ज्योत से ज्योत जले-(सूंदर दास)
प्रवचन-उन्नीसवां
सारसूत्र—(हमारे गुरु दीनी एक जरी)
हमारैं गुरु दीनी एक जरी
कहा कहौ कछ कहत न आवै, अंमृतरसहि भरी।
ताकौ मरम संतजन जानत, वस्तु अमोल परी।।
यातें मोहि पियारी लागति, लैकरि सीस धरी।
मन-भुजंग अरन पंच नागनी सूंघत तुरंत मरी।।
डायनि एक खात सब जग कौं, सो भी देस डरी।।
विविधि बिकार ताप तानि भागी, दुरमति सकल हरी।
ताकौ गुन सुनि मीच पलाई, और कवन बपुरी।।
निसबासर नाहिं ताहि बिसारत, पल छिन आध घरी।
सुंदरदास भयो घट निरविष, सबही व्याधि टरी।।
देखौ माई, आज भलौ दिन लागत।
बरिषा रितु कौ आगम आयौ, बैठि मलारहिं रागत।।
रामनाम के बादल उनए, घोरि घोरि रस पागत।
तन मन मांहिं भई शीतलता, गए बिकार जु दागत।।
जा कारनि हम फिरत बिवोगी, निशिदिन उठि-उठि जागत।
सुंदरदास दयाल भए प्रभु सोइ दियौ जोइ मांगत।।
इस
गुलशने-हस्ती में लगता नहीं दिल अपना।
आए हैं
खुदा जाने हम किससे जुदा होकर।।
इस
जिंदगी में किसका दिल कब लगा! थोड़ी देर लग भी जाए तो टिकता कहां! अभी लगा अभी
उखड़ा।
यह
जिंदगी असली जिंदगी नहीं है। धोखा कोई खाना चाहे खा ले, पर कितनी देर? देर-अबेर जागरण होगा ही। रेत
से कोई तेल ही निचोड़े, कब तक
निचोड़ता रहेगा?
रेत
में तेल नहीं है,
देर-अबेर
बोध आएगा ही।
यह
जीवन असली जीवन नहीं है। असली जीवन प्रतीक्षा कर रहा है कि खोजो। इसीलिए यहां किसी
का मन लगता नहीं। लाख लगाओ नहीं लगता। लाख उलझाओ भरमाओ, उखड़-उखड़ जाता है। ऐसा तुम्हें
प्रतीत नहीं हुआ?
कुछ-न-कुछ
कमी मालूम पड़ती है। और ऐसा नहीं है कि जिनके पास कुछ नहीं है उन्हें कमी मालूम
पड़ती है। जिनके पास सब कुछ है, उन्हें
ज्यादा मालूम पड़ती है। जिस दिन सब मिल जाता है इस जगत् का, उस दिन तो बहुत कमी मालूम
पड़ती है,
आशाएं
भी टूट जाती हैं फिर।
धनी से
ज्यादा दरिद्र नहीं होता। दरिद्र को तो थोड़ी धन की आशा होती है; धनी को वह आशा भी टूटी!
दरिद्र तो सोचता हैः कल थोड़ा धन होगा, मकान होगा, जमीन-जायदाद होगी, सुख से रहेंगे, सुख से जिएंगे, जिंदगी मिल जाएगी। अमीर की यह
आशा भी गयी। धन भी है और निर्धनता वैसी की वैसी अछूती खड़ी है। बाहर धन का ढेर लग
जाता है तो भीतर की दीनता और भी प्रकट होती है। बाहर का धन भीतर की दरिद्रता को
प्रकट करने के लिए पृष्ठभूमि बन जाता है; जैसे कोई काले तख्ते पर सफेद खड़िया से लिखे।
काला तख्ता हो तो ही सफेद खड़िया की लिखावट दिखाई पड़ती है। सफेद तख्ते पर लिखोगे तो
दिखाई नहीं पड़ती।
अमीर
को दरिद्रता दिखाई पड़ती है। यह आकस्मिक नहीं है कि बुद्ध और महावीर राजपुत्र थे।
यह आकस्मिक नहीं है कि हिंदुओं के सारे अवतार राजपुत्र थे, जैनों के सारे तीर्थंकर
राजपुत्र थे। इन्हें दरिद्रता दिखाई पड़ती होगी! खूब घनीभूत होकर दिखाई पड़ी होगी।
संसार से आशा का दीया बिल्कुल बुझ गया; क्योंकि संसार जो दे सकता है। तब इनकी आंखें
भीतर की तरफ मुड़ीं!
कमी तो
सभी को लगती है--भिखारी से लेकर सम्राट् तक को। लेकिन भिखारी सोचता हैः धन नहीं है
इसलिए कमी मालूम पड़ती है; पद
नहीं है इसलिए कमी मालूम पड़ती है। होगा पद, होगा धन, भरा-पूरा हो जाऊंगा।
इस
संसार में कोई कभी भरा-पूरा नहीं होता। सिकंदर भी खाली हाथ जाते हैं यहां सब पा लो
तो भी हाथ खाली के खाली रहते हैं।
इस
गुलशने-हस्ती में लगता नहीं दिल अपना।
आए हैं
खुदा जाने हम किससे जुदा होकर।।
कहीं
किसी गहरे में हमें अब भी याद है उस मूलस्रोत की, जहां से हमारा आना हुआ है।
भूल गए हैं बहुत,
विस्मृति
गहन हो गयी है,
पर्त-पर-पर्त
जन्मों-जन्मों के अनुभव की जम गयी है; लेकिन फिर भी कोई भनक कहीं सुनायी पड़ती हैः
यह हमारा घर नहीं है। दबा देते हैं इस आवाज को, क्योंकि और भी तो कहीं कोई घर दिखाई पड़ता
नहीं। और इस आवाज की सुनो तो पागल हो जाओ। यह आवाज सुनो तो फिर यहां जियो कैसे?
धर्म
की आवाज सभी के भीतर उठती है, लोग
उसकी गर्दन दबोच देते हैं। ऐसा आदमी तो खोजना कठिन है इस पृथ्वी पर, जिसे कभी-न-कभी इस बात की समझ
न आती हो कि यहां हम परदेशी हैं। हमारा देश कहीं और। हमारा निज-देश कहीं और। इतना जो
दुःख हमें अनुभव होता है वह भी इसीलिए कि हमने आनंद जाना है। जरूर जाना है! बिना
आनंद को जाने दुःख की प्रतीति नहीं हो सकती। बिना आनंद को जाने आनंदकी खोज भी नहीं
हो सकती है।
और
यहां प्रत्येक व्यक्ति आनंद को तलाश रहा है। गलत रास्तों पर तलाशता हो कि सही
रास्तों पर,
ठीक
दिशाओं में तलाशता हो कि गलत दिशाओं में, पर हर व्यक्ति यहां आनंद को तलाश रहा है।
तलाश तो उसी की होती है, जो
खोया हो। जरूर हमारे पास था और छिटक गया है। हाथ में था और खो गया है। हमने
किन्हीं क्षणों में जाना है। बहुत अंतराल हो गया होगा समय का, सदियां बीत गयी होंगी, हम न मालूम कितने रूपों में
भटक गए होंगे,
हमें
अपना मूल-स्वरूप खो ही गया है।
जैसे
कोई आदमी एक नाटक में अभिनय करे, फिर
दूसरे नाटक में,
फिर
तीसरे नाटक में और नाटक में अभिनय करता रहे--और एक दिन अचानक याद आए कि मैं कौन
हूं! इतने नाटकों में काम कर चुका हूं, इतने रूप धर चुका हूं, इतने वेश पहन चुका हूं कि अब
याद भी नहीं आती कि मेरा असली चेहरा क्या है? मेरा मूल-स्वरूप क्या है?
नाटक
करते-करते आदमी भी नाटक हो जाता है। अभिनय करते-करते आदमी भी अभिनय हो जाता है।
धोखा देते-देते हम धोखा हो जाते हैं। झूठ बोलते-बोलते हम झूठ हो जाते हैं। और झूठ
ही हमने बोली है। धोखा ही हमने दिया है। मुखौटे ही हमने पहने हैं। अब हमें अपनी
असली शकल पहचान में नहीं आती, याद भी
नहीं आती। मगर फिर भी कहीं कोई आवाज अब भी झरती है और कहीं कोई झरना अब भी बहता
है।
कभी भी
जब तुम शांत होकर बैठ जाओगे, तब
तुम्हें यह पृथ्वी असली घर मालूम नहीं होगी। इसलिए लोग शांत बैठने में भी डरते हैं, खाली होने में भी डरते हैं।
उलझाए रखते हैं अपने को। व्यस्त रखते हैं। काम का काम न हो तो बेकाम का काम ले
लेते हैं। छुट्टी का दिन हो, जिसके
लिए छः दिन प्रतीक्षा की थी कि आए छुट्टी का दिन तो आराम कर लेंगे, तो कार खोलकर बैठ जाते हैं, घड़ी खोलकर बैठ जाते हैं कि
इसको ही सुधार लें! कुछ-न-कुछ व्यस्तता निकाल लेते हैं।
आदमी
अपने को खाली नहीं छोड़ता, क्योंकि
खाली छूटा आदमी कि भीतर की आवाज सुनाई पड़नी शुरू होती है कि तुम कर क्या रहे हो!
यहां तुम कह क्या रहे हो? तुम्हें
अभी यह भी पता नहीं है कि मैं कौन हूं! तुम किस जिंदगी में उलझे हो?
हस्ती
का शोर तो है मगर एतिबार क्या।
झूठी
खबर किसी की उड़ायी हुई-सी है।।
जिसे
हमने जिंदगी समझा है, वह
झूठी खबर किसी की उड़ायी हुई-सी है। एक न एक दिन एक सपना सिद्ध होती है। और जब मौत
दरवाजे पर दस्तक देती है तो सारी जिंदगी सपना सिद्ध होती है। उस दिन तो केवल वे ही
मौत को अंगीकार कर पाते हैं जिन्होंने असली जिंदगी का रस पाया हो। उस असली जिंदगी
का नाम ही परमात्मा है। और जब तक परमात्मा की वर्षा न हो जाए तब तक तुम प्यासे
रहोगे! और जब तक परमात्मा की छाया न मिल जाए तब तक तुम दग्ध रहोगे। धूप और ताप और
जीवन की आपाधापी. . .! और जब तक परमात्मा के मंदिर में प्रवेश न हो जाए, तब तक यात्रा है, व्यर्थ यात्रा है। सार्थक
यात्रा तो वही है जो मंदिर तक ले आए।
मंदिर
ही हमारा घर है। उससे कम से राजी मत होना।
लोग
बड़े जल्दी राजी हो जाते हैं। लोग छोटे बच्चों जैसे हैं, खिलौनों से राजी हो जाते हैं।
बच्चों को पकड़ा दिया लकड़ी का घोड़ा--सुंदरदास ने कल ही तो याद किया था--लकड़ी के
घोड़े पर ही उछलने लगते हैं! गुड्डे-गुड्डियों का विवाह रचाने लगते हैं।
तुम भी
क्या कर रहे हो?
ज़रा
जिंदगी पर गौर करो! गुड्डे-गुड्डियों का विवाह कर रहे हो। लकड़ी के घोड़ों पर सवार।
किस्सा कुर्सी का! लकड़ी के घोड़े हैं सब। कुर्सी और लकड़ी के घोड़े में तुम कुछ फर्क
समझते हो?
लेकिन
कुर्सी पर कितने उपद्रव चला रहे हैं। कितने उपद्रव चलते रहेंगे। कुर्सी पर बैठने
का मजा उसी छोटे बच्चे की अकड़ है जो घोड़े पर बैठकर उछल रहा है। छोटे बच्चे तो कचरे
के घूरे पर चढ़ जाते हैं और कहते हैं मुझसे ऊपर कोई भी नहीं, मुझसे ऊंचा कोई भी नहीं। पद
और धन के भी घूरे हैं। उन पर चढ़कर जब तुम कहते हो, मुझसे ऊपर कोई भी नहीं, तब तुम्हें पता नहीं, तुम कैसी मूढ़ता की बात कर रहे
हो!
कम से
कम मौत से ऐसी मुझे उमीद नहीं।
जिंदगी
तूने तो धोखे पे दिया है धोखा।।
जिंदगी
ने तुम्हें धोखे के अतिरिक्त और दिया ही क्या है? तरहत्तरह के धोखे। बचपन के
धोखे अलग हैं,
जवानी
के धोखे अलग हैं,
बुढ़ापे
के धोखे अलग हैं,
लेकिन
धोखे पर धोखे। और सबसे आखिरी धोखा प्रतीक्षा कर रहा है--जब गिरोगे और सांस लौटेगी
नहीं! आखिरी धोखा मौत होगी।
जन्म
धोखा था। क्योंकि जन्म ने तुम्हें यह भ्रांति दे दी तुम देह हो। तुम्हारी शिक्षा
धोखे की थी,
क्योंकि
शिक्षा ने तुम्हें यह भ्रांति दे दी है कि तुम मन हो। और अब यह आखिरी धोखा आएगा।
कमर
बांधे हुए चलने को यहां सब यार बैठे हैं।
बहुत
आगे गए,
बाकी
जो हैं तैयार बैठे हैं।।
तुम
तैयारी क्या कर रहे हो? सब
तैयारी मरने की तैयारी है। यह भी खूब मजा है, जिंदगी--और मरने की तैयारी में व्यतीत हो
जाती है! जिंदगी में आदमी मरता ही है, और करता क्या है? रोज-रोज मरता है। लेकिन हम
बड़े होशियार हैं,
एक साल
मर जाते हैं तो हम उसको कहते हैं हमारा जन्म-दिन आया! एक साल मौत और करीब आ गयी।
कहते हो जन्म-दिन?
मृत्यु-दिन
कहो!
जिस
दिन से बच्चा पैदा होता है उसी दिन से मरना शुरू हो जाता है। इस आहिस्ता मौत को
तुम जीवन मत समझ लेना। जीवन कुछ और है। और दूर भी नहीं है। कुंजी चाहिए। जीवन बहुत
निकट है। जिसके पीछे तुम दौड़ रहे हो वह तो दूर, बहुत दूर, बहुत देर है और जब पहुंचोगे
तो पाओगे नहीं है,
मृगमरीचिका
है। लेकिन असली जिंदगी बहुत पास है, पास से भी पास है। "पास' शब्द भी ठीक नहीं है, क्योंकि तुम्हारा अंतरतम है।
पास में भी तो दूरी का पता चलता है। पास शब्द भी तो दूरी का ही एक नाम है। नहीं!
असली जिंदगी तो पास से भी पास है। क्योंकि असली जिंदगी तुम्हारे मूल केंद्र पर मौजूद
है। लेकिन वहां हम जाते नहीं। हम सारे संसार में जाने को उत्सुक हैं। चांदत्तारों
पर जाने को उत्सुक है आदमी, अपने
भीतर जाने को उत्सुक नहीं है। और वहीं जो पहुंचता है, उसके सामने ही चांदत्तारों का
राज खुलता है।
अगर
मुमकिन हो तो सौ-सौ जतन से
अज़ीज़ो
काट लो यह जिंदगी है।
लोग
काट ही तो रहे हैं। समय काट रहे हैं। जिंदगी काट रहे हैं। एक ऐसा जीवन भी है, जो न कटता है न काटा जा सकता
है। अविछिन्न! अखंड! शाश्वत! समय के पार! देह में आबद्ध नहीं। मन में सीमित नहीं।
और वह चैतन्य तुम्हारे भीतर मौजूद है। वही तुम हो! तत्त्वमसि! पर भीतर जाओ, तब।
जब तक
बाहर की आशा है,
तुम
भीतर जाओगे नहीं! बाहर की आशा निराशा हो जाए तो भीतर जाओ।
बुद्ध
के बड़े प्यारे वचन हैं कि धन्यभागी हैं वे जो हताश हो गए, जिनका जीवन बाहर से बिल्कुल
हताश हो गया है। इसे दुर्दिन मत मानना। इसे सुदिन मानना। जिस दिन तुम बाहर से
बिल्कुल हताश हो जाओगे, उसी
दिन ठिठकोगे,
उसी
दिन रुकोगे,
दौड़
बंद होगी। और जो ऊर्जा संसार में छितरी जाती थी, इकट्ठी होगी, सिमटेगी, अंतर्यात्रा शुरू होगी।
ऐ
मौजे-बला! इनको भी ज़रा दो-चार थपेड़े हल्के से
कुछ
लोग अभी तक साहिल से तूफ़ां का नजारा करते हैं।
और कुछ
लोग हैं जो भीतर की बातें बस शास्त्रों में पढ़ते हैं, सद्-उपदेशों में सुनते हैं।
दोहराने भी लगते हैं तोतों की भांति। मगर, अगर किनारे पर बैठकर तूफान को देखा है तो
अभी तुमने तूफान नहीं देखा। तूफान तो उसी ने देखा है जिसने तूफान में अपनी नौका
छोड़ी। तूफान तो उसी ने जाना है, जो
तूफान से जूझा है।
ऐ
मौजे-बला! इनको भी ज़रा दो-चार थपेड़े हल्के से
कुछ
लोग अभी तक साहिल से तूफ़ां का नजारा करते हैं।
कितने
जन्मों से तुम किनारे बैठे-बैठे देख रहे हो, सोच रहे हो, विचार रहे हो! अंतर्यात्रा
शुरू कब करोगे?
ऐसे भी
बहुत देर हो गयी है। ये सूत्र अंतर्यात्रा के सूत्र हैं। और सुंदरदास ने बड़ा गहरा
इशारा किया है। पकड़ना।
हमारैं
गुरु दीनी एक जरी।
हमारे
गुरु ने एक जड़ी-बूटी दे दी।
कहा
कहौ कछ कहत न आवै,
अंमृतरसहि
भरी।
स्वाद
अमृत का है उसमें,
अमृत
रस ही भरा है उसमें। और अब उसे कहने का कोई उपाय नहीं! कोई कभी नहीं कह पाया।
जिनके पास है वे पिला देते हैं। कहना तो सिर्फ बुलाना है कि आओ और पियो! कहना तो
सिर्फ निमंत्रण है। कहने में जड़ी नहीं है। कहने में अमृत नहीं है। शब्द से सावधान!
शब्द बड़े धोखे में डाले हुए हैं। कोई सोचता है "राम' शब्द में राम है। तो ओढ़ लेता
है रामनाम की चदरिया; बैठ
जाता है लिखने लगता है राम-राम राम-राम; कि बैठ जाता है दोहराने लगता है राम-राम।
शब्द सत्य नहीं है। शब्द तो मात्र इशारा है।
मुल्ला
नसरुद्दीन की पत्नी बहुत दिन से उसके पीछे पड़ी थी, कि सारे लोग छुट्टियों में
पहाड़ जाते हैं--कोई दक्षिण जाता, कोई
उत्तर जाता,
कोई
पूरब जाता,
कोई
पश्चिम जाता। दूसरे लोग तो विदेश यात्राएं तक करके आ गए हैं। मोहल्ले में एक भी
नहीं है ऐसा अभागा आदमी, जो
कहीं न गया हो,
लेकिन
हमारे भाग्य में नहीं कुछ।
मुल्ला
एक दिन गुस्से में आया और कहा कि ठीक है, अभी जाकर इंतजाम करके आता हूं! गया और थोड़ी
देर बाद वापिस लौटा। एक नक्शा लेकर वापिस लौटा। नक्शा फैला दिया जमीन पर और कहा कि
देख, यह रहा हिमालय पहाड़, कर ले यात्रा; यह बह रही गंगा, ले-ले डुबकी; यह गौरीशंकर. . .। जाने की
जरूरत क्या है नक्शा तो बाजार में मिलता है। पागल हैं जो जाते हैं वहां--उसने
कहा--होशियार तो नक्शे से काम चला लेते हैं।
लेकिन
खयाल रखना,
हिमालय
का नक्शा हिमालय नहीं है। मगर तुम हंसना मत मुल्ला नसरुद्दीन पर, मजाक तुम्हारे ऊपर है। यही तो
तुमने किया है। शास्त्रों की पूजा चल रही है।
पंजाब
में एक घर में मैं मेहमान था। सुबह उठकर दंतवन करने जा रहा था कि जिस कमरे से
गुजरा,
गुरु
ग्रंथ साहब को सजाकर रखा गया था, उनके
सामने एक लोटा रखा है चांदी का और दंतवन रखी है। मैंने पूछा कि यह मामला क्या है? यह दंतवन मैं ले लूं? उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं, यह तो गुरु ग्रंथ साहब के लिए
रखी है।
गुरु
ग्रंथ साहब दंतवन कर रहे हैं!
आदमी
का पागलपन! पत्थर की मूर्तियों पर भोग लगाए जा रहे हैं! नक्शों में यात्राएं हो
रही हैं! शब्दों का कितना मूल्य हमने बढ़ा दिया है! और ऐसा भी नहीं है कि शब्द धोखा
नहीं देते;
अगर
शब्दों को दोहराते रहो, दोहराते
रहो तो धोखा दे देते हैं। जैसे बैठकर विचार करने लगो कि बैठे हो एक नींबू के वृक्ष
के नीचे और नींबू ही नींबू और सुगंध नींबुओं की! किसी और चीज की तो ऐसी सुगंध होती
नहीं। भर लो नासापुटों को अभी नींबुओं की सुगंध से। फिर तुमने एक बड़ा नींबू तोड़ लिया
है। फिर चाकू से काटा है। फव्वारे की तरह उसका रस उड़ा है। अब तुम नींबू को मुंह
में ले लिए हो। अब तुम चूसने लगे हो। और लार बहने लगी! न कुछ नींबू है, न कोई नींबू का वृक्ष है कहीं, सिर्फ बातचीत चल रही है। और
लार बहने लगी। शरीर ने मान लिया झूठ। शरीर ने शब्द को असली मान लिया। शब्द
"नींबू'
नींबू
हो गया। शरीर को भला तुम धोखा दे दो, लेकिन फिर भी धोखा धोखा ही है।
ऐसे ही
लोग अगर राम-राम को रटते रहें, रटते
रहें, जैसे नींबू-नींबू का विचार
करते रहें,
तो एक
तरह की लार बहने लगती है। उस लार को तुम अमृत-रस मत समझ लेना। उस लार से ही
बहुत-से लोगों ने समझ लिया है पहुंच गए।**त्र्!)ध्****त्र्!)इ१४)१०**
न तो
"अग्नि'
शब्द
में अग्नि है और "जल' शब्द
में जल है और न "राम' शब्द
में राम है। यद्यपि ये सभी शब्द सार्थक हैं, मगर इशारे हैं, नक्शे हैं। अमृत-रस तो सत्य
की प्रतीति से बहेगा। लेकिन शब्द सस्ता मिलता है और सत्य की प्रतीति तो मंहगा
मामला है।
दूसरों
से बहुत आसान है मिलना साकी
अपनी
हस्ती से मुलाकात बड़ी मुश्किल है।
यहां
दुनिया में हर किसी से मिल लो, बहुत
आसान है;
बस
अपने से मिलना मुश्किल है। दूसरों से मिलने में होता भी क्या है? शब्दों का लेन-देन। तुम जब
दूसरों से मिलते हो, करते
क्या हो?
तुम्हारे
संवाद,
तुम्हारी
बातचीत,
तुम्हारी
गुफ्तगू क्या है?
शब्दों
का लेन-देन है। अपने से मिलने चलोगे तो सारे शब्द छोड़ देने पड़ेंगे। वहां तो
निःशब्द हो जाओगे,
तब
पहुंचोगे। वही कठिनाई है। वहां तो बोल खो जाएगा, अबोल हो जाओगे, तब पहुंचोगे!
वही है
जड़ी, जो गुरु ने दी! उसे मौन कहो, ध्यान कहो। जो भी नाम तुम
देना चाहो,
दे दो!
लेकिन उसका स्वाद निःशब्दता का है। सारे गुरुओं ने शब्द छीन लेने चाहे, शास्त्र हटा देने चाहे, तुम्हें मौन करना चाहा, तुम्हें शांत करना चाहा।
तुम्हारे भीतर विचारों की तरंगें विदा हो जाएं। तुम निस्तरंग हो जाओ। कोई लहर न
उठे। बस जहां तुम्हारी लहराती चेतना गैर-लहराती हो गयी, जहां तुम्हारी झील चेतना की
शांत हो गयी,
कोई
तरंग नहीं,
कोई
लहर नहीं--बस वहीं अमृत-रस बह उठता है! अमृत-रस तो बह ही रहा है, लेकिन तरंगों में तुम इतने
उलझे हो,
विचारों
में तुम इतने डूबे हो कि तुम्हें सुविधा नहीं, अवकाश नहीं, कि अमृत-रस को चख सको, देख सको।
परमात्मा
तुम्हारे भीतर मौजूद है, मगर
तुम पीठ किए खड़े हो। तुम्हारे और परमात्मा के बीच में जो सबसे बड़ी चीन की दीवार है, वह पत्थरों की बनी हुई नहीं
है, शब्दों की बनी हुई है। फिर
तुम्हारे शब्द हिंदुओं के हैं या मुसलमानों के या सिक्खों के या ईसाइयों के या
जैनों के,
इससे
कुछ फर्क नहीं पड़ता; शब्द
तो शब्द हैं। फिर तुम राम-राम दोहरा रहे हो कि नमोकार, इससे फर्क नहीं पड़ता। फिर तुम
किस पत्थर के सामने सिर झुका रहे हो, इससे भी फर्क नहीं पड़ता। उसी पत्थर से बुद्ध
बन जाते हैं,
उसी
पत्थर से महावीर बन जाते हैं, उसी
पत्थर से गणेश जी बन जाते हैं। तुम किसके सामने सिर झुका रहे हो, इससे फर्क नहीं पड़ता; तुम पत्थर के सामने ही सिर
झुका रहो हो। और मजा तो ऐसा है कि उसी पत्थर से मस्जिदें बन जाती हैं जिनमें कोई
मूर्तियां नहीं हैं। वहां भी लोग सिर झुका रहे हैं। वे भी पत्थर के सामने ही झुकाए
जा रहे हैं। और काबा सिवाय एक बड़े पत्थर के और कुछ भी नहीं है। और मुसलमानों की
भ्रांति है कि वे पत्थरों की पूजा नहीं करते। और सबसे बड़े पत्थर की पूजा वही कर
रहे हैं। काबा में जितना बड़ा पत्थर उन्होंने पूजा है, उतना बड़ा पत्थर किसी दूसरे
धर्म ने नहीं पूजा। और बड़े भाव से पूजा है। काबा के पत्थर को जितने लोगों ने चूमा
है, दुनिया के किसी पत्थर को नहीं
चूमा गया है। करोड़ों लोग प्रतिवर्ष चूमते हैं। इतना जूठा पत्थर दुनिया में दूसरा
नहीं है। पत्थर के खिलाफ चले थे और पत्थर में ही जकड़ गए। एक पत्थर से छूटते हैं, दूसरे पत्थर से जकड़ जाते हैं।
लेकिन भ्रांति जाती नहीं।
शब्द
तुम कौन-से बड़े भाव से पूज रहे हो, इससे भेद नहीं पड़ेगा। निःशब्द होना पड़ेगा।
निःशब्द होने में मस्ती है, अमृत-रस
है!
जबाने-होश
से यह कुफ्र सरज़द हो नहीं सकता।
मैं
कैसे बिन पिए ले लूं, खुदा
का नाम है साकी।
वह तो
पियक्कड़ ही ले सकते हैं खुदा का नाम--मस्त जो हैं! रूखे-रूखे, बुद्धि से भरे लोग, खुदा का नाम भी लेते रहें तो
कुछ परिणाम होनेवाला नहीं है। हार्दिक होना चाहिए। हृदय से उठना चाहिए और हृदय से
तभी उठता है जब बुद्धि की सारी तरंगें बंद हो जाती हैं। भाव का जन्म तब होता है जब
विचार शांत हो जाते हैं। और भाव भगति है। और गुरु भगति देता है। भाव को भक्ति देता
है। भाव को भक्ति में ढाल देता है। फिर भक्ति ही एक दिन भगवान् हो जाती है।
अब यह
समझ लो,
तुम्हारी
स्थितियां ये हैं।. . . विचार की स्थिति! गुरु के संपर्क में विचार को भाव में
बदला जाता है। "रोने' शब्द
को आंसुओं में ढाला जाता है। नक्शों को यथार्थ में रूपांतरित किया जाता है। विचार
भाव में बदल जाने चाहिए। फिर भाव परमात्मा पर समर्पित। फिर किसी मंदिर-मस्जिद में
जाने की जरूरत नहीं; फिर तो
तुम जहां हो वहीं समर्पित, क्योंकि
परमात्मा सब जगह है। जहां झुके, जहां
सिजदा किया वहीं मंदिर हो गया! जहां कोई शांत और मौन होकर बैठ गया वहीं तीर्थ
निर्मित हो जाता है।
ऐसे ही
तो तीर्थ निर्मित हुए थे। फिर तुम भूल गए। फिर तुमने तीर्थों की तो पूजा शुरू की, लेकिन तीर्थों का मूल सारा
भूल गए। कैसे तीर्थ निर्मित हो गए थे? कहीं कोई बुद्ध वृक्ष के नीचे बैठा शांत!
अमृत की धार बही,
वह
वृक्ष भी तीर्थ बन गया। अब सारी दुनिया से बौद्ध आते हैं बोधगया--उस वृक्ष को
नमस्कार करने! अब यह पागलपन देख रहे हो? मूल बात खो गयी। किसी भी वृक्ष के नीचे बैठ
जाओ, बुद्ध जैसे शांत हो जाओ, वहीं बोधिवृक्ष प्रकट हो
जाएगा। बोधगया जाने की जरूरत नहीं है। और बोधगया का वृक्ष बेचारा क्या करेगा? बोधगया के वृक्ष के कारण थोड़े
ही बुद्ध बुद्ध हो गए थे; बुद्ध
के कारण यह साधारण वृक्ष अपूर्व महिमा को उपलब्ध हो गया। यह तो सिर्फ याद्दाश्त
है। याद्दाश्त प्यारी है। मगर इसी में जो उलझ जाए वह भटक जाता है।
हमारैं
गुरु दीनी एक जरी!
क्या
जड़ी बूटी दी,
जिससे
अमृत-रस की धार बही? मौन
दिया। ध्यान दिया। विचार की ऊर्जा को भाव में रूपांतरित किया। भाव को भक्ति बनाया, फिर भक्ति अपने-आप भगवान् हो
जाती है।
यही
ाज़दगी मुसीबत,
यही
ाज़दगी मसर्रत।
यही
ज़िंदगी हक़ीक़त यही ज़िंदगी फ़साना।।
ऊर्जा
तो यही है। जो तुम्हारे पास है, वही
मेरे पास है। जो मेरे पास है, वही सब
के पास है। ऊर्जा तो यही है। इसी ऊर्जा से तुम अपना दुःख बना लेते हो, नरक ढाल लेते हो, इसी ऊर्जा से स्वर्गों की
ईंटें भी रखी जाती हैं। इसी ऊर्जा से मोक्ष के सोपान भी रखे जाते हैं। यही ऊर्जा
है।
यही
ज़िंदगी मुसीबत,
यही
ज़िंदगी मसर्रत।
यही ज़िंदगी
हक़ीक़त यही ज़िंदगी फ़साना।।
यही
जिंदगी एक कहानी होकर खत्म हो जाए या यही जिंदगी एक सत्य बनकर प्रकट हो। यही
जिंदगी आनंद बन जाए या यही जिंदगी सिर्फ एक मुसीबत की लंबी कहानी!
जिससे
पूछा मैं कि "दिल खुश है दुनिया में कहीं?'
रो
दिया उनने और इतना ही कहा "कहते हैं'।
कहते
हैं कि कहीं लोग खुश होते हैं। देखा तो नहीं, सुना तो नहीं। आंख का अपना तो अनुभव नहीं है, साक्षात्कार तो नहीं हुआ, अफवाह सुनी है।
जिससे
पूछा मैं कि "दिल खुश है दुनिया में कहीं?'
रो
दिया उनने और इतना ही कहा "कहते हैं'।
अफवाहें
हैं कि खुश लोग होते हैं। मगर देखे किसने?
जब
तुम्हें कोई आनंदित आदमी मिल जाए, जिसने
अपनी जीवन-ऊर्जा को अमृत में ढाल लिया हो, तो पकड़ लेना उसके चरण, उसके पास जड़ी-बूटी है। जो
उसके भीतर हुआ है वही राज तुम्हें भी दिया जा सकता है। वही सूत्र तुम्हें भी
समझाया जा सकता है। गुरु का इतना ही अर्थ है।
गुरु
का अर्थ होता हैः जिसने पा लिया और अब निश्चिंत है। और जिसे पाने को अब कुछ शेष न
रहा। जिसके जीवन में अब कोई प्रश्न नहीं है। जिसके जीवन में उत्तर ही उत्तर है।
जिसकी कोई समस्या नहीं है। समाधान के बादल आ गए और बरस गए। समाधि फल गयी है। उसके
चरण गह लेना। उसके पास उठना-बैठना, समागम करना। उसके पास से कुंजी मिल सकती है।
जो पहाड़ों पर आता-जाता हो, उससे
पहाड़ों का रास्ता पूछ लेना। जो जंगलों से जाता हो, गुजरता हो, उससे जंगलों का रास्ता पूछ
लेना।
गुरु
का और कुछ अर्थ नहीं होता--जिसके जीवन में परमात्मा घट गया है। गुरु साक्षी है इस
बात का कि तुम्हारे जीवन में भी घट सकता है। और कुंजी बहुत कठिन नहीं है। एक बार
हाथ में लग जाए तो बड़ी सरल है। कुंजी न हो तो ताले खोलना बड़ा कठिन है और कुंजी हो
तो ताला खोलने से सरल और क्या बात है? कुंजी डाली कि ताला खुला! और कुंजी न हो हाथ
तो तुम तालों को ठोकते रहो, पीटते
रहो, हथौड़े मारते रहो--खतरा यही है
कि कहीं ताला इतना न बिगाड़ लेना कि जिस दिन कुंजी भी हाथ लगे कुंजी भी काम न करे।
अकसर
ऐसा हो जाता है,
लोग
ताले को बिना कुंजी के खोलने की चेष्टा में इतना बर्बाद कर लेते हैं कि कुंजी मिल
भी जाए तो ताला नहीं खुलता। इसके पहले कि तुम ताला खोलने लगो, उस आदमी के पास बैठ जाना
जिसके द्वार खुल गए हैं। नहीं तो खतरा है।
मेरे
पास बहुत-से लोग आ जाते हैं, जो
किताबों में पढ़-पढ़ कर कुछ कर लेते हैं। उससे और उलझन खड़ी हो जाती है। किताबों से
कुंजी नहीं मिल सकती। कुंजी जीवंत दान है। शास्त्रों से मिलती है, शास्त्र से नहीं मिलती। गुरु
से मिलती है,
गुरुवाणी
से नहीं मिलती। गुरुवाणी तो नक्शा है। मैं तुम्हें दे सकता हूं, लेकिन मेरी किताबों से नहीं
मिलेगी। हालांकि मेरी किताबों में उसी की चर्चा है, फिर भी तुम्हें उससे नहीं
मिलेगी। कुंजी की चर्चा है, उससे
कुंजी कैसे मिलेगी? कुंजी
का वर्णन है,
उससे
कुंजी कैसे मिलेगी? कुंजी
तो जिसके पास हो,
उसके
पास ही बैठकर धीरे-धीरे धैर्यपूर्वक सीखनी पड़ेगी, साधनी पड़ेगी।
लोग
अहंकार-वश किताबों से उपाय खोजते हैं। किताब से एक फायदा है, किसी को पता नहीं चलता कि तुम
किसी से सीखने गए। किताब अपने घर में है, पढ़ ली, करने लगे। अकसर लोग उलझकर आ जाते हैं।
अभी
चार दिन पहले कोई विपस्सना करता हुआ आया! तीन महीने विपस्सना की है, नींद खो गयी। अब परेशान है।
और विपस्सना करने से जिसकी नींद चली जाए, उस पर कोई ट्रेंकुलाइज़र काम नहीं कर सकता
फिर। सुस्त कर देगा, लेकिन
नींद नहीं ला सकता। और या फिर इतनी मात्रा में लेना पड़ेगा कि वह दूसरे दिन भी उठ
नहीं पाएगा। अब वे मुश्किल में पड़ गए हैं। उनको देखकर ही मुझे लगा कि विपस्सना का
परिणाम होना चाहिए। मैंने उनसे पूछा, विपस्सना तो नहीं कर रहे हो? उन्होंने कहाः हां, तीन महीने से उसी में तो लगा
हुआ हूं। तो मैंने कहाः यह उसका फल है। किससे सीखी विपस्सना?
क्यों
शास्ता पर जोर दिया जाता है? क्योंकि
प्रत्येक व्यक्ति के लिए कुंजी थोड़ी-सी भिन्न करनी होती है। कोई व्यक्ति एक जैसे
नहीं हैं। सारे व्यक्ति एक जैसे नहीं हैं। किताब में तो एक सामान्य सिद्धांत होता
है। सामान्य सिद्धांत औसत की भांति होते हैं। जैसे तुम किसी से पूछो कि पूना में
आदमी की औसत ऊंचाई क्या है? तो औसत
ऊंचाई का मतलब होता हैः जितने लोग पूना में हैं सबकी ऊंचाई नापो, फिर उनकी संख्या का भाग दे
दो। फिर औसत ऊंचाई आ जाएगी! समझ लो चार फीट साढ़े तीन इंच। अब अगर तुम चार फीट साढ़े
तीन इंच के आदमी को खोजने निकलो, तुमको
शायद ही मिले। और तुम बड़े हैरान होओगे कि यह तो औसत ऊंचाई है। अधिकतम लोग इसी
ऊंचाई के होने चाहिए। कोई पांच फीट दस इंच है, कोई पांच फीट नौ इंच है। कोई छोटा बच्चा तीन
फीट है,
कोई और
छोटा बच्चा एक फीट है, सब तरह
के लोग मिल जाएंगे। चार फीट साढ़े तीन इंच का आदमी शायद मिले। शायद ही, क्योंकि वह तो सिर्फ औसत
ऊंचाई है। गणित का काम है। अस्तित्व में उसकी खोज करना व्यर्थ है।
ऐसे ही
सारे सिद्धांत औसत हैं। सूत्र दे दिए गए हैं, लेकिन प्रत्येक का ताला अलग है। और गुरु के
पास कुंजी ढालनी होती है, जो
उसके ताले पर काम आएगी। हर किसी की कुंजी तुम्हारे ताले पर काम नहीं आएगी।
अब अगर
कोई विपस्सना का प्रयोग करेगा तो विपस्सना का अर्थ होता हैः श्वास पर ध्यान। साधारण
प्राकृतिक रूप से श्वास पर ध्यान नहीं होता। यह बड़ी अप्राकृतिक प्रक्रिया है।
श्वास चलती रहती है, ध्यान
कौन देता है! जब तक कि कोई अड़चन न आ जाए, श्वास में कोई तकलीफ हो, हृदय का दौरा पड़ जाए, खांसी आ जाए, तो श्वास पर ध्यान जाता है, सर्दी-जुकाम हो जाए तो श्वास
पर ध्यान जाता है। स्वस्थ तुम रहो तो श्वास का पता ही नहीं चलता। पता चलना भी नहीं
चाहिए! श्वास तो चौबीस घंटे चल रही है, इसका पता चलता रहे तो फिर और चीजों का पता
कैसे चलेगा?
इसमें
उलझे रहो तो झंझट हो जाएगी।
विपस्सना
का अर्थ होता है श्वास पर ध्यान। यह बड़ा महत्त्वपूर्ण प्रयोग है और खतरनाक भी। अगर
ठीक निरीक्षण में न किया जाए तो श्वास पर ध्यान करने का परिणाम यह होगा कि तुम रात
सो नहीं सकोगे। श्वास तो रात भी चलती रहती है। अगर तुमने दिन-भर श्वास पर ध्यान
किया, श्वास को देखते रहे, रात भी तुम बंध जाओगे, श्वास को देखते रहोगे। और जब
तुम श्वास को देखते रहोगे, नींद
नहीं आएगी। और नींद नहीं आएगी तो तुम सोचोगे कि चलो विपस्सना ही क्यों न करें, पड़े-पड़े कर क्या रहे हैं?
वही वे
सज्जन कर रहे हैं कि अब नींद आ ही नहीं रही तो चलो श्वास को ही देखते रहें। और
श्वास को देखने में आनंद भी आएगा, सुख भी
मालूम पड़ेगा,
शांति
भी मालूम पड़ेगी! लेकिन अगर नींद खो गयी तो शरीर के लिए दुःख शुरू हो जाएंगे। जल्दी
ही तुम रुग्ण होने लगोगे। मुश्किल में पड़ जाओगे। विक्षिप्त भी हो सकते हो, अगर ज्यादा दिन नींद न आए। और
फिर अगर नींद बिल्कुल खो जाए तो तुम पागल हो ही जाओगे। क्योंकि विश्राम चाहिए ही
चाहिए।
यह तो
सिर्फ सिद्धांत है श्वास को देखना। फिर कितना देखना, यह गुरु तय करेगा। और किस समय
देखना,
यह भी
गुरु तय करेगा। गुरु तय करेगा कि चालीस मिनट देखना, इससे ज्यादा नहीं देखना एक
बार में;
या साठ
मिनट देखना,
इससे
ज्यादा नहीं देखना एक बार में। साठ मिनट देखने के लिए साठ मिनट उसके बाद छोड़ देना, देखना ही मत। या सुबह देखना
या सांझ देखना,
कब
देखना?
यह
प्रत्येक व्यक्ति के ऊपर अलग-अलग होगा। भोजन करने के बाद देखना श्वास कि नहीं
देखना,
खाली
पेट देखना या भरे पेट देखना--यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग-अलग होगा। अगर तुमने
भरे पेट श्वास देखी, तुम्हारी
पाचन-क्रिया गड़बड़ हो जाएगी। अगर तुमने जितनी तुम्हारे लिए जरूरत है उससे ज्यादा
देखी तो तुम्हारे भीतर होश तो आने लगेगा, लेकिन होश के साथ तनाव आ जाएगा! और अगर तनाव
आ गया तो बात गड़बड़ हो गयी! होश तो शांति लाना चाहिए, तनाव नहीं। यह मैं सिर्फ
उदाहरण के लिए कह रहा हूं। इसी तरह सारे सिद्धांत हैं। सिद्धांतों का व्यवहारिक
अर्थ तो गुरु के पास मिलेगा!
हमारैं
गुरु दीनी एक जरी।
कहा
कहौं कहा कहत न आवै, अमृत
रसहि भरी।
कहना
मुश्किल है। जब गुरु स्वाद दिला देता है तो कहना मुश्किल स्वाभाविक हो जाता है।
अमृत का स्वाद हम किस भाषा में कहें? हमारी पूरी भाषा तो मृत्यु के भीतर जीती है, पलती है। हमारी पूरी भाषा
मरणधर्मा के लिए बनी है। अमृत को प्रकट करने की उसके पास सामर्थ्य नहीं है। गूंगे
का गुड़! अमृत तो गूंगे का गुड़ है। भाषा चुप हो जाती है।
और
ध्यान रखना,
अमृत
तभी तुम्हारे भीतर बहता है जब तुम अभी अपने को जैसा मानते हो वैसे मिट जाते हो, मर ही जाते हो। जो मर गया
गुरु के चरणों में समर्पित हुआ, वही
अमृत का स्वाद ले पाता है।
एक
अदना-सा करिश्मा है यह उसके इश्क का
मर गया
हूं और मरने का गुमां होता नहीं
गुरु
के प्रेम में बहुत चमत्कार घटते हैं। उसमें यह भी एक छोटा-सा चमत्कार है। एक
अदना-सा करिश्मा है यह उसके इश्क का!
छोटा
इसे इसलिए कह रहे हैं कि तुम्हारा मरना छोटी बात है। इसके बाद जिसका पता चलता है, अमृत का, वही बड़ी बात है। मर कर पता
चलता है कि मरा नहीं हूं। पहली दफा पता चलता है कि असली जीवन क्या है। मर भी जाते
हो और मरने का पता नहीं चलता। और साधारण जीवन में तो जीते हो, जीवन का पता कहां चलता है!
अजीब पहेली है! जीते हैं बाजार में और जीने का पता नहीं चलता! गुरु की छाया में
मृत्यु घट जाती है, मरने
का पता नहीं चलता! बाजार में जिंदगी के नाम पर मौत ही हाथ मिलती है अंत में। गुरु
की शरण में मृत्यु से शुरुआत होती है और अमृत मिलता है। जो अपने को मिटाने को राजी
हैं वे ही केवल उपलब्ध कर पाते हैं।
ताकौ
मरम संतजन जानत,
वस्तु
अमोल परी।।
तुम्हारे
भीतर एक इतना अमूल्य खजाना भरा पड़ा है और तुम्हें उसका पता नहीं। ताकौ मरम संतजन
जानत. . .! जो जागे हैं अपने भीतर, जिनका दीया जला है, जिन्होंने अपने भीतर आंख गड़ा
कर देखा है,
जिन्होंने
अपने भीतर खुदाई की है--उन्होंने पा लिया है खजाना! भीतर जाना हो तो बाहर से ज़रा
दूर होना पड़े। और परमात्मा के पास बैठना हो तो संसार से थोड़ा रस, आसक्ति कम करनी पड़े!
सारी
दुनिया से दूर हो जाए
जो ज़रा
तेरे पास हो बैठे
और
उसके पास ज?रा भी बैठ जाओ, तुम देखते हो यह पास बैठना. .
. "उपनिषद'
शब्द
का अर्थ होता हैः पास बैठना, गुरु
के पास बैठना! उपासना शब्द का अर्थ होता हैः उसके पास बैठना, उप****)१०****आसन, गुरु के पास बैठना! उपवास
शब्द का अर्थ होता हैः उसके पास बैठना! उप****)१०****वास। उपासना कहो, उपवास कहो, सत्संग कहो, समागम कहो, उपनिषद कहो. . .! यह उपनिषदों
का जन्म हुआ,
जब कुछ
लोग, जिनके दीए बुझे थे, उनके पास बैठ गए जिनके दीए
जले थे। उपनिषद जल गए। ज्योति से ज्योति जले!
राजे
हस्ती राज है जब तक कोई मरहम न हो।
खुल
गया जिस दम तो मरहम के सिवा कुछ भी नहीं।।
राजे
हस्ती राज है जब तक. . . जिंदगी का रहस्य तभी तक रहस्य है. . . जब तक कोई मरहम न
हो, जब तक कोई मर्मज्ञ न हो, जब तक कोई जाननेवाला न हो, तभी तक जिंदगी का रहस्य है।
खुल गया जिस दम तो मरहम के सिवा कुछ भी नहीं। और जिस समय यह रहस्य खुल जाता है, कोई मर्मज्ञ जागता है, देखता है, आंखें खुलती हैं, तो बड़ी हैरानी हो जाती हैः सब
जिंदगी ऐसे खो जाती है जैसे छाया खो गयी! जैसे सपना खो गया! और फिर बचता कौन है? सिर्फ मर्मज्ञ बच जाता है।
सिर्फ जाननेवाला बचता है, जानने
के लिए कुछ नहीं बचता। अभी दृश्य सब कुछ है, द्रष्टा बिल्कुल नहीं है। तब द्रष्टा होता
है और दृष्य नहीं होता।
और
दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं। जिनको हम सांसारिक कहते हैं, उनका अगर ठीक-ठीक आध्यात्मिक
अर्थ करो,
तो
अर्थ होगाः जिनके जीवन में द्रष्टा छिपा है और दृश्य सब कुछ हो गया है। जो दिखाई
पड़ता है वही सब कुछ है। देखनेवाला भूल ही गए हैं वे। और दूसरी तरह के लोग हैं, जिनको आध्यात्मिक कहो, संन्यासी कहो, वे वे लोग हैं जिनके लिए
दृश्य अर्थहीन हो गया है और द्रष्टा ही सब कुछ हो गया है।
ताकौ
मरम संतजन जानत वस्तु अमोल परी!
दृश्य
मिट जाए और द्रष्टा का पता चल जाए तो मिल गया तुम्हें अपने भीतर का साम्राज्य, पा ली मोक्ष की संपदा! और ऐसा
नहीं है कि यह कोई नई चीज है जो तुमने पा ली; यह तुम्हारे भीतर पड़ी थी। पड़ी ही थी
जन्मों-जन्मों से! इसे तुम लेकर ही आए थे! यह तुम्हारा पाथेय है, जो परमात्मा ने दिया था। यह
तुम्हारे भीतर रख दिया था। यह तुम्हारा कलेवा है, पूरी यात्रा के लिए; यह चुकनेवाला नहीं था।
यातें
मोहि पियारी लागति लैकरि सीस धरी।
जब
गुरु ने यह औषधि मुझे दी, इतनी
प्यारी लगी कि लेकर शीश पर रख ली। गुरु के वचन जो शीश पर रख लेता है, स्वीकार कर लेता है अहोभाव से, आनंद-भाव से, गहन कृतज्ञता में, झुक जाता है--उसके जीवन में
ही कुंजियां उपलब्ध होती हैं। उसके भीतर ही जड़ी-बूटी का रस प्रवेश करता है।
जब तक
तुम झुककर न ले सकोगे तब तक यह रस तुम्हारे भीतर बहेगा नहीं। कुछ लोग अकड़कर खड़े
रहते हैं कि ठीक है अगर कुछ हो तो ठीक है दिखा दें! प्रमाण दे दें! जो सोचेंगे, विचार करेंगे, वे चूक जाएंगे! ये ऐसे लोग
हैं जिन्हें प्यास लगी है, नदी भी
सामने बह रही है लेकिन वे अकड़कर खड़े हैं, अंजली न बांधेंगे। क्योंकि किसी के सामने
हाथ फैलाएं,
यह
उनकी अकड़ के खिलाफ है, यह
उनके अहंकार के खिलाफ है। झुकेंगे भी नहीं। अब नदी तुम्हारे कंठ तक आने से रही, तुम्हें झुकना होगा। तुम्हें
हाथ की अंजुली बनानी होगी। तुम्हें नदी के सामने झुकना होगा। तो नदी राजी है
तुम्हें तृप्त करने को।
इसलिए
पूरब के देशों में, जहां
कि गुरु का परम तत्त्व खोजा गया. . . पश्चिम में गुरु जैसी कोई चीज नहीं है।
पश्चिम इन अर्थों में दीन है, दरिद्र
है। पश्चिम में ज्यादा से ज्यादा अध्यापक होता है, विद्यार्थी होता है, गुरु जैसी कोई चीज नहीं होती।
पश्चिम की भाषाओं में गुरु शब्द के लिए कोई शब्द भी नहीं है। ज्ञान लिया-दिया जाता
है तो विद्यार्थी-अध्यापक के बीच हो जाता है। लेकिन यह ज्ञान का लेन-देन नहीं है।
गुरु और शिष्य में बड़ा फर्क है--अध्यापक और विद्यार्थी से। अध्यापक सूचनाएं देता
है विद्यार्थी को,
नक्शे
देता है,
जानकारियां
देता है। गुरु जानकारी नहीं देता, अपना
अनुभव देता है,
अपने
प्राण उंडेलता है;
अपने
को उंडेलता है। यह दान बड़ा भिन्न है। इसलिए विद्यार्थी को तो कोई झुकने की जरूरत
नहीं है अध्यापक के सामने। इसलिए पश्चिम में चरण छूने का रिवाज पैदा नहीं हुआ; किसी के सामने झुकने की बात
ही नहीं उठती। फिर विद्यार्थी क्यों झुके? फीस चुका देता है, बात खत्म हो गयी। हमने फीस दे
दी, तुमने जानकारी दे दी, नमस्कार! बात यहां समाप्त हो
गयी। लेकिन इस देश में इतने से काम नहीं हल होनेवाला। अनिवार्य शर्त है अस्तित्वगत
ज्ञान को पीने की कि झुको। शिष्य का अर्थ हैः जो झुका; जो झुकने को राजी है; जो समर्पित है।
यातें
मोहि पियारि लागति, लैकरी
सीस धरी।
मन-भुजंग
अरु पंच नागनी सूंघत तुरंत मरी।। **त्र्!)ध्****त्र्!)इ१४)१०**
और
चमत्कार हुआ। जैसे ही मैं झुका और मैंने गुरु को अपने सिर पर लिया और मैंने अपने
पलक-पांवड़े बिछा दिए और मैंने अपने हृदय के द्वार खोल दिए और कहा कि आओ, न कोई प्रश्न उठाया, न कोई संदेह खड़ा किया, श्रद्धापूर्वक गहनतम प्राणों
से एक ही बात कही--हां! राजी हूं! बस यह बात कहते ही चमत्कार घट जाता है।
मन-भुजंग
अरु पंच नागनी,
सूंघत
तुरत मरी।
और
जैसे ही यह सुवास गुरु की मेरे भीतर पहुंची और मैं राजी हुआ गुरु की बात के लिए, मौन हुआ, शांत हुआ, ध्यानस्थ हुआ, अंतर्यात्रा पर चला, उनके हाथ में अपना हाथ दिया, वे जहर भी पिलाएं तो अमृत
मानकर पिया. . .
मन-भुजंग
अरु पंच नागनी,
सूंघत
तुरत मरी।
वह मन
का जो भुजंग था,
सांप, और वह जो पांच इंद्रियों की
नागनियां थीं,
जिन्होंने
सारा रास रचाया हुआ था, मन के
चारों तरफ नाचती थीं, वे
तत्क्षण मर गयीं,
तत्काल
मर गयीं!
झुकने
की कला. . . झुकने में अहंकर मर जाता है। अहंकर रीढ़ है मन की। रीढ़ टूट जाती है। और
जो झुकता है उसके भीतर जीवन-ऊर्जा गुरु की प्रवाहित होती है। जैसे ही जीवन-ऊर्जा
प्रवाहित होती है,
जैसे
बाढ़ आ जाए और सब कूड़ा-करकट वर्ष का बहा ले जाए, ऐसी ही घटना घटती है। ऐसी ही जीवन की धारा
है; जो झुकते हैं उनको स्वच्छ कर
जाती है।
मन-भुजंग
अरु पंच नागनी,
सूंघत
तुरत मरी।
डायनि
एक खात सब जग कौं सौ भी देख डरी।।
और वह
जो एक डायनि है,
जो
सारे जगत् को खा रही है. . . कौन-सी डायिनी? आत्म-अज्ञान। अविद्या। बौद्धों की भाषा में
कहें--तृष्णा। वह जो अज्ञान है--इस बात का बोध नहीं कि मैं कौन हूं--वही तो भटका
रहा है। पता नहीं कि मैं कौन हूं, तो हम
द्वार-द्वार भीख मांग रहे हैं--शायद यहां पता चल जाए, शायद वहां पता चल जाए। जैसे
ही चित्त स्वच्छ होता है, शांत
होता है,
तत्क्षण
स्मरण आता है कि मैं कौन हूं--आत्मबोध! डायिनी है आत्म-अज्ञान। और आत्म-अज्ञान से
वासना उठती है,
तृष्णा
उठती है;
वे सब
उसके ही फल-फूल हैं। जैसे ही गुरु की धारा प्रविष्ट होती है, जैसे ही उसकी ज्योति तुम्हारे
बुझे दीए को जलाती है, तो
भीतर सब रोशन हो उठता है, अहंकार
विदा हो जाता है।
डायनि
एक खात सब जग कौं सौ भी देख डरी।
डायन
भी भाग खड़ी होती है।
विविध
विकार ताप तनि भागी. . .
छोड़
दिए सब जाल,
जो
तुम्हारे ऊपर फैला रखे थे--त्रिविध--तुम्हारे शरीर पर, तुम्हारे मन पर, तुम्हारी आत्मा पर, जो सब तरह की जंजीरें फैला
रखी थीं वे टूट गयीं एक क्षण में!
विविध
विकार ताप तनि भागी दुरमति सकल हरी।
और उसी
क्षण में सारी दुर्बुद्धि ऐसे विदा हो गयी जैसे दीए के जलने पर अंधेरा विदा हो
जाता है।
ताकौ
गुन सुनि मीच पलाई, और कवन
बपुरी।
सुंदरदास
कहते हैंः अब तो मैं सोचता हूं, बेचारी
कहां गयी?
आंखें
बंद करके ऐसी भागी कि अब मैं तलाशता हूं तो भी पा नहीं पाता। जैसे तुम दीया जलाकर
अंधेरे को तलाशो,
कहीं
पाओगे?
ऐसे ही
आत्मज्ञान का दीया जले तो कहां अविद्या, कहां अज्ञान!
लेकिन
खयाल रखना,
फिर
तुम्हें याद दिला दूं। अकसर ऐसा हो जाता है, तुम अज्ञान से भरे हो तो तुम सोचते होः उधार
ज्ञान से अज्ञान को मिटाने में सफल हो जाएंगे! तो कंठस्थ कर लें वेद, कुरान, बाइबिल। ज्ञान से भर जाओगे, अज्ञान नहीं मिटेगा! यह ज्ञान
कूड़ा-करकट ही है। यह ऐसे ही है जैसे अंधेरे घर में तुमने सब जगह दीए की तस्वीरें
टांग दीं! इससे कुछ रोशनी नहीं होगी, किसको धोखा दे रहे हो?
चीन
में एक सम्राट् हुआ। वह अपने राज्य की सील-मोहर बनवाना चाहता था। उसे मुर्गों से
बड़ा लगाव था। मुर्गों की तरह अहंकारी वह खुद भी था। मुर्गे की देखी चाल, कैसे अकड़ कर कलगी उठाकर चलता
है! कैसी बांग देता है! इसी अकड़ में होता है कि न मैं बांग दूंगा न सूरज निकलेगा।
उसने कहा कि एक शानदार मुर्गे की तस्वीर बनायी जाए, लेकिन तस्वीर ऐसी होनी चाहिए
कि जिंदा हो! बहुत चित्रकारों ने बनायी। बड़ा पुरस्कार मिलनेवाला था। सम्राट् को
बहुत-सी तस्वीरें जंची भी। लेकिन एक बूढ़े चित्रकार को उसने निर्णायक रखा था। वह
इनकार करता जाए कि नहीं यह भी नहीं, कि यह भी नहीं। वर्षों बीतने लगे। सम्राट्
ने कहा,
यह
तस्वीर बन ही न पाएगी। इतनी सुंदर तस्वीरें आती हैं, तुम बस कह देते हो यह भी
नहीं। तुम्हारी कसौटी क्या है? कब तुम
हां भरोगे?
उसने
कहाः कसौटी एक है। आज मैं दिखाऊंगा।
वह ले
गया मुर्गों की जितनी तस्वीरें आयी थीं, सब उसने कमरे में रख दीं और फिर एक मुर्गे
को भीतर लाया गया। उस मुर्गे ने ध्यान ही नहीं दिया उन तस्वीरों पर। उसने कहा, जब तक यह मुर्गा ध्यान न दे, जब तक यह मुर्गा स्वीकार न
करे कि हां,
जब तक
यह मुर्गा ठिठक कर खड़ा न हो जाए, जब तक
यह मुर्गा न डर जाए कि दूसरा मुर्गा मौजूद है--तब तक तस्वीर सही नहीं है।
मगर
आखिर यह तस्वीर भी आ गयी, जो
उसने स्वीकार की। सम्राट् ने कहाः मैं देखना चाहूंगा मुर्गे की पहचान, जो तुम बताते थे। तस्वीर भीतर
रखी गयी,
मुर्गे
को अंदर ले जाया गया, वह
देहली पर खड़ा हो गया। तस्वीर उसने देखी और भागने की कोशिश की। उसे भीतर लाया जाए, वह भीतर न आए। उस चित्रकार ने
कहा कि अब मानता हूं कि यह तस्वीर जिंदा है। मुर्गे ने प्रमाण-पत्र दे दिया। अब
मुर्गा कह रहा है कि मुझे डर लग रहा है। यह बड़ा बलशाली मुर्गा खड़ा हुआ है अंदर।
यह भी
हो सकता है कि मुर्गा भी तस्वीर से धोखा खा जाए। लेकिन अंधेरा तो नहीं खाएगा
तस्वीर से धोखा। आदमी धोखा खा सकता है, मुर्गा भी धोखा खा सकता है। आदमी धोखा खा
जाता है तो बेचारे मुर्गे की क्या बिसात! लेकिन अंधेरा धोखा नहीं खा सकता। दीए की
तो बात छोड़ो,
तुम
सूरज की तस्वीर टांग दो, तो भी
अंधेरा भाग नहीं जाएगा। अंधेरा तो प्रकाश ही हो तो भागता है।
और
तुमने ज्ञान के नाम पर यही किया है, तस्वीरें टांग ली हैं।
सुंदर
तस्वीरें हैं! उपनिषद के प्यारे वचन हैं, कि धम्मपद के वचन हैं। अद्भुत वचन हैं!
जाननेवालों ने कहे हैं। मगर वचन वचन हैं। जाननेवाला भी कहे दीया, तो भी दीया शब्द ही है, उससे रोशनी नहीं हो जाएगी।
तुम्हें तो किसी जलते दीए के पास जाना ही पड़ेगा, जाना ही पड़ेगा।
धर्म
उसी दिन मर जाते हैं जिस दिन गुरु की महिमा से ज्यादा शास्त्र की महिमा हो जाती
है। सिक्ख धर्म उसी दिन मर गया, जिस
दिन गुरुग्रंथ पर पूर्ण विराम लगा दिया गया और कहा कि बस अब गुरु नहीं होंगे, अब ग्रंथ ही गुरु होगा। उसी
दिन सिक्ख धर्म मर गया! तब तक जिंदा था। जब तक गुरु थे तब तक जिंदा था। जब गुरु की
जगह किताब ने ले ली तो मर गया। जब तक जैनों के तीर्थंकर होते रहे तब तक जिंदा था।
जब जैनों ने कहा कि बस चौबीसवां तीर्थंकर अंतिम है, अब कोई पच्चीसवां तीर्थंकर
नहीं होगा,
अब कोई
जरूरत नहीं है,
अब हम
किताब से ही काम चला लेंगे--बस उसी दिन से रोशनी बुझ गयी। उस दिन से अंधेरा ही
अंधेरा है। खयाल रखना इस बात का।
मुसलमानों
ने कह दिया कि बस मुहम्मद आखिरी पैगंबर, अब कोई पैगंबर नहीं होगा--उसी दिन से अंधकार
हो गया। अगर रोशनी जिलाए रखनी है तो तुम्हें यह अंगीकार करना होगा कि गुरु आते
रहें, आते रहेंगे। तीर्थंकर होते
रहें, अवतार होते रहें, दीए जलते रहें। दीए जलते ही
रहते हैं,
तुम्हारे
इनकार करने से बुझ नहीं जाते; सिर्फ
तुम वंचित हो जाते हो, सिर्फ
तुम चूकते हो।
ताकौ
गुन सुनि मीच पलाई. . .
जैसे
ही दीए से रोशनी प्रकट होती है कि दुर्मति भाग जाती है। अज्ञान कहां भाग जाता है, पता नहीं चलता। सुंदरदास कहते
हैंः और कवन बपुरी। कहां भाग गयी बेचारी? खोजता हूं, पाता नहीं हूं।
और जिस
प्रकाश की हम बात कर रहे हैं उस प्रकाश के सामने इस सूरज का प्रकाश कुछ भी नहीं।
और जिस दीए की हम बात कर रहे हैं उस दीए के समक्ष हजारों सूरज भी फीके हैं।
सूरज
की पहली किरन खुशनुमा सही
लेकिन
तेरी नज़र की तरह दिलनशी कहां?
गुरु
की नजर जब प्रवेश करती है तो उसकी नजर के पीछे-पीछे ही परमात्मा की नजर भी तुममें
प्रवेश कर जाती है। इसलिए गुरु को परमात्मा कहा! इतने समादर से पुकारा।
कबीर
ने तो कहाः गुरु गोविंद दोई खड़े, काके
लागूं पांव। कहा कि बड़ी मुश्किल में पड़ा हूं, दोनों सामने खड़े हैं, किसके पहले पैर लगूं! इतना सम्मान!
इतना समादर कि गुरु के पहले पैर लगूं कि परमात्मा के पहले पैर लगूं! कहीं ऐसा न हो
कि परमात्मा के पैर छूंऊं पहले तो गुरु का अनादर हो जाए! इसी किरण के सहारे तो
सूरज मिला है। इसी द्वार से तो परमात्मा प्रकट हुआ। यही हाथ तो ले आए इस अनंत की
यात्रा तक।
निसबासर
नाहिं ताहि बिसारत पल छिन आध घरी।
सुंदरदास
भयो घट निरविष सब ही व्याधि टरी।।
अब तो
निसबासर नाहिं ताहि बिसारत. . . अब तो एक क्षण को भी भूलना नहीं होता। अब तो उसकी
याद ही याद बनी रहती है। अब तो सुरति जगी ही रहती है।
समझे
थे हम तो "मीर' को
आशिक उसी घड़ी।
जब
तेरा नाम सुन के वो बेताब हो गया।।
आशिक
तो याद करता है,
प्रेमी
याद करता है,
भक्त
स्मरण से भरा रहता है।
सब्र
मुश्किल है आरजू बेताब।
क्या
करें आशिकी में क्या न करें।।
बड़ी
मुश्किल होती है भक्त की--क्या करें क्या न करें।
सब्र
मुश्किल है आरजू बेताब! आकांक्षा पुकारती है कि और-और। अभीप्सा कहती है और-और।
अनुभव कहता हैः और डूबो, और
पुकारो,
और याद
करो। जितना रस बहता है उतनी रसाकांक्षा पैदा होती है। भुलाना भी चाहो तो फिर
भुलाया नहीं जा सकता। अभी तो याद भी करना चाहते हो तो भूल-भूल जाते हो।
तुमने
देखा, कभी बैठे घड़ी-दो-घड़ी एकांत
में प्रभु-स्मरण करने? घड़ी-दो-घड़ी
तो बहुत दूर की बात है, पल-दो-पल
भी याद नहीं कर पाते, कुछ
दूसरी यादें आ जाती हैं। मन संयोग से चलता है। तुम बैठे, आंख बंद की, सोचा भगवान् की याद करें, याद आ गयी भगवानदास सर्राफ की
दुकान,
कि वे
जो उधार रुपए ले आए थे, वे
चुकाने हैं। फिर झकझोरा, फिर
याद की भगवान् की,
फिर
कुछ और याद आ गया। याद ही आता जाता है। कुछ का कुछ! मन यहां-वहां भागता है।
गुरजिएफ
अपने शिष्यों को कहता थाः हाथ की घड़ी सामने रख लो और जो सेकंड का कांटा होता है इस
पर नजर रखो। और इतना ही खयाल रखो कि मैं सेकंड के कांटे को देख रहा हूं, देख रहा हूं, देख रहा हूं। अगर तुम एक मिनट
भी पूरा याद रख पाओ, साठ
सेकंड,
तो तुम
सौभाग्यशाली हो। और अकसर ऐसा होता था कि साठ सेकंड भी कोई शिष्य याद नहीं रख पाता
था, जो नया-नया आता था। तुम भी
कोशिश करना। तुम चकित हो जाओगे, साठ
सेकंड इतनी-सी याद नहीं रहती। ऐसी कमजोर याद्दाश्त है। इतनी-सी बात कि मैं सेकंड
के कांटे को देख रहा हूं और कुछ याद न करूंगा, सेकंड के कांटे को भूलूंगा नहीं! बस
पांच-सात सेकंड भी याद रख लो तो बहुत। पांच-सात सेकंड में गए तुम, भागे, कुछ का कुछ आ गया। घड़ी देखकर
न मालूम कितने घड़ियाल याद आ जाएंगे। जब तुम फिर दुबारा याद करोगे, पाओगे सेकंड का कांटा, कई सेकंड सरक गया, इस बीच तुम खो गए थे। इस बीच
तुम्हारे मन में कोई विचार एक मेघ की तरह आ गया और छा गया। तुम किसी अंधेरे में
डूब गए थे। यह तो गुरु का परस न हो, यह तो पारस-पत्थर से थोड़ा संस्पर्श न हो
जाए. . . तो तुम निसबासर तो कैसे याद करोगे? पल-दो-पल भी याद करना मुश्किल है।
इक बार
तुझे अक्ल ने चाहा था भुलाना।
सौ बार
जुनूं ने तेरी तस्वीर दिखा दी।।
लेकिन
परस हो जाए,
तो फिर
अगर अक्ल भुलाना भी चाहे, अक्ल
कहे भी कि छोड़ो भी, किस
झंझट में पड़े हो,
तो भी
कुछ काम नहीं आती अक्ल।
इक बार
तुझे अक्ल ने चाहा था भुलाना।
सौ बार
जुनूं ने तेरी तस्वीर दिखा दी।।
लेकिन
तब एक दीवानापन पैदा होता है और दीवानापन तस्वीर दिखाए जाता है। अक्ल भुलाना भी
चाहे, अक्ल कहे भी कि बंद करो यह
बात, अभी और बहुत काम संसार के
करने हैं,
अभी धन
कमाना है,
पद
कमाना है,
अभी
कहां उलझे हो राम-नाम में; अभी तो
तुम जवान हो,
ये तो
बुढ़ापे की बातें हैं--मगर फिर कुछ हल नहीं! एक बार किसी जिंदा गुरु ने तुम्हारी
आंखों में झांका हो और एक बार किसी जिंदा गुरु के सामने तुम झुके होओ, उसकी जीवन-ऊर्जा तुममें ज़रा
भी बही हो,
तुम्हारा
कूड़ा-करकट थोड़ा भी हटा हो, थोड़ी
भी झलक मिली हो,
तो फिर
ठहर गयी बात। तुम भुलाना भी चाहो तो भुला ना सकोगे।
नफ़स-नफ़स
में फुगां है नज़र-नज़र में हिरास।
फिर तो
श्वास-श्वास में समा जाती है बात।
नफ़स-नफ़स
में फुगां है,
नज़र-नज़र
में हिरास।
कुछ और
दिन यही हालत रही तो क्या होगा।
फिर तो
बुद्धि कहने लगती हैः बचो, यह तुम
क्या कर रहे हो,
दीवाने
हुए जा रहे हो! पागल हुए जा रहे हो! अगर यही हालत कुछ दिन और रही तो क्या होगा? लेकिन फिर बचने का कोई उपाय
नहीं! बुद्धि कहते-कहते थक जाती है और चुप हो जाती है।
कुछ ये
लगता है तेरे साथ ही गुजरा वो भी
हमने
जो वक्त तेरे साथ गुजारा ही नहीं।
फिर तो
ऐसा लगने लगता है कि चाहे परमात्मा की याद आए न आए, ऊपर-ऊपर से चाहे दूसरे काम
करते रहो. . .
कुछ ये
लगता है तेरे साथ ही गुजरा वो भी
हमने
जो वक्त तेरे साथ गुजारा ही नहीं।
फिर
बाजार में बैठो,
दुकान
में बैठो--और तुम मंदिर में हो। फिर तो ऐसा लगने लगता है कि तेरी याद करें, या न करें याद बहती ही रहती
है, सतत बहती रहती है। उसकी
अंतर्धारा चलती रहती है। ऊपर-ऊपर काम चलते रहते हैं। ऊपर-ऊपर अभिनय चलता रहता है।
ऊपर-ऊपर सब नाटक का खेल चलता रहता है और नीचे परमात्मा को याद सरकती रहती है।
गुजारी
मैंने सारी रात ये कहकर वो अब आए।
ज़रा ऐ
चश्मेत्तर थमना ज़रा-ऐ दिल, जिगर
रहना।।
हे
आंसुओं से भरी हुई आंख, ज़रा
ठहर। ज़रा आंसू रोक! वे आए वे आए!
हसीद
फकीर झुसिया उठ-उठ कर बार-बार बाहर आ जाता था अपने दरवाजे पर, दरवाजे खोल लेता था, खिड़की खोल लेता था, बीच-बीच में सत्संग चलता।
कहताः रुको। लोग पूछतेः कहां जा रहे हो? वह कहता, शायद वह आए, शायद अपने शिष्यों को जगाकर
बिठा देता था कि अगर उनका आना हो तो ऐसा न हो कि मेरी नींद रह जाए, मुझे जल्दी से उठा देना!
गुजारी
मैंने सारी रात ये कहकर वो अब आए।
ज़रा ऐ
चश्मेत्तर थमना ज़रा-ऐ दिल, जिगर
रहना।।
उनका
ज़िक्र,
उनकी
तमन्ना,
उनकी
याद।
वक्त
कितना कीमती है इन दिनों।।
और जब
यह याद सघन होने लगती है तो तुम्हारे समय में पहली दफा मूल्य पड़ता है।
उनका
ज़िक्र,
उनकी
तमन्ना,
उनकी
याद।
वक्त
कितना कीमती है इन दिनों।।
जब तक
परमात्मा का स्मरण नहीं बैठ रहा है तुम्हारे भीतर तब तक तुम जो भी कर रहे हो, सब व्यर्थ है। जितने जल्दी
जाग जाओ,
उतना
अच्छा!
दिल के
लिए हयात का पैगाम बन गयीं।
बेताबियां
सिमट के तेरा नाम बन गयीं।।
जब तक
तुम्हारी सारी बेताबियां और सारी आकांक्षाएं सिमटकर उसके नाम पर न लग जाएं, उसका नाम न बन जाएं, ढाल लो उसकी याद को--अपनी
श्वास-श्वास से,
अपने
हृदय की धड़कन-धड़कन से! जिस क्षण भी तुम्हारी सारी श्वासें और धड़कनें उसके प्रति
आरोपित समर्पित होती हैं, उस
आरोहण पर निकलती हैं, उसी
क्षण घटना घट जाएगी।
निसबासर
नहिं ताहि बिसारत,
पल छिन
आध घरी।
सुंदरदास
भयो घट निरविष,
सबहि
व्याधि टरी।।
उसकी
इस याद में ही याद करते-करते ही यह सारा घड़ा जो कल तक विष से भरा था, निरविष हो गया है। उसकी याद
ही करते-करते विष हट गया, अमृत
भर गया है।
यही
ज़िंदगी मुसीबत,
यही
ज़िंदगी मसर्रत।
यही
ज़िंदगी हक़ीक़त,
यही
ज़िंदगी फसाना।।
सब
तुम्हारे हाथ में है। अकेले हो, अंधेरे
में हो। उसका हाथ गह लो, चल पड़
रोशनी के पथ पर। अकेले कमजोर हो, नाकुछ
हो। उसके साथ सब कुछ संभव है--असंभव भी संभव है! परमात्मा के साथ अपने को जोड़ो; वही हमारा मूल है। उसके साथ
जुड़ते ही हमारी वही दशा हो जाती है जो वृक्ष की जड़ें जब जमीन को जोर से पकड़ लेती
हैं तब वृक्ष का हरा हो जाना। और एक वृक्ष की दशा है कि कोई उखाड़ दे और टिकाकर रख
दे दीवार से,
जड़ें
उखड़ गयीं।
आदमी
परमात्मा की याद न करे तो जड़ों से उखड़ा हुआ आदमी है। उसमें न फल लगते न फूल
लगते--सिर्फ दुर्गंध उठती है, सिर्फ
सड़ांध होती है,
सिर्फ
कीचड़ मचती है।
सुंदरदास
भयौ घट निरविष,
सबहि
व्याधि टरी।
व्याधि
हमारी जिंदगी की क्या है? हम
ज्वरग्रस्त हैं। दौड़ रहे, भाग
रहे। यह मिल जाए,
वह मिल
जाए. . .। कुछ कभी मिलता भी नहीं। कुछ कभी मिला भी नहीं। मिलेगा भी नहीं। मगर एक
सन्निपात है। सन्निपात के मरीज को देखा? दिखता है उसकी खाट उड़ रही है, आकाश में जा रहा है, नीचे-ऊपर बादलों पर चढ़ रहा
है। मगर सब सन्निपात है। बुखार उतर जाएगा, न तो खाट उड़ती मिलेगी, न बादलों पर चढ़ता हुआ अपने को
पाएगा। न खाट उड़ी थी कभी, सिर्फ
सन्निपात था,
सिर्फ
बेहोशी थी। सिर्फ ज्वर इतना तेज हो गया था कि होश डगमगा गया था।
जिंदगी
क्या है मुसलसल शौक पैहम इज्तिराब।
हर कदम
पहले से तेज रखता हूं मैं।।
ज़िंदगी
क्या है?
एक
स्थायी आकांक्षा--बस दौड़े जाओ! एक वासना। जिंदगी क्या है? एक निरंतर व्याकुलता। अभी तो
नहीं हुआ,
थोड़ा
और बढ़ूं तो हो जाएगा। अभी तो नहीं मिला, थोड़ा और तेज दौड़ूं तो शायद मिल जाए।
जिंदगी
क्या है मुसलसल शौक पैहम इज्तिराब।
हर कदम
पहले से तेज़ रखता हूं मैं।।
और ऐसे
ही बुखार बढ़ता जाता है। इसी बुखार में, इसी दौड़ में, इसी गति में एक दिन हम अपनी
कब्र में गिर जाते हैं। मगर बुखार में ही मरते हैं तो फिर बुखार में जन्म हो जाता
है। बेहोश मरते हैं, फिर
किसी बेहोश गर्भ में प्रविष्ट हो जाते हैं। फिर पैदा हुए, फिर चली वही यात्रा। फिर क ख
ग से शुरू हुआ वही उपद्रव।
जागो!
ऐसे जीवन को व्यर्थ मत करो। यही जीवन की ऊर्जा परम मुक्ति बन सकती है, परम आनंद बन सकती है।
देखौ
माई आज भलौ दिन लागत!
ऐसा
दिन तुम्हारा भी आए, जब तुम
कह सको ः देखौ माई आज भलौ दिन लागत! आज भला दिन आ गया। सौभाग्य की घड़ी आ गयी!
कौन-सी घड़ी सौभाग्य की घड़ी है?
बरिषा
रितु कौ आगम आयौ,
बैठि
मलारहिं रागत।।
रामनाम
के बादल उनए,
घोरि
घोरि रस पागत।
तन मन
मांहि भई शीतलता,
गए
बिकार जु दागत।।
जा
कारन हम फिरत बिवोगी, निशिदिन
उठि-उठि जागत।
सुंदरदास
दयाल भए प्रभु सोइ दियौ जोइ मांगत।।
जो
मांगा था जन्मों-जन्मों में, मिल
गया! जो चाहा था अनंत-अनंत रूपों में, मिल गया। भर गया हृदय। प्यासी धरती तृप्त हो
गयी। मेघ आए और वर्षा कर गए।
देखौ
माई आज भलौ दिन लागत।
और दिन
वही है,
कल ही
जैसा दिन है,
मगर आज
भला लगता है। परमात्मा के हाथ में हाथ पड़ गया तो नरक भी स्वर्ग हो जाता है
तत्क्षण! और तुम अकेले स्वर्ग में भी रहो, परमात्मा के बिना, तो नरक में ही रहोगे!
देखौ
माई आज भलौ दिन लागत
बरिषा
रितु को आगम आयो. . .
आ गयी
घड़ी वर्षा की,
घिर गए
मेघ, अब और प्यासे न रहना होगा।. .
. बैठि मलारहिं रागत! अब तो बैठकर मल्हार राग गाते हैं। अब तो वीणा छेड़ दी है। अब
तो उठाते हैं अनाहद। अब तो गाते हैं, अब तो नाचते हैं। वही ऊर्जा जो क्रोध बनती
थी, गीत बन गयी। वही ऊर्जा जो काम
बनती थी,
राम बन
गयी। वही ऊर्जा जो जीवन की आपाधापी थी, संगीत बन गयी।
बैठ
मलारहिं रागत. . .। अब तो वर्षा के बादल घिर गए, अब तो मल्हार से स्वागत करें।
अब तो गाएं और नाचें और गुनगुनाएं! अहोभाग्य की घड़ी आ गयी।
राम
नाम के बादल उनए. . .। कौन-से बादल घने हो गए हैं, कौन-से बादल आ गए? रामनाम के बादल!
यह एक
बहुत आंतरिक घटना की ओर इशारा है। समझना। एक तो तुम्हारा राम-राम का स्मरण है, वह तुम्हारा ही है; वह कुछ बहुत काम का नहीं है।
लेकिन एक जैसी घड़ी है जब तुम चुप होते हो, बिल्कुल चुप होते हो, राम-राम भी नहीं जपते, क्योंकि जप भी विचार है--अजपा
अवस्था में होते हो, जाप भी
चला गया;
वह भी
मन का ही रोग था;
वह भी
मन का ही बुखार था। मन बकवासी है। कुछ-न-कुछ बकवास चाहिए। गाली न बको तो मंत्र जपो, मगर कुछ-न-कुछ बकवास चाहिए।
सब गया! रेख भी न बची बकवास की। अब मंत्र का उच्चार भी नहीं है भीतर। अजपा की
स्थिति आ गयी। मन मौन है। बस उसी क्षण. . .
रामनाम
के बादल उनए! उसी क्षण मंत्र तुम्हें पुकारने नहीं पड़ते, मंत्र तुम पर बरसते हैं।
ओंकार का नाद अपने-आप उठता है। तुम सुननेवाले होते हो। तुम साक्षी होते हो। ऐसा
नहीं कि तुम दोहरा रहे हो--बजता है नाद! बज रहा है नाद। मौन में सुन लिया जाता है, पकड़ लिया जाता है। तुम्हारा
मन जब तक ऊहापोह से भरा है, शोरगुल
से भरा है,
सुनायी
नहीं पड़ता! संगीत सूक्ष्म है!
रामनाम
के बादल उनए,
इसका
अर्थ हैः तुम नहीं कर रहे हो रामनाम का स्मरण अब। अब तो बिल्कुल चुप हो, तुम तो खाली पात्र की तरह
बैठे हो,
शून्य।
जब तुम शून्य पात्र की तरह बैठे होते हो, रामनाम की वर्षा होती है, रामनाम के मेघ घिरते हैं।
समाधि बरसती है। जैसे मेघ आकाश में घिरते हैं और पृथ्वी पर वर्षा होती है, ऐसे ही उस अनंत के आकाश में
समाधि के मेघ घिरते हैं। बुद्ध ने तो उस समाधि को नाम ही दिया--मेघ समाधि!
रामनाम
के बादल उनए घोरि घोरि रस पागत।
और ऐसा
रस बरस रहा है,
एक-एक
बूंद रस में पगी है! एक-एक बूंद अमरस से भरी है।
हमारैं
गुरु दीनी एक जरी
कहा
कहूं कछु कहत न आवै, अमृतरसहिं
भरी!
तन मन
माहिं भइ शीतलता!
सब
शीतल हो गया! भीतर शून्य हो जाए तो सब शीतल हो जाता है। यह सारा उत्ताप मन का और
तन का है,
ये
सारी बेचैनियां,
बेताबियां, अशांतियां, ये वासनाएं, कामनाएं, एषणाएं ये तृष्णाएं सब शांत
हो जाती हैं। यह सब ज्वर है।
तन-मन
माहिं भई शीतलता,
गए
बिकार जु दागत।
जिन्होंने
जाना है उन्होंने दो तरह की समाधि की बात की है--एक सबीज समाधि, एक निर्बीज समाधि! आदमी
चेष्टा से मिलती है, वह
सबीज समाधि;
उसमें
बीज तो रह ही जाते हैं, और बीज
रह जाएं तो खतरा है। फिर कभी मौका आकर अंकुर हो जाएंगे। आदमी की चेष्टा सबीज समाधि
के पार नहीं ले जाती। निर्बीज समाधि का अर्थ है जहां बीज भी दग्ध हो गया। वह तो
उसकी कृपा से ही होता है। वह तो जब वही बरसता है तभी होता है।
गए
बिकार जु दागत! जल गए, सारे
विकार जल गए,
जब
उनके लौटने का कोई उपाय ही न रहा। बीज जल गए, अब अंकुरित नहीं हो सकते।
और इसी
के लिए तो हम जन्मों-जन्मों से वियोगी बने घूम रहे थे!
जा
कारनि हम फिरत बिवोगी, निशिदिनी
उठि-उठि जागत।
और
जिसके लिए हम रात-रात जाग-जाग कर उठ-उठ कर चेष्टा करते रहे थे!
सुंदरदास
दयाल भए प्रभु,
सोई
दियौ जोइ मांगत।।
हमारे
मांगने-मांगने खोजने-खोजने से नहीं मिला था, वह आज परमात्मा की सिर्फ कृपा से मिला है।
भक्त
का अनुभव यह हैः प्रयास से नहीं मिलता, प्रसाद से मिलता है। और इसका यह अर्थ नहीं
है कि प्रयास मत करना। प्रयास तो पूरा कर लेना! जब तुम्हारा प्रयास पूरा हो जाता
है और थककर तुम गिर जाते हो, उस
क्षण प्रसाद की वर्षा होती है।
देखो
माई आज भलौ दिन लागत।
"प्रसाद' शब्द को स्मरण रखो! भक्ति के
शास्त्र में प्रसाद का अर्थ हैः हमारी चेष्टा से नहीं, उसकी अनुकंपा से, उसकी कृपा से। वह रहीम है, वह रहमान है।
गुनाह
गिन के क्यों मैं अपने दिल को छोटा करूं।
सुना
है तेरे करम का कोई हिसाब नहीं।।
भक्त
कहता हैः मैं क्या गिनती करूं अपने गुनाहों की, यूं तो बहुत किए हैं, मगर गिनती भी क्या करूं, मेरी गिनती छोटी ही होगी!
मैंने जितने गुनाह किए हैं, उनका
क्या मूल्य?
तेरी
अनुकंपा के सामने?
तेरा
करम है। तू करीम है।
गुनाह
गिन के क्यों मैं अपने दिल को छोटा करूं।
सुना
है तेरे करम का कोई हिसाब नहीं।।
तो
कितने ही गुनाह किए हों मैंने और कितना ही कूड़ा-करकट इकट्ठा कर लिया हो, लेकिन तेरी बाढ़ जब आएगी. . .
सुना है तेरे करम का कोई हिसाब नहीं. . . तो तू सब बहा ले जाएगा।
वह
फर्क समझ लेना! योगी कहता हैः हमें चेष्टा करनी होगी, एक-एक कर्म को काटना होगा।
जितने बुरे कर्म किए हैं, उनके
ठीक मुकाबले तराजू पर दूसरी तरफ दूसरे पलड़े पर अच्छे कर्म करने पड़ेंगे। पाप को
पुण्य से काटेंगे,
तब
कहीं सिद्धि होगी। भक्त कहता हैः अगर हम पाप से पुण्य को काटते रहे तो सिद्धि शायद
कभी न होगी,
हमारे
पाप इतने हैं,
हमारे
गुनाह इतने हैं! और जिससे इतने गुनाह हुए हैं, वह कैसे पुण्य करेगा? उसके पुण्य में भी गुनाह की
छाया होगी! उसके पुण्य में भी पाप का ज़हर होगा!
समझो, एक आदमी ने खूब पाप किया!
चोरी की,
चपाटी
की, शोषण किया, किसी तरह रुपया इकट्ठा कर
लिया, अब घबड़ाया, कि अब यह रुपए का पाप इतना कर
लिया, इतना गुनाह कर लिया, चलो मंदिर बनवा दो। लेकिन पाप
से मंदिर बनेगा। मंदिर बनेगा कैसे? सोचो कि चलो धन का दान कर दें, मगर दान, चोरी से पैदा हो रहा है दान।
चोरी से कहीं दान पैदा हो सकता है!
एक
क्रोधी आदमी कसम खा लेता है कि अब मैं क्रोध नहीं करूंगा। उसकी कसम में भी क्रोध
होता है। वह क्रोध में ही कसम खा लेता है। इस बात को समझना।
आदमी
अज्ञानी है। वह जो भी करेगा, उसमें
उसके अज्ञान की छाया तो पड़ेगी। हमसे पुण्य कैसे हो पाएंगे? भक्त का कहना यह है कि हमारे
किए तो जो भी होगा पाप ही होगा। हमारा किया है तो पाप होगा। क्योंकि अहंकार मौजूद
रहेगा। मैंने किया! मेरा उपवास, मेरा
व्रत, मेरा त्याग! और अहंकार विष
है।
नहीं; हमारे किए कुछ भी न होगा। हम
असहाय हैं। उसके किए होगा। उसकी मर्जी पूरी होगी! हम इतना ही कर सकते हैं कि छोड़
दें अपने को उसके साथ, उसके
बहाव में,
उसकी
रौ में बह जाएं उसकी लहर में। जहां ले जाए उसकी गंगा। जहां डुबाए तो डूबें और
उबारे तो उबरें। ऐसा समर्पण हो तो प्रसाद की वर्षा होती है।
ऐसे
भक्त डूबता है और डूबकर जाता है। गिरता है असहाय होकर और परम सहायता उसे उपलब्ध हो
जाती है। ऐसे भक्त बेहोशी में डगमगाता है; और ज्ञानियों के होश को भी मात कर दे, ऐसे होश पा लेता है।
खोया
हुआ सा रहता हूं अकसर मैं इश्क में।
या यूं
कहो कि होश में आने लगा हूं मैं।।
उसकी
बेहोशी में होश का दीया है। उसके लड़खड़ाने में भी गहरी सावधानी है। उसके गिरने में
भी उठना है।
भक्त
एक विरोधाभास है। वह बिना पाए पाता है। बिना पाने की चेष्टा किए पाता है।
जा
कारनि हम फिरत बिवोगी. . . जिसके लिए हम जन्मों-जन्मों तक वियोगी बने घूमते रहे और
न पा सके. . . निसदिन उठि-उठि जागत। जिसके लिए हम कितनी चेष्टा करते रहे, उठ-उठ कर जाग-जाग कर और नहीं
पाया।
सुंदरदास
दयाल भए प्रभु,
सोइ
दियौ जोइ मांगत।।
जो
मांगा था,
सब दे
दिया। सब मिल गया।
देखौ
माई आज भलौ दिन लागत।
ऐसा
भला दिन तुम्हारा भी आए! आ सकता है। आज का दिन भी भला दिन हो सकता है, क्योंकि सभी दिन भले हैं। जिस
दिन लगे उसी दिन भला। जिस दिन अहंकार समर्पित किया, उसी दिन प्रसाद बरसा।
देखौ
माई आज भलौ दिन लागत!
बरिषा
रितु को आगम आयौ,
बैठि
मलारहिं रागत!
तुमने
अपना मल्हार अब तक गाया नहीं। अब तक तुमने अपना संगीत जमाया नहीं। अब तक तुम नाचे
नहीं। नाचो भी कैसे? नाचो
भी किसलिए?
कोई
कारण भी तो दिखाई नहीं पड़ता। शुभ घड़ी ही नहीं आयी। परमात्मा को पाए बिना कोई नाच
ही नहीं सकता। यही तो फर्क है।
मीरां
नाची--परमात्मा को पाकर नाची! नर्तकियां नाचती हैं, लेकिन नर्तकियों के नृत्य में
और मीरां के नृत्य में भेद है। नर्तकियों का नृत्य ऊपर-ऊपर है, किसी हेतु से है, किसी प्रलोभन से है। कला होगी, मगर उनका प्राण नहीं है।
मीरां प्राण से नाची। पाकर नाची! विभोर हो गयी। स्वभावतः कृतज्ञता जगी, धन्यवाद का भाव उठा!
देखौ
माई आज भलौ दिन लागत!
बरिषा
रितु कौ आगम आयौ,
बैठि
मलारहिं रागत।।
रामनाम
के बादल उनए,
घोरि
रस पागत।
तन मन
माहिं भई शीतलता,
गए
बिकार जु दागत।।
जा
कारनि हम फिरत बिवोगी, निशिदिन
उठि-उठि जागत।
सुंदरदास
दयाल भए प्रभु,
सोइ
दियौ जोइ मांगत।।
आज इतना ही।
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