ज्योति से ज्योति जले-(सूंदर दास)
प्रवचन-सौहलवां
प्रश्नसार:-आत्मा ही परमात्मा है
जीवन खत्म हुआ तो जीने का ढंग आया।
जब शमा बुझ गयी तो महफिल पर रंग आया।।
बुढ़ापे में तन अस्वस्थ परंतु मन स्वस्थ। स्वर्ग,
मोक्ष, निर्वाण की इच्छा से दूर . . .। परंतु इसी पृथ्वी पर
श्री रजनीश आश्रम, स्वर्ग की तस्वीर, यह उत्सव-लीला
देखने की प्रबल इच्छा क्यों और किसलिए?
तू मेरी जन्म-क्षण की तलाश है
गहनतम में मृत्यु-क्षण की प्यास है
उसी का परिणाम है कि तेरे पास हूं
एक ओर, चारों ओर तेरी सुवास हूं
फिर भी भीतर से एक पीड़ा प्रतिपल
कह रही है यह भी कुछ खास नहीं
पूरा जीवन एक फांस है
पुकार उठती है--
कब, कैसे फांस आस बनेगी?
राजनीति की इतनी प्रतिष्ठा क्यों है?
राजनेता सबकी छाती पर आज क्यों चढ़ बैठे हैं?
क्या आप सिद्ध कर सकते हैं कि परमात्मा है?
पहला प्रश्न : भगवान्!
जीवन खत्म हुआ तो जीने का ढंग आया।
जब शमा
बुझ गयी तो महफिल पर रंग आया।।
बुढ़ापे
में तन अस्वस्थ परंतु मन स्वस्थ। स्वर्ग, मोक्ष, निर्वाण की इच्छा से दूर . . .। परंतु इस
पृथ्वी पर श्री रजनीश आश्रम, स्वर्ग
की तस्वीर,
यह
उत्सव-लीला देखने की प्रबल इच्छा क्यों और किसलिए?
कमल
महाराज! जीवन न तो शुरू होता है और न समाप्त। यह शमा न तो कभी जली है न कभी
बुझेगी। बिन बाती बिन तेल। अनेक-अनेक रूपों में जीवन चलता रहा है, अनेक-अनेक रूपों में चलता
रहेगा। ज्योति जलती रही है . . .दीयों के सहारे बदले हैं--कभी इस देह में कभी उस
देह में,
कभी इस
घर में कभी उस घर में। ऐसा तो भूलकर भी मत सोचना कि जीवन खत्म हुआ तो जीने का ढंग
आया।
जो
जीवन खत्म हो जाता है, वह तो
जीवन ही नहीं है;
वह तो
जीवन की भ्रांति है। जो खत्म नहीं होता वही जीवन है। और उसी की झलक आनी शुरू हो
रही है। इसलिए लग रहा है कि जीने का ढंग आया। झूठा जीवन समाप्त हुआ, सच्चा जीवन शुरू हुआ। झूठे
जीवन का बचपन होता है, जवानी
होती है,
बुढ़ापा
होता है;
जन्म
होता है और मृत्यु होती है। सपने शुरू होते हैं और समाप्त होते हैं। असली जीवन का
न तो जन्म न मृत्यु, न बचपन
न जवानी,
न
बुढ़ापा। असली जीवन समयातीत है। उसकी कोई उम्र नहीं होती।
तो एक
तरह से तुम ठीक ही कह रहे हो कि जीवन खत्म हुआ तो जीने का ढंग आया। झूठा जीवन खत्म
हुआ। सच्चे जीवन की तरफ कदम उठे। आंखों में सच्चे जीवन की थोड़ी-सी लाली आयी।
"जब शमा बुझ गयी तो महफिल पर रंग आया।' आता ही महफिल पर रंग तब है! झूठी शमा, जिसे हम अहंकार कहते हैं, उसकी वजह से ही दुर्गंध है।
उसकी वजह से ही तो सब बेरंग है, बदमजा
है। असली ज्योति जले . . .जल ही रही है--हमें पता चले, पहचान हो, प्रत्यभिज्ञा हो, हमें उसका स्मरण आए।
रवींद्रनाथ
एक बजरे में थे। पूरे चांद की रात . . .और एक मोमबत्ती जलाकर अपने बजरे की, नाव की छोटी-सी कोठरी में, बैठे किताब पढ़ते रहे। किताब
थी सौंदर्यशास्त्र पर। आधी रात हो गयी, तब मोमबत्ती बुझायी। मोमबत्ती बुझाते ही
चौंक गए,
अवाक्
हो गए। एक क्षण को तो समझ में ही न आया कि क्या जादू हो गया है! जैसे ही मोमबत्ती
बुझी, द्वार-दरवाजे से, खिड़की से, रंध्र-रंध्र से चांद भीतर आ
गया। लिखा है अपनी डायरी में : एक छोटी-सी मोमबत्ती के पीले प्रकाश ने, एक टिमटिमाती मोमबत्ती ने
चांद की अमृत-ज्योति को बाहर रोक रखा था; इधर मोमबत्ती बुझी, उधर चांद भीतर आया। मैं
सौंदर्यशास्त्र पढ़ रहा था और सौंदर्य बाहर बरस रहा था। मैं किताब में उलझा था और
सत्य द्वार पर दस्तक दे रहा था।
बाहर
निकल आए। नाचने लगे चांद के नीचे।
ऐसे ही
टिमटिमाता यह अहंकार का दीया है। इसकी रोशनी के कारण असली रोशनी बाहर रुकी पड़ी है।
द्वार पर दस्तक देती है, मगर
इसके शोरगुल के कारण सुनाई नहीं पड़ता।
शुभ
घड़ी आयी,
कमल
महाराज! अब सुनायी पड़ने लगा। धीमी-धीमी महक आने लगी। और बुढ़ापे में भी आ जाए तो भी
जल्दी है,
क्योंकि
जन्मों-जन्मों में भी आ जाए तो भी जल्दी है।
और
खयाल रहे,
बचपन
तो नादान होता है,
नासमझी
से भरा होता है। बच्चे निर्दोष होते हैं, मगर उनकी निर्दोषता अज्ञान का ही दूसरा नाम
है। वे भटकेंगे। उनकी भटकन सुनिश्चित है। अदम को स्वर्ग के बगीचे से निकाला जाएगा।
निकलना ही पड़ेगा। हर बच्चे को संसार में उतरना ही पड़ेगा। जाना ही पड़ेगा अंधेरे
रास्तों पर। होना ही होगा चालाक। सीखने ही होंगे रंग-ढंग दुनिया के। विकृति आएगी
ही, बचाव का कोई उपाय नहीं है।
जीवन का यह सहज क्रम है। बच्चे न भटकें तो कच्चे रह जाएंगी। बच्चे भटकेंगे तो ही
पकेंगे,
तो ही
जीवन की धूप उन्हें पकाएगी।
तो
बचपन तो नादान है,
क्षम्य
है। जवानी मूच्र्छित है, बेहोश
है। बड़ा नशा भरा होता है। प्रकृति जवानी का उपयोग करती है जवानी को बेहोश करके।
जवान सोचता है मैं कर रहा हूं। भ्रांति में है। प्रकृति करवा रही है। एक युवक एक
युवती के प्रेम में पड़ गया, या
युवती युवक के प्रेम में पड़ गयी; वे
सोचते हैं,
हम
प्रेम कर रहे हैं। और प्रकृति हंसती है! प्रकृति का आयोजन है; तुम उसके फांस में फंसे।
प्रकृति को न तो प्रयोजन है तुमसे, न तुम्हारी प्रेयसी से; प्रकृति को प्रयोजन है इतना
कि जीवन इस जगत् से उठ न जाए। संतति से प्रयोजन है प्रकृति को। बच्चा पैदा होना
चाहिए। इसके पहले कि तुम उजड़ जाओ, जीवन
की धारा नहीं सूखनी चाहिए।
प्रकृति
की एक अंधी प्रक्रिया है कि बच्चे पैदा होने चाहिए। लेकिन ज़रा सोचो, अगर प्रेम का मोह न जगे, प्रेम की मूर्च्छा न आए, प्रेम का जादू आंखों को न भरे, तो कौन बच्चों के उपद्रव में
पड़ेगा?
कौन
स्त्री नौ महीने तक बच्चे को गर्भ में ढोएगी, किसलिए? क्यों कष्ट उठाएगी? क्यों प्रसव की पीड़ा झेलेगी? और कोई आदमी क्यों जिंदगीभर
धक्के खाएगा दफ्तरों में, गिट्टियां
फोड़ेगा सड़कों पर,
बच्चों
को बड़ा करेगा?
किस
कारण? क्या लेना-देना है? लेकिन प्रकृति ने एक ऐसी गहरी
मूर्च्छा दी है,
एक ऐसा
सम्मोहन दिया है कि उस मूर्च्छा में आदमी सब कर जाता है।
प्रकृति
को पुरुष से इतना ही प्रयोजन है कि तुम्हारे भीतर जो जीवन-ऊर्जा के कोष्ठ हैं वे
नष्ट न हो जाएं। इसके पहले कि तुम नष्ट हो जाओ वे जीवन-ऊर्जा के कोष्ठ किसी गर्भ
में जाकर अपनी जड़ें जमा लें। बस इतना प्रयोजन है। फिर तुम्हें मरना हो तो मर जाना
और पार्लियामेंट के मेंबर होना हो तो पार्लियामेंट के मेंबर हो जाना। जो तुम्हें
करना हो करना। प्रकृति की कुल आकांक्षा इतनी है, इससे भिन्न कोई आकांक्षा
नहीं।
इसलिए
बहुत-से कीड़े-मकोड़ों में तो यह घटना घटती है कि पुरुष संभोग करते-करते ही मर जाता
है। तुम जानकर चकित होओगे, कुछ
मकड़ियां तो संभोग करते-करते ही संभोग करने वाले अपने प्रेमी को खा जाती हैं।
गर्भाधान हो गया,
बस बात
खत्म हो गयी। और मकड़ा इतना मोहाच्छन्न होता है कि उसे समझ में ही नहीं आता। वह
इतना मदमस्त होता है। संभोग कर रहा है यह और मकड़ी उसे खाना शुरू कर देती है। काम
उसका खत्म हो गया। लेकिन जब तक गर्भाधान न हो जाए, तब तक नहीं खाती; जैसे ही गर्भाधान हो गया, वैसे ही खा जाती है। बहुत-से
मकोड़े संभोग एक ही बार करते हैं और मर जाते हैं। काम पूरा हो गया। उनसे प्रकृति ने
अपना काम ले लिया।
जवानी
मूर्च्छा है। प्रकृति के हाथों में आदमी का गला है। बहुत कठिन है कि कोई जवानी में
होश को उपलब्ध हो जाए। हो जाता है कभी-कभी कोई, पर अति कठिन है।
वृद्धावस्था
बोध के लिए सर्वाधिक सुगम है। बचपन की नासमझी भी गयी, जिंदगी की चालाकियों ने पका
भी दिया। धोखे-धड़े भी करके देख लिए और कुछ पाया नहीं। धोखा-धड़ी की व्यर्थता भी जान
ली, पहचान ली। अब उसमें कुछ रस न
रहा। अब फिर एक नया निर्दोष भाव आना शुरू हुआ। बच्चे का निर्दोष भाव तो
स्वभाव-जन्य था,
लेकिन
अब अनुभव-जन्य निर्दोष भाव आया। जवानी की दौड़धूप तो मूच्र्छित थी। अब पैरों में
थोड़ा होश आया।
इसलिए
पूरब के देशों में हमने वृद्ध को सम्मान दिया है। और पश्चिम की बड़ी भूल है, वृद्ध का सम्मान वहां खोता जा
रहा है। जिस देश में और जिस समाज में और जिस संस्कृति में वृद्ध का सम्मान खो जाता
है, समझ लेना उस संस्कृति और समाज
में ईश्वर की जगह समाप्त हो गयी। वृद्ध का सम्मान तभी समाप्त होता है जब ईश्वर से
हमारे नाते टूट जाते हैं। क्योंकि वृद्धावस्था ईश्वर के अनुभव के लिए सुगमतम है।
जवानी की मूर्च्छा भी टूट गयी; देख
लिए राग-रंग,
उनकी
व्यर्थता,
उनके
उपद्रव . . .। दूर के ढोल सुहावने थे; पास जाकर ढोल ही हैं, यह भी जान लिया। बचपन की
नासमझी भी गयी।
वृद्धावस्था
में इस बात की संभावना है कि अब आदमी प्रकृति के पार उठ सके। प्रकृति के पार उठने
का अर्थ ही शरीर के पार उठना होता है। शरीर यानी प्रकृति। जवान शरीर के पार नहीं
उठ पाता। कठिन है। बहुत कठिन है। अत्यंत संघर्ष की बात है। इसलिए जिन धर्मों ने
युवा को मुक्ति का संदेश दिया, उन
धर्मों को बड़े संघर्ष से गुजरना पड़ा। उनकी प्रक्रिया संकल्प की हो गयी, क्योंकि लड़ना पड़ेगा। जैसे
जैनों ने युवा को संन्यस्त होना चाहिए, इस बात की घोषणा की। उसके पीछे अपने कारण
हैं। कारण यही है कि युवा के पास बड़ी ऊर्जा है। अगर इतनी सारी ऊर्जा को परमात्मा
की तरफ लगा दिया जाए तो गति तीव्रता से होगी, यह बात सच है। लेकिन यह ऊर्जा ऐसी है कि
इसको लगाना बहुत मुश्किल है। यह ऊर्जा तो प्रकृति की तरफ लगी हुई है। यह ऊर्जा तो
मूच्र्छित है। जवान अभी इतना अनुभवी नहीं है कि जाग जाए। इसलिए जैनों की सारी
साधना-प्रक्रिया दमन की है, रिप्रेशन
की है।
हिंदुओं
की साधना-प्रक्रिया ज्यादा सहज है। हिंदुओं ने चार विभाजन कर दिए हैं पच्चीस वर्ष
के, अगर हम सौ वर्ष उम्र मान लें
आदमी की। काल्पनिक उम्र सौ वर्ष मान लें तो पच्चीस वर्ष विद्या-अध्ययन, गुरुकुल में आवास। सारी ऊर्जा
जीवन की तैयारी में लगा देनी है। ब्रह्मचर्य। और तुम यह जानकर हैरान होओगे कि
विद्यार्थी को ब्रह्मचर्य की शिक्षा इसीलिए देते थे ताकि आने वाले गृहस्थ जीवन में
वह भोग की गहरी से गहरी अनुभूति में उतर सके। यह तुम जानकर हैरान होओगे कि
ब्रह्मचर्य की शिक्षा ब्रह्मचर्य के लिए नहीं थी विद्यार्थी के लिए। उसका लक्ष्य
ब्रह्मचर्य नहीं था; उसका
लक्ष्य भोग की चरम पराकाष्ठा पाना था। क्योंकि जिसके पास ऊर्जा होगी, वही भोग की पराकाष्ठा पा
सकेगा। और जो भोग की पराकाष्ठा पाता है, वही भोग के पार जा सकता है। नहीं तो भोग
अटका रह जाता है। जो भोगा ही नहीं है उसको त्यागोगे कैसे? तेन त्यक्तेन भुंजीथाः।
जिन्होंने भोगा है, वे ही
त्याग सके हैं। लेकिन भोगोगे कैसे, अगर ऊर्जा ही पास न होगी?
इसलिए
जो पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का आयोजन था, वह कोई ब्रह्मचर्य की सेवा में नहीं था, वह भोग की सेवा में था। यह
जानकर तुम चकित होओगे। तुम्हारे पंडित-पुजारी कुछ उल्टा ही समझाते फिरते हैं। उसका
लक्ष्य इतना ही था कि पच्चीस वर्ष तक युवा इतनी ऊर्जा इकट्ठी कर ले, कि जब वह भोग में उतरे, तो भोग की चरम अनुभूति का
अनुभव हो जाए। और जिस चीज की भी चरम अनुभूति हो जाती है उसी से छुटकारा हो जाता है, क्योंकि फिर उसमें कुछ सार
नहीं बचता। अगर अनुभूति आधी-आधी हो, तो सार बचता है--अभी कुछ और होने को है, अभी कुछ और होने को है; थोड़ा और हो जाए, थोड़ा और हो जाए! कौन जाने
थोड़ा और शेष हो! मन अटका रहता है, उलझा
रहता है। अगर अनुभूति पूरी हो जाए, अगर पच्चीस वर्ष तक कोई ठीक से ब्रह्मचर्य
से रहा है तो संभोग का एक अनुभव उसे कामवासना से मुक्त करा सकता है, इस बात की संभावना है। सिर्फ
एक अनुभव! देख लिया, जान
लिया।
फिर
दूसरी अवस्था भी पच्चीस वर्ष की--गृहस्थ की, भोग की। यह बड़ा उल्टा लगेगा कि पच्चीस वर्ष
तक ब्रह्मचर्य ,
फिर
भोग! मगर इसके पीछे गहरा विज्ञान है। ऐसा ही होना चाहिए। पहले इकट्ठा करो, तभी तो लुटा सकोगे। हो, तो दे सकोगे। पच्चीस वर्ष गहन
भोग--बिना किसी व्यवधान के, बिना
किसी रोक के,
बिना
किसी दमन के। हिंदुओं ने जो व्यवस्था खोजी थी, वह सर्वाधिक वैज्ञानिक व्यवस्था है। और
मनुष्य की प्रकृति को सब तरफ से सोच-समझकर निर्णीत की गयी है, एकांगी नहीं है, सर्वांगीण है, समग्र है। पच्चीस वर्ष तक खूब
भोगा--धन को,
पद को, लोभ को, मोह को, काम को, सब को भोग लो। ठीक से भोग लो
ताकि पच्चीस वर्ष विदा होते-होते, जब तुम
पचास वर्ष के होने लगो, और
तुम्हारे बेटे गुरुकुल से वापिस आने के करीब होने लगें, तब तुम वानप्रस्थ हो जाओ।
"वानप्रस्थ' शब्द बड़ा प्यारा है। इसका
अर्थ है : तुम्हारा मुंह जंगल की तरफ हो जाए। अभी जंगल गए नहीं हो, लेकिन जाने की तैयारी शुरू हो
जाए, आयोजन शुरू हो जाए। प्रस्थान
की पूर्व-भूमिका बननी शुरू हो जाए--वानप्रस्थ। बाजार में हो भला अब, लेकिन आंखें जंगल पर लग जाएं।
अब पीठ बाजार की तरफ हो जाए। शायद थोड़ी देर और रुकना पड़े, क्योंकि बेटे स्कूल से लौटते
होंगे,
गुरुकुल
से। उनके विवाह करने होंगे, उनको
काम-धाम सिखाना होगा, उनको
संसार की दुनिया में लगाना होगा। उनके भोग के दिन आ रहे हैं। जब तुम पचहत्तर वर्ष
के होने लगो तो वानप्रस्थ का समय पूरा हुआ। वानप्रस्थ का अर्थ हैः रहना बाजार में, मगर बाजार के होकर मत रहना
अब।
और
पचहत्तर वर्ष के बाद संन्यास। वह चौथी और अंतिम अवस्था है। सब भोग लिया, सब देख लिया, जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं है
जो न जाना हो। जानने में मुक्ति है। अब निश्चिंत भाव से, निश्चिंतमना तुम जा सकते हो
जंगल की ओर;
या तुम
जहां जाओ वहीं जंगल है; तुम
जहां रहो वहीं जंगल है।
तो कमल
महाराज! यही घड़ी है वृद्धावस्था की, जब संन्यास का फूल बड़ी सुगमता से खिलता है।
तो ऐसा मत सोचो कि जीवन तो गया, और अब
जीने का ढंग आया। ऐसा भी मत सोचा कि शमा बुझ गयी, तो महफिल पर रंग आया। अभी कुछ
बुझा नहीं,
अभी
कुछ समाप्त नहीं हुआ। एक श्वास भी शेष रह गयी हो तो उस एक श्वास में भी व्यक्ति
मोक्ष का परम अनुभव पा सकता है। क्योंकि यह घटना क्षण में घटती है। यह घटना कोई
क्रमिक घटना नहीं है कि धीरे-धीरे घटती है, कि एक-एक सीढ़ी घटती है--एक क्षण में घट जाती
है। जब त्वरा पूरी होती है, जब
प्रार्थना पूरी होती है और प्यास सघन होती है--तो एक क्षण में वर्षा हो जाती है, बाढ़ आ जाती है।
अभी
तुम्हारी शक्ति शेष है
अभी
तुम्हारी सांस शेष है
अभी
तुम्हारा कार्य शेष है
मत
अलसाओ,
मत चुप
बैठो,
तुम्हें
पुकार रहा है कोई
अभी
रक्त रग-रग में चलता
अभी
ज्ञान का परिचय मिलता
अभी न
मरण प्रिया निर्बलता
मत
अलसाओ,
मत चुप
बैठो
तुम्हें
पुकार रहा है कोई।
इसलिए
ही तो तुम्हें पुकारा है। और मैंने सब तरह के लोगों को पुकारा है। सब दिशाओं से
यात्रा करनी है। छोटे बच्चों को भी संन्यास दिया है, लेकिन उनके संन्यास का अर्थ
और होगा। उनके संन्यास का वही अर्थ होगा जो पहले चरण का होता है--ब्रह्मचर्य का।
मैंने युवकों को भी संन्यास दिया है। उनके संन्यास का अर्थ होगा वही, जो दूसरे चरण का होता है
गृहस्थाश्रम का। मैं प्रौढ़ों को भी संन्यास दिया हूं, उनके संन्यास का वही अर्थ
होगा जो वानप्रस्थ का होता है। मैं
वृद्धों को भी संन्यास दिया हूं। उनके संन्यास का वही अर्थ होगा, जो संन्यास का होता है।
इसलिए
तुम्हें यहां बहुत तरह के संन्यासी दिखाई पड़ेंगे। और इससे लोग अड़चन में भी पड़ जाते
हैं, उलझन में भी पड़ जाते हैं।
क्योंकि तुम देखोगे कि कोई युवा संन्यासी किसी युवती का हाथ, हाथ में लिए जा रहा है। तुम
कहोगे : यह कैसा संन्यास है? इसकी
उम्र अभी इसी संन्यास के लिए तैयार है। इससे जबर्दस्ती भिन्न हो जाएगी। इससे भिन्न
इस पर थोपना इसकी प्रकृति के साथ बलात्कार होगा।
तो
मेरे पास तुम्हें चारों तरह के संन्यासी मिलेंगे। छोटा सिद्धार्थ है। फिर सैकड़ों
युवा हैं। फिर सैकड़ों प्रौढ़ व्यक्ति हैं। फिर कमल महाराज, तुम जैसे वृद्ध लोग हैं।
लेकिन सबके संन्यास का रंग अलग-अलग होगा। सबके संन्यास का रंग वही होगा जो उनके
चित्त की दशा होगी।
ढल गया दिन
धूप शीतल हो गयी
धूप शीतल हो गयी
कुछ रंग बदला
रूप बदला
भाव में
चल चेतना सी खो गई
ढल गया दिन धूप शीतल हो गयी
भूमि को मैं देखता हूं
ध्यान से सम्मान से
कृषि-कला के फूल-फल से
हरित स्वर्ण अनूप वर्णत्तरंग वाली हो गई
ढल गया दिन धूप शीतल हो गई
आज निर्मल नील नभ के
चिर सुषम संपर्क से
पृथ्वी सुनहली स्वर्ण-चंपक
सुघर चर सस्वर सजीले
अचर नीरव-से रंगीले
नयन को देती निमंत्रण
धन्य कण-कण को बनाकर
दिव्य सुंदरता धरा पर आ गयी
पुतलियों में ज्योति स्वर्गिक हो गयी
ढल गया दिन धूप शीतल हो गयी
रूप में स्वर में
सुवर्ण तरंग आयी
प्राप्त गति में प्रीति
जीवन में मधुर आसक्ति आयी
ढल गया दिन धूप शीतल हो गयी।
दिन ढल
रहा है,
कमल
महाराज! मगर धूप शीतल हो रही है। जीवन का ताप कम हो रहा है, संध्या करीब आ रही है। और
संध्या ही तो प्रार्थना का क्षण है। इसलिए तो हिंदुओं में संध्या का अर्थ ही
प्रार्थना हो गया। संध्या ही प्रार्थना का क्षण है।
धन्य कण-कण को बनाकर
दिव्य सुंदरता धरा पर आ गयी
पुतलियों में ज्योति स्वर्गिक हो गयी
ढल गया दिन धूप शीतल हो गयी
शरीर
अस्वस्थ हो,
शरीर
रुग्ण हो,
शरीर
वृद्ध हो,
चिंता
मत लेना। यह धूप के शीतल होने के ढंग हैं।
पूछा
तुमने,
कि न
तो स्वर्ग -मोक्ष की कोई इच्छा है अब . . .। यही तो मैं चाहता हूं, यही तो मेरी देशना है। स्वर्ग
और मोक्ष की कोई इच्छा न रह जाए। उन्हें ही मिलता है स्वर्ग, जिन्हें स्वर्ग की कोई इच्छा
नहीं रह जाती। वे ही अधिकारी हैं। मोक्ष के, जिनकी मोक्ष की चाहत नहीं। क्योंकि जब तक
चाह है,
तब तक
संसार है। चाह का दूसरा नाम संसार है। तुमने क्या चाहा, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।
तुमने धन चाहा,
तो
संसार। तुमने पद चाहा, तो
संसार। तुमने मोक्ष चाहा, तो
संसार। तुमने समाधि चाही, निर्वाण
चाहा, तो संसार। तुमने चाहा कि
संसार। चाह में संसार का बीज है। चाह, संसार पर्यायवाची हैं।
इसलिए
मोक्ष तो चाहा ही नहीं जा सकता। जब सारी चाह व्यर्थ होकर गिर जाती है, जैसे पतझड़ में पत्ते गिर जाएं
वृक्ष से,
ऐसी जब
तुम्हारी जीवन-भर की अनुभूति की परिपक्वता में, प्रौढ़ता में सारी चाहों के पत्ते गिर जाते
हैं, उस घड़ी में जब कोई चित्त में
चाह नहीं होती है,
समाधि
घटती है। उस घड़ी में तुम मुक्त होते हो।
मुक्त
किससे होना है?
चाह से
मुक्त होना है। इसलिए जो लोग मोक्ष की चाह से भरे हैं उन्हें पता नहीं, वे फिर से नए नाम से संसार
में लौटने का उपाय कर रहे हैं। उन्होंने अपनी चाह का विषय तो बदल लिया है, लेकिन चाह नहीं बदली है। विषय
के बदलने से क्या होगा? तुम्हारे
भीतर का अंतस्तल बदलना चाहिए। पहले धन चाहते थे, अब ध्यान चाहते हैं; मगर चाह वही की वही है, चाहनेवाला वैसा का वैसा है।
यही तो
मेरी देशना है कि न स्वर्ग की इच्छा हो, न मोक्ष की इच्छा हो। और इसीलिए तुम्हारा मन
यहां लगा रहता है कि यहां आ जाओ, ताकि
इस इच्छा-मुक्ति में और पगो, और
डुबकी लो।
यह कोई
मंदिर नहीं है। यह कोई मुर्दा तीर्थ नहीं है। अभी यहां जीवंत कुछ घट रहा है। अभी
मूर्ति पत्थर की नहीं है यहां। अभी किरण उतर रही है ताजी, अभी सुबह हो रही है। इसलिए
तुम्हारा मन लगा रहता है। वृद्ध हो गए हो, आने में कठिनाई होती है, यात्रा . . .दूर रोहतक से
यहां तक आना,
अड़चन .
. .। लेकिन यहां कुछ घट रहा है, जिसके
तुम संग-साथ होना चाहते हो। जब यह घट जाएगा तुम्हारे भीतर पूरी तरह, तो फिर तुम्हें यहां आने की
जरूरत नहीं होगी,
मैं ही
वहां आ जाऊंगा। जब तक यह पूरी तरह नहीं घटा है तब तक यहां आना पड़ेगा। जैसे ही यह
पूरा घट जाएगा,
फिर
रोहतक रहो कि कहीं भी रहो, कुछ
भेद नहीं पड़ता फिर वहीं यह रास चलेगा। फिर वहीं यह लीला चलेगी। फिर तुम्हारी भीतर
की आंख के लिए समय और स्थान की दूरियां समाप्त हो जाएंगी।
लेकिन
जो हो रहा है,
शुभ हो
रहा है। ठीक दिशा में कदम पड़ रहे हैं। बसंत के पहले फूल आने को ही हैं।
नीम में नव फूल आए सुरभिमय वातास
मधुर मंजरियां तरंगित
कर रहीं मधु मौन इंगित
भर रहा ऋतुराज में प्रतिश्वास में विश्वास
सुरभिमय वातास
नवल किसलय नवल गतिलय
नवल वय का नवल परिचय
हरित-रक्तिम रंग सुंदर लहर लेता हास
सुरभिमय वातास
गंध-गुंजित पवन प्रतिपल
लहर चंचल हृदय चंचल
बस गयी मन में नयन में रूप की प्रिय प्यास
सुरभिमय वातास
हवाएं
जल्दी ही बसंत की सुरभि से भर जाएंगी। कलियां आ गयी हैं, जल्दी ही पंखुड़ियां खुलेंगी।
लेकिन सजगता न खोना, होश न
खोना। शरीर जाए कि रहे, होश न
जाए। यह जो भीतर ज्योति उठनी शुरू हुई है, अभी बहुत मंदिम है। इसमें सारी ऊर्जा डाल दो, ताकि यह आग की बड़ी लपट हो
जाए। तुम्हारा दीया जलकर ही जाना चाहिए। यह देह ऐसे ही नहीं छूटनी है। मेरी तरफ से
कोशिश पूरी रहेगी,
तुम भर
असहयोग न करना। तो आखिरी श्वास तक भी . . .मगर मंजिल आ सकती है।
अभी
तुम्हारी शक्ति शेष है
अभी
तुम्हारी सांस शेष है
अभी
तुम्हारा कार्य शेष है
मत
अलसाओ,
मत चुप
बैठो,
तुम्हें
पुकार रहा है कोई
अभी
रक्त रग-रग में चलता
अभी
ज्ञान का परिचय मिलता
अभी न
मरणप्रिया निर्बलता
मत
अलसाओ,
मत चुप
बैठो,
तुम्हें
पुकार रहा है कोई
दूसरा
प्रश्न--
तू
मेरी जन्म-क्षण की तलाश है
गहनतम
में मृत्यु-क्षण की प्यास है
उसी का
परिणाम है कि तेरे पास हूं
एक ओर, चारों ओर तेरी सुवास हूं
फिर भी
भीतर से एक पीड़ा प्रतिपल
कह रही
है यह भी कुछ खास नहीं
पूरा
जीवन एक फांस है
पुकार
उठती है --
कब, कैसे फांस आस बनेगी?
रामस्वरूप!
मन बहुत चालबाज है। परमात्मा भी सामने होगा तो भी मन कहेगा : ठीक है, मगर खास क्या?
मन सदा
तुम्हें डोलवाता है, चलवाता
है --खास के पीछे! क्यों, साधारण
होने में बुरा क्या है? यह
असाधारण की आकांक्षा क्यों है? असाधारण
की आकांक्षा के पीछे अहंकार है। अहंकार असाधारण से ही तृप्त हो सकता है, साधारण से नहीं। और। मैं
चाहता हूं कि तुम साधारण हो जाओ। और तुम साधारण जीवन में परितृप्त हो जाओ, परितुष्ट हो जाओ।
एक झेन
फकीर से किसी ने पूछा है कि जब तुम्हारा बोध नहीं जगा था, जब तुम बुद्ध नहीं हुए थे, तब तुम्हारी जीवनचर्या क्या
थी? उसने कहाः गुरु के आश्रम में
लकड़ियां काटकर जंगल से लाता था, कुएं
से पानी भरता था। और उस पूछनेवाले ने पूछा : अब जबकि तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए
हो, अब तुम्हारी चर्या क्या है? उसने कहा : जंगल से लकड़ी
काटता हूं और कुएं से पानी भरता हूं। पूछनेवाला चकित हुआ। तुम होते पूछनेवाले
रामस्वरूप ,
तो तुम
भी चकित हुए होते। तुम कहते : इसमें खास क्या है? यह तो वही की वही बात हुई!
पहले भी लकड़ी काटते थे, कुएं
से पानी भरते थे;
अब भी
लकड़ी काटते हैं,
कुएं
से पानी भरते हैं। खास क्या है?
खास
यही है कि पहले कुछ चाह थी, अब कुछ
चाह नहीं। खास यही है कि पहले कुछ तलाश थी, अब कुछ तलाश नहीं। खास यही है कि अब साधारण
होने में मजा है। इस जगत् में सबसे असाधारण बात है--साधारण होने का मजा।
झेन
फकीर कहते हैं : जब भूख लगे तब भोजन कर लेना और जब नींद आ जाए तो सो जाना। बस इसके
अतिरिक्त और कोई साधना नहीं है।
कबीर
ने कहा है : साधो! सहज समाधि भली! सहज समाधि का अर्थ समझे? सहज समाधि का अर्थ होता है :
साधारण में राजी। लेकिन मन कहता हैः असाधारण कुछ करके दिखलाओ। मोर-मुकुट बंधे सिर
पर, झंडा फहरे, भीड़ गुण-गान करे, यश के गुंजार हों। कुछ खास
करके दिखलाओ! क्या, भूख
लगी तो भोजन कर लिया? और
क्या, नींद आयी तो सो गए?
तो मन
तुम्हें दौड़ाए रखेगा। और ऐसी कोई घड़ी नहीं है जब मन तुम्हें तृप्त होने देगा। तुम
जो भी खास करोगे,
करके
चुक न पाओगे कि मन कहेगा कि ठीक है, अब खास क्या है? एक बड़ा मकान देखा, लगा कि यह मकान अपना हो। बहुत
दिन वर्षों की मेहनत के बाद एक दिन तुम्हारा हो जाएगा, हो सकता है। लेकिन दो-चार दिन
के बाद मन कहेगा : खास क्या है? महल और
भी बड़े हैं। एक सुंदर स्त्री दिखी, मन कहेगा : स्त्री हो तो ऐसी हो, पत्नी हो तो ऐसी हो, इसके पीछे लग जाओ। लेकिन
कितने दिन की मेहनत के बाद पाओगे, और
जल्दी ही मन कहेगा : बस ठीक है, और भी
सुंदर स्त्रियां पड़ी हैं, खास
क्या है?
मन की
शाश्वत तरकीबों में एक तरकीब यही है कि वह हर चीज की निंदा कर देता है, यह कहकर कि यह तो साधारण है।
इस धोखेबाजी से सावधान हो जाओ।
मैं
तुमसे यह कह रहा हूं कि साधारण में ही परमात्मा छिपा है। तुम्हारे छोटे-छोटे कृत्य
में उसका ही आवास है। जगत् में छोटा कुछ भी नहीं है, क्योंकि जगत् परमात्मा से आपूर
है। जगत् में छोटा कुछ कैसे हो सकता है, क्योंकि उसी विराट की लीला है। इसीलिए तो
कहा : कण-कण में वही है। पल-पल में वही है। क्षुद्र से क्षुद्र में भी वही है। अणु
से लेकर विराट तक में उसी का विस्तार है। जिसको भूख लगती है तुम्हारे भीतर, वह भी वही है; और जिसे प्यास लगती है वह भी
वही है। प्यास को साधारण मत कह देना--परमात्मा ही प्यासा है, परमात्मा ही भूखा है।
ऐसे
जियो कि तुम्हारे सारे साधारण कृत्यों में असाधारण आभा प्रकट हो। कैसे होगी
असाधारण आभा प्रकट तुम्हारे साधारण कृत्यों में? साधारण को साधारण मत समझो।
अपने समस्त जीवन को उसी को अर्पित कर दो। और मन से सावधान रहना, मन तो सदा कहेगा : खास क्या
है?
यहां
मेरे पास तो रोज इस बात को कहने वाले लोग आ जाते हैं। एक राजनेता मेरे पास आते थे।
कहा उन्होंने कि नींद नहीं आती। यह भी कहा कि मैं कोई ईश्वर की तलाश में आपके पास
नहीं आया। मेरी ईश्वर में कोई रुचि नहीं है। न ही मुझे ध्यान सीखना है। इसमें मुझे
कोई सार नहीं आता। मैं तो सच्ची बात आपसे कह दूं कि मुझे नींद नहीं आती, मैं थक गया हूं। कुछ ऐसा उपाय
बता दो कि मुझे नींद आ जाए। मुझे और कुछ चाहिए ही नहीं; बस नींद मिल गयी तो सब मिल गया।
नींद मिल गयी तो मुझे जीवन मिल गया। नींद मिल गयी तो मुझे परमात्मा मिल गया। ये
उनके वचन थे।
मैंने
कहा : ठीक,
यह तो
बड़ी कठिन बात नहीं है। यहां तो कठिन बात हम कर लेते हैं कि जिनको सदा की नींद लगी
है, उनको जगा लेते हैं। तो तुम तो
सोने की बात कर रहे हो, ठीक है, हो जाएगा, ऐसी कुछ अड़चन नहीं है, यह तो सरल-सी बात है। असली
कठिन बात तो दूसरी है कि सोए को कैसे जगाओ, सपने में खोए को कैसे जगाओ? तुम तो सोना चाहते हो, यह हो जाएगा।
मैंने
ध्यान की एक प्रक्रिया उन्हें कही कि इसे शुरू करो। छह सप्ताह बाद मुझे कहना कि
क्या हुआ। छह सप्ताह बाद वह आए, बोले
कि नींद तो आने लगी, मगर और
कुछ नहीं हुआ। मैंने उनसे पूछा कि और कुछ की चाहत थी? नींद ही मांगी थी, भूल गए कि कह कर गए थे कि
नींद मिल जाए तो परमात्मा मिल गया? और अब तुम कह रहे हो किस मुंह से कि नींद ही
मिली, और कुछ नहीं मिला? उन्हें याद ही नहीं था कि वह
क्या कह गए थे पहली दफा; याद
दिलाया तो याद आया। कहा : हां, यह बात
तो सच है कि मैं उस वक्त इतना पीड़ित था अनिद्रा से कि मुझे लगता था नींद मिल जाए
तो परमात्मा मिल गया। लेकिन अब तो नींद तो आने लगी, इसमें खास क्या है, सारी दुनिया सो रही है?
तुम
देखते हो आदमी की अवस्था--जो नहीं होता, वह बहुत महत्त्वपूर्ण मालूम होता है! जिसका
अभाव होता है,
वह
बहुत महत्त्वपूर्ण मालूम होता है। जब मिल जाता है तभी उसका महत्त्व समाप्त हो जाता
है। मिला,
कि
महत्त्व समाप्त हुआ।
बर्नार्ड
शॉ ने कहा है : दुनिया में दो पीड़ाएं हैं--एक, जो चाहो वह न मिले; और दूसरी जो चाहो, वह मिल जाए। बस दो पीड़ाएं
हैं। और मैं तुमसे कहता हूं, दूसरी
पीड़ा पहले से बड़ी पीड़ा है--जो चाहो वह मिल जाए। मिलते ही व्यर्थ हो जाता है।
धन्यभागी
था मजनू कि लैला नहीं मिली। मिल जाती, तो किसी अदालत में तलाक की दरख्वास लिए खड़े
होते। भूल गए होते सब चौकड़ी। जिनको मिल गयी है लैला, उनसे पूछो। जब तक नहीं मिलती
तब तक सब सुंदर है, मिलते
ही अड़चन होती है। मिलते ही सब व्यर्थ हो जाता है।
तुम जो
पा लिए हो,
वही
व्यर्थ हो गया है,
अपने
अनुभव से देखो न! और जब तक नहीं मिला था तब तक कितना सार्थक मालूम होता था, मन कैसे सपने सजाता था! यह मन
की बुनियादी चालबाजी है--तुम्हें सदा असंतुष्ट रखने की।
तुम
कहते हो :
तू
मेरी जन्म-क्षण की तलाश है।
गहनतम
में मृत्यु-क्षण की प्यास है।।
उसी का
परिणाम है कि तेरे पास हूं
एक ओर
चारों ओर तेरी सुवास है
फिर भी
भीतर से एक पीड़ा प्रतिपल
कह रही
यह भी कुछ खास नहीं
पूरा
जीवन एक फांस है
पुकार
उठती है--
कब, कैसे, फांस आस बनेगी?
आस भी
बन जाएगी,
फिर भी
तुम आकर कहोगे कि ठीक है, फांस न
रही, असा हो गयी, मगर खास क्या? मन समाधि के अंतिम क्षणों तक
भी यही सवाल उठाए चला जाता है : खास क्या? मन एकदम पागल है खास के लिए। विशिष्टता कुछ
होनी चाहिए। क्यों? क्योंकि
विशिष्टता अहंकार का भोजन है। कुछ ऐसा होना चाहिए जो किसी के पास नहीं है--तब खास!
कुछ ऐसा घटना चाहिए जो किसी को कभी घटा नहीं--तब खास! मगर ऐसा तो तुम्हें भी नहीं
घटेगा।
बुद्धत्व
बहुतों को घट चुका है तुमसे पहले बहुत बुद्ध हो गए हैं। बुद्धों के पहले भी बहुत
बुद्ध हो गए हैं। शाश्वत श्रृंखला है। सूरज के तले नया क्या है?
हर बार
बसंत आता है,
हर बार
फूल खिलते हैं। हर फूल सोचता होगा मैं पहली बार खिल रहा हूं, ऐसा फूल कभी नहीं खिला। लेकिन
सदियां बीत गई हैं, बसंत
आते रहे हैं,
फूल
खिलते रहे हैं। बसंत आते रहे, फूल
खिलते रहे . . .। जब तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाओगे तब भी सवाल उठेगा : इसमें
खास क्या है?
गौतम
बुद्ध को हुआ था,
वर्धमान
महावीर को हुआ था,
हजरत
मुहम्मद को हुआ था, कृष्ण
को हुआ,
क्राइस्ट
को हुआ,
खास
क्या है?
रामस्वरूप!
इसमें रखा क्या है? यह तो
कई को हो चुका। कुछ ऐसा हो जो तुमको ही हो!
मगर
ऐसा तो कुछ हो नहीं सकता। ऐसा कुछ होने का उपाय ही नहीं है। जो तुमको हो सकता है, वह पहले ही कई को हो चुका
होगा। तभी तो तुम्हें भी हो सकता है, नहीं तो तुम्हें भी नहीं हो सकता।
खास
होता ही नहीं। सारा जगत् परमात्मा से व्याप्त है। या तो कहो सभी असाधारण हैं ; मन वह भी नहीं कहना चाहता। और
ये दो ही उपाय हैं सम्यक्। या तो मान लो कि सब असाधारण हैं। झेन फकीरों ने यही मान
लिया। इसलिए चाय भी ऐसे पीते हैं जैसे प्रार्थना करते हों। क्योंकि चाय भी असाधारण
है। छोटे से छोटा कृत्य है चाय, अब
इससे और छोटा कृत्य क्या होगा? उसको
भी आराधना की महिमा दे दी।
झेन
आश्रमों में चाय-मंदिर अलग होता है, जहां लोग चाय पीने जाते हैं। वह मंदिर होता
है। जूते बाहर छोड़ देने होते हैं। स्नान करके जाना होता है। मंदिर के बाहर ही चुप
हो जाना होता है। फिर भीतर जाकर ऐसे बैठते हैं जैसे कोई मस्जिद में बैठता है, कोई मंदिर में बैठता है--बड़े
सम्मान से! चाय बन रही है। तुम तो बहुत हैरान होओगे कि खास क्या हो रहा है? रामस्वरूप, तुम कहोगे कि यह मामला क्या
है? खास तो कुछ हो नहीं रहा है, चाय बन रही है। लेकिन लोग
बैठे हैं,
समोवोर
में जो चाय की आवाज आ रही है उसको सुन रहे हैं . . .। क्योंकि वह आवाज भी उसी का
अनाहद नाद है। ज़रा देखते हो, ज़रा
देखो, समझो! वह जो केटली में आवाज
उठ रही है,
सनसनाहट
हो रही है,
चाय के
पानी में बुदबुदे उठ रहे हैं, चाय की
पत्तियां गीत गा रही हैं, वे
शांत बैठकर सुन रहे हैं। क्योंकि है तो उसी की आवाज--चाहे वृक्षों से गुजरती हो, चाहे चाय के बुलबुलों में
फूटती हो,
चाहे
बुद्धों के कंठों से निकली हो, है तो
वही आवाज! शांत बैठे हैं दस-पंद्रह लोग, चाय बन रही है। मौन में बैठे हैं, प्रतीक्षा कर रहे हैं। फिर
चाय की गंध उड़ने लगी . . .। चाय की प्यारी गंध नासापुट भरने लगी, और वे आनंदित होने लगे। सुवास
तो सब उसी की है,
फिर
चाहे कमल की हो और चाहे चाय की। फिर चाय ढाली जाएगी तो ऐसे ढाली जाती है जैसे कोई
पुजारी पूजा करता है। फिर चाय ऐसे पी जाती है जैसे कोई प्रसाद ग्रहण करता है।
छोटी-सी चीज को,
साधारण-सी
बात को,
असाधारण
महिमा दे दी! यही तो जीवन की कला है। और तुम तो असाधारण से असाधारण बात को छोटा कर
देते हो।
तुर्गनेव
की एक प्रसिद्ध कथा है। एक गांव में एक महामूर्ख था। सभी गांव में होते हैं। एक ही
क्यों,
अनेक
होते हैं। एक ढूंढो, हजार
मिलते हैं। सारा गांव उसकी निंदा करता था। महामूर्ख बड़ा परेशान था। वह जो भी करता, उससे गलत ही होता। एक फकीर
गांव में ठहरा था,
उसने
फकीर के चरण पकड़ लिए। उसने कहा : मुझे भी कुछ दे जाओ। यह मेरी महामूर्खता से कैसे
मेरा छुटकारा हो?
मैं
मरा जा रहा हूं। मैं बड़ा शा**मदा हूं। चलता हूं, लोग हंसते हैं; बोलता हूं, लोग हंसते हैं। न बोलूं लोग
हंसते हैं। कहीं न जाऊं, लोग
हंसते हैं। मेरी फांसी लगी है, मुझे
बचाओ। मैं क्या करूं? मैं
कैसे कुछ ऐसा करूं कि लोग हंसें न, लोग मुझे मूढ़ न समझें।
उस
फकीर ने महामूर्ख की तरफ देखा और कहा कि सीधी-सी बात है, सरल-सी बात है : लोग जो भी
कहें, तू तत्क्षण उसका खंडन कर।
उसने पूछाः मतलब,
आशय? थोड़ा उदाहरण दें।
उसने
कहा : जैसे चांद निकला हो और लोग कहें : कितना सुंदर! तू कहना : क्या खास?
समझे
रामस्वरूप!
क्या
खास? कोई सिद्ध नहीं कर सकता कि
खास क्या है। वे सकते में आ जाएंगे। कोई कहे कि शेक्सपियर के शास्त्र, कितने सुंदर! कोई कहे, गीता के वचन कितने बहुमूल्य!
कोई कहे बाइबिल,
कितनी
काव्यपूर्ण है! और तू बस एक ही बात याद कर ले : रखा क्या है? शब्द ही तो हैं, शब्दों में धरा क्या है? मुझे तो कुछ नहीं दिखाई पड़ता।
कोई
वीणा बजाए और लोग प्रशंसा करने लगें तो कहनाः इसमें मामला क्या है? यह आदमी तार छेड़ रहा है, तारों से आवाज होनी स्वाभाविक
है। इसमें इतनी प्रशंसा का क्या है? यह कोई भी कर सकता है, इसमें रखा क्या है?
तू बस
निंदा करना शुरू कर दे। तू आलोचक हो जा।
फकीर
ने कहा : मैं सात दिन इस गांव में रुकूंगा, सात दिन बाद तू आकर मुझे बता जाना कि हालत
क्या है?
सात
दिन बाद उसको आने की जरूरत नहीं, सारा
गांव आकर बता गया,
धीरे-धीरे
करके--कि वह जो महामूर्ख था महापंडित हो गया! उसने सारे गांव को पराजित कर दिया।
कुछ भी कहो,
वह
फौरन . . .। कोई कह रहा है गुलाब का फूल, कितना सुंदर! और वह कहेगा, इसमें क्या रखा है? अरे फूल तो खिलते रहे, सदा खिलते रहे। गुलाब का हो
कि घास का,
है
क्या? है तो सब घास ही। क्या घास-पात
से सिर मार रहे हो!
कोई
सिद्ध न कर सके कि फूल में सौंदर्य है। सौंदर्य को कैसे सिद्ध करोगे? सौंदर्य कोई सिद्ध करने की
चीज तो नहीं,
भाव
प्रवण आदमी की बात है। लेकिन कोई लट्ठ की तरह कह दे : क्या रखा है . . .?
तुम
किसी स्त्री के सौंदर्य की तारीफ कर रहे हो, वह आ जाएगा महामूर्ख, वह कहेगा : रखा क्या है? ज़रा नाक लंबी भी हो गयी तो
हुआ क्या?
ज़रा
आंख मछली जैसी भी हो गयी तो हुआ क्या? क्या मीनाक्षी लगा रखा है? और रंग ज़रा सफेद हुआ तो
कौन-सी खास बात है? मुझे
तो शक होता है कि खून की कमी है। रक्तहीनता के कारण यह सफेदी मालूम पड़ रही है।
कमनीयता,
कोमलता
. . .क्या बकवास लगा रखी है, ये सब
कमजोरी के नाम हैं, सुंदर
अच्छे नाम! आदमी छिपाता है।
उसने
सारे गांव को चुप करवा दिया। जहां निकल आता महामूर्ख, वहीं लोग बात भी करते तो चुप
हो जाते। नमस्कार करते, बिठाते
उसको कि बिराजें। वह महा आलोचक हो गया।
मूर्ख
अकसर आलोचक हो जाते हैं, क्योंकि
आलोचना से सरल और इस जगत् में कुछ भी नहीं है। इनकार करने से सरल इस जगत् में और
कुछ भी नहीं है। नकार करने से सरल इस जगत् में और कुछ भी नहीं है। यह कहना कि
ईश्वर है,
बड़ी
कठिन बात है। यह कहना कि ईश्वर नहीं है, बड़ी सरल बात है। ईश्वर है, यह कहने के लिए छाती चाहिए।
ईश्वर नहीं है,
यह
मुर्दा भी कह सकता है। इसको कहने के लिए किसी छाती की जरूरत नहीं है। सौंदर्य है, यह कहने के लिए नाचता हुआ एक
हृदय चाहिए। सौंदर्य नहीं है, इसकी
घोषणा तो पत्थर भी कर सकते हैं, हृदय
की कोई आवश्यकता नहीं है।
मन की
यह तरकीब है कि वह हर चीज को गैर-खास कर देता है। जागो! इससे सावधान हो जाओ, नहीं तो मन बहुत भरमाएगा, भटकाएगा। ऐसे भी काफी भटका
चुका है। अब तुम गैर-खास में ही खास को खोजने लगो। अब गुलाब के फूल तो सुंदर हों
ही, घास के फूल भी सुंदर हो जाएं।
होते तो वे भी सुंदर हैं। कोहिनूर तो सुंदर हो ही, राह के किनारे पड़े रंगीन
पत्थर भी सुंदर हो जाएं। होते तो वे भी हैं; सिर्फ तुम्हारे पास आंख नहीं, सिर्फ तुम्हारे पास भावपूर्ण
हृदय नहीं।
सौंदर्य
ही सौंदर्य बरस रहा है। सभी कुछ असाधारण है, मगर तुम यह असाधारण की बात छोड़ दो, तो तुम्हें असाधारण दिखाई
पड़ने लगे।
कबीर
ने कहा हैः उठूं-बैठूं सो परिक्रमा . . .। उठना-बैठना परिक्रमा हो गई! अब नहीं
जाना पड़ता काशी,
कि
जाएं और चक्कर लगाएं किसी मंदिर में मूर्ति के, और नहीं जाना पड़ता काबा। उठूं-बैठूं सो
परिक्रमा,
खाऊं-पिऊं
सो सेवा! और अब कुछ परमात्मा को भोग लगाकर सेवा नहीं करनी पड़ती; जो मैं खाता-पीता हूं वह भी
उसी को लग गया भोग है। साधो, सहज
समाधि भली!
यह खास
का पागलपन छोड़ो,
और
तुम्हारा पूरा जीवन असाधारण हो जाएगा। यह विरोधाभास लगेगा, असाधारण की आकांक्षा छोड़ो और
सब असाधारण हो जाता है। और असाधारण की आकांक्षा रखो, और सब साधारण हो जाता है।
क्योंकि वह असाधारण की आकांक्षा तुम्हारे भीतर निंदा का स्वर पैदा करती है।
प्रश्न
: राजनीति की इतनी प्रतिष्ठा क्यों है? राजनेता सबकी छाती पर आज क्यों चढ़ बैठे हैं?
आज ही
चढ़ बैठे,
ऐसा
नहीं --सदा से चढ़े बैठे हैं। कसूर राजनेता का नहीं है, कसूर उनका है जो छाती पर चढ़
जाने देते हैं। जब तुम छाती पर किसी को चढ़ने दोगे तो कोई न कोई चढ़ेगा--अ नहीं
चढ़ेगा तो ब चढ़ेगा,
ब नहीं
चढ़ेगा तो स चढ़ेगा।
आदमी
गुलाम रहना चाहता है, इसलिए।
उसे मालिक चाहिए। आदमी खुद अपने पैर पर खड़ा नहीं होना चाहता। आदमी खुद अपनी दिशा
नहीं खोजना चाहता। अनुगमन करना चाहता है, इसलिए। अनुयायी होना चाहता है, इसलिए। अपनी आंख नहीं खोलना
चाहता। किसी का सहारा पकड़ कर चलना चाहता है, इसलिए। आदमी पूरा आदमी नहीं है, इसलिए राजनीति महत्त्वपूर्ण
है। और इसलिए भी राजनीति महत्त्वपूर्ण है कि आदमी के भीतर बहुत-सी पशुता शेष है।
और जब तक पशुता शेष है, तब तक
राजनीति महत्त्वपूर्ण रहेगी। वह जो आदमी के भीतर पशु है, उसके कारण ही पाशविक बल
महत्त्वपूर्ण मालूम होता है।
राजनेता
का बल क्या है?
जब तक
पद पर होता है तब तक बल होता है; जब पद
पर नहीं होता तो बल नहीं होता। लेकिन तुम देखते हो, वह जो राजनेता पद पर बैठा
होता है,
उसके
पद की बनावट क्या है, बुनियाद
क्या है?
उसके
पद के नीचे आधारशिला में रखा क्या है, पत्थर कौन-से हैं? संगीनें हैं, बंदूकें हैं, सैनिक हैं, बम हैं। राजनेता की सत्ता क्या
है? उसके हाथ में लाठी है। उसके
हाथ में हिंसा करने का उपाय है। वही उसका बल है। तुम जानते हो कि वह विध्वंस कर
सकता है,
वह
तुम्हें नुकसान पहुंचा सकता है। तुम उससे डरे हो। तुम उससे कंपे हो।
दुनिया
में वह दिन बड़ी क्रांति का दिन होगा जिस दिन राजनीति की प्रतिष्ठा कम हो जाएगी।
उसका अर्थ होगा कि मनुष्य अब पशु नहीं रहा और अब पाशविकता से नहीं डरता है, और संगीन से संगीत ज्यादा
महत्त्वपूर्ण हो गया है, और
सैनिक से संन्यासी ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गया है, और पाशविक बल की बजाय आत्मिक
बल ज्यादा मूल्यवान हो गया है। उस दिन राजनीति का प्रवाह कम होगा, नहीं तो प्रभाव उसका कम नहीं
हो सकता।
ऊपर से
कुछ और दिखाई पड़ता है। राष्ट्रपतियों के महल, प्रधानमंत्रियों की कुर्सियां, ऊपर से कुछ और दिखायी पड़ती
हैं: उनके पीछे बल क्या है? सिपाहियों
का बल है,
फौजों
का बल है,
कवायद
करते हुए नासमझों का बल है। संगीनों की कतारों पर कतारें हैं, बमों के अंबार लगे हैं--उनका
बल है। फिर जिसके पास जितने ज्यादा बम हैं, उतना उसका बल है।
और ऐसा
मत कहो कि आज ऐसा क्यों है। ऐसा सदा से रहा है। जब राजा थे तो राजा बलशाली थे। अब
राजा नहीं रहे,
तो
प्रधानमंत्री बलशाली है। मामला वही है, खेल वही है। ऊपर-ऊपर के कपड़े बदलते हैं।
और समझ
लेना ठीक से कि राजनीति में जिसको जितने ऊपर जाना हो उतना ही छोटा होना पड़ता है।
तो वहां छोटे ही पहुंच सकते हैं। वहा क्षुद्र ही पहुंच सकते हैं। वहां उदारमना
नहीं पहुंच सकते। वहां वे ही लोग पहुंच सकते हैं जो अति अमानुषिक रूप से
महत्त्वाकांक्षा के पीछे पड़े हों।
धर्म
के जगत् में जो जितना गहरा है, जितना
उदार है,
जितना
प्रेमपूर्ण है,
उसकी
गति है। राजनीति के जगत् में ठीक उलटे की गति है।
बाढ़ आ
गई है,
बाढ़!
बाढ़ आ
गई है,
बाढ़!
वह सब
नीचे बैठ गया है
जो था
गरू-भरू,
भारी
भरकम,
लोह-ठोस,
टन-मन
वज़नदार!
और
ऊपर-ऊपर उतरा रहे हैं
किरासिन
के खाली टिन,
डालडा
के डिब्बे,
पोलवाले
ढोल,
डाल-डलिए-सूप
काठ-कबाड़-कतवार!
बाढ़ आ
गई है,
बाढ़!!
बाढ़ आ
गई है,
बाढ़!
दिल्ली
तक पहुंचना हो तो खयाल रखनाः किरासिन के खाली टिन अगर हों तो पहुंच सकते हो; डालडा के डिब्बे, तो दिल्ली तक पहुंच सकते हो; पोलवाले ढोल, तो दिल्ली तक पहुंच सकते हो; डाल-डलिए-सूप, तो दिल्ली तक पहुंच सकते हैं; काठ-कबाड़-कतवार, तो दिल्ली तक पहुंच सकते हो।
बाढ़ आ गई है,
बाढ़!
राजनीति
में क्षुद्र की गति है, उपद्रवी
की गति है,
हिंसक
को गति है। इसलिए तुम्हारी संसदों में अगर जूते फिंक जाते हैं, कुर्सियां उठ आती हैं, माइक लेकर लोग एक-दूसरे के
पीछे दौड़-पड़ते हैं, घूंसाबाजी
हो जाती है। तो तुम चौंका मत करो, यह
होना ही चाहिए। यह नहीं होता तब मैं चौंकता हूं कि मामला क्या है, बहुत दिन से घूंसे नहीं चले, बहुत दिन से पार्लियामेंट में
कोई मारपीट नहीं हुई, एक-दूसरे
पर दौड़े नहीं,
गाली-गलौच
नहीं हुई,
आखिर
मामला क्या है! हो क्या गया! इतना सन्नाटा क्यों है!
यह ठीक
ही हो रहा है। जो होना चाहिए वही हो रहा है।
नंगा नाचै, चोर बलैया लेय
भैया, नंगा नाचै।
थोथा मोटी खोल मढ़े दमदार दमामे
कूट रहा है दोनों हाथों मूसल थामे,
झूठ प्रचारक अखबारों की कछनी कांछे।
नंगा नाचै, चोर बलैया लेय,
भैया, नंगा नाचै।
लायक, फायक, नायक डर कर अंदर बैठे;
लंठ, लफंगे, लुच्चे बाहर मूंछें ऐंठे
कूद रहे हैं, फांद रहे हैं मार कुलांचे।
नंगा नाचै, चोर बलैया लेय,
भैया, नंगा नाचै।
तुम्हारी
पार्लियामेंट को देखकर जाहिर हो जाता है कि राजनीति क्या है। पागलखाने को देखकर भी
इतनी बात साफ नहीं होती जितनी पार्लियामेंट को देखकर बात साफ हो जाती है कि आदमी
पागल है। पागलखाने में भी इतना पागलपन नहीं है। पागलों की भी एक व्यवस्था होती है; पार्लियामेंट में वह भी नहीं
है।
पहुंचना
हो पद पर तो लोगों की सीढ़ियां तो बनानी पड़ेंगी, उनके कंधों पर पैर रखने होंगे। और जिसके
कंधे पर पैर रखकर पहुंचोगे, इसके
पहले कि तुम और आगे बढ़ो, उसे
गिरा देना होगा। क्योंकि जिससे चढ़कर तुम आए हो, उसी से चढ़कर कोई दूसरा भी आ सकता है।
सीढ़ियां गिरा देनी पड़ती हैं।
चरणसिंह
को गिरा देना राजनीति का सीधा-साफ तर्क है, गणित है उसमें। मोरारजी जिस पर चढ़कर पहुंचे, उस आदमी को बचाए रखना ठीक
नहीं है। उस आदमी पर चढ़कर कोई और भी पहुंच सकता है।
नंबर
दो का आदमी राजनीति में हमेशा खतरे में होता है, क्योंकि नंबर एक आदमी को नंबर
दो से डर होता है। उसी का डर होता है, और किसी का डर नहीं होता। इसलिए राजनेता कभी
भी अपनी योग्यता के लोगों को अपने पास बरदाश्त नहीं करते। छोटी योग्यता के लोग
चाहिए,
जिनके
बीच और राजनेता के बीच काफी फासला हो; जो अगर फासला चलने की यात्रा शुरू करें तो
वर्षों लग जाएं। लेकिन नंबर दो का आदमी खतरनाक होता है; वह एक कदम बढ़ाए तो जिसने
चढ़ाया है,
वह
गिरा सकता है।
राजनीति
का अपना तर्क है। तर्क बिल्कुल जंगली है। और आदमी चूंकि जंगली है, इसलिए राजनीति प्रभावशाली है।
और तुम यह मत सोचना कि तुम्हारे भीतर राजनीति नहीं है। जब तक महत्त्वाकांक्षा है
तब तक राजनीति है,
चाहे
तुम चुनाव लड़ो या न लड़ो। जब तक तुम चाहते हो मैं किसी दूसरे से बड़ा हो जाऊं, जब तक तुम चाहते हो मैं खास
हो जाऊं,
विशिष्ट
हो जाऊं,
तब तक
राजनीति है। राजनीति का और क्या अर्थ है?
गैर-राजनीतिज्ञ
व्यक्ति बहुत कम हैं दुनिया में। वही व्यक्ति गैर-राजनीतिज्ञ है, जो कहता है : मैं जैसा हूं
वैसा मस्त हूं--न मुझे किसी से आगे होना है, न मुझे किसी से पीछे होने की पड़ी है; कोई मुझसे आगे हो जाए, पीछे हो जाए, कुछ लेना-देना नहीं है। इससे
मेरा प्रयोजन नहीं है। इससे मेरा कोई संबंध नहीं है। मैं जैसा हूं, मस्त हूं। मैं जहां हूं, मस्त हूं। मैं अंतिम भी हूं
तो भी मस्त हूं। मेरी मस्ती में कुछ फर्क नहीं पड़ता।
जब तक
प्रतिस्पर्धा है तब तक राजनीति है।
तो
राजनीतियां बहुत तरह की होती हैं। अगर तुम धन के बाजार में लगे हो, चाहते हो तुम्हारे पास ज्यादा
धन हो जाए,
जितना
औरों के पास है,
उनसे
ज्यादा --तो तुम धन की राजनीति में लगे हो। वह भी राजनीति है--पद नहीं, धन की। जहां भी तुम
प्रतिस्पर्धा की भाषा में सोचते हो कि मैं आगे हो जाऊं, दूसरा पीछे हो; मैं खास हो जाऊं, दूसरा गैर-खास हो जाए; मैं शक्तिशाली, दूसरा शक्तिहीन हो जाए--तुम
राजनीति की भाषा में ही सोच रहे हो। अगर तुम्हारे मन में यह भी सवाल उठता है कि
मोक्ष में मेरा स्थान दूसरों से आगे हो जाए, तो तुम राजनीति की ही बात सोच रहे हो।
जीसस
जब विदा होते थे,
अंतिम
रात। सोचो तुम,
आदमी
कैसा राजनीतिज्ञ है! तो जीसस के शिष्यों ने मालूम है क्या पूछा उनसे? उनका गुरु फांसी पर चढ़ने जा
रहे हैं और शिष्य क्या पूछ रहे हैं? शिष्यों की चिंता क्या है? शिष्यों ने पूछा कि स्वर्ग के
राज्य में ठीक आप तो परमात्मा के बगल में होंगे, फिर आपके बगल में कौन होगा? हम बारह शिष्यों में से कौन
आपके बगल में होगा? जीसस
की आंख में अगर आंसू आ गए हों तो आश्चर्य नहीं। यह तो राजनीति हो गई। जिंदगीभर यही
सिखाया कि दूसरे से तुलना में मत विचार करो, तौलो ही मत। तुलना व्यर्थ है, क्योंकि तुलना से राजनीति का
जन्म होता है। तुम तुम हो, मैं
मैं हूं। तुम तुम जैसे हो, मैं
मैं जैसा हूं। न तुम मुझसे आगे हो, न मैं तुमसे आगे हूं। कोई किसी से आगे नहीं
है कोई किसी से पीछे नहीं है। हम कतार में खड़े ही नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति
अद्वितीय है। प्रत्येक व्यक्ति बेजोड़ है। मगर राजनीति की बड़ी चालें हैं। एक जैन
मुनि मुझसे मिलने आए थे। वे पूछने लगे कि आप महावीर का भी नाम लेते हैं, बुद्ध का भी नाम लेते हैं, दोनों में बड़ा कौन? यह राजनीति हो गयी। यह तुम
अपने को ही राजनीति में डुबाते हो, इतना ही नहीं; तुम अपने महावीर और बुद्धों
को भी डुबा देते हो। दोनों में बड़ा कौन!
एक जैन
विचारक ने किताब लिखी महावीर और बुद्ध पर। मुझे भेंट करने आए। मुझे भेंट करते वक्त
कहा कि आपको जरूर पसंद पड़ेगी । क्योंकि मैं सब धर्मों में समन्वय मानता हूं; सब धर्मों में समन्वय मानता
हूं; सब धर्मों में एक ही सत्य है, अभिव्यक्ति अलग-अलग है। वे
गांधीवादी थे और "अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम' इत्यादि का जप करते थे। मैंने उनकी किताब
हाथ में ली तो मैं चौंका। किताब का नाम थाः भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध। मैंने
पूछा : दोनों को भगवान् नहीं लिखा? या दोनों को महात्मा लिखते। ज़रा-सा फर्क कर
गए। थोड़े झेंपे। कहा कि अब आप से क्या छिपाना! महावीर भगवान् हैं। वे परम अवस्था
में पहुंच गए हैं। बुद्ध अभी पहुंच रहे हैं, अभी पहुंचे नहीं--इसलिए महात्मा हैं। महान
पुरुष,
मगर
अभी थोड़ी कमी है। सब धर्मों में समन्वय साध रहा व्यक्ति भी ऐसा बारीक फैसला कर
लेता है,
भीतर
उसकी चालबाजियां चलती रहती हैं।
गांधी
ने भी गीता को माता कहा, कुरान
को पिता नहीं कहा। और अगर कुरान को पिता कहते तो कई हिंदू नाराज हो जाते, कि यह क्या मामला है--गीता को
माता और कुरान को पिता! गीता को पीछे किए दे रहे हैं! क्योंकि पति हो जाएगा कुरान
फिर। और पति तो परमेश्वर है। फिर झंझटें बड़ी खड़ी हो जाती। नहीं, कुरान को पिता नहीं कहा।
चुप्पी साधे रहे। कुरान में से भी आयतें चुन ली हैं गांधी ने, जिनका गीता से मेल खाता है, जो गीता का भाषांतर जैसी
मालूम पड़ती हैं। वे बातें जो कुरान में गीता के खिलाफ हैं, उनकी चर्चा नहीं उठाई है; उनको एक तरफ छोड़ दिया है।
हमारे
मन में तुलना चलती ही रहती है। हम तुलना से बच ही नहीं पाते। और तुलना राजनीति का
मूल सूत्र है।
तुम्हें
अगर मेरी बात समझ में आती हो तो एक बात खयाल में रख लो : तुम जैसे बस तुम हो। न
तुम्हारे जैसा आदमी पहले कभी हुआ है, और न आगे फिर कभी होगा। तुम अद्वितीय हो।
तुम्हारी तुलना किसी से हो नहीं सकती। और न ही किसी और की तुलना तुमसे हो सकती है।
परमात्मा ने प्रत्येक को अद्वितीयता दी है। ऐसी जो भाव-दशा है वही राजनीति से
मुक्त करती है। राजनीति दौड़ है सिद्ध करने की--कौन बड़ा, कौन छोटा? राजनीति मनुष्य के भीतर छिपी
हुई हिंसा का ही विस्तार है। और तुम चूंकि कमजोर हो, तुम चूंकि गहरे में गुलाम
होने को उत्सुक हो, तुम
किसी का भी हाथ पकड़ लेते हो। कोई भी जोर से शोरगुल मचाए, नारा जोर से लगाए, तुम्हें लगता है कि ठीक ही कह
रहा होगा।
मैंने
सुना है,
एक
वकील जिस बड़े वकील के पास वकालत का अध्ययन कर रहा था, जब उससे विदा होने लगा तो
उसने पूछा कि कोई आखिरी संदेश हो मेरे लिए? उसके गुरु वकील ने कहा कि खयाल रखना तीन
बातें,
जो
मेरे गुरु ने मुझसे कही थीं। पहली -- जब तुम पाओ कि तुम सत्य के पक्ष में खड़े हो
तो शांत भाव से बोलना, प्रसन्न
भाव से बोलना,
तुम्हारी
मुख-मुद्रा आनंदित हो। गवाहियों पर भरोसा रखना। जब तुम पाओ कि तुम संदिग्ध अवस्था
में हो,
पता
नहीं तुम सत्य के पक्ष में हो कि असत्य के, तो सिर्फ गवाहियों पर भरोसा मत रखना तब सारी
किताबें और जो तुमने अध्ययन किया है उसका भरोसा करना। तर्क का भरोसा करना। उद्धरण
देना किताबों के : पन्नों पर पन्ने पढ़ जाना। अदालत को चकमा दे देना ज्ञान का।
और
शिष्य ने पूछा : अगर ऐसा हो कि मुझे पक्का ही हो कि मैं असत्य के पक्ष में खड़ा हूं? तो फिर गुरु ने कहा : तुम एक
काम करना। फिर जितने जोर से बोल सको और जितनी जोर से टेबल घूंसे से पीट सको, पीटना। फिर न तो गवाहियों की
कोई कीमत है न कानून की कोई कीमत है। फिर तो शोरगुल की कीमत है। क्योंकि जो आदमी
जितने जोर से बोलता है और जितने जोर से घूंसा पीटता है टेबल पर, स्वभावतः लोगों को लगता है कि
सच ही होनी चाहिए उसकी बात, क्योंकि
सच ही इतने जोर से बोलता है, झूठ तो
डरता है। बात उक्ति है! जो भी जोर से चिल्लानेवाला मिल जाता है वही तुम्हारा नेता
हो जाता है। जो भी तुम्हें झूठे आश्वासन देनेवाला मिल जाता है वही तुम्हारा नेता
हो जाता है। जो तुम्हारी वासनाओं को फुसलानेवाला मिल जाता है, और सब्जबाग दिखाता है, वही तुम्हारा नेता हो जाता
है। जो तुम्हारी वासनाओं को फुसलानेवाला मिल जाता है, और सब्जबाग दिखाता है, वही तुम्हारा नेता हो जाता
है।
अंधों की बस्ती में एक बार
एक बहरा आया
बहरे ने अंधों को
एक बहुत मीठा गाना सुनाया
स्वरों की मदद से
उनके सारे दुःखों को मार गिराया,
झोंपड़ी को फौरन ही महल बनाया गया,
अंधों को जितना महान्
हो सकता था बताया गया,
शब्दों का नाच
बड़ी देर तक चलाया गया
नाच किसे दिखता था
घुंघरू नारों का
बड़ी लय में बजाया गया,
संक्षेप में
अंधों को
पूरा सब्ज बाग दिखाया गया,
बहरे ने अंधों के मन की
सभी बातें बेमिसाल कीं
आखिर में खुश होकर
अंधों ने बहरे के गले में
जयमाला डाल दी
फिर सभी अंधे रातोंरात
लगभग कुबेर होने को मचलने लगे,
बहरे ने उनके कानों में
कुछ ऐसा रस घोला कि
धीरे-धीरे सभी अंधे
बहरे के बैठाए बैठने
और उसी के चलाए चलने लगे,
बहरे ने अंधों को
जैसा चाहा दौड़ाया
कभी इसे यहां से उखाड़ा
कभी उसे वहां ले जा बैठाया,
किसी के होठों पर सिलाई कर दी
किसी के मुंह में लाउडस्पीकर फिट कराया,
किसी बेकार के आदमी के सिर पर
ताज पहना दिया,
और चाहा तो अंधों के राजाओं को
भिखारी बना दिया
बहरे ने बड़े करतब दिखाए
तब अंधे अपनी आदत के खिलाफ घबराए,
बहरे! बता दे
क्या हुए तेरे वादे?
अंधों के नारों से धीरे-धीरे आकाश हिला,
पर अंत तक
उन्हें कुछ भी नहीं मिला
अंधों का शोर
जब जमीन हिलाए दे रहा था,
बहरा निश्चिंत था
शोर उसे सुनायी ही नहीं दे रहा था।
ऐसी
अवस्था है! तुम अंधे हो। तुम्हें कोई भी आश्वासन देता है। कितनी क्रांतियों के
आश्वासन! कितनी क्रांतियां हो चुकीं आदमी की जिंदगी में! और क्रांति कभी होती
नहीं। अभी-अभी दूसरी क्रांति होकर चुकी है। कोई फर्क नहीं पड़ता। हालतें शायद और भी
बिगड़ जाती हैं।
मैंने
सुना है,
एक
वजीर ने अपने सम्राट् को बहुत धोखा दिया। लाखों रुपए उड़ा दिए। जब सम्राट् को पता
चला, सम्राट् ने उसे बुलाया।
सम्राट् का बड़ा प्रेम था उस आदमी पर और बड़ा भरोसा था । सम्राट ने कहा कि सुनो, मैंने तुझ पर इतना भरोसा किया
और तूने धोखा किया? वजीर
ने कहाः मालिक! जब तक कोई भरोसा न करे, धोखा भी कोई कैसे करे? भरोसा करे कोई, तो ही धोखा किया जा सकता है।
बात तो
तर्कयुक्त थी। और किसको धोखा दिया जा सकता है? सम्राट् उस कठिन क्षण में भी हंसा वजीर की
बुद्धिमानी की बात सुनकर। उसने कहा : ठीक है, लेकिन अब आगे बर्दाश्त नहीं कर सकूंगा। और
तुमने मेरी सेवा की, यद्यपि
धोखा किया,
मैं
तुम्हें छुट्टी करता हूं। मैं नए वजीर को नियुक्त करूंगा।
उस
वजीर ने कहाः इसके पहले कि मेरी छुट्टी करें, एक बात सुन लें। मैंने महल बना लिया, मेरी तिजोरियां अशरफियों से
भरी हैं। दूर-दूर देशों के बैंकों में मैंने रुपए जमा करवा दिए। अब नया वजीर आएगा, फिर से शुरू करेगा। मैं तो जो
करना था सो कर ही चुका हूं।
सम्राट्
को बात समझ में आयी कि बात तो ठीक है। वजीर ने कहा : मुझको रहने दें अब; जो होना था हो ही चुका है।
दूसरा फिर से शुरू से शुरू करेगा। उसको भी महल बनाने पड़ेंगे। उसको भी जाकर
स्विट्जरलैंड के बैंकों में धन जमा करवाना पड़ेगा। फिर शुरू से शुरू होगा। नाहक
झंझट क्यों खड़ी करते हैं?
एक
क्रांति होती है,
लोग
आश्वासन दे जाते हैं। लेकिन फिर जिनको तुम सत्ता में बिठा देते हो उनको भी वही
करना पड़ता है जो पहले के लोग कर रहे थे। अगर उनको सत्ता में रहना है तो वही करना
पड़ेगा। अगर फिर सत्ता में आना है तो वही करना पड़ेगा। फिर स्विट्जरलैंड के बैंकों
में धन जमा होगा। फिर वही सब शोषण का जाल चलेगा। फिर वही चालबाजियां, फिर वही दंद-फंद, फिर वही षडयंत्र। दो-चार साल
में तुम भूल जाओगे कि क्रांति का क्या हुआ। क्रांति आई ही नहीं।
क्रांति
कभी आती ही नहीं। राजनीति कभी क्रांति ला नहीं सकती। क्रांति तो सिर्फ एक घटती
है--वह घटती है चेतना में, व्यक्ति
में; समूह में कभी नहीं घटती। रूस
की क्रांति हारी। जार इतना खतरनाक कभी भी नहीं था, जितना स्टेलिन साबित हुआ।
सारी क्रांतियां हार गयी हैं, क्योंकि
क्रांति अंततः राजनीतिज्ञ के हाथ में ही बल दे जाती है। और स्वभावतः जिन तरकीबों
से उसने पहले राज्य को समाप्त किया है, उन तरकीबों से वह अब अपने को समाप्त नहीं
होने देगा। इसलिए वह ज्यादा इंतजाम करता है, व्यवस्थित इंतजाम करता है। जार जिस तरह से
समाप्त किया गया था, स्टेलिन
ने सारा इंतजाम कर दिया था, उस तरह
से उसे कोई समाप्त नहीं कर सकता था।
आज तुम
जानकर यह हैरान होओगे कि इस दुनिया में अगर कोई देश क्रांति-प्रूफ है तो रूस है।
वहां क्रांति नहीं हो सकती। यह खूब क्रांति हुई कि क्रांति-प्रूफ देश पैदा हुआ। अब
वहां क्रांति नहीं हो सकती। अब वहां शुरू से ही आवाज नहीं उठने दी जाती है। वहां
गर्दन दबा दी जाती है। पहला ही स्वर मिटा दिया जाता है, आगे बात बनने ही नहीं दी
जाती। इसके पहले कि बगावत के बीज फैले, बीज भस्मीभूत कर दिए जाते हैं।
आदमी
ने बहुत क्रांतियां कीं, कुछ
परिणाम नहीं हुआ--सिर्फ आदमी आशाओं में डोलता रहता है, आशाओं की लहरों में झूलता
रहता है।
जागो! राजनीति
से तुम्हारे जीवन में कोई सौभाग्य का उदय नहीं होने वाला है। सौभाग्य का उदय तो
होने वाला है तुम्हारे भीतर चैतन्य की क्रांति से। तुम्हारे भीतर जो सोया पड़ा है, वह जागे तो तुम्हारे जीवन में
तृप्ति की वर्षा हो सकती है। और कुछ फूल खिल सकते हैं आनंद के। समय मत गंवाओ।
अभी-अभी दूसरी क्रांति चूक गई, जल्दी
ही साल-छह महीने में तीसरी क्रांति आती है। फिर तुम तीसरी में लग जाओगे।
आदमी
अजीब अंधा है! एक क्रांति से दूसरी क्रांति में जाने में उसे देर नहीं लगती। आदमी
की स्मृति बहुत कम है। दोत्तीन साल में भूल ही जाता है, फिर क्रांति करने लगता है।
फिर उन्हीं उपद्रवियों के चक्कर में पड़ने लगता है। वे नयी-नयी शकलें लेकर आते हैं।
तुम
पूछते होः राजनीति की इतनी प्रतिष्ठा क्यों है? --तुम्हारे कारण। क्योंकि तुम्हारे मन में
अपनी कोई प्रतिष्ठा नहीं। तुम्हारे मन में अपने प्रति कोई सम्मान नहीं। इसलिए दो
कौड़ी के राजनेताओं को तुम सम्मान देते फिरते हो। तुम्हारे मन में अपना कोई
आत्मगौरव नहीं है। इसलिए तुम कुर्सियों के सामने झुकते रहते हो। "किस्सा
कुर्सी का'
तुम्हारा
है। जहां कुर्सी देखी वहीं तुम एकदम साष्टांग दंडवत लगा देते हो। फिर तुम देर नहीं
करते। तुम दीन हो,
दया-योग्य
हो, इसलिए राजनीति की प्रतिष्ठा
है।
यह
रुग्ण स्थिति है कि सारे अखबार राजनीति से भरे रहें। यह इस बात की खबर है कि सिवाय
बीमारियों के हमारी और किसी बात में कोई उत्सुकता नहीं है। किसी की हत्या करो, अखबार में आ जाएगी। एक पौधे
को पानी सींचो,
एक
सुंदर फूल उगाओ,
किसी
को कभी पता नहीं चलेगा, किसी
अखबार में खबर नहीं आएगी। चोरी करो, बेईमानी करो, अखबार में आ जाओगे। चुपचाप
शांति से जियो,
आनंद
से जियो,
बैठकर
कभी ध्यान करते रहो, प्रार्थना
करो, पूजा करो, दुनिया में किसी को खबर नहीं
होगी। यह बड़ी अजीब अवस्था है! यहां शुभ का कोई समाचार ही नहीं होता। यहां सिर्फ
अशुभ के ही समाचार होते हैं। और अगर अशुभ के समाचार ही फैलते हैं और अशुभ फैलता हो
तो आश्चर्य क्या है?
छोड़ो
इस रुग्ण रोग को! भूलो राजनीति के उपद्रवों को। अपने घर आओ। और डरो मत कि तुम्हारे
बिना राजनीति न चलेगी। बहुत है चलाने वाले। एक ढूंढो, हजार मिलते हैं। वे चलाते
रहेंगे। तुम सरक आओ बाहर। तुम भीड़-भाड़ से निकल आओ। तुम अपने भीतर मंदिर बनाओ। तुम
अपने भीतर पूजा का दीप जलाओ। तुम्हारे भीतर क्रांति हो सकती है।
बस एक
ही क्रांति है दुनिया में : जब कोई व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता है तो वही
क्रांति है,
और कोई
क्रांति नहीं। और तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाओ तो तुम्हारे पास जो आए , उनके जीवन में भी ज्योति
उतरे। ज्योति से ज्योति जले!
आखिरी
प्रश्न : क्या आप सिद्ध कर सकते हैं कि परमात्मा है?
परमात्मा
अगर स्वयं को सिद्ध करना चाहता होता तो उसने कभी का स्वयं ही कर दिया होता।
परमात्मा असिद्ध ही रहना चाहता है। और उसके पीछे कारण है।
परमात्मा
अगर सिद्ध हो जाए,
जैसे
कि पत्थर सिद्ध हैं, तो
व्यर्थ हो जाएगा।
कम्यूनिज्म
के जन्मदाता कार्ल माक्र्स ने कहा है कि जब तक परमात्मा को प्रयोगशाला में परखनली
में न पकड़ा जा सकेगा तब तक मैं नहीं मानूंगा। लेकिन, ज़रा सोचो तो, परमात्मा को अगर प्रयोगशाला
की परखनली में पकड़ लिया गया और वैज्ञानिक ने चीर-फाड़ करके पोस्टमार्टम कर दिया तो
परमात्मा तो सिद्ध हो जाएगा; लेकिन
पोस्टमार्टम के बाद! मर चुका होगा।
परमात्मा
परम जीवन है,
इसलिए
सिद्ध नहीं हो सकता। हां, तुम
चाहो तो अपने को उस परम जीवन के साथ संयुक्त कर सकते हो, सिद्ध करने की बात मन में
उठती है,
कि
सिद्ध हो जाए तो फिर हम श्रद्धा करेंगे। लेकिन तुम समझते हो श्रद्धा का अर्थ क्या
होता है?
श्रद्धा
का अर्थ होता है--इतना साहस, कि जो
सिद्ध नहीं है,
उसकी
तलाश करना। श्रद्धा का अर्थ ही यही होता है।
मेरे
पास लोग आकर पूछते हैं, वे
कहते हैं परमात्मा सिद्ध हो जाए तो हम श्रद्धा करने को तैयार हैं। लेकिन सिद्ध हो
जाए तो श्रद्धा की जरूरत ही नहीं रह जाती। क्या तुम सूरज पर श्रद्धा करते हो? अभी वर्षा हो रही है, इस पर श्रद्धा करते हो? वृक्ष खड़े हैं, इन पर श्रद्धा करते हो? जो सिद्ध हो गया, उसकी श्रद्धा का कारण ही नहीं
है। श्रद्धा समाप्त हो गई। इसलिए परमात्मा असिद्ध रहता है, ताकि श्रद्धा को जन्मा सके।
श्रद्धा के लिए जरूरी है कि परमात्मा असिद्ध रहे, अदृश्य रहे, अगोचर रहे। जो उसे खोजने का
साहस करे,
बस
उनको मिले।
परमात्मा
कोई तर्क का सिद्धांत नहीं है। परमात्मा प्रेम का एक अनुभव है। न तो प्रेम को
सिद्ध किया जा सकता है, न
परमात्मा को सिद्ध किया जा सकता है। जिस आदमी ने यह निर्णय ले लिया कि प्रेम करने
के पहले मैं सिद्ध करवा लूंगा कि प्रेम होता है--प्रेम क्या है? प्रयोगशाला में जांच-परख हो
जाएगी,
तब मैं
प्रेम करूंगा--एक बात निश्चित है, वह
आदमी प्रेम नहीं कर पाएगा। प्रेम तो करना होता है--अंधेरे में, टटोलते हुए, खोजते हुए। उस अनिश्चय में ही
प्रेम की भूमिका बनती है। उस अंधेरे में ही प्रेम का गर्भ निर्मित होता है।
ध्यान
रखना, जड़ें अंधेरे में बढ़ती हैं, जमीन के गहरे अंधेरे में।
बच्चे भी मां के पेट के अंधेरे में बड़े होते हैं। ऐसी ही श्रद्धा भी, अंधेरे में। रोशनी कर दो बहुत, जड़ें मर जाती हैं। वृक्ष को
उखाड़कर जड़ों को सूरज दिखा दो, वृक्ष
मर जाएगा। बच्चे को मां के पेट के बाहर ले आओ, सूरज की रोशनी में रख दो, मर जाएगा। हां, एक दिन जब बच्चा बड़ा हो जाएगा, योग्य हो जाएगा कि आ सके, संसार के संघर्ष को झेल सके, तो बाहर आएगा गर्भ के। लेकिन
इसके पहले कि गर्भ के बाहर आए, नौ
महीने गर्भ में रहेगा।
श्रद्धा
परमात्मा को गर्भ में रखने का नाम है। नौ महीने। और नौ महीने कितने लंबे होंगे, तुम पर निर्भर है।
कलकत्ता
के एक मित्र ने पूछा है, सेठिया
ने, कि संन्यास का भाव उठे और
संन्यास लें,
इसमें
कितना फासला होता है? कितना
समय लगता है,
संन्यास
के भाव में और संन्यास के लेने में?
सेठिया, तुम पर निर्भर है। चाहो
जन्म-जन्म लगा दो,
चाहो
क्षण न लगे,
आज ही
सही। कल तक क्यों टालो? कल का
भरोसा क्या है?
नौ
महीने तुम पर निर्भर। एक क्षण में भी पूरे हो सकते हैं; अनंत जन्मों में भी पूरे न
हों। तुम्हारी त्वरा, तीव्रता, तुम्हारी गहनता, तुम्हारे समर्पण, तुम्हारे संकल्प पर सब निर्भर
है।
पूछा
तुमने : क्या आप सिद्ध कर सकते हैं कि परमात्मा है?
हे
भगवान्!
इस देश
में काव्य-कला का विकास हो,
मूर्तिकला, संगीतकला, चित्रकला आदि चौंसठ कलाओं का।
विचित्र
कला तक का विकास हो--
ऋद्ध-समृद्ध
होने, प्रसिद्ध होने, एक अर्थ में
सिद्ध
होने की कला का भी विकास हो।
लेकिन
हे भगवान्!
इस देश
में, फिर इस खोटे जमाने में,
सिद्ध
करने की कला का विकास कभी न हो;
क्योंकि
तब तो,
दिन को
रात, रात को दिन,
हाथी
को चींटी
सींटी
को भोंपू
भाले
को पिन
लवे को
बाज
तवे को
परात,
शव-यात्रा
को बरात,
और
गौरैया को गरुड़ या गिद्ध,
सिद्ध
करना भी आसान होगा।
कबिरा
तो बड़ा हलाकान होगा!
सो हे
भगवान्!
और
चाहे जो करो--
इस
टेढ़े देश और खोटे जमाने में
सिद्ध
करने की कला का विकास न होने दो।
सिद्ध
करने का अर्थ क्या? कुछ
तर्क दिए जाए?
तर्क
दिए गए हैं। जितने दिए जा सकते थे, सब दिए जा चुके हैं। उन तर्कों से कुछ सिद्ध
नहीं हुआ। पांच हजार साल से तर्क दिए गए हैं ईश्वर के होने के। लेकिन उन तर्कों से
कुछ सिद्ध नहीं हुआ। कोई कहता है--इसी तरह के सारे तर्क हैं, इसी सरणी के--कि जैसे कुम्हार
ने घड़ा बनाया,
तो घड़े
को देखकर पक्का हो जाता है कि बनानेवाला होगा। ऐसे ही इतने विराट संसार को बनाया
है जिसने,
वह
होना चाहिए। इस तरह के तर्क हैं। मगर इन तर्कों से क्या कुछ हल होता है? नास्तिक पूछता है, फिर उसको किसने बनाया? घड़ा बनाया कुम्हार ने, मान गए। कुम्हार को किसने
बनाया?
वहां
तुम्हारी आस्तिकता पोच पड़ जाती है। वहां तुम्हारा तर्क दो कौड़ी का हो जाता है।
वहां आस्तिक कहने लगता है परमात्मा को किसी ने नहीं बनाया। तो नास्तिक कहता है, जब परमात्मा बिना बनाए हो
सकता है तो संसार बिना बनाए क्यों नहीं हो सकता? क्या जरूरत फिर? इतनी दूर ले जाने की जरूरत
क्या है?
फिर
संसार ही बिन बनाया हो सकता है, जब कोई
भी चीज बिन बनायी हो सकती है और बनाना हर चीज के होने के लिए अनिवार्य नहीं है, तो संसार ही बिन बनाया है।
फिर परमात्मा को बीच में क्यों लाते हो? और अगर तुम कहो कि परमात्मा को और बड़े
परमात्मा ने बनाया है, तो
प्रश्न बढ़ता ही चला जाएगा। फिर तो उसका कोई अंत नहीं होगा। एक परमात्मा को दूसरा
बनाएगा,
दूसरे
को तीसरा,
तीसरे
को चौथा ;****)१०** कोई अंत न होगा। अंत में
थककर तुम्हें कहना ही पड़ेगा कि बस भाई, अब रुको; इसको किसी ने नहीं बनाया। यह जो है, आखिरी है।
मगर
वही प्रश्न फिर वापिस लौट आता है। जिन्होंने तर्क दिए हैं वे जानने वाले लोग नहीं
थे। अगर जाननेवाले होते तो इतने बचकाने तर्क न देते, जिनको बच्चे भी तोड़ सकते हैं, जिनको कोई भी नास्तिक खंडित
कर सकता है।
तो मैं
तुमसे यह कहना चाहता हूं कि आस्तिकों ने तर्क दिए ही नहीं। जिन्होंने दिए हैं, वे भी छिपे हुए नास्तिक थे।
उनको भी शक था। वे अपने को समझाने के लिए तर्क खोज रहे थे। अपने को समझाने के लिए
दूसरों को भी तर्क दे रहे थे। अकसर ऐसा हो जाता है, अपने को समझाने के लिए आदमी दूसरों
को तर्क देने लगता है। जब दूसरों की आंखों में सहमति देखना है तो उसे खुद भी भरोसा
आ जाता है।
मैंने
सुना है,
मुल्ला
नसरुद्दीन एक सड़क से गुजर रहा था। सांझ का वक्त, कुछ लफंगे उसे सताने लगे। कोई
उसकी अचकन खींचने लगा। किसी ने उसके चूड़ीदार पाजामे का नासा खींच दिया। कोई उसके
खीसे में हाथ डालकर देखने लगा। रात का वक्त, सन्नाटा, कौन झंझट करे लफंगों से। उसने कहा, भई तुम्हें मालूम है, मैं कहां जा रहा हूं? उन्होंने पूछा, कहां जा रहे हो? नसरुद्दीन ने कहा कि आज
राजमहल में भोज है, सारा
गांव आमंत्रित है,
तुमको
पता नहीं?
अरे!
उन्होंने कहा,
हमें
कुछ मालूम ही नहीं। वे एकदम भागे राजमहल की तरफ। जब वे दस-पंद्रह लफंगे राजमहल की
तरफ भागने लगे,
थोड़ी
देर बाद मुल्ला भी उनके पीछे भागा-- कहता हुआ कि कौन जाने बात सच ही हो। हालांकि
उसने झूठी बात कही थी--सिर्फ उनसे छुटकारा पाने के लिए कि ये राजमहल की तरफ चले
जाएं तो मैं अपने घर जाऊं।
लेकिन
जब पंद्रह आदमी किसी बात पर भरोसा कर लें तो तुम्हें भी शक उठना शुरू हो जाता है
कि कौन जाने बात सच ही हो! जाकर देख ही लेना उचित है। हालांकि तुमने गढ़ी थी। ऐसा
अकसर हो जाता है कि तुम्हारी ही शुरू की गई अफवाह जब लौटकर तुम पर आती है, तुम उस पर भरोसा कर लेते हो।
आस्तिकों
ने तर्क नहीं दिए हैं। आस्तिक को एक बात बिल्कुल साफ हो जाती है कि परमात्मा
तर्कातीत है। इसलिए मैं तुम्हें कोई तर्क नहीं दे सकता। कोई तर्क नहीं है उसके
लिए। परमात्मा है । और जब मैं कहता हूं परमात्मा है, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि
कोई धनुष-बाण लिए खड़ा है कहीं या बांसुरी बजा रहा है। जब मैं कहता हूं परमात्मा है
तो मैं कहता हूं यह सब जो "है' का विस्तार है, इस सब का एक नाम दे रखा है
--परमात्मा। ये पानी की गिरती बूंदें, यह वृक्षों की हरियाली, यह पक्षियों की आवाज, ये लोग, ये नदियां, ये पहाड़, ये चांदत्तारे! इस सारे
विस्तार का इकट्ठा नाम है परमात्मा। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है कि पकड़कर
तुम्हारे सामने खड़ा कर दिया जाए।
एक
स्त्री मरी न्यूयार्क में और अपनी वसीयत कर गई, परमात्मा के नाम, कई हजार डॉलर छोड़ गई थी। अब
बड़ी मुश्किल हो गई अदालत में। कानून के हिसाब से परमात्मा के नाम अदालत को सूचना
भेजनी पड़ी कि आप आ जाएं और इतना रुपया, इतने डॉलर, इतनी धन-संपत्ति, यह महिला आपके नाम छोड़ गई, यह संभाल लें। अब जब अदालत ने
निकाल दी सूचना,
तो
सूचना ले जानेवालों को ले जानी पड़ी। न्यूयार्क भर में खोजा गया। और फिर आखिर खबर
आई --जो आदमी सूचना लेकर गया, उसने
खबर दी लिखकर--कि न्यूयार्क में परमात्मा नहीं पाया गया।
ऐसे
परमात्मा को खोजने जाओगे तो कहीं पाया जाएगा? ऐसे नहीं पाया जा सकता।
मैंने
सुना है,
एक
छोटे बच्चे ने परमात्मा को चिट्ठी लिखी। छोटे बच्चे ऐसा करें तो चलेगा, मगर बड़े-बड़े जब लिखने लगते
हैं, उम्र वाले जब लिखने लगते हैं
तो बहुत हंसी आने लगती है। एक छोटे बच्चे ने चिट्ठी लिखी कि मेरे पास किताबें भी
नहीं हैं,
सिलेट-पट्टी
भी नहीं है और अगर पच्चीस रुपए एक तारीख तक न आ गए, तो मैं फीस भी न भर सकूंगा, पिता बीमार हैं, घर में खाने को दाना नहीं है।
जल्दी ही पच्चीस रुयया मनी-आर्डर से भेज दें।
स्वभावतः
चिट्ठी तो वहां पहुंची जहां खोयी हुई चिट्ठियां पहुंचती हैं, जिनको लेनेवाला कोई नहीं
मिलता। वहां क्लर्कों ने खोली। पोस्ट मास्टर को दी कि इस चिट्ठी का क्या करें ? इसको कहां भेजें? पोस्ट मास्टर को दया आ गई। .
..बेचारा बच्चा! उसने कहा, भई, कुछ इकट्ठा करके, सब मिल-जुलकर इसको पच्चीस
रुपए भेज दो। इकट्ठे तो किए। बीस ही रुपए इकट्ठे हुए। तो उसने कहा, बीस ही भेज दो, जितने हों, उतने ठीक। बीस रुपए का मनीआर्डर
बच्चे को पहुंचा। तीसरे दिन चिट्ठी आई बच्चे की, कि हे परमात्मा, बहुत-बहुत धन्यवाद! लेकिन
दुबारा जब रुपए भेजो, तो
सीधे भेजना। यह पोस्ट मास्टर पांच रुपया अपनी फीस बीच में खा गया, इसने अपनी दलाली काट ली। अब
दुबारा ऐसा मत करना।
लेकिन
लोगों की परमात्मा के संबंध में धारणा बस ऐसी ही है। तुम जब हाथ उठाते हो आकाश की
तरफ, तब तुम बचकानी धारणा से भरे
हुए मत रहना कि वहां कोई बैठा सुन रहा है। वहां नहीं है परमात्मा--यहां है, अभी है। चारों ओर है। वही है।
उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। अब इसको कैसे सिद्ध करें? वृक्ष हैं, हवाएं आ रही हैं, वर्षा हो रही है, पक्षी गीत गा रहे हैं, लोग बैठे हैं। ये सब परमात्मा
हैं। अब इसको कैसे सिद्ध करें? तुम
परमात्मा हो,
पूछनेवाला
परमात्मा है। इसको कैसे सिद्ध करें? यह तो सिद्ध है ही। इसे सिद्ध जो करे वह
नासमझ ही है।
हमें
कुदरत ने नहीं क्या-क्या दिया,
किंतु
हमने कुछ नहीं उससे लिया,
हम रहे
अंधे
किरन
भी सूर्य की हमने नहीं पी--
सांस
भी पूरी नहीं ली फेफड़ों में,
बंद
कमरों में विरस बैठे रहे,
मानकर ऐसा, कि हम हैं सब--
जड़ से
शाख तक ऐंठे रहे।
अकड़ो
मत। ज़रा शिथिल हो जाओ और परमात्मा सिद्ध हो जाएगा। तुम जितने अकड़ोगे, उतना परमात्मा असिद्ध हो
जाएगा। तुम जितने तरल होओगे, सरल
होओगे,
उतना
परमात्मा सिद्ध हो जाएगा।
और
ध्यान रखना,
तुम्हारे
मानने को मानने से परमात्मा को भेद नहीं पड़ता, तुम्हीं को भेद पड़ता है।
नीत्शे
ने घोषणा की थी सौ वर्ष पहले कि परमात्मा मर गया। परमात्मा नहीं मरा, लेकिन घोषणा करने के बाद
नीत्शे निश्चित पागल हो गया। पागलखाने में मरा। और उसकी घोषणा धीरे-धीरे इस सदी की
घोषणा बन गई। यह पूरी सदी पागल हुई जा रही है। यह पूरी सदी पागल होकर मर सकती है।
परमात्मा नहीं मरा उसकी घोषणा से, आदमी
मर गया।
हमारे अविश्वास करने से
भगवान् मर नहीं पाता।
हम न डरें उससे, तो इससे वह डर नहीं जाता,
बल्कि मर जाते हैं हम उसी क्षण जब
भरोसा उठ जाता है हमारा
प्रकाशित होने में किसी बड़े प्रकाश से।
रोज नए सिरे से जन्म लेने के बजाय
होते हैं हम हर रोज अधिक हताश से
अपने प्रति, अपनों के प्रति
जो देखे थे जान-बूझकर
उन सपनों के प्रति।
परमात्मा
एक प्रकाश है,
तुमसे
बड़ा। तुमसे कुछ बड़ा है इस जगत् में, तुम्हें किसी ने घेरा है--इस प्रतीति का नाम
परमात्मा है। तुम पर जगत् समाप्त नहीं है, इस बोध का नाम परमात्मा है। तुम्हारे आगे और
भी यात्रा है। तुम्हारे आगे और भी मंजिलें हैं। तुम्हारे आगे और भी आसमान हैं। इस
बात की प्रतीति है परमात्मा। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है--संभावना है। तुम और भी
हो सकते हो;
जितने
तुम अभी हो,
यह कुछ
भी नहीं है।
हमारे अविश्वास करने से भगवान् मर नहीं पाता,
हम न डरें उससे, तो इससे वह डर नहीं जाता,
बल्कि मर जाते हैं हम उसी क्षण जब
भरोसा उठ जाता है हमारा प्रकाशित होने में
किसी बड़े प्रकाश से।
ज्योति
से ज्योति जले! जब तुम्हारा भरोसा होता है अपने से बड़े पर, तुम उसी भरोसे में बड़े होने
लगते हो। तुम्हारा जब भरोसा होता है विराट पर, तो उसी भरोसे में तुम फैलने लगते हो, असीम होने लगते हो।
नहीं; मैं परमात्मा को सिद्ध न कर
सकूंगा। क्योंकि परमात्मा कोई वस्तु नहीं है जो सिद्ध की जा सके; कोई व्यक्ति नहीं है जिसको
खींचकर तुम्हारे सामने लाया जा सके। परमात्मा तुम्हारे होने की अनंत संभावना है।
तुम होओगे,
तो ही
जानोगे। तुम पाओगे, तो ही
जानोगे। पाने की राह बताई जा सकती है। परमात्मा होने का मार्ग बताया जा सकता है।
परमात्मा
तुमसे भिन्न थोड़े ही है कि तुम कभी उसका साक्षात्कार लोगे, कि उससे भेंट-वार्ता होगी।
जिस दिन तुम जागोगे अपनी पूरी संभावना में, जिस दिन तुम्हारी पूरी संभावना वास्तविक
बनेगी,
तुम
पाओगे तुम परमात्मा हो। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तुम पाओगे, तुम परमात्मा हो, और कोई परमात्मा नहीं है। उस
क्षण तुम पाओगे कि सब परमात्मा है। परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
शांति भीतर है, उसे पहले सहेजो,
बिना उसके कुछ नहीं बाहर बनेगा,
बिना भीतर को संवारे अगर मारे फिरे--
चार खूंट विचित्र जग में
तो तुम्हें केवल मिलेगी क्लांति,
भीतर शांति है, समझो उसे, उसको सहेजो।
मैं
तुम्हें राह दे सकता हूं भीतर शांत होने की, शून्य होने की। उसी शून्य में अनुभूति के
स्वर उठने शुरू होते हैं।
मैं
परमात्मा को सिद्ध नहीं कर सकता; लेकिन
तुम्हें द्वार दे सकता हूं, जहां
से तुम स्वयं सिद्ध कर लोगे कि परमात्मा है। तुम भी किसी और के सामने सिद्ध न कर
सकोगे। यह बात सिद्ध-असिद्ध करने की नहीं। परमात्मा के न तो पक्ष में कुछ कहा जा
सकता है,
न
विपक्ष में कुछ कहा जा सकता है। लेकिन जो परमात्मा को खोजने निकलते हैं, वे उसे पा लेते हैं। और जो
उसे पा लेते हैं वे ही स्वयं को पाते हैं। क्योंकि स्वयं की आंतरिक सत्ता और
परमात्मा एक ही बात के दो नाम हैं।
आत्मा
ही परमात्मा है।
आज
इतना ही।
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