कन थोरे कांकर घने-(संत मलूकदास)
परमात्मा को रिझाना है
श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रात; दिनांक 13 मई, 1977;
सारसूत्र:
ना वह रिझै जप तप कीन्हें, ना आतम को जारे।
ना वह रीझै धोती टांगे, ना काया के पखारे।।
दया करै धरम मन राखै, घर में रहै उदासी।
अपना सा दुःख सब का जाने, ताहि मिलें अविनासी।।
सहै कुसब्द बादहू त्यागे, छांड़ै गर्व-गुमाना।
यही रीझ मेरे निरंकार की, कहत मलूक दिवाना।।
राम कहो, राम कहो, राम कहो बावरत।
अचसर न चूक भोंदू, पायो भला दांव रे।।
जिन तोको तन दीन्हों, ताको न भजन कीन्हों।
जनम सिरानो जात तेरो, लोहे कैसो ताव रे।।
राम जी के गाव गाव, राम जी के तू रिझाव।
राम जी के चरन कमल, चित्त मांहि लाव रे।।
कहत मलूकदास, छोड़ दे तैं झूठी आस।
आनंद मगन होइके तैं हरिगुन गाव रे।
राम कहो, राम कहो, राम कहो बावरे।
बाबा
मलूकदास भक्त हैं--ज्ञानी नहीं; प्रेमी
हैं--ध्यानी नहीं। सत्य को उन्होंने हृदय के माध्यम से, हृदय के द्वारा जाना है।
जीवन
के सत्य को पहचानने की दो व्यवस्थाएं हैं: एक बुद्धि का जागरण हो; सोयी हुई चेतना जागे--बुद्ध
का मार्ग। मस्तिष्क के विकार दूर हों, विचार दूर हों; बुद्धि निर्मल बने--दर्पण
बने। वैसे सत्य यदि जाना जाए, तो
सत्य का नाम परमात्मा नहीं। परमात्मा प्रेमी के द्वारा दिया गया नाम है। इसलिए
बुद्ध के मार्ग पर परमात्मा की कोई जगह नहीं है। न महावीर के मार्ग पर परमात्मा की
कोई जगह है। परमात्मा शब्द सार्थक नहीं है--ध्यान की व्यवस्था में।
दूसरा
मार्ग है: हृदय के विकार दूर हों, हृदय
की संवेदनशीलता बढ़े; हृदय
की भावना प्रगटे;
प्रेम
जगे।
बुद्धि
जगे, तो जो मिलता है, उसे हम कहते हैं--सत्य। हृदय
जगे, तो जो मिलता है, उसे हम कहते हैं--प्रभु।
मिलता
तो एक ही है;
नाम दो
हैं। दो अलग ढंग से खोजे गये मार्ग से, एक ही सत्य को दो अलग ढंग से देखा गया है; एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
इसलिए परमात्मा और सत्य की बात में कोई विरोध नहीं है। लेकिन पहुंचने वाले अलग-अलग
द्वार से आये हैं।
परमात्मा
तक जो आया है--वह प्रेमी की पगडंडी से आया है। सत्य तक जो आया है, वह बुद्धि के राज-पथ से आया
है। और ध्यान रखना: बुद्धि को मैं कह रहा हूं--राज-पथ और प्रेम को मैं कह रहा
हूं--पगडंडी। सकारण।
बुद्धि
का राज-पथ है--साफ-सुथरा है; सीधा
है; विधि-विधान हैं; तर्क युक्त है। महावीर के वचन
अति तर्कयुक्त हैं। वैसे ही बुद्ध के वचन हैं। बुद्ध से विवाद करके जीतना संभव
नहीं है। बुद्ध की बात माननी ही पड़ेगी। बुद्ध की बात तर्कातीत नहीं है। तर्कातीत
की चर्चा ही नहीं की है। जो तर्क में आ सके, उसका ही निर्वचन हुआ है। तो बुद्ध से
नास्तिक भी राजी हो जायेगा। अनेक नास्तिक राजी हुए। कितना ही बुद्धिमान व्यक्ति हो, कितनी ही बुद्धि का विलास हो, बुद्ध के पास आ कर झुक जायेगा।
भक्त
की भाषा अटपटी है;
तर्क
के पार है;
प्रेम
की है;
पगडंडी
की तरह है--इरछी-तिरछी है। कब बायें घूम जाती है, कब दायें घूम जाती है--कहना
मुश्किल है। विरोधाभासी है। केवल वे ही समझ पायेंगे, जो श्रद्धा का सूत्र पकड़ कर
चलेंगे।
बुद्ध
के मार्ग पर--बुद्धि के मार्ग पर श्रद्धा अनिवार्य नहीं है। बुद्धि के मार्ग पर
सुविचार अनिवार्य है। श्रद्धा पीछे आयेगी; अनुभव के बाद आयेगी; अनुभव से आयेगी। पहले अपेक्षा
नहीं है।
प्रेम
के मार्ग पर श्रद्धा पहली सीढ़ी है। प्रेम--श्रद्धा से ही शुरू होता --अतक्र्य
श्रद्धा;
अनुभव
पीछे होगा। अनुभव श्रद्धा से निकलेगा।
बुद्धि
के मार्ग पर जो अंतिम है--प्रेम के मार्ग पर वह प्रथम है। बुद्धि के मार्ग पर भी
समर्पण होता है,
लेकिन
अंत में। मंजिल जब बिलकुल करीब आ जाती है, तब समर्पण होता है।
बुद्धि
का रास्ता राज-पथ की तरह है--साफ-सुथरा है। असुरक्षा नहीं है। प्रेम का रास्ता
पगडंडी की तरह है;
बीहड़
से गुजरता है;
सुरक्षा
नहीं है।
प्रेमी
के लिए साहसी होना जरूरी है। प्रेम साहस मांगता है। जो बुद्धि में बहुत कुशल हैं, इतना साहस नहीं जुटा पाते।
प्रेम के रास्ते पर पागल जाते हैं। प्रेम के रास्ते पर पहला ही चरण समर्पण का
है--अपने को मिटा डालने का है।
मलूकदास
प्रेमी हैं: इस बात को पहले खयाल में ले लेना।
फिर
मैंने कहा: बुद्धि का मार्ग राज-पथ जैसा है, क्योंकि बुद्धि सभी के पास है--और एक जैसी
है। बुद्धि के नियम एक जैसे हैं। दो और दो--चार मेरे लिए ही नहीं होते, तुम्हारे लिए भी दो और दो चार
होते हैं। और दो और दो चार, भारत
में ही नहीं होते,
तिब्बत
में भी होते हैं,
जापान
में भी होते है,
चीन
में भी होते हैं। चांदत्तारों पर भी अगर आदमी होगा, तो दो और दो चार ही होंगे।
कहीं भी होगा आदमी, कहीं
भी बुद्धि होगी,
तो दो
और दो चार होगे।
बुद्धि
के नियम सार्वभौम हैं--यूनिव्हर्सल हैं। इसलिए हजारों लोग बुद्धि के मार्ग पर
साथ-साथ चल सकते हैं। सहमति हो जायेगी। प्रेम के मार्ग पर भीड़-भाड़ नहीं चलती।
प्रेम के मार्ग पर अकेला चलना होता है, इसलिए--पगडंडी।
मेरा
प्रेम,
बस, मेरा प्रेम है। उस जैसा प्रेम
दुनिया में कहीं भी नहीं है तुम्हारा प्रेम--तुम्हारा प्रेम है; उस जैसा प्रेम न पहले कभी हुआ
है, न फिर कभी होगा।
प्रेम
वैयक्तिक है। प्रेम का स्वाद व्यक्ति का स्वाद है। प्रेम गणित जैसा नहीं। है--कि
दो और दो चार। प्रेम काव्य है। प्रेम में निजता है। हर प्रेमी का प्रेम उसके
हस्ताक्षर लिए होता है। इसलिए--पगडंडी।
इसलिए
बुद्ध के वचन,
शंकराचार्य
के वचन,
महावीर
के वचन में तालमेल बिठाया जा सकता है। कोई अड़चन नहीं है। लेकिन मलूकदास, मीरा और चैतन्य में तालमेल
बिठाना बहुत कठिन मालूम होगा।
प्रेम
की निजता है। प्रेम का अनूठापन है--अद्वितीयता है, इसलिए--पगडंडी। छोटा सा, संकरा सा रास्ता है। कबीर तो
कहते हैं: इतना संकरा है कि--तामे दो न समाय। एक ही चल पाता है। इसलिए जब तक भक्त
रहता है,
भगवान
नहीं हो पाता। दो के लायक भी जगह नहीं है। प्रेम गली अति सांकरी। अब भक्त मिट जाता
है, तो भगवान हो जाता है। जगह ही
इतनी है! दो के लायक भी स्थान नहीं है। इसलिए--पगडंडी। बड़ी छोटी, संकीर्ण पगडंडी।
प्रेम
के मार्ग पर केवल मतवाले जाते हैं--दीवाने जाते हैं। इसलिए मैंने कहां कि मलूकदास
पियक्कड़ हैं। शराबी हैं। प्रेम का नशा चाहिए।
बुद्धि
होशियारी से चलती है; प्रेम
लड़खड़ा के चलता है। प्रेम में एक मस्ती है; बुद्धि में साफ-सुथरापन है। प्रेम में एक रस
है; बुद्धि रूखी-सुखी है। बुद्धि
का राज-पथ मरुस्थल से गुजरता है। प्रेम की पगडंडी हरे जंगलों, फूलों, पक्षियों के कलरव से; झीलों, सरोवरों के पास से गुजरती है।
प्रत्येक
व्यक्ति को निर्णय करना होता है कि क्या उसके हृदय के साथ, क्या उसके व्यक्ति के साथ, क्या उसकी बुद्धि के साथ मेल
खाता है। और कोई दूसरा निर्णायक नहीं हो सकता है। प्रत्येक को अपने भीतर ही निर्णय
करना होता है। जिस बात से तुम्हारे भीतर उमंग उठ आती हो, जिस बात को सुन कर तुम्हारे
भीतर रोमांच हो जाता हो, जिस
बात को सुनकर तुम्हारे भीतर श्रद्धा उमड़ती हो--वही तुम्हारा मार्ग है। उसके
अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है।
और भूल
कर भी दूसरे के मार्ग मत चलना। क्योंकि दूसरे के मार्ग से कोई कभी नहीं पहुंचता; अपने ही मार्ग से पहुंचता है।
इसलिए
कृष्ण कहते हैं: स्वधर्मे निधनं श्रेयः--अपने धर्म में मर जाना भी श्रेयस्कर है।
उसका यह मतलब मत समझना कि--हिंदू धर्म में या मुसलमान धर्म में। उसका अर्थ होता
है: जो तुम्हारी निजता है, स्वधर्म
है...। अगर भक्ति तुम्हारी निजता है, तो उसमें मर जाना भी बेहतर है। अगर ज्ञान
तुम्हारी निजता है, तो
उसमें मर जाना बेहतर है। पर धर्मों भयावहः--दूसरे का धर्म बहुत भयानक है; भूल कर मत जाना। और इसीलिए
बड़ा उपद्रव है--जगत में।
तुम
अपनी सुनते ही नहीं! तुम अपनी गुनते ही नहीं। दूसरे जैसा कहते हैं, वैसा मान कर चल पड़ते हो।
यह
संयोग की बात है कि तुम जैन घर में पैदा हुए, कि हिंदू घर में पैदा हुए। इससे धर्म तय
नहीं होता। तुम्हें धर्म तो तय करना पड़ेगा।
धर्म
इतना सस्ता नहीं,
कि
जन्म से तय हो जाए। धर्म के लिए तो स्वयं निर्णय लेना होता है। जिसने स्वयं निर्णय
नहीं लिया,
वह
चलता रहता है--दूसरी की मान कर; पर-धर्म
मान कर चलता रहता है। और उसका जीवन व्यर्थ है; उसकी मृत्यु व्यर्थ है। अवसर खो जाता है।
धर्म
की शुरुआत ही तब होती है, जब तुम
निर्णय लेते हो कि मेरा स्वयं का मार्ग क्या है।
मैं
ऐसे जैनों को जानता हूं, जो
नाचना चाहेंगे। लेकिन महावीर के सामने नाचने की मनाही है। जो हाथ में दीये जला कर
गुनगुनाना चाहेंगे; जो
वीणा उठा कर गीत गाना चाहेंगे। लेकिन महावीर के सामने उसकी मनाही है। नग्न महावीर
के सामने बांसुरी बजाओगे--भली लगेगी भी नहीं!
मैं
ऐसे हिंदुओं को भी जानता हूं, जो राधा-कृष्ण
की मूर्ति के सामने बांसुरी बजाते हैं, लेकिन उनकी बुद्धि को यह बात पटती नहीं है।
बजाते हैं;
गाते
हैं; गुनगुनाते हैं; बुद्धि को बात पटती नहीं है।
झूठा प्रपंच करते रहते हैं। किसी घर में पैदा हो गये हैं, तो ढोते हैं--बोझ की तरह।
और
धर्म अगर बोझ की तरह ढोया जाया, तो
तुम्हें क्या खाक मुक्त करेगा? धर्म
जब पंख बनता है,
तो
मुक्त करता है। धर्म जब आनंद और उल्हास होता है, तब मुक्त करता है। धर्म जब
तुम चुनते हो,
तब
मुक्त करता है।
जिन
लोगों ने महावीर के पास आ कर शरण ली थी, उन्होंने चुना था। अब उनके घर में जो बच्चे
पैदा हो कर जैन हो रहे हैं, उन्होंने
चुना नहीं है। जो मीरा के साथ दीवाने हो कर नाचे थे, उन्होंने चुना था। अब तुम
परंपरागतरूप से मीरा के गीत गुनगुना रहे हो; न न उनमें प्राण रह गया, न श्वास रह गयी; लाश ढोये चले जा रहे हो।
दुनिया
में इतना अधर्म है, उसका मौलिक
कारण यही है कि लोग अपने स्व-धर्म की चिंता ही नहीं कर रहे हैं। जन्मगत धर्म के
साथ बंधे हैं।
इधर हम
जो प्रयोग कर रहे हैं, वह यही
है ताकि तुम फिर से स्व-धर्म की चिंता कर सको। फिर से चुनो। चुनाव अभी हुआ ही नहीं
है।
जन्म
से तय कुछ होता ही नहीं है। जन्म से शरीर मिलता है--आत्मा नहीं। आत्मा तो तुम लेकर
आते हो--लंबी-लंबी यात्रा से। उस लंबी यात्रा में न मालूम क्या-क्या तुमने सीखा
है। क्या-क्या तुमने किया है। उस सारी सिखावन के आधार पर निर्णय होगा: कौन-सी बात
तुम्हें रुची है। जो बात तुम्हें रुच हाय, वही तुम्हारा स्व-धर्म है। फिर बस छोड़
कर--हिसाब-किताब--स्व-धर्म के पीछे चल पड़ना। अगर स्व-धर्म भटका भी दे, तो भी पहुंच जाओगे। और
पर-धर्म अगर पहुंचा भी दे, तो
नहीं पहुंच पाओगे। इसे खयाल में लेना; यह सूत्र बहुमूल्य है।
स्व-धर्म
में अगर तुम डुब भी जाओ, तो भी
पहुंच जाओगे। लेकिन पर-धर्म में अगर तुम सुरक्षा से चलते भी रहो, तो भी कहीं न पहुंचोगे। दूसरे
के माध्यम से कोई पहुंचता नहीं है। न तो दूसरे के द्वारा तुम भोजन कर सकते हो; न दूसरे की आंख से देख सकते
हो; न दूसरे के पैर से चल सकते
हो। तो दूसरे की आत्मा से कैसे तुम परमात्मा को झांकोगे? अपनी ही खिड़की की खोलनी पड़ती
है।
मलूकदास
प्रेम की खिड़की को खोलकर खड़े हैं। इस बात को खयाल में ले कर उनके सूत्रों को
समझना।
ना वह
रीझै जपत्तप कीन्हें, न आतम
को जारे।
ना वह
रीझे धोती टांगे,
ना
काया को पखारे।।
उस
परमात्मा को तुम रिझा न सकोगे--न तो जप से, न तप से; न आत्मा को चलाने से--पीड़ा देने से; न छुआ-छूत--शुद्धि के विचार
से--वर्ण-धर्म से;
और न
काया की शुद्धि से।
पहली
बात समझने की है: ना वह रीझै...। रीझै शब्द भक्त का है; उसमें भक्ति की कुंजी छिपी
है।
परमात्मा
को पाना नहीं है;
परमात्मा
को रिझाना है। समझो: इसका अर्थ हुआ--कि परमात्मा है: इस पर तो भक्त को संदेह ही
नहीं है। परमात्मा के होने में तो श्रद्धा है ही।
परमात्मा
के लिए भक्त प्रमाण नहीं मांगता। भक्त यह नहीं कहता कि सिद्ध करो: परमात्मा है। जो
कहे: सिद्ध करो--परमात्मा है, उसके
लिए भक्ति का मार्ग नहीं है। भक्त के लिए परमात्मा ही है। और अब चीजें असिद्ध हैं, सिर्फ परमात्मा सिद्ध है। यह
बात बिना किसी प्रमाण के उसे स्वीकार है। ज्ञानी को अखरेगी यह बात--कि यह क्या
अंधापन हुआ! लेकिन ज्ञानी के लिए जो आंख है, वह भक्त के लिए आंख नहीं है। और ज्ञानी के
लिए जो अंधापन है,
वह
भक्ति के लिए आंख है।
श्रद्धा
बड़ी कला है। श्रद्धा कोई छोटी-छोटी घटना नहीं है। श्रद्धा का अर्थ होता है: संदेह
से प्राण व्यथित नहीं होते।
हर
बच्चा श्रद्धा लेकर पैदा होता है। श्रद्धा स्वाभाविक है। जब बच्चा अपनी मां के
स्तन पर मुंह रखता है और दूध पीना शुरू करता है, तो श्रद्धा से--संदेह से
नहीं। संदेह हो,
तो
मुंह अलग कर ले। पता नहीं--जहर हो। पहले प्रमाण चाहिए। स्तन से पोषण मिलेगा--इसका
प्रमाण क्या है?
इसके
पहले तो बच्चे ने कभी स्तन से पोषण पाया नहीं है। पहली दफा स्तन को पीने चला है।
प्रमाण कहां है?
जिसके
स्तन से पीने चला है दूध, वह
जहरीली न होगी,
इसका
सबूत क्या है?
नहीं; बच्चा पानी शुरू कर देता है।
एक सहज श्रद्धा है; एक
आस्था है,
जो अभी
संदेह से मलिन नहीं हुई है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होगा, श्रद्धा संदेह से मिलन होने
लगेगी। वह अपने बाप पर भी संदेह करेगा, अपने मां पर भी संदेह करेगा। जैसे-जैसे बड़ा
होगा, वैसे-वैसे संदेह भी बड़ा होगा।
संदेह
हम सीखते हैं;
श्रद्धा
हम लाते हैं। कुछ धन्यभागी लोग हैं, जो अपनी श्रद्धा को बचा लेते हैं; नष्ट नहीं हो पाती। बड़ा साहस
चाहिए--श्रद्धा को बचाने के लिए। कौन सा साहस?...
संदेह
में कोई बड़ा साहस नहीं है। संदेह तो भय के कारण ही पैदा होता है। इसे थोड़ा समझो।
संदेह
आता है--भय की छाया के कारण। जब तुम डरते हो, तभी तुम संदेह करते हो। संदेह का मतलब होता
है: पता नहीं,
दूसरा
लूट लेगा;
चोरी
करेगा;
मारेगा; क्या होगा! जब तुम भयभीत होते
हो, तब संदेह आता है। जब तुम
निर्भय होते हो,
तब
श्रद्धा होती है।
जैसे-जैसे
बच्चा बड़ा होगा,
भय भी
होगा। परिचित होगा उनसे, जो
अपने नहीं हैं। परिवार के बाहर जायेगा। लोग लूट लेंगे कभी; लोग मार देंगे कभी; कभी लोग धोखा देंगे।
धीरे-धीरे संदेह बढ़ेगा। धीरे-धीरे शंकालु दृष्टि पैदा होगी। धीरे-धीरे अपने संदेह
में घिरा रहने लगेगा। सजग होकर चलेगा--कि कोई लूट न ले; कोई धोखा न दे दे। और ऐसे
धीरे-धीरे मनुष्यता पर भरोसा खो देगा; अस्तित्व पर भरोसा खो देगा। इस भरोसा खो
देने को कोई बड़ी गुणवत्ता नहीं कहा जा सकता। यह तो इसी बात का सबूत है कि भय बहुत
घना हो गया है।
निर्भय
व्यक्ति ही श्रद्धा को उपलब्ध होते हैं। और श्रद्धा को उपलब्ध होते हैं कहना ठीक
नहीं; निर्भय व्यक्ति अपनी श्रद्धा
को खंडित नहीं होने देते। जिस श्रद्धा को जन्म के साथ लेकर आये थे, उसे बचाये रखते हैं--धरोहर की
तरह।
परमात्मा
पर श्रद्धा का इतना ही अर्थ है--जैसे मां पर श्रद्धा। मां से तुम्हारा जन्म हुआ है, इसलिए मां से जो मिलेगा, वह पोषण होगा। इस अस्तित्व से
हमारा जन्म हुआ है, इसलिए
अस्तित्व हमारा शत्रु नहीं हो सकता। यह अस्तित्व हमारी मां है।
इस
अस्तित्व को ही हमने अगर शत्रु मान लिया, तो हद हो गयी! जिससे हम पैदा हुए हैं, वह हमारे विपरीत हो सकता है।
और जिसमें हम फिर पुनः लीन हो जायेंगे, यह हमसे विपरीत नहीं हो सकता। हम उसी के
फैलाव हैं। जैसे सागर में तरंगें हैं, ऐसे हम परमात्मा की तरंगें हैं। भक्त को यह
बात प्रगाढ़ रूप से प्रकट है। इसके लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है। ऐसा उसे
स्पष्ट अनुभव होता है। और इस अनुभव में कोई खामी मुझे दिखायी नहीं पड़ती; कोई भूलचूक दिखायी नहीं पड़ती।
ये
वृक्ष पृथ्वी पर भरोसा किये हैं; पृथ्वी
में जड़ें फैला रहे हैं। जानते हैं कि पृथ्वी रसवती है; मां हैं। ये वृक्ष आकाश में
सिर उठा रहे हैं;
ये
सूरज को छूने के लिए चले हैं; जानते
हैं कि सूरज पिता है; उसकी
किरणों में प्राण है; जीवन
है। इस श्रद्धा के बल पर ही ये जी रहे हैं। किसी वृक्ष को अश्रद्धा हो जाये, वह मरना शुरू हो जायेगा। डर
हो जाए पैदा--कि पता नहीं: पृथ्वी से रस मिलेगा कि मौत; कि सूरज है भी, कि नहीं--ऐसा भयभीत हो जाए
वृक्ष,
तो
सिकुड़ जायेगा--अपने में बंद हो जायेगा। खंडित होने लगेगी। उसकी जीवन धारा। जीवन के
रास-स्रोत सुख जायेंगे।
भक्त
रसपूर्ण है। भक्त की पहली शर्त है--कि परमात्मा है। इसमें वह प्रमाण नहीं मांगता।
इसलिए कहते हैं मलूक: ना वह रीझे...। इसलिए यह तो सवाल ही नहीं उठाना कि है
परमात्मा या नहीं। यह भक्त के लिए सवाल नहीं है।
अगर यह
सवाल तुम्हें उठता हो, तो
भक्ति तुम्हारा मार्ग नहीं है। फिर तुम्हारा मार्ग ज्ञान है। फिर तुम्हें संदेह कर
कर के ही लंबी यात्रा करनी पड़ेगी--संदेह की। इतना संदेह करना पड़ेगा कि धीरे-धीरे
ऐसी घड़ी आ जाए कि तुम्हें संदेह पर भी संदेह हो जाए, तब तुम्हें श्रद्धा पैदा होगी; उसके पहले नहीं। वह बड़ी लंबी
यात्रा है। संदेह पर भी जब तुम्हें संदेह पैदा हो जायेगा, जब संदेह पर संदेह आ आयेगा, तब तुम्हें श्रद्धा पैदा
होगी।
भक्त
की श्रद्धा कुंवारी है; मौजूद
है; है ही; उसे लाने की जरूरत नहीं है।
परमात्मा है--इसलिए अब सवाल क्या है! सवाल यह है कि परमात्मा को कैसे रिझायें?
ज्ञानी
का सवाल है--कि परमात्मा है या नहीं।
केशवचंद्र
रामकृष्ण के पास गये, तो
उन्होंने पूछा--परमात्मा है या नहीं? वह ज्ञानी का सवाल है। और रामकृष्ण खूब
हंसने लगे। उन्होंने कहा, यह
सवाल कभी मुझे कभी उठा ही नहीं! परमात्मा है या नहीं?--इसका उतर मैंने कभी खोजा नहीं, क्योंकि यह सवाल मुझे कभी उठा
नहीं। परमात्मा तो है ही । उसके अतिरिक्त और कौन है! जो है--वह परमात्मा का रूप
है।
केशवचंद्र
बहुत विवाद करने लगे। तर्कनिष्ठा व्यक्ति थे। और रामकृष्ण बड़े प्रफुल्लित होने लगे; बड़े आनंदित होने लगे। और जब
विवाद अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचने लगा, तो रामकृष्ण ने उठ कर केशव को गले लगा लिया।
केशव तो बहुत हैरान हुए--कि यह मामला क्या है! वे तो खंडित कर रहे थे। उन्होंने
पूछा, आप यह क्या कर रहे हैं
परमहंसदेव?
लोग
कहते हैं कि आप पागल हैं, क्या
सच ही कहते हैं?
क्योंकि
मैं तो खंडित कर रहा हूं। रामकृष्ण ने कहा खंडन? सुन कौन रहा है! मैं तुम्हें
देख रहा हूं। तुम्हें देख कर मुझे परमात्मा का भरोसा आ रहा है। ऐसी प्रतिभा, परमात्मा के बिना हो कैसे
सकती है?
फर्क
समझना। इतनी प्रतिभा--कि परमात्मा को भी खंडित कर सके, परमात्मा के बिना कैसे हो
सकती है?
तुम्हारे
भीतर अपूर्व परमात्मा प्रकाश हो रहा है। केशव, तुमने नहीं देखा। मैं देख रहा हूं; रामकृष्ण ने कहा। तुम्हें मैं
गले लगाता हूं। तुमने लौट कर नहीं देखा--अपना प्रकाश, वह तुम्हारी मरजी। लेकिन मैं
तुम्हारे भीतर बड़ा प्रकाश देखता हूं।
केशवचंद्र
हारे हुए लौटे! इसे आदमी से जीतने का उपाय नहीं है। सोचते-विचारते लौटे कि बात
क्या है! ऐसा तो कभी उनके जीवन में कोई अनुभव न आया था। वे विवाद कर रहे थे। विवाद
का उत्तर दिया जाना चाहिए था। उत्तर दिया भी गया। पर बड़ा अनूठा उत्तर दिया गया--कि
तुम्हारे विवाद करने की क्षमता, परमात्मा
का सबूत है। तुम्हारे तर्क की यह प्रगाढ़ता, वह त्वरा--परमात्मा का सबूत है।
कहते
हैं मलूकदास;
ना वह
रीझे...। रीझने से बत शुरू होती है। रिझाना है। प्रेमी तो है। जानने की बात नहीं
है। है ही। उसका हमें पता नहीं है। वह मौजूद ही है। अब सवाल इतना है कि कैसे उसे
रिझायें।
फर्क
समझना।
जब
ज्ञानी बड़े-बड़े प्रमाण जुटा कर तय कर लेता है कि ठीक सत्य है; तब वह कहता है: अब मैं सत्य
को कैसे पाऊं?
भेद
समझना।
रिझाने
की तो बात उठ ही नहीं सकती--ज्ञानी के मन में। रिझाने जैसा पागलपन--ज्ञानी सोच भी
नहीं सकता। ज्ञानी सोचता हैं कि पहले तो सत्य है या नहीं, अगर सिद्ध हो जाता है--तर्क
और गणित से--कि है, तो फिर
वह पूछता है कि मैं सत्य को कैसे पाऊं।
ज्ञानी
की दृष्टि अपने पर होती है। भक्त पूछता है: तुम्हें कैसे रिझाऊं। यह तो वह पूछता
ही नहीं--कि तुम्हें कैसे पाऊं। यह तो सवाल ही नहीं है। तुम्हें पाया ही हुआ है।
अब बात इतनी ही है कि किस ढंग से नाचूं कि तुम्हारे मन में, मेरे प्रति, प्रसाद बरस जाए--तुम्हारी तरफ
से। कैसे तुम्हें प्रसन्न कर लूं--तुम रूठे हो जैसे।
फर्क
देखना।
ज्ञानी
सोचता है: मैंने किये होंगे पाप-कर्म, इसलिए परमात्मा मुझे नहीं मिल रहा है; सत्य मुझे नहीं मिल रहा है।
भक्त कहता है: परमात्मा रूठ कर बैठे हैं। खेल चल रहा है। जैसे प्रेमी रूठ जाता है।
परमात्मा रूठ कर बैठे हैं, इन्हें
कैसे मनाऊं कैसे रिझाऊं; किस
विधि नाचूं;
किस
विधिगाऊं--कि यह रूठना परमात्मा भूल जाए?
ना वह
रीझे जपत्तप किन्हें, ना आतम
को जारे।
और
कहते हैं मलूक कि तुम कितना ही जप करो--कितना ही तप, उसे रिझा न पाओगे। यह कोई
रिझाने की बात हुई! यह तो और रूठा दोगे!
अब कोई
आदमी बैठा--और जप कर रहा है। जप यानी विधि। फर्क समझना। भक्त भी भगवान का नाम लेता
है। आगे मलूकदास कहेंगे: राम कहो, राम
कहो बावरे। लेकिन वह जप नहीं है। जप है--विधि, टेकनीक।
एक आदमी
जप करने बैठा है। वह कहता है: राम-राम-राम। इसमें कोई रस नहीं है; कोई प्रेमी नहीं है। दोहराता
है इसे--यंत्रवत;
एक
विधि की भांति। इसे कर रहा है, क्योंकि
कहा गया है कि इस तरह मंत्र को दोहराने से विचार शांत हो जायेंगे, मन शून्य होगा--और उस शून्य
में परमात्मा के दर्शन होंगे। यह विधि है। अगर उससे कहा गया होता कुछ और, तो वह वही करता।
बहुत
विधियां हैं--दुनिया में।
पश्चिम
के बहुत बड़े कवि लार्ड टेनिसन ने लिखा है अपने संस्मरणों में कि मुझे बचपन से ही न
मालूम कैसे यह विधि हाथ आ गई कि जब भी मैं अकेला बैठा होता, तो अपना ही नाम दोहराने
लगता--टेनिसन,
टेनिसन, टेनिसन । और उसके दोहराने से
मुझे बड़ा रस आता। बड़ी मस्ती छा जाती। मैं किसी से कहता भी नहीं था, क्योंकि लोग पागल समझेंगे।
फिर तो धीरे-धीरे रस इतना बढ़ने लगा कि यह दैनिक कृत्य हो गया। घंटों बैठा रहता। और
टेनिसन--टेनिसन दोहराता रहता। दोहराते--दोहराते एक घड़ी आ जाती कि बड़ी शांति आ
जाती।
अब
अपना ही नाम दोहराने से भी अगर शांति मिल जाती है, तो अपना ही नाम दोहरा लेगा।
विधि का सवाल है;
कोई
राम के नाम से क्या लेना-देना है! कोई भी शब्द काम दे देगा। कोई भी शब्द दोहराने
से काम हो जायेगा। इसलिए ओंकार दोहराओ, कि राम दोहराओ, कि अल्लाह दोहराओ--या तुम अगर
चाहो तो संख्या ही दोहरा सकते हो: दो--दो--दो दोहराते जाओ, उससे भी वही परिणाम होगा।
ज्ञानी
के लिए शब्द शब्द में कोई भेद नहीं है। शब्द तो विधि है। लेकिन प्रेमी के लिए बड़ा
भेद है। प्रेम के लिए शब्द विधि नहीं; शब्द उसके हृदय का भाव है।
तुम
अगर प्रेमी से कहोगे कि दो--दो--दो दोहराने से भी शांति हो जायेगी, ध्यान लग जायेगा, तो प्रेमी कहेगा; मुझे ध्यान नहीं लगाना है; मुझे राम दोहराना है। ज्ञानी
को कहोगे कि दो से भी वही काम हो आता है, वह कहेगा: तब ठीक है, कोई हर्जा नहीं है; दो दोहराने लेंगे। फर्क समझने
की कोशिश करना।
ज्ञानी
के लिए जप विधि है--भक्त के लिए भजन है। भजन में रस है, भाव है। ज्ञानी के लिए
वैज्ञानिक तकनीक है, तो
करता है। और कोई बेहतर तकनीक मिल जायेगी, तो उसे करेगा। लेकिन भक्त के लिये...? भक्त कहेगा: इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता...
ऐसा
समझो कि एक बेटे से तुम कहो कि तेरी जो मां है, इससे भी सुंदर मां तुझे दे देते हैं। तो वह
कहेगा: छोड़ो भी। मेरी मां से सुंदर और कौन मां हो सकती है? यह बात ही मत करो। कितनी ही
सुंदर स्त्री को लाकर खड़ा कर दो इससे भी बच्चा उसके पास नहीं चला जायेगा--कि वह
उसकी मां से ज्यादा सुंदर है, तो चलो
इसे चुन लें। लेकिन तुम अगर वेश्या को खोजने गये हो--बाजार में; रुपये देकर वेश्या लेनी है, तो फिर तुम सुंदर को चुन लोगे, असुंदर को छोड़ दोगे। असुंदर
का क्या प्रयोजन है? जब
सुंदर मिलती हो--उतने ही दाम में, तो तुम
सुंदर को चुन लोगे।
वेश्या
का चुनाव गणित से होगा; मां का
चुनाव गणित से नहीं होता; गणित
के बाहर है।
किसी
बेटे को अपनी मां असुंदर लगती ही नहीं। किस मां को अपना बेटा असुंदर लगता है? एक-रस भाव है; एक भावना है।
खयाल
रखना: कहते हैं मलूकदास: ना वह रीझे जपत्तप किन्हें, तो कितना ही लाख सिर पटको और
जपते रहो--राम-राम-राम, लेकिन
अगर इसमें रस नहीं है, अगर यह
मात्र सूखी विधि है, अगर
तुम माला जप रहे हो, और
सिर्फ हाथ माला पर फेर रहे हो...।
तुम्हें
पता होगा: तिब्बत में उन्होंने ज्यादा अच्छी विधि खोज ली। तुम माला जपते हो; एक सौ आठ गुरिये सरकाओ; समय लगता है। उन्होंने एक सौ
आठ आरे वाला चका बना लिया है तिब्बत में, उसको वे प्रार्थना-चक्र कहते हैं। अपना काम
करता रहता है आदमी और एक धक्का मार देता है--उस चके को, वह चका घूम जाता है। जितनी
बार वह चका घूम जाता है, उतनी
माला का लाभ हो गया! यह विधि है।
एक बार
एक तिब्बती लामा मेरे पास मेहमान था। उसके पास मैंने उसका चका देखा। वह रखा रहता।
किताब भी पढ़ता रहता, तो
बीच-बीच में चके को, जब मनन
हो जाता,
तो
घूमा देता। वह दस-पंद्रह चक्कर लगा कर चका रुक जाता। दस-पंद्रह माला का लाभ हो
गया!
मैंने
उससे कहा: पागल,
इसमें
तू बिजली क्यों नहीं जोड़ लेता? उसे
बात जंची! अगर हाथ से ही चलाने का मामला है, तो बिजली से जोड़ दे। बटन भी तो हाथ से ही
दबानी पड़ेगी न। फिर दबा दी। चौबीस घंटे चला दिया, तो लाखों का लाभ हो जायेगा।
एक घर
में मैं मेहमान था, उन्होंने
बड़ा पुस्तकालय बना रखा है। बस, वे
कापियों पर राम-राम, राम-राम
लिखते रहते हैं। इकट्ठी करते जा रहे हैं कापियां। कोई साठ पैंसठ साल की उनकी उम्र
है; कोई चालीस साल से यह काम कर
रहे हैं। सारा घर भर डाला है। वे बड़े प्रसन्न होते हैं; दिखते हैं--कि देखो, कितना राम-राम लिख डाला।
मैं जब
उनके घर गया,
तो
मैंने कहा कि तुमने कितनी कापियां खराब कर डाली: राम जी के सामने मत पड़ जाना कभी, नहीं तो वे कहेंगे: इतने
बच्चे...! अगर स्कूल में किताबें बांट दी होतीं, तो काम आ जातीं। तुमने व्यर्थ
खराब कर डालीं। यह राम-राम लिखना--यह क्या फिजूल की बात है!
बंगाल
में एक बहुत बड़ा व्याकरणाचार्य हुआ, उसके पिता ने उससे कहा कि तू राम-राम कब
जपेगा?
उसने
कहा: बार-बार जपना! एक दफा बहुवचन में कह दूंगा। एक वचन में कहते
रहो--राम--राम--राम। लाखों बार कहो। बहुवचन में एक दफा कह दिया, बात खतम हो गयी।
गणित
है जहां कहां बात अलग है।
मैंने
सुना है: एक वकील रोज रात को प्रार्थना करता। उसकी पत्नी ने सुना कि प्रार्थना बड़े
जल्दी खतम हो जाती है। एक सेकेंड नहीं गलता। बस, वह जल्दी से प्रार्थना करके
कंबल ओढ़ कर सो जाता। पत्नी ने कहा: मैं भी करती हूं प्रार्थना, तो कम से कम दो मिनट तो लगते
हैं! तुम्हें तो एक सेकेंड नहीं गलता! उसने पूछा वकील से कि तुम इतनी जल्दी
प्रार्थना...?
उसने
कहा कि बार-बार क्या करना। वही की वही प्रार्थना। भगवान भी जानता; मैं भी जानता। मैं कहता
हूं--डिट्टो--और सो जाता हूं।
वकील
है, तो वकालत के ढंग से सोचता है।
मलूकदास
कह रहे हैं कि ऐसे जपत्तप से कुछ भी होगा।
तप का अर्थ होता है--तपाना: उपवास करना, धूप में खड़े होना, कि शीत में खड़े होना, कि कांटों पर लेट जाना।
मलूकदास कहते हैं: यह भी क्या पागलपन है! तुम अपने को सताओगे, इससे परमात्मा प्रसन्न होगा? कौन मां अपने बेटे को भूखा
देख कर प्रसन्न होती है? कौन
मां अपने बेटे को धूप में खड़ा देखकर प्रसन्न होती है? कौन मां अपने बेटे को कांटों
पर लेटा देखकर प्रसन्न होगी? अगर
ऐसी कोई मां होगी,
तो
पागल होगी।
तुम
तपात्तपा कर परमात्मा को रिझाने चले हो? तुम और दूर हुए जा रहे हो। और जितना ही कोई
व्यक्ति तपस्वी बनता है, तापता
है अपने को,
उतना
ही अहंकार बढ़ता है--परमात्मा नहीं बढ़ता। उतनी अकड़ बढ़ती है--कि देखो, मैंने इतने उपवास किये, इतने जप किये, इतने तप किये। देखो, कितना मैंने अपने को सताया।
उसकी शिकायत और उसका दावा बढ़ता है। वह दावेदार बनता है। अगर परमात्मा उसे मिल
जायेगा,
तो
उसका हाथ पकड़ लेगा--कि बड़ी देर हुई जा रही है; अन्याय हो रहा है। मैं कितने दिन से
तपश्चर्या कर रहा हूं। आखिर कब तक? तेरे मोक्ष और कितनी दूर है?
मलूकदास
कहते हैं: न होगा जप से, न होगा
तप से,
क्योंकि
परमात्मा अगर प्रेम है, तो यह
बात ही बेहूदी है कि तुम अपने को सताओगे, इससे उसे पा लोगे। और अगर तुमने अपने को
सता-सता कर परमात्मा को अपने पास बुला भी लिया, तो क्या वह प्रसन्नता से आयेगा? बहुत लोगों का यह तर्क है।
तुम इससे समझना। तुम्हारे जीवन में यह तर्क खूब काम करता है। स्त्रियों के मन में
यह तर्क बड़ा गहरा बैठा है।
पति से
प्रेम नहीं मिलता,
तो
पत्नी बीमार हो जाती है। स्त्रियों की पचास प्रतिशत बीमारियां झूठी हैं। चाहे
उन्हें भरोसा ही क्यों न हो कि ये बीमारियां सच हैं, तो भी झूठी हैं, कल्पित हैं।
मैं बहुत
घरों में मेहमान होता रहा। मैं चकित होता कि मुझसे, बैठी पत्नी बात कर रही थी; पति के आने से ही बिस्तर पर
लेट गई। और सिर में दर्द शुरू हो गया! मैं थोड़ा हैरान होता कि बात क्या है! और ऐसा
भी नहीं कि पत्नी बिलकुल झूठ कह रही हो; पति को देखते ही सिर में दर्द शुरू हो जाता
है। पुराना अभ्यास; रोज-रोज
का अभ्यास--बस,
यह
संकेत की तरह काम कर जाता है: पति का हार्न बजा नीचे, गाड़ी का, कि पत्नी के सिर दर्द शुरू
हुआ।
यह
उसने कैसे सीख लिया है? उसके
पीछे मनोवैज्ञानिक कारण हैं। उसने पति को और कभी अपने तरफ प्रेम भरे नहीं देखा। जब
तक वह बीमार न हो,
तब तक
पति उसके पास नहीं बैठता। जब तक सिर में दर्द न हो, सिर में हाथ नहीं रखता। सिर
पर हाथ रखे,
उसकी
आकांक्षा है। तो सिर दर्द धीरे-धीरे, धीरे-धीरे प्रक्रिया बन गई है--पति सिर पर
हाथ रखे--इसका,
इसका
उपाय बन गया है।
चौंके
होंगे शंकर;
निश्चित
चौंके होंगे। एक दफा खयाल आया कि बात तो ठीक ही है। अगर देह इसकी अशुद्ध है, तो मेरी कहां शुद्ध है! सच यह
है कि वेद यही कहते हैं कि हर आदमी शूद्र की तरह ही पैदा होता है। कोई आदमी
ब्राह्मण की तरह थोड़े ही पैदा होता है। ब्राह्मण तो होना होता है। शूद्र की तरह हम
सभी पैदा होते हैं। जो ब्रह्म को जान लेता, वह ब्राह्मण हो जाता है। नहीं तो हम सभी
शूद्र ही हैं। बात तो याद आयी होगी।
फिर
उसने पूछा कि अगर आप कहते हैं कि नहीं, देह के छूने के कारण कोई सवाल नहीं है। तो
क्या मेरी आत्मा अशुद्ध है? आत्मा
अशुद्ध हो सकती है महानुभाव? सुना
तो मैंने यही है कि आत्मा शाश्वत रूप से शुद्ध है। आपसे ही सुना है; आप जैसे बुद्धिमानों से सुना
है; ऋषि-मुनियों से सुना है--कि
देह सदा अशुद्ध है और आत्मा सदा शुद्ध है। अब मैं तुमसे यह पूछता हूं कि किसके
छूने से आप परेशान हो गये हैं? देह के
छूने से?
तो देह
आपकी भी अशुद्ध है। अशुद्ध अशुद्ध देह से छू गई, तो क्या बिगड़ गया? आत्मा के छूने से अशुद्ध हो
गये? तो न तो मेरी आत्मा अशुद्ध है, न आपकी आत्मा अशुद्ध है।
कहते
हैं शंकर ने झुक कर प्रमाण किया उस शूद्र को और कहा: तूने मुझे खूब चेताया। जो मैं
शास्त्रों से न जान सका, वह
तूने मुझे जगाया। मैं अनुगृहीत हूं।
ना वह
रीझै धोती टांगे...। तो तुम जब छुआ-छूत...। और मैं ब्राह्मण और वह शूद्र; और मैं हिंदू और वह मुसलमान; और मैं आर्य--और वह
म्लेच्छ--ऐसी मूढ़तापूर्ण बातों में पड़ते हो, तो तुम यह मत सोचना कि तुम परमात्मा को रिझा
पाओगे।
ना
काया के पखारे...। और लोग हैं कि काया को पखारने में लगे हैं!--हठयोगी नौलि-धौति
कर रहे हैं;
आसन-व्यायाम
कर रहे हैं! सब तरह से लगे हैं उपाय में कि काया शुद्ध हो जाए! काया शुद्ध हो भी
जायेगी,
तो
क्या होगा?
और
काया शुद्ध हो नहीं सकती। तुम कितना ही काया को शुद्ध करो, काया के होने का ढंग...। भोजन
तो करोगे;
फिर
वही हो जायेगा। और मल-मूत्र तो बनेगा ही। और लहू और मांस-मज्जा तो बनेगी ही। कैसे
शुद्ध करोगे इसे?
और
शुद्ध करने से होगा भी क्या?
अगर
परमात्मा को शुद्ध काया ही बनानी होती, तो सोने-चांदी की बना देता! लोहे की बना
देता--कम से कम। गरीबों की लोहे की बना देता; अमीरों की सोने चांदी की बना देता। लेकिन
मांस-मज्जा-चमड़ी की बनाई। इसको शुद्ध करने से क्या होगा? कैसे यह शुद्ध होगी? नहीं; इस तरह तुम सिर्फ उसका अपमान
कर रहे हो।
मलूकदास
कहते हैं: यह सब अपमान हैं परमात्मा के। उसने काया जैसी बनाई, वैसी स्वीकार करो। उसकी ही दी
हुई काया है। तुमने तो बनाई नहीं। स्वीकार करो। अहोभाव से स्वीकार करो।
दया
करै, धरम मन राखै, घर में रहै उदासी।
अपना
सा दुःख सब का जानै, ताहि
मिलै अविनासी।।
तो फिर
कैसे उसे रिझायें?
कहते हैं
मलूक--दया करै...। उसके पाने का सूत्र एक ही है--दया, करुणा, प्रेम। चारों तरफ वही मौजूद
है, तो जितना बन सके, उतनी दया करो। जितना बन सके, उतना प्रेम करो। जितना बन सके, उतनी करुणा करो।
दया
करै...। और दूसरे पर ही नहीं, अपने
पर भी दया रखा।। कहीं ऐसा न हो कि दूसरे पर दया करने लगो और स्वयं पर बहुत कठोर हो
जाओ।
महात्मा
गांधी ने कहा है: दूसरों पर तो दया करे, अपने पर कठोर हो। लेकिन यह थोड़ा समझना
पड़ेगा।
अगर
तुम दूसरे पर दया करो और अपने पर कठोर हो जाओ, तो तुम ज्यादा देर दूसरों पर दया न कर
पाओगे। क्योंकि जो अपने पर दया ही करता, वह कैसे दूसरों पर दया कर पायेगा? वह चोरी-छिपे से दूसरों पर भी
कठोर हो जायेगा।
यह एक
बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक सत्य है। जो आदमी अपने पर कठोर होता है, वह दूसरों पर भी कठोर हो जाता
है। तरकीब से कठोर होता है। समझो कि तुम कठोर अपने पर और तुम लंबे उपवास करते हो, तो दूसरा आदमी जो लंबे उपवास
नहीं कर सकता,
उसके
प्रति तुम्हारे मन में यह भाव तो होगा ही कि वह हीन है। तुम्हारे मन में यह भाव तो
होगा ही कि वह पतित है। तुम्हारे मन में यह भाव तो होगा हो--कि बेचारा! मैं
श्रेष्ठ,
वह
अश्रेष्ठ। इसीलिए तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासियों की आंखों में तुम सदा अपनी
निंदा पाओगे। एक गरूर उनके भीतर होगा--कि मैं इतना कर रहा हूं, तुम कुछ भी नहीं कर रहे!
पापी! तुम
जाओ, अपने महात्माओं की आंखों में
गौर से झांक कर देखना, उनकी
आंख में तुम्हारी तरफ इशारा है कि तुम पाप हो। और उनकी भाषा में, उनकी वाणी में, उनके उपदेश में तुम जगह-जगह
यह पाओगे कि तुम्हारी निंदा है। और हजार तरह की वे व्यवस्थाएं बनायेंगे, जिसमें कि तुम भी अपने पर
कठोर हो जाओ। वे भी तुमसे कहेंगे: दूसरों पर दया करो; अपने पर कठोर हो जाओ। ये
दूसरे कौन है?
अगर हम
आदमी मान ले और अपने पर कठोर हो जाये, और दूसरे पर दया करे, तो ये दूसरे कौन हैं! दूसरा
तो कोई बचा नहीं।
जो
दूसरों पर दया करता है और अपने पर कठोर है, उसकी दया थोथी हो जायेगी। इस बात को खयाल
में लेना: तुम दूसरों के साथ वही कर सकते हो, जो तुम अपने साथ कर सकते हो।
जीसस
ने कहा है: प्रसिद्ध वचन है: अपने पड़ोसी को अपने जैसा प्रेम कर--अपने जैसा। मगर
पहले तो अपने को कर, तभी
अपने पड़ोसी को कर सकेगा। नहीं तो कैसे करेगा! क्योंकि सबसे निकट के पड़ोसी तुम
ही--अपन। यह देह मेरी सबसे करीब है। यह मेरी सबसे करीब की पड़ोसी है। फिर इसके बाद
दूसरे पड़ोसी हैं। फिर यह सारा संसार है। इस देह--इस पड़ोसी को पहले प्रेम करो।
जीसस
ने कहा है: अपने शत्रुओं को अपने जैसा प्रेम कर। लेकिन पहले तो अपने को प्रेम कर।
जिसने अपने को ही प्रेम नहीं किया, वह किसी को भी प्रेम नहीं कर पायेगा।
तुम
ऐसे लोगों को जगह-जगह खोज लोगे। इस तरह के लोग असंभव आदर्श बना कर जीते हैं, खुद पर बड़े कठोर--और तब दूसरे
पर भी बड़े कठोर हो जाते हैं। उनकी कठोरता ऐसे ढंग से आती है कि तुम पहचान भी नहीं
पाते।
अब
जैसे महात्मा गांधी के आश्रम में कोई चाय नहीं पी सकता। कोई एक-दूसरे के प्रेम में
नहीं पड़ सकता। अब यह अतिशय कठोरता है। मगर सिद्धांत के नाम पर चलेगा। सिद्धांत
बिलकुल ठीक है। और सिद्धांत को मान कर चलना है। सिद्धांत आदमी के लिए है--ऐसा नहीं
है; आदमी सिद्धांतों के लिए हो
जाता है। महात्माओं के हाथ में आदमी का मूल्य नहीं है, सिद्धांतों का मूल्य है।
सिद्धांत को मान कर चलो, तो ही
तुम ठीक हो। सिद्धांत को मान कर नहीं चले, तो तुम गलत हो। और तुम गलत हो यही तो सबसे
बड़ा अपराध है। तुम्हारे भीतर अपराध की भावना पैदा होगी।
अब जरा
समझा: अगर किसी ने चाय पी ली--गांधीजी के आश्रम में तो उसके भीतर पाप की आग जलेगी।
वह डरेगा,
घबड़ायेगा--कि
बड़ा पाप हो गया!
छोटी
सी चीज,
चाय
से--उससे इतना बड़ा पाप जोड़ दिया! खूब तरकीब से आदमी को सता लिया। अब वह रात सो न
पायेगा कि कहीं पता न चल जाए। बात कुछ न थी; बात कुछ भी
थी। चाय कितनी ही पीयो, क्या
पाप हो जाने वाला है! और अगर चाय पीने में पाप हो गया, तो फिर जीना असंभव हो जायेगा।
फिर हर चीज में पाप है। फिर उठने-बैठने में पाप है; बोलने-चालने में पाप है।
और ऐसी
घटनाएं घटी हैं--मनुष्यजाति के इतिहास में, जब हर चीज पाप हो गई। तुमने तेरापंथी साधु
देखे हैं--मुंह पर पट्टी बांधे हुए! बोलने में पाप है, क्योंकि बोलने में गरम हवा
निकलती है मुंह से, उससे
कीड़े इत्यादि,
अगर
हवा में हों,
तो मर
जाते हैं। तो बोलने में पाप है।
सांस
लेने पाप हो गया! जीना पाप हो गया! उठना-बैठना पाप हो गया! यह तो बड़ी कठोरता हो गई
आदमी के साथ ज्यादती हो गई। लेकिन जो अपने साथ ज्यादती करेगा, वह दूसरे के साथ भी ज्यादती
करेगा ही।
जब तुम
किसी नियम को पालन कर लेते हो, तो तुम
यह मानते हो कि सभी को करना चाहिए। अब जो आदमी रात तीन बजे उठ आता है, वह मानता है--सभी को उठाना
चाहिए। क्यों?--क्योंकि वह उठ आता है! अब यह
हो सकता है कि उन सज्जन को नींद न आती हो ठीक से। बढ़े हो गये हों। बुढ़ापे में नींद
कम हो जाती है। फिर हर आदमी की जीवन व्यवस्था अलग-अलग है।
जब
बीमार होता है कोई, तभी हम
उसके पास जाते हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जब बच्चा बीमार हो, तब बहुत ज्यादा प्रेम मत
दिखलाना,
अन्यथा, तुम उसे जीवन भर बीमार रखने
का उपाय कर रहे हो। जब बच्चा स्वस्थ हो, जब ज्यादा प्रेम दिखलाना ताकि स्वास्थ्य और
प्रेम का संबंध हो जाए, बीमारी
और प्रेम का संबंध न हो जाये। लेकिन हम उलटा ही करते हैं।
बच्चा
स्वस्थ है,
तो कौन
फिक्र करता है! न मां देखती है; न बाप
देखता है;
न किसी
को लेना-देना है। जब ठीक ही है, तो
क्या लेना-देना है? जब
बच्चा बीमार होता है, तो मां
भी पास बैठी है--बाप भी। बच्चा बड़ा प्रसन्न होता है देख कर--कि बड़े-बड़े पास बैठे
हैं। इशारे पर चलाता है। चाय ले आओ। यह करो; वह करो। डाक्टर भी आता है, तो बच्चा बड़ा प्रसन्न होता
है। वह सबसे ऊंचे पद पर बैठा है। जब तक बीमार रहता है, तब तक यह पद रहता है। जैसे ही
बीमारी गयी,
यह पद
समाप्त हुआ। फिर कोई उसकी फिक्र नहीं करता। फिर उसके अहंकार को तृप्त होने का
दुबारा अवसर तभी मिलेगा, जब वह
बीमार हो जाए।
धीरे-धीरे
बीमारी में रस आ जायेगा।
बहुत
लोग बीमारी में रस ले रहे हैं, इसलिए
दुनिया इतनी बीमार है। और बहुत लोग दुःख में रस ले रहे हैं इसलिए दुनिया इतनी बहुत
दुःखी है।
मेरे
पास लोग आते हैं;
वे
कहते हैं: सुखी होना है। लेकिन जब मैं उनसे पूछता हूं कि सच सुखी होना है? तो पहले तुमने दुःख में जो-जो
नियोजन किया है,
इन्व्हेस्टमेंट
किया है,
उसको
हटा लेना पड़ेगा;
तुम्हें
पूरी प्रक्रिया दुखी पड़ेगी अपने जीवन को--कि तुमने दुःख में कहां-कहां अपने
स्वार्थ जोड़ रखे हैं।
अब जिस
पत्नी ने जाना ही पति का हाथ--अपने सिर पर तभी है, जब सिर में दर्द हुआ, यह कैसे सिरदर्द छोड़ दे। लाख
दो तुम इसे। इस्प्रो, एनासिन; सिरदर्द कैसे छोड़ दे? यह कोई छोटी बात नहीं है।
सिरदर्द नहीं छुड़ा रहे हो; तुम
इससे इसका प्रेम छुड़ा रहे हो। इसने और कोई प्रेम जाना ही नहीं है, इसी बीमारी के माध्यम से जाना
है। यह बीमारी ही इसके प्रेम का द्वार है। यह कैसे छोड़ दे!
तुमने
देखा कि लोग अपनी बीमारी की खूब चर्चा करते हैं। क्योंकि बीमारी की चर्चा करते हैं, तभी लोग सहानुभूति प्रकट करते
हैं। नहीं तो कोई सहानुभूति प्रकट नहीं करता। तुम किसी स्वस्थ आदमी के पास थोड़े ही
सहानुभूति प्रकट करने जाते हो। दुःखी आदमी के पास सहानुभूति प्रकट करते हो। यह
मनोवैज्ञानिक अर्थों में लगता हिसाब है।
बच्चा
बीमार हो,
तो
उसकी फिक्र तो करो, लेकिन
फिक्र ऐसी अतिशय मत कर देना कि बीमारी में उसे स्वाद पैदा हो जाए। नहीं तो फिर
बीमारी से कभी छूट न सकेगा। पत्नी बीमार हो, तो दवा देना, इलाज कर देना, लेकिन इतना अतिशय प्रेम मत
उंडेल देना कि बीमारी से ज्यादा मजा तुम्हारे प्रेम में आ जाए। कि बीमारी का कष्ट
छोटा पड़ जाए और बीमारी का मजा ज्यादा हो जाए। जिस दिन यह हो गया, उस दिन फिर पत्नी ठीक न हो
सकेगी। और तुम जिम्मेवार हुए--बीमारी के लिए।
परमात्मा
के साथ भी हम यही तरकीब करते हैं। मलूकदास कहते हैं: ना वह रीझै जपत्तप किन्हें, न आतम को जारे। और तुम कितना
ही जलाओ अपनी आत्मा को, कितना
ही सताओ अपने को,
इससे
तुम उसे रिझा न सकोगे। शायद इन्हीं उपायों के कारण तुमने उसे रूठा दिया है।
अगर
तुम परमात्मा के हिस्से हो, तो जब
तुम अपने को कष्ट दोगे, तो
तुम्हारा कष्ट उसी में पहुंच रहा है। तुम उसी को कष्ट दे रहे हो। इस बात की बड़ी
गरिमा है। इसे खूब खयाल में लेना।
जब भी
तुमने अपने को कष्ट दिया, परमात्मा
को ही कष्ट दिया है, क्योंकि
वही है। लहर ने अपने को कष्ट दिया, तो सागर को ही मिलेगा। और अगर हम परमात्मा
के हिस्से हैं,
तो
अपने को सताया,
तो
हमने परमात्मा को ही सताया।
भक्त
कहता है: अपने को प्रेम करो, क्योंकि
तुमने भी परमात्मा का ही हाथ है। अपना आदर करो, समादर करो, अपना सम्मान करो। इस देह में
भी पर आत्मा विराजमान है, इस देह
का अनादर मत करो। यह देह उसका ही घर है, उसका ही मंदिर है। इस देह की भी पूरी फिक्र
करो, देखभाल करो। जैसे मंदिर की
देखभाल करते हो,
ऐसे
देह की देखभाल करो।
भक्त
की दृष्टि बड़ी अलग है; तुम्हारे
तथाकथित तपस्वी से बड़ी भिन्न है; विपरीत
है। इसलिए तुम बहुत हैरान होते हो। तुम देखोगे भक्त को: वह तिलक-चंदन लगाए, बड़े बाल बढ़ाये, सुंदर रेशम के वस्त्र पहने, सुगंधित इत्र लगाये, फूल की माला डाले भगवान की
पूजा कर रहा है! तुम्हें लगता है: यह क्या पूजा हो रही है।
भक्त
की दृष्टि तुम नहीं समझ रहे हो। भक्त इस देह को अपनी देह नहीं मानता; परमात्मा की ही देह है। तो इस
देह को भी नहलाता है, धुलाता
है; इत्र छिड़कता है; चंदन लगाता है; फूल की माला पहन लेता है; रेशम के वस्त्र पहन के
परमात्मा के सामने नाचता है।
भक्त
कहता यह है कि जब तुम परम स्वास्थ्य की दशा में हो, परम सौंदर्य की दशा में
हो--अपने में मुग्ध, तभी
तुम उसे रिझा पाओगे। उसे रिझाना हो--सुंदर बनो उसे रिझाना हो--सुंदर बनो। उसे
रिझाना हो--रसमय बनो। उसे रिझाना हो, तो इस योग्य बनो कि वह रीझे; रीझना ही पड़े। कुछ गाओ मधुर; कुछ गुनगुनाओ मधुर; कुछ जीओ मधुर।
तो
भक्त का जीवन है--माधुर्य का जीवन। त्यागीत्तपस्वी का जीवन है--अपने को सताने का
जीवन। और ध्यान रखना: त्यागीत्तपस्वी के खिलाफ आधुनिक मनोविज्ञान भी है। आधुनिक
मनोविज्ञान कहता है: ये त्यागीत्तपस्वी और कुछ नहीं, मैसोचिस्ट हैं। यह अपने को
सताने में रस ले रहे हैं; इन्हें
परमात्मा से कुछ लेना-देना नहीं है। इन्हें हिंसा में रस आ रहा है।
दुनिया
में दो तरह के लोग हैं। एक तो वे, जिन्हें
दूसरों को सताने में रस जाता है, अडोल्फ
हिटलर,
जिन्हें
देख कर मजा आ जाता है--दूसरे को तड़पते देख कर। और दूसरे वे हैं, जिन्हें अपने को सताने में
मजा आता है,
महात्मा
गांधी। इनमें बहुत फर्क नहीं है। इनका फर्क बहुत ऊपरी है।
दूसरों
को भूखे रखने में तुम्हें मजा आये, तो कोई भी इसे पुण्य नहीं कहेगा। कहेगा--यह
पाप हुआ। और अपने को भूखा रखने में तुम्हें मजा आये, तो लोग इसे पुण्य कहता हैं।
यह कैसे पुण्य हुआ? अगर
दूसरे को रखने में पाप है, तो
अपने को भी भूखा रखने में पाप ही होगा। एकदम से गणित बदल कैसे जायेगा!
आखिर
दूसरे को भूखा रखने में पाप क्यों है? अगर उपवास पुण्य है, तो तुमने दूसरे आदमी को उपवास
का मौका दे दिया;
वह खुद
नहीं जुटा पा रहा था, तुम
दूसरे आदमी को उपवास का मौका दे दिया; वह खुद नहीं जुटा पा रहा था, तुमने जुटा दिया। बांध कर रख
दिया उसको--घर के भीतर--पंद्रह दिन भूखा, तो इसमें पाप कहां है? यह बेचारा खुद कमजोर था; वह साहस नहीं जुटा पाता था; व्रत-नियम नहीं मान पाता था; तुमने उसका सहयोग दे दिया।
तुमने इसे परमात्मा के पास ला दिया। परमात्मा खूब रीझ जायेगा इस पर! लेकिन हम
जानते हैं कि दूसरे को भूखा रखने में तो पाप है। फिर स्वयं को भूखा रखने में कैसे
पुण्य हो जायेगा?
जो
तुमने दूसरों की देह के साथ किया, वही तो
तुम अपनी देह के भी साथ कर रहे हो। और देह तो सभी पराई हैं। दूसरे की देह भी उतनी ही
पराई है,
जितनी
मेरी देह पराई है। तुम्हारी देह जरा देर; मेरी देह जरा पास; लेकिन फर्क क्या है? न तो मैं अपनी देह हूं; न तुम्हारी देह हूं। देह को
सताना पुण्य नहीं हो सकता। इसलिए भक्त भोग लगाता है। उपवास पर उसका जोर नहीं है।
भक्त भगवान को भोग लगाता है--स्वादिष्ट भोजन का। और भक्त अपने को भी भोग लगाता
है--स्वादिष्ट से स्वादिष्ट भोजन का। भक्त का जीवन रस का जीवन है; माधुर्य का जीवन है। भक्त का
जीवन स्वस्थ मनस का जीवन है।
ना वह
रीझै जपत्तप किन्हें, ना आतम
को जारे।
ना वह
रीझै धोती टांगे,
न काया
के पखार।।
और कुछ
लोग हैं कि अपनी धोती सम्हाल-सम्हाल कर चल रहे हैं। किसी को छू न जाए। ना वह रीझै
धोती टांगे...।--कि कही शूद्र को न छू जाए। कि कहीं इसको न छू जाए; कहीं उसको न छू जाए। वही है
अगर--तो तुम किसे शूद्र कह रहे हो!
कहते
हैं कि शंकराचार्य स्नान करके निकले गंगा से। सुबह का समय होगा; पांच बजे--ब्रह्म-मुहूर्त।
गुनगुनाते वेद-मंत्र सीढ़ियां चढ़ रहे हैं और एक आदमी आ कर छू गया: कौन है? उस आदमी ने कहा, क्षमा करें; शूद्र हूं। शंकर तो नाराज हो
गये। भूल गये--अद्वैत। गई बातें वे--कि सारा जगत एक है; कि एक ही ब्रह्म सब कुछ है, बाकी सब माया है। भेद--माया
है: यह भूल गये।
शास्त्र
पर व्याख्या करनी एक बात है, जीवन
में उस व्याख्या को जीना बड़ी दूसरी बात है।
नाराज
हो गये उस शूद्र पर। उस शूद्र ने कहा: क्षमा करें। लेकिन एक बात मैं पूछ लूं।
क्योंकि मैं जानता हूं--आप कौन हैं। आप मनीषी--शंकराचार्य हैं। आप महा दार्शनिक
शंकराचार्य हैं। महा व्याख्याकार शंकराचार्य हैं। आप से एक बात पूछ लूं। मेरे छूने
में गलती क्या हो गई? मेरी
देह अशुद्ध है?
तो
क्या आप सोचते हैं कि आपकी देह शुद्ध है? अगर मेरी देह मल-मूत्र से भरी है, तो आपकी कोई स्वर्ण, चांदी, हीरे-जवाहरातों से भरी है?
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि हर आदमी की नींद की जरूरत भी अलग-अलग है। और यह भी खोजा गया है कि हर
आदमी के नींद के गहराई के घंटे भी अलग-अलग होते हैं। कुछ लोग दो और तीन के बीच
गहरी से गहरी नींद सोते हैं। कुछ लोग चार और तीन के बीच। कुछ लोग पांच और चार के
बीच गहरी से गहरी नींद सोते हैं। दो घंटे कम से कम रात में बड़ी गहरी नींद के होते
हैं। वे सबके अलग-अलग होते हैं।
अब जिस
आदमी का समझो तीन और पांच के बीच गहरे घंटे हों--सोने के, उसको अगर तुम तीन और पांच के
बीच उठा दागे,
वह दिन
भर परेशान रहेगा। उसको पांच के बाद ही उठने में सुगमता है। लेकिन जिस आदमी के गहरे
घंटे एक और तीन के बीच पूरी हो गये, वह तीन बजे उठ सकता है। जब वह उठ आता है और
कहता है कि उसके उठने से कोई तकलीफ नहीं होती, बल्कि दिन भर ताजगी रहती हो, तो वह कहता है--तुम भी उठो।
व्यक्ति-व्यक्ति
के भेद हैं। लेकिन महात्मा भेद नहीं मानते।
विनोबा
के आश्रम में तीन बजे रात सभी को उठ आना चाहिए। यह ज्यादती है; यह निहायत ज्यादती है।
चिकित्सकों से पूछ सकते हैं कि यह ज्यादती है।
पुरुष
और स्त्रियों के नींद में अलग-अलग भेद हैं। पुरुषों की नींद आमतौर से तीन और पांच
या ज्यादा से ज्यादा चार और छह के बीच पूरी हो जाती है। जो दो घंटे गहरी नींद के
हैं, उस समय मनुष्य शरीर का तापमान
नीचे गिर जाता है,
दो, डिग्री नीचे गिर जाता है।
चौबीस घंटे में दो डिग्री नीचे गिर जाता है तापमान, वे उनमें अगर न सो पाये, तो दिन भर गैरत्ताजगी रहेगी; नींद आयेगी; जम्हाई आयेगी; परेशानी होगी।
स्त्रियां
आमतौर से पांच और सात के बीच या चार और छह के बीच उस गहरी नींद को लेती हैं। पुरुष
घंटे भर पहले उठ सकते हैं। इसलिए पश्चिम में रिवाज ठीक है कि पुरुष सुबह की चाय
तैयार करे;
स्त्रियां
न करें। यह बिलकुल ठीक है। स्त्रियां का घंटे भर बाद उठने का सहज क्रम है।
और जो
नींद के संबंध में सही है, वही
भोजन के संबंध में सही है। जो एक के लिए भोजन है, दूसरे के लिए जहर हो सकता है, जो एक के लिए पर्याप्त मात्रा
है, दूसरे के लिए बिलकुल
अपर्याप्त हो सकती है। लेकिन लोग ज्यादती पर उतर जाते हैं। और जो आदमी अपने साथ
कठोर है,
वह मान
लेता है कि मैं ही नियम हूं, इसलिए
सब को मेरे जैसा होना चाहिए। यह भांति है; यह हिंसा है।
और
तुम्हारे तथाकथित महात्मा काफी हिंसा से भरे हुए लोग हैं।
दया
करै धरम मन राखै,
घर में
रहै उदासी।
समझना
यह सूत्र। को ही लेकर मैंने सारे संसार की धारणा खड़ी की है। धरम मन राखै--मन रहे
धर्म में। धरम रहे मन में, घर में
रहे उदासी।--घर से भाग न जाए; भगोड़ा
न बन जाए। क्योंकि असली बात मन की है; असली बात स्थान की नहीं है; स्थिति की नहीं है--मनःस्थिति
की है।
तुम
जंगल में चले जाओ--क्या होगा! अगर तुम्हारा मन धर्म में नहीं है, तो जंगल में भी बैठ कर तुम
हिसाब-किताब की बातें सोचोगे; दुकान
की बातें सोचोगे;
बैंक
की बातें सोचोगे। सोचोगे कि चले ही जाते। अब लोकसभा के चुनाव हो रहे हैं; लड़ ही लेते। कहां आ गये! कहां
फंस गये?
किस
झंझट में आ गये?
ये
पहाड़ पर बैठे-बैठे क्या कर रहे हो? तुम यही सोचोगे न, तो सोच सकते हो। तुम्हारा मन
तो तुम्हारा है;
जंगल
में जाने से कहां मन छूट जायेगा! मन को कहां छोड़ कर भाग पाओगे।
घर से
भाग सकते हो;
घर
बाहर है। मन तो भीतर है। तुम कहां जाओगे, मन साथ चला जायेगा। तुम तो अपने साथ ही
रहोगे ना। तुम अपने को छोड़ कर कहां जाओगे? और तुम ही असली प्रश्न। न तो पत्नी है
प्रश्न;
न पति, न बेटे, बच्चे; न दुकान, बाजार।
धरम मन
राखै, घर में रहै उदासी। और यह
उदासी शब्द भी समझ लेना। शह शब्द बड़ा विकृत हो गया। इसका मौलिक अर्थ खो गया। गलत
आदमियों के हाथ पड़ गया। अच्छे से अच्छे शब्द भी गलत आदमियों के साथ पड़ जाए, खराब हो जाते हैं।
इस
शब्द की बड़ी दुर्गति हो गई। तुमने सुना न--कि संग-साथ सोच कर ही करना चाहिए। इस
शब्द ने गलत लोगों का संग-साथ कर लिया।----शब्द ने!वह तक नरक में पड़ गया। उदासी का
मतलब हो गया--जो उदास है। मौलिक अर्थ उसका बड़ा अदभुत है। इसके मौलिक अर्थ है: उद्
आसीन। उद् आसीन का अर्थ होता है; परमात्मा
के पास बैठा हुआ। वही अर्थ उपवास का भी होता है। उप वास--उसके पास बैठा हुआ। वही
अर्थ उपनिषद् का भी होता है--उसके पास बैठा हुआ--उपनिषद्।
परमात्मा
के जो पास बैठा हुआ है--वह उदासी--उद् आसीन।
अब यह
बड़े मजे की बात है कि जो परमात्मा के पास बैठा है, वह उदास तो हो ही नहीं सकता।
वह तो छलकेगा--वह तो रास भरा हुआ छलकेगा। वह तो नाचेगा।
परमात्मा
के पास बैठ कर अगर उदास हो गये, तो फिर
छलकोगे कहां! फिर नाचोगे कहां? फिर
उत्सव कहां मनाओगे? अगर
परमात्मा के पास भी उदास हो गये, तो यह
तो परमात्मा का साथ न हुआ--नरक का साथ हो गया। नरक में उदासी हो जाओ तो ठीक।
परमात्मा
के पास बैठा हुआ आदमी तो अलमस्त हो जायेगा। उसे तो मिल गई--परम मधुशाला। उसे तो
मिल गई ऐसी शराब,
जो
पीयो तो चुकती नहीं। और पीयो--और एक दफा बेहोशी आ
जाए,
तो फिर
कभी होश नहीं आता लौट कर। गये--सो गये। डूबे--सो डूबे।
ऐसा
आदमी न केवल खुद अपूर्व उत्फुल्लता से भरा जायेगा, उसके पास भी जो जायेगा, इस पर भी उसकी किरणें पड़ेंगी; उसके छीटे उस पर भी पड़ेंगे।
वह भी नाचता हुआ लौटेगा। उसके भीतर भी गीतों का जन्म हो जायेगा। उसके पैरों में भी
घूंघर बजने लगेंगे। उसकी वीणा पर भी तार छिड़ने लगेंगे।
तो
उदासी शब्द तो बड़ी अजीब हालत में पड़ गया। इसका मतलब होता है--परमात्मा के पास; परमात्मा के पास--इसका मतलब
होता है: समाधिस्थ। समाधिस्थ का अर्थ होता है: परम आनंद को उपलब्ध--सच्चिदानंद को
उपलब्ध। और उदासी शब्द को जो आम-अर्थ हो गया है, वह यह--कि जो बैठे हैं सिर
मारे; आंखों में कीचड़; मुरदे की तरह; मक्खियां उड़ रही हैं! उदासी!
ये तो
परमात्मा से सबसे ज्यादा दूर पड़ गये। यह तो उलटी ही बात हो गई!
दया
करै, धरम मन राखै, घर मग रहै उदासी। घर में ही
रह कर परमात्मा के पास होने की कला है। उसका स्मरण करते रहो--जहां हो--उसके नाम का
गीत गाओ;
उसकी
याद की गहराओ।
धरन मन
राखै। शुरू करना होता है--धर्म में मन लगाओ: ऐसी शुरुआत धर्म में मन--इससे शुरुआत
होती है। और एक दिन ऐसा आता है कि मन में धर्म समा जाता है; तब अंत आ गया। प्रारंभ और अंत
इन दो बातों में समा जाते हैं।
धर्म
में मन--पहली सीढ़ी। मन में धर्म--अंतिम सीढ़ी आ गई।
शुरुआत
करो--याद करने से,
बार-बार
याद करने से,
पुनः
पुनः याद करने से। फिर धीरे-धीरे तुम पाओगे: अब उपाय ही न रहा--भुलाने का। अब याद
करने की भी जरूरत न रही--याद बनी ही रहती है--सतत; जैसे श्वास चलती रहती है, ऐसी याद बनी रहती है।
दया
करै, धरम मन राखै, घर में रहै उदासी।
छोटा-सा
सूत्र है। तीन बातें कह दीं: प्रेम बरसाता रहे; ध्यान प्रभु में लगाता रहे और घर में रह कर
परमात्मा को खोजता रहे।
अपना
सा दुःख सबका जानै, ताहि
मिलै अविनासी। और अपना सा दुःख सबका जानै--जो अपना दुःख है, वही सबका दुःख है।--ऐसा जान
कर जिए। तो न तो खुद को दुःख दे; कर्ता
का भाव उतार कर रख दो।
सहै
कुसब्द वादहूं त्यागै...। और संसार की निंदा तो मिलेगी--ऐसे आदमी को। उसे बड़े
कुशब्द सहने पड़ेंगे। क्योंकि संसार गलत की धारणा पर जी रहा है। भीड़ भांति में जी
रहा है। इसलिए जो भी आदमी सचाई में जीना शुरू करेगा, भीड़ नाराज होगी। कुशब्द सहने
पड़ेंगे;
अपमान
सहना पड़ेगा।
अकारण
तो नहीं है कि जीसस को सूली लगती; कि
सुकरात को जहर पिला दिया जाता; कि
मंसूर के लोग हाथ-पैर काट डालते!
लोग
इतने झूठ में जी रहे हैं कि जब भी सत्य मिलेगा, उसके साथ वे दुरव्यवहार करेंगे। यह
स्वाभाविक है।
तो
कहते मलूक: सहै कुसब्द...। सुन लो; सह जाओ; पी जाओ; फिर भी दया रखो; फिर भी परमात्मा के पास अपना
आसान जगाये रहो। डांवाडोल मत होओ। और जो लोग अपमान करें, जो लोग गालियां दें, इनके साथ व्यर्थ विवाद में
पड़ने की भी कोई जरूरत नहीं है। तुम इन्हीं विवाद से समझा न पाओगे। ये समझना ही
नहीं चाहते हैं,
तो तुम
समझा कैसे पाओगे! इसलिए इनकी फिक्र ही छोड़ दो। यह जानें, इनका काम जाने। अगर इन्होंने
ऐसे ही जीना चाहा है, तो ऐसे
जिए। इनकी मरजी। लेकिन तुम अपनी दया को इन पर से मत हटाना। दया को तो जारी रखना।
तुम्हारा दया भाव तो बना रहे। तुम्हारा प्रेम तो बरसता रहे। इनके अपमान मिलते रहें, तुम्हारा प्रेम बरसता रहे।
यही रीझ मेरे निरंकार की, कहत
मलूक दीवाना। यह दीवाना मलूक कहता है कि यही रीझ मेरे निरंकार की--यह मेरे
परमात्मा को रिझाने की कला है।
अब
समझना। मलूक अपने को कहते हैं: दीवाना--पागल!
परमात्मा में जो पागल न हो जाए, उसे परमात्मा का कुछ पता ही नहीं। परमात्मा
के साथ संबंध जुड़ जाए--और तुम होश सम्हाल लो अपना! तो बात ही फिर हुई नहीं४
होश
सम्हाल सकते हो,
तभी तक, जब तक परमात्मा से साथ नहीं
जुड़ा। परमात्मा से साथ जुड़ने में तो ऐसा हो जाता है, जैसे बूंद में सागर उतर आये।
बूंद सागर न हो जायेगी तो और क्या होगा! जैसे अंधे को अचानक आंख मिल जाए; मुरदा अचानक जाग उठे और जी
जाए। यह भी कुछ नहीं हैं--तुलनायें।
जब
परमात्मा का मिलन होता, तो
जन्मों की प्यास तृप्त होती।
सांझ
हुई
बंसी
की धुन पर
झूम
उठी पुरवाई
खपरेलों
पर धुआं उठा
लहरों
पर बिछले गीत
पनघट
पर मेला जुड़ आया
लहरी
चुनरी पीत
शिशुओं
चुनरी पीत
शिशुओं
ने सज लिए घरौंदे
फूल
उठी अंगनाई
सांझ
हुई
बंसी
की धुन पर
झूम
उठी पुरवाई।
तुलसी-चौरे
घी के दीपक
सधवाओं
ने बाले
नई वधू
ने गूंथी वेणी
किस
तपसी की माया
कण-कण
क्षण हर चीज अभी सब
गलती
है मदिराई
सांझ
हुई
बंसी
की धुन पर
झूम
उठी पुरवाई।
एक
मदिरा है;
लेकिन
हम तो जीवन का आनंद भूल गये हैं। हमारे जीवन में तो कभी बंसी बजती नहीं। सांझ हो
जाती है,
लेकिन
बंसी नहीं बजती। सुबह हो जाती है, लेकिन
बंसी नहीं बजती। बंसी बजनी ही बंद हो गई है। तो हम। बंसी की भाषा ही भूल गये हैं।
एक
मदिरा है;
लेकिन
हम तो जीवन का आनंद भूल गये हैं। हमारे जीवन में तो कभी बंसी बजती नहीं। सांझ हो
जाती है,
लेकिन
बंसी नहीं बजती। सुबह हो जाती है, लेकिन
बंसी नहीं बजती। बंसी बजनी ही बंद हो गई है। तो हम बंसी की भाषा ही भूल गये हैं
हमारा
मदिरा से संबंध ही छूट गया है। आनंद से हमारा कोई नाता नहीं सुख कभी छलकता नहीं।
हमारी आंखों में कभी सुख की चमक--सुख की बिजली नहीं कौंधती। और हमारे प्राणों में
कभी ऐसा नहीं होता--कि हम धन्यभागी है कि जीवन मिला। शिकायत--और शिकायत।
तो
इसका अर्थ इतना ही है कि हम परमात्मा के पास बैठना अभी तक नहीं सीखे। अभी तक हमने
उदासीन होने की कला नहीं सीखी।
परमात्मा
से जितने दूर--उतना दुःख। उसी अनुपात में दुःख। परमात्मा के जितने पास--उतना सुख; उसी अनुपात में सुख।
कण-कण
क्षण हर चीज अभी सब
लगती
है मदिराई
सांझ
हुई
बंसी
की धुन पर
झूम
उठी पुरवाई।
और
परमात्मा के पास बैठ गये कि सांझ हो गई। अब कोई यात्रा न रही। घर आ गये। रात करीब
आयी--विश्राम के लिए। अब हम परमात्मा में चादर ओढ़ कर सो जा सकते हैं।
"सहै कुशब्द वादहूं त्यागै, छांड़ै गव गुनामा।' गर्व और गुमान हमें बड़ी तरह
बुरी तरह घेरे हुए हैं। धन का गर्व, पद का गर्व, त्याग का गर्व।
मैंने
सुना है: एक यहूदी रबाई एक यहूदी सम्राट के साथ प्रार्थना कर रहा है। कोई पवित्र
दिन है यहूदियों का और सम्राट पहला आदमी है, जो सिनागाग में, मंदिर में आया है प्रार्थना
करने। यह उसका हक है। सम्राट प्रार्थना करता है, और कहता है। हे भगवान, मैं ना कुछ हूं। उसके बाद
धर्मगुरु प्रार्थना करता है और कहता है: हे भगवान, मैं ना कुछ हूं। और तभी उन
दोनों ने चौंक कर देखा कि वह जो झाडू-बुहारी लगाने वाला है मंदिर का, वह भी उनके पास बैठ कर अंधेरे
में कहता है कि भगवान, मैं
ना-कुछ हूं।
यह बात
धर्मगुरु को जंची नहीं! उसने सम्राट से कहा: जरा देखो तो, कौन कह रहा है कि मैं ना कुछ
हूं! ना कुछ कहने में भी सम्राट कहे, तो जंचती है बात। धर्मगुरु ने बड़े व्यंग से
कहा: जरा देखो तो,
कौन कह
रहा है कि मैं ना-कुछ हूं! यह पागल, झाडू-बुहारी लगाने वाला परमात्मा से कह रहा
है--मैं ना-कुछ हूं।
तुम
खयाल रखना: आदमी जब अपने को कहे--ना कुछ हूं, तब भी अहंकार ही भीतर काम करता है। सम्राट
कहे तो जंचता--कि मैं ना कुछ हूं। इस ना कुछ हूं। इस ना कुछ में भी भीतर वही
अहंकार खड़ा है,
वही
अकड़ खड़ी है--देखो,
मैं
इतना बड़ा सम्राट और मैं अपने को ना कुछ कह रहा हूं! मैं इतना बड़ा धर्मगुरु और अपने
को ना कुछ कह रहा हूं! अब यह झाडू-बुहारी लगाने वाला आदमी--यह भी अपने को ना कुछ
कह रहा है। यह मजा देखो। यह तो ना कुछ है ही। इसके कहने को क्या है?
इसीलिए
तुम त्याग भी नापते हो, तो धन
से नापते हो। अगर गरीब आदमी त्याग करे, तो तुम कहते हो: क्या त्यागा! था ही क्या? अमीर त्यागे, तो तुम कहते हो: हां, त्याग हुआ। तो त्याग को भी
मापने की कसौटी धन ही है।
तब रोक
न पाया मैं आंसू।
जिसके
पीछे पागल हो कर
मैं
दौड़ा अपने जीवन-भर
जब
मृगजल में परिवर्तित हो
मुझ पर
मेरा अरमान हंसा
तब रोक
न पाया मैं आंसू।
एक दिन
ऐसा होगा,
जब तुम्हारे
जीवन जीवन,
जन्मों
जन्मों के गर्व और गुमान तुम पर हंसेंगे।
तब रोक
न पाया मैं आंसू
जिसने
अपने प्राणों को भर
कर
देना चाहा अजर-अमर
विस्मृति
के पीछे छिप कर मुझ पर
वह
मेरा गान हंसा
तब रोक
न पाया मैं आंसू।
मेरे
पूजन-आराधन को
मेरे
सम्पूर्ण समर्पण को
जब मेरी
कमजोरी कह कर
मेरा
पूजित पाषाण हंसा
तब रोक
पाया मैं आंसू।
आदमी
जीवन भर जिस अहंकार को पालता है, पोषता
है, उस अहंकार को एक बार गौर से
तो देखो। वह अहंकार संगी-साथी नहीं है। वह अहंकार तुम पर हंसेगा; वह तुम्हारी कब्र पर हंसेगा।
वह तुम्हारे जीवन भर की व्यर्थता पर हंसेगा। और जिसके लिए तुमने सब समर्पित कर
दिया था,
अंत
में उसी का अट्टहास तुम्हारे प्राणों में तीर की तरह चुभेगा।
इसलिए
राम कहो,
राम
कहो, राम कहो बावरे। हम तो कहते
हैं: मैं--मैं--मैं। मलूक कहते हैं: राम कहो, राम कहो, राम कहो बावरे। पागलो, अगर कहना ही है, तो ये मैं--मैं कहना बंद करो।
इस मैं की जगह राम को बसाओ, राम को
पुकारो।
अवसर न
चूक भोंदू,
पायो
भला दांव रे। और बहुत चूक हो गई। अब तक चूकता आया। अब तो न चूक। यह मौका मिला फिर
जीवन का। इस जीवन को दांव पर लगा के परमात्मा को पा ले। इस जीवन को खोकर भी
परमात्मा मिले,
तो पा
ले। यह सब दांव पर लगाने जैसा है।
अवसर
चूक भोंदू...। हे मूढ़, अब मत
चूक। पायो भला दांव रे। मुश्किल से यह मौका मिलता--आदमी होने का, मनुष्य होने का। यह छोटा सा
अवसर है,
जन्मों-जन्मों
के लिए फिर खो सकता है। पशु-पक्षी परमात्मा की याद नहीं कर सकते हैं। पौधे-पत्थर
परमात्मा की याद नहीं कर सकते हैं। सिर्फ मनुष्य उस चौराहे पर खड़ा होता है, जहां से अगर वह चाहे, तो परमात्मा की तरह उठ जाए; और चाहे तो फिर प्रकृति में
खो जाए। प्रकृति और परमात्मा का चौराहा है मनुष्य।
अवसर न
चूक भोंदू,
पायो
भला दांव रे।
राम को
पुकारने की बात का क्या अर्थ है? जप का
तो विरोध किया। लेकिन अब कहते हैं: राम कहो, राम कहो, राम कहो बावरे। जप नहीं--प्यार और प्रेम की
पुकार।
कहते
हैं: तारे गाते हैं।
सन्नाटा
वसुधा पर छाया
नभ में
हमने कान लगाया
फिर भी
अगणित कंठों का यह
राग
नहीं हम सुन पाते हैं
कहते
हैं: तारे गाते हैं
स्वर्ग
सुना करता यह गाना
पृथ्वी
ने तो बस यह जाना
अगणित
ओस-कणों में
तारों
के नीरव आंसू आते हैं
कहते
हैं: तारे गाते हैं।
ऊपर
देव, तले मानव गण
नभ में
दोनों--गायन-रोदन
राग
सदा ऊपर को उठता
आंसू
नीचे झर जाते हैं
कहते
हैं: तारे गाते हैं।
सारा
अस्तित्व आ रहा है। सारा अस्तित्व गुनगुना रहा है। एक विराट गीत। काश! तुम प्रेम
की आंखों से देख सको, तो फूल
गा रहे हैं;
चांदत्तारे
गा रहे हैं;
पक्षी
गा रहे हैं। काश! तुम प्रेम भाव से देख सको, तो तुम पाओगे--यह विराट प्रार्थना चल रही
है। इस प्रार्थना में तुम भी सम्मिलित हो जाओ। राम कहो, राम कहो, राम कहो बावरे का यही अर्थ
है।
तुम इस
प्रार्थना में अलग-थलग खड़े न रह जाओ। तुम एक द्वीप बन कर न रह जाओ। इस विराट
प्रार्थना में सम्मिलित हो जाओ। और तुम्हें एक अपूर्व अवसर मिला है। क्योंकि पक्षी
गा रहे हैं--बेहोशी में; चांदत्तारे
गा रहे हैं--मूर्च्छा में। तुम होश में गा सकते हो। तुम धन्यभागी हो।
अगर
पशु-पक्षी न पहुंच सके परमात्मा को, तो उनका कोई दोष नहीं। तुम न पहुंचे, तो दोषी हो जाओगे। तुम्हारा
उत्तरदायित्व बड़ा हैं।
जिन
तोका तन दीन्हों,
ताको न
भजन कीन्हों।
जनम सिझाने
जात तेरो,
लोहे
कैसो ताव रे।।
जैसे
लोहे को अगर पीटना हो, कुछ
बनाना हो लोहे से,
तो जब
गरम हो तभी पीटना चाहिए। जब ठंडा हो जाए, तो फिर व्यर्थ हो जाता है। तो जीवन की जब तक
गरमी है,
तब तक
कुछ कर लो। इस गरमी को परमात्मा के चरणों में समर्पित कर दो।
लोग
मरने की राह देखते हैं। लोग कहते हैं; मरते वक्त ले लेंगे--राम का ना। कि मरते
वक्त पी लेंगे गंगाजल। कि मरते वक्त सुन लेंगे--वेद के मंत्र--गायत्री। जब लोहा
ठंडा हो जाए,
तब लाख
पीटो, कुछ न बन पायेगा।
जिन
तोको तन दीन्हों,
ताको न
भजन कीन्हों। जहां से जन्म हुआ--उस स्रोत की भी तूने स्तुति न की! जिससे सब मिला, उसको तूने धन्यवाद भी न दिया!
जनम
सिरानो जाते तेरो--और रोज-रोज राख आती जा रही है, अंगार ठंडा होता जा रहा है।
लोहे कैसो ताव रे।--याद रख कि लोहा ठंडा हो जायेगा, तो फिर प्रार्थना व्यर्थ
होगी। अभी कुछ कर ले, जब
लोहा गरम हो। जब जीवन उष्मा से भरा हो; कुछ करने की सामर्थ्य हो, तब सारी ऊर्जा को परमात्मा के
चरणों में जो रख देता है, उसके
जीवन में क्रांति घटती है।
राम जी
को गाव-गाव रामजी को तू रिझाव।
राम जी
के चरण कमल,
चित्त
मांहि लाव रे।।
और
ध्यान रहे रिझाने पर--जैसे प्रेयसी रिझाती है। जैसे प्रेमी रिझाता है। रिझाना शब्द
बड़ा प्यारा है। परमात्मा रूठा है, क्योंकि
तुमने जो अब तक किया है, उसमें
धन्यवाद भी नहीं दिया है! तुमने परमात्मा का अनुग्रह भी स्वीकार नहीं किया है।
शिकायत तो बहुत बार की है, अनुग्रह
का भाव प्रकट नहीं किया है।
मंदिर
भी गये प्रार्थना करने, तो कुछ
मांगने गये हो--धन्यवाद देन नहीं गये हो। जो--उसके लिए धन्यवाद नहीं दिया है; जो नहीं है--उसके लिए शिकायत
जरूर की है। और शिकायत का प्रार्थना से क्या संबंध? प्रार्थना का अर्थ तो धन्यवाद
होता है। इतना दिया है! इतना दिया है!
तुम
जरा हिसाब तो लगाओ: कितना तुम्हें मिला है! एक-एक श्वास अमूल्य है।
सिकंदर
ने जब सारी दुनिया जीतने का सपना करीब-करीब पूरा कर लिया, तो वह एक फकीर को मिला--भारत
से बाहर जाते वक्त। उस फकीर से उसने कहा कि मैंने दुनिया को जितने का सपना पूरा कर
लिया। वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा: सिकंदर, तुझे अभी भी होश नहीं आया! अगर तू एक
मरुस्थल में भटक जाए और तुझे प्यास लगी हो, तो एक गिलास पानी के लिए तू कितना राज्य का
हिस्सा देगा?
सिकंदर
ने कहा,
अगर
ऐसी हालत हो कि मैं मर रहा होऊं, तो आधा
राज्य दे दूंगा। लेकिन फकीर ने कहा कि समझ कि मैं आधे राज्य में बेचने को तैयार न
होऊं। तो सिकंदर ने कहा: पूरा राज्य दे दूंगा। तो वह फकीर हंसने लगा; कहा, फिर सोख एक गिलास पानी के लिए
आदमी पूरे साम्राज्य को दे सकता है--पूरी पृथ्वी के साम्राज्य को--जीने के लिए। और
जीना मिला है,
उसके
लिए परमात्मा को तूने धन्यवाद दिया है? मुक्त मिला है। सारे जगत का राज्य देने को
तू तैयार है,
कि अगर
थोड़ी देर और जीने को मौका मिल जाए। लेकिन जीवन तुझे मिला है, वर्षों से तू जी रहा है और
तूने कभी धन्यवाद दिया?
एक
श्वास लेने के लिए तुम क्या देने को राजी न हो जाओगे!
और ऐसी
घड़ी आयी कि सिकंदर जब चला गया, तो वह
सोच-विचार में मग्न था। बात तो ठीक थी। वह अपने घर नहीं पहुंच पाया; बीच में उसकी मौत हो गई। और
बीच में जब उसकी मौत करीब आयी और चिकित्सकों ने कह दिया कि वह बच न सकेगा। तब वह
अपने गांव से केवल चौबीस घंटे के फासले पर था। चौबीस घंटे बाद वह अपनी मां को मिल
लेगा, अपनी पत्नी को मिल लेगा, अपने परिवार को मिल लेगा।
उसकी आकांक्षा थी। उसने अपने चिकित्सकों से कहा कि भी खर्च हो, उसकी फिक्र न करो। लेकिन मुझे
चौबीस घंटे जिला लो। मैं अपने घर तो पहुंच जाऊं। वहां जाकर मर जाऊं। उन्होंने कहा, हम असमर्थ हैं। चौबीस घंटे तो
दूर, चौबीस मिनट भी हम न जिला
सकेंगे।
सिकंदर
ने कहा।: मैं सब देने को तैयार हूं। तब उस फकीर की बात याद आयी--कि वह ठीक ही कह
रहा था। वह कल्पना न थी--मरुस्थल की। वह घटी जा रही है बात। लेकिन क्या करेगा
चिकित्सक!
सिकंदर
ने कहा कि मैं अपना सारा राज्य देने को तैयार हूं; मुझे चौबीस घंटे बचा लो। मैं
अपनी मां की गोद तक पहुंच जाऊं। वह देख तो ले अपने बेटे को--दुनिया जीत कर आ गया।
फिर मैं मर जाऊं,
कोई
बात नहीं। लेकिन चिकित्सक ने कहा, क्षमा
करें। हम क्या कर सकते हैं! मौत अब आ ही गई द्वार पर।
घर नहीं
पहुंच पाया सिकंदर। चौबीस घंटे का फासला था। सारा राज्य देने को तैयार था। लेकिन
तुम्हें यह जीवन मिला, इसके
लिए कभी परमात्मा को धन्यवाद दिया?
जिन
तोको तन दीन्हों,
ताको न
भजन कीन्हों।
जनम
सिरानो जात तेरो,
लोहे
कैसो ताव रे।।
राम जी
को गाव-गाव,
राम जी
को तू रिझाव।
राम जी
के चरण कमल चित्त मांहि लाव रे।।
रिझाओ
प्रभु को। रिझाने का अर्थ है: पुकारो हृदय से--रोओ। आंसू बन जाए तुम्हारी
प्रार्थनाएं।
यह
पपीहे की रटन है।
बादलों
की घिर घटाएं
भूमि
की लेती बलाएं
खोल
दिल देतीं दुआएं
देख
किस उर में जलन है?
यह
पपीहे की रटन है।
जो
बहादे नीर आया
आग का
फिर तीर आया
वज्र
भी बेपीर आया
कब
रुका इसका वन है
यह
पपीहे की रटन है:
यह न
पानी से बुझेगी
यह न
पत्थर से दबेगी
यह न
शोलों से डरेगी
यह
वियोगी की लगन है
यह
पपीहे की रटन है।
जब
तुम्हारा प्राण पपीहे की रटन जैसी--पी कहां?--पी कहां?--की पुकार से भर जाए...।
नानक
के जीवन में उल्लेख है: वे जवान थे। उस रात क्रांति घटी। वे बैठे हैं। प्रभु का
स्मरण कर रहे हैं। आधी रात हो गई। आधी रात भी बीतने लगी। मां उनकी आई और कहा कि
उठो अब;
सो
जाओ। और तब नानक ने कहा: चुप; सुन
जरा।
बाहर
एक पपीहा पुकार रहा है: पी कहां है? पी कहां? और नानक ने कहा: अगर यह न रुकेगा, तो मैं भी रुकने वाला नहीं।
जब इसे आधी रात का पता नहीं चल रहा है, तो मुझे क्या पता चले! जब यह पुकारे जा रहा
है, तो मैं भी पुकारे जाऊंगा। आज
तो तय किया है कि पपीहा रुकेगा, तो मैं
रुकूंगा अन्यथा,
मैं
रुकने वाला नहीं। इसका प्यारा खो गया है। मेरा प्यारा भी खो गया है। और इसका
प्यारा तो शायद इसे मिल भी जायेगा। मेरा प्यारा तो न मालूम मिले--कि न मिले! मुझे
तो देर तक पुकारना है। दि हो कि रात, मुझे तो पुकारते ही रहना है।
उस रात
वे रात भर पुकारते रहे। उसी रात क्रांति घटी। उसी रात उन्हें पहली झलक मिली
परमात्मा की। उसी रात नानक आदमी न रहे; आदमी से ऊपर उठ गये। एक तरंग आई--उन्हें
डुबा गई।
यह
पपीहे की रटन है
यह न
पानी से बुझेगी
यह न
पत्थर से दबेगी
यह न
शोलों से डरेगी।
यह
वियोगी की लगन है
यह
पपीहे की रटन है।
ऐसा हो
जाए, तो रिझाव पैदा होता है।
कहत
मलूकदास,
छोड़ दे
तैं झूठी आस।
आनंद
मगन होइ के तैं हरि गुन गाव रे।
राम
कहो, राम कहो, राम कहो बावरे।
कहत
मलूकदास,
छोड़ दे
तैं झूठी आस। अब संसार से और आशा मत रख, कि यहां कुछ मिलेगा। इसी आशा के कारण
परमात्मा को हम नहीं पुकारते।
पिया को
कैसे पुकारें?
अभी
रुपैय्या की पुकार तो बंद हो, तो फिर
पिया की पुकार शुरू हो। यह रुपैप्या तो अभी सारे प्राणों को पकड़े है। अभी हम कैसे
उस परम प्यारे को पुकारें? अभी तो
छोटी-छोटी चीजें हमारे पुकार का आधार बनी हैं।
कहत
मलूकदास,
छोड़ दे
तैं झूठी आस। इस संसार से न कभी कुछ किसी को मिला हैं, न मिलेगा। यहां सब आशाएं
निराशाओ में परिणित हो जाती हैं। और यहां सब कल्पनाएं धूल-धूसरित हो जाती हैं। यह
संसार टूटे हुए इंद्रधनुषों का ढेर है। यहां सपने टूटते हैं--पूरे नहीं होते। यहां
टूटने को ही सपने बनते हैं; पूरे
यहां होने को बनते ही नहीं। संसार मृगमरीचिका है।
कोई
नहीं, कोई नहीं
यह
भूमि है हाला भरी
मधुपात्र
मधुबाला भरी
ऐसा
बुझा जो पा सके
मेरे
हृदय को प्यास को
कोई
नहीं, कोई नहीं।
दिखती
हैं बहुत मधुशालाएं
दिखती
हैं बहुत मधुबालाएं
दिखते
हैं बहुत मधुपात्र
दिखते
हैं बहुत मधुकलश
कोई
नहीं, कोई नहीं।
यह
भूमि है हाला भरी।
मधुपात्र
मधुबाला भरी
ऐसा
बुझा जो पा सके
मेरे
हृदय की प्यास को
कोई
नहीं, कोई नहीं।
लेकिन
हृदय की प्यास इस जगत की किसी मधुशाला में बुझती नहीं। कोई मधुपात्र इस प्यास को
बुझाता नहीं। कोई मधुबाला इस प्यास को बुझाती नहीं।
सुनता
समझता है गगन
वन के
विहंगों के वचन
ऐसा
समझ जो पा सके
मेरे हृदय उच्छवास को
कोई नहीं, कोई नहीं।
पुकारते
रहो, चिल्लाते रहो। संसार की सब
पुकारें सूने आकाश में खो जाती हैं।
ऐसा
समझ जो पा सके
मेरे
हृदय उच्छवास को
कोई
नहीं, कोई नहीं।
मधुरित
समीरण चल पड़ा
वन ले
नए पल्लव खड़ा
ऐसा
फिर जो ला सके
मेरे
गए विश्वास को
कोई
नहीं, कोई नहीं।
अगर
तुम जरा ही गौर से देखोगे इस संसार में, तो तुम्हारी आशाएं सब निराशाएं हो जायेंगी।
इस
संसार में आस्था उठ जाए, तो
परमात्मा में आस्था बैठनी शुरू हो जाती है। इस संसार की तरफ पीठ हो जाए, तो परमात्मा की तरफ मुख हो
जाता है। संसार के जो विमुख हुआ, वह
परमात्मा के सन्मुख हुआ। या संसार की जिसे समझ आ गई, संसार की व्यर्थता दिखाई पड़
गई, उसे फिर दौड़ नहीं रह जाती यह
तृष्णा का लंबा जाल नहीं रह जाता।
कहत
मलूकदास,
छोड़ दे
तैं झूठी आस।
आनंद
गगन होइ के तैं हरि गुन गाव रे।।
और फिर
आनंद मगन हो कर...। उदास हो कर नहीं। संसार से जो उदास हो गया, वह परमात्मा में तो आनंद मगन
हो जायेगा। इसलिए उदास हो जाने से कोई उदासी नहीं हो जाता। तथाकथित--कि बैठे हैं; लंबे चेहरे; थके-मांदे; हारे।
नहीं; जैसे ही संसार से कोई निराश
हुआ, उसके जीवन में परम आनंद का
उत्सव प्रकट होता है। आनंद मगन होइ के तैं हरि गुन गाव रे, तैं हरि को रिझाव रे। राम कहो, राम कहो, राम कहो बावरे। और तब
परमात्मा से एक संबंध बनना शुरू होता है, जो प्रेमी और प्रेयसी का संबंध है।
छांह
तो देते नहीं
मधुमास
लेकर क्या करूंगी
बांह
तो देते नहीं
विश्वास
ले कर क्या करूंगी
टूट कर
बिखरी हृदय की
कुसुम-सी
कोमल तपस्या
स्वप्न
झूठे हो गये हैं
आरती
के दीप का
मधुनेह
चुकता जा रहा है
फूल
जूठे हो गये हैं
आ गई
थी द्वार पर
तो
साधना स्वीकार करते
अब कहा
जाऊं बताओ
तृप्ति
तो देते नहीं
यह
प्यास ले कर क्या करूंगी
बांह
तो देते नहीं
विश्वास
लेकर क्या करूंगी।
भक्त
तो प्रेयसी है। परमात्मा तो प्रेमी है। वह कहता है: बांह दो; बातों से न होगा। बांह तो
देते नहीं,
विश्वास
ले कर क्या करूंगी?
विचारों
और सिद्धांतों से न होगा। तृप्ति तो देते नहीं, छांह तो देते नहीं,
मधुमास
ले कर क्या करूंगी?
आज
धरती से गगन तक
मिलन
के क्षण सज रहे हैं
चांदनी
इठला रही है
स्वप्न
सी वंशी हृदय के
मर्म
गहरे कर रही है
गंध
उड़ती जा रही है
मंजरित
अमराइयों में
मदिर
कोयल कूकती है
पर अधर
मेरे जड़ित हैं
गीत तो
देते नहीं
अच्छवास
ले कर क्या करूंगी
बांह
तो देते नहीं
विश्वास
लेकर क्या करूंगी।
भक्त
तो लड़ने लगता है। एक बार प्रेम की पुकार उठती है, तो भक्त को लड़ने लगता है।
सिर्फ भक्त ही लड़ सकता है--भगवान से। क्योंकि भक्त को कोई डर नहीं है--भगवान का।
प्रेम में कहां भय है!
गीत तो
देते नहीं
उच्छवास
ले कर क्या करूंगी
बांह
तो देते नहीं
विश्वास
लेकर क्या करूंगी
डूबती
है सांझ की
अंतिम
किरण सी आस मेरी
और
आकुल प्राण मेरे
किस
क्षितिज की घाटियों में
खो गये
प्रतिध्वनित होकर
मौन, मधुमय गान मेरे
चरण
हारे, पंथ चलते
मन
उदास, तन थक-सा
कौन दे
तुम बिन सहारा
सांस
तो देते नहीं
उल्लास
ले कर क्या करूंगी
बांह
तो देते नहीं
विश्वास
ले कर क्या करूंगी?
भक्त
फिर एक वार्ता में लीन होता है। परमात्मा के साथ भक्त की प्रार्थना जप नहीं है--एक
वार्ता है;
प्रेमी
के साथ की वार्ता है; प्रेमी
के साथ प्रेमी का रूठना--मनाना है।
रामकृष्ण
के जीवन में ऐसे उल्लेख आते हैं--कि कई बार वे प्रार्थना बंद कर देते।
द्वार-दरवाजा बंद कर देते दक्षिणेश्वर का। दो-चार दिन नदारत ही हो जाते। खबर मिली
मंदिर के ट्रस्टियों को, उन्होंने
रामकृष्ण को बुला कर कहा कहा कि यह क्या मामला है! प्रार्थना तो रोज नियम से होनी
चाहिए। यह कोई ढंग हुआ!
उन्होंने
कहा: ढंग हो या न ढंग हो। फिर कोई और पुजारी खोज लो। क्योंकि जब मैं नाराज हो जाता
हूं, तो फिर मैं प्रार्थना नहीं
करूंगा। अभी नाराज हो गया--दो दिन से। इतना चीखा-चिल्लाया--और सुनते ही नहीं! तो
चीखने चिल्लाने से क्या सार! मैं मानता हूं; कभी-कभी उनको भी मजबूर कर देता हूं--मुझे
मनाने का। जब दो-चार दिन मैं दरवाजा बंद करके रख दो हूं, भोग भी नहीं लगाता, तब वे कहते हैं: रामकृष्ण, आ जा। चल आ जा। अब ठीक।
रामकृष्ण
के जीवन में जो परम क्रांति घटी, वह घटी
ऐसे ही।--कि एक दिन उन्होंने प्रार्थना शुरू की और वे प्रार्थना करते ही रहे। जो
मंदिर में प्रार्थना सुनने आये थे, वे कब के थक गये और चले गये। मंदिर खाली हो
गया। भर दुपहरी हो गई। कोई मंदिर में न बचा। सन्नाटा छा गया। मगर वे अपनी
प्रार्थना ही किये जा रहे हैं। वे रोये ही चले जा रहे हैं। आखिरी में उन्होंने कहा
कि बस,
अब
आखिरी दिन आ गया;
अब तू
दर्शन देता--कि नहीं? अब तू
प्रकट होता--कि नहीं? या तो
प्रकट हो जा,
या फिर
जो तलवार टंगी है--काली की, यह
लेकर मैं अपनी गर्दन काटे देता हूं। बहुत हो गया। तू मानता नहीं है! और किसी चढ़ाव
से मानोगे,
तो
गर्दन चढ़ा देता हूं।
झपट कर
तलवार खींच ली और तलवार मारने को ही थे अपनी गर्दन में कि तलवार हाथ से छूट कर गिर
गई। विराट प्रकाश फैल गया। रामकृष्ण बेहोश हो गये। छह दिन तक होश न आया। लेकिन
उसके बाद जब होश में आये, तो जो
आदमी बेहोश हुआ था, वह जा
चुका था;
दूसरा
आदमी आ गया था। यह बात ही और थी। रामकृष्ण विदा हो गये। परमहंस का आविर्भाव हो गया
था।
बात
यहां तक पहुंच गई;
लड़ाई
पर यहां तक पहुंच गई कि अब नहीं मानते, तो तलवार से गर्दन काट देता हूं। उसी क्षण
घटना घट गई। इसको ही दांव लगाना कहते हैं।
परमात्मा
को रिझाना है,
मनाना
है। परमात्मा को प्रेम पातियां लिखनी हैं। परमात्मा से प्रेम का संबंध बनाना है।
मलूक
का सारा गीतों का सार--सारे सूत्रों का सार इतना ही है। यही रीझ मेरे निरंकार की, कहत मलूक दीवाना।
रिझाना--इस
शब्द को खूब याद रखना। अगर तुम थोड़ा सा भी रिझाने की कला सीख जाओ, तो परमात्मा दूर नहीं है।
परमात्मा पास ही है, तुमने
पुकारा नहीं। परमात्मा बहुत पास है, तुमने आंख ही उठा कर नहीं देखा। तुमने प्रेम
का शब्द ही नहीं उठाया अभी तक।
ये दो
मार्ग हैं: एक ज्ञान का मार्ग; एक
भक्ति का मार्ग।
भक्ति
का मार्ग बड़ा अनूठा मार्ग है।
तुममें
जो दीवाने हों,
उनके
लिए निमंत्रण है।
आज इतना ही।
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