बहुरि ने ऐसा दांव—(प्रश्नोतर) –ओशो
दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक
आशो आश्रम पूना।
आओ, बैठो--शून्य की नाव
में-(प्रवचन-नौवां)
पहला प्रश्न: भगवान,
आपके विचार मेरे विचारों से मिलते हैं। क्या मैं
आपके किसी काम आ सकता हूं?
रामदास गुलाटी,
यह तो भूल से ही भूल हो गई। अगर मेरे विचार तुम्हारे विचारों से मिलते
हैं तो मुझे पूछना चाहिए कि क्या तुम्हारे किसी काम आ सकता हूं। तुम्हारे पास तो
पहले से ही बोध है। तुम्हें तो शिष्यों की तलाश है, गुरु की नहीं। और
तुम्हारे पास अगर विचार हैं ही, तो उन्हें क्या मिलाते फिर
रहे हो?
लेकिन यही स्थिति बहुत लोगों की है, कहें या न कहें।
तुमने बात सीधी-सीधी कह दी है। चंडीगढ़ से हो, पंजाबी हो।
तुम्हें बात कहनी न आई। नहीं, लोगों को मतलब यही होता है जो
तुम कह रहे हो, लेकिन कहते वे जरा और ढंग से हैं, जरा छिपा कर कहते हैं। तुमने नग्न सत्य कह दिया।
लोगों को सत्य से कोई संबंध नहीं है; उनके विचारों से जो
विचार मिलते हों, वे उन्हें सत्य मालूम होते हैं। जैसे कि
उनके विचार सत्य हैं, इसमें तो संदेह का कोई सवाल ही नहीं!
सत्य तो उन्होंने पाया ही हुआ है! पक्षपात, संस्कार, दूसरों से सुनी हुई बातें, उधार ज्ञान--उसी का तुम
अपने विचार कह रहे हो। तुम ही नहीं हो तो तुम्हारे विचार कैसे होंगे? और कभी थोड़ा मनन किया, एक भी विचार तुम्हारा है?
खोजोगे, तलाशोगे तो पाओगे सब उधार है, उच्छिष्ट है। कोई गीता का होगा, कोई कुरान का होगा,
कोई गुरुग्रंथ साहब का होगा। कोई यहां से कोई वहां से। कहीं का ईंट
कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा! और इस कुनबे को तुम
कहते हो--मेरे विचार!
विचार तो कभी मौलिक नहीं होते, हो ही नहीं सकते।
मौलिकता मन का धर्म नहीं। मौलिकता तो ध्यान में होती है। ध्यान अर्थात निर्विचार।
और मुझसे अगर मेल बिठाना हो तो निर्विचार का बिठालना होता है, विचार ही नहीं। विचार का मेल कोई मेल है? आज मिले,
कल न मिले। एक मिला, दूसरा न मिले।
मेरे साथ बहुत लोग हो लेते हैं--यह सोच कर कि विचार मेल खा रहे हैं।
मगर दो कदम भी नहीं चल पाते, क्योंकि मैं किसी विचार से बंधा
हुआ नहीं हूं। इसलिए कल क्या कहूंगा, आज उसका कोई निर्णय
नहीं हो सकता। हो सकता है कल कोई एक बात कह दूं जो तुमसे मेल न खाए, बस नाता-रिश्ता टूटा, फिर हुआ तलाक। जब विचार मेल
खाए तो साथ चले, जब विचार मेल न खाए तो साथ टूट गया। सीधा
गणित है।
विचार का कोई नाता मुझसे नहीं हो सकता। मैं कोई राजनेता नहीं हूं।
राजनेता तुम्हारे विचारों को देख कर बोलता है। वह यह सोच कर बोलता है; जो तुमसे मेल खाए वही बोलता है। इस ढंग से बोलता है कि कहीं मेल न टूटे।
उसे तुम्हारा शोषण करना है। वह अनुयायी चाहता है, सेवक चाहता
है। मुझे न अनुयायी चाहिए, न सेवक चाहिए। मुझे कुछ भी नहीं
चाहिए। मेरा कोई काम बचा भी नहीं है। मेरा काम पूरा हो चुका। मैं वीतकाम हूं,
अब कोई काम बचा नहीं। निष्काम भी नहीं--वीतकाम।
ये तीन शब्द समझ लेने जैसे हैं। एक तो काम का जगत है--यह करना है वह
करना है, यह होना है वह होना है। वासनाओंत्तृष्णाओं की भीड़
होती है। काम यानी वासना, तृष्णा। कुछ है जो कम है, जिसे भरना है; यद्यपि वह कभी भरा नहीं जा सकता। मन
की कोई पेंदी नहीं होती। कितनी ही उसमें डालो मन कभी भरता नहीं। बिन पेंदी की
बाल्टी में तुम जल भरना चाहोगे तो क्या भर सकोगे? मन ऐसा ही
है। जो भी डालो, सब खो जाता है। मन उतना का उतना खाली। और
भरने में जो समय गया वह अलग हाथ से छूटा। इसलिए रोज-रोज आदमी उदास होता जाता है।
जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, वैसे-वैसे आशा टूटती है। फूल खिलते
नहीं, कलियां भी झड़ जाती हैं। फिर पत्ते भी झड़ जाते हैं।
बुढ़ापा आते-आते आदमी तो ठूंठ हो जाता है--निराशा पर, हताशा
का। फिर चाहे उस हताशा में ईश्वर स्मरण करने लगे, भजन-कीर्तन
करने लगे। वह हताशा को छिपाने का उपाय है। कहने लगे: हारे को हरिनाम! हार तो गए
हैं, अब हार को कैसे छिपाना? तो हरिनाम
की धन लगा दे। मगर हार ऐसे छिपती नहीं। मन से कोई कभी जीता नहीं। मन में तो हार ही
होनी है। और मन बिलकुल उधार है,कचरा है, कूड़ा-करकट तुमने इकट्ठा किया हुआ है।
मन से अगर तुम्हारा मेरे साथ कोई कोई तालमेल बैठा तो यह दोस्ती ज्यादा
देर न चलेगी; दो कदम भी चल जाए तो बहुत। ऐसे बहुत लोग मेरे साथ आए
और विदा हो गए। चले चार कदम--जब तक उनके विचारों से मेरे विचार मेल खाए! मगर चूंकि
मुझे उनके विचारों की कोई चिंता नहीं और उनके विचारों से मेल खाने के लिए मुझे कोई
उत्सुकता नहीं, मैं चाहता नहीं कि उनके विचार मुझसे मेल
खाएं। मैं तो चाहता हूं वे विचारों से मुक्त हो जाएं। मेल खा-खा कर क्या उन्हें
मजबूत करवाना है? मेल खाने का तो अर्थ है उन्हें बल देना,
शक्ति देना, पोषण देना, समर्थन देना।
तुम्हें यही अच्छा लगा होगा। तुम्हारे किसी विचार से मेरा विचार मेल
खा गया होगा, यह संयोग की ही बात होगी। इतने लोग यहां बैठे हैं,
किसी न किसी का विचार कभी न कभी मेल खा जाएगा। उसके अहंकार को बड़ी
तृप्ति होगी कि अहा, मैं भी क्या खोजी, क्या सत्यान्वेषी! पहले से ही जानता था, अब और बात
पक्की हो गई। जैसे जानने में भी पक्का करना बाकी रह जाता है! एक और समर्थन मिल
गया। एक और सहारा मिल गया। जैसे सत्य को भी सहारे की कोई जरूरत होती है! सहारे की
जरूरत झूठ को होती है।
इसलिए विचार तर्क मांगता है, सहारे मांगता है,
शास्त्रों के द्वारा समर्थन मांगता है। मगर विचार। सत्य कोई समर्थन
नहीं मांगता। सत्य अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है। सत्य को किसी बैसाखी की कोई
जरूरत नहीं है।
विचार का जगत काम का जगत है। जो विचार से मुझसे जुड़े, जुड़े ही नहीं।
भ्रांति हो गई। एक धोखा हो गया उन्हें।
फिर विचार, काम के ऊपर एक जगत है--निष्काम। निष्काम की स्थिति
बिलकुल विपरीत है। काम में वासना की दौड़ है। निष्काम में वासना के विपरीत जाने की
दौड़ है। लेकिन दौड़ अभी भी है, काम राग है; निष्काम--वैराग्य, उदासीनता, त्याग।
काम संसार है; निष्काम--संसार को छोड़ देना। लेकिन इन दोनों
के पार भी एक जगत है--वीतकाम। न वासना रही, न निर्वासना रही।
न तो मुझे कुछ काम पूरा करना है, न किसी काम को पूरा न हो
जाए इसका मुझे भय है। न तो मैं संसार में उत्सुक हूं न संसार में अनुत्सुक हूं। यह
जो श्वास बाहर गई, भीतर न आए, तो राजी
हूं, आए तो राजी हूं। आए तो ठीक, न आए
तो ठीक। मेरा कोई काम अधूरा नहीं है। किसी के सहयोग की, सहारे
की कोई जरूरत नहीं है।
और फूल इतना धोखा दे जाते हैं कि अब कांटों का कौन भरोसा करे! और
सहारे इतना धोखा दे जाते हैं कि अब सहारों का कौन भरोसा करे! बेसहारा होने में ही
मजा है। और सहारा ही मांगना हो तो परमात्मा का मांगना है, आदमी से क्या सहारा मांगना है! आदमी खुद ही बेसहारा है। वह बेचारा क्या
किसी को सहारा देगा?
तो मेरा तो कोई काम शेष रहा नहीं। जितने दिन हूं, मौज का, मस्ती का गीत गाता रहूंगा। आखिरी क्षण तक भी
बांसुरी बजती रहेगी। कभी शब्द में, कभी शून्य में! जिनको
पीना हो पी लें। काम-धाम की बात ही न करो। पीने की बात करो, जीने
की बात करो।
लेकिन तुम विचारों से भरे हुए होओगे। और तुम तलाश कर रहे हो कि
तुम्हारे विचारों को कोई सहारा मिल जाए। और मेरी चेष्टा यहां बिलकुल उलटी है। मैं
चाहता हूं तुम्हारे विचार समाप्त हो जाएं, क्योंकि मैंने जो भी
पाया है वह विचार से मुक्त हो कर पाया है। विचार जब शून्य हुए तब जीवन पूर्ण हुआ।
निर्विचारता अगर फले तो मुझसे जोड़ बने। दो शून्य मिल सकते हैं, दो व्यक्ति नहीं। दो व्यक्ति मिलेंगे तो खटर-पटर होगी। जैसे दो बर्तन
पास-पास रखोगे तो आवाज करेंगे। दो शून्य मिल सकते हैं। और मजा यही है कि दो शून्य
मिलते हैं तो एक ही शून्य बनता है, दो शून्य नहीं बनते। पचास
शून्य मिलें तो भी एक ही शून्य बनता है। शून्यों के इस मिलन का नाम ही संघ है,
कम्यून है।
मेरे संन्यासी जो मुझसे मिल रहे हैं, वे शून्य होकर मिल
रहे हैं। यह संन्यासियों का जो संघ है, इसमें बहुत लोग नहीं
जुड़ रहे हैं। यह यूं है, जैसे सागर में नदियां आती हैं और
लीन हो जाती है; बहुत कोई बचते नहीं, अलग-अलग
कोई बचते नहीं। गंगा अपना गंगापन छोड़ देती है, यमुना अपना
यमुनापन तोड़ देती है। सब सागर के ही स्वाद में एक हो जाते हैं, सभी नमकीन हो जाते हैं।
जुड़ना हो मेरे साथ तो शून्य में जुड़ो। मगर शून्य में जुड़ने के लिए बड़ा
साहस चाहिए। अभी तो तुम संन्यासी भी नहीं हो। क्या खाक...तुम कहते हो: आपके विचार
मेरे विचारों से मिलते हैं। अब क्या मैं तुमसे संन्यास लूं, क्या करूं? तुम ज्यादा महत्वपूर्ण मालूम होते हो,
तुम्हारे विचार ज्यादा महत्वपूर्ण मालूम होते हैं। यह मेरा सौभाग्य
कि मेरे विचार तुम्हारे विचारों से मेल खाते हैं।
जरा सोचो तो तुमने क्या पूछा है, क्या तुमने कहा है?
तुम यह भी न कह सके कि तुम्हारे विचार मुझसे मेल खाते हैं। नहीं,
मेरे विचार तुमसे मेल खाते हैं! तुम हो आधार। तुमसे मुझे मेल खाना
चाहिए। तब तुम बहुत भटकोगे, बहुत भरमोगे। तुम कुछ का कुछ समझ
रहे होओगे, क्योंकि मैं तो जो बात कर रहा हूं वह निर्विचार
की है। और तुम अपने विचारों के परदे के पीछे से छुपे सुन रहे होओगे। विचारों के
घूंघट को तुम उठाते भी न होओगे। तुम्हारी आंखों पर परदे पड़े होंगे।
नौकर जब आठ बजे आया तो मालिक ने गुस्से में कहा: मैंने तुमसे बोला था
कि छः के लिए अलार्म भर कर सोया कर, फिर इतनी देर कैसे हो
गई?
नौकर ने जवाब दिया: हुजूर, मेरे घर में सात जन
हैं, मैंने छः के लिए अलार्म भरा था; बाकी
छः तो समय पर जाग गए, मैं ही अकेला बच रहा। अब आप बताइए मेरी
क्या गलती है?
छः के लिए अलार्म भर दिया था, सो छः उठ गए। अब
सातवां कैसे उठे?
तुम कुछ का कुछ सुन रहे होओगे। तुमने जो कहा है, उससे जाहिर हो गया। तुमने नाहक अपने को उघाड़ दिया। तुम नाहक नंगे हो गए।
मम्मी की अनुपस्थिति में बारह वर्षीय फरीदा को मेहमानों के लिए चाय
बनानी पड़ी। एक मेहमान बोला: यार नसरुद्दीन तुम्हारी बेटी के हाथों बनी चाय में तो
मजा आ गया।
फरीदा ने दरवाजे की ओट से ही झांक कर कहा: चाचाजान, यदि दूध में बिल्ली ने पेशाब न की होती तो और भी ज्यादा मजा आता।
ये बच्चों जैसी बातें छोड़ो। कुछ थोड़ी प्रौढ़ता लाओ। मगर बच्चों को यह
आदत होती है। छोटा बच्चा भी बाप का हाथ पकड़ कर चलता है तो वह यही सोचता है कि बाप
मेरा हाथ पकड़ कर चल रहा है।
आठ साल का हरि अपने पिताजी के साथ दिल्ली जा रहा था। पिताजी रिजर्वेशन
के संबंध में पूछताछ करने गए तो उन्हें बहुत देर लग गई। हरि डर गया कि कहीं वे खो
तो नहीं गए। सोच-समझ कर उसने एक उपाय निकाला। पूछताछ के काउंटर पर जाकर उसने
लाउडस्पीकर पर घोषणा के लिए एक कागज लिख
कर बढ़ाया--हरि के पति भी श्री देवकृष्ण खो गए हैं। वे सफेद पतलून और नीला बुशर्ट
पहले हुए हैं। उनके माथे पर बहुत कम बाल हैं और आगे के ऊपर वाले चार दांत नदारद
हैं। जिनको मिल जाएं वे उन्हें उनके पुत्र के पास पूछताछ के काउंटर पर पहुंचा देने
की कृपा करें।
खुद नहीं खोया है, बाप खो गए हैं! खोया खुद है,
लेकिन सोच रहा है कि बाप खो गए हैं। बच्चों के समझने के अपने ढंग
होते हैं। बच्चे माफ किए जा सकते हैं। मगर
तुम तो बच्चे नहीं हो।
फिर से दृष्टि डालना, क्या तुमने पूछा है कि भगवान
आपके विचार मेरे विचारों से मिलते हैं! अभी मैं बहुत मजबूती से बचा हुआ है। और मैं
है तो मेल नहीं हो सकता। और मैं बनता ही विचारों से है।
मेरा सारा का सारा काम तुम्हारे एक-एक विचार को धीरे-धीरे खींच लेना
है,एक-एक ईंट को, ताकि धीरे-धीरे यह मन का तुम्हारा जो
मकान है, भूमिसात हो जाए, गिर जाए। फिर
जो शेष रह जाएगा, शून्य, दीवालों से
मुक्त आकाश, वही तुम हो। तत्वमसि! उससे फिर मिलन है। क्योंकि
वही मैं हूं। वही यह सारा अस्तित्व है। अभी तो तुमने बात ही गलत कर दी। अभी तो
तुमने जो नतीजा लिया वह इतना खतरनाक है कि जितने जल्दी चेत जाओ उतना अच्छा है,
अन्यथा जल्दी ही मेरे दुश्मन हो जाओगे।
मेरे दुश्मन होना बहुत आसान है, मेरे दोस्त होना बहुत
मुश्किल है। क्योंकि मेरे दोस्त होने के लिए अहंकार को गंवाना होता है। और इसलिए
तो मैं इतने दुश्मन अकारण ही पैदा कर लेता हूं। करना नहीं चाहता, मगर वे हो जाते हैं। क्योंकि वे अहंकार खोने को तैयार नहीं। वे चाहते थे
मैं उनके अहंकार में पोषण करूं, थोड़ी और सजावट दे दूं,
थोड़ा और शृंगार कर दूं, उनके अहंकार को और
थोड़े नए वस्त्र पहना दूं, उनके अहंकार को और थोड़े विजय
सिंहासन पर चढ़ा दूं, थोड़ा मोर-मुकुट बांध दूं--तो वे मुझसे
राजी होते, मेरे मित्र होते।
इधर कितने लोग मेरे साथ आए। इन बीस वर्षों की कथा जिस दिन पूरी समझी
जाएगी, हैरानी की होगी। कितने हजारों लोग मेरे साथ आए और गए।
अलग-अलग कारणों से साथ आए, मगर गए सब एक ही कारण से। मेरे
साथ जैनों का बड़ा समूह था, क्योंकि उनको लगा कि उनके विचारों
से मेरे विचार मेल खाते हैं। फिर वह समूह छंट गया। फिर उनमें से वे ही थोड़े से जैन
बच रहे, जिन्होंने इस तरह नहीं सोचा था; जो मेरे शून्य के साथ जुड़े थे, मेरे विचार के साथ
जिन्होंने कोई नाता नहीं बनाया था; जो मेरे साथ होने को अपने
विचार छोड़े थे, अपने विचारों को पोषण नहीं दिया था। थोड़े से।
अर्थात जो न होने को तैयार थे, जो अपने जैन होने तक को पोंछ
डाले को तैयार थे--वे मेरे साथ रुके, बाकी तो दुश्मन हो गए।
मेरे साथ गांधीवादियों का बड़ा हुजूम था। थोड़ी दूर साथ चले, जब तक उन्हें लगा कि मेरे विचार उनसे मेल खाते हैं। फिर जैसे ही मैंने कुछ
बातें कहीं, वे चौंके, घबड़ाए, बेचैन हुए, दुश्मन हो गए। मेरे साथ वेदांती थे। जब
तक उन्हें ऐसा लगा कि मैं वेदांत की बात कर रहा हूं, तब तक
मेरे साथ थे। जैसे ही उन्हें लगा कि यह बात तो कुछ आगे निकल गई, यह बात तो कुछ और हो गई--छोड़ भागे, दुश्मन हो गए।
बहुत तरह के लोग मेरे साथ थे। समाजवादी मेरे साथ थे, साम्यवादी मेरे साथ थे। लेकिन उनमें से कुछ थोड़े से लोग टिकते रहे वे थोड़े
से लोग एक ही कारण से टिके। जो गए, अलग-अलग कारणों से आए थे,
अलग-अलग कारणों से गए, उनके अलग-अलग विचार थे,
कभी मेल खा गया तो साथ हो लिए, कभी मेल नहीं
खाया तो दुश्मन हो गए। लेकिन जो टिके वे एक ही कारण से टिके--जो अपने को मिटाने को
राजी थे।
यह तो मिटने वालों की जमात है। यह तो पियक्कड़ों का जगत है। तुम तो
बहुत होश वाले मालूम पड़ते हो। तुम तो गणित बिठा रहे हो। तुम तो सोच रहे हो: ठीक है, यही बात तो मैं सोचता था, यही बात तो मैं सोचता था।
तो मैं बिलकुल ठीक, सोचता था। तो मैं आदमी बिलकुल ठीक हूं।
तुम किसी झंझट में पड़ोगे।
चंदूलाल अपने मित्र से कह रहा था: अरे अहमक, तुम तो दूसरी शादी के विरुद्ध थे, फिर तुमने शादी
कैसे की ली?
अहमक अहमदाबादी ने कहा: चंदूलाल, तुम समझे नहीं। मुझे
बिलकुल अपने विचारों की लड़की मिल गई, वह भी दूसरी शादी के
विरुद्ध थी!
यह विचारों का मेल खतरनाक साबित हो सकता है। तुम जरा इससे सावधान होओ।
नहीं तो जिंदगी यूं ही गंवा दोगे। विचार हैं क्या? पानी के बबूले हैं,
कि पानी पर खींची गई लकीरें हैं। अधिक लोग विचारों में ही जिंदगी
गंवा देते हैं।
जिंदगी है कि ये तूफान घिरा है कोई
सब तरफ मौत का सामान दिनों-रात सजे
जीते जाते हैं, मगर जीने का सलीका भी नहीं
हम किधर जाएं, किसे ढूंढें जो राजे-हयात कहे
और मैं तुमसे जीवन का राज कह रहा हूं, मगर तुम सुनो तब न?
तुम तो पहले से ही पंडित हो, ज्ञानी हो। पंडित
और पंजाबी--बड़ी मुश्किल में पड़े हो!
जिंदगी है कि ये तूफान घिरा है कोई
सब तरफ मौत का सामान दिनों-रात सजे
जीते जाते हैं, मगर जीने का सलीका भी नहीं
हम किधर जाएं, किसे ढूंढें जो राजे-हयात कहे
और मैं तुमसे जीवन का राज कह रहा हूं, मगर तुम सुनो तब न?
तुम तो पहले से ही पंडित हो, ज्ञानी हो। पंडित
और पंजाबी--बड़ी मुश्किल में पड़े हो!
जिंदगी है कि ये तूफान घिरा है कोई
सब तरफ मौत का सामान दिनों-रात सजे
जीते जाते हैं, मगर जीने का सलीका भी नहीं
हम किधर जाएं, किसे ढूंढें जो राजे-हयात कहे
दम घुटा जाता है बदबू में बीती यादों की
इस सड़न से भरे कमरे में क्यू बयार चले
आंख खुलती नहीं ख्वाबों के धुओं के मारे
हाथ को हाथ नहीं सूझे क्या आफताब करे
दिन के हंगामों में तो वक्त गुजर जाता है
दिन का सूनापन खटकता है जरा रात गए
यूं तो सुन रखे हैं वाइज से पयम्बर के जवाब
हम ही बेअक्ल हैं जो न एक सवालात मिटे
सारी तरकीबें ताली में हिदायतें नाकाम
खुद को कैसे भला यह लफ्जों की बकवास छले
उलझनें बढ़ती चली जाती है हर रोज इधर
किसको फुरसत है जो कभी खुद पे खयालात करे
जिंदगी मुश्किल यहां मौत बहुत सस्ती है
बिन खरीदे ही लगा लेती अकस्मात गले
गम के बोझों से कमर झुकती चली जाती है
सांस टूटेगी लगता है इसी पहाड़ तले
जिंदगी है कि ये तूफान घिरा है कोई
सब तरफ मौत का सामान दिनों-रात सजे
जीते जाते हैं मगर जीने का सलीका भी नहीं
हम किधर जाएं किसे ढूंढें जो राजे-हयात कहे
संयोग तुम्हें एक ऐसी जगह ले आया है, जहां जीवन का राज समझ
सकते हो। मगर उस राज के समझने की शर्त तो पूरी करनी होगी। शर्त एक ही है--छोटी कहो,
बड़ी कहो--शर्त एक ही है: निर्विचार हो कर सुनो।
मैं तुम्हें विचार नहीं दे रहा हूं। मैं कोई विचारक नहीं हूं। मैं कोई
दार्शनिक नहीं हूं। मैं कोई जीवन का फलसफा निवेदन नहीं कर रहा हूं। मैं तो तुम्हें
मन से मुक्त होने की कीमिया दे रहा हूं। और एक तुम हो कि तुम कुछ का कुछ समझे चले
जा रहे हो।
अहमक अहमदाबादी चंदूलाल से बोले: भई, तुम्हारे घर की
मक्खियां बहुत तंग कर रही हैं। बार-बार उड़ाता हूं, फिर भी
मेरी नाक के ऊपर आ कर बैठ जाती हैं।
चंदूलाल ने कहा: मैं भी इनकी आदत से बहुत परेशान हूं। जो भी गंदी
चीजें देखती हैं उन्हीं पर बैठ जाती हैं।
विचार भी मक्खियों जैसे हैं। अजीब-अजीब चीजों पर बैठ जाते हैं।
भिन-भिन भिन-भिन करते रहते हैं भीतर, भिनभिनाते रहते हैं।
इनकी भिनभिनाहट में ही तो तुम विक्षिप्त हुए जा रहे हो।
रामदास गुलाटी, छूटो इस भिनभिनाहट से। छूटो इन मक्खियों से। जागो,
बहुत सो लिए इन सपनों में। अब जरा शून्य की यात्रा करें। आओ,
बैठो--शून्य की नाव में! तब होगा मिलन। तब होगा महामिलन। और ऐसा मिलन,
जो फिर कभी टूटता नहीं।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
क्या आप राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, जीसस और मुहम्मद की कोटि के व्यक्ति हैं? कृपया मेरे
संशय दूर करें।
कैलाश कोठारी,
राम राम हैं, कृष्ण कृष्ण, बुद्ध बुद्ध,
मैं मैं हूं। न तो वे मेरी कोटि के व्यक्ति हैं, न मैं उनकी कोटि का व्यक्ति हूं। इस दुनिया में दो व्यक्ति एक जैसे होते
ही नहीं, कोटियां तो होंगी कैसे? तुम
वस्तुओं की बातें कर रहे हो या आदमियों की? और ये तो फिर
आदमियों में भी आदमी हैं! ये तो फूलों में भी फूल हैं! इनकी कोई कोटियां होती हैं?
राम जैसा कोई दूसरा व्यक्ति हुआ?
क्या तुम सोचते हो राम और कृष्ण एक ही कोटि के व्यक्ति हैं? कोई तालमेल दिखता है तुम्हें राम और कृष्ण में? राम
हैं मर्यादा-पुरुषोत्तम, फूंक-फूंक कर कदम रखते हैं।
आज्ञाकारी हैं। नितांत आज्ञाकारी। परंपरावादी हैं, रूढ़िग्रस्त
हैं। सठियाये बाप ने चौदह साल जंगल भेज दिया, तो भी चले गए।
यह भी न कहा कि क्यों, किसलिए, क्या
कारण है! और बाप निश्चित सठियाया हुआ था। बूढ़े आदमी जब भी कभी जवान लड़कियों से
शादी कर लेते हैं तो झंझटें खड़ी होती हैं यह राम के पिता ने एक जवान लड़की से शादी
कर ली थी; अब वह जवान लड़की जो भी मनवाती मानना पड़ता था। यूं
तो हर पति को मानना पड़ता है, लेकिन जितना बूढ़ा हो उतना
ज्यादा मानना पड़ता है। इसने एक बिलकुल बेहूदी असंगत अन्यायपूर्ण बात मनवा ली कि
चौदह साल के लिए राम को वनवास दे दो। और दशरथ यह भी न कह सके कि इसकी तुक क्या है!
खैर दशरथ न कह सके, ठीक थी। मगर राम! राम में बगावत तो है ही
नहीं। राम तो बिलकुल जी-हुजूर हैं! क्रांति तो है ही नहीं। क्रांति की चिनगारी तो
है ही नहीं। एकदम आज्ञाकारी हैं। बिलकुल गोबर-गणेश हैं!
अगर मैं राम की कोटि का होऊं भी तो इनकार कर दूं। उनके साथ में नहीं
बैठ सकता। मेरी उनसे न बनेगी। मेरे पिता अगर मुझसे कहते कि चौदह साल जंगल चले जाओ, चौदह साल की तो बात दूर, चौदह मिनिट के लिए भी कहते
तो मामला आसान नहीं था। मैं तो वही करूंगा जो मुझे ठीक लगता है मैं तो इंच भर अपने
अनुभव, अपने बोध से अन्यथा नहीं कर सकता हूं, चाहे लाख कोई कहे, पिता कहें, सारी
परंपरा कहे, शास्त्र कहें, पंडित-पुरोहित
कहें।
राम पंडित-पुरोहितों को खूब जंचे। इसलिए राम की कोई हैसियत भगवान की
नहीं है, लेकिन पंडित पुरोहितों ने राम को भगवान का पर्यायवाची
कर दिया। राम शब्द भगवान का पर्यायवाची हो गया। कृष्ण शब्द भगवान का पर्यायवाची
नहीं हुआ, खयाल रखना। बुद्ध शब्द भगवान का पर्यायवाची नहीं
हुआ। इस देश में कोई दूसरा नाम भगवान का पर्यायवाची हो गया। राम कहा यानी भगवान
कहा। राम को जपो यानी भगवान को जपो। राम यानी अल्लाह। राम यानी खुदा।
क्यों पंडित-पुरोहितों ने राम के नाम को इतना ऊपर चढ़ा दिया? कारण है, क्योंकि अतीतवादी हैं राम। बाप की ही नहीं
मानी, बाप की मानना तो केवल प्रतीक है। बाप की मानना
मतलब--बीते की मानना, व्यतीत की मानना, जो जा चुका उसकी मानना, जो मर चुका उसकी मानना,
जो सड़ चुका उसकी मानना। अतीत को मानने का नाम...वह तो प्रतीक है बाप
को मानना! बाप यानी अतीत। और जो अतीत को मानता है वह पंडित को भी मानेगा, पुरोहित को भी मानेगा।
कैसी-कैसी मूढ़तापूर्ण बातें राम ने मान लीं! पंडितों ने कह दिया कि इस
शूद्र के कानों में सीसा पिघला कर डाल दो, क्योंकि मनु-स्मृति
कहती है कि कोई शूद्र अगर वेद सुन ले तो उसके कानों में सीसा पिघला कर डाल देना
चाहिए। राम ने डाल दिया। मैं यह न कर सकूंगा। सीसा तो दूर पिछलाया हुआ, किसी शूद्र के कानों में पानी भी नहीं डाल सकूंगा। मैं कैसे राम की कोटि
में हो सकता हूं? मैं परंपरा-मुक्त, मैं
परंपरा-विद्रोही। राम से मेरा क्या लेना-देना हो सकता है? राम
को तो मैं भगवान भी मानने को राजी नहीं हूं।
यह देश जिस दिन राम से मुक्त हो जाएगा उस दिन देश में क्रांति होगी, उसके पहले क्रांति नहीं हो सकती। क्योंकि राम की आड़ में पंडित छिपे हैं,
पुरोहित छिपे हैं, इस देश के सारे न्यस्त
स्वार्थ छिपे हैं। वे सब बच्चों को बचपन से सिखाना शुरू कर देते हैं कि राम जैसे
बनो, देखो क्या मर्यादा, क्या पिता की
आज्ञा! मैं इन बातों का कोई मूल्य नहीं मानता। आज्ञाकारिता का जो इतना गुणगान किया
जाता है, वह कौन करता है गुणगान? वह वे
ही लोग गुणगान करते हैं आज्ञाकारिता का, जो समाज में कोई
रूपांतरण नहीं देखना चाहते।
मैं बगावती हूं। मैं इस जिंदगी को बदला हुआ देखना चाहता हूं। आदमी दुख
में बहुत जी लिया, नर्क में बहुत जी लिया। यह पृथ्वी स्वर्ग बन सकती है।
तो राम की कोटि का तो मैं नहीं हूं। कृष्ण की कोटि का भी मैं नहीं हूं, क्योंकि कृष्ण मैं सब तरह की राजनीति है। मेरे जीवन में राजनीति से कोई
लेना-देना नहीं है। कृष्ण धोखाधड़ी करने में भी कोई संकोच नहीं करते। कृष्ण
अवसरवादी हैं, जैसे मौका देखे वैसा करने को राजी हो जाते
हैं। उनके जीवन में और मेरे जीवन में क्या तालमेल हो सकता है? कृष्ण तो युद्ध को छोड़कर भाग गए। इसलिए तो उनका एक नाम बन गया--रणछोड़दास
जी। हम होशियार हैं अच्छे नाम देने में।
भगोड़ा न कहा, रणछोड़दास जी कहा। और कृष्ण तो बेईमान भी साबित हुए।
वचन दिया था कि शस्त्र नहीं उठाऊंगा युद्ध में और शस्त्र उठा लिया, वचन भंग कर दिया। वचन वगैरह की कोई कीमत नहीं है, कोई
मूल्य नहीं है जैसे राजनेता बदल जाते हैं, अभी कुछ कभी कुछ।
क्या कहते हैं क्या करते हैं, कुछ हिसाब नहीं। कृष्ण न मालूम
किन-किन की स्त्रियां चुरा लाए, सोलह हजार स्त्रियां इकट्ठी
कर लीं! इस तरह की बातों में मुझे कोई रस नहीं है।
कृष्ण की गीता से भी मैं पूरी तरह राजी नहीं हूं, क्योंकि वह मूलतः हिंसा का संदेश है--प्रेम का नहीं शांति का नहीं। और
कृष्ण की गीता असंगतियों से भरी है, विरोधाभासों से भरी है।
क्योंकि चेष्टा है कि उस समय तक जो भी धर्म की धारणाएं थीं, सबको
किसी तरह समाहित कर लिया जाए। राजनेता हमेशा यह हरकत करते हैं। गांधी भी यही हरकत
में लगे हुए थे। इसलिए वे गीता को माता कहते थे। कहेंगे ही गीता-माता, क्योंकि वही गोरखधंधा वे भी कर रहे थे--अल्लाह ईश्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान। न अल्लाह से मतलब है, न ईश्वर
से मतलब है। न सबको सन्मति मिले, इससे मतलब है। मतलब है कुछ
और है। मतलब यह है कि यह हिंदुस्तान बंट न जाए।
राजनेता हमेशा बड़ा दे चाहता है, छोटे देश से घबड़ाता
है। जितना छोटा देश उतनी छोटी उसकी राजनीति। उतनी सीमित उसकी राजनीति।
गांधी राम के भी बड़े भक्त थे। अंतिम समय भी जब गोली लग तो उनके मुंह
से हे राम निकला। और यूं हरिजनों की बात करते थे। मगर गांधी ही हरिजनों को हिंदुओं
के घेरे में रोकने का कारण बने। हरिजनों को कभी का हिंदुओं से मुक्त हो जाना
चाहिए। क्या रहना ऐसे लोगों के साथ, जिन्होंने सिवाय
तुम्हें सताया और कुछ भी न किया? पांच हजार साल जो तुम्हारी
छाती पर मूंग दले, उन दुष्टों के साथ क्या रहना? अलग हो जाओ, हट जाओ! लेकिन गांधी ने हर तरह की कोशिश
करके हरिजनों को अच्छा नाम दे दिया--हरिजन। अछूत, शूद्र
भद्दे लगते हैं, अच्छा नाम दे दिया। रहे आओ। सब तरह
समझा-बुझा कर उनको रखने की कोशिश की। उन्हीं मंदिरों में प्रवेश करवाने की गांधी
कोशिश करते रहे, जिन मंदिरों ने हरिजनों की जिंदगी को दूभर
कर दिया है।
मुझसे कोई कहे कि हरिजनों को मंदिर प्रवेश मिलना चाहिए, मैं तो कहूंगा कि हरिजनों को अगर ब्राह्मण पैर भी पड़ें और कहें हमारे
मंदिर आओ तो नहीं जाना चाहिए। ये मंदिर प्रतीक हैं गुलामी के। ये इन्हीं हरिजनों
को सताने के प्रतीक हैं। ये इन्हीं के खून के गारे से बने हैं। इन मंदिरों में कदम
नहीं रखना चाहिए, थूकने भी नहीं जाना चाहिए लेकिन गांधी जी
की पूरी जीवन चेष्टा यही रही। उनके भक्त विनोबा की भी यही चेष्टा है कि हरिजनों को
प्रवेश होना चाहिए मंदिर में। किसका मंदिर है यिह? मतलब
हिंदू के घेरे के बाहर हरिजन न चला जाए, नहीं तो और ताकत कम
हो जाएगी, और राजनीति टूट जाएगी। हरिजन को भी रोक लो;
पाकिस्तान भी न बने, यह भी रोक लो। इसलिए
अच्छी-अच्छी बातें करो--धर्म की, भजन-कीर्तन करो।
कृष्ण और मेरी कोटि में क्या लेना-देना? बुद्ध को हुए ढाई
हजार वर्ष हो गए। ढाई हजार वर्ष में तुम सोचते हो आदमी वहीं का वहीं है? मैं बुद्ध के ढाई हजार साल बाद आया हूं। ढाई हजार साल में आदमी ने बहुत
विकास किया है। बहुत! बुद्ध तो डरते थे स्त्रियों को संन्यास देने में और मैंने
स्त्रियों के हाथ में पूरा का पूरा संघ समर्पित कर दिया है। बुद्ध तो वर्षों तक
इनकार करते रहे कि स्त्रियों को संन्यास नहीं दूंगा, क्योंकि
उनको भय था: अगर स्त्रियां संघ में सम्मिलित हुई तो मेरा धर्म नष्ट हो जाएगा। यह
भी क्या धर्म हुआ, जो स्त्रियों के सम्मिलित होने से नष्ट हो
जाता हो? बड़ा कमजोर धर्म हुआ, जिसको
स्त्रियां नष्ट कर दें। लगता है बुद्ध अभी भी यशोधरा से डरे हुए हैं, अभी भी। कहते हैं न कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीने लगता है! पता
नहीं यशोधरा ने कितना सताया होगा, कि ऐसी घबड़ाहट छा गई कि
बुद्धत्व आ गया, ज्ञान को उपलब्ध हो गए मगर वह यशोधरा का डर
जो समाया है वह नहीं निकलता। स्त्रियों को इनकार करते थे, नहीं
सम्मिलित करेंगे। और कहा भी, जब सम्मिलित किया...मजबूरी में
किया। क्योंकि बुद्ध की मां मर गई थीं जन्म देने के बाद ही। तो सौतेली मां ने
बुद्ध को बड़ा किया। सौतेली मां जब संन्यास लेने आई तो बुद्ध इनकार न सके। जिसने
बड़ा किया, पाला-पोसा और बहुत प्रेम दिया, जितना सगी मां भी न दे सकती उतना प्रेम दिया--कैसे उसे इनकार करें?
इनकार न कर सके, उसे स्वीकार करना पड़ा। और जब
मां को स्वीकार कर लिया तो फिर स्वभावतः और भी स्त्रियों के लिए द्वार खुल गया तो
बुद्ध ने जिस दिन मां को दीक्षा दी उस दिन यह घोषणा की कि मेरा धर्म पांच हजार
वर्ष टिकता, अब केवल पांच सौ वर्ष टिकेगा। क्योंकि स्त्रियां
सम्मिलित हो गईं, अब सब भ्रष्ट हो जाएगा।
मुझे तुम कैसे बुद्ध की कोटि में रख सकते हो? बुद्ध अपने भिक्षुओं को कहते थे--जब वे यात्रा पर जाते--कि देखो रास्ते
में कोई स्त्री मिल जाए तो देखना मत। मेरा कहीं तालमेल बैठ सकता है? मैं तो कहूंगा: रास्ते में कोई स्त्री लिए जाए तो जी भर कर देख लेना,
कि फिर लौट-लौट कर न देखना पड़े। थोड़ी दूर लौट कर भी उसके साथ चलना
पड़े तो चल पड़ना। थोड़ी दूर चलकर साथ-साथ देख ही लेना, ठीक से
ही देख लेना, ताकि सपने में न आए, ताकि
पीछे सताए न।
बुद्ध कहते थे, स्त्रियों को देखना ही मत बुद्ध अपने भिक्षुओं को
कहते थे कि चार फीट से ज्यादा देखना ही मत आगे, चार फीट जमीन
पर नजर रखना। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। जब चार फीट देख कर चलोगे तो क्या खाक
स्त्री को देखोगे! स्त्री दिखाई ही नहीं पड़ेगी।
आनंद बुद्ध से प्रश्न पूछा करता था। आनंद की बड़ी कृपा है मनुष्य जाति
पर, क्योंकि उसने ऐसे प्रश्न पूछे जो शायद अगर न पूछे होते तो हमें पता भी न
होता कि बुद्ध के उत्तर क्या होते। आनंद ने पूछा कि भगवान, यह
भी हो सकता है कभी, देखना पड़े। कोई ऐसी स्थिति हो सकती है कि
देखना पड़े।
सच तो यह है कि मैं यह पूछूंगा कि जब तक तुम देखोगे नहीं कि वह स्त्री
है कि पुरुष, तब तक स्त्री को नहीं देखना यह तय कैसे करोगे?
पहले तो देखना ही पड़ेगा कि भई कौन है, स्त्री
है कि पुरुष, स्त्री है तो नहीं देखना। मगर वह तो देखना हो
ही गया। अब चाहे आंखें मिचो, चाहे जोर से भींच लो, कस कर भींच लो, पट्टी बांध लो; मगर क्या, अब देख तो चुके ही। या तो यह कहो कि किसी
को देखना ही मत, स्त्री हो कि पुरुष, गया
हो कि घोड़ा, हाथी हो कि ऊंट, देखना ही
मत--तो ठीक। जब तुम कहते हो स्त्री को मत देखना, तो इसका
मतलब, भेद तय करना पड़ेगा--घोड़ा जा रहा है, खच्चर जा रहा है, हाथी जा रहा है, आदमी जा रहा है कि स्त्री जा रही है, कौन जा रहा है?
एक दफा तो देखना ही पड़ेगा। फिर चाहे आंखें नीची कर लेना, फिर चाहे आंखें बंद कर लेना, चाहे फोड़ ही लेना।
तो मैं तो यह मानता हूं, जब तक तुम स्त्री को
देखोगे नहीं तब तक नहीं देखने का सवाल ही नहीं उठता। और जब देख ही लिया तो अब क्या
खाक नहीं देखना! अरे अब देख ही लो। अब जी भर कर देख लो। निपटारा ही कर लो अधूरा
अधूरा देखोगे तो यह स्त्री की छवि छलकती रह जाएगी। और मनुष्य की कल्पना स्त्री को
जितना सुंदर कर लेती है उतना यथार्थ में कोई स्त्री सुंदर नहीं होती, न कोई पुरुष इतना सुंदर होता है। कल्पना। कल्पना खूब रंग भर देती है
इंद्रधनुष बना देती है जहां कुछ भी नहीं। फूल खिला देती है जहां राख भी नहीं। तारे
सजा देती है जहां अंधकार भी नहीं। रात को दिन बना देती है। मिट्टी को सोना कर देती
है। कल्पना जादू है।
लेकिन आनंद ने पूछा कि अगर किसी स्थिति में देखना ही पड़े, फिर क्या करना? तो बुद्ध ने कहा: फिर छूना मत। अगर
देख भी लो, भूल-चूक से देखना भी पड़े तो आंख बचा कर निकल
जाना। मगर छूना मत।
एक तरफ तो कहते हो कि शरीर हड्डी मांस मज्जा, अरे इसमें रखा क्या है! और दूसरी तरफ कहते हो--छूना मत! हड्डी मांस मज्जा
को छूना मत! एक तरफ तो कहते हो शरीर तो मिट्टी का पुतला और दूसरी तरफ कहते हो छूना
मत। दोनों बातों में विरोध है। अगर शरीर मिट्टी का पुतला है तो छुओ बराबर है।
मिट्टी को तो छूते हो रोज। मिट्टी से तो बच कर नहीं चलते।
बुद्ध ने तो अपने भिक्षुओं को कहा: जूते मत पहनना। अगर यह बात सच थी
कि मिट्टी को छूने में खतरा है तो बुद्ध के भिक्षु को तो जूता निकालना ही नहीं
चाहिए, चाहे रात सोए, चाहे कुछ भी करे,
भोजन करे, जूता तो डाले ही रहना चाहिए।
क्योंकि कहीं मिट्टी छू जाए! मिट्टी ही अगर स्त्री का आधार है, देह का आधार है, तो फिर तो मिट्टी को भी छूने में घबराहट
होनी चाहिए।
मगर नहीं, यह सब बात कहने की है। यह सिर्फ निंदा के लिए कि
मिट्टी है। यह सिर्फ घबड़ाने के लिए है। यह वीभत्सता प्रगट करने के लिए कि स्त्री
में क्या है--हड्डी, मांस मज्जा, मवाद!
अरे क्या इसको छू रहे हो! शर्म नहीं आती?
और तुममें क्या है? तुम्हारे शरीर में क्या है?
स्त्री के ही शरीर से तुम्हारा शरीर बना है। तुम्हारे शरीर में भी
वही हड्डी मांस मज्जा है। और हड्डी मांस मज्जा हड्डी मांस मज्जा से निकली है।
हड्डी मांस मज्जा हड्डी मांस मज्जा ही है, इसमें इतना क्या
परेशान होना?
बुद्ध ने कहा: छूना मत। लेकिन आनंद भी एक था! उसने कहा: कोई ऐसी
स्थिति भी हो सकती है कि छूना पड़े। समझो कि कोई स्त्री गिर गई और उसको उठाना पड़े; न हो स्त्री, कोई भिक्षुणी गङ्ढे में गिर जाए तो उसको निकालना पड़े तो छूना कि नहीं?
बुद्ध ने कहा: छूना पड़े छू लेना मगर बोलना मत। देख रहे हो क्या शतरंज
की चालें चली जा रही हैं! इधर आनंद भी चाल चला जा रहा है, उधर बुद्ध भी चाल चलते हैं कि फिर बोलना ही मत। और आनंद ने कहा: भई कोई
ऐसी हालत भी हो सकती है कि बोलना भी पड़े, कि पूछना पड़े कि
बाई कैसे गिर गई, कि टांग तो नहीं टूट गई, कि अस्पताल पहुंचा दूं, कि तेरा घर कहां है, कि क्या करूं क्या न करूं? चल लेगी कि कंधे पर उठा
कर ले चलूं। कुछ पूछना पड़े और बिलकुल बिना एकदम उठा कर भाग खड़े होओ, वह भी नहीं जंचेगा। और दूसरे लोग पकड़ लें तुमको कि क्या मामला है, तुम्हीं ने तो नहीं गिराया था इस स्त्री को? इसकी
हड्डी टूट गई, तुम भाग खड़े हुए! बोले तक नहीं! यह भी न पूछा
कि बाई, चोट कहां लगी! सज्जनता भी कोई चीज है, शिष्टाचार भी।
तो आनंद ने कहा कि अगर कुछ पूछना भी पड़े तो? तो बुद्ध ने आखिरी चाल चली। उन्होंने कहा: फिर तुम्हें जो करना हो करना,
एक बात खयाल रखना कि ध्यान रखना, जागरूक रहना।
होश न खो देना।
मुझे तुम बुद्ध की कोटि में कहां रखोगे? मैं भी कहता हूं: होश
रखना। अरे जब होश ही रखना है तो जी भर कर छूना! जब होश ही है तो फिर क्या डर! फिर
बोलो भी, बतियाओ भी, गपशप भी करो,
छुओ भी, नाचो भी, गाओ भी
! जब होश भी है...। यह तो होश न हो उनके लिए ये बातें ठीक थीं, बुद्ध ने जो कहीं। और जिनमें होश नहीं है वे अगर न भी देखेंगे तो क्या
होगा? बच कर भी निकल जाएंगे तो क्या होगा?
मैं तो कहता हूं: होश पर्याप्त है। और होश को साधने के लिए यह सम्यक
अवसर है। होश को साधोगे कहां? उसके लिए चुनौती कहां है?
जहां चुनौती है वहीं साधने की सुविधा है।
मैं बुद्ध से पच्चीस सौ साल बाद हूं, उसी कोटि में कैसे हो
सकता हूं? कोई उपाय नहीं।
और तुम कहते हो--महावीर! महावीर से मेरा क्या तालमेल बिठाओगे? असंभव है तालमेल बिठालना। महावीर मानते हैं शरीर को दमन करने में, सताने में, गलाने में। मैं शरीर का दुश्मन नहीं। मैं
तो शरीर को मंदिर मानता हूं। मैं तो कहता हूं शरीर को प्रेम करो: शरीर परमात्मा की
देन है किसी पाप का फल नहीं। शरीर को स्वस्थ रखो, सुंदर रखो,
सजाओ। महावीर तो शरीर के बड़े दुश्मन हैं। वे तो कहते हैं: भूखे मरो,
अनशन करो, उपवास करो। मैं तो सम्यक आहार
पर भरोसा करता हूं। न ज्यादा खाओ न कम।
दोनों दुश्मनी हैं। ज्यादा खाओ तो शरीर के साथ दुश्मनी है, कम
खाओ तो शरीर के साथ दुश्मनी है। उतना खाओ जितना शरीर को जरूरत है न कम न ज्यादा।
उतने सोओ जितना शरीर को जरूरत है।
महावीर तो तपस्वी हैं। मैं तो तपश्चर्या के पक्ष में नहीं। मैं तो
तपश्चर्या को एक तरफ की हिंसा मानता हूं। कुछ लोग दूसरों को सताते हैं, कुछ लोग खुद को ही सताते हैं। दुनिया में दो तरह के सताने वाले लोग हैं।
जो दूसरों को सताते हैं वे कम से कम बेहतर हैं उनसे जो खुद को सताते हैं, क्योंकि दूसरे को सताओगे तो दूसरे को कम से कम आत्मरक्षा का उपाय तो है।
तुम तलवार चलाओ तो वह ढाल तो उठा सकता है, भाग तो सकता है।
वह भी तो तलवार निकाल सकता है। मगर खुद को सताओगे तो, तो कोई
आत्मरक्षा का उपाय ही न बचेगा। जब तुम ही सताने वाले हो, जब
रक्षक ही भक्षक हो गया, तो फिर तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।
महावीर तो बाल लोंचते हैं। मैं तो बाल लोंचने को पागलपन का लक्षण
मानता हूं। अक्सर स्त्रियों जब गुस्से में आ जाती हैं तो बाल लोंचती हैं। तुम भी
जब बहुत गुस्से में होते हो ऐसा मन होता है कि लोंच-लांच कर रख दो। यह तो क्रोध
में विक्षिप्तता में...। लेकिन महावीर बाल लोंचते हैं। क्यों? क्योंकि उस्तरा तो एक वैज्ञानिक साधन हो गया। हद हो गई--उस्तरा और
वैज्ञानिक साधन! तो खुद अपने घर में ही लोहे को घिस-घिसा कर उस्तरा बना लो,
और क्या करोगे? मगर लोंचना बालों को! मगर वह
महावीर की तपश्चर्या का अंग है। नंगे रहना धूप में, सर्दी
में...! मुझे तुम कैसे महावीर की कोटि में रखोगे? और महावीर
तो कहते हैं: संसार दुख है, आवागमन से .छुटकारा पाना है। और
मैं कहता हूं: संसार आनंद है और प्रभु की अनुकंपा है कि तुम्हें उसने संसार की
भेंट दी। इसी संसार में ही संन्यास के फूल को खिलाना है। महावीर तो संसार को छोड़ने
के पक्षपाती हैं। मैं संसार को जीने का पक्षपाती हूं--उसकी समग्रता में, उत्सवपूर्वक, अनुग्रह से। मुझे तुम कैसे महावीर की
कोटि में रखोगे?
जीसस तो कहते हैं: मैं ईश्वर का बेटा हूं। मेरे लिए तो ईश्वर जैसा कोई
व्यक्ति ही नहीं है, इसलिए उसका कोई बेटा होने का सवाल उठता नहीं है। बाप
ही नहीं है तो बेटा कोई कैसे होगा? मेरे लिए ईश्वर कोई
व्यक्ति नहीं है, भगवान कोई व्यक्ति नहीं है--भगवत्ता है। यह
सारा जगत भगवत्ता से आपूर है। और सब इसके बेटे हैं। जीसस तो कहते हैं: मैं प्रभु
का इकलौता बेटा हूं। यह भी खूब हो गई बात!
इकलौते, फिर क्या हुआ? फिर माता
जी मर गई, कि पिताजी मर गए, कि तलाक हो
गया, कि संतति-नियमन के उपाय करने लगे, फिर हुआ क्या? और अनंतकाल में एक बेटा पैदा किया--और
ये सर्वशक्तिमान ईश्वर! इनको तो कोई भी भारतीय मात दे दे। इनके तो भारतीय ज्यादा
शक्तिशाली दिखाई पड़ते हैं। चाहे हड्डी निकल रही हों, मगर दस
बाहर बच्चे तो खड़े कर ही देंगे। एक दर्जन से कम कोई भारतीय खड़ा करे तो कोई भारतीय
है? कोई आश्चर्य नहीं कि देवता भारत में पैदा होने को तरसते
हैं! और कहीं पैदा ही उनको कौन होने देगा? यहीं पैदा हो सकते
हैं, क्योंकि यहां तो कोई हिसाब ही नहीं, कोई रुकावट ही नहीं। और ईश्वर तो एक बेटा पैदा कर चुका सो खतम। और मामला
तो बड़ा खराब है, कम से कम ईश्वर ने तो एक बेटा पैदा किया और
जीसस, उनने एक भी पैदा नहीं किया। बूढ़ा वंश कबीर का उपजा पूत
कमाल! ये तो कमाल बेटा पैदा हो गए! अरे कम से कम एक तो पैदा कर देते! तो सिलसिला
तो जारी रहे, नहीं तो सिलसिला ही मिट जाएगा।
जीसस जो बातें करते हैं, वे ढाई हजार साल
पुराने जेरुसलम में सार्थक मालूम रही होंगी। क्योंकि यहूदी मानते थे एक ईश्वर में
व्यक्ति की तरह। और यहूदी मानते थे कि ईश्वर को बेटा आएगा।
जीसस मांसाहारी थे, मैं मांसाहारी नहीं हूं। जीसस शराबी थे, मैं शराबी
नहीं हूं। मुझे तुम जीसस की कोटि में कैसे रखोगे, किस हिसाब
से रखोगे? मुझे जीसस की कोटि में रखने का कोई उपाय नहीं।
जीसस अपनी कोटि हैं।
मुहम्मद जिंदगी भर तलवार लेकर लड़ते रहे। उनकी जिंदगी तो लड़ने में ही
गई । संघर्ष, झगड़ा, जेहाद, धर्म-युद्ध। तलवार से लड़ने को मैं कोई बड़ी कला नहीं मानता। यह बहुत नीचे
तल की लड़ाई है। अरे जब विचारों से लड़ा जा सकता हो और विचारों की तलवारों पर धार
रखी जा सकती हो, तो क्या तलवार हाथ में लेना? तलवार हाथ में लेना तो कमजोरी का लक्षण है। जब हम विचार से लड़ सकते हो,
जब हम विचार से ही जीत सकते हों, तो क्यों
तलवार हाथ में लेना? तलवार तो वह हाथ में लेता है जो पाता है
कि अब विचार से मैं जीत सकता नहीं, तो अब उठा लो तलवार। कुछ
लोगों के लिए एक ही तर्क मालूम है--तलवार। वे कोई दूसरा तर्क नहीं जानते।
और मुहम्मद की वह आदत मुसलमानों में छूट गई, वह अभी भी गई नहीं। वही एक तर्क मानते हैं--तलवार। और जो जीत जाए तलवार
से। उसका विचार सत्य था। यह भी खूब मजा रहा! सत्य का और तलवार से निर्णय होता है?
तो तो फिर जीसस को फांसी लग गई, इसके विचार
गलत हो गए। फिर तो सुकरात को जहर दे कर मार डाला, सुकरात के
विचार गलत हो गए। जिन्होंने जहर दिया उनके विचार सच्चे और जिन्होंने सूली लगाई
उनके विचार सच्चे।
मुहम्मद, जीसस महावीर, बुद्ध, कृष्ण, राम--सब अपने ढंग के लोग हैं। मैं किसी की कोटि में क्यों सम्मिलित होऊं? मैं किसी क्यू में
खड़े होने में उत्सुक ही नहीं हूं। मैं अपनी कोटि का व्यक्ति हूं।
कैलाश कोठारी, तुम भी क्या फिजूल के प्रश्न पूछते हो! मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि उनसे ऊपर हूं, वे मुझसे नीचे हैं या वे मुझसे
ऊपर हैं, मैं उनसे नीचे हूं। मैं तो मानता हूं इस पृथ्वी पर
कोई न ऊंचा है, न कोई नीचा है। राम और कृष्ण और बुद्ध को ही
ऊंचा नहीं नीचा नहीं, मोर और हिरण और गुलाब के फूल, इनको भी मैं अपने से ऊंचा या नीचा नहीं रखता। यह सारा अस्तित्व एक है।
इसमें कोई दूसरा है ही नहीं कि कोई ऊंचा हो सके, कोई नीचे हो
सके। इसमें अगर कोई फर्क भी है लोगों में, तो बस एक ही बात
का तर्क है। कुछ लोग सोए हैं, उनकी मर्जी उनको नहीं सोना,
जाग गए। दुनिया में बस इतना ही फर्क है कि सोए हुए लोग और जागे हुए
लोग। मगर दोनों में कोई ऊंचा-नीचा नहीं है। मैं तो अज्ञानी को भी बुद्धों से नीचा
नहीं मानता, क्योंकि दोनों का अंतर्तम तो एक ही है यह तो सब
अभिनय है, जो बाहर चल रहा है कि कोई राम बना है, कोई रावण बना है। और परदे के पीछे, जब परदा गिर जाता
है। तो राम और रावण दोनों साथ बैठ कर चाय पीते हैं, गपशप
करते हैं।
मेरे गांव में रामलीला होती थी तो मेरा खास रस रामलीला में कम था।
मेरा रस था रामलीला के पीछे, जहां अभिनेता तैयार होते हैं,
सजते हैं, परदे पर आते हैं, फिर अंदर चले जाते हैं। मैं वहां किसी न किसी तरह घुस कर पहुंच जाता था।
मुझे कई दफा रामलीला के मैनेजर कहें भी कि भई, तुम्हें यहां
क्या करना? वहां बाहर सारी दुनिया बाहर इकट्ठी है, सब लोग वहां देख रहे हैं, तुम यहां क्या देखते हो?
मैंने कहा: मुझे यहीं देखने दो, क्योंकि यहां मैं एक
से एक गजब की चीजें देखता हूं! यहां मैं सीता मैया को बीड़ी पीते देखता हूं,
जो मैंने वहां कभी देखा ही नहीं। अब यह चीज है सार की, जो वक्त पर काम आएगी। और आ रही है काम, अब भी काम आ
रही है। यहां रामचंद्र जी को और रावण को गले में हाथ डाले देखता हूं, जो वहां कभी दिखता ही नहीं। यहां मैंने हनुमान जी को रामचंद्र जी को चपत
लगाते देखा है कि ऐसी की तैसी तेरी! और रामचंद्र जी कुछ न कर पाए। बाहर ये ही
हनुमान जी पूंछ दबाए हुए और बिलकुल बैठक मार कर रामचंद्र जी के पास बैठे रहते हैं
कि जी हुजूर, जो आज्ञा, जो हुक्म! और
ऐसी चपत दी अंदर, क्योंकि वे जो हनुमान भी बनते थे वे तो
गांव के पहलवान थे, एक लफंगा थे। अब छटा हुआ कोई लफंगा ही
बने हनुमान जी और कौन बने! उनकी शक्ल-सूरत भी बंदरों से मिलती थी। और रामचंद्र जी
तो बेचारा एक छोकरा था पंद्रह-सोलह साल का, हनुमान जी तो
उसकी मिट्टी पलीद कर दें अगर जरा गड़बड़ करे। वहीं ठिकाने लगा दे कि जिंदगी भर के
लिए याद आ जाए कि अब कभी राम नहीं बनना।
पीछे जो खेल मैंने देखा वह असली था। बाहर जो खेल चल रहा था, वह नकली था।
यह सारा जगत एक बड़ा मंच है, जिस पर बहुत तरह के
अभिनय चल रहे हैं। अभिनय के पीछे एक ही सत्ता है, एक ही
परमात्मा है। वही कभी राम में धनुष लेकर खड़ी होती है, कभी
कृष्ण में बांसुरी बजाती है, कभी बुद्ध में मौन ध्यान करती
है, कभी महावीर में नग्न तपश्चर्या करती है, कभी जीसस में सूली पर लटकती है, कभी मुहम्मद में
तलवार हाथ में ले कर धर्म की रक्षा को निकल पड़ती है। मगर सब खेल, सब अभिनय।
कोटियों में बांटो तो प्रत्येक अपने में एक कोटि है।
और तुम कहते हो: कृपया मेरे संशय दूर करें।
तुम्हारे संशय मैं कैसे दूर करूं? मन से मुक्त हो जाओ,
संशय से मुक्त हो जाओगे। मन रहेगा तो संशय और उठेंगे। मन रहेगा तो
मन में ऐसे ही प्रश्न लगते हैं, संशय लगते हैं, जैसे वृक्षों में पते लगते हैं। एक में से एक बात निकलती आती है। मन तो
पूर्वाग्रहों से भरा होता है। अब तुम अगर राम के भक्त हो तो तुम्हें चोट लग जाएगी।
तुम अगर कृष्ण के भक्त हो तो चोट लग जाएगी। तुम अगर बुद्ध के भक्त हो तो चोट लग
जाएगी।
मैं तो किसी का भक्त नहीं हूं। मैं तो इन सारे लोगों में जो-जो अनूठा
है, उसको प्रेम करता हूं। लेकिन जो नहीं है अनूठा जो मुझे अनूठा नहीं लगता,
उसे मैं साफ कह देता हूं कि यह बात कुछ अनूठी नहीं है, मुझे कुछ जंचती नहीं। मैंने किसी को अपना आराध्य नहीं मान लिया है। मेरा
कोई आराध्य नहीं है--न राम, न कृष्ण न मुहम्मद, न बुद्ध, न महावीर। महावीर में जो सुंदर था, उस पर मैं बोला हूं। महावीर में जो सुंदर नहीं था, उस
पर मैं अभी नहीं बोला हूं, कभी जरूरत पड़ी तो बोलूंगा। दिन
करीब आ रहे हैं कि शायद बोलना पड़े। बुद्ध पर जो सुंदर है। उस पर मैं बोला हूं,
लेकिन बहुत कुछ जो सुंदर नहीं है, जरूरत पड़ी
तो उस पर भी तलवार की धार रखूंगा। तैयारी कर रहा हूं। अभी लोग इकट्ठे हो जाएं,
जिनको मैं चाहता हूं वे आ जाएं, जो मेरी बात
समझ सकेंगे--तो मैं दूसरा पहलू भी जरूर बोलूंगा। बिना बोले नहीं जाऊंगा। क्योंकि
यह तो एक पहलू की बात हुई कि मैंने गीता में जो सुंदर था उस पर बोल दिया, लेकिन बहुत कुछ है जो असुंदर है। और भ्रांति हो सकती है, क्योंकि तुम्हें लगे कि सभी सुंदर है। सभी सुंदर नहीं है। सभी सुंदर होता
तो गीता मेरे लिए आराध्य ग्रंथ हो जाती; मेरे लिए कोई आराध्य
ग्रंथ नहीं है। बहुमत कुछ असुंदर है, जो मैंने अभी नहीं बोला
है, क्योंकि अभी वे लोग तैयार नहीं हैं जो उसे सुन सकें। अभी
तो जो सुंदर है उसके बोलने में भी लोगों को अड़चन खड़ी होती है, क्योंकि मेरे सौंदर्य की दृष्टि भी अलग है। और जब मैं उनकी कुरूपता
उघाडूंगा तो, तो निश्चित उपद्रव होने वाला है, भारी उपद्रव होने वाला है। उस उपद्रव के पहले लोग तैयार हो जाएं। इसलिए
प्रतीक्षा कर रहा हूं। जल्दी वह घड़ी आएगी।
मैं दोनों पहलू सामने रख देना चाहता हूं। अब तक किसी ने यह काम किया
नहीं। दुश्मनों ने वह कहा जो गलत था। भक्तों ने वह कहा जो ठीक था। न मैं किसी का
दुश्मन हूं, न किसी का भक्त। मैं तो बिलकुल साक्षी हूं। मैं तो
पूरी बात कह देना चाहता हूं। तो मुहम्मद में जो प्रिय है वह भी कहूंगा और जो
अप्रिय है वह भी कहूंगा। मैं तो बात पूरी खोल कर रख देना चाहता हूं।
मैं किसी की कोटि में नहीं हूं। इससे तुम यह मत समझना कि मैं यह कह
रहा हूं कि मैं उनसे ऊपर हूं। मैं सिर्फ इतना ही कह रहा हूं कि यहां कोई किसी भी
कोटि में होता ही नहीं। तुम भी किसी की कोटि में नहीं हो। तुम तुम हो, मैं मैं हूं। और यही शुभ है कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं हो।
मगर पूर्वाग्रह तुम्हें कष्ट दे रहे होंगे। तुम्हारे प्रश्न में यह
बात छिपी है। तुम पूछते हो: क्या आप राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, जीसस और
मुहम्मद की कोटि के व्यक्ति है? तुम सोच रहे हो होओगे कि मैं
कहूंगा कि हां, मैं उनकी कोटि का व्यक्ति हूं। तो तुम्हें एक
मौका मिल जाएगा कि देखो यह आदमी अहंकारी, दंभी, यह अपने को बुद्ध, महावीर, कृष्ण
की कोटि का व्यक्ति कहता है! अब तुम मुश्किल में पड़ोगे, क्योंकि
मैंने कहा कि मैं उनकी कोटि का नहीं हूं, वे भी मेरी कोटि के
नहीं हैं। मेरे उत्तर की तुम पहले से अपेक्षा करना ही मत, क्योंकि
मेरे उत्तर का कुछ हिसाब नहीं है। मैं कोई भरोसे का आदमी नहीं हूं। तुमने सोचा
होगा कि दो ही उत्तर हो सकते हैं; या तो मैं कहूंगा कि हां
मैं उनकी कोटि का हूं, सो तुम जाकर जाहिर कर सकोगे कि अरे यह
आदमी अहंकारी, दंभी; या तुम कहोगे कि
यह आदमी कहेगा कि मैं उनकी कोटि का नहीं हूं, तो तुम पूछ
सकोगे कि फिर आपको लोग भगवान कहते हैं, आप इनकार क्यों नहीं
करते? अब मैंने तुम्हें असली मुश्किल में डाला। न मैं उनकी
कोटि का हूं, न वे मेरी कोटि के हैं। वे अपने ढंग के भगवान
हैं, मैं अपनी ढंग का भगवान हूं, ढंग-ढंग
के भगवान हैं, किस्म-किस्म के भगवान हैं!
लेकिन तुम्हारा कोई पूर्वाग्रह होगा। ये जो तुमने चार-पांच नाम गिनाए
हैं, इनमें से कोई एकाध नाम तुम्हारा पूर्वाग्रह होगा।
तुमने चार-पांच में छिपाने की कोशिश की है।
संशय किसलिए उठ रहा है तुम्हें? और मैं कौन हूं,
इसमें तुम्हें संशय की क्या जरूरत? तुम अपनी
फिक्र करो कि तुम कौन हो। उससे तुम्हारी नाव पार लगेगी। मैं कौन हूं और कौन नहीं
हूं, इससे तुम्हें क्या चिंता? मेरी
चिंता होनी चाहिए। मुझे फिक्र होनी चाहिए।
अरे यार पेड़!
कब से यूं ही खड़े हो
किस बात पर अड़े हो
क्या पैर दुखा नहीं
तन तुम्हारा थका नहीं?
ऐसा भी क्या तनना
इतना भी क्या चौकस रहना
चलों तुम्हें टहला लाएं
कुछ दूर की सैर करा कर लाए।
और नहीं तो कम से कम
एक कप काफी ही पिला लाएं
चलोगे तो हिलोगे, नई हवा में
नया कुछ सुनोगे
शायद मुक्त मन से उसे गुनोगे
फिर तबीयत करे तो यहीं लौट आना
या और आगे बढ़ जाना
ओह बड़े जिद्दी हो, चलो भी
पुराने से इतना क्या चिपटना
चेतन होकर भी ऐसा क्या जड़ होना
मगर बस लोग यूं ही पेड़ों की तरह खड़े हैं। और हम तो ऐसे अजीब लोग हैं, गड़े होने से हमारा इतना मोह है कि हम चलती हुई चीज को भी गाड़ी कहते हैं।
गाड़ी यानी गड़ी हुई। चलती हुई चीज को भी गाड़ी कहते हो--रेलगाड़ी, कि बैलगाड़ी, कि घोड़ागाड़ी! चलती हुई चीजों को गाड़ी!
गाड़ी से कैसा मोह है तुम्हारा? खुद तो गड़े खड़े ही हो।
चलो जरा मेरे साथ चलो
और नहीं तो कम से कम
एक कप काफी ही पिला लाएं
चलोगे तो हिलोगे, नई हवा में
नया कुछ सुनोगे
शायद मुक्त मन से उसे गुनोगे
और फिर तबीयत न लगे
तो यहीं लौट आना
या और आगे बढ़ जाना
मगर ऐसे चिपके हैं लोग अपनी-अपनी धारणाओं से, वे धारणाएं चाहे कितनी ही मूढ़तापूर्ण क्यों न हो, चाहे
उन धारणाओं के पक्ष में एक भी प्रमाण न हो--मगर चिपके हुए हैं।
अदालत में यह पूछे जाने पर कि आप तलाक क्यों देना चाहती हैं अपनी पति
को, चंदूलाल की पत्नी ने उत्तर दिया: मुझे इस बात का विश्वास है कि मेरे पति
मेरे प्रति वफादार नहीं हैं। और इसका स्पष्ट प्रमाण है कि मेरे एक बेटे की भी शक्ल
उनसे नहीं मिलती।
देखा, क्या प्रमाण दिया!
अहमक अहमदाबादी अपनी पत्नी से बोले: बार-बार मैं तुम्हारे मुंह से
बेवकूफ शब्द सुन रहा हूं। उम्मीद है कि तुम मुझे नहीं कह रही हो।
पत्नी बोली: आप अपने-आप को समझते क्या हैं? क्या दुनिया में आप अकेले ही बेवकूफ हैं?
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी एक दिन मुझसे कह रही थी: मेरे पति बड़े
दयालु हैं। उनसे किसी का दुख नहीं देखा जाता।
मैं थोड़ा चौंका। मुल्ला नसरुद्दीन को मैं भलीभांति जानता हूं। मैंने
नसरुद्दीन की पत्नी से कहा: सच! तुम तो मुझे हैरान करती हो। कोई उदाहरण है
तुम्हारे पास?
उसने कहा: अरे उदाहरण की क्या कमी है! मैं जब लकड़ी चीरती हूं तो वे
पड़ोस में जाकर गपशप करने लगते हैं उनसे किसी का कष्ट नहीं देखा जाता। मैं जब बर्तन
मलती हूं, वे शराबखाने चले जाते हैं। उनसे किसी का कष्ट नहीं
देखा जाता। अरे यहां तक कि एक दिन वे बीमार थे और मैं लकड़ी चीर रही थी कहीं,
जा तो नहीं सकते थे, सो आंख बंद करके लेट रहे।
मैंने पूछा, क्यों आंख बंद कर लीं, तो
कहने लगे--मुझसे किसी का दुख नहीं देखा जाता।
आदमी अपनी हर चीज के लिए चाहे तो प्रमाण खोज ले। और मन बहुत चालबाज है, प्रमाण खोजने में कुछ गड़बड़ नहीं लगती, कुछ देर नहीं
लगती।
मुल्ला नसरुद्दीन से मैंने एक दिन पूछा कि नसरुद्दीन, तुम तो कहते थे कि जब तक समय न आए, कोई कुछ नहीं
बिगाड़ सकता, फिर तुम जब बाहर जाते हो तो साथ में बंदूक क्यों
रखते हो?
नसरुद्दीन ने कहा: हो सकता है मेरा समय न आया हो, लेकिन किसी और का समय आ गया हो।
तुमने अपने संबंध में सोचो, कैलाश कोठारी। यह
संशय दूर कैसे करोगे? और संशय दूर करने की जरूरत क्या?
राम से तुम्हें कुछ लेना? कृष्ण से तुम्हें
कुछ लेना? बुद्ध से कुछ मतलब, कुछ
प्रयोजन? मैं कौन हूं, क्या हूं--इससे
तुम्हें क्या मिलेगा? जान भी लोगे तो क्या मिलेगा? संशय-रहित भी जान लोगे तो क्या मिलेगा? इसकी फिक्र
करो कि तुम कौन हो। पूछो कि मैं कौन हूं।
और दो ही स्थितियां हो सकती हैं--या तो सोए हुए हो, या जागे हुए हो। जागे हुए होते तो पूछते ही नहीं। इसलिए साफ है कि सोए हुए
हो। अब सोया हुआ आदमी क्या कृष्ण को समझेगा, क्या बुद्ध को
समझेगा, क्या महावीर को समझेगा, क्या
मुझको समझेगा? और सोए हुए आदमी के संशय दूर कैसे होंगे?
जागो। जागने में संशय दूर हो जाते हैं। और जागने का जो अभूतपूर्व क्रम
है वह तुम्हारे भीतर घटना है, मेरे भीतर नहीं घटना है। मैं तो
जाग चुका। मेरे तो सारे संशय दूर हो गए। सच पूछो तो मैंने कभी किसी से कोई प्रश्न
पूछा ही नहीं। अपने बचपन में जरूर पूछता था प्रश्न, वे भी
गांव में जो साधु-संत महात्मा आते थे उनको सताने के लिए, और
किसी कारण से नहीं। सिर्फ सताने के लिए।
जैसे एक महात्मा मेरे गांव में आए हुए थे, वे हमेशा आते थे। उनका व्याख्यान होता था गांव में जो राममंदिर था उसमें।
राममंदिर में जब किसी का व्याख्यान होता था तो वे मुझे घुसने नहीं देते थे। वे
कहते कि तुम और किसी समय...चौबीस घंटे राममंदिर तुम्हारे लिए खुला है, मगर जब किसी का प्रवचन हो तब नहीं। मैं कहता कि भई मेरे कुछ संशय हैं।
राममंदिर का पुजारी कहता कि भैया मुझे पक्की तरह पता है कि तुम्हारे कोई संशय नहीं
हैं। तुम सिर्फ उस बेचारे को परेशान करना चाहते हो। हम तो किसी तरह महात्मा जी को
लिवा कर लाए हैं और मैं तुमसे सच कहे देता हूं कि आने के पहले महात्मा जी ने कह
दिया था कि वह छोकरा तो नहीं आएगा? वे लोग पहले शर्त लगा
देते हैं हम करें क्या?
मैं उनसे कहता कि अगर मुझे अंदर मंदिर में नहीं आने दिया तो मैं मंदिर
के बाहर उपद्रव मचाऊंगा। मैं लोगों से कहूंगा: ये किस तरह के महात्मा कि मेरा संशय
दूर नहीं करते! जो भी भीतर जाएगा उससे ही मैं कहूंगा कि पूछना महात्मा जी से कि
छोकरा बाहर खड़ा है, उसका संशय दूर करना है उसे और आप अंदर नहीं आने देते।
अगर एक छोकरे का संशय दूर नहीं कर सकते तो हमारा क्या खाक संशय दूर करोगे!
सो उपद्रव और न बढ़ जाए, मुझे अंदर आने देता।
और महात्मा जी मुझे देखते ही से गड़बड़ हो जाते। और मैं तो बिलकुल सामने ही बैठता।
वे एक-एक शब्द तौल कर बोलते, क्योंकि वे जानते थे कि मैं कोई
भी शब्द पकड़ लिया तो मुश्किल खड़ी हो जाएगी। जैसे वे एक दिन बोल रहे थे--शरीर तो
मिट्टी है। मैंने कहा:ठीक! अगर मैं एक-दो चार चपत आप को लगा दूं तो आप नाराज तो
नहीं होंगे? अगर शरीर मिट्टी है तो इसमें क्या नाराजगी है?
अरे क्या तुम्हारी मिट्टी क्या मेरी मिट्टी, सबकी
मिट्टी मिट्टी है!
वे कहने लगे: कैसी बातें करते हो?
मैंने कहा: आप कैसी बातें करते हो? आप ही ने उपद्रव खड़ा
कर दिया। आप कह रहे थे कि शरीर मिट्टी है। तो अगर मिट्टी के साथ मिट्टी जैसा
व्यवहार किया जाए तो इसमें एतराज क्या है?
एक दिन बोले संसार माया है। सो उनका जो कमंडल था, मैं लेकर चला। बोले: ये, मेरा कमंडल कहां ले चले?
मैंने कहा: आपने ही कहा कि संसार माया है। कहां का कमंडल, कौन ले जाने वाला, किसका? जब
सब माया ही है! तुमने ही कहा कि सब स्वप्नवत है। महाराज, स्वप्न
देख रहे हो कमंडल का! और यह भी स्वप्न देख रहे हो कि कोई कमंडल ले जा रहा है।
स्वप्न में ही बड़बड़ा रहे हो कि कहां कमंडल ले चले, कैसा
कमंडल!
अरे--बोले--रखो मेरा कमंडल!
वैसे और लोगों ने भी कहा कि भई छोकरा बात तो ठीक कह रहा है। आप ही
समझा रहे थे कि सब संसार माया है, इसने सिद्ध कर दिया कि संसार
माया नहीं है।
ऐसे प्रश्न पूछने में जाता था। बाकी मेरा संशय कोई नहीं था। मैं
परिपूर्ण रूप से जानता हूं कमंडल सत्य है। बिलकुल माया नहीं है। माया जैसी कोई चीज
ही नहीं है। संसार भी सत्य है, परमात्मा भी सत्य है। दोनों सत्य
के दो पहलू हैं। और जिसने भी एक को इनकार किया वह मुश्किल में पड़ेगा।
तुम्हारा संशय संशय है या कि तुम सोचते हो, तुम मुझे मुश्किल में डाल दोगे? एक बत तो पक्की समझ
लो कि तुम मुझे मुश्किल में नहीं डाल सकते। मुश्किल में डालने के जितने ढंग हैं वे
सब मुझे आते हैं। मैंने एक ढंग नहीं छोड़ा है जो मुश्किल में डालने का हो, जो मुझे न आता हो। उसका मैंने खूब अभ्यास किया है। सच पूछो, मैंने पूरी जिंदगी सिवाय इसके और कोई अभ्यास किया ही नहीं। स्कूलों में
अध्यापकों पर आजमाया, कालेज में प्रोफेसरों पर आजमाया,
सभाओं में नेताओं पर आजमाया, संत्संगों में
महात्माओं पर आजमाया। मैं एक ही अभ्यास किया हूं जिंदगी में। मुझे कोई मुश्किल में
नहीं डाल सकता। यह असंभव है।
जब मैं पहली दफा कालेज में प्रोफेसर हुआ तो मेरे प्रधान ने मुझे कहा
कि देखो, अभी तुम नए-नए हो, छोकरे इस
कालेज के बदमाश हैं।
मैंने कहा: आप उनकी फिक्र मत करो। छः साल में कालेज में विद्यार्थी रह
कर ऐसा-ऐसा अभ्यास किया हूं कि उन छोकरों को पानी पिला दूंगा।
वे बोले: क्या कहते हो! ये बहुत बदमाश छोकरे हैं। और सिवाय उपद्रव के
कुछ भी नहीं करते।
मैंने कहा: तुम फिक्र तो छोड़ो। अगर न वे शिकायत लाएं तुम्हारे पास कि
भई यह कहां का अध्यापक ले आए आप, यह हमको परेशान किए दे रहा
हूं...!
और वही हुआ। दो-चार दिन बाद ही उन्होंने कहा कि मामला क्या है, लड़के मेरे पास आने लगे। वे कहते हैं कि यह शिक्षक हमें हैरान किए दे रहा
है।
क्योंकि मैंने पहले दिन से उन पर अभ्यास शुरू कर दिया। लड़के-लड़कियां
अलग-अलग बैठे थे, मैंने कहा: इकट्ठे हो जाओ। चौंके लड़के-लड़कियां। मैंने
कहा: इतनी दूर बैठोगे चुटैया कैसे खींचोगे? न लड़कियों को मजा
आए, न तुम्हें मजा आए, न मुझे मजा आए।
चलो, इकट्ठे हो जाओ! जैसे दूध में पानी मिल जाता है, इस तरह मिलो!
वे एक-दूसरे की तरफ देखें कि यह हो क्या रहा है! अध्यापकों का काम तो
कान्स्टेबल का है कि है कि वह बीच में खड़ा रहे--लड़के अलग, लड़कियां अलग। और मैंने कहा: मैं, पढ़ाना शुरू नहीं
करूंगा, जब तक तुम मिलते नहीं। अरे मेलजोल करवाना ही तो
अध्यापक का कार्य है।
मैंने जबरदस्ती उनको मिलवा-जुलवा दिया। अब बैठे सिकुड़-पिकुड़ कर। वैसे
तो चिट्ठियां फेंकते थे। चिट्ठियां फेंकें, कंकड़ मारें। मैंने
कहा: कंकड़ कहां हैं, चिट्ठियां कहां हैं?
एक लड़के ने कहा: आप बातें कैसी करते हैं? मैं खींसे में कंकड़ लाया था, मैंने कहा: ये लो। बिना
कंकड़ के मजा ही क्या आएगा! अरे मारो कंकड़! और लड़कियों से भी मैंने कहा कि तुम्हारे
लिए भी लाया हूं और दूसरे खीसे से मैंने और बड़े कंकड़ निकाले कि ये तुम लो। ऐसे
खोपड़ी पर बजाओ इनकी!
वे तो बहुत घबड़ाए कि पढ़ाई-लिखाई क्या होगी! एक लड़की कि सर, पढ़ाई-लिखाई! मैंने कहा: पढ़ाई-लिखाई भाड़ में जाने दो! पढ़ाई-लिखाई जिनको
करना है, वे कालेज आते हैं? छः साल में
भी कालेज में रहा, पढ़ाई-लिखाई मैंने कभी की नहीं, न तुमको करने दूंगा।
कालेज में मेरा नियम था कि पहले जा कर मैं कहता कि पांच मिनिट का समय
है, शोरगुल करो, उछलो-कूदो, डेस्कें
तो॰?ो, जो भी करना है कर डालो। पांच
मिनिट मैं तमाशा देखूंगा। फिर अपनी पढ़ाई शुरू करेंगे। और अगर तुमने पांच मिनट में
कुछ गड़बड़ नहीं की तो फिर खयाल रखना, बीच में अगर गड़बड़ की तो
मुझसे बुरा कोई नहीं। किसी को भी कक्षा छोड़कर जाना हो, बिलकुल
मजे से जा सकते हो। जब जाना हो तब जा सकते हो। पूछने-पाछने की कोई जरूरत नहीं। पूछ
कर मेरा समय खराब करने की कोई आवश्यकता नहीं। मेरा काम पढ़ाना है सो मैं पढ़ाऊंगा,
कोई रहे कि न रहे:
प्रधान ने मुझे बुलाया कि लड़के ऐसी-ऐसी बातें कह रहे हैं कि आप
कंकड़-पत्थर खीसों में लाते हैं! मैंने कहा: बच्चों की, विद्यार्थियों की सेवा करना ही तो अध्यापक का कर्तव्य है।
वह प्रधान ने भी अपनी खोपड़ी से हाथ मार लिया। उसने कहा हद हो गई! आप
ठीक ही कहते थे कि आपको वे नहीं सता सकते। आपको क्या वे खाक सताएंगे!
संशय तुम कहते हो कैलाश कोठारी, संशय नहीं हैं,
तुम ज्ञान से भरे हो। विनम्रता दिखला रहे हो भारतीय ढंग की कि मेरे
संशय दूर करें। अरे ज्ञान से भरे हो, तुम्हारा ज्ञान दूर
करेंगे! तुम्हारा संशय वगैरह कुछ भी नहीं है। अज्ञानी को कहीं संशय होते हैं?
अज्ञानी कहता है: मैं जानता ही नहीं, संशय
क्या खाक करूं!
संशय होता है ज्ञानी को, पंडित को। तुम्हारा
पांडित्य तुम्हें दिक्कत दे रहा है। तुम्हारे पांडित्य के कारण तुम्हें न मालूम
किस-किस तरह के सवाल उठ रहे होंगे। जरा टिको कुछ दिन यहां। सब धुल जाएगा, सब वह जाएगा। यहां ज्ञान को तो ऐसा साबुन रगड़-रगड़ कर धोते हैं कि जब तक
बिलकुल आदमी अज्ञानी न हो जाए, तब तक छोड़ते ही नहीं। और एक
दफा अज्ञानी हो गए, फिर तुम पक्का समझो, जिसको मैंने अज्ञानी बनाया उसको इस पृथ्वी पर कोई ज्ञानी नहीं बना सकता
दुबारा।
आखिरी प्रश्न: भगवान,
कल आपने सेंट पीटर और तीन स्त्रियों की कहानी
सुनाई। कृपया बताएं कि फिर उसके बाद क्या हुआ?
संत महाराज,
कुछ अपनी भी बुद्धि दौड़ाया करो। कोई भी कहानी कभी पूरी नहीं बताई जाती, क्योंकि कुछ तो तुम्हारी कल्पना पर भी भरोसा करना पड़ता है कि कुछ तुम भी
सोच सकोगे। तुम खुद ही सोच सकते थे कि आगे क्या होगा। मामला इतना साफ था।
भैया, होगा क्या! जो होना था वही हुआ। सेंट पीटर उन तीन
स्त्रियों से किसी तरह निपटे ही थे कि फिर तीन देवियां आ पहुंचीं। इनमें से एक के
मुंह पर सफेद मुंहपट्टी बंधी थी, वह जैन साध्वी थी। दूसरी एक
खूबसूरत फ्रेंच माडल गर्ल थी और तीसरी एक रजनीशी संन्यासिनी थी। सेंट पीटर ने सबसे
पहले फ्रेंच लड़की से उसकी कमर के निचले हिस्से की ओर इशारा करके पूछा: इसका तूने
क्या उपयोग किया?
वह सुंदरी इठला कर बोली: इसका उपयोग मैंने आठों विवाहित पतियों और और
करीब डेढ़ सौ प्रेमियों के साथ मजा-मौज लूटने में किया। साथ ही साथ भिन्न-भिन्न
प्रकाश की मुद्राओं के फोटोग्राफ निकलवा कर धन कमाने और माडल गर्ल की तरह विश्व
में ख्याति पाने में भी इसका उपयोग किया।
सेंट पीटर ने अपने सहायक से कहा: इसे पकड़ कर नर्क में डाल आओ। यहां
पागलों के लिए जगह नहीं है।
यह सुन कर मुंहपट्टी धारी जैन साध्वी बहुत प्रसन्न हुई और मन ही मन
नमोकार मंत्र का जाप करने लगी। सेंट पीटर ने रजनीशी संन्यासिनी से वही प्रश्न किया, वह बोली: मैंने अपनी वासना का उपयोग संभोग से समाधि की ओर जाने के लिए
किया। संभोगातून समाधीकड़े।
पीटर ने अपने सहायक को आदेश दिया: इन माताजी को मोक्ष ले जाओ।
जब जैन साध्वी की बारी आई तो उसकी ओर इशारा करके सेंट पीटर ने फिर वही
सवाल दोहराया। साध्वी बोली: जी मैंने, इसका उपयोग सिर्फ
पेशाब करने के लिए किया।
पीटर ने आश्चर्य से पूछा: सच कहती हो? तुमने सिर्फ पेशाब ही
की और जिंदगी भर कुछ भी नहीं किया?
साध्वी ने लजाते हुए जवाब दिया: आपको कैसे भरोसा दिलाऊं? मैंने सिर्फ पेशाब की, और कभी कुछ नहीं। और पेशाब भी
सदा सूखी भूमि पर की, यह भी आपको बता दूं।
सेंट पीटर ने अपने सहायक को कहा: इस औरत को वापिस हिंदुस्तान भेज दो।
जैन साध्वी बोली: क्यों, आखिर यह मामला क्या
है?
पीटर ने कहा: बकवास न करो, चलो भागो यहां से। यह
स्वर्ग है, कोई पेशाबघर नहीं है।
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें