कन थोरे कांकर घने-(संत
मलूकदास)
दूसरा प्रवचन
श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः दिनांक 12 मई, 1977
प्रश्न-सार:
1-बाबा मलूकदास जैसे अलमस्त फकीरों की परंपरा क्यों नहीं बन पाती?
2-प्रार्थना में क्या कहें? प्रभु-कृपा कैसे उपलब्ध हो?
3-शरीर और मन के संबंध तृप्त नहीं करते, क्या करूं?
4-कुछ समझ में नहीं आता?
5-जब खो ही गये, तो परमात्मा से मिलन कैसा?
पहला प्रश्न: मलूक बाबा जैसे पियक्कड़ों की परंपरा तो क्या, संगी-साथी भी कम सुनाई पड़ते
हैं! पियक्कड़ों के साथ पीने में सदा से क्या भय और एतराज रहा है? कृपा करके कहें।
परंपरा
आंखवालों की बनती ही नहीं; परंपरा
अंधों की बनती है। अंधों के पीछे जो अंधों की कतार है, उसका काम है--परंपरा। आंखवाले
तो अकेले होते हैं। आंखवालों की भीड़ नहीं होती। भेड़ें चलती हैं भीड़ में।
"सिंहों के नहिं लेहड़े'।
संतों
की कोई जमात नहीं है। जमात के पीछे ही, भीड़ के पीछे ही भय छिपा है। भेड़ चलती है भीड़
में--भय के कारण। अकेले होने का साहस नहीं है। दूसरों के संग-साथ में भय छिपा रहता
है। अकेले होते ही भय उभर आता है।
समाज
है इसीलिए--कि आदमी भयभीत है। जैसे-जैसे आदमी निर्भय होगा वैसे-वैसे समाज तिरोहित
होगा। व्यक्ति होंगे फिर; समाज
जैसी चीज शिथिल होती जायेगी।
समाज
का अर्थ ही यही है अकेले हम बहुत अधूरे हैं, चलो, हाथ में हाथ डाल लें। एक भ्रम पैदा करें--कि
अकेले नहीं हैं।
तुमने
देखा: एक अकेला आदमी गुजरता हो मरघट से, तो डरता है। दूसरा आदमी साथ हो जाए, तो डर कम हो जाता है। दूसरा
भी इतना ही डर रहा था। दोनों डरे हुए हैं; दोनों अलग-अलग डरे हुए हैं। लेकिन दोनों साथ
होकर सोचते हैं कि शायद कोई आश्वासन मिल गया।
दो डरे
हुए आदमियों के साथ होने से क्या फर्क पड़ता है? डर दुगुना हो जाना चाहिए; और क्या होगा! लेकिन भ्रम
पैदा होता है--कि चलो, दूसरा
है। दूसरे की मौजूदगी से एक आभास पैदा है कि जरूरत पड़ेगी, तो कोई संग-साथ है। इसलिए हम
परिवार बनाते हैं। अकेले में भय है। समाज बनाते हैं। राष्ट्र बनाते हैं। राज्य
बनाते हैं। समूहों पर समूह निर्मित करते हैं। लेकिन सब के पीछे गहरे में भय है।
संत तो
अकेला है। और संत के पीछे और संत के साथ तो केवल वे ही हो सकते हैं, जिनकी अकेले होने की हिम्मत
है। फर्क को समझना। ऐसा नहीं कि बुद्ध के साथ लोग नहीं चले। चले--हजारों लोग चले।
लेकिन वही लोग चले, जो भीड़
की तलाश में न थे;
जिन्हें
अकेले होने की हिम्मत थी। संतत्व का अर्थ ही है; अकेले होने का साहस।
अगर
तुम बुद्ध के पास गये होते, तो तुम
पाते: दस हजार भिक्षु बैठे है। ऊपर से तो ऐसा ही दिखेगा कि यह भीड़ है। मगर तुम
भ्रांति में पड़ गये। यह भीड़ नहीं है। यहां एक-एक आदमी अपनी वजह से बैठा है। ऊपर से
तो भीड़ दिखाई पड़ती है, क्योंकि
दस हजार लोग बैठे हैं, लेकिन
ये दस हजार में एक भी आदमी ऐसा नहीं है, जो नौ हजार नौ सौ निन्यानबे के कारण बैठा
है। अगर नौ हजार नौ सौ निन्यानबे चले जायेंगे, तो उठ जायेगा उनके साथ--ऐसा नहीं है। अपने
कारण बैठा है। यहां एक-एक अकेला बैठा है। यहां दस हजार एक बैठे हैं। इसको खयाल में
लेना।
तुम दस
आदमियों के साथ ध्यान में बैठ सकते हो। लेकिन जैसे ही तुम ध्यान में जाओगे, वहां दस इकट्ठे न रह जायेंगे।
प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग हो गया। ध्यान में उतरने ही अलग-अलग हो गया। आंख बंद
होते ही भीड़ खो गई। तुम बचे। तुम अकेले बचे; दूजा कोई न रहा।
यह जो
भीड़ से जुड़ा हुआ आदमी है, परंपरा
से जकड़ा हुआ आदमी है, वह
ध्यान भी नहीं कर पाता, क्योंकि
ध्यान में अकेला होना पड़ेगा। ध्यान तो मार्ग है--संतत्व का।
तुम
पूछते हो: बाबा मलूकदास जैसे पियक्कड़ों की परंपरा क्यों नहीं बनी? परंपरा बन नहीं सकती।
कभी-कभी
कोई बिरला व्यक्ति उस ऊंचाई तक उठता है। ऐसे
तारे कभी-कभी उगते हैं और खो जाते हैं। फिर सदियों प्रतीक्षा करनी पड़ती है।
तुम भी
ऐसे तारे बन सकते हो, अगर भय
छोड़ो। तुम भी ऐसे ज्योति पिंड बन सकते हो, अगर भीड़ से नाता छोड़ो।
तुम
खयाल करते हो: तुमने कहां-कहां अपने को भीड़ से बांध रखा है? कोई कहता है: मैं हिंदू। कोई
कहता है: मैं मुसलमान। कोई कहता है: मैं ईसाई। कोई कहता है: मैं सिक्ख। कोई कहता
कि मैं भारतीय;
कोई
कहता; मैं चीनी; कोई कहता: मैं जापानी। कोई
कुछ कहता;
कोई
कुछ कहता। हजार-हजार समूहों से हमने संबंध बांध रखा है।
एक
आदमी न मालूम कितने समूहों से बंधा है! इन सारे बंधनों के ऊपर उठते ही तुम भी
संतत्व को उपलब्ध हो जाओगे।
संतों
की भीड़ नहीं होती--और न संतों की कोई जमात होती है।
फिर
मलूकदास जैसे लोगों की जमात तो और भी मुश्किल है। इतने मस्त लोगों के साथ तो तुम
चलने में घबड़ाते हो। इनकी मस्ती तुम्हें और भी भय से भर देती है।
मस्ती
से बड़ा भय है। क्यों? क्योंकि
मस्ती के लिए एक अनिवार्य शर्त है कि तुम अपना नियंत्रण छोड़ो। डोलना हो--मस्त हाथी
की भांति,
तो
नियंत्रण न रख सकोगे। शराबी की भांति चलना हो तरंग में, तो फिर नियंत्रण न रहेगा। और
नियंत्रण गया--कि अहंकार गया।
अहंकार
नियंत्रण है। अहंकार पूरे समय बैठा हुआ है--नियंत्रण जमाये। अहंकार तानाशाह है
तुम्हारे भीतर। अहंकार जो कहता है, वही तुम कहते हो। जो कहता है: मत करो, वह तुम नहीं करते। अहंकार
तुम्हें चलाता है,
तो तुम
चलते हो। अहंकार बिठाता है, तो
बैठते हो।
मस्त
आदमी का क्या अर्थ होता है? मस्त
आदमी का अर्थ होता है: अब कोई चलानेवाला नियंत्रण भीतर न रहा। अब तो छोड़ दिया सब
परमात्मा पर। जहां उसकी मरजी हो, ले
जाए। डुबाना हो--डुबा दे; हम गीत
गुनगुनाते डूब जायेंगे। मिटना हो--मिटा दे; हम मुस्कुराते मिट जायेंगे। जो उसकी मरजी; जैसी उसकी मरजी।
अहंकार
कहता है: हिसाब से चलो; कदम-कदम
फूंक कर रखो;
कहीं
भटक मत जाना। होशियारी रखो; चालाकी
रखो। तो मस्तों के साथ नहीं चल पाते।
बाबा
मलूकदास तो पियक्कड़ हैं। पियक्कड़ के साथ जाने का मतलब ही यह होता है कि तुम भी
पीने की हिम्मत जुटाओगे। नहीं तो पियक्कड़ के साथ बैठने का क्या सार? और खतरा यह है कि पीने वालों
के साथ बैठो,
तो
सत्संग के परिणाम होते हैं। शराबियों के पास बैठोगे, शराब पीने लगोगे। संतों के
पास बैठोगे,
शराब पीने
लगोगे।
सत्संग
का अर्थ ही क्या है? सत्संग
का अर्थ है कि तुम संत की बीमारी के लिए खुले हो। अगर संतत की बीमारी तुम्हारे तरफ
आने लगेगी,
तो तुम
प्रतिरोध न करोगे। तुम कहोगे: आओ, द्वार
खुले हैं।
संतों
से लोग डरते हैं! डर के कारण पूजा भी कर लेते है। पूजा--डर का ही एक उपाय है। पैर
छू कर--और भोगे! बैठते नहीं है--पास में। पैर छूते हैं और कहते हैं: बाबा, बख्शो। पैर छूकर यह कहते हैं
कि आप भले,
हम भले; आपकी कृपा बनी रहे। आपका
आशीर्वाद बना रहे। लेकिन संतों के पास ज्यादा देर रुकते नहीं। खतरा है।
कठिन
है
बहुत
कठिन है
बैठे-बैठे
सहना--सौंदर्य को
धुली
धुली दुखा का
बिखरा
बिखरा हुआ रूप
हलके
हलके बादल
खुली-मुंदी
हलकी धूप
कठिन
है
झांक
कर रह जानना
इन्हीं
खिड़की से
वृक्षों
पर नये पत्ते
पत्तों
की हर-हर
पड़े
बिस्तर पर सुनना
बाहर
बरसा की झड़ी
कठिन
है
बहुत
कठिन है।
पुकार
आती है। बाहर निकला सूरज--पुकार आती है। वसंत आया, फूल झरे-पुकार आती है गंध
लाती--हजार हजार संदेश। कहती: आओ बाहर। फिर कठिन है पड़े रहना--द्वार-दरवाजे बंद
किए।
जैसे
प्रकृति बुलाती है।...सुनते हैं--इन पक्षियों को! ऐसे परमात्मा भी बुलाता
है--संतों से।
संतों
के पास अगर अपने को रखोगे, तो
उनके हृदय की धड़कन में तुम्हें परमात्मा की गूंज सुनाई पड़ेगी।
कठिन
है
बहुत
कठिन है
बैठे
बैठे सहना--सौंदर्य को
चलना
पड़ेगा;
उठना
पड़ेगा;
साथ
होना पड़ेगा।
जब
पुकार आयेगी,
तो तुम
पुकार को झुठला न सकोगे। इसलिए लोग होशियार हैं--दूर ही रहते हैं। दूर रहने के
हजार बहाने खोज लेते हैं। कोई दूर रहता कह कर--कि संतत्व में कुछ धरा नहीं है; परमात्मा इत्यादि सब बातें
हैं; बकवास है। स्वर्ग, नरक, मोक्ष--कुछ होते नहीं हैं।
कहां की आत्मा?
कैसी
आत्मा?
बस
मनुष्य तो मिट्टी है। दो दिन का खेल है--खेल को। फिर गये--सो गये।
कोई
नास्तिक बन कर संतों के पास आने से बचता है। यह एक तरकीब है--नकारात्मक तरकीब है।
यह भी तरकीब बचने की है--खयाल रखना। नास्तिक संतों से बचने के उपाय खोज रहा है।
अपने चारों तरफ बागुड़ लगा रहा है--कि है ही नहीं, तो जाना क्यों? जब यही बात पक्की मन में बिठा
ली, दृढ़ कर लिया विचार--कि ईश्वर
नहीं, स्वर्ग नहीं, मोक्ष नहीं, समाधि नहीं, सब पाखंड है; सब वितन्डा है--जब ऐसा पक्का
कर लिया,
जाने
का भाव ही न उठेगा। और अगर कभी भूल-चूक से पहुंच भी गए, तो कानों में इतना सीसा भरा
है--इन धारणाओं का--कि कुछ सुनाई पड़ेगा।
अगर संत को कभी देखा, भी तो
जो गलत है,
वही
दिखाई पड़ेगा;
सही
दिखाई ही न पड़ेगा। आंखें तुमने पहले से तैयार कर रखी हैं--गलत को देखने के लिए।
एक
दूसरी तरकीब भी है, जो
आस्तिक की तरकीब है। तुम यह तो जानते हो, कि नास्तिक शायद बचने की कोशिश कर रहा है, लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता
हूं: आस्तिक भी बचने की कोशिश कर रहा है। आस्तिक भी उपाय खोजता है कि न जा पाए संत
के पास। उसके उपाय क्या हैं? एक
उपाय उसका--कि वह मुर्दा संतों की पूजा करता है। राम में कोई खतरा नहीं है। कृष्ण
में कोई खतरा नहीं है। क्राइस्ट में अब कोई खतरा नहीं है। कबीर, नानक में अब कोई खतरा नहीं
है। जब जिंदा थे,
तब
खतरा था।
मरा
संत क्या करेगा! तुम तो मरे मरे हो ही, तुम्हारा संत भी मरा हुआ! दो मुरदों के बीच
खूब बन जाती है;
दोस्ती
बन जाती है। मुरदा संत तुम्हें बदल नहीं सकते। इसलिए आस्तिक मुरदा संतों को पूजता
है; और जिंदा संतों से बचता है।
क्योंकि जिंदा संत खतरनाक हैं; चिनगारी
हैं। गिरेगी,
तो
तुम्हारा घास-फूस जल जायेगा।
कबीर
ने कहा है: जो घर फूंके अपना, चले
हमारे संग। तुम्हारा घर फूंक जायेगा। तो राख की पूजा...। राख को तुम कहते--विभूति।
राख की पूजा करो। राख को लगाते तिलक की तरह, टीके की तरह।
जीवित
संत अंगारा है;
तुम
राख पूजते।
तो या
तो उपाय है कि मुरदा संतों को पूजो। या अगर कभी भूल-चूक जिंदा संत के पास पहुंच
जाओ, तो कहो कि महाराज आऊंगा कभी।
माना कि आप बिलकुल ठीक हैं...। यह माना कि आप बिलकुल ठीक हैं--बचने की तरकीब है।
क्योंकि जब मान ही लिया कि बिलकुल ठीक हैं, तो अब करने को क्या बचा? बेचैनी गई। मान ही लिया कि आप
बिलकुल ठीक हैं। मान नहीं लिया--कि मैं पापी; मैं पतित; आप महान। कहां आप, कहां मैं! मैंने स्वीकार ही
कर लिया सब कि आप जो कहते हैं, सब
अक्षरशः ठीक है। मगर अभी मेरा समय नहीं आया है। जब मेरा समय आयेगा, तब आऊंगा।
तो पैर
में दो फूल चढ़ा कर चले आये!
पूजा
भी उपाय है--संत से बचने का।
संत के
पास वही पहुंचता है, जो
सारे उपाय बचने के छोड़ देता है। जो कहता है कि चलो, साहस से एक बार आंख खोल कर
देखें कि संतत्व क्या है। कौन जाने, जिस जीवन-निधि को हम खोज रहे और-और, अलग-अलग दिशाओं में, संतत्व में ही छिपी हुई पड़ी
हो। कौन जाने...।
न तो
संत के पास न-कार में भर कर जाना, और न
अ-कार से भर कर जाना। न नास्तिक की तरह जाना, न आस्तिक की तरह जाना। संत के पास तो खुला
हृदय ले कर जाना;
खुली
आंख लेकर जाना;
दर्पण
हो कर जाना--कि जो है, वह
दिखाई पड़ जाए। और जो है--वह दिखाई पड़ जाए, तो निश्चित ही...।
कठिन
है
बहुत
कठिन है
बैठे-बैठे
सहना--सौंदर्य को
धुली
धुली दुखा का
निखरा
बिखरा हुआ रूप
हलके
हलके बादल
खुली-मुंदी
हलकी धूप
कठिन
है
बहुत
कठिन है
झांक
कर रह जाना
इन्हें
खिड़की से
वृक्षों
पर नये पत्ते
पत्तों
की हर-हर
पड़े-पड़े
बिस्तर पर सुनना
बाहर
बरसा की झड़ी
कठिन
है
बहुत
कठिन है।
जब तुम
परमात्मा की झर-झर सुनोगे--संत के हृदय में; परमात्मा कल-कल नाद सुनोगे--संत के हृदय में; जब तुम संत के हृदय के पास कान लगा कर बैठ जाओगे, वही तो शिष्यत्व का अर्थ
है।...
शिष्यत्व
का अर्थ नहीं है: पूजन। शिष्यत्व का अर्थ है: श्रवण, सुनने की क्षमता। शिष्यत्व का
अर्थ है: जो है,
उसे
वैसा ही देखूंगा;
बदलूंगा
नहीं; व्याख्या न करूंगा। अपने को
बीच में न लाऊंगा;
अपने
को हटा कर देखूंगा। एक बार तो सही: खिड़की से झांक कर देख लूं कि बाहर क्या हो रहा
है। एक बार तो देख लूं कि मनुष्य के भीतर क्या हो सकता है--क्या संभावना है? जिसके भीतर हुआ है, उसके भीतर एक बार झांक कर देख
लूं, तो अपनी भी सुधि आ जाए।
तो लोग
संतों से डरते हैं। फिर पियक्कड़ों संतों से तो और भी ज्यादा संत भी दो तरह के हैं।
एक ती संत हैं,
जिनको
हम कहें--मर्यादा,
समाज, संस्कृति, सभ्यता--उसके अनुकूल। जैसे हम
राम को कहते हैं: मर्यादा पुरुषोत्तम। तो एक तो संत होते--राम जैसे; जो रत्ती भर समाज की मर्यादा
से हटते नहीं।
एक संत होते हैं--क्रांति-द्रष्टा; कृष्ण जैसे; जिनके जीवन में कोई मर्यादा
नहीं होती। यह कुछ संयोग की बात नहीं कि इस देश ने राम को आंशिक अवतार कहा और
कृष्ण को पूर्ण अवतार कहा। जिन्होंने जाना, उन्हें यह कहना ही पड़ा। जो परंपरा के अनुकूल
चलता है;
वह अंश
ही है--पूरा नहीं। जो परंपरा को ध्यान में रख कर चलता है--लीक-लीक, उसमें अभी अंश ही परमात्मा
उतरा है--पूरा परमात्मा नहीं।
पूरा
परमात्मा तो जब उतरेगा, जब
कैसी मर्यादा?
कैसी
सीमा? बाढ़ की तरह उतरेगा। पूरा
परमात्मा कुछ नल की टोंटी नहीं है--कि तुमने खोला और अब तुम्हारी मर्यादा में
उतरा! पूरा परमात्मा तो बाढ़ की तरह हैं--कि बादल खुल गये, और हुई मूसलाधार वर्षा; कि भर गये नदीत्तालाब, सर-सरिताएं; कि कंप गई--सारी पृथ्वी।
तो एक
तो संत का सौम्यरूप है; राम
उसके प्रतीक हैं। एक संत का क्रांतिरूप है; कृष्ण उसके प्रतीक हैं। मलूक कृष्ण की धारा
में आते हैं। वह पियक्कड़ों की धारा है।
राम का
उपयोग इतना ही है--कि अगर तुम में हिम्मत न हो, तो चलो मूसलधारा वर्षा में स्नान नहीं कर
सकते हो,
कोई
हरजा नहीं है। अपने घर की नल की टोंटी के नीचे बैठ कर ही कम से कम स्नान तो कर लो।
आज नल की टोंटी के नीचे स्नान करोगे, तो शायद स्नान का रस लग जाए। तो कल शायद
हिम्मत जुटा कर नग्न खड़े हो सको--वर्षा के नीचे; और आनंदित हो सको--निसर्ग
में।
परंपरागत
संत की इतनी ही उपयोगिता है कि वह तुम्हें किसी दिन क्रांतिकारी संत के पास पहुंचा
दे। वह सीढ़ी है;
सीढ़ी
से ज्यादा नहीं है। अंततः तो किसी न किसी दिन बाबा मलूकदास जैसे किसी आदमी के हृदय
में झांक कर देखना होगा। वहां परमात्मा अपने पूरे रूप में प्रकट होता है।
मयाल-ए-सोज
ए गमहा ए निहानी।
देखते
जाओ भड़क उठी है सम्मे से जिंदगानी देखते जाओ।
जब कभी
कोई मलूक जैसा व्यक्ति पैदा होता, तो
उसकी जीवन की मशाल पूरी भड़क उठी है सम्मे जिंदगानी देखते जाओ। मगर उतनी विराट लपट
को शायद तुम न झेल पाओ; शायद
वैसी आंच को तुम न झेल पाओ; तुम अंधेरे के आदी हो, तो कोई हरजा नहीं है। छोटा-सा
दीया जलाओ। राम ऐसे ही छोटे दीये हैं।
जो
संतत तुम्हारी धारणाओं के अनुकूल पड़ता है, वह मिट्टी का दीया है, जिसे तुमने जला लिया है।
रोशनी भी होती है। फिर एक मशाल भी है--दोनों छोरों से जलती हुई मशाल है; रोशनी उससे भी होती है। रोशनी
का पूरा मजा तो मशाल में है। मगर चलो, स्वाद। कम से कम अंधेरे से रोशनी में आये।
छोटे टिमटिमाते दीये को रोशनी ही सही; फिर भी भली है।
मलूकदास
जैसे व्यक्ति,
जिस
भाषा में बोलते हैं, वह
भाषा भी घबड़ा देती है--पंडित को, पुरोहित
को। विशेषकर उनको,
जो
अपने को धार्मिक मानते हैं और धार्मिक नहीं हैं, उनके पैरों के नीचे की जमीन
खिंच जाती है। उनके पैरों के नीचे संदूक हो जाती है। वे घबड़ा उठते हैं।
मलूक
जैसे व्यक्तियों का विरोध होने लगता है। उनके पास आना तो दूर, उनसे दूर ले जाने के सब उपाय
होने लगते हैं।
वह आ
रहा है असा टेकता हुआ वाइज।
बहा दे
इतनी कि साकी कहीं न थाह मिले।।
वह जो
धर्मगुरु चला आ रहा है--अपनी लकड़ी टेकते हुए...। मलूक जैसे संत तो कहते: हे प्रभु, इतनी शराब बहा दे कि यह डूब
ही जाए। इसके कहीं थाह भी न मिले।
उठे
कभी घबरा के तो मयखाने से हो आये।
पी आये
तो फिर बैठा रहे याद-ए-खुदा में ए रियाज।।
एक ऐसी
परम दृष्टि है,
जहां
जीवन का अखंड रूप में देखा जाता; जहां
जीवन के साधारण सुख और परमात्मा के विराट सुख में विरोध नहीं है। जहां जीव के
साधारण सुख में भी परमात्मा के ही परम सुख की किरण है। जहां हमें इस जगत में जो
सौंदर्य प्रकट हो रहा है, उस
सौंदर्य को भुलाने के लिए नहीं, उस
सौंदर्य में गहरे उतर जो का नियंत्रण है। फूल में भी परमात्मा है; काश! तुम फूल में गहरे उतर
सको! हरे-हरे नये-नये आये पत्तों में भी परमात्मा ही आया है; काश, तुम पत्तों में गहरे उतर सको!
तुममें भी परमात्मा ही विराजमान है।
जहां-जहां
तुमने सुख की थोड़ी झलक भी पाई है--झूठी ही सही--सपना ही सही; लेकिन जहां भी तुमने सुख की
थोड़ी-सी झलक पाई है, वहां
परमात्मा ही करीब था। उसकी ही सुगंध आई थी।
वह तो
क्रांतिद्रष्टा संत है, उसके
लिए सृष्टि में और स्रष्टा में विरोध नहीं है। यह सृष्टि भी स्रष्टा का ही रूप है।
यह तथाकथित साधु-संन्यासी को, तथाकथित
महात्मा को,
तथाकथित
धर्मगुरु को बहुत खटकने-अखरने वाली बात है।
धर्मगुरु
का तो सारा व्यवसाय इसमें है, कि वह
तुम्हें संसार के विरोध में खड़ा कर दे। परमात्मा के पास तो नहीं पहुंचा पाता, लेकिन संसार के विरोध में खड़ा
कर देता है। संसार को तुम्हारे भीतर से मिटा भी नहीं पाता, लेकिन विषाक्त कर देता है।
परमात्मा का सुख तो उठाता ही नहीं, इसी जीवन का जो थोड़ा बहुत सुख उतरता था, वह भी उतरना बंद हो जाता है।
तुम बिलकुल रूख-सुख जाते हो।
मस्ती
से भरे हुए संतों की धारणा बड़ी और है। वे तुमसे कहते हैं: छोड़ने को यहां कुछ भी
नहीं है;
पाने
को सब कुछ है। वे तुमसे कहते हैं: छोड़ने की बात ही गलत शुरुआत है। संसार छोड़ना
नहीं है;
प्रभु
को पाना है। फिर उसको पाने से जो छूट जाए--छूट जाए। उसको पाने से जो अपने से छूट
जाए--छूट जाए।
गर यार
मय पिलाये,
तो फिर
क्यू न पीजिये
जाहिद
नहीं, मैं शेख नहीं, कुछ बली नहीं।।
अगर
परमात्मा ही पिला रहा हो, तो फिर
क्यों न पीजिये! जाहिद नहीं, मैं
शेख नहीं,
कुछ
वली नहीं। परमात्मा जो पिलाये--पीयो। परमात्मा जो दिखाये--देखो। परमात्मा जैसा
नचाये--नाचो।
यह जो
परमात्मा का परम स्वीकार है, इसके
कारण मलूकदास जैसे लोगों को समाज की प्रताड़ना झेलनी पड़ती है। मलूकदास जैसे लोगों
को समाज का विरोध झेलना पड़ता है।
समाज
की बड़ी टुच्ची धारणाएं हैं, जिनको
कोई भी मूल्य नहीं है। लेकिन समाज इन्हीं धारणाओं से जीता है और घबड़ाता है कि वहीं
वे धारणाएं छूट न जाए। उन धारणाओं से कुछ मिला भी नहीं है; कुछ पाया भी नहीं है। लेकिन
उन धारणाओं में इतने दिन रहे हैं कि छूट जाए धारणा, टूट जाए धारणा, तो प्राण कंपते हैं।
ऐसा ही
समझो कि जैसे कोई आदमी बहुत दिन तक जंजीरों में रह गया हो, बहुत दिन तक कारागृह में रहा
हो, फिर उसकी तुम जंजीरें तोड़ो, तो उसे बेचैनी होती है। वे
जंजीरें तो अब उसके आभूषण बन गई हैं। वे जंजीरें तो अब उसके शरीर का हिस्सा हो गई
हैं।
ऐसा
हुआ: फ्रांस की क्रांति में वेस्टाइल के किले को क्रांतिकारियों ने तोड़ दिया और
उसे किले में बंद कारागृह में बड़े पुराने कैदी थे। कोई चालीस साल से बंद था, कोई तीस साल से बंद था, कोई तो ऐसा था कि पचास साल से
बंद था। उस किले में केवल आजीवन जिनको सजाएं मिली थीं, ऐसे हजारों कैदी थे। उन्होंने
उन सबको छुट्टी दे दी; बाहर
निकाल दिया।
सोचा
था क्रांतिकारियों ने कि वे बड़े प्रसन्न होंगे। लेकिन वे बड़े नाराज हुए। उनमें से
तो कुछ ने साफ इनकार कर दिया--बाहर जाने से। उन्होंने कहा: हम चालीस साल से, पचास साल से यहां हैं; बूढ़े हो गये हैं, अब कहां जायेंगे? अब तो हमें याद भी नहीं है कि
हम किस को खोजेंगे! किसी घर में। निवास करेंगे? और अब तो हम सब काम-धाम भी भूल गये हैं। अब
हम काम-धाम इस बुढ़ापे में क्या करेंगे? और फिर हमें हमारी कोठरी रास आती है। पचास
साल जो कोठरी के अंधेरे में गया हो, बाहर की रोशनी तिलमिलायेगी।
और तुम
चकित होओगे जानकर...।फिर भी क्रांतिकारी तो जिद्दी, उन्होंने बाहर निकाल ही दिया; जबरदस्ती बाहर निकाल दिया।
दुनिया में तुम किसी आदमी को जबरदस्ती स्वतंत्र नहीं कर सकते। जबरदस्ती परतंत्र तो
कर सकते हो,
लेकिन
जबरदस्ती स्वतंत्र नहीं कर सकते। कैसे करोगे?
आधी
रात होते-होते अनेक उनमें से लौट आये। और उन्होंने कहा कि उन्हें नींद ही नहीं
आती! एक ने तो कहा कि मेरी जंजीरें मुझे वापस लौटा दो। क्योंकि उनके बिना मुझे
लगता है,
मैं
नंगा-नंगा हूं। मैं सो ही नहीं सकता। तुम थोड़ा सोचो: पचास साल जिस आदमी के हाथ में
लोहे की मजबूत जंजीरें, पैर
में मजबूत बेड़ियां पड़ी हों; वह
उन्हीं के साथ सोया--पचास साल तक। अब करवट लेता है, तो खाली-खाली लगता है। न
जंजीर बजती,
न आवाज
होती! न वजन मालूम होता। नींद उसकी टूट-टूट जाती है। आदत!
साधारण
आदमी आदत से जीता है। और क्रांतिद्रष्टा संतों का एक ही आग्रह है: आदम से जागो; होश से जीओ।
और मजा
यह है कि यह कुछ ऐसा होश है कि एक तरफ होश बढ़ता है और एक तरफ मदमस्ती बढ़ती है। यह
कुछ ऐसा होश है कि पुरानी बेहोशी चली जाती है और एक नये तरह की, एक अभिनव तरह की बेहोशी आती
है। पुराना अज्ञान चला जाता है और एक नये तरह की निर्दोंषता का आविर्भाव होता है।
अब
तुम्हें धन के कारण मस्ती नहीं आती; न पद के कारण मस्ती आती है; अब तुम्हें अकारण मस्ती आती
है। तुम मस्ती में डोलते ही रहते हो। जैसे मस्त हाथी डोलता हो--कहां मलूक ने; कि जैसे शराबी पी कर चलता
हो--ऐसा जिसने परमात्मा को पी लिया है, उसकी चौबीस घड़ियां मस्ती में डूबी हुई बीतती
हैं।
मगर
ऐसा आदमी समाज के लिए बहुत झंझट का कारण हो जायेगा। क्योंकि इतने मस्त आदमियों को
गुलाम नहीं बनाया जा सकता। इतने मस्त आदमी मस्ती से जीते हैं। इतने मस्त आदमियों
को तुम भेड़ें नहीं बना सकते। ऐसे मस्त आदमी सिंहों की तरह जीते हैं। और समाज भेड़ें
चाहता है। राजनेता, पंडित, पुरोहित भेड़ें चाहता हैं; ऐसे आदमी नहीं चाहते। इतने
खतरनाक आदमी झेलने की क्षमता अभी समाज की नहीं है।
समाज
अभी संतों को झेलने के योग्य नहीं हो पाया है। अभी संतों का कोई समाज नहीं हो पाया
है। अभी धर्म के नाम पर पाखंड जीता है, धर्म के नाम पर सत्य नहीं।
अभी
तुम उस संत की पूजा करते हो, जो
तुम्हारे आंगन में समा जाता है। तुम उस संत से तो भयभीत हो जाते हो, जो तुम्हारे आंगन को तोड़ दे; तुम्हारी दीवालों को उखाड़ दे; तुम्हें खुले आकाश के नीचे ले
आये।
इसलिए
मलूक जैसे लोगों के पीछे कोई परंपरा नहीं बनती; संगी-साथी भी पैदा मुश्किल से होते
हैं--कभी-कभार।
समाज
इनसे भयभीत रहा है। अक्सर तुम भय के कारण पूजा भी करते हो।
तुम्हारी
पूजा में भी भय ही होता है।
सभी
दुनिया की भाषाओं में एक बहुत ही अरुचिपूर्ण, कुरुचि से भरा हुआ शब्द उपयोग में आता है, वह है: ईश्वर भीरु--गाड
फीयरिंग। धार्मिक आदमी को हम कहते हैं: ईश्वर भीरु। यह कोई बात हुई! धार्मिक आदमी
और ईश्वर से भयभीत?
महात्मा
गांधी कहते थे: मैं किसी से नहीं डरता--सिवाय ईश्वर के। मगर ईश्वर से डरते हैं!
सबसे डरो;
कम से
कम ईश्वर से तो न डरो। क्योंकि जिससे डर होगा, उससे प्रेम न हो सकेगा। भय के साथ प्रेम का
संबंध नहीं है। जहां भय है, वहां
प्रेम मर जाता है। जिससे भय है, उससे
घृणा हो सकती है,
प्रेम
कैसे होगा?
तुमने
किसी से भयभीत होकर प्रेम किया है? कोई तुम्हारी छाती पर छुरा रख दे, उससे तुम प्रेम करोगे? हां, तुम बतला सकते हो कि मैं
तुम्हारे प्रेम में हूं। लेकिन उससे तुम प्रेम करोगे?
मैंने
सुना हैं...। आदमियों की बीमारियां जंगलों जंगलों तक पहुंच जाती हैं। एक बार जंगल
में जानवरों ने एक प्रतियोगिता का आयोजन किया। जैसे आदमी करते हैं। तो सब तरह के
खेल--कबड्डी,
और
वालीबाल,
और
फूटबाल--और जो जो जंगली जानवर कर सकते थे, उन्होंने सब खेलों का आयोजन किया। सिंह भी
आया। बैठा देखता रहा। और प्रतियोगिता में तो उसने भाग न लिया; बड़े आनंद से देखता रहा; लेकिन आखिरी प्रतियोगिता थी, लतीफे सुनाने की। चुटकुले
सुनाने की,
उसमें
वह भी भाग लेना चाहता था। उसने सोचा: कम से कम एक में तो मैं भी भाग लूं।
पहले
एक खरगोश खड़ा हुआ;
उसने
एक लतीफा सुनाया। लेकिन खरगोश की जान कितनी? भीड़-भड़क्का और जानवरों को देख कर बहुत घबड़ा
गया। आधा ही लतीफा सुना पाया और उसको पसीना बह गया; वह बैठ गया। फिर लोमड़ी ने
सुनाया। लोमड़ी कुशल; पुरानी
राजनीतिज्ञ;
उसने
लोगों को खूब हंसाया। ऐसे और भी जानवर कहे।
आखिर
में सिंह खड़ा हुआ। सन्नाटा छा गया। अब उत्सुक हुए कि सिंह कौन सा लतीफा सुनाता
है--देखें। माइक के पास आकर लतीफा तो दूर उसने बड़ी जोर से सिंह-गर्जना की। इतने
जोर से...। एक तो वैसे ही सिंह-गर्जना--और फिर लाउड स्पीकर पर! छोटे-मोटे
प्राणियों के तो प्राण निकल गये। खरगोश सामने ही बैठा था, प्रतियोगिता में पहले नंबर
भाग लेने आया था,
वह तो
वहीं ढेर हो गया। कई प्राणी एकदम बेहोश हो गये। जो बचे उनकी भी छातियां धड़क गई।
दहाड़ने
के बाद सिंह ने कहा, अब
मूर्खों हंसो। हंसते क्यों नहीं? यही
लतीफा था। हंसों। हंसी किसी को भी नहीं आ रही है। हंसी का कोई कारण नहीं है। लेकिन
हंसना पड़ा। जब सिंह कहे...। तो लोग हंसने लगे। ऐसे हंसने लगे कि कई जानवरों को
खांसी आने लगी--हंसी के मार। मगर जब तक सिंह कहे ना कि रुको, तब तक रुक भी नहीं सकते!
स्वभावतः
पहला पुरस्कार सिंह को गया।
जहां
शक्ति है और जहां शक्ति के साथ जबरदस्ती है, वहां भय पैदा होता है। भय में तुम हंस भी
सकते हो। अब सिंह कहता है कि हंसो मूर्खों, हंसो। यही लतीफा था। हंसी किसी को भी नहीं आ
रही है। लेकिन यह कोई हंसी होगी! इसमें हंसी होगी? इसमें सिर्फ एक धोखा होगा, एक प्रवंचना होगी; कि अभिनय होगा, एक पाखंड होगा।
ईश्वर
से भयभीत--तो फिर प्रेम कैसे करोगे? और अगर ईश्वर से तुम भयभीत हो, तो भीतर गहरे में तुम्हारे
घृणा होगी। तुम बदला लेना चाहोगे।
नीत्शे
ने कहा है कि ईश्वर मर गया। और यह भी कहा है कि और किसी ने नहीं, आदमी ने ही उसकी हत्या कर दी
है। नीत्शे से लोग बहुत नाराज हैं--कि उसने ऐसी अभद्र बात कही। लेकिन मेरे देखे, मेरे समझे नीत्शे ने जो कहा, वह स्वाभाविक परिणाम
है--ईश्वर-भीरुता का। जब आदमी इतने दिन तक डराया गया है ईश्वर से, तो कोई तो हिम्मतवर आदमी
कहेगा--कि मारो गोली; खतम
करो ईश्वर को;
बहुत
हो गया भय।
अगर उस
दिन जंगल के जानवरों में कोई एकाध भी हिम्मतवर होता, तो खड़े होकर कहता कि बंद करो
यह बकवास। यह कोई चुटकुला है? यह कोई
लतीफा हुआ?
नीत्शे
ने यह भी कहा है कि ईश्वर मर गया है और आदमी अब स्वतंत्र है। अब आदमी जो चाहे, कर सकता है। क्योंकि अब तक
आदमी ने ईश्वर के डर से ही बहुत कुछ नहीं किया है।
आदमी
बदला नहीं है;
सिर्फ
भय के कारण ग्रसित है। और जब महात्मा गांधी जैसे व्यक्ति भी कहे हैं कि मैं और
किसी से नहीं डरता, सिर्फ
ईश्वर से डरता हूं, तो
जाहिर होती है बात कि ऐसे व्यक्तियों को भी ईश्वर की कोई प्रतीति नहीं है। प्रतीति
हो नहीं सकती।
ईश्वर
यानी प्रेम। प्रेम में कहां भय है! प्रेम में कैसा भय? प्रेम कोई तलवार थोड़े ही है।
प्रेम में फुसलावा हो सकता, मनुहार
हो सकती;
प्रेम
में कोई जबरदस्ती थोड़ी ही है।
लेकिन
आदमी अब तक ऐसे ही मानता रहा है--कि भय के कारण।...तो तुमने जो एक समाज बना रखा है, उसमें सारी व्यवस्था भय के
कारण है। तुम नैतिक हो, तो भय
के कारण। तुम चोरी नहीं करते--तो भय के कारण। तुम झूठ नहीं बोलते--तो भय के कारण।
तुम्हारे सब सदगुण भय पर टिके हैं! इसलिए तुम्हारे सब सदगुण दो कौड़ी के हैं।
जब
मलूक जैसे व्यक्ति जगत में आते हैं, तो वे कहते हैं: छोड़ो भय; आओ, प्रेम की बात करें। छोड़ो
भय--आओ,
मस्त
हों। छोड़ो भय--आओ,
प्रेम
के गीत गुनगुनाये। आनंद में, प्रेम
में। प्रभु--प्रेम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। आओ, प्रभु के हाथ में हाथ डालें, प्रभु को आलिंगन में लें।
नाचें प्रभु के साथ--रास रचायें।
जब ऐसी
कोई बात कभी कोई संत कहते हैं, तुम
घबड़ा जाते हो। क्योंकि तुम्हारे भय के जन्मों-जन्मों के जाल, जंजीरें, तुम्हारी आदतें, तुम्हारी धारणायें, तुम्हारे संस्कार--सब एकदम
घबड़ा कर ठिठक कर खड़े हो जाते हैं--कि यह तो बात खतरनाक है।
तुम
जानते हो कि तुमने भय छोड़ा, तो
तुम्हारी सब नीति गई; तुम्हारा।
सब आचरण गया। सब झूठा है, इसलिए
जाने का डर है।
मलूक
एक नये तरह का आचरण जगत में लाते हैं--एक आचरण, जो प्रेम पर निर्भर है; एक आचरण, जो आनंद पर निर्भर है। तुम
बुरा इसलिए नहीं कर सकते, क्योंकि
तुम इतने आनंदित हो कि बुरा कैसे कर सकोगे! तुम बुरा नहीं कर सकते, क्योंकि इतने प्रेम से
प्लावित हो कि बुरा कैसे कर सकोगे!
प्रेम
ही एकमात्र नीति है; और
प्रेम ही एकमात्र चरित्र है।
इस
प्रेम की मस्ती से जो सुगंध उठती है, उस सुगंध को बहुत कम लोग ही जान पाते हैं।
क्योंकि तुम्हारे नासापुट खराब हो गये हैं।
मैंने
सुना है कि देहात--दूर देहात से मछलियां बेचने एक आदमी गांव आया था--शहर आया था।
जब वह मछलियां बेच कर वापस जा रहा था, भरी दुपहरी थी; बड़ी तेज धूप थी और सूरज आग
बरसा रहा था। वह एक सड़क पर भूखा-प्यासा, थका-मांदा बेहोश हो कर गिर पड़ा।
वह सड़क
उस गांव की,
उस शहर
की गंधियों की गली थी, जहां
सुगंध बेचने वालों के दुकानें थीं। एक गंधी भागा; उसने अपनी तिजोड़ी से बड़ा
बहुमूल्य इत्र निकाला, जिस
इत्र की यह खूबी थी कि खूबी थी कि बेहोश आदमी को सुंघा दो, तो वह होश में आ जाए।
उसने
ले जाकर,
वह
इत्र, उस आदमी के जो बेहोश पड़ा था, उसकी नाक पर रखा। वह आदमी तो
और जोर से हाथ-पैर फेंकने लगा और बड़ी बेचैनी उसके चेहरे पर उतर आई। वह गंधी तो बड़ा
हैरान हुआ।
भीड़ आ
गई थी। एक आदमी भीड़ में खड़ा था उसने कहा: ठहरो भाई, तुम उसको मार डालोगे। तुम्हें
पता नहीं,
यह कौन
है। यह मछुआ है। तुम्हारी इस बहुमूल्य गंध का इसको क्या पता? यह गंध तो इसे दुर्गंध जैसी
लगेगी। यह तो एक ही गंध जानता है--मछली की गंध। उसी को सुगंध मानता है। ठहरो।
उस
आदमी के पास उसकी टोकरी, और
गंदी टोकरी में गंदे कपड़े, और उन
गंदे कपड़ों में ही बांध कर वह मछलियां लाया था, वे पड़ी थीं। वह आदमी भागा; पास के नल से उसने थोड़-सा
पानी लिया;
उन
गंदे कपड़ों पर पानी छिड़का; टोकरी
पर पानी छिड़का। लौटकर टोकरी और वे गंदे कपड़े उसकी मुंह पर रख दिये।
मछली
की बंध उठी। लोग तिलमिला गये। मगर वह आदमी होश में आ गया। और उस आदमी ने आंखें खोल
देखकर कहा: धन्यवाद, किसने
यह कृपा की! किसीने मेरी मछलियों की बंध मेरे पास ला दी? अन्यथा मैं मर जाता।
अगर
मछलियों की बंध में ही जीवन भर जिये हो, तो इत्र की गंध तुम्हें दुर्गंध मालूम होगी।
तुम उसे न सह पाओगे। और आदमी ऐसी ही मछलियों की गंध में जीया है।
बाबा
मलूकदास जैसे लोग उस पर इत्र को जगत में ले आते हैं, जिसकी एक झलक, जिसकी एक लहर तुम्हें जगा
दे--सदा के लिए जगा दे। मगर तुम्हारे नासापुट खराब है।
इसलिए
न तो संगी-साथी मिलते, न
परंपरा बनती।
लेकिन
अपने भीतर खोजबीन जारी रखना। अगर तुम कभी बाबा मलूकदास जैसे किसी आदमी के साथ पड़
जाओ, तो चाहे लाख तकलीफ मालूम पड़े
तुम्हें--पुराने संस्कार छोड़ने में; छोड़ना। लाख अड़चनें मालूम पड़े--तुम्हारी
पुरानी आदतों के टूटने में--तोड़ना। क्योंकि उन आदतों से न कभी कुछ मिला है, न कुछ कभी मिलेगा। लेकिन ऐसे
व्यक्ति के पास अगर तुम रम जाओ: अगर ऐसे व्यक्ति के पास तुम टिक जाओ, तो तुम्हारे भीतर वैसे सूरज
का उदय हो सकता है, जिसके
उदय हुए बिना कोई कभी न तृप्त हुआ है--न हो सकता है।
दूसरा प्रश्न:
तुझे क्या सुनाऊं में दिलरुबा,
तेरे सामने मेरा हाल है।
तेरी इक निगाह की बात है,
मेरी जिंदगी का सवाल है।।
सच है, ऐसा ही है। परमात्मा की एक निगाह की ही बात है। उसकी एक निगाह--और
हमारे लिए पूरी जिंदगी; ऐसी ही बात है।
जिसने
पूछा है--स्वामी वाहिद काजमी ने--ठीक ही पूछा है।
तुझे
क्या सुनाऊं मैं दिलरुबा, तेरे
सामने मेरा हाल है। परमात्मा से कहने को भी तो हमारे पास कुछ नहीं है। जो हम कह
सकते हैं,
वह तो
वह जानता ही होगा। और जो हम ही नहीं जानते हैं, उसे तो हम कैसे कहेंगे।
सच तो
यह है कि जो हम नहीं जानते हैं, वह भी
जाता होगा। इसलिए परमात्मा के सामने कहने का तो कुछ सवाल ही है। जो लोग परमात्मा
के सामने बैठकर कुछ कहते हैं, बड़ी
नासमझी करते हैं। प्रार्थनाएं चुप होनी चाहिए। केवल चुप प्रार्थनाएं ही सुनी जाती
हैं। बोलते--कि चूके।
प्रार्थना
करने में बोलना ही मत। क्योंकि तुम जो भी बोलोगे, गलत बोलोगे। तुम सही तो बोल
ही हनीं सकते। सही का तो तुम्हें पता ही नहीं है। सही की तो तुम्हें पहचान ही नहीं
है।
तुम
प्रार्थना में कहोगे क्या?
तुम
अवाक रह जाना;
मौन रह
जाना। तुम बोलना ही मत। तुम गूंगे हो जाना। तुम्हारी गूंगी प्रार्थना ही पहुंचती
है। मैं इसे दोहरा दूं--सिर्फ गूंगी प्रार्थनाएं ही परमात्मा तक पहुंचती हैं; मुखर प्रार्थनाएं नहीं
पहुंचतीं--पहुंच ही नहीं सकती।
पहली
तो बात: तुम्हारी भाषा परमात्मा नहीं समझता। तुम्हारी भाषा तुम्हारी भाषा है; आदमी को ईजाद है। परमात्मा तो
मौज की भाषा समझता है। मौन अस्तित्व की भाषा है। हिंदी बोलो, तो हिंदुस्तानियों की भाषा
है। अरबी बोलो,
तो
अरबस्थानियों की भाषा है। चीनी बोलो, तो चीनियों की भाषा है। ये आदमियों की भाषाएं
हैं; उनकी सीमाएं हैं।
मौन
अस्तित्व की भाषा है। मौन की भाषा ही परमात्मा समझता है।
तो तुम
ठीक कहते हो: तुझे क्या सुनाऊं मैं दिलरुबा, तेरे सामने मेरा हाल है। सुनाना ही मत; बोलना ही मत। रो सको तो रोना।
आंसू ज्यादा कुशलता से कह देंगे, जो तुम
न कह पाओगे। नाच सको, तो
नाचना। नाच सुगमता से कह देगा, जो
भाषा न कह पायेगी। नहीं तो चुप बैठ जानना, गूंगे हो जाना। गूंगी प्रार्थनाएं पहुंच
जाती है।
तेरी
इक निगाह की बात है, मेरी
जिंदगी का सवाल है।--यह भी सच है। उसकी एक निगाह की बात है; उसकी एक निगाह काफी है। उसकी
एक किरण काफी है--मुरदों को जिला ने देने को। लेकिन उसकी आंख तुम पर उठे, इसके लिए तुम्हें कुछ करना
होगा। आंख ऐसे ही उठेगी।
तुम तो
जो कर रहे हो,
वे कुछ
ऐसे उपाय हैं कि उसकी आंख कभी उठ ही न सके। या तो अगर उठे भी, तो तुम बच जाओ। अगर वह देखे
भी, तो तुम्हारी पीठ उसकी तरफ है।
उसकी आंख तभी कारगर होगी, जब
तुम्हारी आंख से मिल जाए। इसे समझना।
अगर
तुम परमात्मा की तरफ पीठ किये खड़े हो, तो वह देखता भी रहे, तो क्या होगा? पीठ पर तुम्हारे, आंखें नहीं हैं। और हम सब
परमात्मा की तरफ पीठ किये खड़े हैं। संसार की तरफ हमारी आंख है और परमात्मा की तरफ
पीठ है।
दूसरे
की तरफ हमारी आंख है, स्वयं
की तरफ पीठ है। बाहर की तरफ आंख है, भीतर की तरफ पीठ है। नीचे की तरफ आंख, ऊपर की तरफ पीठ है। और हमारी
आंखें जड़ हो गई हैं बाहर की तरह; भीतर
की तरफ जाती ही नहीं।
आंख
बंद कर लो,
तो भी
आंख भीतर नहीं जाती; फिर भी
बाहर ही भटकती रहती है। आंख बंद कर लो, तब भी तुम दुकान नहीं देखते हो। आंख बंद कर
लो, तो भी पत्नी, पति बच्चे, मित्र, शत्रु--वही दिखाई पड़ते हैं।
मुकदमा,
अदालत, बाजार--वही सब दिखाई पड़ता है।
आंख बंद कर लो,
तो भी
रुपये,
धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा--वही दिखाई पड़ती
है। गहरी नींद में जब तुम सो जाते हो, तब भी तुम भीतर नहीं देख पाते। तब भी सपनों
का जाल फैलता रहता है।
तुम हर
हालत में बाहर हो--आंख खुली है, तो
बाहर; आंख बंद है, तो बाहर। भीतर कब आओगे? भीतर आओगे, तो परमात्मा से आंख मिल सकती
है; क्योंकि परमात्मा कही और नहीं, तुम्हारे भीतर छिपा बैठा है।
तुम लौटो घर।
तुम
जरा मुड़ो--भीतर की तरफ; प्रतिक्रमण
करो; प्रत्याहार करो; लौटो भीतर की तरफ; परमात्मा की तरफ आंख करा।
उसकी आंख तुम्हारी आंख में मिल जाए, तो बस, एक पल का मिलन काफी है। फिर तुम दुबारा लौट
न सकोगे--बाहर की तरफ। बंधे रह जाओगे--कीलित--हिल न सकोगे। फिर बाहर कुछ बचता ही
नहीं खोजने को। जिसके हम बाहर खोज रहे थे, वह भीतर मिल गया।
यह
सुरागी फरोग-ए-मय ये गुलरंग, यह
जाम।
चश्म-ए-साकी
की इनायत के सिवा कुछ भी नहीं।।
जीवन
में जो अपूर्व मस्ती आती है, आनंद
आता है,
जीवन
में जो मदहोशी आती है--चश्म-ए-साकी की इनायत के सिवा कुछ भी नहीं। वह उसके आंख की
कृपा है। वह सिर्फ उसकी आंख का तुम्हारी आंख से मिल जाना है।
मेल
नहीं हो रहा है। उसकी आंख तो तुम्हें देखे चली जा रही है।
यह बात
सुनी होगी--बचपन से सुनी होगी--कि परमात्मा तुम्हें देख रहा है; कि हर घड़ी देख रहा है; कि तुम जहां हो, वही देख रहा है; कि तुम जो कर रहे हो, वही देख रहा है। तुम उससे हट
कर कहीं जा नहीं सकते।
मैंने
सुनी है एक सूफी कहानी। एक सदगुरु के पास दो युवक आये और उन्होंने कहा, हमें परमात्मा से मिला दें।
हमें उसकी आंख में आंख डाल कर देख लेना है।
उस
फकीर ने दोनों की तरफ देखा और दो कबूतर, जो उसके पास ही घूम रहे थे, उसके ही पाले हुए कबूतर थे; उठा कर दोनों को एक-एक कबूतर
दे दिया और कहां कि एक काम करो; यह
तुम्हारी परीक्षा है। तुम ऐसी जगह चले जाओ, जहां तुम्हें कोई न देख रहा हो, वहां इन कबूतरों को मार
डालना। और जब तुम ऐसी जगह पा लो, जहां
तुम्हें कोई नहीं देख रहा है और कबूतर को मार डालो, तो लौट आना। फिर आगे की बात
शुरू होगी।
दोनों
युवक उठे;
भागे।
एक तो गया पास की गली में; देखा:
कोई भी नहीं है;
दोपहर
थी; लोग सोये थे। गरमी की
दोपहर--कौन निकलता है घर से! चारों तरफ देखकर, जल्दी से उसने, दीवाल की आड़ में खड़े होकर
कबूतर की गरदन मरोड़ दी। लौट कर आ गया; उसने चरणों में कबूतर रख दिया। कहा कि पास
गली में ही मार लाया। यह भी कोई बड़ी बात थी! यह कैसी परीक्षा?
गुरु
ने कहा,
तुझसे
मेरा मेल न बैठ सकेगा। तू किसी और को खोज। मैं तुझे परमात्मा की आंख में आंख डालने
का उपाय न बात सकूंगा।
दूसरा
युवक तो महीनों तक लौटा। कहते हैं: साल बीतने लगा, तब वह आया। तब तो उसे पहचानना
ही मुश्किल हो गया। दाढ़ी बढ़ गई थी; रूखे बाल। कपड़े जो पहने था, फट गये थे। धूल-धंवास से भरा
हुआ। पहचानना मुश्किल था; काला
पड़ गया था;
और
कबूतर जिंदा ले आया था। गुरु के चरणों में कबूतर रख दिया और उसनने कहा कि मुझे
क्षमा करें;
मैं
हार गया। यह परीक्षा मैं पास न कर सका; और यह परीक्षा मैं पास न कर सकूंगा। साल भर
जो भी मैं कर सकता था, मैंने
कर के देख लिया। ऐसी जगह न पा सका, जहां कोई भी न देख रहा हो, अंधेरी गलियों में गया, तलघरों में उतरा; वीरानों में चला गया; रेगिस्तानों में गया। तलघरों
के भीतर जाकर अंधेरे से अंधेरे में खड़ा हो गया, लेकिन वहां भी कबूतर देख रहा था! टक-टक उसकी
आंखें! तो मैंने कबूतर की आंखों पर पट्टियां बांध दी। लेकिन मैं देख रहा था। तो
फिर मैंने अपनी आंखों पर भी पट्टियां बांध लीं। लेकिन तब मुझे याद आया कि परमात्मा
तो देख ही रहा है। मैं ऐसी जगह कहां खोजूंगा, जहां परमात्मा न देख रहा हो? यह तो आपने बेबूझ पहेली दे
दी। यह कबूतर अपना वापस ले लें; मुझे
क्षमा कर दें। मैं हार गया; मैं
दुखी हूं कि एक छोटा-सा काम न कर सका, जो आपने दिया था। मैं अयोग्य हूं; मैं अपात्र हूं।
गुरु
ने उसे गले लगा लिया और कहा कि तू रुक; काम हो गया; तू परीक्षा में पार उतर गया।
तेरा पहला साथी हार गया। वह तो घड़ी भर में मार कर आ गया था! घड़ी भी न लगी थी। वह
तो बगल की गली में मार कर आ गया था। उसे तो कुछ तो कुछ होश ही न था; उसे तो कुछ समझ ही न थी कि यह
क्या कर रहा है। तुझे होश है; तुझे
समझ है। तेरी आंख परमात्मा की तरफ है; मिलन हो जायेगा। इतना ही जिसे याद है कि
परमात्मा देख रहा है, फिर
बहुत कठिनाई नहीं है। प्रतीक्षा करो।...
पहली
बात: भीतर की तरफ मुड़ो; और
दूसरी बात: प्रतीक्षा करो।
मय
कशो! मय की कमी-बेशी पर नाहक जोश है।
यह तो
साकी जानता है,
किसको
कितना होश है।।
नाहक
शिकायतें मत करो कि मेरे प्याले में बहुत कम डाला; दूसरे के प्याले में बहुत
ज्यादा भर दी है शराब।
मय
कशो! मय की कमी-बेशी पर नाहक जोश है
यह तो
साकी जानता है,
किसको
कितना होश है।।
उसे
पता है कि तुम्हारी कितनी जरूरत है अभी; तुम कितनी पी सकोगे, तुम कितनी झूल सकोगे।...तो
अपनी तैयारी बढ़ाये जाओ। जैसे-जैसे तुम्हारी पात्रता बढ़ती है, तुम्हारा पात्र गहरा होता है, वैसे-वैसे उसकी शराब तुममें
ज्यादा उतरने लगेगी। अपनी आंख साफ किये जाओ, जैसे-जैसे तुम्हारी आंख साफ होने लगेगी, वैसे-वैसे उसकी आंख तुम्हारी
आंख में झांकने लगेगी। जिस दिन तुम्हारी आंख परिपूर्ण शुद्ध हो जाती है, उस दिन चकित हो कर हैरान
होओगे कि तुम्हारी आंख और उसकी आंख दो नहीं है--एक ही है।
बड़े
अपूर्व संत एकहार्ट ने कहा है कि जब मैंने परमात्मा को वस्तुतः देखा, तो मैं चकित हो गया, क्योंकि मैंने उसे बाहर नहीं
देखा; मैंने देखा कि वह मेरी आंख से
झांक रहा है। वहीं देख रहा है। वही मेरे भीतर देखनेवाला है; वही द्रष्टा है।
परमात्मा
कभी दृश्य नहीं बनता; परमात्मा
तो तुम्हारे भीतर छिपे हुए द्रष्टा का नाम है। तुम्हारी आंख से भी जो देख रहा है, वह परमात्मा ही है। लेकिन यह
तो आंख की परम शुद्धि की बात है--जब आंख पूरी तरह मुड़ी होती है, और आंख पर से सारे बादल हटा
दिये गये होते हैं।
अगर
कभी-कभी क्षण भर को झलक मिल जायेगी--उसकी आंख की। अशुद्ध आंखों को भी कभी-कभी उसकी
क्षण भर को झलक मिलती है। नहीं तो फिर तो कोई उपाय ही न था।
अंधों
को भी कभी-कभी उसकी किरण दिखाई पड़ती है। बहरों के कान में भी कभी-कभी उसकी आवाज पड़
जाती है। क्योंकि वस्तुतः तुम बहरे नहीं हो; बहरे बने हुए हो। और वस्तुतः तुम अंधे नहीं
हो; आंख बंद किये बैठे हो। लेकिन
कभी-कभी भूलचूक से तुम्हारी भी आंख खुल जाती है; और भूलचूक से तुम्हारे कान भी
सुन लेते हैं।
परमात्मा
से मिलने के पहले--इसके पहले कि उसकी शराब तुम्हारे जीवन में उतरे, कई बार छोटी-छोटी झलकें
आयेंगी।
देखा
कि वे मस्त निगाहों से बार-बार।
जब तक
शराब आये,
कोई
दौर हो गये।।
परम
समाधि के पहले बहुत से दौर हो जायेंगे। कई बार तुम बहुत करीब आ जाओगे; करीब से करीब आ जाओगे। क्षणभर
को एक ज्योति चमकेगी और खो जायेगी, जैसे बिजली चमकती है अंधेरा रात में।
अब
बिजली को रोशनी में कोई रास्ता नहीं खोज सकता। आई--और गई। लेकिन रास्ता दिख तो
जाता है। एक क्षण का तो सब रोशन हो जाता है; सारा जंगल रोशन हो जाता है। एक बात तो पक्की
हो जाती है--कि रास्ता है। फिर अंधेरा छा जाता है। फिर उटोलना पड़ेगा। फिर खोजना
पड़ेगा। लेकिन एक बात तो आस्था बन गई कि रास्ता है; और वही आस्था अंततः मंजिल तक
पहुंचा देती है।
इसके
पहले कि सुबह हो,
बहुत
बार बिजली कौंधेगी। लेकिन आदमी ने क्या किया है। बिजली कौंधती भी है, तो उसे झुठला देता है।
मेरे
पास अनेक बार लोग आते हैं, जिनके
जीवन में बिजली कौंधी है और उन्होंने उसे झुठला दिया। उन्होंने सोच लिया--कि मन की
कल्पना होगी। उन्होंने सोच लिया कि मालूम होता है; मैं पागल हो रहा हूं!
उन्होंने अपने को समझा लिया है। न केवल समझा लिया है, उन्होंने खींचत्तान कर अपने
को वापस अपनी स्थूल दुनिया में वापस बुला लिया है।
न
मालूम कितनी बार तुम्हें मौके आते हैं, जब तुम बहुत करीब होते हो रोशनी के। लेकिन
तुम्हारे जीवन भर के अनुभव और रोशनी का अनुभव इतने विपरीत हैं...।और तुम्हारे जीवन
के अनुभव का बहुमूल्य है, बहुमत
है।
जैसे
एक आदमी ने निन्यानबे अनुभव तो संसार के किये और फिर एक अनुभव परमात्मा का आया। तो
निन्यानबे की भीड़ के कारण एक अनुभव झुठला दिया जाता है।
फिर एक
और तकलीफ है कि जब बिजली चमकती है, तो तुम्हारे हाथ से नहीं चमकती। अगर कोई
कहे: फिर से चमकाओ, तो तुम
नहीं चमका सकते। पुनरुक्ति नहीं हो सकती। यह कोई टॉर्च तो नहीं है तुम्हारे हाथ
की--कि बटन दबा दी; जला
ली--बुझा ली। यह विराट की बिजली है। चमकती है, तब चमकती है।
समझो
कि तुम बैठो हो और तुमने देखा: परम प्रकाश
तुम्हारे भीतर--तुम्हारे बाहर! तुम भागे और तुमने अपनी पत्नी से कहा कि मुझे
प्रकाश दिखाई पड़ा है। तो उसने कहा, तो बैठो, मुझे दिखला दो। अब यह कोई टॉर्च तो नहीं है!
भी मजबूरी है;
वह
पूरा किया नहीं जा सकता।
तो इस
कारण बहुत बार अनुभव करने के बाद भी हम उन अनुभवों को झुठला देते हैं या कल्पना
मान लेते हैं।
आज से
खयाल रखो: जब भी जीवन में कुछ अपूर्व घटे, जिसको न तो तुम समझा सको, और न समझ सको, तो उसे संजो कर रखना। उसे
फेंक मत देना। यह दोहरता न हो, तो
कल्पना मत कह देना। वह फिर-फिर न आये, तो इनकार मत कर देना।
यह
अनुभव ऐसा अपूर्व है कि फिर-फिर आता नहीं। इसे सम्हाल कर रखते जाना। एक अनुभव हुआ, फिर महीनों बीत जायेंगे, दूसरा अनुभव होगा; उसे भी सम्हाल कर रख लेना।
ऐसे धीरे-धीरे अनुभव की संपदा बढ़ती जायेगी।
इन्हीं
अनुभव के छोटे-छोटे इट-पत्थर-गारे से परमात्मा का मंदिर निर्मित होता है। फिर
जैसे-जैसे तुम जानने लगोगे कि मेरे मांगने से नहीं होता, तो मांगोगे नहीं--और ज्यादा
होगा। जब तुम देखोगे कि बिना मांगे खूब होता है, तो फिर तुम मांगोगे ही क्यों!
फिर रोज-रोज होगा। जब तुम बिलकुल जान लोगे यह बात--कि मेरी जरा सी द्रष्टा बाधा बन
जाती है,
तो तुम
बिलकुल निष्चेष्ट हो जाओगे।
अजगर
करें न चाकरी,
पंछी
करें न काम।
दास
मलूका कहि गये,
सबसे
दाता राम।।
फिर तो
तुम अजगर जैसे हो जाओगे। फिर तो तुम पंछियों जैसे हो जाओगे। फिर तो तुम कहोगे:
परमात्मा देनेवाला है, मैं
मांगूं ही क्यों!
दास
मलूका कहि गये,
सबके
दाता रात। वह देता ही है, तो
मांगना क्या?
मांग
कर और भिखारी क्यों बनना?
जैसे
जैसे तुम्हारी मांग और वासना क्षीण होती जायेगी, तुम पाओगे: अनुभव रोज बरसने
लगा। फिर ऐसी घड़ी आ जाती है, जब
अनुभव जाता ही नहीं; रोशनी
तुम्हें घेरे ही रखती है; उस घड़ी
को ही हम संतत्व कहते हैं। जब सत्य तुम्हारे भीतर चौबीस घड़ी बरसता रहता है, तब तुम संत हुए।
तीसरा प्रश्न: मैंने सैकड़ों संबंध बनाये--शारीरिक और मानसिक दोनों, लेकिन आखिर में बढ़ती हुई
तृप्ति के सिवाय कुछ भी हाथ नहीं आया। मैं कुछ पकड़ नहीं पाती; सब हाथ से फिसल-फिसल जाता है
और मैं बेबस और भयभीत खड़ी देखती रहती हूं; ऐसा क्यों है?
तुम्हारा
कुछ कसूर नहीं। इस जगत के सारे अनुभव पानी के बुलबुले जैसे हैं, कुछ कभी मिलता नहीं।
मृगमरीचिकायें हैं; इंद्रधनुष
हैं। दूर से खूब सुंदर; दूर के
ढोल बड़े सुहावने। मुट्ठी बांधो, कुछ भी
हाथ न आयेगा। तुम्हारा कोई कसूर नहीं है। शारीरिक संबंध या मानसिक संबंध--इनसे कुछ
भी मिला नहीं। इतना ही मिलता है इनसे--कि इनमें कुछ सार नहीं। मगर यह बड़ी बात है।
ये असार है--ऐसा अनुभव इनसे मिलता है। यह कोई छोटी शिक्षा नहीं है! क्योंकि जिसने
असार देख लिया है,
उसको
सार देखने में ज्यादा देर न लगेगी। असार को असार की भांति देख लेना, सार को सार की भांति देखने का
पहला कदम है।
इतना
भी साफ हो गया कि इस संसार के सारे संबंध बनते हैं, जाते हैं; हाथ खाली के खाली रह जाते
हैं--बड़ा गहरा अनुभव है। इस अनुभव को स्मरण में रखो। अब बार-बार इनको दोहराये मत
जाओ। क्योंकि पुनरुक्ति से कुछ बढ़ेगा नहीं। इनसे कुछ सीखो।
अनुभव
से जब तुम कुछ सीखते हो, तो
ज्ञान निर्मित होता है। और अनुभव को जब तुम दोहराये चले जाते हो, तो मूढ़ता और जड़ता निर्मित
होती है।
दुनिया
में बहुत कम लोग हैं, जो
अनुभव से सीखते हैं। अनुभव से जो सीख ले, वही समझदार है।
एक दिन
क्रोध किया: दूसरे दिन क्रोध किया; हजार बार क्रोध किया, अब तक सीखा नहीं! इतने बार
क्रोध करके पाया कि कुछ भी नहीं मिलता, तो अब तो रुको! अब तो जाने दो--इस क्रोध को।
अगर हजार बोर क्रोध करके भी तुमने इतनी सी बात सीख ली कि क्रोध में कुछ सार नहीं, तो वे हजार बार का क्रोध भी
तुम्हें बहुत कुछ दे गये; वे भी
व्यर्थ न गये;
उससे
भी तुमने कुछ निचोड़ लिया; कुछ
इत्र उनसे भी निचोड़ लिया। अब तुम क्रोध से मुक्त हो जाओ।
हजार
बार काम-वासना में उतरे और कुछ भी न पाया, तो अब जाओ। और फर्क समझ लेना: मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि काम-वासना को त्यागो। मैं कह रहा हूं--जागो।
त्यागने
का तो मतलब यह है कि अभी भी रस लगा है। रस लगे का मतलब है--अभी भी आशा बंधी है।
आशा बंधे होने का मतलब है कि क्या पता: अब तक नहीं मिला, आगे मिल जाये; कल मिल जाए; परसों मिल जाए। तो फिर
त्यागना पड़ता है। लेकिन जब तुम जाग कर देख लेते हो कि मिलता ही नहीं; मिल ही नहीं सकता...।
जैसे
एक आदमी रेत से तेल निचोड़ने की कोशिश कर रहा हो--वर्षों से--और एक दिन जाग कर देखे
कि अरे,
मैं
पागल हूं;
रेत के
निचोड़ ने से तेल कैसे निकलेगा? तिल
निचोड़ने से तेल मिलता है। तो फिर त्याग करेगा रेत का? बात खतम हो गई। झाड़ कर उठ
बैठेगा। हाथ-पैर से झाड़ देगा रेत; फिर
लौट कर भी नहीं देखेगा। बात खतम हो गई। त्याग क्या है इसमें?
जिस
दिन तुम्हें लगे: क्रोध में कुछ भी नहीं, काम में कुछ भी नहीं, उठ खड़े हो गये; बात खतम हो गई। त्याग ही। तुम
व्रत थोड़े ही लोगे जा कर--कि ब्रह्मचर्य का व्रत लिया, उसने तो बता दिया कि अभी समझ
आई नहीं। व्रत में ही ना समझी छिपी है। ना समझो के सिवाय कोई व्रत लेता ही नहीं।
समझदार क्यों व्रत लेगा? समझदारी
पर्याप्त है;
व्रत
की कोई जरूरत नहीं है।
इतनी
बात समझ में आ गई कि यहां कुछ भी नहीं है, बात खतम हो गई। अब व्रत किसके खिलाफ लेना है? व्रत तो अपने खिलाफ लिया जाता
है। डर है। कि कल शायद फिर लगने लगे कि है कुछ, तो फिर क्या करूंगा? तो व्रत का बंधन बना लो। कसम
खा लो--भीड़ में जाकर--बाजार में--बीच बाजार में खड़े होकर--कि मैंने ब्रह्मचर्य का
व्रत ले लिया। ताकि फिर डर लगे कि अब लोगों से कह चुका; प्रतिष्ठा का सवाल है। अहंकार
पर चोट लगे;
घबड़ाहट
हो कि अब अगर भूलचूक की, तो लोग
क्या कहेंगे?
मगर यह
तो कुछ जागना न हुआ। जागरणशील व्यक्ति को व्रत की जरूरत नहीं है। मैं तुम्हें
अव्रती बनाता हूं। तुम्हारे जीवन से सारे व्रत समाप्त हो जाने चाहिए, क्योंकि कोई व्रत क्रांति
नहीं लाता। समझ क्रांति लाती है।
तो
पूछा है--कुसुम ने यह सवाल, मैंने
सैकड़ों संबंध बनाये--शारीरिक और मानसिक, लेकिन आखिर में बढ़ती हुई अतृप्ति के सिवाय
कुछ भी हाथ नहीं आया।
कुछ तो
हाथ आया;
वह समझ
हाथ आई कि अतृप्ति बढ़ती जाती है। तो उन सारे अनुभवों को धन्यवाद दो। उनके बिना यह
कैसे समझ में आता! उन सारे अनुभवों को धन्यवाद दो। उनके बिना यह कैसे समझ में आता!
उन सारे अनुभव के प्रति कृतज्ञ अनुभव करो। और जब जाग कर जियो--कि उन अनुभवों को
बार-बार दोहराने की जरूरत नहीं है। अर्थहीन हो गये वे। अब उस पुनरुक्ति से बचो: अब
उसी-उसी चाक को पकड़ कर मत घूमते रहो।
इस
संसार में सभी क्षण-भंगुर है। और इस मन के द्वारा क्षण-भंगुर से ज्यादा किसी चीज
से कोई संबंध नहीं जुड़ता। शाश्वत से जुड़ना हो, तो मन के पार जाना जरूरी है।
इस
दिल-ए-मायूसी की वीरानसाजी कुछ न पूछ।
इसने
जब और जो चमन ताका बयांबा हो गया।।
जहां
भी यह मन देखेगा,
वही
विकृति हो जायेगी। जहां यह मन अपनी छाप छोड़ेगा, वहीं राख घुट जायेगी।
इस
दिल-ए-मायूसी की वीरानसाजी कुछ न पूछ।
इसने
जब और जो चमन ताका बयांबा हो गया।।
तुमने
अगर फूल भी देखे,
तो
कुम्हला जायेंगे। तुमने हरे-भरे वृक्ष को देखा--सूख जायेगा।
इस मन
के द्वारा शाश्वत से कोई संबंध ही नहीं जुड़ता। इस मन का संबंध हो क्षण भर का है।
क्षण भर है;
अभी है, अभी नहीं है।। अभी सब ठीक; अभी सब गलत। अभी प्रेम--अभी
घृणा। अभी करुणा--अभी क्रोध। अभी लुटाने को तैयार थे, अब लूटने को तैयार हो गये। इस
मन के साथ इससे ज्यादा कुछ भी नहीं हो सकता। और इस मन के फैलाव का नाम संसार है।
तो
जाओ। कहीं ऐसा न हो, जैसा
कि अधिकतर होता है। जीवन भर लोग जीते हैं, मगर सीखते कुछ भी नहीं।
चुन
लिये औरों ने गुलहा-ए-मुराद।
रह गये
दामन ही फैलाने में हम।।
चुन
लिये औरों ने गुलहा-ए-मुराद।
रह गये
दामन ही फैलाने में हम।।
कहीं
ऐसा न हो कि दूसरे तो फूल चून लें और तुम दामन ही फैलाते रहो और मौत आ जाए।
किन
फूलों की बात कर रहा हूं? उन
फूलों की बात कर रहा हूं, जो इस
जीवन के प्रत्येक अनुभव में से निःसृत होते हैं।
क्रोध
किया; पाया--व्यर्थ है; एक फूल चूना। काम किया ; पाया--व्यर्थ है; एक फूल और चुना। लोभ किया; पाया--व्यर्थ है; एक फूल और चूना। चुनते गये
फूल। इन्हीं सारे फूलों की माला एक दिन बन जाती है। उसी माला को ही तो परमात्मा के
चरणों में अर्पित करना है।
अगर
नहीं चुने फूल;
फिर-फिर
क्रोध में उतरे,
फिर-फिर
वासना में उतरे,
तो बस, दाम ही फैलाने में समय बीत
जायेगा।
तो
कुसुम को कहता हूं: जाग। देखा सब; देखना
जरूरी था। सिर्फ एक बात का खयाल रखना कि कुछ भी नहीं मिलता, व्यर्थता मिलती है और जीवन
में बेचैनी बढ़ती है--यह तेरा अनुभव होना चाहिए। ऐसा न हो कि जल्दबाजी हो। ऐसा न
हो कि लोभ के कारण यह प्रश्न लिखा हो, तो चूक हो जायेगी।
अकसर
ऐसा भी हो जाता है। संतों की वीणा पढ़ते, संतों के वचन सुनते लोभ जगता है। और उनकी
वाणी के प्रभाव में ऐसा लगता है कि ठीक ही तो कहते हैं। मगर उनके ठीक से कुछ भी न
होगा।
मेरा
ठीक, तुम्हारा ठीक नहीं है।
तुम्हारा ठीक ही तुम्हारा ठीक है। मेरा बोध, मेरा बोध है; तुम्हारा बोध नहीं बनेगा। मैं
लाख कहूं कि क्रोध में कुछ भी नहीं, और तुम सुन भी लो, समझ भी लो, बुद्धि से बात जंच भी जाए, मगर इससे कुछ सार न होगा; जब तक कि तुम्हारे जीवन के
अनुभव से यह निष्पत्ति न निकले।
तो बस, एक ही बात खयाल रखना:
जल्दबाजी मत करना।
मेरे
साथ इतना स्मरण रखना सादा जरूरी है कि लोभ में मत पड़ना। हां तुम्हें लग गया हो कि
कोई सार नहीं है--शारीरिक संबंधों में, तो बात खत्म हो गई। मेरे कहने से मत कर लेना
अन्यथा फिर लौट कर आयेगी यह वासना। फिर डुलायेगी; फिर खींचेगीत्तानेगी। और दमन
शुरू हो जायेगा। और दमन के मैं बिलकुल विपरीत हूं। जागरण ठीक; दमन तो रोग लाता है।
नहीं
यहां कुछ मिलने को है, इसलिए
जल्दबाजी भी करते की जरूरत नहीं है। कुछ मिलता ही नहीं है, तो फिर घबड़ाना क्या!
तुम्हारे
तथाकथित महात्मा बड़े घबड़ाये होते हैं। घबड़ाहट भी क्या? यहां कुछ मिलने को तो है
नहीं। तुम रेत से ही तेल निचोड? रहे हो; और थोड़ी देर निचोड़ो। कुछ
मिलने को नहीं है;
कुछ
खोने को नहीं है। मगर तुम्हारे ही भीतर यह किरण उतर आये, कि यह रेत है, तभी छोड़ देना; उसके पहले मत छोड़ना। अधकच्चे
मत गिर जाना वृक्ष से, नहीं
तो कड़वे रह जाओगे।
इसलिए
तुम्हारे तथाकथित महात्मा बड़े कड़वे रह जाते हैं। जीवन का माधुर्य नहीं होता, कड़वाहट होती है। क्रोध से भरे
होते हैं;
निंदा
से भरे होते हैं;
क्योंकि
जिस-जिस बात को छोड़ दिया है, वह
छूटी तो नहीं थी अभी। छोड़ बैठे हैं। अभी भी राग है; अभी भी भीतर रंग उठता है; अभी भी वासना उद्वेलित होती
है। उस वासना से लड़ने के लिए रोज उस वासना को गाली देना पड़ता है।
अगर
तुम किसी महात्मा को सुनने जाओ और वह कामिनी और कांचन को ही गाली देने की बात कर
रहा हो,
तो समझ
लेना कि कामिनी-कांचन उसके पीछे अभी भी पड़े हैं। नहीं तो क्या जरूरत है--चौबीस
घंटे कामिनी-कांचन के पीछे पड़े रहने की!
वक्त
की कुछ पीढ़ियों के बाद आखिर क्या मिलेगा?
उम्र
की इन सीढ़ियों के बाद आखिर क्या मिलेगा?
पत्थरों
को सर झुकाने का चला है सिलसिला।
पाप की
परछाइयों में पुण्य है फूला फला।।
रामनामी
ओढ़ने के बाद आखिर क्या मिलेगा?
दूरियों
को पास लाने की बड़ी है कशमकश।
बर्फ
में बरसों सुलाने की हुई है पेशकश।।
श्यास
की इन सरदों के बाद आखिर क्या मिलेगा।
वक्त
की कुछ पीढ़ियों के बाद आखिर क्या मिलेगा।।
क्या
मिलने को है यहां?
जैसे
दिन गये,
अभी और
दिन जायेंगे। जैसे वक्त बीता, और
वक्त बीतेगा। समय में कुछ मिलता ही नहीं। समय एक सपना है, जो सिर्फ बीतता है--मिलता कुछ
भी नहीं।
मगर
अगर इतनी ही बात मिल जाए--कि समय में कुछ नहीं मिलता, तो हीरा हाथ लगा; तो बड़ा बहुमूल्य हीरा हाथ
लगा। फिर इसी हीरे के सहारे तो तुम परमात्मा तक पहुंच सकते हो। मगर कच्चा न हो
हीरा। हीरा कच्चा हो--तो कोयला। कोयला पक जाए--तो हीरा।
तुम्हें
पता है न कि कोयला और हीरा दोनों एक ही तरह की चीजें हैं। उनमें फर्क कच्चे और
पक्के का है। हीरे और कोयले का रसायन बिलकुल एक जैसा है। दोनों एक ही तत्व से बने
हैं। जिसको तुम हीरा कहते हो, वह
हजारों-हजारों साल पृथ्वी के अंतर्गर्भ में दबा हुआ कोयला है।
दबता--दबता--दबता--दबता--उस दबाव के कारण इतना मजबूत और सख्त हो गया है कि अब हीरा
है। कोयला ही था पहले। कोहिनूर भी कोयला था; लाखों वर्षों की प्रक्रिया और दबाव के बाद
हीरा बन गया है।
कोयला
और हीरा में फर्क नहीं है। पक जाए, तो हीरा। तो पक जाने का खयाल रखो। तुम्हारे
काम पक जाए,
तो
राम। तुम्हारा क्रोध पक जाए, तो
करुणा।
जिंदगी
पकने का एक अवसर है।
चौथा प्रश्न: ओम। समझ में कुछ नहीं आता; प्रभुश्री समझायें। राम तो बस, राम ही हैं; राम किसके गीत गाये?
जिस
दिन ऐसा समझ में आ जायेगा--कि राम तो बस, राम ही हैं; राम किसके गीत गये--उस दिन एक
गीत तुमसे उठेगा,
जो
सिर्फ गीत होगा;
किसी
का गीत नहीं--बस,
गीत
होगा। एक सुगंध उठेगी--अनिर्वचनीय; एक सौंदर्य जगेगा--अव्याख्य।
राम का
गीत तो तभी तक गाना पड़ता है, जब तक
राम से दूरी है। फिर तो राम ही तुम्हारे भीतर गायेंगे; अपना ही गीत
गायेंगे--स्व-गीत।
यह
सारा जो विराट चल रहा है, यह राम
अपना ही गीत गा रहे हैं। वृक्ष मैं राम हरे हैं; पक्षियों के कंठ में राम
अनेक-अनेक ध्वनियों में प्रकट हुए हैं। सरिताओं में, सागरों की कलकल में राम का
कलकल नाद है।
यह
सारा नाद ब्रह्मनाद है। यह अनाहत ही चल रहा है। जिस दिन पहचानोगे, उस दिन पाओगे: राम अपना ही
गीत गा रहे हैं। और किसका गीत गाने को है?
राम
अपना ही नाच नाच रहे हैं। राम गुनगुना रहे हैं। लेकिन जब तक यह पहचान नहीं हुई, तब तक तुम्हें लगता है: राम
अलग--तुम अलग। तब तक राम का गीत गाना है। जब तक दूरी है, तब तक राम का गीत गाना है।
ऐसा राम का गीत गाते-गाते देर मिट जायेगी। जिस दिन दूरी मिट जायेगी, तुम राम के गीत हो जाओगे, तुम राम हो जाओगे। वही तो
मलूक ने कहा: साहब--साहब हो गये। थे वही--वही हो गये। थोड़े देर बीच में भूल गये
थे--कि मैं कौन हूं। थोड़ी देर आत्म-विस्मरण हो गया था।
परमात्मा
तुमसे दूर नहीं है, सिर्फ
आत्म-विस्मरण हो गया है।
तुम
पूछे हो: समझ में कुछ नहीं आता। समझ में आने की बात भी नहीं है। समझ से तो सावधान।
समझ--यानी बुद्धि की।
हृदय
की समझ जगाओ। हृदय को समझ--यानी प्रेम; बुद्धि की समझ--यानी तर्क; बुद्धि की समझ--यानी विचार।
हृदय की समझ--यानी श्रद्धा।
तुम
कहते हो: समझ में कुछ नहीं आता। बुद्धि से समझने की कोशिश कर रहे होओगे, तो कुछ भी समझ में न आयेगा।
क्योंकि ये बुद्धि अतीत बातें हो रही हैं; ये मलूकदास--ये बुद्धि के बाहर गये हुए लोग
हैं। यह मस्ती,
यह
शराब--ये बुद्धि से बाहर जाने के उपाय हैं। यह बुद्धि से समझ में आयेगा न। यह गणित
नहीं है,
जिसे
तुम हल कर लोगे। यह पहेली नहीं है, जिसको तुम सुलझा लोगे। यह जीवन का रहस्य है, इसे तुम जीयोगे, तो ही जानोगे। इसका स्वाद
लोगे, तो जानोगे। चखो।
समझ
में कुछ नहीं आता,
प्रभुश्री
समझायें। लाख समझायें, तो भी
समझ में न आयेगा। समझ की यह बात नहीं। कुछ समझ से पार चलो।
समझ पर
ही अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता है। समझ पर हो सत्य समाप्त नहीं हो जाता है। समझ
ज्यादा से ज्यादा तुम्हें मंदिर के द्वार तक ला सकती है; मंदिर के भीतर न ले जा सकेगी।
मंदिर के भीतर जाना हो, तो समझ
को वही छोड़ देना होगा, जहां
तुम जूते छोड़ आते हो; वहीं
समझ भी रख आनी पड़ेगी; बुद्धि
वहीं रख आनी पड़ेगी। भीतर तो निबुद्धि होकर जाओगे, बालक ही तरह निर्दोष होकर
जाओगे,
तो ही
पहुंचोगे।
जीसस
ने कहा है: जो बच्चों की भांति सरल हैं, वे ही केवल मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश
कर सकेंगे और दूसरे नहीं।
तो तुम
पूछते हो: समझायें। रोज तो समझा रहा हूं। समझ से समझ में आयेगा भी नहीं। फिर भी
समझता हूं। समझाने से इतना भी समझ में आ जाये कि समझाने से समझ में नहीं आता, तो कुछ बात बनी। तो तुम द्वार
पर आ कर खड़े हो गये।
एक दिन
तो थक जाओगे--समझने से, समझाने
से। एक दिन तो घबड़ा जाओगे--समझने से, समझाने। एक दिन तो कहोगे कि अब बहुत हो गई
बुद्धि;
अब
बुद्धि को छोड़ते हैं। एक दिन तो बुद्धि बोझरूप हो जायेगी। और वह बड़े सौभाग्य का
क्षण है,
बुद्धि
बोझरूप हो जाती है; अभी
उठती है प्रार्थना; तभी
उठता है प्रेम;
तभी
उठती है पूजा।
जिसकी
जिल्लत में भी इज्जत है, सजा
में भी मजा।
कुछ
समझ में नहीं आता कि मुहब्बत क्या है।।
कुछ
समझ में नहीं आता...! प्रेम समझ में थोड़े ही आता है। प्रेम तुमसे बड़ा है; समझ में आयेगा कैसे? तुम्हारी मुट्ठी बहुत छोटी है; प्रेम बड़ा आकाश है--मुट्ठी
बांधी कि खो जायेगा। अगर आकाश चाहिए हो मुट्ठी में, तो मुट्ठी मत बांधना। खुले
हाथ में तो आकाश होता है, बंद
हाथ में आकाश खो जाता है।
हृदय
को खोलो। खुला हुआ हृदय--और तुम समझ पाओगे। एक और ही तरह की समझ; एक दूसरी तरह की ही समझ; एक पृथक ढंग की ही समझ।
प्रार्थना
में लगो। राम को गुनगुनाओ; राम के
की गीत गाओ। असली बात तो गीत गाना है--राम तो बहाना है। तुम गीत गा सको, इसके लिए राम की खूंटी का
सहारा ले लो। तुम गुनगुना सको; तुम
नाच सको;
तुम्हारे
हृदय में छिपी हुई मुस्कुराहट ओठों तक आ जाये और तुम्हारे भीतर भरा हुआ मधुकलश
छलकने लगे...।
बस, राम तो बहाना है। राम से कुछ
लेना थोड़े ही है;
राम से
कुछ देना थोड़े ही है। इसलिए कोई भी नाम काम दे देगा। अल्लाह के गीत गाओ; खुदा के गीत गाओ; कि राम के, कि कृष्ण के--इसमें कुछ फर्क
नहीं पड़ता।
गीत
गाना सीख लो। प्रार्थना उठने लगे। जीवन से एक ऐसा संबंध बनने लगे, जो बुद्धि का नहीं है--हृदय
का है।
समझो; गुलाब का फूल खिला। तुम उसके
पास जा कर खड़े हुए। बुद्धि का संबंध तो यह है कि तुम सोचो: अरे! बड़ा सुंदर गुलाब!
कहां से आया?
ईरान
से आया?--कहां से आया? ऐसा गुलाब कभी देखा नहीं; इतना सुंदर! इतना बड़ा फूल!
बहुत देखे गुलाब,
मगर
ऐसा गुलाब नहीं देखा। ऐसी बहुत सी बातें सोचने लगो, विचार करने लगो, तो गुलाब से यह बुद्धि का
संबंध हुआ।
खिला
गुलाब;
तुम
गुलाब के पास आये। आंखें भर गई गुलाब से। नासापुट भर गये--गुलाब की गंध से। तुम
नाचने लगे। ऐसा गुलाब कभी मिला नहीं था! तुम गीत गुनगुनाने लगे। तुमने गुलाब की
स्तुति में एक गीत गाया; कि तुम
नाचे; कि तुमने बांसुरी बजाई। यह
संबंध दूसरे ढंग का हुआ; यह
बुद्धि का न हुआ।
कभी
नाचे हो--गुलाब के फूल के चारों तरफ--मगन हो कर--कि ऐसा फूल खिला? तुमने प्रभु को धन्यवाद दिया
है? रोये हो कभी; आनंद के आंसू बहाये हो
कभी--गुलाब के पास खड़े हो कर? तो एक
दूसरे तरह का संबंध बना।
रात को
आकाश में चांद देखा, तो
सोचते लगे कि चांद की लंबाई-चौड़ाई कितनी है। मिट्टी-पत्थर है--क्या है? खाई-खड्डे है--क्या है? वैज्ञानिक सोचता है; चूक जाता है। जो आदमी चांद पर
चल कर आये हैं,
वे भी
चूक गये। क्योंकि वह सब सोच-विचार का संबंध है। और भी तरह के लोग इस जमीन पर हुए
हैं; कवि हुए हैं, रहस्यवादी हुए हैं; चांद पर वे कभी नहीं गये।
चांद निकला--पूरा चांद निकला--और वे नाचे।
पूर्णिमा
की रात और तुम नाचो ना, तो
जरूर तुम्हारे भीतर कुछ मुरदा जैसा है। पूर्णिमा की रात और तुम आकाश को एकटक देखते
न रह जाओ;
भाव
विह्वल न हो उठो...! सागर जैसी चीज भी, जड़ चीज लहराने लगती है--पूर्णिमा को रात और
तुम बिना लहराये रह जाते हो! सागर उत्तुंग तरंगें होने लगता है, और तुम्हारे भीतर कोई मदमस्ती
नहीं आती।
बुद्धि
ने खूब पथराया है तुम्हें। आंखों ने देखने की क्षमता खो दी है। हृदय में अंकुरण
नहीं होता। पूरे चांद की रात तुम अगर नाच सको, तो एक तरह का संबंध बना। और मैं तुमसे कहता
हूं कि जो आदमी चांद पर चलकर आये हैं, उनसे गहरा संबंध बना। चांद पर चलने से क्या
होगा? तुम चांद के ज्यादा करीब
पहुंच गये;
तुमने
चांद की आत्मा को छुआ।
जिन्होंने
इस देश में कहा था कि चांद में देवता का निवास है, वे ज्यादा सच थे। चांद से
देवता का निवास उसी क्षण हो जाता है, जिस क्षण चांद तुम्हारे हृदय को आंदोलित कर
देता है। उस क्षण चांद फिर चांद नहीं रह गया--चंद्रदेव हो गया।
सूरज
को जिन्होंने नमस्कार किया था किया था इस देश में; पानी का अर्ध्य चढ़ाया; सुबह-सुबह नदी के तट पर खड़े
होकर ओंकार की ध्वनि की, उन्होंने
ज्यादा सूरज को समझा था। वह समझ और ढंग की है। खयाल कर लेना। वह समझ वैज्ञानिक
नहीं है;
बुद्धिगत
नहीं है। उन्होंने देखा, सूरज
में--जीवन को उगते। सूरज हमारा जीवन है; उसके बिना हम न हो सकेंगे। हम सूरज की
किरणें हैं। हम सूरज के बिना एक क्षण न हो सकेंगे।
जो
हमारा स्रोत है,
उसको
देख कर हम नाचें न! और जो हमारा स्रोत है, उसको देख कर हम झुकें न, तो चूक हो गई। यह एक और तरह
देखना है;
यह एक
और तरह का समझना है।
तो मैं
तुमसे यही कहूंगा...। और जिसने पूछा है यह प्रश्न, उनका नाम है--स्वामी प्रेम
सागर! तुम्हें नाम ही दिया--प्रेम सागर! अभी भी तुम समझने की बातें कर रहे हो? अब तो समझने की नासमझी छोड़ो।
अब तो प्रेम की ना-समझी पकड़ो।
तुम
मुझे दे दो महकती गंध जीवन के लिए
मांगता
हूं आज कुछ अनुबंध जीवन के लिए
याचना
मेरी धरोहर सी रहे बनकर सदा
तुम
मुझे दो आज यह सौगंध जीवन के लिए
दर्द
में डूबी हुई मन की सतह को ढूंढ दें
चाहता
है ऐसे सहज संबंध जीवन के लिए
जी
बिना बोले गुजर जाती तुम्हारे पास से
तुम
मुझे दे दो वही मकरंद जीवन के लिए
जिंदगी
का गीत भी अब तक अधूरा ही पड़ा
नेह
में डूबे हुए छंद जीवन के लिए
तुम
मुझे दे दो महकती गंध जीवन के लिए।
अब तो
प्रभु से उस गंध को मांगी, जो
जीवन को मंहका दे। अब तो प्रभु से छंद को मांगो, जो तुम्हारी जिंदगी को गीत
बना दे।
अभी तो
राम का गीत होगा--शुरुआत--बारहखड़ी--क, ख, ग,। अभी तो राम का गीत होगा। अभी तो राम
तुम्हें पराया मालूम पड़ेगा, तो
उसके गीत गाओगे। अभी तो भक्त बनोगे--भगवान दूर। फिर धीरे-धीरे करीब आओगे। फिर बहुत
करीब आओगे। फिर एकदम भगवान के आरपार हो जाओगे। और तब तुम न पहचान सकोगे कि कौन
भक्त है--और कौन भगवान। तब भी गीत उठेगा, लेकिन तब राम ही अपना गीत आयेंगे; तब प्रभु ही नाचेंगे।
इसके
पहले कि प्रभु तुम्हारे भीतर नाच सकें, और तुम प्रभु में नाच सको, नाच तो सीख लो।
आखिर प्रश्न:
जब हम होते तब तू नहीं,
अब तू ही है मैं नाहीं।
तो फिर मिलन कहां हुआ? कैसा हुआ? और किससे किसका हुआ?
मिलन
और मिलन में भेद है। दो कंकड़ों को पास रख दो; बिलकुल पास रख दो--सटाकर पास रख दो। तो एक
तरह का मिलन हुआ। दोनों अभी अलग-अलग हैं; सिर्फ परिधि छूती है। बाहर का जरा-सा हिस्सा
छूता है। भीतर दोनों अलग-अलग हैं मिलकर भी टूटे हैं। दो तो अभी दो हैं, तो मिले कहां?
फिर
पानी की दो बूंदों को पास ले आओ। सुबह जाओ; घास के पत्तों पर जमी हुई ओस की बूंदों को
पास ले आओ। पास आती बूंदें--पास आई--आई, जब तब बिलकुल पास न आई, तब तक दो हैं। जैसे ही पास आ
गई, एक हो गई।
एक यह
भी मिलन है। यहां अद्वैत हो गया। दो दो न रहे। यही वास्तविक मिलन है; क्योंकि दो कंकड़ पास आकर भी
कहां पास थे?
एक
दूसरे के प्राण में नहीं डूबे थे। एक दूसरे के केंद्र से मिले नहीं थे। बाहर-बाहर
परिधि-परिधि मिली थी। ये जो दो बूंद ओस की आकर पास खो गई, ये जो शबनम की दो बूंदें एक
दूसरे में लीन हो गई, अब
पहचानना भी मुश्किल है कि कौन-कौन है। अब तुम उन्हें दुबारा न कर सकोगे--पुराने
ढंग से--कि यह पुरानी नंबर एक, यह
नंबर दो। अब तो मेल हो गया।
परमात्मा
दूसरे ढंग का मिलन है। जैसे दो ओस की बूंदें मिलती--ऐसा। इस संसार का प्रेम दो
कंकड़ जैसा प्रेम है। जैसे पति-पत्नी मिलते, मित्र मिलते। ये सब दो कंकड़ करीब आते--बस; बहुत करीब आ जाते, तो भी दूर बने रहते, अलग बने रहते, थलग बने रहते।
परमात्मा
ऐसे है,
जैसे
बूंद सागर में उतरती है। लीन हो गई। सच है; इसलिए संतों ने कहा है कि जब तक मैं हूं, तब तक तू नहीं। और जब तू होता
है, तो मैं नहीं होता। एक ही बचता
है।
कबीर
ने कहा है: प्रेम गली अति सांकरी, तामे
दो न समाय। ये दो जहां नहीं समाते, उस गली में ही समा जाने का नाम भक्ति है।
भक्त और भगवान एक हो जाते हैं।
इसलिए
तुम्हारा पूछना--कि तो फिर मिलन कहां हुआ, एक अर्थ में ठीक है। अगर तुम पहले मिलन का
हिसाब रखते हो,
तो
दूसरा मिलन मिलन नहीं। अगर तुम दूसरे को मिलन कहते हो, तो पहला मिलन मिलन नहीं। तुम
समझ लो;
तुम्हें
जो कहना हो। शब्दों में कुछ सार नहीं है।
कैसा
हुआ? किसका हुआ? कहां हुआ?
तुम
मिलन शब्द के ये दो अर्थ खयाल में ले लो। दो कंकड़ों का मिलन; अगर तुम उनको मिलन मानते हो, तो फिर परमात्मा से मिलन को
मिलन नहीं कहना चाहिए। अगर तुम कहते हो, मिलन की वही परिभाषा है--और किसी ढंग का
मिलन स्वीकार नहीं होगा, तो फिर
परमात्मा और भक्त का मिलन मिलन नहीं कहा जा सकता; लीनता कहो; विसर्जन कहो; नाम से कुछ फर्क नहीं पड़ता।
अगर
तुम कहते हो कि दूसरा मिलन ही वास्तविक मिलन है, क्योंकि पहले मिलन में तो मिल
हुआ कहां! दो तो दो ही बने रहे। पास आ गये; मिलन कहां हुआ? अगर दूसरे का मिलन कहते हो, तो भी चलेगा। तो फिर पहले को
मिलन मत कहो;
संग-साथ
कहो--मिलन मत कहो। संबंध कहो--मिलन मत कहो।
मगर
भाषा में अब तक दोना प्रयोग होते रहे हैं। मिलन के दोनों अर्थ हैं: तक संबंध
का--और एक विसर्जन का।
भाषा
पर मत अटकना;
शब्दों
पर मत अटकना;
सार को
ग्रहण करना।
जहां
भी भाषा बाधा बने,
वहां
स्मरण रखना। जहां शब्द बहुत अतिशय हो जाए, वहां खयाल रखना।
यह
परमात्मा की यात्रा--भाषा के बाहर यात्रा है; यह शब्दातीत है। यहां शब्द पीछे छोड़ जाने
हैं। इसलिए शब्दों के साथ बहुत माथा-पच्ची मत करना अन्यथा तुम कभी भी इस परम निगूढ़
सत्य को न समझ पाओगे।
इसलिए
परमात्मा के संबंध में जितन शब्द उपयोग किये गये हैं--सब विरोधाभासी हैं। कहते
हैं--परमात्मा से मिलन--लेकिन विरोधाभासी बात है, क्योंकि न तो मिलने वाला बचा, न वह बचा--जिससे मिलना है।
दोनों खो गये।
कहते
हैं: परमात्मा बहुत दूर; और यह
भी कहते हैं कि परमात्मा बहुत पास; दोनों बातें कैसे साथ होंगी? कहते हैं: परमात्मा को खोजना
है; और यह भी कहते हैं कि
परमात्मा तुम्हारे भीतर मौजूद है। ये दोनों बातें साथ कैसे होंगी? पर ये दोनों बातें साथ हो रही
हैं।
हमारी
भाषा द्वंद्वात्मक है; हमारी
भाषा में हर चीज में द्वंद्व है। और परमात्मा का अस्तित्व निर्द्वंद्व है।
निर्द्वंद्व के लिए, द्वंद्वातीत
के लिए हमारी भाषा समर्थ नहीं है--प्रकट करने में। इसलिए जो भी हम बोलते
हैं--परमात्मा के संबंध में, उसे
बच्चे की तुतलाहट समझना। जो भी कहां गया है, परम से परम ज्ञानियों ने भी जो कहां हैं, वह बच्चों की तुतलाहट है। ऐसा
स्मरण रहे,
तो
तुम्हारे मन में व्यर्थ की झंझटें खड़ी न होंगी और व्यर्थ के प्रश्न न उठेंगे।
निशब्द
हो गया चित्त ही उसके प्रति खुलता है।
आज इतना ही।
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