बुधवार, 22 अगस्त 2018

अपने माहिं टटोल-(प्रवचन-03)

अपने माहिं टटोल-(साधना-शिविर)

तीसरा प्रवचन-चित्त मौन हो

शब्दों से, विचारों और शास्त्रों से मुक्त होना, सत्य की या परमात्मा की खोज में जरूरी है, यह मैंने आपसे कहा। उस संबंध में दो-तीन प्रश्न पूछे गए हैं।
एक तो पूछा है कि यदि शब्दों से सत्य नहीं जाना जा सकता तो फिर आप शब्दों का उपयोग क्यों कर रहे हैं?
साधारण सोचने पर जरूर ऐसा प्रश्न उठेगा। लेकिन थोड़ा जल्दी सोचने पर ऐसा उठेगा और थोड़ा विचार करेंगे तो नहीं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मैं जो कह रहा हूं उससे आपको सत्य का ज्ञान हो जाएगा। मेरे शब्द आपके लिए सत्य का ज्ञान नहीं बन सकते। किसी के भी शब्द नहीं बन सकते हैं। तो फिर शब्द की क्या उपादेयता है?
शब्द की उपादेयता, जैसा मैंने सुबह कहा, शब्द की उपादेयता निषेधात्मक है, निगेटिव है। आपके पैर में एक कांटा लगा हो तो दूसरा कांटा उस कांटे को निकाल सकता है। लेकिन दूसरे कांटे को निकालने के बाद निकालने वाले कांटे की भी कोई उपादेयता नहीं रह जाती, वह भी व्यर्थ हो जाता है।
और कोई अगर यह सोच कर कि इस दूसरे कांटे ने बड़ी कृपा की है, इस दूसरे कांटे की पूजा शुरू कर दे, तो नासमझी होगी। यह सोच कर कि यह दूसरा कांटा बड़ा हितकारी है, इसने एक कांटे को पैर से निकाला और अपने घाव में इस दूसरे कांटे को रख ले, तो बड़ी मूढ़ता होगी। इस दूसरे कांटे का उपयोग इतना है कि यह पहले कांटे को निकाल दे। इससे ज्यादा नहीं।
शब्द हमारे मन पर इकट्ठे हैं कांटों की तरह। उनको शब्दों से निकाला जा सकता है। लेकिन इससे केवल शब्द ही निकल पाएंगे। इन शब्दों से सत्य उपलब्ध नहीं हो जाएगा। इसलिए इन शब्दों की पूजा की कोई जरूरत नहीं है। और शब्द मन पर न हों तो मन के शांत और शून्य होने की दिशा में आपके कदम पड़ सकेंगे। और जिस दिन मन पूरी तरह सीमाओं का अतिक्रमण कर लेगा, सभी शब्दों की, उस दिन सत्य का अनावरण होगा स्वयं के भीतर। सत्य तो स्वयं के भीतर है। शब्दों और सिद्धांतों ने उसे घेरे में बांध रखा है। तो एक निषेधात्मक काम शब्दों से हो सकता है। वह शब्दों को तोड़ने की बुद्धि और विवेक उनसे पैदा हो सकता है। लेकिन सत्य उनसे नहीं मिलेगा। सत्य तो भीतर है। वह तो मिलेगा उसी क्षण जिस दिन मन सब भांति शून्य और शांत हो जाएगा।

इसी प्रश्न के साथ उन्होंने यह भी पूछा हैः तो और धर्म-प्रवर्तकों ने जो शब्दों का प्रयोग किया और सिद्धांत प्रतिपादित किए, क्या उन्होंने भूल की?

तो मैं उनसे यही निवेदन करूंगाः आज तक किसी धर्म-प्रवर्तक ने सिद्धांत प्रतिपादित नहीं किए हैं। सिद्धांत प्रतिपादित करने वाले और ही लोग हैं। धर्म-प्रवर्तकों ने तो निरंतर शब्दों और सिद्धांतों से मुक्त होने की आकांक्षा और अभिप्राय जाहिर किया है। उन्होंने तो हर भांति यह कोशिश की है कि आपका मन सब तरह के बंधनों से मुक्त हो जाए।
लेकिन धर्म-प्रवर्तक और धर्म-संगठक, ये दो वर्ग हैं। और हमें निरंतर यह भूल होती रही है।
एक व्यक्ति को, मैंने सुना है, एक कहानी सुनी है, एक व्यक्ति को सत्य उपलब्ध हो गया। तो शैतान के शिष्यों ने शैतान को जाकर खबर दी कि एक आदमी को सत्य उपलब्ध हो गया है।
शैतान ने कहाः तुमने बड़ी देर कर दी। पहले तुम खबर करते तो हम उसे विचलित करते और परेशान करते ताकि वह सत्य को उपलब्ध न हो पाता। अब क्या होगा? लेकिन अभी भी एक उपाय बाकी है। तुम घबड़ाओ मत। गांव-गांव में जाकर ढोल पीट दो और खबर कर दो कि फलां आदमी को सत्य उपलब्ध हो गया है।
शैतान के शिष्यों ने कहाः यह तो और उलटी बात हो जाएगी। हमें तो कोशिश करनी चाहिए कि किसी को पता न चले। नहीं तो सत्य की ज्योति में शैतान का अंधकार विलीन हो जाएगा, हमारा राज्य नष्ट होगा।
शैतान ने कहाः तुम देर मत करो। हमेशा का मेरा अनुभव यह है कि जैसे ही किसी को सत्य उपलब्ध हो, लोगों को खबर कर दी जाए। लोग उसके पास इकट्ठे हो जाते हैं। और उनमें जो बहुत चालाक होते हैं, वे संगठन बनाना शुरू कर देते हैं, संप्रदाय बनाना शुरू कर देते हैं, शास्त्र लिखना शुरू कर देते हैं। और तब, जिसको सत्य मिलता है, वह भीड़ में खो जाता है। और जो उसके आस-पास संगठन करने वाले होशियार और चालाक लोग होते हैं, वे प्रमुख हो जाते हैं। बहुत जल्दी धर्म-संस्थापक भूल जाता है और धर्म-संगठक प्रमुख हो जाते हैं और आगे हो जाते हैं। और धर्म-संगठक से हमें कोई, कोई खतरा नहीं है।
फिर उन्होंने यही किया। उन्होंने गांव-गांव में खबर कर दी। भीड़ पर भीड़ इकट्ठी होने लगी। और जो बहुत चालाक, शब्दों के खिलाड़ी थे, सिद्धांतों के आदी थे, तर्क कर सकते थे, विवाद कर सकते थे, वे पंडित इकट्ठे हो गए और उन्होंने उस आदमी की बातों पर व्याख्याएं करनी शुरू कर दीं, टीकाएं करनी शुरू कर दीं। वह आदमी भीतर चिल्लाता रह गया। आस-पास एक घेरा खड़ा हो गया पादरी-पुरोहितों का और एक संस्था और एक संगठन का जन्म हो गया। और वह आदमी जिसको सत्य मिला था, उसका लोगों से सारा संबंध टूट गया। उसके बीच में दलाल खड़े हो गए जिनसे लोगों का संबंध था और वे बताने लगे कि उसका क्या अर्थ है, वह क्या कहता है, उसका क्या अर्थ है। उसकी सैद्धांतिक व्याख्या और विवेचना करने लगे।
अगर आज महावीर लौट आएं तो आप विश्वास करते हैं कि महावीर के पीछे पंडितों का जो वर्ग खड़ा है उसकी बात और महावीर की बात एक ही होगी? अगर आज कृष्ण वापस आ जाएं तो जिन लोगों ने गीता पर टीकाएं लिखी हैं उनकी बात और कृष्ण की बात एक ही होगी?
कृष्ण के ऊपर कोई हजार टीकाएं हैं, गीता की। क्या कृष्ण के बोलते समय एक हजार अर्थ रहे होंगे? एक हजार विरोधी अर्थ रहे होंगे? तो या तो दिमाग खराब रहा हो कृष्ण का तो एक हजार अर्थ हो सकते हैं। लेकिन दिमाग उनका खराब नहीं था। उनका अर्थ तो बहुत सुनिश्चित रूप से एक ही रहा होगा जो वे कहना चाहते थे। ये हजार अर्थ और हजार अर्थ करने वाली टीकाएं कहां से आ गईं? ये किसने बनाईं?
यह बीच में हमेशा सत्य की व्याख्या करने वाले पंडितों का एक वर्ग है जो टीका लिखते हैं, टीकाओं पर टीकाएं लिखते हैं और धीरे-धीरे सत्य खो जाता है और टीकाएं हमारे हाथ में रह जाती हैं। सारी दुनिया में, जैन धर्म महावीर का खड़ा किया हुआ नहीं है और न बौद्ध धर्म बुद्ध का और न क्राइस्ट धर्म क्राइस्ट का। जिन लोगों ने ये धर्म खड़े किए वे बहुत दूसरे हैं। यह ज्योति तो इन लोगों में पैदा हुई, लेकिन इस ज्योति के आस-पास जो भीड़ खड़ी की गई है, वे बहुत दूसरे लोग हैं जिन्होंने की है। और उन दूसरे लोगों को धर्म का कोई भी पता नहीं है।
आज तक यह निरंतर हुआ है। दुर्भाग्य होगा, आगे भी यह हो सकता है। क्योंकि जब भी कोई किरण प्रकट होती है तो उस किरण का शोषण करने के लिए संगठन करने वाले लोग एकदम इकट्ठा हो जाते हैं। कोई सोचता हो कि ये धर्म के सहयोगी हैं तो गलती में है। ये धर्म के व्यवसायी हैं और जहां भी इन्हें आशा दिखती है कि व्यवसाय हो सकता है वहां ये पहुंच जाते हैं। हर ज्योति के आस-पास धंधे करने वाले लोग इकट्ठे हो जाते हैं। वह ज्योति तो बुझ जाती है उस आदमी के साथ, लेकिन यह धंधा करने वालों की जो गद्दी है वह कायम हो जाती है और हजारों साल तक चलती है। वह चल रही है। नहीं तो दुनिया में इतने धर्म नहीं हो सकते थे। धर्म की ज्योति तो एक ही है। लेकिन जहां-जहां ज्योति प्रकट हुई वहीं-वहीं गद्दियां खड़ी हो गईं, वहीं-वहीं संगठन खड़े हो गए। और फिर इन सब संगठनों के आपस में स्वार्थ टकराते हैं, क्योंकि बाजार इनका एक ही है जहां से इनको ग्राहक खरीदने पड़ते हैं। तो वहां इनके स्वार्थ टकराते हैं, इसलिए मंदिर-मस्जिद टकराते हैं, इसलिए हिंदू-मुसलमान टकराते हैं।
कल्पना में भी न रहा होगा महावीर और बुद्ध के कि वे जिन बातों को कह रह रहे हैं वे झगड़े के बायस बन जाएंगी, झगड़े के कारण बन जाएंगी। बुद्ध ने कहा थाः मेरी कोई मूर्ति न बनाए। लेकिन आज जमीन पर जितनी बुद्ध की मूर्तियां हैं, और किसी की भी नहीं हैं। किसी की इतनी मूर्तियां नहीं हैं जितनी बुद्ध की हैं। और बुद्ध जीवन भर कहते रहे कि मेरी कोई मूर्ति न बनाए। क्योंकि मूर्ति से क्या प्रयोजन है? मैं कोई भगवान नहीं हूं, इसलिए मेरी पूजा का भी कोई कारण नहीं है। लेकिन जितनी पूजा बुद्ध की होती है उतनी किसी और की नहीं। चीन में तो एक मंदिर है--एक मंदिर--जिसका नाम हैः दस हजार बुद्धों का मंदिर। दस हजार मूर्तियां हैं एक ही मंदिर में! पूरा पहाड़ का पहाड़ खोद कर दस हजार मूर्तियां बनाई गईं एक ही मंदिर के लिए। कोई साढ़े तीन सौ वर्षों में पूरा मंदिर बन कर तैयार हुआ। दस हजार बुद्धों का मंदिर है।
अरबी और उर्दू में तो बुत शब्द मूर्ति का अर्थवाची हो गया। बुत बुद्ध का बिगड़ा हुआ रूप है। इतनी मूर्तियां बनीं बुद्ध की कि बुद्ध यानी बुत, बुत यानी मूर्ति हो गया, बुद्ध यानी मूर्ति ही हो गया। और इस बुद्ध ने कहा था कि मेरी मूर्तियां बनाना मत। तो किसने ये मूर्तियां बनाईं? कौन मिल गए इन मूर्तियों को बनाने वाले लोग? किन्होंने ये पूजाएं गढ़ीं?
जरूर कुछ और लोग भी पीछे काम कर रहे हैं--जरूर कुछ और लोग भी पीछे काम कर रहे हैं।
धर्म की ईजाद और धर्म का अनुभव जिन्हें होता है, वे ही धर्म के संगठक नहीं हैं। सचाई तो यह है कि अगर उनकी बात चले तो दुनिया में धर्म का कोई संगठन नहीं होना चाहिए। क्योंकि संगठन से धर्म का क्या संबंध! महावीर को जो ज्ञान उपलब्ध होता है वह तो अकेले में उपलब्ध होता है। समूह में तो उपलब्ध नहीं होता, भीड़ में तो उपलब्ध नहीं होता। बुद्ध को जो ज्ञान उपलब्ध होता है वह भी एकांत में उपलब्ध होता है। कोई सेना और फौज बना कर तो उपलब्ध नहीं होता। क्राइस्ट को या मोहम्मद को भी जो ज्ञान उपलब्ध होता है वह भी नितांत एकांत और तनहाई में उपलब्ध होता है।
आज तक दुनिया में जिनको भी ज्ञान उपलब्ध हुआ है वह एकांत में, अकेले में, मौन में उपलब्ध हुआ है। भीड़ से उसका क्या संबंध? संगठन से उसका क्या संबंध? शायद हमको यह पता भी नहीं है कि सभी संगठन घृणा के लिए खड़े होते हैं, कोई संगठन प्रेम के लिए कभी खड़ा नहीं होता। संगठन के पीछे होती है हेट्रेड, घृणा, शत्रुता, हिंसा। प्रेम का कभी कोई संगठन देखा है? प्रेमियों की कोई संस्था देखी है? कोई देखी है उनकी भीड़? कोई उनके मंदिर? प्रेमियों का आज तक कोई संगठन नहीं है। क्योंकि जिसे प्रेम करना है वह अकेला ही प्रेम करने में समर्थ है। लेकिन जिसे घृणा करनी है, हिंसा करनी है, वह अकेले करने में समर्थ नहीं है। उसे भीड़ चाहिए। इसलिए दुनिया में जितने बड़े पाप हुए हैं वे अकेले आदमियों ने नहीं किए हैं, वे भीड़ और संगठनों ने किए हैं। अकेला आदमी बहुत कमजोर है, बड़े पाप नहीं कर सकता। लेकिन अकेला आदमी बहुत ताकतवर है, बड़ा प्रेम कर सकता है। एक आदमी इतना प्रेम कर सकता है कि उसकी बांहों में सारी जमीन के लोग समा जाएं। आदमी प्रेम करने में विराट है, घृणा करने में बहुत छोटा है। इसलिए घृणा के लिए इकट्ठा करना होता है और लोगों को। ये जितनी जातियां खड़ी हुई हैं, जितने धर्म और जितने राष्ट्र, ये सब घृणा के संगठन हैं। और इसलिए जितने जोर से घृणा पैदा होती है, संगठन उतना ही मजबूत हो जाता है।
हिंदुस्तान पर हमला हो जाए पाकिस्तान का या चीन का, फिर देखें कैसी एकता पैदा हो जाती है! हम सब मालूम होने लगते हैं कि इकट्ठे हो गए। ऐसा लगता है कि हम बड़े एक-दूसरे के प्रेम करने वाले हो गए। हम सब संगठित हो जाते हैं। वह संगठन इसलिए नहीं है कि हमारे भीतर प्रेम है, बल्कि इसलिए है कि हमारे सामने एक शत्रु है और जिसके प्रति हमारे मन में गहरी घृणा पैदा हो रही है। इस घृणा के लिए हम इकट्ठे हो जाएंगे। शत्रु हट जाएगा, हमारा संगठन भी ढीला हो जाएगा।
हिटलर ने तो अपनी आत्मकथा में लिखा हैः अगर किसी भी कौम को संगठित होना हो तो या तो उसके सामने सच्चे दुश्मन चाहिए जिनके प्रति घृणा पैदा हो जाए; और अगर सच्चे दुश्मन न हों तो झूठे दुश्मन ईजाद कर लेना चाहिए तो कौम इकट्ठी हो जाती है, संगठित हो जाती है। झूठे दुश्मन खड़े कर लेने चाहिए।
जिन्ना ने नारा दे दियाः हिंदुस्तान में इस्लाम खतरे में है। एक झूठा दुश्मन खड़ा कर लिया, मुसलमान इकट्ठे हो गए। कोई खतरा नहीं था, कोई बात न थी, लेकिन एक नारे ने धीरे-धीरे लोगों को ख्याल दे दिया कि इस्लाम खतरे में है। एक खतरे का भाव पैदा हो गया, दुश्मन खड़ा हो गया--काल्पनिक दुश्मन था, जो कहीं भी नहीं था--लेकिन जब वह एक दफा खड़ा हो गया तो मुसलमान इकट्ठे हो गए।
और फिर चीजें तो एक चक्रीय रूप में काम करती हैं। जब लोग इकट्ठे हो जाएं तो फिर उनको घृणा करने का मौका चाहिए। घृणा करने का मौका हो तो वे इकट्ठे होते हैं। इकट्ठे हो जाएं तो फिर घृणा करने का मौका चाहिए, नहीं तो संगठन आगे चल नहीं सकता। तो ये दुनिया के जो संगठन आपको दिखाई पड़ते हैं--हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन--ये कोई प्रेम के संगठन नहीं हैं, ये सब घृणा के संगठन हैं, दूसरे की शत्रुता में खड़े हुए हैं। और इसलिए जब तक शत्रुता मजबूत होती है, तब तक संगठन मजबूत होता है। जब शत्रुता ढीली हो जाती है, संगठन ढीला हो जाता है। इसलिए नये संगठन ज्यादा मजबूत होते हैं, क्योंकि नई शत्रुता ताजी होती है। घृणा नई, ताजी होती है। पुराने संगठन ढीले हो जाते हैं।
इस्लाम सबसे ज्यादा तगड़ा संगठन है। उसकी उम्र चौदह सौ साल की है। हिंदुओं का संगठन सबसे ढीला है। उसकी उम्र पांच हजार साल की है। इसकी और कोई वजह नहीं है। इसकी कुल वजह इतनी है कि वह घृणा अभी नई है। और यह घृणा बहुत पुरानी हो गई है। यह ढीली पड़ गई है। इसकी जड़ें कमजोर हो गई हैं, यह बूढ़ी हो गई है। वह अभी जवान है। दुनिया में जो संगठन जितना नया होता है उसमें उतना बल होता है, क्योंकि घृणा और जहर नये होते हैं। फिर धीरे-धीरे वे शिथिल हो जाते हैं।
लेकिन कोई भी संगठन मरने का नाम नहीं लेता एक दफा पैदा हो जाए तो। और दुनिया में संगठन बढ़ते चले जाते हैं। और वे एक-दूसरे की शत्रुता में जीते हैं। इसलिए हम यह कितना ही कहें कि दुनिया के सब धर्म भाई-भाई हैं, दुनिया के धर्म कभी भाई-भाई नहीं हो सकते। क्योंकि जिस दिन वे भाई-भाई हुए, उसी दिन उनके संगठन गए। उनके संगठन का प्राण इसमें है कि वे दुश्मन हैं एक-दूसरे के, तो ही वे जिंदा रह सकते हैं, नहीं तो जिंदा नहीं रह सकते। इसलिए लाख कहो अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। अल्लाह अलग हो नाम, राम अलग हो, तो ही खड़े हो सकते हैं ये दोनों। क्योंकि इन दोनों के खड़े होने की सारी ताकत और बल हिंसा से आता है, घृणा से आता है, विरोध से आता है। अगर ये दोनों एक ही हैं तो मामला खत्म हो गया। फिर इनका सारा बल समाप्त हो जाएगा, सारी ताकत चली जाएगी।
तो यह जिन लोगों ने धर्म को जन्म दिया है वे और हैं और जिन लोगों ने धर्म संगठित किए हैं ये बिल्कुल और हैं। न केवल और बल्कि उनके शत्रु हैं जिन्होंने धर्म को जन्म दिया। और हर धर्म को जन्म देने वाले के आस-पास उसके शत्रु मित्र की शक्ल में इकट्ठे हो जाते हैं और धीरे-धीरे उस ज्योति को बुझा डालते हैं और राख कर देते हैं।
एक बहुत अदभुत कहानी है। क्राइस्ट ने अपने मरने के कोई अठारह सौ साल बाद सोचा कि अठारह सौ साल पहले मैं जेरुसलम में आया, तो मुझे मानने वाला, मेरी बात को स्वीकार करने वाला कोई भी न था। मैं अकेला उतरा था। तो जो मंदिरों के पुरोहित थे, चलते हुए मंदिरों के, वे मेरे दुश्मन हो गए, उन्होंने मुझे फांसी पर लटका दिया। लेकिन अब तो सारी जमीन पर मेरा संगठन सबसे बड़ा है। एक अरब लोग ईसाई हैं। लाखों लोग मेरे भिक्षु, मेरे पादरी और पुरोहित हैं। केवल कैथलिक पादरियों की संख्या बारह लाख है। आज तो सारी दुनिया में मेरा सबसे बड़ा संगठन है। मुझे मानने और पूजने वाले लोग सर्वाधिक हैं। तो मैं चलूं और एक बार देखूं कि अब मेरा दुनिया में स्वागत कैसा होता है!
तो क्राइस्ट अठारह सौ साल बाद जेरुसलम में वापस उतरे। जेरुसलम में क्राइस्ट का जलसा मनाया जा रहा था। क्रिसमस के दिन थे। लाखों लोग सारी दुनिया से यात्रा को आए हुए थे। सड़कें सजी थीं और चर्च उत्सव का केंद्र बना हुआ था। क्राइस्ट बीच बाजार में उतर कर एक झाड़ के नीचे खड़े हो गए। जिन लोगों ने भी देखा वे चौंके और सोचा, यह कौन आदमी अभिनय कर रहा है क्राइस्ट का? भीड़ वहां इकट्ठी हो गई और लोग मजाक करने लगे कि गजब का काम किया है आपने, बिल्कुल क्राइस्ट मालूम पड़े रहे हैं।
क्राइस्ट ने कहाः मालूम नहीं पड़ रहा हूं, मैं क्राइस्ट हूं!
तो लोग हंसने लगे और कहा कि एक पागल और पैदा हुआ।
क्राइस्ट ने कहाः मैं पागल नहीं हूं। तुम तो वही भाषा बोलते हो जो अठारह सौ साल पहले उन लोगों ने बोली थी जब मैं जेरुसलम आया था। वे भी मुझसे बोले थे, यह आदमी पागल है। और तुम तो मुझे मानते हो, तुम भी मुझे नहीं पहचानते?
वे लोग हंसने लगे, उन्होंने कहाः हम भलीभांति पहचान गए। ऐसा पागलपन कई लोगों के दिमाग में चढ़ जाता है कि मैं क्राइस्ट हूं, मैं फलां हूं। आप कृपा करके जल्दी भाग जाइए। कहीं अगर बड़े पादरी को पता चल गया तो बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे।
क्राइस्ट ने कहाः लेकिन वह पादरी तो मेरा है। और मेरा क्रॉस कंधे पर लटकाए हुए है।
और तभी भीड़ ने खबर कर दी और बड़ा पादरी चर्च के बाहर आया। भीड़ उसको नमस्कार करके दूर हट गई। क्राइस्ट बहुत हैरान हुए--मुझे कोई भी नमस्कार नहीं कर रहा है, मैं क्राइस्ट हूं! और मेरा यह आदमी जो मेरा नाम लेकर धंधा किए हुए है पूरा का पूरा, इसको लोग रास्ता छोड़ दिए, पैर में झुक गए! पर क्राइस्ट ने मन में सोचा कि और कोई पहचाने न पहचाने, मेरा यह पादरी तो मुझे पहचान ही लेगा।
पादरी करीब आया और उसने कहाः उतर बदमाश! नीचे उतर! यह क्या कर रहा है? क्राइस्ट एक दफे हुआ, अब दुबारा नहीं हो सकता। नीचे उतरो!
तो क्राइस्ट तो बहुत घबड़ा गए कि यह तो वही भाषा बोल रहा है जो दो हजार साल पहले, अठारह सौ साल पहले दूसरों के पादरियों ने बोली थी। वे तो अपने न थे तो ठीक भी था उनका बोलना, लेकिन यह तो अपना आदमी है।
क्राइस्ट ने कहाः तुम मुझे पहचाने नहीं?
उसने एक हाथ का झटका दिया और उसने कहाः मैं भलीभांति पहचानता हूं। नीचे उतरो!
क्राइस्ट तो घबड़ा कर नीचे उतर आए। उसने चार आदमियों से कहाः पकड़ो इसको और कोठरी में बंद करो!
यही तो पहले भी हुआ था। क्राइस्ट बहुत हैरान हुए। यह अपना आदमी!
वे कोठरी में बंद कर दिए गए। रात आधी गए वह पादरी दरवाजा खोल कर कोठरी में गया, उनके पैरों पर गिर पड़ा और कहाः मैंने पहचान लिया था कि आप ईशु मसीह, हमारे महाप्रभु क्राइस्ट हो। लेकिन क्षमा करो, बीच बाजार में तुम्हारे आने की दुबारा कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि तुम हमेशा के उपद्रवी हो। जब भी आओगे, हमारा सब धंधा खराब कर दोगे। तो हम एकांत में तुम्हें पहचान सकते हैं, लेकिन भीड़ में नहीं पहचान सकते। और जिन यहूदी पादरियों ने तुम्हें फांसी दी थी, अगर तुमने उनसे कहा होता, अकेले में वे भी पहचान लेते, वे भी नासमझ नहीं थे। और अगर तुमने ऐसा बीच बाजार में आने की कोशिश की, यद्यपि हमें बहुत दुख होगा, लेकिन हमें फिर फांसी देनी होगी। इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं है। तुम जैसे लोग हमेशा के उपद्रवी हो, तुम हमेशा के रिबेलियस हो। तुम जो कुछ भी कहोगे उससे बनी हुई सब व्यवस्था गड़बड़ हो जाती है, सब टूट-फूट हो जाता है। तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है अब। सब काम बिल्कुल ठीक चल रहा है। हम अठारह सौ साल में बड़ी मुश्किल से क्रिश्चिएनिटी को ईजाद कर पाए हैं। सब बिल्कुल ठीक चल रहा है। आप कृपा करो, परम पिता के साथ विश्राम करो स्वर्ग में। आपकी जमीन पर आने की कोई जरूरत नहीं है। हम सब ठीक से सम्हाले हुए हैं। तो हम आपको अकेले में पहचान सकते हैं, लेकिन भीड़-भाड़ में नहीं। मुर्दा हालत में पहचान सकते हैं, लेकिन जिंदा हालत में नहीं। आपकी मूर्ति की पूजा कर सकते हैं, लेकिन आपकी नहीं। आप कृपा करो, आप जाओ।
क्राइस्ट ने कहाः मैं तो बहुत हैरान हूं। मैं तो सोचता था कि तुम सब मेरे लोग हो, लेकिन मैं तो पाता हूं सारी व्यवस्था वही की वही है।
जिन लोगों ने क्राइस्ट को सूली दी थी, उन्हीं तरह के लोगों ने क्राइस्ट की क्रिश्चिएनिटी भी खड़ी कर ली है। वह वही टाइप है आदमी का। उस आदमी में कोई फर्क नहीं है। जिन्होंने क्राइस्ट को सूली दी थी, उसी तरह के लोगों ने क्रिश्चिएनिटी भी ईजाद कर ली है। वे वही लोग हैं, उनमें कोई फर्क नहीं है। जिन लोगों ने महावीर के कान में कीले ठोंके होंगे, वे ही महावीर के भक्त हैं, उन्होंने महावीर का धर्म भी खड़ा कर लिया है। वे वही लोग हैं, उनमें कोई फर्क नहीं है। सिर्फ इससे भ्रम में पड़ जाने की जरूरत नहीं है कि वे महावीर की पूजा करते हैं इसलिए महावीर के मित्र हैं। महावीर के मित्र होना बड़ी क्रांति से गुजरना है और महावीर की पूजा करना कोई क्रांति नहीं है। महावीर का मित्र होना अत्यंत कठिन बात है, क्योंकि उसके लिए पूरा हृदय क्रांति से गुजर जाना चाहिए। हां, महावीर की पूजा करना बिल्कुल आसान बात है। एकदम आसान है। क्योंकि पूजा से झूठी और क्या बात हो सकती है? कुछ भी तो नहीं करना पड़ता है पूजा में। कुछ भी नहीं करना होता है। मंदिर बना लेना बहुत आसान है, धार्मिक होना बहुत कठिन है। क्योंकि धार्मिक होने में एक आग से गुजरना पड़ेगा, पूरी जिंदगी बदल लेनी होगी। और मंदिर बनाने में कौन सी कठिनाई है? कौन सी अड़चन है?
तो इस भ्रम में कोई न रहे। जिन लोगों ने धर्म को अनुभव किया है, उन लोगों ने सिद्धांत नहीं दिए हैं, उन्होंने शब्द नहीं दिए हैं। उन्होंने तो क्रांति के इशारे किए हैं। क्रांति की दिशा में अपने जीवन को ज्योति की तरह सामने रखा। लोगों के भीतर प्यास पैदा की, सिद्धांत नहीं दिए। आग पैदा की। लोगों के भीतर जो सोई हुई प्यास है, वह जग सके, इसकी कोशिश की। और उस तरफ इशारे किए कि कौन सी बाधाएं हैं जो अलग हो जाएं तो आदमी धार्मिक जीवन को उपलब्ध हो सकता है।
सिद्धांतवादिता, ये जो थिअरीटीशिएंस हैं, ये बहुत और तरह के लोग हैं। ये शब्दों को गूंथने और जाल में बुनने वाले लोग हैं। ये जो फिलासफी खड़ी करने वाले लोग हैं, ये सब जाल, शब्द बुनने वाले लोग हैं। इनका धर्म से कोई भी संबंध नहीं है। लेकिन ये इकट्ठे हो जाते हैं हमेशा वहां जहां कोई धार्मिक ज्योति पैदा होती है। और इकट्ठे होकर हत्या कर देते हैं उस धार्मिक ज्योति की। पर हजारों साल का संबंध है इनका, हजारों साल का संबंध है इनका। और धीरे-धीरे हम यह भूल गए हैं कि ये दोनों कोटियां बिल्कुल अलग हैं। और शत्रु हैं आपस में और मित्र नहीं। इसलिए आपको ऐसा ख्याल पैदा होता है।
अगर महावीर और बुद्ध का वश चले तो कोई संगठन कभी खड़ा न हो। न होना चाहिए। क्योंकि संगठन से कोई धर्म का संबंध ही नहीं है। धर्म का संबंध है साधना से। संगठन का संबंध होगा राजनीति से। धर्म से क्या संबंध हो सकता है संगठन का? धर्म का संबंध तो साधना से है, और साधना है एकांत में, अकेले में भीतर जाना। और संगठन है बाहर और दूसरों के साथ होना। संगठन हमेशा भीड़ का साथ है और साधना हमेशा अपना। ये दोनों बातें बिल्कुल उलटी हैं। संगठन का मतलब है भीड़ के साथ और साधना का मतलब है अपने साथ। और जिसे अपने साथ होना है उसे बहुत से मामलों में दूसरों के साथ से मुक्त होना पड़ता है। दूसरों का साथ एक गहरे अर्थ में बंधन है। संगठन लेकिन दूसरों का साथ है, और साधना अपना साथ है।
एक फकीर था जर्मनी में, इकहार्ट। एक पहाड़ी के पास एक जंगल में अकेला एक वृक्ष के नीचे बैठा था। उसके गांव के कुछ मित्र पिकनिक को आए होंगे। उन्होंने इकहार्ट को देखा तो सोचा कि अकेले बैठे ऊब गया होगा, चलें, इसे थोड़ा साथ दें, इसे कंपनी दें। वे गए और उन्होंने इकहार्ट को हिलाया--वह आंख बंद किए बैठा था--और कहा कि मित्र, हमने सोचा कि तुम अकेले बैठे हो, चलो तुम्हें साथ दें।
इकहार्ट हंसने लगा और उसने कहाः तुम्हारी बड़ी कृपा होगी कि तुम अपने रास्ते पर जाओ। जितनी देर मैं अकेला था, अपने साथ था। और तुमने आकर मेरा खुद से साथ तुड़वा दिया। तुम जाओ, तुम अपने रास्ते पर जाओ। और यह मत सोचो कि मैं अकेला हूं। मैं अपने साथ हूं। और जो आदमी अपने साथ है वह तो परमात्मा के साथ है, वह अकेला कहां है!
वे मित्र शायद ही समझे होंगे कि उसने क्या कहा। धार्मिक आदमी वह नहीं है जो आपके साथ है। धार्मिक आदमी वह है जो अपने साथ है। अपने साथ होकर वह परमात्मा के साथ हो जाता है। एक बहुत गहरे अर्थों में वह आपके साथ भी हो जाता है। लेकिन वह बड़ा आत्मिक अर्थ है। वह संगठन नहीं है, वह सम्मिलन है। संगठन में हम अलग-अलग होते हैं और किसी घृणा के सूत्र से बंधे होते हैं। जो आदमी अपने साथ होता है वह आपके साथ हो जाता है सम्मिलन के अर्थ में। क्योंकि वह पाता है, आपकी आत्मा और उसकी आत्मा अलग नहीं है। तब संगठन का कोई सवाल नहीं है। संगठन तो जहां अलग-अलग हम हैं वहां होता है। वह तो पाता है, एक ही हैं हम भीतर कहीं। वह सम्मिलन है।
धार्मिक आदमी सर्वसत्ता से सम्मिलन को उपलब्ध होता है। अधार्मिक आदमी घृणा के कारण संगठन को उपलब्ध होता है। संगठन धर्म नहीं है। ऑर्गनाइजेशन धर्म नहीं है। और संगठन खड़े करने के सूत्र अलग हैं। सूत्र ही अलग हैं।
पहला सूत्र तो यह है कि घृणा पैदा करो, शत्रु पैदा करो, खतरा पैदा करो, घबड़ाहट पैदा करो, फियर पैदा करो लोगों में, तो वे संगठित होंगे, नहीं तो वे संगठित नहीं होंगे। और धार्मिक होने का सूत्र यह हैः अभय पैदा करो, भय खत्म करो लोगों का। क्योंकि जो भयभीत है वह कभी धार्मिक नहीं हो सकता। अभय! घृणा खत्म करो, प्रेम पैदा करो। क्योंकि जो घृणा से भरा है वह धार्मिक कैसे हो सकता है? शत्रुता मिटाओ, उसके मन से वैर समाप्त करो, तब वह धार्मिक हो सकता है।
धार्मिक होने के लिए जरूरी हैः घृणा न हो, शत्रुता न हो, भय न हो। और संगठन के लिए जरूरी हैः भय हो, घृणा हो, शत्रुता हो। ये तो दोनों बुनियादी विरोधी बातें हैं। इसलिए जो संगठक है, ऑर्गनाइजेशन करने वाला है, वह कभी धार्मिक नहीं होता। धार्मिक होना तो बात ही अलग है। और ही दुनिया की बात है।
और ये सारी किताबें और शास्त्र खड़े होते हैं, यह कोई इस भूल में न रहे कि ये सब, जिन लोगों के जीवन में धर्म की ज्योति पैदा होती है, उनसे ये पैदा होते हैं। जरूर उनसे वाणी पैदा होती है, जरूर उनसे वाणी निकलती है, जरूर उनका प्रेम शब्दों में प्रकट होना शुरू होता है, जरूर उन्होंने जो जाना है उनकी करुणा कहती है कि उसे कह दें, इस बात को जानते हुए भी कि कहना बहुत कठिन है। लेकिन उनकी करुणा नहीं मानती। उनका हृदय नहीं मानता। और वे सोचते हैं कि शायद कोई इंगित, कोई इशारा, शायद किसी हृदय तक कोई धक्का पहुंच जाए। तो वे पूरी कोशिश करते हैं इस बात की। लेकिन उनको इस बात का पूरा अनुभव होता है कि वे जो कह रहे हैं उसमें और वे जो जान रहे हैं, दोनों में बहुत बुनियादी फर्क है। वे इस बात को भलीभांति जानते हैं। इसलिए वे निरंतर कहते हैं कि शब्दों को मत पकड़ लेना। हमारा जो इशारा है, उसे समझना।
जापान में बुद्ध का एक मंदिर है। उस मंदिर में बुद्ध की कोई प्रतिमा नहीं है, बल्कि बुद्ध के हाथ का एक चित्र बना हुआ है, एक मूर्ति बनी हुई है सिर्फ हाथ की अंगुली की। और ऊपर कोने में एक चांद बना हुआ है। और बुद्ध की एक बहुत पुरानी घटना पर वह आधारित है। बुद्ध ने एक बार कहा था, एक गांव में मैं गया। मैंने अपनी अंगुली उठा कर गांव के लोगों को बताया कि देखो, वह चांद! लेकिन बहुत कम लोगों ने चांद की तरफ देखा, अधिक लोग मेरी अंगुली की तरफ देखने लगे। और तब से मुझे निरंतर यह अनुभव होता है कि जब भी कोई बताता है भगवान की तरफ, भगवान की तरफ तो कोई नहीं देखता, बताने वाली अंगुली को पकड़ लेता है। अंगुली में क्या रखा हुआ है, चाहे वह बुद्ध की हो, चाहे किसी की हो! उसमें कुछ भी नहीं है। तो बुद्ध ने कहाः इशारों को पकड़ लेते हैं लोग, शब्दों को पकड़ लेते हैं, अंगुलियों को पकड़ लेते हैं और उनकी पूजा शुरू कर देते हैं। और जिस तरफ इशारा किया था, उस तरफ देखते भी नहीं।
शास्त्र अंगुलियों को पकड़ने से पैदा होते हैं। इसलिए जो शास्त्र को बनाने वाला, निर्मित करने वाला, शास्त्र का आग्रही है, वह यह हिम्मत नहीं कर सकता कहने की कि शास्त्र में सत्य नहीं है। वह तो कहेगा, यही है सत्य। और अगर कोई कहता हो कि नहीं है, तो आ जाए और गर्दन कटवाने के लिए तैयार हो जाए। लेकिन जो लोग सत्य को जानते हैं, वे ऐसा आग्रह नहीं करते कि यही है सत्य। वे कहते हैं, इशारा है एक, और बहुत कमजोर इशारा है, बहुत धीमी झलक है उसमें। क्योंकि सत्य है बहुत बड़ा, शब्द है बहुत छोटा, उसमें समाता नहीं है, उसमें बंधता नहीं है। लेकिन आदमी की मजबूरी है, कमजोरी है, उसके पास कहने का और कोई उपाय नहीं है। इसलिए शब्दों का उपयोग करता है। शब्द बहुत धीमी सी ध्वनि ले जाते हैं। वह आप तक पहुंचते-पहुंचते समाप्त हो जाती है। इसलिए शब्द में तो कोई सत्य नहीं है। जो सत्य को जानता है वह निरंतर सचेत करेगा।
जरथुस्त्र हुआ। जरथुस्त्र जिस दिन विदा होने लगा अपने मित्रों से, तो उसके मित्रों ने पूछा कि हमें कुछ और अंतिम संदेश?
जरथुस्त्र ने कहाः एक अंतिम संदेश मुझे देना है। वह मैंने आखिरी दिन के लिए बचा रखा है, वह मैं आज तुम्हें दूंगा। वह उठ खड़ा हुआ जाने के लिए पहाड़ पर। वह अपने मित्रों से विदा ले रहा था हमेशा के लिए। फिर उस पहाड़ से वह कभी वापस नहीं लौटेगा। वहीं उसकी चिर-समाधि बनेगी। उसे जो कहना था, उसने कह दिया। उसे जो समझाना था, उसने समझा दिया। उसके प्राणों में जो ज्योति जगी थी, वह उसने बांट दी। अब वह जाने को है, उसकी अंतिम घड़ी आ गई। उसके सैकड़ों, हजारों मित्र रो रहे हैं। और जरथुस्त्र ने कहाः अंतिम मेरी बात सुन लो और मैं जाऊं। आंसू पोंछ लो, क्योंकि आंसुओं से भरी हुई आंखें सुन न सकेंगी। दुख छोड़ दो, क्योंकि दुख से भरा हुआ मन समझ न पाएगा। और जो मैं कह रहा हूं वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है जो मैंने आज तक तुमसे कहा था। दो छोटे से शब्द उसने कहे, बड़े अदभुत। उसने कहाः बिवेयर ऑफ जरथुस्त्र! जरथुस्त्र से सावधान रहना!
वे कुछ भी न समझे कि यह क्या कह रहा है। उन्होंने कहाः हम समझे नहीं।
तो जरथुस्त्र ने कहाः मैंने जो कुछ कहा उसको पकड़ मत लेना। मुझे मत पकड़ लेना, मेरी पूजा मत करने लगना। अब मैं जाता हूं, मुझसे सावधान रहना। नहीं तो मैं ही तुम्हारा शत्रु हो जाऊंगा और मित्र न हो पाऊंगा।
इस आदमी ने जाना होगा कुछ। कितना प्यारा और अदभुत आदमी रहा होगा, जिसने कहाः मुझसे सावधान! मुझे पूजने मत लगना! नहीं तो मैं ही तुम्हारे हाथ में रह जाऊंगा और मैंने जो चाहा था उस तक तुम्हारी आंखें न उठ पाएंगी। तुम मुझे छोड़ देना, मुझे भूल जाना, ताकि उस तरफ तुम्हारी आंखें उठ सकें जिसके लिए मैं एक इशारे से ज्यादा नहीं था। और जब वह तुम्हें दिख जाएगा, तो मेरी क्या जरूरत रह जाएगी! मैं समाप्त हो गया, मुझे भूल जाना।
लेकिन हो गई है बात उलटी। होना था महावीर से सावधान, होना था कृष्ण से सावधान, होना था बुद्ध से सावधान। लेकिन नहीं, उनकी हम पूजा कर रहे हैं। वही हमारे हाथ में पकड़ गए हैं और जिस तरफ उनका इशारा था वह खो गया।
तो जिसने कभी सत्य को जाना है, उसने कभी पूजा नहीं चाही है। उसने कभी आग्रह नहीं किया कि वह जो कहता है वही सत्य है। लेकिन जिन्होंने संगठन खड़े किए हैं, वे कहते हैं, यही सत्य है। और यह वे न कहेंगे तो संगठन खड़ा नहीं हो सकता। अगर वे यह कहें कि हां, दूसरों के पास भी सत्य है, तो संगठन के प्राण निकल जाएंगे। तो उनका तो दावा यही होगा, जैसे सभी दुकानदारों का होता है कि असली चीजें यहीं मिलती हैं और नकली चीजें दूसरी जगह मिलती हैं। असली चीजों की दुकान यही है। यह तो हर दुकानदार कहेगा। वही हर धर्म के ठेकेदार कह रहे हैं। तो वे मेरे लिए दुकानदारों से ज्यादा नहीं हैं। और सत्य की कोई दुकान नहीं होती। धर्म की दुकानें हैं, तो ये धर्म जरूर असत्य होंगे। सत्य फिर कोई और ही धर्म होगा, जिसकी न कोई दुकान है, न कोई संगठन है।
इसलिए मैंने जो यह कहा, इस तरफ सोचने की कोशिश करनी जरूरी है। क्या होता रहा है मनुष्य के जीवन में? बातें उठी हैं, जिन्होंने जाना है उन्होंने कुछ कहा है। जिन्होंने जाना है वे एक ढंग से जीए हैं। लेकिन हमारे लिए उनसे इशारे तो नहीं मिले, हमारे लिए उनसे जड़ पूजा के आधार मिल गए। हमारे भीतर उनके कारण विवेक तो नहीं जाग्रत हुआ, बल्कि हमारे भीतर श्रद्धा और पत्थर की भांति अडिग हो गई। अगर विवेक जग जाए इस शब्दों की चोट से तब तो ठीक, लेकिन अगर श्रद्धा मजबूत हो जाए तो बहुत गलत। क्योंकि श्रद्धा अंधी है और विवेक आंख है। श्रद्धा से संगठन खड़े हो जाते हैं, विवेक से संगठन खड़ा नहीं होता। विवेक से व्यक्ति निर्मित होता है। और व्यक्ति की ऊर्जा और गरिमा है धर्म। व्यक्ति के भीतर छिपे हुए बीजों का फूल बन जाना है धर्म।
दुनिया प्रतीक्षा कर रही है अभी पांच हजार वर्षों से उस धर्म की जो संगठन न बने। क्योंकि जो-जो धर्म संगठन बन गए वे अधार्मिक हो गए और उन्होंने दुनिया में धर्म को नहीं बढ़ाया, अधर्म को बढ़ाया। अब एक ऐसी प्रतीक्षा है जगत को उस धर्म की जो संगठन न हो। उस धर्म की जो व्यक्तिगत गरिमा और ज्योति हो। समूह, भीड़, ऑर्गनाइजेशन नहीं। जिसके पंडे-पुरोहित और पादरी न हों। जिसे प्रेम करने वाले लोग हों, लेकिन जिसकी कोई दुकान न हो। आ रहा है वक्त करीब। क्योंकि संगठन वाले धर्मों से हम ऊब चुके हैं। संगठन वाले धर्मों से हम परेशान हो चुके हैं। आ रहा है वक्त कि व्यक्तिगत चेतना जगे और दुनिया में धर्म तो हो, लेकिन धर्मों के लिए कोई जगह न रह जाए।
धर्मों के लिए कोई जगह नहीं रह जानी चाहिए, तो ही धर्म के लिए जगह बन सकती है। हिंदू, मुसलमान, ईसाई और जैन को विदा हो जाना चाहिए। चले जाना चाहिए, हट जाना चाहिए, ताकि जो शेष रह जाए विशेषण से शून्य, बिना नाम का, सत्य की खोज और जिज्ञासा का आंदोलन--वह है सबके भीतर--वह बिना नाम का शेष रह जाए तो न मालूम कितने लोगों के जीवन में क्रांति हो सकती है। संगठन और संप्रदाय उस क्रांति को रोक रहे हैं।
यह जो मैंने सुबह आपको कहा वह इसी दृष्टि से कहा। इन सभी शब्दों, सिद्धांतों और विचारों से मुक्त होने की समझ आपके भीतर कुछ पैदा कर देगी जो आपका होगा।

मुझसे उसी प्रश्न में दूसरा प्रश्न पूछा हुआ है कि मैं भी जो बोल रहा हूं वह भी मैंने सुना होगा, पढ़ा होगा। वह कहां से आया? और अगर मैं यह बोल रहा हूं तो मैं दूसरों को क्यों रोकता हूं कि आप न पढ़ें, न सुनें?

मैंने कब रोका? अगर मैं रोकता होता तो मैं आपके सामने बोलता कैसे? मैंने कब कहा कि न पढ़ें, न सुनें? मैंने यह कहा, जो भी पढ़ें और जो भी सुनें, उसे ज्ञान न समझ लें। पढ़ें, सुनें, समझें, लेकिन जानते रहें निरंतर कि जो भी बाहर से आया है वह ज्ञान नहीं है। तो फिर यह बाहर से आया हुआ आपके लिए बंधन नहीं बनेगा। फिर यह आपके प्राणों पर दीवाल नहीं बनेगा। आप इसके होते हुए भी मुक्त अनुभव करोगे। बंधन तो वहां से शुरू होता है जब हम इसे ज्ञान समझ लेते हैं। तब कठिनाई शुरू हो जाती है। नहीं तो इसका कोई बंधन नहीं है। अगर यह स्मरण में हो कि जो भी बाहर से आता है वह ज्ञान नहीं है, तो फिर इस बाहर से आए हुए का कोई बंधन पैदा नहीं होता। बंधन पैदा होता है इसको ज्ञान समझ लेने से।
तो मैंने यह नहीं कहा कि आप कान बंद कर लें और आंखें फोड़ लें, न देखें और न सुनें, मैंने यह नहीं कहा। मैंने तो यह कहा है कि जो भी आप सुनते हैं, सीखते हैं, इतना स्मरण रखें कि वह सीखा हुआ धर्म नहीं हो सकता, सत्य नहीं हो सकता। बस इतना स्मरण रहे तो उस सीखे हुए की भूल में कभी आप नहीं पड़ेंगे। और आपके भीतर वह खोज जारी रहेगी उसकी जो अनसीखा हुआ आता है। जो कभी सीखना नहीं पड़ता। वह खोज बंद न हो, इतनी बात है। निश्चित ही, बाहर के जीवन में बहुत कुछ सीख लेने को है, बाहर के जीवन में बहुत कुछ सीख लेने को है। लेकिन जो सीखा जाता है वह आत्मा नहीं है, परमात्मा नहीं है। जो सीखा जाता है वह संसार के संबंध में है। जो सीखा जाता है वह संसार के उपयोग के लिए है।
भाषा बाहर से सीखी जाती है। असल में भाषा बाहर के उपयोग के लिए है। भीतर भाषा का क्या उपयोग है? जब आप अकेले हैं तो भाषा का क्या उपयोग है? जब आप किसी के साथ हैं तो भाषा का उपयोग है। इसलिए भाषा बाहर की है और बाहर के उपयोग के लिए है। मैं भी जो बोल रहा हूं वह सब बाहर से सीखा हुआ है, वह सब भाषा है, सब शब्द हैं। लेकिन जब मैं अकेला हूं, अगर उस वक्त भी वह भाषा मेरे भीतर चलती रहे तो मैं पागल हूं। क्योंकि अकेले में भाषा का क्या उपयोग है? लेकिन आप जब अकेले बैठते होंगे तब भी भाषा चल रही है। तब आप किससे बातें कर रहे हैं? तब तो वहां कोई नहीं है, आप अकेले हैं। तो यह मस्तिष्क रुग्ण है जो एकांत में भी बोले चला जा रहा है। हां, जब किसी से बोलना है तो भाषा का उपयोग है। लेकिन जब किसी से नहीं बोलना है तब? तब मौन और शांति का उपयोग है।
जो आदमी अकेले में मौन होने में समर्थ है, मैं कहता हूं, वही हकदार है दूसरों के सामने बोलने के लिए, नहीं तो हकदार नहीं है। क्योंकि जो अकेले में बोलने में विक्षिप्त है, अकेले में मौन नहीं हो सकता और बोले चला जाता है, सबके सामने भी उसका बोलना उसके एक पागलपन के सिवाय और कुछ भी नहीं है। बोलना उसकी मजबूरी है। वह बोले चला जा रहा है। वह बिना बोले नहीं रह सकता। लेकिन अगर अकेले में आप मौन होने में समर्थ हैं, साइलेंस में जाने में समर्थ हैं, तो आप हैरान हो जाएंगे, उस साइलेंस में, उस मौन में आपको ऐसे बहुत कुछ सत्यों का आविर्भाव होगा जो बाहर शब्दों से कभी नहीं मिले। यद्यपि, उनको पाकर भी जब आप बोलने जाएंगे तो बाहर के शब्द काम देंगे, क्योंकि भाषा बाहर की है।
तो भाषा अभिव्यक्ति बन सकती है, लेकिन भाषा ज्ञान का जन्म नहीं है। भाषा से कभी किसी ज्ञान का जन्म नहीं होता। ज्ञान का जन्म तो होता है वहां जहां भाषा नहीं होती, जहां सब मौन होता है। लेकिन उस मौन में जो जाना जाए, उस मौन में जो प्रतीत हो, एहसास हो, वह जो एक्सपीरिएंस हो, उसके लिए भी अभिव्यक्ति भाषा बनती है। और भाषा इसीलिए कमजोर अभिव्यक्ति सिद्ध होती है, क्योंकि जिसे शून्य में जाना जाता है उसे शब्द में कहना बड़ा कठिन हो जाता है। वह वैसा ही है, जैसे एक आदमी संगीत सुने--संगीत सुने और हम उससे कहें कि एक चित्र बनाओ, तुमने जो सुना उसे चित्र पर बना दो। तो कितना कठिन मामला हो गया! जो सुना था वह कान से सुना था, और चित्र बनते हैं आंख से। सुनी थी ध्वनि और चित्र बनाने हैं रूप और आकार के।
लेकिन फिर भी कुछ रास्ते निकाले गए हैं कि जो कान से सुना गया उसे हम कागज पर भी उतार सकें। म्यूजिक की भी लैंग्वेज है। कोशिश की है आदमी ने कि जो कान से सुना है उसे हम कागज पर भी उतार सकें। उसके लिए भी संकेत निर्मित किए हैं। आदमी कमजोर है, लेकिन कोशिश करता है कम्युनिकेशन की, जो उसके भीतर घटित होता है, दूसरे तक पहुंचाना चाहता है। लेकिन वह पहुंचाने में जानता है भलीभांति कि जो मैंने जाना था उससे बहुत कम पहुंच रहा है, ना-कुछ पहुंच रहा है।
रवींद्रनाथ मरने को थे, कोई दो घड़ी बाद उनके प्राण निकल गए। दो घड़ी पहले उन्हें होश आया और उनके एक मित्र ने पूछा कि आप तो तृप्त होंगे! आपका जीवन तो फुलफिलमेंट को उपलब्ध हो गया! आपसे बड़ा कवि जमीन पर दूसरा नहीं हुआ।
यूरोप के महाकवि शैली ने केवल दो हजार गीत लिखे हैं, रवींद्रनाथ ने छह हजार गीत लिखे। और छह हजार ऐसे गीत लिखे जो सब संगीत में बांधे जा सकते हैं। इतना बड़ा गीतकार दुनिया में कोई दूसरा नहीं हुआ।
उनके मित्र ने कहाः आप तो तृप्त हैं। आपको तो मृत्यु दुख न देगी, क्योंकि जीवन आपका पा सका जो पा सकता था। आपकी सारी संभावनाएं पूरी हो गईं।
रवींद्रनाथ ने क्या कहा? रवींद्रनाथ की आंखों में आंसू आ गए और उन्होंने कहाः क्षमा करो, मेरा अपना अनुभव बिल्कुल दूसरा है। मेरा अपना अनुभव तो यह है कि हे परमात्मा, अभी तो मैं अपने साज-संगीत की केवल व्यवस्था कर पाया था, अभी गीत गाया कहां था? अभी तो गीत गाने की तैयारी भी पूरी नहीं हो पाई थी और मैं विदा होने लगा! अभी तो मैंने ठोंक-पीट कर साज-संगीत तैयार किया था, मेरे सामान तैयार हो गए थे, अब मैं गाता। लोग भूल में हैं कि मैंने गाया, क्योंकि जो मैंने जाना, अभी मैं उसे प्रकट नहीं कर पाया। कोशिशें मैंने की हैं, लेकिन सब अधूरी। प्रयत्न मैंने किए हैं, लेकिन सब विफल। मेरी कोशिश तो पूरी थी, लेकिन शब्द छोटे पड़ गए, जो मैंने जाना उससे। तो अभी तक मैं एक विफल आदमी हूं। वह मैं नहीं कह पाया हूं जो मेरे प्राणों में उठा है। जो सुगंध मेरे भीतर आई है वह मैं पहुंचा नहीं पाया हूं। अभी तो मैं साज बिठा पाया था। अब गीत गाने का वक्त था और विदा होने का समय आ गया!
जिसने जाना है उसे ऐसा अनुभव होगा। जिसने नहीं जाना वह कहेगाः गा दिए मैंने गीत जो गाने थे। कह दी मैंने बात जो कहनी थी। उसके पास कुछ था ही नहीं इसलिए शब्द काफी पड़ गए। जिसके पास कुछ होता है उसे शब्द बहुत ना-काफी होते हैं। वह उस तौल पर निर्भर करता है, कितना हमारे पास देने को है। पंडित को लगता है कि शब्द बहुत काफी हैं, क्योंकि उसके पास कुछ देने को तो होता नहीं, शब्द ही शब्द होते हैं। वह तृप्त हो जाता है किताबें लिख कर, बोल कर। कह दी बात, शब्द ही थे उसके पास, उसने कह दिए।
लेकिन जिसके पास अनुभूति है वह जानता है कि शब्द कितने कमजोर माध्यम हैं। उनसे कुछ भी नहीं होता, कुछ भी नहीं कहा जा पाता है। उनकी पीड़ा को भी हम अनुभव नहीं कर सकते जिनके ऊपर अनुभूति की वर्षा होती है। उनके प्राण कितने संकट में पड़ जाते हैं, यह भी हम अनुभव नहीं कर सकते। क्योंकि जो वे जानते हैं वह फैलना चाहता है, प्रकट होना चाहता है, बंट जाना चाहता है। और जो साधन होते हैं वे एकदम कमजोर होते हैं। विराट शक्ति उनके पास आ गई होती है और संकरी गलियों में से उस शक्ति को उन्हें प्रवाहित करना होता है। गंगा उनके घर में उतर आती है और छोटी-छोटी नालियां होती हैं जिनसे उसे बाहर पहुंचाना पड़ता है। कैसी पीड़ा और कैसा हार्दिक आंदोलन और हार्दिक प्रसव का बोध उनको होता होगा! जैसे कोई मां को बच्चा तो पेट में आ जाए और फिर वह पैदा न हो सके। तो उस मां पर जो भार... वर्ष-वर्ष बीत जाएं और बच्चा गर्भ में बड़ा होता जाए और पैदा न हो सके। ठीक वैसा भार महावीर, बुद्ध, कृष्ण जैसे लोग अनुभव करते हैं। कुछ उनके भीतर जन्म जाता है जो प्रकट होने में कठिन है। तो उसे शब्द से तो नहीं कहा जा सकता। तो फिर कोई और रास्ता भी है?
रास्ता है। लेकिन शब्द सामूहिक रास्ता है। फिर एक रास्ता और है--साइलेंस का, मौन का। जो लोग मौन होने में समर्थ हैं, उनसे मौन के द्वारा भी कुछ कहा जा सकता है। अगर यहां इतने सारे लोग बैठे हैं, ये सब मौन होने में समर्थ हो जाएं तो यहां बैठ कर बिना बोले भी कोई बात कही जा सकती है। लेकिन तब प्राणों से प्राणों का सीधा संवाद होता है, तब बीच में शब्द नहीं होते। वह भी संभव है, वह भी हुआ है, वह भी होता है। लेकिन उसका होना बोलने वाले पर निर्भर नहीं रह जाता, उसका होना सुनने वाले पर निर्भर हो जाता है। वह जितना मौन हो जाएगा, उतना।
मौन होना अगर संभव हो जाए तो साइलेंस की भी अपनी लैंग्वेज है, मौन की भी अपनी भाषा है। मौन में भी बहुत कुछ कहा जा सकता है। ऐसे हम भी थोड़ा-बहुत सारे लोग अनुभव करते हैं। जब हम किसी के प्रति बहुत प्रेम से भर गए होते हैं तो शब्द असमर्थ हो जाते हैं, कुछ भी कहते नहीं बनता। तब हम उसका हाथ अपने हाथ में ले लेते हैं, तब हम उसे अपने गले से लगा लेते हैं, तब हमारी आंखें उससे कुछ कहती हैं जिनमें कोई शब्द नहीं होते। और शायद दूसरी तरफ भी प्रेम हो तो बात समझी जाती है। हाथ हाथ से कुछ कह देते हैं, आंख आंख से कुछ कह देती है, हृदय हृदय से कुछ कह देता है। शायद थोड़े-बहुत प्रेम में हम इस बात को जान पाते हैं कि बिना शब्दों के भी कुछ बात कही जा सकती है।
प्रेम से भी बड़ी घटना है प्रार्थना। जब और गहरी शांति उपलब्ध होती है तो उस शांति में और गहरे सत्य भी पहुंचाए जा सकते हैं। लेकिन वह बात सुनने वाले की तरफ बहुत--उसकी रिसेप्टिविटी, उसकी ग्राहकता पर निर्भर करती है। और जब तक वैसी कोई बात नहीं है तब तक शब्द के सिवाय कोई चारा नहीं है। लेकिन एक बात स्मरण रखनी जरूरी है, शब्द में सत्य नहीं है। इशारा हो भी सकता है। और इशारा तभी हो सकता है जब आप शब्द को न पकड़ लें। शब्द को तो छोड़ दें और उस शब्द से जो इंगित किया गया हो, उस तरफ आंखें उठाएं।
अब जैसे मैंने सुबह आपसे कहा कि शास्त्रों में तो कुछ नहीं है, तो आपने इसी को पकड़ लिया और प्रश्न बना लिया कि शास्त्रों में कुछ नहीं है तो सब शास्त्र व्यर्थ हैं?
आप इशारा चूक गए और शब्द को पकड़ लिया। यह प्रश्न आपका शब्द को पकड़ने की सूचना देता है। जो मैंने चाहा था वह आपकी समझ में नहीं आ सका। मैं आपसे कह रहा हूंः शास्त्र को छोड़ दें तो शास्त्र में बहुत कुछ है; शास्त्र को पकड़ लें तो शास्त्र में कुछ भी नहीं है।
एक आदमी ने एक नौकर अपने घर में रखा। दो-चार दिन उसका काम देख कर वह आदमी परेशान हो गया और उसने उस नौकर को कहाः यह नौकरी चलेगी नहीं। अजीब आदमी हो, तीन अंडे बाजार से खरीदने होते हैं तो तुम तीन दफे बाजार जाते हो! तीन अंडे एक ही बार में खरीदे जा सकते हैं। क्या बात है? एक अंडा खरीदने गए, फिर दूसरा अंडा खरीदने गए। तीन अंडे लाने के लिए तीन दफे बाजार जाना? यह नौकरी चल नहीं सकती। या तो अपने में सुधार कर लो या कल से समाप्त समझो नौकरी को।
उस आदमी ने कहाः मेरे मालिक, मैंने सुधार कर लिया, और ऐसी भूल दुबारा नहीं होगी।
आठ दिन बाद उसका मालिक बीमार पड़ गया। उसने कहाः जाओ, डाक्टर को बुला लाओ।
वह डाक्टर को बुला कर लाया, साथ में एक भीड़ और बुला लाया, न मालूम कितने लोगों को बुला लाया।
उसके मालिक ने पूछाः आ गए?
उसने कहाः मैं डाक्टर को लिवा लाया और बाकी लोगों को भी लिवा लाया।
मालिक ने कहाः ये बाकी लोग और कौन हैं?
उसने कहाः डाक्टर कहेगा कि दवा चाहिए, तो मैं दवा वाले को भी लिवा लाया हूं। और हो सकता है दवा काम न करे तो कब्र खोदने वाले लोगों को भी बुला लाया हूं। क्योंकि आपने ही कहा था कि तीन अंडे खरीदने के लिए तीन बार बाजार जाना जरूरी नहीं है।
वह आदमी शब्द को ठीक से पकड़ लिया। हम सबने भी शब्द इसी भांति पकड़ लिए हैं। इसलिए जिंदगी एक अजीब मूर्खता से भर गई है।
तो मैं जो कह रहा हूं उसको अगर शब्दों को पकड़ कर प्रश्न उठाएंगे, तो चूक जाएंगे उस बात से जो मैं आपसे कह रहा हूं। थोड़ा शब्दों को हटा कर, मेरे जो इंगित हैं, उन पर थोड़ा विचार करें, उन पर कुछ पूछें तो शायद कुछ और गहरे यात्रा हो सके। नहीं तो यात्रा छिछली हो जाएगी। वह शब्दों के इर्द-गिर्द हो जाएगी। प्राणों के निकट नहीं पहुंच पाएगी। और आमतौर से हमको शब्द ही सुनाई पड़ते हैं, इसलिए उन्हीं को हम पकड़ लेते हैं और उन्हीं पर विचार करने लगते हैं। शब्द पर विचार करना व्यर्थ है। उस पर विचार करें जिसकी ओर शब्द इशारा था--क्या कहना चाहा था? क्यों कहना चाहा था? क्या कारण रहा होगा? क्यों यह बात कही होगी?
नहीं, लेकिन इतना हम कहां सोचते हैं! हम तो बात सुनते हैं और हम कहते हैं, यह गलत, या सही। और फिर तब हमारा सब उसी के इर्द-गिर्द खड़ा हो जाता है। सोचना-विचारना तो हमारे भीतर है ही नहीं। हम तो गलत और सही का निर्णय ले लेते हैं जल्दी से कि यह गलत होनी चाहिए। अगर यह गलत नहीं है तो फिर महावीर गलत हैं, बुद्ध गलत हैं, फिर गीता गलत है, कुरान गलत है। तो या तो ये गलत हैं या फिर गीता गलत है। मामला बहुत जल्दी-जल्दी तय कर लिया। बहुत जल्दी-जल्दी तय कर लिया।
यह जीवन बहुत मिस्टीरियस है, बहुत रहस्यपूर्ण है। जीवन में विरोधी बातें भी सत्य हो सकती हैं। जीवन गणित नहीं है। जीवन बड़ा रहस्यपूर्ण है। उसमें बिल्कुल विरोधी बातें भी सत्य हो सकती हैं, क्योंकि विरोधी बातों से भी एक ही सत्य की ओर इशारा किया जा सकता है। महावीर ने कहाः आत्मा ही सत्य है और आत्मा के सिवाय, आत्मा से ऊंचा, आत्मा से बड़ा कोई भी सत्य नहीं है। आत्मा ही ज्ञान है, आत्मा परम ज्ञान है। और ठीक उन्हीं दिनों में बुद्ध ने उन्हीं गांवों में कहाः आत्मा सबसे बड़ा असत्य है, आत्मा से बड़ा कोई अज्ञान नहीं है। और जो आत्मा को मानता है वह परम अज्ञानी है। ये दोनों आदमी एक ही समय में बिहार में थे। क्या बड़ी मुश्किल बात हो गई!
महावीर कहते हैंः जो आत्मा को जानता है वही ज्ञानी है, जो मानता है वही ज्ञानी है। बुद्ध कहते हैंः जो आत्मा को मानता है वही अज्ञानी है, आत्मा ही अज्ञान है।
और मैं आपसे कहता हूं, ये दोनों लोग एक ही बात कह रहे हैं। लेकिन इनके शब्दों को जो पकड़ लेगा वह मुश्किल में पड़ जाएगा। ये बिल्कुल एक बात कह रहे हैं। यह इशारा एक ही तरफ है, इस इशारे में कोई भी फर्क नहीं है। और ये शब्द बिल्कुल शत्रु हैं, एक-दूसरे के बिल्कुल शत्रु हैं शब्द। और इन्हीं शब्दों के ऊपर जैन खड़े हैं और बौद्ध खड़े हैं। और आज भी शत्रुता कायम है, आज भी कायम है। आज भी जैन मन में जानता है कि ये बुद्ध जो हैं अज्ञानी हैं, क्योंकि ये कह रहे हैं कि आत्मा अज्ञान है; और आत्मा, महावीर ने कहा है, परम ज्ञान है। और आज भी बौद्ध जानता है कि जैनी जो हैं अज्ञानी हैं, क्योंकि हमारे भगवान ने जो कहा है उससे बिल्कुल उलटी बात है। एक ही ठीक हो सकता है।
नहीं, जीवन बड़ा रहस्यपूर्ण है। इसमें हजार इशारे हो सकते हैं एक ही तरफ, हजार अंगुलियां एक ही तरफ जा सकती हैं और अंगुलियां बिल्कुल विरोधी हो सकती हैं। किसी की काली अंगुली हो, किसी की सफेद अंगुली हो, किसी की टूटी-फूटी अंगुली हो, किसी की बहुत अंगुली सुंदर हो, किसी की बिल्कुल कुरूप अंगुली हो। और अंगुलियां न मालूम किन-किन रास्तों से सूचनाएं कर सकती हैं। ...
एकाध प्रश्न है जो आप सोच नहीं रहे हैं? यह भी आपने सुन लिया है, उनको पूछ रहे हैं। ये आपकी चिंता से जन्मते नहीं हैं, इनका आपसे कोई व्यक्तिगत संबंध नहीं है। इनसे आपके प्राणों का कोई लगाव नहीं है। ये प्रश्न आपको मथ नहीं रहे हैं, ये आपको परेशान नहीं कर रहे हैं, ये हवा में आ गए हैं और पूछ लेते हैं कि ऐसा कैसा है। यह बहुत ऊपरी बात हो गई। प्रश्न को भी पूछना चाहिए प्राणों की गहराई से, वह प्रश्न सच्चा होता है। और सच्चा प्रश्न हो तो ही उत्तर आपके प्राणों को छुएगा, नहीं तो नहीं छुएगा। क्योंकि मेरा उत्तर थोड़े ही छू सकता है। आपका प्रश्न ही आपको न छूता हो तो मेरा उत्तर आपको कैसे छुएगा? आपका प्रश्न ही उधार हो तो मेरा उत्तर कितनी दूर तक जा सकता है?
तो ये तो हमारे सब रेडीमेड प्रश्न हो गए हैं--कि भाग्य बड़ा है कि पुरुषार्थ? यह कोई प्रश्न है? ये आपने कभी सोचे हैं? आपकी जिंदगी में कोई इनमें उठाव आया है? आपने खोजा है इन्हें? नहीं, बस सुन लिया है। हवा में चलते हैं। हवा में चलते हैं तो पूछ लिया। तो मेरी बात फिर आपके भीतर नहीं पहुंचेगी। हां, अगर यही प्रश्न आपके जीवन में उठ रहा हो, फिर कोई फिकर नहीं है। फिर यह प्रश्न पूछें जरूर और तब इसमें भीतर जाया जा सकता है। और हो सकता है वह भीतर जाने की कोशिश आपके भीतर कोई पत्थर तोड़ दे तो झरना फूट आए।
लेकिन यह बहुत बड़ी मात्रा में मुझ पर नहीं, आप पर निर्भर है। यह मैं आपसे कह दूं कि यहां की चर्चा में मेरा एक ही प्रतिशत हाथ है, निन्यानबे प्रतिशत आपका हाथ है। वह अंततः आप उसके निर्णायक हैं कि वह क्या होगी और कितनी गहरी जा सकेगी। इसलिए बहुत सोच कर, बहुत विचार कर, देख कर--कि इसका मेरा कोई प्राणों से संबंध है? मैं तो हिंदुस्तान भर में इतने झूठे प्रश्न सुन-सुन कर हैरान हो गया हूं कि मुझे हैरानी होती है कि कोई सोचता है या नहीं सोचता है! या कि हमको प्रश्न छपवा कर बांट दिए गए हैं तो हम पूछ लेते होंगे।
ऐसा भी हुआ है, एक गांव में मैं गया तो वहां एक छपा हुआ प्रश्न एक आदमी ने मेरे हाथ में दिया। तीन प्रश्न छपे हुए थे। छपे हुए थे तो मैं हैरान हुआ। मैंने उनसे पूछा, उन्होंने कहा कि ये मेरे प्रश्न हैं और सभी से मुझे यही पूछने होते हैं इसलिए मैंने छपवा कर रख लिए हैं। जो भी आता है उसको मुझे यही पूछना है तो बार-बार लिखना क्या! मैंने ये छपवा लिए हैं। तो मैं यह बांट देता हूं कि कृपा करके इनके उत्तर दीजिए।
अब ऐसे आदमी का प्रश्न ही नहीं बदला। मैंने कहाः कितने दिन हो गए?
बीस साल से यही पूछ रहा हूं।
इसने तो एक जड़ता पकड़ ली है, इसके प्रश्न ने एक जड़ता पकड़ ली है। मैंने उनसे कहाः अगर यह जिंदा प्रश्न होता आपके भीतर तो बीस साल में बिना पूछे भी इसमें फर्क आ जाता। जिंदा चीज बदलती है। बिना पूछे भी फर्क आ जाता, अगर यह जिंदा रहती। जिंदा चीज खड़ी नहीं रहती है एक जगह, डाइनैमिक होती है।
अगर आपका प्रश्न भी जिंदा है तो वही नहीं हो सकता जो पिछले साल था। एक साल में उसमें बदलाहट आ जाएगी। हर चीज बदलती है, उसमें ग्रोथ होती है और उसमें फर्क होता है। लेकिन मैं पिछली बार भी आया था और पिछली बार भी आपने वही पूछा था और इस बार भी आप वही पूछते हैं। मैं पक्की तरह जानता हूं यह प्रश्न मुर्दा है। और मुर्दा प्रश्नों को पूछने वाला खुद भी धीरे-धीरे मुर्दा हो जाता है, वह मर जाता है। उसकी जिंदगी में कोई ग्रोथ नहीं होती है, कोई विकास नहीं होता।
जिंदगी एक विकास है प्रश्नों का, जिज्ञासा का, खोज का। किसी दूसरे का प्रश्न मत पूछें कि ऐसा लोग पूछते हैं तो हम भी पूछते हैं। आपको कोई चोट लग रही है, कोई घाव, पीड़ा अनुभव हो रही हो, तो पूछें। तो आपका घाव उस प्रश्न को जीवन देगा, अर्थ देगा, अभिप्राय देगा। और फिर, फिर अगर कोई झलक उसकी खोज से मिली तो आपके घाव को बदल देगी, आप दूसरे आदमी हो जाएंगे। इतना निवेदन है।
दोपहर की बैठक पूरी हुई।

1 टिप्पणी:

  1. https://oshoganga.blogspot.com/2018/08/03_22.html?m=1
    [ओशो ने दर्शनशास्त्र में कोई नए सिद्धांत नहीं दिए।लेकिन विभिन्न सिद्धांतों की उनकी व्याख्या- प्रवचन, बहुत सम्मोहित करने वाले, बहुत सरल, रुचिकर भाषा में और कहानियों के माध्यम से रहते हैं।
    ज्ञान, भाषा , शब्द, सही धर्म आदि के बारे में उनका यह प्रवचन मुझे बहुत ही शानदार लगता है। बहुत ध्यान और रुचि के साथ यदि कोई ज्ञान पिपासु पढ़ सके तो।🙏
    M V

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