अंतर की खोज-(विविध)
ओशो
तीसरा-प्रवचन
एक
छोटी सी कहानी से मैं आने वाली इन तीन दिनों की चर्चाओं को शुरू करूंगा।
एक
राजधानी में एक संध्या बहुत स्वागत की तैयारियां हो रही थीं। सारा नगर दीयों से
सजाया गया था। रास्तों पर बड़ी भीड़ थी और देश का सम्राट खुद गांव के बाहर एक
संन्यासी की प्रतीक्षा में खड़ा था। एक संन्यासी का आगमन हो रहा था। और जो संन्यासी
आने को था नगर में,
सम्राट के बचपन के मित्रों में से था। उस संन्यासी की दूर-दूर तक
सुगंध पहुंच गई थी। उसके यश की खबरें दूर-दूर के राष्ट्रों तक पहुंच गई थीं। और वह
अपने ही गांव में वापस लौटता था, तो स्वाभाविक था कि गांव के
लोग उसका स्वागत करें। और सम्राट भी बड़ी उत्सुकता से उसकी प्रतीक्षा में नगर के
द्वार पर खड़ा था।
संन्यासी
आया, उसका स्वागत हुआ, संन्यासी को राजमहल में लेकर
सम्राट ने प्रवेश किया। उसकी कुशलक्षेम पूछी। वह सारी पृथ्वी का चक्कर लगा कर लौटा
था। राजा ने अपने मित्र उस संन्यासी से कहा, सारी पृथ्वी घूम
कर लौटे हो, मेरे लिए क्या ले आए हो? मेरे
लिए कोई भेंट?
संन्यासी
ने कहा, मुझे भी खयाल आया था, पृथ्वी की परिक्रमा करके लौटूं
तो तुम्हारे लिए कुछ लेता चलूं। बहुत चीजें खयाल में आईं, लेकिन
जो चीज भी मैंने लानी चाही, साथ में खयाल आया, तुम बड़े सम्राट हो, निश्चित ही यह चीज भी तुमने अब
तक पा ली होगी। तुम्हारे महलों में किस बात की कमी होगी, तुम्हारी
तिजोरियों में जो भी पृथ्वी पर सुंदर है, बहुमूल्य है,
पहुंच गया होगा, और मैं हूं गरीब फकीर,
नग्न फकीर, मैं तुम्हें क्या ले जा सकूंगा।
बहुत खोजा, लेकिन जो भी खोजता था यही खयाल आता था तुम्हारे
पास होगा और जो तुम्हारे पास हो उसे दुबारा ले जाने का कोई अर्थ न था। फिर भी एक
चीज मैं ले आया हूं। और मैं सोचता हूं, वह तुम्हारे पास नहीं
होगी।
सम्राट
भी विचार में पड़ गया कि यह क्या ले आया होगा? उसके पास कुछ दिखाई भी न पड़ता था,
सिवाय एक झोले के। उस झोले में क्या हो सकता था? आप भी कल्पना न कर सकेंगे, वह उस झोले में क्या ले
आया था? कोई भी कल्पना न कर सकेगा वह क्या ले आया था?
उसने झोले को खोला और एक बड़ी सस्ती सी और एक बड़ी सामान्य सी चीज
उसमें से निकाली। एक आईना, एक दर्पण। और सम्राट को दिया और
कहा, यह दर्पण मैं तुम्हारे लिए भेंट में लाया हूं, ताकि तुम इसमें स्वयं को देख सको।
दर्पण
राजा के भवन में बहुत थे,
दीवारें दर्पणों से ढकी थीं। राजा ने कहा, दर्पण
तो मेरे महल में बहुत हैं। लेकिन उस फकीर ने कहा, होंगे जरूर,
लेकिन तुमने उनमें शायद ही स्वयं को देखा हो। मैं जो दर्पण लाया हूं
इसमें तुम खुद को देखने की कोशिश करना।
जमीन
पर बहुत ही कम लोग हैं जो खुद को देखने में समर्थ हो पाते हैं। और वह व्यक्ति जो
स्वयं को नहीं देख पाता,
वह चाहे सारी पृथ्वी देख डाले, तो भी मानना कि
वह अंधा था, उसके पास आंखें नहीं थीं। क्योंकि जो आंखें
स्वयं को देखने में समर्थ न हो पाएं, वे आंखें ही नहीं।
यह
बड़ी अजीब सी बात उस फकीर ने उस राजा को कही थी।
आज
की सुबह आने वाली इन तीन दिन की चर्चाओं का प्रारंभ मैं भी इसी कहानी से इसलिए
करना चाहता हूं,
मैं भी एक छोटा सा दर्पण इन तीन दिनों में आपको भेंट करना चाहूंगा
जिसमें आप अपने को देख सकें। जीवन, जीवन का अर्थ और आनंद,
जीवन का अभिप्राय और जीवन का सत्य केवल उन लोगों को उपलब्ध हो पाता
है जो स्वयं को देखने में समर्थ हो जाते हैं। लेकिन हमारी आंखें बाहर देखती हैं
भीतर नहीं, और हमारे कान बाहर सुनते हैं भीतर नहीं, और हमारे हाथ बाहर स्पर्श करते हैं भीतर नहीं। हमारी सारी दौड़, हमारे प्रयत्न और प्रयास, हमारे जीवन भर का श्रम कुछ
ऐसी संपदा को जुटाने में व्यय और व्यर्थ हो जाता है जो संपदा भी अंततः हमसे छीन
जाती है, लेकिन और एक संपत्ति है, एक
और संपदा है जो स्वयं को जानने और पहचाने से उपलब्ध होती है। जो उस संपदा को पा
लेता है, उसे न केवल जीवन का अर्थ और सत्य मिल जाता है,
बल्कि वस्तुतः उसे ही जीवन भी मिल पाता है। क्योंकि उस सत्य को जाने
बिना हम जो भी जानते हैं वह सब, वह सब मृत्यु में समा जाने
को है और समाप्त हो जाने को है। उस सत्य को जो मनुष्य की आत्मा है जाने बिना हम
जीते नहीं, धीरे-धीरे मरते हैं और इस धीरे-धीरे मरने के क्रम
को ही जीवन समझ कर भूल कर बैठते हैं। जिसे हम जीवन जानते हैं, वह ग्रेजुअल डेथ, क्रमिक मरते जाने के अतिरिक्त और
क्या है।
बच्चा
जिस दिन पैदा होता है उसी दिन से मरने की क्रिया शुरू हो जाती है और अंत में जिसे
हम मृत्यु कहते हैं वह कोई आकस्मिक घटना नहीं है, बल्कि जन्म के दिन जो
प्रक्रिया शुरू हुई थी उसी की समाप्ति है।
रोज
हम मर रहे हैं प्रतिक्षण और प्रतिपल, यह मरने कि क्रिया जिस दिन पूरी हो
जाती है, कहते हैं, मृत्यु आ गई। लेकिन
मृत्यु कहीं बाहर से नहीं आ जाती, मृत्यु हमारे भीतर का
निरंतर विकास है। हमारे भीतर ही मृत्यु निरंतर विकसित होती रहती है। मृत्यु वाह्य
घटना नहीं, आंतरिक प्रक्रिया है। जन्म के साथ उसका प्रारंभ
होता है और मृत्यु के साथ उसकी पूर्णता होती है। तो जिसे हम जीवन कहते हैं वह जीवन
नहीं है, बल्कि धीरे-धीरे मरते जाना है।
निश्चित
ही यह जो क्रमिक मृत्यु है इस क्रमिक मृत्यु में न तो आनंद हो सकता है, न शांति
हो सकती है, न सौंदर्य हो सकता है। मृत्यु तो होगी कुरूप,
मृत्यु में तो होगा दुख, मृत्यु तो होगी एक
पीड़ा। और इसीलिए हमारा एक पूरा जीवन दुख की एक लंबी कथा है।
शायद
ही हममें से कुछ थोड़े से लोग जीवन को जान पाते हों, बाकी सारे लोग जीते हैं
जीवन से अपरिचित और अनजान। वह जो स्वयं को देखना है वही जीवन को पा लेना भी है।
एक
वृद्ध फकीर के पास किसी ने जाकर पूछा था, कि मैं मृत्यु के संबंध में कुछ
जानना चाहता हूं। तो उस वृद्ध फकीर ने कहा था, तुम कहीं और
जाओ। अगर मृत्यु के संबंध में जानना है तो किसी और से पूछो, क्योंकि
जहां मैं हूं वहां मृत्यु है ही नहीं, वहां सिर्फ जीवन है।
मैं जीवन के संबंध में तो जानता हूं, मृत्यु के संबंध में
मुझे कोई भी पता नहीं है। लेकिन हमसे अगर कोई पूछे कि जीवन क्या है, तो शायद हमें उलटी बात कहनी पड़े, हमें कहना पड़े कि
जीवन अगर जानना है तो कहीं और पूछो, हम तो मृत्यु के सिवाय
और कुछ भी नहीं जानते, हम तो मरना जानते हैं जीवन से हमारा
क्या संबंध? हमारी क्या पहचान? जीवन से
हमारा क्या नाता? और जिनका जीवन से भी नाता नहीं हैं वे भी
अगर परमात्मा को जानने चले हों, तो गलती में हैं। और जिनका
जीवन से भी नाता नहीं हैं वे भी मोक्ष के संबंध में चिंतन करते हों, तो पागल हैं। जीवन को जो जान लेता है वह परमात्मा को भी जान लेता है,
क्योंकि जीवन की समग्रता के अतिरिक्त परमात्मा और कुछ भी नहीं है।
और जो जीवन को जान लेता है वह मोक्ष को भी जान लेता है, क्योंकि
जहां मृत्यु नहीं है वही मोक्ष है। मैं इसे फिर से दोहराऊं, जो
जीवन को जान लेता है वह परमात्मा को भी जान लेता है, क्योंकि
परमात्मा जीवन की परिपूर्णता के सिवाय और कुछ भी नहीं, जीवन
की समग्रता ही परमात्मा है। और जो जीवन को जान लेता है वह मोक्ष को भी जान लेता है,
क्योंकि जहां मृत्यु नहीं है वहां मुक्ति है। मृत्यु के अतिरिक्त और
कोई बंधन नहीं है। मृत्यु के अतिरिक्त और कोई परतंत्रता नहीं है। मृत्यु के
अतिरिक्त और कोई दुख और कोई अंधकार नहीं है। लेकिन हम जिसे जीवन समझते हैं वह
मृत्यु ही है।
एक
मुसलमान फकीर का मुझे स्मरण आता है। कभी तो वह एक बहुत बड़े राज्य का सम्राट था। एक
रात अपने बिस्तर पर सोया था, करवटें बदलता था, जैसा कि
सभी सम्राट बदलते हैं और सो नहीं पाते, तभी उसे ऐसा प्रतीत
हुआ कि ऊपर छप्पर पर कोई चल रहा है, उसने चिल्ला कर पूछा कि
आधी रात में छप्पर पर कौन है? ऊपर से आवाज आई किसी आदमी की,
माफ करें, मेरा ऊंट खो गया है, उसे मैं खोजता हूं। उस राजा ने कहा, पागल मालूम होते
हो! ऊंट खो गया हो तो छप्परों पर नहीं खोजना पड़ता, मकान के
छप्परों पर ऊंट मिलेगा? तो वह आदमी ऊपर से हंसा और उसने कहा
कि अगर स्वर्ण-सिंहासनों पर शांति मिल सकती है, और अगर हिंसा
के द्वारा, लोगों की हत्या के द्वारा, अगर
आनंद मिल सकता है, तो छप्परों पर ऊंट भी मिल सकता है,
इसमें कोई आश्चर्य नहीं।
राजा
निकल कर बाहर आ गया,
उसने अपने आदमी भेजे कि पकड़ो इस आदमी को यह कौन है? उसने एक बड़ी सच्ची बात कह दी थी। लेकिन वह आदमी पकड़ा नहीं जा सका। दूसरे
दिन दोपहर में जब वह सम्राट अपने सिंहासन पर दरबार में बैठा हुआ था, तब एक आदमी आया और द्वारपाल से झगड़ा करने लगा। द्वारपाल से उस आदमी ने कहा
कि मैं इस धर्मशाला में ठहरना चाहता हूं, इस सराय में रुकना
चाहता हूं।
द्वारपाल
ने कहा, यह कोई सराय नहीं, राजा का भवन है, राजा का निवास है। लेकिन वह आदमी माना नहीं और उसने कहा कि अगर ऐसा है तो
मुझे राजा के समक्ष ले चलें। उसे राजा के सामने लाया गया, उसने
राजा से कहा कि मैं कहता हूं इस सराय में मुझे ठहर जाने दें। दो-चार दिन मुझे
रुकना है और मैं चला जाऊंगा। राजा ने कहा, पागल हो! यह सराय
नहीं है, यह मेरा निवास है। लेकिन वह आदमी हंसने लगा और उसने
कहा कि मैं कुछ वर्षों पहले आया था, तब भी यही बात हुई थी और
तुम्हारे इस सिंहासन पर कोई दूसरा आदमी बैठा हुआ था, और उसने
भी कहा था यह मेरा निवास है। वह आदमी कहां है अब? वह राजा
हंसा और उसने कहा कि वे मेरे पिता थे, और अब वे दुनिया में
नहीं हैं। उस फकीर ने कहा, और कुछ वर्षों पहले मैं आया था,
तब तुम्हारे पिता भी यहां नहीं थे, कोई और
आदमी इस सिंहासन पर बैठा था। और तब भी यही बात हो गई थी और मैंने कहा था, इस सराय मैं मुझे ठहर जाने दें, तो उस आदमी ने भी
कहा था, यह सराय नहीं यह मेरा निवास है। वह आदमी कहां है?
उस राजा ने कहा, वे मेरे पिता के पिता थे,
उनको मरे बहुत वर्ष हो चुके। वह फकीर बोला, मैं
और भी पहले आया हूं, लेकिन हर बार यहां कोई दूसरा आदमी मिलता
है और वह आदमी यही कहता है, यह मेरा निवास है। और जब हर बार
आदमी बदल जाते हों, तो मैं इसे सराय न समझूं तो और क्या
समझूं? मुझे इस धर्मशाला में दो-चार दिन ठहर जाने दें,
क्योंकि आप खुद भी दो-चार दिन के मेहमान से ज्यादा नहीं होंगे। जब
मैं दुबारा आऊंगा तो यहां कोई दूसरा आदमी इस सिंहासन पर मुझे यही बातें कहता हुआ
मिलेगा।
उस
राजा ने उस आदमी को पकड़वा लिया और कहा, मालूम होता है तुम वही आदमी हो जो
रात छप्पर पर ऊंट खोज रहे थे? वह आदमी बोला कि निश्चित ही,
मैं वही आदमी हूं। और मैं तुमसे यह कहने आया हूं कि जिसे तुमने घर
समझ लिया है वह सराय से ज्यादा नहीं है और जहां तुम खोज रहे हो वह छप्पर पर ऊंट
खोजने जैसी जिंदगी है।
वह
राजा उसी दिन उठा और फकीर हो गया। वह गांव के बाहर जाकर रहने लगा। और गांव में जो
लोग भी आते थे,
वे उससे पूछते कि बस्ती का रास्ता कहां है? तो
वह कहता, उत्तर की तरफ चले जाओ, उत्तर
की तरफ बस्ती है। वे लोग उत्तर जाते और पाते कि वहां मरघट है बस्ती नहीं। वे वापस
लौटते, उस राजा को कहते, जो अब फकीर हो
गया था, तुम्हारा मस्तिष्क तो खराब नहीं है? क्योंकि जहां तुमने भेजा वह मरघट है। वह राजा कहता, जहां
तक मेरी समझ है, जिसे तुम बस्ती कहते हो वह मरघट है, क्योंकि वहां हर आदमी मरने को है। आज एक मरेगा, कल
दूसरा, परसों तीसरा, वहां कोई भी आदमी
बसा हुआ नहीं है। लेकिन जिसे तुम मरघट कहते हो, वहां जो लोग
भी बस गए हैं वे हमेशा को बस गए हैं, वहां से कोई मरता नहीं।
इसलिए मैं मरघट को बस्ती कहता हूं और तुम्हारी बस्ती को मरघट कहता हूं।
जिन
लोगों ने भी आज तक जीवन को जाना है, उन सबका यही कहना है। जिसे हम जीवन
कहते हैं उसे वे मृत्यु कहते हैं और जिसे हम बस्ती कहते हैं उसे वे मरघट कहते हैं।
और शायद हमारी उस तरफ आंखें भी नहीं उठतीं जो जीवन है।
जो
मृत्यु नहीं है वह आंख उठानी, वह दृष्टि, उस तरफ देखना
कैसे संभव हो सकता है? उस प्रक्रिया को ही मैं दर्पण कहूंगा
जिसमें आप अपने को देख सकें और उसको जिसकी कोई मृत्यु नहीं है जो कि अमृत है। और
ऐसा नहीं है कि आज का आदमी उसे देखने असमर्थ हो गया हो, आदमी
हमेशा से असमर्थ रहा है। और ऐसा भी नहीं है कि आज कि दुनिया आत्मज्ञान से हीन हो
गई हो, हमेशा से, थोड़े से लोगों को छोड़
कर, हमारा अधिकांश हिस्सा उस दिशा से अंधा रहा है। कोई भूल
हो गई है आदमी के साथ, आदमी की संस्कृति में, उसके विचार में, उसके जीने के ढंग में, कोई आधारभूत, कोई बुनियादी गलती हो गई है। जिसकी वजह
से कुछ थोड़े से लोग ही जो उस गलती से उभर पाते हैं, उस गलती
से मुक्त हो पाते हैं, वे तो स्वयं को, सत्य को और जीवन को जान पाते हैं, शेष सारे लोग केवल
आशाओं में जीते हैं, उनकी कोई उपलब्धि नहीं होती। केवल
आकांक्षाओं में जीते हैं, उनकी कोई प्राप्ति नहीं होती। केवल
सपनों में जीते हैं, सत्य से उनका कोई साक्षात नहीं हो पाता।
वे
कौन सी भूल हो गई हैं,
उन आधारभूत भूलों के संबंध में आज सुबह में चर्चा करूंगा। और उनसे
मुक्त होने के बाबत बाद में।
शायद
आप थोड़े विचार में भी पड़ जाएं, क्योंकि जिन बातों को मैं भूल समझता हूं,
हो सकता है उन्हीं बातों को आप धर्म समझते रहे हों। लेकिन मैं चाहता
हूं कि आप सोच-विचार में पड़ जाएं, क्योंकि जो व्यक्ति विचार
में पड़ जाता है उसके लिए आज नहीं कल रास्ता मिल सकता है। लेकिन जो निश्चिंत,
अंधा बना बैठा रहता है उसके लिए कोई मार्ग नहीं है।
मनुष्य
के मन को निर्माण करने वाली बातों में जो सबसे बड़ी बुनियादी भूल हो गई, जिसकी वजह
से वह अपनी तरफ आंख भी नहीं उठा पाता और वे लोग जो निरंतर कहते हैं अपने को जानो,
आत्मा को जानो, नो दाई सेल्फ, और इस तरह की बातें कहते हैं, वे लोग भी उसी भूल को
दोहराते हैं। और इसलिए बातचीत तो हो जाती है लेकिन कोई अपने को जान नहीं पाता।
वह
पहली भूल यह हो गई है कि मनुष्य को हमने इधर पांच हजार वर्षों से श्रद्धा और
विश्वास सिखाया है,
विवेक और विचार नहीं। हम आदमी को सिखाते रहे हैं विश्वास करने के
लिए, और जो आदमी विश्वास कर लेता है उस आदमी की सारी खोज बंद
हो जाती है। जो आदमी विश्वास कर लेता है, श्रद्धा कर लेता है,
मान लेता है, स्वीकार कर लेता है, उसके भीतर से सारा अन्वेषण समाप्त हो जाता है। उसकी सारी इंक्वायरी,
उसकी सारी खोज, उसकी सारी जिज्ञासा की मृत्यु
हो जाती है।
श्रद्धा
सबका बड़ा, सबसे बड़ी रुकावट और पत्थर की तरह मनुष्य की आत्मा की खोज पर खड़ी हो जाती
है। लेकिन हमें यह कहा जाता रहा है कि हम विश्वास करें, श्रद्धा
करें--हम मान लें गीता को, या कुरान को, या बाइबिल को; महावीर को, बुद्ध
को, या कृष्ण को, या किसी को भी,
चाहे वह कोई हो--चाहे हिंदू हों, चाहे मुसलमान
हों, चाहे ईसाई हों, उनकी बातों में
कितना भी भेद हो, लेकिन एक बात पर दुनिया के सारे धर्म सहमत
रहे हैं, वह यह कि विश्वास करना जरूरी है। और विश्वास का
मतलब क्या होगा? विश्वास का मतलब होता है, अंधापन। विश्वास का मतलब होता है, अपनी आंखों पर
नहीं, किसी और की आंखों पर श्रद्धा। विश्वास का मतलब होता है,
जो मैं नहीं जानता हूं, उसको मान लेना।
विश्वास का अर्थ होता है, खुद के विवेक और विचार का आत्मघात।
विश्वास
स्युसाइडल है,
आत्मघाती है। क्योंकि विश्वास यह कहता है कि अपने से बाहर श्रद्धा
का कोई बिंदु है--चाहे वह राम हों, चाहे कृष्ण, चाहे बुद्ध, चाहे महावीर, चाहे
गीता, चाहे कुरान, चाहे कुछ और,
मेरे से बाहर कुछ है जो मुझे मान लेना है। और स्मरण रखें, जो व्यक्ति मान लेने को राजी हो जाता है वह कभी जान नहीं पाता। क्योंकि
मानने का अर्थ ही है, जानने की सारी चिंता, जानने की सारी आकांक्षा, जानने की सारी अभीप्सा छोड़
दी गई। मनुष्य के व्यक्तित्व के निर्वाण में जो सबसे ज्यादा आत्मज्ञान के विरोध
में बात खड़ी हो गई है, वे हैं उसके विश्वास, उसकी बिलीफस, उसकी वे स्वीकृतियां जो उसने अनजाने,
बिना खुद जाने अंगीकार कर ली हैं और मान लीं, तब
वह अंधे की भांति किसी के पीछे चलने को राजी हो जाता है। तब वह सोचता नहीं,
तब वह विचारता नहीं, तब वह संदेह नहीं करता,
तब वह आंख बंद कर लेता है। क्योंकि खुली आंख होगी तो विचार पैदा
होगा, अगर खुली आंख होगी तो चिंतन पैदा होगा, अगर आंख खुली होगी तो संदेह भी पैदा होगा।
इसलिए
जिसे विश्वास करना है,
उसे आंख बंद कर लेनी होती है। आंख अगर बिलकुल ही फूट जाए तो विश्वास
पूरा हो जाता है। तब कोई संदेह पैदा नहीं होता, कोई विचार
पैदा नहीं होता, कोई जिज्ञासा पैदा नहीं होती। तब जो भी कहा
जाता है वह मान लिया जाता है। और ऐसे व्यक्ति को हम धार्मिक कहते रहे हैं। ऐसा
व्यक्ति जरा भी धार्मिक नहीं है। और ऐसे धार्मिक व्यक्तियों की वजह से जमीन पर
धर्म का अवतरण नहीं हो सका। ऐसे धार्मिक व्यक्तियों की वजह से दुनिया में अधर्म
है। ऐसे धार्मिक व्यक्तियों की वजह से हिंदू तो पैदा हो सका, मुसलमान पैदा हो सका, ईसाई और जैन पैदा हो सकें,
लेकिन धर्म पैदा नहीं हो सका। धर्म हजार हो सकते हैं? धर्म अनेक हो सकते हैं? धर्म बहुत हो सकते हैं?
अगर धर्म सत्य है तो एक ही हो सकता है। हिंदुओं की केमेस्ट्री अलग
नहीं होती, हिंदुओं की फिजिक्स मुसलमानों की फिजिक्स से अलग
नहीं हो सकती। ईसाइयों का गणित जैनियों के गणित से अलग नहीं हो सकता।
पदार्थ
के नियम एक हैं,
युनिवर्सल हैं, तो आत्मा के नियम अनेक कैसे हो
सकते हैं? अगर जड़ पदार्थ के नियम भी सार्वलौकिक हैं, तो परमात्मा के नियम भिन्न-भिन्न और अलग-अलग कैसे हो सकते हैं? लेकिन जमीन पर कोई तीन सौ धर्म हैं, और एक-दूसरे के
शत्रु। इन तीन सौ धर्मों के खड़े होने का आधार क्या है? ये
किस बुनियाद पर खड़े हुए हैं? अगर सोच-विचारशील मनुष्य होता,
तो दुनिया में धीरे-धीरे एक धर्म रह जाता। उसका कोई नाम नहीं होता,
उसका हिंदू-मुसलमान नाम नहीं हो सकता था। क्योंकि नामों की जरूरत
तभी तक है जब तक बहुत धर्म हों, अगर एक ही नियम शेष रह जाए
तो नामों की कोई जरूरत नहीं। और सच्चाई यह है कि न तो परमात्मा का कोई नाम है और न
धर्म का कोई नाम है, लेकिन नामों वाले धर्मों के कारण उस
बेनाम धर्म को खोजना संभव नहीं हो सका।
और
नामों वाले धर्मों के खड़े होने का आधार क्या है?
आधार
है विश्वास। इसलिए हिंदू मुसलमान के कितने ही विरोध में हो, ईसाई
हिंदू के कितने ही विरोध में हो, लेकिन एक बात पर वे सब सहमत
हैं कि विश्वास लाओ, विश्वास करो। विचार विद्रोही है,
इसलिए विचार से सभी को डर है। विचार संदेह करता है, डाउट करता है, इसलिए विचार से सभी को भय है। विचार
मत करो, स्वीकार करो। संदेह मत करो, श्रद्धा
करो। यह शिक्षा रही है। और इस शिक्षा का परिणाम यह होता है कि मनुष्य के भीतर जो
सोया हुआ विवेक है उसके जागने पर ताले पड़ जाते हैं, उसके
जागरण के आस-पास दीवालें खड़ी हो जाती हैं। उस विवेक के जागने का कोई कारण नहीं रह
जाता। अगर कोई आदमी किसी दूसरे के कंधे पर हाथ रख कर आंख बंद करके चलने का अभ्यास
करे और वर्ष, दो वर्ष तक अपनी आंख बंद रखे, तो फिर उसकी आंखें काम करना बंद कर देंगी। अगर कोई आदमी अपने पैरों को
बांध कर बैठ जाए, तो वर्ष, दो वर्ष में
उसके पैर काम करना बंद कर देंगे। जिन अंगों का हम उपयोग बंद कर देते हैं, वे मुर्दा हो जाते हैं। जो आदमी विश्वास कर लेता है, वह विवेक से काम लेना बंद कर देता है। विवेक मर जाता है, रह जाता है विश्वास और विश्वास अंधा है। अंधा विश्वास आत्मज्ञान में नहीं
ले जा सकता। आत्मज्ञान के लिए चाहिए आंखों वाला विवेक, अंधा
विश्वास नहीं। और जरूरी नहीं है कि विश्वास आस्तिक का ही हो, विश्वास नास्तिक का भी होता है। एक आदमी का विश्वास है कि ईश्वर है,
उससे पूछें कि वह जानता है ईश्वर को? अगर वह
नहीं जानता और उसने मान लिया, तो उसने अपने जीवन को एक असत्य
पर खड़ा दिया।
एक
आदमी कहता है,
ईश्वर नहीं है। उससे पूछें, वह जानता है कि
ईश्वर नहीं है? अगर वह नहीं जानता है और उसने किन्हीं की
बातों को मान कर यह स्वीकार कर लिया है कि ईश्वर नहीं है, उसने
भी विश्वास कर लिया है, उसने भी अपने जीवन को एक असत्य पर
खड़ा कर लिया है।
नास्तिक
और आस्तिक दोनों का जीवन असत्य का जीवन है। धार्मिक व्यक्ति न तो आस्तिक होता है, न नास्तिक
होता है, धार्मिक व्यक्ति तो खोजी होता है। वह स्वीकार नहीं
कर लेता यात्रा के पहले, वह मान नहीं लेता, वह खोज करता है। और जिस दिन उसके प्राण किसी साक्षात को उपलब्ध होते हैं,
उसी दिन, उसी दिन वह जानता है। और उस दिन
मानने की कोई भी जरूरत नहीं रह जाती, उस दिन विश्वास करने की
कोई जरूरत नहीं रह जाती। उस दिन वह जानता है। जानना ज्ञान, मुक्ति
लाता है। विश्वास, मान लेना बंधन पैदा करता है। और ये बंधन,
विश्वास के बंधन हमेशा बाहर होते हैं, क्योंकि
विश्वास जब भी हम करते हैं तो किसी पर करते हैं, वह बाहर
होगा। इसलिए विश्वास हमेशा बहिर्मुखी है और ज्ञान हमेशा अंतर्मुखी है। जिसे स्वयं
को जानना है उसे विश्वास का रास्ता छोड़ देना होगा और ज्ञान के रास्ते पर चरण रखने
होंगे।
ज्ञान
के रास्ते पर चलने का पहला सूत्र होगा, विश्वास के रास्ते से मन को हटा
लेना। हम सारे लोग विश्वास के रास्ते पर हैं। इसलिए चाहे हम मंदिरों में जाते हों,
चाहे मस्जिदों में, चाहे शास्त्र पढ़ते हों और
पूजा करते हों, हमें स्वयं से साक्षात नहीं हो सकेगा।
विश्वास के रास्ते से कभी भी स्वयं का साक्षात न हुआ है और न हो सकता है।
विश्वास
सबसे बड़ा अधार्मिक गुण है। मनुष्य के व्यक्तित्व को बांध लेने वाले और अंधा कर
देने वाले सूत्रों में विश्वास पहला सूत्र है। इसके पहले कि मैं दूसरे सूत्र की
बात करूं, मैं एक बार पुनः आपको यह स्पष्ट कर दूं, नास्तिक भी
विश्वासी होता है और आस्तिक भी। इसलिए यह न सोच लें कि मैं विश्वास छोड़ने को कह कर
नास्तिकता सिखा रहा हूं। नास्तिक भी विश्वासी होता है और आस्तिक भी। क्योंकि दोनों
नहीं जानते। और न जानने में जो भी स्वीकार कर लिया जाता है वह अंधा कर देता है।
इसलिए ज्ञान के रास्ते पर पहली बात यह जान लेना जरूरी है कि मैं नहीं जानता हूं।
और इस न जानने की स्थिति में कोई भी विश्वास करना खतरनाक है। क्योंकि विश्वास से
यह भ्रम पैदा होता है, न जानते हुए यह भ्रम पैदा होता है कि
मैं जानता हूं।
मैं
एक छोटे से अनाथालय में गया था। और वहां के संयोंजकों ने मुझे कहा कि हम अपने
अनाथालय में बच्चों को धर्म की शिक्षा देते हैं। मैंने उनसे कहा कि जहां तक मेरी
समझ है, धर्म की कोई शिक्षा हो ही नहीं सकती। धर्म की साधना तो हो सकती है,
शिक्षा नहीं। क्योंकि साधना होती है भीतर और शिक्षा होती है बाहर।
तो विज्ञान की तो शिक्षा हो सकती है, धर्म की कोई शिक्षा
नहीं हो सकती। फिर भी आप क्या शिक्षा देते हैं, मैं जानना
चाहूं।
वे
मुझे अपने बच्चों के पास ले गए और उन्होंने कहा, आप इन बच्चों से पूछें,
तो आपको पता चल जाएगा। मैंने उनसे ही निवेदन किया कि वे ही पूछें,
मैं सुनूंगा। सौ के करीब बच्चे थे, उन्होंने
उनसे पूछा, ईश्वर है? उन सारे बच्चों
ने हाथ उठाए और कहा, ईश्वर है। उन बच्चों को सिखा दिया गया
ईश्वर है। वे छोटे-छोटे अनाथ बच्चे, उन्हें जो भी सिखा दिया
जाए, वह सीख लेंगे। अगर संयोग से वे रूस में पैदा हुए होते,
तो रूस की हुकूमत उन्हें सिखा देती ईश्वर नहीं है। और मैं अगर रूस
में जाकर उनसे पूछता, ईश्वर है? तो वे
सारे बच्चे कहते, ईश्वर नहीं है। क्योंकि उन्हें सिखा दी गई
होती बात, ईश्वर नहीं है। यहां उन्हें सिखा दिया गया है,
ईश्वर है। उन्होंने पूछा, यह ईश्वर कहां है?
तो उन सारे बच्चों ने हृदय पर हाथ रखे और कहा, यहां।
मैंने
एक छोटे से बच्चे से पूछा,
हृदय कहां है?
उस
बच्चे ने कहा: यह तो हमें बताया नहीं गया। जो हमें बताया गया है वह हम बता रहे
हैं। हृदय कहां है यह हमें बताया नहीं गया।
इस
बच्चे को हृदय का कोई पता नहीं है। लेकिन इसे इस बात को बता दिया गया है कि ईश्वर
यहां है। उसने सीख लिया। इस बचपन की अवस्था में जब कि विचार का अभी कोई विकास नहीं
हुआ। सारे धर्मों के लोग बच्चों के साथ जो अन्याय करते हैं, उसका
हिसाब लगाना कठिन है। जब कि विचार का कोई जन्म नहीं हुआ, तब
हम उन्हें जो भी सिखा दें, वह उनके चित्त में गहरा होकर बैठ
जाएगा और जीवन भर वे उसी को दोहराते रहेंगे इस भांति जैसे कि जानते हैं। जब कि वे
जानते नहीं हैं। वे बच्चे बड़े हो जाएंगे और जब उनके जीवन में प्रश्न उठेगा,
ईश्वर है, तो बचपन से सिखी गई बात उनके भीतर
से कहेगी, है। यह सिखी हुई बात, और जब
प्रश्न उठेगा, ईश्वर कहां है, तो उनके
हाथ मशीनों की तरह उठ जाएंगे और हृदय पर पहुंच जाएंगे और वे कहेंगे, यहां। यह हाथ झूठा है। यह हाथ जो उठ रहा है, यह
सच्चा नहीं है। इस बच्चे का कोई भी अनुभव नहीं है कि ईश्वर है और है तो कहां है।
लेकिन बचपन से दोहराई गई बात, बहुत बार दोहराई गई बात,
दूसरों के द्वारा, खुद के द्वारा, यह भूल जाएगा कि यह बात मैंने सिखी है यह बात मैं जानता नहीं हूं। और तब
अज्ञान तो होगा इसके भीतर, ऊपर से झूठा ज्ञान चिपक जाएगा,
जो इसे जीवन भर धोखा देगा।
हम
सब भी ऐसे ही बच्चे हैं,
जो इसी तरह की बातों को सीख कर बड़े हो गए हैं। इसके पहले कि कोई
सत्य की खोज में विचार करे, स्वयं को जानने के लिए उत्सुक हो,
या परमात्मा की खोज में निकले, उसे अपने से
बहुत गहरे में पूछ लेना चाहिए, जो मैं जानता हूं, वह कहीं सीखा हुआ तो नहीं है? अगर वह सीखा हुआ है,
तो उससे मुक्त हो जाना चाहिए। क्योंकि जो सीखा हुआ है वह ज्ञान का
भ्रम देता है, ज्ञान नहीं।
ज्ञान
सीखा नहीं जाता,
जाना जाता है। ज्ञान दूसरों से उपलब्ध नहीं होता, खुद में खोदा जाता है और विकसित होता है। शब्द सीखे जाते हैं, ज्ञान उघाड़ा जाता है। ज्ञान की एक डिस्कवरी है, ज्ञान
का एक अनावरण है। खुद के प्राणों के भीतर जब हम पर्दों को उघाड़ते हैं, तो वह उपलब्ध होता है जो ज्ञान है। और दूसरों से जो हम शब्द सीख लेते हैं,
सिद्धांत सीख लेते है और शास्त्र सीख लेते हैं वह ज्ञान नहीं है। और
जो आदमी जितना सीखे हुए शब्दों में खो जाता है उस आदमी की ज्ञान की तरफ यात्रा बंद
हो जाती है।
विश्वास
शब्दों से ज्यादा नहीं है। शब्द बिलकुल निष्प्राण हैं। इसलिए ज्ञान तो इकट्ठा हो
जाता है शब्दों में और दिखाई पड़ता है कि ज्ञान उपलब्ध हो गया। लेकिन हमारे प्राणों
में कोई ज्योति उससे जगती नहीं। हमारे चित्त में कोई आलोक उससे पैदा नहीं होता।
हमारे प्राण उससे नाच नहीं उठते और हमारे हृदय की वीणा पर उससे कोई संगीत का जन्म
नहीं होता। होगा भी नहीं। क्योंकि शब्द हैं निष्प्राण, विश्वास
है अंधे, श्रद्धा है थोथी, उससे कुछ
होगा नहीं। उससे हट जाना जरूरी है। और हटने के लिए कुछ और नहीं कहना होगा, अगर हम ठीक से अपने चित्त के सारे ज्ञान को खोज डालें, तो हमें पता चल जाएगा कि यह ज्ञान सब सीखा हुआ है, इसलिए
झूठा है। अज्ञान हमारा इससे कहीं ज्यादा सत्य है।
सुकरात
को उसके मित्रों ने एक दिन जाकर कहा, एथेंस में सारे वृद्धजन कहते हैं
कि सुकरात महाज्ञानी है। सुकरात ने उन मित्रों को कहा, जाओ
और उनसे कहना, ऐसी झूठी बात न कहें, क्योंकि
सुकरात खुद यह कहता है कि वह ज्ञानी नहीं है महाअज्ञानी है। और सुकरात ने कहा,
जब मैं छोटा था और मेरी अवस्था थोड़ी थी, तब
मुझे यह खयाल था कि मैं जानता हूं। फिर मैं जवान हुआ, मेरी
समझ बड़ी, तो मेरे जानने के भवन की बहुत सी ईंटें और दीवालें
गिर गईं, और मेरे ज्ञान के भवन में बहुत छेद हो गए, और मेरी समझ में आने लगा कि मैं क्या जानता हूं, बहुत
कम जानता हूं। लेकिन जैसे-जैसे में वृद्ध हुआ और मेरी खोज गहरी हुई और मेरी आंखें
ज्यादा सतेज हुईं, तो मैंने पाया कि वह भवन जो ज्ञान का बचपन
में मालूम होता था बिलकुल गिर गया है, अब उसकी कोई दीवालें
नहीं रह गईं। और जैसे-जैसे में वृद्ध होता जा रहा हूं मुझे समझ में आ रहा है कि
मैं नहीं जानता हूं।
आप
हैरान होंगे,
जानने का भ्रम बहुत चाइल्डीश, बहुत बचकाना है।
न जानने की समझ बहुत गहरी, बहुत विज़डम से, बहुत बुद्धिमत्ता से भरी हुई है। क्योंकि जानने का भ्रम विश्वासों से पैदा
होता है। और जब समझपूर्वक दिखाई पड़ता है कि विश्वास तो उधार हैं, बारोड हैं, दूसरों से लिए हुए हैं, मेरे नहीं हैं, तो वे टूट जाते हैं और भीतर दिखाई
पड़ता है अतल अंधकार, अतल अज्ञान, स्टेट
ऑफ नॉट नोइंग, न जानने का बोध, न जानने
की अवस्था का अनुभव होता है।
पहला
सूत्र है आत्मज्ञान कि दिशा में "मैं नहीं जानता हूं' इस बात को
जानना। यह सत्य है कि मैं नहीं जानता हूं, और इस सत्य से जो
शुरू करेगा वह अंततः परम सत्य को उपलब्ध हो जाता है। लेकिन जो इस असत्य से शुरू
करेगा कि मैं जानता हूं, ईश्वर है, आत्मा
है, उसकी यात्रा कभी सत्य पर कभी पूरी नहीं हो सकती। क्योंकि
जो हम बीज में बोते हैं वही हमें फसल भी काटनी होती है। अगर बीज ही असत्य के बोए
गए, तो फसल सत्य की नहीं काटी जा सकती।
विश्वास
असत्य है, क्योंकि वह स्वयं का जाना हुआ नहीं। और इसलिए उसके आधार पर जो अपने भवन को
खड़ा करेगा, उसका भवन झूठा होगा, वह ताश
के पत्तों की तरह होगा, जिंदगी की हवाएं उसे उड़ा देगीं और
नष्ट कर देगीं। वह भवन सच्चा नहीं है।
इसलिए
पहली बात, एक सत्य से ही बात शुरू करें और वह सत्य यह है कि हम नहीं जानते हैं। और
जो हम जानते हैं, वह भ्रामक है, उधार
है, और दूसरों का है। मनुष्य के व्यक्तित्व के भ्रांत हो
जाने में, श्रद्धा और विश्वास पहला कारण है। श्रद्धा और
विश्वास से उलटा क्या होगा? अश्रद्धा, अविश्वास।
नहीं, डिक्शनरियां अक्सर झूठ बोल देती हैं, शब्दकोश अक्सर झूठ बोल देते हैं। अगर शब्दकोश में खोजने जाएंगे तो विश्वास
का उलटा है अविश्वास। श्रद्धा का उलटा है अश्रद्धा। लेकिन मैं आपसे कहता हूं,
अश्रद्धा और अविश्वास उलटे नहीं हैं, सजातीय
हैं, विश्वास के बंधु हैं। विश्वास का ही भाई है अविश्वास,
श्रद्धा की ही बहन है अश्रद्धा, वे विरोधी नहीं
हैं। विरोधी इसीलिए नहीं हैं कि अश्रद्धा भी अविचार है, वह
भी विवेक नहीं है। अविश्वास भी अविचार है, वह भी विचार नहीं
है। जब हम जानते ही नहीं हैं तो श्रद्धा करना भी अज्ञान है और अश्रद्धा करना भी।
ईश्वर पर अश्रद्धा भी वही कर रहा है जो नहीं जानता और श्रद्धा भी वही कर रहा है जो
नहीं जानता।
श्रद्धा
और अश्रद्धा दोनों से अलग कोई बात है, दोनों से विरुद्ध और उलटी भी कोई
बात है। वह बात है, विवेक; वह बात है,
विचार; वह बात है, मन का
खुला होना, ओपननेस। श्रद्धा भी मन को बंद कर देती है,
अश्रद्धा भी मन को बंद कर देती है। द्वार बंद हो जाते हैं। हम राजी
हो जाते हैं किसी एक बिंदु पर कि ठीक है, पड़ाव आ गया,
जान लिया हमने कि ईश्वर नहीं है या ईश्वर है, दोनों
हालत में मन के द्वार बंद हो जाते हैं। और जो क्लोज्ड माइंड है, बंद मन है वही मन तो जानने में असमर्थ है।
खुला
हुआ मन चाहिए। खुले हुए मन का अर्थ है: यह जानना चाहिए कि मैं नहीं जानता हूं।
इसलिए न श्रद्धा और न अश्रद्धा, दोनों मेरे पड़ाव नहीं हो सकते। श्रद्धालु को
अश्रद्धालु बनाया जा सकता है, कोई कठिनाई नहीं। अश्रद्धालु
को श्रद्धालु बनाया जा सकता है। कोई कठिनाई नहीं है। वे परिवर्तन बहुत आसान हैं।
जो आदमी जवानी में अश्रद्धालु होता है, अविश्वासी होता है,
बुढ़ापे में श्रद्धालु हो जाता है। जो आदमी आज अश्रद्धा करता है,
कल श्रद्धा करने लगता है। श्रद्धा और अश्रद्धा में कोई विरोध नहीं
है, एक-दूसरे में यात्रा हो जाती है।
एक
गांव में तो एक बार ऐसा हुआ। एक गांव में दो बड़े विचारक थे। ऐसा गांव के लोग कहते
थे। विचारक वे न रहे होंगे। एक आस्तिक था, एक नास्तिक था। एक मानता था ईश्वर
है और एक मानता था ईश्वर नहीं है। और दोनों के बड़े तर्क थे। अपने-अपने विश्वास के
लिए उन्होंने बड़े आर्ग्युमेंट, बड़े तर्क इकट्ठे कर रखे थे।
आखिर गांव के लोग उनसे परेशान हो गए, किसकी माने और किसकी न
माने। सारे गांव के लोगों ने कहा कि आप दोनों विवाद कर लें, हम
सुन लें, और जो जीत जाए उसको हम मान लेंगे। आधा गांव एक को
मानता था, आधा गांव दूसरे को। सारा गांव इकट्ठा हुआ एक
रात्रि और उन दोनों विद्वानों में विवाद हुआ। आस्तिक ने अपने तर्क दिए और सिद्ध
किया कि ईश्वर है और नास्तिक ने उसके तर्कों का खंडन किया और तर्क दिए कि ईश्वर
नहीं है।
दोनों
रात भर विवाद करते रहे। सुबह होते-होते दोनों एक-दूसरे के गले लग गए। गांव समझ ही
न पाया कि बात क्या हुई। दोनों घर चले गए। बाद में गांव को पता चला, जो आस्तिक
था वह नास्तिक के तर्क से प्रभावित होकर नास्तिक हो गया और जो नास्तिक था वह
आस्तिक से प्रभावित होकर आस्तिक हो गया। जो आस्तिक था वह नास्तिक हो गया, जो नास्तिक वह आस्तिक हो गया। गांव में झगड़ा वैसा का वैसा कायम रहा।
आस्तिकता
नास्तिकता में बदल सकती है। नास्तिकता आस्तिकता में बदल सकती है। इसमें कोई कठिनाई
नहीं। दोनों अंधे हैं,
उनमें बदलाहट हो सकती है, सजातीय हैं। लेकिन
एक तीसरे तरह का मनुष्य भी होता है जो आस्तिक भी नहीं होता और नास्तिक भी नहीं
होता। एक तीसरे तरह का मन होता है, एक तीसरे तरह का माइंड
होता है, जो कहीं भी न इनकार में, न
स्वीकार में अपनी श्रद्धा को रखता है, जो कहता है, मैं नहीं जानता हूं। इसलिए मैं खोजना चाहता हूं, लेकिन
मानना नहीं चाहता। इस आदमी को मैं धार्मिक आदमी कहता हूं। यह रिलीजस माइंड का पहला
लक्षण है। न वह स्वीकार करता है, न अस्वीकार। लेकिन खोजने को
तत्पर और उत्सुक, निरंतर खुले हुए मन से राजी, जहां भी सत्य हो वहां पहुंचने के लिए तैयार, उसका
कोई पक्ष नहीं है अपना। ऐसा जो निष्पक्ष मन है वही तो सत्य को खोज सकेगा। जिसका
पक्ष है, वह तो बंध गया, उसकी खोज बंद
हो गई। जिसकी कोई प्रिज्युडिस है, जिसका कोई आग्रह है,
वह तो बंध गया। वह तो कोशिश करेगा कि मेरा आग्रह ही सत्य सिद्ध हो
जाए। लेकिन धार्मिक आदमी वह है जिसका कोई आग्रह नहीं, जो यह
नहीं कहता कि जो मैं कहता हूं वह सत्य है, बल्कि जो यह कहता
है, जो भी सत्य हो, मैं उसे हमेशा
खोजने को तैयार हूं, मेरे द्वार खुले हुए हैं।
क्या
आपके द्वार खुले हुए हैं?
अगर
आपके द्वार खुले हुए हैं तो आपको वह दर्पण उपलब्ध हो सकता है जिसमें आप स्वयं को
और सत्य को जान सकें। और उसी सत्य का अनुभव परमात्मा का अनुभव बन जाता है। लेकिन
अगर आपके द्वार बंद हैं--अगर आप हिंदू हैं, अगर आप मुसलमान हैं, अगर आप जैन हैं, पारसी हैं, अगर
आप आस्तिक हैं, नास्तिक हैं, ये हैं,
वे हैं, तो आपके द्वार बंद हैं। और आप चाहे
लाख उपाय करें, आप उस दर्पण को उपलब्ध नहीं हो सकेंगे।
क्योंकि वह दर्पण केवल निष्पक्ष, निर्दोष मन को ही उपलब्ध
होता है।
निष्पक्ष
हो जाना जरूरी है। और निष्पक्ष वही हो सकता है जो अपने विश्वासों की व्यर्थता को
समझ ले। नहीं तो निष्पक्ष आप कैसे हो सकेंगे? पक्षों के कारण धर्म की हत्या हुई
है। धर्म के नाम पर कितनी हत्याएं हुई हैं, कोई हिसाब?
कितने मकान जलाएं गए हैं, कितने आदमी मारे गए
हैं, कितने बच्चे, कितनी स्त्रियां,
लाखों में उनकी संख्या होगी, करोड़ों में। क्या
धर्म के नाम पर हत्याएं हो सकती थीं? और अगर धर्म के नाम पर
इतनी हत्याएं हो सकती हैं तो फिर अधर्म के नाम पर क्या होगा?
नहीं, ये धर्म
के नाम पर हुईं। ये पक्ष के नाम पर हुईं। और पक्ष को हम धर्म समझते रहे हैं,
जो कि भूल है। पक्ष धर्म नहीं है। धर्म तो है अत्यंत निष्पक्षता,
धर्म तो है अत्यंत अनप्रिज्युडिस्ड हो जाना, सारे
पक्षों से मुक्त हो जाना। लेकिन पक्ष से मुक्त होगा वही, जो
विश्वास की व्यर्थता को समझ ले। नहीं तो पक्ष से मुक्त नहीं हो सकता। विश्वास
बनाता है पक्ष को, अगर विश्वास हट जाए तो पक्ष हट जाता है।
तब रह जाता है निपट खालिस मन, बिना बंधा हुआ, बिना किसी जंजीर के खुला हुआ मुक्त। वही जा सकता है परमात्मा तक और उसी तक
परमात्मा भी आ सकता है।
मैंने
एक छोटी सी कहानी सुनी है।
एक
चर्च में एक रात एक आदमी ने द्वार खटखटाया, उसके पादरी ने द्वार खोला। काश,
उसे पता चल जाता कि बाहर खड़ा हुआ एक काला आदमी है, तो वह द्वार ही न खोलता। उसने सोचा होगा कि कोई सफेद आदमी है। वह गोरे
लोगों का चर्च था। उसने द्वार खोला, देखा, एक नीग्रो द्वार पर खड़ा है। उसने उस काले आदमी को कहा, कैसे यहां आना हुआ?
उसने
कहा, मैं भी भगवान के मंदिर में आना चाहता हूं।
पुराने
दिन होते तो वह पादरी कहता,
शूद्र हट जा यहां से! यहां तेरे लिए कोई जगह नहीं है! और यहां तू
आया, तो सीढ़ियां साफ कर, तेरी छाया पड़ी
तो मंदिर अपवित्र हो गया! लेकिन दिन बदल गए हैं। लेकिन आदमी का दिल थोड़े ही बदला
है। भाषा बदल गई हैं, हिसाब बदल गए हैं, लेकिन भीतर वही आदमी खड़ा है। उस पादरी ने कहा, मेरे
मित्र, उसने नहीं कहा शूद्र, उसने कहा,
मेरे मित्र, जरूर भगवान के मंदिर में तुम आना,
लेकिन जब तक मन शांत और पवित्र न हुआ हो, तब
तक आने से फायदा क्या? तो जाओ, पहले मन
को पवित्र और शांत करो, फिर आना। तभी भगवान से मिलना हो सकता
है।
उस
पादरी ने सोचा,
न होगा मन शांत और न होगा पवित्र और न इसे दुबारा दरवाजा खोलने कि
जरूरत पड़ेगी।
वह
नीग्रो वापस चला गया। महीने पर महीने बीत गए। कोई तीन-चार महीने बाद बाजार में उस
पादरी को वह नीग्रो दिखाई पड़ा। देख कर उसे हैरानी हुई! उस आदमी की आंखों में कोई
चमक और आ गई थी,
वह नीग्रो कुछ और ही तरह का व्यक्तित्व ले लिया मालूम पड़ता था,
उसके आस-पास एक बड़ी शांति की, एक बड़ी
प्रार्थनापूर्ण हवा थी, उसके आस-पास एक नई सुगंध पैदा हो गई
थी जैसे और एक नया आलोक। उस पादरी ने उसे रोका और पूछा, तुम
दुबारा नहीं आए?
उस
नीग्रो ने कहा,
मैं तो आता था, लेकिन बड़ी गड़बड़ हो गई। तुमने
कहा था, मन शांत करो और पवित्र, मैं मन
को शांत करने में, पवित्र करने में लग गया। मेरे दिन और रात
प्रार्थनाओं से भर गए और मेरे मन में एक ही, एक ही प्रार्थना
और प्यास काम करने लगी। महीने बीत गए। एक रात मैं सोया, जब
सोया तो मन मेरा एकदम शांत और मौन था। रात मैंने एक सपना देखा, सपने में मैंने देखा, परमात्मा मेरे सामने खड़े हैं
और मुझसे पूछ रहे हैं कि तू क्यों इतनी प्रार्थनाएं कर रहा है? क्या चाहता है? तो मैंने कहा, मैं
जो हमारे गांव का जो चर्च है, जो मंदिर है, उसमें प्रवेश चाहता हूं। तो परमात्मा हंसे और उन्होंने कहा, तू बिलकुल पागल है! उसमें तेरा प्रवेश न हो सकेगा। मैं खुद दस सालों से
कोशिश कर रहा हूं, वह पादरी मुझे घुसने नहीं देता। मैं खुद
हार गया हूं कोशिश करके, वह पादरी मुझे अंदर नहीं आने दे
रहा। मैं ही हार गया, तेरा पहुंचना बहुत कठिन है। तू वह खोज
छोड़ दे। ज्यादा आसान है मेरे पास आ जाना, चर्च में पहुंचना
बहुत कठिन है। और उस चर्च में मैं तो हूं भी नहीं, तू पहुंच
भी जाएगा तो उसे खाली पाएगा।
असलियत
यह है, उस चर्च के पादरी पर न हंसें, आज तक किसी मंदिर के
पुजारी ने भगवान को किसी मंदिर में नहीं घुसने दिया। न किसी मस्जिद में और न किसी
चर्च में। आदमी ने धर्म के नाम पर जितने धंधे बनाए हैं उनमें कहीं भी भगवान को
घुसने का कोई मौका नहीं। क्योंकि जहां परमात्मा होगा, वहां
फिर व्यवसाय नहीं हो सकता। और जहां व्यवसाय चलाना है, वहां
परमात्मा के लिए जगह नहीं हो सकती। और फिर आदमी के बनाए हुए मंदिर इतने छोटे हैं
और परमात्मा है इतना विराट, प्रवेश हो भी कैसे सकता है?
आदमी खुद इतना छोटा है, तो उसके मंदिर बड़े
नहीं हो सकते। उसके बनाए हुए मंदिर उससे भी ज्यादा छोटे होंगे। क्योंकि बनाने वाला
जो भी बनाएगा, खुद से बड़ी चीज कभी नहीं बना सकता, उसकी चीज बनाई हुई होगी वह उससे छोटी होगी। और आदमी खुद इतना छोटा है कि
वह परमात्मा के मंदिर बनाए यह बात ही पागलपन की और नासमझी की है। आदमी खुद को मिटा
दे तो परमात्मा को पा सकता है लेकिन परमात्मा को खुद बनाने कि कोशिश में लग जाए यह
पागलपन है।
इधर
पांच-छह हजार वर्षों से हम परमात्मा को गढ़ रहे हैं। हमने फैक्टरियां बनाईं जिनमें
हम परमात्मा को बनाते हैं। और उन बनाए हुए परमात्मा के नाम पर मंदिर और मस्जिद
बनाते। वे आदमी के बनाए हुए मंदिर और मस्जिद बहुत छोटे हैं, इसलिए आपस
में टकरा जाते हैं। परमात्मा इतना बड़ा है कि टकराएगा किससे, उसके
बाहर और कोई है ही नहीं। लेकिन मंदिर बहुत छोटे-छोटे हैं वे आपस में टकरा जाते हैं
और लड़ जाते हैं। मंदिर हमारे पक्षपात हैं, मंदिर हमारी
प्रिज्युडिसेस हैं, मंदिर हमारे विश्वास हैं, मंदिर हमारा ज्ञान नहीं है। क्योंकि जब ज्ञान का मंदिर बनता है तो आदमी
पाता है वह उसके खुद के भीतर है और सबके भीतर है। तब उसे बनाना नहीं पड़ता। और जब
ज्ञान से परमात्मा का अनावरण होता है, तो उसकी मूर्ति नहीं
गढ़नी नहीं होती, क्योंकि उसकी कोई मूर्ति नहीं हो सकती। और
उसका नाम नहीं रखना होता, क्योंकि उसका कोई नाम नहीं हो
सकता। जब ज्ञान के परमात्मा का अनुभव होता है, तो पाया जाता
है वही है, वही सब कुछ है। लेकिन जब अज्ञान परमात्मा को गढ़ता
है, तो बड़े खतरे हो जाते हैं। हमारे सारे विश्वास अज्ञान में
गृहीत होते हैं और हमारे सब मंदिर अज्ञान में बनते हैं। और हमारे सारे पक्ष और
हमारे सारे विश्वास अज्ञान की संतति है। इसलिए जो इन विश्वासों को पकड़े बैठे रहता
है, उसने अपने अज्ञान को ही मजबूत कर लिया। अज्ञान को तोड़ना
है, तो विश्वास और पक्षों को तोड़ देना जरूरी है।
चाहिए
एक निष्पक्ष मन,
चाहिए एक निर्दोष मन, चाहिए एक मुक्त और खुला
हुआ मन, वही द्वार बनता है, वही दर्पण
बनता है खुद को जानने का।
तो
पहला सूत्र आज की सुबह आपसे कहना चाहता हूं: खुला हुआ मन, बंद मन
नहीं।
और
हम सबके बंद मन हैं। बहुत-बहुत बंद हैं। एकदम बंध हैं, कहीं कोई
रंध्र भी नहीं। द्वार तो बड़ी बात कि सूरज की किरण भीतर पहुंच सके। और भीतर सब तरफ
से बंद करके अपने विश्वासों को पकड़े हुए हम जीए चले जाते हैं। जी लेते हैं नाम को;
लेकिन जीवन को नहीं जान पाते। जी लेते हैं अंधेरे में; आलोक से परिचित नहीं हो पाते। जी लेते हैं शब्दों में; शब्द से कोई साक्षात नहीं हो पाता। तो निवेदन करूंगा, थोड़ा विचार करेंगे। और मेरे कहने से कोई विश्वास छोड़ देगा तो यह नया
विश्वास हो जाएगा। अगर मेरी बात मान ली और विश्वास छोड़ दिया, तो गलती हो गई, यह नया विश्वास हो जाएगा। मेरी बात
पर विश्वास नहीं कर लेना।
आसान
है यह। सारे मुल्क में जिन मित्रों से मैं निरंतर मिल रहा हूं, उनमें मैं
देखता हूं, वे मेरी बात मान लेते हैं, वे
विश्वास छोड़ देते हैं मेरे पर विश्वास कर लेते हैं। भूल फिर हो गई। कुएं से बचे और
खाई में गिर गए। उससे कोई फर्क न हुआ। मैं कौन हूं, जिस पर
आप विश्वास करें? कोई भी कारण नहीं है। मैं जो कह रहा हूं उस
पर विश्वास नहीं कर लेना है, उस पर सोचें, विचार करें, चिंतन करें, मनन
करें, एक-एक बात को खोजें। और खोजने और विचार करने के लिए
जरूरी है, जरूरी है कि बहुत जल्दी न करें, अधैर्य न बरतें। मैंने कहा और आपने मान लिया, तो
बहुत अधैर्य हो गया, बहुत जल्दी हो गई। बहुत धैर्य से। मैंने
कहा और आपने इनकार कर दिया कि नहीं, ये सब गलत बातें हैं,
तो भी जल्दी हो गई, अधैर्य हो गया। तो अभी
यहीं से निर्णय ले कर न चले जाएं कि मैंने जो कहा वह सच था या झूठ। जिस आदमी ने भी
इतनी जल्दी निर्णय लिया, समझें कि उसने मेरी बात सुनी भी
नहीं, समझी भी नहीं। तो जल्दी न करें। हमारी आदतें तो गलत
हैं, मैं यहां बोल रहा हूं, आप वहां
निर्णय कर रहे होंगे कि क्या ठीक है और क्या गलत है। ये गलत आदतें हैं। सुन लें
चुपचाप, चले जाएं चुपचाप, उसे मन में
सोचें, देखें, पहचानें, क्या कहा है? क्यों कहा है? कितने
दूर तक सच है? और उसकी सचाई की जांच होगी आपके भीतर। अपने
विश्वासों को उखाड़ें और देखें, कौन सा विश्वास है जो आपका
अपना है? कौन सा जानना है जो आपका अपना है? और जो आपका अपना नहीं है वह आपकी आत्मा नहीं बन सकेगा। जो आपका अपना है
वही आपका आत्म बन सकता है, वही आपकी आत्मा बन सकता है।
एक
संन्यासियों का आश्रम था। एक युवा संन्यासी आया उस आश्रम में नया-नया। पंद्र्रह
दिन रहा, ऊब गया, घबड़ा गया, और उसने
निर्णय किया कि मैं जाऊं। क्योंकि जो वृद्ध गुरु था वहां, उसकी
थोड़ी सी बातें थीं, जो दस-पंद्रह मिनट में पूरी हो जाएं।
पंद्र्रह दिन सुनते-सुनते थक गया, वही बातें, वही बातें, कुछ सीखने को वहां नहीं मालूम पड़ता था।
तो सोचा उसने कि कल सुबह होते ही निकल जाऊं, यह स्थान मेरे
लिए नहीं है। मैं कोई और जगह खोजूं, जहां कुछ सीखा जा सके,
जाना जा सके। लेकिन रात एक घटना घट गई और फिर वह उस आश्रम को छोड़ कर
कभी नहीं गया। रात एक और नया भटकता हुआ संन्यासी उस आश्रम में आ गया। उस आश्रम के
अंतेवासियों की रात बैठक हुई, उस नये आए संन्यासी ने दो घंटे
तक बड़ी सूक्ष्म बातें कहीं--वेदांत की, उपनिषदों की, बड़ी सूक्ष्म चर्चा की, बड़ा विश्लेषण किया। वह जो
युवा सुबह छोड़ देने को था, उसने सुनी वे बातें, प्रभावित हुआ, हृदय में उसके बातें वे पहुंच गईं और
उसके मन को हुआ कि गुरु हो तो ऐसा हो, जो इतना जानता हो,
इतना विस्तीर्ण हो जिसका जानना, और उसके मन
में यह भी खयाल आया कि मेरा वृद्ध गुरु बैठा हुआ सुन रहा है, उसके मन को कैसा दुख न होता होगा, कैसा अपमान न लगता
होगा, कैसी हीनता न मालूम होती होगी इसके समक्ष। दो घंटे के
चर्चा बाद उस बोलने वाले संन्यासी ने वृद्ध गुरु की तरफ देखा और कहा, कैसी लगी मेरी बातें? उस बूढ़े ने जो कहा वह मन में
रख लेने जैसा है, उस बूढ़े ने कहा, मेरे
मित्र, मेरे बेटे, दो घंटे से तुम्हारी
बात सुनने की कोशिश कर रहा हूं, लेकिन तुम तो कुछ बोलते ही
नहीं।
तो
उस युवा ने कहा,
आप पागल हैं क्या? दो घंटे से मैं ही बोल रहा
हूं और कौन बोल रहा है?
उस
वृद्ध ने कहा,
तुम्हारे भीतर से शास्त्र बोलते हैं, सिद्धांत
बोलते हैं, लेकिन तुम जरा भी नहीं बोल रहे हो। क्योंकि तुमने
जो बोला उसमें तुम्हारा जाना हुआ कुछ भी नहीं। तो तुम्हें भ्रम है कि तुम बोल रहे
हो। तुम बिलकुल भी नहीं बोल रहे हो, तुम एक यंत्र की भांति
काम कर रहे हो, एक मशीन की भांति। जिसमें से शास्त्र दोहराए
जा रहे हैं, शब्द जो सीखे गए हैं, वे
बोले जा रहे हैं, लेकिन तुम कहां हो, तुम
तो मौजूद भी नहीं हो। क्योंकि अगर तुम मौजूद भी होते, तो
तुम्हें यह दिखाई पड़ जाता कि तुम यह मशीन का काम कर रहे हो, एक
मनुष्य का नहीं। तो जाओ, अभी खोजो उसे जो तुम्हारा जानना बन
सके और जब वह तुम्हारा जानना बन जाएगा, तो मैं कहूंगा कि तुम
बोले।
यही
मैं आपसे भी कहता हूं। देखना, खोजना, ये जो मेरे भीतर
विश्वास, विचार, शब्द इकट्ठे हैं,
ये मेरे हैं? अगर ये मेरे नहीं हैं, अगर इनमें से कुछ भी मेरा जाना हुआ नहीं है, तो मेरा
जीवन एक निष्फल चेष्टा है, जिसमें मेरी अपनी कोई अनुभूति
नहीं, अपनी कोई संपदा नहीं। तो मैं उस उधार शब्दों और उधार
संपत्ति पर जी रहा हूं, तो क्या मैं वास्तविक जीवन को जान
सकूंगा? क्या ये उधार शब्दों के आधार पर सत्य को पाया जा
सकेगा? क्या ये सीखे गए शब्द और इनका दोहराना, मुझे कहीं ले जाएगा? क्या ये विश्वास जो मेरे नहीं
हैं, मेरी आत्मा के उदघाटक बन सकेंगे? इसको
खोजना जरूरी है। इसे एक-एक विश्वास को जांचना जरूरी है, कसना
जरूरी है। कसौटी यही है कि क्या है मेरा अनुभव? और जो मेरा
अनुभव नहीं, उससे छुटकारा बहुत आवश्यक है। क्योंकि जो मेरा
अनुभव नहीं है वही रोक लेगा उसे आने से जो मेरा अनुभव हो सकता है।
एक
अंतिम छोटी सी बात।
एक
आदमी एक कुआं खोद रहा था,
तो मैंने उसे कुआं खोदते देखा। उसने कंकड़-पत्थर खोद कर बाहर निकाल
दिए, मिट्टी खोद कर बाहर निकाल दी, वह
खोदता चला गया, खोदता चला गया, आखिर
मिट्टी और पत्थर की पर्तें अलग हो गईं, तो पानी के झरने फूट
पड़े और वह कुआं पानी से भर गया। फिर मैंने देखा, एक आदमी हौज
बना रहा था, तो वह ईंट-पत्थर लाया, मिट्टी
लाया, उसने दीवालें बनाईं, ईंट-पत्थर
जोड़ कर दीवालें खड़ी कीं और फिर पानी लाया और उस हौज में भर दिया। हौज में भी पानी
था और कुएं में भी। और मैं सोचने लगा, दोनों के पानी में कोई
फर्क है या नहीं? उलटी सी बात थी, कुएं
से ईंट-पत्थर बाहर निकाल दिए थे, पत्थर-मिट्टी बाहर फेंक दी,
तो भीतर जो पानी छिपा था वह प्रकट हो गया। और हौज में ईंट-पत्थर
लाने पड़े, जोड़ कर दीवाल बनानी पड़ी और तब पानी लाकर उसमें भर
देना पड़ा। कुएं में पानी आया, हौज में पानी लाना पड़ा। हौज
में ईंट-पत्थर भी लाकर जोड़ने पड़े, कुएं से ईंट-पत्थर निकाल
कर बाहर फेंक देने पड़े। कुएं में जीवित पानी है, उस पानी कि
जड़ें हैं, उस पानी के झरने हैं जो दूर सागरों से जुड़े हैं जो
अनंत हैं। हौज की कोई, कोई जीवन नहीं, हौज
की कोई आत्मा नहीं, वह किसी सागर से नहीं जुड़ा है, उसमें उधार पानी भरा हुआ है। हौज का पानी सड़ जाएगा। कुएं का जीवित पानी
है।
ज्ञान
भी फिर मैंने जाना दो ही तरह का होता है--हौज की तरह और कुएं की तरह का। जो ज्ञान
हम दूसरों से सीख लेते हैं वह हौज की तरह का ज्ञान है। उसमें मस्तिष्क में शब्दों
की दीवाल बना कर भीतर ज्ञान को भर लेते हैं उधार, वह सड़ जाता है। पंडित का
ज्ञान ऐसा ही होता है जो दूसरों से सीखा होता है। इसलिए पंडित से ज्यादा विकृत
मस्तिष्क और किसी का भी नहीं होता है, उसका शब्द उधार होता
है।
ज्ञानी
का ज्ञान बहुत और तरह का है, कुएं की तरह का है। वह अपने चित्त में जितने भी
मिट्टी-पत्थर इकट्ठे हो गए हैं बाहर से, उनको निकाल कर फेंक
देता है, खोदता चला जाता है, भीतर जो
भी बाहर का है निकाल कर फेंकता जाता है, जो भी बाहर से आया
उसे बाहर फेंक देता है। तब एक दिन उसके भीतर उन झरनों का जन्म होता है जो उसके
भीतर छिपे थे, जो उसके प्राण हैं, जो
उसकी आत्मा हैं। और जब भी झरने खुलते हैं तो उन्हीं झरनों में वह आनंद, वह आलोक बहा चला आता है जिसे कोई परमात्मा कहे, कोई
सत्य कहे। और वह सत्य जो स्वयं के झरनों से उपलब्ध होते हैं, और वह जल-स्रोत जो खुद के भीतर खोज लिया जाता है, वही
मुक्ति बन जाता है।
वही
है जीवन। हम अपने जीवन को दबाए बैठे हुए हैं। उसे उघाड़ना है। वही है अमृत, उसकी कोई
मृत्यु नहीं। वही है आनंद, क्योंकि वही है आत्मा। उस आत्मा
की खोज में जो दर्पण निर्मित करना है उसका पहला सूत्र मैंने आज आपसे कहा और इन तीन
दिन की चर्चाओं में और कुछ सूत्रों पर आपसे कुछ बात करूंगा। उनको सोचेंगे, विचारेंगे। हो सकता है मेरी सारी बात गलत हो। और अगर आपके सोचने-विचारने
से यह पता चल जाए कि वे गलत हैं, तो आप एक कदम आगे बढ़
जाएंगे। क्योंकि इतना सोच-विचार आपके भीतर विवेक को पैदा कर देगा। और हो सकता है,
मेरी बात सोच-विचार से उसमें से कुछ आपको ठीक दिखाई पड़े। अगर आपके
सोच-विचार से उसमें कुछ ठीक दिखाई पड़ा, तो वह आपका हो जाएगा,
मेरा नहीं रह जाएगा, उससे मेरा कोई संबंध
नहीं। और जो आपका है वही सत्य है, और शेष सब असत्य है।
मेरी इन थोड़ी सी प्रारंभिक बातों को आपने इतनी शांति और मौन से
सुना,
उसके लिए मैं बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे
हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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