मन के
अधोगमन और
ऊर्ध्वगमन की
सीढ़ियां—
(प्रवचन—सत्रहवां) अध्याय—1—2
(प्रवचन—सत्रहवां) अध्याय—1—2
ध्यायतो विषयान्पुंसः
संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।
६२।।
विषयों
को चिंतन करने
वाले पुरुष की
उन विषयों में
आसक्ति हो
जाती है। और
आसक्ति से उन
विषयों की
कामना उत्पन्न
होती है। और
कामना में
विघ्न पड़ने
से
क्रोध
उत्पन्न होता
है।
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
६३।।
क्रोध
से मोह
उत्पन्न होता
है। और मोह से
स्मरणशक्ति
भ्रमित हो
जाती है। और
स्मरणशक्ति
के भ्रमित हो
जाने से
बुद्धि
अर्थात ज्ञानशक्ति
का नाश हो
जाता है। और
बुद्धि के नाश
होने से यह
पुरुष अपने
श्रेय साधन से
गिर जाता है।
मनुष्य
के मन की भी
अपनी शृंखलाएं
हैं। मनुष्य
के मन के भी
ऊर्ध्वगमन और
अधोगमन के
नियम हैं।
मनुष्य के मन
का अपना
विज्ञान है।
यहां मनुष्य
के मन का
अधोगमन कैसे
होता है, कैसे
वह पतन के
मार्ग पर
एक-एक सीढ़ी
उतरता है, कृष्ण
उन सीढ़ियों
का पूरा
ब्योरा दे रहे
हैं।
सूक्ष्मतम
होता है
प्रारंभ, स्थूलतम हो जाता है
अंत। मन के
बहुत गहरे में
उठती है
लहर, फैलती
है, और
पूरे मन को ही
नहीं, पूरे
आचरण को, पूरे
व्यक्तित्व
को ग्रसित कर
लेती है।
सूक्ष्म उठी
इस लहर को
इसके स्थूल तक
पहुंचने की जो
पूरी
प्रक्रिया है,
जो उसे
पहचान लेता है,
वह उससे बच
भी सकता है, वह उसके पार
भी जा सकता
है।
कहां
से मन का पतन
शुरू होता है? कहां से मन
संसार-उन्मुख
होता है? कहां
से मन स्वयं को
खोना शुरू
करता है?
तो
कृष्ण ने कहा
है कि विषय के
चिंतन से, वासना के
विचार से। जो
पहला वर्तुल,
जहां से पकड़ा
जा सकता है, वह है विचार
का
वर्तुल--सूक्ष्मतम,
जहां से हम
पकड़ सकते हैं।
विषय की इच्छा,
विषय का
विचार, भोग
की कामना उठती
है मन में।
विषय का संग
करने की
आकांक्षा
जगती है मन
में। वह पहली
लहर है, जहां
से सब शुरू
होता है। काम
की जो
बीज-स्थिति है,
वह विषय का
विचार है। संग
की कामना पैदा
होती है, भोग
की कामना पैदा
होती है।
राह पर
देखते हैं
भागती एक कार
को। चमकती हुई, आंखों में कौंधकर
निकल जाती है।
देखते हैं एक
सुंदर स्त्री
को; देखते
हैं एक सुंदर
बलिष्ठ पुरुष
को; आंख
में एक
कौंध--और
व्यक्ति निकल
जाता है। वह जो
सुंदर स्त्री
या सुंदर
पुरुष या
सुंदर कार या
सुंदर भवन
दिखाई पड़ा
है--तत्क्षण
भीतर खोजने की
जरूरत
है--जैसे ही वह
दिखाई पड़ा है,
क्या आपको
सिर्फ दिखाई
ही पड़ा है, सिर्फ
आपने देखा ही,
या देखने के
साथ ही मन के
किसी कोने में
चाह ने भी
जन्म लिया!
सिर्फ देखा ही
या चाहा भी!
दिखाई पड़ी है
एक सुंदर
स्त्री, देखी
ही या भीतर
कोई और भी
कंपन उठा--चाह
का भी, मांग
का भी, पा
लेने का भी, पजेस करने का भी।
अगर
सिर्फ देखा, तो बात आई और
गई हो गई।
सिर्फ बहिर-इंद्रियों
ने भाग लिया।
आंख ने देखा, मन ने खबर की,
कोई जाता
है। लेकिन
चाहा भी, तो
जो देखा, वहीं
बात समाप्त
नहीं हो गई।
मन में वर्तुल
शुरू हो गए, मन में लहरें
शुरू हो गईं।
देखने तक बात
समाप्त नहीं
हुई; भीतर
चाह ने भी
जन्म लिया, मांग भी
उठी।
आप कहेंगे, नहीं, मांगा
नहीं, चाहा
नहीं; देखा,
सिर्फ इतना
हुआ मन में कि
सुंदर है। इस
बात को ठीक से
समझ लेना
जरूरी है।
इतना
भी मन में उठा
कि सुंदर है, तो चाह ने
अपने अंकुर फैलाने
शुरू कर दिए।
क्योंकि
सुंदर का कोई
और मतलब नहीं
होता। सुंदर
का इतना ही
मतलब होता है,
जिसे चाहा
जा सकता है।
सुंदर का और
कोई मतलब नहीं
होता। असुंदर
का इतना ही
मतलब होता है,
जिसे नहीं
चाहा जा सकता।
सुंदर
है, इस
वक्तव्य में
चाह कहीं
दिखाई नहीं
पड़ती, यह
वक्तव्य बड़ा
निर्दोष
मालूम पड़ता
है। यह वक्तव्य
सिर्फ स्टेटमेंट
आफ फैक्ट
मालूम पड़ता
है। नहीं, लेकिन
यह सिर्फ तथ्य
का वक्तव्य
नहीं है। इसमें
आप संयुक्त हो
गए। क्योंकि चीजें
अपने आप में न
सुंदर हैं, न असुंदर
हैं; चीजें सिर्फ हैं।
आपने
व्याख्या डाल
दी।
एक
स्त्री निकली
है राह से; वह सिर्फ
है। सुंदर और
असुंदर देखने
वाले की व्याख्या
है।
सुंदर-असुंदर
उसमें कुछ भी
नहीं है। व्याख्याएं
बदलती हैं, तो सौंदर्य
बदल जाते हैं।
चीन में
चपटी नाक
सुंदर हो सकती
है, भारत
में नहीं हो
सकती। चीन
में उठे हुए
गाल की हड्डियां
सुंदर हैं, भारत में
नहीं हैं। अफ्रीका
में चौड़े
ओंठ सुंदर हैं
और स्त्रियां
पत्थर लटकाकर
अपने ओंठों को
चौड़ा करती
हैं। सारी
दुनिया में
कहीं चौड़े
ओंठ सुंदर
नहीं हैं, पतले
ओंठ सुंदर
हैं। वे हमारी
व्याख्याएं
हैं, वे
हमारी
सांस्कृतिक व्याख्याएं
हैं। एक समाज
ने क्या
व्याख्या पकड़ी
है, इस पर
निर्भर करता
है। फिर फैशन
बदल जाते हैं,
सौंदर्य
बदल जाता है।
तथ्य वही के
वही रहते हैं।
अफ्रीका
में जो स्त्री
पागल कर सकती
है पुरुषों को, वही भारत
में सिर्फ
पागलों को
आकर्षित कर
सकती है। क्या
हो गया!
स्त्री वही है,
तथ्य वही है,
लेकिन
व्याख्या
करने वाले
दूसरे हैं। जब
हम कहते हैं, सुंदर है, तभी हम
सम्मिलित हो
गए, तभी
तथ्य नहीं
रहा।
बुद्ध
एक वृक्ष के
नीचे विश्राम
कर रहे हैं। रात
है पूर्णिमा
की। गांव से
कुछ मनचले
युवक एक
वेश्या को
लेकर
पूर्णिमा की
रात मनाने
आ गए हैं।
उन्होंने
वेश्या को
नग्न कर लिया
है, उसके
वस्त्र छीन
लिए हैं। वे
सब शराब में
मदहोश हो गए
हैं, वे सब
नाच-कूद रहे
हैं। उनको
बेहोश हुआ
देखकर वेश्या
भाग निकली।
थोड़ा
होश आया, तो
देखा, जिसके
लिए नाचते थे,
वह बीच में
नहीं है।
खोजने निकले।
जंगल है, किससे पूछें? आधी
रात है। फिर
उस वृक्ष के
पास आए, जहां
बुद्ध बैठे
हैं। तो
उन्होंने कहा,
यह भिक्षु
यहां बैठा है,
यही तो
रास्ता है एक
जाने का। अभी
तक कोई दोराहा
भी नहीं आया।
वह स्त्री
जरूर यहीं से
गुजरी होगी। तो
उन्होंने
बुद्ध को कहा
कि सुनो
भिक्षु, यहां
से कोई एक
नग्न सुंदर
युवती भागती
हुई निकली
है? देखी
है?
बुद्ध
ने कहा, कोई
निकला जरूर, लेकिन युवती
थी या युवक, कहना मुश्किल
है। क्योंकि
व्याख्या
करने की मेरी
कोई इच्छा
नहीं। कोई
निकला है जरूर,
सुंदर था या
असुंदर, कहना
मुश्किल है।
क्योंकि जब
अपनी चाह न
रही, तो किसे
सुंदर कहें, किसे असुंदर
कहें!
सौंदर्य
चुनाव है, सौंदर्य
निर्णय है।
असल में जैसे
ही सुंदर कहा,
मन के किसी
कोने पर बनना
शुरू हो गया
भाव--कि मिले।
सौंदर्य
पसंदगी की
शुरुआत है। वह
वक्तव्य
सिर्फ तथ्य का
नहीं, वह
वक्तव्य
वासना का है।
वासना छा
गई है तथ्य पर;
वह कहती है,
सुंदर है।
हम
साधारणतया कहेंगे कि
नहीं, सुंदर
कहने से कोई
मतलब नहीं
होता। सुंदर
है। जब पहला
मन का विषयों
में गमन शुरू
होता है, तो
अति सूक्ष्म
है। वह ऐसे ही
शुरू होता है:
सुंदर है, असुंदर
है; प्रीतिकर
है, अप्रीतिकर
है; अच्छा
लगता है, बुरा
लगता है। चाह
जब पैदा होती
है पहले, तो
पसंद और
नापसंद के रूप
में झलकती है,
फिर बढ़ती
है। अभी बीज
है, अभी
पहचानना बहुत
मुश्किल है।
अभी कोई कृष्ण,
कोई बुद्ध
पहचान सकेगा।
हम तो तब पहचानेंगे,
जब वृक्ष हो
जाएगा।
लेकिन
बीज से मुक्त
हुआ जा सकता
है, वृक्ष से
मुक्त होना
अति कठिन है।
जितनी बढ़ जाएगी
वासना भीतर
गहरी और प्रगाढ़
और जड़ों को
फैला देगी, उतना ही
उससे छूटना
कठिन होता
जाएगा। जब अभी
वासना सिर्फ
बीज है, जब
उसमें कोई
जड़ें नहीं हैं
अभी, अभी
जब उसने चित्त
की भूमि में
कहीं जड़ों को फैलाकर
भूमि को पकड़कर
कस नहीं लिया
है, तब तक
बहुत आसान है।
बीज फेंके जा
सकते हैं, वृक्षों को काटना और उखाड़ना
पड़ता है।
और मजा
यह है कि
वृक्ष काटने
से भी कटते
हों, ऐसा नहीं
है। अक्सर तो
काटने से
सिर्फ कलम
होती है। एक
शाखा कटती है
और चार शाखाएं
निकल आती हैं।
जड़ों तक काट
डालने से भी
जड़ें नए अंकुर
और नई कोंपलें
छोड़ जाती हैं
और एक वृक्ष
के अनेक वृक्ष
भी हो जाते
हैं। और जड़ों
को उखाड़ना
बहुत कठिन है,
क्योंकि
जड़ें मनुष्य
के मन के
अचेतन गर्भों
में फैल जाती
हैं। उन तक पहुंचना
भी मुश्किल हो
जाता है।
इसलिए
कृष्ण का यह
सूत्र साधक के
लिए बहुत समझ
लेने जैसा है।
इस पर पूरा ही, मन के
रूपांतरण की
पूरी काजेलिटी,
पूरा कारण,
उसका राज
छिपा है।
तथ्य
तभी तक तथ्य
है, जब तक
आपने
व्याख्या
नहीं की है।
बुद्ध ने कहा,
निकला कोई
जरूर। यह
व्याख्या
नहीं है, निकला
है कोई। युवक
था कि युवती, कहना कठिन
है।
क्योंकि--बुद्ध
ने कहा--जब तक
मेरे भीतर
पुरुष बहुत
लालायित था, तब तक बाहर
खोज चलती थी, कौन स्त्री,
कौन पुरुष!
स्त्री
और पुरुष भी, तथ्य होते
हुए भी, हमारी
व्याख्या के
कारण ही वह
तथ्य दिखाई
पड़ता है। अब
यह बड़े मजे की
बात है। हम
जिंदगी में सब
भूल जाते हैं।
एक आदमी मुझे
आज मिले। मैं
भूल जाता हूं
कि उसका नाम
क्या है दस
साल बाद; भूल
जाता हूं, जाति
क्या है, धर्म
क्या है, चेहरा
कैसा था, आंखें
कैसी थीं,
कितना पढ़ा-लिखा
था--सब भूल
जाता हूं। एक
बात नहीं भूल
पाता कि स्त्री
था कि पुरुष
था।
यह बड़े
मजे की बात
है। कभी आप भूले
हैं किसी के
बाबत कि मुझे
पक्का याद
नहीं आता कि
वह जो मिला था, स्त्री थी
या पुरुष था? सब भूल जाते
हैं--नाम, शकल,
चेहरा, जाति,
धर्म--कई
बार यह भी शक
होता है कि वह
मिला था कि
नहीं मिला था;
यह भी भूल
सकते हैं।
लेकिन वह
स्त्री थी या
पुरुष, यह
नहीं भूल सकते
हैं। जरूर और
सब पहचान से
यह स्त्री और
पुरुष की
पहचान आपके
किसी गहरे मन
ने की है, जहां
से भूल नहीं
होती।
अगर एक
हवाई जहाज
आपके गांव में
गिर पड़े, समझें कोई अंतरिक्ष
यान गिर पड़े, कोई दूसरे
ग्रह के
यात्री का
जहाज आपके
गांव में गिर
पड़े, उसमें
से पायलट
को आप बाहर निकालें,
तो जो पहली
जिज्ञासा उठेगी,
वह यह कि वह
स्त्री है या
पुरुष! पहली
जिज्ञासा कि
वह स्त्री है
या पुरुष! फिर
दूसरी जिज्ञासाएं
उठेंगी।
निश्चित
ही, स्त्री
और पुरुष होना
एक बायोलाजिकल
फैक्ट है,
एक जैविक
तथ्य है।
स्त्री और
पुरुष के शरीर
में फर्क है।
लेकिन यह फर्क
इतना प्रगाढ़
होकर दिखाई
पड़े, इसकी
अनिवार्यता
उसमें नहीं
है। इसकी
अनिवार्यता
हमारे मन की
चाह में है।
रास्ते
से आप निकलते
हैं, वृक्ष
लगे हैं। आपने
शायद ही कभी
देखा हो कि
सभी वृक्ष एक
जैसे हरे नहीं
हैं। हरेपन
में भी हजार
तरह के हरेपन
हैं। हरा कोई
एक रंग नहीं
है, हरा भी
हजार रंग है।
लेकिन आपको
नहीं दिखाई पड़ेंगे।
एक चित्रकार
निकले, तो
उसे दिखाई पड़ेगा,
हजार रंग के
हरे रंग हैं।
दो हरे रंग
एक-से हरे रंग
नहीं हैं। ये
सामने दस
वृक्ष हैं, दस तरह के
हरे हैं। आपको
नहीं दिखाई पड़ेगा। इन वृक्षों
के नीचे से आप
रोज निकलते
हैं। इनका दस
तरह का हरा
होना
प्राकृतिक
तथ्य है।
लेकिन आपके
भीतर
चित्रकार
चाहिए, तब
वह दिखाई पड़ेगा।
उसकी खोज भी
आपके भीतर कोई
चीज खोजती हो,
तो ही दिखाई
पड़ेगी, अन्यथा
दिखाई नहीं
पड़ेगी।
चित्रकार को
दिखाई पड़ेगा
कि रंग ही रंग
हैं, हरे
रंग भी कई रंग
हैं।
स्त्री
और पुरुष जैविक
तथ्य है।
लेकिन आपको
इतना प्रगाढ़
होकर दिखाई
पड़ता है, यह जैविक
तथ्य नहीं है,
यह मानसिक
तथ्य है, यह
साइकोलाजिकल
तथ्य है।
इसमें कुछ न
कुछ आपने जोड़ना
शुरू कर दिया।
इसमें आपने
कुछ डालना
शुरू कर दिया।
थोड़ा-सा आप भी
इसमें प्रवेश
कर गए; फिर
चिंतन शुरू
होगा।
यह तो हैपनिंग
हुई, रास्ते
पर स्त्री दिखी,
पुरुष दिखा।
फिर आपने कहा,
सुंदर है, फिर आपकी
यात्रा शुरू
हुई चित्त की;
अब चिंतन
होगा। सुंदर
है, तो पीछे
से चाह, पीछे
से चाह चली
आएगी। चाह
आएगी, तो
भोग--कामना
में ही, मन
में ही, स्वप्न
में ही प्रतिमाएं
निर्मित होनी
शुरू हो जाएंगी।
अगर
किसी दिन हम
आदमी की खोपड़ी
में विंडो बना
सके--बना
सकेंगे, अब
तो सर्जन्स
कहते हैं, बहुत
कठिनाई नहीं
है; मनोवैज्ञानिक
भी कहते हैं, बहुत कठिनाई
नहीं है--अगर
हम आदमी की खोपड़ी
में एक कांच
की खिड़की बना
सके, जो कि
हम बना ही
लेंगे, तब
आपको मुसीबत
पता चलेगी।
अगर बाहर से
भी आपकी खोपड़ी
में झांका
जा सके कि
भीतर
क्या-क्या हो
रहा है!
एक
स्त्री जा रही
है, तत्काल
आपके मन के
भीतर बहुत कुछ
होना शुरू हो
गया है। यह
होना किसी को
पता नहीं चलता,
आपको ही पता
चलता है। बहुत
मौकों पर
तो आपको भी
पता नहीं
चलता। बहुत मौकों पर
तो यह इतना
अचेतन होता है
कि आपको भी
पता नहीं
चलता। दूसरों
को तो पता
चलता ही नहीं,
खुद आप भी
चूक जाते हैं।
यह भीतर चलता
रहता है और आप
कहीं और चलते
रहते हैं।
लेकिन कैसे यह
शुरू हो रहा
है?
तथ्य
हैं जगत में, फिक्शंस वहां नहीं
हैं, फैक्ट्स हैं। कल्पनाएं
मनुष्य डालता
है। सुंदर
है--यात्रा
शुरू हुई।
सुंदर है, तो
चाह है। चाह
है, तो भोग
है। अब चिंतन
शुरू हुआ। अब
वासना चिंतन बनेगी।
चिंतन को कहें,
काल्पनिक
संग पैदा हुआ।
जब काल्पनिक
संग पैदा होगा,
तो क्रिया
भी आएगी, काम
भी आएगा। और
कृष्ण कहते
हैं, काम
आएगा, तो
क्रोध भी
आएगा। क्यों?
काम आएगा, तो क्रोध
क्यों आ जाएगा?
असल
में जो कामी
नहीं है, वह
क्रोधी नहीं
हो सकता।
क्रोध काम का
ही एक और ऊपर
गया चरण है।
क्रोध क्यों
आता है? क्रोध
का क्या गहरा
रूप है? क्रोध
आता ही तब है, जब काम में
बाधा पड़ती है,
अन्यथा
क्रोध नहीं
आता। जब भी
आपकी चाह में
कोई बाधा
डालता है--जो
आप चाहते हैं,
उसमें बाधा
डालता है--तभी
क्रोध आता है।
जो आप चाहते
हैं, अगर
वह होता चला
जाए, तो
क्रोध कभी
नहीं आएगा।
समझें
आप कल्पवृक्ष
के नीचे बैठे
हैं, तो
कल्पवृक्ष के
नीचे क्रोध
नहीं आ सकता, अगर
कल्पवृक्ष
नकली न हो।
कल्पवृक्ष
असली है, तो
क्रोध नहीं आ
सकता।
क्योंकि
क्रोध का उपाय
नहीं है। आपने
चाहा कि यह
सुंदर स्त्री
मिले; मिल
गई। आपने चाहा,
यह मकान मिले;
मिल गया।
आपने चाहा, यह धन मिले; मिल गया।
आपने चाहा, सिंहासन
मिले; मिल
गया। आपने
चाहा नहीं कि
मिला नहीं, तो क्रोध के
लिए जगह कहां
है!
क्रोध
आता है, चाहा
और नहीं मिले
के बीच में जो गैप है, उस
गैप का
नाम, उस
अंतराल का नाम
क्रोध है।
चाहा और नहीं
मिला, अटक गई
चाह, रुक
गई चाह, हिन्डर्ड डिजायर,
चाह के बीच
में अड़ गया
पत्थर, चाह
के बीच में पड़
गई बाधा, क्रोध
के वर्तुल को
पैदा कर जाती
है।
नदी
भाग रही है
सागर की तरफ, आ गया एक
पत्थर बीच में,
तो सब खड़बड़
हो जाता है।
आवाज हो जाती
है। पत्थर न
हो तो नदी में
आवाज नहीं होती।
नदी आवाज नहीं
करती, पत्थर
के साथ टकराकर
आवाज हो जाती
है।
अगर
काम की नदी
बहती रहे और
कोई बाधा न हो, तो क्रोध
कभी पैदा न
होगा। लेकिन
काम की नदी बहती
है और बाधाओं
के पत्थर
चारों ओर खड़े
हैं। वे खड़े
ही हैं। कोई
आपके काम को
रोकने के लिए
नहीं खड़े हैं
वे, वे खड़े
ही थे। आपके
काम ने वहां
से बहना शुरू
किया।
अब एक
स्त्री सुंदर
मुझे दिखाई
पड़ी; मैंने
उसे चाहना
शुरू किया। अब
हजार पत्थर हैं।
उस स्त्री का
पति भी है, वह
भी पत्थर है।
उस स्त्री का
पिता भी है, वह भी पत्थर
है। उस स्त्री
का भाई भी है, वह भी पत्थर
है। कानून भी है,
अदालत भी है,
पुलिस भी
है--वे भी
पत्थर हैं। और
ये कोई भी न हों,
तो कम से कम
वह स्त्री भी
तो है। मैंने
चाहा इसलिए वह
चाहे, यह
तो जरूरी नहीं
है। मेरी चाह
कोई उसके लिए
नियम और कानून
तो नहीं है।
वह स्त्री तो
है ही; इस
जगत में हम
सारे पत्थर
हटा दें, तो
भी वह स्त्री
तो है ही। और
फिर अगर वह
स्त्री भी राजी
हो, तो भी
पत्थर नहीं
रहेंगे, ऐसा
नहीं है।
यहां
थोड़े और गहरे
उतरना पड़ेगा।
अगर
ऐसा भी हम कर
लें जैसा कि
समाजशास्त्री
सोचते हैं, जैसा कि समाजवादी
सोचते हैं कि
सारे पत्थर
अलग कर दें; जैसा कि हिप्पी
और बीटनिक
और प्रवोस
सोचते हैं कि
सारे पत्थर
अलग कर
दो--कानून अलग करो,
पुलिस अलग
करो--जहां-जहां
पत्थर है, वह
अलग कर दो, क्योंकि
व्यर्थ ही
उनसे क्रोध
पैदा होता है
और मनुष्य
दुखी होता है।
सब पत्थर अलग
कर दो। तो भी
एक स्त्री को पचीस
पुरुष नहीं
चाह लेंगे, एक पुरुष को पचीस स्त्रियां
नहीं चाह लेंगी,
इसका क्या
उपाय है?
असल
में कानून और
व्यवस्था
इसीलिए बनानी
पड़ी कि
अव्यवस्था
इससे भी बदतर
हो जाएगी। यह
बदतर है काफी, लेकिन
अव्यवस्था
इससे भी बदतर
हो जाएगी। यह
चुनाव रिलेटिव
है। यह बदतर
है काफी कि हर
जगह चाह के
बीच में उपद्रव
खड़ा है, लेकिन
अगर सारे
उपद्रव हटा लो,
तो महाउपद्रव
खड़ा हो जाएगा।
अभी एक ही पति
है उसका खड़ा।
पति की
व्यवस्था को
हटा दो, तो
हजार पति नहीं
खड़े हो जाएंगे,
इसका क्या
उपाय है रोकने
का? अभी एक
ही पत्नी उस
पति के ऊपर
पहरा दे रही
है। हटा दो
उसे, तो
हजार पत्नियां
नहीं पहरा देंगी,
इसकी क्या
गारंटी है?
फिर हम
कल्पना भी कर
लें कि सब हटा
दिया जाए और ऐसा
भी कुछ हो जाए
कि बाहर से
कोई बाधा नहीं
आती, तो भीतरी बाधाएं
हैं, जो और
भी बड़ी बाधाएं
हैं। क्योंकि
जिस स्त्री को
आप चाहते हैं,
जो स्त्री
आपको चाहती है,
बीच में और
कोई बाधा नहीं
है, तो भी
आप दो हैं और
दो होना भी
काफी बड़ी बाधा
है। और क्रोध
रोज-रोज जन्मेगा;
जरा-जरा सी
बात में जन्मेगा।
आप
सुबह पांच बजे
उठना चाहते
हैं और आपकी
स्त्री सुबह
छः बजे उठना
चाहती है। बस, इतना भी
काफी है। कोई
पुलिस, अदालत,
कानून और
राज्य की
जरूरत नहीं है
क्रोध के लिए,
इतनी ही
बाधा काफी है।
छोटी-छोटी अड़चनें
चाह में खड़ी
होती हैं और
बाधा खड़ी हो
जाती है। वह
दूसरा
व्यक्ति भी
व्यक्ति है, मशीन नहीं
है। उसकी भी
अपनी चिंतना
है, अपना
सोचना है, अपना
ढंग है। और दो
चिंतन एकदम पैरेलल
नहीं हो पाते;
हो नहीं
सकते। सिर्फ
दो मशीनें
समानांतर हो
सकती हैं, दो
व्यक्ति कभी
समानांतर
नहीं हो सकते।
असल
में दो
व्यक्तियों
का साथ रहना
उपद्रव है। न
रहना भी
उपद्रव है, क्योंकि चाह
है। साथ न
रहें, तो
पूरी नहीं हो
सकती। साथ
रहें, तो
भी पूरी नहीं
हो पाती है।
तो वे
जितनी अड़चनें
हैं, वे सब काम
में अड़चनें,
पत्थर बन
जाती हैं और
क्रोध को
जन्माती हैं।
कामी क्रोधी
हो जाता है।
अगर
कृष्ण ने कहा
है कि
स्थितप्रज्ञ
को क्रोध नहीं
होता, तो
उसका कारण यही
है कि
स्थितप्रज्ञ
को काम नहीं
होता; वह
निष्काम है।
ये नेसेसरी
स्टेप्स
हैं, ये
अनिवार्य
सीढ़ियां हैं,
जो एक के पीछे
चली आती हैं।
और एक को लाएं,
तो दूसरे को
लाना पड़ता है।
वह दूसरा उससे
इतना बंधा है
कि वह एक को
लाते वक्त ही
उसके साथ छाया
की तरह भीतर
प्रवेश कर
जाता है। आपको
मैंने निमंत्रण
दिया, आपकी
छाया भी मेरे
घर में आ जाती
है। आपकी छाया
को मैंने कभी
निमंत्रण
नहीं दिया था,
पर वह आपके
साथ ही है, वह
भीतर चली आती
है।
काम के
पीछे आता है
क्रोध। अगर
चित्त में
क्रोध हो, तो जरा भीतर
खोजने से पता
चलेगा, कहीं
काम है। अटका
हुआ काम क्रोध
है। रुका हुआ
काम क्रोध है।
बाधा डाला गया
काम क्रोध है।
क्रोध का सांप
फुफकारता तभी
है, तभी वह फन
फैलाता है, जब मार्ग
में कोई अड़चन
आ जाती है और
द्वार नहीं
मिलता है। जब
कोई रोकता है,
कोई अटकाता
है...।
फिर हम
अकेले नहीं
हैं इस जगत
में। विराट यह
जगत है। सभी
की कामनाएं
एक-दूसरे की कामनाओं
को क्रिस-क्रास
कर जाती हैं; तो सब जगह
अटकाव हो जाता
है। मैं कुछ चाहता
हूं, लेकिन
साढ़े तीन
अरब लोग और
हैं पृथ्वी पर,
वे कुछ
चाहते हैं।
फिर अदृश्य
परमात्मा है,
फिर अदृश्य
जीव-जंतु हैं,
फिर अदृश्य
देवी-देवता
हैं, फिर
अदृश्य वृक्ष,
पशु-पक्षी
सब हैं, उन
सब की चाहें
हैं। अगर हम
अपने ऊपर देख
सकें, तो
हमें पता चले
कि पूरा आकाश,
पूरा व्योम
अनंत चाहों
से क्रिस-क्रास
है। अनंत
चाहें
एक-दूसरे को
काट रही हैं।
एक-एक चाह पर
करोड़-करोड़ चाहों
का कटाव है।
वह कटाव क्रोध
पैदा करता है;
करेगा ही।
जहां भी वासना
कटी कि पीड़ा
हुई। जैसे
किसी ने रग
काट दी हो और
खून बहने लगे।
वासना की रग
कटती है, तो
क्रोध का खून
बहता है।
कृष्ण
कहते हैं, काम से
क्रोध पैदा
होता है।
क्रोध, क्रोध बहुत
ही...। मनुष्य
के अस्तित्व
में, जैसा
मनुष्य है, बड़ी गहरी आधारशिलाएं
उसकी रखी हैं।
है क्या क्रोध,
अपने में? शक्ति, एनर्जी!
तृप्ति के लिए
काम के मार्ग
से जाती थी, लेकिन मार्ग
अवरुद्ध पाकर
शक्ति
उद्विग्न हो
गई है। चाहा
था कुछ, उस
चाह की पगडंडी
से प्राणों की
ऊर्जा बहनी
थी; आ गया
है पत्थर, अटक
गया सब। शक्ति
अपने पर लौट
पड़ी है। सब
भीतर क्रुद्ध
हो गया है।
लौटा हुआ काम,
काम के
मार्ग से जाती
हुई ऊर्जा
अवरुद्ध होकर विद्रोह
से भर गई है, विक्षिप्त
हो गई है, इनसेन
हो गई है।
इसलिए क्रोध
है।
जैसे-जैसे
क्रोध बढ़ता है, वैसे-वैसे
मोह बढ़ता है।
क्यों? जिसे
हम चाहते हैं
और नहीं पा
पाते, उसके
प्रति मोह और
गहरा हो जाता
है। मिल जाए, तो मोह कम हो
जाता है। न
मिले, तो
मोह बढ़ जाता
है। जो नहीं
मिलता, उसी
के प्रति मोह
होता है; जो
मिलता है, उसके
प्रति मोह
नहीं रह जाता।
क्रोध मोह को
जन्म दे जाता
है। मोह का
मतलब क्या है?
मैंने
सुना है कि नादिरशाह
ने एक दफे
एक बहुत गहरा
मजाक किया।
गहरा कहना
चाहिए। और
कभी-कभी पाप
में गहरे गए
लोगों की
बुद्धि भी पुण्य
में गहरे गए
लोगों की
बुद्धि जैसी
ही गहरी हो
जाती है--उलटी
होती है, लेकिन
गहरी हो जाती
है।
नादिरशाह
किसी स्त्री
के प्रति
लोलुप है, लेकिन वह
स्त्री उसके
प्रति बिलकुल
ही अनासक्त है,
पर नादिरशाह
के एक सैनिक
के प्रति पागल
है। स्वभावतः,
नादिर के
लिए बर्दाश्त
करना मुश्किल
हो गया। पकड़वा
भिजवाया
दोनों को।
पूछा अपने वजीरों
से कि कोई नई
सजा खोजो,
जो कभी न दी
गई हो।
ऐसी
कोई सजा है, जो कभी न दी
गई हो! सब सजाएं
चुक गई
हैं। वजीर बड़ी
मुश्किल में
पड़े। नई-नई सजाएं
खोजकर
लाते, लेकिन
नादिर कहता कि
यह हो चुका; यह कई बार दी
जा चुकी है।
हम ही दे चुके
हैं। दूसरे दे
चुके हैं। नई
चाहिए! और सच
में ही एक
बूढ़े वजीर ने
नई सजा खोज
ली। आप भी न सोच
सकेंगे कि नई
सजा क्या हो
सकती थी!
नई सजा
यह थी कि
दोनों को नग्न
करके, एक-दूसरे
के चेहरों को
आमने-सामने
करके, दोनों
को एक खंभे से
बांध दिया
गया। कभी सोचा
भी नहीं होगा
किसी ने! एक
दिन, दो
दिन, एक-दूसरे
के शरीर से
बास आने लगी, मल-मूत्र छूटने
लगा। तीन दिन,
एक-दूसरे के
चेहरे को
देखने की भी
इच्छा न रही।
चार दिन, एक-दूसरे
पर भारी घृणा
पैदा होने
लगी। पांच दिन,
नींद नहीं,
मल-मूत्र, गंदगी; और
बंधे हैं
दोनों एक
साथ--यही चाहते
थे! पंद्रह
दिन, दोनों
पागल हो गए कि
एक-दूसरे की
गर्दन काट दें।
और
नादिर रोज आकर
देखता कि कहो
प्रेमियो, इच्छा पूरी
कर दी न! मिला
दिया न दोनों
को! और ऐसा
मिलाया है कि
छूट भी नहीं
सकते। जंजीरें
बंधी हैं।
पंद्रह दिन
बाद जब उन
दोनों को छोड़ा,
तो कथा है
कि उन्होंने लौटकर
एक-दूसरे को
जिंदगी में न
दुबारा देखा
और न बोले।
जो भागे
एक-दूसरे से, तो फिर लौटकर
कभी नहीं
देखा!
क्या
हुआ? मोह पैदा
होने का उपाय
न रहा। अमोह
पैदा हो गया।
करीब-करीब
जिसको हम
विवाह कहते हैं,
वह भी नादिरशाह
का बहुत छोटे
पैमाने पर
प्रयोग
है--बड़े छोटे
पैमाने पर।
किसी बहुत
होशियार आदमी
ने कोई गहरी
ईजाद की है। मैरिज मोह
को नहीं जमने
देती, मोह
को मार डालती
है। असल में
मोह, जो
नहीं मिलता, उसके लिए
पैदा होता है।
इसलिए
कृष्ण की इनसाइट, उनकी
अंतर्दृष्टि
गहरी है। वे
कहते हैं, क्रोध
से मोह पैदा
होता है अर्जुन!
क्योंकि
क्रोध का मतलब
ही यह है कि
जिसे चाहा था,
वह नहीं मिल
सका, इसलिए
क्रोध आया।
नहीं मिल सका,
इसलिए
मिलने की और
आकांक्षा
आएगी। नहीं
मिल सका, इसलिए
पाने का और
पागलपन आएगा।
नहीं मिल सका,
इसलिए मन
और-और
विक्षिप्त हो
जाएगा और मांग
करेगा।
जापान
में वेश्याओं
का एक वर्ग है--गेसा गर्ल्स।
उनकी जो
ट्रेनिंग है, उस ट्रेनिंग
का एक हिस्सा
है--दुनिया
में सभी वेश्याओं
की ट्रेनिंग
का हिस्सा है।
वेश्याएं
पत्नियों
से ज्यादा
होशियार हैं। गेसा गर्ल्स
को सिखाया
जाता है कि
कभी इतनी मत
मिल जाना किसी
को कि अमोह
पैदा हो जाए। बस,
मिलना और न
मिलना, इनके
बीच सदा खेल
को चलाते
रहना। पास
बुलाना किसी
को और दूर हो
जाना। कोई
निकट आ पाए कि
सरक जाना।
बुलाना भर, मिल ही मत
जाना, क्योंकि
मिल ही गए कि
मोह नष्ट हो
जाता है। वेश्याएं
भी जानती हैं
कृष्ण के राज
को; उनको
भी पता है।
अब यह
बड़े मजे की
बात है। खयाल
में आती है, आपसे कहता
हूं।
स्त्रियां
थीं पृथ्वी की
घूंघट में दबी,
अंधेरे में
छिपी। पति भी
नहीं देख पाता
था सूरज की
रोशनी में।
कभी खुले में
बात भी नहीं
कर पाता था।
अपनी पत्नी से
भी बात चोरी
से ही होती थी,
रात के
अंधेरे में, वह भी
खुसुर-फुसुर।
क्योंकि सारा
बड़ा परिवार
होता था, कोई
सुन न ले!
आकर्षण गहरा
था, मोह जिंदगीभर
चलता था।
स्त्री
उघडी, परदा
गया--अच्छा
हुआ, स्त्री
के लिए बहुत
अच्छा
हुआ--सूरज की
रोशनी आई।
लेकिन साथ ही
मोह क्षीण
हुआ। स्त्री
और पुरुष आज
कम मोहग्रस्त
हैं। आज
स्त्री उतनी
आकर्षक नहीं
है, जितनी
सदा थी। और
यूरोप और अमेरिका
में और भी
अनाकर्षक हो
गई है; क्योंकि
चेहरा ही नहीं
उघड़ा, पूरा
शरीर भी उघड़ा।
आज यूरोप और अमेरिका
के समुद्रत्तट
पर स्त्री
करीब-करीब
नग्न है, पास
से चलने वाला
रुककर भी तो
नहीं देखता; पास से
गुजरने वाला
ठहरकर भी तो नहीं
देखता कि नग्न
स्त्री है।
कभी
आपने देखा, बुरके में ढकी
औरत जाती हो, तो पूरी सड़क
उत्सुक हो
जाती है। ढके
का आकर्षण है,
क्योंकि ढके में
बाधा है। जहां
बाधा है, वहां
मोह है। जहां
बाधा नहीं है,
वहां मोह
नहीं है।
स्त्री
और पुरुष का
आकर्षण जितना सेक्सुअल
है, जितना
कामुक है, उससे
ज्यादा सोशल
है, कल्चरल है। जितना
ज्यादा काम से
पैदा हुआ है, उतना काम
में डाली गई
सामाजिक बाधाओं
से पैदा हुआ
है।
अब मैं
मानता हूं कि
आज नहीं कल, पचास साल के
भीतर, सारी
दुनिया में
घूंघट वापस
लौट सकता है।
आज कहना बहुत
मुश्किल
मालूम पड़ता है,
यह
भविष्यवाणी
करता हूं, पचास
साल में घूंघट
वापस लौट
आएगा।
क्योंकि स्त्री-पुरुष
इतनी
अनाकर्षक
हालत में जी न
सकेंगे। वे
आकर्षण फिर
पैदा करना चाहेंगे।
आने वाले पचास
वर्षों में
स्त्रियों के
वस्त्र फिर
बड़े होंगे, फिर उनका
शरीर ढकेगा।
बर्ट्रेंड रसेल ने
लिखा है कि जब
वह बच्चा था, तो विक्टोरियन
युग समाप्त हो
रहा था। और
स्त्रियों के
पैर का अंगूठा
भी देखना
मुश्किल था।
घाघरा ऐसा होता
था, जो
जमीन छूता था।
तो बर्ट्रेंड
रसेल ने
लिखा है कि
अगर किसी
स्त्री के पैर
का अंगूठा भी दिख जाता
था, तो
चित्त में
बिजली कौंध
जाती थी। और
उसने लिखा है
कि अब कल्पना
करने को भी कुछ
नहीं बचा है।
स्त्री पूरी
दिखाई पड़ जाती
है और चित्त
में कोई बिजली
नहीं कौंधती।
नग्न
स्त्री उतनी
आकर्षक नहीं
है, नग्न
पुरुष उतना
आकर्षक नहीं
है। और
स्त्रियां
पुरुषों से
ज्यादा
होशियार हैं,
इसलिए कोई
स्त्री नग्न
पुरुष में कभी
उत्सुकता
नहीं लेती।
गहरे से गहरे
प्रेम के क्षण
में
स्त्रियां
आंख बंद कर लेती
हैं कि पुरुष
दिखाई ही न
पड़े।
स्त्रियां ज्यादा
होशियार हैं,
शायद इंसटिंक्टिवली
वे प्रकृति के
ज्यादा करीब
हैं और राजों
से परिचित
हैं।
कृष्ण
कहते हैं, क्रोध से
मोह पैदा होता
है। क्योंकि
क्रोध से बाधा
पैदा होती है।
जहां भी बाधा
है, वहां
आकर्षण खड़ा हो
जाता है।
अब यह
बड़े मजे की
बात है कि जिन
लोगों ने बाधाएं
खड़ी की हैं, वे ही
आकर्षण के लिए
जिम्मेदार
हैं। ईसाइयत
ने पाप को
इतना आकर्षक
बना दिया, क्योंकि
पाप के लिए
इतनी बाधाएं
खड़ी कीं।
धर्मों ने
सेक्स को बहुत
आकर्षक बना
दिया, क्योंकि
उसके लिए बहुत
बाधाएं
खड़ी कीं।
आमतौर
से लोग समझते
हैं कि फिल्में
हैं, नग्न-चित्र
हैं, नग्न-अश्लील
तस्वीरें
हैं--ये लोगों
को कामुक बना
रही हैं।
कृष्ण यह नहीं
कह सकते कि
कामुक बना रही
हैं। कृष्ण कहेंगे कि
यह लोगों का
तो सारा मोह
खराब कर देंगी।
क्योंकि
लोगों के लिए
अनाकर्षक हो
जाएगी, जो
चीज परिचित हो
जाती है।
जिसमें बाधा
नहीं है, वह
अनाकर्षक हो
जाती है।
अगर
कृष्ण से हम पूछें
मनोविज्ञान
का सत्य, तो
वह यह है कि
अगर दुनिया
में
स्त्री-पुरुष
के आकर्षण को
बढ़ाना हो, तो
नग्न
तस्वीरें बंद
करो, अश्लील
तस्वीरें बंद
करो, स्त्री
को नग्न मत
करो। ढांको;
बाधाएं खड़ी करो; स्त्री-पुरुष
को एकदम मिल
जाने की
सुविधा मत बनाओ;
असुविधाएं खड़ी करो--अगर
मोह पैदा करना
है।
अगर
कृष्ण से हम पूछें, तो कृष्ण वह
जवाब नहीं
देंगे, जो
हिंदुस्तान
के सब साधु दे
रहे हैं। वे
कह रहे हैं कि फिल्मों
में चुंबन न
हो। चुंबन हुआ,
तो लोग
कामुक हो
जाएंगे। गलत
हैं! उन्हें
बिलकुल
मनोविज्ञान
का कोई भी पता
नहीं। कृष्ण
को ज्यादा पता
है। वह कृष्ण
कह रहे हैं कि
अगर बाधा
बिलकुल नहीं
है, तो मोह
बिलकुल गिर
जाएगा। अगर चीजें
बिलकुल साफ
हैं, तो
आकर्षण खो
देती हैं।
निषेध में
निमंत्रण है।
जहां ढका है, वहां उघाड़ने
का मन है।
जहां बाधा है!
अब
मेरी अपनी समझ
यही है कि
पुरानी
मनुष्य की संस्कृति
स्त्री और
पुरुष के बीच
ज्यादा आकर्षण
को जन्माती
थी। पुरानी
संस्कृति में
तलाक मुश्किल
था। आकर्षण
भारी था। अपनी
ही पत्नी से
मिलना कहां हो
पाता था!
कितनी बाधाएं
थीं! संयुक्त
परिवार बड़ी
बाधा का काम
करता था।
आकर्षण जीवनभर
खिंचता था। जीवनभर ही
नहीं, स्त्री
और पुरुष
चाहते थे कि मरकर भी
यही स्त्री, यही पुरुष
मिल जाए। तलाक
जन्म के साथ
भी करने का मन
नहीं था।
जन्मों-जन्मों
तक एक को ही पा
लेने का
आकर्षण था।
राज कहां है? राज इसी
सूत्र में है,
बाधाएं बहुत थीं।
क्रोध
सबसे बड़ी बाधा
है। असल में
क्रोध बाधा से
ही पैदा हुआ
चित्त-विकार
है। तो मोह
पैदा हो जाता
है। और जहां
मोह पैदा होता
है, वहां
स्मृति
भ्रष्ट हो
जाती है।
स्मृति मोह से
भ्रष्ट क्यों
हो जाती है?
आमतौर
से हम सोचते
होंगे, काम
से भ्रष्ट
होनी चाहिए
स्मृति। काम
से भ्रष्ट
नहीं होती, क्योंकि काम
प्राकृतिक
तथ्य है।
आमतौर से हमें
सोचना चाहिए,
क्रोध से
भ्रष्ट हो
जाती है
स्मृति।
लेकिन क्रोध
से भी नहीं
होती।
क्योंकि
क्रोध सिर्फ
काम के मार्ग
में पड़ी अड़चन
से पैदा होता
है। क्रोध प्रोजेक्टिव
नहीं है। यह
समझना पड़ेगा।
क्रोध का कोई
सम्मोहन नहीं
है। क्रोध
केवल प्रतिकार
है, प्रक्षेप
नहीं। क्रोध
किसी दूसरे का
प्रतिकार है,
किसी बाधा
को हटाने की
चेष्टा है।
बाधा हट जाए, क्रोध खो
जाएगा।
मोह
क्रोध से भी
सबल है। मोह प्रोजेक्टिव
है; मोह अंधा
कर देता है।
क्रोध पागल
करता है, मोह
अंधा कर देता
है। मोह कहता
है, कुछ भी
हो! सब बाधाओं
को भूलकर
मोह पागल होकर
जिसे पाना
चाहता है, उसके
पीछे दौड़ पड़ता
है। क्रोध बाधाओं
को अलग करने
की कोशिश करता
है, काफी रिअलिस्टिक
है; क्रोध
बहुत यथार्थ
है। लेकिन मोह
कहता है, बाधाएं!
कोई बाधाएं
नहीं हैं, छलांग
लगाएंगे,
दौड़कर निकल
जाएंगे।
मोह
अंधा कर देता
है। और जब
चित्त अंधा
होता है, तभी
स्मृति क्षीण
होती है। हां,
मोह तक आने
के लिए काम और
क्रोध जरूरी
हैं। लेकिन
मोह कहना
चाहिए परिपाक
है। मोह हमारे
चित्त के
विकार की सौ
डिग्री
अवस्था है, जहां से भाप
बनना शुरू
होता है। निन्यानबे
डिग्री तक भी
पानी भाप नहीं
बनता, गरम
ही रहता है।
और गरम रहने
में एक खूबी
है कि अभी
चाहे, नीचे
से अगर ईंधन
निकाल लिया
जाए, तो
फिर ठंडा हो
सकता है।
लेकिन सौ
डिग्री पर
पहुंचकर भाप
बन जाएगा। फिर
आप ईंधन निकालो
या कुछ करो, भाप सिर्फ
ईंधन निकालने
से फिर ठंडी
नहीं हो सकती।
पानी ने नई
अवस्था पा ली।
क्रोध
तक सिर्फ मन
गरम है, मोह
पर भाप बन
जाता है। नई
अवस्था शुरू
हो गई मन की, ए न्यू
स्टेट; क्वालिटेटिव चेंज हो
गया, गुणात्मक
अंतर हो गया।
क्रोध तक
गुणात्मक अंतर
नहीं है, परिमाणात्मक अंतर है, क्वांटिटेटिव चेंज हो
रहा है सिर्फ।
इसलिए क्रोध
से वापस लौट
जाना आसान है,
मोह से वापस
लौट जाना बहुत
मुश्किल हो
जाता है।
इसलिए
मोह को कृष्ण
कहते हैं कि
उससे स्मृति भ्रष्ट
हो जाती है।
क्योंकि
चित्त भाप-भाप
हो जाता है।
लौटना बहुत
कठिन है। अब
उसको ठंडा
करना बहुत
कठिन है। अब
ईंधन हटाने से
कुछ न होगा। और
फिर मोह के
तत्व को ठीक
से समझें, तो पता
चलेगा कि
स्मृति क्यों
मोह नष्ट करता
है।
मनुष्य
के मन में
स्मृति का जो
काम है, मोह
का उससे
विपरीत काम
है। स्मृति तथ्यगत
है। स्मृति का
मतलब ही यही
है कि जो जाना,
उसे वैसा ही
याद रखना जैसा
जाना। मेमोरी
का मतलब ही
इतना है। राइट
मेमोरी, ठीक स्मृति
का मतलब इतना
ही है कि हम
अपनी तरफ से
कुछ नहीं जोड़ते,
जो है, उसको
ही स्मरण रखते
हैं। उसमें
हमारा कोई जोड़
नहीं होता।
मोह
कहना चाहिए क्रिएटिव
है, सृजनात्मक
है। वह वही
नहीं देखता, जो है; वह वह प्रोजेक्ट
करता है, निर्माण
करता है, जो
चाहता है कि
हो। मोह
स्वप्न-निर्माता
है। मोह
सम्मोहक है, हिप्नोटिक है। मोह
अपने हिप्नोटिज्म
का जाल फैला
देता है। वह
बिलकुल अंधा
होकर वही
देखने लगता है,
जो देखना
चाहता है।
इसलिए
अक्सर हम कहते
हैं कि जब कोई
मोहग्रस्त होता
है, कोई
प्रेम में
पागल हो जाता
है, तो फिर
उसे तथ्य
दिखाई नहीं पड़ते। वह
आग में चल
सकता है, वह
पहाड़ों से कूद
सकता है। उसे
फिर कुछ दिखाई
नहीं पड़ता।
फिर वह रिअलिस्ट
नहीं रह जाता,
वह सोम्नाबुलिस्ट
हो जाता है; वह नींद में
चलने लगता है।
उसका चलना फिर
नींद में चलना
है।
इसलिए
प्रेमी को
मनुष्य हमेशा
से पागल कहता
रहा है। और
प्रेम को सदा
से अंधा कहता
रहा है। ठीक
होगा कि प्रेम
की जगह हम मोह
का उपयोग करें।
ठीक शब्द मोह
है। मोह अंधा
है, ब्लाइंड है। प्रेम
बड़ी और बात
है।
प्रेम
को मोह के साथ
एक कर लेने से
गहरा, भारी
नुकसान हुआ
है। प्रेम एक
बहुत ही और
बात है। प्रेम
तो उसी के
जीवन में घटित
होता है, जिसके
जीवन में मोह
नहीं होता।
लेकिन हम प्रेम
को ही मोह और
मोह को प्रेम
कहते रहे हैं।
प्रेम
तो बुद्ध और
कृष्ण जैसे
लोगों के जीवन
में होता है।
हमारे जीवन
में प्रेम
होता ही नहीं
है। जिनके
जीवन में मोह
है, उनके
जीवन में
प्रेम नहीं हो
सकता।
क्योंकि मोह
मांगता है, प्रेम देता
है। बिलकुल
अलग अवस्थाएं
हैं। उनकी हम
आगे थोड़ी बात
कर सकेंगे।
लेकिन मोह को
समझने के लिए
उपयोगी है।
प्रेम
उस चित्त में
फलित होता है, जिसमें कोई
काम नहीं रह
जाता, जिसमें
कोई वासना
नहीं रह जाती।
क्योंकि दे वही
सकता है, जो
मांगता नहीं।
वासना मांगती
है। वासना
कहती है, मिलना
चाहिए, यह
मिलना चाहिए,
यह मिलना
चाहिए। प्रेम
कहता है, अब
कोई मांग न
रही, हम
कोई भिखारी
नहीं हैं।
वासना भिखारी
है, प्रेम
सम्राट है।
प्रेम कहता है,
जो हमारे
पास है, ले
जाओ। जो हमारे
पास है, ले
जाओ; अब
हमें तो कोई
जरूरत न रही, अब हमारी
कोई मांग न
रही। अब
तुम्हें जो भी
लेना है, ले
जाओ। प्रेम
दान है। वासना
भिक्षावृत्ति
है, मांग
है।
इसलिए
वासना में कलह
है; प्रेम
में कोई कलह
नहीं है। ले
जाओ तो ठीक, न ले जाओ तो
ठीक। लेकिन
मांगने वाला
यह नहीं कह
सकता कि दे दो
तो ठीक, न
दो तो ठीक।
देने वाला कह
सकता है कि ले
जाओ तो ठीक, न ले जाओ तो
ठीक। क्योंकि
देने में कोई
अंतर ही नहीं
पड़ता, नहीं
ले जाते, तो
मत ले जाओ।
मांग में अंतर
पड़ता है। नहीं
दोगे, तो
प्राण
छटपटाते हैं।
क्योंकि फिर
अधूरा रह जाएगा
भीतर कुछ, पूरा
नहीं हो
पाएगा।
मोह
पैदा होता है
वासना की
अंतिम कड़ी
में, और प्रेम
पैदा होता है निर्वासना
की अंतिम कड़ी
में। कहना
चाहिए, जिस
तरह मोह से
स्मृति नष्ट
होती है, उसी
तरह से प्रेम
से स्मृति
पुष्ट होती
है। पर उसकी
अलग बात
करेंगे। अभी
उससे कोई
लेना-देना
नहीं है।
मोह सीढ़ियों
का नीचे उतरा
हुआ सोपान है, पायदान है, जहां आदमी
पागल होने के
करीब पहुंचता
है। प्रेम सीढ़ियों
का ऊपरी
पायदान है, जहां आदमी
विमुक्त होने
के करीब
पहुंचता है।
विक्षिप्त
होने के करीब
और विमुक्त
होने के करीब।
मोह के बाद
विक्षिप्तता
है, प्रेम
के बाद
विमुक्ति है।
यह जो
मोह पैदा हुआ, यह स्मृति
को नष्ट कर
देता है।
क्यों? क्योंकि
स्मृति अब
रिकार्ड नहीं
कर पाती कि क्या
है। स्मृति का
काम सिर्फ रिकाघडग
का है कि वह
वही रिकार्ड
कर ले, जो
है; तथ्य
को अंकित कर
ले। लेकिन मोह
के कारण तथ्य दिखाई
नहीं पड़ता।
मोह के कारण
हम एक जाल
अपनी तरफ से प्रोजेक्ट
करते हैं।
प्रोजेक्टर
आपने देखा
होगा। सिनेमागृह
में परदा होता
है। परदे पर
चित्र होते
हैं। लेकिन आपकी
पीठ के पीछे
दीवाल के उस
पार छिपा हुआ प्रोजेक्टर
होता है, मशीन
होती है, जो
चित्रों को
परदे पर
फेंकती है।
चित्र उस मशीन
में छिपे होते
हैं, परदे
पर नहीं होते
हैं। परदे पर
चित्रों का सिर्फ
भ्रम पैदा
होता है।
चित्र होते
हैं मशीन में
छिपे, प्रोजेक्टर में, फेंकने
वाले में। और
वहां से चित्र
फेंके जाते हैं,
लेकिन
दिखाई पड़ते
हैं परदे पर।
होते हैं प्रोजेक्टर
में, दिखाई
पड़ते हैं
परदे पर।
मोह प्रोजेक्टर
है। होता है
हमारे भीतर, दिखाई पड़ता
है परदे पर।
जब मैं किसी
स्त्री के
प्रेम में पड़
जाता हूं, तो
जो चेहरा मुझे
दिखाई पड़ता है,
वह उस
स्त्री का
नहीं होता, वह मेरे प्रोजेक्टर
का होता है।
वह होता है
मेरे भीतर, दिखाई पड़ता
है वहां।
स्त्री सिर्फ
परदा होती है।
क्योंकि
जिनको उस
स्त्री से मोह
नहीं है, उनको
वहां वैसा
चेहरा नहीं
दिखाई पड़ता, जैसा मुझे
दिखाई पड़ता
है। मुझे उसके
पसीने में भी
सुगंध आने
लगती है; उसके
पसीने में भी
गुलाब खिलने
लगते हैं।
किसी को नहीं
खिलते। कुछ
दिन बाद मुझे
भी नहीं खिलेंगे--जब
मोह गिरेगा
और प्रोजेक्टर
बंद हो जाएगा
और परदा दिखाई
पड़ेगा।
तब मैं कहूंगा,
अरे! क्या
हुआ? गुलाब
के फूल कहां
गए? वे
गुलाब के फूल
विदा हो
जाएंगे। वे
गुलाब के फूल
वहां थे ही
नहीं। वे
गुलाब के फूल
मैंने आरोपित
किए थे, प्रोजेक्ट किए थे; वह
मेरा
प्रक्षेप था।
धन में
धन के पागल को
जो दिखाई पड़ता
है, वह धन में
होता नहीं, प्रोजेक्टेड होता है। धन
में क्या
होगा! लेकिन
धन के पागल को
देखा है आपने।
वह रुपए को
किस मोह से पकड़ता
है, जैसे
किसी जीवंत
चीज को पकड़
रहा हो! वह
रुपए को किस
प्रेम से
सम्हालता है,
जैसे उसका
हृदय हो! वह
तिजोरी को
कैसे आहिस्ता
से खोलता है!
वह तिजोरी को
कैसे देखता है,
जैसे उसकी
आत्मा वहां
बंद है! वह रात
सोता भी है, तो तिजोरी
का ही चिंतन
घूमता है। रात
सपने भी आते
हैं, तो
रुपयों के ही
ढेर बढ़ते चले
जाते हैं। वह
जिस जगत में
जी रहा है, उसका
हमें कुछ भी
पता नहीं है
कि उसका प्रोजेक्शन
क्या हो रहा
है! वह क्या प्रोजेक्ट
कर रहा है!
मैंने
सुना है, एक
आदमी एक गांव
में बहुत धनपति
है। फिर गांव
में लोग मरने
लगे, अकाल
पड़ा। तो लोगों
ने उससे कहा, इतना धन है
तुम्हारे पास,
इतना धान्य
है तुम्हारे
पास, लोग
मर रहे हैं, ऐसे क्षण पर रोको मत--बांटो। तो
उस आदमी ने
कहा, जिसे
तुम बांटने के
लिए कह रहे हो,
वह अगर बंट
जाए तो मैं मर
जाऊं। तो लोग
मर रहे हैं
माना, लेकिन
मैं मरना नहीं
चाहता! यह तुम
भी जानो। और
लोग मर रहे
हैं, तो
दूसरे पैदा हो
जाएंगे।
लेकिन जो धन
मैंने इकट्ठा
किया है, वह
दूसरा कहां से
आ सकता है? लोग
बड़े चकित हुए।
कभी न सोचा था!
लेकिन
उन्हें पता
नहीं कि लोग
उस आदमी के
लिए छायाओं
की तरह झूठे
हैं; धन आत्मा
की तरह सच्चा
है। लोग हैं
ही नहीं उसकी
जीवन-परिधि
में। उसके मन
के घेरे में
लोगों का कोई
अस्तित्व
नहीं है। वे
प्रतिबिंब
हैं। आते हैं,
जाते हैं।
धन बहुत
वास्तविक है।
फिर
उसकी पत्नी भी
बीमार पड़ गई। गांवभर
में लोग मर
रहे हैं, बीमारियां फैल गईं।
उसकी पत्नी
बीमार पड़ गई, तो लोगों ने
कहा, कम से
कम अपनी पत्नी
को दिखाने के
लिए वैद्य को बुला लो!
उसने कहा, पत्नी
फिर भी मिल
सकती है।
लेकिन धन फिर
भी मिलेगा,
इसका
आश्वासन है?
जिसके
मन में धन का
मोह है, हम
नहीं समझ पाते
उसकी भाषा।
जैसे अर्जुन
पूछ रहा है कि स्थितधी कैसी भाषा
बोलता है? ऐसे
ही मोहग्रस्त कैसी भाषा
बोलता है, वह
भी हम नहीं
समझ सकते।
मोहग्रस्त
कैसे उठता, कैसे बैठता,
हमारी पकड़
में नहीं आता।
हां, अपने-अपने
मोह को देखेंगे,
तो पकड़ में
आ सकता है।
सबके मोह हैं।
दूसरे का मोह
हमारी समझ में
नहीं आता, हमारा
मोह ही हमारी
समझ में आता
है।
उसने
कहा, पत्नी
दूसरी मिल
जाएगी। पत्नी
मर गई। फिर तो
वह खुद भी
मरने के करीब
आ गया। बीमारियां
उसे भी पकड़ लीं।
लोगों ने कहा,
अब तो कम से
कम अपने पर
कृपा करो। अब
तो तुम्हीं
मरने के करीब
हो! उसने कहा, धन न बचे और
मैं बच जाऊं, ऐसे बचने से
तो मर जाना ही बेहतर
है। वह तो बड़ा
दुखद है, वह
तो बड़ा भयप्रद
है कि धन न बचे
और मैं बच
जाऊं। कल्पना
ही नहीं कर
सकता धन के
बिना मेरे होने
की। हां, मेरे
न होने की
कल्पना कर
सकता हूं।
लेकिन धन के
बिना मेरे
होने की
कल्पना नहीं
कर सकता।
मोहग्रस्त
आदमी ऐसी ही
भाषा बोलता
है। वह कहता
है, यह
स्त्री मुझे न
मिली, तो
मैं मर
जाऊंगा। इस
स्त्री के
बिना होने की मैं
कल्पना नहीं
कर सकता। हां,
अपने न होने
की कल्पना कर
सकता हूं। वही
मोह, वह
कहता है, ऐसा
नहीं
होगा...अगर
मंत्री पद
नहीं मिला, तो मर
जाऊंगा।
मंत्री पद के
बिना अपने
होने की
कल्पना नहीं
कर सकता। हां,
अपने न होने
की कल्पना कर
सकता हूं।
मोहग्रस्त की
यही भाषा है।
फिर
लोगों ने कहा, लेकिन तुम
मर जाओगे,
तो यह धन
पड़ा रह जाएगा।
इतने दिन
बचाया है, फिर
इसका क्या
होगा? उसने
कहा कि क्या
तुम सोचते हो,
मैं धन को
पड़ा रहने
दूंगा! मैं
साथ ले
जाऊंगा। लोगों
ने कहा, अब
तक सुना नहीं
कि कोई धन को
साथ ले गया हो!
उसने कहा, सुन
लेना, जब
मैं ले जाऊंगा,
तब तुम्हें
पता चल जाएगा।
मोहग्रस्त
मन की स्मृति
खो जाती है; सोच-विचार
खो जाता है; सहज विवेक
खो जाता है।
वह कह रहा है, मैं धन को भी
साथ ले
जाऊंगा!
मोहग्रस्त
आदमी कहता है,
छोडूंगा ही नहीं, प्राण
में समा
लूंगा।
अपना-अपना
मोह!
एक
मुख्यमंत्री
को मैं जानता
हूं एक प्रदेश
के। जो मरने
के एक साल
पहले मुझसे ही
कहे कि अब एक
ही इच्छा है
कि
मुख्यमंत्री
रहते हुए मरूं।
मौत करीब दिखने
लगी थी। बहुत
बीमार थे। कहा
कि बस अब एक ही
इच्छा है कि
मुख्यमंत्री
रहते हुए मरूं।
मैंने कहा, मरने का
उतना भय नहीं,
जितना
मुख्यमंत्री
पद के छूटने
का भय है।
मरते हुए भी
कम से कम
मुख्यमंत्री
पद तो साथ चला
जाए! मरे तो
मुख्यमंत्री
थे; साथ ले
गए!
उस
आदमी ने कहा, ले जाऊंगा
साथ। और सच
में एक रात
उसने कोशिश की।
मोहग्रस्त
आदमी कोई भी
कोशिश कर सकता
है। उसकी
स्मृति खो
जाती है, उसका
विवेक खो जाता
है। रात उसने
देखा कि शायद
सुबह नहीं
होगी। तो आधी
रात वह उठा।
उसने अपने
सारे
हीरे-जवाहरात,
जो भी कीमती
था, वह एक
बोरी में बंद
किया। लेकर
नदी के किनारे
पहुंचा। उसने
सोचा कि अपने
बोरे को कमर
से बांधकर
नदी में कूद
जाऊं। आखिरी
चेष्टा कि साथ
ले जाऊं!
लेकिन नदी
गहरी है और
अगर किनारे
कूद पड़े, तो
लाश तो किनारे
लगी रह जाएगी।
वह हीरे-जवाहरातों
से भरा हुआ
बोरा किनारे
रह जाएगा। न
मालूम कोई उसे
उठा ले!
तो
उसने नाविकों
को जगाया।
कहता हूं नाविकों
को, एक नाविक
के जगाने
से काम चल
जाता। पर
नाविकों को जगाया, क्योंकि
वह आदमी ठहराए
बिना नहीं कर
सकता था काम; उसे जाना था
बीच नदी में।
उसने मांझियों
को जगाया
और कहा कि
सबसे कम में
कौन ले जा
सकता है? सबसे
कम में! और वह
आदमी मरने जा
रहा है। यह सब
धन लेकर डूब
जाने वाला है।
तो सबसे कम
में कौन ले जा
सकता है!
ठहराया उसने।
सबसे कम, छोटी
से छोटी अशर्फी
में जो राजी
था, उस
मल्लाह के साथ
वह नदी में
उतरा।
और
आखिर जब बीच मझधार में
पहुंच गया, तो उसने उस
मल्लाह से कहा
कि क्या एक
मरते हुए आदमी
की आखिरी
इच्छा पूरी न करोगे? उसने
कहा, क्या
मतलब? कैसी आखिरी
इच्छा? तो
उसने कहा कि
अगर तुम वह अशर्फी
न मांगो, तो मैं
शांति से मर
जाऊं। पर एक
मरते हुए आदमी
की आखिरी
इच्छा! इतनी
दुष्टता करोगे
कि एक मरते
हुए आदमी की
आखिरी इच्छा
पूरी न करो?
गरीब
मल्लाह उस
मरते हुए आदमी
की आखिरी
इच्छा पूरी
किया। वह धनपति
शांति से कूद
गया। ऐसे ही
हम सब कूद
जाते हैं, अपने-अपने
मोह से भरी
हुई मृत्यु
में। मोह स्मृति
को नष्ट कर
देता है, विचार
को छुड़ा
देता है।
जहां
स्मृति नष्ट
होती है, कृष्ण
कहते हैं, वहां
बुद्धि भी
नष्ट हो जाती
है।
स्मृति
और बुद्धि में
फर्क है।
स्मृति
बुद्धि नहीं
है, स्मृति
बुद्धि की एक फैकल्टी
है। स्मृति
केवल बुद्धि
का, कहना
चाहिए, कोषागार है। स्मृति,
कहना चाहिए,
बुद्धि का
संग्रहालय है,
रिजर्वायर है। कहना
चाहिए, स्मृति
बुद्धि का
अतीत है।
बुद्धि ने
जो-जो जाना है,
वह स्मृति
में संगृहीत
कर दिया है।
बुद्धि का
अतीत है
स्मृति, बुद्धि
नहीं। स्मृति
का अर्थ ही है,
दि पास्ट, बीता
हुआ।
लेकिन
पहले अतीत
भ्रष्ट होता
है, तब
वर्तमान
भ्रष्ट होता
है, तब
भविष्य
भ्रष्ट होता
है। पहले उसका
बोध क्षीण
होता है, जो
था। फिर उसका
बोध क्षीण
होता है, जो
है। फिर उसका
बोध क्षीण हो
जाता है, जो
होगा।
स्वाभाविक।
क्योंकि अतीत
सबसे ज्यादा
स्पष्ट है। जो
हो चुका है, वह सबसे
ज्यादा
स्पष्ट है। जो
हो रहा है, अभी
धूमिल है। जो
नहीं हुआ, अनिश्चित
है। बुद्धि की
पकड़ सबसे
ज्यादा अतीत
पर साफ होती
है।
जो हो
चुका, वह
साफ होगा ही।
सब रेखाएं
पूरी हो गईं।
घटनाएं घट चुकीं।
जो होना था, उसने पूरा
रूप ले लिया; वह आकृति बन
गया। जो हो
रहा है, अभी
निराकार से
आकार में आ
रहा है। जो
होगा, वह
अभी निराकार
है। जो भविष्य
है, वह
अव्यक्त है।
जो वर्तमान है,
वह व्यक्त
होने की
प्रक्रिया
में है। जो
अतीत है, वह
व्यक्त हो गया
है।
इसलिए
जब पहला हमला
होगा, तो
स्मृति पर
होगा।
क्योंकि वही
सबसे स्पष्ट है।
सबसे पहले
स्पष्ट डांवाडोल
हो जाएगा। और
जब स्पष्ट ही डांवाडोल
हो जाएगा, तो
अस्पष्ट के डांवाडोल
होने में
कितनी देर लगेगी!
और जब अस्पष्ट
ही डांवाडोल
हो जाएगा, तो
जो अभी निराकार
है, उस पर
तो सारी ही
समझ छूट
जाएगी। पहले
अतीत नष्ट हो
जाएगा, फिर
वर्तमान, फिर
भविष्य। पहले
इतिहास विकृत
हो जाएगा, फिर
जीवन, और
फिर संभावना।
कृष्ण
एक-एक कदम, ठीक
वैज्ञानिक
कदम की बात कर
रहे हैं, स्मृति
नष्ट हो जाती
है अर्जुन, फिर बुद्धि
का नाश हो
जाता है।
बुद्धि
क्या है? और
कृष्ण जिन
अर्थों में
बुद्धि का
उपयोग करते
हैं, वह
क्या है? कृष्ण
इंटलेक्ट
के अर्थों में
बुद्धि का
उपयोग नहीं
करते। इंटेलिजेंस
के अर्थों में
बुद्धि का
उपयोग करते
हैं। इसमें
आपको...भाषाकोश
में तो दोनों
शब्दों का एक
ही मतलब है।
आप कहेंगे,
बुद्धि, इंटलेक्ट और इंटेलिजेंस
में क्या फर्क
है?
बुद्धि
का वह रूप जो एक्चुअलाइज
हो गया है, इंटलेक्ट है। बुद्धि
का वह रूप जो
वास्तविक हो
गया है, जिसका
आप प्रयोग कर
चुके, जो
सक्रिय हो गया
है, वह इंटलेक्ट
है। कहें, बुद्धिमानी
है। जो बुद्धि
का रूप अभी भी
निष्क्रिय
पड़ा है, जो
अभी सक्रिय
नहीं हुआ, जो
अभी पोटेंशियल
में पड़ा है, बीज में पड़ा
है, अभी रूपाकृत
नहीं हुआ, रूपायित
नहीं हुआ, जो
अभी साकार
नहीं हुआ, जो
अभी वास्तविक
नहीं
हुआ--केवल
संभावना है--बुद्धि
में, इंटेलिजेंस में वह भी
सम्मिलित है। दि एक्चुअलाइज्ड
इंटेलिजेंस
इज़ इंटलेक्ट।
जो वास्तविक
बन गई है
बुद्धि, वह
बुद्धिमानी
है। और जो अभी
वास्तविक
नहीं बनी, वह
भी बुद्धि के
हिस्से में
है।
तो
आपकी
बुद्धिमानी
ही आपकी
बुद्धि नहीं
है, आपकी
बुद्धि आपकी
बुद्धिमानी
से बड़ी चीज
है। अगर आपकी
बुद्धिमानी
ही आपकी
बुद्धि है, तो फिर आपमें
विकास का कोई
उपाय न बचेगा।
बात खतम हो
गई। बुद्धि का
वर्तुल बड़ा
है। बुद्धिमानी
का वर्तुल
बुद्धि के बड़े
वर्तुल में
छोटा है। वह
बुद्धिमानी
का वर्तुल बड़ा
होता जाए, बड़ा
होता जाए और
किसी दिन
बुद्धि के
पूरे वर्तुल
को छू ले, तो
आदमी
स्थितप्रज्ञ
हो जाता है।
कृष्ण
कहते हैं, बुद्धि
विकृत हो जाती
है।
बुद्धिमानी
तो विकृत हो
जाती है
स्मृति के साथ
ही। क्योंकि
बुद्धिमानी
यानी स्मृति; नालेज यानी मेमोरी।
नोइंग
यानी बुद्धि,
जानने की
क्षमता यानी
बुद्धि।
जानने की क्षमता
जितनी सक्रिय
हो गई, यानी
बुद्धिमानी।
जो जान लिया, वह
बुद्धिमानी; और जो जानने
की शक्ति है
भीतर, वह
बुद्धि।
बुद्धि सदा
जानने की
शक्ति से बड़ी है।
जानने की
वास्तविकता
से बड़ी क्षमता
है।
स्मृति
पहले विकृत हो
जाती है।
स्मृति अर्थात
इंटलेक्ट
विकृत हो गई।
और फिर, कृष्ण
कहते हैं, वह
जो अव्यक्त
में पड़ी
बुद्धि है, उस तक भी डांवाडोल
भंवर पहुंचने
लगते हैं। वह
जो गहरे में
छिपी प्रज्ञा
है, वह भी
कंपित होने
लगती है।
क्योंकि जब
स्मृति की आधारशिलाएं
गिर जाती हैं,
तो उसके ऊपर
अव्यक्त का जो
भवन है, शिखर
है, वे भी कंपने
लगते हैं। वह
अंतिम पतन है।
और जब
बुद्धि-नाश हो
जाता है, तो
सब खो जाता
है।
कृष्ण
कहते हैं, अर्जुन, जब
बुद्धि-नाश हो
जाता है, तो
सब खो जाता
है। फिर कुछ
भी बचता नहीं।
वह आदमी की
परम दीनता है,
बैंक्रप्सी,
दिवालियापन
है। वहां आदमी
बिलकुल
दिवालिया हो
जाता है--धन खोकर
नहीं, स्वयं
को ही खो देता
है। फिर उसके
पास कुछ बचता
ही नहीं। वह
बिलकुल ही
नकार हो जाता
है। ना-कुछ हो
जाता है। उसका
सब ही खो जाता
है। यही दीनता
है, यही
दरिद्रता है।
अगर अध्यात्म
के अर्थों में
समझें, तो ऐसी
स्थिति
स्प्रिचुअल पावर्टी
है; ऐसी
स्थिति
आध्यात्मिक दारिद्रय
है।
लेकिन
हम भौतिक दारिद्रय
से बहुत डरते
हैं, आध्यात्मिक
दारिद्रय
से जरा भी
नहीं डरते। हम
बहुत डरते हैं
कि एक पैसा न
खो जाए। आत्मा
खो जाए--हम
नहीं डरते। हम
बहुत डरते हैं
कि कोट न खो
जाए, कमीज न खो जाए।
लेकिन जिसने
कोट और कमीज
पहना है, वह
खो जाए--हमें
जरा भी फिक्र
नहीं। कोट और कमीज बच
जाए, बस बहुत
है। वस्तुओं
को बचा लेते
हैं, स्वयं
को खो देते
हैं।
खोने
की जो
प्रक्रिया
कृष्ण ने कही, वह बहुत ही
मनोवैज्ञानिक
है। अभी
पश्चिम का मनोविज्ञान
या आधुनिक
मनोविज्ञान
इतने गहरे नहीं
जा सका है।
जाएगा, कदम
उठने शुरू हो
गए हैं, लेकिन
इतने गहरे
नहीं जा सका
है। अभी
पश्चिम का
मनोविज्ञान
काम के आस-पास
ही भटक रहा है,
सेक्स के
आस-पास ही भटक
रहा है।
अभी
पश्चिम का
चाहे फ्रायड
हो और चाहे
कोई और हो, अभी पहले
वर्तुल पर ही
भटक रहे हैं, जहां काम
है। अभी
उन्हें पता
नहीं है कि
काम के बाद और
गहरे में
क्रोध है, क्रोध
के बाद और गहरे
में मोह है, मोह के और
गहरे में
स्मृति-नाश है,
स्मृति-नाश
के और गहरे
में बुद्धि का
दिवालियापन
है, बुद्धि
के
दिवालियापन
के और गहरे
में स्वयं का
पूर्णतया
नकार हो जाना
है।
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।
६४।।
परंतु, स्वाधीन
अंतःकरण वाला
पुरुष
राग-द्वेष से
रहित, अपने
वश में की हुई
इंद्रियों
द्वारा
विषयों को
भोगता हुआ
प्रसाद
अर्थात
अंतःकरण की
प्रसन्नता को
प्राप्त होता
है।
ठीक
इसके
विपरीत--पतन
की जो कहानी
थी, ठीक इसके
विपरीत--राग-द्वेष
से मुक्त, कामना
के पार, स्वयं
में ठहरा, स्वायत्त।
स्वयं को खो
चुका; और
स्वयं में
ठहरा। अभी जो
कहानी हमने समझी, अभी
जो कथा हमने समझी, अभी
जो यात्रा
हमने देखी, वह स्वयं को खोने की।
और स्वयं को
कैसे खोता है सीढ़ी-सीढ़ी
आदमी, वह
हमने देखा।
स्वयं से कैसे
रिक्त और
शून्य हो जाता
है। स्वयं से
कैसे बाहर, और बाहर, और
दूर हो जाता
है। कैसे
स्वयं को खोकर
पर में ही
आयत्त हो जाता
है, पर में
ही ठहर जाता
है।
जिसको
मैंने कहा, आध्यात्मिक
दिवालियापन, स्प्रिचुअल बैंक्रप्सी,
उसका मतलब
है, पर में
आयत्त हुआ
पुरुष। यह जो
पूरी की पूरी
यात्रा थी, पर में
आयत्त होने से
शुरू हुई थी।
देखा था राह
पर किसी
स्त्री को, देखा था
किसी भवन को, देखा था
किसी पुरुष को,
देखा था
चमकता हुआ
सोना, देखा
था सूरज में
झलकता हुआ
हीरा--पर, दि अदर,
कहीं पर में
आकर्षित
चित्त पर की
खोज पर निकला
था। चिंतन
किया था, चाह
की थी, बाधाएं पाई थीं, क्रोधित
हुआ था, मोहग्रस्त
बना था, स्मृति
को खोया था, बुद्धि के
नाश को उपलब्ध
हुआ था।
पर-आयत्त, दूसरे
में--दि अदर ओरिएंटेड।
मनोविज्ञान
जो शब्द उपयोग
करेगा, वह
है, दि अदर ओरिएंटेड।
तो बड़ी
मजे की बात है
कि कृष्ण ने
स्वायत्त, सेल्फ ओरिएंटेड
शब्द का उपयोग
किया है।
पर-आयत्त, दूसरे
की तरफ बहता
हुआ पुरुष, दूसरे को
केंद्र मानकर
जीता हुआ
पुरुष। इस
पुरुष शब्द को
थोड़ा समझें,
तो इस
पर-आयत्त और
स्वायत्त
होने को समझा
जा सकता है।
शायद
कभी खयाल न
किया हो कि यह
पुरुष शब्द
क्या है!
सांख्य का
शब्द है
पुरुष। गांव
को हम कहते
हैं पुर--नागपुर, कानपुर--गांव को हम
कहते हैं पुर।
सांख्य कहता
है, पुर के
भीतर जो छिपा
है, वह
पुरुष, पुर
में रहने
वाला। शरीर है
पुर। कहेंगे,
इतना
छोटा-सा शरीर
पुर! बहुत बड़ा
है, छोटा
नहीं है। बहुत
बड़ा है। कानपुर
की कितनी
आबादी है? पांच
लाख, छः
लाख, सात लाख
होगी। शरीर की
कितनी आबादी
है? सात
करोड़। सात
करोड़ जीवाणु
रहते हैं शरीर
में। छोटा पुर
नहीं है, सात
करोड़ जीवित
सेल हैं शरीर
में। अभी तक
दुनिया में
कोई पुर इतना
बड़ा नहीं है। लंदन की
आबादी एक करोड़,
टोकियो की सवा करोड़,
कलकत्ता की अस्सी
लाख, बंबई
की साठ।
अभी मनुष्य
के शरीर के
बराबर पुर
पृथ्वी पर बना
नहीं है। सात
करोड़! क्या
इससे कोई फर्क
पड़ता है कि छोटे-छोटे
प्राणी रहते
हैं। छोटा कौन
है? बड़ा कौन
है? सब रिलेटिव
मामला है।
आदमी कोई बहुत
बड़ा प्राणी है?
हाथी से पूछें,
ऊंट से पूछें,
तो बहुत
छोटा प्राणी
है। तो ये ऊंट
या हाथी क्या
कोई बहुत बड़े
प्राणी हैं? पृथ्वी से पूछें, हिमालय
से पूछें...।
सोचते
होंगे शायद, हिमालय में
कोई प्राण
नहीं हैं। तो
गलत सोचते हैं।
हिमालय अभी भी
बढ़ रहा है, अभी
भी ग्रोथ
है, अभी भी
बड़ा हो रहा
है। हिमालय
अभी भी जवान
है। सतपुड़ा
और विंध्याचल
बूढ़े हैं, अब
बढ़ते नहीं
हैं। अब सिर्फ
थकते हैं और
झुक रहे हैं।
हिमालय अभी भी
बढ़ रहा है।
हिमालय की उम्र
भी बहुत कम है,
सबसे नया
पहाड़ है। सब
पुराने पहाड़
हैं। विंध्या
सबसे ज्यादा
पुराना पहाड़
है। सबसे पहले
पृथ्वी पर विंध्या
पैदा हुआ।
बूढ़े से बूढ़ा
पर्वत है। अब
उसकी ग्रोथ
बिलकुल रुक गई
है। अब वह
बढ़ता नहीं है।
अब वह थक रहा
है, टूट
रहा है, झुक
रहा है, कमर
उसकी आड़ी
हो गई है।
हमारे पास
कहानी है, उसकी
कमर के आड़े
होने की।
अगस्त्य
की कथा है, कि मुनि गए
हैं दक्षिण और
कह गए हैं कि
झुका रहना, जब तक मैं लौटूं
न। फिर वे
नहीं लौटे। कर्म
आदमी के हाथ
में है, फल
आदमी के हाथ
में नहीं है।
लौटना मुनि का
नहीं हो सका।
फिर वह बेचारा
झुका है। पर
यह जियोलाजिकल
फैक्ट भी
है, यह
पुराण कथा ही
नहीं है। विंध्या
झुक गया है और
अब उसमें
विकास नहीं है;
बूढ़ा है।
हिमालय बच्चा
है।
हिमालय
से पूछें, ऊंट, हाथी!
वह कहेगा,
बहुत छोटे
प्राणी हैं। खुर्दबीन
से देखूं
तब दिखाई पड़ते
हैं, नहीं
तो नहीं दिखाई
पड़ते।
पृथ्वी से पूछें
कि हिमालय की
कुछ खबर है! वह कहेगी, ऐसे
कई हिमालय
पैदा हुए, आए
और गए। सब
मेरे बेटे हैं,
मुझ में आते
हैं, समा
जाते हैं।
धरित्री--वह
मां है। लेकिन
पृथ्वी कोई
बहुत बड़ा
प्राण रखती
है! तो सूरज से पूछें।
सूरज साठ लाख
गुना बड़ा है
पृथ्वी से।
उसे दिखाई भी
नहीं पड़ती
होगी पृथ्वी।
साठ लाख गुने
बड़े को कैसे
दिखाई पड़ेगी?
पर
सूरज कोई बहुत
बड़ा है? मत
इस खयाल में
पड़ना। बहुत मीडियाकर स्टार है, बहुत मध्यमवर्गीय
है। उससे बहुत
बड़े सूर्य हैं,
उससे करोड़
और अरब गुने
बड़े सूर्य
हैं। ये जो
रात को तारे
दिखाई पड़ते
हैं, ये सब
सूर्य हैं।
छोटे-छोटे
दिखाई पड़ते
हैं, क्योंकि
बहुत दूर हैं।
ये छोटे होने
की वजह से
छोटे नहीं
दिखाई पड़ते।
ये बहुत दूर
हैं, इसलिए
छोटे दिखाई पड़ते हैं।
बहुत बड़े-बड़े महासूर्य
हैं, जिनसे पूछें
कि हमारा भी
एक सूर्य है!
तो वे कहेंगे
कि है, पर
बहुत गरीब है,
छोटा है।
किसी गिनती
में नहीं आता।
कोई वी.आई.पी.
नहीं है!
लेकिन
वे महासूर्य, जो इस सूर्य
से भी अरबों गुने बड़े
हैं, वे भी
क्या बहुत बड़े
हैं? तो
पूरे जगत से पूछें। तो
अब तक
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
चार अरब
सूर्यों का
हमें पता चला
है। मगर वह
अंत नहीं है।
उसके पार भी, उसके पार भी,
बियांड एंड बियांड--कुछ
अंत नहीं है।
यहां कौन छोटा,
कौन बड़ा! सब
छोटा-बड़ा रिलेटिव
है।
आपके
शरीर में जो जीवाणु
हैं, वे भी
छोटे नहीं हैं,
आप भी बड़े
नहीं हैं। सात
करोड़ की एक
शरीर में बसी
हुई बस्ती! और
आप सोचते हों
कि इन सात
करोड़ जीवाणुओं
को आपका कोई
भी पता है, इनका
आपको कोई भी
पता है--तो
नहीं है। आपको
इनका पता नहीं
है, इनको आपका पता
नहीं है। उनको
भी आपका पता
नहीं है कि आप
हैं। आप जब
नहीं होंगे इस
शरीर में, तब
भी उनमें से
बहुत-से जीवाणु
जीए चले
जाएंगे। मर
जाने के बाद
भी! आप मरते हैं,
वे नहीं
मरते। उनमें
जो अमीबा
हैं, बहुत
छोटे हैं, वे
तो मरते ही
नहीं। उनकी
लाखों साल की
उम्र है। अगर
उम्र के हिसाब
से सोचें, तो
आप छोटे हैं, वे बड़े हैं।
कब्रिस्तान
में दबे
हुए आदमी के
भी नाखून और
बाल बढ़ते रहते
हैं। क्योंकि
बाल और नाखून
बनाने वाले जो
जीवाणु
हैं, वे आपके
साथ नहीं
मरते। वे अपना
काम जारी रखते
हैं। उनको पता
ही नहीं पड़ता
कि आप मर गए।
वे नाखून और
बाल को बढ़ाए
चले जाते हैं।
और जब आप मरते
हैं, तो
सात करोड़ कीटाणुओं
की संख्या में
कमी नहीं होती
है और बढ़ती हो
जाती है। आपके
मरने से जगह
खाली हो जाती
है और हजारों कीटाणु
प्रवेश कर
जाते हैं।
जिसको आप सड़ना
कहते हैं, डिटेरियोरेशन,
वह आपके लिए
होगा; नए कीटाणुओं
के लिए तो
जीवन है।
यह पुर, इसमें जो
बीच में बसा
है इस नगर के, वह पुरुष।
यह पुरुष दो
तरह से हो
सकता है:
पर-आयत्त हो
सकता है, स्वायत्त
हो सकता है।
जब यह वासनाग्रस्त
होता है, तो
यह दूसरे को
केंद्र बनाकर
घूमने लगता
है। सैटेलाइट
हो जाता है।
जैसे
चांद है। चांद
सैटेलाइट
है। वह जमीन
को केंद्र
बनाकर घूमता
है। जमीन भी सैटेलाइट
है, वह सूर्य
को केंद्र
बनाकर घूमती
है। सूर्य भी सैटेलाइट
है, वह
किसी महासूर्य
को केंद्र
बनाकर घूमता
है। सब अदर
ओरिएंटेड
हैं।
लेकिन
उन्हें माफ
किया जा सकता
है, क्योंकि
उनकी चेतना
इतनी नहीं कि
वे जान सकें कि
क्या अदर
और क्या सेल्फ;
क्या स्वयं
और क्या पर।
आदमी को माफ नहीं
किया जा सकता,
वह जानता
है। पति पत्नी
का सैटेलाइट
है, पत्नी
के आस-पास घूम
रहा है। कभी
छोटा वर्तुल बनाता
है, कभी
बड़ा वर्तुल
बनाता है, लेकिन
पत्नी के
आस-पास घूम
रहा है। पत्नी
पति की सैटेलाइट
है। वह उसके
आस-पास घूम
रही है। कोई
धन के आस-पास
घूम रहा है, कोई काम के
आस-पास घूम
रहा है, कोई
पद के आस-पास
घूम रहा है--सैटेलाइट,
पर-आयत्त।
दूसरा केंद्र
है, हम तो
सिर्फ परिधि
पर घूम रहे
हैं--यही
दिवालियापन
है।
लेकिन
हम अपने
केंद्र स्वयं
हैं, किसी के
आस-पास नहीं
घूम रहे हैं, तो आदमी
स्वायत्त है।
यही सम्राट
होना है। यही
स्प्रिचुअल रिचनेस
है। जिसको जीसस
ने किंगडम
आफ गाड,
परमात्मा
का साम्राज्य
कहा, उसको
कृष्ण कह रहे
हैं, स्वायत्त
हुआ पुरुष परम
आनंद को
उपलब्ध हो जाता
है। क्योंकि
पर-आयत्त हुआ
पुरुष परम दुख
को उपलब्ध हो
जाता है। दुख
यानी पर-आयत्त
होना, आनंद
यानी
स्वायत्त
होना।
ये सब
समाधिस्थ
व्यक्ति की
तरफ ही वे
इशारे करते जा
रहे हैं
अर्जुन को। सब
दिशाओं से, अनेक-अनेक जगहों से
वे इशारे कर
रहे हैं कि
समाधिस्थ
पुरुष यानी
क्या। वह जो
सवाल पूछ लिया
था अर्जुन ने,
हो सकता है,
वह खुद भी
भूल गया हो कि
उसने क्या
सवाल पूछा था।
लेकिन कृष्ण
उसके सवाल को
समस्त दिशाओं
से ले रहे
हैं। कहीं से
भी उसकी समझ
में आ जाए।
तो वे
यह कह रहे हैं
कि जो स्वयं
ही अपना केंद्र
बन गया, जिसका
अब कोई पर
केंद्र नहीं
है, ऐसा
पुरुष परम
ज्ञान को, परम
शांति को, परम
आनंद को
उपलब्ध हो
जाता है।
अभी
इतना।
फिर
शेष सांझ हम
बात करेंगे।
THANK YOU GURUJI
जवाब देंहटाएंअदभुद
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