शुक्रवार, 10 मार्च 2017

कन थोरे कांकर घने-(संत मलूकदास)-प्रवचन-07



कन थोरे कांकर घने-(संत मलूक दास)

मिटने की कला: प्रेम
सातवां प्रवचन
श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रात; दिनांक 17 मई, 1977;
सारसूत्र:
सब बाजे हिरदे बजैं, प्रेम पखावज तार।
मंदिर ढूढ़त को फिरै, मिल्यो बजावनहार।।
करै पखावज प्रेम का, हृदय बजावै तार।
मनै नचावै मगर ह्वै, तिसका मता अपार।।
जो तेरे घट प्रेम है, तो कहि कहि न सुनाव।
अंतरजामी जानी है, अंतरगत का भाव।।
माला जपो न कर जपो, जिभ्या कहो न राम।
सुमिरन मेरा हरि करै, मैं पाया विसराम।।
जेती देखै आत्मा, तेते सालिगराम।
बोलनहारा पूजिए, पत्थर से क्या काम।।


बाबा मलूकदास एक महाकवि हैं। मात्र कवि ही नहीं--एक द्रष्टा, एक ऋषि। कवि तो मात्र छंद, मात्रा, भाषा बिठाना जानता है। कवि तो मात्र कविता का बाह्य रूप जानता है। ऋषि जानता है--काव्य का अंतस्तल, काव्य को अंतराया।
साधारण कविता तो बस देह मात्र है, जिसमें प्राणों का आवास नहीं। भक्तों की कविता सप्राण है; श्वास हुई कविता है। इसलिए ऐसा भी हो सकता है कि भक्तों को कोई कवि ही न माने, क्योंकि न उन्हें फिक्र है भाषा की--न छंद मात्रा की, न व्याकरण की। गौण पर उनकी दृष्टि नहीं है। जब भीतर प्राणों का आविर्भाव हुआ हो, तो कौन चिंता करता है--अलंकरण की!
महावीर जैसा व्यक्ति नग्न भी खड़ा हो, तो परम सुंदर है। शरीर को तो हम सजाते ही इसीलिए हैं, कि हमें उसके सौंदर्य का भरोसा नहीं है। कुरूप व्यक्ति ही शरीर को सजाते हैं, सुंदर व्यक्ति तो जैसा है, वैसा पर्याप्त है।
देखते हैं, वृक्षों को कोई चिंता नहीं--सजने की। न पशु-पक्षियों को सजने की कोई चिंता है। चांदत्तारों पर कौन-सा अलंकरण है? काव्य वहां खुला और नग्न है।
ऋषि तो वही बोल देता है, जैसा उसके भीतर घटा हैं। उसे बांधता नहीं, व्यवस्था में नहीं जुटता। इसलिए बहुत बार ऐसा हो जाता है कि ऋषि को तो कोई कवि ही न मान। ऋषि को जानने के लिए तो तुम्हारे पास भी आंख चाहिए।
शरीर तो अंधे की भी समझ में आ जाता है; आत्मा तो आंखवालों को भी कहां दिखाई पड़ती है।
तो जब मैं मलूकदास को महाकवि कह रहा हूं, तो इस अर्थ में कह रहा हूं कि वहां शायद काव्य का ऊपरी आयोजन भी हो, लेकिन भीतर अनाहत का नाद गूंजा है; भीतर से झरना बहा है।
फिर झरना कोई रेल की पटरियों पर थोड़े ही बहते हैं! जैसी मौज आती है, वैसे बहते हैं। झरने कोई रेलगाड़ियां थोड़े ही हैं। झरने मुक्त बहते हैं।
तो ऋषि का छंद तो मुक्त छंद है। उसकी खूबी शब्द में कम--उसके भीतर छिपे निःशब्द में ज्यादा है। खोल में कम, भीतर जो छिपा है उसमें है। गुदड़ी मत देखना; भीतर हीरा छिपा है, उसे देखना।
तो अकसर महाकवि तो कवियों में भी नहीं गिने जाते। और जिनको कवि कहना भी उचित नहीं, वे महाकवि माने जाते हैं। दुनिया बड़ी अजीब है; यहां तुकबंद कवि हो जाते हैं, महाकवि हो जाते हैं। और आत्मा के छंद को गानेवालों की कोई चिंता ही नहीं करता।
ऐसा ही समझो, जैसे अंधों में कोई काना राजा हो जाए। लोगों के हृदय सूखे पड़े हैं। वहां तुकबंद भी ऐसा लगता है, कि जैसे कोई मोती ले आया। लोग भूल ही गये हैं कि हरियाली क्या होती है। फूल खिलते ही नहीं उनके जीवन में, तो प्लास्टिक के फूल भी असली फूल मालूम होते हैं।
और जहां फूल खिला ही न हो...। सोचो जरा मरुस्थल की, जहां कभी फूल खिला ही न हो, वहां अगर प्लास्टिक का फूल भी कोई रख दे, तो भी मरुस्थल प्रसन्न होगा।
फिर प्लास्टिक के फूल की कुछ खूबियां हैं, जो असली फूल में नहीं होती। प्लास्टिक का फूल टिकता है। असली फूल तो सुबह आया, सांझ गया; अभी आया--अभी आया। असली फूल को तो तिजोड़ी में बंद करके रखा नहीं जा सकता। नकली फूल को तिजोड़ी में बंद करके रख सकते हो, कुछ भी उसका बिगड़ेगा नहीं।
असली फूल पर तो हजार विपदाए हैं; नकली फूल को कोई विपदा नहीं है। नकली फूल को न जानवर चरेंगे, न समय मिटायेगा। असली फूल पर तो हर घड़ी संकट है।
हमारे हृदय ऐसे सूख गये हैं, इसलिए हम तुकबंदियों को कविता समझ लेते हैं। माना कि उन तुकबंदियों में मात्रा, छंद के सब नियम पूरे हो जाते हैं। नियम ही नियम हैं वहां, मर्यादा ही मर्यादा है वहां--व्यवस्था, आयोजन, प्रयास लेकिन भीतर कुछ भी नहीं है। मंदिर खाली है; मंदिर में देवता नहीं है। मंदिर खूब सजा-संवरा है सोने-चांदी से बना है, लेकिन मंदिर में देवता विराजमान नहीं है, सिंहासन खाली है। पर सिंहासन तक तो कोई जाता कहां है! और सिंहासन हमें खाली भी मिले, तो हमारी देवता से कोई पहचान नहीं है। तो हम तो सिंहासन को ही देवता समझेंगे। सोने का होगा, तो उसी को सिर झुका लेंगे।
देवता से पहचान न होने के कारण झूठे देवता पूजे जाते हैं। अंधों के बीच काना राजा हो जाता है। बहरों के बीच में तुम जितने ही मधुर कंठ से गाओ, कौन सुनेगा? बहरे तो उसी को गायक समझेंगे, जो हाथ की मुद्राओं से उन्हें कुछ गा कर बात दे। हाथ की मुद्राओं को ही बहरे समझ पाएंगे। कोकिल कंठ भी उनके लिए अर्थहीन है।
ऐसे हम बहरे हैं। तुकबंद हमें कवि मालूम पड़ते हैं और असली कवि हमें दिखाई भी नहीं पड़ते। असली कवि की व्याख्या ही यही है कि जिसने परमात्मा को जाना हो, जिसने जीवन के परम संगीत को अनुभव किया हो; उस अनुभव से जो बहे, वही महाकाव्य है। बिना अनुभव के जो बहे, वह कितनी ही कविता मालूम पड़े देह देह है--लाश-लाश; निष्प्राण है; श्वास चलती नहीं है। फिर कब्र चाहे तुम संगमर्मर की बना दो, इससे कुछ भी न होगा।
जीवित व्यक्ति झोपड़े में भी है, तो भी बहुमूल्य है; और मरा व्यक्ति संगमर्मर की कब्र में भी हो, तो भी बहुमूल्य नहीं है; कोई मूल्य नहीं है।
मलूकदास की कविता में उनके भीतर के संगीत की धुन है। मलूकदास कविता करने को नहीं किए हैं। कविता बही है; ऐसे ही जब आषाढ़ में मेघ घिर जाते हैं, तो मोर नाचता है। यह मोर का नाचना किसी को दिखाने के लिए नहीं है। यह मोर सरकस का मोर नहीं है। यह मोर किसी की मांग पर नहीं नाचता है। यह मोर किसी नाटक का हिस्सा नहीं है।
जब मेघ घिर जाते, आषाढ़ के मेघ जब इसे पुकारते आकाश से, तब इसके पंख खुल जात हैं, तब यह मदमस्त होकर नाचता है। आकाश से वर्षा होती; नदी-नाले भर जाते; आपूर हो उठते; बाढ़ आ जाती; ऐसी ही बाढ़ आती है--हृदय में, जब परमात्मा का साक्षात्कार होता है। बाढ़ का अर्थ--इतना आ जाता है हृदय में कि समाए नहीं सम्हलता; ऊपर से बहना शुरू हो जाता है। तट-बंध टूट जाते हैं; कूल-किनारे छूट जाते हैं।
बाढ़ की नदी देखी है न; भक्त वैसी ही बाढ़ की नदी है; संत वैसी ही बात की नदी है। फिर बाढ़ की नदी करती क्या है--इतना भाग-दौड़, इतना शोर शराबा--जाकर सब सागर को समेट कर अर्पित कर देती है।
ये मलूकदास के पद बाढ़ में उठे हुए पद हैं; ये बाढ़ की तरंगें हैं; और ये सब परमात्मा की चरणों में समर्पित हैं। ये सब जाकर सागर में उलीच दिए गये हैं।
संतों को मैं महाकवि कहता हूं, चाहे उन्होंने कविता न भी की हो। यद्यपि ऐसा कम ही हुआ है, जब संतों ने कविता न की हो। यह आकस्मिक नहीं हो सकता। सब संतों ने--कम से कम भक्ति-मार्ग के सब संतों ने गाया है। ध्यान मार्ग के संतों ने कविता न भी की हो, क्योंकि उनसे काव्य का कोई भी संबंध नहीं है। लेकिन उनकी वाणी में भी गौर करोगे, तो कविता का धीमा नाद सुनाई पड़ेगा।
बुद्ध ने कविता नहीं की; लेकिन जो गौर से खोजेगा, उसे बुद्ध के वचनों में काव्य मिलेगा। काव्य से वंचित कैसे हो सकते हैं--बुद्ध के वचन! चाहे उन्होंने पद्य की भाषा न बोली हो, गद्य की ही बोली हो, लेकिन गद्य में भी छिपा हुआ पद्य होगा।
पर भक्तों के तो सारे वचन गाये गये हैं।
भक्ति तो प्रेम है; प्रेम तो गीत है--प्रेम तो नाच है। भक्त नाचे हैं; भक्त गुनगुनाए हैं। जब भगवान हृदय में उतरे, तो कैसे रुकोगे--बिना गुनगुनाए? और करोगे क्या? और करते बनेगा भी क्या? विराट जब तुम्हारे आंगन में आ जाएगा, तो नाचोगे नहीं?--नाचोगे ही। यह नैसर्गिक है; स्वाभाविक है। रोओगे नहीं? आनंद के आंसू न बहांओगे? आंसू बहेंगे ही; रोके न रुकेंगे।
इन कविताओं में, इन छोटे-छोटे पदों में मलूकदास के नाच हैं--मलूकदास के आंसू हैं; मलूकदास के हृदय के भाव हैं। इनको तुम पंडित की तरह मत तौलना। इनको तुम--काव्य-शास्त्री की तरह इनका विश्लेषण मत करना। ये विश्लेषण के पकड़ में न आएंगे। इनको तो तुम पीना; इनके साथ तो तुम भी गुनगुनाना और नाचना, तो ही पहचान होगी।
मलूक से नाता जोड़ना हो, तो कुछ कुछ मलूक जैसे हो जाना पड़ेगा, नहीं तो सेतु न बनेगा।
भक्तों का अनुभव यही है कि अस्तित्व संगीत से बना है, नाद से बा है। रोआं-रोआं, अस्तित्व का, निनादित है और कण-कण में गीत छिपा है। भक्तों का यही अनुभव है कि इस जगत की जो मूल-विषय वस्तु है, वह संगीत है। इसलिए भक्तों ने उसे अलग-अलग नाम दिए हैं। किसी ने उसे अनाहत नाद कहा है; किसी ने ओंकार कहा है। लेकिन इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।
इस सारी लीला के पीछे सब तरफ कहीं न कहीं गहरे में आत्यंतिक रूप से संगीत का निर्झर बह रहा है। तुम अगर सुनोगे थोड़े तत्पर होकर--सुनाई पड़ेगा। तुम अगर शांत हो कर थोड़े बैठोगे, तो वृक्ष से गुजरती हवाओं में, भागती हुई नदी की धार में, पक्षियों की चहचहाट में, चांदत्तारों के सन्नाटे में, मनुष्यों की बोली में, बच्चों की किलकिलाहट में--सब तरफ तुम पाओगे: संगीत छिपा है।
संगीत से ही बना है अस्तित्व; तुम बहरे हो, इसलिए सुन नहीं पाते। तुमने कान बंद कर रखे हैं--सिद्धांतों, शास्त्रों, शब्दों से, इसलिए तुम सुन नहीं पाते। अन्यथा चारों तरफ परमात्मा गा रहा है; चारों तरफ परमात्मा नाच रहा है। जिस घड़ी तुम्हें यह समझ आ जाएगी, फिर तुम भी कैसे रुकोगे; तुम भी नाचोगे; तुम भी गाओगे।
तरसती हूं, गीत गाने के लिए
भाव लेकिन मुखर हो पाते नहीं।
रोज ही तो आंख ने देखे सपने
पर मिटी फिर भी नहीं मन की तपन
सुख नहीं अमृत सुखद-शीतलत्तरल
है कहीं इसमें निहित तीखा सरल
है कहीं इसमें निहित तीखा गरल
दर्द के मोती नहीं जब तक मिलें
आंसुओं के हार बन पाते नहीं।
डर लगा जब भी कभी तकदीर से
बांध बैठी पांव खुद जंजीर से
सोचती हूं विवशता भी है भली
दीप बन कर जिंदगी उसमें जली
वक्ष सागर का न जब तक दग्ध हो
गगन पर घन उमड़ लहराते नहीं।
कौन बतलाए अपरिचित पांव को
राह यह जाती व्यथा के गांव को
ताप किरनों का मुझे भाए तभी
फल सौ झर बिखर जाऊं मैं कभी
धूप-छांही रंग पहचानो बिना
जिंदगी के राज खुल पाते नहीं।
स्वर्ण कीमत सिर्फ क्या मुस्कान की
आह है क्या धूलि बस शमशान की
फूल सांसों के बिखेरें गंध जब
क्या उसी को प्यार का दें नाम तब
विरह की भाषा न जब तक सीख लें
अर्थ मिलने के समझ आते नहीं।
जीवन तो काव्य है, लेकिन इस काव्य को समझने की, सुनने की कला तो आनी चाहिए। परमात्मा तो मिल सकता है अभी, लेकिन विरह की भाषा तो आनी चाहिए। तुमने उसे पुकारा नहीं, रोए नहीं।
विरह ही भाषा न जब तक सीख लें, अर्थ मिलने के समझ आते नहीं। तुम रोए नहीं कभी। तुमने कभी हृदय भर के पुकारा नहीं।
दर्द के मोती नहीं जब तक मिलें
आंसुओं के हार बन पाते नहीं
वक्ष सागर का न जब तक दग्द हो
गगन पर घन मोती उमड़ लहराते नहीं
धूप-छांही रंग पहचाने बिना
जिंदगी के राज खुल पाते नहीं।
हम तो डरे डरे जी रहे हैं; हम तो मरे मरे जी रहे हैं। हम तो जंजीरों में अपने को बांध कर बैठ गये हैं। हमने जीना ही बंद कर दिया हैं। हम सिर्फ सुरक्षा की तलाश कर रहे हैं--और सुरक्षा मौत है।
जीवन तो है--असुरक्षा में। जीवन तो है: धूप-छांही रंग पहचाने बिना, जिंदगी के राज खुल पाते नहीं। जीवन तो है--सुख और दुःख में; खोने और पाने में; मिलने और बिछुड़ने में; भटकने और पहुंचने में। जीवन का राज तो खुलता है द्वंद्व की इस दुनिया में निर्द्वंद्व उतर जाने में।
डर कर बैठ गए, पैरों में जंजीर बांध ली कि कहीं भटक न जाए, तो भटक गए; फिर कभी न पहुंच सकोगे। भटकने से जो डरा, वह कभी पहुंचा नहीं। लोग पहुंचने के लिए हजार दूसरों के द्वारों पर दस्तक देनी पड़ती है।
रामानुज के पास एक व्यक्ति आया और कहा कि मुझे परमात्मा से मिला दें। रामानुज ने कहा: भले मानुष, तूने कभी किसी को प्रेम किया? उस आदमी ने कहा: इस झंझट में मैं पड़ा नहीं। प्रेम इत्यादि की बातें छोड़ो; मुझे तो परमात्मा से मिला दो। रामानुज ने कहा: थिर मैं हार गया। अगर तूने कभी प्रेम ही नहीं किया, तो तू प्रार्थना कैसे करेगा? उसने कहा: मनुष्यों को प्रेम करने का परमात्मा की प्रार्थना से क्या लेना-देना? यही तो झंझट है; मनुष्यों का प्रेम ही तो झंझट है। इससे मैं पहले से ही बचता रहा हूं।
कहते हैं: रामानुज की आंखों में आंसू आ गये। रामानुज ने कहा: जिसने मनुष्यों से प्रेम नहीं किया, वह कभी परमात्मा की प्रार्थना भी समझ न पाएगा।
ये मनुष्य तो पाठ हैं। यह तो क ख ग है--प्रार्थना का। यहां बड़े कांटे हैं--माना; और हजार कांटों में कहीं एक छिपा फूल है। यह भी सच है। लेकिन इस फूल को पाने की चेष्टा, इस फूल को जीने की चेष्टा--और इस चेष्टा में हजार-हजार कांटों का चुभ जाना, यही जीवन में गति का उपाय है;  यही चुनौती है। इस चुनौती से कोई उठता है।
भक्त कहते हैं: प्रेम से भागना मत; प्रेम का बढ़ाना बड़ा करना। एक पर प्रेम न रुके; फैलता जाए--अनेक पर फैल जाए--अनंत पर फैल जाए। प्रेम बंधन नहीं है--भक्त कहते है: बंधन--सीमित के साथ प्रेम है। प्रेम बंधन नहीं है--प्रेम अपने में बंधन नहीं है। प्रेम जहां रुक जाता है, वहां बंधन हो जाता है। मेरा प्रेम किसी पर रुक गया और मैंने मान लिया कि सब, इतिश्री हो गई, तो बंधन है।
मेरा प्रेम रुके ना, जिसे मैं प्रेम करूं, उसके पार होता जाए; जिसे मैं प्रेम करूं, वह सीढ़ी बन जाए, और मैं मंदिर की एक सीढ़ी और चढ़ जाऊं; तो तुमने जितना प्रेम किया, उतने ही तुम परमात्मा के करीब पहुंच जाओगे। तुम्हारा प्रेम जितना बड़ा होने लगेगा, उतनी सीढ़ियां तुम पार कर गये। और इसके बिना तुम लाख उपाय करो, तुम्हारे भीतर का गीत न फूटेगा।
तरसती हूं गीत गाने के लिए
भाव लेकिन मुखर हो पाते नहीं।
प्रेम पहली किरण है--परमात्मा की। प्रेम पहली किरण है--समाधि की। प्रेम में छिपा है राज सारा। तुम उतना ही प्रेम मत समझ लेना, जितना तुम जानते हो; प्रेम उससे बहुत बड़ा है। तुमने तो जिसे प्रेम कहा है, वह शायद प्रेम भी नहीं है। शायद प्रेम के नाम पर तुम कुछ और ही धोखा-घड़ी किए बैठे हो।
तुमने प्रेम किया कब? तुम जब प्रेम करने की बात करते हो, तब भी तुमने कभी सच में प्रेम किया? या प्रेम के नाम पर कुछ और करते रहे?-र्-ईष्या है, मत्सर है, द्वेष है, मालकियत है। तुम्हारे प्रेम में बड़ी राजनीति है। तुम्हारे प्रेम में बड़ी कलह है। तुम्हारे प्रेम में कहां संगीत है? कहां अनाहत नाद है?
तुम कभी किसी मनुष्य के हाथ में हाथ लेकर ऐसे बैठे हो कि उस क्षण कोई कलह न हो, छीना-झपटी न हो? कभी एक क्षण को ऐसा हुआ है, जब तुम किसी के पास मौन हो गए हो और तुम्हारे दोनों हृदयों का मौन एक-दूसरे में समाने लगा है? जैसे दो दीए पास आ जाए और उनकी ज्योति एक हो जाए--ऐसा कभी हुआ है? तो फिर प्रेम हुआ है। फिर इसी प्रेम से परमात्मा की पहली खबर पाओगे। इस प्रेम में परमात्मा ने पहली दफा पुकारा। तुम्हें उसकी पहली धुन सुनाई पड़ेगी।
परमात्मा शास्त्रों में खोजे से नहीं मिलता। परमात्मा की सुधि आती है; और सुधि आती है--किसी अनुभव से। और मनुष्य के पास जो निकटतम अनुभव हो सकता है, वह प्रेम का अनुभव है।
माना प्रेम बहुत दूर है--परमात्मा से...। जैसे कि पहली सीढ़ी मंदिर की प्रतिमा से दूर होती है। लेकिन पहली, सीढ़ी पर पैर रख कर दूसरी सीढ़ी, तीसरी सीढ़ी--और धीरे-धीरे तुम मंदिर तक पहुंच जाते हो।
सपनों में, पलकों में, नयनों में, आंसुओं में, सुधि आई।
सपनों में पुलक गई
पलकों में मचल गई
नयनों में छलक गई
आंसुओं में ढलक गई
छलकी सी, ढलकी सी, सुधि आई
अंधियारी बगीया में कोयल सी कूक गई
सुनी दुपहरिया में पीड़ा सी हूक गई
कारी बदरिया में उमड़-उमड़ घुमड़ाई
चांदी की रातों में चितवन सी मूक रह, सुधि आई
कोयल सी, पीड़ा सी, कारी बदरिया सी सुधि आई
मंदिर की देहरी पर
पूजा स्वर लहरी पर
श्रद्धा सी ठहर गई,
सुधि आई
ठहरी सी, गहरी सी, सुधि आई
पतझड़ की पातों में
अनसोई रातों में
अनजाने घाटों पर
अनभूली बातों में
सुधि आई
रातों में, बातों में, सुधि आई
भोर की चिरैया सी आंगन में चहक गई
भटकी पुरवैया सी आंचल में बहक गई
बेले की लड़ियों सी सांसों में महक गई
चांद की जुन्हैया सी प्राणों में लहक गई
सुधि आई
आंगन में चहक गई
आंचल में बहक गयी
सांसों में महक गई
प्राणों में लहक गई
सुधि आई, सुधि आई, सुधि आई।
परमात्मा की सुधि आती है। लेकिन सुधि आए कैसे? स्मरण कैसे हो? याद कैसे आए--शास्त्र से तो नहीं आती। लाख सिर मारो शास्त्र से; सिद्धांत पकड़ में आ जाते हैं; परमात्मा की परिभाषाएं पकड़ में आ जाती हैं; लेकिन सुधि नहीं आती है।
सुधि के लिए कोई जीवंत उपाय चाहिए। प्रेम के अतिरिक्त मनुष्य के पास और उपाय क्या है? और अगर तुम्हारे जीवन में जरा सी प्रेम की छलक आने लगे, तो सब तरफ से खबर आने लगेगी।
अंधियारी बगिया में कोयल सी कूक गई
सूनी दुपहरियां में पीड़ा सी हूक गई।
सब तरफ से आने लगेगी।
भोर की चिरैया सी आंगन में चहक गई
सुनी दुपहरिया में पीड़ा सी हूक गई।
भटकी पुरवैया सी आंचल में बहक गई
बेले की लड़ियों सी सांसों में महक गई
चांद की जुन्हैया सी प्राणों में लहक गई।
हर तरफ से--ये जो बेले की गंध चली आती हवा पर तैरती, इसमें परमात्मा आ जाएगा। तुम्हारे भीतर प्रेम की जरा सी पकड़ चाहिए। यह जो कोयल कभी कुह-कुह किए चली जाती है, इसकी कुहू-कुहू में उसी का नाद आने लगेगा। तुम्हारे भीतर संवेदनशीलता चाहिए। प्रेम तुम्हें संवेदनशील बनाता है। और जो प्रेम में नहीं है, वह कठोर हो जाता, कठिन हो जाता, पथरीला हो जाता। प्रेम तुम्हारी भूमि को नरम बनाता है, उस नरम भूमि में प्राणों का बीज पड़ता है, तो परमात्मा का अंकुरण होता है। इस अंकुरण के बाद ही कोई मलूकदास जैसे गीत गा सकता है।
ये गीत मलूकदास के प्राणों की भेंट हैं। जो परमात्मा ने मलूकदास में दिया है, वह मलूकदास तुम्हें दे रहे हैं। जो परमात्मा में पहुंच कर मलूकदास को मिला है, वह उनके शब्दों पर सवार हो कर तुम तक पहुंच रहा है।
प्रेम बंटता है; प्रेम कभी सिकुड़ता नहीं; जिसे मिलता है, इसे बांटना ही पड़ेगा।
पहला सूत्र:
सब बाजे हिरदे, बजैं, प्रेम पखावज तार।
मंदिर ढूढ़त को फिरै, मिल्यौ बजावनहार।।
सब बाजे हिरदे बजैं...। कहते हैं मलूकदास: सब बाजे हिरदे बजैं। जीवन में जीना संगीत है, जहां-जहां संगीत है, जो-जो संगीत है, उस सब के बजने की व्यवस्था हृदय के भीतर है। सब बाजे हिरदे बजैं...। न तो वीणा की जरूरत है, न मृदंग की। तुम्हारे हृदय में सब बाजो का बाजा है, सब तारों का तार छिपा है। परमात्मा ने तुम्हें दे कर ही भेजा है। इस अनूठी जीवन-यात्रा पर बिना पाथेय के नहीं भेजा है। सब आयोजन करके भेजा है। यह होना ही चाहिए ऐसी ही। मां अपने बेटे को भेजती है किसी यात्रा पर--तीर्थयात्रा पर समझो, तो सब आयोजन कर देती है। राह के लिए पाथेय जुटा कर रख देती है; कलेवे का इंतजाम कर देती है। सब पोटली में बांध देती है। जो-जो जरूरत होगी, उसकी फिक्र कर लेती है।
एक छोटे से स्कूल के स्काउटों का कैम्प था; छोटे-छोटे बच्चे कैंप में गये। जब कैंप में सभी बच्चों के बिस्तर खुलवाए गए, तो एक बच्चे के बिस्तर में छाता भी रखा हुआ मिला। तो पूछा शिक्षक ने कि छाता तो लिस्ट में था ही नहीं! बताया गया था; क्या-क्या चीज लानी है। छाता क्यों? और छाते की कोई जरूरत नहीं है; बरसा अभी होनी ही नहीं है।
वह छोटा सा लड़का खड़ा हुआ, उसने कहा कि सार, आपकी मां थी या नहीं? उस शिक्षक ने कहा, मां से इसका क्या संबंध? उसने कहा, इसका मां से संबंध है। मैं तो लाख सिर पटका, लेकिन मां को तो आप जानते ही हैं? मैंने लाख कहा कि छाते की कोई जरूरत नहीं है। उसने कहा: बेटा कोई फिक्र न कर। रहेगा--काम पड़ जाएगा। और नहीं पड़ा तो घर लौट आएगा। मैंने बहुत समझाया कि लिस्ट में नहीं है, तो उसने कहा: लिस्ट!--मैंने थोड़े ही बनाई! लिस्ट शिक्षकों ने बनाई है शिक्षक को क्या पता!
उस छोटे बच्चे ने कहा: आपकी मां नहीं थी क्या? वही अनुभव आपका कम मालूम पड़ता है, नहीं तो छाता, आप समझ जाते कि क्यों है।
अगर हम इस अस्तित्व से आए हैं--आए ही हैं; और तो वहीं से आने का उपाय नहीं है, तो निश्चित ही सब हमारे भीतर रख दिया होगा; चलते वक्त सब पाथेय जुटा दिया होगा।
हमें कुछ भी कमी नहीं है। अब यह दूसरी बात है कि हम पोटली ही न खोलें। अब यह दूसरी बात है कि हम पोटली में टटोलें ही न। और हम लाख शिकायत करते रहें परमात्मा की; और जो पोटली हमारे पास है, उसे हम देखें भी न कि इसमें क्या रख दिया है।
उस पोटली का नाम ही हृदय है। और हृदय में सब है; जो मनुष्य को चाहिए--सब है। जो कभी भी चाहिए पड़ सकता है, वह सब है। ऐसी कोई स्थिति नहीं है, जिसमें तुम्हें ऐसा अनुभव हो कि परमात्मा ने तुम्हें बिना तैयारी के भेज दिया है।
सब बाजे हिरदे बजैं, प्रेम पखावज तार। प्रेम का संगीत भी वहां बजता है, पखावज--मृदंग भी वहां बजती है; तार--सितार भी वहां बजता है। प्रेम ही असली उपकरण है, फिर शेष सब तो प्रेम के ही रूपांतरण हैं--मृदंग और पखावज, और सितार, और वीणा--वे सब प्रेम के ही रूपांतरण हैं; वे प्रेम की ही अलग-अलग अभिव्यक्तियां हैं।
मंदिर ढूढ़त को फिरै, मिल्यो बजावनहार। और ऐसा ही नहीं है कि तुम्हारे हृदय में सिर्फ वीणा दी है, मृदंग रख दी है; बजावनहार भी वहीं छिपा बैठा है।
तो ऐसा ही नहीं है कि तुम्हारी पोटली में पाथेय बांध दिया है और परमात्मा तुम्हें भूल गया है। तुम्हारी पोटली में परमात्मा भी बैठा है। बजाने के सब उपकरण वहां है और बजाने वाला भी मौजूद है। तुम जरा तलाशो--टटोलो; जरा अपनी गांठ खोलो; जरा हृदय के द्वार-दरवाजे खोलो। सारी साधना इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है कि कैसे हम अपने हृदय की गांठ खोलें।
मंदिर ढूढ़त को फिरै...। कहते मलूकदास: अब मंदिर खोजने की भी कोई जरूरत न रही। मंदिर तो भीतर मिल गया। मंदिर ही नहीं मिला वीणा ही नहीं मिली; वीणा-वादक भी भीतर मिल गया।
इस घड़ी में जब कोई अपने को खोल लेता है, तो नया जन्म होता है--जिसको मैंने द्विज कहा--टवाईम बार्न; एक नया जन्म होता है। पहली बार तुम समझते हो कि तुम अकेले नहीं हो, परमात्मा साथ है। पहली बार तुम समझते हो कि तुम इस पृथ्वी पर अजनबी नहीं हो, यह तुम्हारी है। और पहली बार तुम समझते हो कि अस्तित्व तुम्हारे प्रति विमुख नहीं है। अस्तित्व ने सब तरफ से तुम्हारे प्रति छाया की है; सब तरह से तुम्हें बचाया है; सब तरह से सुरक्षा दी है।
पहली बार पता चलता है कि अस्तित्व तुम्हारा शत्रु नहीं है; लड़ने की जरूरत नहीं है। अस्तित्व तो तुम्हारे प्राणों का प्यारा है और अस्तित्व का प्रेम तुम्हारी तरफ बह रहा है। बस, तुम्हारा प्रेम अस्तित्व की तरफ बहने लगे, तो दोनों का मिलन हो जाए। उस महामिलन में ही भक्त का जन्म होता है। भक्त यानी द्विज।
वर्ष नव,
हर्ष नव,
जीवन उत्कर्ष नव।
नव उमंग,
नव तरंग,
जीवन का नव प्रसंग।
नवल, चाह,
नवल राह,
जीवन का नव प्रवाह।
गीत नवल,
जीवन की रीति नवल।
जीवन की नीति नवल,
जीवन की जीत नवल।
सब नया हो उठता है। नया वर्ष--नयी शुरुआत। तुम फिर से शुरू होते हो। अभी तक तो तुम जैसे जीए हो, वह नाम मात्र का जीना है--वास्तविक जीवन नहीं। अभी तो ऐसे जीए हो, जैसा सागर होने की क्षमता हो और बूंद होकर जीए हो। जैसे विराट होने की क्षमता हो, और सिकुड़-सिकुड़ कर एक छोटे से कारागृह में बंद हो कर जीए हो।
अभी तो ऐसे जीए हो, जैसे बीज--बंद; सब तरफ से बंद; न खिड़की, न द्वार, न दरवाजे। जब कि हो सकता था महा वृक्ष--कि उसके नीचे यात्री ठहरते, विश्राम करते, छाया पाते; थके-हारे पुनर्जीवन पाते; कि पक्षी घोंसले बनाते; कि हवाएं अठखेलियां करतीं; कि सूरज आकर चर्चा करता; कि चांदत्तारे मिलने को उत्सुक होते; कि फूल खिलते; कि फल लगते। विराट वृक्ष हो सकते थे, लेकिन एक बीज की तरह जीए हो अब तक। हो भी नहीं सकते विराट वृक्ष, क्योंकि तुम अभी मिटने को तैयार नहीं।
प्रेम का शास्त्र एक शब्द में कहा जा सकता है; मिटने का शास्त्र, समर्पित होने का शास्त्र। जैसे बीज मिटता है भूमि में, ऐसे जिस दिन तुम मिटने को राजी हो जाते हो--अपने अहंकार के बीज को छोड़ने को, उसी दिन--उसी दिन अंकुरण हो जाता है। फिर देर नहीं लगती; उसी क्षण नया वर्ष आ जाता है।
वर्ष नव,
हर्ष नव,
जीवन उत्कर्ष नव।
नव उमंग,
नव तरंग,
जीवन का नव प्रसंग।
नवल चाह,
नवल राह,
जीवन का नव प्रवाह।
गीत नवल,
प्रीति नवल,
जीवन की रीति नवल
जीवन की नीति नवल,
जीवन की जीत नवल।
उस दिन जीवन जीता। जिस दिन तुम हारे, उस दिन जीव जीता। जिस दिन तुम मरे, उस दिन जन्म हुआ--वास्तविक जन्म हुआ। जिस दिन तुम मिटे, उस दिन परमात्मा आया और तुम्हारे भीतर विराजमान हुआ।
सब बाजे हिरदे बजैं, प्रेम पखावज तार।
मंदिर ढूढ़त को फिरै, मिल्यों बजावनहार।।
करै पखावज प्रेम का, हृदय बजावै तार।
प्रेम की बना लो मृदंग; हृदय का लो सितार।
मनै नचावै मगन ह्वै, तिसका मता अपार।
और मन को नचाओ। सुनते हो: करै पखावज प्रेम का; प्रेम की मृदंग पर पड़ने दो थाप। प्रेम की मृदंग को गूंजने दो। हृदय बजावै तार--छोड़ो हृदय के तार, ताकि वीणा निनादित हो उठे; ताकि सोई वीणा--सदियों-सदियों से सोई वीणा जाग उठे।
संगीत सोया पड़ा है, जरा छेड़ने की बात है। छेड़ भी न सकोगे? वीणा तो दे दी है, लेकिन छेड़ोगे तभी तो जगेगी न। इतना तो कम से कम करो; पोटली तो खोलो।
मनै नचावै मगन ह्वै...। और मन को नाचने दो--प्रेम के इर्द-गिर्द, प्रेम के मृदंग के आसपास। वीणा के साथ-साथ मन को नाचने दो।
बाबा मलूकदास की वीणा गीत की, नृत्य की, संगीत की वाणी है। संगीत, गीत और नृत्य के लिए आह्वान है, चुनौती है। यह वाणी तुम्हें उदास करने को नहीं है; यह वाणी तुम्हें हर्षोंन्मत्त करने को है।
और परमात्मा की राह उदासी से तय नहीं होती; परमात्मा की राह हंसते, मुस्कुराते, नाचते हुए तय होती है। और जिस राह को नाचते हुए तय किया जा सकता हो, उस पर तुम क्यों उदास-उदास चले जा रहे हो।
अकसर ऐसा होता है कि उदास लोग धर्म में उत्सुक हो जाते हैं। तुम मंदिरों में देखो, मस्जिदों में देखो, वहां तुम नाचते हुए लोग शायद ही पाओ; वहां तुम हर्षोंन्मत्त लोग शायद ही पाओ, जिन्होंने प्रेम की मृदंग बना ली हो, और हृदय की वीणा बना ली हो, और मन के नर्तक को मुक्त कर दिया हो--वहां तुम्हें ऐसे लोग शायद ही मिलें। वहां तुम्हें मिलेंगे मुरदे, मरने को तत्पर, या मर ही चुके! यहां लोग आते हैं, तो स्वभावतः इसी आशा में आते हैं कि जैसे और आश्रम हैं, ऐसा आश्रम यह भी होगी। उनको बड़ी बेचैनी हो जाती है। मेरे पास कुछ लोगों ने आ कर कहा भी--कि हम तो सोचते थे कि जैसा आश्रम होना चाहिए...। उदासीन...! मगर नाच, गीत, गान, प्रेम का ऐसा प्रफुल्ल भा, स्त्री-पुरुष साथ-साथ नाचते हुए, कि हाथ में हाथ डाले हुए, कि आलिंगन करते हुए--यह क्या हो रहा है?
वे खुद मर गये हैं; वे दूसरों को भी मारना चाहते हैं। वे खुद मुरदा हो गये हैं; उनकी जीवन-धारा सूख गई है; वे दूसरे की भी कलियों को खिलते देखना नहीं चाहते। सूखा वृक्ष, जैसे नये उमगते हुए अंकुरों को कहता हो: क्या रखा है। इसमें? विरागी बनो।
भक्त वैराग्य भी भाषा नहीं बोलता। भक्त कहता है: विराट रागी बनो; विराट से राग बनाओ। अनासक्त नहीं--परमात्मा से आसक्ति जुटाओ। और तब अनासक्ति आती है; व्यर्थ से अनासक्ति है--सार्थक से नहीं। तब धीरे-धीरे तुम उठने लगते ऊपर।
अभी तुम नाचते हो, गीत गाते हो, स्वभावतः तुम्हारा नाच और तुम्हारा गीत उसी तल पर होगा, जहां तुम हो। लेकिन अगर नाच चलता रहा, तो नाच तुम्हारा तल बदल देगा। अगर नाच में तुम डूबने लगे, तो तुम बदलने लगोगे। डूबने से कोई बदलता है। क्षण-भर को भी मिट गये अगर--नृत्य करते-करते, तो उस क्षण भर में ही तुम्हारी सीमा विराट हो जाएगी। एक क्षण को तुम्हारे भीतर परमात्मा झांकेगा।
जब नर्तक मिट जाता है और नृत्य ही रह जाता है, तब घटना घटती है--क्रांति की घटना घटती है।
यहां मुरदों के लिए तो जगह नहीं है; मुरदों के लिए कब्रिस्तान है।
और आश्रम का अर्थ उदासीनता नहीं है। आश्रम शब्द का अर्थ होता है: विश्राम का स्थल। थके-हारे तुम आए हो जीवन से--उदास, पीड़ित, परेशान; जहां तुम जाते हो जाओ; जहां तुम फिर से सीख लो; फिर से तुम्हारे पैरों में गति आ जाए; और फिर से तुम्हारे प्राणों में ध्वनि आ जाए, जहां से तुम फिर नवल उत्साह ले सको, उमंग ले सको।
करै पखावज प्रेम का, हृदय बजावै तार।
मनै नचावै मगन ह्वै, जिसका मता अपार।।
और कहते मलूकदास: उसका ही मत अपार है, जो तुम्हारे नृत्य से--गीत और गाने से भर दे। उसका ही मत अपार है; उसके ही मत में अनंत की संभावना है, विराट की संभावना है, विराट की संभावना है, जो तुम्हारे जीवन को नए-नए वसंतो से भर दे।
सदगुरु अगर आषाढ़ के मेघों की तरह तुम्हारे ऊपर न घिर जाए और तुम्हारा मन-मोर नाच न उठे, तो सदगुरु नहीं।
पुरवैया गा उठी, प्रकृति का
अंचरा डोल रहा
उमड़ा प्यार गगन के हिय में
बदरा बन बरसा
प्रेमाकुल भू ने नदियों की
बांह बढ़ा परसा
दूर कहीं बंसी की धुन सुन
कजरा डोल रहा
प्रकृति का अंचरा डोल रहा
लहरों ने इकतारा छेड़ा
कूकी कोयलिया
सजी लताएं, बजी गांव की
कंवारी पायलिया
अमराई का हौले-हौले
जियरा डोल रहा
प्रकृति का अंचरा डोल रहा
बुंदियों का दरपन ले कलियां
रूप संवार रहीं
पात-पात पर बहार-परियां
तन-मन वार रहीं
फुलवा ढंका धरा का हरियर
घघरा डोल रहा
घर नाची राधा खेतों में
झूमा सांवरिया
द्वारे हंसा नीम, पनघट पर
छलकी गागरिया
अंगना महका, मैना फुदकी
पिंजरा डोल रहा
प्रकृति का अंचरा डोल रहा
पुरवैया गा उठी, प्रकृति का
अंचरा डोल रहा।
धर्म वसंत है, मधुमास है। धर्म परम आनंद का उत्सव है। लेकिन तुम चाहो, तो उत्सव में भी उदास बने रहे सकते हो। तुम चाहो, तो उत्सव में भी अछूते-अछूते बने रह सकते हो।
तुम अगर डूबना न चाहो, तो कोई तुम्हें डुबा न सकेगा। परमात्मा भी तुमसे हारा। गाए जाता; गुनगुनाए जाता; लेकिन तुमने जिद्द बांध रखी है, कि हम आंख उठा कर देखेंगे।
चारों तरफ परमात्मा का शाश्वत नर्तन चला है, लेकिन तुम भी खूब!--कि तुम अपनी उदासी में घिरे बैठे हो! तुमने घूंघट मार लिया है; तुम देखते ही नहीं, क्या हो रहा है चारों तरफ!
करै पखावज प्रेम का...। देखना शुरू करो। प्रेम की मृदंग बनाओ। चलो, मनुष्यों के लिए ही सही--प्रेम की मृदंग बनाओ पहले। चलो, पौधों-पक्षियों के लिए ही सही--बनाओ तो सही। आज आदमी के लिए बजेगी मृदंग--बजना आ जाए एक दफा, तो परमात्मा के लिए बजने में कितनी देर लगेगी? आज शायद तुम जैसे ही दूसरे मनुष्यों के लिए बजेगा तुम्हारे हृदय का तार। बजे तो; एक दफा यह तो समझ में आ जाए कि हृदय का तार बजता है; किसी बहाने बजे; सब बहाने उचित हैं। बज जाए एक बार, तो फिर तुम रुक न सकोगे। और जब साधारण मनुष्यों के लिए बज कर इतना आनंद मिलता है, तो परमात्मा के लिए बज कर कितना आनंद न मिलेगा।
एक बार यह गणित तुम्हारे खयाल में उतर जाए, फिर तुम रुक न सकोगे। और आगे--और आगे तुम्हारा तार तुम्हें खींचे ले चलेगा।
मनै नचावै मगन ह्वै, तिसका मता अपार। मलूकदास कहते हैं: उसका ही मत अपार है, उसको ही धर्म की प्रतीति हुई है, जो तुम्हारे प्रेम की मृदंग बना दे और जो तुम्हारे हृदय को सितार बना दे, और जो तुम्हारे मन का नाच सिखा दे।
ऐसे थोड़े से दीवाने दुनिया में बढ़ते रहें, तो परमात्मा बहुत दूर नहीं है।
जो तेरे घट प्रेम है, तो कहि कहि न सुनाव।
अंतरजामी जानि है अंतरगत का भाव।।
और कहते मलूकदास: यह कह कर मत सुनाओ--कि मुझे बड़ा प्रेम है, मुझे बड़ा प्रेम है, मुझे बड़ा प्रेम है। कहने की बात नहीं है; नाचो। कहने की बात नहीं है--जीओ। कहने की बात नहीं है--हो जाओ प्रेम। परमात्मा पहचानेगा। अंतरजामी जानि है, अतंतरगत का भाव।
लेकिन क्या करते हैं; लोग कहते हैं; और जो कहते हैं, ठीक उससे विपरीत करते हैं। और जो कहते हैं, ठीक उससे विपरीत होते हैं। मंदिर में जाकर तुम भी कह आते हो कि परमात्मा, मुझे आपसे बड़ा लगाव है; कि मुझे आपको आने की बड़ी चाह है; लेकिन तुमने कभी देखा; तुम्हारे शब्द कैसे झूठे हैं। ओठ से भर निकल रहे हैं, हृदय से तो नहीं आ रहे हैं।
तुमने कभी देखा: तुम परमात्मा तक को धोखा देने में लगे हो! आदमी को धोखा देते-देते तुम इतने कुशल हो गये कि अब तुम परमात्मा को भी धोखा देने की चेष्टा कर रहे हो! तुम सच में पाना चाहते हो?
तुम पाने के लिए क्या कर रहे हो? तुमने पाने के लिए कौन सा आयोजन किया है? कौन सी यात्रा के लिए तुम तैयार हुए हो? तुमने पाने के लिए क्या खोने की तैयारी की है?
नाव तो बंधी है किनारे से। और खूंटी से तुम नाव को कस कर बांध रहे हो और कहते भी चले जाते हो: मुझे दूसरे पार जाना है! कि मैं आना चाहता हूं दूसरे पार। हे प्रभु, कब कृपा होगी। और साथ में खूंटी ठोक रहे हो; नाव को कस कर बांध रहे हो!
 कहते तो हो: परमात्मा को पाना है, लेकिन कोशिश धन को पाने की करते हो--परमात्मा को पाने की नहीं। कहते कुछ; करते कुछ; होते कुछ, ऐसे झूठ से जीवन भरा है; ऐसी बेईमानी से जीवन भरा है।
तो इसलिए कहते हैं मलूकदास: जो तेरे घटे प्रेम है, तो कहि कहि न सुनाव। अब उस कहने की कोई जरूरत नहीं है। उसे प्रकट होने दो; वह तो अंतरर्यामी है, वह तो जान लेगा, वह तो पहचान लेगा। वह तो तुम्हारे हृदय के अंतस्तल में बैठा हुआ है, उसे पता न चलेगा!
जब तुम्हारा मन नाचेगा--मगन हो कर और तुम्हारी वीणा बजेगी हृदय की और प्रेम की मृदंग बजाओगे, तो उसे सुनाई न पड़ेगा? परमात्मा बहरा नहीं है।
कबीर ने कहा है कि मुल्ला चिल्लाता है--मस्जिद पर खड़े हो कर; जोर से चिल्लाता है, तो कबीर ने कहा है; क्या बहरा हुआ खुदाय! क्या तुम्हारा खुदा बहरा हो गया है, जो इतने जोर से चिल्ला रहे हो! सुनता नहीं तुम्हारा खुदा? सदा तो मौन ही सुन लेता है--शब्द की बात ही नहीं है। शब्द तो आदमी आदमी के बीच संवाद का उपाय है। परमात्मा और आदमी के बीच तो शब्द की कोई जरूरत नहीं है; वहां तो निःशब्द , वहां तो मौन काफी है। मौन ही वहां भाषा है।
तो तेरे घट प्रेम है, तो कहि कहि न सुनाव। इसमें बड़ा मनोवैज्ञानिक सत्य है। अकसर ऐसा होता है...तुमने जाना होगा, तुमने जीवन में अनुभव भी किया होगा; तुम्हारा जब प्रेम नहीं होता और तुम बताना चाहते हो कर्तव्यवश कि प्रेम है, तो तुम कह कह कर बताते हो।
पति पत्नी से बार बार कहता है--कि मुझे तुझसे बड़ा प्रेम है। अमेरिका के एक बहुत प्रभावशाली विचार डेल कारनेगी ने तो अपनी किताबों में लिखा है कि चाहे प्रेम हो या न हो, मगर पति को कहना ही चाहिए दिन में दस-पचीस बार कि मुझे तुमसे बहुत प्रेम है। इससे दोनों के बीच नरमी बनी रहती है। इससे दोनों के बीच टकराहट की संभावना कम रहती है।
तुम कभी इसका निरीक्षण किया कि तुम जब कहते हो बार-बार कि मुझे प्रेम है, तो शायद तुम इसीलिए कहते हो कि अब है तो नहीं। होता, तब तो कहने की जरूरत भी नहीं थी; वैसे ही प्रकट होता था। तो तुम कहते भी नहीं थे। तब तुम घर आते थे और पत्नी को पता चल जाता था कि तुम उसी के लिए आते हो। तब तुम घर आ भी नहीं पाते थे, द्वार पर दस्तक देते थे और पत्नी भागी आती थी--और जानती थी कि तुम उसी के लिए द्वार पर दस्तक दिए हो। तब तुम्हारी आंखें कहती थीं; तुम्हारा रोआं-रोआं कहता था; तुम्हारा उठना-बैठना कहता था। तुम जब पत्नी की तरफ देखते थे, तो पत्नी जानती थी; तुम उसका हाथ हाथ में लेते थे, तो जानती थी। प्रेम सब कह देता था; कहने की कोई जरूरत न थी।
लेकिन जब से वह खो गया, तब से तुम थोथे शब्दों का सहरा लिए हो। अब इन सहारों से तुम छिपा रहे हो, उस बात को, जो खो गई।
प्रेम की प्राथमिक घड़ियों में प्रेमी एक दूसरे से बहुत नहीं कहते कि मुझे तुझ में प्रेम है। जब प्रेम जा चुका होती है, और जब समझ में आ जाता है कि अब प्रेम तो बचा नहीं; पुराने आश्वासन, पुराने कहे गए वचन, उनसे पैदा हुए बंधन--अब क्या करें! अब किस तरह इस बात को चलाए रखें; तो प्रेम है--इन बातों से आदमी कहने लगता है।
यह तुमने खयाल किया कि जब प्रेमी प्राथमिक प्रेम की लहर में होते हैं, तो कम बोलते हैं; चुप बैठते हैं। हाथ में हाथ लिए होते हैं; गले में हाथ डाले होते हैं। चुप बैठते हैं।
पति पत्नी चुप जरा भी नहीं बैठते। अब तो अगर चुप रहेंगे, तो पता चल जाएगा कि प्रेम समाप्त हो गया। अब तो भाषा और वाणी से, कुछ भी बात करके...।
पति पत्नियों की बातों में...अनेक घरों में मेहमान होता रहा हूं, तो सुनता रहा हूं। व्यर्थ की बातें! पति भी जानता है कि कुछ बात करने को बचा भी नहीं है। पत्नी भी जानती है--कुछ बात करने को बचा नहीं है। लेकिन अगर बात न करें, तो वह खालीपन भारी हो जाता है।
दिन भर के बाद पति आए, और कुछ बात न करे...। दिन भर पत्नी ने प्रतीक्षा की और फिर सांझ पति आए और बात न हो कुछ, तो ऐसा लगता है कि अब कुछ बचा नहीं। बीच में कोई सेतु नहीं रहा। तो कुछ बात करते हैं। कुछ भी बहाने की, व्यर्थ की, जिसको करी भी नहीं है, खोज खोज कर पति पत्नी एक दूसरे से कुछ बात करते हैं--मोहल्ले-पड़ोस की। थोड़ी-बहुत बात करके ऐसा लगता है--अब भी कुछ संबंध बना है; शब्दों के सहारे थोड़ा सा संबंध का धोखा और भ्रम कायम रहता है।
पति पत्नी अकेले ज्यादा देर नहीं रह पाते।
मेरे एक मित्र पचास वर्ष के हो गए; पत्नी भी कोई अड़तालीस वर्ष की है; धनपति है। तय कर लिया; मेरी बात उन्हें जंची--कि अब बहुत हो गया, अब कोई धंधा नहीं करेंगे। अब विश्राम करेंगे। हिम्मतवर आदमी हैं। जिस दिन मुझसे यह कहा, उसी दिन उन्होंने दुकान भी जाना बंद कर दिया। कह दिया मुनीमों को कि सब काम समेट लो। साल छह महीने में सब निपटा दो। मैं तो समाप्त हो गया, लेकिन अब तुम निपटा डालो। अब यह काम मुझे करना नहीं है।
लेकिन उस रात मेरे पास आए और उन्होंने कहा: एक बात है। काम छोड़ने में तो कोई झंझट नहीं है, लेकिन अब हम पति-पत्नी दोनों अकेले पड़ जाएंगे, तो भारी होगा। मैं काम में उलझा रहता हूं, घड़ी दो घड़ी को मिलते हैं, तो कुछ बातचीत कर ली; ठीक है। लेकिन अब चौबीस घंटे घर में रहूंगा। बात करने को कुछ नहीं है, सालों से नहीं है। काम चलो चले जाते हैं। दुकान छोड़ने में मुझे जरा अड़चन नहीं; वह तो मैंने छोड़ दी आपकी बात मान कर, अब? अब क्या होगा? आप यही रुक जाए: मेरे घर ही रहें। हम आपकी सब फिक्र करेंगे। आप रहेंगे, तो सब ठीक रहेगा: अगर आप न रहते हों, तो फिर मुझे किसी मित्र को निमंत्रित करना पड़ेगा कि वह यहां आकर मेरे पास रहे। हम दोनों अकेले छूट जाएंगे, तो बहुत भारी हो जाएगा। चुपी गहरी होने लगेगी और ऊपर बोझ पड़ने लगेगा और दबाव होने लगेगा।
मैंने कहा कि रुको। अभी तो मैं दो-चार दिन हूं।
दूसरे तीसरे दिन पत्नी ने भी मुझे कहा कि और सब तो ठीक है कि मेरे पति को आपने छुटकारा दिलवा दिया; मैं भी खुश हूं। करने की कोई जरूरत न थी; व्यर्थ दौड़-धूप किए रहते थे। लेकिन अब हमारा क्या होगा? अब हम दोनों एक दूसरे के साथ पड़ जाएंगे!
पढ़ी-लिखी महिला हैं। वे अपने काम में रहते हैं; मैं अपने काम में रहती हूं; थोड़ी बहुत देर के लिए मिले, तो ठीक है। लेकिन अब चौबीस घंटे तक दूसरे के साथ...और अब हम काफी दिन एक दूसरे के साथ रह लिए हैं--तीस साल; अब कुछ बचा नहीं है। अब तो सिर्फ पुरानी एक याददाश्त है। अब प्रेम की कोई नई कोंटले नहीं फूटतीं। इच्छा भी नहीं है कि फूटें। लेकिन पुराना धोखा तो बना रहे; जो चलता है, वैसा शांति से चलता रहे। जीवन तो बीत गया। अब ये जो थोड़े दिन आखिर के बचे हैं; ये बोझिल न हो जाए।
मुझे उनकी बात समझ में पड़ी।
एक मित्र को राजी कर लिया हूं, वे उनके पास रहने लगे हैं।
कठिनाई है। जब दो व्यक्तियों के बीच प्रेम जा चुका हो, तो फिर शब्दों के सिवाय कोई रास्ता नहीं रह जाता।
अगर भक्त सच में परमात्मा के प्रेम में है, तो चुप आकाश की तरफ देखता काफी होगा। चुप आंख बंद करके अंतर आकाश की तरफ देखना काफी होगा। हां, नाचना हो, तो नाचना। गीत गुनगुनाना हो, तो गुनगुनाना। मृदंग बजाना हो, तो बजाना। सितार छेड़नी हो तो छेड़ना। कुछ करना हो, तो चुप रह जाना; सन्नाटे की सितारे में डूब जाना।
मगर शब्दों की कोई जरूरत नहीं है।
जो तेरे घट प्रेम है, तो कहि न सुनाव।
अंतरर्यामी जानि है, अंतरगत का भाव।।
चैत की बयार बहे, नाचे अमराई रे
मन-मृदंग पर सुधि ने, थाप सी लगाई रे।
प्राण के मंजीर बंधे, सांसों की डोर में
मान मनुहारों की ग्रंथियां हैं छोर में
धड़कनों की राधिका मुरली सुन आई रे
चैत की बयार बहे, नाचे अमराई रे।
कल्पना की अल्पना, चाहों के आंगन में
चित्त के चौबारे पर, नयन-दीप साधन में
आस की अंगुरियों ने बाती उकसाई रे
चैत की बहार बहे, नाचे अमराई रे।
पलकों से छान कोई, सोम सुधा पी आए
अलसा के गीतों की, बगिया में से आए
जैसे दबी बांह पर रेख उभर आई रे
चैत की बयार बहे, नाचे अमराई रे।
रंगी सहालग में, भावना की लगन चढ़ी
पन्ने की थाली में धरती ले पियर खड़ी
न्हाई धोई दुलहन सी याद निखर आई रे
चैत की बहार बहे, नाचे अमराई रे।
जब प्रेम की बयार बहती है तो तुम नाचते हुई अमराई हो जाओगे। कुछ कहने को नहीं; कुछ बताने को नहीं; बोलने को नहीं; कुछ जताने को नहीं। तुम्हारा हृदय ही तुम्हारा निवेदन होगा। तुम ही तुम्हारे निवेदन होओगे।
माला जपों न कर जपों, जिभ्या कहों न राम।
सुमिर मेरा हरि करै, मैं पाया विसराम।।
जब प्रेम की बयार बहती है तो तुम नाचती हुई अमराई हो जाओगे। कुछ कहने की नहीं; कुछ बताने को नहीं; बोलने को नहीं; कुछ जताने को नहीं। तुम्हारा हृदय ही तुम्हारा निवेदन होगा। तुम ही तुम्हारे निवेदन होओगे।
माला जपों न कर जपों, जिभ्या कहों न राम।
सुमिरन मेरा हरि करैं, मैं पाया विसराम।।
बड़ा अनूठा सूत्र है--अनूठे से अनूठे सूत्रों में एक। सिर्फ मलूकदास जैसा दीवाना कोई ऐसी बात करने की हिम्मत कर सकता है। परमात्मा के जो बिलकुल हृदय में विराजमान हो, वही ऐसा कह सकता है।
माला जपों, न कर जपों...। न तो माला जपता हूं भीतर, न हाथ में माला फिराता हूं। जिभ्या कहों न राम...। कहते हैं: जीभ से राम तक नहीं कहता। क्या कहना! जीभ से क्या कहना? जीभ के कहे कुछ होगा? जीभ ही मरणधर्मा है, तो जीभ से जो निकलेगा, वह भी मरणधर्मा होगा। जीभ क्षण-भंगुर है; कल मिट्टी में पड़ी होगी; धूल में खोज जाएगी; कि अर्थी पर जलेगी। तो जिस जीभ का कोई शाश्वत जीवन नहीं है, उससे शाश्वत का नाम तो कैसे उठेगा।
जीभ से जिसका जन्म हुआ, वह जीभ से ज्यादा मूल्यवान नहीं होगा। इसलिए जिभ्या कहों न राम--जीभ से नहीं कहता राम।
राम कहने की चार गहराइयां हैं--चार तल हैं। एक तल: जोर से जीभ से कहो--राम-राम-राम, जैसा अकसर लोग कहते हैं। वह सबसे ओछा तल है। फिर दूसरा तल है: ओठ बंद रहें, जीभ भी न हिले, और भीतर ही भीतर कहो: राम-राम-राम। यह पहले से तो गहरा है, लेकिन बहुत गहरा अभी भी नहीं। अभी भी शब्द का उच्चार है।
फिर तीसरा एक तल है: तुम कहो ही मत; सिर्फ भाव रहे--राम-राम-राम। कहो ही मत; मात्र भाव रहे। यह दूसरे से भी गहरा है। लेकिन अभी भी भाव तो है। चौथी बात है कि भाव भी न रह जाए। तुम एकदम शून्य हो गये। इस चौथी दशा मग अपूर्व घटना घटती है। इस चौथी दशा को नानक ने कहा--अजपा जाप। जाप तो हो रहा है, लेकिन अब कोई जाप भी नहीं हो रहा है--अजपा जाप। भाव भी नहीं रह गया। ऐसी घड़ी अपूर्व घटना घटती है: सुमिरन मेरा हरि करैं, मैं पाया विसराम।
कहते हैं मलूकदास: अब भगवान ही मेरा स्मरण कर रहे हैं, अब मैं क्या करूं! मैंने तो विश्राम पा लिया।
माला जपों न कर जपों, जिभ्या कहों न राम।
सुमिरन मेरा हरि करैं, मैं पाया विसराम।।
मैं तो छुट्टी पा गया। मैंने तो विश्राम ले लिया। अब तो बड़े मजे की बात घट रही है: सुमिरन मेरा हरि करैं...भगवान कह रहे हैं: मलूक, मलूक।
कबीर ने भी ऐसी बात कही है, कि मैं खोजता फिरता था; चिल्लाता फिरता था। नहीं मिले तुम। और अब एक ऐसी हालत आ गई है कि न मैं खोजता हूं, न मैं चिल्लाता हूं। तुम मेरे पीछे लगे फिरते हो, कहते हो--कबीर--कबीर। हरि लागे पीछे फिरैं, कहत कबीर कबीर।
जब मैं खो जाता है, जब मैं शून्य हो जाता है, तो तुम्हें सुनाई पड़ता है कि परमात्मा सदा से ही पुकार रहा था; यह कोई आज की थोड़े ही बात है; यह सनातन है। वह सदा से तुम्हें पुकार रहा था। लेकिन तुम इतने शब्दों से भरे थे, तुम इतने कोलाहल से भरे थे कि उसकी धीमी सी पुकार सुनाई नहीं पड़ती थी। सुमिरन मेरा हरि करैं, मैं पाया विसराम।
ऐसी घड़ी में तुम्हारे जीवन में एक सुगंध आएगी। ऐसी घड़ी में तुम्हारे जीवन में एक ज्योति प्रकट होगी। अब तुम तो रहे ही नहीं; अब तुम तो पारदर्शी हो गये। अब तो तुम्हारे भीतर दीप्ति जलेगी प्रभु की। अब तो तुम्हारा उठना-बैठना सभी स्मरण हो गया। अब जन्म की तो बात छोड़ो, अब मौत भी द्वार पर आकर खड़ी होगी, तो भी तुम गीत गुनगुनाओगे, क्योंकि अब मौत कैसी!
ऐसी क्या बात है, चलता हूं, अभी चलता हूं
गीत एक और जरा झूम के गा लूं तो चलूं।
मौत भी द्वार पर खड़ी हो, तो भी तुम कहोगे:
ऐसी क्या बात है, चलता हूं, सभी चलता हूं
गीत एक और जरा झूम के गा लूं तो चलूं।
भटकी-भटकी है नजर, गहरी-गहरी है निशा
उलझी-उलझी है डगर, धुंधली-धुंधली है दिशा
तारे खामोश खड़े, द्वारे बेहोश पड़े
सहमी-सहमी है किरन, बहकी-बहकी है उषा
गीत बदनाम न हो, जिंदगी शाम न हो
बुझते दीपों को जरा सूर्य बना लूं तो चलूं
ऐसी क्या बात है, चलता हूं, तभी चलता हूं
गीत एक और जरा झूम के गा लूं तो चलूं।
बीन बीमार और टूटी पड़ी शहनाई है
रूठी पायल ने न बजने की कसम खाई है
सब के सब चुप न कहीं गूंज, न झंकार कोई
और यह जब कि आज चांद की सगाई है
कहीं न नींद यहां, गंगा कि मौत बन जाए
सोई बगिया में जरा शोर मचा लूं तो चलूं।
ऐसी क्या बात है, चलता हूं, अभी चलता हूं
गीत एक और जरा झूम के गा लूं तो चलूं।
बाद मेरे जो यहां और हैं गानेवाले
स्वर की थपकी से पहाड़ों को सुलाने वाले
उजाड़ बागों-बियाबान सुनसानों में
छंद की बंध से फूलों को खिलाने वाले
उनके पांव के फफोले न कहीं फूट पड़ें
उनकी राहों के जरा शूल हटा लूं तो चलूं।
ऐसी क्या बात है, चलता हूं, अभी चलता हूं
गीत एक और जरा झूम के गा लूं तो चलूं।
वे जो सूरज का गरम भाल खड़े चूम रहे
वे जो तूफान में किश्ती को लिए घूम रहे
भरे भादो की उमड़ती हुई बदली की तरह
वे जो चट्टान से टकराते हुए झूम रहे
नए इतिहास की बाहों का सहारा लेकर
तख्तेत्ताऊत पै उनको बिठा लूं तो चलूं।
ऐसी क्या बात है, चलता हूं, अभी चलता हूं
गीत एक और जरा झूम के गा लूं तो चलूं।
यह जलाती हुई कलियों की शराबी चितवन
गीत गाती हुई पागल की नटखट रुनझुन
यह कुएं, ताल, यह पन घट, यह त्रिवेणी, संगम
यह भूवन, भूमि अयोध्या, यह विकल वृंदावन
क्या पता स्वर्ग में फिर इनका दरस हो कि न हो।
धूल धरती की जरा सिर पर चढ़ा लूं तो चलूं।
ऐसी क्या बात है, चलता हूं, अभी चलता हूं
गीत एक बौर जरा झूम के गा लूं तो चलूं।
फिर तो मौत भी एक गीत का ही अवसर है। गीत एक और जरा झूम कर गा लूं तो चलूं। जीवन तो फिर गीत है ही, मृत्यु भी गीत है। फिर सुख तो गीत है ही--दुःख भी गीत है। फिर सफलता तो गीत है ही--असफलता भी गीत है। फिर सारे जीवन का अर्थ गीतमय है।
इस गीतमय जीवन का हमने संतत्व कहा है। संत का अर्थ है: अहर्निश जिसके भीतर गीत गूंज रहा हो; अकारण जिसके भीतर संगीत गूंज रहा हो।
सब बाजे हिरदे बजैं, प्रेम पखावज तार।
मंदिर ढूढ़त को फिरै, मिल्यों बजावनहार
माला जपों न कर जपों, जिभ्या कहों न राम।
सुमिरन मेरा हरि करैं, मैं पाया विसराम।।
जेती देखै आतमा तेते सालिगराम।
बोलनहारा पूजिये, पत्थर से क्या काम।।
और कहते हैं मलूकदास: जब ऐसा गीत तुम्हारे प्राणों में बजने लगेगा, जेती देखै आत्मा, तेते सालिगराम। तब तुम जहां भी आत्मा को देखोगे, जहां भी जीवन को देखोगे, वहीं तुम्हें परमात्मा दिखाई पड़ेगा। वृक्षों में और पहाड़ों में, पक्षियों में और पशुओं में और मनुष्यों में और स्त्रियों में--जहां जहां तुम्हें जीवन दिखेगा जेती देखै आत्मा, तेते सालिगराम; उतने ही तुम्हें परमात्मा दिखाई पड़ेंगे। हर देह मंदिर है, और देह में दीया जल रहा है। आंख हो देखनेवाली, तो सिवाय परमात्मा के और कोई भी नहीं है। वही उपस्थित है; सारी उपस्थिति उसकी उपस्थिति है।
जैती देखै आत्मा, तेते सालिगराम।
बोलनहारा पूजिये, पत्थर से क्या काम।।
और कहते मलूकदास: पत्थर का क्या पूजना मूर्ति को क्या पूजना; बोलनहारा पूजिए--जो बोल रहा, जो जीवंत है, जो देख रहा है, जो सुन रहा, जो स्वाद ले रहा...। जीवन परमात्मा का पर्यायवाची है; जीवन ही परमात्मा है।
परमात्मा की तुम्हारी धारणा वैसी ही भ्रांति है, जैसी तुम्हारी और धारणाएं भ्रांत हैं। तुम भ्रांत हो, तो तुम्हारी सारी धारणाएं भ्रांत हैं।
परमात्मा की जब तुम याद करते हो, तो तुम्हें क्या याद आता है? कभी दशरथ के पुत्र राम, कभी कृष्ण, कभी बुद्ध, कभी महावीर...। तो तुमने परमात्मा को भी बहुत संकीर्ण बना लिया। या परमात्मा की तुम्हारी कोई धारणा उठती है, तो तुम्हें याद आता है--मंदिर का भगवान, कि मस्जिद का, कि गिरजे का कि गुरु द्वारे का। तुमने भगवान की धारणा बड़ी छोटी बना ली।
भगवान तो सारे जीवन का नाम है। जीवंतता का नाम--भगवत्ता। इन वृक्षों में जो हरा है, और इन वृक्षों में जो उठा है और जगा है, इन वृक्षों में जो फूल की तरह खिला है, वह कौन है? इन पक्षियों के कंठों में जो गीत की तरह उठा रहा है, वह कौन है? चांदत्तारों में जो चल रहा है, वह कौन है? तुम्हारे भीतर जो सांस ले रहा है...अपने बच्चे की आंखों में झांक कर देखो, वहां जो बैठा टकटकी से जो तुम्हें देख रहा है, वह कौन है?
परमात्मा ही जीवन है; जीवन ही परमात्मा है। यह समीकरण याद रहे, तो फिर न मंदिर जाने की जरूरत, न मस्जिद जाने की जरूरत। फिर न वेद पढ़ने की जरूरत, न कुरान पढ़ने की जरूरत। फिर तो जो चारों तरफ जीवन फैला है, इसके प्रति--जीवन के प्रति समादर का भाव...।
अलबर्ट शवीत्जर न अपने पूरे दर्शन को दो छोटे-छोटे शब्दों में रखा है--रिव्हरेन्स फार लाइफ--जीवन के प्रति समादर--जीव के प्रति आदर। जो भी तुम जीवित देखो, जहां भी कुछ जीवित देखो, उसके प्रति समादर का भाव रहे--बस, काफी धर्म हो गया; तुम पहुंच जाओगे; फिर तुम्हें कोई बाधा नहीं।
लेकिन तुमने अजीब-अजीब धारणाएं बना रखी हैं। कोई राम के दर्शन करने को उत्सुक है! कर लोगे किसी दिन; ज्यादा चेष्टा की तो दर्शन हो जाएंगे। लेकिन वह तुम्हारी कल्पना ही होगी--कल्पना का जाल ही होगा। और छोटों की तो बात क्या, जिनको तुम बड़े-बड़े कहते, उनकी धारणाएं बड़ी अजीब हैं।
कहते हैं कि तुलसीदास को जब वृंदावन में कृष्ण के मंदिर में ले जाया गया तो उन्होंने झुकने से इनकार कर दिया। कृष्ण की मूर्ति के सामने राम का भक्त कैसे झुके? हद्द संकीर्णता है! कहते हैं कि उन्होंने कहा कि जब तक धनुष-बाण हाथ न लोगे, तब तक मैं झुकनेवाला नहीं।
यह भी खूब मजे की बात हुई! यह तो ऐसा हुआ कि भगवान भी तुम्हारी शर्त पालन करे, तो तुम झुकोगे। यानी भगवान को भी अगर तुम्हारे झुकने में उत्सुकता हो, तो तुम्हारी शर्त का पालन कर ले! धनुष-बाण लो हाथ, तब तुलसी का सिर झुकेगा।
जब कृष्ण के साथ भी तुलसी का सिर न झुक सका, तो सामान्य आदमियों की तो क्या बात। पशु-पक्षियों की तो बात ही छोड़ दो। तो फिर जीवन के प्रति समादर कहां है? यह तो बड़ी संकीर्ण धारणा हुई। और तुलसीदास जैसे आदमी में हो, बाकी का तो क्या कहना!
इसलिए मैं तुलसीदास को कवि कहता हूं--ऋषि नहीं कहता। कवि है। भाषा के अनूठे कलाकार हैं। मगर ऋषि होने में कमी रह गई। यह जो संकीर्णता है, यह संकीर्णता ही सारी बात को खंडित कर गई।
जिसने राम को पहचान लिया...। राम से मेरा मतलब और मलूकदास का भी मतलब दशरथ-पुत्र राम से नहीं है। जिसने राम को पहचान लिया...। राम यानी इस विराट में छिपी हुई जो ऊर्जा है, ये जो तरंगें उठ रही हैं जिस ऊर्जा से, उसको जिसने पहचा लिया, वह तो सभी जगह झुका है। झुके, न झुके--यह सवाल ही नहीं रहा। उसका झुकाव है। उसका माथा तो झुका ही हुआ है। और वह फिर शर्त नहीं लगाएगा--कि तुम धनुष-बाण हाथ लो; कि तुम मोर मुकुट बांधो; कि तुम नग्न खड़े होओ--महावीर बनो, तब मैं झुकूंगा।
अगर तुमने इस तरह की जिद्दें कीं, तो तुम्हारा परमात्मा से तो कोई संबंध न होगा; तुम्हारी मन की ही कोई धारणा तुम बहुत बार दोहराते रहोगे, दोहराते रहोगे, तो सम्मोहित हो जाओगे। रोज-रोज देखा--लिए धनुष-बाण खड़े राम; रोज उनकी मूर्ति के सामने आंख लगा कर त्राटक किया; आंख बंद करके उनका स्मरण किया। धीरे-धीरे तुम्हारी कल्पना मजबूत होने लगेगी और तुम्हारे भीतर एक सपना उठने लगेगा कि तुम राम को देख रहे हो। और सपना तुम इतना परिपुष्ट कर सकते हो कि तुम जब बोलो, तो तुम्हारा सपना तुम्हारे भीतर से जवाब भी दे: तुम कुछ कहो, तो राम तुम्हें उत्तर भी दें। वह उत्तर भी तुम्हारा ही है। पूछने वाले भी तुम; उत्तर देनेवाले भी तुम। वह दोनों तुम ही हो। लेकिन धोखा बड़ा हो जाएगा।
इसका नाम बाध नहीं है। इसका नाम ज्ञान नहीं है। इसका नाम साक्षात्कार नहीं है।
परिकल्पनाओं से सावधान रहना। भक्ति के मार्ग पर सबसे बड़ा खतरा है कि आदमी कल्पनाओं में न पड़ जाए। बहुत ज्यादा कल्पना के जाल में पड़ जाए, तो जो सोचेगा, वह देखने लगेगा। और जब देखने लगेगा, तो सोचेगा कि जो मैं मानता था, ठीक ही मानता था; अब तो प्रत्यक्ष भी होने लगा।
राम का जो अनुभव है, वह दशरथ-पुत्र राम का अनुभव नहीं है। परमात्मा का जो अनुभव है, उस अनुभव का कोई रूप नहीं है, कोई रंग नहीं है। वह निर्गुण और निराकार का अनुभव है। और जब परमात्मा का अनुभव होगा, तो ऐसा नहीं होगा कि यह रहा परमात्मा। जब परमात्मा का अनुभव होगा, तो ऐसा होगा कि अरे! सब परमात्मा ही परमात्मा है। मैं भी कैसा ना समझ था, कि सब तरफ जो मौजूद था, उसे भी देखने से वंचित रह गया!
मछली जैसी दशा हैं हमारी। जैसे सागर में मछली हो, और उसे सागर का पता नहीं चलता। पता चले तभी कैसे; सब तरफ सागर है। जब पैदा हुई--सागर में पैदा हुई। खेली, बड़ी हुई--सागर में बड़ी हुई। एक दिन मर भी जाएगी--सागर में मर जाएगी। उसे पता भी कैसे चले कि चारों तरफ जो है--वह सागर है?
ऐसा ही परमात्मा हमें घेरे हुए हैं। हम परमात्मा के सागर की मछलियां हैं। कबीर ने कहा है: मुझे बड़ी हंसी आती है कि सागर में मछली प्यासी है! सागर चारों तरफ है और हम प्यासे हैं! जहां से भी पीए, परमात्मा ही है। जिससे भी पीए, उसी का जल पीएंगे। घाट होगे अलग...।
तुमने जब अपनी पत्नी में प्रेम पाया, अपने पति में प्रेम पाया; अपने बेटे में प्रेम पाया; अपनी मां प्रेम पाया; अपने मित्र में प्रेम पाया, तो घाट अलग थे, जो प्रेम तुमने पाया, वह तो परमात्मा ही है। घाटों के भेद को तुम गंगा का भेद मत समझ लेना। गंगा तो वही है। स्वर्ग में भी वही बह रही है, पृथ्वी पर भी वही बह रही है। सब दिशाओं में उसी का वास है। जिस दिन तुम्हें थोड़ी ऐसी झलक आने लगे--जीवन परमात्मा के समीकरण की, कि जीवन ही परमात्मा है, उस दिन जानना:
लो फिर से आ गए
मिलने के दिन पिया!
मिलने के दिन पिया!!
फिर अली के दल आए
बगिया गुन-गुन गाए
सौरभ के मृग छौने
कस्तूरी धन लाए
गोरे कुछ सांवरे
प्रसून हुए बावरे
लो फिर से आ गए
खिलने के दिन पिया!
मिलने के दिन पिया!!
फिर यम-संयम डोले
मंत्र हुए मिठबोले
फगुनाहट कण-कण में
वासंती रस घोले
सीप सरीखी पलकें
मादक सपने छलकें
फिर आए प्रण के व्रण
छिलने के दिन पिया!
मिलने के दिन पिया!!
फिर सांसें गरमाई
अंगारे भर लाई
चंदनत्तन कसने को
फिर बांहें अकुलाई
अंग-अंग में अनंग
छेड़ रहा जलत्तरंग
फिर आये उधड़े मनन
सिलने के दिन पिया!
मिलने के दिन पिया!!
लो फिर से आ गए
मिलने के दिन पिया!
जिस दिन जीवन ही परमात्मा है--ऐसा समीकरण तुम्हारे मन में बैठने लगे; जिस दिन सर्व में तुम्हें परमात्मा दिखाई पड़ने लगे, जिस दिन हर किरण उसकी किरण, हर श्वास उसकी श्वास--ऐसी प्रतीति सधन होने लगे, उस दिन जानना:
लो फिर से आ गए
मिलने के दिन पिया!
लो फिर से आ गए
खिलने के दिन पिय!
फिर आए प्रण के व्रण
छिलने के दिन पिया!
फिर आये उधड़े मन
सिलने के दिन पिया!
मिलने के दिन पिया!!
लो फिर से आ गए
मिलने के दिन पिया!
परमात्मा निकट है; परमात्मा दूर नहीं। परमात्मा निकट से भी निकट है। मोहम्मद ने कहा है: तुम्हारे हृदय से भी पास जी है, वही परमात्मा है। तुम भी अपने इतने पास नहीं--मोहम्मद ने कहा है--जितने परमात्मा तुम्हारे पास है; तुमसे भी ज्यादा पास है। तुम तो थोड़ी दूरी पर हो। तुम तो अपने से बाहर हो; परमात्मा तुम्हारे भीतर है। परमात्मा तुम्हारे प्राणों का प्राण है। और जैसा तुम्हारे प्राणों का प्राण है, ऐसा ही सबके प्राणों का प्राण है।
इस परात्पर परमात्मा की स्मृति से भरी; सुधि को जगने दो।
शास्त्र से नहीं होगा; शब्द से नहीं होगा; सिद्धांत से नहीं होगा। दांव पर लगाना जीवन! चुकाना पड़ेगा मूल्य--अपने को मिटाने से चुकाना पड़ेगा। मूल्य। और मिटाने की कला--उस कला का नाम ही प्रेम है।
जिस दिन तुम मिटने को तैयार हो, उसी दिन तुम्हारे होने का क्षण आ गया। जिस दिन सागर में नदी उतरती, उसी दिन सागर हो जाती। डरती तो होगी; उतरने से पहले सहमती तो होगी; लौटकर पीछे तो देखती होगी। वे सारे यात्रा पथ हिमालय से आकर सागर तक पहुंचने की; हजारों-हजारों स्मृतियां, घटनाएं, संस्मरण; प्रसंशाएं-निंदाएं, लोगों के द्वारा चढ़ाए गये फूल, तैराए गये दिए-नावें--हजारों-हजारों स्मृतियां--नदी भी डरती होगी, भयभीत होती होगी; उतरना--नहीं उतरना! फिर एक भय तो निश्चित ही पकड़ता होगा न, कि अब कुल किनारे टूटे। इन्हीं कूल-किनारे के सहारे तो मैं नदी थी--विशिष्ट नदी थी--गंगा थी, यमुना थी; इन्हीं किनारों के कारण तो मैं नर्मदा थी; इन्हीं किनारों के कारण तो मेरी विशिष्टता थी; ये तो मेरे व्यक्तित्व थे; अब ये किनारे छूटे; अब यह सागर में उतर रही हूं। बचूंगी! यह सागर विराट दिखता है, इसमें खो न जाऊंगी?
निश्चित खो जाएगी, लेकिन खोने में पाना है। खो कर ही सागर हो जाएगी।
आदमी भी डरता है। परमात्मा के किनारे खड़े हो कर बहुत बार-बार आदमी लौट आता है। अनेक बार उसके द्वार पर पहुंच जाता है और लौट आता है, क्योंकि घबड़ाहट होती है: यह तो परिभाषा गई; अपनी अस्मिता गई; अपना व्यक्तित्व गया। इसमें उतरे तो फिर लौटना कहां है? और इस में गए, तो खो गए। यह होने से फायदा क्या है? इस से तो जैसे थे, भले थे; कम से कम थे तो।
आदमी की यह अस्मिता उसे परमात्मा के द्वार से भी लौटा लाती है। मगर तुम ध्यान रखना: बीज अगर मिटे ना, तो वृक्ष नहीं होता है। और नदी अगर मिटे ना, तो सागर नहीं होता। और मनुष्य अगर मिटे ना, तो परमात्मा नहीं होता।
सब बाजे हिरदे बजें, प्रेम पखावज तार।
मंदिर ढूढ़त को फिरै, मिल्या बजावनहार।।
करै पखावज प्रेम का, हृदय बजावे तार।
मनै नचावै मगन ह्वै, तिसका मता अपार।।
तेरे घट प्रेम है, तो कहि कहि न सुनाव।
अंतरजामी जानि हैं, अंतरगत का भाव।।
माला जपों न कर जपों, जिभ्या कहों न राम।
सुमिरन मेरा हरि करै, मैं पाया विसराम।।
जेती देखै आत्मा, तेते सालिराम।
बोलनहारा पूजिए, पत्थर से क्या काम।।
जगाओ इस याद को, स्मृति को, इस सुधि को। इस सुधि के सहारे ही समाधि उपलब्ध होती है।

आज इतना ही।


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