शनिवार, 22 अप्रैल 2017

अंतर की खोज-(विविध)-प्रवचन-04

अंतर की खोज-(विविध)
ओशो

चौथा-प्रवचन
मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से मैं संध्या की इस बातचीत को शुरू करूंगा।
एक राजदरबार में एक बहुत अनूठे आदमी का आना हुआ। उस आदमी का अनूठापन इस बात में था कि उसने उस सम्राट को कहा, तुम इतनी बड़े पृथ्वी के अकेले मालिक हो, तुमसे बड़ा सम्राट कभी हुआ नहीं, तो यह शोभा नहीं देता है कि तुम मनुष्यों जैसे वस्त्र पहनो। मैं तुम्हारे लिए देवताओं के वस्त्र लाकर दे सकता हूं।
देवताओं के वस्त्र न तो कभी देखे गए थे और न सुने गए थे। राजा के अहंकार को प्रेरणा मिली और उसने कहा, कितना भी खर्च करना पड़े, कोई भी व्यवस्था करनी पड़े, मैं तैयार हूं, लेकिन देवताओं के वस्त्र मुझे चाहिए। वह व्यक्ति राजी हो गया कि छह महीने के भीतर मैं वस्त्र लाकर दे दूंगा, लेकिन जो भी खर्च उठाना पड़ेगा; कितना ही खर्च हो उसकी कोई गिनती न रखी जाए, छह महीने के बाद मैं वस्त्र ला दूंगा। राजा राजी हो गया। उसके दरबारियों ने समझा कि यह निरा धोखा है। देवताओं के वस्त्र कहां से लाए जा सकते हैं? यह सिर्फ राजा को लूटने का उपाय है।

...इसलिए दरबारी कुछ कर भी न सके। हजारों रुपये प्रतिदिन वह आदमी ले जाने लगा। देवताओं तक पहुंचने की व्यवस्था करनी थी। फिर देवताओं के द्वारपालों को रिश्वत देने की व्यवस्था करनी थी। फिर वस्त्रों के मूल्य चुकाने थे। और ऐसे रोज-रोज काम निकलने लगे।
लेकिन राजा भी हिम्मत का होगा। छह महीने तक उस आदमी ने जो भी रुपये मांगे उसने दिए। छह महीने के आखिरी दिन उसके घर पर सिपाहियों का पहरा लगा दिया। बहुत संभावना थी कि वह आदमी भाग जाए। लेकिन नहीं, राजा गलती में था, उसके दरबारी गलती में थे, वह आदमी भागा नहीं। नियत दिन पर, नियत समय वह एक बहुमूल्य पेटी को लेकर राजदरबार में उपस्थित हो गया। सारे गांव के लोग इकट्ठे हो गए थे। दरबार में बड़ी चहल-पहल थी। हर आदमी उत्सुक था। वस्त्र ले आए गए थे। देवताओं के वस्त्र पृथ्वी पर पहली दफा आए थे। उसने जाकर बीच दरबार में अपनी पेटी रख दी, पेटी का ताला खोला और राजा से कहा, आप आगे आ जाइए और अपने वस्त्र उतार दीजिए, मैं देवताओं के वस्त्र देता हूं, इन्हें पहन लीजिए। लेकिन एक बात मैं बता दूं, देवताओं ने कहा है, ये वस्त्र केवल उन्हीं लोगों को दिखाई पड़ेंगे जो अपने ही बाप से पैदा हुए हों। ये वस्त्र सभी को दिखाई पड़ने वाले नहीं हैं। ये कोई सामान्य वस्त्र नहीं हैं। तो जो अपने ही पिता से पैदा हुए हैं उनको ये दिखाई पड़ेंगे।
उसने वस्त्र निकालने शुरू किए। उसने कोट निकाला उस पेटी में से, उसके हाथ तो खाली दिखाई पड़ते थे। सारे दरबार के हर व्यक्ति को खाली दिखाई पड़ रहे थे। राजा को भी खाली दिखाई पड़ रहे थे। लेकिन उसने कहा, यह लीजिए कोट, अपना कोट अलग कर दें और इसे पहन लें। राजा को अपना कोट अलग कर देना पड़ा। हाथ खाली दिखाई पड़ रहे थे, उसमें कोई कोट नहीं दिखाई पड़ता था। लेकिन राजा ने सोचा, जब सारे लोग कुछ भी नहीं कह रहे हैं, बल्कि दरबारी जोर से तालियां बजाने लगे और कहने लगे, इतने अदभुत वस्त्र कभी नहीं देखे गए। प्रत्येक को मालूम पड़ रहा था वस्त्र नहीं हैं, लेकिन कौन, कौन यह कहलवाए कि वह अपने पिता से पैदा नहीं हुआ है? यह भय, यह फियर भीतर काम करने लगा। और जब सब लोगों को दिखाई पड़ रहे हों तो मैं क्यों उलझन में पडूं? या आप क्यों उलझन में पड़ें? या कोई भी क्यों उलझन में पड़े? प्रत्येक ने यही सोचा। किसी को भी वस्त्र दिखाई नहीं पड़ रहे थे। लेकिन उस दरबार में तालियां गूंजने लगीं और वस्त्रों की प्रशंसा होने लगी और प्रत्येक व्यक्ति दूसरे पड़ोसी से तेजी से प्रशंसा करने लगा, ताकि यह तय हो जाए कि वह अपने ही पिता का पुत्र है।
राजा को भी मजबूरी थी। वह भी हंसा और उसने उस कोट की प्रशंसा की जो कहीं था ही नहीं। उसने अपना कोट उतार दिया और वह कोट पहन लिया। लेकिन राजा को पता न था कि बात और आगे बढ़ेगी। राजा का कमीज भी उतरवा लिया गया और झूठा कमीज उसे निकाल कर दिया गया वह भी उसे पहनना पड़ा। बात शुरू हो गई थी और अब बीच में इनकार करना कठिन था। धीरे-धीरे राजा के सारे वस्त्र उतर गए, वह नग्न खड़ा हो गया।
सारा दरबार देख रहा था कि वह नंगा खड़ा है। राजा देख रहा था कि वह नंगा खड़ा है। लेकिन सारे दरबारी ताली बजा रहे थे और वह वस्त्रों की प्रशंसा कर रहे थे। और वह राजा भी मुस्कुरा रहा था। उसके प्राणों पर आ बनी थी, वह नग्न खड़ा था। लेकिन यह बात कही नहीं जा सकती थी। भय काम कर रहा था। अपने हाथों अपने पिता पर संदेह! अपनी बेइज्जती और अपमान! और इन सारे लोगों के सामने! अपने ही नौकरों-चाकरों के सामने! और जब कि सारे लोग तालियां बजा रहे थे।
उस आदमी ने जो ये वस्त्र लाया था, कहा, पृथ्वी पर पहली बार देवताओं के वस्त्र आए हैं और पहली बार किसी मनुष्य को यह सौभाग्य मिला है, इसलिए उचित है कि आपका जुलूस निकाला जाए। पूरे राजधानी के लोग ताकि देख लें इन वस्त्रों को। वह नग्न राजा बहुत घबड़ाया, लेकिन मजबूरी थी। उसे राजी हो जाना पड़ा। और उस नंगे राजा का जुलूस उस दिन उस राजधानी में निकला। और उस नगर में हर आदमी ने ताली बजाई और कहा कि ये वस्त्र बहुत सुंदर हैं, ऐसे वस्त्र कभी देखे नहीं गए। धन्य है हमारा राजा! और हर आदमी जानता था कि वह राजा नंगा है। लेकिन किसी आदमी में कहने का यह साहस नहीं था कि राजा नंगा है और वस्त्र नहीं हैं।
कौन इसे कहता? कौन इस बात को अपने ऊपर लेता? कौन इस जिम्मेवारी में पड़ता? सभी भयभीत थे। और जो भयभीत है उससे कुछ भी मनवाया जा सकता है। भय कुछ भी बात मानने को राजी हो सकता है। ऐसे वस्त्रों को मानने को राजी हो सकता है जो कहीं नहीं हैं। ऐसे स्वर्ग और नरक को मानने को राजी हो सकता है जो कहीं नहीं हैं। ऐसी कल्पनाओं और झूठी बातों को मानने को राजी हो सकता है जिनमें कोई सच्चाई नहीं है। लेकिन झूठी बातों को मनवाने के पहले एक बात जरूरी है कि चित्त भयभीत हो जाए, फियर से भर जाए।
यह कहानी मैं इसलिए कह रहा हूं कि जमीन पर मनुष्य ने बहुत सी ऐसी बातें मान रखी हैं, जिनके मानने में भय के अतिरिक्त और कोई भी कारण नहीं है। और उस राजधानी में जिन लोगों ने उन वस्त्रों की तारीफ की थी, आप अपने को उन लोगों से भिन्न मत समझ लेना। आपने भी बहुत से ऐसे वस्त्रों की तारीफ की है जिनका कोई अस्तित्व नहीं है। और आपको दिखाई भी पड़ता है, लेकिन आपके पड़ोसी तारीफ कर रहे होते हैं, और तब आप इतना साहस नहीं जुटा पाते कि भीड़ से अलग खड़े हो जाएं।
भीड़ बहुत बड़ी कमजोरी बन जाती है, भय और भीड़ और चारों तरफ एक ही बात को कहते हुए लोग, फिर इतना साहस जुटा पाना मुश्किल हो जाता है कि आप अकेले खड़े हो जाएं और कह दें कि ये वस्त्र झूठे हैं और राजा नंगा है।
उस राजधानी में भी कोई इतना साहस नहीं जुटा पाया था। एक छोटे से बच्चे ने हिम्मत की थी और अपने पिता से कहा था, पिताजी, मुझे तो राजा नंगा दिखाई पड़ रहा है। लेकिन उसके पिता ने कहा, चुप रह, तू नासमझ है, तू कुछ भी नहीं जानता। मैं अनुभव से कहता हूं, मेरी उम्र मैंने ऐसे ही नहीं गुजार दी है, ये बाल मैंने ऐसे ही धूप में नहीं पका लिए हैं, वस्त्र हैं और बहुत सुंदर हैं। और चुप रह और यह बात मत उठा। तू अभी बच्चा है और तू कुछ भी नहीं जानता है।
बच्चे कभी-कभी सच्ची बातें कहते भी हैं तो बूढ़े उन्हें कहने नहीं देते। क्योंकि बच्चों को पता नहीं है उस भय का जो बूढ़ों को पता है। और बच्चों में अभी वह समझदारी नहीं आई, वह समझदारी जिसका चालाकी दूसरा नाम, वह कनिंगनेस अभी उनमें पैदा नहीं हुई जो झूठी बातों को सच कह सके। उन्हें कई बार सच्चाइयां दिखाई पड़ जाती हैं।
एक छोटे से बच्चे को मंदिर में ले जाएं और एक मूर्ति के सामने कहें कि ये भगवान हैं, प्रणाम करो। वह बच्चा अपने मन में हंसता है और देखता है कि एक मूर्ति रखी हुई है, लेकिन उससे कहा जा रहा है कि ये भगवान हैं और प्रणाम करो। और अगर वह बच्चा कहे कि मुझे तो पत्थर की मूर्ति दिखाई पड़ती है, भगवान नहीं। तो हम कहेंगे, तू नासमझ है, तुझे अभी पता नहीं, हम अपने अनुभव से कहते हैं यही भगवान हैं। और हम उस बच्चे की गर्दन को जबरदस्ती झुकाएंगे। और थोड़े दिनों में बच्चा भी बड़ा हो जाएगा। समझदारी में बड़ा हो जाएगा। और जो आदमी समझदारी में जितना बड़ा हो जाता है उतना चालाक हो जाता है, उतनी सच्चाई से दूर हो जाता है।
उस गांव के सब लोग समझदार थे इसलिए किसी ने भी नहीं कहा कि वस्त्र झूठे हैं। एक नासमझ बच्चे ने यह बात उठाई थी, लेकिन उसकी आवाज दबा दी गई।
सारी दुनिया में यह हुआ है। मनुष्य को भयभीत करके बहुत से असत्य उसे सिखा दिए गए हैं। और भीड़ के दबाव में, भीड़ के वजन में, एक व्यक्ति इतनी नैतिक हिम्मत नहीं कर पाता कि वह खड़ा हो जाए और कह सके वह जो उसे दिखाई पड़ता है। वह अकेला पड़ जाएगा।
धार्मिक आदमी मैं उसे कहता हूं, जो अकेले होने की हिम्मत करता है। जो आदमी भीड़ को स्वीकार कर लेता है वह आदमी धार्मिक नहीं है, वह आदमी कभी धार्मिक नहीं हो सकता। धार्मिक आदमी का पहला लक्षण है, अकेले खड़े होने का साहस। जो उसे दिखाई पड़ता है, उसे स्वीकार करने का साहस और जो उसे दिखाई नहीं पड़ता, उसे अस्वीकार करने का भी साहस धार्मिक आदमी की बुनियादी शर्तें हैं।
लेकिन हम तो जिन धार्मिक लोगों को जानते हैं, वे तो कोई भी अकेले खड़े हुए दिखाई नहीं पड़ते। वे तो सब भीड़ के साथ जुड़े हुए हैं। हिंदुओं की भीड़ है, मुसलमानों की भीड़ है, ईसाइयों की भीड़ है; जैनों की, बौद्धों की भीड़ है और हर आदमी किसी न किसी भीड़ का हिस्सा है और जो भीड़ कहती है वही व्यक्ति भी कहता है। और भीड़ में हर आदमी इसीलिए कहता है कि बाकी लोग भी वही कह रहे हैं।
हर आदमी जानता है, हर आदमी को दिखाई पड़ती हैं बातें। आंखें अंधी नहीं हैं, और कान बहरे नहीं हैं, और मस्तिष्क सोचता है। लेकिन चारों तरफ सारे लोग वही कहते मालूम पड़ते हैं और तब व्यक्ति बड़ा अकेला पड़ जाता है।
इसलिए मैं कहूंगा, पहली बात, और उसी पर आज की संध्या आपसे मुझे बात करनी है, और वह यह है, भय, फियर धार्मिक आदमी का लक्षण नहीं है, क्योंकि जो भयभीत है वह कभी सत्य को नहीं खोज सकेगा और न सत्य को जान सकेगा। जो भयभीत है, वह कभी इस योग्य नहीं हो पाता कि वह सत्य का साक्षात कर सके। उसका भय असत्य को ही मान लेने को मजबूर कर देता है।
लेकिन हमें तो सिखाया जाता रहा है, ईश्वर से भयभीत होने को। कहा जाता है गॉड फियरिंग होने को। कहा जाता है ईश्वर-भीरु होने को। ये शब्द अत्यंत झूठे हैं। गॉड फियरिंग, ईश्वर-भीरु से ज्यादा झूठा और अपमानजनक कोई शब्द नहीं हो सकता। क्योंकि जो व्यक्ति भयभीत है, वह व्यक्ति तो कभी ईश्वर के निकट पहुंच ही नहीं सकता।
ईश्वर और व्यक्ति के बीच भय का कोई संबंध नहीं हो सकता। प्रेम का संबंध तो हो सकता है लेकिन भय का नहीं। और स्मरण रखें, प्रेम और भय सर्वाधिक विरोधी बातें हैं। जहां प्रेम है वहां कोई भय नहीं और जहां भय है वहां कोई प्रेम नहीं। जहां भय है वहां घृणा तो हो सकती है लेकिन प्रेम नहीं हो सकता। और जहां प्रेम है वहां भय कैसा? वहां फियर कैसा? जिसे हम प्रेम करते हैं उसके प्रति हमारे चित्त के सारे भय विलीन हो जाते हैं, उससे हमें कोई भय नहीं रह जाता। और जिससे हम भय करते हैं, उसके प्रति हमारे मन में घृणा पैदा होती है। उससे हमारे बहुत गहरे मन में शत्रुता होती है। और जिससे हम भय करते हैं, उसके निकट तो हम कभी पहुंच ही नहीं सकते।
लेकिन हजारों साल से आदमी को सिखाया जाता रहा है वह भयभीत हो। वह स्वर्ग से डरे कि कहीं स्वर्ग न खो जाए, वह नरक से डरे कि कहीं नरक में न पड़ जाए, वह ईश्वर से डरे, वह डरे इसलिए ताकि वह अच्छा हो सके? और डर से कभी कोई अच्छा हो सकता है? डर तो बुराई की जड़ है। और आदमी को हम सिखाते रहे हैं, डरो, ताकि तुम भले हो सको। और भले आदमी का पहला सूत्र होता है कि वह डरता नहीं।
यह शिक्षा बड़ी उलटी है। क्योंकि जो डरता है वह सच्चा ही नहीं हो सकता, और जो सच्चा नहीं हो सकता वह भला कैसे हो सकता है? लेकिन यह कंट्राडिक्शन, यह विरोध हमें दिखाई नहीं पड़ता रहा। और इसलिए पांच हजार सालों की इस गलत शिक्षा का यह परिणाम है कि दुनिया रोज से रोज बुरी होती गई है।
 धर्म भय पर खड़ा था इसलिए धर्म झूठा सिद्ध हुआ। धर्म की सारी शिक्षा भय पर खड़ी हुई थी। हम लोगों को समझाते रहे--पाप करोगे तो नरक के कष्ट झेलने पड़ेंगे, नरक की अग्नि सहनी पड़ेगी, कड़ाहों में, जलते हुए कड़ाहों में, तेल में चुड़ाए जाओगे, आग में डाले जाओगे। आदमी को हम भयभीत करते रहे कि घबड़ा जाओ, घबड़ा जाओ ताकि पाप न कर सको। और प्रलोभन देते रहे स्वर्ग का, वहां अप्सराएं उपलब्ध होंगी, जिनकी उम्र कभी ढलती नहीं, जो सोलह वर्ष की ही बनी रहती हैं। और वहां शराब के चश्मे बहते हैं, स्वर्ग में झरने बहते हैं, न केवल पीना बल्कि डूबना और नहाना उनमें। और वहां कल्पवृक्ष हैं जिनके नीचे बैठ कर सभी इच्छाएं तत्क्षण पूरी हो जाती हैं। और सभी सुख के साधन हैं वहां।
स्वर्ग का हम प्रलोभन देते रहे आदमी को। अच्छे बनो ताकि स्वर्ग मिल सके, बुराई से बचो ताकि नरक जाने से बच सको। इस भय पर और प्रलोभन पर, और भय और प्रलोभन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिस चीज से हम भयभीत होते हैं उससे उलटी चीज से हम प्रलोभित होते हैं। और जिस चीज से हमारे मन में लोभ पैदा होता है उसके खो जाने से डर पैदा होता है। लोभ और प्रलोभन एक ही सिक्के के दो हिस्से हैं। भय और प्रलोभन, स्वर्ग और नरक एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और आज तक हमने आदमी के मन को इन्हीं दो सिक्कों के नीचे दबाने की कोशिश की है और इसका परिणाम यह हुआ कि आदमी धार्मिक नहीं हो सका। हो ही नहीं सकता था। क्योंकि जहां लोभ है और जहां भय है वहां धर्म कहां?
लेकिन हजारों वर्ष तक इन शब्दों के दोहराए जाने के कारण, बात बार-बार दोहराए जाने के कारण हम यह भूल ही गए कि हम सोच लें कि हम अधार्मिक क्यों होते जा रहे हैं। हम अधार्मिक रहे हैं, रहेंगे; जब तक भय से धर्म का छुटकारा नहीं हो जाता। जब तक हम मनुष्य के मन को फियरलेस, अभय उपलब्ध नहीं करा देते तब तक कोई आदमी धार्मिक नहीं हो सकेगा।
और चूंकि हर मुल्क में भय के अलग-अलग कारण हैं इसलिए हमें अलग-अलग स्वर्ग और नरक भी बनाने पड़े। अगर तिब्बती से हम पूछें कि तुम्हारा नरक कैसा है? तो वह कहता है, एकदम ठंडा, बर्फ जैसा ठंडा। तिब्बतियों का नरक गर्म नहीं है, क्योंकि तिब्बत में गर्मी भय नहीं है बल्कि आनंद है। तिब्बत में ठंड भय है। लोग ठंड से परेशान हैं तो उनके नरक में उन्होंने बर्फ जमा दिया है जो कभी नहीं पिघलता। और उस बर्फीली घाटियों में, नरक में डाल दिए जाएंगे लोग जो पाप करेंगे।
तिब्बती आदमी डरता है ठंड से, तो उनका नरक ठंडा है। हम डरते हैं गर्मी से, सूरज तपता है और हम झुलस जाते हैं, तो हमारा नरक गरम है, वहां कड़ाहे जल रहे हैं और आग जल रही है। ये हमारे भय के ऊपर खड़े हुए नरक हैं, इसलिए अलग-अलग हैं। तिब्बतियों का नरक वही नहीं हो सकता जो हमारा नरक है, क्योंकि गर्म स्थान में वे बड़े प्रसन्न होकर नाचने लगेंगे। और अगर हमको हिमाच्छादित घाटियां मिल जाएं तो हम शायद समझेंगे हम कोई हिल-स्टेशन पर आ गए हैं, नरक में नहीं। हम शायद हिमालय की यात्रा को आ गए हैं।
चूंकि हमारे भय हर मुल्क में अलग हैं, इसलिए अगर दुनिया भर के नरकों का इतिहास आप पढ़ेंगे, तो यह समझने में आसानी हो जाएगी कि जिस देश में जो भय है वही उस देश का नरक बन गया। और जिस देश में जिस चीज का प्रलोभन है, वही उस मुल्क के लिए स्वर्ग बन गया।
स्वर्ग और नरक हमारे भय और प्रलोभन के विस्तार हैं। और इनके आधार पर हमने कोशिश की आदमी को धार्मिक बनाने की। यह आधार ही झूठा था। इसलिए पांच हजार साल की संस्कृतियां नष्ट हो गईं, असफल हो गईं, विफल हो गईं। क्योंकि यह आधार ही झूठा था।
आदमी धार्मिक भय से नहीं बनता, आदमी धार्मिक अभय से बनता है। अभय कैसे उपलब्ध हो? और भय क्यों है? कैसे छूटे? कैसे हम उसके बाहर हो जाएं? कौन से कारण हैं जिनकी वजह से हम भयभीत हैं? और उन भयभीत होने की जो चित्त-दशाएं हैं वे हमारे शोषण का, शोषण की बुनियाद बन गई हैं।
पुरोहित और जो लोग धर्म का व्यवसाय करते हैं वे भलीभांति समझ गए हैं कि आदमी के भय के कौन से कारण हैं? और आदमी के शोषण के लिए उन्होंने उनका उपयोग कर लिया है। दुनिया में राजनीतिज्ञों या तथाकथित धार्मिक लोगों ने जो भी शोषण किया है वह सब भय के आधार पर किया है।
एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है: अगर तुम्हें किसी भी कौम से कोई काम करवाना हो, तो उसे किसी काल्पनिक शत्रु के नाम से भयभीत कर दो, फिर वह कौम कुछ भी करने को राजी हो जाएगी। और यह उसने अपने अनुभव से लिखा है। उसने लिखा है कि अगर किसी कौम को युद्ध पर लड़वाना हो, तो एक झूठा शत्रु पैदा कर दो, जिससे वह भयभीत हो जाए। अगर सच्चा शत्रु मिल जाए तब तो ठीक, नहीं तो झूठा शत्रु खड़ा कर दो। कह दो इस्लाम खतरे में है। कह दो हिंदू धर्म खतरे में है। कह दो भारत खतरे में है कि पाकिस्तान खतरे में है। और बता दो कि खतरा कौन पैदा कर रहा है। दुश्मन खड़ा कर दो, चाहे वह झूठा ही हो। फिर तुम उस कौम को मरने और मारने के लिए राजी कर सकते हो। फिर उससे तुम कोई भी बेवकूफियां करवाने के लिए उसे राजी कर सकते हो। फिर अपनी खुद की आत्महत्या करने को उस कौम के लिए राजी किया जा सकता है।
आदमी भयभीत हो जाए, फिर उसे किसी भी तरह राजी किया जा सकता है। ये दुनिया के जो भी शोषक हैं, इस बात को बहुत भलीभांति जान गए। लेकिन वृहत्तर मानव-समाज, हम सब अब तक भी ठीक-ठीक परिचित नहीं हो पाए हैं कि हमारा शोषण किन आधारों पर हो रहा है।
भय और प्रलोभन के आधार हैं--दान करो, यज्ञ करो, हवन करो, तो स्वर्ग में स्थान मिल जाएगा। मध्य-युग में तो ईसाई, पोप टिकट बेचते रहे हैं आदमी के स्वर्ग जाने के लिए। टिकट खरीद लो और स्वर्ग में स्थान सुरक्षित हो जाएगा।
कैसी-कैसी बेवकूफियां आदमी के साथ की जाती रही हैं जिनका कोई हिसाब है? लेकिन इस टिकट खरीदने की बात पर हम हंसेंगे। और हम एक ब्राह्मण को गाय दान कर दें, ताकि वैतरणी गाय पार करा देगी, तो हम न हंसेंगे। वह हमारी बेवकूफी है। अपनी बेवकूफी पर कोई भी नहीं हंसता। दूसरों की बेवकूफी पर कोई भी हंसने लगता है। लेकिन समझदार आदमी वह है जो अपनी बेवकूफियों पर हंसना शुरू कर देगा।
यज्ञ करो या हवन करो, या जाओ और भगवान की मूर्ति के सामने भगवान की स्तुति करो, स्तुति क्या है सिवाय खुशामद के? क्या है सिवाय परमात्मा की प्रशंसा के? और क्या यह भूल भरी बात नहीं है कि हम यह सोचते हों कि भगवान की प्रशंसा करके हम उसे प्रसन्न कर लेंगे? क्या हमने भगवान को भी एक कमजोर आदमी की शक्ल में नहीं सोच लिया है? किसी आदमी के पास जाते हैं और कहते हैं, आप बहुत महान हो और उसकी छाती फूल जाती है और सिर ऊंचा हो जाता है। शायद हम सोचते हैं, भगवान के सामने खड़े होते हैं कि तुम महान हो और पतित पावन हो, तो शायद वह भी गरूर से और अहंकार से भर जाता हो और खुश हो जाता हो। कैसे पागल हैं हम? या कि हम भगवान को जाकर कहें कि हम कुछ चढ़ा देंगे, कुछ त्याग कर देंगे, कैसी नासमझियां हैं? और इनके आधारों पर हम सोचते हैं कि हम धार्मिक हो जाएंगे? इस तरह हम धार्मिक नहीं हुए, लेकिन धर्म का शोषण करने वालों का एक व्यवसाय जरूर मोटा और तगड़ा हो गया। एक परंपरा जरूर खड़ी हो गई शोषकों की, जो हमारी कमजोरियों का शोषण कर रहे हैं और हमें समझा रहे हैं कि तुम ऐसा करो।
इस तरह के निवेदन, इस तरह की प्रार्थनाएं, इस तरह के यज्ञ, इस तरह के हवन, इस तरह की पूजा, इस तरह तुम करो, तो परमात्मा प्रसन्न होगा और तुम्हें सुख देगा, और तुमने यह नहीं किया तो परमात्मा नाराज होगा और दुख देगा। परमात्मा हमें सुख दे या न दे लेकिन इन पूजाओं और प्रार्थनाओं से जो पूजा और प्रार्थना कराते हैं उन्हें जरूर बहुत सुख मिल जाता है। और हम पूजा और प्रार्थना न करें तो हमें दुख मिलेगा या नहीं यह तो पता नहीं, लेकिन जो पूजाएं और प्रार्थनाएं करवाते हैं वे जरूर दुख में पड़ जाएंगे।
हमारे मन को लोभ दिए गए हैं और भय दिखाया गया है। बहुत प्रकार के लोभ, बहुत प्रकार के भय। क्या इन्हीं भय के कारण ही आप मंदिरों में नहीं जाते हैं? क्या इन्हीं लोभों के कारण आपने भगवान की स्तुति और प्रार्थनाएं नहीं की हैं? अगर की हों तो जानना कि वे प्रार्थनाएं झूठी थीं और वे मंदिर झूठे थे जिनमें आप गए। वह आपका जाना झूठा था।
लेकिन क्या कभी ऐसे मन को भी आपने अपने भीतर अनुभव किया है जो न लोभ से भरा हो और न भय से, लेकिन प्रेम से परिपूर्ण हो। अगर ऐसे मन को आपने जाना है तो वही मन असली प्रार्थना है, वही मन असली मंदिर है। जहां न लोभ है और न भय है, लेकिन प्रेम है। और प्रेम वहीं होता है जहां लोभ और भय नहीं होते।
क्या करें? कैसे भय से मुक्त हो जाएं?
कुछ लोगों ने भय से मुक्त होने की कोशिशें की हैं, तो वे इस तरह के भय से मुक्त हो गए हैं जो और घबड़ाने वाले और हंसाने वाले हैं। एक आदमी भय से मुक्त होना चाहता है, तो एक सांप पाल लेता है और गले में लटका लेता है और सोचता है कि अगर मैं सांप के साथ रहना सीख गया तो मैं भय से मुक्त हो गया। और ऐसे पागलों की कमी नहीं है जो उसके पैर छूने को भी मिल जाएंगे और कहेंगे यह अभय को उपलब्ध हो गया है। क्योंकि इसने एक सांप गले में लटका रखा है, इसको भय नहीं है।
या कि आदमी सोचता है कि मैं घर-द्वार छोड़ दूं, सड़क पर खड़ा हो जाऊं तो मैं अभय को उपलब्ध हो जाऊंगा। क्योंकि घर के साथ, परिवार के साथ बहुत से भय जुड़े थे। नुकसान हो सकता था, घाटा लग सकता था, पत्नी मर सकती थी, बच्चे बीमार पड़ सकते थे, और न मालूम क्या-क्या हो सकता था। वह सब मैं छोड़ कर सड़क पर आ गया। मैंने सारे भय छोड़ दिए, अब मैं निर्भय हो गया हूं। कोई सोचता हो कि निर्भयता ऐसे आती हो तो वह गलती में है।
एक फकीर की कहानी मैं सुनाऊं, उससे मेरी बात समझ में आ सके।
उस फकीर ने भी इसी भांति चाहा कि वह अभय को उपलब्ध हो जाए, फियरलेसनेस को पा ले। तो उसने जंगल में जाकर, घने जंगलों में, पहाड़ों में जहां कोई आदमी न पहुंचता था, जहां जंगली जानवरों का हमेशा प्राण को ले लेने का भय था, जहां भयंकर विषधर सर्प सरकते थे, वहां उसनें एक कुटी बना ली और रहने लगा। धीरे-धीरे उसकी खबर पहुंचनी शुरू हो गई। धीरे-धीरे गांव-गांव में उसकी चर्चा हो गई। धीरे-धीरे लोग उसके दर्शन को पहुंचने लगे और कहने लगे कि वही है अकेला जो अभय को उपलब्ध हुआ है। वह बूढ़ा हो गया था। कहते हैं उसके पीछे अगर आकर सिंह भी गर्जना करे तो वह लौट कर भी नहीं देखता कि पीछे कौन खड़ा है, वह बैठा रहता जैसा बैठा था। सांप उसके ऊपर चढ़ जाते तो उसको सिहरन भी पैदा नहीं होती थी, उसके रोंगटे भी खड़े नहीं होते थे।
एक नया भिक्षु, एक नया साधु उसके पास पहुंचा। एक संध्या जब कि सूरज ढलने को था, वह वृद्ध साधु बाहर अपनी कुटी के उस निबिड़ वन में एक चट्टान पर बैठा हुआ था नग्न। उसके पास ही वह नया भिक्षु भी जाकर एक छोटे पत्थर पर बैठ गया और उस बूढ़े साधु से उसने पूछा कि परमात्मा को पाने का रास्ता क्या है? उसका तो एक ही उत्तर था हमेशा से, अभय, भय से मुक्त हो जाओ। और जिस दिन भी तुम भय से मुक्त हो जाओगे, तुम्हारे चित्त में कोई भय नहीं होगा, उसी दिन परमात्मा अपने द्वार तुम्हारे लिए खोल देगा। यही उसने उससे भी कहा।
जब यह बात ही चलती थी कि तभी एक जंगली जानवर ने आकर पीछे जोर से चिंघाड़ा, आवाज की। वह नया भिक्षु खड़ा हो गया, उसके हाथ-पैर कंपने लगे। वह बूढ़ा भिक्षु हंसा और उसने कहा, अरे, तुम डरते हो! संन्यासी होकर डरते हो! और जहां डर है वहां धर्म नहीं हो सकता। वह युवक बोला, मैं तो डरता हूं। और घबड़ाहट में मुझे बहुत जोर से प्यास लग आई, क्या आप थोड़ा पानी मुझे दे सकेंगे, ताकि मैं इतनी ताकत जुटा सकूं कि मैं गांव तक वापस पहुंच जाऊं। अब मुझे कोई धर्म वगैरह नहीं सुनना है, मुझे वापस जाना है। वह बूढ़ा हंसा और उठ कर अपनी कुटी के भीतर गया। वहां से वह पानी लेकर वापस आया। लेकिन जब वह कुटी के भीतर था तो उस युवक साधु ने जिस चट्टान पर वह बूढ़ा बैठा हुआ था, उस पर एक पवित्र ग्रंथ की पंक्ति लिख दी। एक धार्मिक ग्रंथ की पंक्ति लिख दी जिसको वह बूढ़ा मानता था। एक पत्थर से उठा कर उसने पवित्र मंत्र लिख दिया। बूढ़ा आया, जैसे ही उसने पैर उठा कर चट्टान पर रखना चाहा देखा कि पवित्र मंत्र नीचे लिखा हुआ है, उसका पैर कंप गया और वह नीचे उतर गया।
उस युवक ने, युवक की बारी थी, वह हंसा और उसने कहा, डरते आप भी हैं। भयभीत आप भी हैं और जहां तक मेरे भय का संबंध है वह तो स्वाभाविक है और आपका भय बिलकुल ही अस्वाभाविक है।
पवित्र मंत्र पर पैर न पड़ जाए इससे वह बूढ़ा भी डर गया। जो सिंह की गर्जना से नहीं डरता, जो सांपों के लपट जाने से नहीं डरता, जो निबिड़ अंधकार वन में अकेला रहता है और नहीं डरता, वह भी पवित्र मंत्र नीचे लिखा हुआ है उस पर पैर न पड़ जाए इसलिए डर गया।
उस युवक ने कहा, मैं तो परमात्मा को कभी जान भी लूं, लेकिन स्मरण रहे, आप कभी न जान पाएंगे।
मैं भी आपसे यही निवेदन करना चाहता हूं। भय से मुक्त होने का यह मतलब नहीं है कि बस आती हो तो आप सामने ही खड़े हो जाएं। यह मूढ़ता होगी, ईडियाटिक होगा, यह भय से मुक्त होना नहीं होगा। न ही भय से मुक्त होने का यह मतलब है कि जहां धूप हो वहां आप खड़े हो जाएं, न गङ्ढों में कूद जाएं। भय से मुक्त होने का यह मतलब नहीं है।
भय से मुक्त होने का है जो साइकोलाजिकल हैं, जो मानसिक भय हमने तैयार कर रखे हैं, उनसे मुक्त हो जाएं। यह तो जीवन की संवेदना है, बोध है, अगर सांप रास्ते पर है और आप रास्ते से हट जाते हैं तो यह भय नहीं है। यह तो सहज समझ है, यह तो होश है। यह तो स्वस्थ चित्त का लक्षण है। अगर कोई जहर खाने को आपको देता है और आप इनकार करते हैं, या जिस बोतल पर जहर लिखा हुआ है उसे आप नहीं पीते, तो यह तो एक स्वस्थ चित्त का लक्षण है। यह भय नहीं है, यह तो जीवन की सामान्य रक्षा है।
भय दूसरे तल पर हैं, गहरे तल पर हैं, मानसिक हैं। मानसिक तल पर जो भय हैं वे मनुष्य को धार्मिक नहीं होने देते। शरीर के तल पर जो भय हैं वे जीवन के लिए अपरिहार्य हैं, जरूरी हैं। वे तो जिस बच्चे में न हों उसके संबंध में हमें चिंतित हो जाना पड़ेगा। अगर एक बच्चा हो और आग में हाथ डाले और भयभीत न हो, वह बच्चा जिंदा नहीं रह सकेगा। उस बच्चे में बुद्धिमत्ता ही नहीं है।
एक बार ऐसा हुआ कि जापान में एक राजा को सनक आ गई, जैसा कि अक्सर होता है, राजाओं को सनकें आती हैं। सच तो यह है कि जो सनकी नहीं होते वे राजा ही नहीं होते। उस राजा को सनक आ गई। और उसने यह सारे राज्य में खबर करवा दी कि जो लोग भी मंदबुद्धि हैं, उनका कोई कसूर नहीं है मंदबुद्धि होने में, भगवान ने उनको मंदबुद्धि पैदा किया। तो मंदबुद्धि लोग कुछ काम नहीं करते हैं, आलसी हैं, बैठे रहते हैं, उनका कोई कसूर तो नहीं है मंदबुद्धि होने में। तो राज्य से व्यवस्था की जाएगी, जितने मंदबुद्धि हैं उनको राज्य की तरफ से आश्रय दिया जाएगा। वे राज्य के द्वारा बनाए गए आश्रमों में रहें, आनंद से खाएं और मौज करें। उनका कोई कसूर नहीं है कि वे मंदबुद्धि हैं। सारे राज्य में उसने खबर निकाल दी।
हजारों दरख्वास्तें आ गईं कि हम मंदबुद्धि हैं, हमको राज्य की सहायता मिलनी चाहिए। राजा बहुत परेशान हो गया। उसे कल्पना भी न थी कि उसके राज्य में इतने मंदबुद्धि हैं। रोज हजारों दरख्वास्तें आती ही गईं। शायद ही कोई आदमी ऐसा हो जिसने दरख्वास्त न दी हो। कौन इतना नासमझ था? राज्य खाने, कपड़े और रहने की मुफ्त व्यवस्था कर रहा था। राजा घबड़ा गया, उसने सोचा था कि होंगे सौ-पचास, हजार, दो हजार आदमी। तो उसने अपने मंत्रियों को कहा, यह तो बड़ी मुश्किल हो गई। यह कैसे तय होगा कि कौन मंदबुद्धि है? उसके मंत्रियों ने कहा, हर चीज के रास्ते हैं, इंतजाम हो जाएगा। जिन लोगों ने दरख्वास्तें दी हैं उनको खबर कर दी जाए कि वे आ जाएं, उनकी परीक्षा होगी। अगर वे मंदबुद्धि सिद्ध हुए तो राज्य उन्हें शरण देगा। और नहीं सिद्ध हुए तो वापस लौटा दिए जाएंगे।
जिन लोगों ने सबसे पहले दरख्वास्त दी थी उनमें से एक हजार लोग बुलवा लिए गए। मंत्रियों ने बड़ी होशियारी का काम किया। उन्होंने घास-फूस के छोटे-छोटे झोपड़े बनाए एक हजार लोगों के रहने के लिए। और उन हजार लोगों को उनमें ठहरा दिया। और रात में उन झोपड़ों में आग लगा दी। जैसे ही आग लगी, लोग बाहर भागे। लेकिन चार आदमी ऐसे भी थे जो कंबल ओढ़ कर अंदर और ठीक से सो गए। जब आग लगी और उनके पड़ोसियों ने उनसे कहा, भागो, आग लगी है, तो उन्होंने कंबल ओढ़ लिया और सो गए। उन्होंने कहा कि अगर किसी की होगी इच्छा तो हमको निकाल बाहर कर दे। आग लगी है तो बाहर कौन जाए, सम्हल कर यहीं सो जाओ। वे चार आदमी चुन लिए गए, वे मंदबुद्धि थे। उनमें आग का भी भय नहीं था। वे और कंबल सौंड़ कर आराम से वहीं ओढ़ कर सो गए थे।
मंदबुद्धि होना और बात है, भयरहित होना और बात है। इसलिए जो मंदबुद्धि हैं, उनको अगर इस तरह के भय से मुक्त होना हो कि ट्रेन के सामने खड़े हो जाएं, या बस के सामने, या सांप को गले में लटका लें, तो मंदबुद्धियों के लिए यह बहुत आसान है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है।
लेकिन अभय का अर्थ मंदबुद्धि नहीं है। अभय का अर्थ संवेदनशून्यता नहीं है। अभय का दूसरा अर्थ है। अभय का अर्थ है, मानसिक तल पर हमने जो भय पाल रखे हैं, उनसे मुक्त हो जाना। हमने कौन से भय पाल रखे हैं? हमने बहुत से भय पाल रखे हैं। मानसिक तल पर हम इतने ज्यादा भयभीत हैं जिसका कोई हिसाब नहीं। आप जब मंदिर में जाकर प्रणाम करते हो तो किस कारण से करते हो? कोई भय काम कर रहा है।
मेरे एक मित्र हैं, वे नियमित जिस मंदिर के सामने से भी निकलें, हाथ जोड़े बिना नहीं रह जाते थे। मेरे साथ एक दिन एक सड़क पर से निकले, कोई तीन मंदिर आए। उन्होंने हर मंदिर के सामने हाथ जोड़े, मेरी वजह से थोड़ा संकोच किया लेकिन फिर भी जैसे ही मेरी आंख बची उन्होंने जल्दी से हाथ जोड़ लिए। मैंने उनसे बात की कि यह क्या कर रहे हैं? उन्होंने कहा, मुझे ऐसा भय लगता है कि अगर मैंने हाथ न जोड़े तो भगवान नाराज हो जाए। और एक दिन आपकी बात मान कर मैं एक मंदिर के सामने से बिना हाथ जोड़े निकल गया। मैंने बड़ी हिम्मत की, मेरे माथे पर पसीना आ गया। मैंने बड़ी हिम्मत की और मैंने कहा कि आज मैं देखूं तो निकल कर क्या होता है? लेकिन मैं दस कदम से आगे नहीं जा सका, दस कदम पर जाकर मुझे ऐसी घबड़ाहट होने लगी कि मुझे लगा कि पता नहीं क्या हो जाए? मैं वापस लौटा, मैंने ठीक से हाथ जोड़े और क्षमा मांगी कि ऐसी भूल अब कभी न करूंगा।
ये मानसिक भय हैं, ये साइकोलाजिकल फियर्स हैं। ये सीखे हुए हैं, ये बिलकुल झूठे हैं, ये सिखाए गए हैं। और ऐसे भयभीत चित्त को ही हम धार्मिक कहते रहे हैं। यह तो बिलकुल धार्मिक नहीं है, यह तो जरा भी धार्मिक नहीं है। ऐसे भय को चित्त में खोजना जरूरी है।
हमारी मान्यताएं, हमारे विश्वास, हमारी बिलीफस, सब भय पर खड़ी हुई हैं। हमारे सिद्धांत, हमारा तथाकथित ज्ञान, हमारा पंथ, हमारा संप्रदाय, हमारी पूजा, हमारी प्रार्थना, इसी तरह के भय पर खड़ी हुई हैं। ये भय चित्त को रुग्ण करते हैं, ये भय चित्त को कमजोर करते हैं, ये भय चित्त को शक्तिहीन करते हैं और इन भय से घिरा हुआ व्यक्ति धीरे-धीरे विक्षिप्त हो सकता है, मुक्त नहीं हो सकता।
यह जाल भय का तोड़ना जरूरी है, लेकिन हमको भय लगेगा कि अगर हमने यह जाल तोड़ा तो फिर हम धार्मिक न रह जाएंगे, फिर तो हम अधार्मिक हो जाएंगे। यह भी हमें सिखाया गया है कि इन भय से जो भयभीत होता है, वही आदमी रिलीजस, वही आदमी धार्मिक है, वही अच्छा आदमी है। जो इनको तोड़ देता है, वह आदमी बुरा हो जाता है। यह बात गलत है।
असल में जो इनको तोड़ता है, इन भय के जाल को जो तोड़ देता है, वही इन जाल के भीतर छिपी हुई आत्मा को जानने में समर्थ हो पाता है। क्योंकि भय को तोड़ते ही एक इतनी बड़ी शक्ति उसके भीतर जन्मती है, एक इतना बड़ा साहस उसके भीतर पैदा होता है, एक इतना बल उसके भीतर मुक्त होता है। यह भय के जाल के भीतर बड़ी शक्ति दबी बैठी है, जो उठ नहीं पाती, जो खड़ी नहीं हो पाती। विवेक जाग्रत नहीं हो पाता, विचार मुक्त नहीं हो पाता है। इन भय से ही हम बंधे रह जाते हैं, अटके रह जाते हैं। ये भय हमें हिलने भी नहीं देते। इन भय की दीवाल में हम आंख भी नहीं उठा सकते ऊपर। कहीं देख भी नहीं सकते। हर चीज में भय लगता है कि कहीं यह न हो जाए। ये जो भय हैं कैसे-कैसे हैं?
मैंने सुना है, हिंदुओं के ग्रंथों में लिखा हुआ है और वैसा ही जैनों के ग्रंथों में भी लिखा हुआ है। मैंने सुना है कि हिंदुओं के ग्रंथों में लिखा है कि अगर पागल हाथी तुम्हारे पीछे दौड़ता हो और जैन मंदिर आ जाए तो तुम पागल हाथी के पैर के नीचे दब कर मर जाना लेकिन जैन मंदिर में मत जाना। और यही बात जैन ग्रंथों में भी लिखी हुई है कि अगर हिंदू मंदिर आ जाए और पागल हाथी पीछे आता हो तो तुम उसके पैर के नीचे दब कर मर जाना वह बेहतर है लेकिन हिंदू मंदिर में प्रवेश मत करना, वह बड़ा पापपूर्ण है। ऐसे-ऐसे भय हैं।
एक जैन साधु मेरे पास ठहरे। उन्होंने सुबह उठ कर ही मुझसे कहा, जैन मंदिर कहां है, मैं वहां जाना चाहता हूं। मैंने उनसे कहा, वहां जाकर क्या करिएगा? उन्होंने कहा, मैं वहां एकांत में आत्म-चिंतन करूंगा, ध्यान करूंगा, सामायिक करूंगा। मैंने उनसे कहा, मेरे पास जहां आप ठहरे हैं, जितनी शांति और एकांत है, उतनी शांति और एकांत में यहां का मंदिर नहीं है। क्योंकि मंदिर जो भीड़ बनाती है वह अपने आस-पास ही बनाती है। तो जहां यहां भीड़ रहती है, वहीं वह मंदिर है। वहां बहुत शोरगुल है, वहां क्या करिएगा? यहां बहुत एकांत है। वे बोले कि नहीं, फिर भी यह रहने का मकान है, इसमें लोग रहते हैं। मंदिर में कोई रहता नहीं, इसलिए उसकी पवित्रता दूसरी है। मैं वहीं जाऊं। तो मैंने उनसे कहा, हमारे पड़ोस में ही एक चर्च है, वहां भी कोई नहीं रहता, आप उस चर्च में चले चलिए। उन्होंने कहा, चर्च! आप कैसी बातें करते हैं? मैं जो आपसे पूछ रहा हूं उसका उत्तर दीजिए कि जैन मंदिर कहां है? आप दूसरी बातें मत करिए।
मैंने कहा, उस चर्च में कोई भी नहीं रहता। और आज चूंकि इतवार नहीं है, रविवार नहीं है इसलिए वहां कोई भी नहीं होगा, आज पादरी भी सिनेमा देखने गया होगा। रविवार को वहां लोग होते हैं तब पादरी भी वहां रहता है। क्योंकि मैं कई दफा जब रविवार नहीं होता वहां जाता हूं, मुझे पादरी भी नहीं मिलता। तो वहां कोई भी नहीं होगा, एकदम एकांत, बड़ी शांति में वह जगह है, चले चलिए।
लेकिन चर्च शब्द भय पैदा करता है। जैन शब्द प्रलोभन पैदा करता है, वह अपना मंदिर है, अपने भगवान का। यह दूसरों का मंदिर है, ऐसे भगवानों का जिनका होना भी तय नहीं। यहां जाने में कोई अर्थ नहीं है, कोई लाभ नहीं है। वही ईसाई से कहिए, तो जैन मंदिर का सवाल हो जाएगा। वही हिंदू से कहिए, मुसलमान से कहिए।
ये सारे भय हैं हमारे भीतर। ये जो मानसिक तल पर भय हैं, ये जो साइकोलाजिकल फियर्स हैं, क्या इनके रहते हुए कोई आदमी धार्मिक हो सकता है? नहीं हो सकता। यह जाल टूट जाना चाहिए। और यह जाल टूटना बहुत कठिन नहीं है। यह असंभव तो है ही नहीं, कठिन भी नहीं है, बहुत सरल है।
असल में यह जाल कोई ऐसा जाल नहीं है जिसकी वास्तविक जंजीरें हों, केवल शब्दों की जंजीरें हैं। और शब्दों की जंजीरें कागजों से भी कमजोर हैं। इनको कोई देख ले तो इनसे मुक्त हो जाता है। इनको कोई समझ ले तो इनसे मुक्त हो जाता है। इनकी अंडरस्टैंडिंग ही इनसे छुटकारा बन जाती है, इनको तोड़ना नहीं पड़ता।
एक दफा अपने मन में यह देख लें कि मेरे चित्त में कौन-कौन से मानसिक भय बैठे हुए हैं? उनको देख लेना, उनको पहचान लेना, उनको जान लेना ही उनसे छुटकारा है। उनको जानने के बाद उनका कोई बंधन नहीं रह जाएगा, क्योंकि आप खुद उन पर हंसने लगेंगे कि यह क्या पागलपन है? यह क्या नासमझी है? यह मैं क्या कर रहा हूं? यह सब मैंने कौन सा जाल मन के ऊपर रच रखा है? अगर आप एक बार अपने मन के इस जाल को देख लेंगे, तो दिखाई पड़ेगा, एकदम काल्पनिक है यह जाल। इसमें आप बंधे हैं केवल इसलिए कि इस जाल को आपने सत्य समझ रखा है। और अगर आपको यह दिखाई पड़ जाए यह असत्य है तो आप छूट गए। सत्य समझा है इसलिए बंधे हैं। समझ बांध रही है। और कोई जाल नहीं है जो बांध रहा हो।
एक छोटी सी कहानी कहूं। उससे शायद मेरी बात खयाल में आ सके।
एक रात अंधेरी रात में एक बड़ा काफिला एक रेगिस्तानी सराय में आकर ठहरा। कोई सौ ऊंट थे उस काफिले के पास। आधी रात हो गई थी। शायद वे रास्ता भटक गए थे, और सांझ को पहुंचने वाले थे लेकिन रात को पहुंचे। सभी थके हुए थे। उन्होंने जल्दी-जल्दी खूंटियां गाड़ीं, रस्सियां बांधीं और अपने ऊंटों को बांधा, लेकिन शायद इस जल्दबाजी में एक खूंटी और एक रस्सी खो गई, या कहीं रास्ते में गिर गई। निन्यानबे ऊंट तो बांध दिए गए लेकिन एक ऊंट बिना बंधा रह गया। आधी रात हो गई थी, वे सो जाना चाहते थे और ऊंट को बिना बंधा छोड़ना ठीक नहीं था। रात अंधेरी थी और वह भटक सकता था। तो उन्होंने सराय के मालिक को जाकर कहा कि अगर एक खूंटी और एक रस्सी हमें मिल जाए तो बड़ी कृपा हो। एक ऊंट हमारा बिना बंधा रह गया है। हमारी खूंटी कहीं खो गई या गिर गई। रस्सी भी हमारे पास नहीं है। निन्यानबे ऊंट बांध दिए गए हैं, एक बिन बंधा है।
उस सराय के मालिक ने कहा: मैं तो बहुत गरीब हूं, और यहां कोई खूंटी और कोई रस्सी नहीं हैं। लेकिन हां, एक तरकीब बताता हूं, बांध दो, जाओ खूंटी गाड़ दो, रस्सी बांध दो और ऊंट से कहो, सो जाओ। उन लोगों ने कहा, आप बड़े पागल मालूम पड़ते हैं। रस्सी और खूंटी होती तो हम आपके पास आते क्यों? रस्सी बांध दें और खूंटी गाड़ दें! आपने बड़ी अच्छी बात बताई, लेकिन हमारे पास है नहीं। उसने कहा कि जो नहीं है उसी को गड़ा दो और जो नहीं है उसी को बांध दो। झूठी खूंटी ठोंक दो जमीन में, अंधेरे में ऊंट को समझ में पड़ जाए कि खूंटी ठोंकी गई। और झूठी रस्सी उसके गले में हाथ फेर दो और बांध दो और कह दो, बैठ जाओ। लेकिन उन लोगों ने कहा, विश्वास नहीं पड़ता।
वह बूढ़ा हंसा कि तुम विश्वास नहीं करते ऊंट के बाबत, मैं आदमियों को ऐसी खूंटियों से बंधे देखता हूं जो नहीं है। तुम जाओ, कोशिश करो। ऊंट तो ऊंट है आदमी राजी हो जाता है। वह गया, मजबूरी थी, जाना पड़ा ऊंट के पास। उनके पास नहीं थी खूंटियां। अब बूढ़े ने कहा था तो देख लें यह भी करके। उन्होंने खूंटी ठोंकी, जैसे कि असली खूंटी ठोंकी जाती है। आवाज की, गङ्ढा किया, ऊंट खड़ा अंधेरे में देखता रहा, खूंटी ठोंकी जा रही थी। फिर उन्होंने ऊंट के गले में हाथ डाला और जैसे रस्सी बांधी जाती थी वैसी कोशिश की। ऊंट ने समझा होगा रस्सी बांध दी गई है और फिर उन्होंने कहा: बैठ जाओ और ऊंट बैठ गया। और वे जाकर सो गए। और सुबह वे उठे और काफिला नई यात्रा पर जाने को हुआ। तो उन्होंने निन्यानबे ऊंटों की खूंटियां निकाल दीं, रस्सियां खोल लीं और उनको मुक्त कर दिया। लेकिन सौवें ऊंट की न तो कोई खूंटी थी न रस्सी, उसको क्या खोलना? उन्होंने निन्यानबे ऊंट तो खोल दिए, वे ऊंट चलने को राजी हो गए, लेकिन सौवां ऊंट बैठा रहा। उन्होंने उसे बहुत धक्के दिए, बहुत आवाज की कि उठो लेकिन वह उठने को राजी नहीं हुआ। कैसे उठता? उसकी खूंटी बंधी थी।
वे बड़े हैरान हुए। समझे कि यह बूढ़ा सराय का जो मालिक है, क्या कोई जादूगर है? एक तो यही विश्वास की बात नहीं थी कि झूठी खूंटी से ऊंट राजी हो जाएगा। राजी हो गया और हद्द हो गई अब वह उठता भी नहीं है। वे वापस गए और उन्होंने उस बूढ़े से कहा कि माफ करिए, अब उस ऊंट को उठाइएगा। वह तो बैठे ही रह गया। आपने क्या कर दिया? उसने कहा: तो मेरे पागल दोस्तो, पहले जाकर खूंटी उखाड़ो, रस्सी खोलो। उन्होंने कहा, लेकिन खूंटी है नहीं, रस्सी है नहीं। उसने कहा, जिस भांति रात ठोंकी थी उसी भांति उखाड़ो। जो नहीं थी अगर वह ठोंकी जा सकती है तो जो नहीं है वह निकालनी भी पड़ेगी, जाओ। मजबूरी थी, उन्हें जाना पड़ा। वे गए, उन्होंने जाकर खूंटी निकाली, रस्सी खोली, ऊंट उठ कर खड़ा हो गया। वह यात्रा पर राजी हो गया।
उस बूढ़े आदमी ने ठीक कहा था, ऊंट तो ऊंट आदमी भी राजी हो जाते हैं। हम सब राजी हो गए हैं। और ऐसी खूंटियां हमारे मन पर हैं जिनका कोई अस्तित्व नहीं। ऐसी रस्सियां हमारे मन पर हैं जिनकी कोई सत्ता नहीं, जिनका कोई एक्झिस्टेंस नहीं।
लेकिन आप पूछेंगे, उखाड़ें कैसे इनको? इनको निकालें कैसे?
जरूर जिस भांति इनको गड़ाया है उसी भांति इनको निकालना भी पड़ेगा। जिस भांति इनको ठोंका है उसी भांति तोड़ना भी पड़ेगा। कैसे ठोका है इन खूंटियों को? कौन सी सीक्रेट है इनके ठोकने की? कौन सा टेक्नीक? कौन सी तरकीब है? तरकीब यह है कि हमने इन भयों को सत्य मान लिया इसलिए ये हमारे ऊपर ठुक गए। इनको सत्य मान लेना इनका सीक्रेट है। जिस चीज को हम सच मान लेंगे उससे हम बंध जाएंगे। जिस चीज को हम असत्य जान लेंगे उससे हम मुक्त हो जाएंगे। सत्य मान लेना, मान लेना हमारा कारण है इनसे बंधे होने का। विश्वास कारण है हमारा इनसे बंधे होने का।
तो थोड़ा आंख खोल कर देखें कि इन्हें मानने की कोई वजह है? क्या कोई वजह है उस मूर्ति को भगवान मानने की जिसको हम भगवान मानते रहे? कोई भी तो वजह नहीं है सिवाय इसके कि और लोग मानते हैं। कोई भी तो वजह नहीं है सिवाय इसके कि और लोग मानते हैं। और मैं भी उन लोगों में पैदा हुआ हूं जो मानते हैं और बचपन से उन्होंने मुझे सिखा दिया है कि मानो।
उन्नीस सौ सत्रह में रूस में सारे लोग आस्तिक थे। उन्नीस सौ सत्रह में क्रांति हो गई। वहां जो लोग हुकूमत में आए वे नास्तिक थे। उन्होंने शिक्षा देनी शुरू की--न कोई ईश्वर है, न कोई आत्मा है, न कोई धर्म है, न कोई स्वर्ग, न कोई नरक, न कोई मोक्ष, न कोई पाप, न कोई पुण्य, कुछ भी नहीं है। निरंतर पंद्रह-बीस साल की शिक्षा के बाद आज रूस के बच्चे से जाकर पूछिए, ईश्वर है?
मेरे एक मित्र रूस में थे, उन्होंने पूछा एक छोटे से स्कूल में बच्चों से, ईश्वर है? वे हंसने लगे और उन्होंने कहा, था, है नहीं। पहले था, उन्नीस सौ सत्रह के पहले था। क्रांति के पहले था। जमाना हुआ खतम हो गया, अब नहीं है। और जहां अज्ञान है, जहां अभी क्रांति नहीं हुई वहां अभी भी है, बहुत जल्दी वहां भी नहीं रह जाएगा।
जो उनको सिखाया वे उसे दोहरा रहे हैं। उन्होंने पुरानी खूंटियां तोड़ दीं, नई खूंटियां गाड़ लीं। कल तक वे बाइबिल को मानते थे, अब वे दास कैपिटल को मानते हैं। कल तक क्राइस्ट का जयजयगान करते थे, अब वे माक्र्स और लेनिन का जयजयगान करते हैं। कल तक वे क्राइस्ट के चर्च के आस-पास इकट्ठे होते थे, अब वे लेनिन की कब्र के आस-पास इकट्ठे होते हैं। बात वही है, खूंटियां बदल गईं हैं, अब वे दूसरी खूंटियां गड़ गई हैं, अब वे उनका जयजयकार कर रहे हैं। और सोचते होंगे की ये खूंटियां सच हैं। सच हैं इसलिए बांध लेती हैं। हम दूसरी तरह की खूंटियों में बंधे हैं।
दुनिया में कई तरह की खूंटियां हैं--लाल रंग की, हरे रंग की, सफेद रंग की; हिंदू की, मुसलमान की, जैन की, ईसाई की, न मालूम कितने प्रकार की खूंटियां हैं। रंग-बिरंगी खूंटियां हैं। और सौभाग्य या दुर्भाग्य से जो जिस खूंटे के घेरे में पैदा हो जाता है उसी से बंध जाता है। और बंधने का कुल कारण इतना है कि बचपन से सीख लेता है कि यह सच है। सत्य का कोई पता नहीं और हम मान लेते हैं कि यह सत्य है तो बंधन खड़ा हो जाता है। फिर कैसे इस खूंटी को उखाड़ दें?
एक रास्ता तो यह है जो अब तक जारी रहा है, वह यह है कि मैं आपके पास दूसरी खूंटी लेकर आऊं और कहूं कि महाशय यह लाल खूंटी बिलकुल खराब है, यह हरी खूंटी बहुत अच्छी है, इसको फेंकिए यह खूंटी बिलकुल रद्दी है, सड़ चुकी, यह अब काम करने वाली नहीं है, यह खूंटी नई और ताजी और अच्छी है। एक रास्ता तो यह रहा है कि मैं दूसरी खूंटी लेकर आपके पास आऊं। अगर आप मुसलमान हैं तो मैं हिंदू की खूंटी लेकर आऊं। अगर आप हिंदू हैं तो मैं ईसाई की खूंटी लेकर आऊं। अगर आप जैन हैं तो मैं बौद्ध की खूंटी लेकर आऊं और आपकी खूंटी बदलवा दूं, दूसरा सब्स्टीटयूट आपको दे दूं। यह आज तक हुआ है। खूंटी से आदमी मुक्त नहीं हुआ है, एक खूंटी से होता है तो दूसरी खूंटी से बंध जाता है। लेकिन ऐसा नहीं होता कि वह किसी खूंटी से बंधा हुआ न रह जाए।
मैं कोई दूसरी खूंटी लेकर आपके पास नहीं आया हूं। मैं आपसे यह नहीं कहता कि वह खूंटी बुरी है जिससे आप बंधे हैं, मैं एक खूंटी आपको देता हूं इससे आप बंध जाएं। मैं आपसे यह कहने आया हूं, खूंटी से बंधा होना बुरा है। कोई खूंटी-वूंटी का बुरा सवाल नहीं है, खूंटी से बंधा होना बुरा है। चाहे वह कोई भी खूंटी हो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता--हिंदू की हो, मुसलमान की, जैन की, ईसाई की, कम्युनिस्ट की, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। चित्त बंधा हुआ हो यह बुरी बात है। क्योंकि बंधा हुआ चित्त और असत्य से बंधा हुआ चित्त--नहीं जानता ऐसी चीजों से बंधा हुआ चित्त--वहां तक नहीं पहुंच सकता जहां ज्ञान है, जहां सत्य है, जहां परमात्मा है, जहां जीवन का मूल उत्स है वहां नहीं पहुंच सकता।
तो दिखाई तो पड़ेगा कि हम परमात्मा की पूजा कर रहे हैं लेकिन हम किसी रंग की खूंटी की पूजा करते रहेंगे। और दिखाई तो पड़ेगा हम मंदिरों में जा रहे हैं, हम मंदिरों में कभी नहीं गए क्योंकि मंदिरों में जाने वाला मन ही हमारे पास नहीं है जो मुक्त हो, खुला हो, उन्मुक्त हो।
पहली बात है, स्वतंत्र चित्त चाहिए सत्य को जानने को। स्वतंत्रता सीढ़ी है सत्य की। स्वतंत्र जिसका चित्त नहीं, सत्य, सत्य उसके लिए नहीं हो सकता। फ्रीडम चाहिए।
किससे फ्रीडम? किससे स्वतंत्रता? उन खूंटियों से जो हैं ही नहीं। उन रस्सियों से जो झूठी हैं, जिनकी कोई सत्ता नहीं, कोई अस्तित्व नहीं। मन के भय, मन के विश्वास, मन के सिद्धांत हमें बांधते हैं, क्योंकि हम मानते हैं कि वे सत्य हैं। खोजें और देखें तो दिखाई पड़ जाएगा कि हमने कभी उन्हें माना था, हमने उन्हें जाना नहीं है। जिसे हमने माना था, वह अज्ञान है। जिसे हमने नहीं जाना, उसे मानने का कोई भी कारण नहीं है। खाली हो जाएंगे तब मान्यताओं से आप, टूट जाएंगे जाल, भय से मन मुक्त हो जाएगा और तब वह ऊर्जा पैदा होगी, वह शक्ति, वह बल, वह साहस, वह आत्म-चेतना जन्मेगी। इन भय के जाल से टूट जाते ही जो सेतु बन जाती है, ब्रिज बन जाती है परमात्मा तक पहुंचने का।
सुबह मैंने एक सूत्र की बात की थी, विवेक के जागरण की और विश्वास से मुक्त होने की। संध्या मैंने दूसरे सूत्र की आपसे बात की है, भय से मुक्त होने की और अभय में प्रतिष्ठित होने की। शेष कुछ सूत्रों की बात आने वाली चर्चाओं में मैं आपसे करूंगा।
अंत में इतना ही कहूंगा, मेरी बातों पर विश्वास न ले आएं कि मैं जो कह रहा हूं वह ठीक है। हो सकता है, जो मैं कह रहा हूं वह बिलकुल गलत है। हो सकता है मैं किसी तरकीब से कोई नई खूंटी गाड़ने की कोशिश कर रहा हूं और आप उसमें पकड़ जाएं, आप उसमें जकड़ जाएं। इसलिए मुझसे सावधान रहने की जरूरत है। मैं जो बात कह रहा हूं उसमें सबसे ज्यादा जरूरी है कि मुझसे सावधान रहें। कोई मेरी खूंटी आपके मन में न गड़ जाए। सोचें, विचारें मैंने जो कहा है। रात सोते वक्त थोड़ा उस पर खयाल करें कि मैंने क्या कहा है। और अपने भीतर खोजें कि कहीं सच में वैसे भय आपके भीतर तो नहीं हैं जो झूठे हैं, जिनको आप नहीं जानते, जिनसे आप भयभीत हैं, परेशान हैं और जो आपके जीवनचर्या को प्रभावित कर रहे हैं? अगर ऐसे भय आपको दिखाई पड़ जाएंगे, तो आपको कुछ और नहीं करना होगा, उनका दर्शन ही उनकी मृत्यु हो जाएगी। आपने उनको देखा कि वे गए। जैसे कोई आदमी एक दीये को जला कर किसी अंधेरे कमरे में जाए अंधेरे को खोजने तो दीये को जला कर ले जाएगा तो अंधेरा उसे मिलेगा? वह नहीं मिलेगा। क्योंकि दीये की मौजूदगी अंधेरे का अंत है।
ऐसे ही जो भी भय हमारे चित्त में हैं वे अंधेरे के निवासी हैं। जब आप बोधपूर्वक उनकी खोज में दीया जला कर जाएंगे खोजने कि वे कहां हैं, तो आपको हंसी आएगी, वे अंधेरे के वासी आपको नहीं मिलेंगे।
एक बार ऐसा हुआ, अंधेरे ने जाकर भगवान के पास...और उससे कहा कि तुम क्यों अंधेरे के पीछे पड़े हुए हो? उसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? सूरज ने कहा, कैसा अंधेरा? कौन अंधेरा? मैं तो जानता भी नहीं। मेरा आज तक उससे मिलना नहीं हुआ। आप उसे मेरे सामने बुला दें और वह मेरे सामने शिकायत कर दे तो मैं माफी मांग लूं और आगे के लिए पहचान लूं कि यह कौन है, तो उसका पीछा न करूं। तब से भगवान भी हार गए हैं, अंधेरे के लिए कोशिश करते हैं सूरज के सामने लाने की, अभी तक ला नहीं पाए। वे कभी नहीं ला पाएंगे। क्योंकि सूरज की मौजूदगी अंधेरे का अंत है। वह सामने खड़ा नहीं हो सकता।
जब हम बोधपूर्वक भीतर चित्त में खोजने जाएंगे कौन-कौन से भय हमें पकड़े हुए हैं? जब आप दीया जला कर विचार का खोजने जाएंगे आप हैरान हो जाएंगे, वे भय गए।
वे खूंटियां वैसी थीं जो किन्हीं समझदार व्यापारियों ने आपके लिए बांध दी थीं और आपको उसके साथ बांध दिया था। समझदार व्यापारियों का डर था कि कहीं आप उनके घेरे से भटक न जाओ। वे जो समझदार व्यापारी थे ऊंट के मालिक, उनको भय था कहीं ऊंट भटक न जाए, कहीं दूसरे जत्थे में शामिल न हो जाए, कहीं कोई इसे ले न जाए।
मनुष्य के जीवन में भी कुछ समझदार व्यापारी पैदा हो गए और उन्होंने आदमी के चित्त पर खूंटियां बांध दीं ताकि कोई आदमी उनके घेरे, उनके फोल्ड के बाहर न चला जाए। हिंदू के बाहर न चला जाए, मुसलमान के बाहर न चला जाए। झूठी खूंटियां गड़ा दीं, झूठे जाल बुन दिए भय के और उनमें आदमी बंद है।
जो आदमी उनमें बंद है, वह आत्मघाती है, वह अपना दुश्मन है, वह अपनी आत्मा को अपने हाथ से खो रहा है। जो उनसे मुक्त होता है उसी को आत्मा की गरिमा और गौरव उपलब्ध होता है। वही ठीक अर्थों में मनुष्य बनता है।
वह कैसे मनुष्य बन सकता है, उसकी कुछ और चर्चा आने वाले दो दिनों में मैं आपसे करूंगा।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें