ज्योति से ज्योति जले-(सूंदर दास)
प्रवचन-अट्ठहरवां
प्रश्नसार:
(क्रांति मेरा नारा है)
1--आपकी
आवाज मात्र सुन कर मेरे आंसू
झरने
लगते हैं। फिर क्यों नहीं ऐसी प्रार्थना
का
जन्म होता कि प्रार्थना ही बचे, मैं
नहीं?
संसार फिर भी क्यों
उतना ही
लुभाता
है और अपनी ओर बुलाता है?
क्या
ये आंसू मगरमच्छ के ही आंसू हैं?
2--विज्ञान
के इस युग में, कहते
हैं, कविता
अपने
आखिरी दिन गिन रही है। लेकिन
आपके
प्रवचनों में प्रवाहित काव्य-गंगा को
देखकर
लगता है कि आप धर्म के साथ
कविता
को भी पुनर्जीवन देने पर तुले हैं।
बताने
की कृपा करें कि धर्म, कविता
और
विज्ञान
क्या साथ-साथ चल सकते हैं?
3--आप
अपने आश्रम को मधुशाला क्यों कहते हैं?
भगवान्!
हर दिन आप अमृत की चर्चा
करते
हो और यह दुनिया है कि आपको
जहर
लौटाती है। क्या आपको भी कभी
लगता
होगा कि किन अंधों को मैं प्रकाश
दिखाता
हूं और किन बहरों को मैं अमृत-
वाणी
सुनाता हूं?
4--प्रवचन
सुनते समय आनंद आता है और
समझ
भी आता है। थोड़ी देर बाद सब
भूल
जाता है। इस सूरत में दिए उपदेश
पर
अमल कैसे हो? राह
दिखाएं प्रभु!
पहला
प्रश्न : आपकी आवाज मात्र सुनकर मेरे आंसू झरने लगते हैं। फिर क्यों नहीं ऐसी
प्रार्थना का जन्म होता कि प्रार्थना ही बचे, मैं नहीं? संसार फिर भी क्यों उतना ही लुभाता है
और अपनी ओर बुलाता है? क्या
ये आंसू मगरमच्छ के ही आंसू हैं?
अगेह
भारती! आंसू प्रार्थना की पहली खबर हैं। आंसू आ रहे हैं तो प्रार्थना भी आती होगी।
आंसुओं
को मगरमच्छ के आंसू मत समझ बैठना, अन्यथा
वही रुकावट पड़ जाएगी। मगरमच्छ के आंसू तो तब होते हैं जब तुम जबर्दस्ती लाओ,
जब लाए जाएं, जब चेष्टा हो; जब तुम प्रयोजन से, किसी हेतु से रोओ--दिखावे के लिए। आंसू
जब अपने से आते हैं तो मगरमच्छ के नहीं होते। अपने से आए आंसू, आनेवाली प्रार्थना की पहली झलक हैं।
आंसू आ गए हैं, प्रार्थना
भी आती होगी।
ये
आंसू शुभ हैं।
इन
आंसुओं की उम्र इलाही दराज हो।
ये
आ गए तो हिज्र में कुछ दिल बहल गया।।
इस
पृथ्वी पर जब भी आंखें प्रेम या आनंद के आंसुओं से भर जाती हैं, या पृथ्वी के वासी नहीं रह जाते;
क्षणभर को तुम किसी और लोक में प्रवेश
कर जाते हो। यद्यपि क्षणभर के लिए ही होता है यह, मगर क्षणभर भी क्या कम है! और क्षण भी
ऐसे शाश्वत का ही अंग है। थोड़े पर फड़फड़ाए पक्षी ने, तो भी आकाश में थोड़ा तो उठा! इतना उठा
है तो और भी उठेगा। लेकिन इन आंसुओं की निंदा मत करना। क्योंकि जिसकी भी हम निंदा
करते हैं, वही अवरुद्ध हो जाता
है। इनका स्वागत करो।
बैठे-बिठाए
बज्म में कल रात रो पड़े।
बस
याद आ गयी थी कोई बात रो पड़े।।
सुनते
हो मुझे, कोई भूली-बिसरी याद आ
जाती होगी। शायद जन्मों-जन्मों से विस्मृति का परद पड़ा हो, लेकिन मूलतः तो हम आते परमात्मा से हैं।
वही हमारा निवास है, मूल
उद्गम है, स्रोत है। याद तो
कहीं पड़ी है; जब
मैं तुम्हें पुकारता हूं, उसी
याद पर चोट पड़ जाती होगी।
रोओ,
जी भरकर रोओ! इसमें कृपणता भी न करना।
आंसू जितने बहें उतना शुभ है। आंखें उतनी स्वच्छ हो जाएंगी--और बाहर की ही आंखें
नहीं, भीतर की आंखें भी।
आंसू दोनों को स्वच्छ करते हैं, अगर
अंतर से आएं। और अंतर से ही आते हैं, क्योंकि तुम्हारे लाए नहीं आते। मुझे सुनते हो तब आ जाते हैं।
मुझे सुनकर किसी रौ में बह जाते होओगे। कोई तरंग जगने लगती होगी। मेरी आवाज
तुम्हारे भीतर सोई हुई आवाज को जगाने लगती होगी। ज्योति से ज्योति जले!
इस
अंधेरी दुनिया में इन आंसुओं के साथ बड़ी आशा जुड़ी है।
यास
की बस्ती में इक छोटी-सी उम्मीदे-विसाल।
अजनबी
की तरह से फिरती है घबराई हुई।।
यह
तो अंधेरे की बस्ती है और निराशा की। यहां बाहर तो कुछ भी मिलने को नहीं है। यहां
तो सिर्फ एक ही बात अंकुरित हो जाए हृदय में "उम्मीदे-विसाल', परमात्मा से मिलने की आकांक्षा जग जाए
तो समझना कि जीवन सार्थक हुआ। बाजार में हंसे भी तो व्यर्थ; मंदिर में रोए भी तो सार्थक। व्यर्थ के
साथ प्रसन्न भी दिखाई पड़े, तो
व्यर्थ; सार्थक के साथ गमगीन
भी हो गए, उदास भी हो गए,
आंसुओं से भी भर गए, तो भी सार्थक।
आंसू
बड़ी संपदा हैं। अगर ठीक मार्ग पर पड़ें, तो यही बीज हैं। इन्हीं से फूल भी खिलेंगे। इन्हीं आंसुओं का
अंतिम परिणाम वे कमल हैं, जिनकी
फकीरों ने सदा बात की है--हजार पंखुड़ीवाले कमल! उनके ही ये बीज हैं।
रोना
कठिन तो मालूम होता ही है, अड़चन
तो मालूम होती ही है। और फिर, हमारे
मनों में आंसुओं का संबंध अनिवार्य रूप से दुःख से हो गया है। इस दुनिया में तो
हमारी हंसी तक दुःख से जुड़ी है। आंसुओं का तो कहना ही क्या, हमारा हंसना भी दुःख से जुड़ा है। इस
दुनिया में सभी कुछ दुःख है। यहां हमने दुःख ही जाना है। रोए हम तभी, जब पीड़ित हुए हैं। इसलिए आंसुओं की एक
और भाव-भंगिमा है जिससे हम अपरिचित रह जाते हैं। आनंद के भी आंसू होते हैं। आंसुओं
का कोई अनिवार्य संबंध दुःख से नहीं है। आंसुओं का अनिवार्य संबंध तो किसी भी भाव-दशा
से है, जो तुम्हारे भीतर
इतनी सघन हो जाए कि तुम उसे संभाल न पाओ।
जैसे
मेघ भरे हुए आएं और बरस जाएं, झलक
जाएं, छलक जाएं. . .ऐसे जब
तुम्हारे भीतर का घड़ा बहुत भरा होता है--फिर चाहे दुःख से भरा हो, चाहे आनंद से, चाहे प्रीति से, चाहे प्रार्थना से--आंसू झलकेंगे। आंसू
तो खबर लाते हैं कि कोई चीज बहुत गहन होकर भरी है--इतनी कि अब तुम संभाल न पाओगे।
मुझे
सुनते हो, कोई भूली-बिसरी याद
जगती है। कोई स्वप्न जो तुम्हारे भीतर पड़ा है, रूप लेने लगता है। निराकार की थोड़ी-सी
झलक आने लगती है। मैं तुमसे जो बोल रहा हूं, वे अगर शब्द ही होते तो ऐसा नहीं हो
सकता था। शब्दों के साथ मैं भी हूं।
उस
दिन तुमने जो कहा था
मानो वे शब्द
नहीं थे
वृक्ष थे
आवास थे
व्यक्ति थे
कभी उनके नीचे
कभी उनमें
कभी उनसे लिपटकर
रहता हूं
विमुख भी हो जाऊं
कभी उनसे
तो उनकी छाया
आ छूती है
सुबह-शाम
तुमने उस दिन जो कहा था
मानो वे शब्द नहीं थे
वृक्ष थे, आवास थे, व्यक्ति थे
मैं
तुम्हें जो कह रहा हूं, वह
कहना मात्र ही नहीं है। मैं कोई कथा नहीं कह रहा हूं; मैं तुम्हारे जीवन की व्यथा कह रहा हूं।
और तुम्हारे जीवन की व्यथा के पार जाने का उपाय कह रहा हूं। और तुम्हारे जीवन की
व्यथा के पार एक संपदा है, उसकी
तुम्हें स्मृति दिला रहा हूं।
मेरे
शब्द आह्वान हैं, एक
पुकार हैं--जो तुम्हें विराट की यात्रा पर ले जाएं, अगर तुम चलने को राजी हो जाओ।
आंसू
आने लग गए हैं तो अर्थ हुआ : तुम्हारे पैर तैयार हो रहे हैं चलने को; तुम्हारा हृदय राजी हो रहा है चलने को।
और प्रकाश में जाने के लिए अंधेरे से गुजरना पड़ता है। और परम आनंद को पाने के लिए
बहुत-सी पीड़ाओं के बीच से जाना अनिवार्य है। वे पीड़ाएं निखारती हैं।
आशा के बंदे हम पांसे फेंकते हैं
बोने के बदले सांसें, फेंकते हैं!
इतना न घिरता, सिमटता निदाघ
तो अमलतास कैसे खिलता ?
अंधेरे से न गुजरे होते हम
तो प्रकाश कैसे मिलता!
तो
कभी-कभी मेरी बातों को सुनकर चित्त एक गहरी उदासी से भी भरेगा। क्योंकि जब तक
तुम्हें अपनी संभावनाओं का पता नहीं है तब तक तुम उदास भी क्या होओगे? जब बीज को पता चल जाए कि मैं वृक्ष हो
सकता हूं और नहीं हो पाया, तो
उदासी घेरेगी, असफलता
का बोध होगा, विषाद
आएगा, प्राणों में संताप
उठेगा--कि मैं चूक गया, कि
मैं चूक रहा हूं? एक
गहन मंथन होगा। प्राण कंपेंगे। लेकिन इसी पीड़ा से तो संभव है कि तुम उठ आओ और चल
पड़ो।
यह
मंजिल दूर है, इसलिए
भयाक्रांत भी करेगी कि पहुंच पाओगे कि नहीं! बीज की फूल तक मंजिल लंबी है। ऐसे
लंबी नहीं भी है, क्योंकि
बीज में ही फूल पड़ा है। दूर भी और पास भी . . .। चलो तो बहुत पास है, न चलो तो बहुत दूर है। बीज टूट जाए भूमि
में तो फूल बहुत दूर नहीं; और
बीज बीज की तरह पड़ा रहे, तो
कितने दूर हैं!
इसलिए
उपनिषद ठीक ही कहते हैं : वह परमात्मा पास से भी पास है और दूर से भी दूर है। पास
उनके, जो चलने की पीड़ा
लेंगे। और जितना तुम चलोगे उतनी ही आंखें आंसुओं से भरेंगी। पहले विरह के आंसू,
फिर उसकी झलक--उसके मिलन के आंसू।
भक्त
का रास्ता आंसुओं से पटा है। आंसुओं का रंग बदल जाता है, ढंग बदल जाता है, अर्थ बदल जाता है--मगर आंसू बहते रहते
हैं! मीरां को जब तक नहीं मिला परमात्मा, तब तक भी रोई और जब मिल गया तब भी रोई। जब तक नहीं मिला,
इसलिए रोई कि नहीं मिलता है-- विरह में
रोई। और जब मिल गया तो इसलिए रोई कि मिल गया--आनंद में रोई। हमारे पास आंसुओं के
अतिरित्त उसे धन्यवाद देने को भी और क्या है?
आधी
रात
कोटरों से झांकते उलूक
आधी रात
श्रमरत कंकालों की हूक
आधी रात
रक्तपान करते वैताल
आधी रात
प्रेत सभी मालामाल!
आधी रात
यहां शमशान
आधी रात
आत्म-ज्ञान भूंकते हैं श्वान!
आधी रात
शेष एक बात
आधी रात
दूर नहीं प्रात!
बस
एक बात खयाल रखना, अभी
तो आधी रात है। पर इतना ही सोचो कि अभी आधी रात है तो गलती हो गयी।
शेष एक बात
आधी
रात
दूर नहीं प्रात!
और
जैसे ही रात गहन और काली होती जा रही है वैसे ही सुबह करीब आती जा रही है। रात के
गर्भ में ही तो सूरज पकता है। रात के गर्भ के बाहर ही तो सुबह का जन्म होता है।
तो
कभी विरह में भी रोओ, विषाद
में भी रोओ। और कभी इस आनंद में भी रोओ कि कम-से-कम तुम्हें संभावना का सूत्र तो
दिखाई पड़ने लगा . . .। दूर ... आती सुबह जो कहीं दिखाई नहीं पड़ती, कम-से-कम तुम्हारे सपनों में तो झलकने
लगी। कहीं तुम्हारे गहराई में तो भरोसा जगने लगा कि सुबह होगी, कि सुबह हुई है, कि सुबह होती रही है। और जैसे-जैसे रात
गहरी होती जाएगी, अंधेरी
होती जाएगी, वैसे-वैसे
सुबह करीब आती जाएगी। सुबह के करीब आते-आते रात अंतिम रूप से गहरी हो जाती है।
.
. .तो रोओ ! प्रेम के आंसुओं से चिंतित न हो जाओ।
सिरहाने
"मीर' के आहिस्ता बोलो।
अभी
टुक रोते-रोते सो गया है।।
प्रेमी
तो रोते ही रहे, भक्त
रोते ही रहे। लेकिन भूलकर भी इन आंसुओं को मगरमच्छ के आंसू मत सोच लेना। और
तुम्हारे मन में यह विचार कैसे उठा? इसलिए उठा कि तुम कहते हो कि फिर क्यों नहीं ऐसी प्रार्थना का
जन्म होता कि प्रार्थना ही बचे, मैं
नहीं? . . .उसी का जन्म हो रहा
है। यह प्रसव की ही पीड़ा है।
और
पूछते हो कि संसार फिर भी उतना ही लुभाता है? और अपनी ओर बुलाता है?
जैसे-जैसे
तुम जागने लगोगे, तुम
पाओगे कि संसार और भी जोर से लुभाता है। संसार और जोर से खींचता है। आखिरी कोशिश
करता है, संसार भी ऐसे चुपचाप
तुम्हें छोड़ नहीं देता। पुराना संबंध है, कितना गहरा नाता है! ऐसे संबंध ऐसे ही नहीं टूट जाते कि बस
"जय राम जी' कर
ली और चल दिए। कितना पुराना नाता है! . . . जन्मों-जन्मों से तुम संसार से बंधे
रहे, संसार तुमसे बंधा
रहा। ये जंजीरें भी तुम्हारी आदी हो गई हैं, तुम भी इन जंजीरों के आदी हो गए हो। जंजीरें
भी लिपटेंगी, संसार
भी पूरी तरह खींचेगा। और जैसे-जैसे पाएगा कि तुम अब दूर जा रहे हो, उतनी ही अपनी पूरी ताकत लगा देगा।
साधक
के जीवन में वे घड़ियां आती हैं, जब
समाधि करीब होने लगती है तो संसार बड़े जोर से बुलाने लगता है। और इसके पहले कि
समाधि घटित हो, प्रार्थना
का जन्म हो, संसार
अपनी पूरी ताकत लगा देता है। सारी वासनाएं प्रज्ज्वलित हो उठती हैं। आखिरी दांव है,
वासनाएं भी हारना नहीं चाहतीं। मन भी
अपनी सारी शक्ति लगा देता है खींचने की, कि लौट आओ, कहां
जा रहे हो? बड़ा द्वंद्व उठेगा।
लेकिन जैसे ही द्वंद्व उठे, वैसे
ही समझ लेना कि घड़ी करीब आ रही है, इसलिए
मन इतने उपाय कर रहा है। अगर घड़ी करीब न होती तो मन इतने उपाय न करता।
तो
मैं तुमसे कहता हूं, संसार
तुम्हें खींचता, लुभाता,
और भी ज्यादा लुभाता मालूम पड़ता है--ये
सब अच्छे लक्षण हैं। इन लक्षणों का शुभ पहलू देखो। अपने आंसुओं की निंदा मत करना।
अपने आंसुओं का स्वागत करो, सत्कार
करो। उन्हें आनंद-भाव से अंगीकार करो। उनके साथ मस्त होओ, डोलो। जल्दी ही प्रार्थना आएगी।
बसंत
में एक भी फूल खिल गया, तो
समझो कि पूरा बसंत आने के करीब है।
दूसरा
प्रश्न : विज्ञान के इस युग में, कहते हैं, कविता अपने आखिरी दिन गिन रही है। लेकिन आपके प्रवचनों में
प्रवाहित काव्य-गंगा को देखकर लगता है कि आप धर्म के साथ कविता को भी पुनर्जीवन
देने पर तुले हैं।
क्या
बताने की कृपा करेंगे कि धर्म, कविता और विज्ञान क्या साथ-साथ चल सकते हैं?
आनंद
मैत्रेय! विज्ञान है शरीर, कविता
है मन, धर्म है आत्मा। अगर
मनुष्य के जीवन में शरीर, मन
और आत्मा साथ-साथ चल सकते हैं तो मनुष्य के जीवन में विज्ञान, कविता और धर्म क्यों साथ-साथ नहीं चल
सकते? सच तो यह है, साथ-साथ ही चलने चाहिए। न चलें तो कुछ
भूल-चूक हो रही है। और आदमी फिर अधूरा होगा।
जिस
आदमी को केवल विज्ञान ही सब कुछ मालूम होता है, उसका अर्थ क्या हुआ? उसका अर्थ हुआ कि उसने शरीर के पार नहीं
झांका। उसने शरीर पर ही अपनी इतिश्री मान ली। उसने शरीर पर ही पूर्ण विराम लगा
दिया। इस आदमी के जीवन में काव्य नहीं होगा, संगीत नहीं होगा, साहित्य नहीं होगा।
भर्तृहरि
का प्रसिद्ध वचन तो तुम्हें खयाल है न, कि जिसके जीवन में साहित्य न हो, काव्य न हो, कला न हो, वह मनुष्य मनुष्य नहीं है; ऐसा ही समझो कि पूंछ के बिना पशु है।
उसके भीतर मन ही पैदा नहीं हुआ अभी। और जिसके भीतर मन नहीं पैदा हुआ, उसे मनुष्य क्या खाक कहें! मन से मनुष्य
बनता है। मन ही है उसे मनुष्य बनानेवाला, नहीं तो पशु में और मनुष्य में फर्क क्या है?
पशु
सिर्फ देह है। पशु को अपनी देह के पार और किसी चीज का कोई पता नहीं है। जो मनुष्य
भी देह के पार अपने को अनुभव नहीं करता, उसको पशु से भिन्न मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। वह मनुष्य
के रूप में है भला, मगर
मनुष्य की गरिमा अभी उसे उपलब्ध नहीं हुई।
मैंने
सुना है, एक स्कूल में एक
अध्यापक, ईसाई स्कूल है,
बच्चों को बाइबिल पढ़ा रहा था। और उसने
समझाया कि ईश्वर ने मनुष्य को बनाया, स्त्री को बनाया . . .कैसे संसार की रचना की। एक छोटा बच्चा
खड़ा हो गया। वह एक वैज्ञानिक का बेटा था। उस बच्चे ने कहा : लेकिन मेरे पिता तो
कहते हैं कि आदमी का जन्म बंदरों से हुआ है। उस पुरोहित ने कहा : मैं अभी सारी
मनुष्य-जाति की बात कर रहा हूं, तुम्हारे
परिवार की नहीं। तुम्हारे परिवार के संबंध में तुम्हारे पिता ही ज्यादा जानते हैं।
एक
दूसरे बच्चे ने जिसे इस बात से बुरा लगा--क्योंकि उसके पिता एक गणितज्ञ थे--उसने
खड़े होकर कहा कि क्षमा करिए, इससे
क्या फर्क पड़ता है, अगर
हमारे बाप-दादे बंदर थे तो बंदर थे, इससे क्या फर्क पड़ता है? उस अध्यापक ने कहाः तुम्हें फर्क न पड़े,
लेकिन अगर तुम्हारे बाप-दादे बंदर थे तो
तुम्हारी दादियों को बहुत फर्क पड़ता । तुम अपनी दादी की भी तो सोचो!
मनुष्य
की सारी महिमा एक ही बात में छिपी है कि उसमें कुछ द्वार हैं, जो पशुओं में नहीं हैं; उसमें कुछ उड़ानें हैं, जो पशु नहीं भर सकते। पशु शरीर पर
समाप्त हैं; मनुष्य
शरीर से शुरू होता है, समाप्त
नहीं होता। शरीर तक तो मनुष्य भी एक पशु है।
तो
जो व्यक्ति सिर्फ वैज्ञानिक दृष्टि को ही अंगीकार करता है, उस व्यक्ति में मनुष्य का जन्म नहीं हुआ;
वह नाममात्र को मनुष्य है।
मन
पैदा होता है काव्य से, कला
से, संगीत से, सौंदर्य-बोध से। लेकिन जो मनुष्य मन पर
ही समाप्त हो जाता है, वह
मनुष्य तो है, लेकिन
ईश्वर भी हो सकता था; उससे
चूक गया। एक और उड़ान है--आखिरी उड़ान, अंतिम, उसके
पार फिर कुछ भी नहीं--जहां मनुष्य अपने को आत्मवान अनुभव करता है; जहां अनुभव करता है अहं ब्रह्मास्मि,
कि मैं ब्रह्म हूं! वह मन के भी पार है।
वहीं धर्म है।
धर्म
एक छोर, विज्ञान एक छोर;
काव्य या कला उन दोनों के मध्य में है।
जो व्यक्ति भी धर्म की तरफ जाना चाहता है, देह से आत्मा की यात्रा करना चाहता है वह कला के पड़ाव से
गुजरेगा। एक पड़ाव आएगा, जो
कला का होगा। अगर वैसा पड़ाव न आए, तो
समझना कि तुम गलत रास्ते पर हो। इसलिए ठीक-ठीक अर्थों में जो व्यक्ति भी धार्मिक
होगा, वह धार्मिक होगा,
वह धार्मिक होने के साथ-साथ रस-विमुग्ध
भी हो जाएगा। उसे जीवन में सौंदर्य का भी बोध होगा। वह रूखा-सूखा नहीं हो सकता।
अगर रूखा-सूखा हो तो समझना कि किसी तरह मन को बचाकर निकल गया है। उसकी आत्मा में
थोड़ी कमी रह जाएगी। उसकी समाधि बिना फूलों के होगी। और उसकी समाधि में नाद नहीं
होगा; रिक्तता होगी,
शून्यता होगी--पूर्ण का नृत्य नहीं
होगा। उसकी समाधि आनंद-उत्सव नहीं होगी। शायद उसकी समाधि इतनी ही कही जा सकती
है--दुःख-निरोध--कि अब वह दुःखी नहीं होगा। अब जीवन की छोटी-छोटी बातें उसे दुःखी
नहीं करेंगी।
मगर
दुःखी न होना क्या काफी है? दुःखी
न होना तो एक तरह की मोटी खाल बना लेना है कि अब कुछ संवेदन नहीं होता। यह तो कोई
भी आदमी जो अपने आसपास एक पथरीली दीवाल बना ले, वही सफल हो जाएगा; अगर कोई मर जाए तो उसे फिक्र नहीं,
कोई जिए तो फिक्र नहीं, सफलता-असफलता हो, यश-अपयश हो, वह अपनी लोहे की चादर के भीतर छिपा बैठा
है। इस तरह का आदमी वस्तुतः विकसित नहीं हुआ। उसने चालाकी करनी चाही। वह एक पड़ाव
को बचकर निकल जाना चाहा।
सच्ची
समाधि नृत्य और गीत गाती होती है। सच्ची समाधि उत्सवपूर्ण होती है। और सच्ची समाधि
में आसपास एक लोहे की दीवाल नहीं होती। सच्ची समाधि बड़ी कोमल होती है, फूल जैसी कोमल होती है। और जब तक इतनी
कोमलता न हो, तब
तक करुणा नहीं होती।
इसलिए
जो लोग कला के जगत् से बचकर निकल जाते हैं, तुम पाओगे, उस तरह के साधु-संतों में किसी तरह की
करुणा, किसी तरह का प्रेम
झलकता नहीं। वे मुर्दे मालूम पड़ते हैं, लाशें मालूम पड़ते हैं--जिंदा लाशें! मैं उस पक्ष में नहीं हूं।
मैं
मनुष्य के सर्वांगीण विकास के पक्ष में हूं। मैं मनुष्य को चाहता हूं वह पूरा का
पूरा हो। देह के सारे आनंद उसे उपलब्ध हों। मन के सारे आनंद उसे उपलब्ध हों। आत्मा
के सारे आनंद उसे उपलब्ध हों। मनुष्य त्रिवेणी है। वह तीर्थ बने। ये तीनों --गंगा,
यमुना, सरस्वती--तीनों उसमें गिरें। संगम बने।
तुम
पूछते हो : क्या यह संभव है . . .धर्म, कविता और विज्ञान साथ-साथ? अगर देह, मन और आत्मा साथ-साथ संभव है . . .। यह
सारा अस्तित्व इन तीनों का जोड़ है। इसलिए तो परमात्मा को हम त्रिमूर्ति कहते हैं।
वह तीन का जोड़ है। उसके तीन चेहरे हैं। तुम्हारे भी तीन चेहरे हैं। एक ही चेहरे को
पहचानकर मत रुक जाना, अन्यथा
तुम अधूरे-अधूरे रहोगे। जहां अधूरापन है, वहीं विषाद है। जहां पूर्णता है, वहीं उत्सव है। जहां पूर्णता है,
वहां प्राप्ति है। और जहां प्राप्ति है
वहां संतुष्टि है।
विज्ञान
का प्रभाव जगत् में बहुत है। और उसका परिणाम हुआ है एकः धर्म तो बुरी तरह
नष्ट-भ्रष्ट हो गया। वह तो बात सपने की हो गयी। उसका तो संबंध कल्पनाओं से जुड़
गया। लेकिन विज्ञान के प्रभाव के अंतर्गत जितना आदमी आया, उतना ही काव्य भी मरने लगा, कविता भी मरने लगी, कला भी मरने लगी। क्योंकि अगर आत्मा
नहीं है, अगर दूसरा किनारा ही
नहीं है, तो सेतु का क्या होगा?
यह किनारा है, वह किनारा है, तो बीच का सेतु सार्थक है। काव्य सेतु
है, जो दो किनारों को
जोड़ता है--स्थूल और सूक्ष्म को जोड़ता है, दृश्य और अदृश्य को जोड़ता है, गोचर-अगोचर को जोड़ता है।
यह
आकस्मिक नहीं है कि समस्त अनुभवियों की वाणी में एक काव्य की लक्षणा है, गुण है। उपनिषद महागीत हैं--वैसा ही
कुरान। और गीता तो गीत है ही। और वेद की ऋचाएं। और जीसस के वचन! यद्यपि जीसस ने
कविता में वक्तव्य नहीं दिए, मगर
पृथ्वी पर जितने लोग बोले हैं उनमें सर्वाधिक काव्यपूर्ण वचन जीसस के हैं। जैसा सहज
निष्छल काव्य उनमें है, किसी
और के वचनों में नहीं। बुद्ध के वचनों में चाहे बहुत काव्य न हो, लेकिन बुद्ध के उठने-बैठने-चलने में,
उनकी आंख की पलक के झपने में भी काव्य
है; उनका सारा जीवन काव्य
है।
यदि
हम रहस्यवादियों के जीवन को परखें-पहचानें, तो तुम सदा ही पाओगेः वहां काव्य की
किसी न किसी तरह कोई न कोई झलक मौजूद होगी। उस पार जाने के लिए सेतु से गुजरना ही
पड़ता है। और उस सेतु से जो गुजरता है, रंग जाता है। उसके भीतर होली मना ली गई और दीवाली भी। उसके
भीतर रंग भी फैले, दीए
भी जले।
धर्म
के पुनर्जन्म के साथ-साथ काव्य का पुनर्जन्म अनिवार्य है। अगर वह किनारा है तो
सेतु को फिर से सुधारना पड़ेगा, फिर
से बनाना पड़ेगा। यद्यपि काव्य अपने में काफी नहीं है, अपने में पूर्ण भी नहीं है; लेकिन फिर भी विज्ञान से तो उसकी गहराई
ज्यादा है। वैज्ञानिक जगत् को देखता है। अब तराजू की पकड़ में बहुत स्थूल चीजें ही
आती हैं, महत्त्वपूर्ण चीजें
खो जाती हैं।
जैसे
किसी आदमी में मस्ती है, तुम
तराजू पर तौलोगे तो मस्ती का तो वजन नहीं आता। आदमी का जो वजन होगा आ जाएगा। आज
आदमी मस्त है तो भी वजन उतना ही होगा तराजू पर और कल आदमी दुःखी होगा तो भी वजन
उतना ही होगा तराजू पर। तो तराजू तो कह देगा कि मस्ती और दुःख होते ही नहीं,
क्योंकि उनमें कोई वजन नहीं है। आदमी के
जीवन में काव्य होगा तो भी वजन उतना ही होगा। काव्य-शून्य होगा आदमी तो भी वजन
उतना ही होगा। तराजू आदमी और बंदर में फर्क नहीं करेगा। तराजू तो एक ही बात जानता
है : वजन।
विज्ञान
के पास तराजू है; वह
बड़ा स्थूल है। उससे कुछ बातें चूक ही जाती हैं। फूल को तौल लोगे, लेकिन फूल के सौंदर्य को कैसे तौलोगे?
उस सौंदर्य को तो कोई देखने वाला भावुक
व्यक्ति चाहिए। तराजू पर नहीं तुलता,
व्यक्ति पर तौला जाता है। परखनलियों
में नहीं जांचा जाता, प्राणों
में जांचा जाता है। ऊपर-ऊपर से पहचानने का कोई उपाय नहीं है, फूल के भीतर प्रवेश करना होता है तब
पहचान होती है।
वैज्ञानिक
बाहर चक्कर लगाता है फूल के, कवि
फूल के भीतर प्रवेश कर जाता है--फूल की सुवास में, फूल के सौंदर्य में। लेकिन सुवास और
सौंदर्य से भी गहरा कुछ है; कवि
की वहां तक पहुंच नहीं हो पाती, वहां
ऋषि पहुंचता है। सौंदर्य सुवास . . .उसके पार फूल की आत्मा है--अदृश्य, अगोचर! वहां ऋषि की गति है।
जीवन
के परम रहस्य तो ऋषि को खुलते हैं, लेकिन
कवि के भी हाथ कुछ-न-कुछ जूठन लग जाती है। कवि के हाथ भी कुछ-न-कुछ सूत्र लग जाते
हैं। कवि ऋषि के बहुत करीब है, वैज्ञानिक
बहुत दूर । वैज्ञानिक के हाथ में ऋषि के जगत् का कुछ भी नहीं लगता; कवि पर थोड़ी-थोड़ी छाया पड़ती है।
और,
धर्म को जताने के लिए, बताने के लिए, काव्य से बेहतर कोई दूसरी प्रक्रिया नहीं
है। क्योंकि काव्य शब्दों को तरलता देता है; उनका ठोसपन छीन लेता है, उनकी नोकें छीन लेता है; उन्हें गोलाई देता है। और काव्य शब्दों
को अर्थों के जड़ घेरे से मुक्त करता है; उन्हें थोड़ा विनम्र बनाता है; शब्दकोष की अकड़ मिटाता है। शब्दों को
ऐसे जमाव देता है कि शब्दों से थोड़ी-सी निःशब्द की झलक मिलने लगे।
वही
काव्य श्रेष्ठ होता है जिसमें जितना शून्य उतर आता है। जो श्रेष्ठतम काव्य है,
वह धर्म की बिल्कुल सीढ़ियों पर खड़ा हो
जाता है। जो श्रेष्ठतम कवि है, जैसे
रवींद्रनाथ, वे
मंदिर के द्वार पर खड़े हैं ज़रा और, एक
कदम और . . . वे मंदिर के भीतर प्रविष्ट हो जाएंगे। मंदिर का देवता उनका होगा।
धर्म
संसार से गया तो उसके साथ काव्य भी गया। इस सदी ने कोई बड़े कवि पैदा नहीं किए हैं;
बड़े वैज्ञानिक पैदा किए हैं, बड़े कवि नहीं। धर्म वापिस लौटे, तो उसकी छाया की तरह काव्य फिर वापिस
लौट आएगा।
तुम
ज़रा लौटकर देखो, दुनिया
में जो भी सुंदर घटा है, वह
सब धर्म की छाया की तरह घटा है। खजुराहो के मंदिर हों कि पुरी के, कि कोणार्क के; अजंता की गुफाएं हों, कि एलोरा की; बोरोबुदर का मंदिर हो, कि रोम के गिरजे--ये सब धर्म की छाया
में उठे थे। बौद्ध भिक्षुओं ने खोदी थी गुफाएं अजंता-एलोरा की। पत्थर में सौंदर्य
को अंकित किया था। पत्थर में फूल उगाए थे! जो गिरजे उठे पश्चिम में, उनकी भावभंगिमा देखते हो--आकाश की तरफ
उठे हुए हाथ हैं पृथ्वी के! उनकी मीनारें देखते हो--दूर चांदत्तारों को छूने के
लिए निकली हैं! आदमी की अभीप्साएं हैं आकाश के साथ एकता कर लेने की! मस्जिदें
देखते हो--ईरान की और मिस्र की और अरब की--वे मस्जिदें प्रार्थनाओं को स्थापत्य
में ढालने का प्रयोग हैं! यह सब काव्य है। ताजमहल देखते हो! यह सब काव्य है। चाहे
प्रेम से घटा हो, चाहे
प्रार्थना से घटा हो। लेकिन जब प्रार्थना खो जाती है तो प्रेम भी खोने लगता है। और
जब प्रार्थना और प्रेम दोनों खो जाते हैं, तब काव्य की भूमि समाप्त हो जाती है, उसकी बुनियाद ढह जाती है।
धर्म
वापिस लौटे तो काव्य अपने-आप वापिस लौट आएगा। फिर ताजमहल बनेंगे, फिर अजंता-एलोरा की गुफाएं निर्मित होंगी,
फिर खजुराहो के प्यारे मंदिर उठेंगे।
फिर आदमी भावाभिभूत होगा। फिर से देखेगा छिपे सौंदर्य को। अभी तो प्रयोगशाला में
बैठा तराजू को लिए परखनलियों को गरम करता रहता है। अभी तो मशीनें बनाता है--कुरूप,
बेढंगी, बेडौल! नहीं कि व्यर्थ हैं वे मशीनें,
लेकिन इतनी मूल्यवान नहीं हैं कि आदमी
उन्हीं में समाप्त हो जाए। आदमी उनके ऊपर उठता रहे, वे आदमी के लिए सीढ़ियां बनें, तो शुभ है।
तो
मैं विज्ञान-विरोधी नहीं हूं, पूरे
विज्ञान के पार भी एक लोक है काव्य का, उसके भी पक्ष में हूं। उस पर भी समाप्त नहीं होता हूं। उसके
पार भी धर्म का एक लोक है, उसके
भी पक्ष में हूं। यह त्रिमूर्ति पूरी होनी चाहिए मनुष्य में, तो मनुष्य पूर्ण होता है।
तीसरा
प्रश्न : आप अपने आश्रम को मधुशाला क्यों कहते हैं?
भाई
मेरे! पियो तो जानो। डूबो तो पहचानो।
मंदिर
जब जीवित होता है तो मधुशाला ही होती है। जब मधुशालाएं मर जाती हैं तो मुर्दा
मंदिर शेष रह जाते हैं। जहां आज स्वर्ण-मंदिर है सिक्खों का, वहां कभी बैठकर अगर नानक ने गीत गाया
होगा और मरदाना ने अपना सितार छेड़ा होगा तो मधुशाला रही होगी। जब नानक के गीत पर
मरदाना संगत दे रहा होगा, तब
मंदिर जीवित था, तब
मधुशाला थी, रस
बह रहा था। और जो आए होंगे वे ही भूल गए होंगे, डूब गए होंगे, मिट गए होंगे। जो मिटा दे, वही मधु।
तुमने
सुना तो होगा, पुराने
शास्त्र ब्रह्मज्ञान को मधु-विद्या कहते हैं। बुद्ध ने कहा हैः बुद्धों का ज्ञान
चखो तो मधुर ही मधुर है। प्रारंभ में मधुर, मध्य में मधुर, अंत में मधुर। मधु ही मधु है।
जगत्
बहुत कड़वा है। जगत् दूर से तो बहुत-से आश्वासन देता है मधु के, मगर पास जाने पर सिवाय तिक्तता के और
कुछ भी नहीं मिलता। यहां हाथ जलते हैं और व्यक्ति पर घाव बनते हैं। यहां की और
कोई उपलब्धि नहीं है। एक और भी लोक है जहां मधु-रस बहता है।
अभी
तो यह मधुशाला है। और जब तक यह मधुशाला है, तब तक पी लो। तब तक इसी विचार में मत
पड़े रहो कि क्यों मधुशाला कहता हूं। जान ही लो, क्यों कहता हूं। यहां आकर दूर-दूर दर्शक
की तरह मत लौट जाओ। ज़रा बैठो। ज़रा पास आओ। अगर बातें भी सुनो . . .अगर कोई शराब की
बात भी ठीक से सुन ले, तो
नशा छाने लगता है।
बड़े
अजाब में है जाने-मय-कशां साकी।
नहीं
शराब तो जिक्रे-शराब रहने दे।।
अगर
शराब न हो तो जिक्रे-शराब। तुम्हें परमात्मा का तो कुछ पता नहीं है, तो चलो उसका जिक्र करें, उसकी याद करें। जिन्हें उसका पता है,
उनके पास बैठकर थोड़ी उसकी बातें सुनें।
उनकी तरंग तुम्हें छुए है तो पड़ा तुम्हारे भीतर भी। छू जाए तरंग तो जग जाए। एक
वीणा को बजते देखकर शायद तुम्हारे भीतर पड़ी वीणा का तुम्हें स्मरण आ जाए और वीणा
बजने लगे। सत्संग का यही अर्थ है। संत-समागम का यही अर्थ है।
मैंने
पूछा था कि है मंज़िले-मकसूद कहां।
ख़िज्र
ने राह बतायी मुझे मयख़ाने की।।
"ख़िज्र'
सूफियों की धारणा है कि एक पैगंबर
अदृश्य पृथ्वी पर घूमता रहता है। जिनको जरूरत होती है उनको राह दिखा देता है। उस
पैगंबर का नाम है खिज्र। वह सदियों-सदियों से भटकता रहता है--उनकी तलाश में जो
प्रभु को खोज रहे हैं। जहां भी उसे खबर मिलती है कि कोई प्रभु का खोजी है, ख़िज्र वहां पहुंच जाता है, उपस्थित हो जाता है--सहारा देने को,
सहयोग देने को। यह प्यारी धारणा है।
इसका अर्थ केवल इतना ही है कि परमात्मा को खोजनेवाले के लिए सारा अस्तित्व साथ
देता है--दृश्य भी, अदृश्य
भी। लोक से भी, परलोक
से भी उसे साथ मिलता है। परमात्मा को खोजनेवाला अपने को अकेला न समझे, इतना ही मतलब है इस बात का। परमात्मा को
खोजनेवाले को परमात्मा ही साथ देता है; अपने को अकेला न समझे। जो उसके विपरीत जा रहे हैं, वे अकेले हैं। जो उसकी तरफ जा रहे हैं,
उनके वह साथ है। उनके हाथ में उसका हाथ
है।
मैंने
पूछा था कि है मंज़िले-मकसूद कहां
मैंने
पूछा कि आखिरी मंजिल कहां है? मंजिलों
की मंजिल कहां है?
ख़िज्र
ने राह बतायी मुझे मयख़ाने की।
खिज्र
ने कहा : चले जाओ--जहां पियक्कड़ जुड़े हों; जहां पीनेवाले इकट्ठे हों; जहां उस प्यारे की बात होती हो। जहां उस
प्यारे के नाम की शराब ढाली जाती हो, पहुंच जाओ वहां। खोजो कोई सत्संग, कोई मैखाना।
इसलिए
मधुशाला कहता हूं। ख़िज्र लोगों को यहां भेज रहा है। कई ने मुझे आकर कहा। पूछता हूं
: आए कैसे? वे कहते हैं : ख़िज्र
ने भेजा।
ख़ुश्क
बातों में कहां ऐ शेख़ कैफ़े-ज़िंदगी।
वो
तो पीकर ही मिलेगा जो मजा पीने में है।।
मगर
कोई उपाय नहीं है कि तुम सिद्धांतों से समझ लो, शास्त्रों से समझ लो।
ख़ुश्क
बातों में कहां ऐ शेख़ कैफ़े-ज़िंदगी
वह
जो जिंदगी का परम आनंद है, वह
सिद्धांत और शास्त्र की रूखी-सूखी बातों में नहीं हो सकता। उसके लिए तो सूखी
लकड़ियां बटोरते रहो, इससे
काम न चलेगा। किसी हरे-भरे वृक्ष के पास जाओ--जहां अभी पत्ते लगते हों, जहां अभी फल लगते हों--उसकी छाया में
बैठो।
वो
तो पीकर ही मिलेगा जो मजा पीने में है।
और
पियो, डरो मत! डर तो लगता
है कि पिए, फिर कहीं होश न खो
जाए! होश खो जाएगा, मगर
तुम्हारे पास जो होश है, वह
होश कहां? यह होश तो खो जाएगा।
यह होश ही नहीं है। और जिसको तुम अब तक समझते हो कि बेहोशी, वही असली होश है।
परमात्मा
में जो बेहोश हैं, वे
होश में आ गए। और जो संसार के होश से भरे हैं, बेहोश हैं। संसार का होश भी कोई होश है?
दो कौड़ी की चीजें इकट्ठी करते रहते हो,
इसको होश कहते हो? होशियार कहते हो इस आदमी को ? कोई धन कमा लेता है तो लोग कहते हैं बड़ा
होशियार है, बड़ा
होश वाला है! मौत आएगी तब इसे पता चलेगा कि जिंदगी व्यर्थ गंवा दी; कुछ करने का अवसर मिला था, न किया; कुछ सार्थक न खोजा। और यहां जो सार्थक
खोजता है उसे लोग कहते हैं --पागल है।
यह
भीड़ पागलों की है। यहां होशवाले पागल समझे जाते हैं; यहां पागल होशियार समझे जाते हैं। ज़रा
सावधान रहना और इन शब्दों का ठीक-ठीक अर्थ समझ लेना।
नानक
के पिता ने काफी परेशान होकर नानक को चाहा कि धंधे में लगा दें, क्योंकि यह चलता ही रहता सत्संग। आखिर
कौन पिता चाहेगा कि बेटा सत्संग ही करता रहे! बाप समझाते कि कुछ काम की बात करो!
और नानक कहते : काम की ही बात कर रहा हूं, आप भी कैसी बात कर रहे हैं! दोनों के "काम' का अर्थ अलग-अलग था। बाप कहते, कुछ होश में आओ। और नानक कहते, वही तो कोशिश कर रहा हूं। यह सत्संग में
इसीलिए तो जाता हूं। यह साधुओं के चरण इसीलिए तो दबाता हूं कि कुछ होश में आ जाऊं।
बाप
सिर पीट लेते कि यह होश नहीं है। कुछ कमाई-धमाई करो! नानक कहते, वही तो कर रहा हूं। बात जब बहुत बिगड़
गयी और बाप-बेटे के बीच कुछ संवाद मुश्किल हो गया, तो पिता ने कहा कि बातचीत बंद करो। यह
रुपया लो कुछ। जाओ, मेला
भरनेवाला है। तुम कंबल खरीद लाओ। मेले में कंबल बेचो। लेकिन ध्यान रहे, नुकसान न हो। लाभ होना चाहिए। कुछ भी
लाभ करके दिखाओ।
बाप
थोड़े हैरान भी हुए कि नानक मस्ती से चल दिए; कहा कि ठीक है लाभ करके दिखाएंगे।
पांच-सात दिन बाद वापिस आ गए--बड़े प्रसन्न, बड़े मस्त! न तो कंबल, न रुपए। पूछा :"क्या हुआ? कहां हैं कंबल? कहां हैं रुपए? कितना लाभ हुआ?' पिता के चरण छुए और कहा : "लाभ
बहुत हुआ।' मैं कंबल खरीदकर जा
रहा था मेले की तरफ, कि
रास्ते में साधुओं की एक जमात मिल गयी। ठंढ पड़ रही है और वे ठिठुर रहे हैं। बांट
दिए कंबल। पुण्य ही तो लाभ है। दान ही तो लाभ है। बड़ा आनंद आया। फकीरों को मस्त
देखकर, कंबलों में बैठे
देखकर, गर्माते देखकर,
आत्मा गद्गद् हो गयी। आप देखते तो
प्रसन्न हो जाते।
बाप
पर जो गुजरी सो बाप जाने। कोई और उपाय न देखकर कि धंधा इससे होगा नहीं, नौकरी लगवा दी। जिसके यहां नौकरी लगवा
दी, उसने भी काम ऐसा दिया
सरल से सरल, जिसे
करने में कोई झंझट न आए। उसके पास हजारों सैनिक थे। सूबेदार था। तो इनको काम मिला
था सबको रोज अनाज बांटने का, सिपाहियों
को। कुछ दिन तो सब ठीक चलता रहा, लेकिन
एक दिन सब गड़बड़ हो गयी। वह गड़बड़ होनी ही थी। वह हुई तो अच्छा हुआ। नहीं तो दुनिया
नानक से चूक जाती। उस दिन तो अच्छा नहीं लगा पिता को भी, गांव को भी, मालिक को भी; लेकिन आज हम जानते हैं कि अच्छा ही हुआ।
एक
दिन अड़चन हो गयी। तौलते थे अनाज, किसी
को दे रहे थे। गिनती की --ग्यारह, बारह
और जब तेरह पर पहुंचे, तो
पंजाबी में "तेरा' और
"तेरह' एक
से ही हैं। हिंदी में तो तेरह और तेरा में थोड़ा फर्क है मगर पंजाबी में तो तेरह और
तेरा में कोई फर्क नहीं है। धुन बंध गयी--"तेरा'! याद आ गयी परमात्मा की। सब तेरा! फिर
तौलते ही चले गए। फिर चौदह नहीं आया। फिर तेरा ही कहते गए और तौलते चले गए। धुन
बंध गयी। और दोपहर हो गयी और सांझ हो गयी और हजारों पसेरियों अनाज तौल दिए और तेरह
पर ही। और मस्त और आंसू बहे जा रहे हैं, और डोल रहे हैं और कह रहे तेरा और तौलते जा रहे हैं। जो आए ले
जाए। फिर फिक्र ही न रही कि कौन सैनिक है, कौन को देना है, किसको नहीं देना है। गांव के लोग भी आने लगे।
लोगों
ने कहा कि नानक तो बांट ही रहे हैं, जो जाए कहते हैं--तेरा। शाम तक मालिक को खबर पहुंची। बुलवाया
पकड़ कर। बामुश्किल रुके। उन्हें तो "तेरा' लगी थी धुन, वह तो रात-भर लुटाते। और जब मालिक ने
पूछा कि यह क्या पागलपन है, तो
वे हंस रहे थे। उन्होंने कहा कि "तेरा' उसकी याद आ गई। सब उसका है मालिक! अपना
क्या है? वही देनेवाला है। आज
याद आ गई। अब तक याद नहीं थी। अब तक मैं सोचता हूं कि "तेरा' शब्द इतनी बार आया, कितनी बार तौला और याद न आयी। अब भरोसा
ही नहीं आता कि इतनी बार कैसे चूका!
इस
तरह के आदमी को तुम बेहोश कहोगे न! इस तरह के आदमी को तुम नशे में कहोगे न! ऐसा ही
नशा यहां पीते हैं, पिलाते
हैं। इसलिए मधुशाला है। "तेरे' की याद दिलाते हैं, इसलिए मधुशाला है।
आज
तो कर दिया साकी ने मुझे मस्त अलस्त।
डालकर
खास निगाहें मेरे पैमाने में।।
पास
आओ कि मैं तुममें झांक सकूं, कि
तुम मुझमें झांक सको; कि
जो हुआ है उससे तुम्हारी थोड़ी पहचान हो जाए। फिर तुम भी कहने लगोगे, मधुशाला है। हालांकि उत्तर तुम भी न दे
पाओगे। न ही मैं उत्तर दे रहा हूं। यहां उत्तर दिए ही कहां जाते हैं! यहां तो
तुम्हारे प्रश्नों को बहाना बना लिया जाता है और ढालना शुरू हो जाता है।
क्या
हमने छलकते हुए पैमाने में देखा।
यह
राज है मैखाने का अफ्शां न करेंगे।।
बताएंगे
नहीं। यह राज है। यह बताया भी नहीं जा सकता। इसे कहने का कोई उपाय भी नहीं है।
लेकिन पिलाया जा सकता है। पिलाएंगे। जिनकी पीने की हिम्मत हो, पिएं।
लेकिन
कुछ लोग हैं, वे
सोचते हैं स्वर्ग में पिएंगे, यहां
कहां! कहते हैं स्वर्ग में बह रही है शराब की नदियां, तो संभल कर चलो!
लोग
यह भी कह रहे हैं कि यहां संभलकर चलो तो वहां पीने को मिलेगा। बड़ी अजीब बातें कर
रहे हो! कुछ लड़खड़ाना सीखो, नहीं
तो वहां बड़ी मुश्किल में पड़ोगे।
जनां
में पहले-पहल पिएगा तो लड़खड़ाएगा जाहिद।
सरूरे-कौसर
की है अगर धुन जहां में पहले शराब पी ले।।
ऐ
जाहिद! ऐ विरागी, ऐ
त्यागी! जब वहां पहली दफा स्वर्ग में पीने को मिलेगा तो बहुत लड़खड़ा जाएगा। जनां
में पहले-पहल पिएगा तो लड़खड़ाएगा जाहिद! जन्नत में, स्वर्ग में मुश्किल में पड़ोगे।
सरूरे-कौसर
की है अगर धुन . . .अगर स्वर्ग को पाने की अभीप्सा है--जहां में पहले शराब पी ले!
तो यहां से थोड़ा अभ्यास तो करो। परमात्मा खूब पिलाएगा। यहां सद्गुरुओं के पास थोड़ा
पियो तो! थोड़ा चस्का तो लगे। थोड़ी लत तो पड़े।
जो
बाहर से आ जाते हैं, दूर-दूर
खड़े होकर देखते हैं, उन्हें
समझ में नहीं आता है यहां क्या हो रहा है। इसलिए वे गलत-सलत खबरें भी बाहर ले जाते
हैं। रोज ही अखबारों में इस मधुशाला के संबंध में कुछ न कुछ गलत-सही छपता रहता है।
उनकी भी मजबूरी है। बाहर से देखकर यही होनेवाला है।
तसव्वर
अर्श पर है और सर है पाए-साक़ी पर।
गरज
कुछ और ही धुन में यहां मय-ख्वार बैठे हैं।।
यहां
जो पियक्कड़ बैठे हैं, वे
किसलिए बैठे हैं, क्या
कर रहे हैं? तुम्हें
पता भी न चलेगा बाहर से। तसव्वर अर्श पर है . . .। उनकी कल्पना स्वर्ग में छलांगें
ले रही हैं। उनकी कल्पना स्वर्ग में प्रवेश कर रही है। तसव्वर अर्श पर है . . .।
कल्पना आकाश पर है। और सर है पाए-साकी पर। और सिर है साकी के पैरों पर। जो शराब
पिलाए, उसके पैरों पर। गरज
कुछ और ही धुन में यहां मय-ख्वार बैठे हैं।
बाहर
से जो देखेगा उसकी कुछ समझ में न आएगा कि ये पियक्कड़ यहां कर क्या रहे हैं! अब बड़ी
मुश्किल है। जो बाहर-बाहर आकर चला जाता है, वह जो खबरें देता है लोग मान लेते हैं
और अगर वह यहां पी ले, पियक्कड़
हो जाए, रंग जाए यहां के रंग
में, तो फिर लोग उसकी नहीं
मानते। वे कहते हैं कि यह तो उनमें ही डूब गया। यह तो पागलों में सम्मिलित हो गया।
अब
यह बड़े मजे की बात है। जिसकी बात मानने जैसी है, जिसने भीतर से देखा जाकर कि क्या हो रहा
है, जिसे अंतस्तल का पता
चला है--उसकी कोई मानता नहीं। वह कहता है कि तुम तो गए काम से। तुम तो उन्हीं में
हो। तुम्हारी क्या मानना!
यदि
मैं किसी संन्यासी को भेजूं किसी को समझाने, वह कहता है तुम तो संन्यासी हो, तुम तो पक्षपाती हो। गैर-संन्यासी की
मान लेते हैं। और गैर-संन्यासी की बात का क्या मूल्य है? वह पास आया नहीं। उसने आंख में आंख डाली
नहीं। उसने तो बाहर-बाहर से देखा कि कुछ लोग नाच रहे हैं, कुछ लोग शोर कर रहे हैं, कुछ लोग गीत गा रहे हैं, कुछ लोग वाद्य बजा रहे हैं, कुछ लोग चुपचाप बैठे हैं--पता नहीं क्या
हो रहा है! उसे यहां कुछ काम की बात होती दिखायी नहीं पड़ती। और ठीक ही है। वह जिसे
काम समझता है, वह
यहां नहीं हो रहा है। यहां कुछ और हो रहा है, जिसे हम "काम' समझते हैं। उसकी और हमारी भाषा मेल नहीं
खाती। वह मुश्किल में पड़ जाता है। वह बड़ी अड़चन में हो जाता है। वह कुछ का कुछ अर्थ
लेकर पहुंच जाता है।
साधना-शिविरों
में बड़े बमन से मुझे रोक लगानी पड़ी कि लोग वस्त्र न उतारें। ऐसी घड़ी आती है जब
वस्त्र उतर जाते हैं। एक ऐसी घड़ी आती है आह्लाद की, निर्दोषता की, जब वस्त्र भी बोझ मालूम पड़ते हैं। और मन
होता है, गहन मन होता है कि सब
परदे गिरा दो! परमात्मा और अपने बीच कुछ भी न रखो। ये हवाएं इस शरीर के साथ खेलें
और ये सूरज की किरणें इस शरीर पर नाचें! और इस आकाश और इस शरीर के बीच कोई भी आवरण
न हो। ऐसी घड़ी आती है मस्ती की! लेकिन जो बाहर से आकर देख लेता है वह समझता है :
"अरे! यहां नग्नता सिखाई जा रही है।' ये वे ही लोग हैं जिन्होंने महावीर को पत्थर मारे थे, क्योंकि वे नग्न थे; हालांकि अब पूजा कर रहे हैं। और मैं
तुमसे कहता हूं: ये ही लोग पूजा करेंगे। लेकिन सदियों बाद ये पूजा करते हैं। इनकी
पूजा झूठी। इनकी पूजा मुर्दा। जब कोई मधुशाला मर जाती है, मधु-धाराएं सूख जाती हैं, सिर्फ याद्दाश्त रह जाती है, तब ये पूजा शुरू करते हैं। लेकिन जब तक
मधु-धाराएं बहती रहती हैं, जब
तक जीवंत कुछ सत्य मौजूद होता है, तब
तक ये दूर-दूर भागे रहते हैं। सत्य से तो ये डरते हैं, क्योंकि सत्य आग्नेय है। उसके पास आओगे,
जलोगे, भस्मीभूत हो जाओगे। मगर उसी भस्म से तो
नया जीवन पैदा होता है।
बहुत
मजबूरी में मुझे रोक लगा देनी पड़ी कि कोई कपड़े न उतारे। मजबूरी में! क्योंकि मैं
जानता हूं कि कभी वैसी घड़ी आती है, उस
घड़ी में किसी को रोकना अमानवीय है। उस घड़ी में किसी को रोकना अशोभन है। लेकिन वे
दर्शक इकट्ठे हैं। वे दर्शक कैमरे ले आते हैं। वे किसी का चित्र निकाल लेंगे। वह
चित्र महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
जर्मनी
के एक पत्र ने --"स्टर्न' ने
--कुछ दोत्तीन चित्र नग्न छाप दिए हैं।... लोगों की उत्सुकता कैसी है! . . .उसके
चित्र सारी दुनिया के पत्रों में छप गए फिर। करीब-करीब दुनिया की कोई भाषा नहीं है
जिसमें वे चित्र नहीं पहुंच गए। डच में पहुंच गए, इटैलियन में पहुंच गए, **१७९**ोच में पहुंच गए, स्पेनिश में पहुंच गए। सारी दुनिया के
अखबारों में, साल-भर
हो गए उस अखबार को छपे, मगर
वे अभी तक नयी-नयी भाषाओं में पहुंचते ही जाते हैं। कोई यह नहीं पूछेगा कि किस घड़ी
में ये लोग नग्न थे, किस
घड़ी में यह नग्नता घटी थी। उस घड़ी से किसी को लेना-देना नहीं है।
ऐसी
घड़ियां हैं, जब
चित्त बिल्कुल बच्चे की भांति निर्दोष हो जाता है, जब वापिस बचपन लौट आता है। उतनी ही
निर्दोषता! लेकिन बाहर से देखनेवाला तो समझेगा कि यहा तो यह आदमी पागल हो गया है
या नशे में है, कुछ
गड़बड़ है। और उसकी बात लोग मान लेंगे; जैसे मानने को बैठे ही थे।
यह
मधुशाला है--इन्हीं अर्थों में कहता हूं कि यहां हम एक दूसरी भाषा बोल रहे हैं;
एक दूसरी जीवन की शैली को विकसा रहे
हैं।
पी
लिया करते हैं जीने की तमन्ना में कभी।
डगमगाना
भी जरूरी है संभलने के लिए।।
थोड़े
डगमगाओ! दुनिया "डगमगाना' कहेगी।
जाननेवाले "संभलना' कहेंगे।
थोड़े पियो और मस्त हो जाओ। दुनिया पागल कहेगी; जाननेवाले कहेंगे, पागलपन गया। जाननेवाले बहुत थोड़े हैं।
जाननेवालों का बहुमत नहीं है। इसलिए साहस चाहिए। क्योंकि भीड़ और बहुमत तो न
जाननेवालों का है। उनकी हंसी झेलने की तैयारी चाहिए।
लोग
इतने बेईमान हो गए हैं, चालबाज
हो गए हैं, लोग इतने गणित में
कुशल हो गए हैं कि उनकी जीवन की सहजता ही खो गयी है, सारी स्वच्छता खो गयी है।
तुमने
खयाल किया लोग हर बात को सोच -समझकर कर रहे हैं। और चूंकि सोच-समझ कर करते हैं,
इसलिए करने की जो सहजता है नष्ट हो जाती
है; करने की जो सरलता है
वह नष्ट हो जाती है। हर चीज में दांव लगा रहे हैं। हर चीज में पहले से ही सारा
विस्तार सोच लिया है। सारी चालें बिठा रखी हैं। सब चालबाज हो गए हैं।
शतरंज
के खिलाड़ी को देखा? वह
पहले से ही सोच लेता है तीन-चार चालें--मैं ऐसा चलूंगा तो दूसरा कैसा चलेगा। जो
बड़े खिलाड़ी हैं शतरंज के, वे
पांच चालें पहले से सोच लेते हैं--मैं यह चलूंगा तो दूसरा ऐसा, फिर मैं ऐसा तो दूसरा वैसा--ऐसा पांच
चालों का हिसाब लगा लेता है, फिर
चलता है। लेकिन इस चाल में मजा चला जाता है। चिंता हो जाती है, तनाव हो जाता है। शतरंज के खिलाड़ी अकसर
पागल हो जाते हैं।
मैंने
तो यहां तक सुना है कि इजिप्त का एक सम्राट् शतरंज का बड़ा खिलाड़ी था, वह पागल हो गया। जब वह पागल हो गया,
उसके बहुत इलाज किए गए लेकिन कोई इलाज
काम न आया। फिर किसी एक फकीर ने कहाः इस पर कोई इलाज काम न आएगा, यह शतरंज से पागल हुआ है। यह चालें चल-चलकर
होशियारी की, पागल
हुआ है। इसका दिमाग बहुत उलझ गया है चालों में। आगे की चालें, और आगे की चालें, और आगे की चालें--इसका चित्त बहुत
भारग्रस्त हो गया है। इसको सुलझाने का एक ही उपाय है। दवाएं काम न करेंगी। सलाहें
काम न करेंगी। अगर कोई शतरंज का खिलाड़ी इसके साथ एक साल तक शतरंज खेलने को राजी हो
जाए तो यह ठीक हो जाएगा।
सम्राट्
का मामला था। कोई राजी तो नहीं था। पागल के साथ कौन शतरंज खेले? वह अनर्गल बकता भी था, शोरगुल भी मचाता था। बीच-बीच में तखता
भी उलट देता था शतरंज का। पागल के साथ कौन शतरंज खेले! लेकिन काफी पैसे देने की
बात थी। एक खिलाड़ी राजी हो गया। फकीर की बात सच थी। साल-भर बाद सम्राट् बिल्कुल
ठीक हो गया। लेकिन वह खिलाड़ी पागल हो गया।
यह
दुनिया शतरंज के खिलाड़ियों से भरी है। अलग-अलग शतरंज बिछाई हैं लोगों ने-- किसी ने
धन की, किसी ने पद की,
किसी ने प्रतिष्ठा की, किसी ने कुछ, किसी ने कुछ।
मैं
तुमसे कहता हूं : छोड़ो ये खेल। शतरंज के खेलों ने तुम्हारे जीवन को नरक बना दिया
है। तुम पागल हो गए हो। कुछ जीवन में और भी पाने जैसा है--जो खेल नहीं है शतरंज का;
जहां तनाव से नहीं पहुंचा जाता और चालों
से नहीं पहुंचा जाता; जहां
चालबाज चूक जाते हैं--जहां सरलता से पहुंचा जाता है।
सहर
के वक्त मय पीने से मुझको रोक मत नासेह।
कि
सिजदे के लिए दिल में ज़रा-सा सिद्क लाना है।।
--पियक्कड़
कह रहा है धर्मगुरु से, उपदेशक
से कि हे उपदेशक! सुबह के वक्त मुझे शराब पीने से मत रोक।
सहर
के वक्त मय पीने से मुझको रोक मत नासेह।
कि
सिजदे के लिए दिल में ज़रा-सा सिद्क लाना है।।
. . . कि सिजदा करना है, प्रार्थना करनी है, नमाज पढ़नी है, उसके पहले थोड़ी-सी सच्चाई भी तो लानी
जरूरी है! . . . कि सिजदे के लिए दिल में ज़रा-सा सिद्क लाना है। . . . तभी तो
सिजदा हो सकेगा। थोड़ी सचाई तो आ जाए। थोड़ी बेईमानी तो गिर जाए। थोड़ी मेरी चालबाजी
तो हट जाए। मुझे पीने से मत रोक।
यहां
भी पिलायी जा रही है एक शराब--और ऐसी शराब जो अंगूरों से नहीं ढाली जाती, आत्मा से ढाली जाती है। और ऐसी शराब,
जो बाजारों में नहीं मिलती--जो मंदिरों
में ही मिलती है, जिंदा
मंदिरों में मिलती है--और सिर्फ वहीं मिलती है।
मैं
जानकर ही इसे मधुशाला कहता हूं। "मधुशाला' सूफियों का सांकेतिक शब्द है। इसका अर्थ
होता है--जहां परमात्मा पिया जा रहा है, पिलाया जा रहा है।
चौथा
प्रश्न : भगवान्! हर दिन आप अमृत की चर्चा करते हो और यह दुनिया है कि आपको जहर
लौटाती है। क्या आपको भी कभी लगता होगा कि किन अंधों को मैं प्रकाश दिखाता हूं और
किन बहरों को मैं अमृतवाणी सुनाता हूं?
सत्य
निरंजन! ऐसा लगने का उपाय नहीं। अंधा अंधा है। और अगर अंधा अंधे की तरह व्यवहार
करता है तो इसमें चकित होने जैसा क्या है? और बहरा बहरा है। और बहरा अगर नहीं सुनता, पुकारे-पुकारे नहीं सुनता, तो इसमें चकित होने की बात क्या है?
सुन ले तो चकित होने की बात है। जब कोई
सुन लेता है तब मैं चकित होता हूं। जब कोई देख लेता है तब मैं चकित होता हूं। तब
चमत्कार घटता है। जब कोई नहीं देखता है, मैं दिखाए चला जाता हूं और नहीं देखता, तो बात सीधी-साफ है। कसूर उसका क्या?
कसूर मेरा है।
जब
तुम अंधे को कुछ दिखाने की कोशिश कर रहे हो तो कसूर तुम्हारा है। अंधे को न दिखाई
पड़े, इसमें नाराजगी क्या?
अपेक्षा ही कहां है कि अंधे को दिखाई
पड़ना ही चाहिए? यह
तो मुझे दिखाई पड़ जाए। यह मेरी मजबूरी है कि जो मुझे दिखाई पड़ा वह मुझे चैन नहीं
लेने देता; वह कहता है : दिखाओ।
वह कहता है : दो। सौ को पुकारोगे तो शायद एक सुन लेगा। हजार को दिखाओगे तो शायद एक
को दिख जाएगा। तो भी बहुत है। तो भी पर्याप्त पुरस्कार मिल गया।
उठे
स्वर्ण की आभा में ज्वाला-सा मन
तन
झुलस-झुलस कर भी झूमे आनंद-मगन
हर
अंधकार में सिसक रही कोमलता का दुःख दीन हो
तम
क्षीण अमावस को करने की यह इच्छा प्राचीन न हो
और
जब तुम्हारे भीतर भी प्रकाश जागे तो रोककर मत बैठ जाना।
तम
क्षीण अमावस को करने की यह इच्छा प्राचीन न हो।
तुम्हारे
भीतर यह अभीप्सा जगाए रखना। यह करुणा बनाए रखना। जब तुम्हारे मेघ भरें तो बरसना।
यह मत सोचना कि पृथ्वी पिएगी या नहीं पिएगी? कभी पीती है, कभी नहीं पीती। कभी वर्षा पहाड़ों पर हो
जाती है, कभी कंकरीली-पथरीली
जमीन पर हो जाती है, कभी
रेगिस्तानों में हो जाती है। कभी बंजर भूमि पर होती है और कभी-कभार उपजाऊ भूमि पर
भी। पर उतना ही काफी है।
जीसस
ने कहा हैः जैसे कोई बीजों को फेंके; रास्ते पर पड़ जाएं, उगते नहीं। रास्ते के किनारे पड़ जाएं, उग भी जाते हैं तो गाय-बैल चर जाते हैं।
मेड़ पर पड़ जाएं, उग
भी जाते हैं, गाय-बैल
नहीं भी चर पाते हैं; लेकिन
लोगों के चलने-फिरने में नष्ट हो जाते हैं। लेकिन इससे कोई बीज बोना थोड़े ही बंद
कर देता है। कुछ बीज खेत की बीजभूमि पर भी पड़ते हैं। हजार बीज फेंके, एक बीज फल जाए।
और
तुम सोच लेना कि परमात्मा भी इससे ज्यादा अपेक्षा नहीं करता। इसलिए तो एक वृक्ष
में लाखों बीज लगाता है, कि
कम-से-कम एक-आध तो गिरकर सफल हो जाएगा। फिर एक वृक्ष हरा होगा। एक वृक्ष में
करोड़ों बीज परमात्मा क्यों लगाता है? करोड़ों बीज की जरूरत नहीं है। अगर हिसाब-किताब करें, पंचवर्षीय योजना बनाए, तो सोचेगा कि यह मैं क्या कर रहा हूं,
यह तो फिजूलखर्जी है। एक वृक्ष में
हजार-करोड़ बीज क्यों लगाने? कुछ
बीज लगा दो। मगर करोड़ों बीज लगाता है, तब कहीं एक-आध-दो बीज अंकुरित होते हैं। और क्या-क्या इंतजाम
करता है कि बीज पहुंच जाएं भूमि तक!
तुमने
सेमर के फूल देखे? तुम
जानते हो क्यों सेमर के फूल में कपास होती है? वह जो बीज होता है उसके भीतर, उसको उड़ाकर दूर ले जाने के लिए। क्योंकि
सेमर का वृक्ष बड़ा वृक्ष है। अगर बीज उसके नीचे ही गिरेगा तो उतने बड़े वृक्ष के
नीचे बीज अंकुरित नहीं हो पाएगा। हो भी जाएगा तो पौधा बड़ा नहीं हो पाएगा। बीज को
दूर ले जाना जरूरी है। तुम यह मत सोचना कि तुम्हारे तकिए में भरने के लिए सेमर के
फूल में कपास होती है। तुम्हारे तकिए से क्या लेना-देना? वह बीज को ले जाने के लिए होता है। वह
बीज का पंख है। वह जो कपास है, हल्की
कपास है, वह भारी बीज को अपने
में उड़ा ले जाती है। हवा के झोंके पर दूर चला जाता है। मीलों दूर चला जाता है,
ताकि किसी निश्चित स्थान पर जहां कोई
बड़ा वृक्ष न हो . . .मगर क्या पता, हवा
कहां गिरा देगी, इसलिए
एक-आध बीज नहीं, लाखों
बीज लगाता है।
तुम्हें
पता है, एक पुरुष एक बार के
संभोग में जितने जीव-कोष्ठ छोड़ता है अपने शरीर से, उनकी संख्या करोड़ों होती । वैज्ञानिकों
ने हिसाब लगाया है कि एक साधारण आदमी, कामवासना से भरा आदमी अपने जीवन में कम से कम चार हजार बार
संभोग करता है। और प्रत्येक संभोग में करोड़ों जीवाणु छूटते हैं। यानी प्रत्येक
संभोग में करोड़ों बच्चे पैदा हो सकते थे। चार हजार बार! वैज्ञानिकों ने हिसाब
लगाया है कि एक आदमी काफी है सारी पृथ्वी को आबाद कर देने के लिए। अरबों आदमी पैदा
कर सकता है एक आदमी। मगर पैदा करेगा दस-बारह, अगर संतति-नियमन न लागू हो। अगर लागू हो
तो दो या तीन बस! परमात्मा इतना ज्यादा इंतजाम करता है दोत्तीन बच्चों के लिए।
परमात्मा
भी इससे ज्यादा अपेक्षा नहीं करता, तो
मैं तो कैसे करूं? बोले
जाता हूं। पुकारे जाता हूं। कोई न कोई सुनेगा। कुछ ने सुन भी लिया है। इसलिए अब
भरोसा भी बढ़ता है कि और भी सुनेंगे। कुछ की आंखों में धीमी-धीमी रोशनी भी दिखायी
पड़ने लगी है। इसलिए अब भरोसा भी बढ़ता है कि औरों की आंखों में भी जल्दी ही रोशनी
दिखायी पड़ेगी। कुछ बीज अंकुरित भी होने लगे हैं। मगर तुम यह बात सोचना कि इसमें
कोई दया है। इसमें एक अंतर्निहित व्यवस्था है। जैसे दीया जलेगा तो रोशनी बिखरेगी।
और फूल खिलेगा तो सुवास उड़ेगी। और मेघ घिरेंगे तो वर्षा होगी।
दया और करुणा और ममता
कोई ऐसी चीजें नहीं हैं
जिन्हें हम मुट्ठी में धरे
या जेबों में भरे फिरें
और फेंके जहांत्तहां लोगों पर
ये सब तो असल में वर्षा के बादल हैं
जो घनते हैं अपने स्वभाव में
जरूरत में और भी बरसते हैं
केवल अपने स्वभाव
या अपनी जरूरत में
गिनते नहीं हैं ये कि कहां
कितना हमसे सिंचा
कितना हमसे भरा
कितना हमने बहा, कितनों ने हमको सहा
कल्याण किया कितनों का हमने
या कहो ये गंगा की या नर्मदा की
धाराएं हैं जो बह रही हैं
जिसे सूझेगा इनके पास जाना
या लाना इन्हें अपने खेतों तक
जाएंगे वे उनके तटों पर
और मांगेंगे
इसीलिए कहा गया है शायद
जो मांगेंगे उन्हें मिलेगा
इतना
भी क्या कम है कि कोई अंधा आदमी किसी आंखवाले आदमी के पास आता है पूछने, तलाश करने! दिखाई पड़ेगा उसे कि नहीं
पड़ेगा, यह तो भविष्य के
अंधकार में है, लेकिन
इतना भी क्या कम है कि आकांक्षा जगती है कि मैं भी देखूं। और बहरा भी सुनना चाहता
है, उसके भीतर भी अभीप्सा
है नाद में उतरने की। फिर उतर पाएगा नहीं उतर पाएगा, हजार बाधाएं हैं, लेकिन यह आकांक्षा शुभ है।
तुम
यहां मेरे पास आए हो--इसी अभीप्सा के कारण। यही अभीप्सा तुम्हें दूर-दूर से ले आई
है। हजार बाधाएं, हजार
अड़चनें, उनको पार करके तुम आए
हो। इतना भी क्या कम है? मैं
प्रफुल्लित होता हूं। मैं आनंदित होता हूं। लोग आतुर हैं, लोग तलाश रहे हैं। लोग टटोल रहे हैं।
इतने लोग जब टटोलते हैं तो कुछ होने वाला है। इतने लोग जब तलाशते हैं तो कुछ
घटनेवाला है। फिर मैं न दूं, ऐसा
कोई उपाय नहीं। तुम न आओगे तो भी देना पड़ेगा।
शायद
तुम्हें पता न हो, या
पता हो--महावीर जब पहली दफा बोले तो सुनने वाला कोई था ही नहीं। वृक्ष थे। दृश्य
में तो वृक्ष थे। शास्त्रों को ज़रा अड़चन मालूम हुई होगी कि लोग क्या कहेंगे,
महावीर को पागल कहेंगे? बोले और कोई सुननेवाला था ही नहीं! कम
से कम इसका तो पता कर लेते कि सुनने वाला भी कोई है या नहीं! तो शास्त्र तो
होशियार लोग लिखते हैं, उन्होंने
उसमें होशियारी बता दी। उन्होंने कहा कि देवता, अदृश्य देवता वृक्षों के नीचे बैठे सुन
रहे थे। शक है मुझे, देवता
वगैरह कहां सुनने आएंगे! यह जोड़ा होगा शास्त्रकारों ने। लेकिन शास्त्रकारों की
मजबूरी भी मेरी समझ में आती है। अगर महावीर को बताएं कि बोल रहे हैं और सुननेवाला
कोई भी नहीं है तो उत्तर क्या दोगे? महावीर पागल हैं? देवता आए हों कि न आए हों, मुझे प्रयोजन नहीं; मगर एक बात साफ है जब दीया जलता है तो
रोशनी फैलती है, चाहे
कोई देखनेवाला हो या न हो। मेरे लिए तो यह कहानी इस बात का प्रतीक है कि महावीर के
भीतर जब फूल खिला तो सुवास बिखरी, चाहे
फिर कोई नासापुट पास हो सुगंध लेने को या न हो, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता।
एकांत
में भी फूल खिलता है, दूर
जंगल में भी फूल खिलता है तो भी सुवास . . .। ऐसा थोड़े ही है कि जब तुम्हारे बगीचे
में खिलता है तभी सुवास फैलाता है। यह अनिवार्यता है। यह सत्य के साथ जुड़ा हुआ
अनिवार्य अंग है। जब भी सत्य पैदा होता है उसके साथ ही आवाहन, पुकार पैदा होती है। उसके साथ ही
अपने-आप सत्य का गीत शुरू हो जाता है। और ऐसा तो कभी नहीं होता कि पृथ्वी पर सत्य
की तलाश करनेवाले लोग न हों। इतनी वंध्या तो पृथ्वी कभी नहीं होती। इसलिए सत्य की
तलाश करनेवाले चल पड़ते हैं। चल पड़े हैं, आने लगे हैं।
सत्य
निरंजन! तुम्हारा सोचना भी मेरी समझ में आता है। तुम कहते हो : "हर दिन आप
अमृत की वर्षा करते हो और यह दुनिया है कि आपको जहर लौटाती है।' जो जिसके पास है, वही तो देगा न! जिसके पास गीत हैं गीत
देगा; जिसके पास गालियां
हैं, गालियां देगा। इससे
तुम दुनिया पर नाराज मत होना, दया
करना। इससे इतना ही समझना कि बेचारों के पास और कुछ नहीं है, वे करेंगे भी क्या! जो मेरे पास है,
मैं देता हूं; जो उनके पास है, वे देते हैं।
एक
जैन-कथा है। एक जैन-मुनि नदी के किनारे बैठा ध्यान कर रहा है। एक बिच्छू नदी में
गिर पड़ा है। मुनि ने जल्दी से हाथ फैला कर बिच्छू को पानी में से हाथ में ले लिया।
उठाकर किनारे पर रख दिया, बिच्छू
डूब न जाए। लेकिन इस बीच बिच्छू ने डंक मार दिया। मुनि तो बचाने चला है बिच्छू को,
मगर बिच्छू भी बेचारा क्या करे, बिच्छू बिच्छू है! डंक उसके पास है । डंक
मारने की कला उसे आती है। और जितने हाथों ने उसे कभी छुआ है या उसके पास आए हैं,
सब उसे मारने आए हैं, बचाने तो कभी कोई हाथ आया नहीं। अनुभव
नहीं है उसे। उसके बाप-दादों को भी अनुभव नहीं था। पीढ़ी-दर-पीढ़ी करोड़ों वर्ष का
संस्कार उसका यही है कि जब भी कोई हाथ आया है, मारने आया है। मुनियों के हाथ इतनी
आसानी से मिलते भी कहां हैं! वैसे ही मुनि कम हैं। कभी-कभार हजार मुनि हों तो
उसमें एकाध मुनि मुनि होता है। अगर बिच्छू ने डंक मारा तो ठीक ही किया; मुनि हंसने लगा।
और तुमने देखा, कीड़े-मकोड़ों की एक जिद होती है, अहंकारी होते हैं। चींटे को तुम ज़रा
फेंक दो दूर, वह
वापिस लौटकर तुम्हारी तरफ आता है। फिर फेंको दूर, फिर वापिस लौटकर आता है। जिद बंध जाती
है। वह कहता है : तुमको भी हम दिखाकर रहेंगे। तुमने समझा क्या है? जीवन की बड़ी जिद होती है। चाहे छोटी ही
जीवन की किरण क्यों न हो, मगर
जिद्दी होती है।
मुनि
तो उठाकर रख दिया उसे किनारे पर, वह
वापिस पानी में गिर पड़ा। उसने तय ही कर लिया है जैसे। मुनि ने उसे फिर हाथ में
उठाया, फिर उसने डंक मारा।
और जब तीसरी बार वह फिर पानी में गिरा और मुनि उसे उठाने लगा तो एक मछुआ, जो पास ही मछली मार रहा था, उसने मुनि से कहाः आप पागल हैं? होश गंवा बैठे हैं? क्या कर रहे हैं? वह बिच्छू आपके हाथ में डंक पर डंक मारे
जा रहा है। मरने दो उसको। उसको बचाने से सार भी क्या है? मर ही जाए तो अच्छा है। और समझ में नहीं
आ रहा कि तीन दफे डंक मार चुका।
मुनि
ने कहा : मैं अपना काम कर रहा हूं, वह
अपना काम कर रहा है। अगर बिच्छू नहीं हार रहा तो मैं हार जाऊं? अगर बिच्छू जिद पर है तो मैं भी जिद में
हूं। बिच्छू कहता है, हम
मरेंगे डूबकर, आत्मघात
करने की तैयारी किए बैठा है। मैं भी कहता हूं, हम बचाएंगे। और बिच्छू ही है, वह डंक न मारे तो क्या करे? फूल तो बरसाएगा नहीं। अब देखना यह है कि
कौन हारता है। मैं उठाता रहूंगा, जब
तक होश रहेगा। देखना है उसका जहर पहले चुकता है कि पहले मेरा अमृत चुकता है।
तो
सत्य निरंजन! दुनिया मुझे क्या लौटाती है, इससे सिर्फ दुनिया दया का पात्र हो जाती है। जहर है तो जहर
लौटाते हैं। बिच्छू हैं तो डंक मारते हैं। सांप है तो फन फैलाते हैं।
एक
फकीर एक गांव में आया। गांव के लोग उसके बड़े विरोध में थे। उन्होंने क्रोध में आकर
उसको जूतों की माला पहना दी। वह फकीर खूब खिलखिला कर हंसने लगा। उसने जूते बड़े गौर
से देखे। संभाल कर माला रख ली। छाती से लगा ली। गांव के लोगों ने कहा : तुम कर
क्या रहे हो, ये
जूते हैं! फकीर ने कहा : जूते मेरे फट भी गए थे। और प्रार्थना लगता है, सुन ली। कल ही रात मैंने परमात्मा से
कहा था कि जूते दिलवाओ। मगर यह नहीं सोचा था कि इतने दिलवा देगा। मैं तो दो की आशा
रखता था। वह भी कभी-कभार सुनता है मेरी प्रार्थना। पक्का भी नहीं था कि सुनेगा,
मगर सुबह ही इतने जूते! हे मालिक! तेरी
बड़ी कृपा है! रही आप लोगों की बात। तो यह जानकर मैं खुश हूं कि जो आपके पास था,
आप लाए तो! कुछ गांव तो ऐसे हैं कि लोग
कुछ भी नहीं लाते--जूते तक नहीं लाते। उनके पास, ऐसा लगता है, कुछ भी नहीं है। फिर जो जिसके पास है .
. .। मालियों के गांव में जाता हूं तो फूल लाते हैं। लगता है यह बस्ती चमारों की
होगी। जाहिर है जूतों की माला से कि बस्ती चमारों की होगी। चमार भाई! तुम्हारी बड़ी
कृपा ! जो जिसके पास है वही देगा न! चमार भाई! तुम्हारी बड़ी कृपा!
जहर
कोई लौटाता है, लौटाने
दो। जहर लौटाते-लौटाते कभी तो संभलेगा, कभी तो खयाल आएगा। गालियां देते-देते, कभी तो होश आएगा। कभी तो क्षणभर को
रुकेगा।
और
फिर एक बात और खयाल रखना : जो लोग गालियां देते हैं और जहर फेंकते हैं, इतना तो पक्का है कि मुझसे उनका संबंध
हो गया। मेरे संबंध में सोचते हैं, विचार
करते हैं। नाता तो जुड़ ही गया। दुश्मनी भी एक नाता है। जैसे दोस्ती एक नाता है।
दोस्त की भी याद आती है, दुश्मन
की भी याद आती है। अगर उन्होंने मुझे अपना दुश्मन भी समझ लिया है तो अपने व्यक्ति
में मेरे लिए थोड़ी जगह तो दे ही दी। वहीं से काम शुरू होगा। उतनी जगह भी काफी है।
ज़रा-सा पैर रखने को जगह भर मिल जाए, फिर धीरे-धीरे अंगूठा हाथ में आ गया, तो पहुंचा भी हाथ में आ ही जाएगा।
और
जो घृणा से भरे हैं, वे
कभी भी प्रेम से भर जाएंगे। क्योंकि घृणा और प्रेम एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
असल में वे नाराज ही इसलिए हैं कि उन्हें भय पैदा हो गया है कि अगर वे नाराज न
होंगे तो मुझसे राजी हो जाने का डर है। इसलिए मैं फिर दोहरा दूं: तुम नाराज ही तब
होते हो किसी से जब तुम्हें राजी होने का डर पैदा हो जाता है। तुम अपने भय में
नाराज हो जाते हो। तुम अपनी सुरक्षा करने लगते हो।
वे
मुझे गालियां नहीं दे रहे हैं; गालियों
की दीवाल अपने चारों तरफ खड़ी करके सुरक्षा कर रहे हैं, ताकि मेरे पास आने का जो आकर्षण पैदा हो
रहा है, वे अपनी गालियों से
उस आकर्षण को मंदा कर लेना चाहते हैं। लेकिन गालियों से आकर्षण मंदा नहीं होता। यह
तो वैसा ही पागलपन है जैसे कोई आग बुझाने को घी डाले। यह आग बढ़ेगी। जिसने मुझे
गाली दी, वह मेरे फंदे में
पड़ा।
मैं
अहमदाबाद में था। एक मित्र संन्यास लेने आए। जब मैं किसी को संन्यास देता हूं तो
उससे कहता हूं, ज़रा
मेरी आंखों की तरफ देखो। उनसे मैंने बार-बार कहा लेकिन वे नीचे ही देखें। मैंने
कहा : भई एक दफा मेरी आंख की तरफ तो देखो। उन्होंने कहा कि नहीं देखेंगे। मैंने
कहा : तुम एक नए संन्यासी हो! बात क्या है?
उन्होंने
कहा : शर्म आती है। लज्जा आती है।
तो
मैंने कहा : फिर पूरी कहानी कहो। बात क्या है पीछे?
तो
उन्होंने कहा : आपको पता चल गया क्या?
मैंने
कहा : तुम पूरी कहानी कहो। तुम्हारे चेहरे पर तो लिखी है।
तब
उन्होंने आंख उठाई। उन्होंने कहा कि बात असल में यह है ? ? !
उन
दिनों मुझ पर अहमदाबाद की अदालत में एक मुकदमा चलता था। किसी ने मुकदमा चला दिया
था कि मैं धर्म का दुश्मन हूं और धर्म की हानि हो रही है। उन सज्जन को बड़ा जोश आ
गया। धर्म की हानि हो रही है! ? ? त?ो वे मेरी सभा में छुरा लेकर छुरा फेंक
कर मुझे मारने को आए थे। मगर भीड़-भाड़ थी
और इतने पास नहीं आ सके जहां से छुरा फेंका जा सके, तो उन्होंने सोचा कि अब आ ही गया
हूं तो बैठकर सुन लूं। बैठकर सुन
तो लिया , लेकिन तब बड़ी
ग्लानि से भर गए कि अगर
यह बात धर्म की हानि है, तो
फिर धर्म की रक्षा क्या होगी! दूसरे दिन संन्यास लेने आए। तो उन्होंने कहाः इसलिए आंख नहीं उठाता हूं कि कल ही तो मैं छुरा
लेकर आपको मारने गया था। आंख किस तरह उठाउं ? **त्र्!)ध्****त्र्!)इ१४)१०**
मैंने
कहा : तुम बेफिक्री से उठाओ। तुम्हारा मुझसे नाता पुराना होगा, नया नहीं है। तो सिर्फ अफवाह सुनकर कोई
किसी को छुरा मारने जाए, अपनी
जिंदगी दांव पर लगाए . . .। मेरी जिंदगी जाती-जाती, वह तो ठीक था; तुमने अपनी जिंदगी दांव पर लगायी,
यह कोई छोटा मामला है! तुम फंसते,
झंझट में पड़ते। इतनी झंझट में पड़ना चाहा
जिस आदमी के लिए तुमने . . . जीवन-मरण का सवाल तुम्हारे लिए भी था। जितनी तुमने
उपद्रव उठाने की हिम्मत दिखाई, साफ
जाहिर है कि नाता पुराना होगा। और घृणा जल्दी ही प्रेम में बदल जाती है। असली
कठिनाई तो उन लोगों के साथ है जिनकी घृणा भी बड़ी कुनकुनी है।
कुनकुना
प्रेम भी कहीं नहीं पहुंचाता, कुनकुनी
घृणा भी कहीं नहीं पहुंचाती। या तो प्रेम चाहिए जलता हुआ, ज्वलंत, सौ डिग्री पर; या घृणा चाहिए ज्वलंत, सौ डिग्री पर। दोनों ही हालत में कुछ
क्रांति घटती है।
इसलिए
सत्य निरंजन! उनकी चिंता न करो। अगर उनकी घृणा मजबूत है तो वे आज नहीं कल आएंगे।
वे चल ही पड़े हैं। उन्होंने ज़रा यात्रा लंबी शुरू की है। मगर जमीन गोल है। तुम
चाहे चलो मेरे विपरीत, मगर
चलते रहना, तो आज नहीं कल मुझ तक
पहुंच जाओगे।
मैंने
सुना है, एक आदमी भागा चला जा
रहा था। राह के किनारे बैठे एक आदमी से पूछा कि दिल्ली कितनी दूर है? तो उस आदमी ने कहाः जिस दिशा में आप जा
रहे हैं, अगर इसी में चलते रहे
तो एक दिन पहुंच जाएंगे। लेकिन कई हजार मील का चक्कर है। अगर आप पीछे लौट पड़ें,
तो ज्यादा दूर नहीं है। आप पीछे पांच
मील दूर ही दिल्ली छोड़ आए हैं। वैसे आपकी मर्जी, दोनों तरफ से आप दिल्ली पहुंच जाएंगे।
सीधे चलते ही रहना, नाक
की सीध में, चलते-चलते
चलते-चलते दिल्ली आ जाएगी, मगर
सारी पृथ्वी का चक्कर लग जाएगा।
सारी
गति चक्राकार होती है। घृणा से जो चलता है वह भी प्रेम पर पहुंच सकता है। और जो
प्रेम से चला है वह भी घृणा पर पहुंच सकता है। मित्र शत्रु हो सकते हैं, शत्रु मित्र हो सकते हैं। जीवन बड़ा
वर्तुल है।
इसलिए
बहुत चिंता न करो। अगर वे जहर दे रहे हैं, आज नहीं कल जहर उंडेलते-उंडेलते उनका जहर चुक जाएगा। आखिर
बिच्छुओं की ग्रंथि में भी एक सीमा होती है जहर की। लेकिन जो अमृत मैं तुम्हें दे
रहा हूं वह चुकनेवाला नहीं है। अमृत का लक्षण ही यही है कि वह अनंत है, असीम है। और जहर सीमित होता है। जहर और
अमृत में लड़ाई हो तो अमृत हार नहीं सकता। जहर उफने, उछले-कूदे, लेकिन एक-न-एक दिन शांत उसे हो ही जाना
पड़ेगा। इसलिए जाननेवालों ने कहा हैः सत्यमेव जयते! चाहे देर कितनी ही लग जाए,
लेकिन सत्य की विजय होती है।
दर्द
को ढालते हैं नग्म?ो
में
सोज़
को साज़ में बदलते हैं
दाद
दे हमको ऐ गमे-दुनिया!
जख्म?
खाकर भी फूल उगलते हैं।
मैंने
हर ग़म खुशी में ढाला है
मेरा
हर इक चलन निराला है
लोग
जिन हादसों से मरते हैं
मुझको
उन हादसों ने पाला है
खयाल
करना, यह सारे संतों का
अनुभव है : दर्द को ढालते हैं नग्मों में! पीड़ा आए, तो उस पीड़ा की ऊर्जा से गीत बना लेते
हैं।
दर्द
को ढालते हैं नग्म?ो
में
सोज़
को साज़ में बदलते हैं
दुःख
को भी वीणा बना लेते हैं। खंडहरों को भी महल बदल देते हैं। सोज को साज में बदलते
हैं। दाद दे हमको ऐ गमे-दुनिया! . . . ऐ दुःख से भरे हुए लोगो! ऐ दुःख से भरी हुई
दुनिया! हमें दाद दो। जख्म खाकर भी फूल उगलते हैं। यहां कुछ थोड़े-से लोग जमीन पर
सदा होते हैं, जो
जख्म खाते हैं और फूल लौटाते हैं। तुम उनकी तरफ अंगारे फेंको और तुम्हारे अंगारे
उनमें बुझ जाते हैं और शीतल फूल होकर लौट आते हैं। जिसके पास ऐसी घटना घटती हो,
उसने ही जाना है, उसने ही पाया है : तुम गालियां फेंको और
उसके भीतर आकार गीतों में ढल जाएं।
मैंने
हर गम खुशी में ढाला है
मेरा
हर इक चलन निराला है
लोग
जिन हादसों से मरते हैं . . .
जिन
घटनाओं में लोग मर जाते हैं, जिन
घटनाओं में लोग उलझ जाते हैं, समाप्त
हो जाते हैं--मुझको उन हादसों ने पाला है।
जार्ज
गुरजिएफ पश्चिम का एक बहुत अद्भुत ज्ञानी, एक बड़ी महत्त्वपूर्ण बात कहता था। वह कहता था कि जीसस को सूली
लगायी गयी, यह तो कथा का ऊपरी
हिस्सा है। जीसस ने खुद ही आयोजन करवाया था कि मुझे सूली लगा दो। उसने एक पूरी नयी
कथा जीसस के नाम पर खोज ली है। बड़ी महत्त्वपूर्ण कथा है। वह यह कहता है कि जुदास,
जो जीसस का सबसे प्यारा शिष्य था,
उसने धोखा नहीं दिया; उसने सिर्फ जीसस की आज्ञा मानी थी। जीसस
की आज्ञा थी कि मुझे पकड़ा दो। मुझे सूली लग जाए तो मैंने जो कहा है, वह सदा के लिए शाश्वत हो जाएगा।
गुरजिएफ
की कहानी तो काल्पनिक मालूम पड़ती है, पर बड़ा संकेत गहरा है। इतनी बात तो सच है कि जीसस को लोग भूल
गए होते, अगर सूली न लगी होती।
सूली ने ही जीसस को याद्दाश्त में गहरा बिठा दिया--लोगों के प्राणों का हिस्सा बन
गए। सूली ने ही उन्हें शाश्वतता दे दी।
सुकरात
को जहर न पिलाया होता, सुकरात
को लोग भूल गए होते। तो फिक्र न करो।
लोग
जिन हादसों से मरते हैं
मुझको
उन हादसों ने पाला है
अब
तक का अनुभव यही है कि संतों को मारे गए पत्थर, उनके चरण-चिह्न बन गए हैं। उनको मारे गए
पत्थर, आनेवाले समय के लिए
धरोहर बन गए हैं। उन पत्थरों के कारण ही उन संतों की अमिट छाप लोगों के प्राणों पर
छूट गयी है।
तो
मुझे गालियां दी जाएंगी, पत्थर
भी मारे जाएंगे। और तुम जो मेरे साथ चलने को राजी हुए हो, तुम्हें इन सब बातों के लिए राजी हो
जाना चाहिए। और आनंद से, अहोभाव
से!
काम
है मेरा बगावत, नाम
है मेरा शबाब
मेरा
नारा इंकिलाबो, इंकिलाबो,
इंकिलाब!
क्रांति
मेरा नारा है। बगावत को मैं धर्म कहता हूं । विद्रोह मेरे लिए साधना है।
आखिरी
प्रश्न : प्रवचन सुनते समय आनंद आता है और समझ भी आता है। थोड़ी देर बाद सब भूल
जाता है। इस सूरत में दिए उपदेश पर अमल कैसे हो? राह दिखाएं प्रभु!
प्रेमचैतन्य
भारती! तुम्हारी अड़चन मेरे खयाल में है। तुम्हारे पहले प्रश्न का उत्तर दे रहा हूं;
हालांकि तुम प्रश्न तो कम से कम पचास
पूछ चुके होओगे जब से तुम यहां आए हो। तुम्हारे प्रश्नों के इसलिए उत्तर नहीं दिए
थे। राह देखता था कि तुम संन्यस्त हो जाओ तो तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर दूंगा।
तुम्हारे
सारे प्रश्नों से कुछ बातें जाहिर हैं। एक : कि तुम जैन धर्म से अत्यधिक प्रभावित
हो, इसलिए अमल की बात
उठती है। मेरे हाथ में तुम पड़ गए हो अब। यहां अमल की बात ही नहीं है। मेरे हिसाब
में तो बोध काफी है, समझ
काफी है। सुनो मेरी बात, समझो
मेरी बात; उसे चरित्र में
उतारना है, यह विचार ही मत करना।
अगर बात समझ में आ गई तो चरित्र में उतरेगी ही। तुम एक दिन अचानक पाओगे कि अमल हो
रहा है, तुम्हें करना नहीं
है।
लेकिन
तुम पर जैन धर्म की छाया है, छाप
है। वहां तो हर चीज अमल में लानी है। और तो कुछ बोध है नहीं, ध्यान की प्रक्रियाएं तो खो गई हैं;
आचरण-मात्र रह गया है--थोथा! ऐसा करो,
ऐसा करो, ऐसा करो . . .। तो तुम्हारे मन में वही
सरक रहा है, कि
सुन तो लिया . . .।
जैन
मुनि लोगों को समझाते हैं कि देखो, हमने
जो कहा, भूल मत जाना! एक कान
से सुना और दूसरे से निकाल मत देना।
और
मैं तुमसे यही कहता हूं कि मैं तुमसे जो कहता हूं, कृपा करके भूल जाना। याद रखने के योग्य
जो है, वह याद रहेगा ही;
तुम भूलना भी चाहो तो नहीं भूलेगा। और
जो भूल जाए वह भूल ही जाना था। वह किसी काम का नहीं था; अभी तुम्हारी समझ का अंग नहीं बना था।
कोई परीक्षा थोड़े ही देनी है। यह कोई स्कूल थोड़े ही है कि जो कहा है उसको खूब
कंठस्थ कर लो, क्योंकि
फिर परीक्षा की कापी में वमन कर देना, उत्तीर्ण हो जाना। जीवन कोई इतनी सस्ती बात नहीं है।
तो
मैं तो कहता हूं : सिर्फ सुनो, समझो,
पियो! बिल्कुल भूल जाओ, याद रखने की जरूरत ही नहीं है। नहीं तो
कुछ लोग नोटबुक ले आते हैं, उसमें
नोट करते जाते हैं। तुम्हारी नोटबुक बता रही है कि तुम्हारी समझ में कुछ नहीं रहा।
जिसकी समझ में आ रहा है, नोटबुक
का क्या करेगा? समझ
में ही आ गया। और जो बात समझ में आ जाती है शायद उसके शब्द भूल जाएं, लेकिन उसका सार नहीं भूलता। और अगर सार
भी भूल जाता हो तो भी मैं यह कहूंगाः और करीब आओ, और गौर-से सुनो, और ध्यानपूर्वक डूबो!
मगर
अमल की तो बात ही मत उठाना। चरित्र के मैं पक्ष में नहीं हूं; बोध के पक्ष में हूं। बोध होता है भीतर;
चरित्र होता है बाहर। भीतर की बदलाहट हो
जाए तो बाहर की बदलाहट अपने से हो जाती है। अंतःकरण बदले तो आचरण अपने-आप छाया की
तरह बदलता है। लेकिन तुमने उल्टी बातें सुनी हैं। तुम जैन मुनियों के पास बैठते
रहे हो, उठते रहे हो।
तुमने
एक प्रश्न यह भी पूछा है कि अब मैं क्या करूंगा? मैं आपका संन्यासी हो गया और मेरा लगाव
जैन मुनियों और साध्वियों से है। मैं उनकी चरण-वंदना को जाऊं या न जाऊं?
तुम्हारी
मर्जी है। लेकिन तुम द्वंद्व में पड़ोगे। क्योंकि मैं जो कह रहा हूं, वह बिल्कुल कुछ और है। वह वही है जो
महावीर ने कहा था। और जैन मुनि जो कह रहे हैं वह जितना मेरे विपरीत है उतना ही
महावीर के विपरीत है। तुम्हारी मर्जी है, जिसकी चरण-वंदना करना हो करना, मगर फिर उलझन में पड़ोगे। क्योंकि मैं कह
रहा हूं--बोध, ध्यान;
और वे कह रहे हैं--आचरण, चरित्र। मैं कहता हूं--न व्रत, न उपवास। इसका यह मतलब नहीं है कि मैं
व्रत-उपवास के विरोध में हूं। लेकिन व्रत की तरह विरोध में हूं।
तुम
सिगरेट पीते हो; जैन
मुनि कहता है व्रत ले लो कि अब नहीं पिएंगे। मैं कहता हूं कि यह जबर्दस्ती होगी।
सिगरेट पीना छोड़ दोगे, पान
चबाने लगोगे। मुंह चलेगा, कहीं-न-कहीं
चलेगा। और अगर पान भी चबाना बंद करवा देंगे जैन मुनि, तो तुम बकवास करने लगोगे। मुंह चलेगा .
. .अब यह बकवास और खतरनाक है। कम-से-कम सिगरेट पीते थे, धुआं बाहर ले गए भीतर ले गए, कोई इतना बड़ा नुकसान नहीं है। एक-आध साल
कम जीते . . .वैसे भी तुम्हारे जीने से कौन-सा बड़ा लाभ है? ज़रा जल्दी चले जाते, एक जगह खाली होती। अब तो वह और एक साल
ज्यादा जियोगे और लोगों की खोपड़ी खा जाओगे।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि सिगरेट, पान,
चीविंगगम, ये सब बकवास करनेवाले आदमी के लक्षण
हैं। बकवास कर लेता था, बकवास
करने को कोई मिलता नहीं; क्या
करे? अकेले ही मुंह चलाए,
सिर्फ बिना उसके चलाए तो लोग कहेंगे :
क्या कर रहे हो, पागल
हो? तो चीविंगगम रख ली
मुंह में, कि एक बहाना तो है कि
हम चीविंगगम चबा रहे हैं, हम
पान चबा रहे हैं, हम
तंबाकू चबा रहे हैं। अब कोई कुछ नहीं कह सकता।
मैं
तुमसे व्रत लेने को नहीं कहता। मैं तुमसे कहता हूं तुम्हारी समझ में आ जाए कि यह
क्या मूढ़ता कर रहे हो--धुआं भीतर ले गए, बाहर ले गए! यह कोई धुएं का प्राणायाम कर रहे हो? अगर प्राणायाम ही करना है तो शुद्ध वायु
का ही ठीक है; अब
यह धुएं का किसलिए करना? इसका
सार क्या है, प्रयोजन
क्या है? इससे तो थोड़ी विपस्सना
करो! श्वास पर ध्यान रखो बाहर-भीतर, उसका आनंद लो। और तुम चकित हो जाओगे कि इतना रस बहता है,
सिर्फ श्वास को देखने से कि तुम क्या
सिगरेट पीने की सोचोगे! व्रत नहीं लेना पड़ेगा, सिगरेट जाएगी।
उपवास
के भी मैं विपरीत नहीं हूं। लेकिन उपवास कभी हो जाए--मस्ती ऐसी हो कि भोजन याद ही
न आए! ध्यान में डूबे ऐसे कि भोजन भूल ही गया। ऐसा यहां घट जाता है। अभी चार-छह
दिन पहले एक संन्यासी ने कहा कि रात को खयाल आया कि आज भोजन नहीं लिया है, दिन-भर ऐसी मस्ती छाई रही। यह उपवास है!
यह मस्ती से आया है।
एक
उपवास होता है कि थोप लिया कि अब करना है। उपवास करनेवाला एक रात पहले डटकर खा
लेता है--कल उपवास करना है। ठूंस लेता है जितना ठूंस सकता है। यह और हानि हो गई;
इससे तो तुम कल ही भोजन करते उतना ही
अच्छा था। और फिर जिस दिन उपवास करता है, दिन-भर भोजन की ही सोचता है। उस दिन परमात्मा की याद नहीं आती।
उस दिन बस "अन्न ब्रह्मा', अन्न
ही ब्रह्मा है! और क्या-क्या चीजें घूमती हैं मस्तिष्क में . . .और कैसी-कैसी
सुगंधें उठती हैं! कहीं भजिए पकने लगते हैं! कहीं हलुवे की गंध आने लगती है! जहां
जाओ वहीं . . .। और सोच रहा है कि कब यह दिन पूरा हो जाए . . .और क्या-क्या खाना
है इसके बाद। यह उपवास हुआ? यह
तो भोजन से भी विकृत दशा हो गई। भोजन कर लेते थे, दो दफे भोजन कर लेते थे, झंझट मिटी। हर दो भोजन के बीच आठ घंटे
का उपवास तो हो जाता था। अब वह भी नहीं हो रहा है। अब चल ही रहा है भोजन, कर ही रहे हैं कल्पना में। रात भी सपने
देखोगे कि चल रहा है भोजन।
कुछ
लोग तीर्थ यात्रा पर गए थे। मुल्ला नसरुद्दीन भी साथ था। रास्ते में लुट गए।
थोड़े-से ही पैसे बचे। चारों भूखे थे। गांव से हलुआ खरीदा। मगर हलुआ इतना कम था कि
एक के ही काम का था। बड़ी झंझट हो गई, अब कौन करे? और
चारों बांटें तो किसी का भी मन न भरे। तो उन्होंने सोचा कि हम में जो सबसे ज्यादा
कीमती आदमी है, वह
भोजन करे; उसका बचना जरूरी है,
बाकी मर भी जाएं तो चलेगा। मगर कौन है
कीमती, यह कैसे तय हो?
चारों दावे करने लगे कि मैं तुमसे
ज्यादा कीमती हूं, कि
मैं इतना पढ़ा-लिखा हूं; कि
किसी ने कहा कि भई मेरे इतने बच्चे हैं, मैं मर जाऊंगा तो इनका क्या होगा? और किसी ने कहा, अभी-अभी मेरी शादी हुई है, पत्नी को घर छोड़ कर आया हूं, बेवा हो जाएगी, उसकी भी तो सोचो! और किसी ने कहा कि मैं
धार्मिक हूं, किसी
ने कहा कुछ, किसी
ने कुछ। सांझ हो गई बकवास करते-करते, मगर वह हलुआ कौन खाए? आखिर उन्होंने यह तय किया कि हम चारों सो जाएं, परमात्मा को तय करने दें। रात परमात्मा
जिसको भी सुंदरतम स्वप्न देगा, सुबह
वही भोजन कर लेगा।
चारों
सो गए। सुबह उठे। पहले ने कहा कि रात परमात्मा उपस्थित हुआ, उसने मुझे छाती से लगा लिया। इससे सुंदर
और क्या हो सकता है? इससे
ज्यादा श्रेष्ठ और क्या हो सकता है?
दूसरे
ने कहा, यह कुछ भी नहीं है।
परमात्मा ने मुझे कंधे पर बिठा लिया। इससे श्रेष्ठ क्या हो सकता है?
तीसरा
भी चूक नहीं सकता था, उसने
कहाः तुम बातें क्या कर रहे हो, मुझे
देखते ही परमात्मा एकदम साष्टांग दंडवत किया!
तीनों
मुड़े नसरुद्दीन की तरफ, ज़रा
चौंके, कि अब यह क्या करेगा,
क्योंकि आखिरी हो गयी बात! परमात्मा ने
एकदम साष्टांग दंडवत कर लिया, बात
खत्म हो गई। नसरुद्दीन ने कहाः मुझे तो इतने ये सपने नहीं आए। मुझे तो परमात्मा
दिखाई पड़ा उसने कहा : अबे बुद्धू, पड़ा-पड़ा
क्या कर रहा है? हलवा
खा! तो मैं तो भइया उठकर और उसी वक्त आज्ञा का पालन किया। हलुवा तो खत्म भी हो गया
है।
तुम
उपवास करोगे तो बस इसी तरह के सपने देखोगे कि बुद्धू! पड़ा-पड़ा क्या कर रहा है?
उठ! रेफ्रिजरेटर की तरफ जा!
न
तो मैं तुमसे उपवास करने को कहता हूं, न व्रत साधने को। मैं कहता हूं : तुम्हारा बोध जगे, तुम्हारी तल्लीनता बढ़े, तुम्हारा अंतस्तल रसमय हो! ये सब चीजें
अपने से हो जाएंगी।
अमल
की फिक्र छोड़ो--सुनो, गुनो,
डूबो!
आज
इतना ही।
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