रविवार का दिन छुट्टी के साथ-साथ, सभी बच्चों के लिए आराम का दिन होता था। पूरे हफ़्ते की टूटी कच्ची नींद आज बिस्तरे मैं खूब कुनमुनाने कर पूरी की जाती थी। जब भी मैं उन्हें जगाने के लिए उनकी चादर को खिंचता तो वह एक बार आंखें खोल मुझे देखते और दूसरे ही पल फिर सो जाते। सोना तो नहीं ये मात्र सोने का एक भ्रम पैदा करने की कोशिश कर रहे थे। बच्चे कैसे चादर को शरीर से तान—तान कर उसे तम्बू की तरह से बना लेते थे। मेरा मन करता था उस के अंदर भाग कर घुस जाऊँ। परंतु डाट पड़ने के डर से बड़ी मुश्किल से अपने आप को रोक पाता था। आज छूटी की खुशी उनके सोते चेहरे पर खिली साफ दिखाई देती थी। जब मैं उसके पास खड़ा होकर भौंकता तो वह कैसी मदहोशी एक अलसाया पन से मुझे देख लेते थे। इस सब को देख मुझे खीज भी बहुत होती की आज तो जंगल में जाना है उठते क्यों नहीं। वहाँ की खुली हवा में कितनी मस्ती भरी होती है। मैं बार—बार कोशिश करता उनके बिस्तरे पर चढ़ने की परंतु वह मेरी पकड़ के बाहर था। मेरी वो कोशिश सब बेकार जाती थी। न ही उन्हें कुछ समझ आता था की मैं जंगल जाने के लिए कह रहा हूं। परंतु मैं एक ही दिन में परेशान हो गया था। और मम्मी बेचारी तो इस कार्य को पूरे हफ्ते भर करती थी। परे कैसे करती है अचरज होता है मुझे।
मैं भोंकता हूँ परंतु मेरे गले की आवाज़ बड़ी महीन, नन्ही—नन्ही घंटियों की तरह निकलती थी, जो उनकी नींद मैं शायद लोरी का ही काम कर रही थी। रविवार यानि छुट्टी का वो दिन जब हम सब पापा जी के साथ जंगल मैं घूमने जाते हैं। मम्मी जी तो कभी—कभी ही हमारे साथ जाती थी। उन्हें दुकान के अलावा घर पर भी बहुत काम होता था। खाना बनाना, दुकान को देखना आदि। कपड़े धोने, झाडू पोचा, बरतन आदि के लिए एक अम्माँ रखी हुई थी। शायद मम्मी थोड़ा जंगल में जाकर थक भी जाती थी। जंगल शब्द का नाम सुनते ही मेरा रोम—रोम प्रसन्नता सी खिल उठती थी। जैसे कोई प्रदेश आई दुल्हन मायके का नाम ही क्या उस तरफ से आई हवा के झोंके से भी अपने रोम—रोम को छिटक कर बिखेर देना चाहती हो। आखिरकार सब बच्चों की कुंभ करनी नींद पूरी हो ही गई। जंगल जाने की तैयारी शुरू होती हैं। समय बहुत धीरे—धीरे गुजर रहा था, मानो वो भी अभी नींद मैं अलसाया सा आँखें मलता चल रहा हो। घर से जंगल तक पापा जी, या दीदी मुझे गोद में लेकर जाते थे, ताकि कोई बड़ा कुत्ता मुझ पर हमला ना कर दे।
जंगल शुरू होते ही मुझे जमीन पर छोड़ दिया जाता था। आस पास के पेड़, पौधे देख मुझे लगता मैं एक—एक पेड़ की फुनगीयों को छू कर आऊ। पत्ते, तने क्या टहानीयों तक पर अपने होने की छाप छोड़ दूँ। जंगल का खुला पन आसमान में भी कैसा बिल्लौरी रंग भर रहा था। आपकी नजर जहां भी जाती थी, बस आप उसमें खोते चले जायेगें। समय और स्थान भी आसमान को कैसे दिगभ्रमित कर देते है। काश मेरे पंख होते, फिर तो पेड़ की टहानीयों पर शोर मचाते उन पंछियों को पता चल जाता, उन्हें दुर तक खदेड़ कर आता। रास्ते की नर्म मुलायम रेत, कैसे अंदर तक आपको अपने होने का भास देती सी लगती है। उसनें रात भर जिस ठंडक को अपने अंदर बड़े जतन से समेटा था, सजाया था, आपके पेरो ने बरबस उसे छुआ नहीं की कैसे रोम—रोम मैं सिहरन भरा देती हैं। कच्चे रास्ते पर पुरी ताक़त लगाकर जब मैं दौड़ता तो पीछे छोड़ता जाता था धूल का बादल। पैरो से छपे घुल पर फूल के निशान मानो ज़मीन पर ना हो बादलों पर छापता हुआ चल रहा हूँ। दूर तक जाती वह एकांत पगडंडी पैड पौधो के बीच से किस संभ्रमिकता लिए हुए दिखाई देती थी।
पीछे छूटते धूल के गुबार को जब मैं मुड़ कर देखता, तो फिर दोबारा मैं उसी धूल के गुबार में वापस भाग कर जाता था। उस समय कैसी एक अपने पन की मादक गंध मेरे थूथनी मैं भर जाती थी। फिर कौन परवाह करता थकने की, या थकान होती ही नहीं थी। परंतु आज मैं अकेला नहीं था मेरा साथी टोनी भी हमारे साथ था। टोनी मोटा भारी-भरकम था, परंतु मैं पतला छरहरा बदन एक छिपकली की तरह था। वह क्या खाकर मेरे साथ दौड़ सकता था। उसकी तो जीभ दो मिनट दौड़ने के कारण ही बहार निकल आई थी। और तब वह खड़ा होकर लगता हांफने, बस फिर क्या था मुझे बहाना मिल जाता उससे बदला लेने का। मैं भाग कर उसके टक्कर मारता और वो चारों खाने जमीन पर चित उस मुलायम रेत में लोट-पोट हो जाता। जितनी देर में वो खड़ा होता, मैं हवा से बातें करता और धूल उठाता हुआ उड़नछू हो जाता था।
ये सब देख बच्चे तालियाँ बजा—बजा कर बहुत खुश होते थे। थोड़ा आगे चलने के बाद अचानक पेड़ पौधे घने हो गये थे। मैं समझ गया अब नाला आने वाला था। जंगल जाने के लिए कम से कम तीन नाले हमें पार करने पड़ते थे। ये पहला नाला सबसे बड़ा और गहरा था। इसमें जब भाग के उतरते थे तो आप केवल शरीर को छोड़ दो बिना ताकत के आप नीचे पहुँच जाओगे। अभी मैं छोटा था, छोटे—छोटे मेरे पैर बच्चे भाग कर मुझसे आगे निकल जाते थे। नाले में तो बच्चे इतना तेज़ भगते की उनका कई बार संतुलन ही बिगड़ने लग जाता और सीधे मुंह के बल रेत मैं गिरते, कपड़े मुंह सब मिट्टी में सन जाते थे।
पापा जी भाग कर उठाते, कपड़े झाड़ते, मुंह साफ करते, बड़ी—बड़ी आँखों से, मिट्टी सने चेहरे पर, आँसू कैसे लकीर डालते हुये गूजर रही होती थी। मैं पास खड़े होकर उनका चेहरा बड़े ही गौर से देखता था, परन्तु मेरी समझ में कुछ नहीं आता था अब हंसू या राऊं। नाले में पानी की पतली सी लकीर बहती कितनी अच्छी लग रही थी। पानी एकदम पारदर्शी स्फटिक, तली में पड़ी सफेद कंकर तक नजर आ रही थी। टोनी तो भाग कर अन्दर घूस गया, पानी कम होने पर भी उसका बहाव हमारे लिये थोड़ा तेज ही था। परंतु उसका स्पर्श आपके शरीर को कैसे कमनीयता से भर जाता है। फागुनी शीतलता पानी में एक मादकता ला देती है। आप उसके अंग संग आये नहीं की वह आपको तरंगाईत किए बिना नहीं रह सकती। पानी के कटाव नाले में एक पतली टेढ़ी मेढी लकीर खींचता सा लग रहा था।
ऐसा नहीं था की पानी कम गहरा था। कहीं कहीं तो वह काफी गहरा था। जहां पर किसी ने मिट्टी का एक बाँध बना कर रोक दिया था, तो वहां से वह काफी गहरा हो गया था। आस पास के भेड़ बकरी चराने वाले ये सब करते थे। ताकी पानी संचित हो जाए तो उनके जानवरों को पीना में कुछ आसान हो जाये। इस सब से पास की बनस्पती भी खुब जी भर पानी को सेवन कर रही थी। जंगली पाम तो यहां बहुत अधिक मात्रा में फला-फूला हुआ था। वह किनारों पर लटक कर उगा हुआ पानी को छू लेना चाहता था। इस सब से वहां के सौंदर्य में वह चार चाँद लगा रहा था। उसकी तेज गंध कैसी मन मोहक लग रही थी। उस गंध के कारण आपके नथुनों में भी कैसी तेज अस्पर्शता भर रही थी। जिसके कारण आपका वहां श्वास लेना भी कितना कठिन हो जायेगा। परंतु टोनी तो मोटे दिमाग का था। वह शरीर से थुलथुल नहीं था दिमाग से भी थुलथुल था। मुझे पानी से डरते देख उसने सोचा आज अपनी धाक जमा ली जाये और वह भाग का खाल के पानी में घूस गया एक तो पानी की ठंडक और दूसरे वहां की गहराई उसे कुछ नहीं दिखाई दी। सच ही शरीर के साथ-साथ मोटे दिमाग का था। लगा वो गोते खाने, पापा जी ने भाग कर उसे गोद मैं उठा लिया। एक तो पानी इतना ठण्डा, उपर से उसके घने बाल, पापा जी ने जब उसे पानी से निकाला तो वो थर—थर काँप रहा था। मैंने तो उस के अंदर एक पैर रखने की हिम्मत की और गला तर करने के लिए चार जीभ पानी पिया।
इस मौसम में शारदीय केवल रात को ही होती थी, धूप निकलने के साथ—साथ वो भी गायब हो जाती थी। कुछ साहसी पेड़—पौधों ने इस शरद ऋतु में भी हिम्मत कर के नये पत्ते निकालने शुरू कर दिये थे। जंगल मैं हमेश कोई ना कोई फल खाने के लिए हमेशा लगे ही रहते थे। पापा जी को इन बातों का बहुत ज्ञान था। क्योंकि उनका बचपन इसी जंगल में गुजरा था। वो यहाँ के चप्पे—चप्पे को बहुत ही अच्छे से जानते थे। जो मेरे ही लिए नहीं पूरे परिवार के लिए एक विषमय की बात ही नहीं हमें एक चमत्कार जैसा ही लगता था।
एक—एक झाड़, पेड़ का नाम, गुण—दोष कितनी ही जड़ी बूटियों को तोड़ कर वह बच्चो को खिलाते, देखो ये ’गिलोट’ है, अभी इसका पत्ता खाने में नमकीन लगेगा और दोपहर बाद एक दम फीका हो जाता था। ये हिंगोट है, अखरोट की ही जाती की उसकी बहन है, कुदरत ने इसका खोल थोड़ा मजबूत कर दिया इस सुखे इलाका में होने के कारण। जैसे-जैसे यह उत्तुंग ऊंचाई और ठंडे प्रदेश की और बढ़ती है तो यह अखरोट हो जाती है। तब यह अपना छिलका पतला कर लेती है। ये दोनों ही फल एक ही पर जाति के हैं। इसकी गुठली को आग में भून कर खाने से किसी भी तरह की खांसी क्या दमे तक को ठीक कर देती है। सब बच्चों ने उसे गुणकारी फल समझ कर अपनी जेब भर ली थी। अब मैं क्या करता मेरा छोटा सा मुँह कैसे उसे उठा सकता, केवल देख भर सकता था। सच वह फल देखने में भी कितना सुंदर लग रहा था। उसके ऊपर का छिलका जो हल्का पीलापन लिये था। वह अति नर्म था और जैसे ही मैंने उसे अपने दांतों से पकड़ा तो मेरे दाँत उस में गड़ गये उस के अंदर एक अति नरम और कड़वा चिपचिप पर्दाथ भरा था। मैं थू-थू के दे अपने मुख के स्वाद को ठीक करने लगा। एक झाड़ के पास मणि दीदी और पापा जी खड़े हो कर उसके फलों को तोड़ रहे थे। उस झाड की उँचाई सात—आठ फिट होगी, तना एक दम सुखा और चिकनी था।
उस झाड का रंग एक दम कच्चा हरा, पत्तों का नामों निशान तक नहीं था। सच देखने में वो इतना सुन्दर की मैं उसे देखता ही रह गया था। पापा जी और मणि दीदी तो उस पर लगे फलों को तोड़ रहे थे। हरे गोल फल जिनका आकार छोटा ही था। मैं जिज्ञासा से खड़े हो कर दीदी को तोड़ते हुए देख रहा था, शायद इसी कारण एक फल उसने मेरे खुले मुँह में डाल दिया, मैंने उसे चबाया तो मुँह एक दम कड़वा हो गया था। क्या करेंगे इस कड़वे फल का ये लोग मैंने अपना माथा ठोक लिया था। उस दिन हम बहुत गहरे जंगल मैं चले गये शायद, पापा—दीदी जी को टींट के फल ताड़ते हुए इसका भान ही नहीं रहा होगा की हम इतना अन्दर आ गये थे। मुझे लगा ये जगह मैंने पहले भी देखी हैं, हालांकि इससे पहले मैं यहाँ कभी नहीं आया था।
फिर भी एक—एक जगह, जहां पर झाड़ियों के बीच से ऊंचे—उचे पेड़, और लताएं लटक रहीं थी। उन्हें देख कर ऐसा लगा ये मुझे बरबस अपनी और खींच रही थी। और मैं उसी और खींचा चला गया। ऊंचे खड़े पत्थरों की चटाने सब कैसे, मुझे अपनी—अपनी सी लगने लगी थी। ऐसा लगा कि कोई मुझे दूर से पुकार रहा हैं, मेरे दिल में एक अनजानी हुंकार उठी, दिल ऐसे हो गया जैसे अभी फटा, साँस ना अन्दर जा रहीं थी ना बहार आ रही थी। मेरा शरीर सर एक दम से गर्म हो गया, अचानक अन्दर से हुंकार उठी हुँ..उ..हुँ..उ । पापा जी ने भाग कर मुझे गोद मैं उठा लिया, और प्यार से मेरे शरीर पर हाथ फेर कर पूच...पूच....कर चुप कराने लगे। परन्तु मेरे मुँह से हुंकार निकलती ही रही, ना वो मैंने शुरू की थी, ना वो मेरे बस में थी। जो आपसे शुरू ही नहीं हुआ उसे आप बन्द भी कैसे कर सकते हो। मेरी मजबूरी पापा जी शायद समझ गये, उस जगह से वो बहुत तेज भागे, बच्चो को जल्दी पीछे आने को कहा था।
बच्चे पापा जी आवाज़ सून कर समझ गए की कोई खतरा जरूर था। बच्चे भी एक क्षण में हमारे साथ भागने लगे। परंतु सबसे तेज जो भागा वह टोनी था जिसे मैं मोटा समझ रहा था वह तो गजब फर्राटा दौड़ लगा रहा था। जंगल के नियम कायदे पापा जी ने बच्चो को पहले ही समझा रखे थे। वरना इतने घने जंगल में इतने अबोध बच्चों के साथ आना कोई बच्चों का खेल नहीं था। यहां हमेशा दिन में भी जंगली जानवरों का भय बना ही रहता था। भला कौन अपने बच्चो को लेकर यहां आयेगा। इसलिए पापा जी जब भी जंगल मैं आते एक मोटा ’सोटा’ हमेशा साथ लाते थे। गीदड़, नील गाय, जंगली गाय, जंगली कुत्ते, फावड़ी गीदड़ी, साँप, गोह के अलावा कई साल पहले तो यहां से एक लक्कडभग्गा भी पकड़ा गया था। जिसे बाद मैं चिड़ियाँ घर भेज दिया गया था। थोड़ी दूर जाने के बाद मेरी हुंकार बन्द हो गई थी। कुछ दूर और तेजी से दौड़ने पर हम एक खुले मैदान में पहुंचने गए थे। वहां जाने के बाद पापा जी रूक गए। तब सब ने चेन की सांस ली, और तब पापा जी ने सब को बताया की ’मुझे लगता हैं, पोनी को जरूर अपनी माँ की खुशबू आ गई होगी इसलिए वो अपनी माँ को बुला रहा होगा।’
बच्चो ने पापा जी के दूरदर्शी ज्ञान की सरहना करते हुये मुझे प्यार से एक—एक चपत मारा। दीदी जो उनमें थोड़ी बडी थी वो शायद इस खतरे को भाप गई थी। उस न मुझे धुर कर देखा जैसे कि मुझे जान से ही मार देगी। मैं थोड़ा सा डर गया था। फिर मैं कर भी क्या सकता था। मुझे उन पेड़ों को देख कर वहां की सुगंध आबोहवा को देख कर अपनी मां की अपने घर की याद आ गई थी। मैं गोद में बठे—बठे ही अपने चिर परिचित अंदाज में पूछ हिलानी शुरू कर दी। जिससे उनका गस्सा कम हो जाए और मेरी रक्षा हो जाए। इस सब के बीच बेचारा टोनी तो कितना बहादुर निकला वह तो भागने में सबसे ही तेज निकला। सब उसकी बड़ाई कर रहे थे कि बेचारा टोनी कितना अच्छा है। और ये पोनी तो मूर्ख है। अब गलती तो बाबूजी हो ही गई थी मुझसे। किया क्या जा सकता था। सालों बाद भी जब उस घटना को याद करता हूं तो, आज मुझ उसके खतरे का एहसास होता है। कि मेरे कारण पूरा परिवार एक खतरे में पड़ सकता था। या हो सकता है मेरी मां खुद ही खतरे में पड़ जाती, दोनों तरफ मेरे ही तो अपने थे। मां मुझे बचाने की कोशिश करती और पापा जी बच्चों को बचाने कि कोशिश करते।
अगर मेरी मां मुझे इस हालत में देख लेती तो जरूर इन लोगों पर हमला बोल देती। जबकि इन्होंने तो मेरा कोई भी नुकसान नहीं पहुंचाया था। पर क्या मैं इस बात को अपनी मां को समझा सकता था। नहीं कभी नहीं। मेरी जरा सी भूल क्या से क्या कर देती। शायद पापा जी तो मेरी मां के हमले से अपने को बचा लेते पर ये छोटे—छोटे बच्चे तो खतरे में पड़ जाते। घर आकर जब सब बच्चों ने इस घटना को मम्मी जी को बताया की किस तरह से पोनी अपनी माँ को आवाज दे कर बुला रहा था। और देखों मम्मी इस नालायक को यह हमें अपनी मम्मी से पिटवाना चाहता था। तब मम्मी जी ने दोनो हाथों से उठ कर मेरा मुँह चूम लिया, इस लाड़ से मैं फुल के कुप्पा हो गया था। कैसा है ये मनुष्य जब भी जितना भी इसे जानने की कोशिश करता हूं इसके रहस्य उतने ही गहरे होते चले जा रहे थे।
समुद्र की तरह से ही इस कि गहराई का कोई अंनत नहीं है, शायद ये बे बुझा सा एक रहस्य भरा प्रश्न है। जिसे कभी कोई भी हल नहीं कर सकेगा। और मुझ बुद्धू से तो कभी भी ये होने से रहा। परंतु हम को इस पचड़े में पड़ना ही क्यों है।
और एक सुहाना दिन समाप्त हो गया अपने उतार चढ़ाव विस्मय के साथ लिए हुए आया और हमें दे गया एक उत्सव का उल्लास भरा एहसास। हो गया एक दिन का अंत।
भू....भू ...भू
आज बस इतना ही।
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