जीवन की कला-(विविध)-ओशो
पहला-प्रवचन-(विचार, चिंतन और विवेक
मेरे प्रिय आत्मन्!(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
यह भाव कि मैं हूं, अनिवार्यतया इस भाव से जुड़ा होगा कि ईश्वर नहीं है। ये दोनों संयुक्त घटनाएं हैं। जिस सदी में मनुष्यों को ऐसा लगेगा कि मैं हूं, उस सदी में उन्हें लगेगा ईश्वर नहीं है। जितना तीव्र प्रकाश अपने व्यक्तित्व के घरों में अहंकार का जलेगा, उतना ही परमात्मा के प्रकाश से हम वंचित हो जाएंगे। तो जब मैं कह रहा हूं, विचार को छोड़ दें; तो मैं कह रहा हूं, अपने भीतर, घर के भीतर जलती हुई टिमटिमाती मोमबत्ती को बुझा दें और फिर देखें। फिर जो मैं कह रहा हूं कोई इस वजह से नहीं कि मैं कहता हूं इसलिए मान लें; मैं कहता हूं, करें और देखें। यह कोई सैद्धांतिक बातचीत नहीं है, यह कोई फिलाॅसफी नहीं है, यह कोई तार्किक मामला नहीं है कि कोई लफ्फाजी तर्क से मैं सिद्ध कर रहा हूं। मैं तो एक अत्यंत प्रयोगात्मक, एक्सपेरिमेंटल, एक ऐसी व्यावहारिक बात कह रहा हूं--जिसे करें और देखें।
एक बार बुझा कर देखें अपने घर के दीये को, तो पता चलेेगा कि चांद की रोशनी भीतर प्रविष्ट हो जाती है। एक सड़ा सा टिमटिमाता दीया चांद को रोके रखता है। वैसे ही जरा ‘मैं’ को बुझा कर देखें। और ‘मैं’ नहीं बुझेगा जब तक विचार हैं। क्योंकि विचार ही दीये का तेल है। विचार ही उस दीये की अग्नि है जो ‘मैं’ को जलाए हुए रखती है। विचार को अलग करें, क्रमशः दीया बुझता जाएगा अहंकार का। सारा विचार अलग हो जाए, आप पाएंगे, वहां कोई दीया नहीं है। और जिस घड़ी आप निर्विचार और निर-अहंकार होकर देखेंगे, आपको पता चलेगा ‘मैं’ कभी नहीं था। जो सदा से था वह अब भी है और आगे भी होगा। ‘मैं’ मेरा भ्रम था। और जिस मनुष्य को यह ज्ञात हो जाए कि ‘मैं’ मेरा भ्रम था, वह सत्य को उपलब्ध हो जाता है। वैसा सत्य ही जीवन में अनंत आनंद को और सौंदर्य को प्रकट करता है।
तो विचार छोड़ कर आप जड़ नहीं होंगे। हां, अगर विचार के पीछे ही चले जाएं, तो निश्चित जड़ हो जाएंगे। विचार को छोड़ कर ही आप में परिपूर्ण चेतना प्रकट होगी। और यह इतनी सरल बात है, अगर एक बार स्पष्ट रूप से खयाल में आ जाए, इतनी सरल बात है, इतनी सरल क्योंकि छायाओं को मिटा देना बहुत कठिन नहीं होता, और भ्रमों को तोड़ देना बहुत कठिन नहीं होता, और सपनों को मिटा देना बहुत कठिन नहीं होता। ये सब स्वप्न हैं हमारे, जो तोड़े जा सकते हैं।
मैं अभी ध्यान के संबंध में और विस्तार से बात करूंगा।
साथ ही जिन्होंने यह प्रश्न पूछा है, उन्होंने यह भी पूछा है कि नीति पर मैं बहुत जोर नहीं देता हूं, मैं आत्म-निरीक्षण पर, ध्यान पर, विचार शून्यता पर जोर देता हूं, लेकिन नीति पर जोर नहीं देता हूं।
निश्चित ही मैं नीति पर जोर नहीं देता। न जोर देने का मेरा कारण है। अगर मैं आपसे कहूं, घर में दीया जला लें, तो क्या आप मुझसे कहेंगे कि आप दीया जलाने की तो बात करते हैं, लेकिन अंधेरा निकालने पर जोर नहीं देते? मैं कहूंगा, निश्चित ही, अंधेरा निकालने पर मैं बिलकुल जोर नहीं देता। कोई पागल होंगे जो अंधेरा निकालने पर जोर देते होंगे, हम तो दीये ही जलाने पर जोर देते हैं। मतलब यह है कि अगर ध्यान और विवेक जाग्रत हो जाए, तो अनीति असंभव हो जाती है। इसलिए नीति पर जोर देने का कोई कारण नहीं है। जिस मनुष्य का विवेक जाग्रत हो वह अनीति नहीं कर सकेगा। और जिस मनुष्य का विवेक जाग्रत न हो, किसी तरह जबरदस्ती अगर नैतिक हो भी जाए, उसकी नीति का कोई भरोसा और विश्वास नहीं है। और फिर यह भी स्मरण रखें, जो नीति जबरदस्ती आरोपित की जाती है वह निश्चित ही टूट जाती है। क्यों? क्योंकि जबरदस्ती आरोपित नीति को निरंतर सम्हाल कर रखना होता है चैबीस घंटे, एक क्षण को भी छूटी तो बिखर जाएगी। अपने आप जबरदस्ती सम्हाली गई है, विवेक से जाग्रत नहीं है, आत्म-बोध से पैदा नहीं हुई है।
समाज कहता है, लोग कहते हैं, ये शिक्षण संस्थाएं कहती हैं कि झूठ मत बोलो, इसलिए हम झूठ नहीं बोलते हैं। झूठ उठता है। स्वयं के विवेक ने कहा नहीं कि सत्य बोलो, दूसरे ने सिखाया है इसलिए सत्य बोलते हैं। यह चेष्टित होगा, कल्टिवेटिड होगा। इसमें श्रम लगेगा। और एक नियम समझ लें, जिस बात में श्रम लगता है उसको आप चैबीस घंटे नहीं साध सकते, बहुत दिन तक नहीं साध सकते। क्योंकि श्रम के बाद विश्राम करना जरूरी है। कोई आदमी सतत श्रम नहीं कर सकता। श्रम के बाद विश्राम करना जरूरी है। तो जिसकी नीति श्रम से सधी हुई है, जब श्रम से थक जाएगा तो विश्राम में अनीति आ जाएगी। जब वह विश्राम करेगा तो अनीति प्रविष्ट हो जाएगी। स्मरण रख लें, श्रम निरंतर नहीं किया जा सकता। एक सीमा आएगी कि आप थक जाएंगे श्रम करने से और विश्राम करना पड़ेगा, जो कि बिलकुल प्राकृतिक नियम है। और इसीलिए साधु और संन्यासी, सज्जन और सदपुरुष भी, जिनको हम सामान्यतः पाते हैं, सब भांति नैतिक हैं। एक दिन अचानक अनैतिक होते भी देखे जाते हैं। हम कहते हैं कि उनका पतन हो गया, पतन नहीं हुआ। श्रम से जिसको साधा था, कितनी देर साध सकते थे? एक सीमा आती है, श्रम थक जाता है और विश्राम करना पड़ता है। तो अगर श्रम से नीति सधी थी, विश्राम में अनीति आ जाएगी। यह स्वाभाविक सहज नियम है। इसलिए मैं श्रमसाध्य नीति के समर्थन में नहीं हूं। मैं सहजस्फूर्त नीति के समर्थन में हूं, जो अपने आप पैदा होनी चाहिए।
एक तो वह प्रेम है कि लोग मुझसे कहते हैं कि मैं करूं इसलिए करता हूं। लोग कहते हैं, प्रेम करो, इसलिए मैं प्रेम करता हूं। इस प्रेम की कोई कीमत हो सकती है? और एक वह प्रेम है जो मेरे सारे प्राणों से आविर्भूत होता है, जो मेरे सारे प्राणों से उठता है और फैलता है। तो एक तो वह नीति है जो ऊपर से थोप ली जाती है और एक वह नीति है जो भीतर से निकलती है।
मैं जिस ध्यान पर, आत्म-निरीक्षण पर जोर दे रहा हूं, अगर उस दिशा में गति हो, तो नीति आरोपित नहीं करनी होती, वह भीतर से निकलनी शुरू हो जाती है। क्यों? जिस भांति जानते हुए आग में हाथ डालना मुश्किल है, उसी भांति जानते हुए पाप करना असंभव है जिस भांति देखते हुए दीवाल में से निकलना कठिन है। अंधा अलग बात है, एक अंधा आदमी यहां से निकलने की कोशिश करे, दीवाल से टकरा सकता है, तो उससे हम कहेंगे, दरवाजे को स्मरण रखो। कितनी बार कहा कि दरवाजा बाईं तरफ है, बाईं तरफ जाओ। अंधा सीख भी सकता है कि बाईं तरफ दरवाजा है, जा भी सकता है, फिर भी दरवाजा उसे दिखाई नहीं पड़ता। दीवाल से टकराने की संभावना हमेशा है। लेकिन जिस आदमी को दरवाजा दिखाई पड़ रहा हो, वह अगर दीवाल से टकरा जाए, तो कैसा आश्चर्य होगा? वैसे ही जिस मनुष्य का स्वयं विवेक जाग्रत हुआ हो वह अनैतिक हो जाए, इतना ही आश्चर्य होगा, जितना आंख वाला आदमी देखता हुआ दरवाजे से टकरा जाए, दीवाल से टकरा जाए।
आंख वाला जैसे दरवाजे से निकल जाता है, ऐसे ही भीतर की आंख खुल जाए तो मनुष्य नैतिक जीवन में प्रविष्ट होता है। अनीति अज्ञान है और कुछ भी नहीं है। नीति ज्ञान है और कुछ भी नहीं है। इसलिए नीति पर मैं जोर नहीं देता, ज्ञान पर जोर देता हूं। जो नीति पर जोर देते हैं, वह किसी न किसी रूप में रिप्रेशन, दमन, जबरदस्ती आरोपण पर उनका जोर है। जो कहते हैं, कुछ भी हो तुम सत्य बोलो, कुछ भी हो तुम क्रोध मत करो; कुछ भी हो तुम शांत रहो, कुछ भी हो तुम अहिंसा करो, जो ऐसा सिखाते हैं, वे आपके प्राणों को बड़े घेरों में बांध रहे हैं। वह आपकी आत्मा को मुक्त नहीं कर रहे हैं, वह आपकी आत्मा को जेलों में डाल रहे हैं, और आपकी आत्मा तड़फड़ाने लगेगी। इस तरह की कैद से घबड़ाने लगेगी। और आज नहीं कल आप खुद, जिन्होंने वे दीवालें बनाई थीं, खुद ही उनको तोड़ने वाले हो जाएंगे, और यही वजह है कि जितने लोग नैतिक जीवन को जबरदस्ती थोप लेते हैं उनके मन में चैबीस घंटे अनीति का रस बहता रहता है। ऊपर से उन्होंने तय कर लिया है, ऊपर से उन्होंने सब सीख लिया है, ऊपर से वे अपना घेरा भी बना रहे हैं, और उनकी आत्मा मुक्त होने को भी तड़फ रही है। उनके प्राण तड़फ रहे हैं। अब मुक्ति का रास्ता उनको एक ही दिखाई पड़ता है--अनीति। जिसने नीति को कैद बना लिया है, उसके लिए मुक्ति दिखाई पड़ती है अनीति में। इसलिए समझ लीजिए दुनिया में जितनी सभ्यता पनप रही है, वह थोथी नीति पर खड़ी है।
इसलिए सारी दुनिया में उस सभ्यता के विरोध में भी आंदोलन चल रहे हैं। सारी जमीन पर न मालूम कितने लोग उसके विरोध में खड़े हो गए हैं, और इस इच्छा में हैं कि सारी नीति तोड़ देनी चाहिए। कोई नीति मानने की कोई जरूरत नहीं है। यह जो नैतिक असमर्थन में लोग खड़े हो रहे हैं, इनका जिम्मा उन नैतिक लोगों पर है जिन्होने जबरदस्ती नीति को आरोपित करने के उपदेश दिए हैं और लोगों को समझाया है।
असल में जो नहीं जानते, जो बिलकुल नहीं जानते कि नैतिक जीवन का उदय कैसा होता है? केवल वे ही नीति पर जोर देते हैं। जो जानते हैं वह नीति पर नहीं बोध पर, विवेक पर, आत्म-स्मरण पर जोर देते हैं। आपको अपना बोध आ जाए, आप अपने ही अहित में कुछ भी नहीं कर सकेंगे। क्योंकि अनीति किसी और का अहित नहीं आपका अहित है। जब मैं क्रोध करता हूं, जब मैं झूठ बोलता हूं, जब मैं पाप करता हूं या चोरी करता हूं या कुछ और करता हूं, जिसको हम अनीति कहते हैं, तब मैं किसी और का नहीं अपना नुकसान करता हूं। और अगर यह दिखाई पड़ जाए, अगर यह दिखाई पड़ने लगे तो फिर कौन है ऐसा कि यह नुकसान करने को राजी होगा?
बुद्ध एक गांव के पास से निकले, कुछ लोगों ने उन्हें घेरा, अपमान किया, गालियां दीं। बुद्ध ने कहाः मुझे दूसरे गांव जल्दी पहुंचना है, अगर तुम्हारी बातचीत पूरी हो गई हो तो मैं जाऊं ? उन लोगों ने कहाः यह बातचीत नहीं है, हमने गालियां दी हैं, अपमान किया है। बुद्ध ने कहा कि तुमने दी होंगी गालियां और अपमान किया होगा, मैंने उन सबका लेना बंद कर दिया है। तुमने दिया होगा, मैंने लेना बंद कर दिया है। उन्होंने कहाः क्यों? बुद्ध ने कहाः देखा सिवाय हानि के और कुछ भी नहीं है। अब तुम इन सारी गालियों को वापस ले जाओ। क्योंकि पिछले गांव में लोग आए थे और फूल लाए थे और मालाएं लाए थे, और फल लाए थे, और मिष्ठान लाए थे; और मैंने उनसे कहा मेरा पेट भरा है; तो अपनी थालियों को वापस ले गए। अब तुम क्या करोगे? तुम जो गालियां लाए हो, अपमान लाए हो, तुम क्या करोगे? तुम भी अपनी थालियां वापस ले जाओ। मैंने लेना बंद कर दिया है। न मैं लेता हूं, न मैं देता हूं। क्योंकि मैंने देख लिया, सिवाय अहित के और कुछ भी नहीं है।
अगर भीतर यह स्मरण आ जाए, यह बात दिखाई पड़ने लगे कि अहित कहां है और आत्महित कहां है तो अनीति असंभव हो जाएगी। इस बात को समझ लें, समाज का जोर है कि नैतिक हों आप, क्योंकि समाज समझता है, अनैतिक होने में दूसरों का नुकसान है। समाज का जोर है कि आप नैतिक हों। क्योंकि समाज समझता है कि अगर आप अनैतिक हुए तो दूसरों का नुकसान होगा। धर्म कहता है आप विवेकपूर्ण हों, और विवेकपूर्ण होने से नैतिक हो जाएंगे, और धर्म यह भी कहता है, अगर आप अनैतिक हुए तो नुकसान आपका होगा। इसमें फर्क है। सामाजिक नैतिकता में और धार्मिक नैतिकता में बुनियादी फर्क है। सामाजिक नैतिकता, दूसरे का अहित न हो जाए, इसका खयाल करती है। वह यह कहती है, चोरी मत करो। क्योंकि जिनकी तुम चोरी करोगे उनको नुकसान पहुंच जाएगा। धर्म कहता है अगर तुम्हें दिख जाए तो तुम समझोगे कि चोरी कैसे करुं? क्योंकि चोरी करूंगा तो नुकसान मुझे पहुंच जाएगा। यानि यह फर्क है, और जब तक यह दिखाई न पड़े कि नुकसान आपको पहंुच रहा है, तब तक चोरी रोकी नहीं जा सकती। तब तक अनीति रोकी नहीं जा सकती। तो मैं कतई नीति पर जोर नहीं देता, क्योंकि मैं समझता हूं, नीति जोर देने की बात ही नहीं है। जोर देने की बात तो धर्म है, विवेक है।
आचरण और व्यवहार बहुत जोर देने की बात नहीं है। जैसे मैं आपसे कहूं बीज बो दें, पौधों को सम्हालें, आप कहेंगे फूलों की बात ही नहीं करते हैं। बीजों की बात करते हैं, पौधों की बात करते हैं, फूल की बात ही नहीं करते। मैं आपसे कहूंगा फूल की फि क्र छोड़ें, बीजों को बोएं, पानी दें, पौधे की फिकर करें। फूल आएंगे, फूल तो अनिवार्य आएंगे। जो व्यक्ति विवेक को सम्हालता है, नीति के फूल अनिवार्य आ जाते हैं। उनकी फिकर करने की कोई भी जरूरत नहीं है। और अगर आपने फूलों की फिकर की और बीजों को भूल गए, जड़ों को भूल गए, पौधों को भूल गए, तो स्मरण रखें, अगर आपके हाथ में फूल हुए भी तो कागज के होंगे, असली नहीं हो सकते हैं। क्योंकि असली फूल कभी फूलों की फिकर से नहीं आते हैं। वे तो किसी और चीज की फि क्र से आते हैं।
माओत्सु तंुग ने अपने बचपन का एक स्मरण लिखा है। वह सारे मुल्क में उसको कहता हुआ घूमा। बड़ी छोटी सी, बड़ी मीठी अर्थपूर्ण बात लिखी है। उसने लिखा है कि जब मैं छोटा था, छोटे गांव में रहता था। मेरी मां का एक बगीचा था। एक दिन मेरी मां बीमार पड़ गई, मैंने उससे कहाः घबड़ाओ मत, वह बगीचे के लिए बड़ी चिंतित थी, फूलों का क्या होगा, पौधों का क्या होगा, तो मैंने उनसे कहाः घबड़ाओ मत, मैं फिकर कर लूंगा। पंद्रह दिन बात जब उसकी मां उठी, उसने देखा कि बगीचा तो बिलकुल सूख गया है, फूलों का तो कोई पता ही नहीं, पौधे भी आधे मर गए हैं। उसने माओ को बुलाया और कहा कि तुम तो दिन भर बगीचे में रहते थे, किया क्या? ये सब पौधे मर गए और फूल तो सब नष्ट हो गए। माओ रोने लगा, उसने कहाः मैंने तो बड़ी फिक्र की, मैं तो एक-एक फूल को प्रेम करता था, एक-एक फूल को पानी देता था, एक-एक फूल को झाड़ता था, धूल न जम जाए लेकिन न मालूम क्या हुआ? बस पौधे सूखने लगे और फूल मरने लगे। उसकी मां ने कहाः नासमझ फूलों के प्राण फूलों में नहीं होते हैं। फूलों के प्राण जड़ों में होते हैं। फूलों की फिकर जिसे करनी हो उसे फूलों की फिकर बिलकुल नहीं करनी चाहिए। फिकर करनी चाहिए जड़ों की। अगर जड़ें सम्हल जाएं तो सब सम्हल जाता है। और जड़े मिट जाएं तो सब मिट जाता है।
माओ ने लिखा है, जीवन भर के लिए बात समझ ली। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, जो भी फूल की तरह महत्वपूर्ण है, स्मरण रखना, उसके प्राण उसमें नहीं होते, गहरे कहीं जड़ों में होते हैं जो दिखाई नहीं पड़तीं। नीति के फूलः अहिंसा, प्रेम, अपरिग्रह, अचैर्य, ब्रह्मचर्य, ये सब के सब फूल हैं जो बड़े सुंदर हैं। लेकिन इनके प्राण इनमें नहीं हैं, इनके प्राण उन जड़ों में हैं जो भीतर छिपी हैं। वे जड़ें विवेक की हैं, वे जड़ें आत्म-बोध की हैं, वे जड़ें ध्यान की हैं, वे जड़ें धर्म की हैं, उन पर मेरा जोर है, फूल अपने से आ जाते हैं। इसलिए नीति पर निश्चित ही मेरा जोर नहीं है। और जिनका हो, उन्हें मैं समझता हूं कि वे गलती में हैं। उनसे जो कुछ भी पैदा होगा वह कागज के फूल होंगे। असली नहीं हो सकते हैं।
पूछा है संसार को त्याग कर, जंगल में बैठ कर तप करना, या संसार के प्रति अलिप्त होकर स्वार्थ-भाव के बन कर साधना करना यह केवल क्या व्यक्ति का स्वार्थ नहीं? सभी के कल्याण का मार्ग देख कर कत्र्तव्य की बाजी लगा कर, सभी के साथ अपना कल्याण प्राप्त करने की भावना क्या योग्य नहीं?
ठीक पूछा है, हम सभी के मनों में यह बात उठती है कि क्या जो अपनी ही आत्मा साधना में लगे हैं, वे स्वार्थ में नहीं लगे हैं। क्या उचित न हो कि वे सबके कल्याण के काम में लगें? सेवा में लगें, सहयोग में लगें, समाज विकसित हो ऐसे कामों में लगें, अकेले में एकांत में बैठ कर वे जो कुछ भी कर रहे हों, अगर उसमें आनंद और शांति भी मिलती है, तो भी यह निपट स्वार्थ मालूम होता है। यह प्रश्न स्वाभाविक है सबके मन में उठे, लेकिन मैं आपको कहूं क्या आपको पता है कि अगर आपके भीतर का दीया न जल रहा हो तो आप दूसरे का दीया जला सकते हैं? क्या आपको पता है, अगर आपके भीतर शांति न हो, तो आप दूसरे के लिए मंगलदायी हो सकते हैं? क्या आपको पता है, अगर आपके भीतर प्रेम न हो, तो आप सेवा कर सकते हैं? जो आपके भीतर नहीं है, उसे देने की सामथ्र्य आपमें कैसे हो सकती है? और जो आपके भीतर नहीं है उसे आप कैसे बांट सकेंगे?
इसलिए स्मरण रखें, आत्म-साधना अगर स्वार्थ की तरह मालूम भी होती हो, तो भी आत्म-साधना ही एकमात्र परार्थ है और परोपकार है। क्योंकि उसके बाद ही केवल उसके बाद ही कोई व्यक्ति दूसरे की सेवा कर सकता है। अन्यथा उसके अभाव में सेवा केवल दंभ होगी, अहंकार होगा। सेवा झूठी होगी, पीछे कोई और मतलब और अर्थ होंगे। और जो खुद ही शांत नहीं है वे दूसरों को शांत करने निकल पड़े, और जिसके जीवन में खुद ही मंगल की वर्षा नहीं हुई, वे दूसरों के कल्याण की बात सोचने लगे; यह सब धोखा है, आत्म-प्रवंचना है। अपने भीतर जो अंधेरा है उसको भुलाने के ये सब उपाय हैं। ये तो स्मरणीय ही है कि इसके पूर्व कि आप किसी के भी कुछ काम के हो सकें, आपको अपने लिए काम का हो जाना चाहिए। इसके पहले कि आपका जीवन किसी के लिए भी कल्याणकारी हो सके, आपका जीवन आपके लिए तो कल्याणकारी हो जाना चाहिए।
धर्म स्वार्थ को और परार्थ को विरोध में नहीं देखता। जो ठीक-ठीक स्वार्थ है वही ठीक-ठीक परार्थ भी है। मैं तो ऐसे ही देखता हूं। अगर आप ठीक-ठीक अपने स्वार्थ को सिद्ध कर लें, तो आपके जीवन से ज्यादा परोपकारी जीवन और कोई भी नहीं होगा, क्यों? क्योंकि जो आपके आत्यंतिक रूप से स्वार्थ में है, वह किसी के भी स्वार्थ के विरोध में नहीं हो सकता। और स्मरण रखें, आपके भीतर जो भी दूसरे के विरोध में है, आज नहीं कल आपको पता चलेगा वह अपने ही पैर पर मारी गई कुल्हाड़ी थी। जो-जो आपको दिखता है कि दूसरे का स्वार्थ है मेरा नहीं तो आप समझ लेना कि अगर आपको जो दूसरे का स्वार्थ दिख रहा है अपने स्वार्थ के विरोध में तो आप समझना अभी आपको पता भी नहीं कि स्वार्थ क्या है? अभी आपको पता भी नहीं कि मेरा हित क्या है? क्योंकि जो मेरा हित है, वह इस जगत में प्रत्येक प्राणी का हित होना ही चाहिए। क्योंकि सबके भीतर एक सी आत्मा, एक सी चेतना, एक सी कामना और एक सी आकांक्षाओं का वास है। सारे लोग दुश्मन की तरह जमीन पर नहीं खड़े हैं, बल्कि एक ही नियम की अभिव्यक्तियों की भांति हैं। इन सबके भीतर एक से नियम हैं। क्या एक से नियम हैं? मैं अगर थोड़ा समझूं, तो नियम दिखाई पड़ना मुझे शुरू हो जाते हैं। मुझे दिखाई पड़ता है कि अगर मेरा कोई अपमान करे तो मुझे बुरा लगता है। अगर मैं थोड़ा समझ का आदमी हूं तो मुझे यह भी दिखाई पड़ जाना चाहिए कि इस जमीन पर किसी का भी अपमान किया जाए, उसे बुरा लगेगा।
नियम तो एक है। मुझे कोई प्रेम करे तो अच्छा लगता है और कोई घृृणा करे तो बुरा लगता है। तो मैं जानता हूं इस जमीन पर ऐसा प्राणी खोजना कठिन है, जिसे घृणा किया जाना अच्छा लगता हो, और प्रेम किया जाना बुरा लगता हो। सारे लोगों के भीतर एक सी चेतनाएं हैं और उनके एक से नियम हैं, एक सी आकांक्षाएं हैं। इसलिए जो आत्यंतिक रूप से मेरा हित है, वह आपका अहित कैसे हो सकता है? यह मेरा हित है कि सारे लोग मुझे प्रेम करें। यह मेरा हित है कि सारे लोग मुझे प्रेम करें, मैं समझ गया यह आपका भी हित है कि सारे लोग आपको प्रेम करें। और यह भी मुझे जानना चाहिए कि अगर मैं खुद प्रेम देने को राजी नहीं हूं तो मैं प्रेम पाने का हक भी तो खो दूंगा। अगर मेरा यह हित है कि प्रेम मेरे पास आए, तो मेरा यह कर्तव्य हो गया कि प्रेम मुझ से जाए। जो मेरा हित है वही मेरा कर्तव्य भी है। अगर यह मेरा हित है कि सेवा मुझे मिले, तो यह मेरा कर्तव्य हो गया कि सेवा मैं दूं। लेकिन यह बोध भी तभी होगा जब भीतर विवेक जाग्रत होगा, और मुझे अपने हितों की पहचान हो जाए। दुनिया में अधिक लोग जिन्हें अपना दुश्मन समझते हैं, वे उनके बिलकुल दुश्मन नहीं हैं। दुनिया में अधिक लोग अपने जितने खुद के दुश्मन हैं, उतना कोई उनका दुश्मन नहीं है।
यह मैं आपसे भी कहता हूं, अगर आप लेखा-जोखा करेंगे अपनी जिंदगी का तो जितना नुकसान आपने अपने को पहुंचाया है, उतना कोई दूसरा आपको कभी नहीं पहुंचा सकता है। और अगर हर एक आदमी स्वार्थ साध ले तो वह अपने को नुकसान नहीं पहुंचा सकेगा। और बड़े मजे की बात है यह है कि जो अपने को नुकसान नहीं पहुंचा सकेगा, वह केवल अपने को नुकसान से बचाने के लिए किसी को भी नुकसान पहुंचाने में असमर्थ हो जाता है। मैं अपना हित साध लूं तो मैं सबकी सेवा में तत्पर हो जाऊंगा।
इसलिए स्वार्थ को और परार्थ को मैं विरोध में नहीं देखता। साधना को और सेवा को मैं विरोध में नहीं देखता। साधना ही सेवा का आधार है। तो यह मत सोचें कि आप अकेले में बैठें हैं तो स्वार्थ साध रहे हैं। यह मत सोचें कि आप अपनी आत्मा की शांति खोज रहे हैं तो स्वार्थी हैं। आप अपने भीतर शांत हो जाएं, आनंद से भर जाएं, प्रेम से भर जाएं, ज्योति ज्ञान से भर जाएं, तो अपके जीवन तें दो घटनाएं घटेंगी। एक, आप किसी का भी अहित करने में असमर्थ हो जाएंगे। दो, आपका सारा जीवन दूसरों के रास्ते पर फूल की तरह बिछ जाएगा। आप दूसरों को दुख पहुंचाने में असमर्थ हो जाएंगे और दूसरों को आनंद देने के लिए मजबूर--वह आपको बांटना ही पड़ेगा। वह इसलिए बांटना पड़ेगा कि नियम यह है कि जो जितना बांटता है, उससे कई गुना उसे वापस उपलब्ध हो जाता है। और जो जो बांटता है उसे वही वापस उपलब्ध हो जाता है। अगर मैं अपने चारों तरफ घृणा बांटता हूं तो सारी घृणा अनेक-अनेक लोगों में प्रतिबिंबित और प्रतिफलित होकर और प्रतिध्वनित होकर मुझ पर वापस लौट आती है। और अगर मैं प्रेम बांटता हूं तो प्रेम वापस लौट आता है। यह आत्म-साधना इन अर्थों में विश्व के विरोध में नहीं है। और स्वयं को जानना इस अर्थों में समाज के विरोध में नहीं है, वरन वही केवल हित में हैं शेष सारी बातें न तो हित की हैं, न अर्थ की हैं, न सत्य हैं। अत्यंत दंभपूर्ण, अत्यंत अहंकारपूर्ण, अत्यंत अज्ञानपूर्ण वे बातें हैं।
एक व्यक्ति ने बुद्ध को जाकर कहा था। बुद्ध को जाकर एक व्यक्ति ने उनके पैर छुए और उनसे कहा कि प्रभु, मैं आपकी बातों से प्रभावित हुआ हूं। अब मुझे बताएं कि मैं दुनिया के लिए क्या करूं? बुद्ध चुपचाप खड़े रह गए, उनके पास जो भिक्षु थे, वे भी हैरान हुए। कभी उन्हें इस भांति चुपचाप खड़े रहता देखा नहीं गया था। उस आदमी ने दुबारा पूछाः आप क्या सोच रहे हैं? मुझे आज्ञा दें, मैं दुनिया के लिए क्या करूं? बुद्ध ने कहाः मेरे मित्र, मैं इससे हैरान हूं कि मेरी बातें तुम्हें पसंद आईं, लेकिन तुमने मुझसे यह न पूछा कि मैं अपने लिए क्या करूं? तुम पूछते हो मैं दुनिया के लिए क्या करूं? तुम अपने को धोखा दे रहे हो। तुम दुनिया के लिए करने की बातों में खुद के लिए करने से बचना चाहते हो। तुम बचना चाहते हो, खुद के साथ कुछ न करना पड़े। और यही वजह है कि जो उपदेश हम दूसरों को देते हैं, उन उपदेशों को हम खुद भी नहीं मानते। और यही वजह है कि जिन बातों की हम दूसरों में आलोचना करते हैं, उनको कभी अपने में नहीं देखते। और यही वजह है कि जिन बातों की हम प्रशंसा करते हैं, उनको भी स्वयं में पैदा करने का कभी खयाल नहीं करते। दूसरों में पैदा होना चाहिए।
दुनिया में अज्ञान के समर्थन में इससे ज्यादा और कोई दूसरी बात नहीं है, जितनी दूसरों का सुधार, दूसरों का कल्याण, दूसरों का मंगल। वह आदमी कितना पागल है, जिसने खुद का मंगल न साधा हो और दूसरों के मंगल का विचार कर रहा हो, धोखेबाज है। और दूसरों को धोखा देना उतना महंगा नहीं, जितना सेल्फ-डिसेप्शन, जितना खुद को धोखा देना महंगा पड़ जाता है। क्योंकि अंत में दूसरों को दिए हुए धोखे बड़े छोटे साबित होते हैं। दस-पांच रुपये के लेन-देन के धोखे हैं, अपने को दिया गया धोखा सबसे बड़ा साबित होता है। क्योंकि उसमें पूरा जीवन, पूरा जीवन दांव पर लग कर खो जाता है। तो मैं आपको कहूंगा कि स्वार्थी हो जाएं। मैं आपको कहूंगा निपट स्वार्थी हो जाएं। मैं आपको कहूंगा अपने हित के अतिरिक्त कुछ भी न सोचें। दुनिया को एक कोने में रख दें, और अपना हित ही सोच लें। इतना जरूर मैं आश्वासन दिलाता हूं जिस दिन आप अपना हित पहचान जाएंगे और अपने हित को साध लेंगे, इस दुनिया में आपका हित किसी के हित के विरोध में नहीं पड़ेगा, वरन आपका पूरा का पूरा जीवन दूसरों के हित में, दूसरों के कल्याण में आधार बन जाएगा।
कुछ और प्रश्न हैं, एकाध प्रश्न का उत्तर और दे देता हूं, फिर बाकी प्रश्नों को बाद में ले लेंगे। और इस प्रश्न के बाद हम ध्यान में बैठेंगे।
पूछा हैः महावीर, बुद्ध, राम, कृष्ण ऐसे बड़े-बड़े महापुरुष हुए, उन्होंने सत्य को खोजा; लेकिन उनका प्रभाव, उनके सत्य का प्रभाव दुनिया में क्यों नहीं पड़ा? और दुनिया में इतना असत्य क्यों है?
दो कारण हैं, एक तो कारण यह है जो मैंने सुबह आपसे कहा, सत्य कोई एक व्यक्ति दूसरे को दे नहीं सकता। इसलिए जिसे उपलब्ध होता है, उसके साथ ही समाप्त हो जाता है। बुद्ध को मिलेगा, बुद्ध के साथ विलीन हो जाएगा। बांटा नहीं जा सकता। दूसरे आदमी को दिया नहीं जा सकता कि मैं मर रहा हूं इस संपत्ति को तुम सम्हालो। उसकी कोई वसीयत नहीं हो सकती। सत्य की कोई वसीयत नहीं हो सकती। इसलिए यह भी हो सकता है कि एक जमाने में सारे लागों को सत्य उपलब्ध हो जाए, तो भी उनके बच्चे असत्य में ही पैदा होंगे। उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। यह हो सकता है कि एक जमाने में सारे लोगों को सत्य उपलब्ध हो जाए, तो भी बच्चों की पैदाइश से उनके खून में सत्य नहीं होगा। क्योंकि सत्य निजी उपलब्धि है, उसकी वसीयत से कोई संबंध नहीं है। वह कोई मिलता नहीं, वंशाधिकार में नहीं मिलता, एक बात। दूसरी बात, यह खयाल करना कि उनका कोई प्रभाव नहीं है, गलत होगा, उनका बहुत प्रभाव है। सत्य तो उनके कारण आपको नहीं मिलता, लेकिन उनका प्रभाव बहुत है। अगर दस-पांच इतिहास से ऐसे नाम अलग कर दिए जाएं--महावीर, बुद्ध, राम, कृष्ण और क्राइस्ट के तो आप हैरान होंगे, आप कोई दस या पंद्रह या बीस हजार वर्ष पहले जैसा मनुष्य था, वैसे मनुष्य हो जाएंगे।
आपके भीतर बहुत से विकास हुए हैं, जो आपको परिलक्षित नहीं होते। अभी मैं जो बातें कह रहा हूं, क्राइस्ट ने करीब-करीब इस तरह की बातें ढाई से दो हजार वर्ष पहले कहीं थीं। अगर जो बातें मैंने आज आपसे कहीं हैं, वह दो हजार वर्ष पहले कहता तो इसका फल फांसी हो सकती थी। लेकिन आप मुझे फांसी नहीं दे रहे हैं, दो हजार वर्ष पहले इनका फल फांसी के सिवाय कुछ भी नहीं हो सकता था। क्यों? दो हजार साल में ईसा के मरने से कुछ फर्क पड़ा है? कुछ फर्क पड़ा है। लोगों के विचार और समझ ज्यादा उदार हुए हैं। ज्यादा सोचने समझने की और अपनी ही बात को सत्य कहने का आग्रह कम हुआ है। कुछ और बातें विकसित हुई हैं। दुनिया में हमेशा युद्ध होते रहे, यह पहला मौका है कि जमीन पर हजारों ऐसे विचारशील लोग हैं जो सब तरह के युद्धों के खिलाफ हैं। ऐसा कभी नहीं हुआ था। दुनिया के बड़े-बड़े पुरुष भी पिछले जमानों के युद्धों के खिलाफ नहीं थे। जमाने में बड़ा फर्क आया है, लोगों में समझ बड़ी गहरी हुई है इस अर्थों में। आज जमीन पर जितने समझदार लोग हैं, वे किसी तरह के युद्ध के पक्ष में नही हैं। वे कहते हैं युद्ध मूढ़तापूर्ण है। कैसे ही नारे युद्ध के लिए दिए जाएं, कैसी ही वजह बतलाई जाएं, युद्ध मूर्खतापूर्ण है, लेकिन यह बात आज संभव है, यह बात कभी खयाल में नहीं थी।
आज सारी जमीन पर अनेक-अनेक नये विचारों का क्रमशः मनुष्य की चेतना में प्रवेश हुआ है। दुनिया में किसी भी धर्मग्रंथ में यह नहीं लिखा है कि संपत्ति इकट्ठी करना पाप है। दुनिया के सारे धर्मग्रंथों में लिखा हैः चोरी करना पाप है। लेकिन किसी ने यह नहीं लिखा कि संपत्ति इकट्ठी करना पाप है। जब कि ऐसे ही समाज में चोरी होती है जिस समाज में संपत्ति इकट्ठी की जाती है। चोरी बाई-प्राॅडक्ट है। जहां लोग संपत्ति इकट्ठी करते हैं उसके परिणाम में चोरी होती है।
लेकिन दुनिया के सारे धर्मग्रंथ कहते हैंः चोरी पाप है, क्योंकि चोरों का कोई मास्टर थीफ, चोरों का कोई पंडित, संन्यासी नहीं हुआ। सब धनिकों के संन्यासी और उनके सब मास्टर थीफ थे। इसलिए संपत्ति को संग्रह करना तो पुण्य का फल है और चोरी करना किसी की सम्पत्ति ले आना पाप है। लेकिन इस जमाने में यह बात समझ में आ गई है कि यह धोखा है। अगर चोरी पाप है तो उससे बड़ा पाप संपत्ति को इकट्ठा करना है। यह क्रमशः दो हजार वर्ष...इसके पीछे महावीर, बुद्ध, कृष्ण और क्राइस्ट का हाथ है। धीरे-धीरे जो चेतना प्रज्वलित हुई है--विचार, चिंतन और विवेक जाग्रत हुआ, उसके परिणाम हुए। आज कोई आदमी यह कहने की हिम्मत नहीं कर सकता जोर से कि मुझे जो संपत्ति मिली है, वह मेरे पुण्य का फल है। हालांकि आज से हमेशा पिछले दिनों में यही कहा जाता रहा। जो दरिद्र है वह अपने पाप की वजह से दरिद्र है, और जिसके पास धन है वह अपने पुण्य की वजह से है। आज तो हम समझते हैं बात उलटी है। जो जितना पाप करता है, उतना उसके पास धन है, और जो जितना पुण्य के साथ खड़ा होगा, उतना दरिद्र हो जाएगा।
लोगों के मस्तिष्क खुले हैं। उनके खुलने में उनकी हथौड़ियां, उनकी चोटें हैं। और काफी उन्होंने चोटें की हैं। अपनी-अपनी हैसियत से संतों ने सत्पुरुषों ने बड़ी चोटें की हैं मनुष्य के मस्तिष्क पर। और कुछ परिणाम हुए हैं। हम आज किसी भी स्थिति में जो भी दिखाई पड़ते हैं, उसमें उनका हाथ है। हां, लेकिन कोई सत्य कोई किसी को नहीं दे सकता। चेतना का परिष्कार, बौद्धिक विकास, बोध ये सारे के सारे फलित होते हैं क्रमशः, लेकिन सत्य को कोई सीधा किसी को नहीं दे सकता। वह तो स्वयं को ही अपनी ही साधना से पाना होता है। इसलिए सत्य तो भला न हो, लेकिन सत्य को पाने के लिए जो बौद्धिक क्षमता चाहिए वह आपकी विकसित हुई है। आप आगे गए हैं, आज एक झाड़ के पास खड़े होकर आपको नमस्कार करते हुए थोड़ा संकोच होता है। आज एक नदी में जाकर प्रणाम करके कुछ पैसा चढ़ाने में संकोच होता है। जो और थोड़े विचारशील हैं, पत्थर की मूर्ति के सामने सिर झुकाने में उन्हें थोड़ी सी झिझक होती है। यह हम क्या कर रहे हैं? इसमें चोटें हैं इन लोगों की। इन्होंने आपको मुक्त करने की कोशिश की है।
मैं सुबह ही आज कह रहा था, नानक वहां काबा गए। और रात जब वह सोए तो काबा का जो पुरोहित था, उसने आकर कहा कि महानुभव अपने पैर उस तरफ कर लें, यहां काबा का पवित्र पत्थर है, परमात्मा की तरफ पैर किए हुए हैं। नानक ने कहाः मेरे पैर उस तरफ कर दो जहां परमात्मा न हो। ये चोटें हैं। ये चोट है इस बात की जब आप एक मंदिर की मूर्ति के सामने सिर झुका रहे हैं, तो स्मरण रखें कि अगर परमात्मा को उस मूर्ति में समझ लिया तो आप गलती में हैं। अगर परमात्मा का बोध होगा तो वह सब तरफ व्याप्त है। तो अगर प्रणाम करना है तो कोई एक दिशा में करना गलती होगी। और अगर प्रणाम करना है तो किसी एक को करना गलत होगा। अगर प्रणाम करना है तो वह केवल एक भाव की अवस्था हो सकती है जो समस्त के प्रति समर्पित हो। क्रमशः चोटें की गईं। अब यह नानक की चोट इसके पीछे है। यह इसके पीछे है। सारी इस भांति क्रमशः मनुष्य की चेतना पर जो-जो प्रहार हुए हैं, उनसे विकास हुआ है। विकास को झुठलाया नहीं जा सकता है।
लेकिन सत्य की उपलब्धि निजी बात है, विकास सामूहिक घटना है। लेकिन सत्य को प्रत्येक व्यक्ति अपने ही श्रम से पाता है। इसलिए कोई वसीयत में सत्य नहीं मिल सकता है। कोई यह नहीं कह सकता है कि हम महावीर और बुद्ध, और राम और कृष्ण के वंशज हैं इसलिए हमको तो सत्य मिला ही हुआ है। और यह भ्रम है, यह भूल है। दुनिया में ऐसे बहुत से लोग हैं जो यह समझते हैं कि हम तो राम-कृष्ण के वंशज हैं, हम को तो सत्य मिला ही हुआ है। किसी को नहीं मिलता, और सत्य अगर इतनी क्षुद्र चीज हो, जो पैदाइश से और वंशज होने से मिलती हो तो उसका कोई मूल्य भी नहीं रह जाएगा। फिर कोई सामथ्र्यवान, कोई अपनी व्यक्तित्व की गरिमा को मानने वाला व्यक्ति ऐसे सत्य की तलाश भी नहीं करेगा। सत्य की तलाश एकदम निजी खोज है। निजी उपलब्धि है।
कुछ और प्रश्न हैं, उनको मैं कल ले लूंगा। थोड़ी सी बातें आपको ध्यान के संबंध में समझा दूं और फिर हम ध्यान के लिए बैठेंगे।
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