शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2018

बहुरि ने ऐसा दांव—(प्रश्नोतर) –प्रवचन-10

बहुरि ने ऐसा दांव—(प्रश्नोतर) –ओशो

दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक
आशो आश्रम पूना।
नए सूर्य को नमस्कार-(प्रवचन-दसवां)

पहला प्रश्न: भगवान,
कहते हैं कि बुद्ध पुरुष जहां वास करते हैं, जहां भ्रमण करते हैं, वे स्थान तीर्थ बन जाते हैं। यह बात तो समझ में आती है। लेकिन श्रीमद्भागवत में उल्लेख है कि संत स्वयं तीर्थों को पवित्र करते हैं। स्वयं हि तीर्थानि पुनन्ति संतः। यह बात समझ में नहीं आती।
भगवान, समझाने की अनुकंपा करें।

सहजानंद,
पहली बात अगर समझ में आती है तो दूसरी भी जरूर समझ में आएगी। और यदि दूसरी समझ में नहीं आती तो पहली भी समझ में आई नहीं, सिर्फ समझने का भ्रम हुआ है। क्योंकि पहली बात ज्यादा कठिन है, दूसरी बात तो बहुत सरल है।
पहला सूत्र है कि जहां उठते बैठते, जहां बुद्ध चलते-विचरते, वहां तीर्थ बन जाते हैं। तीर्थ का अर्थ.समझो। तीर्थ का अर्थ होता है: जहां से व्यक्ति अज्ञात में प्रवेश कर सके। तीर्थ का अर्थ होता है: जहां से व्यक्ति मन से छलांग लगा सके--अमन में। तीर्थ का अर्थ होता है: जहां से व्यक्ति समय को पीछे छोड़ दे और समयातीत का अनुभव करे। प्रभु का साक्षात्कार जहां हो जाए, वहीं तीर्थ है। और प्रभु का साक्षात्कार तो बुद्धों की सन्निधि में हो सकता है। वे ही सेतु है।

इसलिए जैनों ने अपने बुद्धपुरुषों को तीर्थंकर कहा। तीर्थंकर का अर्थ है: तीर्थ को बनाने वाले। लेकिन मनुष्य की बड़ी संकीर्ण बुद्धि होती है। तो जैन सोचते हैं कि सिर्फ उनके तीर्थंकर ही तीर्थ को बनाने वाले हैं। जैसे जरथुस्त्र ने तीर्थ नहीं बनाया! जैसे कि बुद्ध ने तीर्थ नहीं बनाया! जैसे कि लाओत्सु ने तीर्थ नहीं बनाया! जैसे कि जीसस ने तीर्थ नहीं बनाया! सौभाग्य का होगा वह दिन, जिस दिन हम सब तीर्थ बनाने वालों को तीर्थंकर कह सकेंगे--फिर वे नानक हों कि कबीर, फरीद हों कि जुन्नेद, बासो हों कि बोधिधर्म, च्वांगत्सु हों कि मैन्सियस, साक्रेटीज हों कि पाइथागोरस। इससे कुछ भेद नहीं पड़ता कि तुम कैसे रंग की नाव में बैठे। इससे कुछ भेद नहीं पड़ता कि नाव लकड़ी की बनी थी, कि तांबे की बनी थी, लोहे की बनी थी, कि नाव कहां बनी थी, किसने बनाई थी। बात मतलब की केवल इतनी है कि नाव उस पार ले गई। और जो नाव पार ले जाए, वही नाव है। और किसी ने ठेका थोड़े ही लिया है कि बस इसी घाट से लोग पार उतर सकेंगे। वह तो एक है, मगर उस तक पहुंचाने वाले घाट अनेक हैं।
जो भी घाट को बनाया है, वह तीर्थंकर। लेकिन बनाया है, ऐसा कहना शायद ठीक नहीं। क्योंकि कोई तीर्थंकर गणित बिठा कर, हिसाब लगाकर तीर्थ को नहीं बनाता। तीर्थ गणित से बनता ही नहीं, तीर्थ का हिसाब असंभव है, तीर्थ तो बेहिसाब होता है, यह तीर्थ कोई ऐसी शराब नहीं कि पैमानों में भर कर पिलाई जाए। यह तो शराब यूं है जैसे सागर भरा हो।
जीसस के संबंध में प्यारी कहानी है कि उन्होंने एक बार पूरे शराब में बदल दिया एक सागर को, पूरे सागर को शराब में बदल दिया! ऐसा कुछ ऐतिहासिक रूप से हुआ हो, यह मैं नहीं कहूंगा। न इससे राजी होऊंगा। लेकिन यह बात पते की है--पूरे सागर को शराब में बदल दिया! जहां स्पर्श हुआ किसी जाग्रत पुरुष का, वहीं से मधुरस बहने लगता है; वहीं रस-विमुग्धता पैदा हो जाती है।
तो पहला सूत्र है कि जहां-जहां बुद्ध भ्रमण करते हैं, वास करते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, वहां-वहां तीर्थ बन जाता  है। क्योंकि वहीं-वहीं से उनके पास बैठने वाले लोग, उनके पास चलने वाले लोग, उनमें डूबने वाले लोग पदार्थ का अतिक्रमण कर जाते हैं और परमात्मा में प्रवेश हो जाता है। सदगुरु के पास मौन में बैठ जाना, बस नाव में बैठ जाना है।
दूसरी बात तो बहुत सरल है। सहजानंद, क्यों दूसरी बात तुम्हें समझ में न आ सकी? तुम कहते हो: यह बात समझ में आ गई। यह तो बड़ा से बड़ा चमत्कार है कि किसी की सन्निधि में नाव मिल जाए--जो ज्ञात से अज्ञात में ले जाए; जो क्षणभंगुर से शाश्वत में ले जाए; जो क्षुद्र से विराट में ले जाए; जो सीमित से ऊपर उठा दे और असीम के साथ एक कर दे; जो बूंद को सागर बना दे; जो मरणधर्मा को अमृत का अनुभव करा दे।
कहते हो: ...यह बात समझ में आ गई। अगर समझ में आ गई होती तो दूसरी बात तो बहुत सरल है। दूसरी बात है: श्रीमद्भागवत में उल्लेख है कि संत स्वयं तीर्थों को पवित्र करते हैं। स्वयं कि तीर्थानि पुनन्ति संताः!' कहते हो: यह बात समझ में नहीं आती।
यह बात सरल है, मधुर भी, मीठी भी। इसका अर्थ हुआ कि जैसे ही कोई सदगुरु देह को छोड़ता है वैसे ही उसका तीर्थ उजड़ जाता है। ऐसे तो सब वही का वही होता है। बोधगया में अब भी सब वही का वही है--वही वृक्ष, ठीक वही वृक्ष! पच्चीस सौ वर्ष से सम्हाल कर रखा गया है। उसी की शाखाएं बार-बार लगाई गई हैं, ताकि पुराना वृक्ष मर न जाए। वही वृक्ष, जिसके नीचे बैठ कर गौतम सिद्धार्थ गौतम बुद्ध बने थे। वे ही पत्ते, वे ही शाखाएं, वही रसधार, वही भूमि, वही आकाश--सब कुछ तो बोधगया में वही है। मगर तीर्थ कहांकितने दूर-दूर से लोग आते हैं उस वृक्ष के पास बैठने को और बैठकर चले जाते हैं। न कुछ हाथ लगता, न कुछ अनुभव होता। उजड़ गया यह तीर्थ। कभी यहां बस्ती थी, अब तो वीरान है। कभी यहां मरूद्यान था, अब तो मरुस्थल है। कभी यहां अदभुत फूल खिले थे--ऐसे कि जो कभी-कभी ही खिलते हैं, अनूठे, अलौकिक के। अब तो घास के फूल भी नहीं लगते। पंडे-पुजारी मंदिर पर कब्जा किए बैठे हैं।
और तुम चकित होओगे यह बात जानकर बुद्ध का मंदिर और ब्राह्मण पुजारी उस पर कब्जा किए बैठा है! हिंदू पुजारी कब्जा किए बैठा है बुद्ध के मंदिर पर। बुद्ध ने जिस ब्राह्मणवाद का विरोध किया, जीवन भर सतत संघर्ष किया, जिस वर्णाश्रम धर्म के खिलाफ बगावत उठाई, आग लगाई, उसी के ठेकेदार बुद्ध के मंदिर पर कब्जा किए बैठे हैं।
मुहम्मद जब काबा में थे और जब उन्होंने काबा की तीन सौ पैंसठ मूर्तियों को निकाल कर बाहर फिंकवा दिया था, काबा के मंदिर को कचरे से खाली कर दिया था, तो वह तीर्थ था, अब नहीं। अब तो फिर मूर्ति बन गई। अब तो काबा का काला पत्थर ही मूर्ति का काम करने लगा। पहले लोग मूर्तियों के पैर चूमते थे, अब इस पत्थर को जाकर चूम आते हैं। मुहम्मद रोते होंगे, उनकी आंख से आंसू झरते  होंगे कि क्या इसीलिए इतना मैंने श्रम किया था?
मगर यह इस जगत का स्वभाव है। यहां कोई भी बगीचा लगाओ, सदा नहीं रह सकता। यहां कितने ही सुंदर महल बनाओ, आज नहीं कल धूल-धूसरित हो जाएंगे। इस जगत में परमात्मा को कोई कभी खींच कर ले भी आता है तो ज्यादा देर टिका नहीं पाता। जब तक खुद होता है, लंगर की तरह जहाज रुका रहता है। फिर लंगर ही न रहा, जहाज फिर अनंत में लीन हो जाता है।
लेकिन जिस जगह किसी बुद्धपुरुष ने कभी तीर्थ निर्मित किया हो, उस जगह पुनः तीर्थ निर्मित करना बहुत आसान होता है। यही अर्थ है इस सूत्र का। कुछ तो छाप रह ही जाती है। कुछ तो हवाओं में बात रह ही जाती है। कुछ तो गूंज बाकी रह ही जाती है। यह तो मानना असंभव है कि बुद्ध ने जिस वृक्ष के नीचे बैठकर बोधि पाई, आज भी उस वृक्ष के पत्तों में उस बोधि के हस्ताक्षर नहीं हैं। यह मानना असंभव है कि जिस बोधिवृक्ष के पास बुद्ध उठ-उठ कर टहला करते थे, क्योंकि बैठे-बैठे थक जाते ध्यान में।
तो बुद्ध ने दो ध्यान विकसित किए थे--एक बैठ कर करने का ध्यान, विपस्सना और एक चल कर करने का ध्यान--चंक्रमण। दोनों एक से ही ध्यान हैं। एक में बैठ कर श्वास पर ध्यान रखना होता है और एक में चलते हुए श्वास पर ध्यान रखना होता है। तो उसी बोधिवृक्ष के पास वे पत्थर आज भी है, जिन पर बुद्ध के चरण न मालूम कितनी बार हजार बार लाखों बार पड़े होंगे। क्योंकि दिन में एक घंटा वे बैठते, फिर एक घंटा चलते; फिर एक घंटा बैठते, फिर एक घंटा चलते। यूं रोज घंटों चले होंगे। छोटा-सा स्थान, वहीं वृक्ष के पास, करोड़ों बार उनके पैरों को उन पत्थरों ने छुआ होगा।
आदमी भूल जाए, पत्थर इतनी आसानी से नहीं भूलते। आदमी विस्मरण कर दे, पत्थरों में स्मृति छिपी रह जाती है। तो अगर कोई बुद्ध चाहे तो बोधगया को पुनरुज्जीवित कर लेना बहुत आसान होगा, लेकिन एक अर्थ में बहुत कठिन भी।
मैं बोधगया था। उसमें यह नजर भी थी कि अगर संभव हो तो वही रुक रहूं। लेकिन वह असंभव है। क्योंकि जिन पंडित-पुजारियों ने इन पच्चीस सौ वर्षों में बोधगया पर कब्जा कर लिया है, वे यह बर्दाश्त न कर सकेंगे कि मैं बोधगया में रुक जाऊं। उनका तो धंधा मर जाएगा। उनकी तो जड़ें कट जाएंगी। उन्हें बुद्ध से क्या लेना-देना? उन्हें तीर्थ से क्या लेना देना? उनका तो अपना न्यस्त स्वार्थ है।
तुम जान कर चकित होओगे, जब बोधगया में मैंने ध्यान का शिविर लिया तो सिर्फ एक बौद्ध भिक्षु हिम्मत करके चोरी से रात मुझसे मिलने आता था--सिर्फ एक बौद्ध भिक्षु! वह भी चोरी से, हिम्मत करके! वह भी रात, एकांत में! क्योंकि सबके सामने आए, और भिक्षुओं को पता चल जाए, तो अड़चन खड़ी हो सकती है, तत्क्षण अड़चन खड़ी हो सकती है कि तुम क्यों गए किसी और गुरु के पास? तुम तो बुद्ध के अनुयायी हो! और यह व्यक्ति तो बुद्ध का अनुयायी नहीं, यह तो बौद्ध नहीं।
और निश्चित ही मैं बौद्ध नहीं हूं: जब बुद्ध ही हो सकते हो तो बौद्ध क्या होना? जो बुद्ध हो सकता है वह अगर बौद्ध होने की कोशिश करे तो बुद्धू है। जब जिन ही हो सकते हो तो महावीर क्या होना? और जब तुम स्वयं परमात्मा से जुड़ सकते हो तो क्यों जीसस को बीच में लेना? जहां तक बन सके, वहां तक सीधा संबंध हो जाए तो अच्छा।
और सदगुरु का काम यही है कि वह शिष्य के और परमात्मा के बीच में नहीं आता। अगर आता तो वह असदगुरु है; उसको ही मैं कुगुरु कहता हूं। सदगुरु वही है कि जो हाथ पकड़ कर तुम्हें चलना सिखा दे और जैसे ही तुम चलने योग्य होने लगो, हाथ अलग करने लगे और जल्दी ही तुम्हें अपने पैरों पर खड़ा कर दे।
बुद्ध ने कहा है अपने शिष्यों को: अगर कभी सत्य के रास्ते पर मैं तुम्हें मिल भी जाऊं तो मेरी गर्दन काट देना। मुझे तुम्हारे और सत्य के बीच एक क्षण भी खड़े मत रहने देना। मेरी गर्दन काट देना।'
ये सदगुरु के वचन हैं। लेकिन पंडित-पुजारियों को क्या करना? पंडित-पुजारियों को तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।
जैन साध्वी है--चंदना। उसका मुझसे अति स्नेह है। वह राजगृह में जैनों का एक आश्रम है, उसमें प्रमुख है--वीरायतन! छुपे-छुपे, कोई कभी वहां पहुंच जाता है, तो वह मुझे खबर पहुंचाती है कि आप यहां क्यों नहीं आ जाते? राजगृह--महावीर का तीर्थ, महावीर, उठे-बैठे, बोले, चले! न मालूम कितने लोग महावीर के साथ उड़े आकाश में, पंखों को पाए! न मालूम कितने फूल खिले! आप यहां क्यों नहीं आ जाते? सुंदर पहाड़ है, झीलें हैं! राजगृह प्यारी जगह है!
मेरे एक स्वामी चैतन्य कीर्ति जब चंदना को मिलने गए, चाहे वह कितनी ही छिप कर मुझे संदेश भेजती हो, मगर जैनियों में उस पर संदेह तो है ही। चैतन्य कीर्ति ने जैसे ही किसी से पूछा कि मैं चंदना से मिलना चाहता हूं, तो जिससे पूछा, उसने नीचे से ऊपर तक देखा और कहा कि वही रजनीश की चेली? तुम उसी से मिलना चाहते हो? क्या काम है? मिला तो दिया चंदना से और चंदना ने मिलते ही यह कहा कि भगवान को कहना कि यहां आ जाएं, सुरम्य है सब! उनकी प्रतीक्षा है यहां!
पर क्या तुम सोचते हो, जैन मुझे राजगृह में प्रवेश करने देंगे? कच्छ में प्रवेश नहीं करने देते, जहां उनका एक तीर्थंकर नहीं गया! जहां न कभी कोई तीर्थंकर हुआ, न जहां कभी कोई बुद्ध हुआ, जहां न कोई कृष्ण हुए, न कोई राम हुए, न कोई जरथुस्त्र न लाओत्सु। कच्छ में कोई अवतार हुआ, ऐसा उल्लेख तो नहीं। शायद कछुए का अवतार हुआ हो तो हुआ हो! शायद उसी से कच्छ शब्द बना हो, कौन जाने! वहां की संस्कृति खतरे में पड़ जाती है! वहां का धर्म मिटा जा रहा है! वहां के प्राण संकट में हैं! तो मुझे राजगृह में जैन प्रवेश करने देंगे?
पालीताना जैनों का तीर्थ है। पालीताना के महाराजा की खबर मेरे पास आई थी कि मेरा महल है, सौ एकड़ भूमि है, आप यहां आ जाएं, आप सम्हाल लें, मैं इसे दान कर दूं। मैंने कहा: तुम तो दान कर दो, मगर वहां पांच हजार जैन साधु-साध्वी बैठे हैं। उनकी आत्मा को कितना कष्ट पहुंचेगा! उनके कष्ट का भी कुछ सोचो। मैं तो आ जाऊं, मुझे क्या अड़चन है? लेकिन वे पांच हजार साधु-साधवी, जैनों का तीर्थ। मैं तो उसे पुनरुज्जीवित कर दूं। मैं तो फिर से तीर्थ में प्राण डाल दूं। मगर मैं तीर्थ में प्राण डालूं तो मुर्दा तीर्थ से जिनके न्यस्त स्वार्थ जुड़ गए थे, वे तो मुश्किल में पड़ जाएंगे न!
दूसरी बात का इतना ही अर्थ है कि अगर कभी कोई बुद्धपुरुष किसी प्राचीन तीर्थ पर बैठ जाए तो वह प्राचीन तीर्थ फिर नया हो जाता है, फिर पुनरुज्जीवित हो जाता है। वहां गंगा फिर बहने लगती है। जहां भगीरथ बैठा वहां गंगा उतरी। स्वर्ग से उतरना ही होगा उसे, कोई और उपाय ही नहीं।  इसलिए कहा है: स्वयं हि तीर्थानि पुनन्ति संतः। संत स्वयं तीर्थों को पवित्र करते हैं। तीर्थ बार-बार अपवित्र हो जाते हैं। तुम्हें शायद सहजानंद, इससे ही अड़चन हुई होगी कि तीर्थ को और पवित्र करना! तीर्थ तो वही है जो पवित्र है। माना, तीर्थ वही है जो पवित्र है, मगर तभी तक पवित्र होता है जब तक एक प्राण का दीया वहां जलता है, एक ज्योति वहां जलती है। ज्योति बुझी तो तीर्थ से ज्यादा अपवित्र इस पृथ्वी में फिर कोई दूसरी जगह नहीं होती, यह खयाल ले लेना। क्योंकि जितनी ऊंचाई से चीज गिरती है उतनी ही नीचाई में चली जाती है। जो समतल भूमि पर चलता है वह गिरेगा भी तो क्या बहुत ज्यादा गिरेगा? लेकिन जो हिमालय की चोटी पर चढ़ रहा हो, अगर गिरा तो खाई-खड्डों में हड्डी पसली टूट जाएगी, शायद उसके टुकड़ों-टुकड़ों का भी पता नहीं चलेगा कि वह कहां खो गया।
यही घटना तीर्थों के साथ घटती है। बुद्धों के साथ तो वे आकाश की सैर को निकल जाते हैं, पृथ्वी के हिस्से ही नहीं रह जाते। इसलिए इस देश में यह धारणा रही है कि काशी पृथ्वी का हिस्सा नहीं है। यह बात प्यारी है। अगर समझो तो प्यारी है। अगर मूर्खतापूर्ण जिद करने लगो तो हर सुंदर चीज असुंदर हो जाती है। काशी पृथ्वी का हिस्सा नहीं है। है तो पृथ्वी का ही हिस्सा, इसे सब जानते हैं; लेकिन क्यों कहा है कि काशी पृथ्वी का हिस्सा नहीं है--इसीलिए कि इतने बुद्धपुरुष हुए...स्वयं बुद्ध ने भी काशी पृथ्वी का हिस्सा नहीं है--इसीलिए कि इतने बुद्धपुरुष हुए...स्वयं बुद्ध ने भी अपना पहला प्रवचन काशी के निकट सारनाथ में दिया। सबसे पहले वे काशी आए। शंकराचार्य काशी गए। कबीर तो जिंदगी भर काशी रहे, सिर्फ मरते वक्त काशी से हटे।
काशी की अनंत धारा है। कहते हैं वह शिव की नगरी है। संभवतः शिव पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने काशी को तीर्थ बनाया, फिर और-और शिव आते रहे। जिन्होंने शिवत्व जाना, वे ही शिव हो गए। और काशी को पवित्र करते रहे। मगर आज काशी से ज्यादा अपवित्र कोई स्थान पृथ्वी पर है? नहीं है। और कारण स्वाभाविक है। काशी इतनी ऊंची उठी कि जब बुद्धों का सहारा न रहा तो उतनी ही नीची गिरी भी। बुरी तरह गिरी। झोपड़ा तो पहले से तो गिरा हुआ है। यूं चार बांस लगा कर छप्पर बांध रखा है--गिरा तो न गिरा तो--फिर चार बांस खड़े कर लेंगे, फिर छप्पर उठा देंगे। गिरता है जब कोई गगनचुंबी महल तो फिर उठना मुश्किल हो जाता है।
और सबसे बड़ी कठिनाई यही आती है कि पुराना बुद्ध, जिसने कि तीर्थ को निर्मित किया था, उसके जाने के बाद पंडित-पुरोहितों का एक जाल उस तीर्थ का शोषण करने लगता है। उस तीर्थ का नाम, उस तीर्थ की साख हो जाती है। उस तीर्थ के लिए बाजार हो जाता है। और एक बार वहां असली सिक्के थे, तो वह खबर, यह खयाल सदियों तक चलता है कि शायद अब भी होंगे। कबीर ने उस खयाल को तोड़ने के लिए मरते वक्त कहा कि मैं काशी में नहीं मरना चाहता, क्योंकि काशी में यह धारणा हो गई थी कि जो काशी में मरता है, जो काशी-करवट लेता है, वह सीधा स्वर्ग जाता है।
निश्चित ही बुद्धों के पास कोई करवट लेगा तो और जाएगा कहां! लेकिन कबीर के समय में भी काशी गंदी हो चुकी थी; वह बात न रही थी। कबीर ने बहुत कोशिश भी की, लेकिन कबीर सफल नहीं हो सके; नहीं हो सकते थे, क्योंकि कबीर एक तो ब्राह्मण नहीं हैं। तो ब्राह्मण पंडित उनको मंदिरों तक में न घुसने दें। ब्राह्मण तो दूर, कबीर का यह भी पक्का नहीं है कि वह हिंदू हैं कि मुसलमान। मुसलमान भी उनके भक्त हैं, हिंदू भी उनके भक्त हैं। मगर कबीर को जो भक्त मिले वे नीचे वर्ग के मिले। स्वभावतः ऊंचे वर्ग का कोई आदमी तो कबीर के पास आने में संकोच करे। उसका आभिजात्य उसे रोके। मिले गरीब, दीन-दरिद्र। उनके बल पर काशी को पवित्र करना आसान न था। कबीर रहे काशी में, लेकिन रहे करीब-करीब काशी के बाहर--अंत्यज, त्याज्य। कबीर ने कहा मरते वक्त: मुझे काशी से हटा लो।'
लोगों ने कहा: आप पागल हो गए हैं! काशी मरने लोग दूर दूर से आते हैं। जैसे लोग बूढ़े होने लगते हैं, वहां काशी पहुंचने लगते हैं। क्योंकि काशी में मरेंगे तो स्वर्ग निश्चित है।
यह बात कभी सही रही होगी, जरूर सही रही होगी। आखिर हर झूठी से झूठी बात के पीछे भी कहीं कोई सत्य होता है, चाहे हजारों साल पीछे दब गया हो। कभी यह बात सच रही होगी। जब शिव जीवित रहे होंगे तो शायद यह बात सच रही होगी कि अगर उनके पास मृत्यु घट जाए...जिनके पास जीवन परमात्ममय हो जाता है उनके पास मृत्यु भी परमात्मामय हो जाती है।
जो थोड़े से संन्यासी यहां मरे हैं, कभी आगे यात्रा में तुम्हें मिल जाएं तो उनसे पूछना। अब तो मुझे पत्र आते हैं संन्यासियों के। कोई बीमार हो जाता है, उसकी खबर आती है कि मैं आना चाहता हूं, वहीं मरना चाहता हूं, कहीं और नहीं मरना है। जीना  है यहां, मरना है यहां। क्यों? क्योंकि यह उत्सव और कहां संभव हो सकेगा? मृत्यु कहां उत्सव बन सकेगी आज पृथ्वी पर?
जब प्रेम चिन्मय की शवयात्रा, संन्यासियों का उत्सव नृत्य, चिता के आसपास संगीत--इसकी फिल्म अमरीका पहुंची तो लोग एकदम अवाक रह गए, भरोसा न कर सके कि कहीं पृथ्वी पर कोई ऐसी जगह भी है जहां मृत्यु भी उत्सव है! हालतें तो यूं हो गई हैं कि जीवन ही उत्सव नहीं रहा है, मृत्यु कैसे उत्सव होगी? शीला लेकर गई थी फिल्म को, तत्क्षण अमरीकी टेलिविजन ने स्वीकार कर लिया कि हम इसे सारे मुल्क में, सारे टेलिविजन स्रोतों से विस्तीर्ण करना चाहते हैं। क्योंकि यह तो अनूठी बात है कि कोई मरे और मृत्यु उत्सव में परिणत की जाए। न सुना हमने कभी, न देखा हमने कभी।
कभी जरूर काशी में लोग मरने आते रहे होंगे। लेकिन वह बात जमाने हुए तब बीत गई। फिर तब से तो बहुत बुद्ध हो चुके हैं, लेकिन काशी उनको टिकने नहीं देती। काशी उनकी सबसे बड़ी दुश्मन सिद्ध होती है। क्योंकि हर नया बुद्ध, नया जीवन, नया प्रकाश, नई दृष्टि, नया दर्शन लेकर आता है। नया सूरज है नया बुद्ध। उसके सामने कल के सब सूरज फीके हो जाते हैं। हो ही जाने चाहिए, क्योंकि कल के सूरज तो सिर्फ स्मृतियां हैं और आज का सूरज जीवंत है।
तो कठिन है तीर्थों को पवित्र करना। बहुत कठिन है, लेकिन अगर कभी कोई बुद्धपुरुष किसी पुराने तीर्थ पर बस जाए तो उसकी मौजूदगी उसे भी पवित्र कर देती है; जो मर गया था, उसमें फिर सांसें आ जाती हैं; जो सो गया था वह फिर जग आता है।
सूत्र तो सच है। सूत्र में कोई भूल-चूक नहीं है, सहजानंद। संत तीर्थ का निर्माण करते हैं। फिर उन तीर्थों के पुनर्जीवन के लिए सिवाय संतों के और कोई उपाय नहीं हैं। मगर सब धर्म यह चेष्टा करते हैं कि आगे आने वाले बुद्धों के लिए द्वार बंद कर दिए जाएं। तो मुसलमान कहते हैं--मुहम्मद आखिरी पैगंबर। क्यों? क्योंकि कोई दूसरा पैगंबर आए तो अब तो चौदह सौ वर्ष बाद आएगा। चौदह सौ वर्ष में जिंदगी बदल चुकी, गंगा का कितना पानी नहीं बह चुका! आज क्या मुहम्मद की भाषा बोलनी पड़ेगी? और आज जो मुहम्मद की भाषा बोलेगा वह पागल मालूम पड़ेगा; जैसे अयातुल्ला खौमैनी, इस तरह का पागल आदमी। आज कोई मुहम्मद की भाषा बोलेगा तो असंगत मालूम होगी। उस भाषा के लिए आज कोई संदर्भ नहीं रहा। आज तो कोई आज की ही भाषा बोलेगा। तो भय है। तो मुसलमानों ने द्वार बंद कर दिया, कि कुरान आखिरी किताब है, अब इसके बाद और कोई किताब नहीं आएगी, अब कोई और नया संशोधित रूप नहीं आएगा, परमात्मा ने आखिरी संदेश दे दिया। जैसे कि कुरान जहां आया वहीं मनुष्य का विकास भी ठहर गया!
यह बात बेहूदी है। विकास कभी नहीं ठहरता। किताबें आती रहेंगी, किताबें उतरती रहेंगी और विकास जारी रहेगा। लेकिन सब धर्मों का यही रिवाज है। यहूदी इसीलिए जीसस को स्वीकार न कर सके, क्योंकि जीसस ने कहा: तुमसे पुराने पैगंबरों ने कहा है कि ईंट का जवाब पत्थर से और मैं तुमसे कहता हूं--सुनो, मैं तुमसे कहता हूं--कि जो तुम्हारे बाएं गाल पर चांटा मारे, तुम दायां गाल भी उसे दे देना। तुमसे पुराने पैगंबरों ने कहा है कि जैसे को तैसा, यही नियम है और मैं तुमसे कहता हूं कि जो तुम्हारा कोट भी छीने, तुम उसे कमीज भी दे देना। तुमसे पुराने पैगंबरों ने कहा है कि आंख के बदले आंख और मैं तुमसे कहता हूं जो तुमसे कहे एक मील मेरा सामान ढो चलो, तुम दो मील उसका सामान ढो देना।
खतरा पैदा हो गया। यह आदमी तीर्थ को पवित्र करने में लगा था। पंडित पुजारी जो गंदगी कर चुके थे, उस तीर्थ को पवित्र करने में लगा था। इसको बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। इस आदमी को समाप्त करना ही होगा। अगर इसने तीर्थ को पवित्र कर दिया तो पुराना सारा धंधा, जो उसी तीर्थ के आसपास, मुर्दा तीर्थ के आसपास चलता था, मर जाएगा।
तीर्थ पुनरुज्जीवित हो तो पुरोहित मर जाता है। पुरोहित जीए तो तीर्थ को मरा हुआ होना चाहिए। इस गणित को तुम समझ लो तो बात बिलकुल साफ हो जाएगी। इसीलिए पंडित और पुरोहित, तथाकथित महंत, महामंडलेश्वर, शंकराचार्य, इमाम अयातुल्ला इत्यादि-इत्यादि तरह के लोग हमेशा बुद्धपुरुषों के विपरीत होंगे। उनके धंधे का सवाल है। उनकी बात भी मैं समझता हूं। लेकिन वे गंदा करते ही जाते हैं।
तीर्थ हमारे गंदगियों के ढेर हो गए हैं। जितनी ज्यादा कुरूपता और जितना जघन्य कुत्सित रूप धर्म का तुम तीर्थों में पाओगे, और कहीं नहीं। मगर चूंकि उसके तुम देखने के आदी हो गए हो, राजी हो गए हो, तुम चुपचाप बर्दाश्त किए जाते हो। तुम्हें होश भी नहीं आता कि तुम क्या कह रहे हो।
सिक्खों ने दसवें गुरु के बाद कह दिया कि बस, अब गुरुग्रंथ साहब पूरा हो गया, अब आगे कोई गुरुग्रंथ साहब में कुछ भी नहीं जोड़ सकता।
जैनों ने कह दिया: चौबीसवें तीर्थंकर महावीर के बाद अब कोई तीर्थंकर नहीं। तो सड़ेगा ही तीर्थ। अगर जैन मर गए सड़ गए, तो कोई और जिम्मेवार नहीं है। जिस दिन तुमने कह दिया कि अब कोई तीर्थंकर नहीं हो सकेगा, उस दिन तुमने दरवाजे बंद कर लिए अपने मंदिर के, तुमने द्वार-खिड़कियां बंद कर लीं अपने मंदिर की। न अब सूरज की रोशनी भीतर पहुंचती है, न अब चांद झांकता है, न अब शुद्ध हवाएं आती हैं, न अब पक्षियों के गीत गूंजते हैं। अब बैठे रहो पत्थरों की दीवारों में अपनी-अपनी कब्रों में बंद।
अच्छी मनुष्यता किसी दिन पैदा होगी तो हम नए तीर्थ भी बनाएंगे, पुराने तीर्थों को भी पुनरुज्जीवित करते रहेंगे। सारी पृथ्वी को तीर्थ बना लेना चाहिए। और अगर हमने समझदारी की होती तो अब तक सारी पृथ्वी बन गई होती। क्योंकि कौन-सा ऐसा कोना है पृथ्वी का, जहां कभी न कभी कोई न कोई जाग न गया हो? अगर हमने दुनिया को अलग-अलग धर्मों में न बांटा होता और हम धर्म ने जिद न की होती कि मैं ही ठीक हूं और सब गलत हैं, और हम धर्म ने अपने द्वार-दरवाजे बंद करके सील मोहर न लगा दी होती, तो आज सारी पृथ्वी तीर्थ होती। क्योंकि पृथ्वी के चप्पे-चप्पे पर कोई न कोई बुद्ध चला है। कहीं न कहीं बुद्ध की वाणी गिरी है। फिर नाम कुछ हो, जरथुस्त्र हो कि लाओत्सु हो, महावीर हो कि कृष्ण हो--इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। और अगर हम राजी रहते, खुले रहते, नयी हवाओं का स्वागत करते रहते...पुराने सूर्यों को नमस्कार करो ठीक, मगर नए सूर्यों को नमस्कार करना मत भूल जाओ। क्योंकि काम तो नया सूरज ही आएगा। पुराने सूरज को धन्यवाद दो और नए सूरज को नमस्कार करो--तो यही सारी पृथ्वी तीर्थ बना सकती है। मैं एक ऐसे ही महत आयोजन में संलग्न हूं। इस सारी पृथ्वी को ही तीर्थ बनाना है।

दूसरा प्रश्न: भगवान,
मैं अभागा कब आपको समझ सकूंगा? अब तो आप ही कुछ करें तो बात बने।

नरोत्तमदास,
कुछ बातें हैं, जो कोई दूसरा नहीं कर सकता, चाहे तो भी नहीं कर सकता। तुम्हें ही समझना होगा। मैं तो समझता ही हूं मैं क्या कह रहा हूं। अब और क्या करूं? तुम्हारे भीतर तुम्हारी आत्मा बन कर कैसे बैठ जाऊं? तुम्हें जगाने के लिए पुकार दूंगा, चुनौती दूंगा, चेतावनी दूंगा, हिलाऊंगा-डुलाऊंगा। तुम गालियां भी दोगे, क्योंकि तुम्हें हिलने-डुलने में तकलीफ होगी, नींद टूटेगी, तुम क्रोध में भी आओगे। कितने लोग मुझ पर क्रुद्ध हैं! कितनी गालियां! जितनी ज्यादा गालियां मुझे मिलती हैं उतना मैं खुश होता हूं, क्योंकि मैं सोचता हूं कि चलो ये थोड़े लोग और हिले, थोड़े लोग और डुले; चलो लोगों तक बात पहुंचने लगी! नाराज होने लगे, मतलब बात पहुंचने लगी! लोगों के कानों में कुछ न कुछ सरसराहट होने लगी। लोगों के प्राणों में कुछ न कुछ भनक पड़ने लगी।
मगर कुछ चीजें हैं जो तुम्हें ही करनी होगी। मैं कह सकता हूं कैसे करो, मगर मैं कैसे कर सकूंगा? तुम कहते हो: अब तो आप ही कुछ करें तो बात बने।
नहीं जी, तुम्हीं करोगे और बात बनेगी। तुम्हीं से बात बनवा कर रहेंगे। यूं आसानी से मत छूट निकलो कि सब आप पर ही छोड़ दिया, अब तो आप ही करें तो कुछ बात बने। यूं निश्चित न हो जाओ। यूं अपना उत्तरदायित्व मत छोड़ दो।
मेरा संन्यासी अनिवार्य रूप से अपने उत्तरदायित्व को समझता है। तुम तो अभी मेरे संन्यासी नहीं हो। लेकिन चल पड़े हो रास्ते पर, अगर बात समझने की उत्सुकता पैदा हुई है तो कितनी देर बचोगे? और बात समझना हो तो संन्यास में छलांग ले ही लो, फिर समझना आसान हो जाता है। क्योंकि कई छोटी-छोटी बातें जिनके कारण तुम नहीं समझ पाते, संन्यास लेते ही टूट जाती हैं। जैसे ही तुमने संन्यास लिया, लोगों ने समझा कि पागल हो गए, गए काम से! और जैसे ही लोगों ने समझा पागल हो गए, फिर तुम्हें भी क्या डर! फिर अब समझ ही लो, अब पागल हो तो ही गए, अब क्या डर? वह पागल होने का डर ही कि कहीं कोई पागल न कहे, तुम्हें समझने नहीं देता।
लोग मुझसे कहते हैं कि हम ध्यान तो करते हैं, सक्रिय ध्यान करते हैं, मगर ऐसे करते हैं कि किसी को कानों कान पता न चले, नहीं तो लोग समझते हैं पागल हो गए। अब तुम ऐसे करोगे सक्रिय ध्यान कि किसी को कानों कान पता न चले, तो क्या कंबल ओढ़ कर बिस्तर में करोगे, कहां करोगे? और पत्नी को तो पता चल ही जाएगा। पत्नियों से कौन कब क्या छिपा पाया है? अभी तक कोई ऐसा राज नहीं जो पुरुष पत्नी से छिपा पाया हो। सीधे अंगुली तो सीधे, नहीं तो वह तिरछी अंगुली निकाल लेती है, मगर राज निकाल कर रहती है। तुम अगर जरा हिले-डुले बिस्तर में तो वह फौरन आ जाएगी--क्यों हिल-डुले रहे हो? तुम अगर जरा हिले-डुले बिस्तर में तो वह फौरन आ जाएगी--क्यों हिल-डुल रहे हो? क्या माजरा है? किसके साथ हिल-डुल रहे हो? किसकी कल्पना कर रहे हो? क्या माजरा है? किसके साथ हिल-डुल रहे हो? कितनी कल्पना कर रहे हो? हेमामालिनी की या किसकी? ऐसे क्या हिल डुल रहे हो? ऐसे मेरे साथ नहीं हिलते-डुलते। ऐसे क्या मौज मजे में आ रहे हो? क्या हो रहा है तुम्हें? होश है कि बेहोश हो, कि ज्यादा पी कर आ गए हो?
लेकिन एकबारगी संन्यासी हो गए नरोत्तमदास, फिर तो पागल हो ही गए; सील-मोहर ही लग गई कि यह आदमी पागल है। फिर तुम हू-हू करो, हुंकार भरो, लोग कहेंगे--इससे तो यही आशा है। तुम न हू-हू करो तो लोग पूछेंगे कि भई, हू-हू क्यों नहीं करते? कैसे आधे-आधे पागल? अरे हू-हू करो!
अब यहां पास ही कहीं बैठे होंगे गौतम--इंदौर से आए हुए--वे एक जगह ध्यान करते थे। मुसलमानों की बस्ती। मुसलमानों का कब्रिस्तान पास, जहां वे ध्यान करते और संन्यासियों को ध्यान करवाते। मुसलमानों में खबर पहुंच गई कि बड़ा खतरनाक ध्यान है, इसमें हू-हू करने से जो कब्रों में लोग सो रहे हैं वे जग जाएंगे। बड़ा धूम-धड़ाम मचाया उन्होंने कि यह आश्रम तो बंद ही होना चाहिए। यह तो हमारी मुर्दों को जगाने की कोशिश है। और मुर्दे जरा जग जाएं तो कौन नहीं डरता! अरे तुम्हारा बाप ही जग जाए तो भी डर लगता है कि भैया, अब तुम सौ गए तो सोए ही रहो! बामुश्किल तो सोए। अब रो-धो कर हम निपटे, अब और जगाकर क्या हमारी जान लेनी है? किसी की पत्नी जग जाए, किसी का पति जग जाए; किसी का बेटा जग जाए। कौन झंझट ले! और पता नहीं कहां-कहां के लोग मरघट में सो रहे हैं, किस-किस जमाने से सो रहे हैं! और मुसलमानों में तो हिसाब ही यह है कि कयामत तक सोना है और कयामत आएगी, अब आएगी! आखिरी निर्णय का दिन। अनंत काल लगने वाला है। और यह हू-हू की जो आवाज है, इसमें एकदम से भूत-प्रेत जग जाते हैं।
यह बड़े मजे की बात है। मैं जिंदा आदमियों को जगाने की कोशिश कर रहा हूं और वे घबड़ाने लगे कि भूत-प्रेत जग जाते हैं। और गौतम की पत्नी ऐसी मस्त होने लगी हू-हू करके, उन्होंने कहा कि इसको भूत प्रेत लग गए हैं। इतनी मस्ती कहीं होती है? अरे हू-हू करने में क्या मस्ती होने वाली है! कोई भूत-प्रेत घुस गए हैं। वह ऐसी नाचती, डोलती, लेट जाती, घंटों सन्नाटे में शून्य हो जाती।
तो गौतम ने मुझे लिखा कि क्या करना अब? मुसलमान बड़े खिलाफ हो रहे हैं कि और सब करो भैया, हू-हू नहीं करने देंगे, क्योंकि हू-हू तो खतरनाक चीज है। और यह तुमको किसने सिखाया? हिंदू तो ओंकार का जाप करते, राम-राम करते; यह हू-हू, यह तो भूत-प्रेतों को जगाने की विद्या है। यह तो अल्लाहू का हिस्सा है। यह तुम जोर-जोर से हू-हू करोगे, यह तो कयामत के दिन होने वाला है, जब अल्लाह जगाएगा मुर्दों को, तो चिल्लाएगा हू-हू तो वे सब जाग कर खड़े हो जाएंगे।
और तुम यह कयामत अभी लाए दे रहे हो।
एक बार पागल हो जाओ, फिर मजा ही मजा है। फिर तुम बीच बाजार में हू-हू खड़े हो कर करो, लोग कहेंगे: अरे यह तो संन्यासी है! यह तो इससे अपेक्षा ही है, यह कुछ न कुछ उल्टा-सीधा करेगा ही।'
यह काम मुझसे तो न हो सकेगा।
गार्ड ने हरी झंडी दिखाई और गाड़ी चलने को थी। प्लेटफार्म पर खड़ी मां-बेटी का वार्तालाप खत्म ही  होता था, आखिर उसको खत्म होता न देख गाड़ी के गार्ड सरदार विचित्तरसिंह ने उन्हें कहा: भाई, जल्दी करो। गाड़ी में सवार हो जाओ गाड़ी छूटने को है।
युवती ने कहा: पहले मैं अपनी मां का चुंबन तो ले लूं, फिर सवार होती हूं।
गार्ड ने कहा कि आप गाड़ी में सवार हो जाएं, वह काम में कर दूंगा।
कुछ काम खुद ही करने होते हैं, दूसरा नहीं कर सकता। मगर सरदार विचित्तरसिंह, उनने कहा: बाई तू तो चढ़, तेरी माता से में निपट लूंगा।
तुम कहते हो: मैं अभागा, कब आपको समझ सकूंगा? और यही क्या कम सौभाग्य है कि इतना समझ में आया कि मैं अभागा आपको कब समझ सकूंगा! यहां ऐसे-ऐसे अभागे हैं, जो समझते हैं कि समझ ही गए। समझे खाक नहीं, समझे राख नहीं, मगर समझते हैं कि समझ गए। लोग बड़े अजीब-अजीब हैं।
मुट्ठियों में खाक लेकर दोस्त आए बादे-दफ्न
जिंदगी भर की मुहब्बत का सिला देने लगे
जब कोई मर जाता है तो लोग मुट्ठियों में खाक लेकर उसकी कब्र पर डालने जाते हैं। उसको जब दफनाते हैं तो सब अपना-अपना भाग, हिस्सा अपना-अपना, थोड़ी-थोड़ी मिट्टी डाल देते हैं उसके ऊपर।
मुट्ठियों में खाक लेकर दोस्त आए बादे-दफन
जिंदगी भर की मुहब्बत का सिला देने लगे
यह भी क्या दुनिया है...
जिंदगी भर की मुहब्बत का सिला देने लगे!
जिंदगी भर जो प्रेम किया था उसका यह फल...
और किसी के मुंह से भी न निकला
कि इन पर राख न डालो, ये हैं आज नहाए हुए
आज ही बदले हैं इन्होंने कपड़े
और ये हैं आज नहाए हुए
किसी के मुंह से भी यह न निकला बादे दफन
लोगों के तर्क, लोगों के सोचने की प्रक्रियाएं बड़ी अजीब हैं। जिंदगी भर की तुम भी तुम पर राख डालते हैं--तुम्हें समझ में आए न आए-- मर जाते हो, तब भी राख, डालते हैं। उनके पास कुछ और है भी नहीं। जो है वही तो डालेंगे न!
लोगों के पास अहंकार है। अहंकार एक भ्रांति देता है कि मुझे सब समझ में आता है। अभी कल तुमने सुना नहीं, एक मित्र रामदास गुलाटी कह रहे थे कि आपके विचार मेरे विचारों से बिलकुल मिलते हैं। वे बीच में हैं, केंद्र पर वे हैं। उनके विचारों से मेरे विचार मिलते हैं! इसलिए वे मुझसे राजी हैं। उल्टा नहीं कि मेरे विचारों से उनके विचार मिल रहे हैं।
तुम कम से कम इतना तो समझे कि मैं अभागा हूं, कब आपको समझ सकूंगा। यह अच्छी शुरुआत है। यह समझ की शुरुआत है।
एक डॉक्टर ने एक महिला से कहा: श्रीमतीजी, आपके पति को पूर्णतया आराम की जरूरत है।'
महिला ने कहा: "पर डॉक्टर साहब, वह तो मेरी एक भी नहीं सुनते।'
डॉक्टर ने कहा: "यह तो बहुत अच्छी शुरुआत है।'
एक दूसरी महिला किसी डॉक्टर से कह रही थी कि मेरे पति को रात नींद नहीं आती, क्या करूं? तो डॉक्टर ने कहा:"ये दो गोलियां लो और सब ठीक हो जाएगा।'
चलते वक्त वह पूछने लगी कि ये गोलियां पति को कब देनी हैं? डॉक्टर ने कहा: "पति को नहीं देनी, ये तुम्हें लेनी हैं। अगर तुम सो गयीं तो वे सो ही जाएंगे। माई, कोई तरह तुम सो जाओ।'
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी दिन उससे कहने लगी कि तुम रात भर यह क्या बक-झक करते हो, न खुद सोते न मुझे सोने देते। कल तुम्हें डॉक्टर के पास ले चलूंगी नसरुद्दीन ने कहा:" कहीं ले जाने की जरूरत नहीं। बाई, मुझे दिन में थोड़ा बोलने का मौका दे तो रात मैं अपने-आप बोलना बंद कर दूं। अब दिन भर मुझे मौका ही न मिले तो रात न बोलूं तो कब बोलूं? दिन और रात दो ही तो चीजें हैं।'
तुम अभागे हो, यह बात खयाल में आ गयी, सौभाग्य की है। और बातें जो मैं कह रहा हूं तो कठिन नहीं है। यूं तो सरल हैं। मगर उनकी सरलता ही कठिनाई है। इतनी सरल हैं, इसलिए चूक-चूक जाती है। जिंदगी के बड़े राजों में एक राज यह है कि सरल बात बहुत मुश्किल से समझ में आती है। कठिन बात जल्दी समझ में आ जाती है, क्योंकि कठिन बात को समझने के लिए तर्क लगाना पड़ता है, बुद्धि लगानी पड़ती है, खून-पसीना बनाना पड़ता है। सरल बात को समझने में न तर्क की जरूरत, न बुद्धि की जरूरत, न खून को पसीना बनाना। सरल बात तो इतनी सरल है कि तुम्हें कुछ करना नहीं। सिर्फ सुन ली, मौन, शांत, शून्य--और आयी समझ में। सत्य तो यूं समझ में आता है कि बस शून्य में सुनने की कला आ जानी चाहिए, और कुछ भी नहीं करना पड़ता।
मैं कुछ भाषा नहीं बोल रहा हूं। ऊपर से तो भाषा ही बोल रहा हूं। मैं कुछ शब्द नहीं उपयोग कर रहा हूं। यूं तो शब्द ही उपयोग कर रहा हूं। लेकिन पीछे निःशब्द है। जरा तलाशो, जरा टटोलो। और निःशब्द पर तुम्हारा हाथ पड़ जाए तो सब समझ में आ जाएगा। और शब्दों को ही पकड़ा तो मुश्किल खड़ी हो जाती है, बहुत मुश्किल खड़ी हो जाती है।
ट्रैफिक पुलिस के सिपाही ने एक महिला चालक को रोक कर चालान करते हुए कहा: "आपने पीछे पढ़ा नहीं कि चालीस से ऊपर गाड़ी चलाना मना है?'
महिला चालक ने कहा: लेकिन मैं तो अभी सिर्फ बाईस की ही हूं।'
शब्दों को पकड़ने वाले लोग...
साहब ने चपरासी को बुला कर कहा: "आज बड़ी मुश्किल से टाइपिस्ट ओवर टाइम के लिए रुकी है। मगर यदि मैं मौजूद न रहा तो काम पूरे नहीं होने वाले। तुम बंगले पर जा कर मेरी श्रीमतीजी से बता देना कि मैं रात नहीं आ सकूंगा।
चपरासी चला गया। अगले रोज वह सबेरे-सबेरे ही आफिस पहुंचा तो देखा--साहब और टाइपिस्ट एक ही साथ टेबल पर सोए पड़े मिले। उसने दस्तक दे कर जगाया, क्योंकि अन्य कर्मचारी भी आने वाले थे। शाम को चपरासी को बुला कर साहब ने फिर कहा कि वह बंगले पर जा कर कह दे कि रात नहीं आ सकेंगे। चपरासी बोला: "साहब, आप बेफिक्र रहें। कल मेमसाहब ने मुझे बंगले पर ही रोक लिया था और ओवर टाइम भी दिया था।'
अब यह "ओवर टाइम' शब्द पकड़ो तो बात कुछ और। और शब्द के जरा पीछे चलो तो बात कुछ और।
एक सांझ प्रेमी-प्रेमिका का एक जोड़ा बगीचे के कोने में प्रेम-क्रीड़ा में संलग्न था। एक पुलिस वाले ने उन्हें ऐसा करते पकड़ लिया और उन्हें पुलिस थाने ले गया। युवक से थोड़ी पूछताछ की और उसे मारपीट करके अलग कर दिया गया। लेकिन युवती से स्टेटमैंट लेने के लिए उसे पुलिस-चौकी पर बिठाये रखा गया। पहले थानेदार ने स्टेटमैंट ली, फिर हवालदार ने स्टेटमैंट ली, उसके बाद सुपरिंटेंडेंट ने स्टेटमैंट ली। रात भर स्टेटमैंट चलती रही और जब सुबह हो गयी तो युवती को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया। मजिस्ट्रेट ने भी युवती को देखते ही आदेश दिया: "स्टेटमैंट दो!' वह युवती अलसाए स्वरों में बोली: "माफ करो, अब मेरी स्टेटमैंट में बहुत दर्द हो रहा है।'
रात भर स्टेटमैंट, तो स्टेटमैंट में दर्द होगा ही!
नरोत्तमदास, शब्द न सुनो भैया। थोड़ा निःशब्द गुनो। सब समझ में आ जाएगा। बात कुछ कठिन नहीं है। बात तो सीधी सादी है। लेकिन अगर कहीं तुम्हारे कोई पूर्व-पक्षपात हों तो उनको जरा हटा दो। और सबके पूर्व-पक्षपात होते हैं इसलिए उसमें कुछ अपने को अभागा मानने की जरूरत नहीं। मजबूरी है। अनिवार्य बुराई है। क्योंकि हर बच्चे को मां-बाप से सीखना  होगा, स्कूल में सीखना होगा, बाजार में, समाज में सीखना होगा। और दूसरे चारों तरफ से अपने-अपने पक्षपात उस पर थोपने को उत्सुक रहते हैं।
एक छोटे-से बच्चे से किसी ने पूछा कि तेरा नाम क्या है? उसने कहा कि बताना बहुत मुश्किल है। उसने पूछा: "हद हो गयी, तुझे अपना नाम भी नहीं मालूम?'
उसने कहा: "नाम अब मैं क्या बताऊं! स्कूल में मास्टर मुझको  "नालायक' कहते हैं। मेरे पिताजी मुझे "हरामजादा' कहते हैं। मेरी मां मुझे "उल्लू का पट्ठा' कहती है। मेरे चाचा मुझे "बदतमीज' कहते हैं। अब मैं क्या समझूं कि मेरा नाम क्या है? जो देखो उसी ने अलग-अलग नाम रख छोड़े हैं और मुझे पता ही नहीं कि मेरा नाम क्या है। सो जो जो कहता है, उसी में मैं बोलता हूं कि जी हां।'
तुम्हें चारों तरफ से लोग पक्षपात डाल रहे हैं। सबके पक्षपात तुम्हारे भीतर इकट्ठे हो जाते हैं। फिर तुम उन्हीं की आड़ से मुझे सुनोगे तो मुश्किल होगी।
बच्चे ने पूछा: "मां नरक में स्कूल होता है क्या?
मां ने कहा: "नहीं नरक में स्कूल नहीं होता। लेकिन बेटा, यह तू क्यों पूछ रहा है?
बच्चे ने कहा: "फिर मां, लोग नरक जाने से डरते क्यों हैं?'
बच्चे की अपनी समझ, कि दुनिया में स्कूल से ज्यादा डरने वाली और चीज क्या है! अब मुझे तो स्कूल को छोड़े कोई बरसों हो गये। प्रायमरी स्कूल में जब पढ़ता था, उसको तो चालीस साल से ऊपर हो गये। मगर अब भी जब कभी सुबह घंटा बजता है तो मुझे स्कूल की याद आ जाती है। मैं भी हैरान होता हूं कि हद हो गयी। वह स्कूल भूलता नहीं! खास कर बरसात के दिनों में स्कूल जाना इतना कष्टपूर्ण कार्य था कि स्कूल के वक्त या तो मैं पाखाने में घुस जाऊं...। अब लोग ठोंक रहे हैं दरवाजा कि निकलो, स्कूल का वक्त हो गया। मैं निकलूं कैसे, पहले सब साफ-सफाई तो हो जाए! निकलूं तो स्कूल की तरफ, पहुंच जाऊं कहीं-कहीं।
सो एक चपरासी, मुन्नालाल उसका नाम, वह मुझे नहीं भूलता। अगर कहीं भी कोई नरक है तो मुन्नालाल जरूर वहां होगा। बड़ा पहुंचा हुआ चपरासी था। वह रोज सुबह घर के सामने आकर खड़ा हो जाता था--कि चलो निकलो! आगे मुझे कर लेता, पीछे चलता खुद। उसको धोखा देना बड़ा मुश्किल था। उससे कहो: लघुशंका करनी है।' वह कहे: "अच्छा करो, हम पीछे खड़े हैं।' वह पीछे ही खड़ा रहे डंडा लिए। और अगर बहुत देर हो जाए तो वह कहे कि यह कैसी लघुशंका है--लघुशंका का मतलब, जल्दी खतम करना चाहिए। लघुशंका को इतना लंबाए जा रहे हो?
जब मुन्नालाल मरा तो मुझे जो आनंद हुआ था, फिर वैसा आनंद कभी नहीं हुआ। असल में मृत्यु उत्सव है, यह मुन्नालाल की मृत्यु से ही समझा। मैं नाचता-गाता ही गया उसकी मृत्यु में, हालांकि मुहल्ले के लोगों ने कहा कि यह बात ठीक नहीं। मैंने कहा: "ठीक हो कि गलत, अरे मर ही गया है, अब क्या है? अब क्या कर लेगा?'
मगर यह बड़ा दुष्ट था। वह पुराने जमाने का, ब्रिटिश जमाने का चपरासी था। पैरों पर बिलकुल सिपाहियों जैसी पट्टी बांधे और खाकी ड्रेस पहने और साफा बांधे और डंडा रखे बड़ा! जैसे ही पता चल जाए मुन्नालाल आ रहा है, मुहल्ले भर के बच्चे एकदम निकल कर बस्ते लेकर स्कूल की तरफ चले! सबको खदेड़ कर स्कूल में कर दे वह। और स्कूल के बाहर बैठा रहे। एक ही दरवाजा, निकलना मतलब मुन्नालाल का सामना करना। बहुत कठिन काम था मुन्नालाल के सामने से निकलना।
मगर तरकीबें तो हम निकाल लेते थे उससे निकलने की भी। किसी को कह जाते कि तुम जरा चले आना और मुन्नालाल से कहना: "तेरी पत्नी बहुत बीमार है।' ठीक दो बजे कहना।
पहले तो मुन्नालाल कहे: "रहने दो बीमार!' फिर सोच-विचार में पड़े कि कहीं सच में बीमार न हो! तो जाए पत्नी को देखने, तब तक नदारद! लौट कर आकर कहे कि यह किसकी शरारत है, किसने हरकत की? मेरी पत्नी तो भली-चंगी है। कुछ छोकरे भाग गये हैं--मालूम होता है।
वह गिनती करे स्कूल में जाकर।
तो बच्चों की अपनी दुनिया होती है। चपरासी वहां एकदम नारकीय मालूम होता है। और मास्टर भी क्या-क्या सजाएं बच्चों को देते हैं! तो यह बच्चा बेचारा ठीक ही कह रहा था। इससे मैं बिलकुल राजी हूं कि फिर मां, लोग नरक जाने से क्यों डरते हैं? अगर नरक में स्कूल नहीं होता तो मैं भी जाने से डरता नहीं फिर। जाने को तैयार हूं। मगर अगर स्कूल हो और मुन्नालाल उसका चपरासी हो, तो मुझे नहीं जाना। फिर स्वर्ग ही चले जाएंगे। फिर कोई बात नहीं। जो होगा भोग लेंगे स्वर्ग में ही।
नरोत्तमदास, अगर तुम्हारी कोई धारणाएं हैं, सुनिश्चित, तो तुम मुझे समझने में असमर्थता पाओगे। मेरे पास आओ तो धारणाओं को गलत रख कर सुनने की कला सीखनी ही होगी। नहीं तो मैं कुछ कहूंगा, तुम कुछ समझोगे।
और यह भूल-चूक महंगी पड़ सकती है, क्योंकि यह अवसर कहीं ऐसा न हो कि हाथ से चूक जाए। क्योंकि ऐसा अवसर मुश्किल से, बहुत मुश्किल से हाथ में आता है। नहीं तो इस जगत में है ही क्या समझने योग्य? यहां समझने योग्य घटना कभी-कभी घटती है--कभी किसी बुद्ध की मौजूदगी में कुछ समझने योग्य होता है। नहीं तो सब तो नासमझी से ही चल जाता है, समझने की जरूरत क्या है? समझने से अड़चन ही आती है। नासमझी ही ठीक। सिर्फ बुद्धों के पास समझ चाहिए। वहां नासमझी काम नहीं करती।
अपने ज्ञान को हटाओ। अपने मन को हटाओ। थोड़ा ध्यान में उतरो। ध्यान के अतिरिक्त मुझे समझने का कोई उपाय नहीं।

तीसरा प्रश्न: भगवान,
अब्र का एहसास उठा है, घटा छाई है
फिर तेरी याद दबे पांव चली आई है
आज एहसास ने फिर घूंघट उलटा
आज फिर होठों ने रंगीन गजल गाई है
अब भला हालते दिल कैसे छिपाऊं?
दासतां चेहरे पे मुहब्बत की उभर आई है।

आनंद मुहम्मद,
इसको ही मैं समझ कहता हूं--अब्र का एहसास उठा है। बादल छा गया है--अमृत का!
अब्र का एहसास उठा है, घटा छाई है
फिर तेरी याद दबे पांव चले आई है
और जब आकाश बादलों से घिरता है और घटाएं घुमड़ने लगती हैं तो कितने तौबे नहीं टूट जाते! लोग कसमें खाते हैं--अब नहीं पीएंगे। लेकिन फिर घटा यूं छा जाती है, ऐसी घुमड़ कर, कि नहीं रहा जाता बिना पीए। कुछ तो घटा का घुमड़ कर छाना फिर कुछ कमबख्त जी का भी ललचा जाना--बहुत मुश्किल हो जाता है। फिर आदमी सोचता है, एक दफा तौबा तोड़ ही दी तो क्या है! फिर तौबा कर लेंगे। फिर कसम खा लेंगे। अरे यूं तो कई दफा तोड़ चुके, कई दफा बना चुके। तौबा तो अपने हाथ की बात है। फिर कल घटा छाई न छाई! और कल यह कमबख्त जी ललचाया न ललचाया!
और जैसी शराबी को घटा छायी देख कर, मोर को नाचते देख कर पीने का एहसास उठा जाता है--वैसे ही संन्यासी को भी उठता है। हालांकि उसकी शराब और। हालांकि उसका मयखाना और। हालांकि उसका साकी और। कहते हो तुम।
अब्र का एहसास उठा है, घटा छाई है
फिर तेरी याद दबे पांव चली आई है
आज एहसास ने फिर घूंघट उलटा
आज फिर होठों ने रंगीन गाई है
अब भला हालते दिल कैसे छिपाऊं?
दासतां चेहरे पे मुहब्बत की उभर आई हैं।
नहीं, ये बातें छिपाए नहीं छिपतीं। लाख छिपाओ, प्रकट हो जाती हैं। ये राज राज नहीं रहते। मस्ती यूं धनी होती है! आंखें ऐसी लबालब हो जाती हैं! गागर के ऊपर से बहने लगता है सागर। कैसे छिपाओगे? ये अजस्र झरने जब फूटते हैं तो नहीं रुकते।
आनंद मुहम्मद, शुभ हो रहा है। इसको ही मैं समझ कहता हूं, समाधि कहता हूं। गजलें उठेंगी, बहुत गजलें उठेगी! गीत झरेंगे, बहुत गीत झरेंगे।
दिल में तेरा खयाल अभी ला रहा हूं मैं।
तू  यह न समझ कोई गजल गा रहा हूं मैं।
खुद के खिलाफ खुद से गुजरता हूं रात-दिन
तन्हा की तरह खुद में उतरा हूं रात-दिन
छोड़ा था कहां खुद को, कहां पा रहा हूं में!!
राहें किसी की, शहर किसी का, किसी का घर
बनकर सवाल मुझसे लिपटती है हर नजर
किस-किस से कहूं क्या कहूं  कहां जा रहा हूं मैं!!
ख्वाबों का एक जहान था, उम्मीद का महल
इतने हसीन गीत का पहलू गया बदल
आईना अपने आपको दिखा रहा हूं मैं!!
नजरों से अमां होते हुए राज की तरह
धड़कन में कहीं सोते हुए साज की तरह
किस-किस तरह करीब तेरे आ रहा हूं मैं!!
आनंद मुहम्मद, आ रहे हो करीब। रोज-रोज आ रहे हो। प्रतिपल आ रहे हो। गजलें उठेंगी, नयी-नयी गजलें उठेगी। और डरो मत, गाओ! और छिपाओ मत, यह मुहब्बत प्रकट होने दो! इसे होठों पर गजब बनने दो। इसे होठों पर मुस्कुराहट बनने दो! इसे आंखों में मदहोशी बनने दो। इसे पैरों में नृत्य बनने दो। इसे प्रकट होने दो हजार-हजार रूपों में।
कानों में कुछ ऐसा
बोल गया कोई
नैनों के आंगन में
नए नए
सपनों के फूल
धूपिया बदन खनका
महक गए यादों के बबूल
सहमे मन पंखों को
खोल गया कोई
बार बार छलके हैं
बिना बात
होंठ से हंसी,
आंचल आकाश हुआ
धड़कन में बांसुरी बजी
सांसों में कस्तूरी
घोल गया कोई।
आ गयी घड़ी करीब, जिसकी प्रतीक्षा करते हैं। सबकी आनी है। और अगर देर है तो तुम्हारे कारण।
मगर लोग बड़े अजीब हैं! लोग कहते हैं: "परमात्मा के जगत में देर है, अंधेर नहीं।' मैं तुमसे कहता हूं: न वहां देर है, न अंधेर है। देर है तुम्हारे कारण, अंधेर है तुम्हारे कारण। जिम्मेवार तुम हो। जिस दिन अपनी जिम्मेवारी समझोगे--न अंधेर है न देर है।
सांसों में कस्तूरी
घोल गया कोई
कानों में कुछ ऐसा
बोल गया कोई
नैनों के आंगन में
नए नए
सपनों के फूल
धूपिया बदन खनका
महक गए
यादों के बबूल
सहमे मन पंखों को
खोल गया कोई
सांसों में कस्तूरी
घोल गया कोई
बार बार छलके हैं
बिना बात
होंठ से हंसी,
आंचल आकाश हुआ
धड़कन में बांसुरी बजी,
सांसों में कस्तूरी
घोल गया कोई।
कानों में कुछ ऐसा
बोल गया कोई।
तैयार है परमात्मा तुम्हारे कानों में बोलने को। मगर तुम्हारे कानों में इतना कचरा भरा है, इस कारण अड़चन है। इतना ज्ञान ठूंस-ठूंस कर तुमने भर लिया है, इसलिए अज्ञानी हो। पंडित हो, इसलिए पापी हो। पांडित्य से छुटकारा, ज्ञान से छुटकारा, उधार कचरे से छुटकारा--और श्वास-श्वास गजल हो जाएगी। और होठों पर बांसुरी आएगी ही आएगी। गीत गूंजेंगे। नृत्य जगेगा। और जब जीवन में गीत उठता है, तो भी तो परमात्मा का प्रमाण मिलता है। और ऐसा--जिसका कोई कारण दिखाई नहीं पड़ता, अकारण! और ऐसा आनंद--जिसको कोई वजह नहीं है, बेवजह! बस भीतर ही भीतर। स्वस्फूर्त।
दिन ब दिन बढ़ती गयी उस हुस्न की रानाइयां
पहले गुल, फिर बुलबदन, फिर बुलबदामां हो गए
रफ्ता-रफ्ता वो मेरी हस्ती का सामां हो गए
आप तो नजदीक से नजदीकतर आते गए
पहले दिल, फिर दिलरुबा फिर दिल के मेहमां हो गए
रफ्ता-रफ्ता वो मेरी हस्ती का सामां हो गए
पहले जां, फिर जाने-जां, फिर जाने-जाना हो गए।
दिन ब दिन बढ़ती गयी उस हुस्न की रानाइयां
पहले गुल, फिर गुलबदन, फिर बुलबदामां हो गए।
रोज बढ़ता जाता है यह रस, यह प्रेम, यह प्रीति। चल पड़े आनंद मुहम्मद। और महावीर का एक बहुत प्रसिद्ध सूत्र है कि जो चल पड़ा वह आधा पहुंच गया।

चौथा प्रश्न: भगवान,
ये श्री अहमक अहमदाबादी कौन हैं?

स्वामी सरदार गुरुदयाल सिंह?
तुम भी न पूछो गुरुदयाल, तो भी उन्हें पहचान लोगे। आधे सरदार हैं वे भी। फिफ्टी-फिफ्टी! और आधा सरदार पूरे सरदार से भी खतरनाक होता है। अलग ही दिखाई पड़ता है। पूरा सरदार तो छिप भी जाए, आधा सरदार छिपना ही मुश्किल है।
सरदार होने के लिए पांच ककार चाहिए--केश, कंघा, कच्छा, कड़ा, कृपाण। अहमक अहमदाबादी आधे सरदार हैं। केश तो नहीं है, कंघा है, यह कहना भी ठीक नहीं--था। एक दिन सुबह-सुबह बड़े उदास बैठे थे, तो मैंने पूछा: "क्या हुआ?'
कहने लगे: "कंघे का एक दांता टूट गया।'
अरे मैंने कहा--एक दांता टूट गया तो टूट जाने दो। एक दांते के टूटने से क्या बिगड़ता है? कंघा अभी भी काम देगा।
बोले: "आप समझे नहीं। यह आखिरी दांता था।'
ऐसे सिद्ध पुरुष हैं। नमो सिद्धाणम! आखिरी दांते से क्या कर रहे थे इस कंघे से? मगर बाल हैं भी नहीं। इसलिए मैं समझा कि चलो कंघा होना चाहिए, इसलिए था।
कच्छा है, मगर उसमें इतने छेद हैं कि न होता तो अच्छा था। न होता तो अहमक अहमदाबादी कम नंगे होते। उसमें इतने छेद हैं, मतलब उनको कई तरह से नंगा देख सकते हो, जगह-जगह से नंगा देख सकते हो। इधर से देखो, उधर से देखो। पहलू पर पहलू हैं।
कृपाण तो है, मगर उसमें धार नहीं। सब्जी भी नहीं कटती। मगर नाम तो कृपाण ही है। असली चीज तो नाम है। संत पुरुष कह ही गये हैं कि नाम से ही भवसागर पार हो जाता है। सो नाम मैं भरोसा करते हैं, वे अभी भी उसको कृपाण कहते हैं। जंग खा गयी है, न सब्जी कटती है, न किसी काम की है--मगर लटकाए फिरते हैं। तुम्हें मिल जाएंगे। गुरुदयाल, चिंता न करो।
कड़ा भी है, लेकिन कड़ा कहना ठीक नहीं--"कड़ी' कहना चाहिए। जब पत्नी मर गयी तो उसकी चूड़ी उनने पहन ली। कहने लगे कि स्त्रियां, जब पति मर जाता है, तो चूड़ियां फोड़ देती हैं। मैं कोई स्त्री थोड़े ही हूं, मैं पुरुष हूं, जवां मर्द हूं। स्त्री तो मर गयी, अब मैं चूड़ी पहनूंगा। अरे जो स्त्रियां करती हैं, उससे उलटा करूंगा, तभी तो जवां मर्द!
अहमक इसीलिए मैं उनको कहता हूं--पहुंचे हुए हैं। और अहमदाबादी हैं। पहुंचे हुए--और अहमदाबादी! अब तुम सोच लो--सरदार और गुजराती! गजब हो गया! कबीरदास जी देख लेते तो कहते--एक अचंभा मैंने देखा, नदिया लग गयी आग!
ढब्बू जी एक दिन पूछ रहे थे अहमक अहमदाबादी से कि भाई कल रात तुमने भाषण में ऐसी कौन-सी बात कह दी थी कि करीबन आधा घंटे तक तालियां बजती रहीं!
अहमक अहमदाबादी बोले: "अरे कुछ नहीं यार, मैंने तो बस इतना ही कहा था कि अगर आप लोग तालियां बजाना बंद नहीं करेंगे तो मैं अपना भाषण यहीं समाप्त कर दूंगा।'
अहमक अहमदाबादी एक गीत अक्सर गाते हैं। एक रात गा रहे थे: "दुखी मन मेरा, सुनो मेरा कहना, जहां नहीं चैना वहां नहीं रहना।'
उसकी पत्नी बोली: "बंद करो यह बकवास, तुम्हारा यह गाना सुन-सुन कर मेरे तीन नौकर भाग चुके हैं--दुखी मन मेरा, सुनो मेरा कहना, जहां नहीं चैना, वहां नहीं रहना।' खुद तो नहीं भागे, मगर तीन नौकर भाग चुके हैं!
अहमक अहमदाबादी अपनी पत्नी के साथ शापिंग के लिए निकले। पत्नी बोली "कितनी अजब बात है कि मेरे पास बार्डर है पर साड़ी नहीं। इत्र की शीशी है, पर इत्र नहीं। सेट की अंगूठी है पर बूंदें और हार नहीं।'
अहमक अहमदाबादी बोले: "मेरा भी यही हाल है प्यारी, जेब है परंतु पैसे नहीं!'
अहमक अहमदाबादी पुलिस दफ्तर गये। पुलिस आफिसर ने पूछा: "तुम्हारे पास क्या सबूत है कि तुम्हारी बीबी पागल हो गयी है? कोई डॉक्टर की रिपोर्ट या...।'
अहमक अहमदाबादी ने बीच में ही बात काटते हुए कहा: "यह सब मैं कुछ नहीं जानता, किन्तु जो मैं कह रहा हूं वह सच है। आज शाम जब मैं घर आफिस से वापस लौटा तो मुस्कुराकर मेरा स्वागत किया, आलिंगन किया, बड़े प्यार से चाय की प्याली पेश की--हालांकि आज पहली तारीख नहीं है।'
अहमक अहमदाबादी अपनी पत्नी से बोले: "प्यारी, अपने पड़ोसी बड़े कंजूस हैं। ऐसे कंजूस मैंने जीवन में नहीं देखे।
पत्नी चौंकी। अहमक अहमदाबादी और ऐसी बात कहें! बोली: "क्यों?'
अहमक अहमदाबादी बोले: "उनके बेटे टीकू ने कल चवन्नी निगल ली थी तो उसको निकलवाने के लिए हरामजादों ने दो-दो डॉक्टर को बुलवाया! अरे कंजूसी की भी हद होती है! अब अपने ही सुपुत्र छुन्नु ने चवन्नी निगल ली थी, आज तीन साल हो गये, मैंने तो तुम्हें बताया भी नहीं कि नाहक डॉक्टर को बुलवाना पड़े। और फिर वैसे भी चवन्नी की अभी अपने को जरूरत नहीं थी, जब जरूरत होगी निकलवा लेंगे। कोई डॉक्टर मरे थोड़े जा रहे हैं!'
पहुंचे हुए पुरुष हैं। गुरुदयाल, थोड़ी खोजबीन करोगे तो मिल जाएंगे। यही हैं। और मुझसे मत पूछो कि मैं सीधा-सीधा बताऊं कि कौन हैं, क्योंकि नाहक मेरे वैसे ही बहुत दुश्मन हैं, अब अहमक अहमदाबादी को क्यों दुश्मन बनाना? और अच्छे आदमी हैं, इधर रहते हैं तो थोड़ा रस रहता है।
खाना खाने के बाद अहमक अहमदाबादी मैनेजर से बोले: "माफ करिए, मेरे पास इस समय तो पैसे नहीं हैं कि मैं आपका बिल चुका सकूं, फिर कभी आकर आपके पैसे दे जाऊंगा।'
मैनेजर भी था अहमदाबादी--सेर का सवा सेर। बोला: "कोई बात नहीं भाई साहब, हम आपका नाम दीवाल पर लिख देंगे। जब आप अगली बार आएं तो दे दीजिएगा।'
"मुझे यह बात पसंद नहीं आयी'--अहमक अहमदाबादी बोले--"सभी लोग मेरा नाम पढ़ेंगे, यह तो बड़ी बेइज्जती की बात है।'
"नहीं-नहीं'--मैनेजर ने कहा--"ऐसा नहीं होगा श्रीमान। नाम के ऊपर आपका कोट टंगा रहेगा। कोट के होते नाम के दिखने का सवाल ही नहीं होता।'
अहमदाबादी तो होते ही विशिष्ट तरह के प्राणी हैं। इस जगत में तरहत्तरह के जीव-जंतु हैं। अहमदाबाद में भी अपने ढंग के जीव-जंतु पैदा होते हैं। और इसलिए तो जगत में इतना वैविध्य है, नहीं तो भगवान क्या अहमदाबाद बनाए? आखिर अहमदाबाद बनाया तो कोई प्रयोजन रहा होगा। सृष्टि रची तो कोई अर्थ रहा होगा। और कुछ बना सकता था, अहमदाबाद ही बनाया! उसके पीछे राज है। वहां अहमक ज्यादा पैदा होते हैं।
"मेरे नाम से मेरे चाचा से वसीयत में इतनी लंबी रकम छोड़ी थी। इसी कारण लगता है कि तूने मुझसे विवाह किया है। यह बात सच है न?' अहमक अहमदाबादी की पत्नी एकदम भन्ना कर बोली।
अहमक अहमदाबादी बोले: "गलत, बिलकुल गलत, जी बिलकुल गलत! सौ प्रतिशत गलत। अन्य कोई भी तुम्हारे नाम से ऐसी वसीयत करता तो भी मैं तुमसे ही विवाह करता। इससे क्या फर्क पड़ता है तुम्हारे चाचा ने वसीयत की कि पिता ने वसीयत की--वसीयत होनी चाहिए। मेरा प्रेम अखंड है!'

आखिरी सवाल: भगवान,
"चलो भागो यहां से; यह स्वर्ग है, कोई पेशाबघर नहीं है'--ऐसा कह कर सेन्ट पीटर ने उस जैन साध्वी को हिंदुस्तान क्यों भेज दिया? क्या हिंदुस्तान को वे लोग मूत्रालय समझते हैं?'

संत महाराज,
इसमें समझने का सवाल ही कहां उठता है? हिंदुस्तान मूत्रालय है। यह तो जग-जाहिर बात है, सनातन तथ्य है। इसमें समझने-वमझने की बात ही नहीं उठती। सेन्ट पीटर जब ऊपर से दृष्टिपात करते होंगे तो उन्हें हिंदुस्तान में क्या दिखता होगा? लोग खड़े हैं। जगह-जगह--सड़कों के किनारे, मकानों की दीवालों पर--जीवन-जल की वर्षा कर रहे हैं। कोई पेड़ों के तनो को सींच रहा है, कोई नदी-नालों के तट पर बैठा कान में जनेऊ लपेट रहा है। सच तो यह है कि स्वर्ग में रहने वाले भारत को पहचानते ही इस विधि से हैं, क्योंकि जमीन पर कोई रेखाएं तो खिंची नहीं हैं, नक्शों के रंगों के समान रंग तो भरे नहीं हैं कि यह भारत रहा, यह अमरीका रहा, यह रहा जापान। जहां हर जगह लोग पेशाब करते देखते हैं, समझ लेते हैं--यही है पुण्यभूमि भारत, जहां देवता पैदा होने को तरसते हैं! ऋषि-मुनियों का देश है, अहा धन्य है! कैसा जीवन-जल छिड़कते फिरते हैं!
मगर अभी कुछ वर्षों से, जब से भारतीयों ने बाहर जाना शुरू कर दिया है, समुद्र को लांघ कर, तब से जरूर भारत को पहचानने में थोड़ी अड़चन सेन्ट पीटर को होने लगी है; क्योंकि भारतीय जहां भी जाएं, अपने पूर्वजों की परंपरा कभी नहीं छोड़ते।
मैंने सुना है कि रूस के प्रधानमंत्री खुश्चेव जब भारत आए और शाम के समय पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ बगीचे में टहल रहे थे तो यह देख कर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ कि एक भला मानुष फव्वारे के बगल में बैठा लघुशंका कर रहा है। उनसे रहा न गया। बोल: "हद हो गयी! आप तो कहते हैं मिस्टर नेहरू कि आपके राष्ट्र के लोग बड़े सभ्य, धार्मिक और सुसंस्कृत हैं। यह मैं क्या देख रहा हूं? क्या आपकी सरकार इसके लिए सार्वजनिक पेशाबघर नहीं बनवा सकती?'
बेचारे पंडितजी क्या जवाब देते, सिर झुका कर रह गये। कुछ वर्षों बाद नेहरू जी जब रूस गये और सांझ के समय प्रधान मंत्री भवन के पार्क में खुश्चेव के साथ घूम रहे थे तो संयोगवशात अचानक उन्हें एक आदमी दिखा जो शाम के अंधेरे में एक वृक्ष की ओट में बैठा मूत्र-त्याग कर रहा था। जो बात चल रही थी, उसे बीच में ही तोड़ कर पंडितजी बोल: "देखिए-देखिए, आप हमारे देश की बदनामी करते थे। यह आदमी यहां बैठा-बैठा क्या कर रहा है?'
आव देखा न ताव, सुश्चेव ने जोर से सीटी बजायी। चार सिपाही दौड़े आए। उन्होंने उस आदमी को पकड़ लिया और फौरन हवालात ले गये। खुश्चेव को बहुत आश्चर्य हुआ कि यह कौन आदमी है जो प्रधानमंत्री के बंगले में घुस कर ऐसी हरकत कर रहा था! क्योंकि इस भवन के अंदर तो केवल बड़े-बड़े नेताओं, अफसरों और गणमान्य व्यक्तियों को ही प्रवेश मिलता है! खुश्चेव का आश्चर्य तो दूसरे दिन मिटा, जब पुलिस के दफ्तर से फोन आया कि जिस आदमी को हमने रात हवालात में बंद कर रखा है, उसे छोड़ दें या सजा दें? आप बताइये, क्योंकि वह कोई और नहीं--भारतीय राजदूत है।

आज इतना ही।
दसवां प्रवचन; दिनांक १० अगस्त, १९८०; रजनीश आश्रम, पूना





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