प्रवचन-सत्रहवां
सार-सूत्र--मिटी न दरस पियास
जा घट की उनहारि है, तेसौ दीसत आहि।
सुंदर भूलौ आपुही, सो अब कहिए काहि।।
सुंदर पावन दार कै, भीतरि रहयौ समाइ।
दीरघ मैं दीरघ लगै, चौरे मैं चौराइ।।
सुंदर चेतनि आप यह, चालत जड़ की चाल।
ज्यौं लकरी के अश्व चढ़ि, कूदत डोलै बाल।।
काहू सौं बांभन कहै, काहूं सौं चंडाल।
सुंदर ऐसौ भ्रम भयौं, योंही मारै गाल।।
देह पुष्ट है दूबरी, लगै देह कौं घाव।
चेतनि मानै आपुकौ, सुंदर कौन सुभाव।।
सान्यौ घर मांहे कहै हूं, अपने घर जाउं।।
सुंदर भ्रम ऐसो भयौ, भूलौ अपनौ ठाउं।।
कह्या कछू नाहिं जात है, अनुभव आतम सुक्ख।
सुंदर आवै कंठलौं, निकसित नाहिन सुक्ख।।
सुंदर जाकै बित्त है, सौ वह राखै गोइ।
कौंड़ी फिरै उछालतौ, जो टटपूंज्यौ होइ।।
अंत्यज ब्राह्मण आदि दै, दार मथै जो कोइ।
सुंदर भेद कछू नहीं, प्रकट हुतासन होइ।।
दीपग जोयौ बिप्र घर, मुनि जोयौं चंडाल।
सुंदर दोऊ सदन कौ, तिमिर गयौं तत्काल।।
अंत्यज कै जलकुंभ मैं, ब्राह्मन कलस-मंझार।
सुंदर सूर प्रकाशिया, दुहुंवनि मैं इकसार।।
धर्म
सनातन भी है--और नितनूतन भी!
इस
विरोधाभास को ठीक से समझें। धर्म सनातन है, क्योंकि सत्य सनातन ही होगा। सत्य समय के
अनुसार बदलता नहीं। समय की कोई भी धार सत्य पर रेखाएं नहीं छोड़ती। समय की लहरें
उसकी शाश्वतता को नहीं छूती हैं। सत्य तो जैसा है वैसा है। आज भी वैसा है, कल भी वैसा था, कल भी वैसा ही होगा। इसीलिए
तो उसे सत्य कहते हैं--जो सदा एकरस है, एक जैसा है।
इसीलिए
तो स्वप्न और सत्य का भेद है। स्वप्न अभी है अभी नहीं। अभी उठा, अभी गया। लहर की भांति। सत्य
उस सागर की भांति है जिसमें लहरें उठती हैं, गिरती हैं, और जो सदा है।
पहली
बात ः सत्य सनातन है, शाश्वत
है, समयातीत है; लेकिन साथ ही, मौलिक भी नितनूतन भी। क्योंकि
जब भी सत्य की अवधारणा होती है, जब भी
कोई प्राण सत्य को अपने भीतर अनुभव करते हैं, तब वह अनुभव किसी और का अनुभव नहीं होता, अपना ही अनुभव होता है; निज अनुभव होता है--इतना निज
कि ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वह किसी की पुनरुक्ति है।
बुद्ध
ने सत्य को जाना,
महावीर
ने सत्य को जाना,
कबीर
ने जाना,
नानक
ने जाना,
सुंदरदास
ने जाना। लेकिन जिसने भी जब जाना, तब
इतनी निजता में जाना कि उसे किसी और के सत्य की पुनरुक्ति नहीं कहा जा सकता। बुद्ध
उसके गवाह हो सकते हैं, लेकिन
वह वही अनुभव नहीं है जो बुद्ध को हुआ। सुंदरदास अपने ढंग से जानेंगे! बुद्ध ने अपने
ढंग से जाना था। उन ढंगों में भेद है।
सुंदरदास
की प्रतीति ऐसी है जैसी कभी हुई ही न हो। तुमसे पहले भी बहुत लोगों ने प्रेम किया
है; लेकिन जब तुम प्रेम करोगे तो
ऐसा थोड़े ही समझोगे कि यही पुनरुक्ति उन सारे प्रेमियों के प्रेम की पुनरुक्ति है।
यद्यपि प्रेम का तत्त्व तो एक ही है, लेकिन हर बार नया रंग लेता है, नया ढंग लेता है। प्रेम का
स्वर तो एक ही है,
लेकिन
हर बार नए गीतों में ढलता है। प्रेम की वीणा तो एक ही है, लेकिन हर बार जब कोई संगीतज्ञ
उसके तार छेड़ता है, तो उस
छेड़ने में नयापन होता है।
सत्य
शाश्वत भी है--और सदा नया भी! जैसे सुबह की ताजीत्ताजी ओस, इतना नया! और इतना पुराना
जैसे सूरज।
इस
विरोधाभास को ठीक से न समझा जाए तो बहुत अड़चन होती है। कुछ लोग मान लेते हैं कि
सत्य पुराना ही है; इसलिए
जो भी पुराना है वह सत्य है। इसलिए पुराने की पूजा शुरू होती है, नए का भय शुरू हो जाता है।
इससे पुराणपंथी पैदा होता है, मुर्दा
आदमी पैदा होता है--जिसके जीवन में कोई नयी उमंग नहीं होती, नए उत्साह की तरंग नहीं होती; जिसके जीवन में सब बासा-बासा
होता है। वह तोते की तरह गीता दोहराता है, तोते की तरह कुरान दोहराता है। उसकी वाणी
झूठ। उसका व्यक्तित्व झूठ । उसका जीना एक पाखंड।
यह
भ्रांति बड़े जोर से हुई है। करोड़ों लोगों को हुई है। तो वे पुराण की पूजा में ही
समाप्त हो जाते हैं। फिर वे उसी सत्य को खोजते रहते हैं जो बुद्ध को हुआ था, कृष्ण को हुआ था, क्राइस्ट को हुआ था, मुहम्मद को हुआ था। और वह
सत्य तुम्हें कभी नहीं होनेवाला है, क्योंकि परमात्मा दो व्यक्ति कभी एक जैसे
नहीं बनाता। यही तो व्यक्तित्व की गरिमा है कि हर व्यक्ति अनूठा है, अद्वितीय है, बेजोड़ है, अतुलनीय है। उसकी कोई तुलना
नहीं हो सकती। बस एक व्यक्ति ही परमात्मा बनाता है, उस जैसे और व्यक्ति नहीं
बनाता। नहीं तो व्यक्ति यंत्र हो जाए, जैसे सड़क पर फीएट कारें, बहुत-सी एक जैसी, कारखाने से निकलती हैं।
परमात्मा
ने आदमी का कोई कारखाना नहीं बनाया है, एक-एक आदमी को गढ़ता है। उसी प्रेम से, उसी आनंद से, जैसे उसने औरों को गढ़ा था। जब
तुमको गढ़ा तो उसके प्रेम में ज़रा भी कमी नहीं थी। और जब तुम्हें नाक-नक्श दिया और
तुम्हारी सांसों में सांस फूंकी तो ज़रा भी कम आह्लादित नहीं था। ऐसा नहीं कि बुद्ध
को श्वास देते वक्त ज्यादा आह्लादित था और तुम्हें श्वास देते वक्त कम।
यह
अस्तित्व सभी के साथ समान व्यवहार करता है। यह सभी को समान सम्मान देता है, समान प्रेम देता है। इसलिए
प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है और उसमें सत्य का जो प्रतिफलन बनेगा वह भी अनूठा होगा।
इसलिए तुम बुद्ध के सत्य को मत खोजना। वह तुम्हें कभी नहीं मिलेगा। तुम्हें तो
अपना ही सत्य खोजना पड़ेगा। कुछ लोग यह सोचकर कि सत्य सनातन है, वेदों की पूजा में लगे हैं और
उनके भीतर का वेद सोया ही पड़ा रह जाता है। बाहर के वेद की खोज करोगे तो भीतर का
वेद जागेगा कैसे?
तुम्हारी
ऊर्जा तो बाहर के वेद के आसपास पूजा और परिक्रमा करती रहती है, तुम्हारे भीतर की ऋचाएं कैसे
निर्मित हों?
तुम्हारे
भीतर सोए हुए स्वर कैसे जगें? तुम्हारी
बांसुरी कैसे गुंजार से भरे? तुम तो
बाहर के काबा की यात्रा कर रहे हो, भीतर के काबा की यात्रा कौन करेगा?
तो एक
भ्रांति यह,
जिससे
बचना, कि सत्य केवल वही है जो
पुराना है।
फिर
दूसरी भ्रांति पैदा होती है--इसके विपरीत। हर भ्रांति अपने विपरीत दूसरी भ्रांति
को भी जन्म दे देती है। कुछ लोग हैं जो मानते हैं सत्य नया ही है। पुराना हो ही
नहीं सकता। इसलिए पुराने को आग लगा दो। इसलिए तोड़ दो मंदिरों और मस्जिदों को।
इसलिए जला दो शास्त्रों को। सत्य तो नया है और प्रत्येक व्यक्ति का अपना है। इसलिए
क्या प्रयोजन है पुराने की तरफ देखने से? यह दूसरी भूल।
सत्य
नया है। प्रत्येक व्यक्ति का अपना ही होनेवाला है। लेकिन ऐसे ही अनेक व्यक्तियों
को पहले भी हुआ है। और उसके ढंग कितने ही भिन्न रहे हों, रंग कितने ही भिन्न रहे हों, उसकी मौलिक आधारशिला तो एक ही
है। जैसे आकाश में चांद निकले, फिर
तुम्हारे घर की छोटी-सी तलैया में उसका प्रतिबिंब बने, और किसी के बड़े सागर में उसका
प्रतिबिंब बने,
दीन-हीन
के घर,
और
समृद्ध के घर--सब जगह उसके प्रतिबिंब बनेंगे। प्रतिबिंब भिन्न-भिन्न होंगे और
नए-नए होंगे,
रोज नए
होंगे,
रोज नए
होंगे;
लेकिन
जिसका प्रतिबिंब है वह तो एक ही है।
तुम्हारे
भीतर जब ऋचा का जन्म होगा, तुम्हारी
जब अपने भीतर की आयत प्रकट होगी, जब तुम
गुनगनाओगे अपना गीत जिसे गाने को तुम आए--तो तुम चकित रह जाओगे कि यही तो वेद के
ऋषियों ने गाया है। यही तो कुरान है। यही तो बाइबिल है।
जिस
दिन कोई जगता है अपने सत्य के प्रति, उस दिन एक अनूठा अनुभव होता है--कि मेरा
सत्य मेरा ही नहीं है, जिनने
भी जाना है सबका है, और जो
भी आगे जानेंगे उनका भी है।
तो
सत्य न तो सिर्फ नया है। इस भ्रांति में मत पड़ना। वह क्रांतिकारी की भ्रांति है।
और न सत्य सिर्फ पुराना है। उस भ्रांति में भी मत पड़ना। वह प्रतिक्रांतिवादी की
भ्रांति है। सत्य तो दोनों है--पुराने से पुराना, नए से नया। पहाड़ों जैसा
पुराना और ओस की बूंदों जैसा नया! यही तो सत्य की रहस्यमयता है। अति प्राचीन, नितनूतन!
अगति
की, प्रगति की बड़ी धूम, लेकिन
वही
लास है,
बस कि
नट ही नए हैं।
मनुज
जन्म लेकर बिना मौत डूबा
न जो
खोज पाया सनेही सहारे
दिवस
भर तिरी जो तरी जिंदगी थी
कहीं
रात को रोज लगती किनारे,
शिखर
से उदधि तक कि निर्बाध बहती
नदी तो
वही बस कि तट ही नए हैं।
तिमिर
अप्सरी ने,
मदिर
बेसुधी में
शिथिल
भुज-लता-पाश-बंदी बनाया
किरन-सुंदरी
ने सुबह गुदगुदा कर
सुनहले
करों से पलक छू जगाया
भरे जा
रहे जागरण स्वप्न में जो
वही
रंग हैं बस कि पट ही नए हैं।
भले ही
मुझे तुम पुरातन समझ लो
चिरंतन
स्वरों पर उठा जोश हूं मैं
तुम्हें
भ्रम हुआ है,
अचेतन
नहीं हूं
अमर
ताल पर झूम मदहोश हूं मैं
जिसे
हम पिए औ'
जिए जा
रहे हैं
सुरा
है वही बस कि घट ही नए हैं।
कुछ
नया है,
कुछ
पुराना है। ऐसे ही तो सारा अस्तित्व जुड़ा है।
सुरा
है वही,
बस कि
घट ही नए हैं।
सुंदरदास
के ये वचन सारे शास्त्रों का सार हैं, और फिर भी किसी शास्त्र की पुनरुक्ति नहीं।
और जब भी तुम किसी सद्गुरु के पास बैठोगे तो यही पाओगे। उसके वचनों में सारे
शास्त्रों का सार होगा और फिर भी किसी शास्त्र की पुनरुक्ति नहीं होगी। और जहां
तुम्हें ऐसा अनुभव हो, वहीं
जानना कि सत्य का पुनः पदार्पण हुआ है, सत्य फिर उतरा है, सत्य की किरण फिर जमीन पर आयी
है, बसंत फिर आया है, कलियां फिर खिली हैं। जहां
तुम तोतों की तरह पुराने का उद्घोष सुनो--बस पुराने का उद्घोष सुनो--वहां से
सावधान रहना! और जहां तुम उनके विपरीत सिर्फ नए और नए की ही अर्चना पाओ, वहां से भी सावधान रहना!
पुराना और नया जहां एक साथ खड़े हों, जहां पुराने ने पुरानापन छोड़ दिया हो और नए
ने नयापन छोड़ दिया हो, जहां
दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हो गए हों, वहीं जानना कि सत्य का अवतरण हुआ है।
यह
बसंत समीर आया झूमकर
यह कली
का लाज बंधन खुल गया!
ऐसा
जहां बसंत का समीर आता है वहीं कली टूटती है और फूल बनती है।
यह
बसंत समीर आया झूमकर
यह कली
का लाज बंधन खुल गया
खेल
माटी में हुआ बचपन विदा
हुई वय
में किरन से रंगरेलियां
हरित
क्षौम पहिन जवानी आ गयी
पवन से
होने लगीं अठखेलियां
फसल के
सूरज-सुनहले अंग पर
गगन से
यह रंग-केशर ढुल गया!
यह
बसंत समीर आया झूम कर
यह कली
का लाज बंधन खुल गया!
बुलबुला
ही एक पानी का सही
कौन
कहता है कि आकर फंस गया
जिया
मैं जीवन लहर के वक्ष पर
और
बीता तो मरण पर हंस गया
स्नेह-रस
मैं हूं फसल के अंग पर
जो
उभरते रंग में मिल घुल गया।
यह
बसंत समीर आया झूम कर
यह कली
का लाज बंधन खुल गया!
जहां
तुम्हें पुराने और नए का आलिंगन मिले, जहां सनातन और नूतन गलबहियां डाले मिलें, वहीं जाना कि सत्य का पदार्पण
हुआ है।
सुंदरदास
जो कह रहे हैं वह सब शास्त्रों का सार, फिर भी किसी शास्त्र की पुनरुक्ति नहीं, उनका निज अनुभव है। उनके
वचनों पर ध्यान दो।
जा घट
की उनहारि है,
तैसो
दीसत आहि।
जो
जैसा है उसे वैसा दिखाई पड़ता है। यह सूत्र कीमती है। जिसको जैसा दिखाई पड़ रहा है
उसके आधार पर समसे लेना, उसकी
स्वयं की दशा क्या है। अंधे को प्रकाश दिखाई नहीं पड़ता। इससे यह सिद्ध नहीं होता
कि प्रकाश नहीं है। इससे बस इतना ही सिद्ध होता है कि अंधा अंधा है, उसके पास आंख नहीं है। बहरे
को पक्षियों के गीत सुनाई नहीं पड़ते। इससे ऐसा मत सोच लेना कि प्रकृति गूंगी है, कि अस्तित्व गूंगा है। इससे
ही जानना कि तुम्हारे पास सुनने की संवेदना नहीं है, संवेदनशीलता नहीं है। तुम
बहरे हो।
पर
आदमी का अहंकार इससे उल्टी ही बात मनवाने का आग्रह करता है। अगर पक्षियों के गीत
सुनायी न पड़ते हों तो अहंकार यही कहता है कि गीत होंगे ही नहीं। और अगर प्रकाश न
दिखाई पड़ता हो तो अहंकार यही कहता है प्रकाश है ही नहीं, इसलिए दिखाई नहीं पड़ता है।
अहंकार दोष अपने ऊपर नहीं लेता। अहंकार सदा ही दोष को किसी और पर टाल देता है। और
जब तक तुम अहंकार की इस चाल से सावधान न होओगे, तुम उसके जाल में गिरते ही रहोगे। अहंकार
सदा दोष टाल देता है। और जो दोष टाल दिया वह बना रहता है।
दोष को
स्वीकार करो,
अंगीकार
करो। अगर प्रकाश न दिखाई पड़ता हो, इसके
पहले कि प्रकाश का निषेध करने जाओ, इनकार करने जाओ, खूब भीतर टटोल कर देखना कि
आंख तुम्हारे पास है या नहीं? सम्यक्
खोजी पहले भीतर झांकता है। घोषणा नहीं करता कि परमात्मा नहीं है। इतना ही कहता है
ः मुझे अनुभव नहीं हो रहा है। तो कहीं मुझ में कुछ चूक होगी। इतने-इतने लोगों को
अनुभव हुआ है,
इतने-इतने
लोगों ने उद्घोषणा की है . . .और इनसे ज्यादा प्रमाणिक आदमी कहां पाओगे? बुद्ध और महावीर और कृष्ण और
क्राइस्ट जिसकी गवाही में खड़े हों, और गवाह कहां खोजने जाओगे? इनसे ज्यादा प्रमाणिक गवाह
कहां पाओगे?
लेकिन
फिर भी तुम अपने अहंकार की मान लेते हो। सदियों की गवाही को झुठला देते हो।
श्रेष्ठतम की गवाही को झुठला देते हो।
वेदों
से लेकर आज तक जिनने भी जाना, उन
सबने उसके होने की घोषणा की है। मगर तुम उन सारों को इनकार कर देते हो, अपने अहंकार की मान लेते हो।
ज़रा सोचो तो,
किसकी
तुम मान रहे हो,
अपनी? --जिसे यह भी पता नहीं कि मैं
कौन हूं! जिसे यह भी पता नहीं कि मैं कहां से आता हूं! जिसे यह भी पता नहीं कि मैं
कहां जाता हूं! जिसे कुछ भी पता नहीं। जिसने भीतर उतर कर कभी देखा भी नहीं कि कौन
यहां बसा है! जिसकी अपने से पहचान भी नहीं है, उसकी मान रहे हो!
तुम
ज़रा एक बार अपना विचार तो कर लो! तुम्हारी बात का मूल्य कितना है? मगर नहीं; अहंकार कहता है ईश्वर नहीं
है। क्योंकि अहंकार यह स्वीकार नहीं कर सकता कि मैं अंधा हूं। अहंकार यह स्वीकार
नहीं कर सकता कि मैं अज्ञानी हूं। अगर ईश्वर है तो मैं अज्ञानी हूं।
**१७९**ोडरिक नीत्शे ने ईश्वर
के खिलाफ बहुत-सी बातों में एक बात यह भी कही है --कि अगर ईश्वर है तो मैं अज्ञानी
हूं और यह मैं मानने को राजी नहीं! मतलब समझे? अगर ईश्वर है तो एक बात तो साफ हो गयी कि
मैंने उसे नहीं जाना है। तो मैं अज्ञानी हो गया। और अहंकार अपने को ज्ञानी मानना
चाहता है,
अज्ञानी
नहीं। इसलिए अहंकार इनकार देगा ईश्वर को--एक रास्ता। दूसरा रास्ता--दूसरों ने जाना
है उनके जानने को ही अपना जानना मान लेगा। वह भी अहंकार का बचने का ही रास्ता है।
गीता कंठस्थ कर लेगा और कहेगा कि ठीक है ईश्वर है। और गीता के वचन दोहराओगे तुम।
लेकिन वे वचन तुम्हारे नहीं। तुम्हारे भीतर कृष्ण अभी जागा नहीं। तुम्हारे भीतर
अभी तो कुरुक्षेत्र का युद्ध भी नहीं हुआ। तुम्हारे भीतर तो अंधेरे और प्रकाश में
संघर्ष भी नहीं हुआ! तुम्हारे भीतर अभी प्रकाश की जीत तो अभी बहुत दूर है। अभी वह
घड़ी बहुत दूर है। तुम तो अंधेरे में दबे पड़े हो। तुम कृष्ण के शब्द दोहराते हो, वे झूठे हैं तुम्हारे ओठों
पर।
सत्य
भी असत्य हो जाता है अगर अपना अनुभव न हो। तुम्हारे विश्वास सिर्फ तुम्हारे अज्ञान
को छिपाने की व्यवस्था के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। अविश्वास भी अज्ञान को
छिपाने का उपाय है कि ईश्वर है ही नहीं तो जानने का कोई सवाल नहीं उठता। और
विश्वास भी अज्ञान को छिपाने का उपाय है कि ईश्वर है, हम तो मानते ही हैं, हम तो जानते ही हैं; अब और जानने को क्या बचा?
ज़रा
तुम देखना गौर से। आस्तिक और नास्तिक में बहुत फर्क नहीं है। जितना गहरा देखोगे
उतना ही पाओगे ,
फर्क
बिल्कुल नहीं है। मैंने आस्तिक भी देखे और नास्तिक भी देखे और दोनों को एक जैसा पाया, बिल्कुल एक जैसा पाया। यद्यपि
उनकी बातों में बड़ा विरोध है। एक कहता है ईश्वर है, एक कहता है ईश्वर नहीं है।
मगर वे सब ऊपर-ऊपर के विरोध हैं। भीतर अगर गौर से देखोगे तो दोनों ने अपने अहंकार
को बचाने की अलग-अलग तरकीबें छांट ली हैं। दोनों बच रहे हैं।
धार्मिक
व्यक्ति वह है,
जो
बचता नहीं,
जो
नहीं चाहता--जो रूपांतरित होना चाहता है। जो अपने को नग्न छोड़ता है सत्य के साथ।
मुझे पता नहीं है,
इसलिए
मैं कैसे कहूं है,
मैं
कैसे कहूं नहीं है? इतना
ही मैं कर सकता हूं, इतना
ही मेरे बस में है कि मैं अपने चैतन्य को और जगाऊं, और प्रज्ज्वलित करूं, शायद मेरी चेतना और जागे तो
मुझे कुछ पता चले।
तुम
थोड़ा सोचो। रात तुम सो जाते हो। तुम्हें अपने कमरे में भी क्या है, इसका पता नहीं रह जाता है।
रात घर में चोर घुस जाएं और तुम्हारी तिजोरी ले जाएं, तुम्हें इसका भी पता नहीं
चलता। दिन तुम जब जागे होते हो, तब चोर
नहीं घुस सकते। तब तुम्हारी तिजोरी नहीं चुराई जा सकती! क्योंकि तब तुम्हें दिखाई
पड़ता है तुम्हारे आसपास क्या है।
रात जब
तुम सो जाते हो,
तुम्हारे
पास जो थोड़ी-सी चेतना है वह भी खो जाती है। तुम्हें कुछ होश नहीं रहता। दिन तुम
जाग आते हो,
थोड़ी-सी
चेतना वापिस लौट आती है। ज़रा सोचो, क्या चेतना और भी बढ़ सकती है? क्या चेतना और सघन हो सकती है? शायद चेतना और सघन हो जाए, और प्रज्ज्वलित हो जाए, तो जो मुझे अभी नहीं दिखाई पड़
रहा है,
वह भी
दिखाई पड़ने लगे। चेतना सघन हो सकती है, क्योंकि तुम भी कई बार पाते हो तुम्हारी
चेतना सघन होती है। चौबीस घंटे में तुम्हारी चेतना एक जैसी नहीं होती, उसमें उतार-चढ़ाव होते हैं।
मनोवैज्ञानिकों
ने गहरे अध्ययन से यह बात अब स्वीकार की है। अब यह वैज्ञानिक प्रमाणों से आधारित, वैज्ञानिक प्रमाणों से सिद्ध
भी हो गयी है बात,
कि
चौबीस घंटे तुम्हारी चेतना में बहुत उतार-चढ़ाव आते हैं।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं,
दो तरह
के लोग होते हैं। एक तो वे लोग, सुबह
जिनकी चेतना बहुत प्रखर होती है और सांझ होते-होते धूमिल हो जाती है। दूसरे वे लोग, सुबह जिनकी चेतना धूमिल होती
है और सांझ होते-होते प्रखर हो जाती है। इनमें बड़ा फासला होगा। इनमें ताल-मेल
बिठालना मुश्किल होता है। जिस व्यक्ति की चेतना सजग होती है, वह जल्दी उठ आएगा।
ब्रह्ममुहूर्त में उठ आएगा। जितना जल्दी सुबह उठेगा, उतना दिन-भर ताजा रहेगा! उसके
जीवन की सबसे गहन घड़ी सुबह ही होनेवाली है। सूरज को उगते देखेगा, पक्षियों के गीत सुनेगा, वृक्षों की हरियाली देखेगा।
प्रभात बाहर ही नहीं होता, उसके
भीतर भी होता है। और वह इतना जाग्रत होता है सुबह कि वह उस घड़ी को चूक नहीं सकता।
ऐसे ही लोगों ने ब्रह्ममुहूर्त में उठने की बात कही होगी।
लेकिन
कुछ लोग हैं,
जिनको
अगर तुम सुबह जल्दी उठा लो, तुमने
उनका दिनभर मार दिया, दिन-भर
खराब कर दिया। फिर वे दिन-भर उदास और खिन्न मना रहेंगे। उखड़े-उखड़े, टूटे-टूटे, बिखरे-बिखरे, खंड-खंड। दिन-भर उन्हें लगेगा
कि कुछ चूक गए,
कहीं
कुछ बात कमी रह गयी! सांझ होते-होते ऐसे लोग प्रखर होते हैं चैतन्य में। ऐसे ही
लोग सांझ को क्लब-घरों में इकट्ठे होते हैं, नाचते हैं, गाते हैं रात देर तक गपशप
करते हैं। आधी रात हो जाए तभी सो सकते हैं, उसके पहले नहीं सो सकते! उनके चैतन्य की घड़ी
रात में आती है। संध्या के साथ उनका वास्तविक जीवन शुरू होता है। चांद के उगने के
साथ उनके भीतरि कुछ उगता है। या आकाश जब तारों से भर जाता है तब उनकी चेतना सघन
होती है।
तुम
गौर करना,
तुम भी
यह पाओगे! और जो सुबह ज्यादा सजग होते हैं, वे सांझ बारह घंटे के याद, ठीक उल्टे छोर पर पहुंच जाते
हैं। और जो सांझ सजग होते हैं, वे
सुबह बारह घंटे के बाद ठीक उल्टे छोर पर पहुंच जाते हैं। तुम्हारे भीतर एक वर्तुल
है। जब तुम्हारी चैतन्य की घड़ी खूब प्रखर होती है तब तुम जो भी करोगे वह शुभ होगा, तब तुम जो भी करोगे सफल
होओगे! क्योंकि तुम्हारी पूरी प्रतिभा उसमें संलग्न होगी।
अभी तो
मनोवैज्ञानिकों ने यह कहना शुरू किया है कि सभी विद्यार्थियों की परीक्षा एक ही
समय में नहीं ली जानी चाहिए, यह
अन्याय है। अगर सुबह परीक्षा लेते हो तो जो लोग सुबह शिथिल होते हैं, मंद होते हैं, उनके साथ अन्याय हो रहा है।
वे नाहक पिछड़ जाएंगे! जो सुबह ताजे होते हैं वे सुविधा से आगे निकल जाएंगे, गोल्ड मैडल उनके होंगे। यह
अन्याय है। जो सांझ ताजे होते हैं उनकी सांझ ही परीक्षा होनी चाहिए, सुबह नहीं। तभी उनको ठीक-ठीक
मौका मिलेगा। जल्दी ही परीक्षाओं में यह व्यवस्था लागू करनी पड़ेगी । यह तो ज्यादती
है। और यह उनके हाथ के बाहर है बात। यह उनके शरीर की रासायनिक प्रक्रिया है, इसको बदला नहीं जा सकता।
इसलिए
यह भी तुम खयाल में ले लो, जिस
आदमी को सुबह उठना ठीक न मालूम पड़ता हो, वह जिंदगीभर कोशिश करे तो भी सफल नहीं हो
पाएगा। इसको बदला नहीं जा सकता। यह तो तुम्हारे रोएं-रोएं में समायी हुई बात है।
यह तुम्हारे मूल कोष्ठों में समायी बात है। अच्छा यही है कि तुम इसके साथ अपने को
समायोजित कर लो,
बजाय
इसके कि इससे व्यर्थ लड़ते रहो।
तुम्हारे
चौबीस घंटे में भी जब तुम्हारी चेतना सघन होती है, तब तुम्हारे जीवन में कुछ
बातें घटेंगी वे उस समय कभी नहीं घटेंगी जब तुम्हारी चेतना कम सघन होती
है--अर्थात् जब तुम्हारी चेतना ज्यादा सघन होगी तब तुम पाओगे वृक्ष थोड़े ज्यादा
हरे हैं और पक्षियों के गीत ज्यादा मधुर हैं! लोग ज्यादा प्यारे हैं! अस्तित्व में
अर्थवत्ता है। तुम्हें गालियां कम और गीत ज्यादा सुनायी पड़ेंगे! तुम मस्त हो तो
सारा अस्तित्व मस्ती से भरा मालूम पड़ेगा। तुम्हारे भीतर पुलक है तो तुम वृक्ष के
पत्ते-पत्ते में पुलक पाओगे! तुम्हारे भीतर नाच चल रहा है तो जो भी तुम्हें मिलेगा
उसके भीतर तुम नाच को झलकता हुआ पाओगे। और जब तुम उदास हो और खिन्नमना और जब
तुम्हारी घड़ी बुरी है, तब तुम
पाओगे सारा जगत् उदास है। वृक्ष रोते-से खड़े हैं, फीके-से खड़े हैं, फीके-से; जैसे रस किसी ने निचोड़ लिया
हो। चांद भी निकलता है तो रोता-सा; जैसे आंसू टपक रहे हों! गालियां ज्यादा
सुनाई पड़ेंगी,
गीत
मुश्किल हो जाएंगे सुनाई पड़ना। जीवन में शिकायत मालूम होगी। संदेह ही संदेह सघन हो
जाएंगे,
श्रद्धा
मुश्किल हो जाएगी।
प्रत्येक
व्यक्ति को अपनी श्रद्धा का क्षण खोजना चाहिए। वही उसकी प्रार्थना का और ध्यान का
क्षण है। लोग मुझसे पूछते हैं, हम
ध्यान कब करें?
ऊपर से
कोई चीज थोपी नहीं जा सकती। तुम्हें खोजना होगा! और अगर तुम एक तीन सप्ताह
निरीक्षण करोगे तो तुम पा लोगे, तीन
सप्ताह डायरी में लिखते चले जाओ--कि चौबीस घंटे में तुम कब अच्छा अनुभव करते हो, कब बुरा अनुभव करते हो। और
ध्यान रहे,
अकसर
तुम यह सोचते हो कि बुरा मैं इसलिए अनुभव कर रहा हूं कि फलां आदमी ने फलां बात कह
दी, या ऐसा हो गया, या पत्नी आज प्रसन्न नहीं है
इसलिए मैं जरा उदास हूं, कि
बच्चे ने कुछ चीजें तोड़ दी हैं, कि
बच्चा फेल हो गया है। नहीं; तुम
अगर तीन सप्ताह नियमित रूप से विचार करते रहोगे, तुम पाओगे बाहर से कुछ फर्क
नहीं पड़ता। तुम्हारे भीतर ही कुछ घट रहा है।
और जल्दी ही तुम सूत्र पकड़ लोगे और जो घड़ी तुम्हारे भीतर सर्वाधिक चैतन्य
की हो,
वही
प्रार्थना की घड़ी है। सबकी अलग-अलग होगी। प्रत्येक की अपनी-अपनी होगी। और जो घड़ी
तुम्हारे भीतर सबसे उदासी की घड़ी हो, सबसे खिन्न होने की घड़ी हो, उस घड़ी में द्वार-दरवाजे बंद
करके बिस्तर में पड़ रहना। उस घड़ी में बाहर जाना भी खतरनाक है, किसी से बात करना भी बुरा है।
उस घड़ी में कुछ न कुछ बुरा हो जाएगा। तुम कुछ बात कह दोगे जो खटक जाएगी और जिसके
लिए तुम पीछे पछताओगे। तुम्हारी खिन्न घड़ी में क्रोध आसान होगा, करुणा कठिन होगी। और तुम्हारी
प्रफुल्ल घड़ी में करुणा आसान होगी, क्रोध कठिन होगा।
सूत्र--
जा घट
की उनहारि है,
तैसो
दीसत आहि
जो
जैसा है,
उसे
वैसा दिखाई पड़ता है।
बड़ी
गुम सुम दोपहरी है
कि
पंछी भी फड़कता तक नहीं है
कि
पत्ता भी खड़कता तक नहीं है।
कि चुप
का और गाढ़ा रंग हुआ
कहां
बोली टिटहरी है?
चिलकती
धूप की चादर तनी है
भटकता
हूं कहां छाया घनी है
तपन के
एक-एक नवीन क्षण में
उभरती
प्यास गहरी है!
नदी
क्या? एक रेखा जल रही है
सिसकती
सांस है,
बल चल
रही है
नए
आषाढ़ की बदली नवेली
न जाने
कहां ठहरी है?
बड़ी
गुम सुम दोपहरी है!
जब तुम
भीतर गुम-सुम हो,
सब
गुम-सुम है। ध्यान रखना, बाहर
दोपहरियां नहीं हैं, दुपहरियां
तुम्हारे भीतर हैं। न तो सांझ बाहर है न सुबह बाहर है। न दिन बाहर है न रात बाहर
है। और न जीवन बाहर है न मृत्यु बाहर है। सब तुम्हारे भीतर है। जो व्यक्ति कहता है
जगत् में कोई ईश्वर नहीं है, उस पर
दया करना। वह व्यक्ति उदास है, विजड़ित
है, उसकी जड़ें टूटी हैं। उसके पास
भूमि नहीं है जिसमें अपनी जड़ों को फैलाए और रस मग्न हो, उस पर दया खाना, नाराज मत होना। वह बीमार है, उसे चिकित्सा की जरूरत है।
पश्चिम
में एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव जुंग ने अपने जीवन के संस्मरणों में
लिखा है--कि जीवन में अनेक-अनेक लोगों की चिकित्सा करने के बाद मैं इस नतीजे पर
पहुंचा हूं कि चालीस-बयालीस साल के बाद जो लोग भी मेरे पास आते हैं, उनका मौलिक रोग न तो शारीरिक
होता है न मानसिक होता है, बल्कि
आध्यात्मिक होता है। वे वे लोग हैं जो ईश्वर में श्रद्धा नहीं कर पाए।
चालीस-बयालीस साल की उम्र तक तो आदमी किसी तरह खींच लेता है, जवानी का जोश होता है, प्रकृति का प्रवाह होता है, बहा चला जाता है। लेकिन
चालीस-बयालीस के बाद मौत दरवाजे पर दस्तक देना शुरू करती है। पैर डगमगाने लगते
हैं। जिंदगी उतार पर आ गयी। चढ़ाव गया। पैंतीस साल ऊंचाई से ऊंचाई होती है जिंदगी
की। अगर सत्तर साल हम औसत उम्र मान लें तो पैंतीस साल में आदमी अपना शिखर छू लेता
है, फिर पहाड़ से उतरने लगता है।
बयालीस साल के करीब अड़चन आनी शुरू होती है।
जुंग
का अनुभव ठीक है। मेरे अनुभव से भी जुंग के अनुभव को स्वीकृति मिलती है, सहारा मिलता है। वे लोग
जिन्होंने किसी तरह की श्रद्धा को नहीं जन्माया है, बयालीस साल के बाद अपने को
बिल्कुल अकेला पाएंगे; क्योंकि
धन भी पा लिया,
पद भी
पा लिया,
दौड़-धूप
समाप्त हुई,
दोपहरी
उतरने लगी,
सांझ
आने लगी। अब सब बहुत गुम-सुम मालूम होगा। अब पत्नी में भी उतना रस नहीं मालूम होगा, पति में भी उतना रस नहीं है।
अब और थोड़ा धन इकट्ठा हो जाएगा तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता। अब एक बात साफ हो गयी है
कि जवानी का नशा उतर रहा है और अब आदमी अपने को लुटा-लुटा-सा अनुभव करता है।
खोया-खोया-सा नशा था, चले
जाता था। अब नशा टूट रहा है। अब कैसे चले? अब पैर लड़खड़ाने लगते हैं। जो ईश्वर पर
श्रद्धा नहीं कर पाया है, जान
लेना उसने जीवन की उत्फुल्लता नहीं जानी। उसने जीवन को एक लंबी उदासी बना लिया है।
उसने जीवन का उत्सव नहीं जाना!
यही है
अपना
मानसरोवर
ये आवाजें
ये थरथराहटें
ये पतन-उत्कर्ष
ये विडंबनाएं
ये संघर्ष!
यहीं किंतु
जीवन;
यहीं ज्योति;
यहीं परमानंद!
उत्सर्ग के सांचे में
यहीं
ढलते हैं
सत्-चित्-आनंद!
यहीं
सब है। यहीं है संघर्ष, उपद्रव, युद्ध, हत्याएं-आत्महत्याएं और यहीं
है वे नाचते हुए लोग जिनसे ऋचाएं जन्मीं। यहीं कृष्ण की बांसुरी बजी, यहीं तैमूरलंग ने लोगों की
हत्याएं कीं। यहीं बुद्ध शांति को उपलब्ध हुए और यहीं लोग पागल हो रहे हैं।
यहीं किंतु
जीवन;
यहीं ज्योति;
यहीं परमानंद!
उत्सर्ग के सांचे में
यहीं
ढलते हैं
सत्-चित्-आनंद!
लेकिन
तुम्हारे भीतर जो होगा वही तुम्हें बाहर दिखाई पड़ेगा।
जब कोई
कहता है परमात्मा है--मानकर नहीं, जानकर, अनुभव से--तो धन्यभागी है वह
व्यक्ति। क्योंकि इसका अर्थ इतना ही होता है, उसके भीतर उत्सव इतना घना हुआ है कि अब उसे
चारों तरफ परमात्मा दिखाई पड़ने लगा है। उसके भीतर चेतना इतनी प्रगाढ़ हुई है कि उसे
अब पत्थर को चीर कर भी परमात्मा को देखने में अड़चन नहीं है।
जिन्होंने
कहा कण-कण में परमात्मा है, वे
क्या कह रहे हैं;
वे यह
कह रहे हैं कि हमारी आंखें इतनी गहरी हो गयी हैं अब, कि तुम्हें पदार्थ दिखाई पड़ता
है, हमें परमात्मा दिखाई पड़ता है।
पदार्थ अंधों को दिखाई पड़ता है।
पदार्थ, तुम ऐसा समझो कि जैसे अंधे
आदमी ने परमात्मा को टटोल कर देखा है और उसकी देह-भर का उसे पता चला है। अंधा आदमी
तो टटोल कर ही देख सकता है।
हैलन
केलर प्रसिद्ध महिला थी। अंधी भी, बहरी
भी, गूंगी भी। अद्भुत महिला थी।
दुनिया के बहुत बड़े-बड़े लोगों से वह मिली। इस जमाने की एक खास प्रतिभा थी। जब
जवाहरलाल नेहरू को मिलने आयी तो उसने अपने हाथ से उसके चेहरे को छू कर देखा। चेहरा
छू कर मालूम है उसने क्या कहा? उसने
कहा, ठीक वैसा ही अनुभव होता है
जैसा यूनान में संगमरमर की मूर्तियों को छूकर हुआ था।
लेकिन
खयाल करना,
तुलना
पत्थर से है! प्यारी है तुलना। संगमरमर की यूनान की सुंदर मूर्तियां सुंदरतम हैं।
वह यही कह रही कि खूब सुंदर हो तुम; पर फिर भी खयाल करना, तुलना पत्थर से है। और कितने
ही सुंदर होओ,
पथरीलापन
है। फिर संगमरमर का ही, क्यों
न हो, कितना ही शीतल क्यों न हो, फिर भी कुछ जड़, ठहरा हुआ अवरुद्ध . . .।
अंधा
आदमी टटोलकर ही देख सकता है। और टटोलकर जो तुम पाओगे वह पदार्थ है, पत्थर है। जागकर, आंख खोलकर जब तुम पाओगे, पदार्थ विलीन हो जाता है।
मैं
तुमसे यह कहना चाहता हूं, हैलन
केलर ने,
अंधी
महिला ने जिंदा जवाहरलाल नेहरू के चेहरे को छूकर संगमरमर की प्रतिमाओं का स्मरण
किया! इससे उल्टा भी होता है, जब
आंखवाला आदमी संगमरमर प्रतिमा को देखता है तो भीतर परमात्मा को पाता है। अंधा आदमी
जिंदा आदमी को पाकर भी संगमरमर की प्रतिमा पाता है। आंखवाला संगमरमर में भी जिंदा
को खोज लेता है।
तुम यह
मत सोच लेना कि रामकृष्ण जब अपनी काली की प्रतिमा के सामने नाचते थे तो पत्थर के
सामने नाचते थे। भूलकर यह मत सोचना। क्षणभर को भी इस बात को जगह मत देना। रामकृष्ण
के लिए वह प्रतिमा पत्थर नहीं थी। रामकृष्ण के पास आंखें थीं वैसी, जो उस प्रतिमा में भी जीवंत
को और चिंमय को देख पाती थीं। उनके लिए तो वह जीवंत प्रतिमा थी। उनके लिए पत्थर
नहीं था,
पाषाण
नहीं था।
भक्त
के लिए तो पाषाण में भी परमात्मा हो जाता है, लेकिन दूसरों को पत्थर दिखाई पड़ता है। इसलिए
मैं कहता हूं जिन मुसलमानों ने हिंदुओं के मंदिर तोड़े और उनकी मूर्तियां तोड़ीं, वे मुसलमान भी नहीं थे। अगर
मुसलमान ही होते तो यह संभव नहीं होता। क्योंकि तब वे देख पाते कि पत्थर में भी
वही है,
प्रतिमा
में भी वही है। नहीं; वे
केवल अंध-श्रद्धालु थे, विश्वासी
थे। उनके पास आंखें नहीं थीं! आंखें होतीं तो कैसे प्रतिमा तोड़ोगे? क्योंकि तुम्हें यह तो दिखाई
पड़ जाता है कि यह प्रतिमा होगी सारे संसार के लिए . . .जब कोई भक्त लेकिन आता है
और भाव से भर कर,
आनंद-विभोर
हो नाचता है,
तो
प्रतिमा विलीन हो जाती है पत्थर की तरह और प्रतिमा में कुछ प्रकट होता है जो किसी
और के सामने प्रकट नहीं होता। देखने की कला चाहिए!
मनसा का दीप
सजग औ विनीत
अगम का अनूप
प्रभा का स्वरूप
कन-कन का दान
अभय प्राणवान्!
ज्योति में विशेष
स्नेह में अशेष
नयनों की कोर
काजल की डोर
संयम का पूत
धीरज का दूत!
तमसा का वक्ष
दीपक का कक्ष
निशिभर की जूझ
उज्ज्वल की सूझ
जिए आस पास
आशा-विश्वास!
विभा के किरीट
लाजभरी दीठ
झिलमिल-अवदात
चेतन की रात
तिमिर के निकुंज
किरनों के पुंज!
सिर का तम भार
उषा के द्वार
हलके से झलके
तमघट से छलके
रवि के आकाश
आभा अविनाश!
तिमिर के निकुंज
किरनों के पुंज!
जिसको
दिखायी पड़ता है,
उसे तो
अंधेरे में भी प्रकाश दिखाई पड़ने लगता है।
तिमिर के निकुंज
किरनों के पुंज
विभा के किरीट
लाजभरी दीठ
झिलमिल-अवदात
चेतन की रात
रात भी
दिन हो जाती है,
संध्या
भी प्रभात हो जाती है। मृत्यु भी महाजीवन का द्वार हो जाती है। लेकिन भीतर दीप
जलना चाहिए।
मनसा का दीप
सजग औ विनीत
अगम का अनूप
प्रभा का स्वरूप
कन-कन का दान
अभय
प्राणवान्!
सब कुछ
तुम पर निर्भर है।
जा घट
की उनहारि है,
तेसौ
दीसत आहि।
सुंदर
भूलौ आपुही,
सो अब
कहिए काहि।।
और
सुंदरदास कहते हैं ः किसकी तलाश में चले हो, पहले अपनी तो खोज कर लो!
सुंदर
भूलौ आपुही,
तो अब
कहिए काहि।
और यह
खोज तो तुम्हें ही करनी पड़ेगी, कोई
दूसरा तुम्हें न करवा सकेगा। कोई तुम्हें बता भी न सकेगा। यह तो तुम्हारा अंतरतम
है। वहां तो तुम्हारे अतिरिक्त और किसी की भी गति नहीं है। वहां तो तुम ही आंख बंद
करोगे तो पहुंचोगे।
गुरु
का काम तो इतना ही है कि इशारे कर दे कि कैसे आंख बंद करो, कि कैसे विचार बंद करो, कि कैसे निर्विचार हो जाओ, कि कैसे बाहर से टूट जाओ, विधि दे दे। लेकिन जाना
तुम्हें होगा। वहां तुम अकेले ही पहुंचोगे।
सुंदर
भूलौ आपुही . . .। यह तो देखते ही नहीं कि मैं भूला हूं। पूछते हो, "ईश्वर कहां है! प्रमाण चाहिए!
जीवन मृत्यु के बाद बचता है या नहीं, प्रमाण चाहिए।' जीवन तुम्हारे भीतर मौजूद है, जिसको कोई मृत्यु न कभी छीन
सकी है न छीन सकेगी। वहीं चलो। वहीं से पहचान होगी। और परमात्मा, जिसको तुम बाहर खोजने चले हो, नहीं मिलेगा, जब तक भीतर न मिल जाए!
भीतर अगर विचारों की छाती में कोयल कुहके
या खिलें फूल
या मिलें वहां दुश्मन मित्र भाव से
तो काफी है; कम से कम मैंने तो यही जाना
है
भीतर पाना है उसे पहले
जिसे बाहर अग-जग खिलाना है!
अगर
तुम्हें सारे अग-जग को खिला हुआ देखना है, परमात्मा से भरा हुआ देखना है, तो खयाल रखना--
भीतर पाना है उसे पहले
जिसे बाहर अग-जग खिलाना है!
सुंदर पावक दार कै, भीतरि रहयौ समाइ।
लकड़ी
के भीतर आग छिपी है। ऐसे ही तुम्हारे भीतर भी आग छिपी है। शाश्वत अग्नि! उसका ही
दूसरा नाम परमात्मा है। अग्नि जीवन का प्रतीक है।
सुंदर
पावक दार कै,
भीतर
रहयौ समाइ।
दीरघ
मैं दीरघ लगै,
चौरे
में चौराइ।।
फिर
लकड़ी लंबी हो तो आग की लपट लंबी उठेगी, चौड़ी हो चौड़ी उठेगी, छोटी हो तो छोटी उठेगी, बड़ी हो तो बड़ी उठेगी। जंगल
में आग लग जाए तो भयंकर। लेकिन आग का स्वरूप एक है। और इतना निश्चित है कि
प्रत्येक लकड़ी में आग छिपी है। दो लकड़ियों को रगड़ने से पैदा होती है, ऐसा मत सोचना। सिर्फ छिपी थी, प्रकट होती है, पैदा नहीं होती। रगड़ से बाहर
आ जाती है।
शिष्य
और गुरु के बीच ऐसी ही रगड़ चलती है। ज्योति से ज्योति जले!
दीरघ
मैं दीरघ लगै,
चौरे
मैं चौराइ।।
सुंदर
चेतनि आप यह,
चालत
जड़ की चाल।
ज्यौं
लकड़ी के अश्व चढ़ि,
कूदत
डौले बाल।
छोटे
बच्चों को देखा न,
लकड़ी
के घोड़ों पर सवार हो जाते हैं। खुद ही कूदते हैं और सोचते हैं घोड़ा कूद रहा है।
खुद भी कूदते हैं,
घोड़े
को भी कुदाना पड़ता है, मेहनत
दोहरी करनी पड़ती है। अकेले ही कूद लें तो ठीक। घोड़े को भी कुदाना पड़ता है। मगर बड़े
मस्त हो जाते हैं। सोचते हैं घोड़ा कूद रहा है और घोड़ा हमें कुदा रहा है।
सुंदर
चेतन आप यह चालत जड़ की चाल।
तुम
चैतन्य हो और जड़ की चाल चल रहे हो! तुम उन बच्चों जैसे हो . . .ज्यौं लकड़ी के अश्व
चढ़ि, कूदत डौले बाल।
काहू
सैं बांमन कहै,
काहू
सौं चांडाल।
सुंदर
ऐसौ भ्रम भयौं,
योंही
मारै गाल।।
और ज़रा
मूढ़ता तो देखो,
किसी
को कहते हो चांडाल है, किसी
को कहते हो ब्राह्मण है। किसी को शुद्र बना दिया है, किसी को विप्र बना दिया है।
व्यर्थ की मिथ्या बातें--योंही मारै गाल--गप्प लगा रहे हो। यहां सिर्फ एक का वास
है। न कोई ब्राह्मण है न कोई चांडाल है। भीतर जो बसा है वह परमात्मा है। भूलकर
किसी व्यक्ति को शूद्र मत कहना, क्योंकि
तुमने परमात्मा को शूद्र कहा। भूलकर किसी व्यक्ति को पापी मत कहना, क्योंकि तुमने परमात्मा को
पापी कहा। भूलकर किसी की निंदा मत करना। तुम कौन हो?
जीसस
का प्रसिद्ध वचन है ः दूसरों के न्यायाधीश न बनो। किसी का निर्णय न लो, कौन भला कौन बुरा। वही सब के
भीतर है,
वही
जाने!
सुंदर
ऐसौं भ्रम भयौं,
योंही
मारै गाल।।
देह
पुष्ट ह्वै दूबरी,
लगै
देह को घाव।
चेतनि
मानै आपुकौ,
सुंदर
कौन सुभाव।।
कैसी
आदत में पड़ गए! शरीर जवान होता है, तुम सोच लेते हो मैं जवान। शरीर बूढ़ा होता
है, तुम सोच लेते हो मैं बूढ़ा।
तुम न कभी जवान होते हो न कभी बूढ़े। तुमने एक बात कभी विचार की या नहीं? आंख बंद करके सोचो, तुम्हें भीतर अपनी कोई उम्र
मालूम होती है?
तुमने
कभी इस बात का खयाल किया कि भीतर उम्र का पता नहीं चलता, कि चालीस साल के हो कि पचास
साल के हो कि अस्सी साल के हो। भीतर उम्र है ही नहीं, पता कैसे चले? उम्र तो शरीर की होती है, तुम्हारी नहीं होती!
देह
पुट ह्वै दूबरी . . .। और अगर देह मजबूत हो तो तुम सोचते हो मैं मजबूत। और देह अगर
दुबली हो,
कमजोर
हो, तो तुम सोचते हो मैं कमजोर !
.
. . लगैं
देह कौं घाव। घाव तो देह को लगते हैं, लेकिन अजीब तुमने आदत बना ली है कि समझ लेते
हो कि मुझे लग गए!
एक
सूफी फकीर को घोषणा करने के कारण कि मैं परमात्मा हूं, पकड़ लिया गया। बीच दरबार में
खलीफा ने कहा कि क्षमा मांग लो, अन्यथा
कोड़े मार-मारकर चमड़ी उतार दी जाएगी! और उस फकीर ने फिर वही घोषणा की--अनलहक ! उसने
कहा होने दो शुरू। शुरू करो, कहां
हैं कोड़े?
कौन
हुआ माई का लाल जो मुझे मारे!
सम्राट्
समझा नहीं! इतनी बुद्धि सम्राटों में कभी रही भी नहीं। फकीर कह रहा था--कौन है माई
का लाल जो मुझे मारे! वह यह कह रहा था कि मुझे कोई मार सके, यह संभव ही नहीं है। मगर
सम्राट् ने समझा कि यह मुझे चुनौती दे रहा है; अभी सिद्ध किए देता हूं। उसने कहा कि अभी
सिद्ध किए देता हूं! बुला लिए उसने आदमी** भयंकर, जल्लाद। लेकर कोड़े लग गए
पिटायी करने उसकी। और फकीर है हंसे जा रहा है। उसकी हंसी बड़ी चोट करने लगी सम्राट्
को कि बात क्या है? देह से
खून बहता है और फकीर हंसे जा रहा है। आखिर उसने कहा कि रुको। उसने फकीर से पूछा कि
बात क्या है,
तू
पागल तो नहीं है?
तुझे
कोड़े पड़ रहे हैं,
चमड़ी
उखड़ी जा रही है,
खून बह
रहा है,
तू हंस
क्यों रहा है?
उसने
कहा आप किसी दूसरे को मार रहे हैं। मैं इसलिए हंस रहा हूं कि चुनौती मैंने दी है, मार किसी और को रहे हैं! यह
देह मैं नहीं हूं। जिस दिन यह जाना उसी दिन तो यह घोषणा उठी मेरे भीतर--अनलहक --कि
मैं परमात्मा हूं! अहं ब्रह्मास्मि! तुम मुझे मार न सकोगे।
कहते
हैं सरमद की,
फकीर
सरमद की,
गर्दन
काट दी गयी थी। इसी कारण, कि वह
कहता था--अहं ब्रह्मास्मि! सरमद ने कहा था कि मरकर भी यही कहूंगा! हजारों की भीड़
इकट्ठी हो गयी थी देहली में जब सरमद की गर्दन काटी गयी। जब उसकी गर्दन काटी गयी
जामा मस्जिद में और उसकी गर्दन को फेंक दिया गया सीढ़ियों से, तो कहते हैं सीढ़ियों से गर्दन
नीचे उतरने लगी,
सिर
नीचे लुढ़कने लगा,
लहू के
धारे सीढ़ियों पर छूटने लगे, मगर
आवाज जारी रही अहं ब्रह्मास्मि की, अनलहक की। आवाज गूंजती ही रही! यह लाखों ने
देखा था। इसके चश्मदीद गवाह थे। जिन्होंने मारा था सरमद को, उन्होंने भी देखा था, वे भी कंप गए थे--कि यह आवाज
कहां से आ रही है! सरमद खिलखिला रहा था। मर कर भी!
देह
तुम नहीं हो--देहातीत हो। लेकिन कैसा सुभाव पड़ गया!
चेतनि
मानै आपुकौ . . .कुछ भी हो जाए, तुम
जल्दी से अपना मान लेते हो। मुझे घाव लगा तो मुझे लगा। बीमार हुआ तो मैं बीमार
हुआ।
तुम न
कभी बीमार होते,
न
तुम्हें कभी घाव लगता। न तुम जवान होते न तुम बूढ़े होते। न तुम जन्मते न मरते। तुम
शाश्वत हो।
सान्यौ
घर मांहे कहै,
हूं
अपने घर जाऊं।।
मजाक
कर रहे हैं सुंदरदास। मजाक कर रहे हैं कि बड़े चतुर हो तुम, बड़े सयाने हो! और मैं सयानों
को भी यह कहते सुनता कि सान्यौं घर मांहे
कहै, हूं अपने घर जाऊं।। अपने ही
घर में बैठा चतुर आदमी कह रहा है कि अब मैं घर जाऊं!
सुंदर
भ्रम ऐसौ भयौ,
भूलौ
अपनौ ठांव। अपना ही घर भूल गया, वहीं
बैठे हो! जो आदमी कहता है, मैं
ईश्वर की तलाश करने जा रहा हूं काबा, काशी, कैलाश , चतुर समझ रहा है अपने को।
सान्यौं
घर मांहे,
कहै, हूं अपने घर जाऊं।
खूब
चतुर हो तुम! तुम्हारी हालत वैसी है जैसे एक आदमी ने रात शराब पी ली। शराब पीकर घर
पहुंचा। किसी तरह पहुंच तो गया टटोलते-टटोलते, लेकिन बड़ा हैरान हुआ, घर पहचान में न आए! नशा खूब
चढ़ा था। दरवाजा तो खटखटाया। खटखटाया इसलिए नहीं कि मेरा घर है। दरवाजा खटखटाया
इसलिए कि कोई जग आए, किसी
का भी हो घर तो उससे पूछ लूं कि भाई मेरा घर कहां है? उसकी मां ने दरवाजा खोला।
बूढ़ी मां उसकी राह देखती थी। वह एकदम बुढ़िया के पैर में गिर पड़ा और कहा कि माई, मुझे मेरे घर का पता बता दो
मुझे मेरे घर जाना है। मेरी मां मेरी राह देखती होगी।
भीड़
इकट्ठी हो गयी। मुहल्ले-पड़ोस के लोग हंसने लगे। हर कोई कहने लगा, यही तेरा घर है। मगर जितना ही
लोगों ने जिद की,
शराबी
भी जिद्दी हो जाता है। शराब में जिद और बढ़ जाती है। वह उतना ही अकड़ गया। उसने कहा
कि नहीं,
यह
मेरा घर नहीं है। मुझे मेरे घर पहुंचाओ, मजाक मत करो। मैंने शराब पी है तो इसका यह
मतलब नहीं है कि सारा मोहल्ला मुझ से मजाक करे।
एक
दूसरा शराबी लौट रहा था शराब घर से अपनी बैलगाड़ी में बैठा हुआ। उसने भी भीड़ देखी।
वह भी रुक गया। उसने कहा कि भाई तू ठीक कहता है। ये लोग मजाक कर रहे हैं। आ मेरी
गाड़ी में बैठ,
मैं
तुझे तेरे घर पहुंचा देता हूं!
वह खुश
हुआ। उसने कहा कि चलो एक भला आदमी तो मिला!
यह
उसका घर है। अब यह शराबी की बैलगाड़ी में बैठकर जाएगा तो जितनी दूर जाएगा उतने ही
दूर घर से निकल जाएगा।
जो
तुम्हें काशी काबा और मक्का ले जा रहे हैं, उनसे ज़रा सावधान रहना। जो तुम्हें कह रहे
हैं हिमालय चलो,
उनसे
ज़रा बचना। जो तुमसे कहते हैं कि तीर्थ-यात्रा को जाओ, उनसे ज़रा सावधान रहना। तुम
जहां हो वहीं तुम्हारा घर है। जो जागे हैं उनसे पूछो! तुम सोए आदमियों के चक्कर
में मत पड़ जाना! करोड़ों लोग चक्कर में पड़े हैं और खोज रहे हैं परमात्मा को। और
परमात्मा वहीं है जहां तुम हो। ठीक उसी जगह! तुम्हारा होना परमात्मा का होना है।
सान्यौ
घर मांहे कहै,
हूं
अपने घर जाऊं।
सुंदर
भ्रम ऐसौ भयौ,
भूलौ
अपनौ ठाऊं।।
बिल्कुल
भूल ही गए हो,
कैसे
भ्रम में पड़े हो! छाया को सत्य समझ लिया है, अपने को झूठ समझ लिया है। अहंकार को सत्य
समझ लिया है,
आत्मा
को झूठ समझ लिया है।
पत्थर पर पत्तियों की छाया,
हिलती, डोलती, थिरकती,
रूप-भार बिखराती !
थिर होती;
काढ़ती कसीदे,
बेलें बुनती,
हंसती, हंसाती,
अनायास खनखना उठती,
फिर चुपि हो जाती;
कुछ सोचती,
अपने में खो जाती!
दूर, बहुत दूर
नजर दौड़ाती
उमगती, झिझकती,
फिर-फिर सिमट जाती
बार-बार देखती है
अपनी ही काया;
पत्थर पर
पत्तियों की छाया!
नग्न, निर्वसन
लोट-लोट जाती;
उलटती, पलटती
लेती अंगड़ाइयां,
पत्थर पर बार-बार
उठ-उठ कर
पांव भी पटकती;
उकताती, झुंझलाती,
मन ही मन
कहती कुछ,
बुदबुदाती;
अपने से रूठ-रूठ जाती;
पत्थर पर
पत्तियों की छाया!
एंठती, बिलखती
रोती, सिर धुनती पछताती--
सूरज का साथ
नहीं पाया!
पत्थर पर
पत्तियों की छाया!
ज़रा
गौर करो। तुमने अपने को अपने भीतर जाकर नहीं देखा। तुमने दूसरे लोगों की आंखों में
अपनी तस्वीर देखी है। पत्थर पर पत्तियों की छाया! उसी को तुमने समझ लिया यह मैं
हूं।
तुम
ज़रा खयाल तो करो,
तुम्हारा
अपने संबंध में जो भी ज्ञान है वह उधार है, दूसरों से है। किसी ने कहा, बड़े सुंदर हैं आप और तुमने
मान लिया कि सुंदर हो। और किसी ने कहा, बड़े बुद्धिमान हैं आप और मान लिया तुमने कि
बुद्धिमान हो। और किसी ने कुछ कहा, किसी ने कुछ कहा। और यह वक्तव्य बड़े
विरोधाभासी हैं,
क्योंकि
मित्र भी इसमें वक्तव्य देनेवाले हैं, शत्रु भी। इसलिए तुम एक विक्षिप्तता हो गए
हो। किसी ने कहा सुंदर हैं बड़े आप, और फिर किसी ने कहा कि कुरूप हैं, ज़रा शकल तो अपनी आईने में
देखो! अब ये दोनों वक्तव्य तुम्हारे भीतर इकट्ठे हो गए। अब तुम मुश्किल में पड़ गए।
तुम्हारी दुविधा हो गयी, तुम हो
कौन? किसी ने कहा बड़े बुद्धिमान
हैं, किसी ने कहा बुद्धू। अब तुम मुश्किल
में पड़े।
तुम्हें
वे लोग अच्छे लगते हैं जो तुम्हारी प्रसंशा करते हैं। तुम्हें वे लोग बुरे लगते
हैं जो तुम्हारी निंदा करते हैं। तुम वे बातें याद रखना चाहते हो जो तुम्हारी
स्तुति में कही गयी हैं। तुम वे बातें भूल जाना चाहते हो जो तुम्हारी आलोचना में
कही गयी हैं। लेकिन कितना ही भूलो, जब तक तुम्हारे मन में स्तुति का मूल्य है
तब तक तुम्हारे मन में गाली का मूल्य भी रहेगा ही। क्योंकि वह विपरीत स्तुति है, उससे तुम बच नहीं सकते। जब तक
एक है तब तक उसका विपरीत अंग भी रहेगा। मगर सारी भूल इस बात में हो रही है कि तुम
दूसरों से पूछते हो कि मैं कौन हूं। अपने से पूछो। सब करो द्वार-दरवाजे बंद और
अपने भीतर उठाओ इस एक प्रज्ज्वलित प्रश्न को कि मैं कौन हूं!
सान्यौ
घर मांहे कहै हूं अपने घर जाऊं।
सुंदर
भ्रम ऐसौ भयौ भूल्यौ अपनौ ठाऊं।।
कह्या
कछु नहिं जात है,
अनुभव
आतम सुक्ख।
जिन्होंने
जान लिया,
जो
भीतर गए,
वे कह
भी नहीं पाते कि क्या मिला वहां-- कैसा सुख कैसी शांति! क्या पाया वहां--कैसी
आत्मा,
कैसा
परमात्मा!
कह्या
कछू नहिं जात है,
अनुभव
आतम सुक्ख।
इसलिए
जिन्होंने जाना है वे भी तुमसे नहीं कह सकते जब तक तुम अपने भीतर न जाओ, क्योंकि वह कहा नहीं जा सकता।
पानी बरस गया!
जीवन विरस हुआ,
जब मन रसकन को तरस गया
बड़ी कृपा की
मेघ, पधारे, पानी बरस गया
गरजे तरजे--
पर सतरंगी
भौंह कमान न खींची
तड़ित कृपाण चली न किसी पर
दया दृष्टि ही सींची
माटी महक उठी
जड़ को जब चेतन परस गया!
पानी बरस गया
बीरबहूटी सजी
बजी झिल्ली की मृदु शहनाई
गगन पथे, नव पवन रथे
यह मंगल वेला आई
गोद भरी वसुधा की
अंकुर का मुख दरस गया!
पानी बरस गया!
मगर
कहना मुश्किल है कि पानी बरस जाता है, अंकुर का मुख दरस जाता है, माटी में सौंधी सुगंध उठती है, मिट्टी की देह में अमृत का
अनुभव होता है,
अंधेरी
रात में सूरज उगता है। कहना मुश्किल है। जाना जा सकता है। जिया जा सकता है, कहा नहीं जा सकता!
कह्या
कछु नहिं जात है,
अनुभव
आतम सुक्ख!
जिन्होंने
जाना नहीं है वे तो अकसर कहते रहते हैं कि कौन है। उनको कहना सरल है। पूछो किसी से, आप कौन हैं? वह फौरन अपना नाम-पता-ठिकाना
बता देता है;
कार्ड
छपाकर रखा होता है, निकाल
कर पकड़ा देता है कि यह रहा मैं। श्याम हंस रहे हैं, वे कार्ड खीसे में रखे हैं।
जल्दी से पकड़ा दिया कि यह रहा मैं! यह मेरा पता-ठिकाना, मैं डाक्टर हूं, इंजीनियर हूं, नेता हूं, यह हूं वह हूं। कितनी सरलता
से! बुद्ध से तो पूछो, आप कौन
हैं? चुप्पी हो जाती है। बिल्कुल
चुप हो जाते हैं! कार्ड नहीं छपाकर रखते, जल्दी से दे दें कि यह रहा मैं!
कथा
ऐसी है ः एक ब्राह्मण ने, एक बड़े
ज्योतिषि ने बुद्ध को देखा। ऐसा सुंदर व्यक्ति उसने कभी नहीं देखा था! ऐसा शांत, ऐसा सौम्य, ऐसा निर्विकार! मोहित हो गया।
ब्राह्मण जाकर चरणों में झुका और उसने पूछा कि आप हैं कौन? एकांत में इस वृक्ष के तले, इस वन में, आप देवता तो नहीं स्वर्ग से
उतरे हुए?
क्योंकि
आप इस पृथ्वी के नहीं मालूम होते। किस लोक के देवता हैं?
बुद्ध
ने कहा नहीं,
मैं
देवता नहीं।
"तो कौन हैं? किन्नर हैं?'
बुद्ध
ने कहा कि नहीं किन्नर भी नहीं हूं।
"तो कौन हैं? कोई प्रेतात्मा हैं? कोई शुभ प्रेत आत्मा?'
नहीं, बुद्ध ने कहा कि वह भी नहीं
हूं। ब्राह्मण पूछता गया और बुद्ध कहते गए, नहीं नहीं नहीं। उसने सारी कोटियां जितनी
जीवन की हो सकती थीं, पूछ
डालीं। फिर थोड़ा हैरान हुआ। फिर उसने पूछा कि आप हैं कौन? तो बुद्ध ने कहा कि इतना ही
कह सकता हूं ः जागरण हूं। बुद्धत्व हूं। होश हूं। स्मरण हूं। सुरति हूं। व्यक्ति
नहीं हूं। याद आ गई। बस इतना ही कह सकता हूं।
जिनको
कुछ पता नहीं है वे तो एकदम तत्क्षण राजी हैं बनाने को कि कौन हैं। तुम न भी पूछो
तो बताने को राजी हैं। आतुर हैं। जिनको पता है वे कहते हैं--
कह्या
कछु नहीं जात है,
अनुभव
आतम सुक्ख। और इसलिए भी नहीं कहा जा सकता है कि जितना जानो उतना ही पता चलता है--और
जानने को है। अंत ही नहीं आता। रहस्य और रहस्य हो जाता है, हल नहीं होता।
मिटी न
दरस-पियास,
नैन
भरि आए
देखकर
और आंखें आंसुओं से भर जाती हैं। दरस की प्यास तो मिटने से रही।
मिटी न
दरस-पियास,
नैन
भरि आए।
मधुर
पीर के मृदु दंशन में
लपट
उठे गीले ईंधन में
धरती
जरी, अकास मेघ घिरि आए
मिटी न
दरस-पियास,
नैन
भरि आए।
पग ने
मग की बाध न मानी
श्रम
की बगिया खिली जवानी
सीरी
चले बताए,
बुंद
ढुरि आए।
मिटी न
दरस-पियास,
नैन
भरि आए।
धूप
छांव की खोल किवारी
खेले
उजियारी अंधियारी
छिन-धिन
बिज्जू-प्रकास,
मेह झरि
लाए
मिटी न
दरस-पियास,
नैन
भरि आए।
आंखें
भर जाती हैं आनंद से--आनंद के आंसुओं से! मगर प्यास बुझती नहीं! परमात्मा में
जिसने डुबकी मारी,
वह
डूबता ही चला जाता है। प्यास बुझती नहीं, प्यास और सघन होती चली जाती है। प्यास और
मधुर होती चली जाती है। और नए-नए प्यास के आयाम प्रकट होते चले जाते हैं।
प्रार्थना नए-नए पंख उगाती चली जाती है। एक अनंत यात्रा है, जिसका प्रारंभ तो है, लेकिन अंत नहीं! कहे तो क्या
कहे? शब्दों में बांधें तो कैसे
बांधें?
सुंदर
आवै कंठ लौं,
निकसित
नाहिन मुक्ख।
कह्या
कछु नहिं जात है,
अनुभव
आतम सुक्ख।।
कंठ तक
तो आ जाती है बात,
मुंह
से नहीं निकलती। ऐसा लगता है जबान पर रखी है, मगर मुंह से नहीं निकलती। लगता है अब कही अब
कही, अब कह ही दी। और फिर पाया
जाता है कि नहीं,
अनकही
थी अनकही ही रही। जो कहा उससे कुछ हल न हुआ।
बुद्ध
बयालीस वर्षों तक क्या कहते रहे? वही
बात। वही-वही बात। फिर कोशिश की, फिर
कोशिश की। इधर से बांधना चाहा उधर से बांधना चाहा, इस दिशा से उस दिशा से। हारते
चले गए।
झेन
फकीर कहते हैं ः बुद्ध कुछ बोले ही नहीं। क्योंकि इस बोलने को क्या बोलना मानें? वह बात कही होती तो कुछ बोले।
वह तो कही नहीं। और सब बातें कहीं वह तो कही नहीं, तो क्या खाक बोले?
झेन
फकीर, जो बुद्ध पर बड़ी श्रद्धा करते, रोज चरणों में सिर झुकाते, कहते हैं; बुद्ध बोले ही नहीं! मैं भी
तुमसे कहता हूं ः बयालीस वर्ष बोले और बोले भी नहीं।
जगत्
में इतने संतों की वाणियां हैं, इतने
प्यारे वचन हैं,
इतने
काव्यपूर्ण,
इतने
अनुभव-सिक्त,
फिर भी
वह बात अनकही रही,
अनकही
है और अनकही रहेगी। कही नहीं जा सकती। बात कुछ ऐसी है। बात कुछ इतनी गहरी है कि
कोई शब्द उस गहराई को पकड़ नहीं सकता। शब्द ऊपर-ऊपर हैं, सतह पर हैं।
शब्द
तो ऐसे हैं जैसे सागर की सतह पर लहरें। सागर की गहराई की खबर लहरें कैसे दें? लहर ऊपर ही होती है, सतह पर ही होती है। गहराई में
कोई लहर नहीं होती। और लहर में कोई गहराई नहीं होती। बड़ी मुश्किल हो गयी। हालांकि
दोनों एक के ही हिस्से हैं, सागर
के ही। गहराई भी उसी की है, लहर भी
उसी की। परिधि भी उसी की, केंद्र
भी उसी का। लेकिन परिधि का केंद्र से मिलना नहीं होता! जो केंद्र पर पहुंच गया है
वह कैसे अपने अनुभव को परिधि की भाषा में प्रकट करे? बोले तो भी कुछ नहीं होता, न बोले तो भी कुछ नहीं होता!
कह कर भी नहीं कही जाती, चुप रह
कर भी नहीं कही जाती। चुप रहा भी नहीं जाता, क्योंकि कंठ तक आए ही जाती है। कंठ तक आ-आ
जाती है। बांटने का मन होता है।
सुंदर
आवै कंठ लौं,
निकसित
नाहिन मुक्ख।।
सुंदर
जाकै वित्त है,
सौ वह
राखै गोइ।
कौड़ी
फिरे उछालतौ,
जो
टटपूंज्यो होइ।।
जिनको
छोटे-मोटे अनुभव हैं, वे ही
टटपूंजियों की भांति कौड़ियों की तरह उछालते फिरते हैं। जो असली धनी हैं वे तो
जानते हैं,
कहा भी
नहीं जा सकता। टटपूंजिए तुम्हें मिल जाएंगे। किसी की थोड़ी कुंडलिनी में सरसराहट हो
गयी, चले बताने सारी दुनिया को, कि कुंडलिनी जग गयी! ये
टटपूंज्याई बातें हैं। ये कुंडलिनी इत्यादि के अनुभव सब बचकाने हैं। इनका आध्यात्म
से कुछ लेना-देना नहीं। ये तो उस रास्ते पर पड़े हजारों पत्थरों में से एक पत्थर
है। उस रास्ते पर पड़े पत्थरों में से! यह वह मंजिल नहीं है। किसी को थोड़ा-सा भीतर
प्रकाश दिख गया,
चले
बताने। किसी को भीतर नाद सुनायी पड़ गया, चले बताने। फिर भूल ही जाते हैं इस बात को
कि ये तो राह के किनारे उगे हुए घास के फूल-पात हैं। परम फूल तो कहा ही नहीं जा
सकता।
सुंदर
जाकै वित्त है सौ वह राखै गोइ।
जिनको
मिला है,
जिन्होंने
पाया है,
जिनकी
बिसात थी पाने की,
जिनका
वित्त था,
जिनकी
सामर्थ्य थी--वे तो अपने भीतर ही छिपा कर रह गए। कहा ही नहीं जा सकता, करते भी तो क्या करते ? कौड़ी फिरै उछालतै। लेकिन
जिन्हें कौड़ियां मिल गयीं, वे
उछालते फिरते हैं। जो टटपूंज्यौ होइ!
अंत्यज
ब्राह्मण आदि दै,
दार
मथै जो कोइ।
सुंदर
भेद कछु नहीं,
प्रकट
हुतासन होइ।।
जैसे
लकड़ी को मथने से आग पैदा हो जाती है, ऐसे ही फिर चाहे शूद्र हो और चाहे ब्राह्मण
हो, अगर अपने को मथेगा, मंथन करेगा तो उसके भीतर
परमात्मा की अग्नि प्रकट होगी। इससे कुछ भेद नहीं पड़ता कि वह कौन है। शूद्रों ने
भी जान लिया उसे। ब्राह्मणों ने भी जाना उसे, क्षत्रियों ने भी जाना उसे। वैश्यों ने भी
जाना उसे। पुरुषों ने जाना, स्त्रियों
ने जाना। इस देश के लोगों ने जाना, और देश के लोगों ने जाना। हर काल में जाना।
जिसने भी अपने भीतर थोड़ी रगड़ की, जिसने
भी अपने भीतर थोड़ा मथा, मंथन
किया . . .मंथन यानी ध्यान, मंथन
यानी प्रेम,
मंथन
यानी साधना . . .जिसने थोड़ी हिम्मत जुटायी और अपने भीतर गया, उसने पाया है।
अंत्यज
ब्राह्मण आदि दै,
दार
मथै जो कोइ।
सुंदर
भेद कछु नहीं प्रकट हुतासन होइ।
फिर यह
थोड़े ही फर्क पड़ता है कि कौन-सी लकड़ी में आग पैदा होती है, सब लकड़ियों में आग पैदा होती
है। गरीब से गरीब लकड़ी में और मंहगी से मंहगी कीमती से कीमती लकड़ी में . .. फिर
चाहे वह शीशम हो और चाहे साधारण घर में जलाऊ लकड़ी हो, सब लकड़ियों में आग होती है।
और आग ही असली चीज है। आग यानी आत्मा। और जब तक तुम्हारी लपट न पैदा हो जाए, तब तक मथे जाना, तब तक रुकना मत।
देह तो
लकड़ी है। उसमें छिपी आग ही परमात्मा है। उससे ही पहचान होगी, तो तुम्हें अपने स्वरूप का
अनुभव होगा। उससे ही पहचान होगी तो जीवन पाया और जीवन का अर्थ पाया, तो बीज फूल बना!
दीपक
जोयौ बिप्र धर,
पुनि
जोयौ चंडाल।
सुंदर
दोऊ सदन कौ,
तिमिर
गयौं तत्काल।
बड़ा
प्यारा वचन है! सुंदरदास कहते हैं कि मैंने ब्राह्मण के घर में भी दीया जला कर
देखा है और मैंने शूद्र के घर में भी दीया जलाकर देखा है। और दोनों के घर का
अंधकार तत्क्षण मिटा है।
मैं भी
तुम से यह कहता हूं ः दीया कहीं भी जलाओ . . .और जो बात बाहर के दीए के संबंध में
सच है वही भीतर के दीए के संबंध में भी सच है, उतनी ही सच है। क्या तुम सोचते हो ब्राह्मण
के घर का दीया ज्यादा जल्दी अंधेरे को मिटाता है?
जलाया
और अंधेरा मिटा,
क्योंकि
यह ब्राह्मण का घर है। फिर शूद्र के घर में जलाते हो, जलता ही नहीं पहले तो, लाख-लाख उपाय करो इनकार किए
ही चला जाता है कि यह तो शूद्र का घर है, मैं यहां नहीं जलूंगा। और जल भी जाता है तो
अंधेरे को नहीं हटाता; शूद्र
के घर में इतनी जल्दी थोड़े ही हटा दूंगा, हटाते-हटाते हटाऊंगा। वर्षों लगा देता है।
स्थगित ही करता चला जाता है। . . . दीए को क्या पड़ी कि घर किसका है? देह ब्राह्मण की है कि शूद्र
की, यह तो घर है। इससे क्या फर्क
पड़ता है--गरीब की कि अमीर की, सुंदर
कि कुरूप,
कोई
फर्क नहीं पड़ता। दीया भर जलना चाहिए। तत्क्षण क्रांति घट जाती है, अंधेरा विलीन हो जाता है।
दीपक
जोयो बिप्र घर,
पुनि
जोयौ चंडाल।
सुंदर
दोऊ सदन कौ,
तिमिर
गयौ तत्काल।।
अंत्यज
कै जलकुंभ मैं,
ब्राह्मण
कलस मंझार।
सुंदर
सूर प्रकाशिया,
दुहुंवनि
मैं इकसार।।
और
सुंदरदास कहते हैं कि मैंने यह भी देखा, गरीब शूद्र के मिट्टी के घड़े में जब सूरज की
छाया पड़ी तो सूरज प्रकट हुआ--उतना ही जितना ब्राह्मण के बहुमूल्य कलश में, जब उसमें सूरज की किरण पड़ी और
सूरज की झलक पड़ी तो वहां भी प्रकट हुआ। सूरज कुछ यह थोड़े ही देखता है कि सोने के
कलश में जल्दी प्रकट हो जाए और मिट्टी के घड़े में देर से प्रकट हो। जो भी राजी है
लेने को सूरज को उसी में प्रकट हो जाता है। जो भी बुलाता है परमात्मा की उसमें
प्रकट हो जाता है।
पुकारो!
छोड़ो व्यर्थ की बातें कि तुम ब्राह्मण हो कि तुम शूद्र हो, कि ब्राह्मण हो तो जल्दी आ
जाएगा। और तुम शूद्र हो तो देर लगाएगा। मिट्टी के घड़े कि सोने के घड़े, कोई भेद नहीं पड़ता। सूरज को
बुलाओ,
प्रतिबिंब
तत्क्षण बनेगा। तुम सूरज से भर जाओगे।
अंत्यज
कै जलकुंभ मैं ब्राह्मण कलस मंझार।
सुंदर
सूर प्रकाशिया,
दुहुंवनि
में इकसार।।
और
दोनों में एक-सा प्रकट होता है, ज़रा भी
भेद नहीं।
फूल ने पांवड़े बिछाए हैं
कौन यह मेहमान आए हैं
सो रहा था;
जगा के यों बोले
तुमने मुर्दे कभी जगाए हैं
मैं न मैं हूं, न तू है तू साजन
नाम तो नाम को बनाए हैं
प्यार विस्तार पा गया इतना
कहां अपने, कहां पराए हैं
लोचनों में मचल बहे आंसू
पूर आए, कहीं समाए हैं
कैसी रंगीनियों का जीवन है
रंग पर रंग और आए हैं
छोड़ दे गीत उभर जाएगा
बीन के तार यों मिलाए हैं
प्रान में आन बसी जो मूरत
उसी मूरत में प्रान आए हैं
छेड़ दे गीत, उभर जाएगा
बीन के तार यों मिलाए हैं
बस बीन
के तार मिलने चाहिए! तुम ज़रा अपने भीतर की वीणा को बिठाओ, तार मिलाओ।
कैसी रंगीनियों का जीवन है
रंग पर रंग और आए हैं
लोचनों में मचल बहे आंसू
पूर आए कहीं समाए हैं
प्यार विस्तार पा गया इतना
कहां अपने, कहां पराए हैं
मैं न मैं हूं, न तू है तू साजन
नाम तो नाम को बनाए हैं
ब्राह्मण
और शूद्र,
हिंदू
और मुसलमान,
गोरे
और काले,
सुंदर
और कुरूप,
स्त्री
और पुरुष,
सब नाम
के भेद हैं,
घड़ों
के भेद हैं। लेकिन लोगों ने बड़े भेद बना लिए हैं और बड़ा शोरगुल मचाया है। . .
.स्त्रियों का मोक्ष नहीं हो सकता, क्यों? क्या स्त्री के भीतर परमात्मा कुछ कम हो
जाता है?
क्या
परमात्मा भी स्त्री-पुरुष में बांटा जा सकता है? क्या आत्मा भी स्त्री और
पुरुष होती है?
देह के
भेद घड़े के भेद हैं। तुम्हारा घड़ा कैसा है, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता; सूरज जब उगेगा, प्रतिबिंब बनेगा। तुम्हारा घर
कैसा है,
इससे
कुछ फर्क नहीं पड़ता; दीया
जलेगा,
अंधेरा
मिटेगा।
शूद्रों
की मुक्ति नहीं हो सकती, ये
मनुष्य के अहंकार की घोषणाएं हैं। ये सारी घोषणाएं मनुष्य को अधार्मिक बनाए रखने
का कारण रही हैं। इतने तुम जितनी जल्दी छूट जाओ उतना अच्छा। एक को देखो, अनेक को भूलो। जो अनेक में
उलझा, वही अधार्मिक है। जिसने एक को
पहचाना,
वही
धार्मिक है।
तुम्हारी भौंह की धनुही
कि जिस पर बिन सधे ही
सरल चितवन-बाण
मुझ पर चल गया है
और मेरा मर्म
मुझको छल गया है
उसी दिन से
ढूंढता हूं--कहां है रे
वह भृकुटि कोदंड
जिसकी शिंजनी;
है परम ज्योतिर्पुंजिनी
कि जिस की कोटियां
हैं कोटि सूर्य सम प्रभाएं!
उसी के वाण ही तो हैं
गगन में चमकते तारे
उसी के वाण ही तो हैं
तुम्हारे नयन रतनारे!
वही एक
जो आकाश में तारों की तरह चमक रहा है, तुम्हारी आंखों में भी चमक रहा है। ज़रा
पहचानो,
ज़रा
सुध जगाओ! वही एक जो फूलों में खिला है, तुम्हारे भीतर भी खिला है। ज़रा शांत बैठो।
परिचय बनाओ उस एक से। अनेक से तो तुमने बहुत परिचय बनाया। इससे मिले उससे मिले, इससे संबंध बनाया उससे संबंध
बनाया;
उस एक
से कब संबंध बनाओगे? और जब
तक उस एक से संबंध नहीं बनाया, तुम्हारा
जीवन व्यर्थ है और व्यर्थ ही रहेगा। तुम जान ही न पाओगे कि किसलिए आए थे; पहचान ही न पाओगे कि तुम्हारी
नियति क्या थी,
तुम्हारी
सार्थकता क्या थी?
धन
इकट्ठा कर लोगे जरूर, पद-प्रतिष्ठा
भी पा लोगे जरूर,
मगर
भिखारी के भिखारी मर जाओगे।
आग्नेय
हो तुम,
लकड़ी
ही नहीं। आत्मा हो तुम, देह ही
नहीं। प्रकाश हो तुम, परम
प्रकाश हो तुम! प्रकाशों के प्रकाश हो तुम! लेकिन तुम्हें अपने सम्राट् होने का
पता ही नहीं,
तुम
भिखारी बने बैठे हो। तुम अपने खजाने को खोजते क्यों नहीं? और तुम व्यर्थ की बातों में
उलझ गए हो। धर्म के नाम पर भी तुमने खूब व्यर्थ के जाल खड़े कर लिए हैं। और जाल
टूटते ही नहीं। अभी भी शूद्र जलाए जाते हैं। अभी भी शूद्र मारे जाते हैं, हत्याएं की जाती हैं। शूद्र
भी भड़क रहे हैं।
अभी ही
कल परसों खबर थी कि चार सवर्णों को शूद्रों ने जला दिया। आखिर कब तक बर्दाश्त
करेंगे?
हो गया
बहुत। लेकिन तुम्हें पता नहीं चाहे तुम ब्राह्मण को जलाओ, चाहे तुम शूद्र को जलाओ, तुमने उसको ही जलाया है।
उस एक
को पहचानो। उस एक से संबंध जोड़ो, उस एक
के साथ विवाह रचो। उसके साथ सात फेरे डालो। उससे मिलन हो जाए तो सब मिल गया।
पानी बरस गया!
जीवन विरस हुआ
जब मन रसकन को तरस गया
बड़ी कृपा की
मेघ, पधारे, पानी बरस गया
गरजे तरजे--
पर सतरंगी भौंह कमान न खींची
तड़ित कृपाण चली न किसी पर
दया-दृष्टि ही सींची
माटी महक उठी
जड़ को जब चेतन परस गया
बीरबहूटी सजी
बजी झिल्ली की मृदु शहनाई
गगन पथे नव पवन रथे
यह मंगल वेला आई
गोद भरी वसुधा की
अंकुर का मुख दरस गया।
पानी बरस गया!
मेघ तो
तैयार है बरसने को, मगर
तुम पुकारते नहीं! अंकुर तो फूटने को कब से आतुर बैठा है, मगर तुम बीज को भूमि में
गिरने नहीं देते,
मरने
नहीं देते। बीज तो मरे तो ही अंकुर पैदा हो। और प्यास तो सघन है तुम्हारी भी, लेकिन तुम व्यर्थ की दिशाओं
में भटकते हो--कभी धन कभी पद, कभी
कुछ कभी कुछ। और प्यास सिर्फ उसकी है--उस एक की! जब अपनी प्यास को ठीक दिशा दो।
उसके मंदिर के कलश कितने ही दूर दिखाई पड़ते हों, दूर नहीं हैं। जिस दिन तुम
अपने भीतर जाओगे,
पाओगे
मिल गया तीर्थों का तीर्थ! उसी क्षण--
माटी महक उठी
जड़ को जब चेतन परस गया
बीर बहूटी सजी
बजी झिल्ली की मृदु शहनाई
गगन पथे, नव पवन रथे
यह मंगल वेला आई
गोद भरी वसुधा की
अंकुर का मुख दरस गया
पानी बरस गया!
आज
इतना ही।
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