दस
हजार बुद्धों
के लिए एक सौ
गाथाएं—(मा
धर्मज्योति)
(मेरे प्यारे
सदगुरू ओशो को
समर्पित जिन्हें
मैंने प्रेम
करूणा,
प्रज्ञा,
सत्य और परम
स्वतंत्रता
के साकार रूप
की तरह जाना)
प्रस्तावना:
आज
के लमहे अकसर
कल की
कहानियाँ बन
जाते हैं। पर
कुछ लमहे होते
हैं जो न कभी
गुजर चुकते
हैं और न ही
जिन पर कल' की
परछाई पड़ती है।
ऐसे लमहे
शब्दों और
कहानियों की
गिरफ्त में भी
नहीं आते। वो
हमेशा 'आज'
में ही जीते
हैं सांस लेते
हुए, धडूकते
हुए।
कैसे
होते हैं ये
लमहे—किन
तानों—बानों
से बुने हुए—जिनके
सामने समय
छोटा पड़ जाता
है,
पीछे रह
जाता है? इसका
उत्तर है यह
किताब, जिसमें
ऐसे ही कुछ
लमहे गुंथ कर
माला बन गए हैं।
यही कारण है
कि इस किताब
के कोरे
पन्नों पर खिंची
स्याह लकीरें
कभी तो भाव
बनकर ह्रदय
में उमड़ पड़ती
हैं और कभी
आरके में जा
बसती हैं, बरसने
के लिए।
मा
धर्म ज्योति
ने एक लंबे
अरसे तक ओशो
की शारीरिक
मौजूदगी को
जीया है। और
अपने इस सफर
में वो पल—पल
उन लम्हों को
सहेजती रहीं
जो ओशो के छुए
से जिंदा होते
रहे। ये लमहे
बाहर तो
इंद्रधनुषी आंसू
बरसाते रहे और
खुद भीतर जाकर
सीप के मोती
बनते रहे। यह
शरीर के पार
जाने वाले
प्रेम का ही
तिलिस्म है कि
एक दिन अचानक
इन मोतियों
में भी अंकुर
फूट आए और
गाथाओं का एक
वृक्ष बन गए—सौ
गाथाएं; दस
हजार बुद्धों
के लिए।
आइए
कुछ देर इन
गाथाओं की हवा
में जी लें।
कुछ देर इनकी
खुशबू को अपने
दिल में महसूस
कर लें। आखिर, ये
मोती हम सब ही
की तो प्यास
हैं।
—स्वामी
संजय भारती
शनिवार, 26
खतम्बर 1992
का दिन था। उस
रोज मेरे
संन्यास की
बाईसवीं
वर्षगांठ थी।
शाम को प्रवचन
के बाद मैं
बुद्धा —हाल
में संन्यास—उत्सव
के लिए गयी।
वहां ऊर्जा
अत्यधिक सघन
थी—पूरे समय
मैं
नृत्यमग्न
रही। अचानक
मुझे अपने
आज्ञाचक्र पर
कछ संवेदना सी
होने लगी; यह
लगभग वैसा ही
अनुभव था जैसा
कि पूना के
पुराने दिनों
में ओशो के
साथ ऊर्जा—दर्शन
के समय मुझे
अनुभव हुआ
करता था। उस
रात यह अनुभव
मुझे पूरी तरह
डुबा ले गया।
अब
तक मुझे ऐसा
लगा करता था
कि शायद शुरु
के दिनों में
ओशो की निकटता
में बिताए गये
उन क्षणों की
सभी
स्मृतियां
मैं भूल चुकी
हूँ। लेकिन यह
रात मेरे लिए
स्मरणीय
रहेगी—अचानक
जैसे कोई
द्वार खुल गया
और पुरानी
स्मृतियां
बाहर आने लगीं।
ऐसा लगा जैसे
किसी फिल्म की
रील खुलती चली
जा रही हो।
अपने हृदय के
मौन में अतीत
की अनेकों
घटनाओं को मैं
साफ—साफ देख
पा रही थी। यह
सिलसिला
दूसरे दिन भी
अनवरत जारी
रहा। तीसरे
दिन बड़ी
तीव्रता से
मुझे ऐसा भाव
हुआ कि जो कुछ
भी मुझे घट
रहा है, उसे
मैं लिख डालूँ—कर
दिया।
यह
मेरे लिए बहुत
अद्भुत अनुभव
है। लिखते समय
मुझे ऐसा
महसूस हो रहा
है जैसे कि
पूरे अनुभव से
मैं दौबारा ही
गुजर रही हूं
कि मैं हैरान
हूं कि यह सब
मैं वर्तमान
काल की तरह
लिख रही हूं।
लेकिन मैं भला
क्या कर सकती
हूँ—इसी भांति
यह सब उतर रहा
है।
मा
धर्म ज्योति
💗🙏🙏🙏💗
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