(अध्याय—एक)
मैं
छब्बीस वर्ष
की हूँ। 21
जनवरी 1968, —रविवार
का दिन है और
आज शाम 4
बजे ओशो बंबई
के
षण्मुखानंद
हॉल में बोलने
वाले हैं।
मेरी एक मित्र,
जो सत्य की
मेरी खोज से
परिचित है, शे उन्हें
सुनने के लिए
जाने को कहती
है। मैं इतने
तथाकथित
संतों और
महात्माओं को
सुन चुकी हूँ
कि भारत में
चल रहे इन
धार्मिक
आडंबरों ' से
मेरा विश्वास
उठ चुका है।
लेकिन फिर भी,
ओशो, जो
आचार्य रजनीश
के नाम से
जाने जाते हैं,
मुझे
आकर्षित करते
हैं। मैं
उक्तके
प्रवचन में
जाने का फैसला
कर लेती हूँ।
शाम
चार बजे मैं
षण्मुखानंद
हॉल की दूसरी
मंजिल वाली
बालकनी में
पहुंचती हूँ
जो कि पूरी तरह
भरी हुई है।
बहुत से लोग
दीवारों के
साथ—साथ
किनारों पर भी
खड़े हुए हैं।
हवा में एक
उमंग है, एक
उत्साह है।
बहुत शोर हो
रहा है। यह
हॉल बंबई के
सबसे बड़े
सभागारों में
से है जहां
पांच हजार लोग
बैठ सकते हैं।
मैं एक सीट
खोजकर आराम से
बैठ जाती हूँ।
कछ
ही मिनटों में
सफेद लुंगी और
शॉल ओढ़े, एक
दाढ़ी वाले व्यक्ति
मंच पर नजर
आते हैं जो
दोनों हाथ
जोड़े सबको
नमस्कार करते
हुए धीमे से
पद्मासन में
बैठ जाते हैं।
मैं मंच से
बहुत दूर बैठी
हूँ और
बामुश्किल उनका
चेहरा ही देख
पा रही हूँ
लेकिन मेरा
हृदय इस अनजान
व्यक्ति को
सुनने की
आकांक्षा से
आतुर है।
कुछ
ही क्षणों में
मुझे उनकी
मधुर लेकिन सशक्त
वाणी सुनाई
पड़ती है; वे
श्रोताओं को
संबोधित कर
रहे हैं —मेरे
प्रिय आत्मन.।
'अचानक
सभागार में एक
गहन सन्नाटा
छा जाता है।
मुझे महसूस
होता है कि
उनकी आवाज
मुझे एक गहरे
विश्राम में
लिए जा रही है
और मैं बिलकुल
शांत होकर
उन्हें सुन
रही हूँ। मेरा
मन पूरी तरह
रुक गया है.
मात्र उनकी
वाणी ही मेरे
भीतर गज रही
है। मैं पूर्ण
रूपेण 'अहा'
के भाव में
हूँ, विस्मय
की स्थिति में
हूँ वे मेरे
उन सभी प्रश्नों
का जवाब दे
रहे हैं जो
वर्षो से मुझे
सताते रहे हैं।
प्रवचन
समाप्त हो गया; मेरा
हृदय आनंद से
नाच रहा है, और मैं अपनी
मित्र से कहती
हूँ, यही
वह गुरू हैं
जिन्हें मैं
खोज रही हूँ।
मैंने उन्हें
पा लिया है। ' बाहर आकर
मैं उनकी कुछ
पुस्तकें और
ज्योतिशिखा
नाम की
पत्रिका
खरीदती हूँ।
मैं जैसे ही
ज्योतिशिखा
को खोलती हूँ
तो सामने
पृष्ठ पर लिखा
दिरवाई पड़ता
है 'आचार्य
रजनीश का
छत्तीसवां
जन्मोत्सव'। मैं
विश्वास नहीं
कर पाती। मुझे
लगता है
प्रिंटिंग
में किसी गलती
के कारण '63' का 36 हो गया है।
काउंटर पर खड़ी
युवती से जब
मैं पूछती हूँ
तो .वह हंस
पड़ती है और
कहती है '36' सही 'है।
मुझे अभी तक
भरोसा नहीं
होता कि मैंने
ऐसे व्यक्ति
का प्रवचन
सुना है जो
अभी सिर्फ
छत्तीस ही
वर्ष का है।
उनकी वाणी से
ऐसा महसूस हुआ
जैसे
उपनिषदकाल का
कोई प्राचीन
ऋषि बोल रहा
है।
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