दसवां-प्रवचन-(नाचो--क्रांति है नाच)
एक गुरु अपने शिष्य के कमरे के बाहर रोज आता है और एक ईंट को पत्थर पर घिसता है। शिष्य वहीं ध्यान करता है और ईंट के घिसने से, रोज-रोज घिसने से नाराज होता है। एक रोज तो उसे बहुत गुस्सा आया कि यह और कोई कर रहा हो तो ठीक है, यह मेरा गुरु ही आकर मुझे परेशान करता है, ईंट घिसता है। आंख खोली और कहाः आप यह क्या पागलपन करते हैं? क्यों मुझे परेशान कर रहे हैं? उसने कहाः तुझे मैं परेशान नहीं कर रहा। मैं ईंट को घिस-घिस कर आईना बनाना चाहता हूं। वह हंसने लगा, उसने कहाः तुम पागल हो गए हो। ईंट को कितना ही घिसो, आईना कभी नहीं हो सकती। तो उसके गुरु ने कहाः अगर मैं मेहनत करूंगा तो भी नहीं बनेगी क्या? मैं पूरी मेहनत करूंगा, मैं जीवन भर घिसता रहूंगा, फिर तो बनेगा?जीवन भर भी घिसोगे, तो भी नहीं बनेगा। ईंट घिसने से आईना नहीं बनती। उसके गुरु ने कहाः तू भी बहुत घिस रहा है, लेकिन मेरी दृष्टि में ईंट घिस रहा है और आईना बनाना चाहता है। और सोचता है, मेहनत करूंगा तो हो जाएगा।
अगर गलत दिशा में और गलत ढंग से कोई काम कर रहे हैं तो कितने ही दिन तक आप करते रहें, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तो ठीक दिशा नहीं थी, इसलिए कठिनाई हुई है। उसमें आम आदमी की कोई भूल नहीं है। ठीक दिशा में श्रम होगा तो बहुत परिणाम होंगे। तो इसलिए वह निराशा मुझे अर्थपूर्ण नहीं मालूम पड़ती।
प्रश्नः जो हम सोचते हैं, अनुभव करते हैं, उसे सही-सही शब्दों में नहीं लिख सकते हैं। इसलिए जो कहा है, गीता में शास्त्रों में, तो इससे लगता है कि इससे ज्यादा और शब्द नहीं हैं अपने पास कहने के लिए। आपके शब्द हैं तो आप अपनी रीति से कह सकते हैं अपना अनुभव।
असल में तुम्हारे पास अनुभव हो तो तुम्हारा कमजोर से कमजोर शब्द भी ज्यादा बलवान होगा, बजाय उधार शब्द के। जैसे एक आम आदमी किसी को प्रेम करता है और प्रेम पत्र लिखता है। वह कोई टूटे-फूटे अक्षरों में अपनी बात लिख दे रहा है तो भी वह पत्र ज्यादा प्यारा होगा, बजाय इसके कि वह किताब में से छपा हुआ पत्र उतार कर भेज दे। वह छपा हुआ किताब में से लिया गया ज्यादा ठीक होगा, व्यवस्थित होगा, लेकिन निष्प्राण होगा। उसमें प्राण नहीं होंगे। तो अपना अनुभव अगर टूटे-फूटे शब्दों में भी प्रकट हो तो जीवंत होता है क्योंकि तुम्हारा है। और असली सवाल उसके जीवंत हो जाने का है, असली सवाल उसके अच्छे शब्दों का नहीं है।
तो जहां तक बन सके, उधार शब्दों से बचना ही चाहिए। और उधार शब्दों को तुम पकड़ते ही इसीलिए हो कि तुम्हारे पास अपना कोई अनुभव नहीं है। अनुभव हो तो नहीं पकड़ोगे। अनुभव अपना रास्ता खोज लेता है प्रकट होने का। जब जरूरत होती है तब रास्ता खोज लेता है। तुम्हें पता भी नहीं चलता है कि उसने रास्ता खोज लिया। वह तुम्हारे भीतर एक तीव्र पीड़ा बन जाता है। वह इतनी पीड़ा बन जाता है, जैसे प्रकट होने के लिए बादल आकाश में घिरता है, उसमें अगर पानी है, अगर वह कोरा और खाली बादल नहीं है तो वह बरसेगा ही। बरसने का रास्ता अपना खोज लेगा। फूल में अगर प्राण है तो वह खिलेगा और सुगंध फेंकने का रास्ता खोज लेना। तुम्हारे भीतर जिस दिन अनुभव होगा उस दिन अभिव्यक्ति का मार्ग भी खोजना शुरू कर देगा। वह खोज ही लेगा। नहीं है अनुभव, तो फिर तुम उधार शब्दों को पकड़े बैठे रहोगे और उनको दोहराते रहोगे और धोखा अपने को यह दोगे कि चूंकि शब्द हमें नहीं मिलते इसलिए हम इन शब्दों का उपयोग कर रहे हैं। टूटा-फूटा शब्द भी बहुत मूल्यवान है--तुम्हारा होना चाहिए। तो तुम पाओगे, उसमें एक इनटेंसिटी होगी, एक तीव्रता होगी, एक बल होगा।
और इसलिए अक्सर यह बड़े मजे की बात है कि दुनिया में जितने लोगों ने बहुत बलशाली शब्द बोले हैं, वे अक्सर गैर पढ़े लोग हैं। मोहम्मद के पास कोई पढ़ाई-लिखाई नहीं थी, जीसस के पास कोई पढ़ाई-लिखाई नहीं थी। रामकृष्ण के पास कोई पढ़ाई-लिखाई न थी। इतने बलशाली शब्द वाले हैं जीसस ने, जिसका कोई हिसाब नहीं। वैसे शब्द हैं, जैसे कि जानवर चराने वाले आदमी होते हैं। लेकिन उनमें बल और ताजगी भी उतनी है, लकड़ी की चोट पर हैं वे शब्द। मोहम्मद के शब्दों में कोई बहुत पढ़े-लिखे आदमी का कुछ भी नहीं है। वह पढ़ा-लिखा आदमी नहीं है। वह वही है जैसा कि एक ऊंटों को चराने और काफिलों को ढोने वाले आदमी के शब्द होते हैं। लेकिन बड़ी ताजगी बड़ा बल है, बड़ी चोट है, उसमें। वह सीधा आ रहा है। उसमें कोई उधार बीच में नहीं है।
तो दुनिया में यह जान कर तुम्हें हैरानी होगी कि पंडितों ने कभी बलशाली शब्द नहीं बोले हैं। अब तक दुनिया के श्रेष्ठतम बोले गए शब्द करीब-करीब अधिकतम मात्रा में पंडितों के बोले हुए शब्द नहीं है क्योंकि न तो आत्मा की ताकत होती है पीछे, न वह दृढ़ता होती है जो अनुभव से आती है, न वह तीव्रता होती है। वह कुछ भी नहीं होता। मैं किसी को प्रेम करता हूं और हृदय से लगाता हूं इसकी तीव्रता बिलकुल और है और मैं किसी किताब में पढ़ता हूं कि प्रेम करने में किसी को हृदय से लगाना और इसीलिए किसी को हृदय से लगाता हूं, इन दोनों की तीव्रता में फर्क पड़ेगा। दूसरा केवल एक अभिनय होगा कि किताब में लिखा है इसलिए लगा कर देखना चाहिए कि क्या होता है? उसमें न कोई तीव्रता है, न कोई छटपटाहट है।
कालिदास के जीवन में एक घटना है, बड़ी कीमत की है। जिस दरबार में--वह भोज के यहां थे, एक बहुत बड़ा पंडित आया। वह तीस भाषाएं बोलता है और इस तरह बोलता है, जैसे मातृभाषा हो। और उसने चैलेंज किया, चुनौती दी भोज के दरबार में कि अगर तुम्हारा कोई पंडित तुम्हारे दरबार का, पहचान ले कि मेरी मातृभाषा कौन सी है--यह तो बड़ी चुनौती थी भोज के लिए--यह तो सवाल ही नहीं है कि तुम्हारे यहां कोई तीस भाषाएं जानने वाला हो। कोई इतना भी पहचान ले कि मेरी मातृभाषा कौन सी है तो एक लाख स्वर्ण-मुद्राएं मैं भेंट करूंगा उसको और अगर नहीं पहचान सका तो एक लाख मुझे भेंट करनी पड़ेंगी। तो भोज ने अपने पंडितों को कहा कि बड़ा अपमान हो जाएगा। एक पंडित ने चुनौती स्वीकार की। उसने सब भाषाओं में थोड़ा-थोड़ा सुना। पहचानना मुश्किल था कि उसकी मातृभाषा कौन सी है। वह करीब-करीब एक ही बल से सारी भाषाएं बोलता था। मातृभाषा आमतौर से पहचानी जा सकती है, क्योंकि उसको बोलते वक्त आदमी और ही तरह से बोलता है। दूसरे की भाषा में झिझकता है, हेजिटेट करता है, रुकता है, ठहरता है। लेकिन नहीं पहचाना जा सका। एक लाख रुपया पहला पंडित हार गया। रोज एक पंडित हारने लगा। ग्यारह पंडित हार गए।
तब कालिदास को उसने कहा कि यह तो भारी अपमान हो रहा है। ग्यारह लाख रुपये तो उस आदमी ने जीत लिए और अगर वह जीत कर चला गया तो क्या होगा? हमारे दरबार में पहचानने वाले नहीं कि मातृभाषा क्या है? कालिदास ने कहा, मैं आज कोशिश करूंगा, लेकिन कहने की जरूरत नहीं है। बारहवां पंडित हार गया। एक लाख रुपया लेकर सब लोग बाहर निकले हैं, वह फिर जीत गया है बारहवें से। महल की सीढ़ियों पर जब वह उतरने लगा तो कालिदास ने एक धक्का दे दिया उस आदमी को। वह सीढ़ियों से दस-बारह सीढ़ियां नीचे गिरा। उसने गुस्से में जो बोला...कालिदास ने कहाः धक्का दिए बिना कोई रास्ता नहीं था, यह आपकी मातृभाषा है। उसने गुस्से में जो गाली दी। अब यह इटेंसिटी और थी, अब यह बात ही और थी, और यह मामला ही और था, अब यह पहचाना जा सकता था। और कालिदास ने कहा और कोई रास्ता नहीं हमारे पास पहचानने के लिए इसलिए क्षमा करना। लेकिन अब बात ही और थी, यह मामला ही और था।
तो आदमी प्रेम और क्रोध अपनी मात्र भाषा में ही कर सकता है, दूसरी भाषा में नहीं। परदेश इसलिए बुरा लगता है कि वहां प्रेम करना मुश्किल हो जाता है। और सब...और सब ठीक है, परदेश में प्रेम करना मुश्किल है। अगर सोच-सोच कर बोलना पड़े तो मामला खराब हो गया। क्रोध करना भी मुश्किल है। तो प्रेम और क्रोध अपनी ही भाषा में। तो ऐसा ही जब तुम्हें कोई अपने अनुभव होंगे तो तुम्हें उसके लिए भाषा मिल जाएगी, बिलकुल भाषा मिल जाएगी। शब्द सबके पास है, इशारे सब के पास हैं। अनुभव नहीं है पास में। अनुभव होता तो वह शब्द खोज लेगा, अपने इशारे खोज लेगा। उसको चिंता नहीं करनी चाहिए। उसकी चिंता नहीं करनी चाहिए। जहां तक बन सके, जितना उधारी से बच सको उतना अच्छा है। तो किसी दिन तुम्हें मिल सकती है।
प्रश्नः लेकिन हम वहीं कहीं खड़े हैं। और स्वयं अनुभव क्या है? मनुष्य सोया है तो किस तरीके से अनुभव को प्राप्त होगा? आप जो कहते हैं वह हम सब सही मानते हैं, लेकिन वह कैसे स्वयं अनुभव होगा?
हां, वह तो नहीं हो सकते हो पहली बात। वही तो कतई नहीं हो सकते हो। पहली तो बात यह कि आप वही नहीं हो सकते क्योंकि तीन साल पहले यह प्रश्न आप नहीं सोच सकते थे। यह, प्रश्न तीन साल पहले आप नहीं सोच सकते थे। यह भी खयाल में आ जाए कि मैं तीन साल से एक ही जगह रुका हुआ हूं और आगे नहीं बढ़ रहा हूं तो यह बड़ी प्रगति की बात है। बड़े क्रोध की बात है यह आदमी को तीस साल तक पता नहीं चलता, सत्तर साल तक पता नहीं चलता कि मैं वहीं खड़ा हुआ हूं, मैं कहीं आगे नहीं बढ़ा। और जिस आदमी को यह कांशसनेस आ जाए कि मैं रुका हूं तीन साल से, वहीं रुका हूं, कहीं आगे नहीं गया हूं, उसकी जिंदगी में बोध आना शुरू हो गया जो उसको फर्क ला देगा। यह पता नहीं चलता कि हम वहीं रुके हुए हैं; कि हम वहीं, वहीं घूम रहे हैं। यह पता चलना कोई आसान बात नहीं है। इसको बोध बड़ी हिम्मत का बोध है। यह बोध तभी हो सकता है जब मेरे मन से यह अहंकार चला कि मैं हूं, आगे बढ़ता हूं समझदार होता जा रहा हूं, अनुभवी होता जा रहा हूं। यह कोई साधारण खयाल नहीं है।
दूसरी बात यह कि मेरे सुनने से क्या हो सकता है? मेरे सुनने कुछ नहीं हो सकता। मेरे ठीक मान लेने से भी कुछ नहीं हो सकता लेकिन मेरे सुनने से, समझने से, विचार करने से आपके भीतर, आपके लिए क्या उपयुक्त हो सकता है, उसकी धीरे-धीरे अंतर-प्रेरणा जग सकती है। वह आपको करना पड़े, उसके लिए कोशिश। मेरी तो यह समझ भी नहीं है कि मैं आपको बताऊं कि आप क्या करें। क्योंकि मेरी समझ में तो एक-एक व्यक्ति इतना अनूठा है कि ठीक किसी दूसरे व्यक्ति का नियम, किसी दूसरे व्यक्ति का ढांचा उसका ढांचा नहीं हो सकता। तो मेरी तो सारी कोशिश इतनी ही है कि वह सोचना भर शुरू कर दे कि उसके लिए क्या हो सकता है, तो दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगी तो मुझे ठीक मानने की भी बहुत जरूरत नहीं, वह भी रुकने का कारण हो सकती है। मुझे ठीक मान लेना रुकने का कारण हो सकता है, उसकी भी जरूरत नहीं है। मैं जो कहता हूं, उस दिशा में थोड़ा सोचने, खोजने की सीधी अपनी जरूरत है। तो जो आप मेरी दिशा में सोचना, खोलना शुरू करेंगे तो जरूरी नहीं है कि जो मैं कहता हूं वहीं आप पहुंचेंगे। लेकिन आप कहीं पहुंचेंगे, जो मूल्यवान होगा और आपको बदलने वाला होगा। यानी ज्यादा से ज्यादा मैं इशारा कर सकता हूं कि इस दिशा में सोचने से कुछ हो सकता है। जो मैं कह रहा हूं, वह नहीं सोचना है। न ही उसी को पकड़ लेना है। वह तो क्या ठीक होगा, यह बिलकुल आपकी खोज बनने वाली है।
तो सुन कर, समझ कर इतना ही हो सकता है कि हम थोड़े सचेत हो सकते हैं दिशा की तरफ। रास्ते के प्रति भी नहीं, रास्ता तो आपको बदलना पड़ेगा। एक-एक कदम चल कर बनना पड़ेगा। लेकिन फर्क पड़ने शुरु हो जाते हैं, जिनका हमें कभी पता नहीं चलता। पहला फर्क तो यही पड़ जाता है कि हम सोचना शुरू कर देते हैं। अब जिंदगी के बाबत यह खयाल आ जाना कि मैं रुका हुआ हूं, तीन साल से, यह कितनी पीड़ा पैदा कर देगा इसका हमें कोई खयाल नहीं। और यह पीड़ा पैदा करेगा, उस पीड़ा से परिवर्तन होने शुरू हो जाएंगे। और वह परिवर्तन मैं जैसे कहता हूं वैसे होंगे, यह सवाल नहीं है, लेकिन वे परिवर्तन तो आपके अपने रास्ते लेंगे, आपके अपने रास्ते लेंगे, उनका अपना रास्ता लेगा। हमारी अनुभूतियां निर्विचार होने की बिलकुल एक जैसी होंगी, समान होंगी लेकिन निर्विचार तक पहुंचने के हम सबके रास्ते बड़े अलग-अलग व्यक्तिगत होंगे। क्योंकि आप वहां बैठे हुए हैं, मैं यहां बैठा हुआ हूं, ये यहां बैठे हुए हैं। हम तीनों भी एक दिशा में भी चलेंगे तो भी हमारे रास्ते अलग होने वाले हैं क्योंकि रास्ता वहां से चलेगा, जहां मैं हूं। और अगर...वह जहां है दुनिया में कोई दूसरा आदमी वहां नहीं है, वह अकेला ही वहां है। वह उनका ही रास्ता होगा, जहां से वह चलेंगे।
तो चलने की दिशा खयाल में आ जाए, गलत दिशा खयाल में आ जाए। फिर चलना आपको है। और वह आपकी दिशा बनेगी, जो बिलकुल अनूठी बनेगी। यह करीब-करीब...ऐसा नहीं है जैसा कि बने हुए राजपथों पर चलते हैं, बने हुए सीमेंट-कांक्रीट के रास्ते हैं उन पर हम बंधे हुए चलते हैंः ऐसा नहीं है, करीब करीब ऐसा है जैसा आकाश में पक्षी उड़ते हैं। न कोई बंधा हुआ रास्त है, न कहीं कोई लीक है। हर पक्षी को जहां उड़ना है, उड़ता है, जहां जाना है, जाता है। हर पक्षी का उड़ना ही उसका रास्ता है। तो जीवन का जो जगत है, वहां खुले आकाश जैसा है, जहां पक्षी उड़ते हैं, और न पक्षियों के पद-चिन्ह छूट जाते हैं पीछे कि दूसरे पक्षी उन पद चिन्हों को चुन लें और उन पर पैर रख कर चले जाएं। वह भी संभव नहीं है। कोई निशान नहीं छूट जाता है। तो जीवन के खुले आकाश में किसी के पैरों के कोई चिन्ह नहीं छूट जाते हैं जिन पर कोई चल सकता है।
तो मेरा कहने का मतलब यह है कि एक पक्षी को उड़ते देख कर दूसरे पक्षी को उसके पद-चिन्हों की तलाश नहीं करनी है, नहीं तो वह पागलपन में पड़ जाएगा। उसको उड़ते देखकर इतना ही जानना है कि मेरे पास भी पंख हैं और मैं भी उड़ सकता हूं। बस इससे ज्यादा नहीं। अगर मैं आपको उड़ता दिखाई पडूं तो आपको जानना चाहिए कि आपके पास भी पंख हैं, आप भी उड़ सकते हैं। लेकिन न मेरे पद-चिन्हों का कोई सवाल है, न मेरी कही गई बातों का कोई सवाल है। कोई मूल्य नहीं है उन बातों का। उनको ठीक मान कर रुकिएगा, अटक जाइएगा तो मैं भी अटकने वाला हो आता हूं। और उसी से मैं तोड़ना चाहता हूं। इससे क्या फर्क पड़ता है कि कृष्ण से आपको छुड़ा दूं, बुद्ध से छुड़ा दूं। आप मुझसे पकड़ जाए तो मामला तो उलटा हो गया; उसमें कहीं कोई फर्क नहीं पड़ा। बल्कि खतरा उसमें ज्यादा है। क्योंकि एक मरे हुए आदमी से बहुत ज्यादा बंधना मुश्किल होता है, जिंदा आदमी से बंधना बहुत आसान होता है। मरे आदमी से हमारे बीच फासला बहुत होता है, जिंदा आदमी के बीच हमारे पास ज्यादा निकटता हो सकती है। ज्यादा हम बंध सकते हैं। वह सवाल नहीं है। बस, एक पक्षी उड़ रहा है, यह देख कर दूसरे पक्षी को इतना भर भी खयाल आ जाए कि अरे मैं क्यों बैठा हूं।? मैं भी उड़ सकता हूं, बात खत्म हो गई। न उस पक्षी से कुछ लेना-देना है, न उसके रास्ते पर जाना है कि कहां वह गया, वहीं में जाऊं। किस-किस रास्ते से गया है। नहीं, उसके पंख में फड़फड़ाहट आ जाए तो बात हो गई।
तो मेरी कोशिश न तो रास्ता देने की है, न आपको किसी कहे हुए मार्ग में चलाने की है। मेरी कोशिश तो कुल इतनी है कि आपको यह दिखाई पड़ जाए कि पंख रहते हुए हम फिजूल बैठे हुए हैं, हम भी उड़ सकते हैं।
वह पैरेबल विवेकानंद कहने के बहुत शौकीन थे। बहुत पुरानी पैरेबल है कि जंगल में एक सिंहनी छलांग लगाती थी एक पहाड़ से। वह गर्भवती थी, उसका एक बच्चा हो गया। वह छलांग लगाती थी, कहीं बच्चा गिर गया रास्ते पर। भेड़ों का एक झुंड जा रहा था, वह बच्चा उसी में गिर पड़ा। फिर वह भेड़ों के बीच में सिंह का बच्चा बड़ा हो गया। उसने भेड़ देखी चारों तरफ तो उसको पता ही न था कि वह सिंह है। क्योंकि जानता था कि मैं भी भेड़ हूं। भेड़ें भागती थीं; वह भी पूंछ दबा कर उन्हीं के साथ भागता रहता था। जरा कुत्ता भौंकता था तो वह भी भेड़ों के बीच घुस कर भागना शुरू कर देता था। उसे पता ही नहीं था कि वह क्या है। और पता चलने का कोई कारण ही न था, क्योंकि सब तरफ भेड़ें ही भेड़ें थीं। भेड़ों के बीच बड़ा हुआ था। वह एक भेड़ ही हो गया था, फिर एक दिन जंगल से वह निकल रहा था, वह बड़ा हो गया था। सब भेड़ों के ऊपर दिखाई पड़ता, लेकिन उसको कुछ पता नहीं।
एक सिंह ने देखा कि एक शावक भेड़ों के बीच चल रहा है और भेड़ें घसर-बसर उसके साथ चली जा रही हैं। न भेड़ों को भय है न वह कुछ...वह बड़ा हैरान हुआ। उसने कहाः यह क्या मामला हो गया? यह तो कभी देखा नहीं गया। वह भेड़ों के झुंड पर हमला किया उसको पकड़ने के लिए। वह सारी भेड़ें भागीं। वह सिंह भी भागा जो उनके बीच में रहा। वह सिंह उसका पीछा किया। बामुश्किल उसको पकड़ पाया वह पूंछ दबाए हुए पसीने से लथपथ भागा जा रहा था। पकड़ा तो वह गिड़गिड़ाने लगा, मिमियाने लगा, जैसे भेड़ें करती हैं। छोड़ने की प्रार्थना करने लगा। उसने उसे पकड़ा और नदी के किनारे ले गया। वह चिल्ला रहा है कि मुझे छोड़ दो, मुझे जाने दो, जाकर उस नदी के किनारे खींचा। दोनों ने पानी में झांका। उसने भी झांका जो भेड़ों के बीच में पला हुआ था। वह देख कर हैरान हुआ। जिससे वह भयभीत हो रहा था, उन दोनों के चेहरे एक जैसे हैं। उसने उसकी तरफ गौर से देखा, उसकी पूंछ वापस अपनी जगह खड़ी हो गई, दबी हुई पूंछ न रही। उसने जोर का सिंहनाद किया, वह जो भेड़ बना हुआ था। और वह सिंह बोलाः मैं हैरान था कि तुझे हो क्या गया? उसने कहाः मैं भेड़ों के बीच में पला था, तो मैं समझा, मैं भेड़ हूं। यह तो आज अगर पानी में तुम्हें नहीं देखता, अपना चेहरा नहीं देखता, मिला नहीं पाता तो मुश्किल हो जाती। बात खत्म हो गई। बात खत्म हो गई।
यह जो सारे जीवन की जो प्रक्रिया है वह कुल इतनी है कि अगर किसी व्यक्ति के पास हमें अपना चेहरा देखने का मौका मिल जाए तो बात खत्म हो गई, उससे फिर क्या लेना-देना है। न तो इस सिंह को उसके सिंह जैसा चेहरा बनाना है अब, न उसके पद चिन्हों पर चलना है, न कोई मतलब है। वह बात खत्म हो गई। एक भ्रम था इसका, वह टूट गया। मेरा मतलब समझे न आप? तो मेरी तो सारी कोशिश इतनी ही है कि कुछ भ्रम हैं हमारे मन में, वे टूट सकें। और वे आपके द्वारा टूट सकें। मैं उनको तोड़ दूं, तो कोई मूल्य नहीं है। वह सिंह कितना ही उसको मार ठोंक करता और समझाता-बुझाता कि नहीं तू सिंह है और उपदेश देता, और बड़े उद्धरण देता और सब तरह के सिद्ध करता, उससे कोई मतलब नहीं था। वह कहता, बिलकुल आपकी बात ठीक लगती है, लेकिन हूं थोड़ी ही। वह यही कहता कि आपको बात ठीक लगती है लेकिन मुझे छोड़िए, मुझे जाने दीजिए, मेरे साथ वह सब चले जा रहे हैं। मैं मुश्किल में पड़ गया हूं। मुझे छोड़िए। आप सब ठीक कहते हैं, लेकिन मुझे छोड़िए, वह कहता। यह सवाल नहीं है।
प्रश्नः ठीक पहचान लिया कि यह रास्ता ठीक है और यह बुरा। यदि हम ठीक रास्ते पर चल ही न पाते हों?
उसका मतलब ही यह हुआ कि तुम नहीं ठीक से पहचानते, नहीं ठीक से पहचान रहे। क्योंकि ठीक से पहचान लेने और चलने में कभी भेद नहीं होगा। लेकिन यह जो हमारी गलतियों में से बुनियादी गलती हैं--एक चीज हमें तर्कयुक्त, बिलकुल ठीक लगती है, बुद्धिगत रूप से बिलकुल ठीक लगती है तो समझ में आती है। उसके विरोध में हम कुछ नहीं कह सकते, वह बात बिलकुल ठीक मालूम पड़ती है। इससे हम समझते हैं कि हमने ठीक से समझ लिया है बुद्धि हमारे व्यक्तिगत का बड़ा छोटा सा हिस्सा है। वह हमारे सारे व्यक्तित्व को चलाने वाली चीज नहीं है। तो बुद्धि को समझना आ गया, और बुद्धि छोटी सी चीज है, सारा व्यक्तित्व बहुत बड़ी चीज है। और सारे व्यक्तित्व को समझ कर कोई पता नहीं चलता। तो समझते वक्त तो सिर्फ बुद्धि समझ लेती लेकिन करते वक्त पूरा व्यक्तित्व काम कर रहा है। तो सब दिक्कत पड़ जाती है। पूरा व्यक्तित्व कहता है, यह मामला नहीं चलेगा, करना ऐसा पड़ेगा। तब फिर कठिनाई शुरू होती है। तब होता क्या है कि जिसको हम अभी बुद्धि के द्वारा समझ कहते हैं, मात्र बुद्धि के द्वारा समझ, वह पूरी समझ नहीं है, गहरी समझ नहीं है। पूरे व्यक्तित्व की भी समझ होती है।
फिर जैसे मैं आपसे एक बात कह रहा हूं। मैंने जो बात कही वह ज्यादा से ज्यादा आपकी बुद्धि तक जा सकती है क्योंकि कही गई बात बुद्धि से गहरी नहीं जाती। जा भी नहीं सकती। दोनों बुद्धि से जाता है, बुद्धि तक छीना जाता है, वह आपकी बुद्धि में बिलकुल समझ में आ गई। आपके सिर ने वह बात पकड़ ली और आप चल पड़े। इतने से बात पूरी नहीं होती। जो मैंने आपसे कहा वह अभी बुद्धि ने समझा। अब इसको अत्यंत शांत अवस्था में, जहां बुद्धि एकदम शांत हो जाती है, मौन हो जाती है, उस लाइसेंस में फिर इसको देखना और जानना इस बात को कि जब शांति में, परिपूर्ण शांति में--जिसको मैं ध्यान कहता हूं, उस ध्यान में जब यह बात फिर आपके खयाल में पूरी स्पष्ट प्रकट हो तो वह आपके पूरे व्यक्तित्व में प्रवेश हो जाती है और वह आपकी समझ होगी, फिर उसके विपरीत आप नहीं जा सकते।
तो एक तो समझना है बुद्धि और, और समझना है परिपूर्ण व्यक्तित्व को। और परिपूर्ण व्यक्तित्व जब बिलकुल शून्य होता है तब समझता है, उसके पहले नहीं समझता है। तो जो मैं कहता हूं, वह तो चिंतन हुआ आपका। उस बात का चिंतन हुआ फिर आप यहां से घर की तरफ गए तो आपने उस बात का थोड़ा मनन किया और उसको लगा कि यह बिलकुल ठीक है। लेकिन यह निदिध्यासन नहीं हुआ। निदिध्यासन तो तब होगा जब कि वह बात आपने सुन ली, समझ ली, विचार कर ली। फिर अत्यंत शून्य में उस बात को देखने का प्रयोग किया। इतने शांत और शून्य होकर सिर्फ होश रह गया है, न और कोई चिंतन रहा, न कोई मनन रहा। उस शून्य में जब किसी सत्य की झलक मिलेगी तो वह पूरे प्राणों के कोने-कोने तक प्रविष्ट हो जाती है। बिजली की तरह सब तरफ दौड़ रहा है। फिर आपका व्यक्तित्व समझ से भर गया। अब आप सोते, उठते, बैठते, होश में बेहोशी में जो भी करेंगे वह पूरे व्यक्ति से निकलेगा। वह पूरे व्यक्तित्व से निकलेगा। और तब, वह जो अभी फासला दिखाई पड़ता है कि ठीक बात लगती है, लेकिन करते उलटा हैं, वह फासला सब खत्म होगा। इसलिए अकेले समझने पर मेरा जोर नहीं है ध्यान पर मेरा भारी जोर हैं कि वह ध्यान में प्रविष्ट होना चाहिए वह बीज, जो हमारी समझ भर में प्रविष्ट होकर रह जाते हैं।
समझ की एक अपनी जगह है, ध्यान की अपनी जगह है। ध्यान पूरे व्यक्तित्व में ले जाता है उन चीजों को।
प्रश्नः आखिर जिस चीज को हम समझ लेते हैं, उसे हम करते नहीं हैं।
असल बात यह है कि ऐसा भी है, जिसके बाबत भी समझते हैं वैसा नहीं है--सिगरेट पीने से कैंसर से आदमी मरता है टी. बी. होती है, कैंसर होता है, फलां-ढिकां होता। कितने लोग सिगरेट पीते हैं। उसमें भी निकोटिन है, जहर है, वह पायजन फैलाता है। कितने लोग पीते हैं। कोई कहता है शराब पीने से यह नुकसान होते हैं कितने लोग पीते हैं, और हजार तरह के जहर लोग पीते हैं। और जानते हुए भी पीते हैं लेकिन इससे कुछ समझा लेने से कुछ होता नहीं। एक डाक्टर अपने मरीज को समझाता रहता है कि सिगरेट नहीं पीना, यह बहुत बुरा है। और बैठ कर सिगरेट पी रहे हैं। वह समझा रहा है कि इससे कैंसर हो जाएगा। फलां-ढिंका हो जाएगा। और वह सिगरेट पी रहा है।
यह तो हमको खयाल में आता है कि जिस चीज को हम समझ लेते हैं, वैसा हम नहीं करते हैं, ऐसा नहीं है। समझती बुद्धि है, दूसरा कुछ नहीं होता। पूरे व्यक्तित्व में दूसरी मांगें हैं। बुद्धि समझती है कि हां भाई, सिगरेट पीने में जहर है। लेकिन पूरा व्यक्तित्व कहता है, बिना पीए हम सुस्त हो जाते हैं। बिना पीए से नहीं चलता। इतना छोटा जहर है कि बीस साल में मरेगा आदमी और अभी सिगरेट पीने वाले मर नहीं जाते इतने सिगरेट पीने वाले बुड्ढे हो जाते हैं। यानी कहां तक सच है, कहां तक नहीं है सच। और अगर मान लो बिना सिगरेट पीए, बिना शराब पीए, बिना मांस खाए, बिना रंग नाच किए जी भी लिए तो जी कर भी क्या करोगे? वह सारा व्यक्तित्व तो यह कहता है। करेंगे क्या? यह भी ठीक है कि नहीं सिगरेट पीएंगे, नहीं शराब पीएंगे, फिर करेंगे क्या? सवाल यह है कि फिर जिंदगी का क्या करेंगे? और जिंदगी चली जाएगी। और कोई ऐसा भी नहीं कि अमर हो जाएंगे सिगरेट नहीं पीएंगे तो। कोई पांच साल पहले जाएगी, कोई पांच साल पीछे जाएगी। तो यह सिगरेट पीने से छूटता है तो छोड़ें यह काहे को परेशानी छोड़ें। पूरा व्यक्तित्व और बातें समझाता है और बुद्धि कहती है इसमें निकोटिन है, फलां है, ढिंका है। पूरा व्यक्तित्व दूसरा दलील नहीं देता है। फिर आप अकेले पड़ जाते हैं, वहां कोई नहीं है, तो सिगरेट साथी हो जाती है। सोचते हैं आज तो पी सकते हैं, कल देखा जाएगा। एक दिन में कौन मर जाता है! तो सारा व्यक्तित्व और दलीलें देता है। मेरा कहना है कि किसी भी चीज की पूरी समझ पूरे व्यक्तित्व तक परिवर्तन लाती है, नहीं तो नहीं लाती है।
प्रश्नः जैसे आग में जल जाए तो आग समझ लाती है बहुत जल्दी। उसके लिए ध्यान में जाने की बात नहीं है?
यह जो आग में लग कर समझ में आता है न, वह भी अनुभव से समझ में आता है। जब आग में हाथ लगता है तब करीब-करीब आप ध्यान की अवस्था में हो जाते हैं। न कोई विचार रह जाता है, न कुछ खयाल रह जाता है, माइंड पूरा साइलेंट हो जाता है। एक अंगारा लाकर आपको हाथ में रख देगा, आपके सब विचार विलीन, सब समस्याएं दूर। अंगारा रह गया और आप रह गए। तो यह करीब-करीब मेडिटेशन की हालत शुरू हो गई और इस वक्त जो आपको दिखाई पड़ जाएगा, वह पूरे व्यक्तित्व को दिखाई पड़ गया।
मेरा मतलब क्या है ध्यान का? मेरा मतलब है कि चित्त इतना शांत है उस क्षण में, जो और कुछ भी नहीं रह गया, एक ही चीज रह गई दिखाई पड़ने को। तो टोटल अटेंशन मिल गई उस चीज को। अब एक आदमी आपके हाथ में अंगारा रख दे और पीछे से बंदूक लेकर खड़ा हो जाए तो हो सकता है कि अंगारे का आपको पता भी न चले कि अंगारा हाथ में लग गया। एक आदमी क्रिकेट खेल रहा है या हाकी खेल रहा है। नाखून उखड़ गया है, खून बहा जा रहा है और वह खेला चला जा रहा है और उसको पता भी नहीं है कि नाखून खून लगा गया कि टूट गया, क्या हो गया। खेल बंद हो गया घंटे भर बाद, तब लोग उसको कहते हैं तुम्हारे पैर से खून बह रहा है। अरे! वह कहता है, मुझे पता नहीं चला कि खून बह रहा है। अक्ल से नहीं मिल सकती वह पूरी बात तो वह दिखाई नहीं पड़ी बात, वह पड़ी रह गई बात। पूरा व्यक्तित्व जिस चीज के प्रति अटेंटिव हो जाता है वह चीज मेडिटेशन हो गई। तो जीवन के खतरों में हम मेडिटेशन की हालत में पहुंच जाते हैं। इसलिए फिर दुबारा नहीं करते।
जीवन के जो और महत्वपूर्ण मसले हैं, जो हमें इतनी खतरनाक स्थिति में कभी नहीं डालते हैं, उनके बाबत भी जब हम इतने ध्यानावस्थित हो जाते हैं, देखेंगे तो वहां भी इतना ही फर्क पड़ जाएगा--इतना ही फर्क--इतना ही जितना आग में जलने से पड़ता है। इससे भिन्न नहीं, बिलकुल इतना। यह फर्क आग के जलन का नहीं है, यह फर्क टोटल अटेंशन का है। तो जब भी पूर्ण ध्यान किसी तथ्य को उपलब्ध होता है तो जीवन में क्रांति हो जाती है। मेरा मतलब समझे न आप! वह तभी हो जाती है। लेकिन हमें दिखाई नहीं पड़ता।
जैसे अभी इसकी पत्नी चल बसी-घर में कोई आदमी चल बसता है वह तो चल बसा, हम रोने धोने में लग गए तो उसके चल बसने का तथ्य अंगारे की तरह हमारे ऊपर पड़ना चाहिए था, वह एक तरफ पड़ा रह गया। हम अपने रोने-धोने की धुन में पड़ गए हम रोने-धोने में लग गए, हमने एक नया काम चुन लिया। तो उसकी मृत्यु जो अंगारे की तरह हमको छेद देती है प्राणों तक वह फिजूल हो गई। दस पंद्रह दिन बाद हम रो-धो कर ठीक-ठाक हो जाएंगे, फिर दुनिया वैसी ही चलने लगेगी। उस आदमी के जाने का हम पर कोई बुनियादी अंतर नहीं पड़कर रह जाएगा। लेकिन अगर उसको मरते वक्त हम रोए नहीं, घबड़ाएं नहीं, परेशान नहीं हुए, और उसकी मृत्यु अंगारे की तरह हमारे हाथ पर रख गई और सारे प्राणों में, पूरी शांति में इस तथ्य का जान लिया तो आप दूसरे आदमी हो जाएंगे। आप आदमी दूसरे हो जाएंगे कल से आपका जीने का व्यवहार बदल जाएगा। कल से आपके लिए मृत्यु एक गया तथ्य हो जाएगी, जो आपके पूरे जीवन को बदलेगी। परसों आपने जिस तरह किसी से बोला होता आज आप उससे उस तरह से नहीं बोलेंगे, क्योंकि ऐसा तथ्य बीच में आ गया जो कल तक आपको पता नहीं था। रोज घटनाएं तो जिंदगी में घटती हैं लेकिन मेडिटेटिवली हम उन घटनाओं को ले नहीं पाते। बिलकुल छोटी-छोटी घटना एकदम आपकी जिंदगी को बदलती चली जाएगी न किसी को समझने की जरूरत है न किसी को पूछने की।
अगर वह जो, जिसको मेडिटेशन कहें वह थोड़ी सी खयाल में आ जाए, तो जिंदगी सब आपसे कह देगी, खुद कह देगी। रोज-रोज कहती है जिंदगी आप से, लेकिन आप सुनने को वहां मौजूद नहीं होते--मौजूद ही नहीं होते। निकलती है बात, चली जाती है पूरा व्यक्तित्व बिना सुना रह जाता है। नहीं तो एक-एक चीज--यह तो बड़ी बात है, घर से कोई चल बसे। एक सूखा पता वृक्ष से गिर जाए और एक आदमी मेडिटेटिवली उसे देख लें। वह बैठा है चुपचाप और देख ले सूखे पते को--जिंदगी दूसरी हो गई मामला खत्म हो गया। उसे कुछ बात दिखाई पड़ गई कि सूखे पते गिर जाते हैं, और सब पत्ते सूख जाते हैं। कोई पत्ता हमेशा नहीं रहता है। मैं भी एक पत्ता हूं, आज हूं हरा, कल सूख जाऊंगा गिर जाऊंगा हवाएं उड़ा कर ले जाएंगी। तो जहां सूखे पत्ते की तरह उड़ जाना है हवाओं में, वहां क्या-क्या पागलपन करूं, किसलिए करूं, किसके लिए करूं! किस अर्थ के लिए करूं! क्यों चिंतित, क्यों परेशान, क्यों हैरान? तो चीजें सूखे पत्ते से भी हो सकती है? कहां से सकती है? अगर ध्यान में जीवन को पकड़ा जा सके, कहीं से भी किसी भी कोने से तो आदमी वहीं से बदलने लगता है, धार्मिक होने लगता है।
तो मेरा जोर कुल इतना है कि जीवन के प्रत्येक तथ्य को हम जरा होश से, ध्यानस्थ होकर मेडिटेटिवली देखने की क्षमता को विकसित करते चलें, फिर सब होगा। और फिर यह समस्या खड़ी नहीं होगी कि मेरी बुद्धि यह कहती है, और मैं ऐसा करता हूं, क्योंकि तुम और बुद्धि दोनों अलग हो नहीं। लेकिन तुम जब पकड़ते हो तो अलग-अलग पकड़ते हो, इसलिए अलग-अलग बने रहते हो, इकट्ठा पकड़ने की बात है।
एक ईसष के फेबल्स में एक छोटी कहानी है कि एक भेड़िया है, वह बड़ी बहादुरी हांकता रहता है कि मुझसे तेज कोई दौड़ नहीं सकता। मेरे चंगुल में जो शिकार फंस जाता है कभी बचता नहीं। वह भेड़ियों में हांकता रहता है अपनी बातें। कोई आदमी हांकता हो ऐसा नहीं, जानवर भी हांकते हैं इस तरह की बातें कि मैं ऐसा न रहा। एक दिन वह, एक हिरन का छोटा सा बच्चा दिख गया तो और दो-चार दस भेड़िए, तो वह कहता है देखें तुम्हारी बहादुरी, देखें जरा दौड़ को। क्योंकि हिरन तो बड़ा तेज दौड़ता है। जरा देखें, इसे पकड़ो तो वह भेड़िया भागा। बाकी भेड़िए उसके साथ भागे देखने के लिए लेकिन मीलों का चक्कर हो गया। वह हिरन का बच्चा तो हवा होकर भागा और वह भेड़िया तो पकड़ नहीं पाता है। वह छलांगें लगा रहा है लंबी-लंबी। वह तो झाड़ियों से आगे लगाए जा रहा है, वह तो बिलकुल तीर हो गया। आखिर भेड़िया थक गया और उसके मित्र सब हंसने लगे। उन्होंने कहाः कहां गई तुम्हारी बहादुरी? उसने कहाः यह बहादुरी का सवाल नहीं है। मैं केवल भोजन के लिए भाग रहा हूं, वह अपने पूरे प्राणों के लिए भाग रहा है। यह बहादुरी का सवाल नहीं है। यह मामला फर्क का इसलिए पड़ रहा है, मेरा तो सिर्फ,, ज्यादा से ज्यादा दोपहर का भोजन है, और उसके लिए पूरे प्राण! तो उसकी जो गतिमयता है वह उसकी टोटल बीइंग से आ रही है, उसके पूरे प्राणों से आ रही है। और मेरे लिए मामला सिर्फ इतना है कि मिल गया तो भोजन हो जाएगा, नहीं तो दूसरा कोई देखेंगे। तो इसको तुम यह मत समझना कि यह कोई मेरी ताकत का परीक्षण हो गया। मेरी ताकत का परीक्षण तो तब हो जब कि मेरे पीछे भी कोई जान लेकर पड़ा हो और उस वक्त तब तुम देखना कि मैं उससे भी आगे निकल जाऊंगा। हार रहा हूं, इसलिए कि मेरे लिए ज्यादा मामला नहीं है, उसके लिए पूरा प्राण का मामला है।
मेरा मतलब समझे न? तो हमारे जीवन में तक तब मामले नहीं बनते हैं और गति नहीं आती, इटेंसिटी नहीं आती जब तक कोई चीज हमारे पूरे प्राणों के लिए मामला नहीं बन जाए। मेरी आप बात सुनते हैं, एक मसला आपको बन जाता है वह मसला बिलकुल बौद्धिक है। वह दो मिनट में विलीन हो जाता है। क्योंकि वह आपके पूरे प्राणों की जरूरत नहीं है। उसको अगर पूरे प्राणों की जरूरत की तरह आप प्रवेश देंगे तो वह कल का सवाल नहीं है, वह यही हो जाएगा फर्क।
मैं पिछले वर्ष आया तो कुछ बात कर रहा था, दक्षिण में एक साधु है, उसका एक बड़ा आश्रम है। और एक संन्यासी भी यहां दीक्षित हुआ है। वह युवा संन्यासी बड़ा विवादी है। छोटी सी बात पर विवाद कर लेता है और इतना खंडन-मंडन का शौक है उसे कि चैबीस घंटे उसके इसी में व्यतीत होते है। फिर कोई एक मेहमान ठहरा है संन्यासी और वह उससे विवाद में पड़ गया है युवक, और दो-ढाई घंटे तक उसके सारे विचारों का खंडन किया। एक-एक खाल उखाड़ दी, उसके बाल के टुकड़े कर डाले। वह संन्यासी पराजित भाव से चला गया। उसके गुरु ने, उस युवक के गुरु ने कहा कि तू यह कब तक बकवास करता रहेगा? तू तब तक बोलता रहेगा? तुझे कब दिखाई पड़ेगा कि वाणी व्यर्थ है; उसका कोई अर्थ नहीं है? इस विवाद का कोई सार मिलता नहीं। तू कब तक यह बंद करेगा, यह बोल? यह युवक हंसने लगा। और उसका गुरु पूछने लगा कि तू बोल, कब बंद करेगा? लेकिन फिर वह बोले नहीं इसका भी उत्तर नहीं दिया उसने। इस बात का भी नहीं दिया। एक दिन बीत गया, दो दिन बीत गया, उसका गुरु उसे हिलाने लगा कि तू बोलता क्यों नहीं है? लेकिन वह हंसता और चुप रह जाता। तब दो-चार दिन में पता चला कि वह उत्तर नहीं देगा। बात समझ में आ गई, खत्म हो गई बात, अब इसका भी क्या उत्तर देना है? क्योंकि बोलने के लिए क्या समय गंवाना? अब इतनी वाणी भी क्यों खर्च करनी? बात खत्म हो गई। उसका गुरु तो हैरान हो गया। तीस साल तक वह युवक नहीं बोला। दूसरे लोगों ने कहाः यह तो आदमी पागल मालूम होता है क्योंकि जब बकवास करता था तो दिन-रात बकवास करता था, बोलता तो नहीं बोलता।
उसके गुरु ने कहा कि ऐसे पागल दुनिया में होते हैं, बस वे ही तो कुछ उपलब्ध कर पाते हैं। बाकी कोई उपलब्ध नहीं कर पाता। बड़ा अदभुत आदमी है। मैं भी नहीं सोचता था। मैं तो इससे पूछ रहा था, कब बंद करेगा? मगर मेरी पूछने में भी भूल थी क्योंकि अगर दिखाई पड़ जाएगा। तो अभी बंद करेगा। कब का क्या सवाल है? और नहीं दिखाई पड़ेगा तो कभी भी क्यों बंद करेगा? मैं भी कुछ गलत पूछ रहा था और इस आदमी ने मुझे बताया कि मेरा प्रश्न ही गलत था। मैं इससे पूछता था कि कब बंद करेगा? और वह हंसने लगा। और कितना मेरी मजाक हो गई उसके हंसने में कि मैं पूछता हूं कि कब बंद करेगा! अब वह बंद कर चुका है। बात खत्म हो गई, उसको बात दिखाई पड़ गई।
अब यह किसी क्षण, में किसी मेडिटेशन के मूवमेंट उसको यह बात दिखाई पड़ गई तीर की तरह, कि ठीक है, क्या फायदा है किसी से विवाद करने में। यह दिख गया। यह समझ नहीं है, यह अब इंटलेक्चुअल अंडरस्टैंडिंग नहीं रही, अब यह टोटल बीइंग की अंडरस्टैंडिंग हो गई तो यह प्राणों तक छिद गई। बात खत्म हो गई। अब उसके पूछने का क्या मतलब रहा? वह गुरु को पता ही नहीं है कि यह बात बदल गई। उसका गुरु उसको अपना गुरु मानने लगा, उस युवक को अपना गुरु मानने लगा और लोगों में कहता अब यह मेरा शिष्य नहीं रहा, अब यह मेरा गुरु हो गया है, क्योंकि मैं इससे पूछता था कि कब? और यह हंसता था। इसने बंद ही कर दिया था। मैं फिर भी पूछे जा रहा था तीन दिन तक कि तू कब बंद करेगा? तू बोलता क्यों नहीं? मैं इससे यह पूछे चला जा रहा था। और यह हंसता था और यह मन में क्या सोचता होगा कि यह आदमी कैसा पागल है! अब यह क्या पूछ रहा है? जो बात हो गई, वह हो गई।
यह जो...इसकी खोज में लगे रहना चाहिए कि जिंदगी मैं मेडिटेशन का मूवमेंट कैसे आ सकता हैं। और उस वक्त जो भी समझ आएगी, उस समझ में और आपके आचरण में कभी भी भेद पड़ने का नहीं है। वे एक ही चीज के दो नाम हैं, वह समझ और वह आचरण। वे एक ही चीज के नाम हैं। दो सवाल नहीं है। जब तक सवाल है तक तक यहीं सवाल है असल में कि हम जो भी पकड़ते हैं, वह नाॅन-मेडिटेटिव मूवमेंट में पकड़ी गई बातें हैं। वह बुद्धि तक जाती हैं, उससे आगे नहीं जाती हैं।
प्रश्नः आप कहते हैं शून्य हो जाना चाहिए। उसके बाद क्या करने के लिए शून्य में हो जाना चाहिए? किसलिए शून्य में जाना चाहिए?
स्वस्थ होने के लिए, शांत होने के लिए, आनंदित होने के लिए। अभी अस्वस्थ हैं, अशांत हैं, दुख में हैं।इस दुख से, इस पीड़ा से, इस अंधेरे से ऊपर उठाने के लिए। लेकिन कभी कोई आदमी नहीं पूछता कि मैं बीमार हूं तो मैं स्वस्थ क्यों होऊं? स्वस्थ होकर मैं क्या करूंगा? कोई आगे पूछता ही नहीं। किसी आदमी ने कभी पूछा है कि स्वस्थ मैं किस लिए होऊं? कहता है, मुझे स्वस्थ होना है। बीमारी मुझे नहीं चाहिए। लेकिन अगर हम उससे पूछने जाए कि क्यों बीमारी नहीं चाहिए? स्वस्थ होकर क्या करेगा? तब भी वह कहता है, इसका कोई सवाल नहीं है। मुझे स्वस्थ होना है। क्यों स्वस्थ होने के आगे मंजिल नहीं है, स्वास्थ्य मंजिल है। स्वास्थ्य का होना, जो वेल बीइंग है, वह आनंद है, उसके आगे कोई मंजिल नहीं है। सवाल नहीं है उसके आगे कि क्या करूंगा? सवाल यह है कि स्वस्थ हो जाने के लिए सब करना है। सब करना स्वस्थ हो जाने के लिए है। एक आदमी पूछ रहा है कि शांत होकर क्या करूंगा? तो उसका पता ही नहीं है, वह शांत का मतलब नहीं जान रहा है। पूछता है, शून्य होकर क्या करूंगा? उसको पता नहीं। वह शून्य का मतलब नहीं समझ रहा है।
शून्य का मतलब है, आत्मिक स्वास्थ्य। जब तक हम उलझे है मन में बहुत सी चीजों में, तब तक हम अस्वस्थ हैं। जब चित्त बिलकुल शून्य हो गया...एक आदमी स्वास्थ्य को उपलब्ध होता है, उसके आगे कोई मंजिल नहीं है क्योंकि उसके स्वास्थ्य के क्षण में सब जान लिया जाता है, और सब पा लिया जाता है। इसलिए आगे क्या करेंगे, सवाल नहीं है। यह सवाल ही नहीं है और यह कभी किसी को जो शून्य में पहुंचता है उठता नहीं है। लेकिन उसके पहले हम हिसाब-किताब लगाते हैं। तो अभी इसकी फिकर ही न करें कि वहां पहुंचकर क्या करेंगे। अभी तो इसकी फिकर ही न करें कि जहां आप हैं, वहां आप क्या कर रहे हैं।
प्रश्नः जिस अर्थ में आप बात कर रहे हैं वह शरीर से भिन्न है या?
क्या करिएगा इसको सोच कर अभी से? और मैं कहूंगा, उससे आपको क्या पता चलेगा? फिर एक सिद्धांत बन जाएगा। मैं कह दूंगा, वह एक सिद्धांत बन जाएगा।
प्रश्नः जैसे आपको सुनने से हम लोगों को कोई-कोई बात की प्रतीति होने लगी है, तो इस तरह की कुछ प्रतीति हो जाए?
मेरे सुनने से आत्मा की प्रतीति नहीं हो सकती। मेरे सुनने से आत्मा तक किन चीजों के कारण हम नहीं पहुंच पाते, इसकी प्रतीति हो सकती है। और किन चीजों से हम पहुंच सकते हैं इसकी प्रतीति हो सकती है। आत्मा की प्रतीति नहीं हो सकती। आत्मा की प्रतीति नहीं हो सकती। आत्मा की प्रतीति तो जो मैं कह रहा हूं, उस अवस्था में पहुंचेंगे तो होगी। वह मेरे सुनने से नहीं हो सकती। और मेरे सुनने से हो जाएगी तो वह फिर झूठी होगी। वह सिर्फ इंटेलेक्चुअल होगी, बुद्धि की होगी। फिर एक सिद्धांत बन जाएगा। आपके मन में कि मैं ऐसा-ऐसा कहता हूं आत्मा को, और आत्मा इस तरह की है। इसलिए कोई डिफाइन करने की कोशिश न करिए कि शरीर अलग है कि आत्मा अलग है कि काली है कि पीली है कि किसी है। क्योंकि जितनी डेफिनिशन हैं, जितनी परिभाषाएं है, कोई भी परिभाषा जीवन के परिपूर्ण सत्य को नहीं छूती है, असमर्थ हैं छूने में। तो उसे अनुभवों में तो छुआ जा सकता है, लेकिन परिभाषाओं में नहीं।
तो यह पूछिए मत। इतना ही जानिए, यानी मेरी एंफेसिस इस बात पर है--इतना जानिए कि मैं अज्ञान में हूं, मैं दुख में हूं, मैं अशांति में हूं। अशांति कैसे हट सकती है, दुख कैसे हट सकता है, अज्ञान कैसे हट सकता है, इसको समझने की कोशिश करिए। जब दुख हटेगा, अज्ञान हटेगा, अशांति हटेगी, तब जिसका साक्षात होगा वह आत्मा है। और उस आत्मा की कोई परिभाषा संभव नहीं है। कोई बातचीत करना संभव नहीं है कि क्या होगा उस अनुभव में। वह अनुभव ही है। वह अनुभव ही कहेगा कि क्या हुआ है लेकिन हमारे मुल्क में, सारी दुनिया में ऐसा चलता रहा है कि हम हर चीज की परिभाषाएं करते रहे हैं कि आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, क्या नहीं है, क्या नहीं है। हम परिभाषाएं करते रहे हैं। और वे खूब परिभाषाएं हमको सब मालूम हैं। यह भी नहीं है कि नहीं मालूम है। उससे कुछ हित होता नहीं है। खतरा नहीं है कि उसी परिभाषा को हम दोहराने लगते हैं धीरे-धीरे। और बहुत दिन दोहराने पर ऐसा पता चलने लगता है कि हम जान गए हैं। परिभाषा ही दोहराने पर पता लगेगा।
प्रश्नः निर्विचार बनने के बाद...कोई आदमी निर्विचार बन गया, आत्मा बनता है, उसका ध्येय गया पुनर्जन्म में कोई आगे करने के लिए भी यही है?
ये सारी बातें जो हैं न, बड़ा मजा है कि ये सारी बातें ऐसी हैं कि एक अंधा आदमी पूछता है कि मान लो कि मेरी आंखें खुल गई है और प्रकाश मिल गया है, तो मेरे हाथ की लकड़ियां, जिसको टेक-टेक कर मैं चलता हूं, इसका क्या होगा? ये बचेंगी कि छूट जाएगी? अगर यह छूट जाएंगी तो इसके बिना तो मैं चल ही नहीं सकता हूं। फिर तो मैं टकरा कर गिर जाता हूं, तो आप पहले यह बताइए कि मेरी आंखें ठीक हो जाएगी तो मेरी बैसाखी का क्या होगा, मेरी लकड़ी का क्या होगा? इसके बिना तो मैं चल ही नहीं सकता। यह छूटेगी कि बचेगी? हम उसे क्या कहेंगे? हम उसे कहेंगे कि तुझे पता नहीं है कि आंख खुलने का क्या अर्थ होता है। बैसाखी का कोई संबंध ही नहीं रह जाता। बैसाखी का संबंध ही तेरे अंधेपन से है। आंख से उसका कोई संबंध नहीं है।
जिसको हम पुनर्जन्म कहते हैं, जिसको हम मृत्यु कहते हैं, जिस दिन आत्मा का अनुभव होता है, उस दिन न तो कोई मृत्यु है और न कोई पुनर्जन्म है। क्योंकि जो मरता ही नहीं उसको कोई जन्म भी नहीं है। लेकिन वह उस दिन दिखाई देता है। अभी तो हमारे लिए प्राॅब्लम्स है कि वह क्या होगा, वह क्या होगा! ये जितने प्राॅब्लम्स हैं, जितनी समस्याएं हैं, हमारे अंधेपन से ही पैदा होती हैं और हम अंधेपन के रहते ही इनको हल करने की कोशिश करते हैं। यह हल हो नहीं सकती। यह जो कठिनाई हमारी है, वह हल हो नहीं सकती। तो जो हम प्रश्न पूछते हैं वह ऐसे, जैसे अंधा आदमी पूछता है। वह पूछता है कि प्रकाश समझ लीजिए कि मिल गया, तो प्रकाश का आकार क्या होता है? हम उससे क्या कहेंगे? प्रकाश का कोई आकार होता है। वह अंधा आदमी पूछता है कि फिर प्रकाश का कोई वजन होता है कि नहीं होता है? कितना वजन होता है। हम कहेंगे कि बड़ी मुश्किल की बातें कर रहे हो। प्रकाश का कोई वजन नहीं होता। वह अंधा आदमी कंफ्यूजन में पड़ेगा, हमारी बातें सुन कर।
प्रश्नः क्योंकि व्याख्या तो है ही नहीं उसकी।
नहीं, कोई व्याख्या नहीं है। अनुभव ही। अनुभव ही।
प्रश्नः और देहावसान के साथ आत्मा भी खत्म हो जाती है?
फिर वही बात! मजा यह है कि हमें अभी पता नहीं है कि भीतर क्या है, और हम पूछते हैं देहावसान के बाद...। अभी देह के रहते हुए ही, अभी क्या भीतर है इसका पता लगाइए। देहावसान होगा तब आपको पता चलेगा कि क्या हो रहा है; बचता है कि नहीं बचता है। कभी न कभी देहावसान होगा, तो उससे पहले तो उस प्राब्लम को क्यों पकड़ते हैं जब कि देह है? तो अभी तो पता लगाइए कि देह के भीतर क्या है! तो अभी इसकी फिकर छोड़ कर हम सोचें कि देहावसान होता है तब क्या होता है। देहावसान जब होगा तब आप मौजूद रहोगे, देह के भीतर तो आपका पता चलेगा कि क्या होता है। और आपके देहावसान पर ही आपको पता चलेगा, किसी दूसरे के देहावसान पर चल नहीं सकता।
प्रश्नः जीवन में कोई भी ध्येय तो चाहिए न?
क्यों चाहिए? क्या जरूरत है?
प्रश्नः तो फिर शून्य होने की जरूरत क्या है? फिर हम बुरे काम क्यों न करें? फिर खून क्यों न करें?
आप कर रही रहे हैं। क्यों न करें का सवाल ही नहीं है, कर रहे हैं क्यों न करें का मतलब तो यह है कि आप नहीं कर रहे हैं। मैं भी यही कहता हूं, आप कर ही रहे हैं। पूरी तरह कर रहे हैं। खून भी कर रहे हैं, बुरे काम भी कर रहे हैं। सवाल कुल इतना है कि यह करने में आप उस व्यवस्था में नहीं हैं जहां कि आप पाए कि मैं पहुंच गया। बेचैनी बनी हुई हैं, बेचैनी बनी हुई है। कर भी रहे हैं और लग रहा है, नहीं भी करना चाहिए। कर भी रहे हैं तो दुख झेल रहे हैं और नहीं कर रहे हैं तो दुख झेल रहे हैं। तो एक डिसकंटेंट पूरे घेरे हुए हैं। यह जो डिसकंटेंट है, यह जो अतृप्ति है, यह जो पीड़ा घेरे हुए हैं, इस पीड़ा के बाहर आप होना चाहते हैं तब तो पूछने का सवाल नहीं है। आप होना चाहते हैं इसके बाहर, इसलिए आप खोज करते हैं निर्विचार की। निर्विचार में पहुंचने का कोई लक्ष्य नहीं है सिवाय इसके कि जहां आप जहां है वहां होने का कोई अर्थ नहीं है।
मेरा मतलब, हम यहां बैठे हैं। इस घर में आग लग गई है, और मैंने कहा, आग लग गई, हम सब तड़फन लगे। मैंने कहा चलो हम बाहर निकल चलें। आप पूछने लगे, बाहर पहुंचने का लक्ष्य क्या है? क्या मिल जाएगा बाहर जाने से? तो मैं आप से कहूंगा कि अभी हम बाहर गए नहीं, आप बाहर गए नहीं, हमें बाहर का कुछ पता है नहीं। एक बात तय है कि जहां हम खड़े हैं वहां आग लग गई है, वहां हम जले जा रहे हैं, वहां तपे जा रहे हैं। वहां होने का कोई अर्थ नहीं रह गया है। हम यहां से भागते हैं। वहां किसलिए जाते हैं, यह हम पता नहीं, लेकिन यहां से हम जा रहे हैं, उसका हमें पता है कि यहां से हम क्यों जा रहे हैं।
यहां से हम हट कर बाहर पहुंचेंगे तो वहां बगिया है। वह बगिया मिल जाएगी, धूप मिल जाएगी, वह खुला आकाश मिल जाएगा, ठंडी हवाएं मिल जाएंगी और यहां, यह जो आग की तपिस थी, उससे हम बाहर जो जाएंगे। लेकिन यहां से आते वक्त हमारा कारण वहां कुछ है, वह नहीं है, यहां कुछ है जो हमें हटा रहा है। यानी हमेशा अगर ठीक से देखें तो जीवन की जो गति है, जहां हम हैं वहां जो अतृप्ति और असंतोष है, वह में हटाता है। जहां हम नहीं हैं, वहां क्या होगा, यह तो हमें पता नहीं है। तो विचार में हम अतृप्त हैं इसलिए निर्विचार की तरफ जाते हैं। अज्ञान में अतृप्त हैं इसलिए ज्ञान की तरफ जाते हैं। अशांति में परेशान हैं इसलिए शांति की तरफ जाते हैं। बीमारी में दुखी हैं इसलिए स्वास्थ्य की तरफ जाते हैं। यह जाना जो है किसी अट्रैक्शन को नहीं है जितना किसी रिपल्शन का है। अगर इसे ठीक समझें तो कोई विकर्षण है, जो हमें ले जा रहा है। कोई आकर्षण नहीं है। क्योंकि आकर्षण तो तब हो सकता है जब हम जानते हों कि वहां क्या है!
लेकिन आप पूछते हैं कि वहां का आकर्षण बताइए कि वहां क्या है! उससे मैं क्या समझ लेता हूं? मैं क्यों जिद्द करता हूं? मैं नहीं कहता वहां का आकर्षण। मैं इसलिए जिद्द पकड़ लेता हूं कि मैं जानता हूं जो आदमी पूछता है, वहां का आकर्षण क्या है, उसे वहां का विकर्षण नहीं दिखाई पड़ रहा है। इसलिए वह वहां का आकर्षण पहले पूछना चाहता है कि वहां क्या मिलेगा। यहां की स्थिति दुखपूर्ण है, यह उसे दिखाई नहीं पड़ती। वह नरक में खड़ा है, यह उसे दिखाई नहीं पड़ रहा है। तो वह पूछता है कि पहले हमें यह बताइए कि वहां क्या मिल जाएगा। तो मैं समझ गया एक बात कि उसे यहां की, यहां की स्थिति की पूरी तस्वीर उसे दिखाई नहीं पड़ रही है। यहां का पूरा नरक उसे दिखाई नहीं पड़ रहा है इसलिए वह पूछता है कि वहां क्या है? अगर यहां का नरक पूरा दिखाई पड़ जाए तो वह नहीं पूछेगा वहां क्या है? वह कहेगा, किसी भी भांति मैं यहां से उठ जाना चाहता हूं, यहां से अलग उठ जाना चाहता हूं। मुझे कोई फिकर नहीं कि वहां क्या है। मुझे वहां से हटना है। यहां से मैं कैसे हटूं? वह यह पूछेगा लेकिन जब हम पूछते हैं, वहां का आकर्षण क्या है, तो मेरे सामने जो सवाल खड़ा हो जाता है वह यह, कि फिर अब आपके लिए जरूरत इस बात की है; कि आपको आपकी पूरी स्थिति का पता बताया जाए कि स्थिति कैसी है।
प्रश्नः बाहर जाने का लक्ष्य हो गया न, यहां आग लगी तो!
बाहर जाने के लिए नहीं है, सिर्फ भीतर से हटने के लिए है। बाहर जाने का तो तब हो सकता है जब बाहर का पता हो। कोई आदमी दुनिया में परमात्मा की तरफ नहीं जाता। क्योंकि परमात्मा की तरफ तब जा सकता है जब उसे परमात्मा का पता हो।और पता ही हो तो जाने की जरूरत नहीं रह जाती। हर आदमी जीवन की पीड़ा और दुख से जाता है। यानी यह जो है, दिस मूवमेंट इ.ज नाॅट फाॅर समथिंग, फ्राॅम समथिंग यह जो है, सारा का सारा मूवमेंट जो है। फ्राॅम समथिंग, किसी चीज से है, किसी चीज के लिए नहीं है।
प्रश्नः यानी अंधेरे में ही दौड़ना है।
अंधेरे में दौड़ना नहीं, अंधेरे से दौड़ना है। अंधेरे से जो दौड़ेगा, वह अंधेरे से विपरीत दौड़ेगा। अंधेरे से दौड़ने का मतलब यह होता है कि अंधेरे के विपरीत दौड़ेगा। नहीं तो फिर अंधेरे में दौड़ रहा है। और प्रकाश का उसे पता नहीं है। तो वह खोज रहा है, अंधेरे के विपरीत खोज रहा है। शांति का पता नहीं है। अशांति के विपरीत खोज रहा है, अशांति के बाहर में। तो अशांति के कारण खोजेगा कि क्या-क्या अशांति के कारण हैं, जिनसे मैं अशांत हो रहा हूं!
यह दोनों में एप्रोज में क्या फर्क पड़ेगा? जो अब तक की एप्रोज रही है वह मेटाफिजिकल है। वह पूछती है कि शांति क्या है? मोक्ष क्या है? ईश्वर क्या है, आत्मा क्या है? मेरी जो एप्रोज है वह मेटाफिजिकल नहीं है, वह साइकोलाॅजिकल है। मैं यह पूछता हूं, अशांत के कारण क्या है? दुख के कारण क्या है? मोक्ष क्या है, इससे क्या लेना-देना है? बंधन क्या है? तो बंधन अगर मेरी पूरी समझ में आ जाए तो मैं बंधन को तोड़ दूंगा। जो शेष रह जाएगा। वह मोक्ष है। इसलिए मैं उसकी चिंता नहीं करता कि वह क्या है? मुझे बंधन समझ में आ जाए तो मुक्ति तो मिल जाएगी। बंधन तोड़ दिए कि मुक्ति मिल गई। लेकिन पुराना एप्रोज ही यह थी कि पूछते हैं कि मोक्ष क्या है? कहां है? आत्मा कहा, जाएगी? कहां पहुंचेगी, किसी सीढ़ी पर बैठेगी, किस सिद्ध अवस्था में बैठेगी, वह हमें पहले समझाइए। वह यह नहीं पूछता है कि बंधन क्या है? उसका आग्रह अगर बहुत गौर से देखें, तो मेरे लिए जो पुरानी मेटाफिजिकल एप्रोज है, वह ग्रीड की ही एप्रोज है, वह लोभ की ही एप्रोज है। क्योंकि जब आप यह पूछते हैं कि वहां मुझे क्या मिलेगा? तो आपका लोभ नाम पूछ रहा है कि पहले यह बताइए, मैं पक्का कर लूं, कोई गारंटी है वहां मिलने की नहीं? वहां मिलेगा क्या? नहीं तो हम यहां भी छोड़ दें, और वहां हमें कुछ मिले नहीं। तो इससे बंधन ही बेहतर है--कम से कम पहचाने हुए हैं, अपने हैं। और इनमें रहते-रहते आदी हो गए हैं।
एक कैदी यह पूछता है कि आप ठीक मेरी जंजीर खोज रहे हैं, लेकिन रुक जाइए। पहले मुझे यह बताइए कि जंजीर खुल जाने से मुझे मिलेगा क्या? तो यह पूछ रहा है कि जंजीर तो फिर भी परिचित है, मेरे साथ इतने दिन रही है, मेरा नाता-रिश्ता हो गया है। और अब बोझ भी नहीं मालूम पड़ता है, अब आदी हो गए हैं। और आप कहते हैं बंधन तोड़ देने हैं, फिर पीछे क्या होगा? वहां क्या है? स्वतंत्रता क्या चीज है, पहले मुझे बता दीजिए, फिर मेरी जंजीर छूना। स्वतंत्रता को मैं समझ लूं! लेकिन मेरा जोर इस बात पर है कि स्वतंत्र हुए बिना स्वतंत्रता को समझा नहीं जा सकता।
यह मामला वैसा ही है कि एक आदमी कहे कि मैं पानी में तभी उतरूंगा जब मैं तैरना सीख लूंगा। और वह दूसरा आदमी कहे कि बिना पानी में उतर तुम तैरना सीख नहीं सकते हो। वह कहे, मैं बिना तैरना सीखे कैसे पानी में उतर सकता हूं? मैं किनारे पर खड़ा हूं। जब मैं तैरना सीख लूंगा तब मैं पानी में उतरूंगा। अब बड़ी मुश्किल हो गई। वह आदमी कहता है, मैं तैरना सीख लूंगा तब पानी में उतरूंगा और सिखाने वाला कहता है, पहले बिना पानी में उतारे तुम्हें तैरना सिखाया नहीं जा सकता सकता। पानी में उतरे बिना कोई तैरना सीखता नहीं। मुश्किल हो गई बात। अब यह बात यही ठहर जाएगी।
मेरे और आपके बीच ऐसी मुश्किल खड़ी होती है। मुश्किल कुल जमा इतनी कि मैं कहता हूं। हमें कि पानी में उतरना पड़ेगा, अगर तैरना सीखना है। और आप बहुत कैल्कुलेटिंग हैं, और आप कहते हैं कि बिना तैरना सीखे पानी में उतरना खतरनाक है क्योंकि पानी में उतरें, और तैरना हम जानते नहीं।
प्रश्नः लेकिन इसके लिए कोई कार्यवाही तो होगी न?
कार्यवाही होगी, लेकिन एप्रोच की बात है। सारी कार्यवाही होगी, एप्रोच आपकी पाजिटिव हो जाती है, मेरी एप्रोच निगेटिव है। आप चाहते हैं कि वहां कुछ मुझे मिलने को होता तो मैं वहां जाऊं। मैं कहता हूं, मैं कहता हूं कि यहां जहां हमारे यहां आपके पास कुछ भी नहीं है, कुछ भी नहीं मिल रहा है। जो दुख और पीड़ा में हैं, इसको जानिए तो आप वहां जाने के लिए आतुर हो उठेंगे। और यह जाना एक तरह का जाना होगा। और वह जाना बिलकुल और तरह का जाना होगा। बल्कि मेरी दृष्टि में जब तक एक आदमी हमेशा तय करके जाता है कि वहां मुझे क्या मिलेगा तब मैं जाऊंगा, तब तक वह बंधन के बाहर कभी नहीं जाता क्योंकि यह मिलने की आकांक्षा बंधन की जड़ है। अगर कोई आदमी मोक्ष का भी पता ठिकाना लगाकर जाता है, बिलकुल पुलिस कार्यवाही करके पता लगा लेता है कि वहां क्या मिलेगा और फिर मोक्ष में जाता है, यह आदमी मोक्ष में कभी जा नहीं सकता। क्योंकि मोक्ष का मतलब ही यह है, उस अज्ञात में, उस अनजान में, जिसका हमें कोई पता नहीं है, प्रवेश करना। बंधन का पता होता है। स्लेवरी डिफाइंड होती है, फ्रीडम डिफाइन नहीं होती।
यह जो सारा मामला है, सारी गुलामी की डिफीनेशन हो सकती है कि यह है गुलामी; और फ्रीडम की कोई डिफिनेशन नहीं हो सकती है। फ्रीडम का मतलब ही है अनडिफाइनेबल। फ्रीडम का मतलब ही यह है कि जिसकी कोई सीमा नहीं है। इसलिए अनडिफाइनेबल हो जाता है। कुल जमा, जोर मैं देना चाहता हूं वह यह है कि आपकी साइकोलाॅजिकल, आपकी पूरी मानसिक वृत्ति कही पहुंचने की फिकर छोड़ दे। जहां आप हैं, उसको समझने की फिकर करें तो आप पहुंचना शुरू हो जाएंगे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें