सुनो भई साधो—(कबीरदास)--ओशो
कबीर दास के अमृृृत वचनों पर फिर से एक बार ओशो के दिये गये बीस अमुुुुल्यप्रवचनों को संकलन, जो दिनांक 11-11-1974 से 20-11-1974 तक पूना आश्रम ।
कबीर अनूठे हैं। और प्रत्येक के लिए उनके द्वारा आशा का द्वार खुलता है। क्योंकि कबीर से ज्यादा साधारण आदमी खोजना कठिन है। और अगर कबीर पहुंच सकते हैं, तो सभी पहुंच सकते हैं। कबीर निपट गंवार हैं, इसलिए गंवार के लिए भी आशा है; बे—पढ़े—लिखे हैं, इसलिए पढ़े—लिखे होने से सत्य का कोई भी संबंध नहीं है। जाति—पाति का कुछ ठिकाना नहीं कबीर की—शायद मुसलमान के घर पैदा हुए, हिंदू के घर बड़े हुए। इसलिए जाति—पाति से परमात्मा का कुछ लेना—देना नहीं है।
कबीर दास के अमृृृत वचनों पर फिर से एक बार ओशो के दिये गये बीस अमुुुुल्यप्रवचनों को संकलन, जो दिनांक 11-11-1974 से 20-11-1974 तक पूना आश्रम ।
कबीर अनूठे हैं। और प्रत्येक के लिए उनके द्वारा आशा का द्वार खुलता है। क्योंकि कबीर से ज्यादा साधारण आदमी खोजना कठिन है। और अगर कबीर पहुंच सकते हैं, तो सभी पहुंच सकते हैं। कबीर निपट गंवार हैं, इसलिए गंवार के लिए भी आशा है; बे—पढ़े—लिखे हैं, इसलिए पढ़े—लिखे होने से सत्य का कोई भी संबंध नहीं है। जाति—पाति का कुछ ठिकाना नहीं कबीर की—शायद मुसलमान के घर पैदा हुए, हिंदू के घर बड़े हुए। इसलिए जाति—पाति से परमात्मा का कुछ लेना—देना नहीं है।
कबीर
जीवन भर
गृहस्थ रहे—जुलाहे—बुनते
रहे कपड़े और
बेचते रहे; घर छोड़
हिमालय नहीं
गए। इसलिए घर
पर भी परमात्मा
आ सकता है, हिमालय
जाना आवश्यक
नहीं। कबीर ने
कुछ भी ने छोड़ा
और सभी कुछ पा
लिया। इसलिए
छोड़ना पाने की
शर्त नहीं हो
सकती।
और
कबीर के जीवन
में कोई भी
विशिष्टता
नहीं है।
इसलिए
विशिष्टता
अहंकार का
आभूषण होगी; आत्मा का
सौंदर्य
नहीं।
कबीर न
धनी हैं, न
ज्ञानी है, न समादृत
हैं, न
शिक्षित हैं,
न
सुसंस्कृत
हैं। कबीर
जैसा व्यक्ति
अगर परमज्ञान
को उपलब्ध हो
गया, तो
तुम्हें भी
निराश होने की
कोई भी जरूरत
नहीं। इसलिए
कबीर में बड़ी
आशा है।
बुद्ध
अगर पाते हैं
तो पक्का नहीं
की तुम पा सकोगे।
बुद्ध को ठीक
से समझोगे तो
निराशा पकड़ेगी; क्योंकि
बुद्ध की बड़ी
उपलब्धियां
हैं पाने के
पहले। बुद्ध
सम्राट हैं।
इसलिए अगर धन
से छूट जाए, आश्चर्य
नहीं।
क्योंकि
जिसके पास बस
है, उसे उस
सब की
व्यर्थता का
बोध हो जाता
है। गरीब के
लिए बड़ी
कठिनाई है—धन
से छूटना।
जिसके पास है
ही नहीं, उसे
व्यर्थता का
पता कैसे
चलेगा? बुद्ध
को पता चल गया,
तुम्हें
कैसे पता
चलेगा? कोई
चीज व्यर्थ है,
इसे जानने
के पहले, कम
से कम उसका
अनुभव तो होना
चाहिए। तुम
कैसे कह सकोगे
कि धन व्यर्थ
है? धन है
कहां? तुम
हमेशा अभाव
में जिए हो, तुम सदा झोपड़े
में रहे हो—तो
महलों में
आनंद नहीं है,
यह तुम कैसे
कहोगे? और
तुम कहते भी
रहो, और यह
आवाज
तुम्हारे
हृदय की आवाज
न हो सकेगी; यही दूसरों
से सुना हुआ
सत्य होगा। और
गहरे में धन
तुम्हें पकड़े
ही रहेगा।
बुद्ध
को समझोगे तो
हाथ—पैर ढीले
पड़ जाएंगे।
बुद्ध
कहते हैं, स्त्रियों
में सिवाय
हड्डी, मांस—मज्जा
के और कुछ भी
नहीं है, क्योंकि
बुद्ध को
सुंदरतम
स्त्रियां
उपलब्ध थीं, तुमने
उन्हें केवल
फिल्म के परदे
पर देखा है। तुम्हारे
और उन सुदरतम
स्त्रियों के
बीच बड़ा फासला
है। वे सुंदर
स्त्रियां
तुम्हारे लिए
अति मनमोहक
हैं। तुम सब छोड़कर
उन्हें पाना
चाहोगे।
क्योंकि जिसे
पाया नहीं है
वह व्यर्थ है,
इसे जानने
के लिए बड़ी
चेतना चाहिए।
कबीर
गरीब हैं, और जान गए यह
सत्य कि धन
व्यर्थ है।
कबीर के पास
एक साधारण सी
पत्नी है, और
जान गए कि सब
राग—रंग, सब
वैभव—विलास, सब सौंदर्य
मन की ही
कल्पना है।
कबीर
के पास बड़ी
गहरी समझ
चाहिए। बुद्ध
के पास तो
अनुभव से आ
जाती है बात; कबीर को तो
समझ से ही
लानी पड़ेगी। ..................
............कबीर
ने कहा, जब
परमात्मा
इतना बड़ा ताना—बाना
बुनता है
संसार का और
लज्जित नहीं
होता, तो
मैं गरीब छोटा—सा
ही काम करता
हूं, क्यों
लज्जित होऊं?
जब
परमात्मा
इतना बड़ा
संसार बनता है—जुलाहा
ही है
परमात्मा—में
भी जलाहा;
मैं थोड़ा
छोटा जुलाहा,
वह जरा बड़ा
जुलाहा। और जब
वह छोड़ के
नहीं भाग गया,
मैं क्यों भागूं? मैंने
उस पर ही छोड़
दिया है, जो
उसकी मरजी।
अभी उसका आदेश
नहीं मिला कि
बंद कर दो।
वे
जीवन के अंत
तक, बूढ़े हो
गए तो भी
बाजार बेचने
जाते रहे।
लेकिन उनके
बेचने में बड़ा
भेद था, साधुता
थी। कपड़ा
बुनते थे, तो
वे बुनते वक्त
राम की धुन
करते रहते।
इधर से ताना, उधर से बाना
डालते, तो
राम की धुन
करते। और कबीर
जैसे व्यक्ति
जब कपड़े के ताने—बाने
में राम की
धुन करें, तो
उस कपड़े का
स्वरूप ही बदल
गया। उसमें
जैसे कि राम
की ही बुन
दिया। इसलिए
कबीर कहते हैं,
झीनी झीनी
बीनी रे
चदरिया! और
कहते हैं, बड?ी लगन से और
बड़े प्रेम से बीनी है।
और जब जाते
बाजार में, तो ग्राहकों
से वे कहते कि
राम, तुम्हारे
लिए ही बुनी
है, और
बहुत सम्हाल
के बुनी है।
उन्होंने कभी
किसी ग्राहक
को राम के लिए
सिवा और
दूसरों कोई संबोधन
नहीं किया। ये
ग्राहक राम
हैं। यह इसी
राम के लिए
बुनी है। ये
ग्राहक ग्राहक
नहीं हैं और
कबीर कोई
व्यवसायी
नहीं हैं।
कबीर
व्यवसाय करते
रहे और सादे
हो गए।
उन्होंने
सादगी को अलग
से नहीं साधा।
अलग से साधोगे
कि जटिल हो
जाएगी। सादगी
साधी नहीं जा
सकती। समझ
सादगी बन जाती
है।
कबीर
ने अपने को
इतना मरजी पर
छोड़ दिया
परमात्मा की, सुबह लोग
भजन के लिए
इकट्ठे हो
जाते, तो
कबीर उनसे
कहते कि ऐसे
मत चले जाना, खाना लेकर जाना।
पत्नी—बच्चे
परेशान थे:
कहां से इतना
इंतजाम करो!
उधारी बढ़ती
जाती है। कर्ज
में दबते
जाते। रोज रात
को कमाल कबीर
का लड़का, उनसे
कहता कि अब बस
हो गया, अब
कल किसी से मत
कहना! कबीर
कहते, जब
तक वह कहलाता
है, तब तक
हम क्या करें?
तुम्हारी
सुनें कि उसकी
सुनें? जिस
दिन वह बंद कर
देगा, कहनेवाला कौन! हम अपनी
तरफ से कुछ
करते नहीं और
तुम क्यों
परेशान हो? जब वह इतना
इंतजाम करता
है, यह भी
करेगा! ........................
(ओशो)
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