प्रसादे सर्वदुःखानां
हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।
६५।।
उस
निर्मलता के
होने पर इसके
संपूर्ण
दुखों का अभाव
हो जाता है और
उस
प्रसन्नचित्त
वाले पुरुष की
बुद्धि शीघ्र
ही अच्छी
प्रकार स्थिर
हो जाती है।
विक्षेपरहित
चित्त में
शुद्ध
अंतःकरण फलित
होता है? या
शुद्ध
अंतःकरण विक्षेपरहित
चित्त बन जाता
है? कृष्ण
जो कह रहे हैं,
वह हमारी
साधारण साधना
की समझ के
बिलकुल विपरीत
है। साधारणतः
हम सोचते हैं
कि विक्षेप
अलग हों, तो
अंतःकरण
शुद्ध होगा।
कृष्ण कह रहे
हैं, अंतःकरण
शुद्ध हो, तो
विक्षेप अलग
हो जाते हैं।
यह बात
ठीक से न समझी
जाए, तो बड़ी भ्रांतियां
जन्मों-जन्मों
के व्यर्थ के
चक्कर में ले
जा सकती हैं।
ठीक से काज और इफेक्ट, क्या कारण बनता है और
क्या परिणाम,
इसे समझ
लेना ही विज्ञान
है। बाहर के
जगत में भी, भीतर के जगत
में भी। जो
कार्य-कारण की
व्यवस्था को
ठीक से नहीं
समझ पाता और
कार्यों को
कारण समझ लेता
है और कारणों
को कार्य बना
लेता है, वह
अपने हाथ से
ही, अपने
हाथ से ही
अपने को गलत
करता है। वह
अपने हाथ से
ही अपने को
अनबन करता है।
किसान गेहूं
बोता है, तो
फसल आती है। गेहूं के
साथ भूसा भी
आता है। लेकिन
भूसे को अगर
बो दिया जाए, तो भूसे के
साथ गेहूं
नहीं आता। ऐसे
किसान सोच
सकता है कि जब गेहूं के
साथ भूसा आता
है, तो
उलटा क्यों
नहीं हो सकता
है! भूसे को बो
दें, तो गेहूं
साथ आ जाए--वाइस-वरसा
क्यों नहीं हो
सकता? लेकिन
भूसा बोने से
सिर्फ भूसा सड़ जाएगा, गेहूं तो आएगा ही
नहीं, हाथ
का भूसा भी
जाएगा। भूसा
आता है गेहूं
के साथ, गेहूं भूसे के साथ
नहीं आता है।
अंतःकरण
शुद्ध हो, तो चित्त के
विक्षेप सब खो
जाते हैं, विक्षिप्तता
खो जाती है।
लेकिन चित्त
की
विक्षिप्तता
को कोई खोने
में लग जाए, तो अंतःकरण
तो शुद्ध होता
नहीं, चित्त
की
विक्षिप्तता
और बढ़ जाती
है।
जो
आदमी अशांत है, अगर वह शांत
होने की
चेष्टा में और
लग जाए, तो
अशांति सिर्फ दुगुनी हो
जाती है।
अशांति तो
होती ही है, अब शांत न
होने की
अशांति भी
पीड़ा देती है।
लेकिन
अंतःकरण कैसे
शुद्ध हो जाए?
पूछा जा
सकता है कि
अंतःकरण
शुद्ध कैसे हो
जाएगा? जब
तक विचार आ
रहे, विक्षेप
आ रहे, विक्षिप्तता
आ रही, विकृतियां
आ रहीं, तब
तक अंतःकरण
शुद्ध कैसे हो
जाएगा? कृष्ण
अंतःकरण
शुद्ध होने को
पहले रखते हैं,
पर वह होगा
कैसे?
यहां
सांख्य का जो
गहरा से गहरा
सूत्र है, वह आपको
स्मरण दिलाना
जरूरी है।
सांख्य का गहरा
से गहरा सूत्र
यह है कि
अंतःकरण
शुद्ध है ही।
कैसे हो जाएगा,
यह पूछता ही
वह है, जिसे
अंतःकरण का
पता नहीं है।
जो पूछता है, कैसे हो
जाएगा शुद्ध?
उसने एक बात
तो मान ली कि
अंतःकरण
अशुद्ध है।
आपने
अंतःकरण को
कभी जाना है? बिना जाने
मान रहे हैं
कि अंतःकरण
अशुद्ध है और
उसको शुद्ध
करने में लगे
हैं। अगर
अंतःकरण अशुद्ध
नहीं है, तो
आपके शुद्ध
करने की सारी
चेष्टा
व्यर्थ ही हो
रही है। और यह
चेष्टा जितनी
असफल
होगी--सफल तो
हो नहीं सकती,
क्योंकि जो
शुद्ध है, वह
शुद्ध किया
नहीं जा सकता;
लेकिन जो
शुद्ध है, उसे
शुद्ध करने की
चेष्टा असफल
होगी--असफलता
दुख लाएगी,
असफलता
विषाद लाएगी,
असफलता
दीनता-हीनता लाएगी, असफलता
हारापन, फ्रस्ट्रेशन लाएगी।
और बार-बार
असफल होकर आप
यह कहेंगे,
अंतःकरण
शुद्ध नहीं होता,
अशुद्धि
बहुत गहरी है।
आप जो
निष्कर्ष निकालेंगे,
निष्पत्ति निकालेंगे,
वह बिलकुल
ही उलटी होगी।
एक घर
में अंधेरा
है। तलवारें
लेकर हम घर
में घुस जाएं
और अंधेरे को
बाहर निकालने
की कोशिश करें।
तलवारें चलाएं, अंधेरे को काटें-पीटें।
अंधेरा बाहर
नहीं निकलेगा।
थक जाएंगे, हार जाएंगे,
जिंदगी
गंवा देंगे, अंधेरा बाहर
नहीं निकलेगा।
क्यों? तो
शायद सारी
मेहनत करने के
बाद हम बैठकर
सोचें कि
अंधेरा बहुत
शक्तिशाली है,
इसलिए बाहर
नहीं निकलता।
तर्क
अनेक बार ऐसे
गलत
निष्कर्षों
में ले जाता
है, जो ठीक
दिखाई पड़ते
हैं; यही
उनका खतरा है।
अब यह बिलकुल
ठीक दिखाई
पड़ता है कि इतनी
मेहनत की और
अंधेरा नहीं
निकला, तो
इसका मतलब साफ
है कि मेहनत
कम पड़ रही है, अंधेरा
ज्यादा
शक्तिशाली
है। सचाई उलटी
है। अगर
अंधेरा
शक्तिशाली हो,
तब तो किसी
तरह उसे
निकाला जा
सकता है।
शक्ति को
निकालने के
लिए बड़ी शक्ति
ईजाद की जा
सकती है।
अंधेरा
है ही नहीं; यही उसकी
शक्ति है। वह
है ही नहीं, इसलिए आप
उसको शक्ति से
निकाल नहीं
सकते। वह नान- एक्झिस्टेंशियल
है, उसका
कोई अस्तित्व
ही नहीं है।
और जिसका अस्तित्व
नहीं है, उसे
तलवार से न
काटा जा सकता
है, न
धक्के से
निकाला जा सकता
है। असल में
अंधेरा सिर्फ एब्सेंस
है किसी चीज
की, अंधेरा
अपने में कुछ
भी नहीं है।
अंधेरा सिर्फ
अनुपस्थिति
है प्रकाश की;
बस।
इसलिए
आप अंधेरे के
साथ सीधा कुछ
भी नहीं कर सकते
हैं। और
अंधेरे के साथ
कुछ भी करना
हो, तो
प्रकाश के साथ
कुछ करना पड़ता
है। प्रकाश जलाएं, तो
अंधेरा नहीं
होता। प्रकाश बुझाएं, तो अंधेरा
हो जाता है।
सीधा अंधेरे
के साथ कुछ भी
नहीं किया जा
सकता है, क्योंकि
अंधेरा नहीं
है। और जो
नहीं है, उसके
साथ जो सीधा
कुछ करने में
लग जाएगा, वह
अपने जीवन को
ऐसे उलझाव में
डाल देता है, जिसके बाहर
कोई भी मार्ग
नहीं होता। वह
एब्सर्डिटी
में पड़ जाता
है।
अंतःकरण
अगर शुद्ध है, तो अंतःकरण
को शुद्ध करने
की सब चेष्टा
खतरनाक है; अंधेरे को
निकालने जैसी
चेष्टा है।
क्योंकि जो
नहीं है
अशुद्धि, उसे
निकालेंगे
कैसे? सांख्य
कहता है, अंतःकरण
अशुद्ध नहीं
है। और अगर
अंतःकरण भी अशुद्ध
हो सकता है, तो इस जगत
में फिर
शुद्धि का कोई
उपाय नहीं है।
फिर शुद्ध कौन
करेगा? क्योंकि
जो शुद्ध कर
सकता था, वह
अशुद्ध हो गया
है।
अंतःकरण
अशुद्ध नहीं
है। अगर ठीक
से समझें, तो अंतःकरण
ही शुद्धि है--दि वेरी
प्योरीफिकेशन,
दि वेरी प्योरिटी।
अंतःकरण
शुद्ध ही है।
लेकिन
अंतःकरण का
हमें कोई पता
नहीं है कि
क्या है। आप
किस चीज को
अंतःकरण
जानते हैं?
अंग्रेजी
में एक शब्द
है, कांशिएंस। और गीता के जिन्होंने
भी अनुवाद किए
हैं, उन्होंने
अंतःकरण का
अर्थ कांशिएंस
किया है। उससे
गलत कोई
अनुवाद नहीं
हो सकता। कांशिएंस
अंतःकरण नहीं
है। कांशिएंस
अंतःकरण का
धोखा है। इसे
थोड़ा समझ लेना
जरूरी होगा, क्योंकि वह
बहुत गहरे, रूट्स में
बैठ गई
भ्रांति है
सारे जगत में।
जहां
भी गीता पढ़ी
जाती है, वहां
अंतःकरण का
अर्थ कांशिएंस
कर लिया जाता
है। हम भी
अंतःकरण से जो
मतलब लेते हैं,
वह क्या है?
आप चोरी
करने जा रहे
हैं। भीतर से
कोई कहता है, चोरी मत करो,
चोरी बुरी
है। आप कहते
हैं, अंतःकरण
बोल रहा है।
यह कांशिएंस
है, अंतःकरण
नहीं। यह
सिर्फ समाज के
द्वारा डाली गई
धारणा है, अंतःकरण
नहीं।
क्योंकि अगर
समाज चोरों का
हो, तो ऐसा
नहीं होगा।
ऐसे समाज हैं।
जाट हैं।
तो जाट लड़के
की शादी नहीं
होती, जब तक
वह दो-चार चोरियां
न कर ले। जाट
का लड़का जब
चोरी करने
जाता है, तो
कभी उसके मन
में नहीं आता
कि बुरा कर
रहा है।
अंतःकरण उसके
पास भी है, आपके
पास ही नहीं
है। लेकिन सोशल
जो बिल्ट-इन
आपके भीतर
डाली गई धारणा
है, वह
उसके पास नहीं
है।
मेरे
एक मित्र पख्तून
इलाके
में घूमने गए
थे। तो पेशावर
में उन्हें
मित्रों ने
कहा कि पख्तून
इलाके
में जा रहे
हैं, जरा सम्हलकर
बैठना। जीप
तो ले जा रहे
हैं, लेकिन
होशियारी
रखना।
उन्होंने कहा,
क्या, खतरा
क्या है? हमारे
पास कुछ है
नहीं लूटने
को। उन्होंने
कहा कि नहीं, यह खतरा
नहीं है। खतरा
यह है कि पख्तून
लड़के अक्सर सड़कों पर
निशाना सीखने
के लिए लोगों
को गोली मार
देते
हैं--निशाना सीखने के
लिए; दुश्मन
को नहीं! पख्तून
लड़के निशाना सीखने के
लिए सड़क के
किनारे से
चलती हुई कार
में गोली मारकर
देखते हैं कि
निशाना लगा कि
नहीं। मित्र
तो बहुत घबड़ा
गए। उन्होंने
कहा कि आप
क्या कहते हैं,
निशाना
लगाने के लिए!
तो क्या उनके
पास कोई अंतःकरण
नहीं है?
अंतःकरण
तो पख्तून
के पास भी है।
अंतःकरण किसी
की बपौती नहीं
है। लेकिन पख्तून
के पास, जिसको
हिंसा-अहिंसा
का सामाजिक
बोध कहते हैं,
उसे डालने
का कोई बचपन
से प्रयास
नहीं किया गया
है।
एक
हिंदू को कहें
कि चचेरी
बहन से शादी
कर ले, तो
उसका अंतःकरण
इनकार करता है,
मुसलमान का
नहीं करता।
कारण यह नहीं
है कि मुसलमान
के पास
अंतःकरण नहीं
है। सिर्फ चचेरी
बहन से शादी
करने की धारणा
का भेद है। वह
समाज देता है।
वह अंतःकरण
नहीं है।
समाज
ने एक इंतजाम
किया है, बाहर
अदालत बनाई है
और भीतर भी एक
अदालत बनाई है।
समाज ने
पुख्ता
इंतजाम किया
है कि बाहर से
वह कहता है कि
चोरी करना
बुरा है; वहां
पुलिस है, अदालत
है। लेकिन
इतना काफी
नहीं है, क्योंकि
भीतर भी एक
पुलिसवाला
होना चाहिए, जो पूरे
वक्त कहता रहे
कि चोरी करना
बुरा है। क्योंकि
बाहर के
पुलिसवाले को
धोखा दिया जा
सकता है। उस
हालत में भीतर
का पुलिसवाला
काम पड़ सकता
है।
कांशिएंस अंग्रेजी
का जो शब्द है, उसको हमें
कहना चाहिए
अंतस-चेतन, अंतःकरण
नहीं। सांख्य
का अंतःकरण, बात ही और
है। अंतःकरण
को अगर अंग्रेजी
में अनुवादित
करना हो, तो
कांशिएंस
शब्द नहीं है।
अंग्रेजी
में कोई शब्द
नहीं है ठीक।
क्योंकि
अंतःकरण का
मतलब होता है,
दि इनरमोस्ट इंस्ट्रूमेंट,
अंतरतम
उपकरण, अंतरतम--जहां
तक अंतस में
जाया जा सकता
है भीतर--वह जो
आखिरी है भीतर,
वही
अंतःकरण है।
इसका मतलब
क्या हुआ? इसका
मतलब आत्मा
नहीं।
अब यह
बड़े मजे की
बात है, अंतःकरण
का मतलब आत्मा
नहीं है।
क्योंकि आत्मा
तो वह है, जो
बाहर और भीतर
दोनों में
नहीं है, दोनों
के बाहर है।
अंतःकरण वह है,
आत्मा के निकटतम जो
उपकरण है, जिसके
द्वारा हम बाहर
से जुड़ते
हैं।
समझ
लें कि आत्मा
के पास एक
दर्पण है, जिसमें
आत्मा
प्रतिफलित
होती है, वह
अंतःकरण है, निकटतम। आत्मा में
पहुंचने के
लिए अंतःकरण
आखिरी सीढ़ी
है। और
अंतःकरण
आत्मा के इतने
निकट है कि
अशुद्ध नहीं
हो सकता।
आत्मा की यह
निकटता ही
उसकी शुद्धि
है।
यह अंतःकरण
कांशिएंस
नहीं है, जो
हमारे भीतर, जब हम सड़क पर
चलते हैं और
बाएं न चलकर
दाएं चल रहे
हों, तो
भीतर से कोई
कहता है कि
दाएं चलना ठीक
नहीं है, बाएं
चलना ठीक है।
यह अंतःकरण
नहीं है। यह
केवल सामाजिक
आंतरिक
व्यवस्था है।
यह अंतस-चेतन है,
जो समाज ने
इंतजाम किया
है, ताकि
आपको
व्यवस्था और
अनुशासन दिया
जा सके।
समाज
अलग होते हैं, व्यवस्था
अलग हो जाती
है। अमेरिका
में चलते हैं,
तो बाएं
चलने की जरूरत
नहीं है। वहां
अंतःकरण--
जिसको हम
अंतःकरण कहते
हैं--वह कहता
है, दाएं चलो, बाएं
मत चलना।
क्योंकि नियम
बाएं चलने का
नहीं है, दाएं
चलने का है।
सामाजिक
व्यवस्था की
जो आंतरिक धारणाएं
हैं, वे
अंतःकरण नहीं
हैं।
तो
अंतःकरण का
हमें पता ही
नहीं है, इसका
मतलब यह हुआ।
हम जिसे
अंतःकरण समझ
रहे हैं, वह
बिलकुल ही
भ्रांत है।
अंतःकरण
नैतिक धारणा
का नाम नहीं
है, अंतःकरण
मारैलिटी
नहीं है।
क्योंकि मारैलिटी
हजार तरह की
होती हैं, अंतःकरण
एक ही तरह का
होता है।
हिंदू की
नैतिकता अलग
है, मुसलमान
की नैतिकता
अलग, जैन
की नैतिकता
अलग, ईसाई
की नैतिकता
अलग, अफ्रीकन की अलग, चीनी
की अलग। नैतिकताएं
हजार हैं, अंतःकरण
एक है।
अंतःकरण
शुद्ध ही है।
आत्मा के इतने
निकट रहकर कोई
चीज अशुद्ध
नहीं हो सकती।
जितनी दूर
होती है आत्मा
से, उतनी
अशुद्ध की
संभावना बढ़ती
है। अगर ठीक
से समझें,
मोर दि डिस्टेंस,
मोर दि इंप्योरिटी।
जैसे एक दीया
जल रहा है
यहां; दीए की बत्ती जल
रही है। बत्ती
के बिलकुल पास
रोशनी का
वर्तुल है, वह शुद्धतम
है। फिर बत्ती
की रोशनी आगे
गई; फिर
धूल है, हवा
है, और
रोशनी अशुद्ध
हुई। फिर और
दूर गई, फिर
और अशुद्ध हुई;
फिर और दूर
गई, फिर और
अशुद्ध हुई।
और थोड़ी दूर
जाकर हम देखते
हैं कि रोशनी
नहीं है, अंधेरा
है। एक-एक कदम
रोशनी जा रही
है और अंधेरे
में डूबती जा
रही है।
शरीर
तक आते-आते सब चीजें
अशुद्ध हो
जाती हैं; आत्मा तक
जाते-जाते सब
शुद्ध हो जाती
हैं। शरीर के निकटतम इंद्रियां
हैं।
इंद्रियों के निकटतम
अंतस-इंद्रियां
हैं।
अंतस-इंद्रियों
के निकटतम
स्मृति है।
स्मृति के निकटतम
बुद्धि
है--प्रायोगिक।
प्रायोगिक, एप्लाइड इंटलेक्ट
के निकटतम
अप्रायोगिक
बुद्धि है। अप्रायोगिक
बुद्धि के
नीचे अंतःकरण
है। अंतःकरण
के नीचे आत्मा
है। आत्मा के
नीचे
परमात्मा है।
ऐसा
अगर खयाल में
आ जाए, तो
सांख्य कहता
है कि अंतःकरण
शुद्ध ही है।
वह कभी अशुद्ध
हुआ नहीं।
लेकिन हमने
अंतःकरण को जाना
नहीं है, इसलिए
लोग पूछते, अंतःकरण
कैसे शुद्ध हो?
अंतःकरण
शुद्ध नहीं
किया जा सकता।
करेगा कौन? और जो शुद्ध
है ही, वह
शुद्ध कैसे
किया जा सकता
है? पर
जाना जा सकता
है कि शुद्ध
है। कैसे जाना
जा सकता है?
एक ही
रास्ता
है--पीछे हटें, पीछे हटें,
अपने को
पीछे हटाएं,
अपनी चेतना
को सिकोड़ें,
जैसे कछुआ
अपने अंगों को
सिकोड़
लेता है। शरीर
को भूलें, इंद्रियों
को भूलें। छोड़ें
बाहर की परिधि
को, और
भीतर चलें।
अंतस-इंद्रियों
को छोड़ें,
और भीतर
चलें। स्मृति
को छोड़ें,
और भीतर
चलें। भीतर
याद आ रही है, शब्द आ रहे
हैं, विचार
आ रहे हैं, स्मृति
आ रही है। छोड़ें;
कहें कि यह
भी मैं नहीं
हूं। कहें कि नेति-नेति,
यह भी मैं
नहीं हूं। हैं
भी नहीं, क्योंकि
जो देख रहा है
भीतर कि यह
स्मृति से विचार
आ रहा है, वह
अन्य है, वह
भिन्न है, वह
पृथक है।
जानें कि यह
मैं नहीं हूं।
आप मुझे दिखाई
पड़ रहे हैं।
निश्चित ही, आप मुझे
दिखाई पड़ रहे
हैं, पक्का
हो गया कि मैं
आप नहीं हूं।
नहीं तो देखेगा
कौन आपको? देखने
वाला और दिखाई
पड़ने
वाला भिन्न
हैं, दृश्य
और द्रष्टा
भिन्न हैं।
यह
सांख्य का
मौलिक
साधना-सूत्र
है, दृश्य और
द्रष्टा
भिन्न हैं।
फिर सांख्य की
सारी साधना
इसी भिन्नता
के ऊपर गहरे
उतरती है। फिर
सांख्य कहता
है, जो भी
चीज दिखाई पड़ने
लगे, समझना
कि इससे भिन्न
हूं। भीतर से
देखें, शरीर
दिखाई पड़ता
है। और भीतर
देखें, हृदय
की धड़कन
सुनाई पड़ती
है। आप भिन्न
हैं। और भीतर
देखें, विचार
दिखाई पड़ते
हैं। आप भिन्न
हैं। और भीतर
देखें, और
भीतर देखें, समाज की धारणाएं
हैं, चित्त
पर बहुत सी
परतें हैं--वे
सब दिखाई पड़ती
हैं। और उतरते
जाएं। आखिर
में उस जगह
पहुंच जाते
हैं, जहां
अंतःकरण है, सब शुद्धतम
है। लेकिन शुद्धतम,
वह भी भिन्न
है; वह भी
अलग है।
इसीलिए उसको
आत्मा नहीं
कहा; उसको
भी अंतःकरण
कहा। क्योंकि
आत्मा उस शुद्धतम
के भी पार है। शुद्धतम
का अनुभव कैसे
होगा? आपको
अशुद्धतम
का अनुभव कैसे
होता है?
कोई
मुझसे आकर
पूछता है, शुद्ध का हम
अनुभव कैसे
करेंगे? तो
उसको मैं कहता
हूं कि तुम बगीचे
की तरफ चले।
अभी बगीचा
नहीं आया, लेकिन
ठंडी हवा
मालूम होने
लगी। तुम्हें
कैसे पता चल
जाता है कि
ठीक चल रहे
हैं? क्योंकि
ठंडी हवा
मालूम होने
लगी। फिर तुम
और बढ़ते हो; सुगंध भी
आने लगी; तब
तुम जानते हो
कि और निकट है
बगीचा। अभी
बगीचा आ नहीं
गया है। शायद
अभी दिखाई भी
नहीं पड़ रहा
हो। और निकट
बढ़ते हो, अब
हरियाली
दिखाई भी पड़ने
लगी। अब बगीचा
और निकट आ गया
है। अभी फिर
भी हम बगीचे
में नहीं
पहुंच गए हैं।
फिर हम बगीचे
के बिलकुल
द्वार पर खड़े
हो गए। सुगंध
है, शीतलता
है, हरियाली
है, चारों
तरफ शांति और
सन्नाटा और एक
वेल बीइंग,
एक
स्वास्थ्य का
भाव घेर लेता
है।
ऐसे ही
जब कोई भीतर
जाता है, तो
आत्मा के
जितने निकट
पहुंचता है, उतना ही
शांत, उतना
ही मौन, उतना
ही
प्रफुल्लित, उतना ही
प्रसन्न, उतना
ही शीतल होने
लगता है।
जैसे-जैसे
भीतर चलता है,
उतना ही
प्रकाशित, उतना
ही आलोक से
भरने लगता है।
जैसे-जैसे
भीतर चलने
लगता है, कदम-कदम
भीतर सरकता है,
कहता है, यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं।
पहचानता है, रिकग्नाइज करता है--यह
भी नहीं। यह
दृश्य हो गया,
तो मैं नहीं
हूं। मैं तो
वहां तक चलूंगा,
जहां सिर्फ
द्रष्टा रह
जाए। तो
द्रष्टा जब अंत
में रह जाए, उसके पहले
जो मिलता है, वह अंतःकरण
है। अंतःकरण
जो है, वह अंतर्यात्रा
का आखिरी पड़ाव
है। आखिरी
पड़ाव, मंजिल
नहीं। मंजिल
उसके बाद है।
यह
अंतःकरण
शुद्ध ही है, इसीलिए
सांख्य की बात
कठिन है। कोई
हमें समझाए
कि शुद्ध कैसे
हो, तो समझ
में आता है।
सांख्य कहता
है, तुम
शुद्ध हो ही।
तुम कभी गए ही
नहीं वहां तक
जानने, जहां
शुद्धि है।
तुम बाहर ही
बाहर घूम रहे
हो घर के। तुम
कभी घर के
भीतर गए ही
नहीं। घर के
गर्भ में परम
शुद्धि का वास
है। उस परम
शुद्धि के बीच
आत्मा और उस
आत्मा के भी
बीच परमात्मा
है। पर वहां
गए ही नहीं हम
कभी। घर के
बाहर घूम रहे
हैं। और घर के
बाहर की गंदगी
है।
एक
आदमी घर के
बाहर घूम रहा
है और सड़क पर
गंदगी पड़ी है।
वह कहता है इस
गंदगी को
देखकर कि मेरे
घर के अंदर भी
सब गंदा होगा, उसको मैं
कैसे शुद्ध
करूं? हम
उसे कहते हैं,
यह गंदगी घर
के बाहर है।
तुम घर के
भीतर चलो;
वहां कोई
गंदगी नहीं
है। तुम इस
गंदगी से आब्सेस्ड
मत हो जाओ। यह
घर के बाहर
होने की वजह
से है। यहां
तक वह शुद्धि
की धारा नहीं
पहुंच पाती है,
माध्यमों
में विकृत हो
जाती है, अनेक
माध्यमों में
विकृत हो जाती
है। अंदर चलो,
भीतर चलो,
गो बैक,
वापस लौटो।
तो
कृष्ण कह रहे
हैं, अंतःकरण
शुद्ध होता है,
ऐसा जिस दिन
जाना जाता है,
उसी दिन
चित्त के सब
विक्षेप, चित्त
की सारी
विक्षिप्तता
खो जाती है--खोनी
नहीं पड़ती।
इसे
ऐसा समझें, एक पहाड़ के
किनारे एक खाई
में हम बसे
हैं। अंधेरा
है बहुत। सीलन
है। सब गंदा
है। पहाड़ को
घेरे हुए बादल
घूमते हैं। वे
वादी को, खाई
को ढक लेते
हैं। उनकी वजह
से ऊपर का
सूर्य भी दिखाई
नहीं पड़ता।
उनकी काली छायाएं
डोलती हैं
घाटी में और
बड़ी भयानक
मालूम होती हैं।
और एक
आदमी शिखर पर
खड़ा है, वह
कहता है, तुम
पहाड़ चढ़ो।
लेकिन हम नीचे
से पूछते हैं
कि इन बादलों
से छुटकारा
कैसे होगा? ये काली छायाएं
सारी घाटी को
घेरे हुए हैं;
इनसे
मुक्ति कैसे
होगी? वह
आदमी कहता है,
तुम इनकी
फिक्र छोड़ो,
तुम पहाड़ चढ़ो। तुम
उस जगह आ जाओगे,
जहां तुम पाओगे कि बदलियां
नीचे रह गई
हैं और तुम
ऊपर हो गए हो।
और जिस दिन तुम
पाओगे कि बदलियां
नीचे रह गई
हैं और तुम
ऊपर हो गए हो, उस दिन बदलियां
तुम पर कोई
छाया नहीं डालतीं।
बदलियां
सिर्फ उन्हीं
पर छायाएं
डालती हैं, जो बदलियों
के नीचे हैं। बदलियां
उन पर छाया
नहीं डालतीं,
जो बदलियों
के ऊपर हैं।
अगर कभी हवाई
जहाज में आप उड़े हैं, तो बदलियां
फिर आप पर
छाया नहीं डालतीं।
बदलियों
का वितान नीचे
रह जाता है, आप ऊपर हो
जाते हैं।
लेकिन पृथ्वी
पर बदलियां
बहुत छाया
डालती हैं।
मन के
जो विक्षेप
हैं, विक्षिप्तताएं हैं, विकार
हैं, वे बदलियों
की तरह हैं।
और हम पर छाया
डालते हैं, क्योंकि हम
घाटियों में
जीते हैं।
कृष्ण
कहते हैं, चलो
अंतःकरण की
शुद्धि की
यात्रा पर। जब
तुम अंतःकरण
पर पहुंचोगे,
तब तुम हंसोगे
कि ये बदलियां,
जो बड़ी
पीड़ित करती
थीं, अब ये
नीचे छूट गई
हैं। अब इनका
कोई खयाल भी
नहीं आता; अब
ये कोई छाया
भी नहीं डालतीं।
अब इनसे कोई
संबंध ही नहीं
है। अब सूरज
आमने-सामने
है। अब बीच
में कोई बदलियों
का वितान नहीं
है, कोई
जाल नहीं है।
विचार
घाटियों के ऊपर
बादलों की
भांति हैं। जो
अंतःकरण तक
पहुंचता है, वह शिखर पर
पहुंच जाता
है। वहां
सूर्य का प्रकट
प्रकाश है। यह
यात्रा है, यह शुद्धि
नहीं है। यह
यात्रा है, शुद्धि फल
है। पता चलता
है कि शुद्ध
है।
कृष्ण
कह रहे हैं, अंतःकरण
शुद्ध है, वहां
चित्त का कोई
विक्षेप नहीं
है।
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य
न चायुक्तस्य
भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य
कुतः सुखम्।।
६६।।
प्रश्न- अयुक्त
पुरुष के
अंतःकरण में
श्रेष्ठ
बुद्धि नहीं
होती है और
उसके अंतःकरण
में भावना भी नहीं
होती है और
बिना भावना
वाले पुरुष को
शांति भी नहीं
होती है। फिर शांतिरहित
पुरुष को सुख
कैसे हो सकता
है?
अयुक्त
पुरुष को
शांति नहीं।
युक्त पुरुष
को शांति है।
अयुक्त पुरुष
क्या? युक्त
पुरुष क्या? अयुक्त
पुरुष को
भावना नहीं, शांति नहीं,
आनंद नहीं।
यह युक्त और
अयुक्त का
क्या अर्थ है?
अयुक्त
का अर्थ है, अपने से ही
अलग, अपने
होने से ही
दूर पड़ गया, अपने से ही
बाहर पड़ गया, अपने से ही
टूट गया--स्प्लिट।
लेकिन
अपने से कोई
कैसे टूट सकता
है? अपने से
कोई कैसे
अयुक्त हो
सकता है? अपने
से टूटना तो
असंभव है। अगर
हम अपने से ही टूट
जाएं, इससे
बड़ी असंभव बात
कैसे हो सकती
है! क्योंकि अपने
का मतलब ही यह
होता है कि
अगर मैं अपने
से ही टूट
जाऊं, तो
मेरे दो अपने
हो गए--एक
जिससे मैं टूट
गया, और एक
जो मैं टूटकर
हूं। अपने से
टूटना हो नहीं
सकता।
और
अपने से जुड़ने
का भी क्या
मतलब, अपने
से युक्त होने
का भी क्या
मतलब, जब
टूट ही नहीं
सकता हूं! तो
फिर बात कहां है?
सच में
कोई अपने से
टूटता नहीं, लेकिन अपने
से टूटता है, ऐसा सोच
सकता है, ऐसा
विचार सकता
है। ऐसे भाव, ऐसे सम्मोहन
से भर सकता है
कि मैं अपने
से टूट गया
हूं।
आप रात
सोए। सपना
देखा कि अहमदाबाद
में नहीं, कलकत्ते में हूं। कलकत्ते
में चले नहीं
गए। ऐसे
सोए-सोए कलकत्ता
जाने का अभी
तक कोई उपाय
नहीं है। अपनी
खाट पर अहमदाबाद
में ही पड़े
हैं। लेकिन
स्वप्न देख
रहे हैं कि कलकत्ता
पहुंच गए।
सुबह जल्दी
काम है अहमदाबाद
में। अब चित्त
बड़ा घबड़ाया,
यह तो कलकत्ता
आ गए! सुबह काम
है। अब वापस अहमदाबाद
जाना है! अब
सपने में
लोगों से पूछ
रहे हैं कि अहमदाबाद
कैसे जाएं!
ट्रेन पकड़ें,
हवाई जहाज पकड़ें, बैलगाड़ी से जाएं।
जल्दी
पहुंचना है, सुबह काम है
और यह रात
गुजरी जाती
है।
आपकी
घबड़ाहट उचित
है, अनुचित
तो नहीं। अहमदाबाद
में काम है; कलकत्ते में हैं।
बीच में फासला
बड़ा है। सुबह
करीब आती जाती
है। वाहन खोज
रहे हैं।
लेकिन क्या अहमदाबाद
आने के लिए
वाहन की जरूरत
पड़ेगी? क्योंकि
अहमदाबाद
से आप गए नहीं
हैं क्षणभर
को भी, इंचभर को भी। न भी
मिले वाहन, तो जैसे ही
नींद टूटेगी,
पाएंगे कि
लौट आए। मिल
जाए, तो भी
पाएंगे कि लौट
आए। असल में
गए ही नहीं हैं,
लौट आना
शब्द ठीक नहीं
है। सिर्फ गए
के भ्रम में
थे।
तो जब
कृष्ण कहते
हैं, अयुक्त
और युक्त, तो
वास्तविक
फर्क नहीं है।
कोई अयुक्त तो
होता नहीं कभी,
सिर्फ
अयुक्त होने
के भ्रम में
होता है, स्वप्न
में होता है।
सिर्फ एक ड्रीम
क्रिएशन
है, एक
स्वप्न का भाव
है कि अपने से
अलग हो गया
हूं। युक्त
पुरुष वह है, जो इस
स्वप्न से जाग
गया और उसने
देखा कि मैं तो
अपने से कभी
भी अलग नहीं
हुआ हूं।
अयुक्त
पुरुष में
भावना नहीं
होती। क्यों
नहीं होती? भावना से
मतलब आप मत
समझ लेना आपकी
भावना, क्योंकि
हम सब अयुक्त
पुरुष हैं, हममें भावना बहुत
है। इसलिए
कृष्ण इस
भावना की बात
नहीं कर रहे होंगे,
जो हममें
है।
एक
आदमी कहता है
कि भावना बहुत
है। पत्नी मर
गई है, रो
रहा है। बेटा
बीमार पड़ा है,
आंसू गिरा
रहा है। कहता
है, भावना
बहुत है। यह
भावना नहीं है,
यह फीलिंग
नहीं है, यह
सिर्फ सेंटिमेंटलिटी
है। फर्क क्या
है? अगर यह
भावना नहीं है,
सिर्फ
भावना का धोखा
है, तो
फर्क क्या है?
एक
आदमी रो रहा
है अपने बेटे
के पास बैठा
हुआ--मेरा
बेटा बीमार है
और चिकित्सक
कहते हैं, बचेगा नहीं, मर
जाएगा। रो रहा
है; छाती
पीट रहा है।
उसके प्राणों
पर बड़ा संकट
है। तभी हवा
का एक झोंका आता
है और टेबल
से एक कागज उड़कर
उसके पैरों पर
नीचे गिर जाता
है। वह उसे
यूं ही उठाकर
देख लेता है।
पाता है कि
उसकी पत्नी को
लिखा किसी का
प्रेम-पत्र
है। पता चलता
है पत्र को पढ़कर
कि बेटा अपना
नहीं है, किसी
और से पैदा
हुआ है। सब
भावना विदा हो
गई। कोई भावना
न रही। दवाई
की बोतलें हटा
देता है। जहर
की बोतलें रख
देता है। रात
एकांत में
गरदन दबा देता
है। वही आदमी
जो उसे बचाने
के लिए कह रहा
था, वही
आदमी गरदन दबा
देता है।
भावना
का क्या हुआ? यह कैसी
भावना थी? यह
भावना नहीं
थी। यह मेरे
के लिए भावना
का मिथ्या
भ्रम था। मेरा
नहीं, तो
बात समाप्त हो
गई।
टाल्सटाय
ने एक कहानी लिखी है।
लिखा है कि एक
आदमी का बेटा
बहुत दिन से
घर के बाहर
चला गया। बाप
ही क्रोधित
हुआ था, इसलिए
चला गया था।
फिर बाप बूढ़ा
होने लगा। बहुत
परेशान था। अखबारों
में खबर निकाली,
संदेशवाहक
भेजे। फिर उस
बेटे का पत्र
आ गया कि मैं आ
रहा हूं। आपने
बुलाया, तो
मैं आता हूं।
मैं फलां-फलां
दिन, फलां-फलां
ट्रेन से आ
जाऊंगा।
स्टेशन
दूर है, देहात
में रहता है
बाप। अपनी
बग्घी कसकर वह
उसे लेने आया।
मालगुजार
है, जमींदार
है। लेकिन
उसके आने पर
पता चला कि
ट्रेन आ चुकी
है। वह सोचता
था चार बजे
आएगी, वह
दो बजे आ गई।
तो धर्मशाला
में ठहरा
जाकर। अब अपने
बेटे की तलाश
करे कि वह
कहां गया!
धर्मशाला
में कोई जगह
खाली नहीं है।
धर्मशाला के
मैनेजर को
उसने कहा कि
कोई भी जगह तो
खाली करवाओ
ही। वह
जमींदार है।
तो उसने कहा
कि अभी एक कोई भिखमंगा-सा
आदमी आकर ठहरा
है इस कमरे
में--उसको
निकाल बाहर कर
दें? उसने कहा
कि निकाल बाहर
करो। उसे पता
नहीं कि वह
उसका बेटा है।
उसे निकाल
बाहर कर दिया
गया। वह अपने
कमरे में आराम
से...। उसने
आदमी भेजे कि गांव
में खोजो।
वह
बेटा बाहर सीढ़ियों
पर बैठा है।
सर्द रात उतरने
लगी। उस गरीब
लड़के ने
बार-बार कहा
कि मुझे भीतर
आ जाने दें, बर्फ पड़ रही
है और मुझे
बहुत दर्द है
पेट में। पर
उसने कहा कि
यहां गड़बड़ मत
करो; भाग
जाओ यहां से; रात मेरी
नींद हराम मत
कर देना। फिर
रात पेट की
तकलीफ से वह
लड़का चीखने
लगा। तो उसने
नौकरों से उसे
उठवाकर
सड़क पर फिंकवा
दिया।
फिर
सुबह वह मर
गया। सुबह जब
वह जमींदार
उठा, तो वह
लड़का मरा हुआ
पड़ा था। लोगों
की भीड़ इकट्ठी
थी। लोग कह
रहे थे, कौन
है, क्या
है, कुछ
पता लगाओ।
किसी ने उसके
खीसे में
खोज-बीन की तो
चिट्ठी मिल
गई। तब तो
उन्होंने कहा
कि अरे, वह
जमींदार
जिसको खोज रहा
है, यह वही
है। यह
जमींदार को लिखी गई
चिट्ठी-पत्री,
यह अखबारों
की कटिंग!
यह उसका लड़का
है।
वह
जमींदार बाहर बैठकर
अपना हुक्का
पी रहा है।
जैसे ही उसने
सुना कि मेरा
लड़का है, एकदम
भावना आ गई।
अब वह छाती
पीट रहा है, अब वह रो रहा
है। अब उस
लड़के को--मरे
को--कमरे के अंदर
ले गया है।
जिंदा को रात
नहीं ले गया।
मरे को दिन
में कमरे के
अंदर ले गया।
अब उसकी सफाई
की जा रही
है--मरे पर।
मरे को नए
कपड़े पहनाए
जा रहे हैं! वह
जमींदार का
बेटा है। अब
उसको घर ले
जाने की
तैयारी चल रही
है। और रात
उसने कई बार
प्रार्थना की,
मुझे भीतर
आने दो, तो
उसको नौकरों
से सड़क पर फिंकवा
दिया। यह
भावना है?
नहीं, यह भावना का
धोखा है।
भावना मेरेत्तेरे
से बंधी नहीं
होती, भावना
भीतर का सहज
भाव है। अगर
भावना होती, तो उसे कमरे
के बाहर
निकालना
मुश्किल
होता। अगर
भावना होती, तो रात उसके
पेट में दर्द
है, सर्द
रात है, बर्फ
पड़ती है, उसे
बाहर बिठाना
मुश्किल
होता। यह सवाल
नहीं है कि वह
कौन है। सवाल
यह है कि भाव
है भीतर!
ध्यान
रहे, भावना
स्वयं की स्फुरणा
है। दूसरे का
सवाल नहीं कि
वह कौन है। मर
रहा है एक
आदमी, नौकरों
से फिंकवा
दिया उसको उठवाकर!
टाल्सटाय
ने जब यह
कहानी लिखी, तो उसने
अपने संस्मरणों
में लिखा है
कि यह कहानी
मेरी एक
अर्थों में आटोबायोग्राफी
भी है। यह
मेरा आत्मस्मरण
भी है।
क्योंकि खुद टाल्सटाय
शाही परिवार
का था।
उसने
लिखा है, मेरी
मां मैं समझता
था बहुत भावनाशील
है। लेकिन यह
तो मुझे बाद
में उदघाटन
हुआ कि उसमें
भावना जैसी
कोई चीज ही
नहीं है।
क्यों समझता
था कि भावना
थी? क्योंकि
थिएटर
में उसके
चार-चार रूमाल
भीग जाते थे आंसुओं
से। जब नाटक
चलता और कोई
दुख, ट्रेजेडी होती, तो
वह ऐसी
धुआंधार रोती
थी कि नौकर
रूमाल लिए खड़े
रहते--शाही घर
की लड़की
थी--तत्काल
रूमाल बदलने पड़ते थे। चार-चार,
छह-छह, आठ-आठ
रूमाल एक नाटक,
एक थिएटर
में भीग जाते।
तो टाल्सटाय
ने लिखा है कि
मैं उसके बगल
में बैठकर
देखा करता था,
मेरी मां
कितनी भावनाशील!
लेकिन
जब मैं बड़ा
हुआ तब मुझे
पता चला कि
उसकी बग्घी
बाहर छह घोड़ों
में जुती
खड़ी रहती थी
और आज्ञा थी
कि कोचवान
बग्घी पर ही
बैठा रहे।
क्योंकि कब
उसका मन हो जाए
थिएटर से
जाने का, तो
ऐसा न हो कि एक
क्षण को भी कोचवान
ढूंढ़ना
पड़े। बाहर
बर्फ पड़ती
रहती और अक्सर
ऐसा होता कि
वह थिएटर
में नाटक
देखती, तब
तक एक-दो कोचवान
मर जाते। उनको
फेंक दिया
जाता, दूसरा
कोचवान
तत्काल बिठाकर
बग्घी चला दी
जाती। वह औरत
बाहर आकर
देखती कि मुरदे
कोचवान
को हटाया जा
रहा है और
जिंदा आदमी को
बिठाया
जा रहा है। और
वह थिएटर
के लिए रोती
रहती, वह थिएटर में
जो ट्रेजेडी
हो गई!
तो टाल्सटाय
ने लिखा है कि
एक अर्थ में
यह कहानी मेरी
आटोबायोग्राफिकल
भी है, आत्म-कथ्यात्मक
भी है। ऐसा
मैंने अपनी
आंख से देखा
है। तब मुझे
पता चला कि
भावना कोई और
चीज होगी। फिर
यह चीज भावना
नहीं है।
जिसको
हम भावना कहते
हैं, कृष्ण
उसको भावना
नहीं कह रहे।
भावना उठती
ही उस व्यक्ति
में है, जो
अपने से
संयुक्त है, जो अपने में
युक्त है।
युक्त यानी योग
को उपलब्ध, युक्त यानी जुड़ गया जो,
संयुक्त।
अयुक्त
अर्थात
वियुक्त--जो
अपने से जुड़ा
हुआ नहीं है।
वियुक्त सदा
दूसरों से जुड़ा
रहता है।
युक्त सदा
अपने से जुड़ा
रहता है।
वियुक्त
सदा दूसरों से
जुड़ा
रहता है। उसके
सब लिंक
दूसरों से
होते हैं। वह
किसी का पिता
है, किसी का
पति है, किसी
का मित्र है, किसी का
शत्रु है, किसी
का बेटा है, किसी का भाई
है, किसी
की बहन है, किसी
की पत्नी है।
लेकिन खुद कौन
है, इसका
उसे कोई पता
नहीं होता।
उसकी अपने
बाबत सब
जानकारी
दूसरों के
बाबत जानकारी
होता है। पिता
है, अर्थात
बेटे से कुछ
संबंध है। पति
है, यानी
पत्नी से कोई
संबंध है।
उसकी अपने
संबंध में
सारी खबर
दूसरों से
जुड़े होने की
होती है।
अगर हम
उससे पूछें
कि नहीं, तू
पिता नहीं, भाई नहीं, मित्र
नहीं--तू कौन
है? हू आर यू? तो
वह कहेगा,
कैसा फिजूल
सवाल पूछते
हैं! मैं तो
पिता हूं, मैं
तो पति हूं, मैं तो
क्लर्क हूं, मैं तो
मालिक हूं।
लेकिन ये सब फंक्शंस
हैं। यह सब
दूसरों से
जुड़े होना है।
अयुक्त
व्यक्ति
दूसरों से जुड़ा
होता है। जो
दूसरों से जुड़ा
होता है, उसमें
भावना कभी
पैदा नहीं
होती।
क्योंकि भावना
तभी पैदा होती
है, जब कोई
अपने से जुड़ता
है। जब अपने
भीतर के झरनों
से कोई जुड़ता
है, तब
भावना का
स्फुरण होता
है। जो दूसरों
से जुड़ता
है, उसमें
भावना नहीं
होती--एक। जो
दूसरों से जुड़ा
होता है, वह
सदा अशांत
होता है--दो।
क्योंकि
शांति का अर्थ
ही अपने भीतर
जो संगीत की
अनंत धारा बह
रही है, उससे
संयुक्त हो
जाने के अतिरिक्त
और कुछ भी
नहीं है।
शांति
का अर्थ है, इनर हार्मनी; शांति का
अर्थ है, मैं
अपने भीतर
तृप्त हूं, संतुष्ट
हूं। अगर सब
भी चला जाए, चांदत्तारे मिट जाएं, आकाश गिर
जाए, पृथ्वी
चली जाए, शरीर
गिर जाए, मन
न रहे, फिर
भी मैं जो हूं,
काफी
हूं--मोर दैन इनफ--जरूरत
से ज्यादा, काफी हूं।
पाम्पेई
नगर में, पाम्पेई का जब
विस्फोट हुआ,
ज्वालामुखी
फूटा, तो
सारा गांव
भागा। आधी रात
थी। गांव में
एक फकीर भी
था। कोई अपनी
सोने की
तिजोरी, कोई
अपनी अशर्फियों
का बंडल, कोई
फर्नीचर,
कोई कुछ, कोई कुछ, जो
जो बचा
सकता है, लोग
लेकर भागे।
फकीर भी चला
भीड़ में; चला,
भागा नहीं।
भागने
के लिए या तो
पीछे कुछ होना
चाहिए या आगे
कुछ होना
चाहिए। भागने
के लिए या तो
पीछे कुछ होना
चाहिए, जिससे
भागो; या
आगे कुछ होना
चाहिए, जिसके
लिए भागो।
सारा
गांव भाग रहा
है, फकीर चल
रहा है। लोगों
ने उसे धक्के
भी दिए और कहा
कि यह कोई
चलने का वक्त
है! भागो।
पर उसने कहा, किससे भागूं
और किसके लिए भागूं? लोगों
ने कहा, पागल
हो गए हो! यह
कोई वक्त चलने
का है। कोई
टहल रहे हो
तुम! यह कोई
तफरीह हो रही
है!
उस
आदमी ने कहा, लेकिन मैं किससे भागूं!
मेरे पीछे कुछ
नहीं, मेरे
आगे कुछ नहीं।
लोगों ने उसे
नीचे से ऊपर
तक देखा और
उससे कहा कि
कुछ बचाकर
नहीं लाए!
उसने कहा, मेरे
सिवाय मेरे
पास कुछ भी
नहीं है।
मैंने कभी कोई
चीज बचाई नहीं,
इसलिए खोने
का उपाय नहीं
है। मैं अकेला
काफी हूं।
कोई रो
रहा है कि
मेरी तिजोरी
छूट गई। कोई
रो रहा है कि
मेरा यह छूट
गया। कोई रो
रहा है कि
मेरा वह छूट
गया। सिर्फ एक
आदमी उस भीड़
में हंस रहा
है। लोग उससे
पूछते हैं, तुम हंस
क्यों रहे हो?
क्या
तुम्हारा कुछ
छूटा नहीं? वह कहता है
कि मैं जितना
था, उतना
यहां भी हूं।
मेरा कुछ भी
नहीं छूटा है।
उस
अशांत भीड़ में
अकेला वही
आदमी है, जिसके
पास कुछ भी
नहीं है। बाकी
सब कुछ न कुछ बचाकर
लाए हैं, फिर
भी अशांत हैं।
और वह आदमी
कुछ भी बचाकर
नहीं लाया और
फिर भी शांत
है। बात क्या
है?
युक्त
पुरुष शांत हो
जाता है, अयुक्त
पुरुष अशांत
होता है।
ज्ञानी युक्त
होकर शांति को
उपलब्ध हो
जाता है।
इंद्रियाणां हि चरतां
यन्मनोऽनु
विधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां
वायुर्नावमिवाम्भसि।।
६७।।
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि
सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य
प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।
६८।।
क्योंकि, जल में वायु
नाव को जैसे
कंपित कर देता
है,
वैसे
ही विषयों में
विचरती हुई
इंद्रियों के
बीच में
जिस
इंद्रिय के
साथ मन रहता
है, वह एक ही
इंद्रिय
इस
अयुक्त पुरुष
की प्रज्ञा का
हरण कर लेती
है।
इससे
हे महाबाहो, जिस पुरुष
की इंद्रियां
सब प्रकार
इंद्रियों
के विषयों से
वश में की हुई
होती हैं,
उसकी
प्रज्ञा
स्थिर होती
है।
जैसे नाव
चलती हो और
हवा की आंधियों
के झोंके
उस नाव को डांवाडोल
कर देते हैं; आंधियां तेज हों, तो
नाव डूब भी
जाती है; ऐसे
ही कृष्ण कहते
हैं, अर्जुन,
जिसके
चित्त की
शक्ति विषयों
की तरफ
विक्षिप्त
होकर भागती है,
उसका मन
आंधी बन जाता
है, उसका
मन तूफान बन
जाता है। उस आंधी
और तूफान में
शांति की, समाधि
की, स्वयं
की नाव डूब
जाती है।
लेकिन अगर आंधियां
न चलें, तो
नाव डगमगाती
भी नहीं। अगर आंधियां
बिलकुल न चलें,
तो नाव के
डूबने का उपाय
ही नहीं रह
जाता।
ठीक
ऐसे ही मनुष्य
का चित्त
जितने ही
झंझावात से भर
जाता है वासनाओं
के, जितने ही
जोर से चित्त
की ऊर्जा और
शक्ति विषयों
की तरफ दौड़ने
लगती है, वैसे
ही जीवन की
नाव डगमगाने
लगती है और
डूबने लगती
है।
ज्ञानी
पुरुष इस सत्य
को देखकर, इस सत्य को पहचानकर
यह चित्त की
वासना की आंधियों
को नहीं दौड़ाता।
क्या मतलब है?
रोक लेता है?
लेकिन आंधियां
अगर रोकी जाएंगी, तो भी आंधियां
ही रहेंगी।
और दौड़ रही आंधियां
शायद कम संघातक
हों, रोकी गई आंधियां
शायद और भी संघातक
हो जाएं। तो
क्या ज्ञानी
पुरुष आंधियों
को रोक लेता
है, रिस्ट्रेन करता है? अगर
रोकेगा, तो भी आंधियां
आंधियां
ही रहेंगी
और रुकी आंधियों
का वेग और भी
बढ़ जाएगा। तो
क्या करता है
ज्ञानी पुरुष?
यह
बहुत मजे की
और समझने की
बात है कि आंधियां
रोकनी
नहीं पड़तीं, सिर्फ चलानी
पड़ती हैं। रोकनी
नहीं पड़तीं,
सिर्फ चलानी
पड़ती हैं। आप
न चलाएं, तो रुक जाती
हैं। क्योंकि आंधियां
कहीं बाहर से
नहीं आ रही
हैं, आपके
ही सहयोग, कोआपरेशन से आ रही
हैं।
मैं इस
हाथ को हिला
रहा हूं। इस
हाथ को हिलने
से मुझे रोकना
नहीं पड़ता। जब
रोकता हूं, तो उसका कुल
मतलब इतना
होता है कि अब
नहीं हिलाता
हूं। कोई हाथ
अगर बाहर से हिलाया जा
रहा हो, तो
मुझे रोकना
पड़े। मैं ही
हिला रहा हूं,
तो रोकने का
क्या मतलब
होता है! शब्द
में रोकना
क्रिया बनती
है, उससे
भ्रांति पैदा
होती है।
यथार्थ में, वस्तुतः
रोकना नहीं
पड़ता, सिर्फ
चलाता नहीं
हूं कि हाथ
रुक जाता है।
एक झेन
फकीर हुआ, उसका नाम था रिंझाई।
एक आदमी उसके
पास गया और
उसने कहा कि
मैं कैसे रोकूं?
उस फकीर ने
कहा, गलत
सवाल मेरे पास
पूछा तो ठीक
नहीं होगा। यह
डंडा देखा है! रिंझाई एक
डंडा पास रखता
था। और वह
दुनिया बहुत
कमजोर है, जहां
फकीर के पास
डंडा नहीं
होता। कृष्ण
कुछ कम डंडे
की बात नहीं
करते!
एक
मित्र कल
मुझसे कह रहे
थे कि मेरी
हालत भी अर्जुन
जैसी है। आप
मुझे
सम्हालना!
मेरे मन में
हुआ कि उनसे कहूं
कि अगर कृष्ण
जैसा एक दफा तुमसे कह
दूं, महामूर्ख! तुम दुबारा लौटकर न आओगे। तुम आओगे ही
नहीं।
अर्जुन
होना भी आसान
नहीं है। वह
कृष्ण उसको डंडे
पर डंडे दिए
चले जाते हैं।
भागता नहीं
है। संदेह है, लेकिन
निष्ठा में भी
कोई कमी नहीं
है। संदेह है,
तो सवाल
उठाता है।
निष्ठा में भी
कोई कमी नहीं
है, इसलिए
भागता भी नहीं
है।
रिंझाई
ने कहा कि
देखा है यह
डंडा! झूठे
गलत सवाल पूछेगा, सिर तोड़
दूंगा।
उस
आदमी ने कहा, क्या कहते
हैं आप! सिर
मेरा वैसे ही
अपनी वासनाओं
से टूटा जा
रहा है। आप
मुझे कोई
तरकीब रोकने
की बताएं। रिंझाई
ने कहा, रोकने
की बात नहीं
है, मैं तुझसे
यह पूछता हूं,
किस तरकीब
से वासनाओं
को चलाता है? क्योंकि तू
ही चलाने वाला
है, तो
रोकने की
तरकीब पूछनी
पड़ेगी!
एक
आदमी दौड़ रहा
है और हमसे
पूछता है, कैसे रुकें?
रुकना पड़ता
है! सिर्फ
नहीं दौड़ना
पड़ता है।
रुकना नहीं
पड़ता है, सिर्फ
नहीं दौड़ना
पड़ता है।
हां, कोई उसको
घसीट रहा हो, कोई उसकी
गरदन में बैल
की तरह रस्सी बांधकर
खींच रहा हो, तब भी कोई
सवाल है। कोई
उसके पीछे से
उसको धक्के दे
रहा हो, तब
भी कोई सवाल
है। न उसे कोई
घसीट रहा है, न कोई पीछे
से धक्के दे
रहा है, वह
आदमी दौड़ रहा
है। और कहता
है, मैं
कैसे रुकूं?
तो उसे इतना
ही कहना पड़ेगा,
तू गलत ही
सवाल पूछ रहा
है। दौड़ भी तू
ही रहा है, कैसे
रुकने की बात
भी तू ही पूछ
रहा है। निश्चित
ही तू रुकना
नहीं चाहता, इसीलिए पूछ
रहा है।
जो लोग
रुकना नहीं
चाहते, वे
यही पूछते
रहते हैं, कैसे
रुकें? इसी में समय गंवाते
रहते हैं। वे
पूछते हैं, हाऊ टु डू इट?
करना नहीं
चाहते हैं।
क्योंकि मजा
यह है कि वासना
को कैसे चलाएं,
इसे पूछने
आप कभी किसी
के पास नहीं
गए, बड़े
मजे से चला
रहे हैं।
तो
कृष्ण कह रहे
हैं कि जो इन आंधियों
को नहीं चलाता
है--रोक लेता
है नहीं--नहीं
चलाता है।
हमारा कोआपरेशन मांगती है
वासना। आपने
कोई ऐसी वासना
देखी है, जो
आपके बिना
सहयोग के इंचभर
सरक जाए! कभी
बिना आपके
सहयोग के आपके
भीतर कोई भी
वासना सरकी
है इंचभर!
तो फिर जरा लौटकर
देखना। जब
वासना सरके,
तो खड़े हो
जाना और कहना
कि मेरा सहयोग
नहीं, अब
तू चल। और आप
पाएंगे, वहीं
गिर गई--वहीं--इंचभर भी
नहीं जा सकती।
आपका कोआपरेशन
चाहिए।
एक
मेरे मित्र
हैं, उनको बड़ा
क्रोध आता है।
बड़े मंत्र
पढ़ते हैं, बड़ी
प्रार्थनाएं
करते हैं, मंदिर
जाते हैं और
वहां से और
क्रोधी होकर
लौटते हैं।
क्रोध नहीं
जाता। बस, उनकी
वही परेशानी
है कि क्रोध!
पर मैंने उनसे
कहा कि तुम ही
क्रोध करते हो
कि कोई और
करता है? उन्होंने
कहा कि मैं ही
करता हूं, लेकिन
फिर भी जाता
नहीं। कैसे
जाए?
मैंने
कहा कि अब यह
सब छोड़ो।
यह कागज मैं
तुम्हें लिखकर
देता हूं।
कागज लिखकर
उन्हें दे
दिया। उसमें
मैंने बड़े-बड़े
अक्षरों में
लिख दिया कि
अब मुझे क्रोध
आ रहा है। मैंने
कहा, इसे खीसे
में रखो
और जब भी
क्रोध आए, तो
इसे देखकर पढ़ना
और फिर खीसे
में रखना, और
कुछ मत करना।
उन्होंने कहा,
इससे क्या
होगा? मैं
बड़े-बड़े ताबीज
भी बांध चुका!
मैंने कहा, छोड़ो ताबीज
तुम। तुम इसको
खीसे में रखो।
पंद्रह दिन
बाद मेरे पास
आना।
पंद्रह
दिन बाद नहीं, वे पांच ही
दिन बाद आ गए।
और कहने लगे
कि क्या जादू
है? क्योंकि
जैसे ही मैं
इसको पढ़ता हूं
कि अब मुझे
क्रोध आ रहा
है, पता
नहीं भीतर
क्या होता
है--गया! कोआपरेशन
नहीं मिल
पाता। एक सेकेंड
को कोआपरेशन
चूक जाए--गया।
फिर तो
वे कहने लगे, अब तो खीसे
तक अंदर हाथ
भी नहीं लगाना
पड़ता। इधर हाथ
गया कि अक्षर
खयाल आए कि अब
क्रोध आ रहा है;
बस कोई चीज
एकदम से बीच
में जैसे फ्लाप!
कोई चीज एकदम
से गिर जाती
है।
वासना
सहयोग मांगती
है आपका। निर्वासना
सिर्फ असहयोग मांगती
है। निर्वासना
के लिए कुछ
करना नहीं है, वासना के
लिए जो किया
जा रहा है, वही
भर नहीं करना
है।
तो रिंझाई
ने मुट्ठी
बांध ली उस
आदमी के सामने
और कहा कि देख, यह मुट्ठी
बंधी है, अब
मुझे मुट्ठी
को खोलना है।
मैं क्या करूं?
उस आदमी ने
कहा कि क्या
फिजूल की
बातें पूछते हैं!
बांधिए
मत, मुट्ठी
खुल जाएगी। बांधिए मत!
क्योंकि
बांधना पड़ता
है; बांधना
एक काम है।
खोलना काम
नहीं है।
बांधने में
शक्ति लग रही
है, खोलने में कोई
शक्ति नहीं
लगती। न बांधिए
तो मुट्ठी
खुली रहती है,
बांधिए तो बंधती
है।
वासना
शक्ति मांगती
है; न दीजिए
शक्ति, तो निर्वासना
फलित हो जाती
है।
ऐसा
झंझावात से
मुक्त हुआ
चित्त स्वयं
में प्रतिष्ठित
हो जाता है।
कृष्ण कहते
हैं, हे महाबाहो,
जो स्वयं
में
प्रतिष्ठित
हो जाता है, वह सब कुछ पा
लेता है।
या
निशा सर्वभूतानां
तस्यां जागर्ति
संयमी।
यस्यां
जाग्रति भूतानि
सा निशा पश्यतो
मुनेः।।
६९।।
और हे
अर्जुन, संपूर्ण
भूत प्राणियों
के लिए जो
रात्रि है, उसमें भगवत्ता
को प्राप्त
हुआ संयमी
पुरुष जागता
है। और जिस
नाशवान, क्षणभंगुर
सांसारिक सुख
में सब भूत
प्राणी जागते
हैं, तत्व
को जानने वाले
मुनि के लिए
वह रात्रि है।
जो
सबके लिए
अंधेरी रात है, वह भी
ज्ञानी के लिए,
संयमी के
लिए जागरण का
क्षण है। जो
निद्रा है सबके
लिए, वह भी
ज्ञानी के लिए
जागृति है। यह
महावाक्य
है। यह साधारण
वक्तव्य नहीं
है। यह महावक्तव्य
है। इसके
बहुआयामी
अर्थ हैं।
दोत्तीन आयाम
समझ लेना
जरूरी है।
एक तो
बिलकुल सीधा, जिसको कहना
चाहिए लिटरल
जो अर्थ है, वह भी इसका
अर्थ है।
आमतौर से गीता
पर किए गए र्वात्तिक
उसके तथ्यगत
अर्थ को कभी
भी नहीं लेते
हैं। जो कि
बड़ी ही गलत
बात है। वे
सदा ही उसको मेटाफर
बना लेते हैं।
वह सिर्फ मेटाफर
नहीं है। जब
यह बात कही जा
रही है कि जो
सबके लिए निद्रा
है, वह भी
संयमी और
ज्ञानी के लिए
जागरण है, तो
इसका पहला
अर्थ बिलकुल
शाब्दिक है।
जब आप रात
सोते हैं, तब
भी संयमी नहीं
सोता है।
इसे
पहले समझ लेना
जरूरी है, क्योंकि इसे
कहने की
हिम्मत नहीं जुटाई जा
सकी है आज तक।
सदा उसका अर्थ
मोहरूपी निशा
और और सब
रूपी बातें
कही गई हैं।
इसका पहला
अर्थ बिलकुल
ही तथ्यगत
है।
जब आप
रात सोते हैं, तब भी
ज्ञानी नहीं
सोता है। इसका
क्या मतलब है?
बिस्तर पर
नहीं लेटता
है! इसका क्या
मतलब है? आंख
बंद नहीं करता
है! इसका क्या
मतलब है? रात
विश्राम को
उपलब्ध नहीं
होता है! नहीं,
यह सब करता
है, फिर भी
नहीं सोता है।
दोत्तीन
उदाहरण से इस
बात को समझें।
बुद्ध
ने आनंद को
दीक्षा दी। वह
उनका चचेरा भाई
था और बड़ा भाई
था। तो दीक्षा
लेते वक्त
आनंद ने कहा
कि दीक्षा के
बाद तो तुम
गुरु और मैं
शिष्य हो
जाऊंगा, तो
मैं तुमसे
फिर कुछ कह न सकूंगा।
अभी मैं
तुम्हें
आज्ञा दे सकता
हूं, मैं
तुम्हारा बड़ा
भाई हूं।
दीक्षा लेने
के पहले मैं
तुम्हें
दोत्तीन आज्ञाएं
देता हूं, जो
तुम्हें छोटे
भाई की तरह माननी
पड़ेंगी।
बुद्ध ने कहा,
कहो।
आनंद
ने कहा, एक
तो यह कि मैं
चौबीस घंटे
तुम्हारे साथ
रहूंगा। रात
तुम सोओगे
जहां, वहीं
मैं भी सोऊंगा।
दूसरा यह कि
जब भी मैं कोई
सवाल पूछूं,
तुम्हें
उसी वक्त
उत्तर देना पड़ेगा, टाल
न सकोगे।
तीसरा यह कि
मैं अंधेरी
आधी रात में
भी किसी को मिलाने
ले आऊं, तो
मिलना पड़ेगा,
इनकार न कर सकोगे। तो
ये तीन आज्ञाएं
देता हूं बड़े
भाई की हैसियत
से। फिर
दीक्षा के बाद
तो मैं कुछ कह
न सकूंगा।
तुम्हारी
आज्ञा मेरे
सिर पर होगी।
बुद्ध
ने ये वचन दे
दिए। फिर आनंद
बुद्ध के कमरे
में ही सोता।
दो-चार-दस दिन
में ही बहुत
हैरान हुआ।
क्योंकि
बुद्ध जिस
करवट सोते
हैं--जहां हाथ
रखते हैं, जहां पैर
रखते हैं--रात
में इंचभर
भी हिलाते
नहीं। कभी
करवट भी नहीं
बदलते। हाथ
जहां रखा है, वहीं रखा
रहता है पूरी
रात। पैर जहां
रखा है, वहीं
रखा रहता है
पूरी रात। तो
आनंद ने कहा
कि यह क्या
मामला है! यह कैसी नींद
है!
दो-चार-दस
दिन, रात में
कई बार उठकर
उसने देखा।
देखा कि वही--वही
मुद्रा है, वही आसन है, वही
व्यवस्था
है--सब वही है। दसवें दिन
उसने पूछा कि
एक सवाल उठ
गया है। रात
में सोते हो
या क्या करते
हो? बुद्ध
ने कहा, जब
से अज्ञान
टूटा, तब
से सिर्फ शरीर
सोता है, मैं
नहीं सोता
हूं। तो अगर
करवट, तो
मुझे बदलनी
पड़े, मेरे
बिना सहयोग के
शरीर नहीं बदल
सकता। कोई जरूरत
नहीं बदलने
की। एक ही
करवट से काम
चल जाता है।
तो फकीर आदमी
को जितने से
काम चल जाए, उससे ज्यादा
के उपद्रव में
नहीं पड़ना
चाहिए। ऐसे ही
चल जाता है
काम। हाथ जहां
रखता हूं, वहीं
रखे रहता हूं।
हाथ सो जाता
है, मैं नहीं
सोता हूं।
कृष्ण
कहते हैं, जो सबके लिए
अंधेरी
निद्रा है, वह भी
ज्ञानी के लिए
जागरण है।
आप भी
पूरे नहीं
सोते हैं।
क्योंकि
ज्ञान का कोई
न कोई कोना तो
आप में भी
जागा रहता है।
यहां हम इतने
लोग बैठे हैं, सब सो जाएं, रात कोई
आदमी आकर चिल्लाए,
राम! सबको
सुनाई पड़ेगा,
लेकिन सबको
सुनाई नहीं पड़ेगा।
जिसका नाम राम
है, वह कहेगा,
कौन बुला
रहा है? कान
सबके हैं, सब
सोए हैं। राम
शब्द गूंजा
है, तो
सबको सुनाई
पड़ा है। लेकिन
जो राम है, वह
कहता है, कौन
बुला रहा
है? रात
में कौन गड़बड़
करता है? सोने
नहीं देता!
क्या
हुआ! जरूर
इसके भीतर
चेतना का एक
कोना इस रात
में भी जागा
है; पहरा दे
रहा है।
पहचानता है कि
राम नाम है
अपना।
मां
सोई है रात, तूफान आ जाए
बाहर, आंधी
आ जाए, बादल
गरजें, बिजली चमके,
उसकी नींद
नहीं टूटती।
उसका बच्चा
जरा-सा कुनकुन
करे, वह
फौरन हाथ रख
लेती। भीतर
कोई हिस्सा
जागा हुआ है
मां का, वह
देख रहा है कि
बच्चे को कोई
गड़बड़ न हो
जाए। और बच्चे
की गड़बड़ इतनी
धीमी है कि
मां के एक हिस्से
को जागा ही
रहना होगा।
आकाश
में बिजली
चमकती है, बादल गरजते
हैं, पानी
बरस रहा है, उसका कुछ
सुनाई नहीं
पड़ता उसे।
लेकिन बच्चे की
जरा-सी आवाज, उसका जरा-सा
करवट लेना, उसकी
धीमी-सी पुकार
उसे तत्काल
जगा देती है।
एक हिस्सा
उसका भी जागा
हुआ है। पर एक
हिस्सा! जरूरत
के वक्त, इमरजेंसी मेजर है वह
हमारा।
साधारणतः
हमारी पूरी
चेतना डूबी
रहती है
अंधेरे में।
कृष्ण
कहते हैं, ज्ञानी
पुरुष नींद
में भी जागा
रहता है। पहला
अर्थ, पहले
आयाम का अर्थ,
वास्तविक
निद्रा में भी
जागरण है।
और मैं
आपसे कहता हूं
कि यह बहुत
कठिन नहीं है।
जो आदमी दिन
के जागते
हिस्से में
बारह घंटे जागा
हुआ जीएगा, वह रात में
जागा हुआ सोता
है। आप रास्ते
पर चल रहे हैं,
जागकर चलें। आप
खाना खा रहे
हैं, जागकर खाएं।
आप किसी से
बात कर रहे
हैं, जागकर बोलें।
सुन रहे हैं, जागकर सुनें।
यह नींद-नींद,
स्लीपी-स्लीपी न हो। यह सब
ऐसे ही चल रहा
है।
एक
आदमी खाना खा
रहा है। हमें
लगता है कि
नींद में कैसे
खाना खा सकता
है! लेकिन
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
सब लोग नींद
में खाना खा
रहे हैं।
इमरसन
एक बड़ा विचारक
हुआ। सुबह
बैठा है। उसकी
नौकरानी
नाश्ता रख गई।
किताब में
उलझा है, तो
नौकरानी ने
बाधा नहीं दी।
किताब से छूटेगा,
तो नाश्ता
कर लेगा।
उसका
एक मित्र
मिलने आया है।
वह किताब में
डूबा है।
नाश्ता पास
है। मित्र ने
सोचा, इससे
बात पीछे कर
लेंगे, पहले
नाश्ता कर
लें। मित्र ने
नाश्ता कर
लिया, प्लेट
खाली करके बगल
में सरका दी।
फिर इमरसन
ने कहा, अरे
कब आए? मित्र
को देखा, खाली
प्लेट को देखा
और कहा कि जरा
देर से आए, मैं
नाश्ता कर
चुका हूं।
इस
आदमी ने कभी जागकर
नाश्ता किया
होगा? नहीं,
हमने भी
नहीं किया है।
एक रूटीन
है, जिसको
हम नींद में
भी कर लेते
हैं। आदमी
साइकिल चलाता
है। पैर
साइकिल चलाते
रहते हैं, आदमी
भीतर कुछ और
चलाता रहता
है। चलता चला
जाता है। नींद
है।
सड़क के
किनारे खड़े हो
जाएं, लोगों
को जरा चलते
देखें। कोई
बातचीत करता
दिखाई पड़ेगा
किसी से, जो
मौजूद नहीं
है। किसी के
ओंठ हिल रहे
हैं। कोई हाथ
से किसी को झिड़क
रहा है। कोई
इशारा कर रहा
है। आप बहुत
हैरान होंगे
कि किससे
हो रहा है यह
सब! नींद, नींद
में चल रहे
हैं। जब हम
जागे हुए भी
सोए हैं, तो
सोए हुए जागना
बहुत मुश्किल
है।
इसलिए
मैं कहता हूं
कि जिन लोगों
ने गीता के इस महावाक्य
पर वक्तव्य
दिए हैं, उनको
खुद का कोई
अनुभव नहीं
है। अन्यथा यह
पहला वक्तव्य
चूक नहीं सकता
था। उनको साफ
पता नहीं है
कि नींद में
जागा हुआ हुआ
जा सकता है।
लेकिन जागे
हुए ही सोए
हुए आदमियों
को नींद में जागने का
खयाल भी नहीं
उठ सकता है! तो
वे इसका मेटाफोरिकल
अर्थ करते
हैं। वह अर्थ
ठीक नहीं है।
जो
आदमी दिन में जागकर
चलेगा, उठेगा,
बैठेगा,
वह रात में
भी जागा हुआ सोएगा।
महावीर
ने कहा
है--अजीब बात
कही
है--महावीर ने
कहा है, साधुओ! जागकर
चलना, जागकर उठना, जागकर बैठना। सब
ठीक है। लेकिन
आखिर में
महावीर कहते
हैं, जागकर सोना।
पागलपन की
बातें कर रहे
हैं! तो फिर सोएंगे
काहे के लिए! जागकर
सोना, जागते
रहना और देखना
कि नींद कब
आई।
आप
कितनी दफे
सोए हैं, कभी
नींद को आते
देखा? जिंदगीभर सोए, रोज
सोए। आदमी साठ
साल जीता है, तो बीस साल
सोता है। आठ
घंटे सोए अगर,
तो बीस साल
सोने में चले
जाते हैं।
जिंदगी का एक
तिहाई सोते
हैं। बीस साल सोकर भी
कभी आपको पता
है, नींद
कब आती है? कैसे
आती है? नींद
क्या है?
कैसा
अदभुत है यह
मामला! बीस
साल जिस अनुभव
से गुजरते हैं, उस अनुभव की
कोई भी पहचान
नहीं है! रोज
सोते हैं।
लेकिन कोई
आपसे पूछे कि
नींद क्या है?
व्हाट इज़ दि
स्लीप? कैसे आती है?
आते वक्त
क्या उसकी शकल
है, क्या
उसका रूप है? कैसे उतरती
है? जैसे
सांझ उतरती है
अंधकार की, सूरज डूबता
है, ऐसा
आपके भीतर
क्या उतरता है
नींद में?
आप कहेंगे
कि कुछ पता
नहीं है।
क्योंकि जब तक
जागे रहते हैं, तब तक नींद
नहीं आती। जब
नींद आ जाती
है, उसके
पहले तो सो गए
होते हैं।
सुबह
उठते हैं रोज।
कभी देखा है
कि नींद का टूटना
क्या है, फिनामिनल?
नींद कैसे
टूटती है? क्या
होता है नींद
के टूटने
में?
आप
कहते हैं, कुछ पता
नहीं। जब तक
नींद नहीं
टूटती, तब
तक हम नहीं
होते। जब नींद
टूट जाती है, तब टूट ही
चुकी होती है।
कोई हमें पता
नहीं।
कृष्ण
कह रहे हैं, ज्ञानी जागकर
सोता है।
और जिस
व्यक्ति ने
अपनी नींद को जागकर देख
लिया, वही
व्यक्ति अपनी
मृत्यु को भी जागकर देख
सकता है, अन्यथा
नहीं देख सकता
है। इसलिए इस
सूत्र को मैं महावाक्य कहता
हूं।
मौत तो
कल आएगी, नींद
तो आज ही
आएगी। रात
नींद को देखते
हुए सोएं।
आज, कल, महीना,
दो महीना, तीन महीना--
रोज सोते वक्त
एक ही
प्रार्थना मन में,
एक ही भाव
मन में आए कि
उसे मैं देखूं।
जागे रहें, जागे रहें, जागे रहें।
देखते रहें, देखते रहें।
आज चूकेंगे,
कल चूकेंगे,
परसों चूकेंगे।
महीना, दो
महीना, तीन
महीना--अचानक
किसी दिन आप
पाएंगे कि
नींद उतर रही
है और आप देख
रहे हैं। और
जिस दिन आप नींद
को उतरते देख
लेंगे, उस
दिन कृष्ण का
यह महावाक्य
समझ में आएगा;
उसके पहले
समझ में नहीं
आ सकता है। यह
इसका वास्तविक
अर्थ है।
इसका
जो मेटाफोरिकल
अर्थ है, वह
भी आपसे कहूं।
वह भी है, लेकिन
वह नंबर दो का
मूल्य है
उसका। नंबर एक
का मूल्य इसी
का है। वह भी
है। लेकिन वह
तो और बहुत-सी
बातों में भी
कह दिया गया
है। उसको कहने
के लिए इस
वाक्य को कहने
की कोई भी
जरूरत न थी। वह
दूसरा जो
मोह-निशा, उसकी
तो बहुत चर्चा
हो गई। वह जो
विषयों की नींद
है, वह जो
वासना की नींद
है, तो
उसकी तो काफी
चर्चा हो गई
है।
और
कृष्ण जैसे
लोग एक शब्द
भी व्यर्थ
नहीं बोलते
हैं। एक शब्द
पुनरुक्त
नहीं करते
हैं। अगर पुनरुक्ति
दिखती हो, तो आपकी समझ
में भूल और
गलती होती है।
कृष्ण जैसे
लोग, दे
नेवर रिपीट।
क्योंकि रिपीट
का कोई सवाल
नहीं है।
दोहराने की
कोई जरूरत नहीं
है।
क्या
आपको पता है
कि कौन लोग
दोहराते हैं!
सिर्फ वे ही
लोग दोहराते
हैं, जिनमें
आत्मविश्वास
की कमी होती
है। दूसरा
आदमी नहीं
दोहराता।
जिसने एक बात
पूरे विश्वास
से कह दी पूरी
तरह जानकर,
बात खत्म हो
गई।
तो
कृष्ण दोहरा
नहीं सकते।
इसलिए मैं
कहता हूं कि
जो आम
व्याख्या की
गई है कि जहां
कामी आदमी कामवासना
में, मोह-निद्रा
में, विषयों
की नींद में, अंधेरे में
डूबा रहता है,
वहां संयमी
आदमी जागा
रहता है। इसको
दोहराने के
लिए इस वाक्य
की बहुत जरूरत
नहीं है।
लेकिन वह अर्थ
करें, तो
बुरा नहीं है।
लेकिन पहला
अर्थ पहले समझ
लें।
हां, दूसरा अर्थ
है। एक तंद्रा
का घेरा, कहना
चाहिए एक हिप्नोटिक
ऑरा, हमारे
व्यक्तित्व
में अटका हुआ
है। जब आप चलते
हैं, तो
आपके चारों
तरफ नींद का
एक घेरा चलता
है। जब जागा
हुआ पुरुष
चलता है, तब
उसके पास भी
चारों तरफ एक
जागरण का एक
घेरा चलता है।
यह जो हमने फकीरों--नानक
और कबीर और
राम और कृष्ण
और बुद्ध और
महावीर के
आस-पास, उनके
चेहरे के पास
एक गोल घेरा
बनाया है, यह
फोटोग्राफिक
ट्रिक
नहीं है। यह
सिर्फ एक मिथ
नहीं है। जागे
हुए व्यक्ति
के आस-पास
प्रकाश का एक
उज्ज्वल घेरा
चलता है।
और जो
लोग भी अपने
भीतर के
प्रकाश को
देखने में
समर्थ होते
हैं, वे दूसरे
के ऑरा को
भी देखने में
समर्थ हो जाते
हैं। जिन लोगों
को भीतर अपने
प्रकाश दिखाई पड़ने लगता
है, वे उस
आदमी के चेहरे
के आस-पास प्रकाश
के गोल घेरे
को तत्काल देख
लेते हैं। हां,
आपको नहीं
दिखता, क्योंकि
आपको उस तरह
के सूक्ष्म
प्रकाश का कोई
भी अनुभव नहीं
है।
तो
जैसे महावीर
और बुद्ध और
कृष्ण के
चेहरे के
आस-पास एक गोल
वर्तुल चलता
है जागरण का, रोशनी का, ऐसे ही हम सब
सोए हुए
आदमियों के
आस-पास एक गोल
वर्तुल चलता
है अंधकार का,
निद्रा का।
वह भी आपको
दिखाई नहीं पड़ेगा।
क्योंकि उसका
पता भी तब
चलेगा, जब
प्रकाश दिखाई
पड़े। तब आपको
पता चलेगा कि जिंदगीभर
एक अंधेरे का
गोल घेरा भी
आपके पास चलता
था। पता तो
पहले प्रकाश
का चलेगा, तभी
अंधकार का बोध
होगा। उसके
साथ ही हम
पैदा होते
हैं। उससे
इतने निकट और परिचित
होते हैं कि
वह दिखाई नहीं
पड़ता।
लेकिन
मैं देखता हूं
कि रास्ते पर
दो आदमी चल रहे
हों, तो दोनों
के पास का
चलने वाला
घेरा अलग होता
है।
रंगों-रंगों
के फर्क होते
हैं, शेड के फर्क
होते हैं।
अंधेरे और
सफेदी के बीच
में बहुत से ग्रे कलर
होते हैं।
लेकिन
साधारणतः सोए
आदमी के पास, सौ में से निन्यानबे
आदमियों के
पास नींद का
एक वर्तुल
चलता है, एक
स्लीपी
वर्तुल चलता
है। वैसा आदमी
जहां जाता है,
उसके साथ
उसकी नींद भी
जाती है। वह
जो भी छूता है,
उसे नींद
में छूता है।
वह जो भी करता
है, उसे
नींद में करता
है। वह जो भी
बोलता है, नींद
में बोलता है।
कभी
आपने सोचा है
कि आप अपने वक्तव्यों
के लिए कितनी
बार नहीं पछताए
हैं! पछताए
हैं। लेकिन
कभी आपको पता
है कि आपने ही बोला
था--होश में!
पति घर
आया है और एक
शब्द पत्नी
बोल गई है और
कलह शुरू हो
गई है। और वह
जानती है कि
यह शब्द रोका
जा सकता था।
क्योंकि यह
शब्द पचीस
दफे बोला
जा चुका है और
इस शब्द के
आस-पास इसी
तरह की कलह पचीस
बार हो चुकी
है। फिर यह आज
क्यों बोला
गया? नींद में
बोल गई, फिर
बोल गई। कल
फिर बोलेगी,
परसों फिर बोलेगी।
वह नींद चलेगी।
वह रोज वही बोलेगी
और रोज वही
होगा। पति भी
रोज वही उत्तर
देगा।
अगर एक
पति-पत्नी को
सात दिन ठीक
से देख लिया जाए, तो उनकी पिछली
जिंदगी और आगे
की सारी
जिंदगी की कथा
लिखी जा
सकती है कि
पीछे क्या हुआ
और आगे क्या
होगा।
क्योंकि यही
होगा। इसकी
पुनरुक्ति
होती रहेगी।
ये
नींद में चलते
हुए लोग--वही
क्रोध, वही
काम, वही
सब, वही
दुख, वही
पीड़ा, वही
चिंता--सब
वही। रोज उठते
हैं और वही
दोहराते हैं।
जैसे सब तय है,
बंधी हुई
मशीन की तरह।
बस, रोज
अपनी मशीन पर
जम जाते हैं
और फिर
दोहराते हैं।
यह
नींद है। यह
कृष्ण का
दूसरा अर्थ
है। जागा हुआ
पुरुष जो भी
करता है, वह
नींद में करने
वाले आदमी
जैसा उसका
व्यवहार नहीं
है।
क्या
फर्क पड़ेगा
उसके व्यवहार
में? तो
उन्होंने
इंगित दिए हैं
कि नींद से
भरा हुआ आदमी
मैं के और
अहंकार के
आस-पास जीएगा।
उसका सब कुछ
अहंकार से भरा
होगा।
कभी
आपने खयाल
किया है, आईने
के सामने खड़े
होकर जो
तैयारी आप कर
रहे हैं, वह
आपकी तैयारी
है कि अहंकार
की तैयारी है! किसकी
तैयारी कर रहे
हैं? अहंकार
की तैयारी कर
रहे हैं। बाहर
निकलते हैं, तो झाड़-झूड़
के साफ, रीढ़
सीधी कर लेते
हैं। आंखें
तेज हो जाती
हैं। या तो
सुरक्षा में
लग जाते हैं
या आक्रमण में
लग जाते हैं।
चल पड़े, नींद
वाला आदमी
निकला घर से
बाहर, उपद्रव
संभावित है, कि कुछ होगा
अब। अब यह कुछ
न कुछ करेगा।
और सारे लोग
अपने घरों के
बाहर निकल रहे
हैं। ये कुछ न
कुछ करेंगे।
अमेरिका
में अभी कार
के एक्सिडेंट्स
का जो सर्वे
हुआ है, उससे
पता चला है कि
पचहत्तर
प्रतिशत कार
की दुर्घटनाएं
भौतिक नहीं, मानसिक
घटनाएं हैं।
पागलपन की बात
मालूम होती है
न! कार की
दुर्घटना और
मानसिक! कार
का भी कोई माइंड
है, कार का
भी कोई मन है
कि कार भी कोई
मन से दुर्घटना
करती है! कार
का नहीं है, ड्राइवर का
है, वह जो
सारथी बैठे
रहते हैं
भीतर।
कभी
आपको पता है
कि जब आप
क्रोध में
होते हैं, तो कार का एक्सेलेरेटर
जोर से दबता
है--नींद में, होश में
नहीं। जल्दी
आपको कहीं
पहुंचना नहीं है।
लेकिन चित्त
क्रोध से भरा
है। किसी चीज
को दबाना
चाहता है।
इसकी फिक्र
नहीं कि किसको
दबा रहे हैं। एक्सेलेरेटर
को ही दबा रहे
हैं। अब एक्सेलेरेटर
से कोई झगड़ा
नहीं है। अब एक्सेलेरेटर
को दबाइएगा
क्रोध में, तो खतरा
पक्का है।
क्योंकि एक तो
नींद में दबाया
जा रहा है।
आपको पता ही
नहीं है कि
क्यों दबा रहे
हैं एक्सेलेरेटर
को। पता होना
चाहिए कि
क्यों दबा रहे
हैं, कहां
दबा रहे हैं, कितनी भीड़
है, कितने
लोग हैं, कितनी
कारें दौड़ रही
हैं। आपको कुछ
पता नहीं है।
आप एक्सेलेरेटर
को नहीं दबा
रहे हैं। कोई
अपनी पत्नी के
सिर पर पैर
दबा रहा है, कोई अपने
बेटे के, कोई
अपने बाप के, कोई अपने
मालिक के। पता
नहीं वह एक्सेलेरेटर
किन-किन के
लिए काम कर
रहा है। पता
नहीं कौन एक्सेलेरेटर
उस वक्त बना
हुआ है। दबाए
जा रहे हैं।
अब यह आदमी जो
नींद में एक्सेलेरेटर
दबा रहा है, इस आदमी को
सड़क दिखाई पड़
रही होगी!
इसकी
हालत ठीक वैसी
है, मैंने
सुना है, वर्षा
हो रही है और
एक आदमी अपनी
कार चला रहा है।
जोर से वर्षा
हो रही है, लेकिन
वह आदमी वाइपर
नहीं चला रहा
है कार के। तो
उसकी पत्नी
उससे कहती है,
क्या कर रहे
हो! जैसा कि पत्नियां
आमतौर से
ड्राइवर को
गाइड करती
रहती हैं। पति
चलाता है, पत्नियां चलवाती
हैं। वे पूरे
वक्त बताती
रहती हैं कि यह
करो, यह
करो।
पूछा, क्यों नहीं
चला रहे हैं वाइपर? तो
उसने कहा, कोई
फायदा नहीं है,
क्योंकि
चश्मा तो मैं
घर ही भूल आया
हूं। वैसे ही
नहीं दिखाई पड़
रहा है कुछ।
पानी गिर रहा
है कि नहीं
गिर रहा है, इससे क्या
मतलब है!
अब यह
जो आदमी है, वह जो एक्सेलेरेटर
को क्रोध में
दबा रहा है, वह भी अंधा
है। उसको भी
कुछ नहीं
दिखाई पड़ रहा
है कि बाहर
क्या हो रहा
है। पचहत्तर
प्रतिशत दुर्घटनाएं
मानसिक
घटनाएं हैं।
यह नींद है।
इस
नींद में हम
उलटा भी करते
हैं। वह तीसरा
आयाम है। फिर
हम आगे बढ़ें।
एक
तीसरा अर्थ भी
है; नींद का
कृत्य हमेशा,
जो आप करते
हैं और जो
होता है, उसका
आपको कोई खयाल
नहीं होता। जो
आप करते हैं, उससे ही
होता है।
लेकिन जब होता
है, तब आप
पछताते हैं कि
यह कैसे हो
गया! क्योंकि
हमने तो यह
कभी न किया
था।
एक
स्त्री सज
रही है, आईने
के सामने सज
रही है। अब
उसे पता नहीं
है कि सजकर
वह क्या कर
रही है। मैं सज रही हूं
और कुछ भी
नहीं कर रही!
लेकिन वह सज-धजकर
सड़क पर आ गई
है। उसने
चुस्त कपड़े
पहन रखे हैं। अब
उसको पता नहीं
कि वह धक्का
निमंत्रित कर
रही है। कोई
आदमी धक्का मारेगा।
जब वह धक्का मारेगा, तब वह कहेगी
कि बहुत
ज्यादती हो
रही है। वह
स्त्री कहेगी,
बहुत
ज्यादती हो
रही है, अन्याय
हो रहा है, अनीति
हो रही है।
लेकिन सब
तैयारी करके
आई है वह। पर
वह तैयारी
नींद में की
गई थी, उसे
कोई काज-इफेक्ट
दिखाई नहीं
पड़ता कि ये
इतने चुस्त
कपड़े, इतने
बेढंगे
कपड़े, इतनी
सजावट किसी को
भी धक्का
मारने के लिए
निमंत्रण है।
और बड़े
मजे की बात है, अगर उसको
कोई धक्का न
दे और कोई न
देखे, तो
भी दुखी लौटेगी
कि बेकार गई, सब मेहनत
बेकार गई।
किसी ने देखा
ही नहीं! सड़क पर
कोई इसे न
देखे, कोई
इसको ले ही न, कोई अटेंशन
न दे, तो यह
ज्यादा दुखी लौटेगी।
धक्का दे, तो
भी दुखी लौटेगी।
क्या हो रहा
है यह!
मैंने
सुना है कि एक
बच्चे ने अपने
बाप को खबर दी
कि मैंने पांच
मक्खियां
मार डाली हैं।
उसके बाप ने
कहा, अरे! और
उसने कहा कि
तीन नर थे, दो
मादाएं
थीं। उसके बाप
ने कहा कि हद
कर रहा है, तूने
कैसे पता
लगाया? तो
उसने कहा कि
दो मक्खियां
आईने-आईने पर
ही बैठती थीं।
समझ गया कि
स्त्रियां होनीं
चाहिए!
यह जो
नींद में सब
चल रहा है, इसमें हम ही
कारण होते हैं
और जब कार्य
आता है, तब
हम चौंककर
खड़े हो जाते
हैं कि यह
मैंने नहीं
किया! अगर हम नींद
में न हों, तो
हम फौरन समझ
जाएंगे, यह
मेरा किया हुआ
है। यह धक्का
मेरा बुलाया
हुआ है। यह
धक्का ऐसे ही
नहीं आ गया
है। इस जगत
में कुछ भी
आकस्मिक नहीं
है, एक्सिडेंटल नहीं है। सब
चीजों की हम
व्यवस्था
करते हैं। लेकिन
फिर व्यवस्था
जब पूरी हो
जाती है, तब
पछताते हैं कि
यह क्या हो
गया! यह क्या
हो रहा है?
यह भी
नींद का अर्थ
है। संयमी, ज्ञानी इस
भांति कभी
नहीं सोता; जागा ही
रहता है।
स्वभावतः, जागकर वह वैसा
व्यवहार नहीं
करता, जैसा
सोया आदमी
करता है। उसका
मैं कभी
केंद्र में
नहीं होता।
मैं सदा नींद
के ही केंद्र
में होता है।
समझ लें कि
नींद का
केंद्र मैं
है। न-मैं, ईगोलेसनेस,
निरअहंकार भाव, जागरण
का केंद्र है।
यह बड़े
मजे की बात
है। इसको अगर
हम ऐसा कहें
तो बिलकुल कह
सकते हैं कि
सोया हुआ आदमी
ही होता है, जागा हुआ
आदमी होता
नहीं। यह बड़ा
उलटा वक्तव्य लगेगा।
सोया हुआ आदमी
ही होता
है--मैं। जागा
हुआ आदमी नहीं
होता
है--न-मैं।
जागरण आदमी के
अहंकार का
विसर्जन है।
निद्रा आदमी
के अहंकार का
संग्रहण है, कनसनटे्रशन है, केंद्रीकरण
है।
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति
यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति
सर्वे
स शान्तिमाप्नोति
न कामकामी।।
७०।।
और
जैसे सब ओर से
परिपूर्ण अचल
प्रतिष्ठा
वाले समुद्र
में नाना नदियों
के जल उसको चलायमान
न करते हुए ही
समा जाते हैं, वैसे ही जिस
स्थितप्रज्ञ
पुरुष के
प्रति संपूर्ण
भोग किसी
प्रकार का
विकार
उत्पन्न किए बिना
ही समा जाते
हैं, वह
पुरुष परमशांति
को प्राप्त
होता है,
न कि
भोगों को
चाहने वाला।
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति
निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः
स शान्तिमधिगच्छति।।
७१।।
क्योंकि, जो पुरुष
संपूर्ण कामनाओं
को त्यागकर
ममतारहित और
अहंकाररहित, स्पृहारहित हुआ बर्तता
है,
वह
शांति को
प्राप्त होता
है।
एषा
ब्राह्मी स्थितिः
पार्थ नैनां
प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।
७२।।
हे
अर्जुन, यह
ब्रह्म को
प्राप्त हुए
पुरुष की
ब्राह्मी-स्थिति
है। इसको
प्राप्त होकर
वह मोहित नहीं
होता है
और
अंतकाल में भी
इस निष्ठा में
स्थिर होकर
ब्रह्म-निर्वाण
को प्राप्त हो
जाता है।
हे
पार्थ! जैसे
महासागर
अनंत-अनंत नदियों
को भी अपने
में समाकर
जरा भी
मर्यादा नहीं
खोता, इंचभर भी
परिवर्तित
नहीं होता; जैसे कुछ समाया
ही नहीं उसमें,
ऐसा ही होता
है। जैसा पहले
था हजारों नदियों
के गिरने के, ऐसा ही बाद
में होता है।
ऐसे ही जो
व्यक्ति जीवन
के समस्त भोग
अपरिवर्तित
रूप से, भोगने के पहले
जैसा था, भोगने
के बाद भी
वैसा ही होता
है। जैसे कि
भोगा ही न हो, अर्थात जो
भोगते हुए भी
न-भोगा बना
रहता है, जो
भोगते हुए भी
भोक्ता नहीं बनता है, जिसमें कोई
भी अंतर नहीं
आता है, जो
जैसा था वैसा
ही है; नहीं
होता, तो
जैसा होता, होकर भी
वैसा ही है।
ऐसा व्यक्ति
मुक्ति को, ब्राह्मी-स्थिति
को उपलब्ध हो
जाता है।
कृष्ण
कहते हैं, हे पार्थ!
तेरी मुक्ति
की
जिज्ञासा...।
बड़ी
मजे की बात
कहते हैं।
क्योंकि
अर्जुन ने जिज्ञासा
मुक्ति की
नहीं की थी।
अर्जुन ने जिज्ञासा
मुक्ति की
नहीं की थी, अर्जुन ने
जिज्ञासा
सिर्फ युद्ध
से बचने की की
थी। लेकिन कृष्ण
कहते हैं, हे
पार्थ! तेरी
मुक्ति की
जिज्ञासा, तेरे
मोक्ष की खोज
के लिए तुझे
यह बताता हूं।
अर्जुन
ने नहीं की थी
मुक्ति की
जिज्ञासा, लेकिन
अर्जुन ने जो
भी जिज्ञासा
की थी, कृष्ण
ने उसे इस बीच
मुक्ति की
जिज्ञासा में
रूपांतरित
किया है। इस
पूरी यात्रा
में कृष्ण ने
अर्जुन की
जिज्ञासा को
भी रूपांतरित किया
है। धीरे-धीरे
युद्ध गौण हो
गया है। धीरे-धीरे
युद्ध रहा ही
नहीं है। बहुत
देर हो गई, जब
से युद्ध की
बात समाप्त हो
गई है। बहुत
देर हो गई, जब
से अर्जुन भी
और हो गया है।
अर्जुन
शब्द का अर्थ
होता है, दैट व्हिच इज़ नाट स्ट्रेट।
ऋजु से बनता
है वह शब्द।
ऋजु का मतलब
होता है, सीधा-सरल।
अर्जुन का
मतलब होता है,
तिरछा-इरछा।
अर्जुन का
मतलब होता है,
आड़ा-तिरछा।
अर्जुन
सीधा-सादा
नहीं है, बहुत
आड़ा-तिरछा
है। विचार
करने वाले सभी
लोग आड़े-तिरछे
होते हैं। निर्विचार
ही सीधा होता
है।
अर्जुन
की जिज्ञासा
को कृष्ण ने
बहुत
रूपांतरित
किया है, ट्रांसफार्म किया है। और
ध्यान रहे, साधारणतः
मनुष्य धर्म
की जिज्ञासा
शुरू नहीं
करता, साधारणतः
मनुष्य
जिज्ञासा तो
संसार की ही
शुरू करता है।
लेकिन उसकी
जिज्ञासा को
संसार से मुक्ति
और मोक्ष की
तरफ
रूपांतरित किया
जा सकता है।
क्यों? इसलिए
नहीं कि कृष्ण
कर सकते हैं, बल्कि इसलिए
कि संसार की
जिज्ञासा
करने वाला मनुष्य
भी जानता नहीं
कि क्या कर
रहा है। उसकी
गहरी और मौलिक
जिज्ञासा सदा
ही मुक्ति की
होती है।
जब कोई
धन खोजता है, तब भी बहुत
गहरे में वैसा
व्यक्ति
आंतरिक दरिद्रता
को मिटाने की
चेष्टा में रत
होता है--गलत
चीज से, लेकिन
चेष्टा उसकी
यही होती है
कि दरिद्र न
रह जाऊं, दिवालिया
न रह जाऊं। जब
कोई आदमी पद
खोजता है, तब
भी उसकी भीतरी
कोशिश, आत्महीनता न रह जाए, उसी
की होती
है--गलत जगह
खोजता है। जब
कोई आदमी युद्ध
से भागना चाहता
है, तब भी
वह युद्ध से
नहीं भागना
चाहता, बहुत
गहरे में
संताप से, एंग्विश से, चिंता
से ऊपर उठना
चाहता है।
लेकिन फिर भी
वह ठीक दिशा
में नहीं
पहुंचता।
इस बात
को कहकर
कृष्ण बहुत
गहरा इंगित दे
रहे हैं। वे
कह रहे हैं, हे अर्जुन, तेरी मुक्ति
की जिज्ञासा
के लिए मैंने
यह सब कहा।
अगर तू
महासागर जैसा
हो जाए, जहां
सब आए और सब
जाए, लेकिन
तुझे छुए
भी नहीं, स्पर्श
भी न करे, अनटच्ड, अस्पर्शित,
तू पीछे
वैसा ही रह
जाए जैसा था, तो तू
ब्राह्मी-स्थिति
को उपलब्ध हो
जाता है। ब्राह्मी-स्थिति
अर्थात तब तू
नहीं रह जाता
और ब्रह्म ही
रह जाता है।
और
जहां मैं नहीं
रह जाता, ब्रह्म
ही रह जाता है,
वहां फिर
कोई चिंता
नहीं, क्योंकि
सभी चिंताएं
मैं के साथ
हैं। जहां मैं
नहीं रह जाता
और ब्रह्म ही
रह जाता है, वहां कोई
दुख नहीं है, क्योंकि सब
दुख मैं की उत्पत्तियां
हैं। और जहां
मैं नहीं रह
जाता और
ब्रह्म ही रह
जाता है, वहां
कोई मृत्यु
नहीं, क्योंकि
मैं ही मरता
है, जन्म
लेता है।
ब्रह्म की न
कोई मृत्यु है,
न कोई जन्म
है। वह है।
ऐसा
कृष्ण ने इस
दूसरे अध्याय
की चर्चा में, जिसे गीताकार
सांख्ययोग
कह रहा है, पहले
अध्याय को कहा
था विषादयोग,
दूसरे अध्याय
को कह रहा है सांख्ययोग।
विषाद के बाद
एकदम सांख्य!
कहां विषाद से
घिरा चित्त
अर्जुन का और
कहां
ब्राह्मी-स्थिति
अनंत आनंद से
भरी हुई! इस
संबंध में एक
बात, फिर
मैं अपनी बात
पूरी करूं।
धन्य
हैं वे, जो
अर्जुन के
विषाद को
उपलब्ध हो
जाएं। क्योंकि
उतने विषाद
में से ही
ब्राह्मी-स्थिति
तक के शिखर तक
उठने की चुनौती
उत्पन्न होती
है। कृष्ण ने
अर्जुन के विषाद
को ठीक से पकड़
लिया।
अगर
अर्जुन किसी
मनोवैज्ञानिक
के पास गया होता, तो
मनोवैज्ञानिक
क्या करता!
चूंकि मैंने
यह कहा कि
कृष्ण का यह
पूरा शास्त्र
एक साइकोलाजी
है, इसलिए
मैं यह भी अंत
में आपसे कह
दूं, अगर
मनोवैज्ञानिक
के पास अर्जुन
गया होता, तो
मनोवैज्ञानिक
क्या करता!
मनोवैज्ञानिक
अर्जुन को एडजस्ट
करता।
मनोवैज्ञानिक
कहता कि समायोजित
हो जा। ऐसा तो
युद्ध में
होता ही है, सभी को ऐसी
चिंता पैदा
होती है। यह
बिलकुल स्वाभाविक
है। तू नाहक
की एबनार्मल
बातों में पड़
रहा है। तू
व्यर्थ की
विक्षिप्त
बातों में पड़
रहा है। ऐसे
पागल हो जाएगा,
न्यूरोसिस हो जाएगी।
अर्जुन नहीं
मानता, तो
वह कहता कि तू
फिर इलेक्ट्रिक
शॉक ले ले;
इंसुलिन के
इंजेक्शन ले ले।
लेकिन
कृष्ण ने उसके
विषाद का क्रिएटिव
उपयोग किया।
उसके विषाद को
स्वीकार किया
कि ठीक है। अब
इस विषाद को
हम ऊपर ले
चलते हैं। हम
तुझे विषाद के
लिए राजी न
करेंगे। हम
विषाद का ही
उपयोग करके
तुझे ऊपर ले
जाएंगे।
असल
में ज्ञान सदा
ही अभिशाप को
वरदान बना लेता
है। अभिशाप को
वरदान न बनाया
जा सके, तो
वह ज्ञान
नहीं। अर्जुन
के लिए जो
अभिशाप जैसा
फलित हुआ था, कृष्ण ने
उसे वरदान
बनाने की पूरी
चेष्टा की है।
उसके दुख का
भी सृजनात्मक
उपयोग किया
है।
इसलिए
मैं यह कहता
हूं कि भविष्य
का जो मनोविज्ञान
होगा, वह
सिर्फ मरीज को
किसी तरह
मरीजों के
समाज में रहने
योग्य नहीं बनाएगा, बल्कि मरीज
की यह जो
बेचैन स्थिति
है, इस
बेचैन स्थिति
को मरीज की
पूरी आत्मा के
रूपांतरण के
लिए उपयोग
करेगा। वह क्रिएटिव
साइकोलाजी
होगी।
इसलिए
कृष्ण का
मनोविज्ञान
साधारण
मनोविज्ञान
नहीं, सृजनात्मक
मनोविज्ञान
है। यहां हम कोयले को
हीरा बनाने की
कोशिश करते हैं;
यह अल्केमी
है। जैसा अल्केमिस्ट
कहते रहे हैं
कि हम लोअर
बेस मेटल
को--सस्ती और
साधारण
धातुओं
को--सोना
बनाते हैं।
पता नहीं
उन्होंने कभी
बनाया या नहीं
बनाया। लेकिन
यहां अर्जुन
बड़े बेस मेटल
की तरह कृष्ण
के हाथ में
आया था, कोयले की तरह, उस
कोयले को
हीरा बनाने की
उन्होंने बड़ी
कोशिश की।
धन्य
हैं वे, जो
अर्जुन के
विषाद को
उपलब्ध होते
हैं। क्योंकि
उनकी ही
धन्यता
ब्राह्मी-स्थिति
तक पहुंचने की
भी हो सकती
है।
मेरी
बातों को इतने
प्रेम और आनंद
से सुना, इससे
बहुत
अनुगृहीत हूं
और अंत में
सबके भीतर बैठे
परमात्मा को
प्रणाम करता
हूं।
मेरे
प्रणाम
स्वीकार
करें।
THANK YOU GURUJI
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