जीवंत अनुभूति प्रकृति और सदगुरु प्रेम की हार भक्त का निवेदन
परमात्मा की प्यास भलाई का अहंकार
छठवां प्रवचन
श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक 16 मई, 1977
प्रश्न सार:
1--आध्यात्मिक अनुभूतियों को कैसे संजो कर रखा जाए?
2--प्रकृति सान्निध्य और गुरु सान्निध्य में क्या फर्क है?
3--परमात्मा को पाना मनुष्य की जीत है या हार?
4--भक्त क्या पाना चाहता है?
5--परमात्मा की खोज का साहस मुझमें क्यों नहीं है?
6--मैं भलाई करता हूं, लोग अनुग्रह क्यों नहीं मानते?
पहला प्रश्न: जीवन में यदि कभी अनुभूति घटित हो, तो उसे उसी रूप में कैसे संजो
कर रखा जाए?
पूछा
है श्री शुकदेव ने।
पहली
तो बात: अभी अनुभूति घटी नहीं; कभी
घटित हो। भविष्य को भी हम पकड़ना चाहते हैं! भविष्य का अर्थ ही है, जो अभी हुआ नहीं; उसको भी तिजोड़ी में बंद कर
लेने का आयोजन करना चाहते हैं!
कृपणता
की हद्द है;
अतीत
को तो हम रखते ही है संजो कर; भविष्य
की भी चिंता करते हैं कि कैसे...! अगर कभी अनुभूति घटित हो, उसे कैसे संजो कर रखा जाए!
तो
पहले तो बात: अतीत में भी कुछ घटा हो, तो उसे भी संजो कर रखने की जरूरत नहीं है।
क्योंकि जो तुम संजो कर रखोगे, वही-वही
बोझ हो जायेगा।
स्मृति
ज्ञान नहीं है। जो घट गया--भूल जाओ, विस्मरण करो; उसे ढोने की कोई जरूरत नहीं
है। तुम्हारी स्मृति अगर उससे बहुत आच्छादित हो जाए, तो फिर दुबारा न घट सकेगा।
फिर तुम्हारे दर्पण पर बड़ी धूल जम जायेगी।
जो हुआ, उसे भूलो। जो हुआ, उसे जाने दो। जो हो गया--हो
गया। जो हो गया--चुक गया। संजो कर रखने की कोई भी जरूरत नहीं है।
लेकिन
हमारी सांसारिक पकड़ें हैं; हर चीज
को संजो कर रखते हैं, तो
शायद सोचते हैं: कभी समाधि घटेगी, प्रभु
का अनुभव होगा,
उसको
भी सम्हाल कर रख लेंगे।
सम्हाल
कर रखेगा कौन?
प्रभु
का अनुभव जब होता है, तब तुम
तो होते ही नहीं;
तुम तो
बचोगे नहीं;
कौन
सम्हालेगा?
क्या
सम्हालेगा?
प्रभु
का अनुभव इतना बड़ा है; अनुभूति
तुमसे बड़ी है--तुम न सम्हाल सकोगे; तुम्हारी मुट्ठी में न समायेगी। और जो
तुम्हारी मुट्ठी में समा जाए, उसे
तुम अनुभूति समझना मत।
तो
पहले तो भविष्य को पकड़ने की चेष्टा ही व्यर्थ है। ऐसे तुम्हारा मन व्यर्थ की
चिंताओं में उलझ जाता है। हवाओं में महल खड़े मत करो।
दूसरे--यदि
अनुभव हो भी जाए,
तो उसे
संजो कर रखने की कोई भी जरूरत नहीं है। जो हो गया अनुभव--वह हो गया; उसे याद थोड़े ही रखना पड़ता
है।
सम्हाल
कर तो उसी को रखना पड़ता है, जो हुआ
नहीं। समझने का कोशिश करना।
जिसको
तुमने जान लिया,
याद
नहीं रखना पड़ता। जिसको तुमने नहीं जाना है, उसी को याद रखना पड़ता है। विद्यार्थी याद
रखता है,
क्योंकि
समझा तो कुछ भी नहीं है; जाना
तो कुछ भी नहीं है। परीक्षा देनी है, तो स्मरण रखता है। परीक्षा के बाद भूल-भाल
जायेगा।
अगर
तुम्हें ही अनुभव हुआ हो, तो
सम्हलना नहीं पड़ता।
क्या
सम्हालोगे?
अनुभव
हो गया,
बात हो
गई।
सच तो
यह है कि अनुभव हो जाए, तो उसे
भूलोगे कैसे! क्या उपाय है--जाने हुए को अनजाना करने का? अगर अनुभव सच में हुआ है, तो अनुभव तुम्हारे
श्वास-श्वास में समा गया; तुम्हारी
रंध्र-रंध्र में विराजमान हो गया। जो जान लिया--वह जान लिया। अब इसका कोई उपाय
नहीं है;
जरूरत
भी नहीं है कि इसे संजो कर रखो।
संजो
कर तो उधार बातें रखनी पड़ती हैं, जो
अपनी नहीं हैं;
दूसरों
ने जानी होगी;
हम
सिर्फ मानते हैं;
उन्हें
संजो कर रखना पड़ता है। दूसरों ने जानी होंगी, तो हमें याद रखनी पड़ती हैं। अपना जाना हुआ
याद नहीं रखना पड़ता; अपना
जाना हुआ,
तो याद
ही रहता है। बीच रात अंधेरे में कोई कर पूछ ले, तो भी याद रहता है। भूल थोड़े ही जाओगे; यह थोड़े ही कहोगे कि जरा समय
दो, मैं याद कर लूं!
अगर
तुम्हें परमात्मा का अनुभव हो जाए, तो क्या तुम कहोगे कि जरा समय दो, मुझे सोच-विचार कर लेने दो, तब मैं बताऊं; हो गया अनुभव, तो तुम अनुभव के साथ एकरूप हो
गए।
नहीं; जीवन की परम घटनाएं संजो कर
नहीं रखनी पड़ती। जीवन की परम घटनाएं इतनी बहुमूल्य हैं, इतनी प्रगाढ़ हैं, इतनी गहरी हैं कि तुम्हारे
प्राण के गहरे से गहरे हिस्से तक प्रविष्ट कर जाती हैं। तुम्हारी अनुभूति तुम्हारी
सुगंध बन जाती है।
और, संजो कर रखना ही मत कुछ।
यह
यहां रोज अनुभव में आता है। अगर ध्यान की थोड़ी सी झलक मिली, तो बस, अड़चन शुरू हुई। फिर आदमी
सम्हाल कर रखने लगता है। उस झलका को पकड़-पकड़कर रखता है। उस झलक के कारण नई झलक
मिलनी मुश्किल हो जाती है।
मन
खाली चाहिए;
मन सदा
रिक्त चाहिए;
मन के
दर्पण पर चित्र नहीं चाहिए। तो जो अनुभव हुआ--हो गया।
कल जो
जो चुका है,
उसे
याद हम इसीलिए रखते हैं कि हमें डर है कि फिर पता नहीं, अब होगा या नहीं!
परमात्मा
की एक किरण उतर आये, तो डर
नहीं है कोई। तुम अभय हो जाओगे। जो आज हुआ है, वह कल और भी होगा; परसों और भी ज्यादा होगा। जो
हुआ है,
वह
बढ़ता रहेगा। इतना भय नहीं है।
लेकिन
हम संसार से अनुभव सीखे हैं: रुपया मिल जाए, सम्हाल कर रख दो; कहीं खो न जाए। आज मिल गया, कल भी मिलेगा--पक्का है?
राह से
जाते थे,
मिल गई
एक थैली रुपयों की। सम्हाल कर रख लो। अब दुबारा-दुबारा बार-बार थोड़े ही राह के
किनारे यह थैली मिलेगी।
तो
संसार में हम हर चीज को सम्हाल कर रखते हैं; पकड़ कर रखते हैं। हमें परमात्मा का कोई
अनुभव नहीं है। जहां परमात्मा होना शुरू होता है--एक बूंद हुआ, तो कल दो बूंद होगा। अगर न हो, तो कसूरवार तुम हो। तुम अगर
अतीत की बूंद को बहुत पकड़ कर बैठ गये और उसी को गुनगुनाते रहे, उसी की जुगाली करते रहे, तो परमात्मा सामने खड़ा
रहेगा--और तुम अपने अतीत में उलझे रहोगे।
तुम
अपनी अतीत की अनुभूति संजोने में लगे हुए हो और परमात्मा द्वार खटका रहा है, तो तुम चूकोगे।
अनुभूतियों--समाधि
की, सत्य की, सम्यक बोध की, संबोधि की--सम्हाल कर नहीं
रखनी होती। पहली तो बात: तुम्हारे रोए-रोए में प्रविष्ट हो जाती हैं स्मृति नहीं
बनती।
स्मृति
तो हम बनाते उसी चीज की हैं, जो
हमारे रोए-रोए में समाती नहीं। समझो: जैसे कि तुमने तैरना सीखा; इसे याद रखना पड़ता है? यह तुम्हारे रोए-रोए में समा
गया; इसकी कोई स्मृति नहीं है। तुम
तीस साल न तैरो,
पचास
साल न तैरो,
और फिर
अचानक एक दिन नदी में उतर जाओ, क्या
तुम्हें याद करना पड़ेगा--खड़े हो कर--कि कैसे तैरते थे! भूल जाओगे? कोई आज तक भूला नहीं। याद
रखना ही नहीं पड़ता--और भूलते भी नहीं। इस रहस्य को समझना।
तैरना
एक अनुभव है;
इतना
गहरा अनुभव है...। और गहरा इसलिए है, क्योंकि जब तुम नदी में उतरते हो और तैरना
नहीं जानते,
तो
तैरना जीवन-मरण का सवाल होता है, इसलिए
गहरा उतर जाता है।
नदी
में उतरे और तैरना नहीं जानते, तो
जीवन-मृत्यु का सवाल है। यह कोई ऐसा नहीं है कि दो और दो चार होते हैं। दो और दो
पांच भी हों,
तो तुम
कोई मरते नहीं हो। दो और दो तीन भी हो जाए, तो कोई जीवन मिलने वाला नहीं है। दो और दो
चार होते हैं--होते रहें। कुछ भूलचूक हो जाएगी, तो कुछ अड़चन नहीं है। लेकिन तैरने उतरे नदी
में--सीखने उतरे,
अगर
भूल-चूक हो गई तो प्राणों से हाथ धो बैठोगे। यह बड़ा खतरनाक है। इसलिए तुम्हारा
अस्तित्व इसे स्मृति में नहीं रखता; तुम्हारे रोए-रोए में रख देता है। तुम्हारे
पूरे तन-प्राण पर यह बात प्रविष्ट हो जाती है। फिर पचास साल बाद भी तुम पानी में
उतरोगे,
तो तुम
उतना ताजा पाओगे--तैरना, जितना
पचास-साल पहले पाया था। जरा भी भूलचूक हीन होगी। वैसा का वैसा पाओगे।
पचास
साल न तो संजो कर रखा, न याद
किया, न बार-बार पुनरुक्ति की, न अभ्यास किया, फिर भी है।
परमात्मा
का अनुभव तैरने जैसा है। वह भी चैतन्य के सागर में तैरना है। और परमात्मा के साथ
संबंध जोड़ना भी जीवन-स्मरण का सवाल है। खतरनाक खेल है। कमजोरों के लिए नहीं है।
शुकदेव
महाराज! आप कंजूस हैं। आपको जिंदगी में चीजें सम्हाल कर रखने की आदत है। यह कंजूसी
वहां न चलाओ;
यह
कंजूसी वहां न ले जाओ।
प्रभु
जब उतरेगा,
तो
रहेगा। अपने आप बसेगा। तुम सिर्फ द्वार खोलो।
मगर
जिस तरह का प्रश्न पूछा है, ऐसे तो
द्वार कभी खुलेगा ही नहीं। तुम तो पहले से इंतजाम जुटा रहे हो। पूछते हो: जीवन में
यदि कभी अनुभूति घटित हो, तो उसे
उसी रूप में कैसे संजो कर रखा जाए?
उसी
रूप में संजो कर रख कर करना क्या है! और आगे नहीं पढ़ना? एक किरण मिल गई, उससे तृप्त हो जाना है?--सूरज तक नहीं चलना है? एक बूंद मिल गई है, उससे राजी हो जाना है?--सागर को नहीं पाना है? रुकने की इतनी जल्दी क्या!
परमात्मा अपार है;
पाते
चलो--चुकता नहीं। कितना ही पाओ--चुकता नहीं। जितना पाओ, उतना ही पाने को सामने प्रकट
हो जाता है।
परमात्मा
का कोई ओर-छोर नहीं है। इतनी जल्दी क्या! इतनी कृपणता क्या? इतनी कमजोरी क्या?--कि उसको वैसा का वैसा कैसे
सम्हाल कर रख लें!
परमात्मा
शाश्वत है। प्रतिपल होगा--एक बार हो जाए, एक बार स्वाद लग जाए। हो तो अभी भी रहा है, तुम्हें स्वाद पता नहीं है, इसलिए पहचान नहीं पाते। खड़ा
तो अब भी तुम्हारे सामने है; है तो
तुम्हारा पड़ोसी अब भी, लेकिन
प्रत्यभिज्ञा नहीं होती। अनुभव नहीं हुआ, तो पहचान नहीं होती। हीरा सामने पड़ा हो और
तुम हीरा जानते नहीं कि कैसा होता है, तो पड़ा रहे हीरा।
मैंने
सुना है कि एक जौहरी एक रास्ते से गुजरता था और उसने देखा कि एक कुम्हार अपने गधे
पर पत्थर लादे हुए आ रहा है। और गधे के गले में उसने एक बहुमूल्य हीरा लटकाया हुआ
है! जौहरी तो बड़ी हैरान हुआ। लाखों का हीरा है! और गधे के गले में लटकाया हुआ है!
उसने उस कुम्हार से पूछा: इस पत्थर का क्या लेगा? हीरा कहना तो ठीक नहीं समझा
उसन। हीरा कहे तो झंझट होगी; ज्यादा
मांगेगा। और पत्थर ही समझना होगा यह, नहीं तो गधे के लटकाता! इस पत्थर का क्या
लेगा? उसने पूछा।
उस
कुम्हार ने कहा कि आठ आने दे दो।
जौहरी
ने कहा: पत्थर के आठ आने! चार आने लेता है?
आदमी
ऐसा कृपण! आठ अपने में मिलता था लाखों का हीरा, लेकिन उसने सोचा कि आठ आने क्यों खराब करने; चार अपने से ही काम चल जाए।
कुम्हार
भी कुम्हार था,
उसने
कहा कि नहीं बच्चे खेलेंगे। आठ आने से एक पैसे कम में नहीं दूंगा। इतना सुंदर
पत्थर,
चार
आने में मांगते हो!
जौहरी
ने सोचा: जाने दो थोड़ा दो-चार कदम आगे। पांच आने, छः आने तक निपट जायेगा।
कुम्हार
जरा आगे गया;
दूसरा
जौहरी आता था;
उसने
देखा--हीरा। उसने कहा: एक रुपया नगद लूंगा; इससे कम नहीं।
उस
जौहरी ने जल्दी से एक रुपया दिया और पत्थर ले लिया। तब तक दूसरा जौहरी लौट कर आया।
उसने कहा: भाई,
छह आने
ले ले। कुम्हार ने कहा: भाई, बिक
गया। कितने में बेच दिया? उसने
कहा: एक रुपये में बेच दिया। जौहरी ने कहा: अरे पागल, लाखों का था!
वह
कुम्हार हंसने लगा; उसने
कहा कि मैं तो पागल हूं, लेकिन
मुझे पता नहीं। लेकिन तुम्हें तो पता था। तुम आठ आने में लेने को राजी न थे! मूर्ख
कौन है?
मुझे
तो पता नहीं,
इसलिए
क्षम्य हूं। लेकिन तुम अपने को कैसे क्षमा करोगे!
हीरा
भी सामने पड़ा हो,
तो
पहचानना तो चाहिए न कि हीरे कैसे होते हैं, तो प्रत्यभिज्ञा होती है।
परमात्मा
तो सामने ही है;
आसपास
ही है;
भीतर-बाहर
है; वही है; और तो कुछ भी नहीं है। लेकिन
हमारी आंखों में कोई अनुभव नहीं है। जिस दिन अनुभव हो जायेगा--एक झलक, बस फिर झलक ही झलक खुल
जायेगी। फिर इसको सम्हालकर रखोगे? क्या
पागलपन की बात कर रहे हो!
और झलक
का सम्हाल कर रखा,
तो वह
तो स्मृति मात्र होगी। वह तो ऐसा होगा: असली आदमी सामने खड़ा था, तुम फोटोग्राफ छाती से लगाए
बैठे रहे! याददाश्त तो फोटोग्राफ है। फोटोग्राफ की तो तब जरूरत होती है, जब कि असली मौजूद न हो।
परमात्मा की हमें मूर्तियां बनानी पड़ी है, क्योंकि हमें असली परमात्मा थोड़े ही पूजा
करोगे! उस दिन तुम मंदिर-मस्जिद थोड़े ही जाओगे। उस दिन तो जहां तुम देखोगे, वहीं वही है, वहीं तुम्हारी पूजा उठने
लगेगी;
वहीं
तुम्हारी आरती के दीए सज जायेंगे। तब तुम जहां बैठोगे, वहीं उपासना, वहीं प्रार्थना। तुम जिस तरफ
आंखें उठाओगे,
उसी
तरफ प्रभु की झलक।
और तुम
पूछते हो कि उसको उसी रूप में संजो कर कैसे रखा जाए? तुम्हें अगर आलबम बनाना हो, तुम्हारी मर्जी।
कुछ
लोग हैं,
जो
अलबम बनाने में बड़ी उत्सुकता लेते हैं। एक तरफ की बीमारी है।
मेरे
एक मित्र हैं,
बड़े
फोटोग्राफर हैं;
उनके
साथ एक दफा मैं हिमालय गया। तो उन्हें हिमालय देखने की चिंता नहीं! उनको तो फोटो
लेने की चिंता है। हिमालय सामने खड़ा है; वे तो उत्तुंग शिखर सामने खड़े हैं; वे फोटोग्राफ ले रहे हैं।
मैंने उनसे पूछा भी कि फोटोग्राफ ही लेते थे, तो फोटोग्राफ तो कहीं भी मिल जाते थे; बाजार में बिकते हैं; इतने दूर आने की जरूरत न थी।
उन्होंने कहा: आप समझते नहीं। घर में बैठ कर शांति से अलबम देखेंगे।
हिमालय
सामने है। यह गंगा बही जा रही है। यह अपूर्व कलकल नाद! यह फोटोग्राफ में तो नहीं
होगा। फोटोग्राफ तो मुर्दा होंगे।
इसी
संदर्भ में यह भी समझ लेना कि अनुभूति और अनुभव में यही भेद है। इन दो शब्द में
बड़ा भेद है। अनुभूति तो कहते हैं, जब
सामने घटना घट रही हो--तब। और अनुभव कहते हैं--जो घटना घट गई और उसकी तस्वीर रह गई
मन में। अनुभूति कहते हैं--मौजूद को और अनुभव कहते हैं--बीच चुके को।
तुमने
सूरज को उगते देखा; जब तुम
उगते देख रहे थे; जब सूरज उगता था और तुम सूरज के साथ मौजूद थे और तुम्हारे भीतर भी
कोई रोशनी उगती थी और तुम एक लीन हो गये थे; वह तो क्षण है अनुभूति का। फिर तुमने सांझ
याद किया;
बड़ा
प्यारा सूरज था;
कितना
सुंदर था! और तुमने सब फिर अपनी स्मृति में दोहराया--यह अनुभव है। अनुभव मुर्दा
अनुभूति है।
अनुभूति
में तो प्राण है,
आत्मा
है; अनुभव में केवल लाश रह गई।
अब तम पूछते
हो कि उस अनुभव को उसी रूप में कैसे संजो कर रखा जाए?
तुम
लाश को सजा कर रख लोगे। प्राण तो निकल गया। प्राण तो सदा वर्तमान में होता है; अभी और यहां होता है।
जैसे
कि मैं तुमसे बोल रहा हूं। अभी जो मैं तुमसे बोल रहा हूं, इन शब्दों में प्राण है। तुम
इनको संजो कर रख लेना। घर जाकर याद करना कि मैंने क्या कहा था, तब इनमें प्राण नहीं रहेगा; तब तुम्हारी स्मृति में
दोहराए जाएंगे।
स्मृति
तो यंत्र है,
जैसे
टेपरेकोर्डर है;
उनमें
प्राण नहीं रहेगा। यहां कुछ लोग कभी-कभी आ जाते हैं; मैं यहां बोलता हूं, वे अपना नोट बुक निकाल कर
लिखने लगते हैं।
एक
डाक्टर यहां आते थे, उनको
मैंने आखिर बुलाकर कहा कि यह मत करो। उन्होंने कहा: नहीं; लेकिन आप ऐसे बहुमूल्य बात
कभी कह देते हैं कि संजो कर रखनी है। मैंने कहा: तुम मौजूद, मैं मौजूद; बोलनेवाला मौजूद, सुननेवाला मौजूद; तुम इतने परिपूर्ण प्राण से
सुन क्यों नहीं लेते कि उसका पूरा रस तुममें भिद जाए। कागज पर लिख कर क्या करोगे? और अगर मेरे बोलते समय
तुम्हारी समझ में नहीं आया, तो तुम
इस किताब को जब वापस पढ़ोगे, तुम
सोचते हो--तुम समझ लोगे? लाश
हाथ रह जायेगी।
शास्त्र
और गुरु का यही तो भेद है। शास्त्र लाश हैं। गुरुओं की लाशें शास्त्र बन जाती हैं।
वेद हैं,
उपनिषद
हैं; गीता है, कुरान है, बाइबिल है--लाशें हैं।
जब
जीसस बोलते थे,
जिन्होंने
सुना होगा,
उनके
जीवन में एक पुलक आई होगी। जब उपनिषद के ऋषियों ने गुनगुनाया होगा और जो
सौभाग्यशाली थे उनके पास बैठने के, उन्हें रोमांच हुआ होगा; कुछ घटा होगा तब। वह तो थी
अनुभूति। अब तम अगर शास्त्र को पढ़ रहे हो, स्मृति को जगा रहे हो, अलबम को देख रहे हो, तो वह है अनुभव।
परमात्मा
को संजो कर रखने की चेष्टा ही मत करना।
और अभी
तो परमात्मा घटा भी नहीं है। घटने तो दो। अभी तो यह फिक्र करो--ऐसा प्रश्न
पूछो--कि कैसे घटे।
तुम्हारे
प्रश्न की मूढ़ता तुम्हें दिखाई पड़ती है? अभी घटा नहीं है। यह तुम पूछते नहीं कि कैसे
घटे! अभी हीरा मिला नहीं: तुम पूछते नहीं कि हीरा कहां है? कैसे मिले? और मिल जाए, तो मैं कैसे पहचानूंगा कि
हीरा यही है?--कि असली हीरा है?
यह तो
तुम पूछते नहीं। तुम यह पूछ रहे हो कि यदि किसी दिन हीरा मिल जाए...। न तुम्हें
खदान का पता है;
न
तुम्हें हीरे की पहचान है। यदि किसी दिन हीरा मिल जाए, तो मैं उसे कैसे गांठ बांध कर
रखूंगा?--यह बतला दें।
क्या
तुम खाक गांठ बांधोगे! गांठ का मूल्य ही क्या है? तुम जरूर कोई न कोई पत्थर पर
गांठ बांधकर बैठ जाओगे।
ठीक-ठीक
प्रश्न पूछो;
सम्यक
प्रश्न पूछो,
तो
तुम्हारे जीवन में रास्ते बनेंगे। प्रश्न पूछते वक्त स्मरण रखो: क्या पूछ रहे हो।
दूसरा प्रश्न: गुरु के सत्संग की तो आप रोज-रोज महिमा गाते हैं, पर प्रकृति के सत्संग की
कभी-कभी ही चर्चा करते हैं। क्या गुरु प्रकृति से भी अधिक संवेदनशील द्वार है? कृपा करके समझाए।
प्रकृति
है--सोया परमात्मा; और
गुरु है--जागा परमात्मा।
गुरु
का अर्थ क्या होता है? गुरु
का अर्थ होता है: जिसके भीतर प्रकृति परमात्मा बन गई।
तुम
सोए हो;
प्रकृति
सोयी है;
इन
दोनों सोए हुओं का मेला भी बैठ जाए, तो भी कुछ बहुत घटेगा नहीं। दो सोए आदमियों
में क्या घटनेवाला है? दो साए
हुई स्थितियों में क्या घटनेवाला है?
तुम
अभी प्रकृति से तालमेल बिठा ही न सकोगे। तुम जागो, तो प्रकृति को भी तुम देख आओ।
तुम जागो,
तो
प्रकृति में भी तुम्हें जगह-जगह परमात्मा का स्फुरण मालूम पड़े। पत्ते-पत्ते में, कण-कण में उसकी झलक
मिले--लेकिन तुम जाओ तो। तुम अभी गुलाब के फूल के पास जाकर बैठ भी जाओ, तो क्या होना है! तुम सोचोगे
दुकान की। तुम अगर गुलाब के संबंध में थोड़ी बहुत सोचने की कोशिश करोगे, तो वह भी उधार होगा। तुम अभी
जागे नहीं। तुम अभी अपनी प्रति नहीं जागे, तो गुलाब के फूल के प्रति कैसे जागोगे?
जो
अपने प्रति जागता है, वह सब
के प्रति जाग सकता है। और जो अपने प्रति सोया है, वह किसी के प्रति जाग नहीं
सकता।
और
गुलाब का फूल गुरु नहीं बन सकता। क्योंकि गुलाब का फूल तुम्हें झकझोरेगा नहीं।
गुलाब का फूल खुद ही सोया है, वह
तुम्हें कैसे जगायेगा?
गुरु
का अर्थ है--जो तुम्हें झकझोर, जो
तुम्हारी नींद को तोड़े। तुम मीठे सपनों में दबे ही। कल्पनाओं में डूबे हो। जो
अलार्म की तरह तुम्हारे ऊपर बजे; जो
तुम्हें सोने दे...। एक बार तुम्हें जागरण का रस लग जाए, एक बार तुम आंख खोल कर देख लो
कि क्या है,
कि कोई
बात नहीं है। फिर प्रकृति में भी परमात्मा है।
इसलिए
कभी-कभी मैं प्रकृति की बात करता हूं, लेकिन ज्यादा नहीं। क्योंकि तुम से प्रकृति
की बात करी व्यर्थ है। तुम्हें इन वृक्षों में क्या दिखाई पड़ेगा? वृक्ष ही दिखाई पड़ जाए, तो बहुत। वृक्षों से ज्यादा
तो दिखाई नहीं पड़ेगा। तुम्हें मनुष्यों में नहीं दिखाई पड़ता--मनुष्यों से ज्यादा
कुछ! तो वृक्षों में वृक्षों में ज्यादा कैसे दिखाई पड़ेगा; तुम्हें अपने में नहीं दिखाई
पड़ता कुछ भी।
शुरुआत
अपने से करनी होगी।
और
किसी जीवित गुरु के साथ हो लेने में सार है।
गुरु
का काम बड़ा धन्यवाद शून्य काम है। कोई धन्यवाद भी नहीं देता! नाराजगी पैदा होती
है। क्योंकि गुरु अगर तुम्हें जगाये, तो गुस्सा आता है।
तुम
गुरु भी ऐसे तलाशते हो, जो तुम्हारी
नींद में सहयोगी हों। इसलिए तुम पंडित-पुरोहित को खोजते हो। वे खुद ही सोए हैं; घुर्रा रहे हैं नींद में; वे तुम्हारे लिए भी शामक दवा
बन जाते हैं।
जाग्रत
गुरु से तुम भागोगे; सदा से
भागते रहे हो;
नहीं
तो अब तक तुम कभी के जाग गए होते। बुद्ध से भागे; महावीर से भागे; कबीर से भागे होओगे। जहां
तुम्हें कोई जागा व्यक्ति दिखाई पड़ा होगा, वहां तुमने जाना ठीक नहीं समझा; तुम भागते रहे हे। तभी तो अभी
तक बच गये,
नहीं
तो कभी के जाग जाते। तुम पकड़ते ऐसे लोगों का सहारा हे, जो तुम्हारी नींद न तोड़ें।
तुम कहते हो: ठीक है। धर्म भी हो जाए, और जैसे हम है, वैसे के वैसे भी बने रहे। तुम
सोचते हो कि चलो,
थोड़ा
कुछ ऐसा भी कर लो कि अगर परमात्मा हो, तो उसके सामने भी मुंह लेकर खड़े होने का
उपाय रह जाए;
कि
हमने तेरी प्रार्थना की थी, पूजा
की थी। अगर हमने न की थी, तो
हमने एक पुरोहित रख लिया था नौकरी पर, उसने की थी; मगर हमने करवाई
थी--सत्य-नारायण की कथा। प्रसाद भी बंटवाया था! मगर भगवान न हो, तो कुछ हर्जा नहीं है; दो-चार-पांच रुपये का प्रसाद
बंट गया;
दो-चार-पांच
रुपए पुरोहित ले गया; कोई
हर्जा नहीं है। वह जो दस-पांच का खर्चा हुआ, उसको भी तुम बाजार में उपयोग कर लेते हो; क्योंकि जो आदमी रोज-रोज सत्य
नारायण की कथा करवा देता है, उसकी
दुकान ठीक चलती है। लोग सोचते हैं: सत्य नारायण की कथा करवाता है, तो कम से कम सत्य नारायण में
थोड़ा भरोसा करता होगा। सत्य बोलता होगा। कम लुटेगा। कम धोखा देगा।
यहां
भी लाभ है--सत्य नारायण की कथा से। लोग समझने लगते हैं: धार्मिक हो, तो तुम आसानी से उनकी जेब काट
सकते हो। उनको भरोसा आ जाए कि आदमी ईमानदार है, मंदिर जाता है, पूजा-प्रार्थना करता है, तो सुविधा हो जाती है; प्रतिष्ठा मिलती है।
यहां
भी लाभ है। और अगर कोई परमात्मा हुआ, तो वहां भी लाभ ले लेंगे।
मैंने
सुना है: एक आदमी मरा; वह
स्वर्ग के द्वार पर गया। द्वारपाल ने उससे पूछा कि महाराज, आपने कुछ पुण्य किया है, जो आप सीधे स्वर्ग चले आये? उसने कहा कि हां, किया है। एक बुढ़िया को तीन
पैसे दिए थे।
उन्हें
भरोसा तो नहीं इस कंजूस को, कृपण
को देखकर। इसकी खबरें आती रही थीं जमीन से कि यह महा कृपण है। इसने तीन पैसे दिए
हों, भरोसा तो नहीं आया। लेकिन
खाता-वाही देखी। तीन पैसे उसने दिए थे। लिखा था हिसाब--कि तीन पैसे दिए हैं।
तो
द्वारपाल अपने सहयोगी से पूछने लगा: अब क्या करें! तो उसके सहयोगी ने कहा: इसको
तीन कैसे की जगह चार पैसे दे दो--ब्याज सहित वापस--और नरक भेजो। और क्या करेंगे!
तुमने
जो किया है कभी धर्म, वह ऐसा
ही है--तीन पैसे जैसा। और तुम ध्यान रखना: चौथा पैसा तुम्हें वापस मिल जाएगा और
नरक की यात्रा...!
तुम
धर्म को भी हिसाब किताब से करते हो। लेकिन सदगुरु के पास रहोगे, तो नींद तो टूटेगी। सपना तो
टूटेगा।
कभी-कभी
सपना अच्छा भी होता है; सुंदर
भी होता है। सभी सपने दुःख स्वप्न नहीं होते!
मैंने
सुना है: एक रात मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी ने उसे उठा दिया, कहा कि चोर-चोर; उठो। वह बड़ा नाराज हुआ। उसने कहा:
भाड़ में जाने दे चोर को। सब खराब कर दिया। अब पता नहीं, दुबारा होगा कि नहीं। वह
जल्दी आंख बंद करके लेट गया। उसकी पत्नी के कहा: मामला क्या है? उसने कहा कि मामला यह है...।
खराब ही करवा देगी बिलकुल। एक आदमी सपने में सौ रुपये दे रहा था। बेवक्त जगा दिया।
अब पता नहीं,
आंख
बंद करूं,
तो वह
दे--न दे;
मिले--न
मिले।
तुम्हारे
सपने भी हैं,
उनमें
भी तुम कल्पनाओं को बांध रहे हो।
तो
गुरु तुम्हारे दुःख-स्वप्न तो तोड़ेगा ही; तुम्हारे सुख-स्वप्न भी तोड़ देगा।
प्रकृति
से यह काम न हो पायेगा। प्रकृति खुद ही सोयी है, तुम्हें कैसे जगाएगी? हां, प्रकृति के पास जाओगे, तो थोड़ी राहत मिलेगी, शांति मिलेगी, क्योंकि प्रकृति उद्विग्न
नहीं है।
कश्मीर
की झीलों में,
कि
हिमालय की वादियों में हरें वृक्षों के साथ बैठ कर, चांदत्तारों के नीचे; कि दूर--उत्तुंग--उठती सागर
की लहरों को देखकर तुम थोड़े शांत हो जाओगे; क्योंकि मनुष्य का उत्पात नहीं है; मनुष्य के रुग्ण चित्तों की
तरंगें नहीं हैं। बस, इतना
ही होगा। लेकिन यह कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है।
शुरू
शुरू जाओगे हिमालय तो दो-चार दिन शांति लगेगी, फिर अशांति शुरू हो जाएगी। फिर तुम हिमालय
को भूल जाओगे;
फिर
तुम्हारा मन वापस लौट आयेगा; फिर
तुम्हारा मन पुराने गणित में उलझ जायेगा; फिर तुम सोचने लगोगे: बाजार की, संसार की जगत की बातें। फिर
तुम उतरोगे पहाड़ से; तुम
कहोगे: चलो घर--वापस; अब
यहां ऊब आने लगी।
प्रकृति
के पास थोड़ी देर शांति मिल सकती है। विश्राम के लिए ठीक है। प्रकृति के पास थोड़ी
निद्रा मिल सकती है, क्योंकि
बड़ी गहन निद्रा में सोयी है। इसलिए तो समुद्र में, पहाड़ में, एकांत में, सन्नाटे में अच्छा लगता है; नींद जैसा अच्छा लगता है; लेकिन जागरण कैसे मिलेगा? जागरण तो कोई जागा हो, उसी के पास मिल सकता है।
सूरज
आया द्वार रो
सपनों
की ये ओढ़नी
अब तो
परे उतार री
सूरज
आया द्वार री।
गीली
पोंछ कपोल री
नयन
उठा कुछ बोल री
बिखरा
वेश संवार री
सूरज
आया द्वार री।
चिड़ियां
रह रह आ रही
सुधियां
पास बुला रहीं
मन को
छेड़ सितार री
सूरज
आया द्वार री।
गुरु
के पास सूरज द्वार पर आ जाता है।
सपनों
की यह ओढ़नी
अब तो
परे उतार री।
ओढ़नी
सपनों की डाले बैठे हैं? घूंघट
मारे बैठे हैं--सपनों का, उसकी
वजह से जो है,
वह
दिखाई नहीं पड़ता। गुरु तुम्हारी ओढ़नी उतार लेगा? तुम्हारी आंखों को नग्न कर
देगा? धुआं सपनों का हटा लेगा। मगर
यह भी तभी हो सकता है, जब तुम
सहयोग करो। यह तुम्हारे विरोध में नहीं हो सकता। इसलिए तुम्हारे समर्पण के बिना
नहीं हो सकता। जबरदस्ती नहीं हो सकती इसमें।
मोक्ष
जबरदस्ती नहीं मिल सकता। और मोक्ष क्या--अगर जबरदस्ती मिले! जबरदस्ती तो जो भी
मिलता है,
वह
परतंत्रता ही होगी? स्वतंत्रता
जबरदस्ती नहीं मिलती। स्वतंत्रता तो तुम चाहो, सहयोग करो, तो मिलती है। लेकिन अकसर ऐसा
होता है:
एक तो
तुम गुरु के पास न पहुंचोगे--डरेंगे। तुम सस्ते गुरु खोजोगे, जो तुमसे भी गये-बीते हैं? जिनसे तुम्हें कोई भय नहीं? जिन्हें तुम खरीद सकते हो? जिनसे तुम्हें कोई चिंता नहीं? जो तुम्हारी नींद न तोड़
सकेंगे। तुम भलीभांति जानते हो? तुम्हारे
नौकर-चाकर हैं।
अगर
तुम कभी भूलचूक से किसी सदगुरु के पास भी पहुंच जाओ, तो तुम सहयोग न करोगे? तुम असहयोग करोगे। तुम सब तरफ
के प्रतिरोध खड़े करोगे। तुम लाख उपाय करोगे कि उनकी आवाज तुम्हें सुनाई न पड़ पाए।
या सुनाई भी पड़ जाए, तो तुम
उसकी व्याख्या करोगे कि उसकी आवाज में जो जोर था--तुम्हें जगाने का--वह शांत हो
जाए।
तुम्हारा
सहयोग--इसके बिना कोई सदगुरु भी कुछ नहीं कर सकता है।
प्रकृति
तो यह न कर पायेगी; हां, प्रकृति से कुछ पाठ सीखे जा
सकते हैं। जैसे सहज होने का पाठ; होने
का पाठ। मगर वह भी तुम सीखोगे, तब ना!
पशु-पक्षियों
से कुछ सीखा जा सकता है। गाय की आंखों में झांक कर कुछ सीखा जा सकता है। झरना को
देखकर कुछ सीखा जा सकता है। वृक्षों के पास बैठकर कुछ सीखा जा सकता है। लेकिन
तुम्हीं सीखोगे,
तब ना!
और अगर
तुम सीखने को ही तैयार हो, तो इस
जगत में सदगुरु से ज्यादा महिमापूर्ण कोई घटना नहीं है। क्योंकि चेतना के फूल खिल
गये। इससे बड़े और फूल कहां खिलेंगे। इसलिए तो हमने कहा: सहस्रदल खिल जाए जिसका, उसको सदगुरु कहा--जिसकी चेतना
का कमल खिल जाए--हजार पंखुड़ियों वाला कमल खिल जाए।
जरूर
प्रकृति में बहुत सुंदर कमल हैं, सुंदर
से सुंदर कमल हैं,
लेकिन
मनुष्य की चेतना में जो खिलता है, उसकी
तुलना में तो कुछ भी नहीं हैं।
कुछ
सीख सकते हो प्रकृति से, इसलिए
कभी-कभी बात करता हूं।
ये
पथराए ओंठ
उनींदे
दृग
धुंधलाई
दृष्टि मलिन
इतना
थका-थका तन ले कर
कैसे
शुरू करूंगा दिन
साथ
दिए के जागा
लेकिन
साथ न उसके सो पाया
उसका
काम हुआ पूरा
पर
मेरा काम न हो पाया
चुभते
रहते आंख में मेरी
निशि-भर
टूटे हुए सपने
और
वृक्ष को रहा रौंदत
बोझिल-बोझिल
सूनापन
चारों
ओर उदासी
मेरी
हो मुझको यूं दिख रही
जैसे
चिटके हुए आईने में
प्रतिछाया
अनगिन
एक-एक
कर मेरी सब
उम्मीदों
ने दम तोड़ दिया
सभी
प्रतीक्षाओं ने मेरा
हाथ
सहम कर छोड़ दिया
अब मैं
हूं
या
बिदा मांगता हुआ दिए का धुआं विकल
मेरे
सब संकल्प अधूरे
मेरा
पूरा सृजन विफल
वीतराग
मैं अपनी ही
रचनाओं
के आकर्षण से
लगते मुझे
एक जैसे ही
अपना
अर्जन,
अपने
ऋण
काश, कि मैं भी सहजरूप से
जीऊं
और यों मर जाऊं
जैसे
कलियां मिल उठती हैं
जैसे
कुम्हला जाते तृन।
अगर
तुम प्रकृति से इतना ही सीख लो:
काश, कि मैं भी सहज रूप से
जीऊं
और यों मर जाऊं
जैसे
कलियां खिल उठती हैं
जैसे
कुम्हला जाते तृन।
न कोई
चिंता है,
न कोई
भय है;
न कोई
लगाव है,
न कोई
मोह है,
न कोई
लोभ है। अगर तुम प्रकृति से ही सीख लो तो बहुत मगर वह कैसे सीखोगे!
तुम्हें
चाहिए कोई,
जो
झकझोर दे;
तुम्हें
चाहिए कोई,
जो
तुम्हारी नींद को तोड़ दे; कोई
तुम्हें पुकारे जोर से। ये फूल चुप-चुप बोलते हैं। ये वृक्ष भी बोलते हैं, लेकिन बड़ा मौन है इनका स्वर।
और तुम इतने कोलाहल से भरे हो कि जब तक कोई तुम्हें घरों की मुंडेर पर चढ़ कर न
चिल्लाए,
तुम
शायद ही सुनो।
जीसस
ने अपने शिष्यों से कहा है: जाओ, और
घरों की मुंडेरों पर चढ़ जाओ और चिल्लाओ, ताकि शायद कुछ लोग जो सुनना चाहते हैं, सुन लें। लोग बहरे हैं, जीसस ने कहा, लोग अंधे हैं। जाओ और चिल्लाओ, ताकि उनके शोरगुल में थोड़ी सी
बात पहुंच जाए--शायद पहुंच जाए। अगर हजार के द्वार खटखटाओ, शायद एकांत का हृदय खुला मिल
जाए।
सदगुरु
हजार पर कोशिश करता है, तब
कहीं एक जागने को राजी हो पाता है। नौ सौ निन्यानबे तो दुश्मन हैं अपने ही। वे सब
तरह की व्यवस्था कर लेते हैं कि कोई उन्हें जगा न सके।
तीसरा प्रश्न: परमात्मा को पाना मनुष्य की जीत है या हार?
जीत
भी--और हार भी। क्योंकि परमात्मा को पाने में पहले मनुष्य को हारना सीखना होता है
और हारने के ही द्वार से आती है जीत। हार है उपाय--जीत है परिणाम। हार है विधि। जो
हारने को राजी है,
वही
जीतता है।
प्रेम
के जगत में हार ही एकमात्र उपास है। प्रेम के जगत में जो जीतना चाहता है, वह तो हार जाता है; और हारने को तत्पर है, वह जीत जाता है।
प्रेम
का जगत बड़ा विरोधाभासी जगत है। और परमात्मा का अर्थ है: प्रेम की आत्यंतिक ऊंचाई, प्रेम की चरम अवस्था।
तुम्हारा
प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है; उठा
होगा इसी डर से कि अगर जीतना है जीवन में तो फिर क्या हारने से शुरू करें! यह बात
जंचती नहीं;
गणित
में बैठती नहीं;
तर्क
के प्रतिकूल है। तर्क तो यह कहता है: अगर जीतना है, तो जीतने से शुरू करो। जाना
है पूरब और पश्चिम जाओगे, तो
कैसे पूरब पहुंचेंगे? जीतना
है, तो जीतने से शुरू करो। अगर
हारने से शुरू किया, तो फिर
पछताओगे;
आखिर
में हार जाओगे। तर्क तो यही कहता है, लेकिन जीवन तर्क से बड़ा है।
जीवन
का तर्क बड़ा अनूठा है। जीवन का तर्क कहता है: अगर जीतना है, तो हार जाओ। जल्दी जीतना हो, जल्दी हार जाओ। पूरा जीतना हो, पूरे हार जाओ। परमात्मा के
चरणों में जो सिर रख देता है, उसके
हृदय में परमात्मा विराजमान हो जाते हैं। इतना ही नहीं; वह भी परमात्मा के हृदय में
विराजमान हो जाता है।
समय का
पहिया
और
धीरज की धुरी लगी
जीवन
के रथ में हैं
सांसें
ही सारथी
आशा का
अश्व
और
राहें अनजान री
चाहों
के चौराहे
सीमा
पहचान री
अब तो
कुछ भेद नहीं
मन में
कुछ खेद नहीं
किस की
फिर पूजा हो
किस की
हो आरती
अंधयारा
हो आरती
अंधयारा
हरने की
जलता
है स्नेह रे
कहते
हैं कंचन रे
पागल
है प्रीत वहां
घायल
हर गीत वहां
ऐसे
में सांस स्वयं
सांसों
पर भार थी
करुणा
के सागर में
सीपों
का गांव रे
डूबी
जब तल तक तो
पाया
मन-मोती
इस को
मैं जीत कहूं
या कि
मेरी हार थी
डूबी
जब तक तो
पाया
मन-मोती
इस को
मैं जीत कहूं
या कि
मेरी हार थी।
जो
सागर में डुबकी लगाएगा गहरे, वह
गहरे मोती लाएगा। हारना डुबकी लगाने का उपाय है।
जीसस
ने कहा है: जो अपने को बचाएगा, वह
अपने को खो देगा;
और जो
अपने को खोने को राजी है, वह
अपने को बचा लेगा।
प्रेम
हार का गणित है। तुम्हें जब तक यह अहंकार है कि मैं जीतूंगा, मैं जीत कर रहूंगा, तब तक तुम प्रेम की दुनिया
में प्रवेश न कर सकोगे। देखते हो न, भक्तों ने कहा: हारे को हरिनाम। जो हार गया
है, उसको ही हरिनाम उत्पन्न होता
है। लेकिन ध्यानियों ने नहीं कहा यह।
ध्यानी
कहते हैं: जो सत्य को पा लेता, वह जिन
हो जाता है;
जिन
यानी जीत जाता है। जिन शब्द से जैन बना है। जीता हुआ। भक्त कहते हैं: हारा
हुआ--सर्वहारा;
सब जो
हार देता,
वह
परमात्मा को पाता। ज्ञानी कहते हैं: जीतने में जो पूरी तरह लग जाता, संकल्प को जुटा के लग जाता, वह पाता।
ज्ञान
जीतने की प्रक्रिया है, इसलिए
ज्ञान के मार्ग पर अहंकार बहुत बड़ा खतरा है। ज्ञान के मार्ग पर अहंकार से न बचे, तो परमात्मा तो दूर, सिर्फ अहंकार ही भरता होगा।
भक्ति
के मार्ग पर अहंकार का खतरा नहीं है, क्योंकि अहंकार तो पहले ही चरण में रख देता
है। पहले ही कदम पर अहंकार उतार देना है। भक्ति के मार्ग पर खतरा है सुस्ती का, आलस्य का। भक्त आलसी हो सकता
है; वह कहेगा कि ठीक है; बस, अपना हार गये, रख दिया सिर परमात्मा के
चरणों में,
अब जो
होगा--होगा;
कि
उसके बिना हिलाए,
तो
पत्ता भी नहीं हिलता, तो
इसलिए जो वह करेगा--करेगा। अब हमें क्या करना है! अब हमें कुछ भी नहीं करना है। और
इस कुछ भी न करने के पीछे वह सब पुराना जाल वैसा का वैसा चलता रहेगा, जैसा चलता था। वही चोरी, वही बेईमानी, वही कठोरता, वही हिंसा।
भक्ति
के मार्ग पर अहंकार का खतरा है, क्योंकि
वह संकल्प का मार्ग है; वहां
आलस्य का कोई खतरा नहीं है।
हर
मार्ग की सुविधाएं हैं, हर
मार्ग के खतरे हैं। और अकसर ऐसा होता है कि सुविधा की तो हम फिक्र ही नहीं करते
हैं, खतरे में पड़ जाते हैं। सौ
ज्ञानियों में निन्यानबे अहंकार में उलझ जाते हैं और सौ भक्तों में निन्यानबे
आलस्य में पड़ जाते हैं और तामसी हो जाते हैं।
सावधान
रहना। अगर ज्ञान का मार्ग चुनो, ध्यान
का मार्ग चुनो,
तो
स्मरण रखना कि कहीं इसमें अहंकार न भरे, नहीं तो सब व्यर्थ हो गया--किया-कराया सब
व्यर्थ हो गया। एक हाथ से बनाया, दूसरे
हाथ से मिटा डाला। आत्म-हत्या हो गई।
भक्ति
के मार्ग पर अहंकार का कोई भी खतरा नहीं है। भक्त अपने लिए सोचता ही नहीं। मैं का
भाव ही नहीं रखता। खतरा दूसरा है। सुस्त हो जाए, आलसी हो जाए, तामसी हो जाए; कहने लगे कि अब जो होगा--सो
होगा। अपने किए तो कुछ होता नहीं; तो हम
तो जैसे हैं,
वैसे
हैं; हम तो ऐसे ही रहेंगे। जब उसकी
कृपा होगी,
तब
होगी। प्रयास से तो मिलता नहीं, तो जब
प्रसाद होगा,
तब
होगा। जब तक नहीं हुआ है, हम
करें भी क्या! तब तक हम जैसे है, वैसे
ही जीएंगे।
नहीं; प्रसाद का यह अर्थ नहीं होता।
प्रसाद का यह अर्थ होता है कि हम अपने को तत्पर तो करेंगे, ताकि उसका प्रसाद हम पर बरस
सके। हम अपने पात्र को तो साफ करेंगे, क्योंकि गंदा पात्र हो, तो उसमें औषधि नहीं रखी जा
सकती। गंदा पात्र हो, उसमें
कोई दूध डाल भी दे तो दूध भी गंदा हो जाएगा।
गंदे
पात्र में परमात्मा का प्रसाद नहीं उतर सकता; उतर भी आए तो वह भी जहरीला हो जाएगा। पात्र
को शुद्ध करना होगा, निखारना
होगा। उस अतिथि को बुलाया है, तो
भीतर सब सजाना होगा। घर-द्वार सब साफ-सुथरा करना होगा।
ऐसा
नहीं है कि भक्ति में श्रम नहीं है। श्रम तो है; श्रम पर ही भरोसा नहीं है
केवल। श्रम पूरा है; अपनी
तरफ भक्त पूरा करेगा इस बात को जानते हुए कि पूर्णाहुति तो तेरे द्वारा होगी; हम शुरुआत कर सकते हैं। हम
पुकारेंगे,
लेकिन
पुकारा तो तू सुनेगा न! यात्रा का प्रारंभ हमारे हाथ में है, अंत तेरे हाथ में हैं। अंत
तेरे हाथ में है। साधन हम सब करेंगे, लेकिन साध्य तो तू देगा। मंजिल पर हम नहीं
पहुंच सकते;
हम
मार्ग तक करेंगे,
मंजिल
तो तू देगा। इसको खयाल में रखना।
भक्त
प्रयास पूरा करेगा; लेकिन
यह मान कर चलता है कि प्रयास से ही पूरी बात नहीं हो जाएगी। कुछ कम रह जाएगा। असली
बात कम रह जाएगी।
तुम्हारे
घर कोई मेहमान आ रहे है; तुमने
घर साफ-सुथरा कर लिया; फूल
सजा दिए,
दीपक
जला दिए,
उदबत्तियां
लगा दीं,
सुगंध
छिड़क दी--सब ठीक ठाक कर लिया। इतने से ही मेहमान थोड़े आ जाएगा। इतना कर लिया, तो मेहमान थोड़े ही आ गया!
मेहमान तो जब आएगा, तब
आएगा। लेकिन तुमने तैयारी पूरी कर ली, अब अगर मेहमान आएगा, तो तुम्हारे दरवाजे बंद न
पाएगा। अब अगर मेहमान आएगा, तो
वापस नहीं लौटना पड़ेगा उसे; तुम
तैयार हो। अगर उसकी वर्षा होंगी, तो
उसका पात्र राजी है; तुम
पवित्र हो।
ज्ञानी
सोचता है कि मेरे प्रयास से ही सब हो जाएगा, परमात्मा के प्रसाद की कोई जरूरत नहीं; तो अहंकार का खतरा है। और
भक्त अगर सोचे कि उसके प्रसाद से ही सब हो जाएगा, मेरे प्रयास की कोई भी जरूरत
नहीं, तो आलस्य का, तमस का खतरा है।
भक्त
तो हारता है। और हारने में प्रसन्न होता है। इस हार में कोई दुःख नहीं है, संताप नहीं है, चिंता नहीं है। प्रेम में
हारने में कैसा संताप!
तुमने
कभी प्रेम में हार कर देखा? प्रेम
में हारने में कोई चिंता नहीं, कोई
पीड़ा नहीं। प्रेम के हारने में बड़ा मजा है; प्रेम के हारने में बड़ी जीत है।
डूबी
जब तल तक तो
पाया
मन-मोती
इसको
मैं जीत कहूं
या कि
मेरी हार थी।
परमात्मा
को पाने में तुम्हें हारना पड़ता है और हार कर ही तुम्हारी जीत हो जाती है। हार के
माध्यम से जीत है।
चौथा प्रश्न: भक्त का आनंद क्या है?--स्वर्ग-सुख, प्रभु-प्राप्ति या मोक्ष? भक्त का आनंद न तो स्वर्ग-सुख
है,
क्योंकि
भक्त ने की बैकुंठ की आकांक्षा नहीं की। भक्तों ने बार-बार कहा है:। आप बैकुंठ तुम
रखो तुम्हारे पास। हमें तुम्हारे बैकुंठ की कोई जरूरत नहीं। हम तो तुम्हें चाहते
हैं।
भक्त
तो भगवान को चाहता है। और अगर तुम भगवान के अतिरिक्त कुछ और चाहते हो, तो तुम भक्त नहीं हो; तुम भगवान का भी शोषण करने को
तत्पर हो। तुम्हारे प्रार्थना में अगर कोई और मांग छिपी है--कि मुझे धन मिल जाए, कि पद मिल जाए, कि प्रतिष्ठा मिल जाए, कि लंबी आयु मिल जाए, स्वास्थ्य मिल जाए, कि स्वर्ग मिल जाए, तो तुम भगवान को नहीं चाहते
हो।
मैंने
सुना है: एक सम्राट विश्व-विजय को गया। जब वह लौटता था, तो उसकी सौ पत्नियां थीं, तो उसने खबर भिजवाई कि वह घर
वापस आ रहा है,
तो
प्रत्येक पत्नी को पूछा कि वह क्या चाहती है; उसके लिए मैं क्या ले आऊं! तो किसी ने हीरे
मंगाए,
किसी
ने जवाहरात मंगाए,
किसी
ने मोतियों के हार मंगाए, किसी
ने कुछ,
किसी
ने कुछ। सिर्फ एक रानी ने लिखा कि तुम आ जाओ, बस, इतना ही काफी है।
सम्राट
लौटा; सब के लिए सब चीजें लाया, लेकिन लगाया उस सौवीं स्त्री
को अपन गले से। और उसने कहा कि मुझे पता चला कि कौन मुझे चाहता है।
हीरे, मोती, जवाहरात...। वर्षों के बाद
पति लौटता हो,
तो कौन
फिक्र करता है--हीरे जवाहरातों की? तुम लौट आओ।
भक्त
कहता है: भगवान,
बस, तुम मिल जाओ। भक्त तो
स्वर्ग-सुख मांगता, न
प्रभु-प्राप्ति...। इसको भी समझना।
भक्त
जब कहता है: भगवान, तुम
मिल जाओ,
तो यह
प्रभु-प्राप्ति की मांग नहीं है। प्रभु-प्राप्ति का तो अर्थ होता है कि तुम मेरी
मुट्ठी में आ जाओ। भक्त तो यह कहता है: मैं तुम्हारी मुट्ठी में आ जाऊं--ऐसा कुछ
करो; कि मैं भाग न जाऊं। ऐसा कुछ
करो कि मैं तुम्हारे चरणों में बिछुड़ न जाऊं; तुम्हारे चरणों पड़ जाऊं।
प्रभु-प्राप्ति
शब्द ठीक नहीं है;
क्योंकि
इस प्राप्ति में तो ऐसा लगता है, जैसे
धन-प्राप्ति--ऐसी प्रभु-प्राप्ति। न; भक्त तो कहता है कि मैं तुम्हें पाऊं, यह तो बात ही फिजूल है। मैं
तुम्हें विस्मरण न करूं, तुम्हारी
याद बनी रहे,
तुम्हें
पुकारता रहूं,
तुम्हारे
चरणों तक मेरे पहुंचते रहें--इतना काफी है।
भक्त
कहता है: यह जो विरह मेरे भीतर तुम्हारे लिए जगा है, यह मिट न जाए। इस विरह की
पीड़ा में आनंद अनुभव करूं। ये जो प्रतीक्षा के क्षण हैं, ये मेरी प्रार्थना के क्षण
बनें। और एक दिन ऐसा हो कि मेरी बूंद तुम्हारे सागर में समा जाए।
पार से
समय के
सिंधु के,
इस पार
छोड़
मुझे
मेरी
ही आवाज में
टेरते
रहना
ताकि
मैं
प्रणव-प्रिया
वेद-ऋचा की भांति
बावरी
होऊं
मुझे
बावरी हुई जान
उस छोर
से इस छोर को मिलना नहीं
सेतु
नहीं बांधना
कोई
पोत न भेजना
मुझे
पंख न देना
कहीं बच्ची उड़ान में राह न भटकूं
गंतव्य
न भूला दूं
तो
मेरे अक्षर
मुझे
मेरी ही आवाज में
टेरते
रहना
टेरते
रहना
टेरते
रहना
ताकि
मैं बावरी होऊं
प्रणव-प्रिया
वेद-ऋचा की भांति।
भक्त
कहता है: मुझे मेरी ही आवा में टेरते रहना। ऐसी आवाज में टेरना, जो मैं समझ लूं। मैं नासमझ, अज्ञानी हूं। मेरे पास कुछ
बुद्धि नहीं है। तुम कुछ ऐसी भाषा में मत पुकारना, कि मैं समझ ही न पाऊं!
पार से
समय के
सिंधु के,
इस पर
छोड़
मुझे
मेरी
ही आवाज में
टेरते
रहना।
दूर हो
तुम, पता नहीं कहां! समय के सिंधु
के उस किनारे हो कहीं--पता नहीं कहा! पर इतना मेरे लिए काफी है कि तुम कभी-कभी
मुझे टेर देना कि मैं भटक न जाऊं, कि मैं
खो न जाऊं,
कि मैं
संसार में कहीं उलझ न जाऊं; यहां
हजार उपाय हैं उलझने के; भटकने
के लिए हजार मार्ग हैं; पहुंचने
का, कुछ पता नहीं, कि कोई मार्ग भी या नहीं।
पार से
समय के, सिंधु के इस पर छोड़
मुझे
मेरी
ही आवाज में
टेरते
रहना
ताकि
मैं
प्रणव-प्रिया
वेद-ऋचा की भांति
बावरी
होऊं।
भक्त
कहता है: मुझे पागल बनाओ; मुझे
दीवाना बनाओ,
मुझे
तुम्हारे प्रेम में विक्षिप्त कर दो। होश-होशियारी नहीं चाहता हूं। क्योंकि
होश-होशियारी तो सब चालाकी है; होश-होशियारी
से तुम्हें किसने कब पाया है? दीवाने
पहुंचे हैं तुम्हारा द्वार तक, पागल
पहुंचे हैं तुम्हारे द्वार तक। पागल ही पहुंच सकते हैं। पागल होने को जो तैयार
नहीं है,
वह
भक्त नहीं हो सकता। भक्ति तो बावलों का मार्ग है।
ताकि
मैं
प्रवण-प्रिया
वेद-ऋचा की भांति
बावरी
होऊं
मुझे
बावरी हुई जान
उस छोर
से इस छोर मिलाना नहीं।
और
जल्दी मत करना,
क्योंकि
तुम्हें पाने के पागलपन में भी बड़ा रस है। तो कोई जल्दी नहीं है।
मुझे
बावरी हुई जान
उस छोर
से इस छोर को मिलाना नहीं
सेतु
नहीं बांधना।
मुझे
पुकारने देना;
मुझे
तड़फने देना;
मेरा
रोआं-रोआं तुम्हारे प्रेम में पागल हो उठे--ऐसा मुझे अवसर देना।
कोई
पोत न भेजना।...कोई जल्दी मत करना और जहाज मत भेज देना--मुझे लेने--कोई जल्दी नहीं
है। भक्त की प्रतीक्षा अनंत है।
मुझे
पंख न देना।
कहीं
बच्ची उड़ान में राह न भटकूं।
मुझे
पता नहीं,
तुम
कहां हो! कितना दूर यह समय का सिंधु मुझे पार करना पड़ेगा! तुम मुझे पंख भी मत दे
देना जल्दी से--कि कहीं कच्ची उड़ान में राह न भटकूं; गंतव्य न भुला दूं। कहीं उड़ान
की अकड़ न आ जाए! कहीं पंखों का बहुत आधार न बना लूं; कहीं पंखों के ऊपर बहुत भरोसा
न कर लूं;
कहीं
तुम्हें न भूल जाऊं!
मुझे
तड़फने देना;
मुझे
दूर इस किनारे परदेश में बिलखने देना और विक्षिप्त होने देना।
तो
मेरे अक्षर,
मुझे
मेरी ही आवाज में टेरते रहना। लेकिन एक बात भर करना कि मुझे पुकारते रहना। ऐसा न
हो कि तुम्हारी पुकार मेरी तरफ आनी बंद हो जाए। टेरते रहना--टेरते रहना--टेरते
रहना, ताकि मैं बावरी होऊं--प्रणव
प्रिया वेद ऋचा की भांति।
जब कोई
भक्त समग्र मन से बावला हो जाता है...। समग्र मन से--आंशिक रूप से नहीं, पूर्णरूप से पागल हो जाता है, उसी क्षण परमात्मा का मिलन हो
जाता है;
उसी
क्षण समय का सिंधु मिट जाता है।
हमारी
होशियारी के कारण ही समय है। हमारे तर्क, हमारे संदेहों के कारण समय है--संसार है।
ऐसी उद्विग्नता का एक क्षण भी है, जहां
समय विलीन हो जाता है। मीरा नाचते-नाचते कृष्णमय हो जाती है। वैसा चैतन्य को घटता
है। वैसा बाबा मलूकदास को घटा है। मतवाले, मस्त...।
पर
भक्त चाहता क्या है अंततः? भक्त
भगवान भी नहीं होना चाहता। भक्त तो कहता है: थोड़ी सी दूरी बनाए रखना, ताकि प्रेम की पुकार चलती
रहे। प्रेम का संवाद चलता रहे। भक्त तो कहता है: पास मुझे रखना, लेकिन थोड़ी दूरी भी रखना, ताकि तुम्हें देख सकूं, तुम्हें निहार सकूं, तुम्हारे चरण पखार सकूं--इतनी
दूरी भी रखना। मुझे बिलकुल अपने में डुबा ही मत लेना।
ज्ञानी
की आकांक्षा है भगवान के साथ एक हो जाने की। भक्त की आकांक्षा है--भगवान की सेवा
में रत हो जाने की। भक्त की आकांक्षा है प्रभु के परम सौंदर्य को निहारने की; प्रभु के आसपास नाचने की--रास
रचाने की।
पांचवां प्रश्न: मैं परमात्मा को तो पाना चाहता हूं, लेकिन उस दिशा में कुछ भी
करने का साहस नहीं जुटा पाता। त्याग की कोई आवश्यकता नहीं है--ऐसी आपकी बात सुनकर
मनन को खूब अच्छा लगता है। लेकिन फिर शंका भी होती है कि वहीं यह आत्म-प्रवचन तो
नहीं है।
पूछता
हो: मैं परमात्मा को तो पाना चाहता हूं, लेकिन उस दिशा में कुछ करने का साहस नहीं
जुटा पाता,
परमात्मा
को चाहने में कोई प्राण नहीं है। निष्प्राण है चाह। तुम परमात्मा को मुफ्त चाहते
हो; कहीं राह के किनारे पड़ा हुआ
मिल जाए!
तुम
परमात्मा के लिए कुछ करना नहीं चाहते, दांव नहीं लगाना चाहते। परमात्मा तुम्हारे
जीवन की फेहरिश्त में आखिरी नंबर है। धन के लिए तो तुम प्रयास करते। पद के लिए तुम
बड़ी दौड़-धूप करते,
लेकिन
परमात्मा के लिए,
तुम
कहते हो,
कुछ
करने का साहस नहीं जुटा पाते। इसे गौर से देखना।
इस
साहस न जुटा सकने के पीछे मौलिक बात यही है कि तुम परमात्मा को पाना नहीं चाहते।
क्योंकि हम जिसे पाना चाहते हैं, उसे
पाने के लिए हम कुछ भी करने को राजी हो जाते हैं। धन पाने के लिए आदमी चोरी करने
को राजी है,
हत्या
करने को राजी है,
जेल
जाने को राजी है,
फांसी
लग जाए--इसके लिए राजी है! पद पाने के लिए आदमी क्या-क्या करने को राजी नहीं है!
लेकिन परमात्मा पाने के लिए--आदमी सोचता है: ऐसे ही मिल जाता तो अच्छा था। बिना
कुछ किए मिल जाता तो अच्छा था। मुक्त मिल जाता तो अच्छा था।
ध्यान
रहे: धर्म मुफ्त नहीं हो सकता। धर्म इस जगत की सबसे बहुमूल्य वस्तु है--और अपने
प्राणों से चुकाना पड़ता है मूल्य; और
किसी चीज से चुकाने से भी नहीं मिलता।
तो तुम
पाना नहीं चाहते। कहते तो तुम हो कि मैं पाना चाहता हूं, लेकिन तुम्हारा दूसरा वक्तव्य
बताता है कि तुम पाना नहीं चाहते। क्योंकि पाना चाहने का प्रमाण क्या? प्रमाण यही होता है कि तुम
करते हो,
उससे
ही पता चलेगा कि पाना चाहते हो।
मैंने
सुना है एक कहानी;
इस
कहानी को ध्यान करना।
मजनू
लैला के दर के सामने एक दरख्त तले आन बैठा। न भूख की खबर, न प्यास का होश, बस, लैला-लैला की रट लगाए था।
लैला को खबर हुई,
तो
उसने अपनी एक बांदी को कहा कि यों तो यह गरीब वाकई मारा जाएगा। इसे रोजाना तीन बार
एक गिलास दूध और फल-मेवे दे आया करो।
अब
नक्शा यह कि बांदी रोजाना तीन बार यह सेहत-अफजा गिजा लेकर रख जा रही है और मजनू छू
तक नहीं रहा। कुछ दूर पर एक और दरख्त था, जिसके नीचे एक मुफलिस बैठा करता था।
दूध-मलाई,
फल-मेवा
यूं रोजाना जाया होता देखकर उसे बहुत बुरा लगा। तो ज्यों ही बांदी यह सब रख कर
जाती थी,
वह जा
कर खा-पी आता। कुछ दिन बाद उसने मजनू से कहा:मियां, जब तुम्हें यह सब खाना नहीं
है और बस,
लैला-लैला
ही जपना है,
तो
जाकर उस दूसरे दरख्त के तले बैठे रहो। काहे हमें रोज दिन में तीन बार वहां से उठकर
यहां तक आने की जहमत देते हो!
मजनू
मान गया। अब मियां मुफलिस मजनू की जगह बैठकर मजनू के लिए आनेवाला तर माल मजे से
उड़ाने लगे। यही नहीं, अकसर
और लाओ की सदा भी लगाने लगे। दिन बीतने लगे।
एक दिन
लैला ने बांदी से पूछा कि मेरे मजनू के क्या हाल हैं? कुछ बताया नहीं? वह गरीब तो अब सूखकर कांटा हो
गया होगा! बांदी तुनक कर बोली: अरे नेकमबख्त, वह मुआ तो तेरा भेजा माल खा-खा कर मोटा रहा
है।
सुनकर
लैला सकते में आ गई कि मेरा मजनू इतना बदल कैसे गया! तो उसने बांदी से कहा कि तू
अब उसके पास एक खाली गिलास लेकर जा और कह कि लैला के लिए इसमें अपना खून भर कर दे।
लैला का जीवन खतरे में है। इस खून से लैला बच जाएगी। इसी खून से बच सकती है। और
किसी का खून काम भी न आयेगा।
बांदी
ने ऐसा ही किया। मियां मुफलिस खाली गिलास देखकर भिन्नाए और फिर लैला की फरमाइश
सुनकर बहुत खिलखिलाए भी। उन्होंने बांदी से कहा: ऐ कनीज, ध्यान से सुन और समझ। दूध
पीने वाला मजनू दरकार हो, तो
बंदा यहां बैठा है। खून देने वाले मजनू की जरूरत हो, तो वह उस दरख्त के नीचे बैठा
है।
परमात्मा
को पाने के लिए स्वयं को पूरी तरह दे देने की जरूरत है; मजनू हो जाने की जरूरत है।
अपने को खोने को जो तैयार नहीं है, वह एक बात समझ ले कि अभी परमात्मा की प्यास
उसके भीतर नहीं उठी।
तो तुम
गलत प्रश्न पूछ रहे हो। तुमने यह तो मान लिया है कि तुम परमात्मा को पाना चाहते
हो। वही भूल हो रही है। और जब तक तुम इस भूल को न देखोगे, तब तक तुम अपनी स्थिति को
ठीक-ठीक माप न पाओगे और इस स्थिति के बाहर भी न हो पाओगे।
बहुत
लोगों का ऐसा खयाल है कि वे परमात्मा को पाना चाहते हैं, लेकिन क्या करें, और हजार झंझटें हैं, काम-धाम हैं, इसलिए समय नहीं मिलता! या
इतना साहस नहीं है कि सब कुछ दांव पर लगा दें। इस भांति वे अपने को धोखा दे रहे
हैं। इस भांति वे यह भी मजा ले रहे हैं कि मैं परमात्मा को पाना चाहता हूं।
यह बात
भी खटकती है कि मैं परमात्मा को नहीं पाना चाहता हूं। तो इसमें मलहम-पट्टी हो गई।
अब दूसरा बहाना निकाल लिया कि क्या करें, और हजार उलझने हैं। आज इतनी सुविधा नहीं है
कि कुछ कर सकें।
तो मैं
कहना चाहूंगा,
पहली
तो बात,
कि
तुम्हें अभी परमात्मा को पाने की आकांक्षा नहीं उठी है। और जिसको पाने की आकांक्षा
न उठी हो,
उसकी
फिक्र में क्यों पड़ना? क्योंकि
जब तक तुम्हें आकांक्षा न उठे, तब तक
कुछ भी नहीं हो सकता।
तुम्हें
जल तो दिया जा सकता है, लेकिन
प्यास कैसे दी जाए? और
तुम्हें प्यास न हो, तो जल
का तुम क्या करोगे? हम
घोड़े को नदी तक तो ला सकते हैं पानी दिखा सकते हैं, लेकिन पानी पिलाएंगे कैसे? घोड़ा प्यासा हो, तो ही पानी पीएगा।
और
प्यासे को नदी तक से जाने की जरूरत ही नहीं पड़ती, प्यास नहीं खोज लेता है।
प्यासा सब छोड़ देता है, पानी
की ही खोज करता है।
तुम्हारे
भीतर प्यास नहीं है। और इस प्यास को जगाने के लिए पहला अनिवार्य कदम यही होगा कि
तुम ठीक से समझ लो कि मेरे भीतर परमात्मा की प्यास नहीं है। इसकी चोट पड़ेगी; इससे घाव पैदा होगा कि मेरे
भीतर परमात्मा की कोई प्यास नहीं है! तो मैं धन, पद, प्रतिष्ठा--इसी में उलझा हुआ
समाप्त हो जाऊंगा?
यह
क्षण-भंगुर जिंदगी ही मुझे सब मालूम होती है, तो मैं ऐसा मंद-बुद्धि हूं! इससे बड़ी चोट
पड़ेगी। चोट पड़ेगी,
तो तुम
जागोगे। जागोगे तो शायद प्यास जगे।
दुनिया
में बड़े से बड़ा खतरा यही है कि तुम्हें अपनी स्थिति का ठीक-ठीक बोध न हो, और तुम कुछ और समझे बैठे रहो।
बीमार आदमी समझा बैठा रहे कि स्वस्थ है, तो इलाज कैसे हो! बीमार को पता चलना चाहिए
कि मैं बीमार हूं,
तो
इलाज शुरू हो सकता है। फिर वह चिकित्सक भी खोजेगा, दवा भी खोजेगा, कुछ करेगा भी।
अधार्मिक
आदमी अपने को धार्मिक मान कर बैठ जाए, तो यात्रा ही शुरू नहीं होती। अधार्मिक को
पहले तो जानना चाहिए कि मैं धार्मिक हूं। इस बात को इतनी प्रगाढ़ता से जानना चाहिए
कि मेरे जीवन में धर्म नहीं है; दुःख
होगा; चोट लगेगी; बड़ी पीड़ा होगी--कि मेरे जीवन
में परमात्मा के लिए को आकांक्षा नहीं है, कोई भाव नहीं, कोई प्यास नहीं! मैं सत्य का
जिज्ञासु नहीं! तो मैं इस शरीर और शरीर के थोड़े दिन के खेल में ही सब समाप्त समझ
रहा हूं!
सब चोट
से ही शायद तुम्हारे भीतर छिपी प्यास उठ आए। प्यास तो हर एक के भीतर छिपी है; उठनी चाहिए।
ऐसा तो
कोई भी नहीं है,
जिसके
भीतर परमात्मा की प्यास न हो। यह तो हो ही नहीं सकता। क्योंकि परमात्मा को तुम
समझते क्या हो। परमात्मा का अर्थ है: आनंद की परम दिशा। कौन है, जिसके भीतर परमात्मा की प्यास
नहीं है?
कौन है, जो नहीं चाहता कि आनंदित हो? परमात्मा का अर्थ है--अमृत की
स्थिति। कौन है,
जो
मृत्यु के पार नहीं जाना चाहता? कौन है, जो विराट नहीं हो जाना चाहता? कौन है, जो सारी सीमाओं को तोड़ कर परम
स्वतंत्रता में नहीं उड़ना चाहता? लेकिन
हमें साफ नहीं है।
मैं
परमात्मा को तो पाना चाहता हूं, लेकिन
उस दिशा में कुछ भी करने का साहस नहीं जुटा पाता। त्याग की कोई आवश्यकता नहीं है, ऐसी आपकी बात सुनकर मन को
अच्छा लगता है। बहुतों को अच्छा लगता है!
लेकिन
वे आधी ही बात सुन रहे हैं। मैं कहता हूं: त्याग की कोई जरूरत नहीं है। मैं दूसरी
बात कह रहा हूं,
वह
तुमने नहीं सुनी। मैं कह रहा हूं: प्रेम की जरूरत है। और प्रेम के पीछे त्याग ऐसे
आता है,
जैसे
तुम्हारे पीछे छाया आती है। लेकिन तब त्याग का स्वर बिलकुल अलग होता है। तब
तुम्हें त्यागना नहीं पड़ता। तब त्याग सहज होता है।
तुमने
जिसको प्रेम किया,
उसी
क्षण त्याग शुरू हो जाता है। मां जब बच्चे को प्रेम करती है, तो कितना त्यागती है! जब तुम
किसी स्त्री के प्रेम में पड़ते हो, तो कितना त्यागते हो! मगर तब तुम उसे त्याग
नहीं कहते। तब तुम कहते हो: त्याग की तो बात ही क्या कहनी; मेरा आनंद है।
मां
अपने बेटे के लिए कुछ करती है तो यह नहीं कहती कि मैं त्याग कर रही हूं। वह कहती
है: मेरा आनंद है। सच तो यह है कि मां सदा तड़फती है कि मुझे जितना करना था, उतना मैं कर नहीं पाई। जो
करने योग्य था,
हो
नहीं पाया मुझसे। यह तो वह कभी कहती नहीं कि मैंने बहुत त्याग किया। इतना ही कहती
है कि जो मुझे करना था, वह
मुझसे हो नहीं पाया। मैं बेटे के लिए पूरा नहीं कर पाई, जितना जरूरी था। मैं अपना
प्रेम पूरा का पूरा नहीं निभा पाई--ऐसा दंश मां के हृदय में होता है।
मां यह
तो कह नहीं सकती कि यह त्याग है। त्याग तो हम तभी कहते हैं, जब प्रेम नहीं होता। तुमने
अगर भिखारी को दो पैसे दिए, तो तुम
कहते हो--त्याग;
क्योंकि
प्रेम नहीं है। तुमने अपने मित्र को दो पैसे दिए, तब तुम त्याग नहीं कहते; तब तो त्याग की बात बड़ी बेहूदी
मालूम पड़ेगी।
तुमने
यह तो सुन लिया कि मैं कहता हूं: त्याग की कोई जरूरत नहीं है। निश्चित मैं कहता
हूं कि त्याग की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि त्याग कुरूप है। प्रेम की जरूरत है।
और प्रेम के पीछे जो त्याग आता है, वह परम सुंदर है; उस त्याग की बात ही और है; उसकी महिमा और है, उसकी गरिमा और है।
तो तुम
इतना ही सुन कर रुक गये, तो तुम
आत्म-वंचना ही कर रहे हो। ध्यान के साथ त्याग आता है; प्रेम के साथ त्याग आता है; क्योंकि कचरे को छोड़ोगे नहीं, तो करोगे क्या? कचरे को पकड़ कर क्या करोगे?
अभी तो
हालत ऐसी है कि कचरे को पकड़ रहे हो और हीरे को छोड़ रहे हो। इसको तुम भोग कहते हो!
तुम बड़े नासमझ हो। हीरे को पकड़ो, कचरे
को छोड़ो। लेकिन कचरे को जब कोई छोड़ता है, तो त्याग थोड़े ही कहता है। और सुबह तुम
बुहारी लगाते हो घर में और कचरा तुम बाहर फेंक आते हो, तो तुम कोई अखबारों में खबर
थोड़े ही छपवाते हो कि आज फिर हमने कचरे का त्याग कर दिया! अगर तुम जाकर अखबार में
खबर छपवाने की कोशिश करो कि आज हमने त्याग कर दिया कचरे का, तो जाहिर होगा कि तुम कचरे को
धन मानते थे।
जब तुम
धन छोड़ते हो,
तब तुम
कहते हो: बड़ा त्याग कर दिया; उसका
मतलब है कि धन में तुम्हें धन मालूम होता था। धन में धन है कहां? मान्यता है।
तुम
धनियों को निर्धन हालत में नहीं देखते! और पद पर बैठे लोगों को तुम भीतर दयनीय
नहीं पाते?
जिनके
पास सब है,
उनके
भीतर तुम्हें कोई किरण दिखाई पड़ती है?--कोई उत्साह, कोई उमंग, कोई उत्सव दिखाई पड़ता है? जीवन की धन्यता का भाव है
वहां? कुछ भी नहीं है। रूखे-सूखे
लोग! कंकड़-पत्थर इकट्ठे करके बैठ गये हैं। और इन्हीं कंकड़-पत्थरों में दब जाएंगे
और मर जाएंगे;
यही
उनकी कब्र बन जाएगी।
तो मैं
त्याग को तो नहीं कहता।
दो
बातें कहता हूं,
क्योंकि
दो ही बातें संभव हैं। या तो प्रेम करो--अगर भक्ति के रास्ते पर चलो; तो प्रेम के पीछे त्याग आ
जाता है। या ध्यान करो--अगर ज्ञान के रास्ते पर चलो; ध्यान के पीछे त्याग आ जाता
है।
भक्ति
के रास्ते पर,
प्रेम
के रास्ते इसलिए त्याग आता है, कि
तुम्हारा प्रेम बढ़ता है, तो
तुम्हारे पास जो है, उसको
बांटने की आकांक्षा बढ़ती; साथी
बनाना चाहते हो। प्रेम बांटना चाहते है।
तो
प्रेम के रास्ते पर त्याग आता है--बंटने के लिए। आदमी अपने को पूरा बांट दो चाहता
है; कुछ भी बचाना नहीं चाहता।
सारी कृपणता नष्ट हो जाती है। तन, मन, धन--सब न्योछावर कर देता है।
सब उसका ही है,
उसको
ही लौटा देती है। त्वदीयं वस्तुत तुभ्यमेव समर्पये। कह देता है: हे गोविंद, तेरी वस्तु थी, तुझी को लौटा दिया। त्याग
क्या है?
तेरा
था, तुझी को दे दिया। का लागै
मोरा। त्याग नहीं कहता। उसका ही था, उसी को दे दिया; बीच में हम नाहक मालिक बन गये
थे, वह मालकियत छोड़ दी।
ध्यान
के रास्ते पर अंतर्दृष्टि खुलती है, साफ हो जाता है कि कचरा-कूड़ा पकड़ कर बैठे
हैं; आदमी छलांग लगा कर बाहर निकल
जाता है। पीछे लौट कर नहीं देखता। ऐसे बुद्ध एक दिन निकल गये; महावीर एक दिन निकल
गये--राजमहल से--सब छोड़-छोड़ कर के। जैन कहते हैं: बड़ा त्याग किया। गलत कहते हैं।
उन्हें महावीर का कुछ पता नहीं; उन्हें
महावीर के अंतस्तल का कुछ पता नहीं।
त्याग
का तो मतलब यह हुआ कि धन था। महावीर ने त्याग नहीं किया। महावीर को तो दिखाई पड़ा:
यहां धन इत्यादि कुछ भी नहीं है। इतने दिन की भांति छूट गई! सपना उखड़ गया; नींद खुल गई! महल के बाहर हो
गये। महल था ही नहीं। राज-पाट सब धोखा था--एक बड़ा सपना था। मैंने सुना है: एक
सम्राट अपने इकलौते बेटे के बिस्तर के पास बैठा है। बेटा मरने के करीब है।
चिकित्सकों ने कहा कि आज की रात पूरी न हो सकेगी; बेटा रात में ही मर जाएगा। तो
बाप जग रहा है। तीन चार रात से भी नहीं सोया है, क्योंकि बेटा निश्चित ही बहुत
रुग्ण है। और उस पर ही सारी आशा थी; वह एकमात्र बेटा है; उसका ही राज्य था। बाप की
आंखों का वही तारा था।
तो रो
रहा है--बाप बैठा हुआ पास ही। कुछ करने का उपाय भी नहीं है। मौत के सामने हम कितने
दयनीय हो जाते हैं। कितने दीन हो जाते हैं। सारा साम्राज्य व्यर्थ है। सारा धन
व्यर्थ है। आज सब देकर बेटे का जीवन मांगने को तैयार है, लेकिन कुछ सार नहीं है।
रोते-रोते
उसकी झपकी लग गई। झपकी लग गई, तो
उसने एक सपना देखा। सपना देखा कि उसके पास बड़े सोने के महल हैं और उसका नगर सोने
से पटा है। उसकी राजधानी हीरे-जवाहरातों से लदी है। और उसके बारह बेटे हैं--एक से
एक सुंदर,
एक से
एक प्रतिभाशाली। और सारी पृथ्वी पर उसका राज है, वह चक्रवर्ती है। ऐसे सपने
में बड़ा मजा ले रहा है।
तभी
उसकी पत्नी जोर से दहाड़ मार कर रो पड़ी, क्योंकि बेटे की सांस टूट गई। दहाड़ की आवाज
सुन कर उसने आंख खोली। मरे हुए बेटे को देखता रह गया। पत्नी तो थोड़ी घबड़ा गई; क्योंकि उसको इतना लगाव था
बेटे से--और एक आंसू नहीं गिर रहा है! अब तक रोता रहा था। अब बेटा मर गया है, और वह एकदम सकते में रह गया
है। तो पत्नी ने सोचा कि कहीं पागल तो नहीं हो गया! उसने हिलाया; उसने कहा: आप कुछ बोलते नहीं; रोते नहीं? बेटा मर गया! वह हंसने लगा।
तब तो पत्नी ने समझा कि निश्चित पागल हो गया। उसने कहा: आप हंस रहे हैं! बात क्या
है?
उसने
कहा: मैं इसलिए हंस रहा हूं कि अब किसके लिए रोऊं; किस के लिए न रोऊं! अभी बारह
बेटे मेरे थे,
तब इस
बेटे को मैं बिलकुल भूल ही गया था। बड़ी राजधानी थी। स्वर्ण के महल थे। अभी तक तेरी
आंखों से उनकी छाया नहीं गई है। अभी तक चमक है मेरी आंखों में उनकी। बड़ा सपना
मैंने देखा कि चक्रवर्ती सम्राट हूं; (यह छोटा-मोटा राज्य क्या!) सारी पृथ्वी पर
मेरी पताका फहर रही है। मेरी राजधानी हीरे-जवाहरातों से लदी है। सोने के रास्ते
हैं; सोने के महल हैं। और बारह
मेरे बेटे थे। एक ही तू क्या बात कर रही है! और एक से एक सुंदर थे; और एक से एक प्रतिभाशाली थे।
और अचानक तूने दहाड़ मार दी; आंख
खुल गई;
सपना
खो गया। अब मैं सोचता हूं कि उन बारह के लिए रोऊं या इस एक के लिए रोऊं! अब मैं
सोचता हूं कि उस विराट साम्राज्य के लिए रोऊं--जो अभी-अभी मेरा था और अब मेरा नहीं
है। या इस छोटे से साम्राज्य के लिए रोऊं? क्योंकि यह भी अभी-अभी मेरा है, अभी-अभी मेरा नहीं रह जाएगा।
आज बेटा मर गया;
कल मैं
मर जाऊंगा। जब बेटा मर गया, तो बाप
कितनी देर जी सकेगा? बेटे
की मौत मेरी मौत की खबर ले आई है।
कहते
हैं: उस रात बाप कहां नदारद हो गया घर से, किसी को पता न चला। बहुत खोजबीन की गई, लेकिन उसका पता न चला। सपना
टूट गया। भीतर का ही सपना नहीं टूटा, बाहर का सपना भी टूट गया। जिसको हम यथार्थ
कहते हैं,वह भी टूट गया; वह भी एक बड़ा सपना है।
उसने
त्याग किया?
त्याग
नहीं किया;
बोध
आया।
तो या
तो बोध आता ध्यान से, तब फिर
सब जो व्यर्थ है,
व्यर्थ
की तरह दिख जाता;
तुम्हारी
पकड़ उस पर छूट जाती। त्याग तो फिर भी होता है, लेकिन त्याग उसे कहने की जरूरत नहीं पड़ती।
और या
प्रेम से...। कि तुम प्रेम में इतने सरोबोर हो जाते हो कि सभी अपने है; तो जो भी तुम्हारे पास है, तुम बांटने लगते हो। जितना
बंटे उतना भला;
उतने
तुम निर्बोझ हो जाते हो; मेरा
तेरा मिट जाता है;
एक उसी
परमात्मा का सब है।
लेकिन
त्याग तो दोनों हालत में घटता है।
मैंने
निश्चित तुमसे कहा है बार-बार कि त्याग की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि त्याग अपने से घटता
है; आवश्यकता नहीं है। या तो तुम
प्रेम करो;
प्रेम
की आवश्यकता है। या ध्यान करो--ध्यान की आवश्यकता है। त्याग पीछे चला आता
है--चुपचाप चला आता है। त्याग परिणाम है।
हमारे
पास है भी क्या--छोड़ने को?
मिट्टी
का तन,
मस्ती
का मन
क्षण
भर जीवन,
मेरा
परिचय।
कल काल, रात्रि के अंधकार
में थी
मेरी सत्ता विलीन
इस
मूर्तिमान जग में महान
था मैं
विलुप्त कल रूप हीन
कल
मादकता की भरी नींद
थी
जड़ता से ले रही होड़
किन
सरस करों का परस आज
करता
जाग्रत जीवन नवीन?
मिट्टी
से मधु का पात्र बनूं
किस
कुंभकार का यह निश्चय?
मिट्टी
का मन,
मस्ती
का तन
क्षण
भर जीवन,
मेरा
परिचय।
भ्रम
भूमि रही थी जन्म-काल
था
भ्रमित हो रहा आसमान
उस
कलावान का कुछ रहस्य
होता
फिर कैसे भासमान।
जब
खुली आंख,
तब
ज्ञात हुआ
थिर है
सब मेरे आसपास
समझा
था सबको,
भ्रमित, किंतु
भ्रम
स्वयं रहा था मैं अजान
भ्रम
से ही जो उत्पन्न हुआ
क्या
ज्ञान करेगा वह संचय।
मिट्टी
का तन,
मस्ती
का मन
क्षण
भर जीवन,
मेरा
परिचय।
है क्या
हमारे पास देने को? दान
करने को,
त्याग
करने को--है क्या हमारे पास? मिट्टी
का तन,
मस्ती
का मन,
क्षण
भर जीवन--मेरा परिचय। एक क्षण भर पानी का बबूला है। मिट्टी की देह है और थोड़ी सी
मन की तरंगों की मस्ती है। मन के सपनों की मस्ती है और मिट्टी की देह है। मिट्टी
की देह पर सवार ये सपने हैं--और क्षण-भंगुर, क्षण भर ले लिए। इतना छोटा सा परिचय है; इसमें देने-लेने को क्या है?
जाग
गया जो--या तो प्रेम में या ध्यान में--उससे त्याग सहज फलित हो जाता है।
आखिरी प्रश्न: बाबा मलूकदास कहते हैं: दया करो और धर्म मन में रखो।
मैंने जीवन भर यही किया। दया की, सेवा की, सहानुभूति दी, लेकिन किसी ने एहसास भी न
माना। एहसास तो दूर, जिनके साथ भला किया, उन्होंने मेरे साथ बुराई की!
आप इस संबंध में क्या कहते हैं?
ऐसा
खयाल रहे कि मैंने भलाई की, तो
भलाई की ही नहीं। भलाई करने वाले को भलाई करने का खयाल नहीं होता। और जिसे भलाई
करने का खयाल होता है, इसकी
का यही परिणाम होता है, जो
तुम्हारा हुआ: लोग उसके साथ बुराई करेंगे। क्योंकि जब तुम किसी के साथ बहुत
होशपूर्वक जानते हुए भलाई करते हो, तो तुम दूसरे अहंकार को चोट पहुंचाते हो। वह
तुम्हें कभी क्षमा न कर सकेगा।
जब
तुमने किसी को दो पैसे दिए हैं, तो
तुमने देखा: तुम कितने अकड़ कर देते हो! तुम्हें दो पैसे दिखाई पड़ते हैं, उस आदमी को तुम्हारी अकड़
दिखाई पड़ती है और वह दिल में कसमसा कर रह जाता है कि यह दुर्भाग्य का क्षण कि तुम
जैसे आदमी से दो पैसे लेने पड़े। देखूंगा, कभी मौका मिला, तो इसका बदला चुका कर रहूंगा।
तुम्हें
अपनी अकड़ नहीं दिखाई पड़ती; उसको
तुम्हारी अकड़ दिखाई पड़ती है। दो पैसे दे रहे हो, लेकिन अकड़ कितने रहे हो! हाथ
कितना ऊपर कर लिया है, महादाता
बन गये हो।
तुम
भलाई भी करते हो,
तो
तुम्हारे अहंकार की सजावट ही होती है--तुम्हारी भलाई। और भलाई के पीछे तुम चाहते
हो--प्रत्युत्तर,
धन्यवाद, अनुग्रह का भाव। और दूसरे को
दिखाई पड़ता है तुम्हारा अहंकार।
मेरे
एक मित्र हैं;
धनपति
हैं; और भले आदमी हैं। तुम जैसे ही
हैं--जिसने प्रश्न पूछा है। मेरे साथ एक बार यात्रा पर गये, तो रास्ते में उन्होंने अपना
मन खोला। उन्होंने मुझसे कहा कि एक बात पूछना चाहता था सदा से, लेकिन कभी मौका नहीं मिला।
मैंने अपने जीवन में अपने सारे रिश्तेदारों को, मित्रों को--सब को भरपूर दिया। लेकिन कोई
मुझसे खुश नहीं है!
और यह
बात सच है। मैं उनके मित्रों को, उनके
परिवार के लोगों को, उनके
संबंधियों को,
दूर के
संबंधियों को--सब को जानता हूं। उन्होंने सब को दिया है। वे खुद भी एक गरीब घर से
आए। एक अमीर घर में गोदी लिए गए, तो
उनके सब रिश्तेदार गरीब ही हैं। अब जो बाप अपने बेटे को गोदी देता है, वह कोई अमीर तो होता नहीं। वे
एक अमीर घर में गोदी की तरह आए। तो उनके सारे रिश्तेदार, मित्र, परिचय--सब गरीबी से भरा हुआ
है। उन्होंने सब को अमीर कर दिया। जितना दे सकते थे--दिया। इसमें कोई झूठ नहीं है।
इसे में जानता था। और यह भी मैं जानता था कि वे जो कह रहे हैं, वह भी सच है। उनका कोई
रिश्तेदार उनसे खुश नहीं है। सब उनसे नाराज हैं। सब उनके दुश्मन हैं। अगर मौका पड़
जाए, तो उनमें से कोई भी उनके
मिटाने को तैयार हो जाएगा।
तो
उन्होंने मुझसे पूछा कि मामला क्या है? मैंने किसी का बुरा नहीं किया। सब का भला
किया। लेकिन फिर भी सब मुझसे नाराज हैं! कोई वक्त पर काम नहीं आता! और सब मेरे
खिलाफ मालूम होते हैं।
तो
मैंने उनसे कहा: आपने भला किया, लेकिन
भला करना न जाना। आपने रुपए तो दिए, लेकिन बड़ी अकड़ से दी है। आपने दूसरे को बहुत
दीन बना डाला। आपने दूसरे की दीनता बड़ी प्रगाढ़ कर दी; उसके घाव को छुआ। आपने रुपए
क्या दिए,
सिद्ध
करने को दिए कि देख, मैं
कौन, और तू कौन! नाराजगी स्वाभाविक
है। वे बदला लेने को आतुर हैं। और फिर आपने कभी उनको कोई मौका नहीं दिया कि किसी
क्षण में वे भी आपके ऊपर हो जाते। कभी ऐसा भी नहीं आपने किया कि आप बीमार हैं, किसी मित्र को कहा हो कि आ
जाओ, पास बैठ जाओ--मेरे बिस्तर के।
तुम्हारे बैठने से मुझे अच्छा लगेगा। इतना भी नहीं मौका दिया किसी को। आपने सब से
सहानुभूति दिखलाई,
लेकिन
दूसरे को कभी मौका न दिया कि आपसे सहानुभूति दिखला दें। इसमें खतरा हो गया। इससे
वे नाराज हैं।
यही
मैं तुमसे कहना चाहता हूं।
तुम
कहते हो: मैंने जीवन भर यही किया। दया की होगी, लेकिन दया करनी न जानी। दया की होगी, लेकिन दया के भीतर अहंकार
बहुत गहरा रहा होगा। सेवा की होगी, लेकिन करने मग प्रेम न रहा होगा, कर्तव्य का भाव रहा होगा। और
कर्तव्य का भाव कोई गुण नहीं हैं, दुर्गुण
है। और तुमने सहानुभूति दी होगी; तुम
कहते हो,
तो ठीक
ही कहते होओगे;
लेकिन
सहानुभूति से कोई प्रसन्न नहीं होता।
तुम इस
गीत को खयाल से सुनो:
क्या
करूं संवेदना लेकर तुम्हारी? क्या
करूं?
मैं
दुःखी जब जब हुआ
संवेदना
तुमने दिखाई
मैं
कृतज्ञ हुआ हमेशा
रीति
दोनों ने निभाई
किंतु
इस आभार का अब
हो उठा
है बोझ भारी
क्या
करूं संवेदना लेकर तुम्हारी? क्या
करूं?
एक भी
उच्छवास मेरा
हो सका
किस दि तुम्हारा
उस नयन
से बह सकी कब
इस नयन
की अश्रु-धारा?
सत्य
को मुंदे रहेगी।
शब्द
की कब तक पिटारी?
क्या
करूं संवेदना लेकर तुम्हारी? क्या
करूं?
कौन है
जो दूसरों को
दुःख
अपना दे सकेगा?
कौन है
जो दूसरों से
दुःख
उसका ले सकेगा?
क्यों
हमारे बीच धोखे का रहे व्यापार जारी
क्या
करूं संवेदना लेकर तुम्हारी? क्या
करूं?
क्यों
न हम लें मान,
हम हैं
चल रहे
ऐसी डगर पर
हर
पथिक जिस पर अकेला
दुःख
नहीं बंटते परस्पर
दूसरों
की वेदना में
वेदना
जो है दिखाता
वेदना
से मुक्ति का निज
हर्ष
केवल वह छिपाता
तुम
दुःखी हो तो सुखी मैं
विश्व
का अभिशाप भारी!
क्या
करूं संवेदना लेकर तुम्हारी? क्या? करूं
जब तुम
दूसरे के प्रति सहानुभूति हो, तो जरा
भीतर खयाल रखना,
तुम मजा
ले रहे हो।
इसे
ऐसा समझो: एक आदमी के घर में आग लग गई और तुम गये और तुमने सहानुभूति दिखाई कि बड़ा
बुरा हुआ--बड़ा बुरा हुआ! लेकिन तुम जरा भीतर खयाल करना, तुम इसमें मजा भी ले रहे हो
कि तुम्हारा मकान जला, इसका
जला। तुम जरा गौर करना। तुम्हारी आंख में एक चमक भी है--सहानुभूति दिखाने का मजा।
और मैं
तुमसे कहता हूं कि यह मजा तुम जरूर ले रहे होओगे। इसे उलटी तरह से सोचो। इस आदमी
का झोपड़ा जल गया;
अगर यह
झोपड़ा न जलता और यह आदमी अचानक लाटरी पा जाता और एक महल बना लेता, तो तुम दुःखी होते या नहीं? तुमसे बड़ा मकान बना लेता, तो तुम्हारे मन मेंर् ईष्या
आती या नहीं?
अगर
तुम इसके सुख में सुखी नहीं हो सकते, तो इसके दुःख में तुम्हारा दुःख झूठा है।
इसके सुख में तो तुम दुःखी हो जाते हो, तो तुम इसके दुःख में जरूर सुखी हो रहे
होओगे। यह दोनों का जोड़ है।
जब भी
तुम किसी व्यक्ति के दुःख में दुःखी होना बताते हो, तो तुम चाहे ऊपर से प्रकट करो
या न करो,
दूसरे
को इसकी तरंगें मिलती हैं कि तुम बड़े प्रसन्न हो रहे हो, भीतर-भीतर रस आ रहा है
तुम्हें।
सहानुभूति
में बड़ा रस है;
कोरा--मुफ्त
में--दूसरे से ऊपर होने का मजा है। दूसरा भिखारी होकर खड़ा है; तुम दो-चार शब्द उसके
भिक्षा-पात्र में डाल रहे हो और तुम बड़े प्रसन्न हो।
ध्यान
रखना: तुम्हारा दूसरे के प्रति संवेदना, सहानुभूति का रुख तभी सच्चा होगा, जब तुम्हारे जीवन में सारीर्
ईष्या चली जाएगी।
मैंने
अपने उन धनी मित्र को कहा कि अगर तुम्हारे परिवार में, तुम्हारे रिश्तेदारों में, मित्रों में कोई तुमसे ज्यादा
धनी हो जाए,
तो
तुम्हेंर् ईष्या होगी या नहीं? वे
सोचने लगे;
उन्होंने
कहा कि होगी;र् ईष्या कहा कि होगी;र् ईष्या तो होगी--अगर उनमें
मुझसे ज्यादा कोई धनी हो जाए। यद्यपि मैंने सबको धनी किया है, लेकिन मुझसे ज्यादा उनमें कोई
भी नहीं है। लेकिन मुझसे ज्यादा कोई हो जाए, तो मुझेर् ईष्या होगी।
तो फिर
मैंने कहा,
तुम जो
मजा ले रहे हो,
वह
अहंकार का ही है। तुम मजा ले रहे हो कि मैं दाता--तुम याचक। तुमने अपने सारे
मित्रों को,
सारे
प्रियजनों को भिखारियों में रूपांतरित कर दिया है। वे एक न एक दिन सब मिलकर
तुम्हारी हत्या कर देंगे। और तब तुम कहते फिरोगे कि कैसी दुनिया है! हम तो नेकी
करते हैं और उत्तर में बदी मिलती है।
नहीं
जी; नेकी के उत्तर में बंदी कभी
नहीं मिलती। मगर नेकी करता कौन है? नेकी के नाम पर भी तुम बंदी ही करते हो।
अच्छे-अच्छे नाम हैं...! रोगों के बड़े-सुंदर-सुंदर नाम रखे हैं हमने, लेकिन भीतर हमारा रोग छिपा
है।
तुम
कहते हो: मैंने जीवन भर यही किया।
नहीं
साहब, बाबा मलूकदास जो कहते हैं, वह आप न कर सकेंगे। उसे करने
के लिए बाबा मलूकदास होना पड़ेगा। यह कुछ कहने की बात नहीं है; करने की बात नहीं हैं; होने की बात है। यह जो बाबा
मलूकदास कहते हैं,
इसे
बाबा मलूकदास ही कर सकते हैं। तुम्हें मलूक जैसी मस्ती चाहिए; मलूक जैसा बोध चाहिए; मलूक जैसा प्रेम चाहिए, तब तुम्हारे जीवन से जो होगा, उसका सारा गुण-धर्म अलग होगा।
अभी तो
तुम झूठे सिक्कों से मन बहलाया है। तुम कहते हो: मैंने जीवन भर यही किया। अगर
तुमने सच में ही भलाई की है, तो बात
खतम हो गई;
तुम
इसकी प्रतीक्षा क्यों करते हो कि दूसरा तुम्हारे प्रति भलाई करे? तुमने भलाई की बात खतम हो गई, तुमने मजा ले लिया भलाई में।
भलाई करने में इतना मजा है! और क्या चाहिए।
दूसरे
ने तुम्हें भलाई करने का मौका दिया, इतना क्या कम है! तुम उसके प्रति धन्यवादी
रहो, अनुग्रह मानो--कि तूने मुझे
मौका दिया,
सेवा
करने का। लेकिन तुम राह देख रहे हो कि वह अनुगृहीत हो, तुम्हारा अनुग्रह माने--और
कुछ कहे उत्तर में, जिससे
तुम्हें प्रमाण भी मिले कि तुम्हारी भलाई का उत्तर भी आ गया। तुमने भलाई नहीं की, सौदा करना चाहा। ऊपर-ऊपर
तुमने दिखाया भलाई कर रहे हैं; भीतर-भीतर
व्यवसाय करना चाहा। दो पैसे दिए थे, तुम चार पैसे लौटे, इसकी प्रतीक्षा करते रहे। तुम
व्याज सहित वापस चाहते हो! और देखा जब तुमने कि मूल भी डूब गया, तो तुम नाराज हो।
दया की, सेवा की, सहानुभूति दी, लेकिन किसी ने भी एहसान भी न
माना। कोई कैसे मानेगा एहसान? तुम
एकसान मनवाना चाहते थे, इसीलिए
नहीं मानना। तुम अगर न मनवाना चाहते,तो शायद लोग मान लेते।
इस जगत
के बड़ उलटे नियम हैं--बड़े उलटे नियम हैं। तुम अगर सम्मान चाहो, लोग अपमान करेंगे। और तुम अगर
सम्मान न चाहो,
लोग
सम्मान करेंगे। तुम अगर लोगों के सिर पर बैठना चाहो, तो लोग तुम्हें धूल में गिरा
देंगे। और तुम अगर लोगों के चरणों में गिर जाओ, तुम्हारे सिर पर उठा लेंगे।
यह
दुनिया बहुत अदभुत है; इसका
गणित बहुत अदभुत है। यहां तुमने जीतना चाहा, तो हारोगे। और यहां तुम हारने को राजी रहे, तो तुम्हें कोई न हराएगा; तुम्हारी जीत सुनिश्चित है।
आज इतना ही।
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