्यासी, भीतर—भीतर
गृहस्थ। कबीर
ऊपर—ऊपर
गृहस्थ, भीतर—भीतर
संन्यासी।
और
जिंदगी हर ची
में अति है।
और मन गति का
बड़ा लोलुप है।
सम्यकत्व
मन की मृत्यु
है—संतुलन।
मन जानै सब
बात, जानता
ही औगुन करै।
काहे
की कुसलात, कर दीपक कुंबै
पड़े।।
यह वचन
बड़ा
बहुमूल्य।
इसे कंठस्थ ही
नहीं, हृदयस्थ
कर लेना।
मन
जाने सब बात, जानत ही औगुन
करे।
ज्ञान
से कुछ भी
होता नहीं, क्योंकि मन
तो सब जानता
ही है। फिर
जान कर भी
करता तो उलटा ही
है।
तुम्हें
बिलकुल पता है
कि क्रोध बुरा
है, पर करते
तो तुम क्रोध
ही हो।
तुम्हें
भलीभांति पता
है कि घृणा
पाप है, करते
तो तुम घृणा
ही हो।
तुम्हें
भलीभांति पता
है कि लोभ में
आदमी फंसता
है, बंधता है, कारागृह
बन जाता है, फिर भी करते
तो तुम लोभ ही
हो।
मन जानै
सब, जानत ही औगुन
करे। कहो की
कुसलात...
फिर यह
मन की कुशलता
कैसी!
कर
दीपक कुंबै
पड़े...
हाथ
में दीया था
और कुएं में
पड़े हो! दीया
झूठ होगा।
कुआं असली है, झूठे दीये
काम न पड़ेंगे।
इसलिए कबीर
कहते हैं, काहे
कि कुसलात।
पंडितों
को देखो! जीवन
तो उनका वैसा
ही है, जैसे
अज्ञानियों
का—रत्ती भर
भी तो भेद
नहीं है। इतना
शायद भेद हो कि
अज्ञानी
छिपाने में
इतने कुशल
नहीं जितने पंडित
छिपाने में
कुशल हैं। पर
जीवन में भेद
नहीं है। वही
क्रोध है, वही
माया है, वही
मोह है, वही
लोग—कोई अंतर
नहीं। यह
ज्ञान बासा और
उधार है, अन्यथा
ज्ञान अग्नि
की भांति है।
जैसे सोने को
डाल दो आग में,
निखर कर निकल आता
है, शुद्ध
हो जाता है—ऐसे
ही ज्ञान की
अग्नि है, जो
भी उसमें अपने
मन को डाल
देगा, मन
शुद्ध होगा, निखर आएगा।
लेकिन ज्ञान
बासा भी हो
सकता है, उधार
भी हो सकता
है। तब ज्ञान
अग्नि नहीं है,
तब ज्ञान
राख है। कभी
अग्नि वहां थी,
अब सिर्फ
राख है।
अभी
मैं तुमसे जो
कह रहा हूं यह
आग है; मेरे
मरने के बाद
यह राख होगी।
और तभी तुम सुनोगे
नहीं, मरने
के बाद बड़ा
विचार करोगे।
तब यह राख
होगी। फिर तुम
राख को लपेट
कर अवधूत बन
कर बैठ जाना।
लेकिन इससे
तुम्हारी
जिंदगी न
बदलेगी।
राख को
लपेटे साधु
तुमने देखे
हैं? आग बदलती
है, राख
नहीं। रख तो
उस जगत है, जहां
अभी आग थी।
लेकिन अतीत से
थोड़े ही
क्रांतियां
घटित होती हैं;
क्रांतियां
वर्तमान में
घटित होती
हैं। अब तुम
महावीर की राख
में कितना ही लपेटो
अपने को, तुम्हारा
मन जलेगा
नहीं। अब तुम
बुद्ध की राख को
कितना ही ढोओ—अस्थि—कलश
हैं, प्यारे
हैं, लेकिन
उनसे कोई
क्रांतियां
नहीं होतीं।
जीवित गुरु
खोजना जरूरी
है, तो ही, तो ही जीवित
अग्नि है।
अग्नि
भीतर हो, तो
ज्ञान के
विपरीत जाना
असंभव है। तब
तुम जानते हो,
वही
तुम्हारा
जीवन है। तब
ज्ञान ही आचरण
है। अगर
तुम्हें पता
चल गया कि
क्रोध व्यर्थ
है, तुम
कैसे क्रोध कर
सकोगे? लेकिन
यह तुम्हें
पता नहीं चला,
यह दूसरे
कहते हैं।
बुद्ध, महावीर,
कृष्ण कहते
हैं कि क्रोध
बुरा है। यह
तुमने सुना
है। यह
तुम्हारी आंख
अनुभव नहीं है,
यह
तुम्हारे कान
का संग्रह है।
और, ज्ञान
और ज्ञान में
इतना ही अंतर
है। एक ज्ञान
है, जो कान
से आता है—श्रवण
से; और एक
ज्ञान है, जो
दर्शन से आता
है—आंख में।
माया और
ब्रह्म में
चार अंगुल का
फासला है—कान
और आंख का।
कान से जो जाए,
वह थोथा; अपने अनुभव
से आए, वही
वास्तविक।
जानते तो तुम
सब हो। कबीर
कहते हैं, मन
जानै सब
बात। बताने को
कुछ है भी
नहीं मन को।
मन कहता है, सब मुझे पता
है—क्या मुझे समझाओगे? क्या समझने
की जरूरत है?सब मैंने पढ़ा
है।
जानत
ही औगुन करे।
लेकिन, आचरण जीवन
का व्यवहार तो
ठीक वैसा ही
है, जैसा
अज्ञानी का
हो। जीवन तो
सुगंध तो
ज्ञान की नहीं
आती। जीवन से
गंध तो अज्ञान
की ही हुआ रही
है। लेकिन मन
में ज्ञान भरा
हुआ है। पंडित
और ज्ञानी का
यही भेद है।
पंडित में तुम
दुर्गंध पाओगे,
शब्दों के
अतिरिक्त
वहां कुछ भी
नहीं है। ज्ञानी
में एक सुगंध
है। क्योंकि
वह जो भी कह
रहा है, वह
उसका अपना
जाना हुआ है।
ध्यान
रहे, सत्य
अपना ही हो
सकता है, उधार
नहीं। किसी और
से ले कर सत्य
को ढोने का कोई
उपाय नहीं है।
न उसकी चोरी
की जा सकती है,
न बाजार में
से खरीदा जा
सकता है, न
किसी से भीख
में लिया जा
सकता है। सत्य
को स्वयं ही
पाना होता है।
जो स्वयं मिल
जाए, वही
तुम्हारे
जीवन को
बदलेगा।
मन जानै सब
बात, जानत ही औगुन
करे।
काहे
की कुसलात...।
पांडित्य, ज्ञान, मन
की समझ का
क्या मूल्य है,
जब अवगुण
जारी ही रहते
हैं? इस
कुशलता का
क्या करोगे? यह कुशलता
दीपक नहीं
बनाते। यह
कैसा दीपक, यह कैसी
कुशलता ?
कर
दीपक कुंबै
पड़े? हाथ में
दीया लिए थे।
और गिर गए
कुएं में!
रामकृष्ण
कहते थे, चील
आकाश में बड़े
ऊपर उड़ती है।
लेकिन इससे
भ्रांति में
मत पड़ना, उसकी नजर तो
घूरे पर मरे हुए
चूहे पर लगी
रहती है। उड़ती
बड़ा उड़ती बड़ा
ऊंचा है, इससे
यह मत समझ
लेना कि चील
बड़ी ऊंची है।
ऊंचाई पर उड़ने
का सवाल नहीं
है—आंख कहां
लगी है! आंख
लगी है नीचे
कचरे के ढेर पर
पड़े हुए मरे
चूहे पर—और
प्रतीक्षा कर
रही है, चक्कर
मार रही है
आकाश में।
लेकिन
प्रतीक्षा कर
रही है कि
नीचे मौका
मिले, अवसर
मिले, रास्ता,
बंद हो, लोग
न चल रहे हों—एक
झपट्टा मारे
और मरे चूहे
का उठा ले।
पंडित उड़ता तो
आकाश में है, मन मरे हुए
चूहे पर, जमीन
पर लगा रहता
है।
ज्ञानी
आकाश में उड़ता
है—आकाश में
ही होता है।
यही फर्क है।
तुम्हारा जानना, तुम्हारा
होना होना
चाहिए।
तुम्हारे
जानने और
तुम्हारे
होने में अगर
फर्क हे—तुम
कितने ही बड़े
पंडित हो जाओ—कबीर
कहते हैं, काहे
की कुसलात, कर दीपक कुंबै
पड़ै।
मन
सागर, मनसा
लहरी बूड़ै
बहुत अचेत।
मन ही
सागर है, जब
स्वस्थ हो
जाए। मन ही
लहर है, अब
अस्वस्थ हो जाए।
अब उत्तेजित
होते हो तुम
तो मन लहरों
से भर जाता है,
जब शांत हो
मन सागर हो
जाता है—शांत;
मौन!
क्रोध, घृणा, मोह
लोभ
ज्ञानियों ने
पाप कहें है—किस
कारण? इस
कारण कि जब
तुम क्रोध में
हो, तो मन
लहरों से भर
जाएगा, तुम
अवस्था हो
जाओगे, तुम
उत्तेजित हो
जाओगे। जो भी
उत्तेजित करे,
वही पाप है।
और जो भी
तुम्हें शांत
करे, वही
पुण्य है। इस
परिभाषा को
खयाल में
रखना।
पाप और
पुण्य का
दूसरे से कुछ
लेना—देना
नहीं है।
आमतौर
से लोग सोचते
हैं कि क्रोध
इसलिए पाप है, दूसरों को
चोट पहुंचती
है। नहीं, यह
जरूरी नहीं है,
कि दूसरों
को चोट पहुंचे;
क्योंकि
दूसरा अगर
बुद्ध हो तो
तुम कितना ही
क्रोध करो, उसको चोट न पहुंचेगी।
फिर भी क्रोध
तो पाप रहेगा
ही—चाहे बुद्ध
को चोट पहुंचे
या न पहुंचे।
नहीं, क्रोध
पाप है, क्योंकि
उससे तुम्हें
चोट पहुंचती
है। दूसरों को
चोट तो अनुषांगिक
है, पहुंच
सकती है, मगर
वह
महत्वपूर्ण
नहीं है।
महत्वपूर्ण
यही है कि
तुम्हें चोट
पहुंचती है; तुम भीतर
अस्त—व्यस्त
हो जाते हो, आंदोलित हो
जाते हो। तुम
भीतर की शांति
खो देते हो, भीतर का
दर्पण धुंधला
हो जाता है।
और अगर सतत तुम
क्रोध, लोभ
और मोह में
पड़े हो, तो
तुम्हारे
भीतर की झील
शांत होने का
अवसर ही नहीं
मिलता, वह
हमेशा तूफान
में ही बनी
रहती है। तब
तुम धीरे—धीरे
भूल ही जाते
हो कि इन
लहरों के नीचे
सागर छिपा है,
क्योंकि
उसको देखने का
मौका ही नहीं
आ पाता। जब सब
लहरें सो जाए,
जब एक भी
लहर न हो, तब
तुम्हारा
सागर तुम्हें
प्रतीत होगा।
तो
ब्रह्म और
माया में इतना
ही फर्क है।
ब्रह्म जब
उत्तेजित
होता है, तो
माया; और
जब ब्रह्म
शांत हो जाता
है, तो
ब्रह्म। या
माया जब शांत
हो जाती है तो
ब्रह्म। माया
ब्रह्म की
उत्तेजित दशा
है; रुग्ण
दशा है; अस्वस्थ
दशा है; विकृति
है।
मन
सागर मनसा लहरि, बूड़ै बहुत अचेत।
और मन
की इन लहरों
में न मालूम
कितने लोग डूब
गए हैं। लहरें
छोटी नहीं हैं, और जो भी
अचेत है, वह
डूब जाएगा। बूड़ै बहुत
अचेत—जो भी
मूर्च्छित जी
रहा है, सोया—सोया
जी रहा है, होशपूर्वक
नहीं जी रहा
है, वह
डूबेगा। होश
की नाव ही
डूबने से बचा
सकती है।
बड़ै
बहुत अचेत...कहहिं
कबीर ते बांचि
हैं, जिनके
हृदय विवेक।
इस वचन
के दो तीन
अर्थ हो सकते
हैं। और तीनों
ही अर्थ
उपयोगी हैं, इसलिए तीनों
ही समझ लेने
जरूरी है।
मन
सागर मनसा लहरि, बूड़ै बहुत अचेत।
कहहिं
कबीर ते बांचि
हैं, जिनके
हृदय विवेक।।
इस बात
को कबीर कहते
हैं, वे ही समझ
सकेंगे, जिनके
हृदय में
विवेक है, अन्यथा
न समझ सकेंगे।
हृदय के
विवेक! बुद्धि
की कुशलता काम
न आएगी, कितने
ही तर्कनिष्ठ
हो, कितने
ही शास्त्रों
के जानकार हों,
कितने ही
सिद्धांतों
की समझ हो—नहीं,
वह काम न
आएगी। जिनके
हृदय में
विवेक है, वे
ही केवल इस
बात को समझ
पाएंगे।
हृदय
में विवेक का
क्या अर्थ
होता है?
आमतौर
से हम समझते
हैं कि विवेक
होता है बुद्धि
में, और प्रेम
होता है हृदय
में। यह हमारी
आम धारणा है।
और कवियों ने
इस धारणा को
काफी प्रचलित
कर दिया कि
विवेक
मस्तिष्क में,
प्रेम हृदय
में। यह धारणा
भ्रांत है। एक
विवेक है जो
हृदय में भी
होता है। और
जिसको तुम
प्रेम कहते हो
वह तुम्हारे
अंधेपन का नाम
है। और जब तक
हृदय का विवेक
न जग जाए, तब
तक वह प्रेम जन्मेगा
नहीं, जो
कृष्ण और
क्राइस्ट के
जीवन में फलता
है।
कौन—सा
विवेक है जो
हृदय का है? और कैसे तुम
उसे खोजोगे?
ध्यान
रहे, बुद्धि
में कोई विवेक
नहीं होता, विचार होते
हैं। मन विचार
कर सकता है, विवेक नहीं।
मन सोच सकता
है, यह ठीक
है, यह गलत
है। मन पक्ष
और विपक्ष में
तर्क इकट्ठे
कर सकता है।
और तब देख
सकता है जिस
तरफ तर्क इकट्ठे
हों, वह
ठीक है। यह
विवेक नहीं है,
सह सिर्फ
गणित है।
जीवन
में एक समस्या
आती है, तुम
सोचते हो कि
क्या करें। तो
मन बहुत से
विकल्प देता
है। फिर मन हर
विकल्प के
पक्ष और विपक्ष
में तर्क देता
है। फिर सारे
तर्कों को देखते
हो, सोचते
हो, फिर जो
तर्क सबसे
ज्यादा वजनी,
बलशाली, लाभपूर्ण मालूम पड़ते
हैं, तुम
उनका अनुगमन
करते हो। यह
विचार है, विवेक
नहीं।
विवेक
क्या है?
विवेक
जागृति की ऐसी
दशा है, जहां
तुम्हें
सोचना नहीं
पड़ता; जहां
दिखाई पड़ता है;
जहां
तुम्हारी आंख
खुली होती है;
और जहां
तुम्हारे
सामने विकल्प
नहीं होते कि यह
करूं या यह
करूं।
तुम्हारी आंख
इतनी प्रगाढ़
रूप से खुली
होती है कि जो
ठीक है, वह
दिखाई पड़ता है,
सोचना नहीं
पड़ता।
जैसे
एक अंधा आदमी
यहां हो, उसे
बाहर जाना है,
तो पूछेगा,
रास्ता
कहां है—बाएं
कि दाएं; सीढ़ियां कहां हैं? फिर टटोलेगा
अपनी लकड़ी से,
फिर खोजेगा,
फिर जाएगा।
लेकिन जिसके
पास आंख है, वह पूछता
नहीं कि
दरवाजा कहां
है, उसे
बाहर जाना है,
वह दरवाजे
की सोचता ही
नहीं उठता है,
और बाहर
निकल जाता है।
दरवाजे का
खयाल भी नहीं
आता। आंख है
तो दरवाजे को
सोचने का सवाल
कहां है? उठे
और बाहर गए।
दरवाजा बीच
में जैसे पड़ता
ही नहीं। आंख
नहीं है तो
सोचना पड़ता है
कि दरवाजा
कहां है—बाएं
कि दाएं
टटोलना पड़ता
है, जब
निकलना पड़ता
है।
विचार, विवेक की
कमी है। विचार,
विवेक का
परिपूरक है।
...जैसे
अंधे का पूछना
और टटोलना आंख
का परिपूर्वक
है। जिसके पास
विवेक है, उसे
दिखाई पड़ता
है। और जो उसे
दिखाई पड़ता है,
वह उसके अनुसार
चल पड़ता है; वह सोचता
नहीं कि जाऊं
या न जाऊं।
विवेक में द्वंद्व
नहीं है, विचार
में द्वंद्व
है। विचार में
आल्टरनेटिव
हैं, विकल्प
हैं। विवेक
में कोई
विकल्प नहीं
है। विवेक
निर्विकल्प
है। दिखता है,
और आदमी
चलता है।
इसलिए
बड़ी हैरानी की
बात है, समझ
लेनी चाहिए कि
तुम कुछ भी
मान कर करो
विचार में, हमेशा
पछताओगे।
क्योंकि जब भी
मन तुम्हें कुछ
कहता है करने
को, तब
दूसरा विकल्प
भी मौजूद होता
है।
समझो
कि दो
स्त्रियों से
तुम्हें शादी
करनी है, दो
स्त्रियों से
लगाव है। तुम
तय नहीं कर
पाते, किससे
शादी करनी है।
एक धनी है, लेकिन
सुंदर नहीं है;
धन में भी
तुम्हारा रस
है। एक गरीब
है, लेकिन
सुंदर हैं; सौंदर्य में
भी तुम्हारा
रस है। अब
क्या करें!
तो या
तो मन दोनों
के बीच कोई
समझौता
खोजेगा, जो
कि खतरनाक है;
और या मन
निर्णय लेगा
कि एक से कर लो;
एक कर लेगा
तो पछताएगा।
अगर अमीर से कर
ले तो रोज
सुबह उठ कर
उसका चेहरा तो
देखना ही पड़ेगा।
कितना ही भागो
पत्नी से, भाग
कर कहां जाओगे?
घर लौटकर
आना ही पड़ेगा।
और जब चेहरा
देखेगा, तभी
मन में पछतावा
होगा कि सुंदर
स्त्री से शादी
कर ली होती।
लेकिन यह मत
सोचो कि सुंदर
स्त्री के
करके कुछ हल
होनेवाला है।
सुंदर से कर
ली होती, तो
सौंदर्य दो—चार
दिन में
समाप्त हो
जाता है। तुम
आदी हो जाते
हो एक शक्ल
देखने के—आखिर
शक्ल को क्या
करोगे? लेकिन
रोज पैसे की
कमी है। छप्पर
चूता है, और
खप्पड, नहीं खरीद
सके; पेट
भूखा है और
रोटी नहीं—रोज
चुभेगा—और
मन होगा कि
बेहतर हुआ
होता, अमीर
से शादी कर ली
होती।
मन कुछ
भी चुने, सदा
पछताएगा।
पछतावा मन की
निष्पत्ति है;
क्योंकि
विकल्प सदा
मौजूद था।
विवेक जो भी
करेगा, कभी
नहीं पछताएगा;
क्योंकि
विकल्प था ही
नहीं, पछताना
किसके लिए है!
इसलिए
विवेकपूर्ण
व्यक्ति कभी
नहीं पछताता।
जो भी हुआ है
अतीत का उकसे
लिए कोई
पछतावा नहीं
होता। वह कभी
लौट कर पीछे
देखता भी नहीं,
क्योंकि
दूसरे तो कोई
विकल्प था ही
नहीं। जो होना
था, वही
हुआ है। और जो
होना है, वही
होगा।
इसलिए
विवेकपूर्ण
व्यक्ति सदा
शांत होगा, विचारपूर्ण
व्यक्ति सदा
अशांत होगा।
बुद्धि विचार
करती है, हृदय
विवेक देता
है।
तो
कैसे जगाए इस
हृदय के विवेक
को?
ध्यान
हृदय के विवेक
को जगाने की
प्रक्रिया है।
विश्वविद्यालय
बुद्धि के
विचार को
जगाने का
प्रशिक्षण
क्षेत्र हैं।
बीस—पच्चीस
वर्ष एक युवक
को लगते हैं, तब कहीं
बुद्धि
प्रशिक्षित
हो पाती है।
और लोग
मेरे पास आते
हैं। वे कहते
हैं कि पांच
सात दिन हो गए
ध्यान करते, अभी तक कुछ
हुआ नहीं।
बुद्धि
परिधि है, हृदय केंद्र
है। बुद्धि पर
तुम व्यय करते
हो पच्चीस
वर्ष, तब
भी हो सकता है
कि थर्ड क्लास
सर्टिफिकेट
ले कर
यूनिवर्सिटी
से बाहर
निकलो। लेकिन
हृदय के लिए
तुम तीन दिन
भी देने का
तैयार नहीं
हो। और हृदय
के लिए पच्चीस
जन्म भी देने
को कम हैं, क्योंकि
हृदय केंद्र
है।
सारी
ध्यान की
प्रक्रियाएं
हृदय के
केंद्र को
जगाने की
प्रक्रियाएं
हैं। सिर्फ
भारत में ऐसे
विश्वविद्यालय
अतीत में थे, जहां हमने
दोनों प्रयोग
किए थे। लेकिन
वे प्रयोग खो
गए। नालंदा और
तक्षशिला
जैसे विश्वविद्यालय
बौद्धों की
छाया में बने
वे अकेले
विश्वविद्यालय
थे, सारी
दुनिया में
फिर वैसा
प्रयोग नहीं
हो सका, जहां
हमने बुद्धि
को भी
प्रशिक्षित
करने की कोशिश
की, और
हृदय का विवेक
भी जगाने की
कोशिश की। वह
सफल नहीं हो
सका। अनेक
बाधाएं पड़ गई।
सबसे बड़ी बाधा
तो यह पड़ती है
कि हृदय के
विवेक के जग
जाने पर व्यक्ति
सांसारिक
नहीं हो पाता।
तो संसार उसके
विपरीत है।
बाप भी डरता
है बेटे को
ऐसी जगह भेजने
में, जहां
विवेक जग जाए;
क्योंकि
विवेक वासना
से मुक्ति है।
विवेक जगेगा
तो वासना खो
जाएगी। सभी
भयभीत हैं
विवेक के जगने
में। इसलिए
प्रयोग किया
गया, लेकिन
असफल गया।
महानतम
प्रयोग था
मनुष्य की चेतना
के जगत में।
नालंदा
में हम फिक्र
करते थे कि
जिस मात्रा में
ज्ञान बढ़े उसी
मात्रा में
ध्यान बढ़े, और संतुलन
कभी न खोए।
लेकिन तब
नालंदा से जो
आदमी निकलता
था वह
संन्यस्त
होकर निकलता
था। यह प्रयोग
कैसे चल सकता
है! यह कितनी
देर संसार चलने
देगा! नालंदा
हमने उखाड़
कर फेंक दिया
और बौद्ध जो
उस महान
प्रयोग को कर
रहे थे, उनको
खदेड़ के
मुल्क के बाहर
कर दिया।
बौद्ध
धर्म का विनाश
हो गया इस
मुल्क से, क्योंकि बौद्धों
ने इतने विवेक
को जगाने की
कोशिश कि जिन—जिनका
भी विवेक जगा,
वे इस जगत
के बहुत काम
के न रह गए। एक
विराट जगत के
काम के हुए; लेकिन हमारी
क्षुद्र
वासनाओं के
जगत में काम के
न रह गए।
अगर
बेटे का विवेक
जग जाए, तो
बाप उसे धन
कमाने में
नहीं जोत
सकता। बेटा कहेगा,
ठीक है, जितना
जरूरी है कर
देते हैं।
लेकिन गैर—जरूरी
असली पकड़ है।
क्योंकि
जरूरी से क्या
होगा? जब
इतना धन हो
जाए कि वह गैर—जरूरी
हो, तभी तो
आदमी धनी होता
है। जरूरी से
तो आदमी गरीब
ही बना रहता
है। जितनी
जरूरत है, उतना
ही कमा लिया
तो तुम गरीब
हो। विलास तो
तब पैदा होगा
कि गैर—जरूरी
पैदा हो जाए।
विवेकपूर्ण, ध्यानपूर्ण
व्यक्ति गैर—जरूरी
से बचेगा।
बहुत कठिनाई
खड़ी हो गई।
कबीर
कहते हैं, कहहिं कबीर ते बांचि
हैं, जिनके
हृदय विवके।
यह जो मैं कह
रहा हूं, वे
ही समझ सकेंगे,
जिनके हृदय
विवेक है, जिन्होंने
ध्यान किया
है। क्यों? क्योंकि
ध्यान करने
वाले तो
तत्क्षण
दिखाई पड़ता
है: मन ही लहर
है, और मन
ही सागर है।
क्योंकि
ध्यान करने
वाले को कई
क्षण ऐसे आ
जाते हैं, जब
लहरें रुक
जाती हैं, सिर्फ
सागर रह जाता
है। वही
प्रतीति कबीर
के वचन को
समझने में
सार्थक होगी।
उस प्रतीति के
बिना तुम कबीर
को न समझ
पाओगे।
मेरे
पास लोग आते
हैं, जिन्होंने
कबीर पर
डाक्टरेट
लिखी है।
विश्वविद्यालय
ने उन्हें
सम्मानित
किया है, डिग्रियां दी हैं।
लेकिन मैं
नहीं देखता कि
वे कबीर को समझते
हैं; क्योंकि
हृदय का विवेक
तो उनके पास
है ही नहीं।
इस वचन
का एक दूसरा अर्थ
भी है। वह वचन
का अर्थ है—कहहिं
बकीर ते बांचि हैं, जिनके हृदय
विवेक—कबीर
कहते हैं, वे
ही पढ़े—लिखे
हैं, जिनके
हृदय विवेक।
मन जाने
सब बात, जगत
ही औगुन करे, कहे की
कुसलात, कर
दीपक कुंबै
पड़े।
जिनके
हृदय विवेक है
वे केवल पढ़े—लिखे
लोग हैं; बाकी
सब अपढ़ हैं।
वे ही जिनके
हृदय विवेक है,
ऐसे है, जिन्होंने
बांचा है,
जिन्होंने
पढ़ा है। किताब
के पढ़ने का
सवाल नहीं है,
हृदय को
पढ़ने का सवाल
है। अपने को
पढ़ने का सवाल
है।
कहहिं
कबीर ते बांचि
हैं—वे ही
केवल बांचे
हुए, पढ़े—लिखे लोग
हैं, जिनके
हृदय विवेक
है!
मन
दीया मन पाइये, मन बिन मन
नहिं होइ।
मन
उन्मन उस अंड ज्यूं, अनल अकासां
जोई।।
मन दीया
मान पाइये—मन
से ही खोया है, मन से ही
मिलेगा। मन से
ही भटके हैं, मन से ही
पहुंचेंगे।
मन से ही
भिखारी हुए, मन से ही
सम्राट
बनेंगे। यह मन
ही रुग्ण हुआ
है; स्वस्थ
हो जाए तो जो
खाया है, वह
मिल जाएगा।
मन
दीया मन पाइये, मन बिन मन
नहिं होइ।
सारा
खेल मन का है।
तुम्हारे
भीतर जो शक्ति
विचार बन रही, सारा खेल उस
शक्ति का है।
वह शक्ति दो
रूपों में हो
सकती है—या तो
विचार बन जाए,
तब लहर बन
जाती है; या
ध्यान बन जाए,
तब सागर बन
जाती है।
इसलिए
निर्विचार
समस्त धर्मों
का सार है; क्योंकि
जैसे ही तुम
निर्विचार
हुए, तो जो
शक्ति मन के
द्वारा विचार
बन कर खो रही थी
अनंत में, वह
खोना रुक
जाएगा।
मरुस्थल में
नदी नहीं खोएगी।
तब सारी शक्ति
वापिस
तुम्हीं में
गिरने लगी। तब
तुम कुछ भी
नहीं खो रहे
हो। तब
तुम्हारे छिद्र
बंद हो गए।
अभी तो
तुम एक बालटी
हो, जिसमें
हजार छेद हैं।
कुएं डालते
हैं, शोरगुल
बहुत मचता है।
पानी में डूबी
रहती तो ऐसा
भी लता है, भर
गई। और जैसे
ही पानी से
ऊपर उठाते हैं
कि खाली होना
शुरू हो जाती
है। खींचते—खींचते
थक जाते हो, और जब बालटी
हाथ में आती
है तो खाली
होती है। यही
तो हजारों—करोड़ों
लोगों का
अनुभव है।
जिंदगी भर
खींचते हैं, तब इतना
शोरगुल मचता
है कि लगता है
भरी हुई आ रही
है, लेकिन
हाथ आते—आते
खाली! मौत के
वक्त खाली
बालटी हाथ
लगती है। इतने
छिद्र हैं!
हर
विचार छेद है।
उससे
तुम्हारी
ऊर्जा खो रही है।
जैसे ही तुम
निर्विचार
हुए, ऊर्जा को
खोने का मार्ग
बंद हुआ। तब
तुम्हारी ऊर्जा
वापिस
तुम्हीं में
गिर जाती है।
तुम सागर हो, तुम ब्रह्म
हो, तुम
परम हो। इस
जगत की जो
भगवत्ता
सत्ता है, वह
तुम हो। लेकिन
तुम्हारे
रंध्र, तुम्हारे
छिद्र चुकाए
डालते हैं।
मन
दीया मन पाइये, मन बिन नहिं
होइ।
मन
उन्मन उस अंड ज्यूं, अनल आकासां
जोइ।।
जैसे
आकाश हर चीज
में छिपा है, चाहे दिखे
और चाहे न
दिखे...आकाश
दिखता कहां है?
हवा के कण—कण
में आकाश है।
अग्नि के कण—कण
में आकाश है।
न तो अग्नि
आकाश को जला
सकती है, न
हवा आकाश को
उड़ा सकती है। पानी
के कण—कण में
आकाश है; न
पानी आकाश को
बहा सकता है।
जैसे प्रकाश
सब में छिपा
है, ऐसे वह
परम भगवत्
सत्ता में
छिपी है। वह
तुमसे भी छिपी
है। उस परम
भगवत् सत्ता
को कबीर ने जो नाम
दिया है, वह
बड़ा कीमती है—वह
वही नाम है, जो झेन फकीर
जापान में
देते हैं। झेन
फकीर उस
अवस्था को नोमाइंड
कहते हैं।
कबीर ने उस
अवस्था को
उन्मन कहा है।
एक ऐसी
अवस्था है
चेतना कि जहां
मन है ही नहीं।
क्या
अर्थ हुआ इसका—मन
के न होने का? इतना अर्थ
हुआ, जहां
विचार सब खो
गए, लहरें
सब शांत हो
गई। मन उन्मन
हुआ। कबीर का
एक वचन है—मन
उन्मन हुआ, गगन गरजे,
बरसे अमी—मन,
न मन हो
गया।
सारा
आकाश गरज रहा
है, और अमृत
बरस रहा है।
और जब तक मन
में उसकी तरंगें,
उसकी
विकृतियां
भरी हैं, तब
भी आकाश गरजता
है, लेकिन
जहर बरसता है।
आकाश
तो तुम्हारे
चारों तरफ भी
खूब गरज रहा
है, लेकिन
जहर बरसता है।
मन
उन्मन हुआ, गरजे गगन, बरसे
अमी।
उन्मन
का अर्थ है:
जहां
निर्विचार हो
गया मन।
मन
उन्मन, उस
अंड ज्यूं
अनल आकासां
सोई ।
और
उन्मन मन में
वह ऐसा ही
छिपा है, जैसे
हर अंड में ब्रद्म
छिपा है, ब्रह्मांड
छिपा है; जैसे
हर कृपा में
आकाश छिपा है।
मन
गोरख मन गोविदौ, मन ही औघड़
होई।
जे
मन राखै
जतन करि, तो आपै
करता सोइ।।
गोरख
एक बहुत अनूठे
सिद्ध पुरुष
हुए। उनका नाम
तो धीरे—धीरे
खो गया। अक्सर
ऐसा होता है
कि बहुत अनूठे
लोगों का नाम
खो जाता है, क्योंकि वे
हमारी समझ के
बाहर पड़ जाते
हैं। अब गोरख
की हम सिर्फ
एक ही शब्द
में याद करते
हैं, वह है
गोरख—धंधा।
शब्दों
की बड़ी
कहानियां
हैं। यह गोरख—धंधा
से पैदा हुआ।
गोरख ने पैदा
नहीं किया; जिन्होंने
उनको देखा, उन्होंने
पैदा कर लिया।
क्योंकि गोरख
ने बड़ी महत्वपूर्ण
विधियां खोजीं,
ध्यान की।
गोरख ने ध्यान
की बड़ी
महत्वपूर्ण विधियां
खोजीं, लेकिन आम
आदमी को वे
विधियां ऐसी
लगी कि यह सब
उपद्रव क्या
है; जैसा
मेरे पास
लोगों को लगता
है। यह मेरा
भी गोरख धंधा
है। लोग समझते
हैं कि क्या
पागल हो गए हो,
होश खो दिया,
यह क्या कर
रहे हो! तो
गोरख ने इतनी
विधियां खोजी
कि उनके शिष्य
ने मालूम किन—किन
तरह की अनूठी
विधियों में
लीन रहे कि
लोक में
व्याप्ति हो
गई कि यह सब
गोरख—धंधा है।
इसलिए शब्द
सिर्फ अब इतना
ही बचा है हमारे
पास। जब भी
कोई आदमी उलटा—सीधा
करता है तो हम
कहते हैं, क्या
गोरखधंधा कर
रहे हो! लेकिन
उस शब्द के पीछे
बड़े अनूठे
आदमी का नाम
है।
भारत
में जितनी
विधियां गोरख
ने ध्यान की खोजीं, उतनी किसी
दूसरे आदमी ने
नहीं खोजीं।
बुद्ध, महावीर,
कोई भी गोरख
का मुकाबला
नहीं करते—विधियों
का जहां तक
संबंध है। मन
को तोड़ देने के
जितने उपाय
गोरख ने खोजे,
किसी आदमी
ने नहीं खोजे।
गोरख बड़ा
अनूठा
आविष्कारक
व्यक्ति है।
और
कबीर उनकी याद
करते हैं: मन
गोरख मन गोविन्दो।
मन ही
गोरख है, मन
ही गोविंद है।
विधियां भी
वही खोजता है,
पहुंचना भी
उसी तक है।
गोरख और गोविद
का इसलिए
उपयोग किया
कबीर ने—गोरख
यानी विधि, गोविद यानी
मंजिल। गोरख
यानी मार्ग; गोविन्द
यानि अंत।
गोरख साधन; गोविन्द
साध्य। इसलिए
उपयोग किया
है।
मन
गोरख मन गोविंदौ।
मन ही का सब
खेल है, विधि
भी उसी का ही
है, पहुंचना
भी उसी में
है। मार्ग भी
वही है, मंजिल
भी वही है।
पाना भी उसी
को है, पाना
भी उसी से है।
मन
गोरख मन गोविंदो
मन ही औघड़
होइ।
जे मन राखै जतन
करि, तो आपै करता
सोइ।।
और जो
मन के जतन को
समझ ले, वह
स्वयं ब्रह्म
हो गया तो आपै
करता सोई...वही
जगत का कर्ता
हो गया।
जे मन राखै जतन
करि...यह जतन
शब्द याद रखन
लेने जैसा है।
क्या होता है
जतन का मतलब?
तुम्हें
एक हीरा मिल
जाए रास्ते पर, तुम कैसे
उसे रखोगे? जतन हरि।
तुम उसे जल्दी
से छिपा लोगे।
वहां तो देखोगे
भी नहीं, क्योंकि
और किसी को
पता न चल जाए।
तुम जल्दी से
उसे कपड़ों में
छिपा लोगे, वहां तुम
पूरी तरह से देखोगे भी
नहीं, क्योंकि
सड़क बाजार है,
लोग चल रहे
हैं, लेकिन
घर अभी दूर
है। घर को कर
तुम द्वार बंध
करके, प्रकाश
जला कर फिर
हीरे को देखोगे।
लेकिन घर
पहुंचने के
पहले भी तुम
कई बार जेब
में छू—छू कर
देख लोगे न!
जतन का यही
मतलब है। कई
बार तुम टटोल
कर देख लोगे।
जेबकट
भलीभांति
जानते हैं कि
किसकी जैब
में पैसा है—उसके
जतन की वजह
से। वह बार—बार
देख लेता है।नहीं
तो जेबकट को
पता कैसे चले!
टेलीपैथी
थोड़ी जानता है
कि तुम खीसे
में नोट लिए
हो, लेकिन
तुम छू—छू कर
देखते हो, तुम्हें
पता भी नहीं
होता है कि
तुम छू—दू
कर देख रहे
हो। वही उसे
खबर देता है
कि है कुछ।
जतन का
अर्थ है: बड़ी
होशपूर्वक, सम्हाल कर।
जैसे कबीर
किसी वचन में
कहे हैं कि
लौटती हैं
स्त्रियां
पनघट से तो गपशप
करतीं, बात
करतीं, गीत
गातीं—घड़े को सिर
पर रखे हाथ से पकड़ती भी
नहीं! फिर
कैसे पकड़ती
होंगी, किससे
पकड़ती
होंगी? जतन
से, स्त्रियां
लौटती हैं
पनघट से। अब
तो स्त्रियां
नहीं मिलती, क्योंकि
पनघट नहीं हैं—नलघट हैं, और वहां
उपद्रव है।
कबीर
के वक्त पनघट
थे और वहां से
लौटती
स्त्रियां
थीं। एक मीठा
काव्य था, उस लौटने
में पनघट से।
और बात करतीं,
चीत करती और
घड़े को
सिर पर रखे, न हाथ से सम्हालतीं!
फिर किससे सम्हालतीं?
भीतर
एक होशपूर्वक
सम्हाल है—बारीक
है, जतन से—गिरता
नहीं है घट, टूटता नहीं
घट। चर्चा
चलती रहती है,
जतन जारी
रहता है।
तो
कबीर कहते हैं
कि रहो इस
संसार में ऐसे, जैसे पनघट
से आती स्त्री
घड़ी को रखती
है जतन से।
जाओ दुकान पर,
लेकिन
सम्हालो
चेतना को। घूमो
बाजार में, खो मत जाओ, सम्हालो
अपने को। धन
हो, स्त्री
हो—सम्हालो
अपने को।
जतन का
अर्थ है: एक
भीतरी सुरति।
गुरजिएफ
ने एक शब्द
उपयोग किया
है: सेल्फ—रिमेम्बरिंग, आत्म—स्मरण।
कुछ भी करो, खुद का होश
बनाए रखो—वही
जतन है।
बुद्ध
का शब्द है:
सम्यक स्मृति, राइट माइंडफुलनेस।
कुछ भी
करो, लेकिन
स्मरण बना रहे
कि मैं हूं।
बुद्ध
का शब्द
स्मृति ही
बिगड़—बिगड़ कर
सुरति हो गया।
कबीर और नानक
जिसको सुरति
कहते हैं, वह बुद्ध का
स्मृति शब्द
है। वह लोकभाषा
में चलते—चलते
सुरति हो गया।
पर सुरति
ज्यादा मधुर
है। और स्मृति
से तो मेमोरी
का संबंध जुड़
जाता है—सुरति
अलग ही हो
गया। सुरति का
तो मतलब ही हो
गया—एक आत्मभाव
एक बोध।
जतन
शब्द भी यत्न
से बना है—लेकिन
वह मतलब नहीं
है, जो यत्न
का है।
मतलब है:एक
भीतरी सतत होश, कोई चीज
भीतर न जाए!
जैसे हीरा
मिले तो उसको
आदमी गांठ में
बांध लेता है,
ऐसे भीतर एक
होश बना रहे, एक स्मृति
बनी रहे। तुम
जो भी करो, करते
समय यह खयाल
रहे कि अपने
को सम्हालना
है।
क्या
है सम्हालने
का प्रयोग है, ताकि मन में
लहरें न उठें।
तुमने नहीं
सम्हाला, लहरें
उठेगी; सागर
खो जाएगा, दर्पण
मिट जाएगा।
तुमने
सम्हाला, लहरें
उठेंगी; खूब सम्हाला,
लहरें
बिलकुल नहीं उठेंगी।
पूरा सम्हाला,
लहरें
बिलकुल शांत
हो जाएगी। और
मन पर एक लहर नहीं
होती तो मन
दर्पण हो जाता
है। उस दर्पण
दिखाई पड़ता है,
जो वही सत्य
है।
मन
गोरख, मन गोविंदौ, मन ही औघड़
होई।
जे
मन राखै
जतन करि, तो आपै
करता सोई।।
तन
को जोगी सब करै, मन को करे न
कोई।
सब
विधि सहजे
पाइये, जो मन जोगी
होई।।
सवाल
शरीर से कुछ
करने का नहीं
है। सभी सवाल
होश के जगत
में कुछ करने
का है। तो
कितना ही तुम बांधो
शीर्षासन, सिद्धासन, सर्वांगासन करो, कितने
ही बंध साधो, कितने ही
शरीर को इरछा—तिरछा
करो—वह बात
बहुत
महत्वपूर्ण
नहीं है।
महत्वपूर्ण
है भीतर
चैतन्य का
बढ़ना—चैतन्य
की बढ़ती
ज्योति।
तन
को जोगी सब करै, मन को करै
न कोई।
इसलिए
तुम पाओगे ऐसे
जोगी, जिन्होंने
शरीर की बड़ी
कीमती
उपलब्धियां
पा ली हैं।
लेकिन अगर तुम
उनमें झांक कर
देखोगे
तो पाओगे कि
तुमसे गए बीते
हैं।
योगी
तीस दिन जमीन
में पड़ा रह
सकता है। उसने
बड़ी कुछ साधा
है; क्योंकि
तीस दिन बिना
आक्सीजन के, गङ्ढे में दबा पड़ा
रहना! तीस
क्षण मुश्किल
हैं। तीस दिन
के बाद तुम
उसे निकालो
वह जीवित है!
तुम चमत्कृत
होओगे। लेकिन
उस आदमी की
आंखों में
देखना और तुम
उसमें वह
ज्योति न
पाओगे जो कबीर,
बुद्ध या
गोरख की आंखों
में होती है।
उस ज्योति की
जगह तुम उसकी
आंखों में एक
उदासी पाओगे,
एक सोया हुआ
पन पाओगे। और
तुम उसके जीवन
में कोई चमक न
पाओगे—जो होनी
चाहिए।
क्योंकि
जिसके भीतर
ब्रह्म जगा हो,
उसके बाहर
सब तरफ एक
सुगंध और एक
चमक और एक प्रकाश
का विस्तार
होगा—वह तुम
बिलकुल न
पाओगे। मजे की
बात तो यह है
की तीस दिन यह
जमीन में पड़ा
रहा, क्योंकि
पांच सौ रुपये
उसे इनाम
मिलने हैं। तुम
किसी बुद्ध को
राजी कर सकोगे
कि पांच सौ रुपये
के लिए तीस
दिन जमीन में
पड़ा रहे? तन
को तो साध
लिया उसने, पर मन की
साधना का उसे
कुछ भी पता
नहीं है।
ऐसे
योगी हैं कि
संकल्प के
केवल हाथ की
नाड़ी की गति
बंद कर देंगे, हृदय की चाल
बंद कर देंगे;
लेकिन वे सब
कर रहे हैं
पैसा पाने के
लिए। उनकी जगह
सर्कस में है,
सत्य में
नहीं। वे
सर्कस के लिए
काम हैं, सत्य
का उनसे क्या
लेना देना!
तुम दुकान कर
रहे हो, वे
भी दुकान कर
रहे हैं।
तुम्हारी
दुकान तुमसे
जरा बाहर है, उनकी दुकान
शरीर से जुड़ी
है। लेकिन
उसकी सारी
साधना एक
प्रदर्शन बन
गई है।
ऐसे
योगी हैं, जो आंख को
खींच कर बाहर
लटका लेते
हैं। डाक्टर पालब्रन्टन
ने जब पहली
दफा एक योगी
को यह करते
देखा, तो
वह हैरान हो
गया, क्योंकि
वह तो खुद
डाक्टर था। यह
अविश्वास की बात
थी, यह हो
ही नहीं सकता
कि दोनों
आंखें खींचकर
उसने लटका लीं,
चार इंच
आंखें नीचे
लटक गई! और अब
भी वह उन आंखों
से देख रहा है—सारी
मांस पेशियां
बाहर आ गयी
हैं, खून
झरने लगा; फिर
वापस उसने
आंखें अपने गङ्ढों
में जमा लीं!
तब उसने कहा
कि दो रुपए
मेरी फीस! इतना
बड़ा चमत्कार,
लेकिन मांग
तो लोभ की!
और जब
मन योगी हो
जाता है...क्या
है के याग का
अर्थ?
योग
शब्द का अर्थ
है: जोड़, संगम,
मिलन, संभोग।
योग
का अर्थ है: दो
का एक हो
जाना।
तो मन
के योग का
क्या अर्थ
होगा?—जहां
मन की लहरें, और मन का
सागर एक हो
जाए; जहां
मन की दौड़ और
मन का ठहरा
होना एक हो
जाए; जहां
मन, मन में
लीन हो जाए।
परम संभोग का
क्षण है जब मन मन में ही
लीन हो जाता
है, डूब
जाता है। वही
समाधि है।
सब
विधि सहजे
पाइये, जो मन जोगी
हुई।
और
जिसने मन के
मिलने की यह
कीमिया पा ली, उसके लिए सब
सरल हो जाता
है।
सब
विधि सहजे
पाइये—वह
सभी कुछ सहज
पा लेता है।
उसे पाने के
लिए कुछ और
करना नहीं
पड़ता।
मन
ऐसा निरमल
भया...
और इस
समाधि से, इस मन के मन
में डूब जाने
से मन ऐसा निरमल
हो जाता है...।
ये वचन
गूंजते
रहें
तुम्हारे मन
में—उपयोगी
होंगे।
मन
ऐसा निरमल
भया, जैसा
गंगा नीर।
पाछै—पाछै हरि फिरै, कहत
कबीर कबीर।।
एक
वक्त है कि
साधक खोजता है
परमात्मा को; चिल्लाता है—राम,
रहीम—पुकारता
है। और एक ऐसा
वक्त भी आता
है जब परमात्मा
तुम्हारे
पीछे—पीछे
घूमता है—कहत
कबीर—कबीर
यह
वक्त कब आता
है, जब
परमात्मा
तुम्हारे
पीछे खोजने
लगता है, बुलाता
है?
एक
वक्त था, तुम
बुलाते थे, कोई आवाज
उत्तर में न
आती थी। वह
वक्त वही था, जब तुम्हारा
मन तरंगों से
भरा था। तब
तुम्हारी
आवाज इस योग्य
न थी कि सुनी
जाए—इस योग्य
तो बिलकुल ही
न थी कि उसका
उत्तर दिया
जाए।
तो
चिल्लाते रहो, तुम मंदिरों
में, मस्जिदों में,।
कबीर कहते हैं
कि क्या तुम्हारा
खुदा बहरा हो
गया है कि तुम
सुबह
से उठकर अजान
कर रहे हो, इतने
जोर से नमाज
पढ़ रहे हो? क्या
बहरा हुआ
खुदाय? क्यों
इतने जारे
से चिल्ला रहे
हो? चिल्लाते
रहो—मंदिरों
में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में—कुछ भी न
होगा।
तुम्हारे
चिल्लाने से
कुछ भी न
होगा। क्योंकि
तुम्हारा
चिल्लाना भी
तुम्हारे मन का
शोरगुल है।
चुप हो जाओ।
प्रार्थना
बोलना नहीं है, चुप हो जाना
है।
प्रार्थना
परमात्मा से
कुछ कहना नहीं
है। प्रार्थना
वस्तुतः
परमात्मा से
कहना नहीं है, परमात्मा को
सुनने की विधि
है। चुप हो
जाओ—सुनो।
और जब
मन मन में
लीन हो कर चुप
हो जाता है, एक भी तरंग
नहीं होती
विचार की—मन
ऐसा निरमल
भया—तब
निर्मलता, तब
सब शुद्ध हो
जाता है, सब
विकृति खो
जाती है, तब
सब रोग मिट
जाते हैं। तब
मन एक निर्मल
दर्पण हो जाता
है।
मन
ऐसा निरमल
भया, जैसा
गंगा नीर।
जैसे
गंगा का जल!
पाछै—पाछै हरि फिरै, कहत
कबीर कबीर।
अब
उलटी हो गई सब
बात। अब खुद
परमात्मा
साधक के पीछे
घूमता है, खोजता है।
जब तुम योग्य
हो, तब यह
स्वयं
तुम्हारे
द्वार पर
दस्तक देता है।
और जब तक तुम
अयोग्य हो, तुम कितने
ही मंदिरों, गिरजों, गुरुद्वारों में दस्तक
दो, वह
दस्तक उसके
द्वार पर नहीं
पहुंचेगी।
इसलिए
असली सवाल
तुम्हारे
निर्मल हो
जाने का है।
और निर्मलता
का कबीर का
अर्थ मन के मन
में लीन हो
जाने का है—मन, मन में खो
जाए।
ध्यान
अर्थात मन में
मन खो जाए, कुछ बचें न
तरंगें—सागर
बचे, लहर न
बचे। पर बड़ा
मुश्किल है।
तीन
लोक संशय पड़ा काहिं
कहूं समझाय।
किसको
समझाओ—सब पहले
से समझे बैठे
हैं! पहले से
समझदार बन गए
हैं! उधार समझ
ने सभी को
समझदार बना
दिया है। और
इसलिए उनके
अज्ञान के
मिटने की कोई
विधि नहीं है।
पहला
ज्ञान—समझना
कि मैं
अज्ञानी हूं; तब मैं समझा
के कह सकूंगा।
आज
इतना ही।
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