ज्योत से ज्योत जले-(सूंदर दास)
प्रवचन-इक्कीसवां
सारसूत्र-(तुम्ही ठाकुर तुमही दासा)
संत चले दिस ब्रह्म की, तजि जगव्यवहारा।
सीधै मारग चालतैं, निंदै संसारा।।
संत कहै सांची कथा, मिथ्या नहिं बौलें।
जगत् डिगावैं आइकैं, तो कबहूं ना डोलैं।।
जे-जे कृत संसार के, ते संतनि छांड़।
ताकौ जगत् कहा करै, पग आगै मांड़े।।
जे मरजादा बेद की, ते संतनि भेंटी।
जैसे गोपी कृष्ण कौं, सब तजिकरि भेंटी।।
एक भरोसे राम कै, कछ शंक न आनै।।
जन सुंदर सांचै मतै, जग की नहिं मानैं।।
मुझि वेगि मिलहु किन आइ मेरा लाल रे।
मैं तेरै बिरह बिवोग फिरौं बेहाल रे।।
हौं निसदिन रहौं उदास तेरै कारनै।
मुझे बिरह-कसाई आइ लगा मारनै।।
इस पंजर मांहै पैठि बिरह मरोराई।
जैसे बस्तर धोबी एंठि नीर निचोरई।
मैं कासनि करौं पुकार तुम बिन पीव रे।
यहु बिरहा मेरी लार दुःखी अति जीव रे।।
अब काहे न करहु सहाइ सुंदरदास की।
बाल्हा, तुमसौं मेरी आइ लगी है आसकी।।
आरती
कैसैं करूं गुसाईं। तुमही व्यापी रहै सब नईं।।
तुमही
कुंभ नीर तुम देवा, तुम ही
कहियत अलख अभेवा।
तुम ही
दीपक धूप अनूपं,
तुमही
घंटा नाद स्वरूपं।।
तुम ही
पाती पुहुप प्रकासा, तुमही
ठाकुर तुमही दासा।
तुम ही
जल थल पावक पौना,
सुंदर
पकरि रहे मुख मौना।।
तमसा का पूर
अगम औ' अकूल
गलबल अपार
डूबे आर-पार
बह गए अधार
ढह गए कगार
शिखर औ' कछार
सभी एक सार
खोए सांझ भोर
मिटे ओर-छोर
दिग्भ्रम रव घोर
कहां, रे, किस ओर?
सघन अंधकार
गहन अहंकार
लहर फनाकार
अतुलित विस्तार
भय का संचार
नाश की कतार
उझ का संहार
आयी मझधार!
वक्र भंवरजाल
नक्र की उछाल
करो, रे, संभाल
असमय अकाल
टूट रही ताल
ओ, रे, महाकाल!
मनुष्य
एक अमावस की रात है। एक गहन अंधकार ! और जो मनुष्य रहकर ही समाप्त हो जाता है, उसे ज्योति के दर्शन ही नहीं
हो पाते। और ऐसा नहीं था कि अंधकार में ज्योति के बीज नहीं थे--बीज थे! बीज साथ
लेकर ही आए थे,
लेकिन
बीज कभी फूटे नहीं, अंकुरित
नहीं हुए। ज्योति जलनी थी, जली
नहीं। यही मनुष्य का संताप है।
संताप
का एक ही अर्थ होता है ः तुम जो होने को पैदा हुए हो अगर न हो पाए, तो संताप होगा। और तुम जो
होने को पैदा हुए हो अगर हो पाए, तो
जीवन में संगीत होगा, उत्सव
होगा। और उत्सव हो जीवन में तो ही संतुष्टि है। उत्सव हो जीवन में तो ही प्रार्थना
की संभावना है,
तो ही
धन्यवाद दे सकोगे!
सुंदरदास
के वचन आरती पर पूरे हो रहे हैं। जीवन में ही आरती पूरी हो, तभी वचनों में भी आरती पूरी
हो सकती है,
अन्यथा
वचन झूठे होंगे,
पाखंड
होंगे। प्रार्थना तो बहुत लोग करते हैं, लेकिन सच्ची प्रार्थना कभी ही होती है, मुश्किल से होती है। लोगों की
प्रार्थना तो मांगना है, भीख है; धन्यवाद नहीं! और जब तक
प्रार्थना धन्यवाद न हो, अनुग्रह
का उद्घोष न हो,
तब तक
प्रार्थना झूठी है। पर अनुग्रह का उद्घोष कैसे हो? दीया तो जला नहीं, फूल तो खिला नहीं, अमावस तो अमावस ही रही, पूर्णिमा तो आयी नहीं!
पूर्णिमा तो दूर,
दूज का
चांद भी नहीं उगा जीवन में। धन्यवाद कैसे हो? धन्यवाद किसको हो? और धन्यवाद दो भी तो सच्चा
कैसे होगा?
प्रार्थना
तो परितृप्ति का उद्घोष है। इसलिए मंदिर-मस्जिदों में जाकर व्यर्थ समय खराब मत
करो! भीतर जाओ! एक दिन उठेगी प्रार्थना, दुर्निवार उठेगी! रोकना भी चाहोगे तो रुकेगी
नहीं। एक दिन उठेगी सुगंध भीतर, दिन-दिगंत
व्याप्त होगा। एक दिन ज्योति जलेगी। उस जलती ज्योति का ही नाम प्रार्थना है।
अंधेरी
आत्मा प्रार्थना करेगी कैसे? इसलिए
शुभ है कि आज के वचन इक्कीस दिनों की इस यात्रा के बाद पूजा पर हो रहे हैंः आरती
कैसैं करौं गुसाईं, तुमही
व्यापि रहे सब ठाईं। कहां उतारूं आरती? किस दिशा की करूं आरती? किस मूर्ति की, किस रूप की? सभी मूर्तियां तुम्हारी हैं।
सभी दिशाएं तुम्हारी हैं। सभी रूप तुम्हारे हैं। तुम्हारे अतिरिक्त और कुछ है
नहीं। तब व्यक्ति की श्वास-श्वास आरती हो जाती है। आरती करनी नहीं पड़ती फिर, जीवन आरती हो जाता है।
**१५५**दय की धड़कन-धड़कन उसकी ही पूजा में लीन हो जाती है। जागो कि सोओ, प्रार्थना के स्वर उठते ही
रहते हैं।
ऐसा ही
तुम्हारे जीवन में भी हो। ऐसा हो सकता है। अगर नहीं हुआ तो स्वयं के अतिरिक्त किसी
और को जिम्मेवार मत ठहराना। तुम्हारे अतिरिक्त कोई और इसे होने से रोक सकता है।
तुम्हारे शरीर पर जंजीरें डाली जा सकती हैं, बाहर से; लेकिन तुम्हारी आत्मा पर जंजीरें कोई बाहर
से नहीं डाल सकता! तुम्हें कारागृह में फेंका जा सकता है; लेकिन देह ही कारागृह में
होगी, तुम सदा मुक्त हो। मुक्ति
तुम्हारा स्वभाव है। तुम कारागृह की दीवालों में जंजीरों और बेड़ियों में पड़े हुए
आकाश में ही विचरण करोगे। तुम्हारी बाहर की आंखें फोड़ी जा सकती हैं, लेकिन तुम्हारी भीतर की आंखों
को फोड़ने का कोई उपाय नहीं। लेकिन तुम ही न खोलो तो बात और है। तुम ही डैने न
फैलाओ और न ओढ़ो,
तो बात
और। तुम ही गुलाम रह कर मर जाना चाहो तो बात और।
स्मरण
करो इस बात का कि तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारे महोत्सव में और कोई बाधा नहीं है। और
तुमने जितने कारण खोज रखे हैं, वे सब
भुलावे हैं। कोई कहता है इस कारण नहीं पहुंच पा रहा हूं, कोई कहता है उस कारण नहीं
पहुंच पा रहा हूं! मैं तुम्हें बार-बार यह याद दिलाना चाहता हूं कि सब कारण
वंचनाएं हैं,
मन की
तरकीबें हैं। कारणखोज कर तुम निश्चिंत हो जाते हो। दूसरे पर दोष डाल दिया, छुटकारा हो गया! लेकिन
जिन्होंने भी इस जगत् में जागकर पाया है, जिन्होंने भी इस जगत् में परमात्मा का अनुभव
किया है,
उन सबकी
गवाही एक है कि तुम्हारे अतिरिक्त और कोई रुकावट नहीं डाल रहा है। इसलिए हटा दो सब
कारण। छोड़ो सब झूठे तर्क, और एक
ही बात पर सारी जीवन-ऊर्जा को निछावर कर दो, कि जागकर ही जाना है, जीवन को ज्वलंत प्रकाश बनाकर
जाना है।
लेकिन
लोग गैर-जरूरी में उलझे हैं।
जो काम जरूरी थे,
उन्हें एहतियात से
अलगाता
गया--
कभी शांतचित्त से,
एकाग्र मन से,
समय से,
सुविधा से
उन्हें अंजाम दूंगा।
जो गैर-जरूरी थे
उन्हें चटपट निपटाता गया।
अब देखता हूं
कि जीवन
गैर-जरूरी कामों में ही बीत
गया है
और सब जरूरी काम
मेरे दूसरे जन्म की
प्रतीक्षा कर रहे हैं।
ऐसा न
हो कि मरते घड़ी तुम्हें ये वचन बोलने पड़े। ऐसा ही अकसर होता है। करोड़ में एक को
छोड़कर शेष के साथ यही होता है।
जीवन
पर पुनर्विचार करो। तुम गैर-जरूरी चटपट निपटा लेते हो। तुम गैर-जरूरी को कल पर
नहीं टालते। जरूरी को तुम कहते हो, कल कर लेंगे, परसों कर लेंगे, जल्दी क्या पड़ी है? धन अभी खोज लें, ध्यान फिर कभी खोज लेंगे! पद
अभी पा लें,
परमात्मा
को पाने की जल्दी क्या है? शाश्वत
है, समय चुका नहीं जा रहा है। इस
जन्म में नहीं,
अगले
जन्म में होगा। आज नहीं कल, जवानी
में नहीं बुढ़ापे में होगा! सब व्यर्थ को निपटा लेंगे, फिर सार्थक को करेंगे।
और
ध्यान रखना,
व्यर्थ
चुकता ही नहीं। व्यर्थ की श्रृंखला अनंत है। इस दुविधा में उलझा आदमी कभी ऐसा अवसर
नहीं पाता,
जब कह
सके कि अब सब व्यर्थ काम पूरे हो गए, अब मैं सार्थक करूं! वह भ्रांत दिशा है।
सार्थक
करना हो तो अभी करना! अभी या कभी नहीं! टालना ही हो तो व्यर्थ को टालो। क्रोध आता
है, तत्क्षण करते हो। प्रेम उठता
है, कल पर छोड़ देते हो। कहते हो
अभी तो धन कमाना है, अभी तो
प्रतिष्ठा बनानी है। प्रेम प्रतीक्षा करे। होगा धन जब पास तो प्रेम भी करेंगे।
होगा धन जब पास,
मित्रों
से भी मिलेंगे;
अभी
समय नहीं। लेकिन क्रोध उठता है तो तुम टालते नहीं। घृणा उठती है तो तुम छूरे पर
धार अभी रखने लगते हो। हां, पूजा
का भाव उठे तो आरती का थाल अभी नहीं सजाते, दीए अभी नहीं जलाते, टाले ही चले जाते हो।
"कल' मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन
है। कल ने मनुष्य को डुबाया है। कल ने मनुष्य को मारा है। आज की भाषा सीखो। इस
क्षण के अतिरिक्त और कोई क्षण तुम्हारे पास नहीं है। दूसरा क्षण भी होगा, इसका कुछ पक्का नहीं। दूसरे
क्षण के भरोसे मत रहना। उसके भरोसे रहनेवाले धोखा खाते गए हैं, सदा धोखा खाते गए हैं। और हम
सब उसी के भरोसे बैठे हैं।
सूत्र--
संत
चले दिस ब्रह्म की, तजि जग
व्यवहारा।
संत
वही है जो ब्रह्म की दिशा में चल पड़ा जगत् के व्यवहार को छोड़कर। वचन सीधा-साफ है, अर्थ गहरा है। और अकसर ऐसा
होता है,
सीधे-साफ
वचन, जो एकदम सुनते ही समझ में आ
जाते हैं,
इतना
गहरा अर्थ लिए रहते हैं उसका हमें स्मरण ही नहीं होता। कठिन वचन को तो हम
सोचते-विचारते हैं; कठिन
है, इसलिए। सरल को तो हम सोचते
हैं समझ ही लिया। अब यह इतना सरल वचन है; इसमें डुबकी लगाओगे तो प्रशांत महासागर की
गहराई तुम पाओगे--संत चले दिस ब्रह्म की!
ब्रह्म
की दिशा क्या है?
दस
दिशाएं हैं आकाश की। इन दस में से कोई भी ब्रह्म की दिशा नहीं। पूरब जाओ, पश्चिम जाओ, काशी या काबा--ब्रह्म की दिशा
नहीं है। उत्तर जाओ दक्षिण जाओ, कैलाश
कि रामेश्वरम्-- काबा--ब्रह्म की दिशा नहीं है। ऊपर जाओ कि नीचे--काबा--ब्रह्म की
दिशा नहीं है। काबा--ब्रह्म की दिशा ग्यारहवीं दिशा है। और ग्यारहवीं दिशा का कोई
उल्लेख भूगोल में नहीं है। भूगोल का ग्यारहवीं दिशा अंग नहीं है। ग्यारहवीं दिशा
हैः भीतर जाओ,
अपने
में जाओ। आकाश दस दिशाओं से बना है, तुम ग्यारहवीं दिशा हो!
मोजेज
के प्रसिद्ध नियम हैं ः दस आज्ञाएं। जैसे एक-एक दिशा को एक-एक आज्ञा पूरा करती है।
जीसस
ने अपने शिष्यों को कहाः मैं तुम्हें ग्यारहवीं आज्ञा देता हूं! वही ग्यारहवीं
आज्ञा ग्यारहवीं दिशा में ले जानेवाली है। वह आज्ञा भी बड़ी अनूठी है। शिष्यों ने
पूछा कि ग्यारहवीं आज्ञा?हमने
तो सुना है कि दस आज्ञाओं में सारा धर्म आ गया। लेकिन जीसस ने कहा ः जब तक तुम
ग्यारहवीं आज्ञा पूरी न करो, दस तो
पूरी होंगी ही नहीं। जिसने दस पूरी कीं और ग्यारहवीं छोड़ दी, उसका कुछ भी पूरा नहीं होगा।
और जिसने ग्यारहवीं पूरी कर ली, उसकी
दस अपने-आप पूरी हो जाती हैं। कौन-सी है ग्यारहवीं आज्ञा? तब जीसस ने कहाः प्रेम है
ग्यारहवीं आज्ञा! अंतिम रात्रि भी विदा होते समय भी उन्होंने यही कहा, कि मैं जाता हूं, लेकिन मैंने तुम्हें जो कहा
है उसे भूल मत जाना।
एक
शिष्य ने पूछाः आपने बहुत बातें कही हैं, कौन-सी बात को आप याद दिलाना चाहते हैं?
जीसस
ने कहा ः वही ग्यारहवीं आज्ञा। मैंने तुम्हें जिस तरह प्रेम किया, उसी तरह तुम प्रेम करना! ठीक
. . ."प्रेम करना' उचित
नहीं है कहना--प्रेम हो जाना!
जो भीतर जाता है, वह प्रेम हो जाता है। जो भीतर
जाता है वह प्रार्थना हो जाता है। प्रार्थना प्रेम का ही निचोड़ है। जैसे हजारों
फूल से इत्र निचोड़ते हैं, ऐसे
हजारों प्रेम के अनुभव से प्रार्थना का इत्र निचुड़ता है। और जिसने प्रेम ही नहीं
किया, वह प्रार्थना तो क्या खाक
करेगा?
और
अकसर ऐसा होता है,
जो लोग
प्रेम करने में असमर्थ हैं, मंदिर
चले जाते हैं। और कहते हैं हम प्रार्थना करेंगे। प्रेम अभी किया नहीं, अभी प्रेम का क ख ग भी नहीं
सीखा, प्रार्थना करने चल पड़े!
जिन्हें जमीन पर चलना नहीं आता, वे
आकाश में उड़ने का विचार करने लगे। गिरेंगे , बुरी तरह गिरेंगे! हड्डी-पसलियां तोड़ लेंगे।
पहले जमीन पर चलना तो सीखो!
इस
पृथ्वी को प्रेम करो! जिस दिन इस पृथ्वी के प्रति प्रेम तुम्हारा बेशर्त हो जाएगा, उस दिन तुम पाओगे तुम्हें पंख
लग गए,
अब तुम
आकाश में उड़ने में असमर्थ हो गए। पृथ्वी उनको ही पंख देती है भेंट, जो अपना सारा प्रेम पृथ्वी पर
निछावर कर देते हैं। और उन पंखों का नाम प्रार्थना है। यह पृथ्वी उस परमात्मा की
है। इस पृथ्वी को भर दो अपने प्रेम से--और तुम पाओगेः वही प्रेम तुम्हें उठाने लगा
आकाश में! चले तुम अनंत की यात्रा पर!
लेकिन
प्रेम वही कर सकता है जो भीतर जाए। तुम तो प्रेम जब करते हो तो बाहर जाते हो।
तुम्हारा प्रेम भी झूठा प्रेम है। तुम सदा किसी और से प्रेम करते हो। और और से जो
प्रेम किया जाता है वह सिर्फ प्रेम का बहाना है। उस प्रेम में कुछ और ही छिपा
है--वासना छिपी होगी, एषणा
छिपी होगी,
तृष्णा
छिपी होगी,
मोह
छिपा होगा,
लोभ
छिपा होगा,
महत्त्वाकांक्षा
छिपी होगी,
दूसरे
के मालिक बनने का अहंकार छिपा होगा, हजार-हजार चीजें छिपी होंगी; प्रेम भर उसमें नहीं होगा।
प्रेम
का दूसरे से कुछ भी संबंध नहीं है। प्रेम तो अपने अंतःस्तल में डुबकी लगाने का
परिणाम है। तुमने जो प्रेम किया है, उसकी कहानी तो बड़ी छोटी-सी है।
किसी
के प्यार की इतनी कहानी!
गगन
में चांद आया खिल रहा है
उदधि
में ज्वार आया मिल रहा है
अभी तो
चांदनी में लहर थिरकी
अभी
फिर हो गयी जानी-अजानी
किसी
के प्यार की इतनी कहानी!
तिमिर
के घूंट अनगिन पी रहा है
अजिर
में एक दीपक जी रहा है
सुबह
की किरण को सर्वस्व देकर
रही जो
शेष--काजल की निशानी
किसी
के प्यार की इतनी कहानी!
झलकते
पल्लवों पर ओसकन हैं
छलकते
लोचनों अश्रुगन हैं
तुम्हारे
साथ सुख-दुःख झेल पाए
मिलाकर
कुल यही अपनी-बिगानी
किसी
के प्यार की इतनी कहानी!
अभी
फिर हो गयी जानी-अजानी
किसी
के प्यार की इतनी कहानी!
रही जो
शेष--काजल की निशानी
किसी
के प्यार की इतनी कहानी!
मिलाकर
कुल यही अपनी-बिगानी
किसी
के प्यार की इतनी कहानी! **त्र्!)ध्****त्र्!)इ१४)१०**
प्यारा
तुम्हारा,
जिसे
तुमने प्रेम कहा है, वही
प्रेम नहीं है जिसे मीरां ने प्रेम कहा, कबीर ने प्रेम कहा, सुंदरदास ने प्रेम कहा।
तुम्हारा प्रेम तो नाममात्र है। उसके पीछे कुछ और है, जो प्रेम कतई नहीं,र् ईष्या है, जलन है। प्रेम में औरर् ईष्या
? यह तो अमृत में जहर हो गया!
यह तो फूल में दुर्गंध हो गयी। यह तो दीए से अंधेरा झरने लगा, रोशनी नहीं!
नहीं; एक और प्रेम है, जो अंतर्यात्रा में जितनी
गहराई बढ़ती है तब मिलता है। वह प्रेम की दशा है, संबंध नहीं! तब तुम प्रेम
होते हो,
प्रेम
करते नहीं। तब तुमसे प्रेम बहता है, दसों दिशाओं में प्रेम बहने लगता है।
ग्यारहवीं दिशा में बीज टूट जाए, दसों
दिशाओं में सुगंध बहने लगती है।
संत
चले दिस ब्रह्मा की, तजि जग
व्यवहारा।
ब्रह्म की दिशा में जो चले वह संत! प्रेम
ब्रह्मा की दिशा है। और प्रेम अंतःस्तल में पड़ा है। वह अमोलक हीरा--सुंदरदास ने
कहा--तुम्हारे भीतर पड़ा है। उस दिशा में चलो!
और भी
एक बड़ी महत्त्वपूर्ण बात कही हैः जगत् को छोड़ने को नहीं कहा है, जगत् व्यवहार को छोड़ने को कहा
है। दोनों में बड़ा फर्क है। जगत् को तो छोड़कर जाओगे कहां? जहां जाओगे वहीं जगत् है।
हिमालय पर जाओगे,
वहां
जगत् है। गुफा में बैठ जाओगे वहां जगत् है। यही हवा, यही सूरज, यही चांदत्तारे वहां भी
होंगे। और अगर तुम यहां से चले भी गए हिमालय, तो तुम तो कम-से-कम वही होओगे जो यहां थे।
और जो तुम्हारे भीतर यहां था, वही
वहां भी तरंगें लेगा। यहां अगर तुमने अपने मकान से मोह बांध लिया था तो वहां किसी
वृक्ष के नीचे बैठकर उसी वृक्ष से मोह बांध लोगे। झगड़े हो जाते हैं जंगल में। एक साधु
एक वृक्ष के नीचे दो-चार साल रह गया, वह उसकी बपौती हो गयी। दूसरा साधु आकर वहां
डेरा रखने लगे,
वह
कहेगा ः उठाओ! चलते बनो! यह वृक्ष मेरा है! यह गुफा मेरी है।
मैं
वर्षों तक जबलपुर रहा! वहां एक स्थान है पहाड़ियों में गुप्तेश्वर। गुप्तेश्वर के
पीछे एक गुफा में एक साधु वर्षों से रहता है। वह गुफा प्यारी थी! एक दिन मैं भी
जाकर वहां बैठ रहा। साधु कहीं बाहर गया था, स्नान करने गया था, लौटकर आया, उसने कहा ः आप यहां पर कैसे
बैठे हैं?
यह
गुफा मेरी है!
मैंने उससे पूछा ः घर किसलिए छोड़ा, अगर गुफा तुम्हारी हो गयी? घर मेरा था, उसे छोड़कर आ गए हो; अब कहते हो गुफा मेरी!
महल
छूट जाते हैं,
इससे
फर्क नहीं पड़ता;
लंगोटियों
पर मोह लग जाता है, कि
लंगोटी मेरी है!
समझदार
आदमी था;
उसकी
आंख में आंसू आ गए। उसने कहाः मुझे क्षमा कर दें! यह "मेरी' शब्द जाता ही नहीं। आप ठीक ही
कहते हैं। सब छोड़कर आ गया हूं, लेकिन
यह "मेरा'
शब्द
नहीं जाता।
जगत्
छोड़ने से जाएगा भी नहीं। जगत् व्यवहार छोड़ने से जाएगा! और वह बड़ी अनूठी बात
है--जगत्-व्यवहार छोड़ना! मेरात्तेरा जगत्-व्यवहार है। काम-चलाऊ है। यहां कौन किसका
है! कौन अपना है कौन पराया है! चार दिन का मेला है, मेले में मिलना हो गया है।
दोस्तियां बन गयी हैं, दुश्मनियां
बन गयी हैं। कोई अपना हो गया है, कोई
पराया हो गया है। यह सब व्यवहार है। इससे व्यवहार की तरह जान लेना, इससे मुक्त हो जाना है। इसको
जिसने सत्य मान लिया, वह
इसमें उलझ जाता है। इसे व्यवहार ही समझो। व्यवहार है तो कोई अड़चन नहीं है।
रास्ते
पर नियम है बाएं चलो, वह
व्यवहार है। कोई बाएं चलने में धर्म नहीं है, कि बाएं चलते रहे तो स्वर्ग पहुंच जाओगे।
अमरीका में व्यवहार है दाएं चलो!
मुल्ला
नसरुद्दीन अमरीका जाना चाहता था। बड़ा उत्सुक था, बड़ा आतुर था। कौन नहीं होता
आतुर! चूड़ीदार पाजामा वगैरह सब बनवा रखा था! अचकन, गांधी टोपी . . .बिल्कुल
तैयार था। फिर एक दिन आया, बड़ा
उदास था। कहने लगा कि नहीं जाऊंगा।
मैंने
कहा, बात क्या हो गयी? सब तैयारी पूरी हो गयी है, अब जाते क्यों नहीं? उसने कहा कि नहीं, जाऊंगा। एक बड़ी झंझट की बात
है। अमरीका में दाएं गाड़ी चलानी पड़ती है। मैंने पूना में जाकर दाएं गाड़ी चलाकर
देखी, बड़ी झंझट में पड़ गया। मैं ऐसी
झंझट में नहीं पड़ना चाहता।
पूना
में दाएं गाड़ी चलाओगे तो झंझट में पड़ोगे। उसने कहा कि एक आधे ही घंटे में ऐसी
मुसीबतें आयीं कि जान की मुसीबत हो गयी। मैंने तो सोचा था कि दो त्तीन महीने
अमरीका में गुजारूंगा, तो
दोत्तीन महीने में जिंदा नहीं लौटूंगा।
अब
बाएं चलना या दाएं चलना व्यवहार की बात है। दोनों से काम चल जाता है। इसमें कुछ
सिद्धांत नहीं है--व्यवहार है। पत्नी है पति हैं, बेटे हैं, मां है पिता है, भाई है बंधु हैं--सब व्यवहार
हैं। इसको जब तुम सिद्धांत मान लेते हो, जैसे इसका कोई पारमार्थिक मूल्य है, तब तुम झंझट में पड़ जाते हो।
धन
व्यवहार है। ऐसे तो कागज के नोट हैं; उनमें कुछ भी नहीं, सिर्फ एक समझौता है, कि हमने उनमें मूल्य माना हुआ
है। अभी देखे न,
हजार के
नोट एक क्षण में व्यर्थ हो गए! जब हजार के हो गए तो पांच-दस रुपए की क्या बिसात
है!
एक
समझौता था,
तोड़
दिया सरकार ने,
कि अब
हम इस पर राजी नहीं हैं। बस समझौते की बात थी, नोट कागज हो गए, कि लोगों ने सड़कों पर फेंक
दिए, कि कुछ लोगों ने सिगरेट बनाकर
पी ली,
कुछ लोगों
ने नोट बिछाकर उन पर नाश्ता कर लिया। और क्या करना है! कल तक यही नोट बड़े बहुमूल्य
थे। बांट दिए लोगों ने, बच्चों
के खेल-खिलौने हो गए।
जिन
चीजों को हम मूल्य दे रहे हैं जगत् में, वे मूल्य सिर्फ समझौते के मूल्य हैं। हमने
तय किया है कि मूल्य हैं, इसलिए
मूल्य है। हम तय कर लें कि मूल्य नहीं है तो मूल्य समाप्त हो गए। तो हमारे तय करने
में मूल्य है। हमारे मानने में मूल्य है। मान्यता ही मूल्य है।
जगत्
व्यवहार को छोड़ने का अर्थ होता है ः जगत् में सारी चीजें व्यवहार-मात्र हैं। यहां
कुछ भी पारमार्थिक नहीं है। जगत् को छोड़कर कहीं जाना नहीं है। जहां हो वहीं रहो; सिर्फ व्यवहार को व्यवहार
समझो और व्यवहार की तरह पूरा कर दो। और तुम चकित हो जाओगे, व्यवहार पूरा होता है और तुम
व्यवहार के बाहर हो गए। जैसे कोई अभिनेता अभिनय करता है, तो राम बन जाता है, धनुष-बाण ले लेता है; कोई लक्ष्मण बन जाता है, कोई सीता बन जाता है। पर सब
व्यवहार की बात है। जितनी देर को राम राम हैं उतनी देर को राम राम हैं। पर्दा
गिरेगा,
बात
खत्म हो गयी। पर्दा उठा था, राम और
रावण में बड़ा युद्ध चल रहा था। पर्दा गिर गया, दोनों पीछे बैठकर चाय पी रहे हैं। बस इतनी
ही बात है। पर्दा उठने और पर्दा गिरने की बात है।
अब अगर
कोई रामचंद्रजी को यह वहम सवार हो जाए कि वे रामचंद्रजी हो गए, पर्दा गिर गया है, मगर वे अपना धनुष-बाण लिए ही
चल रहे हैं--तो अड़चन होगी। तो उनको पागलखाने में रखना पड़ेगा। उनका इलाज करवाना
पड़ेगा। नाटक महंगा पड़ गया।
और यही
हालत हो गयी है तुम्हारी--नाटक में हो लेकिन नाटक महंगा पड़ गया है।
एक
रामलीला हुई एक गांव में। लक्ष्मण बेहोश पड़े हैं। हनुमान संजीवनी-बूटी लेने गए
हैं। लेकर आए। नाटक का मामला। रस्सी के सहारे कागज का पहाड़ उठाए हुए चले आ रहे हैं, कि धिर्री में रस्सी अटक गयी।
अब जनता ताली बजा रही है और सीटी बजा रही है और हनुमान जी लटके हैं। धिर्री अटक
गयी। वह चले न,
रस्सी
उतरे न। अब यह बात बिगड़ने लगी। और रामचंद्रजी कह रहे हैं ः हे हनुमान, तुम कहां हो? वे अपनी दोहराएं जा रहे हैं, क्योंकि उनको जो पाठ सिखाया
गया है वे उसमें से कैसे . . .। हनुमान आए नहीं, तब तक वे आकाश की तरफ देखकर
कहते हैं कि हे हनुमान, तुम
कहां हो?
और
हनुमान सामने हैं। कहां चले गए, बड़ी
देर लगा दी,
लक्ष्मण
का जीवन खतरे में पड़ा हुआ है, हनुमान
जल्दी आओ,
संजीवनी
लाओ।**त्र्!)ध्****त्र्!)इ१४)१०**
और
जनता ताली पीट रही है। हनुमान तो सामने हैं, पहाड़ी लिए खड़े हैं। हनुमान भी बड़ी मुश्किल
में हैं कि अब करें क्या? कुछ
सूझ-बूझ नहीं आयी। मैनेजर चढ़ा ऊपर और उसने रस्सी खोलने की कोशिश की, नहीं खुली, तो उसने काट दी। हनुमान जी
धड़ाम से मय पहाड़ी के नीचे गिरे। अब जब कोई ऐसी अचानक घटना हो जाए तो किसको याद
रहती है कि हनुमान हैं। रामचंद्र जी ने कहा कि भले आ गए, जड़ी-बूटी कहां है? हनुमान जी ने कहाः ऐसी की
तैसी जड़ी-बूटी की! पहले यह बताओ रस्सी किसने काटी?
बस
इतना ही व्यवहार है ऊपर-ऊपर; नीचे
तो तुम्हें पता है कि तुम हनुमान जी नहीं हो; कहां के हनुमान जी, कहां की जड़ी-बूटी! उनके घुटने
में चोट लग गयी। . . .रस्सी किसने काटी, यह बताओ! पहली बात, मतलब की बात, असली बात पहले तय हो जानी
चाहिए।
तुम्हारा
जीवन ऊपर-ऊपर जैसा चल रहा है उसे छोड़कर भाग जाने की कोई भी जरूरत नहीं। लेकिन जगत्
व्यवहार-मात्र है,
इतनी प्रतीति
सघन हो जाए कि बस छूट गया। छोड़ने में कुछ और है नहीं। यहां पकड़ने को कुछ है नहीं
तो छोड़ोगे क्या?
पकड़ने
को कुछ होता तो छोड़ भी देते। पकड़ने को ही कुछ नहीं है! इस बात की प्रतीति और बोध
का नाम संन्यास है।
इसलिए
मैं अपने संन्यासी को नहीं कहता कि तुम कहीं छोड़कर भाग जाना। पत्नी है, बच्चा है, नौकरी है, बाजार है, दुकान है--सब व्यवहार है। तुम
अछूते रहना। तुम दूर-दूर रहना। निपटाए जाना सब। मजे से निपटा देना। परमात्मा ने जो
दिया है,
उसे
पूरा कर देना। भगोड़े मत बनना। भगोड़े ने तो परमात्मा की भेंट को अस्वीकार कर दिया।
भगोड़े ने तो जिद की। उसने तो कहा कि मैं अपनी चलाऊंगा। उसने तो परमात्मा भी भेंट
की निंदा की।
भगोड़े
संत नहीं होते। संत होना इतना सस्ता काम नहीं है जितना भगोड़ा कर लेता है। संत होना
बड़ी आंतरिक क्रांति है। और आंतरिक क्रांति का अर्थ है ः बाहर जो हो रहा है, सब लोक-व्यवहार है। भीतर मैं
अलिप्त हूं,
अलग
हूं, पृथक् हूं, साक्षी-मात्र हूं, दृष्टा-मात्र हूं। जो दृष्टा
हो गया उससे जगत् छूट गया--बिना छोड़े! और जो कर्ता रहा, वह छोड़कर भी भाग जाए तो जगत्
उससे छूटता नहीं,
वह
कर्ता ही बना रहता है।
संत
चले दिस ब्रह्म की, तजि जग
व्यवहारा।
सीधै
मारग चालतैं निंदै संसारा।।
और बड़े
आश्चर्य की बात यह है कि जब भी कोई सीधा-सीधा चलेगा इस संसार में, सारा जगत् उसकी निंदा करेगा।
संत सीधे चलते हैं, जगत्
उनकी निंदा करता है। यह दुर्घटना क्यों घटती है? इसके पीछे कारण साफ है। जगत्
में लोग इरछे-तिरछे चल रहे हैं। जो आदमी सीधा चलता है, उस आदमी के सीधे चलने के कारण
ही लोगों को अड़चन होने लगती है। अगर यह आदमी ठीक है तो हम सब गलत हैं। और कोई यह
मानने को राजी नहीं होता कि मैं गलत हूं।
तिरछे से तिरछा चलनेवाला आदमी भी यही सोचता है कि मेरी चाल सीधी-साफ है। झूठ
बोलनेवाला आदमी सोचता है कि मुझसे ज्यादा सच्चा आदमी कौन है! झूठ बोलनेवालों के बीच में तुम सच
बोलोगे तो मुश्किल में पड़ जाओगे। वे तुम्हें बर्दाश्त नहीं कर सकेंगे। इसका
तुम्हें जीवन में रोज-रोज अनुभव होगा! इसके लिए कोई महासंत होने की जरूरत नहीं है।
थोड़े-से जिंदगी में अनुभव करो। दफ्तर में तुम काम करते हो, वहां कोई काम नहीं करता।
हिंदुस्तान के किसी दफ्तर में कोई काम नहीं करता। काम करनेवाले दफ्तर में बच नहीं
सकते। लोग बैठे रहते हैं, पैर
पसारे रहते हैं। फाइल यहां से वहां रखते रहते हैं।
एक
दफ्तर में एक आदमी की टेबल फाइलों से बिल्कुल खाली रहती थी। सारे लोग हैरान थे ः
सारा काम निपटा लेता है, दूसरों
की तो फाईलें बढ़ती जाती हैं। असल में जितनी ज्यादा फाइलें जिसकी टेबल पर होती हैं
वह आदमी उतना ही बड़ा अपने को अनुभव करता है। इतना काम उसके पास! फाइल को निपटाना
ही नहीं चाहते लोग, फाइलों
को इकट्ठा करते हैं। उससे किसी ने पूछा कि भाई, तुम काम निपटा कैसे लेते हो? हम जो दपतर का काम घर ले जाते
हैं तो भी निपटा नहीं; आधी-आधी
रात तक काम करते हैं तो भी निपटता नहीं; तुम कैसे निपटा लेते हो? दफ्तर में तुम्हारी टेबल
हमेशा साफ,
कोई
फाइल रुकी नहीं होती है।
उसने
कहा कि इसकी एक तरकीब है। अब यहां कोई . . .सचिवालय में समझो कि हजारों लोग काम कर
रहे हैं . . . तो मैं तो सदा लिख देता हूं ः भाईदास भाई को भेजो। अब इतने हजार
आदमी बंबई में काम कर रहे हों दफ्तर में तो भाईदास भाई एक-आध तो होगा ही। बंबई और
भाईदास भाई न हो,
यह हो
ही नहीं सकता। भाईदास भाई की टेबल पर भेजो, बस इतना लिखकर भेज देता हूं। फिर फाइल मुझ
तक लौटती ही नहीं,
फिर
कहां जाती है भगवान् जाने! कोई भाईदास भाई होगा . . .।
संयोग
की बात,
वह
आदमी बोला कि महाराज, मैं ही
भाईदास भाई हूं! जब ही तो सोच रहा हूं कि मेरे पास फाइलों पर फाइलें इकट्ठी होती
जा रही हैं। यह कौन है जो भेज देता है, भाईदास भाई को भेजो!
दफ्तर
में कोई काम थोड़े ही करता है। एक टेबल से दूसरी टेबल पर फाइलें सरकती हैं, यहां से वहां घूमती रहती हैं।
बस घूमती ही रहती हैं। अगर कोई काम करनेवाला आदमी आए दफ्तर में तो सारे लोग उसके
खिलाफ हो जाते हैं, क्योंकि
उसके काम करने की वजह से यह बात जाहिर होने लगती है कि वे सब निकम्मे बैठे हैं। और
यह कोई बरदाश्त नहीं करता।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक दफ्तर में काम करता था। मैंने पूछा, कभी छुट्टी नहीं लेते? उसने कहा कि नहीं, मैं छुट्टी ले ही नहीं सकता
कभी।
"बात क्या है?' उसने कहा कि छुट्टी अगर मैं
लूं तो वहां बात पता चल जाए कि मेरे बिना काम चल सकता है। मेरी वहां कोई जरूरत ही
नहीं है असल में। तो मैं छुट्टी तो ले ही नहीं सकता, क्योंकि छुट्टी लिया कि पता
चला। अभी तो मैं बैठा रहता हूं पैर पसारे और ऐसा रूप बनाए रखता हूं कि भारी काम है, माथे पर शिकनें डाले रखता
हूं। कोई भी आता है तो अपने को व्यस्त दिखलाता हूं। कुछ न हो तो कागज पर ही गूंथता
रहता हूं। दस्तखत अपने ही करता रहता हूं। कोई काम नहीं है, मगर अगर मैं छुट्टी लूं तो
कितनी देर लगेगी,
लोगों
को पता चल ही जाएगा कि हां, इस
आदमी के पास कोई काम है ही नहीं।
जहां
कोई काम न कर रहा हो वहां अगर तुम काम करो, तो लोग नाराज हो जाएंगे। जहां सारे लोग झूठ
बोलने पर जी रहे हों वहां तुम सच बोलो, तो तुम उन सबके पाखंड का भंडा फोड़ कर दोगे।
अंधों के बीच अपनी आंख की घोषणा मत करना, नहीं तो अंधे पकड़कर तुम्हारी आंख फोड़
डालेंगे। बहरों के बीच मत कहना कि मुझे संगीत सुनाई पड़ता है।
संत की
तकलीफ यही है,
इक्के-दुक्के
मामलों में नहीं,
जीवन
की सारी प्रक्रिया में वह सीधा-सीधा चलने लगता है। और यहां सब तिरछे -तिरछे
चलनेवाले लोग हैं। यहां कोई सीधा चल ही नहीं रहा है। यहां चलने की प्रक्रिया ही
हमें तिरछी समझाई गयी है।
जैसे
उदाहरण के लिए,
बच्चा
पैदा नहीं हुआ कि हम उसे समझाते हैं कि तू बुद्ध जैसा हो जा, कृष्ण जैसा हो जा; राम जैसा हो जा, बस तिरछा हमने करना शुरू कर
दिया इस बच्चे को। इसका मतलब यह हुआ कि इसको हम कभी वही नहीं होने देंगे जो होने
को यह पैदा हुआ है। बस तिरछापन शुरू हो गया।
और
दुनिया में कोई आदमी किसी दूसरे जैसा नहीं हो सकता; होने की कोशिश में तिरछा हो
जाएगा। होने की कोशिश में पाखंड हो जाएगा। तुम कैसे राम हो सकते हो? राम एक बार ही हुए, दुबारा नहीं होते। दुबारा
वैसी परिस्थिति भी नहीं होती! अब तुम ज़रा सोचो, राम होने के लिए पहले रावण चाहिए, सीता चाहिए, बूढ़ा दशरथ चाहिए। बुढ़ापे में
शादी करे किसी से,
यह भी
चाहिए। कारों इत्यादि में नहीं, रथों
पर चले। रथ का पहिया निकलने लगे, उसकी
जवान स्त्री रथ के पहिए को गिरता देखकर कील की जगह उंगली डाले--यह सब उपद्रव जब हो, तब रामचंद्रजी फिर से हों। अब
यह उपद्रव हो नहीं सकता!
तुम
समझते हो,
अचानक
कोई व्यक्ति आकाश से कूद पड़ता है? उसका
संदर्भ होता है। अब एक दिन अचानक दिन तुम उठो और अपना धनुष-बाण लेकर तुम निकल जाओ, तो लोग समझेंगे कि गणतंत्र
दिवस पर कोई आदिवासी दिल्ली जा रहा है। वे भी गणतंत्रदिवस पर ही तैयारी करके जाते
हैं, वैसे वे भी आदिवासी नहीं
रहते। तुम इस भूल में मत रहना। वैसे वे भी फिल्म देखते हैं और सिगरेट पीते हैं।
मगर जब गणतंत्रदिवस पर जाते हैं तो लंगोटी लगाकर धनुष-बाण लेकर पहुंच जाते हैं।
जिंदगी
में सभी चीजें संदर्भ में पैदा होती हैं। संदर्भ के बाहर तो एक पत्ती भी नहीं पैदा
होती, एक फूल भी नहीं खिलता। और राम
जैसा फूल खिले,
इसके
लिए राम का पूरा का पूरा जगत् चाहिए, वैसा का वैसा जगत् चाहिए। तुम कैसे राम हो
सकते हो?
तुम
कैसे बुद्ध हो सकते हो? बुद्ध
कुछ ऐसा थोड़े ही है --संदर्भहीन टपक गए आकाश से। पृथ्वी में उगते हैं बुद्ध और
पृथ्वी की पूरी की पूरी व्यवस्था वैसी की वैसी दुबारा कभी नहीं होगी। अब शुद्धोधन
कभी नहीं होंगे,
यशोधरा
कभी नहीं होगी। अब राज्य बचे नहीं। अब लोकतंत्र के दिन आ गए। अब राजा कभी नहीं होंगे। अब बुद्ध के होने का
कोई उपाय नहीं रहा!
इसलिए
इस जगत् में कोई भी व्यक्ति पुनरुक्त नहीं होता! और अच्छा है कि पुनरुक्त नहीं
होता, नहीं तो कार्बन-कापियां
कार्बन-कापियां घूमती हुई मालूम पड़ेंगी। झूठे लोग होंगे! तुम तुम ही होने को पैदा
हुए हो। लेकिन पैदा भी नहीं हो पाते कि मां-बाप पड़े पीछे, कि बन जाओ कुछ और; स्कूल के शिक्षक पड़े पीछे कि
बन जाओ कुछ और;
पंडित
और गुरु पड़े पीछे तुम्हारे कि बन जाओ कुछ और। तुम तिरछे होने लगते हो। जीवन की
सरलता बच सकती है,
जब तुम
वही होना चाहो जो तुम होने को पैदा हुए हो। जब तुम अपनी निजता से ज़रा भी नहीं डिगो, तब तुम सरल होओगे। अगर तुम
निजता से जरा भी डिगे, कि तुम
कपटी हो जाओगे,
पाखंडी
हो जाओगे,
ऊपर
कुछ भीतर कुछ हो जाओगे। तुम्हारे भीतर द्वंद्व हो जाएगा। बोलोगे कुछ, करोगे कुछ। तुम्हारे भीतर सब
चीजें उलझ जाएंगी। तुम्हारा सुलझाव समाप्त हो जाएगा।
संतत्व
का जन्म होता है ः जब कोई व्यक्ति अपनी निजता को स्वीकार कर लेता है।
यहूदी
फकीर झुसिया मर रहा था। गांव के किसी बूढ़े ने उससे कहा ः झुसिया जिंदगीभर तू
उल्टा-सीधा काम करता रहा। (दुनिया को लगता था कि उलटे-सीधे काम कर रहा है। अपनी
तरफ से तो वह बिल्कुल साफ-सीधा आदमी था। मुश्किल से इतना साफ-सीधा आदमी होता है।)
अब तो तू परमात्मा से क्षमा मांग ले। और अब मोजिज का स्मरण कर, कि वही तुझे बचानेवाले होंगे।
हमने तुझे कभी मोजिज की प्रार्थना करते नहीं देखा! अब तो प्रार्थना कर ले। अब तो
उनसे कह दे कि मैं आ रहा हूं, मेरा
खयाल करना। परमात्मा से मेरे लिए सिफारिश करना, मुझे बचाना। तुम ही मेरे रक्षक
हो!**त्र्!)ध्****त्र्!)इ१४)१०**
झुसिया
मर रहा था,
उसने
आंख खोली। उसने कहाः बात बंद करो। जब मैं परमात्मा के सामने जाऊंगा तो वह मुझसे यह
नहीं पूछेगा कि झुसिया, तू
मोजिज क्यों नहीं बना? वह
मुझसे इतना ही पूछेगा, झुसिया, तू झुसिया क्यों नहीं बना? मोजिज से मुझे क्या लेना-देना? उसने मुझे मेरे जैसा ही बनाकर
भेजा है। बस मैं वही होकर उसके सामने पहुंच जाऊं। उसकी मर्जी पूरी हो जाए। मैं
सहजता और सरलता से घास का फूल हूं तो घास का फूल सही, मगर खिलकर उसके सामने पहुंच
जाऊं। गुलाब का फूल उसने मुझे बनाया नहीं, बनाया होता तो मैं गुलाब का फूल हो जाता।
कमल का फूल उसने मुझे बनाया नहीं, बनाया
होता तो मैं कमल का फूल हो जाता। मैं जो हूं, खिलकर पहुंच जाऊं; घास का फूल तो घास का फूल।
उसके चरणों में खिलकर गिर जाऊं।
क्या
तुम सोचते हो कि घास के फूल से परमात्मा पूछेगा कि तुम गुलाब के फूल क्यों न हुए? या गुलाब के फूल से पूछेगा कि
तुम कमल के फूल क्यों न हुए? ये
क्या पागलपन की बातें हैं। लेकिन इससे आदमी तिरछा होता है। इससे आदमी धोखेबाज हो
जाता है। इससे आदमी मुखौटे ओढ़ लेता है। इससे आदमी जिंदगी में सरल नहीं रह जाता, सीधा नहीं रह जाता। कैसे
रहेगा?
अपने
को दबाता है और जो नहीं है उसको ओढ़ता है।
संत
चलै दिस ब्रह्म की, तजि जग
व्यवहारा।
सीधै
मारग चालतैं,
निंदै
संसारा।।
लेकिन
संसार निंदा करता है उनकी। संतों की सदा संसार ने निंदा की है। हां, मर जाते हैं तब पूजा करता है; जीते हैं जब तक, निंदा करता है। क्योंकि जीते
हैं तो संत अड़चन में डालते हैं। उनका व्यवहार, उनके जीवन की शैली तुम सबको झूठा सिद्ध करने
लगती है। उनकी प्रार्थना, उनकी
पूजा तुम्हारे सारे पूजागृहों को पाखंड सिद्ध कर देती है। उनका परमात्मा से सीधा
संबंध,
उनकी
सरल वाणी,
उनका
निश्छल व्यवहार,
उनके
जीवन से उठती हुई सौंधी सुगंध, तुम सब
की दुर्गंध साफ कर देती है।
तुम
अपने से भले लोग अपने बीच नहीं चाहते। उससे अहंकार को चोट लगती है। कहते हैं ऊंट
पहाड़ों के पास नहीं जाता। शायद इसीलिए रेगिस्तानों में रहता है। न जाएगा पहाड़ के
पास न कभी पता चलेगा कि मैं छोटा हूं। मनुष्य के मनोविज्ञान का एक अनिवार्य अंग है
कि हर आदमी अपने से छोटे आदमियों के साथ रहना चाहता है, जीना चाहता है, क्योंकि छोटों के पास बड़ा
मालूम होता है,
हर
आदमी अपने आसपास समूह इकट्ठा कर लेता है क्षुद्र लोगों का। उन क्षुद्रों के बीच वह
महान् दिखायी पड़ने लगता है। यह कोई महान् होने का ढंग है?
महान्
होना हो तो महानों से दोस्ती जोड़ो। ऊंचे उठना हो तो उनके पास जाओ जो ऊंचे उठे हैं।
अगर पहाड़ों जैसी ऊंचाई पानी हो तो पहाडों का सत्संग करो। लेकिन आदमी पहाड़ों का
सत्संग करने में भयभीत होता है। वहां जाकर पता चलता है कि मैं कितना छोटा हूं! यह
बात दिल को चोट करती है। कोई अपने को छोटा नहीं मानना चाहता। अहंकार अपने को बड़ा
मानकर जीता है।
संतों
की निंदा इसीलिए होती है, क्योंकि
अचानक वे पहाड़ की भांति तुम्हारे बीच खड़े हो जाते हैं ; गौरी शंकर के शिखर की भांति, हिमाच्छादित, वे आकाश में उठ जाते हैं।
सूर्य की किरणों में चमकता है उनका रूप, उनका सौंदर्य उनकी सरलता, उनकी सहजता। तुम सब नाराज हो
जाते हो। भीड़ पहाड़ को गिराने को तत्पर हो जाती है।
साक्रेटीज
को इसीलिए जहर दिया गया, क्योंकि
साक्रेटीज की मौजूदगी एथेंस के लोगों को अखरने लगी; क्योंकि साक्रेटीज ने पूरे
एथेंस के लोगों को एक बात का एहसास करवा दिया कि तुम सब झूठे हो। साक्रेटीज जिससे
बात करता उसी को पता चल जाता कि मैं झूठा हूं। साक्रेटीज की प्रक्रिया ऐसी थी।
उसके प्रश्न ऐसे थे कि वह जल्दी ही तुम्हारे झूठ को तुम्हारे सामने प्रकट करवा
देता । तुमसे पूछेगा कि ईश्वर को मानते हो? अब आमतौर से आदमी कहेगा कि हां, मैं ईश्वर को मानता हूं, पूजा भी करता हूं।
वह
कहेगा,
"तुमने
देखा?'
अड़चन
शुरू हुई।
तुम
कहते हो,
नहीं
मेरे पिता ने मुझे बताया।
"तुम्हारे पिता ने देखा?'
तुम
कहते हो,
उनके
पिता ने उन्हें बताया!
"उनने देखा था?'
और
उसने तुम्हारे पैर के नीचे की जमीन खींचनी शुरू कर दी! कौन जाने उनमें कोई झूठ बोल
रहा हो,
फिर? किसी ने न देखा हो, फिर? अफवाह हो, फिर? चिंदी के सांप बन जाते हैं।
तुमने कैसे अपने जीवन को आधारित कर लिया है एक परमात्मा पर, जिसका तुम्हें कोई अनुभव नहीं
है? तुम्हारी पूजा झूठी। अब भूल
कर मंदिर मत जाना! नहीं तो तुम पाखंडी हो।
अब तुम
डरे, अब दूसरे दिन मंदिर जाओगे तो
बचकर निकलोगे कि कहीं साक्रेटीज रास्ते में न मिल जाए, नहीं तो वह कहेगा ः तुम
पाखंडी हो। तुम्हारे पास कोई उपाय भी नहीं सिद्ध करने का कि तुम पाखंडी नहीं हो।
अदालत ने साक्रेटीज से कहा था कि हम तुझे क्षमा कर सकते हैं। एक बात का वचन दे दे
कि चुप रहेगा,
बोलेगा
नहीं, लोगों को परेशान नहीं करोगे, सड़कों, रास्तों और गलियों पर खड़े
लोगों को छेड़-छाड़ नहीं करोगे! यह सत्य बोलने की बात अगर तुम छोड़ दो तो अदालत
तुम्हें मुक्त कर सकती है, तुम
अभी जी सकते हो।
लेकिन
साक्रेटीज ने कहा कि अगर सत्य ही नहीं बोलूंगा तो मेरे जीने का प्रयोजन क्या? यही तो मेरा धंधा है। लोग
नाराज होते हों तो यह उनकी गलती है। वे भी सत्य की तलाश में लगें। मैं उन्हें सत्य
की तलाश में ही लगाना चाहता हूं!
ऐसे
आदमी बरदाश्त नहीं किए जा सकते। साक्रेटीज को जहर देकर मार ही डालना पड़ा। हमने सभी
बच्चे लोगों के साथ यही व्यवहार किया है। महावीर नग्न खड़े हो गए थे। नग्नता का
अपना आनंद है,
अपनी
सहजता है,
अपना
सौंदर्य है। मनुष्य को छोड़कर कोई पशु-पक्षी को देखकर तुम्हें यह खयाल आता है कि
नंगा है?
तुम्हें
खयाल आता है कि कुछ अशोभन हो रहा है? तुम्हें खयाल आता है कि कुछ अश्लील हो रहा
है? आदमी नग्न होता है तो क्यों
खयाल आता है कि अश्लील हो रहा है, अशोभन
हो रहा है?
आदमी
ने अपने को इतना छिपाया है कि अब वस्त्र तक उतारने में कुछ गलत हो रहा है, ऐसा मालूम पड़ता है।
अब तुम
मजा देखते हो,
एक तरफ
आदमी वस्त्रों में अपने को छिपाए चला जाता है और फिर प्लेब्वॉय जैसी पत्रिकाएं
निकलती हैं,
जिनमें
नग्न स्त्रियों की तस्वीरें देखने के लिए खरीदता है; या फिल्मों में जाता है कि
नग्न तस्वीरें देख सके। आदमी का उल्टापन देख रहे हो? पहले छिपाता है, फिर जब छिपा लेता है अपने को
तो फिर देखने की उत्सुकता पैदा होती है कि पता नहीं कपड़ों के भीतर क्या छिपा हुआ
है! और जो चीज जितनी ही छिपी होती है उतना ही उघाड़ने को मन होता है।
आदिवासी
हैं अब भी जमीन पर कुछ, जो
नग्न रहते हैं। उनको तुम प्लेब्वॉय पत्रिका दिखाओ वे बड़े हंसेंगे, कहेंगे--मामला क्या है? इसमें बात ही क्या है? इतना छिपाया ही नहीं है तो
प्रकट होने का कोई सवाल नहीं है। अब तुम चकित होओगे यह बात जानकर कि तुम्हारे
पंडित-पुजारियों का हाथ है जो प्लेब्वॉय जैसी पत्रिकाएं दुनिया में चलती हैं। और
तुम्हारे पंडित-पुजारियों का हाथ है कि दुनिया में नग्न तस्वीरें बिकती हैं, नग्न फिल्में बनती हैं। और ये
उसके विपरीत हैं। बड़ा मजा यह है, ऊपर से
देखने में ऐसा लगता है सब पंडित-पुजारी इनके विरोध में हैं कि यह नहीं होना चाहिए।
इनके विरोध के कारण ही इन बातों में रस है। निषेध से रस पैदा होता है।
मैं
रायपुर में कुछ दिनों तक रहा। मेरे पास में एक वकील रहते थे। वकील आदमी, सोचने का ढंग वकील का। रायपुर
अब भी थोड़ा-सा असभ्य है। लोग कहीं भी पेशाब करते हैं, लोग कहीं भी पाखाने के लिए
बैठ जाते हैं। तो उनकी दीवाल के पास लोग पेशाब करते हैं। तो वे वकील थे तो
उन्होंने बड़े-बड़े अक्षरों में दीवाल पर लिखवा दिया कि यहां पेशाब करना मना है। जब
से उन्होंने लिखवा दिया, तब से
तो वह अड्डा ही हो गया लोगों का पेशाब करने का। मैं एक दिन उनके पास बैठा था। वे
कहने लगे ः हम बड़े परेशान हुए जा रहे हैं, अब और क्या करें? लिखवा भी दिया कि यहां पेशाब
करना मना है,
तब से
हालत और बिगड़ गयी है।
मैंने
उनसे कहा कि तुम लिखो कि यहां पेशाब करना अनिवार्य है।
उन्होंने
कहा ः उससे क्या होगा?
मैंने
कहा ः तुम लिखो तो।
"तो और-और लोग करने लगेंगे, अगर अनिवार्य है?'
मैंने
कहा ः कोई नहीं करेगा, तुम
लिखो तो। जैसे ही लोगों को लगेगा कि अनिवार्य है, हम किसी के नौकर हैं या किसी
के गुलाम हैं?
तुमने
लिखा यहां पेशाब करना मना है। जो आदमी अपने काम से चला जा रहा है, उसको भी पढ़कर एकदम खयाल आ
जाता है कि अरे,
तो कर
ही लो! और यहां लोग करते होंगे, तभी तो
लिखा है कि मना है। नहीं तो कोई काहे के लिए लिखेगा?
भोपाल
में मैं एक घर में बैठा था, घर के
भीतर, बैठक खाने में लिखा है--यहां
पान थूकना मना है। मैंने कहा, तुम
पागल हो गए हो?
इसका
मतलब ही यह हुआ कि यहां लोग थूकते हैं। उसने कहा ः थूकते हैं, तभी तो लिखा है। मगर इसको भी
कोई पढ़ता नहीं। लोग थूकते ही हैं। भोपाल का अलग ही रिवाज है। वहां लोग बस मुंह में
पान चबाएंगे,
पिचकारी
वहीं चला देंगे।
सहज
तख्ती लगाओ,
उससे
क्या फर्क पड़ता है? तख्ती
से सिर्फ इतना ही सिद्ध होता है कि ऐसे काम यहां किए जाते हैं। तुमने जितने निषेध
लगाए हैं,
उतनी
ही मुश्किल हो गयी है।
फिल्म
आ जाती है गांव में कि "सिर्फ व्यस्कों के लिए' और छोटे-छोटे बच्चे भी चले, दो आने की मूंछ खरीदकर लगा
लेते हैं। मगर देखना तो पड़ेगा ही। सिर्फ व्यस्कों के लिए है तो बच्चों की उत्सुकता
जग जाती है,
बहुत
जग जाती है--जरूर कुछ मजा होगा! कुछ बात देखने जैसी है!
जहां
निषेध है वहां निमंत्रण है।
संतों
की मौजूदगी तुम्हें अड़चन में डाल देती है। महावीर नग्न खड़े हो गए, तुम बड़ी अड़चन में पड़ गए।
महावीर अत्यंत निर्दोष व्यक्ति थे। छोटे बच्चे की भांति थे। छोटे बच्चे की भांति
ही खड़े हो गए थे,
लेकिन
उन्होंने सब कपड़े पहने लोगों को मुश्किल में डाल दिया। उनको खदेड़ा, गांव से निकाला, भगाया, मारा। लोग जितना दर्ुव्यवहार
कर सकते थे किया और अब पूजा कर रहे हैं! पूजा भी तुम समझ लेना, अपराध-भाव के कारण पैदा होती
है। किसी व्यक्ति के साथ बहुत ज्यादा दर्ुव्यवहार कर लेते हो, अंततः उसे मार ही डालते हो; फिर तुम्हारे मन में बड़ा
अपराध पैदा होता है कि यह हमने क्या किया! यह तो करना उचित नहीं था। तो अब
अपराध-भाव से बचने के लिए उसका मंदिर बनाओ। मूर्ति बनाओ, पूजा करो।
एक
सज्जन के पिता मर गए। मैं उन्हें जानता हूं वर्षों से। पिता जब तक जिंदा थे
उन्होंने सिवाय दर्ुव्यवहार के पिता के साथ कुछ भी नहीं किया। मारपीट भी करते थे
पिता की। अब मर गए तो उन्होंने पिता की मूर्ति बनवायी है। और जब मुझे खबर भेजी कि
मैंने पिता की मूर्ति बनवायी है, आप आकर
उद्घाटन कर दें। मैंने कहा ः मैं तुम्हें भलीभांति जानता, तुम इन्हीं की पिटायी करते
रहे। पिता को आमतौर से नहीं पीटते लोग। पीटना चाहें तो भी नहीं पीटते। अब तुमने
मूर्ति बनायी है,
किसलिए
मूर्ति बनायी है?
अब
पश्चात्ताप पड़ रहा है मन में कि यह मैंने ठीक नहीं किया। अब इस पश्चात्ताप को कैसे
भरें, तो मूर्ति बनाकर रख दी!
बंबई
में मेरे एक मित्र हैं। उनकी पत्नी मर गयी। पत्नी मरी ही जहर खाकर। और मरी ही
इसलिए कि जब तक वह जिंदा रही तब तक वे कभी इस स्त्री कभी उस स्त्री . . .पैसे वाले
हैं, सुविधा है। जब मर गयी तो
उन्होंने उसकी तस्वीरें पूरे कमरे में टांग लीं और एकदम वियोगी होकर बैठ गए। उनकी
बहन मेरे पास आयी,
उसने
कहा कि भाई तो कहते हैं कि मैं विवाह तो कभी करूंगा ही नहीं, कभी नहीं करूंगा! बस एक को
प्रेम किया। बस आंसू चढ़ाते हैं। फूल चढ़ाते हैं पत्नी की फोटो को।
मैं
उनसे मिलने गया। मैंने कहा कि बंद करो वह बकवास ! जब वह जिंदा थी . . .! वह मरी
कैसे, मुझे तुम यह तो बताओ। वह मरी
क्यों?
अब तुम
फूल चढ़ा रहे हो! अब यह तुम क्या ढौंग कर रहे हो? अब तुम्हें पश्चात्ताप हो रहा
है!
आदमी ऐसा ही पागल है। अब तुम सम्मान दे रहे हो!
अब तुम कहते हो मैं कभी विवाह न करूंगा! तुम किसको धोखा देने चले हो?
मगर
ऐसा ही हमने सदियों-सदियों में किया है। ऐसी मनुष्य की आदत है।
सीधे
मारग चालते,
निंदै
संसारा।
संत तो
सीधा-सीधा चलने लगता है और संसार उसकी निंदा करने लगता है। निंदा इसलिए करने लगता
है कि उसकी वजह से तुम्हारी चाल तिरछी मालूम पड़ती है। जहां सब शराब पीकर चल रहे
हों और डगमगाते हों, वहां
एक आदमी बिना डगमगाता चले, सब
शराबी नाराज हो जाएंगे कि तुम भी डगमगाओ; जैसे सब चलते हैं वैसे चलो!
तुमने
देखा, छोटी छोटी बातों में लोग
नाराज हो जाते हैं। अगर सब लोग एक तरह के कपड़े पहनते हों और तुम उस तरह के कपड़े न
पहनो, तो लोग नाराज हो जाते हैं। वे
कहते हैं,
जैसे
सब लोग रहते हैं वैसे तुम भी रहो। सब इस तरह के
बाल कटाते हैं, तुम भी
ऐसे ही कटाओ। सब इस तरह से उठते-बैठते हैं, तुम भी इसी तरह से उठो-बैठो!
लोग
बरदाश्त नहीं करते भिन्न आदमी को, क्योंकि
भिन्न आदमी उनके भीतर संदेह पैदा करता है कि कहीं हम गलत तो नहीं हैं! लोग चाहते
हैं सब हमारे जैसे हों, तो यह
विश्वास बना रहता है कि जब इतने लोग हमारे जैसे हैं तो हम ठीक ही होंगे--इतने
लोगों का संग-साथ है, गलत
कैसे हो सकते हैं?
इतने
लोग गलत कैसे हो सकते हैं?
जार्ज
बर्नार्ड शॉ ने एक बहुत अद्भुत बात कही है। उसने कहा है ः जिस बात को बहुत लोग मानते
हों, सोच ही लेना कि वह बात ठीक
नहीं हो सकती,
इतने
लोग सही कैसे हो सकते हैं?
आम
आदमी की धारणा है,
इतने
लोग गलत कैसे हो सकते हैं? इसलिए
हम भीड़ के साथ राजी होते हैं। हम सदा भीड़ के साथ राजी हो जाते हैं। भीड़ जहां जाती
है वहीं हम चल पड़ते हैं। संत भीड़ का रास्ता छोड़ देता है, अकेला चल पड़ता है। उसके अकेले
चल पड़ने से ही हमें अड़चन शुरू होती है। उसकी मौजूदगी अखरने लगती है। हम उसकी हजार
बहानों से निंदा करते हैं। और स्वभावतः , जिसको निंदा करनी है वह बड़े तर्कयुक्त बहाने
खोज लेता है। और ऐसी तो कोई भी बात नहीं है जो तर्क से सिद्ध न की जा सकती हो। हर
चीज तर्क से सिद्ध की जा सकती है। तर्काभास होते हैं वे, रेशनालाइजेशन होते हैं; लेकिन तर्क जैसे मालूम पड़ते
हैं।
तुम
तर्काभास से सावधान रहना! पहले इस बात को खोज लेना कि ऐसा मैं क्यों सिद्ध करना
चाहता हूं। क्या कारण है? किस
वजह से मेरे भीतर चोट पड़ रही है? मैं
क्यों तिलमिला गया हूं? मेरी
बेचैनी कहां है?
कहीं
ऐसा तो नहीं है कि इस आदमी की मौजूदगी ने मेरे अहंकार को चोट पहुंचा दी है, मेरी धारणाओं को डगमगा दिया
है। और मैं अपने को फिर संभालने की कोशिश में ये सारे तर्क खोज रहा हूं।
यहां लोग
आते नहीं। मेरी निंदा में हजार तरह की बातें करते हैं। उनको अगर कहो कि यहां आते
क्यों नहीं,
तो वे
कहते हैं वहां हम आएंगे नहीं क्योंकि वहां सम्मोहित कर लिए जाते हैं। अब यह बड़ा
मजा है! यहां आएंगे नहीं, उसके
लिए एक तरकीब खोज ली है कि वहां गए तो सम्मोहित हो जाते हैं। क्योंकि वहां जो गया
वह उन्हीं के पक्ष में बात करने लगता है। इसलिए यहां तो आ ही नहीं सकते। वह तो बात
ही खत्म हो गयी। अब बाहर से ही निंदा करेंगे, बिना जाने निंदा करेंगे, बिना समझे निंदा करेंगे। कि
बात को समझ तो लो। इसके पहले कि निर्णय करो, ठीक से परख तो लो! कुछ प्रयोग करके तो देख
लो! क्या यहां घट रहा है, उसमें
थोड़ा प्रवेश तो करो! थोड़ा रस तो लो!
मगर वे
कहते हैं कि अगर रस लिया तो फिर सम्मोहित हो जाएंगे! रस ले लिया तो फिर हम भी
दीवाने हो जाएंगे! हम तो बाहर ही से रह कर निंदा करेंगे?
मगर यह
तो बात बड़ी बेईमानी की हो गयी। अगर मेरे गैरिक संन्यासी उनको कुछ कहते हैं तो कहते
हैं ः तुम तो उनके पक्ष में हो गए, तुम्हारी बात हम न मानेंगे। निष्पक्ष आदमी
चाहिए। निष्पक्ष कौन है?--जो यहां आया ही नहीं! जिसने यहां पर नहीं मारा, वह निष्पक्ष है! जो यहां आया, वह पक्षपात का हो गया!
यह तो
बड़ा अजीब तर्क हुआ। इसका तो अर्थ हुआ, चश्मदीद गवाह गवाह नहीं है; जो मौजूद ही न रहा हो, वही गवाह है, उसी की गवाही मानी जाएगी, क्योंकि वह मौजूद नहीं था
वहां । कौन अदालत इस बात को मानेगी? लेकिन लोगों के मन में इसी तरह की बातें
चलती हैं।
संत
कहै सांचि कथा,
मिथ्या
नहिं बोलैं। संत तो वैसा का वैसा कह देता है जैसा है।
संत
कहै सांचि कथा,
मिथ्या
नहिं बोलैं।
जगत्
डिगावै आइकैं तौ कबहूं ना डोलैं।
और
जगत् बहुत कोशिश करता है कि तुम भी हमारे जैसे डोलो; तुम भी हमारे जैसे बोलो; तुम भी हमारे जैसे उठो, हमारे जैसे बैठो; तुम हम से भिन्न होने की
चेष्टा न करो। तुम्हारी भिन्नता हमें बेचैन करती है। तुम्हारी भिन्नता से हमारी
सुरक्षा छिनती है। तुम्हारी भिन्नता से हमारे पैर के नीचे की जमीन डगमगाती है। तुम
भी हम जैसे रहो।
लेकिन
जिसको सच का रस लग गया, वह
अपना जीवन भला दे दे, लेकिन
झूठ बोलने को राजी न होगा!
जे-जे
कृत संसार कै,
ते
संतनि छांड़े।
वे
जो-जो संसार के कृत्य हैं, सांसारिक, उनकी संत चिंता नहीं करता, उनकी चिंता ही छोड़ देता है।
संसार के कृत्य क्या हैं? महत्त्वाकांक्षा से भरे कृत्य
हैं। संत महत्त्वाकांक्षा छोड़ देता है।
संसार
की दौड़ क्या है?
दूसरे
से आगे हो जाना! संत कहता हैः हम सबसे पीछे भले हैं।
जीसस
ने कहा हैः जो पीछे हैं वे ही प्रभु के राज्य में आगे हो जाएंगे! और जो यहां आगे
हैं, सावधान, प्रभु के राज्य में पीछे पड़
जाएंगे।
संत
कहता है ः हम पीछे भले, हम
सबसे पीछे खड़े,
हम
दौड़ेंगे नहीं। हम स्पर्धा न करेंगे। हम किसी से प्रतियोगिता न लेंगे! क्योंकि तुम
तुम हो,
मैं
मैं हूं,
प्रतियोगिता
का कारण कहां है?
तुम
ऐसे हो,
मैं
ऐसा हूं,
प्रतियोगिता
का कारण कहां है?
संत
स्वीकार कर लेता है, अपनी
जैसी स्थिति है उसको वैसा ही। और जहां प्रतियोगिता नहीं, वहां प्रतिहिंसा नहीं पैदा
होती। संत राजनीति के बिल्कुल बाहर हो जाता है। राजनीति का जगत् महत्त्वाकांक्षा
का जगत् है,
प्रतिस्पर्धा
का; दूसरे को पीछे करना है, स्वयं को आगे करना है। चाहे
फिर किसी भांति हो, किसी
तरह दूसरे के पैर खींचना है और उसे कुर्सी से नीचे उतार देना है। और कुर्सी पर खुद
चढ़ जाना है।
राजनीति
कुर्सी पर चढ़ने की दौड़ है। संत वही है जो कहता है ः हम जहां बैठे हैं वहीं हमारा
सिंहासन।
एक
फकीर एक सभा में गया! वहां एक पंडित बोल रहा था। फकीर पीछे बैठ गया, जैसी फकीरों की आदत, पीछे बैठ गया! जहां लोगों ने
जूते उतारे थे वहीं बैठ गया। लेकिन फकीर की मौजूदगी, उसकी तरंग, उसका आभामंडल . . .जो लोग
उसके पास बैठे थे,
वे
मुड़कर उसकी तरफ बैठ गए। उसकी तरफ पीठ करना उन्हें अड़चनदायी मालूम पड़ा! उन्होंने
उसकी तरफ मुंह कर लिया! जब देखा उसका प्यारा रूप, उससे झरते हुए संगीत और सुवास
को, तो और लोग भी मुड़ गए।
धीरे-धीरे हालत यह हो गयी कि पंडित की तरफ सबकी पीठ हो गयी, फकीर की तरफ सब का मुंह हो
गया। तब पंडित घबड़ाया। पंडित ने फकीर को कहा कि आप यहीं आ जाइए। यहां आइए, यहीं पर बैठिए! फकीर ने कहा ः
हम जहां बैठते हैं वहीं गद्दी है। हम गद्दी पर नहीं बैठते। हम जहां बैठते हैं वहीं
गद्दी!
एक
जीवन की ऐसी दशा भी है कि तुम जहां होते हो वहीं सम्राट् होते हो! भीख मांगता हुआ
संत भी सम्राटों से ज्यादा गरिमावान होता है। सम्राट् सिंहासनों पर बैठे हुए भी
भिखमंगे होते हैं,
क्योंकि
अभी और मिल जाए और मिल जाए, और मिल
जाए . . .।
सूफी
फकीर बायजीद के पास एक सम्राट् आया। उसने हजारों स्वर्ण-मुद्राएं चढ़ायीं। बायजीद
ने कहाः एक बात पूछूं? यह
किसी गरीब को दे दो तो ठीक। सम्राट् ने कहा ः आप बिल्कुल गरीब हैं। मैंने तो सुना
है, कई दिन आपको फाकामस्ती करनी
पड़ती है। खाना भी नहीं मिलता! इसीलिए तो ले आया कि यह पड़ा रहेगा यहां, जब आपको जरूरत होगी तो भूखा
तो नहीं मरना पड़ेगा। मेरे मन में आपके प्रति बड़ी श्रद्धा है।
नहीं; फकीर ने कहा, तुम किसी गरीब को दे दो! मैं
कहता हूं,
सुनो
मेरी, किसी गरीब को दे दो। सम्राट्
ने कहा ः तो किसी गरीब को दे दूं, आप ही
बता दें?
जैसी
आपकी आज्ञा! फकीर ने कहा कि बेहतर तो यह है कि तुम ही रख लो! तुमसे बड़ा गरीब इस
गांव में दूसरा नहीं है। तुम्हारे पास इतना है, फिर भी अभी और की दौड़ नहीं मिटी, यही तो गरीबी है।
स्वामी
रामतीर्थ कहा करते थे। एक गांव में एक फकीर था। लोग पैसे चढ़ा जाते थे। ऐसे पैसे
इकट्ठे होते रहे,
होते
रहे, होते रहे, जब वह मरने के करीब आया तो
काफी इकट्ठा हो गया था धन। उसने कहा, भई मरने के पहले इसका कुछ निपटारा कर देना
चाहिए। लोग डालते ही गए हैं, डालते
ही गए हैं,
काफी
इकट्ठा हो गया है। यह किसी गरीब को दे देना चाहिए। बहुत गरीब आए। दावेदार आए कि हम
गरीब हैं। हम से ज्यादा गरीब कोई भी नहीं, हमको दे दें! पर उसने कहा कि रुको, आने दो सबसे बड़े गरीब को। और
एक दिन सम्राट् की सवारी निकली और उसने कहा कि रुक, यह सारा धन उठाकर ले जा!
सम्राट् ने कहाः मैंने तो सुना था कि आप किसी गरीब को देना चाहते हैं।
उस
फकीर ने कहा कि गरीब की प्रतीक्षा करता था। तेरी सवारी की राह थी। इस गांव में और
गरीब हैं,
लेकिन
तुझसे बड़ा गरीब कोई भी नहीं। तेरे पास इतना है, फिर भी चैन नहीं; फिर भी तू बेचैन है--और मिल
जाए! अभी भी तेरी फौजें लड़ रही हैं और राज्य बढ़ाने के लिए। तेरी गरीबी कभी न
मिटेगी। तू ले जा। शायद थोड़ा-बहुत इससे तुझे राहत मिले। शायद एकाध रात तू आराम से
सो सके। ले जा! क्योंकि मैंने तो सुना है तू रात-रात भर सोता भी नहीं!
तो
फकीर संसार की जो मौलिक आधारशिला है, महत्वाकांक्षा, उसे छोड़ देता है।
जे-जे
कृत संसार के ते संतनि छांड़े।
पाखंड
छोड़ देता है। मिथ्या आचरण छोड़ देता है। जैसा है, वैसा ही, वैसा ही अपने को प्रकट कर
देता है। संत अपने और परमात्मा के बीच किसी तरह के आवरण नहीं रखता। बुरा है तो
बुरा, भला है तो भला। सब उसका है।
छुपाता नहीं!
ताकौ
जगत् कहा करै,
पग आगै
मांड़े।।
और
जगत् बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है। ऐसे आदमी के रास्ते में हर तरह के अड़ंगे डालता
है।
जे
मरजादा बेद की,
ते
संतनि भेंटी।।
वेद की
मर्यादा,
वेदों
की जो मर्यादा है,
वह भी
संत छोड़ देते हैं। वेद कहते हैं ः ऐसा करो, यज्ञ करो, हवन करो। संत कहता है ः सब
पागलपन है। शास्त्र कहते हैंः ऐसा व्यवहार करो। संत कहता है मैं तो व्यवहार भीतर
से करूंगा,
किसी
शास्त्र के अनुसार नहीं। मेरा शास्त्र मेरे भीतर है। मेरा वेद मेरे भीतर है। मेरी
किताब मेरी आत्मा है। मैं वहीं कुरान पढ़ लूंगा, वहीं उपनिषद जन्मा लूंगा। मैं तो अपने भीतर
जाऊंगा! मैं तो परमात्मा की आवाज सीधी ही सुन लूंगा! अगर ऋषियों ने परमात्मा की
आवाज सुनी थी,
कहां
से सुनी थी?
भीतर
गए, वहीं सुनी थी। अगर ऋषि भीतर
गए और ऋचाओं का जन्म हुआ, तो मैं
भी हड्डी-मांस-मज्जा का वैसा ही बना हूं जैसे ऋषि बने थे; मैं भी अपने भीतर जाऊंगा, आवाज सुनूंगा। अगर परमात्मा
उनसे बोला,
मुझसे
भी बोलेगा। उसकी करुणा अपार है। वह उनसे ही बोलकर चुप नहीं हो गया है। उसे मेरी
उतनी ही चिंता है जितनी उनकी थी। अगर परमात्मा मोहम्मद पर उतरा कुरान की तरह, मुझ पर भी उतरेगा।
इस श्रद्धा
का नाम धर्म है कि परमात्मा ने आदमी को त्याग नहीं दिया है, कि परमात्मा ने आदमी के प्रति
आशा नहीं खो दी है, कि तुम
बेसहारे नहीं हो,
कि
मालिक तुम्हारे पीछे कभी भी उतने ही काम में रत है। जैसे मोहम्मद को गड़ा था वैसे
तुम्हें भी गढ़ेगा। एक बार श्रद्धापूर्वक, निष्ठापूर्वक अपने भीतर तलाशो। इसलिए संत तो
भीतर के वेद से जीता, भीतर
के कुरान से जीता,
भीतर
की बाइबिल से जीता है।
जे
मरजादा बेद की,
ते
संतनि भेंटी।
वह तो
सब छोड़ देता है।
जैसे
गोपीकृष्ण कौं,
सब
तजकरि भेंटी।
जैसे
गोपियों ने सब छोड़ दिया था--वेद, शास्त्र, कुरान, पुराण, --सब छोड़ दिए थे, एक कृष्ण के आसपास नाचने लगी
थीं--ऐसे ही भीतर तुम्हारे कृष्ण बैठा है। तुम्हारे भीतर परमात्मा का वास है, तुम उसी के आस-पास नाचो।
गोपियों जैसे सर्वस्व उसी पर निछावर कर दो!
एक
भरोसे राम कै,
कछ शंक
न आनै।
संत को
तो एक ही भरोसा है--न शास्त्र का, न समाज
का--एक ही भरोसा है राम का।
एक
भरोसे राम कै कछु शंक न आनै।
उसके
जीवन में शंकाएं नहीं हैं। उसके जीवन में श्रद्धा है
जन
सुंदर सांचै मतैं,
जग की
नहिं मानैं।
वह जग
की नहीं मानता;
अपने
भीतर जो बैठा है उनकी मानता है। किसी और की नहीं मानता, अपनी मानता है। संत घोषणा है
व्यक्तित्व की । संत विद्रोह है, बगावत
है। संत इस जगत् में सबसे ज्यादा दुस्साहसी आदमी है। लेकिन उतना जिनका साहस है, वे ही परमात्मा के पाने के
हकदार भी हैं। सब दांव पर लगा देता है।
तुम तो
परमात्मा को याद भी करते हो तो बस यूंही--
जब कोई
ताजा मुसीबत टूटती है ऐ हफीज
एक आदत
है, खुदा को याद कर लेता हूं मैं
--आदत की तरह। निष्ठा नहीं है, श्रद्धा नहीं है, अनुभव नहीं है, स्वाद नहीं है--बस एक आदत है।
आदत--और परमात्मा की? तो तुम
चूकते रहोगे। आदत की तरह तुम मंदिर भी हो आते हो। आदत की तरह तुम झुक भी जाते हो।
यहां मुझे रोज यह अनुभव होता है, क्योंकि
दोनों के ढंग में भेद होता है। मेरे पास ऐसे भी लोग आकर झुक जाते हैं जो प्रेम से
झुके; और ऐसे लोग भी मैं पाता हूं
झुकते हुए जो सिर्फ आदत से झुक रहे हैं। जब कोई प्रेम से झुकता है तो उसकी पुलक, उसका उल्लास, उसका आनंद, उसका अहोभाव .. .। और जब कोई
आदत से झुकता है तो न उसके चेहरे पर कोई भाव होता है, न उसकी आंखों में कोई रस होता; उसे पता ही नहीं वह क्या कर
रहा है। एक तरह की कवायद . . .उसको आदत हो गयी है। कोई साधु-संत हो, झुक जाना है। कोई भी हो, झुक जाना है। झुकना यांत्रिक
है। न उसमें समर्पण है, न
चैतन्य है,
न होश
है।**त्र्!)ध्****त्र्!)इ१४)१०**
मुझि
बेगि मिलहु किन आइ मेरा लाल रे।
जो
साहस करेंगे भीतर की आवाज सुनने का, उसके जीवन में धीरे-धीरे जैसे-जैसे रस बढ़ेगा, बूंद-बूंद, वैसे-वैसे बड़ी प्यास उठेगी, ज्वलंत प्यास उठेगी।
मुझि
बेगि मिलहुं किन आइ मेरा लाल रे।
तब तो
एक ही आकांक्षा जगती है भीतर, एक ही
अभीप्सा--लपटों की तरह--कि मेरा प्यारा मुझे कब मिल जाए!
अब ये
जाना, कि इसे कहते हैं आना दिल का
हम
हंसी-खेल समझते थे लगाना दिल का
लोग
सोचते हैं ः परमात्मा को खोजना हंसी-खेल नहीं दिल में आग लगती है।
अब ये
जाना कि इसे कहते हैं आना दिल का
हम
हंसी-खेल समझते थे लगाना दिल का
.
. . हालांकि
दिल लग जाए तो सब हो जाता है।
मुहब्बत
रंग दे जाती है जब दिल से दिल मिलता है
मगर
मुश्किल तो ये है दिल बड़ी मुश्किल से मिलता है।
हम तो
बाहर के ही व्यापार में इतने उलझे हैं कि पता भी नहीं चलता कि भीतर दिल जैसी कोई
चीज भी है। डॉक्टरों से मत पूछना दिल के संबंध में। वह जिसको दिल का दौरा कहते हैं
वह दिल का दौरा नहीं है। फेफड़े फुफ्फस में कुछ गड़बड़ हुई होगी। दिल का दौरा तो
सिर्फ भक्त को ही पड़ता है। वह तो सौभाग्यशालियों को पड़ता है दिल का दौरा। जिसको
तुम दिल का दौरा कहते हो, हार्ट-अटैक
वह हार्ट-अटैक नहीं है। हार्ट का तो तुम्हें पता ही नहीं है। तुम तो यह जो श्वास
को चलानेवाला पंप है, यह जो
धुकधुकी है,
इसी को
तुम समझते हो। यह जो धौंकनी है लुहार की, जिससे देह चल रही है, श्वास आती-जाती है, खून साफ होता है--इसी को तुम
दिल समझते हो?
यह दिल
नहीं है। दिल तो कभी सौभाग्यशाली को होता है। दिल तो जिनके पास होता है उनको
परमात्मा से मिलने में देर नहीं लगती। दिल का दौरा तो ऐसा ही समझो परमात्मा का ही
दौरा है। वही आता है तब पड़ता है। इस भौतिक दिल के पीछे एक आध्यात्मिक दिल भी छिपा
है। इस धक्-धक् की आवाज के पीछे एक और आवाज छिपी है।
नहीं
मालूम कि वो खुद हैं कि मुहब्बत उनकी
पास ही
से कोई बेताब सदा आती है।
जब
सुनना शुरू करोगे तो पता चलेगा भीतर से ही, बहुत करीब से अपने ही के भीतर से उसकी आवाज
आती है। और जिस दिन इस दिल का पता चल जाता है उसी दिन भक्त के जीवन में समर्पण की
शुरुआत है।
अब
तेरा ऐ दिले-बेताब खुदा हाफिज
कर
चुके हम तो मुहब्बत में हिफाजत तेरी
बस उस
समय तक तुम्हें हिफाजत करनी होती है . . .। और जिस दिन पता चल गया दिल का, फिर तो तुम कह सकते हो कि अब
खुदा हाफिज! अब तेरा ऐ दिले-बेताब खुदा हाफिज! हे व्याकुल **१५५**दय! अब परमात्मा
तेरी संहाल करे। हम तो जहां तक कर सकते थे कर चुके।
तुम
श्रद्धा जगाओ,
शेष सब
परमात्मा कर लेता है।
मुहब्ब्त
क्या है?
तासीरे-मुहब्बत
किसको कहते हैं?
तेरा
मजबूर कर देना,
मेरा
मजबूर हो जाना!
तुम
ज़रा झुको तो,
तुम
ज़रा भीतर तलाशो तो!
मुहब्बत
क्या है?
तासीरे-मुहब्बत
किसको कहते हैं?
तेरा
मजबूर कर देना,
मेरा
मजबूर हो जाना!
मुझि
बेगि मिलहु किन आइ मेरा लाल रे।
मैं
तेरे विरहबिवोग फिरौं वेहाल रे।।
मैं
तेरे विरह में,
वियोग
में बेहाल फिरता हूं!
हौं
निसदिन रहौं उदास तेरे कारनै।
तेरे
कारण उदास हूं। जब तक तू न मिले तब तक कैसी खुशी, तब तक कैसी हंसी, तब तक कैसे गीत?
मुझे
बिरह-कसाई,
आइ लगा
मारनै।
और यह
विरह तो मुझे ऐसे काट रहा है जैसे कसाई किसी पशु को काट रहा हो।
इस
पंजर मांहैं पैठि बिरह मरोरई।
और
मेरे भीतर **१५५**दय को ऐसा मरोड़ रहा है . . .
जैसे
बस्तर धोबी एंठि नीर निचोरई।
जैसे
कि कपड़े को धोकर धोबी पानी को निचोड़ता है।
हम
तेरे इश्क से वाकिफ़ नहीं हैं लेकिन।
सीने
में जैसे कोई दिल को मला करे है।।
एक
चौबीस घंटे के लिए जैसे कोई **१५५**दय को मथ रहा हो, मल रहा हो!
मैं
कासिनी करौं पुकार तुम बिन पीव रे।
और अब
मैं कहूं तो किसे कहूं, कौन
मेरी समझेगा?
तुम्हारे
सिवाय और कोई समझेगा भी नहीं!
गुज़रती
है जो दिले-इश्क पर कुछ न पूछ जिगर
ये खास
राज़े-मोहब्बत है राज़ रहने दे!
यह
किसी से कहा ही नहीं जा सकता। यह तो उसी से निवेदन किया जा सकता है क्योंकि यहां
किससे कहो?
यहां
किसी ने मुहब्बत की नहीं। यहां किसी ने आशिकी जानी नहीं। यहां तो लोग रुपए-पैसे से
प्रेम करते हैं,
या
बहुत हुआ तो शरीरों से प्रेम करते हैं। यहां आत्मा की झलक तो लोगों को मिलती नहीं।
यहां अंधों से प्रकाश की बात कैसे करें? जिनने रोशनी देखी हो उन्हीं से बात हो सकती
है। इसलिए संत-समागम का अर्थ होता है, जहां तुम अपने दिल की बातें कह सको; जहां कोई अपने दिल की बातें
तुम से कह सके;
जहां
दिल दिल से मिलें,
बात कर
सकें, संवाद हो सके;' जहां सतसंग हो सके। पियक्कड़
बैठे जहां,
तो ही
मदहोशी की बात हो सकती है। बीच बाजार में तुम अपने प्रेम की बात मत करना, अपनी प्रार्थना की बात मत
करना। लोग समझेंगे तो नहीं, लोग
तुम्हें पागल समझेंगे! जो उनका अनुभव नहीं है उसे समझने का उनके पास कोई उपाय भी
नहीं है।
मुहब्बत
में एक ऐसा वक्त भी आता है इंसा पर।
सितारों
की चमक से चोट पड़ती है रंगे जां पर।।
और जब
**१५५**दय तैयार होने लगता है तो फिर हर तरफ से चोट पड़ने लगती है। सितारों की
रोशनी बहुत दूर है, मगर वह
भी चोट करती है। पपीहा बुलाता है पी-कहां--और भक्त के भीतर अपने पिया की रटन शुरू
हो जाती है। फूल खिले हैं--और भक्त रोने लगता है, क्योंकि उसका फूल कब खिलेगा!
मैं
कासनि करौं पुकार तुम बिन पीव रे।
यहु
बिरहा मेरी लार दुःखी अति जीव रे।।
मेरा
एक ही संगी-साथी है अब--यह विरह!
आशिकी सब्रत्तलब, और तमन्ना बेताब।
दिल का
क्या रंग करूं खूने-जिगर होने तक।।
प्रेम
कहता है ः धीरज रखो! आशिकी सब्रत्तलब . . .प्रेम कहता है ः धीरज रखो, प्रतीक्षा करो। और तमन्ना
बेताब . . .और अभीप्सा कहती है ः अभी मिलो, इसी क्षण मिलो! दिल का क्या रंग करूं
खूने-जिगर होने तक! इसके पहले कि तू मुझे मार ही डाले अपने प्रेम में और डुबा ही
ले मुझे अपने में,
मैं
अपने दिल का क्या रंग करूं खूने-जिगर होने तक! इसके पहले कि तू मुझे मार ही डाले
अपने प्रेम में और डुबा ही ले मुझे अपने में, मैं अपने दिल का क्या रंग करूं? किससे कहूं? कौन समझेगा? यह मेरा दुःख कोई भी नहीं समझ
सकता। यह मेरा सुख भी कोई नहीं समझ सकता। यह दुःख भी है और सुख भी । यह बड़ी मीठी
पीड़ा है।
अब
काहे न करहु सहाइ सुंदरदास की।
अब और
कितनी देर करोगे?
अब और
कितना असहाय करोगे? अब और
कितना रुलाओगे?
बाल्हा, तुम सौं मेरी आइ लगी है आसकी।
अब तो
सब छोड़कर सारा प्रेम तुम्हारी तरफ गतिमान हुआ है। अब तो तुमसे ही आशिकी लग गयी है।
तुम्हीं से इश्क लगा है। अब कब तक और मुझे प्रतीक्षा करनी पड़ेगी?
यह
तेरा बैत मुकद्दस तेरी रफ़अ?त का
मजार
किसकी
मनहूस निग़ाहों का बना आज शिकार
क्या
हुए वह मेरे मनसूबे वह ख्व?ाबे-फ़रदा
जल गया
मेरा चमन लुट गयी मेरी सब बहार
मेरी
बरबत में कोई तार नहीं अब साबित
मेरी
चीखों में कोई दर्द नहीं अब बाकी
अब और
क्या करूं?
मेरी
बरबत में नहीं कोई तार अब साबित! मेरी वीणा के सब तार टूट गए। मेरी चीखों में कोई
दर्द नहीं अब बाकी। अब मैं रो चुका जितना रो सकता था। पुकार चुका, जितना पुकार सकता था।
अब
काहे न करहु सहाइ सुंदरदास की।
बाल्हा, तुमसौं मेरी आइ लगी है आसकी।।
मगर
इतना प्रेम हो,
इतनी
पुकार हो तो मेघ आते हैं उसके और वर्षा होती है। इतना जिसने पुकारा है उसने जरूर
पाया है। पुकार जब पूर्ण होती है तो मिलन होता ही है। यह इतना ही स्पष्ट है जैसे
दो और दो चार होते हैं। निरपवाद रूप से ऐसा हुआ है।
इसलिए
इसके बाद का पद प्रार्थना का पद है, पूजा का पद है। घटना घट गयी। प्यारा आ मिला!
पुकारा खूब,
बहुत
रूपों में पुकारा!
तुम्हारी
याद के जब जख्म भरने लगते हैं
किसी
बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं।
ऐसी
हालतें भी आ जाती हैं।
उठते
नहीं हैं अब तो दुआ के लिए भी हाथ।
इस
दर्जा नाउमीद है पर्वरदिगार से।।
कभी तो
इतना थक जाता है भक्त कि हाथ भी नहीं उठते। इतना रोता है कि आंसू सूख जाते हैं।
उठते
नहीं हैं अब तो दुआ के लिए भी हाथ।
इस
दर्जा नाउमीद है पर्वरदिगार से।।
ऐसी
हताशा हो जाती है--पुकार, पुकार
और पुकार और मिलन के कोई आसार नहीं! सब आशा टूट जाती है। मगर क्रांति घटती है तभी, जब सब आशा टूट जाती है। जब तक
आशा है तब तक तुम्हारा मन है। जब तक तुम्हारा मन है तब तक अहंकार है। जब आशा गयी, मन भी गया, अहंकार भी गया। तुम गिर पड़े, जैसे मिट्टी में मिट्टी गिर
जाए।
मेरी
बरबत में कोई तार नहीं अब साबित
मेरी
चीखों में कोई दर्द नहीं अब बाकी।।
उस घड़ी
में, बस उसी घड़ी में तत्क्षण उतर
आता है अनंत,
असीम!
आरती
कैसैं करौं गुसाईं! उतर आया! . . .उसकी बात ही नहीं की। अपनी पुकार तक की बात की।
अपनी चीख तक की बात की। अपने प्राणों की पूरी लपटें उठा दीं! हो गयी वर्षा।
आरती
कैरौं कैसैं गुसाईं!
अब तुम
सामने खड़े हो। अब तुम सब तरफ खड़े हो! अब मैं आरती भी उतारूं तो कैसे उतारूं? पहले नहीं उतार सकता था कि
पता नहीं था तुम कहां हो!
अब
कैसे उतारूं क्योंकि तुम सब कहीं हो!
आरती
कैसैं करौं गुसाईं। तुम ही ब्यापि रहै सब ठांई।।
तुमही
कुंभ नीर तुम देवा। तुमही कहियत अलख अभेवा।।
तुम ही
तो हो आरती। तुम ही हो आराध्य। तुम ही मेरे भीतर, तुम ही मेरे बाहर! तुम्हीं हो
भक्त, तुम्हीं हो भगवान्।
तुमही
कुंभ नीर तुम देवा। तुमही कहियत अलख अभेवा।।
तुम ही
दीपक धूप अनूपं। तुम ही घंटा नाद स्वरूपं।
तुम ही
पाती पुहुप प्रकासा!
तुम्हीं
फूल, तुम्हीं फूल की पत्ती, तुम्हीं प्रकाश, तुम्हीं दीया, तुम ही सब कुछ!
तुम ही
ठाकुर तुम ही दासा! . . .अब बड़ी मुश्किल हुई! पहले मुश्किल थी कि तुम दिखाई न पड़ते
थे, आरती तैयार थी। अब मुश्किल है
कि तुम दिखाई पड़ गए, लेकिन
अब तो आरती भी तुम हो। अब तो मैं भी तुम हो। अब तो मैंत्तू में कोई फासला न रहा!
अब कौन किस की आरती उतारे, अब
कैसे आरती हो! तुम ही ठाकुर तुम ही दासा! तुम ही मालिक, तुम ही गुलाम।
तुम ही
जल थल पावक पौना . . .
तुम्हीं
हो हवा,
तुम्हीं
हो जल,
तुम्हीं
हो थल।
सुंदर
पकरि रहै मुख मौना।
अब तो
बस एक ही बात रह गयी कि अब अपना मुंह पकड़कर चुप हो जाऊं। वही चुप्पी होगी आरती!
गूंगे का गुड़! अब कुछ कहूं ही न। अब जगमगा उठे तुम सब तरफ। बाहर-भीतर प्रकाश ही
प्रकाश है। अब कहूं तो किससे, कहूं
तो क्या! कहूं तो किस जबान से! कौन-से शब्द काम आएंगे! कौन-सी वीणा तुम्हें प्रकट
कर सकेगी! अब असंभव है। तुम अव्याख्या हो, अनिर्वचनीय हो। तुम सर्वव्यापी हो! अब तो एक
ही उपाय बचाः सुंदर पकरि रहे मुख मौना! अब तो मैं चुप हो जाऊं। अब तो मुंह बंद कर
लूं!
ऐसा जब
किसी को अनुभव हो जाए, उसके
पास भी बैठ जाओगे तो तुम्हारे बुझे दीए जल जाएंगे। जो उस मौन में पहुंच गया
परमात्मा को जानकर, उसकी
आंख तुम्हारी आंख में झांक लेगी तो दीए जल जाएंगे!
एक दीप
से अनेक दीप जल गए
एक
ज्योति के अनेक ग्रह उजल गए
कौन कह
सका कि क्यों विभावरी जी
कौन
जानता कि कहां बांसुरी बजी
एक धुन
उठी अनेक स्वर मचल गए!
दुर्वासा-शाप-भृता-सी
शकुंतला
यामिनी
मिलन-पथ पर मुक्त-कुंतला
एक
छांह में अनेक ताप पल गए!
एक ही
अरूप विविध रूप आप में
एक
किरण सप्त बरन इंद्र चाप में
एक शरण
में अनेक मरण गल गए!
एक दीप
से अनेक दीप जल गए
एक
ज्योति के अनेक ग्रह उजल गए
कौन कह
सका कि क्यों विभावरी सजी
कौन
जानता कि कहां बांसुरी बजी
एक धुन
उठी अनेक स्वर मचल गए!
पर धुन
उठती तब है जब कोई उस जगह पहुंच जाता है जहां बोलने को उपाय नहीं बचता। जहां वाणी
मौन हो जाती है,
जहां
स्वर शांत हो जाते हैं, वही उठता है अनाहद का स्वर!
ऐसे किसी व्यक्ति से संबंध जोड़ लो, किसी जले दीए के पास आ जाओ, तो तुम्हारा बुझा दीया भी जल
उठे! ज्योति से ज्योति जले!
आज इतना ही।
(समाप्त)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें