आध्यात्मिक पीड़ा निजता की खोज संन्यास और श्रद्धा अज्ञान का बोध
आठवां प्रवचन
श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक 18 मई, 1977;
प्रश्न-सार:
1--आपने मुझे घायल कर दिया है; मरहम-पट्टी कब होगी?
2--जीवन में इतनी उदासी और निराशा क्यों है?
3--मैंने संन्यास क्यों लिया है? श्रद्धा-भक्ति नहीं है, फिर भी बार-बार आपके पास
क्यों आती हूं?
4--क्या समझ-देख कर आपने मुझ मूढ़ को आश्रम में स्थान दिया है?
पहला प्रश्न आप बाबा मलूक, कृष्ण, बुद्ध, महावीर और क्राइस्ट की आड़ से
जो तीर चलाते हैं, उनसे मैं घायल हो गया हूं। घायल की मरहम-पट्टी कब होगी?
इश्क
की चोट का कुछ दिल पर असार हो तो सही।
दर्द
कम हो कि ज्यादा,
मगर हो
तो सही।।
दर्द
अच्छा लक्षण है। घायल हुए, तो
धन्यभागी हो। अभागे तो वे ही हैं, जो
घायल नहीं हो पाते।
ऐसे भी
बहुत हैं,
जो ऐसे
पथरीले हो गये हैं कि उन पर चोट ही नहीं पड़ती। चोट पड़ भी जाए, तो जल्दी भर जाती है। और ये
घाव ऐसे हैं कि भरें ना, तो ही
काम के हैं।
परमात्मा
के प्रेम में जो पीड़ा है, उसे
मिटाने की तो सोचना ही मत। उसे तो बढ़ाने की सोचना। वह पीड़ा साधारण पीड़ा नहीं है।
ये घाव साधारण घाव नहीं हैं। इनकी मरहम-पट्टी की जरूरत नहीं है। ये तो बड़े होते
जाएं--इतने बड़े हो जाएं कि तुम छोटे हो जाओ और घाव बड़ा हो जाए; तो प्रभु-मिलन हो जाए।
तुम्हारी
पीड़ा ही तो प्रार्थना बनेगी। मरहम-पट्टी तो पीड़ा छीन लेगी तुमसे। और विरह छिन गया, तो मिलन कैसे होगा?
मरहम-पट्टी
ही होती रही है सदियों से। आदमी सत्य की थोड़ी ही खोज करता है; सांत्वना की खोज करता है। लोग
सत्य का जीवन थोड़े ही जीना चाहते हैं; सुविधा का जीवन जीना चाहते हैं। फिर सुविधा
अगर झूठ से मिलती हो, तो झूठ
ही सही।
सब
मरहम-पट्टियां झूठी साबित होंगी। यह घाव ऐसा नहीं कि इसकी मरहम-पट्टी हो जाए। यह
घाव आंतरिक है;
आत्मा
का है। यह तो,
परमात्मा
मिलेगा,
तो ही
भरेगा--उसके पहले नहीं भरेगा।
तो
गुरु घाव तो बना देगा, मरहम-पट्टी
नहीं की जा सकती। मरहम-पट्टी तो परमात्मा के मिलन पर होगी। और मिलन तभी होगा, जब घाव तुमसे बड़ा हो जाए। तुम्हारे
विरह की पीड़ा इतनी हो जाए, कि तुम
उससे छोटे पड़ जाओ। तुम्हारे आंसू तुमसे बड़े हो जाएं; तुम्हारी पुकार तुमसे बड़ी हो
जाए; तुम्हारी प्यास तुमसे बड़ी हो
जाए; तुम छोटे पड़ जाओ। कोई उपाय ही
न बचे--प्यास को बुझाने का। उस आत्यंतिक घड़ी में, जब तुम बिलकुल निरुपाय हो
जाते हो--असहाय--तभी प्रभु का मिलन होता है।
तुम
मरहम-पट्टी की तो बात सोचो ही मत। मैं तो घावों को और उघाडूंगा। तुम चेष्टा भी
करोगे कि घाव भर जाएं, तो
भरने न दूंगा। घाव को हरा रखना है। पीड़ा को भुलाना हनीं है; पीड़ा चुभने लगे--चौबीस घड़ी
चुभने लगे;
उठते-बैठते, सोते-जागते चुभने लगे।
परमात्मा की गैर-मौजूदगी तुम्हें प्रतिपल घेरे रहे और तुम्हारा हृदय रोता रहे।
मंदिरों
में जाकर थोड़े ही प्रार्थनाएं होती हैं--कि घड़ी भर को मंदिर हो आए--और प्रार्थना
हो गई! जब तक प्रार्थना चौबीस घंटे पल-पल पर न फैल जाए, तब तक प्रार्थना कारगर नहीं
होती।
तुझको
पा कर भी न कम हो सकी बेताबी-ए-दिल
इतना
आसान तिरे इश्क का गम थी भी कहां।।
मिल कर
भी न भर सका--इतना आसान तिरे इश्क का गम भी कहां?--कि मिल कर भर जाए। इतने
सदियों तक रोया है भक्त कि भगवान भी मिल जाएगा, तो एकदम से थोड़े ही भर जाएगा। पहले रोया था
बिछुड़ने मग,
अब
रोएगा--मिलन में। विरह की पीड़ा है; मिलन की भी पीड़ा है। पहले रोया था--दुःख में; अब रोयेगा--खुशी में। हर्ष के
आंसू होते ना;
आनंद
के आंसू होते ना।
आंखें तो गीली भक्त की हो गई, तो गीली ही रहेंगी। ये आंखें
तो अब सूखने वाली नहीं; और नहीं
सूखनी चाहिए। सूखी आंखें मरुस्थल हैं; गीली आंखें--उपवन। गीली आंखों में फूल खिलते
हैं। गीली आंखों में गीत जन्मते हैं; सूखी आंखों में तो कुछ भी नहीं...।
लेकिन
हमें जरा सी चोट लगे कि हम भरने की तैयारी करने लगते हैं। हम चोट से बड़े अकुलाते
हैं, व्याकुल हो जाते हैं।
पूछा
तुमने ठीक ही है। यहां काम ही इस बात का है कि किसी भी बहाने सही तुम्हारे हृदय
में तीर जाए। और पीड़ा भी तुम्हें हो रही है, वह भी मैं जानता हूं।
संसार
व्यर्थ दिखाई पड़ने लगता है--सुन-सुन कर, सोच-सोच कर, विचार कर करके और परमात्मा का
कहीं पता नहीं चलता--यही तो घाव है। जो हाथ में है--सार्थक नहीं मालूम होता; और जो सार्थक मालूम होता है, वह कहां मिलेगा, कैसे मिलेगा--उसका कुछ पता
नहीं चलता।
तो हाथ
की संपदा तो राख हो जाती है; और
परमात्मा एक सपना बन कर डोलने लगता है। उसके सत्य की कुछ पकड़ नहीं बैठती--कि कहां
है, कैसे शुरू करें? कैसे उसमें प्रवेश करें? इस सुविधा में प्राण तड़फते
हैं।
मगर
सांत्वना से हल न होगा। सांत्वना तो फिर तुम्हें सुला देगी। सांत्वना ही देते हैं।
वे तुम्हारी पीठ थपथपाते हैं; वे
कहते हैं: बेटा,
सब ठीक
हो जाएगा। तुम जागते नहीं उनके पास; तुम उनके पास जा कर सोते हो। वे तुम्हें
तिलमिलाते नहीं;
तुम्हारे
भीतर तूफान नहीं उठते। और तूफान के बिना कुछ भी न होगा। अंधड़ चाहिए। तुम्हारी
आत्मा आंधी बने तो ही कुछ होगा।
तो तुम
मुझसे बहुत बार नाराज भी होओगे--कि यह तो बड़ी सुविधा में डाल दिया। घाव भी दे दिया
दवा का कुछ पता नहीं! बहुत तुम मुझे लिख कर भी भेजते हो: तुमने ही दर्द दिया है, तू ही दवा देना। दवा मैं नहीं
दूंगा। इस मामले में साफ हो लो। दर्द ही दूंगा; दवा तो परमात्मा है।
दवा तो
तुम्हारे दर्द से ही उतरेगी। दर्द तो तुम्हारी, दवा की तरफ यात्रा है; और दवा तुम्हारे दर्द का ही
अंतिम निचोड़ है। वह तुम्हारे दर्द का ही इत्र है।
हजारों-हजारों
फूलों जैसे इत्र निचोड़ते हैं, ऐसे
हजारों-हजारों दर्दो और घावों से दवा निचुड़ती है।
इसलिए
जल्दी न करो।
कठिनाई
तुम्हारी मैं समझता हूं।
जिसने
पूछा है--कृष्ण वेदांत ने...। जब कृष्ण वेदांत नया-नया आया था, तो शायद उसे ईश्वर का कुछ बोध
भी नहीं था। शायद ईश्वर को तलाशने आ गये हैं। किसी मित्र ने कहा; कहीं कोई किताब हाथ लग गई।
कोई उत्सुकता जगी;
कोई
जिज्ञासा उठी। कुतूहल में बहुत आ गये हैं।
आ जाना
तुम्हारे हाथ है;
चले
जाना फिर तुम्हारे हाथ नहीं। किस कारण पक्षी जाल में आ जाता है, यह पक्षी जाने; लेकिन एक बार जाल में आ गया, तो निकलना इतना आसान नहीं है।
वेदांत
जब आया था,
तो
मुझे भली भांति याद है--कुतूहल से आ गया होगा। कोई ऐसी मुमुक्षा नहीं थी। मुमुक्षा
है कहां?
लोगों
को मोक्ष की आकांक्षा कहां है! हो भी कैसे?
सुलाने
वाले संतों की भीड़ है। जगाने की झंझट कोई लेना नहीं चाहता क्योंकि अगर लोगों को
जगाने लगो,
तो लोग
नाराज होते हैं! जिसको जगाओ, वही
तुम्हारा दुश्मन होने लगेगा। उतनी झंझट कौन ले! शिष्य सोया रहे--गुरु को भी
सुविधा। वह भी सोया रहता है; शिष्य
भी सोए रहते हैं। दोनों घुर्राते रहते हैं और एक दूसरे के स्वर में ताल मिलाते
रहते हैं।
गुरु
को भी यही आसान है कि लोग सांत्वना से राजी हो जाएं। सांत्वना बड़ी सस्ती है। लेकिन
सांत्वना का कोई भी मूल्य नहीं है। सांत्वना माया की सेवा में तत्पर है। सांत्वना
के कारण ही तुम संसार में हो।
तुम्हें
जब भी चोट लगी,
तुमने
जल्दी से मरहम-पट्टी कर ली। चोट कभी इतनी गहरी न हो पायी, कि तुम संसार से छूट ही जाते, कि तुम टूट ही जाते। चोट कभी
इतनी गहरी न हो पायी कि तुम्हारे जीवन में एक क्रांति आ जाती--तुम मुख मोड़ लेते और
दूसरी यात्रा पर चल पड़ते।
चोट के
आसपास तुमने बड़ा आयोजन कर लिया है, ताकि चोट लगे न; लग भी जाए, तो ढंकी रहे।
पर
वेदांत को चोट लगनी शुरू हुई है--वह भी मैं दुख रहा हूं। आया था, हंसता युवक था।
दिल
में एक दर्द उठा,
आंख
में आंसू भर आए।
बैठे
बैठे हमें क्या जानिए, क्या
याद आया।।
लेकिन
अब उसकी आंखों में आंसू की थोड़ी-सी कोर दिखाई पड़ती है।
दिल
में एक दर्द उठा,
आंख
में आंसू भर आये।
बैठे
बैठे हमें क्या जानिए, क्या
याद आया।।
छिन गई
है कुछ चीज। अच्छी शुरुआत है। शुभ घड़ी है।
ले गया
छीन के कौन,
आज
तेरा सब्र-ओ-करार।
बेकरारी
मुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी।
छिन
गया है कुछ। खो गया है कुछ। हाथ खाली हैं--इस बात की समझ आने लगी है। इसी से पीड़ा
है। और परमात्मा दूर मालूम पड़ता है। कैसे पाएंगे? कैसे उस तक पहुंचेंगे?--करीब-करीब असंभव मालूम होता
है। हमसे तो न हो सकेगा--ऐसा लगता है।
हमसे
तो छोटे-छोटे काम नहीं होत पाते। छोटी-छोटी पहाड़ियां हम नहीं चढ़ा पाते; यह परमात्मा का गौरीशंकर हम
कैसे चढ़ेंगे? और है, न छोर
है। नदी नाले नहीं तैर पाते, यह
परमात्मा का महासागर हम कैसे तैर पाएंगे?--और अकेले!--और अपने ही सहारे?
और इस
तट पर अब कुछ सार नहीं मालूम होता; उस तट की बात सुनाई पड़ गई है।
सदगुरु
का इतना ही अर्थ है कि उस तट की बात तुम्हें सुना दे। तुम लाख चाहो, न सुनो--लेकिन सुनाता जाए। और
एक दिन तुम्हारे भीतर एक सपना जाग उठें; और तुम उस तट के सपने देखने लगो। और यह तट
तुम्हें व्यर्थ मालूम होने लगे। और इस तट पर तुम्हें कुछ सार न दिखाई पड़े, फिर अड़चन होगी।
इस तट
पर सार दिखाई पड़ता नहीं; यहां
जीने में अर्थ मालूम होता नहीं। धन कमाने में अब रस नहीं। पद की दौड़ में अब
प्रयोजन नहीं। अब संबंध भी सब बच्चों के खिलौने मालूम होते--पत्नी, पति, बेटे, बेटियां। अब बड़ी मुश्किल हुई।
अभी तक
तो किसी तरह भुलाए भी थे अपने खिलौनों में, अब पता चला कि ये सब तो खिलौने हैं; असली तो उस पार है। यहां नकली
में तो खूब भरमाए रहे। लेकिन अब कैसे...?
लेकिन
बीच में बड़ा सागर है। असली उस पर है और बीच में बड़ा सागर है। और पार करना
अकेले--दुर्गम मालूम होता है। डूब जाने की ज्यादा संभावना है--बजाय पहुंचने के।
इससे बड़ी घबड़ाहट होती है, संताप
पैदा होता है।
वेदांत
का सारा चैन और करार छिन गया है। अच्छा हुआ। यह पहला कदम है। फिर एक ऐसी घड़ी आयेगी, घाव इतने हो जाएंगे कि अगर
डूब भी गये सागर में, तो कुछ
हर्जा नहीं है। अभी तट बेकार हो गया। अब दूसरी घड़ी और घटेगी। और भी पीड़ा की
घड़ी--तुम भी बेकार हो जाओगे।
अभी
तुम बेकार नहीं हुए। अभी लगता है: यह किनारा तो बेकार हो गया, मैं सार्थक हूं; दूसरे किनारे पहुंच जाऊं, तो आनंद ही आनंद होगा। जल्दी
ही वह घड़ी भी आएगी, कि घाव
इतने गहरे हो जाएंगे कि तुम्हें लगेगा: यह किनारा तो बेकार है ही, मैं भी बेकार हूं, इसलिए अब डर क्या है! अगर डूब
भी गये सागर में,
तो
क्या डूबेगा?
कुछ है
ही नहीं मुझमें,
तो
डुबने को क्या है! उसी दिन तुम उतरोगे।
और जिस
दिन तुम्हें यह दिखाई पड़ गया कि मैं ना कुछ हूं, फिर देर नहीं परमात्मा से
मिलने में। वही शर्त पूरी करनी है। मैं ना कुछ हूं; मैं शून्यवत हूं; मैं अपने को भी छोड़ने को
तत्पर हूं। परमात्मा न भी मिले, तो भी
मेरे होने में कोई सार नहीं है--जिस दिन यह दिखाई पड़ जाएगा, उसी दिन फिर दांव पर लगाने
में न डरोगे।
और अब
कठिनाई में तो रहना पड़ेगा। मरहम-पट्टी मैं करने वाला नहीं। और मेरे मरीज की
मरहम-पट्टी कोई दूसरा कर दे--यह संभव नहीं। यह असंभव है
तेरे
बगैर बाग से फूल न खिल के हंस सके।
कोई
बहार की सी बात अब के बहार में नहीं।।
अब
तुम्हें यहां कोई बहार मालूम पड़ेगी नहीं। प्रभु की सुध जगने लगी है। अभी छोटी किरण
है; अभी नन्हीं किरण है, बाल-किरण है; यही लपट बन जाएगी।
अभी
तकलीफ हो रही है;
और
तकलीफ बढ़ेगी। तकलीफ उस सीमा पर आएगी, कि तुम करीब-करीब विक्षिप्त होने लगोगे।
जग
सूना है तेरे बगैर, आंखों
का क्या हाल हुआ।
जब भी
दुनिया बसती थी,
अब भी
दुनिया बसती है।।
जग
सूना है तेरे बगैर, आंखों
का क्या हाल हुआ।
तो
पहला तो काम यह है कि तुम्हारी आंखों से तुम्हारे जग के सपने छीन लूं। जो-जो
तुम्हें सार्थक मालूम पड़ता है, वह
व्यर्थ मालूम पड़ने लगे। असह्य पीड़ा में। डालूंगा; डालना ही पड़ेगा। और एक दफा
असार असार दिखा जाए, तो फिर
तुम्हें सार खोजना ही पड़ेगा। फिर कोई लाख तुम्हें सांत्वनाएं दे, तुम जानोगे कि सब सांत्वनाएं
हैं। मरहम-पट्टी से कुछ काम न होगा। घाव छिप जाते होगे--मिटते नहीं।
और यह
घाव कुछ ऐसा नहीं है कि इसे मिटा लो, यह घाव तो सौभाग्य है। तुम धन्यभागी हो।
कभी-कभी लाखों में, करोड़ों
में किन्हीं लोगों के हृदय में ऐसे घाव बनते हैं, जो सिर्फ परमात्मा से ही भरे
जा सकते हैं।
और
कितने जन्मों से तुम खोज रहे हो--जाने अनजाने; होश में, बेहोशी में। तुम्हारे कदम चाहे लड़खड़ा के ही
चल रहे हों,
लेकिन
किस तरफ जा रहे तुम: यात्रा क्या है; मंजिल क्या है; किस की तलाश कर रहे हो? सोए-सोए भी हम परमात्मा की
तरफ ही तो अपने हाथों बढ़ा रहे हैं। टटोल रहे हैं अंधेरे में। मगर हम खोज उसी को
रहे हैं: कहो आनंद, कहो
मुक्ति--या जो नाम देना चाहो, दो।
लेकिन हम खोज कुछ विराट रहे है, सीमा
से मन भरता नहीं। क्षुद्र से तृप्ति होती नहीं। यह बूंद-बूंद सुख और प्यास को बढ़ा
जाता है--घटाता नहीं; और गले
को जला जाता है।
अब तो
सागर ही चाहिए। अब तो पूरा-पूरा ऐसी ही तलाश चल रही हैं। और यह तलाश कोई नई नहीं
है। लेकिन अब तक शायद धुंधली-धुंधली थी; अचेतन थी। मेरी चोटों से अगर थोड़ी चेतन बनने
लगी है,
तो
बेचैनी आएगी। घबड़ाओ मत।
हुजूर
वक्त की हजरत अजल से है मुझको।
खयाल
कीजिए कब से उम्मीदवार हूं मैं।।
कब से
खड़े हो तुम पंक्ति में। पंक्ति में ही खड़े रहना है? सांत्वना करके जाओगे कहां
मरहम-पट्टी करके होगा क्या? फिर
इसी किनारे पर बस जाओगे। फिर कोई नया सपना रचा लोगे। मरहम-पट्टी यानी सपना चाहते
हो! कोई झूठ चाहते हो।
फ्रेडरिक
नीत्शे ने कहा है: आदमी इतना कमजोर है कि बिना झूठ के जी नहीं सकता। उसने यह भी
कहा है कि भले लोगों, आदमी
से उसके झूठ मत छीन लेना अन्यथा आदमी पागल हो जाएगा। इस बात से मैं राजी हूं। यह
बात सच है। आदमी झूठ से जीता है। तुम्हारे पीता तुम्हारे लिए। कहते थे कि बेटे के
लिए जी रहा हूं। तुम अपने बेटे के लिए जिओगे। तुम्हारा बेटा उनके बेटे के लिए
जीएगा। कोई नहीं जी रहा है; दूसरों
के लिए जिए जा रहे हो!
तुम्हारे
पिता अब नहीं हैं,
छोड़
गये जो कमाया था। और जो छोड़ गये, उस में
सारा जीवन गंवाया। ले जा न सके जरा भी--एक टुकड़ा भी, उसमें से। खाली हाथ गये; और सारा जीवन गंवा दिया। कमाई
होगी संपत्ति;
बैंक
में छोड़ गये होंगे रुपए; लेकिन
जो यहां का था,
यहां
पड़ा है। वे तो ऐसे आए और ऐसे ही चले गए। ऐसे ही तुम चले जाओगे। ऐसे ही तुम्हारे
बेटे चले जाएंगे।
इस जगत
में कोई कमा ही कहां पाता है? यहां
तो सिर्फ गंवाना गंवाना है। पद पर पहुंच जाओगे। सांत्वना का अर्थ यही होता है; मरहम-पट्टी का अर्थ यही होता
है: थोड़ा धन कमा लो; थोड़ी
प्रतिष्ठा मिल जाए; आदर-सम्मान
मिले; लोग मान्यता दें। और क्या
चाहिए?
सम्मान
मिल गया,
सब मिल
गया। और क्या चाहिए?
लेकिन
क्या इस के मिलने से कुछ भी मिलता है? इसके मिलने से कुछ भी नहीं मिलता। तुम
दुनिया के बड़े-बड़े पद पर बैठ जाओ, तो भी
तुम खाली के खाली ही रहोगे। कुर्सी बड़ी हो जाएगी, तुम छोटे के छोटे रहोगे।
जब यह
बात दिखाई पड़ने लगती है; प्राणों
में तीर सा चुभ जाता है कि अब करें क्या! यहां जो करने योग्य है, वह करने योग्य मालूम नहीं
होता। जो किया जा सकता है, वह
करने योग्य नहीं मालूम होता। और परमात्मा? यह तो शब्द ही बड़ा समझ में आता नहीं। यह तो
बेबूझ है। यह तो कहां है? है भी
या कवियों,
रहस्यवादियों
की कल्पना मात्र है? किसने
जाना; किस ने देखा? दृश्य तो व्यर्थ हो गया और
अदृश्य पर कैसे दांव लगाएं?
नीत्शे
ठीक कहता है;
आदमी
झूठ के बिना नहीं जी सकता। और तुम्हारे घाव का मतलब यही है कि यहां मैं तुम से
तुम्हारे झूठ छीन रहा हूं--एक के बाद एक।। और हर झूठ के छिनने पर तुम्हारा एक घाव
उभरेगा। जब सब झूठ छिन जाएंगे, तो तुम
घाव-मात्र रह जाओगे--नग्न घाव। लेकिन झूठ छिन ही जाना चाहिए। झूठ की पट्टियां अब
और नहीं। जिस दिन तुम्हारे ऊपर कोई मरहम-पट्टी न रह जाएगी, तुम एक उघड़े घाव हो
जाओगे--घाव-मात्र,
उस
पीड़ा से जो प्रार्थना उठती है, उस
असहाय अवस्था में जो पुकार उठती है, उस पुकार में प्राण होते हैं। वही पुकार
सुनी जाती है। उसी दिन प्रभु दौड़ा चला चला आता है।
तुम
गङ्ढे की तरह हो गए; तुम
घाव हो गए,
प्रभु
उसे भरने दौड़ा चला आता है।
तो
मरहम-पट्टी तो मांगो ही मत। मांगो--कि मैं और तुम पर चोट करूं। मांगो--कि जो घाव
लगे गए हैं,
वे
किसी तरह भर न जाएं। मांगो--कि इतना बल मिले कि तुम इन घावों को सहने में समर्थ
रहो।
और नये
घावों की तैयारी करनी है। यह तो अभी शुरुआत है। अभी घबड़ा गए और भाग गए, तो मंजिल तक कैसे चलोगे? अभी तो पहले कदम उठाए हैं; अभी तो बहुत यात्रा-पथ शेष
है।
दूर
क्षितिज पर बादल छाए
लोचन
मेरे क्यों भर आए
सोनजुही
सी धूप शरद की
छिप-छिप
रहती ओट दर्द की
आंख
मिचौली सा यह जीवन
धूप-छांह
बन-बन भरमाए
खुशियां
रखी तुम्हारे आगे
दर्द मिला
मुझको बिना मांगे
कैसी
यह बेरहम बेकसी
तड़पत्तड़प
कर मन रह जाए
यह
सतरंगी स्वप्न तुम्हारे
मेरी
सीमाओं से हारे
सुन
सकते हो,
तो सुन
लो तुम
दर्द
तुम्हारा रह-रह जाए।
जब
तुम्हारे भीतर परमात्मा का दर्द रह कर गाने लगेगा, तब बाबा मलूकदास की बात
तुम्हें समझ में आयेगी।
कहते
मलूकदास कि न तो मैं अब नाम लेता जिह्वा से राम का, न पूछा-पाठ, न प्रार्थना। अब सब छोड़-छाड़
दिया। अब तो हरि स्वयं मेरा भजन करते हैं। अब तो वे मेरी याद करते हैं।
जिस
दिन तुम सब दांव पर लगा दोगे, और कुछ
भी बचाओगे ना,
उसी दि
क्रांति घटती है: परमात्मा तुम्हारी याद करने लगता है। उन याद को अर्जित करने के
लिए पीड़ाओं से गुजरना जरूरी है। पीड़ाएं निखारती हैं; पीड़ाएं मांजती हैं। पीड़ा की
अग्नि से गुजरे बिना कोई कभी स्वर्ण नहीं बन पाता है।
दूसरा प्रश्न: जीवन में इतनी उदासी और निराशा क्यों है?
जीवन
में न तो उदासी है और न निराशा है। उदासी और निराशा होगी--तुममें। जीवन तो बड़ा
उत्फुल्ल है। जीवन तो बड़ा उत्सव से भरा है। जीवन जीवन तो सब जगह--नृत्यमय है; नाच रहा है। उदास...?
तुमने
किसी वृक्ष को उदास देखा? और
तुमने किसी पक्षी को निराश देखा? चांदत्तारों
में तुमने उदासी देखी? और अगर
कभी देखी भी हो,
तो
खयाल रखना: तुम अपनी ही उदासी को उनके ऊपर आरोपित करते हो।
तुम
उदास हो,
तो रात
चांद भी उदास मालूम पड़ता है। तुम्हारा पड़ोसी उदास नहीं है, तो उस को उदास नहीं मालूम
पड़ता। उस के लिए चांद नाचता हुआ मालूम पड़ता है। पड़ोसी को प्रियतमा आ गई है, तो चांद प्रफुल्ल मालूम होता
है। तुम्हारी प्रियतमा चल बसी है, मर गई
है, तो चांद रोता मालूम पड़ता है।
यह तो तुम्हारी ही धारणा तुम चांद पर थोप रहे हो। जिस दिन तुम कोई धारणा न रखोगे, तुम पाओगे--सब तरफ उत्सव है।
देखते
नहीं: ये गुलमोहर के फूल, ये
वृक्ष,
यह
हरियाली,
यह
पक्षियों के गीत--चारों तरफ जीवन अपूर्व उत्सव में लीन है। सिर्फ मनुष्य उदास
मालूम होता है। क्या हो गया है? कौन सी
दुर्घटना मनुष्य के जीवन में हो गई है?
जो
पहली दुर्घटना समझने जैसी है, जिसके
कारण मनुष्य उदास हो गया है: वह है कि मनुष्य अकेला है, जिसने अपने को विराट से तोड़
लिया है। जो सोचता है: मैं अलग-थलग। जिसने एक अस्मिता और अहंकार निर्मित कर लिया
है।
इस
अस्तित्व में कहीं भी अहंकार नहीं है--सिर्फ आदमी को छोड़कर। पशु-पक्षी हैं, पौधे हैं, पहाड़ हैं, चांदत्तारे हैं, लेकिन कोई अहंकार नहीं है। वे
सब परमात्मा में जी रहे हैं; विराट
के साथ एक हैं--तल्लीन हैं। सिर्फ आदमी टूट गया है--संगीत से। सिर्फ आदमी के
सुरत्ताल बेसुरे हो गये हैं।
यह जो
विराट संगीत का उत्सव चल रहा है, इसमें
मनुष्य अकेला है,
जो
अपनी ढपली अलग बजाता है; जो
कोशिश करता है कि मैं अपनी ढपली से ही आनंदित हो जाऊं--इसलिए उदासी है।
अहंकार
है कारण--उदासी और निराशा का।
निराशा
का क्या अर्थ होता है? निराशा
का अर्थ होता है: तुमने आशा बांधी होगी, वह टूट गई। अगर आशा न बांधते, तो निराशा न होती। निराशा आशा
छी छाया है।
आदमी
भर आया बांधता है;
और तो
कोई आशा बांधता ही नहीं। आदमी ही कल की सोचता है, परसों की सोचता है, भविष्य को सोचता है। सोचता है, आयोजन करता है बड़े कि कैसे
विजय करूं,
कैसे
जीतूं?
कैसे
दुनिया की दिखा दूं कि मैं कुछ हूं? कैसे सिकंदर बन जाऊं? फिर नहीं होती जीत, तो निराशा हाथ आती है। सिकंदर
भी निराश होकर मरता है; रोता
हुआ मरता है।
जो भी
आदमी आशा से जीएगा, वह
निराश होगा। आशा का मतलब है: भविष्य में जीना; अहंकार की योजनाएं बनाना; और अहंकार को स्थापित करने के
विचार करना। फिर वे विचार असफल होए। अहंकार जीत नहीं सकता। उसकी जीत संभव नहीं है।
उसकी जीत ऐसे ही असंभव है, जैसे
सागर की एक लहर सागर के खिलाफ जीतना चाहे। जीतेगी? सागर की लहर सागर का हिस्सा
है।
मेरा
एक हाथ मेरे खिलाफ जीतना चाहे, कैसे
जीतेगा?
वह तो
बात ही पागलपन की है। मेरे हाथ मेरी ऊर्जा है। हम लहरें हैं--एक ही परमात्मा की।
जीत और हार का कहां सवाल है? या तो
परमात्मा जीतता है, या
परमात्मा हारता है। हमारी तो न कोई जीत है, न कोई हार है। चूंकि हम जीत के लिए उत्सुक
हैं, इसलिए हार निराश करती है।
भक्त
का इतना ही अर्थ है; भक्त
कहता है: तू चाहे-जीत; तू
चाहे--हार;
और
तुझे जो मेरा उपयोग करना है--कर ले। हम तो उपकरण हैं। हम तो बांस की पोंगरी हैं, तुझे जो गीत गाना हो--गा ले।
गीत हमारा नहीं है। हम तो खाली पोंगरी हैं। गाना हो, तो ले। न गाना हो--तो न गा।
तेरी मर्जी। न गा,
तो सब
ठीक; गा--तो सब ठीक।
ऐसी
दशा में निराशा कैसे बनेगी? भक्त
निराश नहीं होता। निराश हो ही नहीं सकता। उसने निराशा का सार इंतजाम तोड़ दिया। आशा
ही न रखी,
तो
निराशा कैसे होगी?
अब तुम
कहते हो: मन उदास क्यों होता है? जीवन
में उदासी क्यों है? उदासी
का अर्थ ही यही होता है कि तुम जो करना चाहते हो, नहीं कर पाते। जगह-जगह पड़ गया
हूं। और मैं पागल हुआ जा रहा हूं कि यह सब तो मैं इकट्ठे तो बन नहीं सकता! और इस
सब ऊहापोह में मुझे यह भी समझ में नहीं आता कि मैं क्या बनना चाहता हूं!
मनुष्य
के जीवन की अधिकतम उदासी का कारण यही है कि तुम सहज नहीं जी रहे हो। तुम्हारा हृदय
जहां स्वभावतः जाता है, वहां
नहीं जा रहे हो। तुमसे कुछ इतर लक्ष्य बना लिए हैं।
घिस गए
अभी मंसूबे इस जीवन के
दफ्तर
की सीढ़ी चढ़ते और उतरते।
जो काम
किया, वह काम नहीं आएगा
इतिहास
हमारा नाम न दोहराएगा
जब से
सपनों को बेच खरीदी सुविधा
तब से
ही मन में बनी हुई है दुविधा
हम भी
कुछ अनगढ़ता तराश सकते थे
दो-चार
साल समझौता अगर न करते।
पहले
तो हमको लगा कि हम भी कुछ हैं
अस्तित्व
नहीं है मिथ्या हम सचमुच हैं
पर
अकस्मात ही टूट गया यह संभ्रम
ज्यों
बस आ जाने पर भीड़ों का संयम
हम उन
कागजी गुलाबों से शाश्वत हैं
जो
खिलते कभी नहीं हैं, कभी न
झरते।
हम हो
न सके वह जो कि हमें होना था
रह गई
संजोते वही कि जो खोना था
यह
निर्उद्देश्य,
यह
निरानंद जीवन-क्रम
यह
स्वादहीन दिनचर्या, विफल
परिश्रम।
प्रत्येक
व्यक्ति को इतनी आस्था परमात्मा में चाहिए कि वह जहां ले जाएगा, ठीक ले जाएगा। आदमियों की मत
सुनो--परमात्मा की सुनो। लेकिन परमात्मा की सुनने के लिए तुम्हें थोड़ा ध्यानस्थ
होना जरूरी है,
ताकि
उसकी आवाज तुम तक पहुंच सके। थोड़ा प्रार्थना में लीन होना जरूरी है, ताकि उसकी मंदिम-मंदिम आवाज
तुम सुन सको;
उसका
धीमा सा स्वर तुम्हारे कोलाहल में व्याप्त हो सके।
आदमी
को सदा अगर आनंद से जीना हो, तो
संदेश परमात्मा से लेने चाहिए--आदमियों से नहीं। और हमने आदमियों से सब कुछ सीख
लिया है और परमात्मा से सीखना हम भूल ही गए हैं। हमारे हाथ में कुंजी ही नहीं रही
कि हम कैसे उसका द्वार खोलें; कैसे
उसमें पूछें।
तो कोई
धन कमाने में लगा है--बिना सोचे हुए--क्यों! पड़ोसी धन कमा रहे हैं, इसलिए तुम भी धन कमाने लगे
हुए हो! एक दौड़ है, जिसमें
सब दौड़े जा रहे हैं। और तुम भी धक्कम-धक्की में दौड़े चले जा रहे हो। तुम भेड़ हो
गये हो,
इसलिए
जीवन में दुःख है। आदमी बनो।
आदमी
बनने से मेरा मतलब है: अपने भीतर से अपने जीवन का स्वर खोजो। अपने भीतर को सुनो; अपने भीतर की गुनो। फिर कुछ
दांव पर लगाना हो,
तो लगा
दो; डरो मत।
जरा
सोचो: यह आदमी जो सर्जन हो गया इतना बड़ा, यह कभी भी हिम्मत करके नर्तक हो सकता था।
लेकिन हिम्मत न जुटा पाया। और अब जीवन को अंतिम घड़ी में विषाद से भी क्या होगा? अब पछताए होत का, चिड़िया चुग गई खेत।
तुम्हें
क्या होना है?
तुम्हारे
प्राण कुछ कहते हैं? तुम्हारे
प्राण सुगबुगाते हैं किसी बात के लिए--कि यह मुझे होना है? इस दिशा में जाऊंगा, तो मेरी तृप्ति होगी
हम
बच्चों को विकृत करते हैं। हर बच्चा अपने भीतर स्पष्ट दिशा ले कर आता है। हम उसे
दिग्भांत करते हैं; हम
उसकी दिशा छीन लेते हैं। हम जल्दी से उसको खोपड़ी पर सवार हो जाते हैं। और हम जल्दी
से उसे बताने लगते हैं: उसे कैसे होना है; क्या होना है? हम कभी सुनते नहीं कि उसकी भी
सुनें;
कि
उसकी भी गुने;
कि
उससे ही पूछें कि तुझे क्या बनना है--तुझे क्या होना है। और सहारा दें। जो बनना
चाहे, उसके लिए सहारा दें।
सम्यक
शिक्षा वही होगी,
जब हम
प्रत्येक व्यक्ति को वही बनाने में सहारा देंगे, जो वह बनना चाहता है। अगर वह
बढ़ई बनना चाहता है, तो
खुशी की बात है,
बढ़ई
बने। यह बात सच है कि बढ़ई बन कर वह कोई बहुत बड़ा धनपति न बन जाएगा। लेकिन धन होगा
क्या? शायद बन कर तृप्त हो जाए।
लकड़हारा
बनना चाहता है,
तो
लकड़हार बन जाए।
लेकिन
हम बच्चों को कहते हैं: पढ़ोगे, लिखोगे, होओगे नवाब? लेकिन नवाब बनकर बनना क्या है? करना क्या है? नवाबों की दुर्दशा देखते हैं!
लेकिन हर एक को नवाब के लिए हम लगे हुए हैं!
आदमी
को वही होना चाहिए, जो
होने की सहज संभावना हो, तो
उदासी कम हो जाएगी।
और मजा
यह है कि अगर आदमी सहज वही होने लगे--जो होने को बना है, तो उसके जीवन में अहंकार कभी
भी न उठेगा। अहंकार उठता ही है विकृति से। अहंकार उठता ही है--कुछ और बनने की
चेष्टा में। और बनने की चेष्टा अहंकार के बिना हो ही नहीं सकती।
हम
बच्चे को कहते हैं: तुम बड़े धनी बनो, नहीं तो तुम दो कौड़ी के हो। अगर धन है, तो सब है; धन नहीं है, तो कुछ भी नहीं है। हम उसके
अहंकार को फुसला रहे हैं। हम कहते हैं: तुम सिद्ध करो कि तुम हो कुछ। तो धन से ही
सिद्ध होगा! कि जब तक तुम प्रधानमंत्री न हो जाओगे देश के, तब तक तुम कुछ भी नहीं हो।
तुम दो कौड़ी के हो। हम उस में पागलपन पैदा कर रहे हैं। हम उसके अहंकार को फुसला
रहे हैं। हम जहर डाल रहे हैं। वह दौड़ में लग जाएगा।
बच्चे
भोले हैं,
उनको
विकृत करने में जरा भी कठिनाई नहीं है। तुम विकृत किए गए हो। और अब तुम्हें याद भी
नहीं पड़ता कि तुम कहां जा रहे हो। तुम कौन हो--यह भी याद नहीं पड़ता। तुम कहां से आ
रहे हो--यह भी शायद याद नहीं पड़ता।
किस ओर
मैं? किस ओर में?
है एक
ओर असित निशा
है एक
ओर अरुण दिशा
पर आज
स्वप्नों में फंसा, यह भी
नहीं मैं जानता--
किस ओर
मैं? किस ओर मैं?
है एक
ओर अगम्य जल
है एक
ओर सुरम्य थल
पर आज
लहरों से ग्रसा यह भी नहीं मैं जानता--
किस ओर
मैं? कि ओर मैं?
है हार
एक तरफ पड़ी
है जोत
एक तरफ खड़ी
संघर्ष
जीवन में धंसा,
यह भी
नहीं मैं जानता--
किस और
में? किस और मैं?
तुम्हारी
सारी संभावना--चुनने की, समझने
की, जागने की नष्ट कर दी गई है।
इसलिए तुम उदास हो।
जीवन
उदास नहीं है। बस,
तुम
उदास हो। तुम्हें अपने सूत्र फिर से पकड़ने होंगे; तुम्हें फिर अपने बचपन को
दोहराना होगा। तुम्हें जो-जो सिखाया गया है, उससे तुम्हें मुक्त होना होगा। तुम्हें
बच्चे की निर्दोष दशा में फिर से आना होगा। वहां से सब गड़बड़ हो गई है। तुम्हें उस
चौराहे तक फिर लौटना होगा, और उस
चौराहे से फिर तुम्हें नई दिशा पकड़नी होगी।
इसलिए
संन्यास का मौलिक अर्थ है: हम फिर से नया जन्म लेने की तैयारी दिखलाते हैं। हम
कहते हैं: अब हम फिर से सोचेंगे; पुनर्विचार
करेंगे। और इस बार थोथी बातों के चक्कर में न पड़ेंगे। अपने हृदय की सुनेंगे। फिर
जहां ले जाए,
और जो
परिणाम हो;
जो
दिशा भीतर से आये,
उसी पर
चल पड़ेंगे।
इस सहज
स्वाभाविक क्रम का नाम है--संन्यास।
संन्यास
कुछ पाने की आकांक्षा नहीं है। संन्यास बस, वही होने की आकांक्षा है, जो हम हैं, जो हमें परमात्मा ने बनाया
है। जो प्रतिमा उसने हमारे भीतर गढ़ी थी, उसको ही निखारना है।
नहीं
तो तुम निराश रहोगे; उदास
रहोगे। कमा लोगे बहुत--पद-प्रतिष्ठा, लेकिन जीवन खाली का खाली रहेगा। रेत ही रेत
हाथ लगेगी--आखिर में। धुआं ही धुआं हाथ लगेगा--आखिर में। संपदा से तो तुम वंचित रह
जाओगे।
धन्यभागी
हैं वे लोग,
जो वही
हो जाते हैं--जा होने को बने थे। इसलिए थोड़े से लोग ही इस जगत में फलों को उपलब्ध
होते हैं--कोई बुद्ध, कोई
क्राइस्ट,
कोई
सुकरात,
कोई
कबीर, कोई मलूक--थोड़े से लोग। मगर
इन लोगों की हिम्मत को खयाल रखना। ये बगावती लोग हैं।
बुद्ध
के बाप तो चाहते थे कि बेटा सम्राट हो जाए; बेटा भिखारी हो गया! महावीर को मां तो चाहती
थी--कि बेटा महल में रहे; बेटा
नग्न हो कर जंगलों में भटकने लगा!
तुमने
कभी यह बात गौर की--कि ये सारे लोग, जो इस जगत में किसी आनंद को उपलब्ध हुए हैं, ये सब बगावती और विद्रोही थे।
विद्रोह इनका मौलिक लक्षण है।
शंकराचार्य
संन्यस्त होना चाहते थे--नौ वर्ष के थे, तब संन्यस्त होना चाहते थे! स्वभावतः मां
दुःखी थी। मां नहीं चाहती थी--यह हो। कौन मां चाहेगी कि बेटा संन्यस्त हो जाए। कौन
पिता चाहेगा कि बेटा संन्यस्त हो जाए!
लेकिन
इन लोगों ने,
जो
होना था,
वही
हुए। और कोई दूसरे व्यवधान बीच में न पड़ने दिए
प्रत्येक
व्यक्ति इसी ऊंचाई पर पहुंच सकता है लेकिन हम इतनी हिम्मत नहीं जुटाते। हम दांव
नहीं लगाते। हम बड़े हिसाबी-किताबी हैं। हम चाहते हैं: बुद्ध जैसा आनंद तो हमें
उपलब्ध हो जाए,
लेकिन
बुद्ध उस आनंद के लिए जो दांव पर लगाते हैं, वह हम कभी लगाते नहीं।
हम
चाहते है: महावीर जैसी निष्कलंक दशा हमारी हो जाए, लेकिन महावीर ने जो दांव
लगाया है,
वह हम
लगाते है?
हम
दांव कुछ भी नहीं लगाना चाहते। हम मुफ्त में आनंद पाना चाहते हैं। आनंद की कीमत
चुकानी पड़ती है। और बड़ी से बड़ी कीमत यही है कि जहां प्रतिष्ठा मिलती हो, धन मिलता हो, पद मिलता हो, उस सब यात्रा को छोड़कर उस
दिशा में चल पड़ना,
जहां
पता नहीं,
प्रतिष्ठा
मिले--न मिले;
पद
मिले--न मिले। अपमान मिले; कौन
जाने: सूली लगे;
जहर
मिले।
जो
व्यक्ति अपने भीतर के निसर्ग को सुन लेता है और उसके साथ चल पड़ता है, उसके जीवन में कभी उदासी और
निराशा नहीं होती।
तीसरा प्रश्न: भगवान, मैंने संन्यास क्यों लिया है? श्रद्धा-भक्ति नहीं है, फिर भी बार-बार आपके पास
क्यों आती हूं?
पूछा
है--प्रेम अजिता ने।
ऐसा
बहुत बार हो जाता है: तुम्हें भी ठीक-ठीक पता नहीं होता; तुम्हें भी साफ-साफ होश नहीं
होता कि तुमने संन्यास क्यों लिया है। लिया है, तो भीतर जरूर कोई छिपी हुई लहर होगी। लिया
है, तो भीतर कोई दबी हुई आग होगी।
हो सकता है: अंगार राख में दब गई हो। राख की पर्त-पर्त हो और अंगारा बहु। भीतर खो
गया हो। कुरेद कर भी तुम्हें पता न चलता हो कि कहीं कोई अंगारा है। लेकिन अकारण तो
यह नहीं होगा,
क्योंकि
संन्यास उपद्रव मोल लेना है। आदमी लेने वक्त हजार बार सोचता है। फिर मेरा संन्यास
तो आपने आपको झंझट में डालना है! कोई सुविधा तो इससे मिलेगी नहीं; असुविधाएं हजार खड़ी हो जाएगी।
इससे कोई पद-प्रतिष्ठा तो मिलेगी नहीं; इससे तो कुछ पद प्रतिष्ठा होगी वह भी छुट
जाएगी। इससे तो उपद्रव ही आने वाले हैं। इससे तो तुमने उपद्रव और तूफान के लिए दरवाजा
तो खोला है।
तो कोई
अकारण तो ले नहीं सकता लिया है अजिता, तो जरूर भीतर कारण होगा। थोड़ा अपने को और
कुरेदना।
झेन
फकीर रिंझाई के पास एक युवक आया और उस युवक ने कहा कि मैं बहुत खोजता हूं, लेकिन मुझे मेरे भीतर आत्मा
का कुछ पता नहीं चलता। और सभी सदगुरु कहते हैं: आत्मा को जानो; आत्मा को पहचानो; आत्मा में रमो। किस में रमें? किसको पहचानें? किसको जानें? मैं तो भीतर खोजता हूं, मुझे कुछ मिलता नहीं।
सांझ
थी--सर्दी की सांझ और रिंझाई गुरसी में आग जलाये ताप रहा था, लेकिन आग करीब-करीब बुझ चुकी
थी; राख ही राख थी। उसने उस युवक
से कहा। बैठ। पहले जरा देख कि इस गुरसी में कुछ आग बची या नहीं? क्योंकि तुझसे बात करनी पड़ेगी; रात बहुत सर्द है; आग जला लेनी जरूरी है। जरा
देख कि कुछ आग बची है या नहीं।
उसने
पास में पड़ी हुई लकड़ी को उठा कर आग को कुरेदा: राख ही राख थी। उसने जल्दी ही कह
दिया कि नहीं;
कुछ आग
वगैरह नहीं है। राख ही राख बची है। आप भी राख के सामने हाथ किए बैठे हैं! माना कि
राख गरम है,
लेकिन
आग बिलकुल नहीं है।
फिर
रिंझाई ने बहुत गौर से राख को कुरेदा और एक छोटे से अंगारे को नीचे दबा पड़ा था, निकाल कर उसे बताया कि देख, आग है। तूने बहुत जल्दी की।
तूने ऐसे ही लकड़ी एक-दो बार घुमाई और तूने कहा--आग नहीं है। जो तूने यहां किया
गुरसी के साथ वही तू अपने साथ भी कर रहा है, रिंझाई ने कहा, तू भीतर जाता है, मगर जल्दी लौट आता है।
जन्मों-जन्मों
की राख है;
अंगार
कहीं होगी तो। बिना अंगार के राख होती ही नहीं। और यह बाहर की अंगार तो बुझ भी जाए, भीतर की अंगार तो बुझती ही
नहीं। यह तो शाश्वत अंगार है। यह तो आग शाश्वत है।
ऐसा
आदमी खोजना कठिन है, जिसके
मन में कभी न कभी संन्यास का भाव न उठता हो--चाहे वह समझता हो, चाहे न समझता हो। ऐसा आदमी
खोजना कठिन है,
जिसके
मन में यह बात उठती हो--कि छूटें इस जंजाल से; कि छोड़ें यह सब उपद्रव; कि छोड़ें सब राग-रंग; कि उठें ऊपर; कि खोजें उसे, जो सदा है--सदा था, सदा रहेगा। ऐसा आदमी खोजना
कठिन है।
पश्चिम
के मनोवैज्ञानिकों ने बहुत से अन्वेषणों के बाद यह तथ्य खोजा है कि ऐसा आदमी खोजना
कठिन है,
जो कभी
जीवन में एक-दो बार, चार
बार आत्महत्या का विचार न करता हो। अभी पश्चिम के मनोवैज्ञानिकों को संन्यास की
कोई खबर नहीं है। लेकिन अगर हम आदमी को गौर से खोजें, जो ऐसी बात भी संभव नहीं है
कि कोई आदमी जीवन में कभी संन्यस्त होने का भाव न करता हो। असल में जो आदमी
आत्महत्या का भाव करता है, वही
आदमी संन्यस्त होने का भी भाव करता है। संन्यास आत्महत्या का एक बड़ा कारगर उपाय
है।
आत्म-हत्या
और आत्म साधन में बड़ी निकटता है। आत्महत्या कोई क्यों करना चाहता है? जीवन से ऊब गया; जीवन व्यर्थ हो गया। देख लिया
सब, पाया कुछ भी नहीं। सब तरफ भटक
कर देख लिया,
कहीं
कोई राह नहीं मिली; कहीं
कोई सुराग नहीं मिला--सुगंध नहीं मिली। पुनरुक्ति है। वही वही दोहराता जाता है। इस
पुनरुक्ति में क्यों पड़े रहें? एक दिन
आदमी सोचता है: इससे तो बेहतर समाप्त ही कर दें शरीर को। लेकिन शरीर को समाप्त
करने से तो कुछ समाप्त होता नहीं। फिर लौट आओगे--नए शरीर में लौट आओगे। फिर उपद्रव
का जाल शुरू हो जाएगा।
पूरब
ने संन्यास खोजा,
क्योंकि
संन्यास वास्तविक आत्महत्या है। जो ठीक से संन्यस्त है; गया--सो गया। जहर खा कर मर
गये; फिर लौट आओगे, क्योंकि जहर खाने से केवल
शरीर मरता है;
तुम्हारा
अहंकार हनीं मरता,
तुम्हारा
मन नहीं मरता;
फिर
लौट आओगे।
संन्यास
ऐसा जहर है,
कि
अहंकार मर जाता है। और जहां अहंकार मर जाता है, वही परमात्मा का आविर्भाव होता है। अहंकार
की ओट में ही छिपी है आत्मा।
तो
संन्यास का भाव तो उठता ही है। और जो लोग पूरब में पैदा हुए है, उन्हें न उठे, यह तो असंभव है। पश्चिम में
शायद न भी उठे;
उठे भी
तो शायद वे उसको ठीक-ठीक शब्द न दे पाए कि यह कैसा भाव है। उनके पास परिभाषा भी
नहीं है।
संन्यास
पूर्वीय घटना है। पूर्वीय है। तो पूरब में तो यह असंभव है कि संन्यास का भाव न
उठे।
बुद्ध
का जब जन्म हुआ तो ज्योतिषियों ने बुद्ध के पिता को कहा कि "इस बेटे को थोड़ा
सम्हाल कर रखना,
क्योंकि
या तो यह चक्रवर्ती सम्राट होगा--अगर घर में बना रहा, तो सारी पृथ्वी का सम्राट
बनेगा। और अगर इसने घर का त्याग कर दिया, तो यह एक महासंन्यासी होगा।
तो
पिता ने पूछा: इसे हम कैसे रोके रखें? क्या करें? क्योंकि मैं चाहता नहीं कि यह
संन्यासी हो। मैं चाहता हूं यह महाप्रतापी सम्राट बने। तो उन्होंने चार बातें
कहीं: उन्होंने कहा कि एक तो यह खयाल रखना कि यह जब बड़ी हो जाए, तो कभी भी भूलकर भी इसके
सामने बीमारी,
रोग, बुढ़ापा--इनका इसे पता न चले।
इसे इस तरह सम्हाल कर रखना, छिपा
कर रखना कि इसे यह पता ही न चले कि बीमारी है, रोग है, बुढ़ापा है। दूसरी बात: खयाल रखना, इसे कभी पता न चले कि मृत्यु
है। और तीसरी बात खयाल रखना: यह कभी किसी संन्यासी को न देखे। चौथी बात: इसको
उलझाए रखना--जितने राग-रंग में बन सकें। इसको क्षण भर खाली मत छोड़ना; क्योंकि खाली क्षणों में आदमी
विचार करने लगता है। और यह बड़ा तेजस्वी है।
तो यही
पिता ने किया। राग-रंग का खूब इंतजाम कर दिया। छोड़ते ही नहीं थे उसे। सुंदर से
सुंदर स्त्रियां जुटा दीं। सुंदर महल बना दिए। महल से बाहर जाने की जरूरत न थी।
आज्ञा दे रखी थी बगीचे में मालियों को कि सूखा पता बुद्ध को दिखाई न पड़े। बूढ़ा
आदमी प्रवेश न करे बीमार आदमी की इसे खबर न हो। कभी इसको खबर न चले कि कोई मरता
है। कोई पशु-पक्षी मर जाए जंगल में, इसके बगीचे में--हटा देना। इसे खबर नहीं
होनी चाहिए;
इसका
बड़ा आयोजन किया था। और आयोजन किया था कि कोई संन्यासी कभी इसे आसपास दूर तक भी आए
ना। क्योंकि ज्योतिषियों ने कहा है कि अगर यह संन्यासियों को देखेगा, तो इसके भीतर जन्मों-जन्मों
की जो दबी आकांक्षा पड़ी है, संन्यस्त
हो जाने की,
वह
त्वरा से जग जाएगी, वह लपट
बन जाएगी।
लेकिन
यह कब तक हो सकता था! कैसे छिपाओगे? यह सारा जीवन रोग से भरा है। कैसे
छिपाओगे--बुढ़ापे से? बाप भी
बूढ़ा हो गया। कैसे छिपाओगे? फूल कुम्हलाते
हैं; पत्ते सूख जाते हैं। फिर कब
तक इसे बंद रखोगे;
कभी तो
यह बाहर निकलेगा। बुद्ध जब युवा हो गये और बाहर निकलने लगे, तो एक दिन एक साथ घटनाएं घट
गई।
एक
बूढ़े को देखा लकड़ी टेकते हुए और पूछा अपने सारथी को--इसे क्या हो गया है! शायद अगर
बचपन से ही देखा होता बूढ़ों को लकड़ी टेकते, तो न भी पूछते। अगर मुझसे बुद्ध के पिता ने
सलाह ली होती,
तो जो
ज्योतिषियों ने सलाह दी, वह मैं
कभी नहीं देता। मैं उनसे कहता: इसको बचपन से ही जितने बूढ़े, बीमार...। इसको अस्पताल में
ही रख,
दो। यह
ठीक से परिचित होता रहेगा, तो
प्रश्न नहीं उठेगा। जिससे हम परिचित होते हैं, उसके बाबत प्रश्न नहीं उठता।
लेकिन
इतनी उम्र हो गई,
जवान
हो गया और इसने कभी बूढ़ा आदमी नहीं देखा। तो जब पहली दफा बूढ़ा देखा...। जरा सोचो:
पचीस साल तक बूढ़ा न देखा हो, फिर
एकदम से बूढ़ा देखा, तो बड़ा
प्रश्न खड़ा हो गया। उसने पूछा: यह क्या हो गया है; उस आदमी को क्या हो गया है?
सारथी
तो झूठ बोलने को था; सारथी
तो जानता था कि यह बात बतानी नहीं है...तो कथा बड़ी प्यारी है। कथा कहती है कि
देवता सारथी में प्रवेश कर गये और उन्होंने सारथी से सच कहलवा दिया। सच है: जहां
से सच आये,
वहीं
देवता का वास है। जहां से सा आए, वहीं
भगवान का वास है।
यह कथा
बड़ी प्यारी है कि देवताओं ने देखा कि सारथी झूठ बोले दे रहा है; सारथी कुछ समझाने को जा रहा
था कि खास बात नहीं हो गई है--ऐसा हो गया है, वैसा हो गया है। लेकिन देवता प्रविष्ट हो
गये--उसकी जबान पर। और सारथी को कहना पड़ा कि यह आदमी बूढ़ा हो गया है; और हर एक को इसी तरह बूढ़ा हो
जाना पड़ता है। आप भी इसी तरह बूढ़े होंगे। बुढ़ापे से बचना असंभव है।
बुद्ध
एकदम उदास हो गये। और इसके पीछे ही एक अर्थी निकली; और बुद्ध ने पूछा: यह क्या
हुआ? और सारथी ने कहा: यह उसके आगे
की घड़ी है;
वह जो
बूढ़ा गया,
उसके
आगे का कदम। ये मरहट ले जाए जा रहे हैं। और पीछे चला आता था एक संन्यासी--गैरिक
वस्त्रों में। बुद्ध ने पूछा: इस आदमी को क्या हुआ है? यह गैरिक वस्त्र क्यों पहने
हुए है?
सारथी
ने कहा: इस आदमी को वे दोनों बातें समझ में आ गई हैं कि आदमी बूढ़ा हो जाता है--और
आदमी मर जाता है। तो इसने गैरिक वस्त्र क्यों पहन रखे हैं? बुद्ध ने पूछा। सारथी ने कहा:
यह आदमी चेष्टा कर रहा है, उस
जीवन-सत्य को जानने की, जो कभी
बूढ़ा नहीं होता और कभी मरता नहीं। यह खोज में लगा है।
बुद्ध
ने कहा: रथ वापस घर लौटा लो।
उसी
रात वे घर से भाग गये।
तो
अजिता,
पूछती
हो: संन्यास मैंने क्यों लिया है? कहीं
छिपी होगा--जन्मों-जन्मों से कोई बात छिपी होगी; अंगार दबी होगी--राख में।
अचानक यहां आ कर हवा के झोंके लगे, राख उड़ गई; अंगार साफ हो गई। और यह इतने
आकस्मिक रूप से हुआ है कि इसके लिए बुद्धिगत उत्तर तुम्हारे पास नहीं है कि
क्यों...। सोच-विचार कर तुमने लिया भी नहीं है। सोच-विचार कर कोई संन्यास लेता भी
नहीं है।
संन्यास
तो एक दांव है। जुआरी का काम है--दुकानदार का नहीं। दुकानदार तो सोचने में ही समय
गंवा देता है। वह तो हानि-लाभ सोचता रहता है: कितनी हानि होगी; कितना लाभ होगा! लें तो क्या
होगा, न लें तो क्या होगा? बिना लिए नहीं चलेगा? भीतर का ले लें; बाहर की क्या जरूरत है? दुकानदार ऐसी हजार बातें
सोचता। है। हिम्मत नहीं है। हिम्मत न होने के कारण न मालूम कितने तर्क अपने को
देता है!--कि कपड़े बदलने से क्या होगा? कि माला पहनने से क्या होगा? अरे, यह तो भीतर की बात है। और
भीतर तो करना नहीं है कुछ। तो यह भीतर के नाम पर खूब बचाव हो गया। बाहर से बच गये, भीतर के नाम पर। भीतर कुछ
करना नहीं है। भीतर जैसे हैं, वैसे
के वैसे रहेंगे।
लेकिन
जुआरी अगर कभी कोई मेरे पास आ जाता है, तो फिर हिम्मत हो जाती है। वह एक छलांग ले
लेता है।
ऐसी ही
अजिता तेरी छलांग हुई।
श्रद्धा-भक्ति
नहीं है,
फिर भी
बार-बार आपके पास क्यों आती हूं? मेरे
पास उन्हीं के लिए मार्ग नहीं है, जिनके
पास श्रद्धा और भक्ति है। मेरे पास उनके लिए भी मार्ग है, जिनके पास श्रद्धा और भक्ति
बिलकुल नहीं है। सच तो यह है कि जिनके पास श्रद्धा--भक्ति बिलकुल नहीं है, उनके लिए मेरे अतिरिक्त कोई
मार्ग नहीं है।
जो
संदेह से घिरे हैं, जो
नास्तिकता में पगे हैं, जिनकी
बुद्धि निष्णात हो गई है तर्क में, उनके लिए मेरे अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है।
और मैं तो मानता ही यह हूं कि जब नास्तिक को बदलने की घटना न घटे, तब तक कोई घटना ही नहीं घटती।
नास्तिक को मेरे पास विरोध नहीं है, इनकार नहीं है। नास्तिक को मेरे पास
निमंत्रण है।
मैं यह
नहीं कहता कि पहले आस्तिक बनो, फिर
संन्यास दूंगा। मैं कहता हूं: संन्यास तो लो, आस्तिकता इत्यादि चला आयेगी। मैं नास्तिक को
भी संन्यास देता हूं। जो कहता है: मुझे ईश्वर में भरोसा नहीं है। मैं कहता हूं:
जाने दो ईश्वर को। तुम्हें अपने पर भरोसा है? चलेगा।
जो
कहता है: मुझे श्रद्धा नहीं है; मैं
कहता हूं: कोई फिक्र नहीं है। संदेह तो है। इससे भी काम ले लेंगे। संदेह को इतना
बढ़ाएंगे कि संदेह को खींचना असंभव हो जाए। संदेह को इतना प्रगाढ़ करेंगे कि संदेह
पर भी संदेह आने लगे; उसी
दिन श्रद्धा का जन्म हो जाएगा।
और इस
दुनिया में।--आज की दुनिया में श्रद्धा-भक्ति से शुरुआत तो की नहीं जा सकती। फिर
श्रद्धा-भक्ति से शुरुआत करनी हो, तो
हमें कोई हजार साल पीछे लौटना पड़े। उसका कोई उपाय नहीं है।
भविष्य
में जो धर्म होगा,
वह
संदेह से डर कर भोगा नहीं। वह श्रद्धा को पहली शर्त नहीं बनाएगा। वह कहेगा:
संदेह--तो संदेह। संदेह के पत्थर की सीढ़ी बनाएंगे और श्रद्धा तक चलेंगे।
श्रद्धा
इतनी बड़ी है कि संदेह को भी जीत लेती है। होना ही चाहिए ऐसा।
अजिता
डॉक्टर है;
पढ़ी-लिखी
है। तर्क और विचार से परिचित है। तो मैं अपेक्षा भी नहीं करता कि श्रद्धा-भक्ति से
आओ। आते भर रहो। यह बीमारी संक्रामक है। आते--भर रहो--लग जाएगी। यहां आते रहे, तो रंगी ही जाओगे।
पूछा
है:श्रद्धा-भक्ति नहीं है, फिर भी
बार-बार आपके पास क्यों आती हूं? तो
श्रद्धा-भक्ति से भी बड़ी कोई बात भीतर हो रही है। मुझसे कुछ लगाव बन रहा है। मुझसे
कुछ प्रेम का नाता बन रहा है।
मेरा
भरोसा प्रेम पर ज्यादा है--श्रद्धा-भक्ति के बजाए। श्रद्धा-भक्ति तो प्रेम के ही
रूपांतरण हैं;
पीछे
हो लेगा। सोना हाथ में आ जाए, तो फिर
गहने तो उसके हम कोई भी बना लेंगे; कोई अड़चन नहीं है।
प्रेम
सोना है--खालिस सोना है। श्रद्धा तो उसका गहना है। भक्ति उसका दूसरा गहना है।
मुझसे
लगाव बन गया;
मुझसे
ऐसा लगाव बन जाए कि श्रद्धा-भक्ति नहीं है, फिर भी आना पड़े, तो बस, काम हो गया। श्रद्धा भक्ति के
कारण जो आते हैं,
वे
शायद आते भी न हों। उनका मुझसे शायद कोई लगाव भी न हो। वे शायद मेरे पास आते भी न
हों। वे तो सिर्फ इसलिए आते हों कि चलो, कहीं भी चलें; किसी भी संत के पास--ऐसे ही
चले आते हों।
इस देश
में लोग को खयाल है कि संतों के पास ही गये; उनकी बात सुनी--न सुनी; बैठे रहे वहां, तो भी मुक्ति हो जाएगी। इतनी
सस्ती मुक्ति नहीं है।
तो मैं
तुमसे सस्ती श्रद्धा नहीं मांगता और न सस्ती भक्ति मांगता हूं। मैं तुमसे सस्ता
कुछ मांगता ही नहीं। मैं तुमसे इतना ही चाहता हूं कि अगर तुम्हारा मुझसे लगाव बन
गया है...। मेरे विरोध में ही रहो--कोई फिक्र नहीं। लगाव बन गया है, तो आते रहो, जाते रहो। धीरे-धीरे घटना घट
जाएगी।
रोते
हैं तो भीग न पाता, आंखों
का रेतीलापन।
मुसकाते
हैं तो खिल पाते,
अधरों
पर जलजात नहीं
लेकिन
कोई शिखा अभी तक,
जीवित
है सुनसानों में
जिसे
बुझा पाने में सक्षम, कोई
झंझावात नहीं।
जरूर
भीतर कोई शिखा जल रही है, जिसे
जन्मों-जन्मों के झंझावात भी बुझा नहीं पाये हैं; अश्रद्धा, अभक्ति भी नहीं बुझा पाई; तर्क के जाल भी नहीं बुझा पाए
हैं।
लेकिन
कोई शिखा अभी तक,
जीवित
है सुनसानों में
जिस
बुझा पाने में सक्षम, कोई
झंझावात नहीं।
उसी
शिखा को प्रगाढ़ कर लेंगे; उसी को
जगा लेंगे,
उकसा
लेंगे। उसको ही ईंधन देंगे:
सत्संग
का इतना ही अर्थ है कि तुम्हारे भीतर कोई शिखा दबी पड़ी हो, तो सत्संग में उभर आएगी, प्रकट हो जाएगी; जो भीतर है--बाहर आ जाएगी।
श्रद्धा, भक्ति आज के मनुष्य से मांगी
नहीं जा सकती;
मांगनी
भी नहीं चाहिए। मैं तुमसे कहता भी नहीं कि तुम ईश्वर को मान लो। मैं तुमसे इतना ही
कहता हूं कि तुम आनंद तो चाहते हो न; बस, काफी है। आनंद की खोज में लग जाओ। आनंद को
खोजते-खोजते तुम ईश्वर पर पहुंच ही जाओगे। क्योंकि ईश्वर और आनंद एक ही घटना के दो
नाम हैं।
मैं
तुमसे यह भी नहीं कहता कि जाने बिना मान लो। पर इतना तो तुम स्वीकार करोगे न कि
अगर जान लिया,
तो फिर
तो मानोगे न! तो मैं जानने की बात पहले करता हूं; मानने की बात पहले नहीं करता।
मैं नहीं कहता कि मानो, फिर
खोजो। मैं कहता हूं--जानो।
ध्यान
है; कोई श्रद्धा की आवश्यकता नहीं
है। ध्यान तो वैज्ञानिक प्रक्रिया है। ध्यान करो। ध्यान कहता नहीं कि ईश्वर को
मानना जरूरी है। बुद्ध ने ध्यान किया--ईश्वर को बिना माने। महावीर ने ध्यान
किया--ईश्वर को बिना माने।
जिनके
जीवन में श्रद्धा-भक्ति सहज नहीं है, उनके लिए ध्यान का मार्ग है। ध्यान तो
वैज्ञानिक प्रयोग है। जैसे कोई व्यायाम करे, तो शरीर अशक्त होता जाता है। और जब शरीर
अशक्त होने लगता है, तो उसे
भरोसा भी आने लगता है कि व्यायाम का परिणाम हो रहा है। ऐसी ही ध्यान है।
ध्यान
कोई पूर्व-अपेक्षा नहीं करता। तुम ध्यान करो, आत्मा सशक्त होती है। और जैसे-जैसे आत्मा
सशक्त होती है,
बलशाली
होती है,
वैसे-वैसे
तुम पाते हो कि तुम श्रद्धा में तत्पर होने लगे। श्रद्धा छाया की तरह आती है;
आमतौर
से जिसको हम श्रद्धा कहते हैं, वह
कमजोरों में पाई जाती है। वह श्रद्धा असली नहीं है; वह कमजोर की श्रद्धा है; वह नपुंसक की श्रद्धा है।
क्योंकि वह तर्क नहीं कर सकता या तर्क करने में डरता है; या तर्क में कुशल नहीं है, शिक्षित नहीं है। या भयभीत है
कि तर्क करेंगे,
तो
कहीं श्रद्धा खंडित न हो जाए। तो मान कर बैठा हुआ है। यह जो मान कर बैठा हुआ है, इसका परमात्मा सच नहीं है।
माना हुआ परमात्मा सच होगा भी कैसे? और इसके भीतर कहीं गहरे में संदेह मौजूद
रहेगा ही।
इसलिए
मैं तुमसे नहीं कहता कि मान लो। हां, अगर तुम्हारे बिना संदेह के मानना सहज घटता
हो--सौभाग्य। न घटता हो, तो
जबरदस्ती घटाने की कोई जरूरत नहीं है। खोज में लगो। खोजो। ध्यान ध्यान में उतरो।
भक्ति की बात ही छोड़ दो। फिर मलूकदास तुम्हारे लिए नहीं हैं।
लेकिन
मैं मलूकदास पर समाप्त नहीं होता। मलूकदास तुम्हारे लिए नहीं हैं; मैं तुम्हारे लिए हूं।
मलूकदास को छोड़ो। मलूकदास तो कहते हैं। श्रद्धा पहले चाहिए; भक्ति पहले चाहिए। मैं नहीं
कहता। मैं तो तुमसे कहता हूं: जो तुम्हारे पास हो, तुम जो ले आए हो...। श्रद्धा
ले आए,
तो
श्रद्धा से काम चला लेंगे। संदेह ले आए, तो संदेह से भी काम चला लेंगे।
मेरा
परमात्मा बहुत मजबूत है। संदेह से जरा भी भयभीत नहीं होता। और तुम्हें तर्क करने
में मजा हो,
तो
मुझे भी तर्क करने में काफी मजा आता है। इसमें कोई अड़चन नहीं है। इनमें जरा भी
अड़चन नहीं है।
मेरी
परमात्मा की धारणा को कोई तर्क न तो सिद्ध करता है--और न असिद्ध करता है। तर्क तो
खेल है। तर्क का खेल थोड़ा चलाना हो, तो चलाया जा सकता है। उससे कुछ हाथ आता
नहीं। लेकिन तुम्हें जब अनुभव में आ जाएगा, कि उससे कुछ हाथ नहीं आता, तो तर्क अपने आप छूट जाएगा।
और जब
तर्क अनुभव से छूटता है, तो ही
छूटता है। फिर एक श्रद्धा पैदा होती है, जो बड़ी और ही ढंग की श्रद्धा है। उस श्रद्धा
को विश्वास नहीं कह सकते। उस श्रद्धा और विश्वास से फर्क है। विश्वास का अर्थ है:
संदेह तो भीतर है,
ऊपर से
श्रद्धा पोते ली।
श्रद्धा
का अर्थ है: निःसंदिग्ध हो गये; संदेह
बचा ही नहीं;
पोतने
की जरूरत न रही।
निष्फल
नहीं साधना होती
यह
विश्वास लिए बैठी हूं
जग की
जीत पराजय मेरी
होती
रहे सदा जय तेरी
मेरी
सबसे बड़ी जीत है
तेरी
बीन बजे लय मेरी
तेरा-मेरा
भेद मिटा कर ही
संन्यास
लिए बैठी हूं
निष्फल
नहीं साधना होती
यह
विश्वास लिए बैठी हूं।
ऐसा
मैं नहीं कहता। विश्वास लेकर बैठने से कुछ भी न होगा।
आशा और
निराशा दोनों ने मिलकर था बहुत रुलाया
धीरे-धीरे
थपकी देकर चिर-निद्रा में उन्हें सुलाया
अब हो
दिन या रात आंख में
मैं
आकाश लिए बैठी हूं
निष्फल
नहीं साधना होती
यह
विश्वास लिए बैठी हूं
यह
विश्वास बहुत काम नहीं आयेगा। यह मन को मना लेना है। यह अपने को समझा लेना है। यह
सांत्वना ही है।
अंतिम
श्वासों तक लो मुझसे
जितनी
चाहो कठिन परीक्षा
सदा
सत्य की जय होती है
केवल
मुझको यही प्रतीक्षा
इसीलिए
सखि अश्रु भुला कर
मधुमय
हास लिए बैठी हूं
निष्फल
नहीं साधना होती
यह
विश्वास लिए बैठी हूं।
तुम
कितना ही हंसो--आंसुओं को भुलाकर, लेकिन
आंसू तुम्हारी आंखों में डबडबाते रहेंगे। इसीलिए सखि अश्रु भुलाकर, मधुमय हास लिए बैठी हूं। भुला
कर...। जिन्हें भुला दिया हैं, वे मिट
नहीं गए हैं। निष्फल नहीं साधना होती, यह विश्वास लिए बैठी हूं। यह विश्वास बहुत
काम न आएगा। यह कमजोर का विश्वास है। ऐसे विश्वास का मेरा कोई आग्रह नहीं है। मैं
तो तुमसे कहता हूं--जानो।
सुबह
सूरज उगता है;
तो तुम
सुबह के सूरज में विश्वास थोड़ी ही करते हो। तुम यह थोड़े ही कहते हो कि मुझे
विश्वास है कि सूरज उग गया। इसमें कोई विश्वास करने की तो जरूरत नहीं होती। जो
है--जिसका अनुभव हो रहा है--उसमें कैसे विश्वास करोगे!
विश्वास
तो उसमें करना होता है, जिसका
अनुभव नहीं हो रहा है। आकांक्षा के वश, वासना वेश विश्वास कर लेते हैं; डर के वश, भय के वश विश्वास कर लेते हैं; लोभ के वश विश्वास कर लेते
हैं।
तुम्हारा
भगवान भय का ही मूर्तिमान रूप है। तुम्हारा भगवान तुम्हारे लोभ का ही विस्तार है।
इस भगवान में मेरी कोई श्रद्धा नहीं है। और इस भगवान को मैं तुम्हारे ऊपर थोपना भी
नहीं चाहता। इस भगवान को थोपने के कारण ही मनुष्य जाति इतनी अधार्मिक हो गई है।
एक बात
सुनिश्चित जानो: ईमानदार नास्तिक, बेईमान
आस्तिक से बेहतर है। जिसे साफ-साफ पता है कि मुझे भरोसा नहीं है, और जो स्वीकार करता है कि
मुझे भरोसा नहीं है, यह कम
से कम प्रामाणिक तो है! सच्चा तो है।
सत्य
इतना है,
तो फिर
सत्य को और बड़ा किया जा सकता है। लेकिन जो आदमी भीतर से जो जानता है कि ईश्वर
वगैरह का मुझे कुछ पता नहीं है और ऊपर से दोहराता हैं कि मुझे भरोसा है...।
अकसर
ऐसा होता है कि जितने जोर से तुम दोहराते हो कि मुझे भरोसा है, उतना ही तुम्हें संदेह होता
है। जोर से दोहराकर तुम अपने की ही झुठलाना चाहते हो।
तुम
छाती पीट कर दोहराते हो कि मुझे ईश्वर में भरोसा है। वह छाती पीटना बताता है कि
तुम्हें भरोसा नहीं है। अन्यथा छाती पीटने की जरूरत ही न थी।
मेरे
पास कोई आ जाता है कभी, कहता
है: मुझे ईश्वर में दृढ़ विश्वास है। मैं कहता हूं: विश्वास से ही काम चल जाता; दृढ़ क्या लगा रहे हो! दृढ़ का
मतलब क्या?
जब कोई
किसी से कहता है: मुझे तुमसे पूरा-पूरा प्रेम है। में उससे कहता हूं पूरा-पूरा
काहे के लिए गला रहे हो! प्रेम काफी नहीं है? प्रेम में कुछ अधूरा भी होता है? प्रेम--और पूरा?--होता ही है। इसलिए पूरे को
जोड़ना प्रेम में खतरनाक है। उसका मतलब साफ है कि है नहीं; सिर्फ दिखला रहे हो। और कही
ऐसा न हो--किसी को शक न हो जाए, इसलिए
बार-बार दोहराते हो: पूरा-पूरा; दृढ़
विश्वास।
यह जो
गीत है,
यह ऐसा
ही गीत है: निष्फल नहीं साधना होती, यह विश्वास लिए बैठी हूं। निष्फल न हो--ऐसी
वासना है मन में। कहीं साधना निष्फल न हो जाए, इसलिए अपने को झुठला रहे हैं कि नहीं, नहीं; कभी नहीं होती। साधना कहीं
निष्फल होती है?--कभी नहीं होती। मगर डर तो
भीतर लगा है। जग की जीत पराजय मेरी
होती
रहे सदा जय तेरी
मेरी
सबसे बड़ी जीत है
तेरी
बन बजे लय मेरी
तेरा-मेरा
भेद मिटा कर ही
संन्यास
लिए बैठी हूं
निष्फल
नहीं साधना होती
यह
विश्वास लिए बैठी हूं।
यह
विश्वास वास्तविक नहीं है। इसमें भीतर आकांक्षा तो है--अनुभूति नहीं है। और मेरा
सारा जोर अनुभूति पर है।
जो
अजित को मैं कहूंगा कि कोई जल्दी नहीं है--श्रद्धा और भक्ति की। जब समय पकेगा, ऋतु आयेगी--श्रद्धा भी आएगी।
संदेह है--चलो,
संदेह
से शुरू करें। चिंतन-मनन उठता है--चिंतन-मनन से शुरू करें।
भक्ति
की झंझट में पड़ो ही मत। उपाय है। परमात्मा तक पहुंचने का प्रत्येक के लिए उपाय है; जो जहां है, वहीं से राह मिलेगी। और वही
से राह मिल सकती है; वहीं
और से राह मिलेगी भी नहीं।
तुम
वहीं से तो चलोगे न, जहां
तुम खड़े हो। अगर तुम संदेह में खड़े हो, तो संदेह से ही चलना होगा। यह तो इतनी सीधी
बात है। तुम जहां खड़े हो वहीं से तो यात्रा शुरू होती न!
बाबा
मलूकदास जहां खड़े हैं, वहां
तुम खड़े हो भी कैसे सकते हो? तुम्हें
तो अपनी जगह से ही यात्रा का पहला कदम उठाना पड़ेगा। तुम अगर संदेह भरे हो, तो संदेह से ही चलना होगा।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं: संदेह के साथ भी परमात्मा तक पहुंचा जा सकता है। और
जिसने परमात्मा की कभी नहीं नहीं कहा, उसकी हां में कभी बल नहीं होता।
नहीं
कहो; डरो मत। परमात्मा से क्या
डरना! हम उसके हैं अगर है कहीं, तो
डरना क्या। और नहीं है, तब तो
डरने की कोई बात ही नहीं है। नहीं कहां; हिम्मत से नहीं कहो; बलपूर्वक नहीं कहो। तुम्हारे
नहीं से ही धीरे-धीरे अनुभव बढ़ेगा। इनकार कर-करके तुम पाओगे: इनकार हो नहीं पाता।
लाख उपाय करो भुलाने का, लेकिन
संदेह से भी गहरा तुम्हें अनुभव में आना शुरू होगा--कहीं श्रद्धा का स्वर है।
क्योंकि
बच्चा जब पैदा होता है, तो
श्रद्धा लेकर आता है; संदेह
तो बाद में सीखता है। बच्चा पैदा होता है, तब कोई संदेह नहीं होता उसमें। हो नहीं
सकता। संदेह आयेगा। कहां से?
मां के
स्तन से दूध पीता है, तो
संदेह थोड़े ही करता है कि पता नहीं--जहर हो; कि कोई बीमारी हो। दूध पीता है। कोई
परमश्रद्धा है भीतर कि पौष्टिक होगा दूध।। कोई अनजाने ही भीतर गहरा भाव है। कि दूध
भोजन है। पहले कभी पिया भी नहीं; पहले
कभी स्तन देखे भी नहीं। लेकिन कोई अपूर्व घटना घटती है और बच्चा स्तन से दूध पीने
लगता है;
चूसने
लगता है दूध: पहल कभी चूसा नहीं, तो यह
विचार से घट नहीं सकता, संदेह
से घट नहीं सकता: तर्क से घट नहीं सकता। यह तो किसी श्रद्धा से घट रहा है।
मां पर
भरोसा कर लेता है। मां मार डालेगी--ऐसा संदेह तो नहीं करता। और ऐसा भी नहीं है कि
माताओं ने कभी बच्चे न मारे हों। मारे हैं। लेकिन फिर भी हर बच्चा जब आता है, तब संदेह नहीं करता--फिर
श्रद्धा करता है।
श्रद्धा
स्वाभाविक है;
फिर हम
संदेह सीखते हैं। तो श्रद्धा तो हमारा पहला केंद्र है। संदेह उसे ऊपर परिधि की तरह
लग जाता है। फिर जीवन के अनुभव हमें संदेह सिखा देते हैं। अपने को बचाने के लिए, सुरक्षा के लिए हम संदेह करते
हैं--श्रद्धा नहीं करते। क्योंकि काई धोखा दे जाए; कोई धन छीन ले; कोई कुछ नुकसान पहुंचा दे, तो हम संदेह करते हैं।
संदेह
हमारे जीवन के अनुभव में से निकलता है। श्रद्धा हम ले कर आते हैं। फिर संदेह के
साथ-साथ हम विश्वास सीखते हैं। संसार के प्रति संदेह सीखते हैं; और फिर मां-बाप सिखाते हैं:
हिंदू मुसलमान बन जाओ; ईसाई
बन जाओ;
जैन बन
जाओ। तो विश्वास सिखाते हैं। अब यह समझो तुम। पहली पर्त: स्वाभाविक श्रद्धा की; उसके ऊपर एक अनुभव की
पर्त--संदेह की। और फिर उस संदेह के ऊपर एक विश्वास की पर्त। तो जो विश्वास है
उसके नीचे संदेह है। और जो संदेह है, उसके नीचे श्रद्धा है।
तो मैं
तुमसे विश्वास के लिए तो कहता ही नहीं। उससे कुछ होगी भी नहीं; वह तो बड़ी ऊपर-ऊपर है। वह तो
ऐसा ही है जैसे कि जहर की गोली हमें किसी को खिलानी हो, तो शक्कर की पर्त लगा देते
हैं, बस। है तो संदेह, ऊपर से श्रद्धा पोत दी। पोती
हुई श्रद्धा यानी विश्वास। और जब तुम अपने भीतर खोद कर, अपने संदेह की पर्त को तोड़ कर
अपने भीतर के झरने को मुक्त करोगे--तो श्रद्धा।
इसलिए
मैं कहता हूं: ध्यान करो। तोड़ अपने संदेह की पर्त। वह सिखावन है; उसका कोई मूल्य नहीं है; वह टूट जाएगी। वह कोई बहुत
गहरी भी नहीं है। उसके टूटते ही श्रद्धा का झरना फूटता है। तब तुम ऐसा कहते हो कि
परमात्मा है;
मैं
नहीं हूं। विश्वास का कोई सवाल नहीं है।
ठहरो
भी, मन चंचल न करो।...
तो
अजिता को इतना ही करना चाहता हूं: संन्यासिनी भी तू हो गई; श्रद्धा भक्ति भी नहीं है, फिर भी तू दौड़ी चली आती है।
जिनमें श्रद्धा-भक्ति है, उनसे
थोड़ी ज्यादा ही आती है!
ठहरो
भी, मन चंचल न करो!
सम्मोहन-सागर-सी
आंखें
रस-पांखी
की मदरिक पांखें
पलक-मानसर
उतरें खंजन
उछरी
लाख-लाख अभिलाखें
पर
संकोच खड़ा दृग पथ में
लज्जा
गड़ती गति-शलथ-अथ में
इतना
क्या कम हुआ बावरे
समझो
भी, प्रण दुर्बल न करो!
मन
चंचल न करो !!
इतना
भी हो गया संदेह के साथ--कि संन्यास हो गया!
इतना
क्या कम हुआ बावरे
समझो
भी, प्रण दुर्बल न करो
मन
चंचल न करो
रोम-रोम
तन्मय कर बैठा
अब तो
जो होना है हो ले
मैं तो
दृढ? निश्चय कर बैठा
पाणिग्रहण
कर राह दिखाओ
पास
रहो, अब दूर न जाओ
युग-युग
पर साधना फली है
यह
जीवन भी निष्फल न करो!
मन
चंचल न करो!!
संन्यास
घट गया;
शायद
अनजाने घट गया। शायद तुम्हें पता भी न चला: कब घट गया, कैसे घट गया! मुझसे लगाव भी
बन गया। श्रद्धा नहीं थी, मुक्ति
नहीं थी,
फिर भी
लगाव बन गया। तो अब इस लगाव को कोई तोड़ न सकेगा।
श्रद्धा-भक्ति
से बना होता,
तो
शायद किसी दिन अश्रद्धा आ जाती, अभक्ति
आ जाती,
तो टूट
जाता। अब तो कैसे टूटेगा! अब तो अश्रद्धा अभक्ति आ जाए, तो भी टूटने का कोई कारण नहीं
है। श्रद्धा-भक्ति के कारण जो बना नहीं, वह अश्रद्धा अभक्ति से टूटेगा भी नहीं।
अब
थोड़ा खोज में उतरो। खोज के लिए, मैं
सदा कहता हूं--दो मार्ग हैं; एक
प्रेम का,
प्रेम
में श्रद्धा पहला कदम है। दूसरा मार्ग है: ध्यान का में श्रद्धा पहला कदम नहीं
है--अंतिम चरण है।
तो
जिनको श्रद्धा सहज हो, वे चल
पड़े भक्ति में;
और
जिनको श्रद्धा में जरा तभी अड़चन मालूम पड़ती हो, कोई कारण नहीं है परेशान होने का। वे डूबने
लगें ध्यान में। अंतिम घड़ी में दोनों एक ही जगह पहुंच जाते हैं। मंजिल एक
है--मार्ग अनेक हैं।
और अब
मैं जाने भी न दूंगा।
चांदनी
से किसी ने पखारे चरण
धूल की
राह पर पांव कैसे धरूं!
और एक
बार भी तुमने अगर मेरे प्रेम में थोड़ा स्नान किया, और थोड़ी सी भी तुम्हें मेरी
किरण छू गई,
और थोड़ी
सी भी तुम्हें सुगंध छू गई; तुम्हारे
नासापुट थोड़े मेरे सुगंध से भर गये, तो बहुत कठिन हो जाएगा--तुम्हें कहीं और
जाना।
चांदनी
से किसी ने पखारे चरण
धूल की
राह पर पांव कैसे धरूं!
मुश्किल
हो जायेगा।
बेड़ियों
के बिना ही बंधे पांव हैं
स्नेह
की बदलियों की सजल छांव है।
यहां
तुम्हें कोई बेड़ियां और जंजीरें नहीं पहनाई जा रही हैं। यहां तो स्वतंत्रता से ही
तुम्हें बांधा जा रहा है। तुम, बंधन
होते, तो शायद तोड़ कर भाग भी जाते; यहां बंधन हैं ही नहीं।
संन्यास यानी स्वतंत्रता।
बेड़ियों
के बिना ही बंधे पांव हैं
स्नेह
की बदलियों की सजल छांव है
मुक्ति
संन्यासिनी बंधनों की शरण
धूल की
राह पर पांव कैसे धरूं!
शायद
आकस्मिक रूप से संन्यस्त होना हो गया है। शायद अचेतन कि किसी गहरी आकांक्षा ने
संन्यास में कदम उठवा दिया है। सोच-विचार कर नहीं भी लिया है; तो भी।
मुक्ति
संन्यासिनी बंधनों की शरण
धूल की
राह पर पांव कैसे धरूं!
संसार
अब तुम्हें लुभा न सकेगा। एक नई पुकार उठ गई है। एक नया आह्वान मिला है।
झुक
रहा नील अंबर सितारों जड़ा
मुस्कुराता
हुआ शशि बरजता खड़ा
मैं
चलूं तो लिपटनी हठीली किरन
धूल की
राह पर पांव कैसे धरूं!
मैं
चलूं तो लिपटती हठीली किरन
धूल की
राह पर गांव कैसे धरूं!
जग रही
रातरानी सुगंधों भरी
है सजल
केतकी की मृदुल पांखुरी
शूल
आंचल गहे,
राह
रोंके सुमन
धूल की
राह पर पांव कैसे धरूं!
समुंदर
सजाया सजल पुतलियों मग
कि
आंचल दबाया विकल अंगुलियों में
द्वार
रोके खड़े प्रभु भीगे नयन
धूल की
राह पर पांव कैसे धरूं!
कठिन
हो जाएगा अब। जाने को कोई उपाय नहीं है। लेकिन जाने की बात अगर मन में उठती हो, तो उस सुविधा के कारण, जो विकास हो सकता है, वह अवरुद्ध होगा। लौट तो नहीं
सकते, लेकिन अगर लौटने का खयाल मन
में आता रहे,
तो आगे
गढ़ना रुक जाएगा। अटक जाओगे।
उठा
लिया है एक कदम,
अब
दूसरा भी उठाने की हिम्मत करो। संन्यास तो ले लिया, अब ध्यान में डूबो। ध्यान से
ही गति मिलेगी,
दिशा
साफ होगी। और ध्यान से हो थिरता आयेगी। और ध्यान से ही तुम्हारी जड़ें जमीन में
उतरेंगी। और ध्यान से ही तुम पर हरे पत्ते फूटेंगे और कलियां निकलेंगी--और फूल
खिलेंगे।
आखिरी प्रश्न: क्या देख और समझ कर आपने मेरे जैसे मूढ़ का भी आश्रम
में स्थान दिया? किसलिए?
प्रश्न
है कृष्ण प्रिया का। इसीलिए।
मूढ़ता
का जिसे बोध हो जाए, जिसे
ऐसा साफ लगने लगे कि मैं मूढ़ हूं, वह फिर
मूढ़ नहीं रहा। मूढ़ तो वे ही हैं, जिन्हें
यह खयाल है कि वे ज्ञानी हैं; जिन्हें
यह खयाल है कि वे जानते हैं।
जिसे
यह स्मरण आ जाए कि मैं मूढ़ हूं उसके जीवन में किरण उतरने लगी; उसके जीवन में प्रभात आने के
करीब हो गया;
रातें
टूटने लगी।
मैं
नहीं जानता हूं--यह जानने का पहला कदम है। मैं जानता हूं--इसमें अवरोध पड़ जाता है।
इसलिए पंडित कभी परमात्मा तक नहीं पहुंच पाते। सरल हृदय लोग, सीधे-सादे लोग, जिनका कोई दावा नहीं है, जिन्हें शास्त्रों का कोई
सहारा नहीं है,
जिन्हें
सिद्धांतों की कोई पकड़ नहीं है; जो
कहते हैं: हमें कुछ भी पता नहीं है--ऐसे जो लोग हैं, वे जल्दी पहुंच जाते हैं।
पूछती
हो: क्या देख और समझ कर आपने मेरे जैसे मूढ़ को भी आश्रम में स्थान दिया? यही देख कर--कि पंडित नहीं
हो।
और
मूढ़ता का पता है,
तो
मूढ़ता टूट जाएगी। कुछ चीजें हैं, जो बोध
से मर जाती हैं। जैसे अंधेरे में अगर तुम दीया ले आओ, तो अंधेरा समाप्त हो जाता है।
ऐसे ही मूढ़ता में अगर थोड?ा होश
आ जाए;
होश का
दीया जल जाए--कि मैं मूढ़ हूं--तो मूढ़ता समाप्त हो जाती है।
यह होश
असली ज्ञान है। इसलिए यहां जो प्रयोग चल रहा है, वह इसी बात का है; तुमसे पाप तो कम छीनने हैं, तुमसे पांडित्य ज्यादा छीनना
है। पाप से कोई आदमी इतना नहीं भटका हुआ है, जितना पांडित्य से भटक हुआ है।
तुमने
क्या किया है,
उससे
बहुत बाधा नहीं है। तुम्हारा अहंकार तुम्हारे पाप के आधार पर नहीं टिका है।
तुम्हारा अहंकार तुम्हारे पाप के आधार पर नहीं टिका है। तुम्हारा अहंकार तुम्हारे
ज्ञान के आधार पर टिका है। तुम्हारा अहंकार तुम्हारे वेद, कुरान, बाइबिल पर टिका है।
तुम्हारे
जीवन से सारे शास्त्र हट जाएं; तुम
फिर से निर्दोष बच्चों की भांति हो जाओ; तुम्हारे मन की स्लेट खाली हो जाए, उस पर कुछ लिखावट न रह जाए, उसी घड़ी क्रांति घट जाएगी।
इधर
तुम शून्य हुए कि इधर पूर्ण तुममें उतरना शुरू हुआ। शून्यता पूर्णता को पाने की
पात्रता है।
आज इतना ही।
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