सूत्र:
90—आँख की
पुतलियों को
पंख की भांति
छूने से
उनके
बीच का हलकापन
ह्रदय में
खुलता है।
और
वहां
ब्रह्मांड व्याप
जाता है।
91—हे
दयामयी,
अपने रूप के
बहुत ऊपर और
बहुत
नींचे,
आकाशीय उपस्थिति
में प्रवेश
करो।
एक
बार एक चर्च
में ऐसा हुआ
कि एक बहुत
लंबे और उबाऊ
व्याख्यान के
बाद पादरी ने
सूचना दी कि मंगलकामना
के तुरंत बाद
बोर्ड की एक
संक्षिप्त
बैठक होगी।
सभा समाप्त
होने पर जो
पहला आदमी
पादरी के पास
पहुंचा वह एक
अजनबी था।
पादरी ने सोचा कि कुछ गलतफहमी हुई है, क्योंकि वह व्यक्ति बिलकुल अजनबी था। वह ईसाई भी नहीं मालूम पड़ता था; उसका चेहरा मुसलमान जैसा था। तो पादरी ने उससे कहा कि ऐसा लगता है कि आपने सूचना को गलत ढंग से समझा; यहां बोर्ड (समिति) की बैठक होने वाली है।
पादरी ने सोचा कि कुछ गलतफहमी हुई है, क्योंकि वह व्यक्ति बिलकुल अजनबी था। वह ईसाई भी नहीं मालूम पड़ता था; उसका चेहरा मुसलमान जैसा था। तो पादरी ने उससे कहा कि ऐसा लगता है कि आपने सूचना को गलत ढंग से समझा; यहां बोर्ड (समिति) की बैठक होने वाली है।
उस
अजनबी ने कहा : 'यही
तो मैंने भी
सुना। और अगर यहां
कोई व्यक्ति
है जो मुझसे
भी ज्यादा
बोर्ड हो तो
मैं उससे
मिलना
चाहूंगा—इफ
देअर वाज समवन हिअर
मोर बोर्ड दैन
मी देन आई वुड
लाइक टु मीट
हिम।’
प्रत्येक
आदमी की यही
स्थिति है।
लोगों के
चेहरे देखो, या
आईने में अपना
ही चेहरा देखो,
और तुम्हें
लगेगा कि मैं
सबसे ज्यादा
ऊबा हुआ आदमी
हूं। और
तुम्हें यह
असंभव मालूम
होगा कि कोई
दूसरा तुमसे
ज्यादा ऊबा
हुआ हो सकता है।
पूरा जीवन एक
लंबी ऊब मालूम
पड़ता है—रूखा—सूखा,
नीरस और
अर्थहीन—जिसे
तुम किसी भाति
बोझ की तरह ढो
रहे हो।
ऐसा
क्यों हो गया
है?
जिंदगी ऊब
बनने के लिए
नहीं है। जीवन
दुख—संताप
बनने के लिए
नहीं है। जीवन
एक उत्सव है; जीवन
हर्षोल्लास
का शिखर है।
लेकिन यह केवल
कविता की, स्वप्न
की, बातचीत
की चीज बन कर
रह गई है। कभी—कभार
कोई बुद्ध, कोई कृष्ण
गहन उत्सव में
मालूम होते
हैं, लेकिन
वे अपवाद जैसे
लगते हैं। वे
सच में हुए, यह भी मानने
को दिल नहीं
होता।
अविश्वसनीय
मालूम पड़ते हैं—मानो
वे यथार्थ
नहीं, कल्पनाएं
हों। ऐसा लगता
है कि ऐसे लोग
कभी होते नहीं;
वे केवल
हमारी कल्पना
की उड़ान
हैं, पुराण—कथाएं
हैं, स्वप्न
हैं। वे मिथक
हैं। वे हमारी
आशाएं हैं। वे
असलियत नहीं
हैं। असलियत
तो हमारा अपना
चेहरा है जिस
पर ऊब, दुख
और संताप छाया
हुआ है।
यथार्थ तो
हमारी पूरी
जिंदगी है, जिसे हम
किसी तरह ढो
रहे हैं।
ऐसा
क्यों हो गया? यह
जीवन का
बुनियादी
सत्य होना
नहीं चाहिए; ऐसा हो नहीं
सकता।
क्योंकि ऐसा
सिर्फ मनुष्य
के साथ होता
है। वृक्ष हैं,
तारे हैं, पशु—पक्षी
हैं, कहीं
भी तो ऐसा
नहीं होता है।
मनुष्य को छोड़
कर कोई भी तो
ऊबा हुआ नहीं
है। यदि
उन्हें कभी
पीड़ा भी होती
है तो वह
क्षणिक है।
उनकी पीड़ा सदा—सदा
की ग्रस्तता
नहीं बनती है,
चिंता नहीं
बनती है। वह
पीड़ा सतत उनके
मन पर छाई
नहीं रहती है।
वह क्षणिक है,
एक छोटी सी
दुर्घटना है;
वे उसे ढोते
नहीं हैं।
पशुओं
को पीड़ा हो
सकती है, लेकिन
उन्हें कभी
दुख—संताप
नहीं सताता।
उनकी पीड़ा
आकस्मिक घटना
होती है; वे
उससे बाहर
निकल जाते हैं।
फिर वे उसे
ढोते नहीं हैं,
वह पीड़ा
उनका स्थायी
घाव नहीं बन
जाती है। पीड़ा
आती है, चली
जाती है, अतीत
का हिस्सा हो
जाती है, वह
कभी उनके
भविष्य का
हिस्सा नहीं
बनती। जब पीड़ा
स्थायी हो
जाती है, एक
घाव बन जाती
है, जब वह
एक क्षणिक
घटना न रहकर
तुम्हारे
अस्तित्व का
हिस्सा बन
जाती है, मानो
तुम उसके बिना
जी ही नहीं
सकते, तब
वह समस्या बन
जाती है। और
वह समस्या
सिर्फ मनुष्य
के मन में
पैदा हुई है।
वृक्ष
दुखी नहीं हैं; उन्हें
कोई संताप
नहीं सताता।
ऐसा नहीं है
कि उनकी
मृत्यु नहीं
होती; वे
भी मरते हैं।
लेकिन मृत्यु
उनके लिए
समस्या नहीं
है। ऐसा नहीं
है कि वृक्षों
को पीड़ादायी
अनुभव नहीं
होते, उन्हें
भी पीड़ादायी
अनुभव होते
हैं। लेकिन ये
अनुभव उनका
जीवन नहीं बन
जाते, वे
सिर्फ परिधि
पर घटते हैं
और विदा हो
जाते हैं।
उनके केंद्र
में, उनके
अंतरतम में
उनका जीवन
उत्सव बना
रहता है।
वृक्ष सदा
उत्सव में है।
मृत्यु होगी,
लेकिन एक ही
बार होगी।
पूरी जिंदगी
उसे सिर पर
नहीं ढोना है।
मनुष्य को छोड्कर
जगत में हर
कहीं उत्सव है।
सिर्फ मनुष्य
ऊबा हुआ है; ऊब एक
मानवीय घटना
है। क्या भूल
हो गई है?
कुछ
भूल अवश्य हुई
है। और एक ढंग
से यह शुभ
लक्षण भी हो
सकता है। ऊब
मानवीय है।
तुम मनुष्य की
परिभाषा ऊब से
कर सकते हो। अरस्तु ने
मनुष्य की
परिभाषा
बुद्धिमान
होने से की है।
वह परिभाषा
पूरी तरह सही
नहीं है; वह शत—प्रतिशत
सही नहीं है।
क्योंकि फर्क
सिर्फ मात्रा
का है। पशु भी
बुद्धिमान
हैं, लेकिन
कम बुद्धिमान
हैं। वे
सर्वथा
बुद्धिहीन
नहीं हैं। ऐसे
पशु भी हैं जो
मनुष्य मन के
जरा ही नीचे
हैं। वे भी
अपने ढंग से
बुद्धिमान
हैं, लेकिन
उतने
बुद्धिमान
नहीं हैं
जितने मनुष्य
हैं। लेकिन वे
बिलकुल
निर्बुद्धि
नहीं हैं।
फर्क मात्रा
का ही है।
इसलिए मनुष्य
की परिभाषा
सिर्फ बुद्धि
से नहीं हो
सकती। लेकिन
उसकी परिभाषा
ऊब से हो सकती
है। एकमात्र
मनुष्य ही ऊबा
हुआ जानवर है।
और
उसकी यह ऊब इस
हद तक जा सकती
है कि मनुष्य
आत्मघात कर
सकता है।
सिर्फ मनुष्य
आत्महत्या
करता है, कोई
पशु
आत्महत्या
नहीं करता।
आत्महत्या
पूरी तरह
मानवीय घटना
है। जब ऊब इस
हद पर पहुंच
जाती है जहां
आशा भी असंभव
हो जाए तो तुम
अपने हाथों ही
अपनी जिंदगी
खतम कर लेते
हो, क्योंकि
अब इसे ढोए
चलने में कोई
अर्थ न रहा।
तुम इस ऊब को, इस पीड़ा को
ढोते हो, झेलते
हो, क्योंकि
कल अभी भी
आशापूर्ण है।
तुम्हें लगता
है कि आज बुरा
है, लेकिन कल
कुछ होगा। उस
आशा में तुम
किसी तरह चलते
रहते हो।
मैंने
सुना है, एक
बार चीन के एक
सम्राट ने
अपने प्रधान
मंत्री को फांसी
की सजा दे दी।
जिस दिन
प्रधान
मंत्री को फांसी
दी जाने वाली
थी, सम्राट
उससे मिलने
आया, उसे
अंतिम विदा
कहने आया। वह
उसका बहुत
वर्षों तक
वफादार सेवक
रहा था,
लेकिन उसने
कुछ किया
जिससे सम्राट
बहुत नाराज हो
गया और उसे फांसी
की सजा दे दी।
लेकिन यह याद
करके कि यह
उसका अंतिम
दिन है, सम्राट
उससे मिलने
आया।
जब
सम्राट आया तो
उसने देखा कि
प्रधान
मंत्री रो रहा
है,
उसकी आंखों
से आंसू बह
रहे हैं। वह
सोच भी नहीं
सकता था कि
मृत्यु उसके
रोने का कारण
हो सकती है, क्योंकि
प्रधान
मंत्री बहुत
बहादुर आदमी
था। उसने कहा. 'यह कल्पना
करना भी असंभव
है कि तुम
मृत्यु को
निकट देखकर रो
रहे हो। यह
सोचना भी
असंभव है। तुम
बहादुर आदमी
हो और मैंने
अनेक बार
तुम्हारी
बहादुरी देखी
है। अवश्य कोई
और बात है।
क्या बात है? यदि मैं कुछ
कर सकता हूं
तो जरूर
करूंगा।’
प्रधान
मंत्री ने कहा
: 'अब कुछ भी
नहीं किया जा
सकता; और
बताने से भी
कुछ लाभ नहीं
होगा। लेकिन
अगर आप जिद
करेंगे तो मैं
अभी भी आपका सेवक
हूं आपकी
आज्ञा मानकर
बता दूंगा।’
सम्राट
ने जिद की और
प्रधान
मंत्री ने कहा
: 'मेरे रोने
का कारण
मृत्यु नहीं
है; क्योंकि
मृत्यु कोई
बड़ी बात नहीं
है। मनुष्य को
एक दिन मरना
ही है; किसी
भी दिन मृत्यु
हो सकती है।
मैं तो बाहर
खड़े आपके घोड़े
को देखकर रो
रहा हूं।’
सम्राट
ने पूछा. 'घोड़े
के कारण रोते
हो? लेकिन
क्यों?'
प्रधान
मंत्री ने
कहा. 'मैं जिंदगी
भर इसी तरह के
घोड़े की तलाश
में रहा; क्योंकि
मैं एक
प्राचीन कला
जानता हूं।
मैं घोड़ों
को उड़ना
सिखा सकता हूं
लेकिन उसके
लिए एक खास
किस्म का घोड़ा
चाहिए। यह उसी
किस्म का घोड़ा
है। और यह
मेरा अंतिम
दिन है। मुझे
अपनी मृत्यु
की फिक्र नहीं
है; मैं
रोता हूं कि
मेरे साथ एक
प्राचीन कला
भी मर जाएगी।’
सम्राट
की उत्सुकता
जगी—घोड़ा उड़े, यह
कितनी बड़ी बात
होगी—उसने कहा
: 'घोड़े को उड़ना
सिखाने में
कितने दिन
लगेंगे?
प्रधान
मंत्री ने कहा
: कम से कम एक
वर्ष—और यह
घोड़ा उड़ने
लगेगा।’
सम्राट
ने कहा. 'बहुत
अच्छा! मैं
तुम्हें एक
वर्ष के लिए
आजाद कर दूंगा।
लेकिन स्मरण
रहे, यदि
एक वर्ष में
घोड़ा नहीं उड़ा
तो तुम्हें
फिर फांसी दे
दी जाएगी। और
यदि घोड़ा उड़ने
लगा तो
तुम्हें माफ
कर दिया जाएगा।
और माफ ही
नहीं, मैं
तुम्हें अपना
आधा राज्य भी
दे दूंगा।
क्योंकि मैं
इतिहास का
पहला सम्राट
होऊंगा जिसके
पास उड़ने
वाला घोड़ा
होगा। तो जेल
से बाहर आ जाओ
और रोना बंद
करो।’
प्रधान
मंत्री घोड़े
पर सवार, प्रसन्न
और हंसता हुआ
अपने घर
पहुंचा। उसकी
पत्नी अभी भी
रो— धो रही थी।
उसने कहा : 'मैंने
सब सुन लिया
है। तुम्हारे
आने के पहले
ही मुझे खबर
मिल गई है।
लेकिन बस एक
वर्ष? और
मैं जानती हूं
तुम्हें कोई
कला नहीं आती
है और यह घोड़ा
कभी उड़ नहीं
सकता। यह तो
तरकीब है, धोखा
है। तो अगर
तुम एक साल का
समय मांग सकते
थे तो दस साल
का समय क्यों
नहीं माग लिया?'
प्रधान
मंत्री ने कहा
: 'वह जरा
ज्यादा हो
जाता। जो मिला
है वही बहुत
ज्यादा है।
घोड़े
के उड़ने की
बात ही
अविश्वसनीय
है,
फिर दस साल
का समय मांगना
सरासर धोखा
होता। लेकिन
रोओ मत।’
लेकिन
पत्नी ने कहा : 'यह
तो मेरे लिए
और बड़े दुख की
बात है कि मैं
तुम्हारे साथ
भी रहूंगी और
भीतर— भीतर
मुझे पता भी
है कि एक वर्ष
के बाद तुम्हें
फांसी लगने
वाली है। यह
एक वर्ष तो
भारी दुख का
वर्ष होगा।’
प्रधान
मंत्री ने
कहा. 'अब मैं
तुम्हें एक
प्राचीन भेद
की बात बताता
हूं जिसका
तुम्हें पता
नहीं है। इस
एक वर्ष में
सम्राट मर
सकता है, घोड़ा
मर सकता है, मैं मर सकता
हूं। या कौन
जाने घोड़ा उड़ना
ही सीख जाए।
एक वर्ष!'
बस
आशा—मनुष्य
आशा के सहारे
जीता है, क्योंकि
वह इतना ऊबा
हुआ है। और जब
ऊब उस बिंदु
पर पहुंच जाती
है जहां तुम
और आशा नहीं
कर सकते, जहां
निराशा
परिपूर्ण
होती है, तब
तुम
आत्महत्या कर
लेते हो। ऊब
और आत्महत्या,
दोनों
मानवीय
घटनाएं हैं।
कोई पशु
आत्महत्या
नहीं करता है।
कोई वृक्ष
आत्महत्या
नहीं करता है।
ऐसा
क्यों हो गया
है?
इसके पीछे
कारण क्या है?
क्या आदमी बिलकुल
भूल गया है कि
कैसे जीया
जाता है, कि
कैसे जीवन का
उत्सव मनाया
जाता है? जब
कि सारा
अस्तित्व
उत्सवपूर्ण
है, यह
कैसे संभव हुआ
कि केवल
मनुष्य उससे
बाहर निकल गया
है और उसने
अपने चारों ओर
विषाद का एक वातावरण
निर्मित कर
लिया है?
मगर
ऐसा ही हो गया
है। पशु वृत्तियों
के द्वारा
जीते हैं; वे
बोध से नहीं
जीते। वे
प्रकृति
द्वारा
संचालित होते
हैं, वे
यंत्रवत जीते
हैं। उन्हें
कुछ सीखना
नहीं है; वे
उसे लेकर ही
जन्म लेते हैं
जो सीखने
योग्य है।
उनका जीवन
वृत्तियों के
तल पर निर्बाध
चलता रहता है।
उन्हें कुछ
सीखना नहीं है।
उन्हें जीने
और सुखी होने
के लिए जो भी
चाहिए वह उनकी
कोशिकाओं में
बिल्ट—इन है, उसका ब्लूप्रिंट
पहले से तैयार
है। इसलिए वे
यंत्रवत जीए
जाते हैं।
मनुष्य
ने अपने वृत्तिया
खो दी हैं, अब
उसके पास कोई ब्लूप्रिंट
नहीं है। तुम
बिना किसी
ब्लूप्रिंट
के, बिना
किसी बिल्ट—इन
प्रोग्रेम
के जन्म लेते
हो। तुम्हारे
लिए कोई बनी—बनाई
यांत्रिक
रेखाएं
उपलब्ध नहीं
हैं, तुम्हें
अपना मार्ग
स्वयं
निर्मित करना
है। तुम्हें
वृत्ति की जगह
कुछ ऐसी चीजें
निर्मित करनी
हैं जो वृत्ति
नहीं हैं, क्योंकि
वृत्ति तो जा
चुकी।
तुम्हें
वृत्ति की जगह
विवेक से काम
लेना है; तुम्हें
वृत्ति की जगह
बोध से काम
लेना है। तुम
यंत्र की
भांति नहीं चल
सकते हो। तुम
उस अवस्था के
पार चले गए हो
जहां यांत्रिक
जीवन संभव है;
यांत्रिक
जीवन
तुम्हारे लिए
संभव नहीं है।
समस्या यह है
कि तुम पशु की
भांति नहीं जी
सकते और तुम
यह भी नहीं
जानते कि जीने
का और कोई ढंग
भी है—यही
समस्या है।
तुम्हारे
पास कोई
प्रकृति
द्वारा दिया
हुआ बिल्ट—इन प्रोग्रेम
नहीं है, जिसके
अनुसार तुम
चलो। तुम्हें
अस्तित्व का
सीधा
साक्षात्कार
करना है। और
ऊब, दुख और
संताप
तुम्हारी
नियति होने ही
वाले हैं, अगर
तुम
वृत्तियों के
सहारे जीने की
बजाय बोध से
जीने के लिए
उपयुक्त बोध
पैदा नहीं
करते।
तुम्हें सब
कुछ सीखना है,
कही समस्या
है। किसी पशु
को कुछ सीखना
नहीं है और
तुम्हें सभी
कुछ सीखना है।
और जब तक तुम
यह नहीं सीखते,
तुम्हें
जीना मुश्किल
होगा।
तुम्हें जीने
की कला सीखनी
होगी; पशु
को इसकी जरूरत
नहीं है।
सीखना
ही समस्या है।
वैसे तुम भी
बहुत कुछ
सीखते हो। तुम
धन कमाना
सीखते हो, गणित
सीखते हो, इतिहास
सीखते हो, विज्ञान
सीखते हो।
लेकिन कभी तुम
यह नहीं सीखते
कि जीया कैसे
जाए। और उससे
ही ऊब की
समस्या पैदा
होती है। पूरी
मनुष्यता ऊब
से पीड़ित है, क्योंकि
एक बुनियादी
बात अछूती रह
जाती है। और उसे
वृत्तियों पर
नहीं छोड़ा जा
सकता; क्योंकि
अब जीने के
लिए
वृत्तियां ही
न रहीं।
मनुष्य के लिए
वृत्ति छूट
चुकी है; वह
द्वार बंद हो
चुका है।
तुम्हें अपना
मार्ग आप
बनाना है। तुम
बिना किसी नक्शे
के पैदा हुए
हो।
और
यह शुभ है।
क्योंकि
अस्तित्व
समझता है कि
तुम इतने जिम्मेवार
हो कि अपना
मार्ग आप बना
सकते हो। यह
गौरव की बात
है। यह महिमा
की बात है। यह
मनुष्य को
सर्वोच्च बना
देती है, अस्तित्व
का शिखर बना
देती है। क्योंकि
अस्तित्व
तुम्हें
स्वतंत्रता
देता है। कोई
पशु स्वतंत्र
नहीं है; उसे
अस्तित्व
द्वारा दिए गए
विशेष प्रोग्रेम
के अनुसार
जीना है। जब
वह जन्म लेता
है, वह एक प्रोग्रेम
के साथ जन्म
लेता है। और
उसे इस प्रोग्रेम
का अनुसरण
करना है। वह
उसके बाहर
नहीं जा सकता
है; वह
चुनाव नहीं कर
सकता है। उसके
लिए कोई
विकल्प नहीं
है। मनुष्य के
लिए सभी
विकल्प
उपलब्ध हैं; और उसे गति
करने के लिए
कोई नक्शा
नहीं दिया गया
है।
अगर
तुम जीने की
कला नहीं
सीखते तो
तुम्हारा
जीवन रूखा—सूखा
हो जाएगा, मरुस्थल
हो जाएगा। और
यही हो गया है।
तब तुम बहुत
कुछ करते रह
सकते हो और
फिर भी तुम्हें
लगेगा कि मैं
जीवित नहीं
हूं मैं
मुर्दा हूं।
तुम्हें
लगेगा कि कहीं
गहरे में तुम
काम भी करते
रहते हो, क्योंकि
करना पड़ता है।
सिर्फ जीने के
लिए तुम काम
करते रहते हो।
लेकिन वह 'सिर्फ
जीना' जीवन
नहीं है।
उसमें कोई
नृत्य नहीं है,
कोई पुलक
नहीं है। वह
मात्र
व्यवसाय बनकर,
व्यस्तता
बनकर रह गया
है। उसमें कोई
प्रफुल्लता
नहीं है; और
जाहिर है कि
तुम उसका मजा
नहीं ले सकते।
तंत्र
की ये विधियां
तुम्हें यह
सिखाने के लिए
हैं कि कैसे
जीया जाए। वे
तुम्हें
सिखाती हैं कि
पशुओं की तरह
वृत्ति पर मत
निर्भर रहो, क्योंकि
वह रही नहीं।
वह इतनी धुंधली—
धुंधली
है कि
तुम्हारे काम
की नहीं है।
निरीक्षण
से पाया गया
है कि अगर एक
मानव—शिशु मां
के बिना पाला
जाए तो वह कभी
प्रेम नहीं
सीख सकता, वह
कभी प्रेम
नहीं कर सकता।
वह जीवन— भर
प्रेम के बिना
जीएगा; क्योंकि अब
वृत्ति तो रही
नहीं। उसे
प्रेम सीखना
होगा। उसके
लिए प्रेम भी
सीखने की चीज
है। और जो
आदमी का बच्चा
प्रेम के अभाव
में बड़ा किया
गया है वह
प्रेम नहीं
सीख सकता है।
वह कभी प्रेम
नहीं कर सकेगा।
अगर मां मौजूद
नहीं है, और
अगर मां सुख
और आनंद का
स्रोत नहीं
बनती है, तो
उस बच्चे के
जीवन में कभी
कोई स्त्री
सुख और आनंद
का स्रोत नहीं
बन सकेगी। वह
जब बड़ा होगा, प्रौढ़ होगा,
तो वह
स्त्रियों के
प्रति
आकर्षित नहीं
होगा; क्योंकि
अब वृत्ति तो
काम करती नहीं।
पशुओं
के साथ यह बात
नहीं है। ठीक
समय आने पर
उनकी वृत्ति
काम करने लगती
है। समय पर वे
कामुक हो
जाएंगे और
विपरीत लिंग
की तरफ
आकर्षित होने
लगेंगे। यह
चीज उनके लिए
इंस्टिक्टिव
है,
यांत्रिक
है। मनुष्य के
लिए कुछ
यांत्रिक
नहीं है। अगर
तुम मनुष्य के
बच्चे को भाषा
नहीं सिखाओगे
तो उसे भाषा
नहीं आएगी।
अगर उसे बोलना
नहीं सिखाया
जाएगा तो उसके
पास कोई भाषा
नहीं होगी। यह
स्वाभाविक
नहीं है, इसके
लिए कोई
वृत्ति नहीं
है। तुम जो
कुछ भी हो वह
सीखने के कारण
हो। मनुष्य
प्राकृतिक कम
और
सांस्कृतिक
ज्यादा है।
पशु सिर्फ
प्राकृतिक है,
मनुष्य
प्राकृतिक कम
और
सांस्कृतिक
ज्यादा है।
लेकिन
मनुष्य का एक
आयाम, बुनियादी
और आधारभूत
आयाम
असंस्कृत रह
जाता है। और
वह है जीने का
आयाम, जीवन
का आयाम। तुम
समझते हो कि
वह आयाम
तुम्हें मिला
ही हुआ है, तुम्हारे
पास ही है।
लेकिन यह बात
गलत है। तुम
नहीं जानते हो
कि कैसे जीया
जाए। क्योंकि
सिर्फ श्वास
लेना जीना
नहीं है; श्वास
लेना जीवन का
पर्याय नहीं
है। वैसे ही
भोजन करना और
सोना भी जीना
नहीं है। तब
तुम कहने को
ही जीवित हो; तुम सच्चे
अर्थ में
जीवित नहीं हो।
तुम जीवंत
नहीं हो।
बुद्ध
बस जीवित ही
नहीं हैं, वे
जीवंत हैं। वह
जीवंतता तो
तभी आती है जब
तुम उसे सीखते
हो, जब तुम
उसके प्रति
बोध से भरते
हो, जब तुम
उसकी खोज करते
हो और ऐसी
स्थिति
निर्मित करते
हो जिसमें
जीवन विकास कर
सके। इसे
स्मरण रखो.
मनुष्य के लिए
यांत्रिक
विकास संभव
नहीं है। उसकी
जगह सचेतन
विकास ने ले
ली है। अब
सचेतन विकास
में गति करने
के अलावा कोई
उपाय नहीं है।
अब तुम पीछे
नहीं लौट सकते।
ही, तुम
वहीं टिके रह
सकते हो जहां
हो। लेकिन तब
तुम ऊब से
पीड़ित होंगे।
यही
हुआ है। तुम
विकसित नहीं
हो रहे हो।
तुम पार्थिव
चीजें इकट्ठी
किए जा रहे हो; इसलिए
चीजें विकसित
हो रही हैं।
तुम्हारी गति
अवरुद्ध है, रुकी हुई है।
तुम्हारा धन
जमा हो रहा है,
इसलिए धन बढ़
रहा है, तुम
नहीं बढ़ रहे।
तुम्हारा
बैंक—बैलेंस
बड़ा हो रहा है,
तुम नहीं।
तुम जरा भी
नहीं बढ़ रहे
हो; इसके
विपरीत तुम
सिकुड़ रहे हो,
घट रहे हो।
तुम बढ़ तो
बिलकुल नहीं
रहे हो। और
अगर तुम कुछ
सचेतन रूप से
नहीं करते तो
तुम गए। सचेतन
प्रयत्न की
जरूरत है।
पशुओं से यह
अपेक्षा नहीं
की जा सकती, क्योंकि वे
जिम्मेवार
नहीं हैं। तो
यह बहुत
बुनियादी बात
समझ लेने जैसी
है कि स्वतंत्रता
के साथ
जिम्मेवारी आ
जाती है। और
तुम तभी
स्वतंत्र हो
सकते हो जब
तुम अपनी जिम्मेवारी
स्वीकार करते
हो।
पशु
जिम्मेवार
नहीं हैं, क्योंकि
पशु स्वतंत्र
भी नहीं हैं।
वे स्वतंत्र
नहीं हैं, उन्हें
बस एक विशेष
ढंग—ढांचे का
अनुगमन करना
है। और वे
सुखी हैं, क्योंकि
कुछ गलत होने
वाला नहीं है।
वे पूर्व —निश्चित
मार्ग पर चल
रहे हैं; वे
एक ढांचे का
अनुसरण कर रहे
हैं, जो
लाखों—लाखों
वर्षों के
विकास—क्रम
में निर्मित
हुआ है। और वह
सही पाया गया
है। वे उसके
अनुसार चल रहे
हैं। उसमें
गलत होने की
संभावना नहीं
है।
लेकिन
तुम्हारे गलत
होने की सब
संभावना है। क्योंकि
तुम्हारे लिए
कोई नक्शा
नहीं है, कोई
योजना नहीं है,
कोई ढंग—ढांचा
नहीं है।
तुम्हारे
भावी जीवन की
कोई तय
रूपरेखा नहीं
है। तुम
स्वतंत्र हो।
लेकिन तब तुम
पर एक भारी
दायित्व भी आ
जाता है। और
वह दायित्व यह
है कि तुम सही
चुनाव करो, सही ढंग से
काम करो और अपने
ही प्रयत्न से
अपना भविष्य
निर्मित करो।
सच तो यह है कि
मनुष्य को
अपने प्रयत्न
से ही अपने को
निर्मित करना
है।
पश्चिम
में
अस्तित्ववादी
जो कहते हैं
वह सही है। वे
कहते हैं कि
मनुष्य एसेंस
के बिना, आत्मा
के बिना पैदा
होता है।
सार्त्र, मार्शल,
हाइडेगर, सब कहते हैं
कि मनुष्य
आत्मा के बिना
जन्म लेता है।
वह अस्तित्व
की भांति पैदा
होता है और
फिर अपने
प्रयत्न से वह
आत्मा का सृजन
करता है। वह
एक संभावना की
तरह आता है और
फिर अपने प्रयत्न
से आत्मा का
सृजन करता है।
वह सिर्फ रूप
की तरह जन्म
लेता है और
फिर अपने सचेतन
प्रयत्न से
सत्व की रचना
करता है।
शेष
सारी प्रकृति
के साथ बात
ठीक उलटी है।
प्रत्येक
पशु, प्रत्येक
पौधा अपने साथ
सत्य लेकर, आत्मा लेकर,
एक
कार्यक्रम
लेकर, एक
नियति लेकर
जन्म लेता है।
सिर्फ मनुष्य
एक अवसर की
तरह जन्म लेता
है, उसकी
कोई नियति
नहीं है। और
इससे ही
समस्या पैदा
होती है, इससे
ही दायित्व
पैदा होता है।
और इससे ही
तुम्हें भय, चिंता और
संताप घेरता
है। और फिर
यदि तुम कुछ
नहीं करते हो
तो तुम जहां हो
वहीं अटक जाते
हो। और इस
अटकाव से ऊब
पैदा होती है।
तुम
जीवंत, सुखी,
उत्सवपूर्ण
और आनंदित तभी
होते हो जब
तुम विकास
करते हो जब
तुम बढ़ते हो, विस्तार
पाते हो; जब
तुम आत्मा का
सृजन करते हो,
असल में जब
तुम परमात्मा
से आविष्ट
होते हो, जब
परमात्मा
तुम्हारे
गर्भ में
विस्तार पाता
है, जब तुम
परमात्मा को
जन्म देते हो।
तंत्र
के लिए
परमात्मा
आरंभ नहीं है, परमात्मा
अंत है।
परमात्मा
स्रष्टा नहीं
है परमात्मा
विकास का चरम
बिंदु है, परम
शिखर है। वह
अंतिम है, प्रथम
नहीं। वह अल्फा
नहीं, ओमेगा है। और जब तक
तुम गर्भवान
नहीं होते, जब तक तुम
अपने भीतर
जीवन को नहीं
पालते, तब
तक तुम ऊब से
पीड़ित ही
रहोगे।
क्योंकि तब तक
तुम्हारा
जीवन व्यर्थ
होगा उससे कुछ
सार्थक नहीं
होने वाला है,
उसमें कोई
फल नहीं लगने
वाला है। और
उससे ही ऊब
पैदा होती है।
तुम
इस अवसर को
विकास का साधन
बना सकते हो
या इसे गंवा
सकते हो और
आत्मघात का
कारण बना सकते
हो। यह तुम पर
निर्भर है।
क्योंकि
मनुष्य
आत्महत्या कर
सकता है, इसलिए
मनुष्य ही
आध्यात्मिक
विकास कर सकता
है। कोई पशु
आध्यात्मिक
विकास नहीं कर
सकता है।
क्योंकि
मनुष्य के हाथ
में है कि वह
अपने को विनष्ट
कर सके इसलिए
उसके हाथ में
है कि वह अपना
सृजन भी कर
सके।
स्मरण
रहे,
दोनों
संभावनाएं
साथ—साथ हैं, युगपत हैं।
कोई पशु
आत्महत्या
नहीं कर सकता;
यह असंभव है।
तुम सोच भी
नहीं सकते कि
कोई सिंह
आत्महत्या की
बात सोचे, कि
वह किसी पहाड़ी
से कूदकर अपने
को समाप्त कर दे।
यह असंभव है।
कोई सिंह—चाहे
वह कितना ही
बलवान हो—कोई
सिंह
आत्महत्या की
बात, अपना
जीवन समाप्त
करने की बात
नहीं सोच सकता।
क्योंकि वह
स्वतंत्र
नहीं है।
लेकिन मनुष्य
अपने को
समाप्त करने
की सोच सकता
है।
असल
में तो ऐसा
आदमी खोजना
असंभव है
जिसने कई बार
आत्महत्या
करने का विचार
न किया हो। और
अगर तुम्हें
ऐसा कोई आदमी
मिल जाए जिसने
आत्महत्या का
विचार कभी न
किया हो तो
समझना कि वह
या तो पशु है
या देवता है।
आत्मघात
बुनियादी रूप
से मानवीय
घटना है।
लेकिन इस के
साथ ही एक
दूसरा द्वार
खुलता है कि
तुम अपना सृजन
भी कर सकते हो।
सच तो यह है कि
दोनों द्वार
युगपत खुलते
है। तुम अपना
सृजन कर सकते
हो,
क्योंकि
तुम अपना
विनाश भी कर
सकते हो। कोई
पशु अपना सृजन
नहीं कर सकता,
तुम अपना
सृजन कर सकते
हो। और यदि
तुम अपना सृजन
नहीं करते हो
तो तुम अपना
विनाश करने
लगोगे। यदि
तुम आत्म—सृजन
नहीं करोगे, आत्म—निर्माण
में नहीं
लगोगे.।
और
यह आत्म—सृजन
एक प्रक्रिया
है;
तुम्हें
सतत आत्म—सृजन
में लगे रहना
है। जब तक तुम
आत्यंतिक
शिखर तक न
पहुंच जाओ, तुम्हें
सृजन में लगे
रहना है। और
अगर तुम सृजन
नहीं करोगे तो
तुम ऊबोगे।
सृजन—विहीन
जीवन ही ऊब है।
और ये सब
विधियां
तुम्हें सृजन
करने में, पुनर्जन्म
पाने में, गर्भवान होने में
सहयोगी होंगी।
अब
मैं विधियों
को लेता हूं।
पहली
विधि। यह विधि
बहुत सरल है
और सचमुच
अदभुत विधि है।
तुम इसे
प्रयोग कर
सकते हो। कोई
भी व्यक्ति
इसे प्रयोग कर
सकता है।
इसमें
तुम्हारे
टाइप का सवाल
नहीं है; कोई
भी इसे कर
सकता है। और
यह विधि सबके
लिए सहयोगी
होगी। अगर तुम
इसमें बहुत
गहरे न भी जा
सको तो भी वह सहयोगी
होगी, तुम्हें
ताजा कर जाएगी।
जब भी तुम ऊब
से भरोगे,
यह विधि
तुम्हें
तुरंत ताजा कर
देगी। जब भी
तुम थके—हारे
महसूस करोगे,
यह तुम्हें
तुरंत नवजीवन
दे देगी। जब
भी तुम ऐसी
भाव—दशा में
होंगे जिसमें
जिंदगी से
निराशा अनुभव
हो, इस
विधि के
प्रयोग से
तुम्हारे
भीतर ऊर्जा की
नई धार
प्रवाहित
होने लगेगी।
तो
यह सबके लिए
उपयोगी है।
अगर तुम इस पर
ध्यान भी न
करो तो भी यह
तुम्हारे लिए
औषधि का काम
करेगी। यह
तुम्हें
स्वास्थ्य देगी।
और यह बहुत
सरल है; इसके
लिए किसी
पूर्व—तैयारी
की जरूरत नहीं
है।
विधि
है:
आंख
की पुतलियों
को पंख की
भांति छूने से
उनके बीच का
हलकापन हृदय
में खुलता है
और वहां
ब्रह्मांड
व्याप जाता है।
विधि
में प्रवेश के
पहले कुछ भूमिका
की बातें समझ
लेनी हैं।
पहली बात कि आंख
के बाबत कुछ
समझना जरूरी
है,
क्योंकि
पूरी विधि इस
पर ही निर्भर
करती है।
पहली
बात यह है कि
बाहर तुम जो
भी हो या जो
दिखाई पड़ते हो
वह झूठ हो
सकता है, लेकिन
तुम अपनी आंखों
को नहीं झुठला
सकते। तुम
झूठी आंखें
नहीं बना सकते
हो। तुम झूठा
चेहरा बना
सकते हो, लेकिन
झूठी आंखें
नहीं बना सकते।
वह असंभव है, जब तक कि तुम
गुरजिएफ की
तरह परम
निष्णात ही न हो
जाओ। जब तक
तुम अपनी सारी
शक्तियों के
मालिक न हो जाओ,
तुम अपनी आंखों
को नहीं झुठला
सकते।
सामान्य आदमी
यह नहीं कर
सकता है। आंखों
को झुठलाना
असंभव है।
यही
कारण है कि जब
कोई आदमी
तुम्हारी आंखों
में झांकता
है,
तुम्हारी आंखों
में आंखें
डालकर देखता
है तो तुम्हें
बहुत बुरा
लगता है।
क्योंकि वह
आदमी
तुम्हारी
असलियत में
झांकने की
चेष्टा कर रहा
है। और वहां
तुम कुछ भी
नहीं कर सकते;
तुम्हारी आंखें
असलियत को
प्रकट कर
देंगी, वे
उसे प्रकट कर
देंगी जो तुम
सचमुच हो।
इसीलिए किसी
की आंखों में
झांकना
शिष्टाचार के
विरुद्ध माना
जाता है। किसी
से बातचीत
करते समय भी
तुम उसकी आंखों
में झांकने से
बचते हो। जब
तक तुम किसी
के प्रेम में
नहीं हो, जब
तक कोई
तुम्हारे साथ
प्रामाणिक
होने को राजी
नहीं है, तब
तक तुम उसकी आंख
में नहीं देख
सकते।
एक
सीमा है। मनसविदों
ने बताया है
कि तीस सेकेंड
सीमा है। किसी
अजनबी की
परमात्मा को आंखों
में तुम तीस
सेकेंड तक देख
सकते हो—उससे
अधिक नहीं।
अगर उससे
ज्यादा देर तक
देखोगे
तो तुम
आक्रामक हो
रहे हो ओर
दूसरा व्यक्ति
तुरंत बुरा
मानेगा। हां,
बहुत दूर से तुम
किसी की आंख
में देख सकते
हो; क्योंकि
तब दूसरे को
उसका बोध नहीं
होता है। अगर
तुम सौ फीट की
दूरी पर हो तो
मैं तुम्हें घूरता
रह सकता हूं; लेकिन अगर
सिर्फ दो फीट
की दूरी हो तो
वैसा करना
असंभव है।
किसी
भीड़—भरी
रेलगाड़ी में, या
किसी लिफ्ट
में आस—पास
बैठे या खड़े
होकर भी तुम
एक—दूसरे की आंखों
में नहीं
देखते हो। हो
सकता है किसी
का शरीर छू
जाए, वह
उतना बुरा
नहीं है; लेकिन
तुम दूसरे की आंखों
में कभी नहीं झांकते हो।
क्योंकि वह
जरा ज्यादा हो
जाएगा, इतने
निकट से तुम
आदमी की
असलियत में
प्रवेश कर
जाओगे।
तो
पहली बात कि आंखों
का कोई
संस्कारित
रूप नहीं होता, आंखें
शुद्ध
प्रकृति हैं। आंखों
पर मुखौटा
नहीं है। और
दूसरी बात याद
रखने की यह है
कि तुम संसार
में करीब—करीब
सिर्फ आंख के
द्वारा गति
करते हो। कहते
हैं कि
तुम्हारी
अस्सी
प्रतिशत जीवन—यात्रा
आंख के सहारे
होती है।
जिन्होंने आंखों
पर काम किया
है उन
मनोवैज्ञानिकों
का कहना है कि
संसार के साथ
तुम्हारा
अस्सी
प्रतिशत संपर्क
आंखों के
द्वारा होता
है। तुम्हारा
अस्सी
प्रतिशत जीवन आंख
से चलता है।
यही
कारण है कि जब
तुम किसी अंधे
आदमी को देखते
हो तो तुमको
दया आती है।
तुम्हें उतनी
दया और
सहानुभूति तब
नहीं होती जब
तुम किसी बहरे
आदमी को देखते
हो। लेकिन जब
तुम्हें कोई
अंधा आदमी
दिखाई देता है
तो तुम्हें
अचानक उसके
प्रति
सहानुभूति और करुणा
अनुभव होती है।
क्यों? क्योंकि
वह अस्सी
प्रतिशत मरा
हुआ है। बहरा
आदमी उतना मरा
हुआ नहीं है।
अगर तुम्हारे
हाथ—पांव भी
कट जाएं तो भी
तुम उतने मृत
नहीं अनुभव
करोगे, लेकिन
अंधा आदमी
अस्सी
प्रतिशत
मुर्दा है। वह
केवल बीस
प्रतिशत
जीवित है।
तुम्हारी
अस्सी
प्रतिशत
ऊर्जा
तुम्हारी आंखों
से बाहर जाती
है। तुम संसार
में आंखों के
द्वारा गति
करते हो।
इसलिए जब तुम
थकते हो तो
सबसे पहले आंखें
थकती हैं और
फिर शरीर के
दूसरे अंग
थकते हैं।
सबसे पहले
तुम्हारी आंखें
ही ऊर्जा से
रिक्त होती
हैं। अगर तुम
अपनी आंखों को
फिर तरोताजा
कर लो तो
तुम्हारा
पूरा शरीर तरोताजा
हो जाएगा, क्योंकि
आंखें
तुम्हारी
अस्सी
प्रतिशत
ऊर्जा हैं।
अगर तुम अपनी आंखों
को पुनजार्वित
कर लो तो
तुमने अपने को
पुनर्जीवन दे
दिया।
तुम
किसी
प्राकृतिक
परिवेश में
कभी उतना नहीं
थकते हो जितना
किसी अप्राकृतिक
शहर में थकते
हो। कारण यह
है कि
प्राकृतिक
परिवेश में
तुम्हारी आंखों
को निरंतर
पोषण मिलता है।
वहां की
हरियाली, वहां
की ताजी हवा, वहां की हर
चीज तुम्हारी आंखों
को आराम देती
है, पोषण
देती है। एक
आधुनिक शहर
में बात उलटी
है; वहां
सब कुछ
तुम्हारी आंखों
का शोषण करता
है, वहां
उन्हें पोषण
नहीं मिलता है।
तुम
किसी दूर
देहात में चले
जाओ,
या किसी
पहाड़ पर चले
जाओ जहां के
माहौल में कुछ
भी कृत्रिम
नहीं है, जहां
सब कुछ
प्राकृतिक है,
और वहां
तुम्हें
भिन्न ही ढंग
की आंखें देखने
को मिलेंगी।
उनकी झलक, उनकी
गुणवत्ता और
होगी, वे
ताजी होंगी, पशुओं जैसी
निर्मल होंगी, गहरी होंगी, जीवंत और
नाचती हुई
होंगी।
आधुनिक शहर
में आंखें मृत
होती है; बुझी—बुझी
होती हैं।
उन्हें उत्सव
का पता नहीं
है। उन्हें
मालूम नहीं कि
ताजगी क्या है।
वहां आंखों
में जीवन का
प्रवाह नहीं
है, बस
उनका शोषण होता
है।
तुम्हारी
अस्सी
प्रतिशत
ऊर्जा आंखों
से होकर बहती
है। तुम्हें
इसका पूरा—पूरा
बोध होना
चाहिए और
तुम्हें आंखों
की गति, उनकी
ऊर्जा, उनकी
संभावना के
संबंध में
जागरूक होना
चाहिए।
भारत
में हम अंधे
व्यक्तियों
को
प्रज्ञाचक्षु
कहते हैं; उसका
विशेष कारण है।
प्रत्येक
दुर्भाग्य को
महान अवसर में
रूपांतरित
किया जा सकता
है। आंखों से
होकर अस्सी
प्रतिशत
ऊर्जा काम
करती है, और
अंधा आदमी
अस्सी
प्रतिशत
मुर्दा होता
है, संसार
के साथ उसका
अस्सी
प्रतिशत
संपर्क टूटा
होता है। जहां
तक बाहरी
दुनिया का
संबंध है, वह
आदमी बहुत दीन
है। लेकिन अगर
वह इस अवसर का,
इस अंधे
होने के अवसर
का उपयोग करना
चाहे तो वह इस
अस्सी
प्रतिशत
ऊर्जा का
उपयोग अपने आंतरिक
जगत के
आविष्कार के
लिए कर सकता
है। यह अस्सी
प्रतिशत
ऊर्जा, जिसके
बहने का
सामान्य
द्वार बंद है,
बिना उपयोग
के रह जाती है,
यदि वह उसकी
कला नहीं
जानता है।
तो
उसके पास
अस्सी
प्रतिशत
ऊर्जा का
भंडार पड़ा है, और
जो ऊर्जा
सामान्यत:
बहिर्यात्रा
में लगती है
वही ऊर्जा
अंतर्यात्रा
में लग सकती
है। अगर वह
उसे
अंतर्यात्रा
में संलग्न
करना जान ले
तो वह
प्रज्ञाचक्षु
हो जाएगा, विवेकवान
हो जाएगा।
तो
अंधा होने से
ही कोई
प्रज्ञाचक्षु
नहीं हो जाता, लेकिन
वह हो सकता है।
उसके पास
सामान्य आंखें
तो नहीं हैं, लेकिन उसे
प्रज्ञा की आंखें
मिल सकती हैं।
इसकी संभावना
है। हमने उसे
प्रज्ञाचक्षु
नाम यह बोध
देने के इरादे
से दिया कि वह
इसके लिए दुख
न माने कि उसे आंखें
नहीं हैं। वह
अंतर्चक्षु
निर्मित कर
सकता है। उसके
पास अस्सी
प्रतिशत
ऊर्जा का
भंडार अछूता
पड़ा है जो आंख
वालों के पास
नहीं है। वह
उसका उपयोग कर
सकता है। वह
अंतर्यात्रा
कर सकता है।
यदि
अंधा आदमी
बोधपूर्ण
नहीं है तो भी
वह तुमसे
ज्यादा शात
होता है, ज्यादा
विश्रामपूर्ण
होता है। किसी
अंधे आदमी को
देखो, वह
ज्यादा शांत
है, उसका
चेहरा ज्यादा
विश्रामपूर्ण
है। वह अपने
आप में
संतुष्ट है, उसमें
असंतोष नहीं
है। यह बात
बहरे आदमी के
साथ नहीं होती
है। बहरा आदमी
तुमसे ज्यादा
अशात होगा और
चालाक होगा।
लेकिन अंधा
आदमी न अशात
होता है और न
चालाक और
हिसाबी—किताबी
होता है। वह
बुनियादी तौर
से
श्रद्धावान
होता है, अस्तित्व
के प्रति
श्रद्धावान
होता है।
ऐसा
क्यों होता है? क्योंकि
उसकी अस्सी
प्रतिशत
ऊर्जा, हालाकि
वह उसके बारे
में कुछ नहीं
जानता है, भीतर
की ओर
प्रवाहित हो
रही है। वह
ऊर्जा सतत
भीतर गिर रही
है, ठीक
जलप्रपात की
तरह गिर रही
है। उसे इसका
बोध नहीं है, लेकिन यह
ऊर्जा उसके
हृदय पर बरसती
रहती है। वही
ऊर्जा जो बाहर
जाती है, उसके
हृदय में जा
रही है। और यह
चीज
उसके
जीवन का
गुणधर्म बदल
देती है।
प्राचीन भारत
में अंधे आदमी
को बहुत आदर
मिलता था—बहुत—बहुत
आदर। अत्यंत
आदर में हमने
उसे
प्रज्ञाचक्षु
कहा है।
तुम
यही अपनी आंखों
के साथ कर
सकते हो। यह
विधि उसके लिए
ही है। यह
तुम्हारी
बाहर जाने
वाली ऊर्जा को
वापस लाने, तुम्हारे
हृदय केंद्र
पर उतारने की
विधि है। अगर
वह ऊर्जा तुम्हारे
ह्रदय में उत्तर
जाए तो तुम
बहुत हलके हो जोओगे।
तुम्हें ऐसा
लगेगा। कि
सारा शरीर एक
पंख बन गया है,
कि तुम पर
अब
गुरुत्वाकर्षण
का कोई प्रभाव
न रहा। और तुम
तब तुरंत अपने
अस्तित्व के गहनतम
स्रोत से जुड़
जाते हो, और
वह तुम्हें
पुनरुज्जीवित
कर देता है।
तंत्र
के अनुसार, गाढ़ी
नींद के बाद
तुम्हें जो नवजीवन
मिलता है, जो
ताजगी मिलती
है, उसका
कारण नींद
नहीं है, उसका
कारण है कि जो
ऊर्जा बाहर जा
रही थी वही ऊर्जा
भीतर आ जाती
है। अगर तुम
यह राज जान लो
तो जो नींद
सामान्य व्यक्ति
छह या आठ
घंटों में
पूरी करता है,
तुम कुछ
मिनटों में
पूरी कर सकते
हो। छह या आठ
घंटे की नींद
में तुम खुद
कुछ नहीं करते
हो, प्रकृति
ही कुछ करती
है, और
इसका तुम्हें
बोध नहीं है
कि वह क्या
करती है।
तुम्हारी
नींद में एक
रहस्यपूर्ण
प्रक्रिया
घटती है। उसकी
एक बुनियादी
बात यह है कि
तुम्हारी
ऊर्जा बाहर
नहीं जाती, वह तुम्हारे
हृदय पर बरसती
रहती है। और
वही चीज
तुम्हें नया
जीवन देती है,
तुम अपनी ही
ऊर्जा में गहन
स्नान कर लेते
हो।
इस
गतिशील ऊर्जा
के संबंध में
कुछ और बातें
समझने की हैं।
तुमने गौर
किया होगा कि
अगर कोई
व्यक्ति तुमसे
ऊपर है तो वह
तुम्हारी आंखों
में सीधे
देखता है और
अगर वह तुमसे
कमजोर है तो
वह नीचे की
तरफ देखता है।
नौकर, गुलाम
या कोई भी कम
महत्व का
व्यक्ति अपने
से बड़े
व्यक्ति की आंखों
में नहीं
देखेगा।
लेकिन बड़ा
आदमी घूर सकता
है, सम्राट
घूर सकता है।
लेकिन सम्राट
के सामने खड़े
होकर तुम उसकी
आंख से आंख
मिलाकर नहीं
देख सकते हो, वह गुनाह
समझा जाएगा।
तुम्हें अपनी आंखों
को झुकाए
रहना है।
असल
में तुम्हारी
ऊर्जा
तुम्हारी आंखों
से गति करती
है और वह
सूक्ष्म
हिंसा बन सकती
है। यह बात
मनुष्यों के
लिए ही नहीं, पशुओं
के लिए भी सही
है। जब दो
अजनबी मिलते
हैं, दो
जानवर मिलते
हैं, तो वे
एक—दूसरे की आंख
में झांकते
हैं कि कौन
शक्तिशाली है
और कौन कमजोर।
और एक बार एक
जानवर ने आंखें
नीची कर लीं
तो मामला तय
हो गया; फिर
वे लड़ते नहीं।
बात खत्म हो
गई। निश्चित
हो गया कि
उनमें कौन श्रेष्ठ
है।
बच्चे
भी एक—दूसरे
की आंख में
घूरने का खेल
खेलते हैं; और
जो भी आंख
पहले हटा लेता
है वह हार गया
माना जाता है।
और बच्चे सही
हैं। जब दो
बच्चे एक—दूसरे
की आंखों में
घूरते हैं तो
उनमें जो भी
पहले बेचैनी
अनुभव करता है,
इधर—उधर
देखने लगता है,
दूसरे की आंख
से बचता है, वह पराजित
माना जाता है;
और जो घूरता
ही रहता है वह
शक्तिशाली
माना जाता है।
अगर तुम्हारी आंखें
दूसरे की आंखों
को हरा दें तो
यह इस बात का
सूक्ष्म
लक्षण है कि
तुम दूसरे से
शक्तिशाली हो।
जब
कोई व्यक्ति
भाषण देने या
अभिनय करने के
लिए मंच पर
खड़ा होता है
तो वह बहुत
भयभीत होता है, वह
कांपने लगता
है। जो लोग
पुराने
अभिनेता हैं,
वे भी जब
मंच पर आते
हैं तो उन्हें
भय पकड़ लेता है।
कारण यह है कि
उन्हें इतनी आंखें
देख रही हैं
उनकी और इतनी
आक्रामक
ऊर्जा
प्रवाहित हो
रही है। उनकी
ओर हजारों
लोगों से इतनी
ऊर्जा
प्रवाहित
होती है कि वे
अचानक अपने
भीतर कांपने
लगते हैं।
एक
सूक्ष्म
ऊर्जा आंखों
से प्रवाहित
होती है। एक
अत्यंत
सूक्ष्म, अत्यंत
परिष्कृत
शक्ति आंखों
से प्रवाहित
होती है। और
व्यक्ति—व्यक्ति
के साथ इस
ऊर्जा का
गुणधर्म बदल
जाता है।
बुद्ध
की आंखों से
एक तरह की
ऊर्जा
प्रवाहित
होती है और
हिटलर की आंखों
से सर्वथा
भिन्न तरह की
ऊर्जा
प्रवाहित
होती है। अगर
तुम बुद्ध की आंखों
में देखो तो
पाओगे कि वे आंखें
तुम्हें बुला
रही हैं, तुम्हारा
स्वागत कर रही
हैं। बुद्ध की
आंखें
तुम्हारे लिए
द्वार बन जाती
हैं। और अगर
तुम हिटलर की आंखों
में देखो तो
पाओगे कि वे
तुम्हें
अस्वीकार कर
रही हैं, तुम्हारी
निंदा कर रही
हैं, तुम्हें
दूर हटा रही
हैं। हिटलर की
आंखें तलवार
जैसी हैं और
बुद्ध की आंखें
कमल जैसी हैं।
हिटलर की आंखों
में हिंसा है;
बुद्ध की आंखों
में करुणा।
आंखों
का गुणधर्म
अलग—अलग है।
देर— अबेर हम आंख
की ऊर्जा को
नापने की विधि
खोज लेंगे, और
तब मनुष्य के
संबंध में
जानने को बहुत
नहीं बचेगा।
सिर्फ आंख की
ऊर्जा, आंख
का गुणधर्म
बता देगा कि
उसके पीछे किस
किस्म का
व्यक्ति छिपा
है। देर—अबेर
इसे नापना
संभव हो जाएगा।
यह
सूत्र, यह
विधि इस
प्रकार है : 'आंख की
पुतलियों को
पंख की भांति
छूने से उनके
बीच का हलकापन
हृदय में
खुलता है और वहां
ब्रह्मांड
व्याप जाता है।’
'आंख की
पुतलियों को
पंख की भांति
छूने से........।’
दोनों
हथेलियों का
उपयोग करो, उन्हें
अपनी आंखों पर
रखो और
हथेलियों से
पुतलियों को
स्पर्श करो—जैसे
पंख से उन्हें
छू रहे हो।
पुतलियों पर
जरा भी दबाव
मत डालों। अगर
दबाव डालते हो
तो तुम पूरी
बात ही चूक गए।
तब पूरी विधि
ही व्यर्थ हो
गई। कोई दबाव
मत डालो; बस पंख की
तरह छुओ।
ऐसा
स्पर्श, पंखवत
स्पर्श धीरे—
धीरे आएगा।
आरंभ में तुम
दबाव दोगे। इस
दबाव को कम से
कम करते जाओ—जब
तक कि दबाव
बिलकुल न
मालूम हो, तुम्हारी
हथेलियां
पुतलियों को
स्पर्श भर
करें—मात्र
स्पर्श। इस
स्पर्श में
जरा भी दबाव न
रहे। यदि जरा
भी दबाव रह
गया तो विधि
काम न करेगी।
इसलिए इसे पंख—स्पर्श
कहा गया है।
क्यों? क्योंकि
जहां सुई से
काम चले वहां
तलवार चलाने
से क्या होगा?
कुछ काम हैं
जिन्हें सुई
ही कर सकती है;
उन्हें
तलवार नहीं कर
सकती। अगर तुम
पुतलियों पर
दबाव देते हो
तो स्पर्श का
गुण बदल गया; तब तुम
आक्रामक हो।
और जो ऊर्जा आंखों
से बहती है वह
बहुत सूक्ष्म
है, बहुत
बारीक है। जरा
सा दबाव, और
एक संघर्ष, एक प्रतिरोध
पैदा हो जाता
है। दबाव पड़ने
से आंखों से
बहने वाली
ऊर्जा लड़ेगी,
प्रतिरोध
करेगी। एक
संघर्ष चलेगा।
तो बिलकुल
दबाव मत डालो;
आंख की
ऊर्जा को हलके
से दबाव का भी
पता चल जाता
है; वह
बहुत सूक्ष्म
है, कोमल
है। तो दबाव
बिलकुल नहीं,
तुम्हारी हथेलियां
पंख की तरह
पुतलियों को
ऐसे छुए जैसे
न छू रही हों। आंखों
को ऐसे स्पर्श
करो कि वह
स्पर्श पता भी
न चले, किंचित
भी दबाव न पड़े,
बस हलका सा
अहसास हो कि
हथेली पुतली
को छू रही है।
बस!
इससे
क्या होगा? जब
तुम किसी दबाव
के बिना
स्पर्श करते
हो तो ऊर्जा
भीतर की ओर
गति करने लगती
है। और अगर
दबाव पड़ता है
तो ऊर्जा हाथ
से लड़ने लगती
है और। वह
बाहर चली जाती
है। लेकिन अगर
हलका सा
स्पर्श हो, पंख—स्पर्श
हो, तो
ऊर्जा भीतर की
तरफ बहने लगती
है। एक द्वार
बंद है, बाहर
का द्वार बंद
है; और
ऊर्जा पीछे की
तरफ लौट पड़ती
है। और जिस
क्षण ऊर्जा
पीछे की तरफ
बहने लगेगी, तुम अनुभव
करोगे कि
तुम्हारे
पूरे चेहरे पर
और तुम्हारे
सिर में एक
हलकापन फैल
गया है। वह
प्रतिक्रमण
करती हुई
ऊर्जा ही, पीछे
लौटती ऊर्जा
ही तुम्हें
हलका बनाती है।
और
इन दो आंखों
के मध्य में
तीसरी आंख है, प्रज्ञाचक्षु
है। इन्हीं दो
आंखों के मध्य
में शिवनेत्र
है। आंखों से
पीछे की ओर
बहने वाली
ऊर्जा तीसरी आंख
पर चोट करती
है और उसके
कारण ही तुम
हलकापन महसूस
करते हो, जमीन
से ऊपर उठते
मालूम पड़ते हो,
मानो
गुरुत्वाकर्षण
समाप्त हो गया
हो। और यही
ऊर्जा तीसरी आंख
से चलकर हृदय
पर उतरती है।
यह
एक शारीरिक
प्रक्रिया है।
बूंद—बूंद
ऊर्जा नीचे
गिरती है, हृदय
पर बरसती है।
और तुम्हारे
हृदय में बहुत
हलकापन अनुभव
होगा। हृदय की
धड़कन बहुत
धीमी हो जाएगी
और श्वास की गति
धीमी हो जाएगी
और तुम्हारा
शरीर, सारा
शरीर विश्राम
अनुभव करेगा।
यदि
तुम इसे ध्यान
की तरह नहीं
भी करते हो तो
भी यह प्रयोग
तुम्हें
शारीरिक रूप
से सहयोगी होगा।
दिन में कभी
भी कुर्सी पर
बैठे हुए, या
यदि कुर्सी न हो
तो रेलगाड़ी या
कहीं भी बैठे हुँए, आंखें
बंद कर लो, पूरे
शरीर को शिथिल
छोड़ दो और
अपनी
हथेलियों को आंखों
पर रखो। लेकिन
आंखों पर दबाव
मत डालों—यही
बात बहुत
महत्वपूर्ण
है—पंख की
भांति छुओ भर!
जब
तुम बिना दबाव
के छूते हो तो
तुम्हारे
विचार तत्क्षण
बंद हो जाते हैं।
शात मन में
विचार नहीं चल
सकते, वे ठहर
जाते हैं।
विचारों को
गति करने के
लिए पागलपन
जरूरी है, तनाव
जरूरी है।
विचार तनाव के
सहारे जीते
हैं। जब आंखें
मौन, शिथिल
और शात हैं और
ऊर्जा पीछे की
तरफ गति करने
लगती है तो
विचार ठहर
जाते हैं।
तुम्हें एक
सूक्ष्म सुख
का अनुभव होगा
जो रोज प्रगाढ़
होता जाएगा।
दिन
में यह प्रयोग
कई बार करो।
एक क्षण के
लिए भी यह
छूना अच्छा
रहेगा। जब भी
तुम्हारी आंखें
थक जाएं, जब भी
उनकी ऊर्जा
चुक जाए, वे
बोझिल अनुभव
करें—जैसा
पढ़ने, फिल्म
देखने या टी
वी देखने से
होता है—तो आंखें
बंद कर लो और
उन्हें
स्पर्श करो।
उसका असर तत्क्षण
होगा।
लेकिन
अगर तुम इसे
ध्यान बनाना
चाहते हो तो
कम से कम
चालीस मिनट तक
इसे करना
चाहिए। और कुल
बात इतनी है
कि दबाव मत
डालों, सिर्फ
छुओ। क्योंकि
एक क्षण के
लिए तो पंख
जैसा स्पर्श आसान
है, लेकिन
ऐसा स्पर्श
चालीस मिनट
रहे, यह
कठिन है। अनेक
बार तुम भूल
जाओगे और
दबाना शुरू कर
दोगे।
दबाव
मत डालों।
चालीस मिनट तक
यह बोध बना
रहे कि
तुम्हारे हाथों
में कोई वजन
नहीं है, वे
सिर्फ स्पर्श
कर रहे हैं।
इसका सतत होश
बना रहे कि
तुम आंखों को
दबाते नहीं, केवल छूते
हो। फिर यह
श्वास की भाति
गहरा बोध बन
जाएगा। जैसे
बुद्ध कहते
हैं कि पूरे
होश से श्वास
लो, वैसे
ही स्पर्श भी
पूरे होश से
करो। तुम्हें
सतत स्मरण रहे
कि मैं बिलकुल
दबाव न डालूं।
तुम्हारे
हाथों को पंख
जैसा हलका
होना चाहिए—बिलकुल
वजन—शून्य, मात्र स्पर्श।
तुम्हारा अवधान
एकाग्र होकर वहां
रहेगा; ऊर्जा
निरंतर बहती
रहेगी।
आरंभ
में ऊर्जा
बूंद—बूंद
आएगी। फिर कुछ
ही महीनों में
तुम देखोगे
कि वह सरित—प्रवाह
बन गया है। और
वर्ष भर के
भीतर वह बाढ़
बन जाएगी। और
जब यह घटित
होगा—'आंख' की
पुतलियों को
पंख की भांति
छूने से उनके
बीच का हलकापन'—जब तुम छुओगे
तो तुम्हें हलकापन
अनुभव होगा।
तुम इसे अभी
ही अनुभव कर
सकते हो। जैसे
ही तुम छूते
हो, तत्काल
एक हलकापन
पैदा हो जाता
है। और वह 'उनके
बीच का हलकापन
हृदय में
खुलता है,' वह
हलकापन गहरे
उतरता है, हृदय
में खुलता है।
हृदय
में केवल हलकापन
प्रवेश कर
सकता है; कुछ
भी जो भारी है
वह हृदय में
नहीं प्रवेश
कर सकता। हृदय
में सिर्फ
हलकी चीजें
घटित हो सकती
हैं। दो आंखों
के बीच का यह हलकापन
हृदय में
गिरने लगेगा
और हृदय उसे
ग्रहण करने को
खुल जाएगा।
'और वहां ब्रह्मांड
व्याप जाता है।’
और
जैसे—जैसे यह
ऊर्जा की
वर्षा पहले
झरना बनती है, फिर
नदी बनती है
और फिर बाढ़
बनती है, तुम
उसमें खो
जाओगे, बह
जाओगे।
तुम्हें
अनुभव होगा कि
तुम नहीं हो।
तुम्हें
अनुभव होगा कि
सिर्फ
ब्रह्मांड है।
श्वास लेते
हुए, श्वास
छोड़ते हुए तुम
ब्रह्मांड ही
हो जाओगे; तब
श्वास के साथ—साथ
ब्रह्मांड ही
भीतर आएगा और
ब्रह्मांड ही बाहर
जाएगा। तब
अहंकार, जो
तुम सदा रहे
हो, नहीं
रहेगा। तब
अहंकार गया।
यह
विधि बहुत सरल
है,
इसमें कोई
खतरा नहीं है।
तुम जैसे चाहो
इसके साथ
प्रयोग कर
सकते हो।
लेकिन इसके
सरल होने के
कारण ही तुम
इसे करने में
भूल भी कर
सकते हो। पूरी
बात इस पर
निर्भर है कि
दबाव के बिना
छूना है।
तुम्हें
यह सीखना
पड़ेगा।
प्रयोग करते
रहो। एक
सप्ताह के
भीतर यह सध
जाएगा। अचानक
किसी दिन जब
तुम दबाव दिए
बिना छुओगे, तुम्हें
तत्क्षण वह
अनुभव होगा
जिसकी मैं बात
कर रहा हूं।
एक हलकापन, हृदय का
खुलना और किसी
चीज का सिर से
हृदय में उतरना
अनुभव होगा।
दूसरी
विधि:
हे
दयामयी अपने
रूप के बहुत
ऊपर और बहुत
नीचे? आकाशीय
उपस्थिति में
प्रवेश करो।
यह
दूसरी विधि
तभी प्रयोग की
जा सकती है जब
तुमने पहली
विधि पूरी कर
ली है। यह
प्रयोग अलग से
भी किया जा
सकता है, लेकिन
तब यह बहुत
कठिन होगा।
इसलिए पहली
विधि पूरी
करके ही इसे
करना अच्छा है।
और तब यह विधि
बहुत सरल भी
हो जाएगी। जब
भी ऐसा होता
है—कि तुम
हलके—फुलके
अनुभव करते हो,
जमीन से
उठते हुए
अनुभव करते हो,
मानो तुम उड़
सकते हो—तभी
अचानक
तुम्हें बोध
होगा कि
तुम्हारा शरीर
को चारों ओर
से एक नीला
आभा—मंडल घेरे
है।
लेकिन
यह अनुभव तभी
होगा जब
तुम्हें लगे
कि मैं जमीन
से ऊपर उठ
सकता हूं कि
मेरा शरीर
आकाश में उड़
सकता है, कि वह
बिलकुल हलका
और निर्भार हो
गया है, कि
वह पृथ्वी के
गुरुत्वाकर्षण
से बिलकुल
मुक्त हो गया
है।
ऐसा
नहीं है कि
तुम उड़ सकते
हो;
वह प्रश्न
नहीं है।
हालाकि कभी—कभी
यह भी होता है।
कभी—कभी ऐसा
संतुलन बैठ
जाता है कि
तुम्हारा
शरीर ऊपर उठ
जाता है।
लेकिन वह
प्रश्न ही
नहीं है; उसकी
सोचो ही मत।
बंद आंखों से
इतना महसूस
करना काफी है
कि तुम्हारा
शरीर ऊपर उठ
गया है। जब
तुम आंख
खोलोगे तो
पाओगे कि तुम
जमीन पर ही
बैठे हो। उसकी
चिंता मत करो।
अगर तुम बंद
आंखों से महसूस
कर सके कि
शरीर ऊपर उठ
गया है, कि
उसमें कोई वजन
न रहा, तो
इतना काफी है।
ध्यान
के लिए इतना
काफी है।
लेकिन अगर तुम
आकाश में उड़ना
सीखने की
चेष्टा कर रहे
हो तो यह काफी
नहीं है।
लेकिन मैं
उसमें उत्सुक
नहीं हूं और
मैं तुम्हें
उसके संबंध
में कुछ नहीं
बताऊंगा।
इतना
पर्याप्त है
कि तुम्हें
महसूस हो कि
तुम्हारे
शरीर पर कोई
भार नहीं है, वह
निर्भार हो
गया है।
और
जब भी यह हलकापन
महसूस हो तो आंखें
बंद रखे हुए
ही अपने शरीर
के आकार के
प्रति बोधपूर्ण
होओ। आंखों को
बंद रखते हुए
आठों को और
उनके आकार को
महसूस करो, पैरों
को और उनके
आकार को महसूस
करो। अगर तुम
बुद्ध की भाति
सिद्धासन में
बैठे हो तो
बैठे ही बैठे
अपने शरीर के
आकार को अनुभव
करो। तुम्हें
अनुभव होगा, स्पष्ट
अनुभव होगा, और उसके साथ
ही साथ
तुम्हें बोध
होगा कि उस आकार
के चारों ओर
नीला सा
प्रकाश फैला
है।
आरंभ
में यह प्रयोग
आंखों को बंद
रख कर करो। और
जब यह प्रकाश
फैलता जाए और
तुम्हें आकार
के चारों ओर
नीला प्रकाश—मंडल
महसूस हो, तब
कभी यह प्रयोग
रात में, अंधेरे
कमरे में करते
समय आंखें खोल
लो, और तुम
अपने शरीर के
चारों ओर एक
नीला प्रकाश,
एक नीला आभा—मंडल
देखोगे।
अगर तुम इसे
बंद आंखों से
नहीं, खुली
आंखों से
देखना चाहते
हो, इसे
सचमुच देखना
चाहते हो तो
यह प्रयोग
किसी अंधेरे कमरे
में करो जहां
कोई रोशनी न
हो।
यह
नीला प्रकाश, यह
नीला आभा—मंडल
तुम्हारे
आकाश—शरीर की
उपस्थिति है।
तुम्हारे कई
शरीर हैं। यह
विधि आकाश—शरीर
से संबंध रखती
है, और तुम
आकाश—शरीर के
द्वारा ऊंची
से ऊंची समाधि
में प्रवेश कर
सकते हो।
सात
शरीर हैं और
भगवत्ता में
प्रवेश के लिए
प्रत्येक
शरीर का उपयोग
हो सकता है।
प्रत्येक
शरीर एक द्वार
है। यह विधि
आकाश—शरीर का
उपयोग करती है।
और आकाश—शरीर
को प्राप्त
करना सबसे सरल
है। शरीर के
तल पर जितनी
ज्यादा गहराई
होगी उतनी ही
उसकी उपलब्धि
कठिन होगी।
लेकिन आकाश—शरीर
तुम्हारे
बहुत निकट है, स्थूल
शरीर के बहुत
निकट है। आकाश—शरीर
तुम्हारा
दूसरा शरीर है,
जो
तुम्हारे
चारों ओर है—तुम्हारे
स्थूल शरीर के
चारों ओर। यह
तुम्हारे
शरीर के भीतर
भी है और यह
शरीर को चारों
ओर से एक धुंधली
आभा की तरह, नीले प्रकाश
की तरह, ढीले
परिधान की तरह
घेरे हुए है।
'हे दयामयी, अपने रूप के
बहुत ऊपर और
बहुत नीचे, आकाशीय
उपस्थिति में
प्रवेश करो।’
बहुत
ऊपर,
बहुत नीचे—तुम्हारे
चारों ओर, सर्वत्र।
यदि तुम अपने
सब ओर उस नीले
प्रकाश को देख
सको तो विचार
तुरंत ठहर
जाएगा; क्योंकि
आकाश—शरीर के
लिए विचार
करने की जरूरत
नहीं है। यह
नीला प्रकाश
बहुत शांतिदायी
है। क्यों? क्योंकि वह
तुम्हारे
आकाश—शरीर का
प्रकाश है।
नीला आकाश ही
कितना
विश्रामपूर्ण
है! क्यों? क्योंकि
वह तुम्हारे
आकाश—शरीर का
रंग है। और
आकाश—शरीर
स्वयं बहुत
विश्रामपूर्ण
है।
जब भी
कोई व्यक्ति
तुम्हें
प्रेम करता
है। जब भी कोई
व्यक्ति
तुम्हें स्पर्श
करता है, तब वह
तुम्हारे
आकाश—शरीर को
स्पर्श करता
है। इसीलिए
तुम्हें वह
इतना सुखदायी
मालूम पड़ता है।
इसका तो
फोटोग्राफ भी
लिया जा चुका
है। जब दो
प्रेमी गहन
प्रेम में
संभोग में
उतरते हैं और
यदि उनका
संभोग एक खास
अवधि तक चले, चालीस मिनट
से ऊपर चले और
स्खलन न हो, तो गहन
प्रेम में
डूबे उन दो
शरीरों के
चारों ओर एक
नीला प्रकाश
छा जाता है।
उसका फोटो
लिया जा चुका
है।
और
कभी—कभी तो
बहुत अजीब
घटनाएं घटती
हैं;
क्योंकि यह
प्रकाश बहुत
ही सूक्ष्म
विद्युत—शक्ति
है। सारे
संसार में
बहुत सी ऐसी
घटनाएं घटी
हैं। नए
प्रेमियों का
एक जोड़ा
हनीमून मनाने
के लिए नए
कमरे में ठहरा
है, पहली
रात है और वे
एक—दूसरे के
शरीर से
परिचित नहीं
हैं, वे
नहीं जानते
हैं कि क्या
संभव है। अगर
दोनों के शरीर
प्रेम के, आकर्षण
के, लगाव
और हार्दिकता
के एक विशेष
तरंग से
तरंगायित हैं,
एक—दूसरे के
प्रति खुले
हैं, ग्रहणशील
हैं, एक—दूसरे
में डूब जाने
को तत्पर हैं
तो कभी—कभी
ऐसा आकस्मिक
रूप से हुआ है
कि उनके शरीर
इतने विद्युतमय
हो गए हैं, उनके
आकाश—शरीर
इतने आविष्ट
और जीवंत हो
गए हैं, कि
उनके प्रभाव
से कमरे की
चीजें गिरने
लगी हैं।
बहुत
अजीब घटनाएं
घटी हैं। मेज
पर एक ग्रतइr रखी
है, वह
जमीन पर गिर
जाती है। मेज
का शीशा अचानक
टूट जाता है।
वहां कोई
तीसरा
व्यक्ति नहीं
है, मात्र
वह जोडा है वहां।
उन्होंने मेज
या शीशे को
स्पर्श भी
नहीं किया है।
और ऐसा भी हुआ
है कि अचानक
कुछ जलने लगता
है। दुनिया भर
में ऐसे
मामलों की
खबरें पुलिस
चौकियों में
दर्ज हुई हैं।
उन पर खोजबीन
की गई है और
पाया गया है
कि गहन प्रेम
में संलग्न दो
व्यक्ति ऐसी
विद्युत
शक्ति का सृजन
कर सकते हैं
कि उससे उनके
आस—पास की
चीजें
प्रभावित हो
सकती हैं।
वह
शक्ति भी आकाश—शरीर
से आती है।
तुम्हारा
आकाश—शरीर
तुम्हारा
विद्युत—शरीर
है। जब भी तुम
ऊर्जा से भरे
होते हो तब
तुम्हारा आकाश—शरीर
बड़ा हो जाता
है। और जब तुम
उदास, बुझे—बुझे
होते हो तो
तुम्हारा
आकाश—शरीर सिकुड़कर
शरीर के भीतर
सिमट जाता है।
इसीलिए उदास
और दुखी
व्यक्ति के
पास तुम भी उदास
और दुखी हो
जाते हो। अगर
कोई दुखी
व्यक्ति इस
कमरे में
प्रवेश करे तो
तुम्हें
लगेगा कि कुछ
गड़बड़ हो रही
है, क्योंकि
उसका आकाश—शरीर
तुम्हें
तुरंत
प्रभावित
करता है। वह
शक्ति चूसता
है; क्योंकि
उसकी अपनी
शक्ति इतनी
बुझी—बुझी है
कि वह दूसरों
की शक्ति
चूसने लगता है।
उदास
आदमी तुम्हें
उदास बना देगा, दुखी
आदमी तुम्हें
दुखी कर देगा,
बीमार
व्यक्ति
तुम्हें
बीमार कर देगा।
क्यों? क्योंकि
वह उतना ही
नहीं है जितना
तुम देखते हो,
उसके भीतर
कुछ छिपा है
जो काम कर रहा
है। हालांकि
उसने कुछ नहीं
कहा है, हालांकि
वह बाहर से
मुस्कुरा रहा
है; तो भी
यदि वह दुखी
है तो वह
तुम्हारा
शोषण करेगा, तुम्हारे
आकाश—शरीर की
ऊर्जा क्षीण
हो जाएगी। वह
तुम्हारी
उतनी शक्ति
खींच लेगा, वह तुम्हें
उतना चूस लेगा।
और जब कोई
सुखी व्यक्ति
कमरे में
प्रवेश करता
है तो तुम भी
तत्क्षण सुख
महसूस करने
लगते हो। सुखी
व्यक्ति इतनी
आकाशीय शक्ति
बिखेरता है कि
वह तुम्हारे
लिए भोजन बन
जाती है, वह
तुम्हारा
पोषण बन जाती
है। उसके पास
अतिशय ऊर्जा
है; वह
ऊर्जा उससे बह
रही है।
जब
कोई बुद्ध, कोई
क्राइस्ट, कोई
कृष्ण
तुम्हारे पास
से गुजरते हैं
तो वे तुम्हें
निरंतर एक
सूक्ष्म भोजन
दे रहे हैं और तुम
निरंतर उनके
मेहमान हो। और
जब तुम किसी
बुद्ध के
दर्शन करके
लौटते हो तो
तुम अत्यंत पुनजीर्वित, अत्यंत ताजा, अत्यंत
जीवंत अनुभव
करते हो। हुआ
क्या है? बुद्ध
कुछ बोले भी न
हों, मात्र
दर्शन से
तुम्हें लगता
है कि मेरे
भीतर कुछ बदल
गया है, मेरे
भीतर कुछ
प्रविष्ट हो
गया है। क्या
प्रविष्ट हो
गया है? बुद्ध
इतने आप्तकाम
हैं, इतने आपूरिरत
हैं, इतने लबालब
भरे हैं कि वे
ऊर्जा का सागर
बन गए हैं। और
उनकी ऊर्जा
बाढ़ की भांति
बह रही है।
जो
भी व्यक्ति
स्वस्थ होता
है,
शांत होता
है, वह सदा
बाढ़ बन जाता
है। क्योंकि
अब उसकी ऊर्जा
उन व्यर्थ की
बातों में, उन नासमझियों
में व्यय नहीं
होती जिनमें
तुम अपनी
ऊर्जा गंवा रहे
हो। उसके साथ
उसके चारों ओर
सदा ऊर्जा की
बाढ़ चलती है।
और जो भी उसके
संपर्क में
अता है, वह
उसका लाभ ले
सकता है।
जीसस कहते
हैं: 'मेरे
पास आओ। अगर
तुम बहुत
बोझिल हो तो
मेरे पास आओ।
मैं तुम्हें निबोंझ कर
दूंगा।’
असल
में जीसस कुछ
नहीं करते, बस
उनकी
उपस्थिति में
कुछ होता है।
कहते हैं कि
जब कोई
भगवत्ता को
उपलब्ध पुरुष,
कोई
तीर्थंकर, कोई
अवतार, कोई
क्राइस्ट
पृथ्वी पर
चलता है तो
उसके चारों ओर
एक विशेष
वातावरण, एक
प्रभाव—
क्षेत्र
निर्मित होता
है। जैन
योगियों ने तो
इसका माप भी
लिया है। वे
कहते हैं कि
यह प्रभाव—
क्षेत्र
चौबीस मील के
घेरे में होता
है। तीर्थंकर
के चारों ओर
चौबीस मील की
परिधि होती है
और इस परिधि
के भीतर आने
वाला
प्रत्येक व्यक्ति
इस ऊर्जा से नहा जाता
है। चाहे उसे
इसका बोध हो
या न हो, चाहे
वह मित्र हो
या शत्रु हो, अनुयायी हो
या विरोधी हो,
इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
हां, यदि
तुम अनुयायी
हो तो तुम खूब
भर जाते हो, क्योंकि तुम
खुले हुए हो।
विरोधी भी
भरता है, लेकिन
उतना नहीं, क्योंकि
विरोधी बंद
होता है।
लेकिन ऊर्जा
तो सब पर
बरसती है। एक
अकेला
व्यक्ति यदि
अनुद्विग्न
है, शात है,
मौन है, आनंदित
है, तो वह
शक्ति का पुंज
बन जाता है—ऐसा
पुंज कि उसके
चारों ओर
चौबीस मील में
एक विशेष
वातावरण बन
जाता है। और
उस वातावरण
में तुम्हें
एक सूक्ष्म
पोषण मिलता है।
यह
घटना आकाश—शरीर
के द्वारा
घटती है।
तुम्हारा
आकाश—शरीर
विद्युत—शरीर
है। जो शरीर
हमें दिखाई
पड़ता है, वह
भौतिक है, पार्थिव
है। यह सच्चा
जीवन नहीं है।
इस शरीर में
विद्युत—शरीर,
आकाश—शरीर
के कारण जीवन
आता है। वही
तुम्हारा
प्राण है।
तो शिव
कहते हैं: 'हे
दयामयी, आकाशीय
उपस्थिति में
प्रवेश करो।’
पहले
तुम्हें अपने
भौतिक शरीर को
घेरने वाले आकाश—शरीर
के प्रति
बोधपूर्ण
होना होगा। और
जब तुम्हें
उसका बोध होने
लगे तो उसे बढ़ाओ, बड़ा
करो, फैलाओ।
इसके लिए तुम
क्या कर सकते
हो?
बस
चुपचाप बैठना
है और उसे
देखना है। कुछ
करना नहीं है, बस
अपने चारों ओर
फैले इस नीले
आकार को देखते
रहना है। और
देखते—देखते
तुम पाओगे कि
वह बढ़ रहा है, बड़ा हो रहा
है। सिर्फ
देखने से वह
बड़ा हो रहा है।
क्योंकि जब
तुम कुछ नहीं
करते हो तो
पूरी ऊर्जा
आकाश—शरीर को
मिलती है, इसे
स्मरण रखो। और
जब तुम कुछ
करते हो तो
आकाश—शरीर से
ऊर्जा बाहर
जाती है।
लाओत्सू
कहता है: 'मैं
कुछ नहीं करता
हूं और मुझसे
शक्तिशाली
कोई नहीं है।
मैं कभी कुछ
नहीं करता हूं
और कोई मुझसे
शक्तिशाली
नहीं है। जो
कुछ करने के
कारण
शक्तिशाली
हैं, उन्हें
हराया जा सकता
है।’ लाओत्सु
कहता है, 'मुझे
हराया नहीं जा
सकता, क्योंकि
मेरी शक्ति
कुछ न करने से
आती है।’ तो
असली बात कुछ
न करना है।
बोधिवृक्ष
के नीचे बुद्ध
क्या कर रहे
थे?
कुछ नहीं कर
रहे थे। वे उस
क्षण कुछ भी
नहीं कर रहे
थे, वे
शून्य हो गए
थे। और मात्र
बैठे —बैठे
उन्होंने परम
को पा लिया।
यह बात बेबूझ
लगती है। यह
बात बहुत
हैरानी की
लगती है। हम
इतना प्रयत्न
करते हैं और
कुछ नहीं होता
है और बुद्ध
बोधिवृक्ष के
नीचे बैठे—बैठे
बिना कुछ किए
ही परम को
उपलब्ध हो गए!
जब
तुम कुछ नहीं
कर रहे हो तब
तुम्हारी
ऊर्जा बाहर
गति नहीं करती
है। तब वह
ऊर्जा आकाश—शरीर
को मिलती है
और वहां
इकट्ठी होती
है। फिर
तुम्हारा
आकाश—शरीर
विद्युत
शक्ति का
भंडार बन जाता
है। और वह
भंडार जितना
बढ़ता है, तुम्हारी
शांति भी उतनी
ही बढ़ती है।
और तुम जितना
ज्यादा शात
होते हो उतनी
ही ऊर्जा का
भंडार भी बढ़ता
है। और जिस
क्षण तुम जान
लेते हो कि
आकाश—शरीर को
ऊर्जा कैसे दी
जाए और कैसे
ऊर्जा को व्यर्थ
नष्ट न किया
जाए, उसी
क्षण गुप्त
कुंजी
तुम्हारे हाथ
लग गई।
और
तब तुम आनंदित
हो सकते हो।
वस्तुत: तभी
तुम आनंदित हो
सकते हो, उत्सव
मना सकते हो।
तुम अभी जैसे
हो, ऊर्जा
से रिक्त, तुम
कैसे
उत्सवपूर्ण
हो सकते हो? तुम कैसे
उत्सव मना
सकते हो? तुम
कैसे फूल की
तरह खिल सकते
हो? फूल तो
अतिरेक से आते
हैं, जब
वृक्ष ऊर्जा
से लबालब होते
हैं तो उनमें
फूल लगते हैं।
फूल तो
अतिरिक्त
ऊर्जा का वैभव
हैं। वृक्ष
यदि भूखा हो
तो उसमें फूल
नहीं आएंगे, क्योंकि
पत्तों के लिए
भी पर्याप्त
पोषण नहीं है,
जड़ों के लिए
भी पर्याप्त
भोजन नहीं है।
उनमें
भी एक क्रम है।
पहले जड़ों को
भोजन मिलेगा, क्योंकि
वे बुनियादी
हैं। अगर जड़ें
ही सूख गईं तो
फूल की
संभावना कहां
रहेगी? तो
पहले जड़ों को
भोजन दिया
जाएगा। फिर
शाखाओं को। और
अगर सब ठीक—ठाक
चले और फिर भी
ऊर्जा शेष रह
जाए, तब
पत्तों को
पोषण दिया
जाएगा। और
उसके बाद भी
भोजन बचे और
वृक्ष समग्रत:
संतुष्ट हो, जीने के लिए
और भोजन की
जरूरत न रहे, तब अचानक
उसमें फूल
लगते हैं।
ऊर्जा का
अतिरेक ही फूल
बन जाता है।
फूल दूसरों के
लिए दान हैं।
फूल भेंट हैं।
फूल वृक्ष की
तरफ से
तुम्हें भेंट
हैं।
और
यही घटना
मनुष्य में भी
घटती है।
बुद्ध वह
वृक्ष हैं
जिसमें फूल
लगे। अब उनकी
ऊर्जा इतनी
अतिशय है कि
उन्होंने सबको, पूरे
अस्तित्व को
उसमें सहभागी
होने के लिए आमंत्रित
किया है।
पहले
पहली विधि को
प्रयोग करो और
फिर दूसरी विधि
को। तुम दोनों
को अलग— अलग भी
प्रयोग कर
सकते हो, लेकिन
तब आकाश—शरीर
के नीले
आभामंडल को
प्राप्त करना थोडा कठिन
होगा।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं