बुधवार, 22 अगस्त 2018

अपने माहिं टटोल-(प्रवचन-04)

अपने माहिं टटोल-(साधना-शिविर)

चौथा प्रवचन-जीवन का लक्ष्य

मेरे प्रिय आत्मन्!
बहुत से प्रश्न मेरे सामने हैं। उनमें से थोड़े से प्रश्नों पर अभी बात करूंगा।
सबसे पहले, एक मित्र ने पूछा हैः जीवन का लक्ष्य क्या है?
यह प्रश्न तो बहुत सीधा-सादा मालूम पड़ता है, लेकिन शायद इससे जटिल और कोई प्रश्न नहीं है। और प्रश्न की जटिलता यह है कि इसका जो भी उत्तर होगा, वह गलत होगा। इस प्रश्न का जो भी उत्तर होगा, वह गलत होगा। ऐसा नहीं कि एक उत्तर गलत होगा और दूसरा सही हो जाएगा। इस प्रश्न के सभी उत्तर गलत होंगे। क्योंकि जीवन से बड़ी और कोई चीज नहीं है जो लक्ष्य हो सके। जीवन खुद अपना लक्ष्य है। जीवन से बड़ी और कोई बात नहीं है जिसके लिए जीवन साधन हो सके और जो साध्य हो सके। और सारी चीजों के तो साध्य और साधन के संबंध हो सकते हैं, जीवन का नहीं। जीवन से बड़ा और कुछ भी नहीं है। जीवन ही अपनी पूर्णता में परमात्मा है, जीवन ही। वह जो जीवंत ऊर्जा है हमारे भीतर, वह जो जीवन है पौधों में, पक्षियों में, आकाश में, तारों में, वह जो हम सबका जीवन है, वह सबका समग्रीभूत जीवन ही तो परमात्मा है।

यह पूछना कि जीवन का क्या लक्ष्य है, यही पूछना है कि परमात्मा का क्या लक्ष्य है। यह बात वैसी ही है जैसे कोई पूछेः प्रेम का क्या लक्ष्य है? जैसे कोई पूछेः आनंद का क्या लक्ष्य है? आनंद का क्या लक्ष्य होगा? प्रेम का क्या लक्ष्य होगा? जीवन का क्या लक्ष्य होगा?
संसार में दो तरह की चीजें हैं। एक, जो अपने आप में व्यर्थ होती हैं। उनकी सार्थकता इसमें होती है कि वे किसी सार्थक चीज तक पहुंचा दें। उन चीजों को साधन कहा जाता है। वे मीन्स होती हैं। एक बैलगाड़ी है, उसका अपने में क्या लक्ष्य है? कुछ भी नहीं। लेकिन उसमें बैठ कर कहीं पहुंच सकते हैं। तो अगर पहुंचना लक्ष्य में हो, तो बैलगाड़ी साधन बन सकती है। एक तलवार का अपने आप में क्या लक्ष्य है? लेकिन अगर लड़ना हो, लड़ना लक्ष्य हो, तो तलवार साधन बन सकती है।
तो जीवन में एक तो वे चीजें हैं, जो साधन हैं। और कुछ करना हो, तो उनके द्वारा किया जा सकता है। और अगर न करना हो, तो बिल्कुल बेकार हो जाती हैं। जीवन में ऐसी चीजें भी हैं, जो साधन नहीं हैं। वे स्वयं ही साध्य हैं। उनका मूल्य इसमें नहीं है कि वे कहीं आपको पहुंचा दें, उनका मूल्य खुद उनके भीतर है, खुद उनमें ही छिपा है।
प्रेम ऐसा ही अनुभव है। प्रेम अपने आप में ही अपनी उपलब्धि है। उसे पा लेने के पीछे कुछ और नहीं पा लेने को बचता। और वह किसी और चीज का साधन भी नहीं है। आनंद, आनंद भी अपने आप में अपना साध्य है। जीवन तो परम साध्य है स्वयं में, उसके पार और उससे ऊपर कुछ भी नहीं है जिसे पाने के लिए वह माध्यम बन सके।
इसलिए यह पूछना कि जीवन का लक्ष्य क्या है, एकदम ही ऐसा प्रश्न पूछना है कि इसके जो भी उत्तर दिए जाएंगे, वे सभी गलत होंगे। लेकिन हम पूछते हैं। और पूछना हमारा सप्रयोजन है, अर्थपूर्ण है। हम इसलिए पूछते हैं, क्योंकि हमें जीवन का पता ही नहीं कि वह क्या है। अगर हमें यह पता होता कि जीवन क्या है, तो हम कभी न पूछते कि उसका लक्ष्य क्या है। जिसने कभी प्रेम नहीं किया, वह पूछ सकता है कि प्रेम का लक्ष्य क्या है। और जिसने कभी आनंद नहीं जाना, वह पूछ सकता है कि आनंद का लक्ष्य क्या है। लेकिन जिसने प्रेम को जाना है, उसके जानने में ही उसके लक्ष्य को भी पा लेगा और नहीं पूछेगा कि प्रेम का लक्ष्य क्या है।
इसलिए जब कोई यह पूछता है कि जीवन का क्या लक्ष्य है, तो मैं जानता हूं कि वह इसलिए पूछ रहा है कि उसे जीवन का ही पता नहीं। अगर जीवन का पता हो, तो कोई उसका लक्ष्य नहीं पूछेगा। जीवन खुद है अपना लक्ष्य। लेकिन चूंकि हमें जीवन का ही पता नहीं है कि जीवन क्या है, इसलिए हम पूछते हैं कि जीवन का लक्ष्य क्या है? और जिसे हम जीवन जानते हैं, वह बिल्कुल जीवन नहीं है। हम किसे जीवन जानते हैं? जन्म ले लेने से मृत्यु लेने तक का जो उपक्रम है, उसे हम जीवन समझते हैं। वह जीवन नहीं है, वह धीरे-धीरे मरने का नाम है। उसका जीवन से क्या संबंध?
बच्चा पैदा होने के बाद मरना शुरू हो जाता है। आप जिसको जन्म-दिन कहते हैं, वह मृत्यु की घड़ी है, शुरुआत है मृत्यु की। सत्तर वर्ष बाद वह मरेगा, सौ वर्ष बाद मरेगा, मरना आकस्मिक नहीं है कि अचानक आ जाता है, रोज-रोज हम मरते जाते हैं, धीमे-धीमे मरते जाते हैं। मरने की लंबी क्रिया है, लंबी प्रोसेस है। जन्म से लेकर मृत्यु तक हम मरते हैं। रोज मरते जाते हैं, थोड़ा-थोड़ा मरते जाते हैं। इसी मरने की लंबी क्रिया को हम जीवन समझ लेते हैं। यह जो लंबी ग्रेजुअल डेथ है, यह जो धीमे-धीमे मरते जाना है रोज-रोज, इसी को हम समझ लेते हैं कि जीवन है। कल और आज में आप थोड़ा मर चुके हैं, नहीं तो आप बूढ़े नहीं हो सकते थे। कल आप और थोड़े मर जाएंगे। रोज हम मर रहे हैं। इस मरने को हम जीवन समझते हैं। तो प्रश्न खड़ा हो जाता है कि इस जीवन का लक्ष्य क्या है? जिसमें हम पैदा होते, जन्मते और मरते, और रोज-रोज वही रिपीटीशन, वही दोहराना, वही सुबह उठ आना, वही सांझ सो जाना, वही भोजन, वही कपड़े, वही झगड़े, वही संघर्ष, यही सब रोज-रोज, इसका अर्थ क्या है? इसका प्रयोजन क्या है? तो हम पूछते हैं कि जीवन का लक्ष्य क्या है?
मैं आपसे पहली बात तो यह निवेदन कर दूं कि यह जीवन ही नहीं है जिसको आप जीवन कह रहे हैं। और इसका आप कोई भी लक्ष्य बना लें, वह कोई भी लक्ष्य इसको जीवन न बना सकेगा। यह जीवन है ही नहीं, यह तो लंबी मरने की प्रक्रिया है। और इसीलिए तो, इसे हम जीवन कहते हैं, लेकिन न तो इसमें हम आनंद को जान पाते हैं, न हम शांति को जान पाते हैं, न हम प्रेम को जान पाते हैं, न हम प्रकाश को जान पाते हैं। कोई सौंदर्य का अनुभव जीवन में नहीं हो पाता। होगा कैसे? मरने की प्रक्रिया में होगा कैसे? मरने में होगा दुख, मरने में होगी पीड़ा, मरने में होगी चिंता, मरने में होगा अंधकार। रोज बढ़ता हुआ अंधकार जीवन को घेरता चला जाता है।
इसीलिए तो लोग कहते हैं कि बचपन के दिन बड़े सुख के दिन थे। कैसी अजीब बात है! अगर जीवन विकसित हो रहा है, तो बुढ़ापे के दिन सबसे ज्यादा सुख के दिन होने चाहिए। बचपन के दिन क्यों? बचपन तो थी शुरुआत, बुढ़ापा है पूर्णता, तो दिन होने चाहिए सुख के बुढ़ापे के। अगर जीवन बढ़ा है, तो आनंद बढ़ना चाहिए। लेकिन हम सारे लोग तो गीत गाते हैं बचपन के कि बड़े खुशी के दिन थे। और हमारे कवि कविताएं लिखते हैं कि बड़े सुख थे बचपन में, बड़ा आनंद था बालपन में। निश्चित ही यह इस बात का सबूत है कि बचपन के बाद हम जिस यात्रा पर चल रहे हैं, वह जीवन की यात्रा नहीं, मृत्यु की यात्रा है। इसलिए दुख बढ़ता जाता है, मृत्यु की छाया बढ़ती जाती है, पीड़ा बढ़ती जाती है। और बचपन के दिन सुखद मालूम होते हैं।
ठीक कोई आदमी जीएगा और जीवन को अनुभव करेगा, तो रोज-रोज उसका आनंद बढ़ता जाना चाहिए। विकास का अर्थ यही होगा। तो यह विकास होता है जीवन में या पतन? हम नीचे उतरते हैं या ऊपर जाते हैं? बचपन की सुखद स्मृति गलत जीवन का सबूत है। जीवन ठीक से नहीं जीया गया, जाना नहीं गया, पहचाना नहीं गया। लेकिन इसको हम मान लेते हैं कि यह जीवन है। यह जीवन नहीं है। यह जीवन हो भी नहीं सकता। जीवन की हमें गंध भी नहीं है। जीवन के स्वरों का हमें कोई बोध भी नहीं है कि कहां जीवन का संगीत छिपा है।
बुद्ध के पास एक बूढ़ा भिक्षु आया। बुद्ध ने उस भिक्षु को पूछाः तेरी उम्र क्या है?
उस भिक्षु ने कहाः चार वर्ष।
वह बूढ़ा था। बुद्ध और उनके आस-पास के भिक्षु हैरान हुए! सोचा बुद्ध ने कि शायद मेरे समझने में हो गई है भूल। पूछा फिरः मेरे मित्र, तेरी उम्र क्या है?
उस बूढ़े ने कहाः मैंने निवेदन किया, चार वर्ष।
बुद्ध ने कहाः बड़ी हैरानी में डाल दिया तुमने। प्रतीत होते हो कि कोई सत्तर वर्ष तुम्हारी उम्र होगी और कहते हो चार वर्ष! किस हिसाब से गणना करते हो?
उस बूढ़े ने कहाः चार वर्ष के पहले जो था, वह जीवन नहीं था। उसकी मैं गिनती नहीं करता। इधर चार वर्षों से जीवन की सुगंध मिलनी शुरू हुई। इधर चार वर्षों से चित्त हुआ शांत। इधर चार वर्षों से निर्विचार हुआ। इधर चार वर्षों से भीतर झांका, तो उसकी प्रतीति हुई जो जीवन है। बाहर तो थी मृत्यु, जीवन था भीतर। और मैं बाहर ही देखता रहा, देखता रहा। तो मैंने मृत्यु को जाना था चार वर्ष पहले। उस उम्र को कैसे जीवन की उम्र बताऊं? वह मेरी गणना में नहीं आती।
बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहाः भिक्षुओ, सुन रखो मन में। इस आदमी ने जिंदगी को नापने की नई बात बताई है। और आज से मेरे भिक्षुओं की उम्र उसी दिन से नापी जाए, जिस दिन से उनको शांति मिले, वे जीवन को अनुभव करें। उसके पहले की उम्र को जोड़ने की अब कोई जरूरत नहीं है।
कौन सी बात भीतर दिखाई पड़ी होगी उस बूढ़े भिक्षु को? क्या दर्शन हुआ होगा? कौन है? क्या है भीतर?
कोई उसे आत्मा कहे, परमात्मा कहे, उचित तो यही है कि हम उसे जीवन कहें। जीवन है भीतर। जीवंत कोई धारा, कोई चेतना भीतर है। और उसके ऊपर एक खोल है शरीर की। शरीर मरणधर्मा है। शरीर को जो जीवन मान लेता है, वह मृत्यु को ही जीवन समझ कर जी लेता है। और तब होता है बहुत दुख और बहुत पीड़ा। और इस पीड़ा और दुख में वह पूछने लगता हैः क्या है लक्ष्य? क्योंकि इस दुख, पीड़ा में कोई लक्ष्य तो दिखाई पड़ता नहीं। इस दुख, पीड़ा में, इस रोज के दैनंदिन अंधकार में कोई अर्थ, कोई अभिप्राय, कोई मीनिंग तो दिखाई पड़ता नहीं। तो मन में प्रश्न उठने लगता हैः क्या है इस जीवन का अर्थ?
ठीक है पूछने वाला, लेकिन उसको निवेदन कर दें, पहली बात, यह जीवन ही नहीं है जिसका वह अर्थ पूछ रहा है। रह गया दूसरा जीवन, उसे हम जानते नहीं हैं। क्योंकि जो उसे जान लेता है, वह अर्थ नहीं पूछता। क्योंकि उसे पा लेना ही उसका अर्थ है। वह स्वयं साध्य है। उसके पार फिर पा लेने को कुछ भी नहीं है। उसे पा लेना, उस जीवन को जान लेना, उस जीवन के साथ एक हो जाना सब कुछ पा लेना है। क्योंकि उसके बाद मन में कोई अभाव नहीं रह जाता, कोई कामना नहीं रह जाती, कोई मांग नहीं रह जाती। मन सब भांति शांत और तृप्त और संतुष्ट हो जाता है। वह जो परम विश्राम और परम संतुष्टि है, वही उस जीवन को पाने से और जानने से मिल जाती है। तो जीवन का लक्ष्य है जीवन को पा लेना। जीवन का लक्ष्य है जीवन को पा लेना।
हम जीवित नहीं हैं। हम करीब-करीब मृत हैं। और हम जो भी करते हैं, जो भी श्रम करते हैं, जो भी मेहनत करते हैं इस जीवन को खड़ा करने की--जो कि झूठा है, जो कि सच्चा नहीं--उस सारी मेहनत और श्रम का सिवाय इसके कोई परिणाम नहीं होता कि हम रोज-रोज अपनी ही मेहनत से अपनी ही कब्र के करीब पहुंचते चले जाते हैं।
एक गांव के बाहर एक फकीर का झोपड़ा था। कुछ यात्री वहां आए और उन्होंने उस फकीर से पूछाः गांव का रास्ता किधर है? बस्ती कहां है?
उस फकीर ने कहाः बस्ती? सच में ही बस्ती जाना चाहते हो या कि मरघट?
उन लोगों ने कहाः कैसे अजीब आदमी हो! हम कह रहे हैं कि हम बस्ती जाना चाहते हैं। इस बात को पूछने की क्या जरूरत है कि मरघट जाना चाहते हो?
उसने कहाः मैं ठीक से पूछ लूं, ताकि ठीक जगह बता सकूं। क्योंकि कई लोग ऐसी भूल में हैं, कई लोग ऐसी भूल में हैं कि वे मरघट को बस्ती समझते हैं और बस्ती को मरघट। इसलिए मैंने पूछा, कहीं तुम भी तो उसी भूल में नहीं हो!
उन लोगों ने सोचा कि किसी पागल फकीर से मिलना हो गया है। लेकिन फिर भी, कोई और वहां नहीं था, रास्ता उसी से पूछना पड़ा। उसने कहाः बाएं तरफ चले जाओ। और देखो भूल कर भी दाएं तरफ मत जाना। दाएं तरफ मरघट, बाएं तरफ बस्ती।
वे लोग बाईं तरफ गए। तीन मील चलने के बाद मरघट में पहुंच गए। वे बहुत हैरान और परेशान हुए। उन्होंने कहाः पहले ही शक हुआ था उस आदमी पर। अजीब पागल है, मरघट में पहुंचा दिया! वापस लौटे, बहुत गुस्से में थे। वह फकीर वहां बैठा था। उससे उन्होंने कहा कि तुम पागल मालूम होते हो, हम बस्ती जाना चाहते थे, तुमने मरघट भेज दिया!
वह फकीर बोलाः बहुत दिनों बाद मुझे खुद यह अनुभव हुआ है, जिसको तुम बस्ती कहते हो, वह तो रोज उजड़ती है, उसमें तो कोई रोज मरता है, उसको मैं बस्ती कैसे कहूं? लेकिन जहां तक मरघट का सवाल है, वहां जो लोग बसे हैं, वे कभी भी वहां से जाते नहीं, वहीं बसे हैं। तो मैं मरघट को बस्ती कहता हूं। और बस्ती को मरघट कहता हूं, क्योंकि वहां तो टिकटें लगी हुई हैं मरने वालों की--एक आज मरेगा, दूसरा कल, परसों तीसरा, रोज वहां कोई मरेगा। तो जहां रोज कोई मरता हो, उसको कैसे बस्ती कहूं? मरघट से मैंने आज तक किसी को उजड़ते नहीं देखा, जाते नहीं देखा, मरघट से किसी को मरते नहीं देखा। जो मरघट में बस गया, बस गया सदा के लिए, हमेशा के लिए। तो उसको मैं बस्ती कहता हूं।
शायद ही उनकी समझ में आई हो बात कि वह फकीर क्या कहता था। हो सकता है आपकी समझ में आ जाए कि वह क्या कहता था। बहुत मुश्किल से यह बात समझ में आती है। लेकिन यह बात सच है। जिसको हम बस्ती कहते हैं, वह क्या है? रोज-रोज मरघट में तो बदल जाती है हमारी बस्ती। जहां हम खड़े हैं वहां कितने लोग नहीं मर चुके हैं? असल में हम खड़े ही इसलिए हो सके हैं कि बहुत लोग मर गए हैं, नहीं तो हम खड़े भी नहीं हो सकते थे। हजारों लाशों पर एक-एक आदमी खड़ा है। अपने बाप की लाश पर बेटा खड़ा है। अपनी मां की लाश पर उसकी पुत्री खड़ी है। हम सब अपने मां-बाप की लाशों पर खड़े हैं। वे न मरें तो हम जिंदा नहीं रह सकते। वे मरते हैं, उजड़ते हैं, जगह खाली होती है, हम बसते हैं। और हम बस भी नहीं पाते कि हमारे बच्चे बसने को आ जाते हैं और हम विदा हो जाते हैं। ऐसा बदलता हुआ मरघट है, जिसको हम बस्ती कहते हैं! और ऐसी ही बदलती और मरती हुई हमारी जिंदगी है, जिसको हम जीवन कहते हैं! वह भी जीवन नहीं है। वहां भी रोज-रोज हमारे भीतर मरता जाता है कुछ।
वैज्ञानिक कहते हैं, शरीर में सैकड़ों कोष्ठ हैं, सैकड़ों सेल हैं, वे रोज मर रहे हैं। वे मर-मर कर बाहर निकल रहे हैं। सात साल में पूरा शरीर मर कर बदल जाता है, दूसरा शरीर आ जाता है। सात साल में आपके शरीर में कुछ भी नहीं बचता जो पुराना हो, सब मर जाता है। नई-नई चीजें उसका स्थान ले लेती हैं।
आप भी एक बस्ती की तरह हैं, जिसमें लोग मर रहे हैं और नये आ रहे हैं। करोड़ों कीटाणुओं से मिल कर आपका शरीर बना है, उसमें लोग मरते जा रहे हैं, नये कीटाणु आते जा रहे हैं। मुर्दा चीजें शरीर के बाहर निकल रही हैं। आपको ख्याल भी न होगा, आप बाल को काटते हैं, दर्द क्यों नहीं होता? हाथ को काटिए, दर्द होता है। नाखून को काटते हैं, दर्द क्यों नहीं होता? नाखून शरीर का मरा हुआ हिस्सा है, बाल मरे हुए हिस्से हैं। मरे हुए सेल हैं, वे निकल रहे हैं, इसलिए उनको काटने से कोई तकलीफ नहीं होती। वे मरे हुए हिस्से हैं, वे निकलते जा रहे हैं शरीर के बाहर, उनकी जगह नये हिस्से जगह लेते जा रहे हैं।
शरीर भी खुद एक बस्ती है, जिसमें मरघट बना हुआ है। चौबीस घंटे कुछ चीज मर रही है, नई चीज बन रही है। बड़ी बस्ती भी एक मरघट है, छोटा शरीर भी एक मरघट है।
और आपके चित्त में क्या है? कल जो विचार था, वह आज नहीं होगा; परसों जो ख्याल थे, वे आज नहीं हैं; मर गए वे, नये ख्याल आ गए। बचपन में जो सोचा था, वह आज है? कहां गए वे ख्याल? कहां गईं वे कामनाएं? कहां गए वे विचार? जवानी आते-आते सब बदल गया है। दूर है जवानी तो, आज रात जो सोचा है, वह सुबह साथ होता है? एक आदमी सांझ को तय करता हैः कल सुबह चार बजे उठेंगे। और चार बजे वही आदमी सोचता हैः क्या जरूरत है, फिर देखेंगे, सोए रहो। कहां गया वह विचार जिसने तय किया था कि चार बजे सुबह उठेंगे? और सुबह उठ कर वह सोचता है, फिर पछताता है कि कैसी बुरी बात मैंने की कि मैं आज नहीं उठा, कल जरूर उठूंगा। रात फिर सोता है और फिर सुबह चार बज जाते हैं और फिर वह सोचता है कि रहने भी दो आज, ऐसी क्या जल्दी है, ऐसी क्या जरूरत पड़ी है, नींद बहुत गहरी है, कल उठेंगे।
विचार प्रतिक्षण मरते हैं और बदलते हैं। मन बदलता है, शरीर बदलता है। और बदलाहट तभी होती है जब कुछ मरता हो और नया आता हो, नहीं तो कोई बदलाहट नहीं होती। बदलाहट की प्रोसेस, बदलाहट की प्रक्रिया मृत्यु की प्रक्रिया है, डेथ की प्रोसेस है। वही चीज बदलती है, जो मरती है। जो चीज नहीं मरती, वह बदल नहीं सकती। हम तो रोज बदल रहे हैं; शरीर बदल रहा है, मन बदल रहा है। इसमें कोई भी जीवन नहीं है। जहां-जहां बदलाहट है, वहां-वहां जीवन नहीं है। लेकिन आपको क्या पता है कि आपके भीतर कोई ऐसा बिंदु भी है जो नहीं बदलता? जो वही है जो है?
अगर उसका पता चल जाए तो जानना कि जीवन का पता चला, उसके पहले जीवन का कोई पता नहीं। बाकी सब मृत्यु है। भीतर अगर कोई ऐसा नित्य, शाश्वत, कुछ ऐसा जो सदा वही है जो है, जिसमें कोई बदलाहट नहीं, कोई परिवर्तन नहीं, ऐसा कोई बिंदु अगर उपलब्ध हो जाए, तो जानना कि उस दिन से जीवन की शुरुआत हुई। उसके पहले तो सब मृत्यु की सारी प्रक्रिया है। इस मृत्यु की प्रक्रिया में, इस मरने की धारा में, हम जो भी करेंगे--इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप क्या करते हैं--आप दुकान करते हैं, कि नौकरी करते हैं, कि घर बसाते हैं, कि पत्नी और बच्चों को पालते हैं; या कि घर-द्वार छोड़ कर साधु हो जाते हैं, संन्यासी हो जाते हैं; या कि जीवन के सामान्य क्रम में जीते हैं या जीवन को छोड़ कर उलटे बहने लगते हैं जीवन के विरोध में, संन्यास में, संसार के विरोध में चलने लगते हैं; अधार्मिक हैं कि धार्मिक; मंदिर जाते हैं या नहीं; आस्तिक हैं या नास्तिक; गीता पढ़ते हैं या नहीं; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता--जो भी आप करेंगे इस जीवन की धारा में, वह सब आपको मृत्यु में ले जाएगा। चाहे मंदिर जाएं, चाहे न जाएं। जो भी करेंगे इस जीवन की मरणशील धारा में, वह सभी आपको मृत्यु में ले जाएगा। इसमें कोई फर्क पड़ने वाला नहीं। क्योंकि जो भी मनुष्य कर सकता है, वह सब मरणधर्मा होगा। जो भी हम कर सकते हैं, वह सब मृत्यु में ले जाएगा।
एक कहानी आपसे कहूं।
एक राजा ने एक रात सपना देखा। देखा स्वप्न में कि कोई अंधेरी छाया उसके कंधे पर हाथ रखे खड़ी है। उसने पूछाः कौन हो तुम?
उस छाया ने कहाः मैं हूं तुम्हारी मृत्यु। और यह सूचना करने आ गई हूं कि आज सांझ सूरज ढलने के साथ-साथ ठीक जगह पर मुझे उपलब्ध हो जाना, मैं तुम्हें लेने आ रही हूं।
मौत की खबर सुन कर किसकी नींद न टूट जाएगी? उस राजा की नींद भी टूट गई। आधी रात थी, घबड़ा उठा, क्या अर्थ है इस स्वप्न का? राजधानी में बड़े-बड़े स्वप्न-विश्लेषक थे, ज्योतिषी थे, ज्ञानी और पंडित थे, शास्त्रों के जानने वाले व्याख्याकार थे, सबको खबर भेज दी गई कि शीघ्र चले आओ। आधी रात उठा लिए गए सारे ज्ञानी राजधानी के। आए, पूछा राजा सेः क्या अड़चन आ गई?
राजा ने कहाः ऐसा-ऐसा देखा है स्वप्न। मृत्यु कहती हुई दिखाई पड़ी है--आज सांझ सूरज डूबने के साथ-साथ ठीक जगह मिल जाना, लेने आ रही हूं। क्या करूं? क्या है इस स्वप्न का अर्थ?
वे पंडित अपनी किताबें साथ ले आए थे, जैसा कि पंडित सदा ही करते हैं। क्योंकि उनकी आत्मा अपने में नहीं होती, अपनी किताबों में होती है। वे अपने शास्त्र बांध कर आ गए थे। उन्होंने अपने शास्त्र खोल लिए और अर्थ खोजने लगे। रात बीतने लगी। किसी ने एक अर्थ बताया, तो दूसरे पंडित ने उसका खंडन किया, जैसी कि पंडितों की आदत है। जैसे कुत्तों की आदत होती है एक-दूसरे पर भौंकने की, वैसे पंडितों की भी होती है। दस पंडित इकट्ठे रखना एक उपद्रव करवा लेना है। एक उपद्रव हो जाए, झगड़ा हो जाए, हत्या हो जाए, कुछ भी हो सकता है। वे सब एक-दूसरे का खंडन करने लगे। एक-दूसरे के शास्त्र की निंदा करने लगे। एक-दूसरे की व्याख्या को गलत बताने लगे।
राजा बड़ा परेशान हो उठा। सांझ बहुत जल्दी हो जाएगी, और इन पंडितों की व्याख्याओं का कोई अंत न दिखाई पड़ता था। इसमें से कोई निष्पत्ति, कोई निष्कर्ष निकलता हुआ दिखाई न पड़ता था। आखिर वह घबड़ा गया। सुबह हो गई, सूरज उगने लगा। और पंडितों का विवाद बढ़ता जाता था। जब उन्होंने बात शुरू की थी, तब तो कुछ साफ भी था, अब तो वह भी साफ न रहा था, और उलझ गया था मामला। क्या था अर्थ, कुछ तय करना मुश्किल था। उनके शब्दों में और सिद्धांतों में बात और खो गई।
राजा का एक वृद्ध नौकर था, उसने उसके कान में कहाः महाराज! इन पंडितों को कयामत तक भी निष्कर्ष मिलेगा, इसकी कोई आशा नहीं है। दुनिया का अंत आ जाएगा, ये निष्कर्ष न निकाल पाएंगे। आज तक पंडित कोई निष्कर्ष निकाल पाए हैं? आज तक किसी बात पर वे सहमत हो पाए हैं? आज तक कोई नतीजा मिल सका है उनकी चर्चाओं और विवादों से? लेकिन इनके विवाद तो लंबे चलेंगे, सांझ जल्दी हो जाएगी, देर नहीं है, सूरज उग आया! और जो सूरज उग आया है, उसके डूबने में देर कितनी लगेगी? क्योंकि जो ऊग आया है, वह डूब ही जाएगा। असल में उगने में ही डूबना शुरू हो गया है। सूरज ऊपर उठ रहा है। तो अच्छा होगा यह, इन्हें व्याख्या करने दें, आपके पास कोई तेज घोड़ा हो तो लेकर भाग निकलें, इस घर से जितनी दूर हो सके निकल जाएं। मौत ने संकेत स्पष्ट दिया है। इस घर में, जहां मौत की छाया पड़ी हो और जहां मौत ने आकर खुद सूचना दी हो कंधे पर हाथ रख कर, वहां रुकना एक क्षण भी उचित नहीं है।
राजा को बात समझ में पड़ी। पंडित अपना विवाद करते रहे। राजा भागा, उसके पास तेज घोड़ा था, तेज घोड़े पर बैठ कर उसने यात्रा शुरू की। भागा वह प्राणों को छोड़ कर। अपनी उस पत्नी को जिससे उसने बार-बार कहा था, तेरे बिना एक क्षण भी जीवन असंभव है, उसकी भी उसे याद न आई कि उससे विदा मांग ले। मौत के समय किसको किसकी याद रह जाती है? और वे वचन जो हमने मौत के अनजाने में दिए हों, उन वचनों का किसको स्मरण रह जाता है? जिन मित्रों से उसने कहा था, तुम मेरे प्राणों के प्राण हो, और तुम हो इसलिए मेरी जिंदगी में आनंद है, और तुम्हें छोड़ कर मैं एक क्षण भी न जी सकूंगा, उनकी भी कोई याद न आई। उनसे भी विदा लेने का कोई ख्याल न पैदा हुआ। मौत सामने हो तो कौन मित्र रह जाता है? भागा।
उस दिन न उसे प्यास लगी और न भूख; न उसने पानी पीने को घोड़ा रोका और न भोजन करने को। वह भोजन लाना भी भूल गया था। कुएं तो बहुत पड़े मार्ग पर, लेकिन उसे प्यास का ख्याल ही न था। और जिसे प्यास ही न हो, उसे कुएं से क्या मतलब? मौत थी सामने, मौत थी पीछे, मौत थी आगे, मौत थी ऊपर, मौत थी सब तरफ और निकल जाना था। जरूर था तेज उसके पास घोड़ा, इसलिए विश्वास बड़ा था कि निकल जाएगा। कोई साधारण आदमी का घोड़ा नहीं था, कोई खच्चर नहीं था, राजा का घोड़ा था। राजा बड़ा था, उसके पास घोड़ा भी बड़ा था। सोचा कि मेरा तेज घोड़ा अगर नहीं ले जा सकेगा, तो कौन ले जाएगा? इसलिए निश्चिंत था, हिम्मत से डटा था घोड़े पर। सांझ होते-होते वह सैकड़ों मील दूर निकल गया। सूरज ढलने को आ गया था। जो ऊगता है, वह ढलता भी है। उस दिन भी सूरज ढलता ही, ढलेगा ही। ऐसा तो कोई दिन होता नहीं कि सूरज न ढले, तो उस दिन भी ढला। राजा ने घोड़ा एक वृक्ष से बांधा एक बगीचे में, एक गांव के बाहर। सूरज की आखिरी किरण नीचे डूबने लगी। वह घोड़ा बांध भी नहीं पाया था कि उसे अहसास हुआ कि कोई उसके कंधे पर हाथ रखे खड़ा है। पीछे लौट कर देखा--वही छाया, वही सपना, वही रात की मौत खड़ी थी! वह तो घबड़ा गया, उसके तो प्राण कंप गए! क्या इतनी दौड़-धूप व्यर्थ हो गई? क्या यह दिन भर का परिश्रम और दिन भर की भूख-प्यास... सब उसे याद आ गई। और उसने कहाः तुम कौन हो?
मौत ने कहाः सुबह तुम्हें मिली थी, इतनी जल्दी भूल गए? रात ही तो खबर दी थी मैंने। और खबर इसीलिए दी थी कि मैं खुद डरी हुई थी कि तुम इस बगीचे में इस झाड़ के नीचे तक आ सकोगे कि नहीं? यहां तुम्हारे मरने का समय और स्थान तय है। घोड़ा तुम्हारा तेज है, उसे मैं धन्यवाद देती हूं। ठीक वक्त पर तुम्हें ठीक जगह ले आया। मैं खुद घबड़ाई हुई थी कि कैसे होगा यह? तुम हो इतने दूर, कैसे आ पाओगे इस जगह? लेकिन घोड़ा, सच राजा, घोड़ा तुम्हारा तेज है। एक राजा का ही घोड़ा है! ठीक वक्त पर ठीक जगह ले आया। धन्यवाद है तुम्हारे घोड़े का।
जिससे दिन भर भागा था, सांझ उससे मिलना हो गया। जिससे भागा था, उससे ही मिलना हो गया। और भागना बन गया माध्यम पहुंचने का वहां, जहां से बचना था।
यह कहानी कोई एक राजा की नहीं, सभी की कहानी है। बात दूसरी है, किसी के पास थोड़ा कमजोर घोड़ा है, किसी के पास थोड़ा तेज; कोई जरा धीमे दौड़ रहा है, कोई जरा तेजी से दौड़ रहा है; किसी की दौड़ उदयपुर तक है, किसी की दौड़ दिल्ली तक है, किसी की और आगे तक है; अपने-अपने घोड़े हैं, अपनी-अपनी दौड़ है। लेकिन एक बात तय है, और बड़े मजे की बात यह है कि सब घोड़े ठीक वक्त पर ठीक जगह पहुंचा देते हैं। और मौत ने सिर्फ राजा को धन्यवाद दिया शिष्टाचारवश, क्योंकि आज तक किसी घोड़े ने कभी किसी को नहीं चुकाया। सब घोड़े ठीक वक्त पर ठीक जगह पहुंचा देते हैं। चाहे मौत सूचना दे और चाहे न दे।
हमारी सारी यात्राएं, जिसमें हम मौत और दुख से बचने में ही संलग्न रहते हैं, हमारे जीवन का सारा उपक्रम, हमारे जीवन की सारी चेष्टा क्या है? दुख से बचने की चेष्टा है। मृत्यु से बचने की चेष्टा है। सदा बने रहने की चेष्टा है। जीवन को पकड़े रहने की चेष्टा है। सारा जीवन-उपक्रम क्या है हमारा? हमारी आकांक्षा क्या है? दुख से बच जाएं; मृत्यु से बच जाएं; बुढ़ापे से बच जाएं; जीवन बना रहे सदा और सदा जीवन बना रहे; यही हमारी आकांक्षा है। लेकिन होता इससे उलटा है। पहुंचते हैं दुख में; पहुंचते हैं बुढ़ापे में; पहुंचते हैं मृत्यु में। यह हमारी आकांक्षा आकांक्षा ही रह जाती है। जो फलित होता है वह यह कि उस दरख्त के नीचे हम पहुंच जाते हैं जहां काली छाया कंधे पर हाथ रख देती है। जीवन भर की खोज का अगर यह परिणाम है और अगर जीवन भर की यह निष्पत्ति है, तो क्या इसे हम जीवन कहें? जिस जीवन में अंत में मृत्यु के फूल लग जाते हों, क्या उसे हम जीवन कहें?
बीज हमने बोए हों अमृत के और फल लगते हों मृत्यु के, तो क्या यह ख्याल नहीं आता कि वे बीज मृत्यु के ही रहे होंगे, अमृत के न रहे होंगे? आम के बीज हम बोएं और कड़वे विषाक्त फल लग जाएं, तो क्या यह ख्याल न आएगा कि हमारे बीज ही गलत रहे होंगे? क्योंकि जो फल में प्रकट हुआ है, वह अगर बीज में मौजूद न था, तो आएगा कहां से? वे बीज ही कड़वे रहे होंगे, वे बीज ही आम के न रहे होंगे, वे नीम के ही रहे होंगे और हमने बीज को समझने में ही भूल की होगी। फिर तो बीज जो होता है वही वृक्ष बनता है, वही फल लगते हैं।
तो जब जीवन के अंत में मृत्यु के फल लगते हैं, तो जिसे हमने जीवन कहा होगा, वहीं भूल हो गई, वह जीवन न रहा होगा, वे बीज मृत्यु के ही रहे होंगे।
जन्म जीवन की शुरुआत नहीं, मृत्यु की शुरुआत है। जन्म जीवन का प्रारंभ नहीं, मृत्यु का प्रारंभ है। जन्म बीज नहीं है अमृत का, मृत्यु का ही बीज है। लेकिन जन्म को हम समझ लेते हैं जीवन का प्रारंभ, और तब सारी भूल हो जाती है।
तो आज की संध्या मैं आपसे निवेदन करूंः जन्म को जीवन मत समझ लेना। जन्म जीवन नहीं है। और न ही जन्म और मृत्यु के बीच जो सिलसिला है, वह जीवन है। यह स्मरण आ जाए कि यह जीवन नहीं है, तो आंखें उस तरफ उठाई जा सकती हैं जो कि जीवन है। उसको खोजा जा सकता है स्वयं में जो कि जीवन है। लेकिन जो इसे ही जीवन समझ लेंगे, वे कैसे खोज पाएंगे?
तो यह भ्रम टूट जाना चाहिए, यह इल्युजन टूट जाना चाहिए कि यह जीवन है। अगर यह टूट जाए, तो आज ही, इसी क्षण भी उस तरफ आंख जा सकती है। वह हमारे भीतर मौजूद है। हमारे भीतर कुछ मौजूद है, जिसका कोई जन्म नहीं है और कोई मृत्यु नहीं।
लेकिन मेरे कहने से वह मौजूद नहीं हो जाएगा, उपनिषदों के कहने से मौजूद नहीं हो जाएगा, गीता लाख चिल्लाए तो मौजूद नहीं हो जाएगा, दुनिया भर के शिक्षक समझाएं तो मौजूद नहीं हो जाएगा। मौजूद है कुछ, लेकिन वह आप ही आंख उठाएंगे तो ही मौजूद हो सकता है, नहीं तो मौजूद नहीं हो सकता। वह आपकी आंखों की प्रतीक्षा कर रहा है कि आप देखें, तो वह मौजूद हो जाए। वह है मौजूद। आपकी आंख देखने को तैयार होनी चाहिए। तो उसे देखते ही आपको पहली दफा जीवन का पता चलेगा। और जिस दिन आपको जीवन का पता चल जाएगा, उसी दिन, उसी क्षण, उसी के साथ आपका यह ख्याल मिट जाएगा कि जीवन का लक्ष्य क्या है।
जीवन को पा लेना जीवन के लक्ष्य को भी पा लेना है। वह अपना लक्ष्य स्वयं है। जीवन के पार, ऊपर कुछ भी नहीं है। जीवन के आगे कुछ भी नहीं है। जीवन खुद ही है वह सागर--अनंत और असीम--जिसको कोई परमात्मा कहे तो कहे; कोई मोक्ष कहे तो कहे; कोई निर्वाण कहे तो कहे; नाम कोई और दे तो कहे। लेकिन ‘जीवन’ सीधा-सादा सरल सा नाम है, बाकी सब नाम झगड़े के हैं।
आस्तिक और नास्तिक का झगड़ा खड़ा हो जाता है कि ईश्वर है या नहीं? लेकिन जीवन तो है। कोई आस्तिक-नास्तिक का झगड़ा भी नहीं है। जीवन है। आज तक किसी ने शक नहीं किया कि जीवन नहीं है। जीवन निर्विवाद अनुभव है कि जीवन है। निरपवाद, कोई ने कभी अपवाद में नहीं कहा कि जीवन नहीं है। जीवन है। और इस जीवन की हम सबको तलाश है। लेकिन कठिनाई, सारी कठिनाई एक जगह रुक जाती है--जिसे हम जीवन समझ लेते हैं, वह जीवन नहीं है। और तब सारी उलझन हो जाती है।
इसलिए पहली तो बात इस संबंध में यही जानने की है कि यह जो भ्रामक, जिसे हम जीवन कहते हैं, उसे जानना होगा कि यह जीवन नहीं है। बड़ी उदासी होगी तब तो, बड़ी चिंता सी मालूम होगी कि अगर यह जीवन नहीं है तो फिर क्या? फिर तो हम खाली छूट गए अधर में, फिर तो कोई रास्ता न रहा। यही तो हम जीवन जानते थे--यही धन कमाने को; यश कमाने को; बड़ा मकान बनाने को।
मैं इनकी निंदा नहीं कर रहा हूं। मेरे मन में किसी चीज की कोई निंदा नहीं है। लेकिन इनको ही जीवन समझने को मैं गलती कह रहा हूं। जरूर मकान बनाएं, जरूर खोज करें जीवन की, जरूर, यह सब जो चल रहा है, लेकिन इसे जीवन न समझ लें। तो बस, अगर यह जीवन समझ में न आए, तो आपके भीतर एक खोज जारी रहेगी उसको खोजने की जो कि जीवन है। इसे हम जीवन समझ लेते हैं, इसलिए वह खोज बंद हो जाती है। अगर यह भ्रम टूट जाए कि यह जीवन है, तो उसकी खोज शुरू होगी। और वह खोज कैसे शुरू होगी? कैसे? और क्या हो सकता है? उसकी ही हम चर्चा कर रहे हैं। इधर आने वाले दो दिनों में उसकी ही बात होगी कि वह जीवन कैसे जाना जा सकता है?
तो इस प्रश्न के उत्तर में फिर से मैं दोहरा दूंः जीवन का कोई लक्ष्य नहीं जीवन के सिवाय। जीवन की पूर्णता, जीवन का पूरा अनुभव, जीवन का पूरा आनंद, जीवन का पूरा सौंदर्य विकसित हो जाए, जैसे कोई फूल खिल जाए, पूरा खिल जाए, तो लक्ष्य पूरा हुआ। वैसे ही जीवन पूरा खिल जाए, तो लक्ष्य पूरा हुआ, उसके पार और कोई लक्ष्य नहीं है। और कोई लक्ष्य नहीं है।
तो यह जीवन की, इस पूर्णता को खिलावट के लिए, इसके पूरे फूल के खिल जाने के लिए क्या किया जाए? उसकी तो हम बात करेंगे। एक बात तो यह की ही जाए जो मैंने कही कि खोज जारी रखी जाए कि जिसे हम जीवन समझ रहे हैं, कहीं वह झूठा सिक्का तो नहीं है? क्योंकि जो लोग झूठे सिक्के को असली समझ लेते हैं, उनके असली सिक्के की खोज बंद हो जाती है, वे झूठे को ही ढोते रहते हैं।
एक बार ऐसा हुआ, दो साधु एक घने जंगल से निकलते थे। गुरु था और उसका शिष्य था, वृद्ध साधु था और एक युवा साधु था। वृद्ध साधु ने अपने कंधे पर एक झोली टांग रखी थी। कोई वजनी चीज उसमें लटकी हुई मालूम पड़ती थी। जंगल आ गया और रात उतरने लगी, अंधेरी रात, निर्जन वन, बीहड़ रास्ता, कोई मार्ग पर दिखाई न पड़े। तो उस वृद्ध गुरु ने अपने युवा शिष्य से पूछाः बेटे, जंगल में कोई डर तो नहीं है? कोई भय तो नहीं है?
उस युवक को बड़ी हैरानी हुई! आज तक कभी उसके गुरु ने यह न पूछा था कि कोई भय तो नहीं! संन्यासी को भय कैसा? और जंगल में भी भय कैसा? मृत्यु भी आ जाए तो भय कैसा? फियर कैसा? क्या बात है? चिंतित हुआ! उसने कहा कि क्या भय की बात है? कोई भय की बात तो नहीं।
और आगे बढ़े, और रास्ता बीहड़ होता गया, रात और उतरती गई, और सन्नाटा, और सुनसान। वह गुरु ठिठक गया और उसने कहा कि कुछ पता लगाया तुमने? पूछ लिया था? कोई भय तो नहीं है?
वह युवक और हैरान हुआ! बहुत परेशान हुआ!
फिर वे एक कुएं के किनारे थोड़ी देर को हाथ-मुंह धोने के लिए रुके, पानी पीने को रुके। झोला निकाल कर उसके वृद्ध गुरु ने अपने शिष्य को दिया। उसे थोड़ा शक तो होने लगा था कि झोले में जरूर कुछ होना चाहिए। नहीं तो भय कैसा? झोले में हाथ डाला, देखा एक सोने की ईंट भीतर है। वह समझ गया कि भय कहां है। उसने उस ईंट को, गुरु जब तक पानी पीता था, फेंक दिया, उसकी जगह रख दिया उसी वजन के एक पत्थर को। गुरु ने पानी पीया, झोला जल्दी से लेकर कंधे पर टांगा, टटोल कर देखा, ईंट थी, आगे चल पड़ा। थोड़ी देर बाद घोड़ों की टाप की कहीं पास में आवाज आने लगी, तो उसने पूछा कि बेटे, कोई भय तो नहीं है यहां?
उस लड़के ने कहाः आप बिल्कुल निर्भय हो जाएं, भय को मैं पीछे फेंक आया हूं।
वह तो एकदम घबड़ा गया! उसने जल्दी से झोला देखा, ईंट निकाली, पत्थर रखा हुआ था वहां। लेकिन इतनी देर यह पत्थर भी भय देता रहा था। वह बूढ़ा हंसने लगा, उसने कहाः हद्द हो गई! इतनी देर मैं इस पत्थर को ढो रहा था और यह मुझे भय भी दे रहा था। और मैं भयभीत था और कंपित था। तूने ठीक कहा कि भय को तू पीछे छोड़ आया। पर पागल, तूने उसी वक्त क्यों न बता दिया? मैं इतनी देर व्यर्थ ही इसको ढोता रहा और भयभीत रहा। यह इतनी देर का भय बिल्कुल व्यर्थ था।
उसका युवा शिष्य बोलाः अगर ठीक से समझें, तो पहले भी जो भय था, वह भी व्यर्थ था। वजन वह भी था, वजन यह भी है। लेकिन वह सोना दिखाई पड़ता था, इसलिए आप सोचते हैं वह सार्थक था? और यह ईंट दिखाई पड़ती है, इसलिए सोचते हैं व्यर्थ है? लेकिन अगर ईंट अभी भी दिखाई न पड़ती, तो यह पूरी रात भय से बीतती। और कौन जाने जिसे आपने सोना समझा, वह भी सोना है या मिट्टी? वह समझने पर सारा निर्भर है।
एक झूठी ईंट भय दे सकती है। एक झूठी जिंदगी भय दे सकती है। और एक झूठी ईंट को हम सम्हाल कर ढो सकते हैं और एक झूठी जिंदगी को भी सम्हाल कर ढो सकते हैं और पूछ सकते हैं--कोई भय तो नहीं है?
लेकिन जैसे ही दिखाई पड़ गया कि ईंट सोने की नहीं, पत्थर की है, उस बूढ़े ने वह ईंट फेंक दी और फिर रात उसी जंगल में वे निश्चिंत होकर सो गए। फिर कोई भय न था, क्योंकि वह ईंट ही न थी, वह सोना ही न था। वे वही थे, सब कुछ वही था, जंगल वही था, रात वही थी, लेकिन भय समाप्त हो गया।
सब कुछ यही होगा, यही रातें, यही दिन, यही लोग, यही जमीन, यही सब कुछ होगा। लेकिन आपको अगर दिखाई पड़ जाए कि जिसे हम जिंदगी जानते थे वह जिंदगी नहीं है, तो सब बदल जाएगा, सब और हो जाएगा। और तब दिखाई पड़ेगा और ज्ञात होगा--क्या है जीवन! और तब उसका अर्थ और लक्ष्य भी दिखाई पड़ेगा और ज्ञात होगा। इस संबंध में इतनी ही बातें अभी कहूं, और तो हम और जीवन की खोज में विचार करेंगे।
एक-दो और छोटे प्रश्न हैं, उनकी चर्चा करूंगा।

एक और प्रश्न पूछा है मित्र ने। मैं कहता हूं, मौलिक चिंतन करना चाहिए, सोचना चाहिए। तो उन्होंने पूछा है कि क्या सभी लोग मौलिक चिंतन कर सकते हैं? क्या सभी लोग नये तरह से जीवन को सोच और देख और विचार कर सकते हैं? उन्हें तो अतीत के अनुभवों का आधार लेना पड़ेगा, उन्हें तो सहारा लेना पड़ेगा, उन्हें तो उधार विचारों को संपदा बनानी पड़ेगी, तो ही वे विचार कर सकेंगे।
तो उन्होंने पूछा है कि क्या सभी अतीत के विचारों का सहारा छोड़ना चाहिए? और क्या यह संभव है कि हम सभी मौलिक विचार कर सकें?

पहली बात आपसे कहूं, वह यहः जो भी व्यक्ति विचार कर सकता है, वह मौलिक विचार भी कर सकता है। जो भी व्यक्ति विचार कर सकता है, वह मौलिक विचार भी कर सकता है। जो उधार विचारों को अपना मान कर पकड़ कर बैठ सकता है, वह विचार करने में समर्थ है। नहीं तो उधार विचारों को पकड़ना भी असंभव था। विचार की सामर्थ्य है, इसीलिए तो दूसरों के विचारों को पकड़ लेता है। लेकिन दूसरों के विचारों को पकड़ लेने से, जो खुद के विचार की शक्ति थी, वह पंगु हो जाती है, विकसित नहीं हो पाती।
दुनिया में हर मनुष्य विचार करने में समर्थ है। और उसी मात्रा में उसके भीतर मौलिक विचार का जन्म हो सकता है, जिस मात्रा में वह बाहर के सहारों को छोड़ने की सामर्थ्य अर्जित कर ले, साहस अर्जित कर ले। मौलिक विचार संभव है प्रत्येक व्यक्ति को और प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है कि वह मौलिक विचार करे। जीवन के मिलने के साथ ही यह शक्ति भी मिल जाती है। मनुष्य होने के साथ ही यह संपदा भी मिल जाती है। यह स्वत्व है जीवन के साथ मिला हुआ। लेकिन हम उसका उपयोग ही न करें। ...
समझ लें, एक ऐसा गांव हो जहां बच्चे पैदा हों और उनके पैरों को बांध दिया जाए और हाथ में लकड़ियां दे दी जाएं और उनसे कहें, चलो। तो वे लकड़ियों के सहारे बच्चे चलेंगे। फिर उस गांव के सब बच्चे ऐसा हजारों साल तक करते रहें कि बच्चे जब भी पैदा हों, उनको लकड़ियां पकड़ा दी जाएं, बैसाखियां दे दी जाएं और उन सबको चलने को कहा जाए। तो वे लकड़ियों के सहारे चलेंगे और उनके पैर पंगु हो जाएंगे। फिर हर पीढ़ी अपने बच्चों के साथ यही करती रहे। हजार, दो हजार साल बाद उस गांव में बिना बैसाखी के कोई भी नहीं चल सकेगा। और अगर किसी दूसरे गांव से कोई आदमी भूला-भटका वहां आ जाए और वह कहेः पागलो, यह क्या कर रहे हो? बैसाखियों की क्या जरूरत है? अरे अपने पैरों से चलो! तो वहां के लोग पूछेंगेः क्या हर आदमी अपने पैरों से चल सकता है? क्या यह हो सकता है कि हर आदमी अपने पैरों से चल सके? हां, कभी-कभी ऐसा होता है, कोई अवतारी पुरुष पैदा हो जाता है, अपने पैरों से चलता है। वह अपवाद की बात है। यह सबके बस की बात नहीं। सब तो बैसाखियों से ही चलते रहे हैं हमेशा से। हमारे बाप-दादे भी चलते थे, उनके बाप-दादे भी, उनके बाप-दादे भी, यह तो हमेशा का क्रम है। तुम यह क्या कहते हो अनूठी बात कि हर आदमी अपने पैरों से चल सकता है?
जिन लोगों ने वर्षों तक पैरों का उपयोग न किया हो, उनको यह विश्वास आना कठिन है कि हर आदमी अपने पैरों से चल सकता है। लेकिन हम सारे लोग अपने पैरों से चल रहे हैं।
क्या आपको पता है, चीन में हजारों वर्ष तक स्त्रियों के पैर में लोहे के जूते पहनाए जाते रहे। छोटा पैर सुंदर होता है, ऐसा उनका ख्याल था। हजार तरह की बेवकूफियां दुनिया में प्रचलित रही हैं। वह भी एक बेवकूफी थी, चीन में प्रचलित थी। फलानी चीज सुंदर होती है, बस यह ख्याल प्रचलित हो जाए, तो कोई सोचता तो है नहीं, सोचने का तो कोई सवाल नहीं। तो चीन में हजारों वर्ष तक, बच्चियां पैदा होंगी और उनके पैरों में लोहे के जूते पहना दिए जाएंगे, ताकि उनके पैर बड़े न हो सकें। छोटा पैर सुंदर और खूबसूरत होता है। फिर जितने बड़े घर की लड़की होगी, उतना ही छोटा जूता पहनाया जाएगा। क्योंकि गरीब घर की लड़की को थोड़ा चलना-फिरना पड़ता है, तो बहुत छोटे जूते नहीं पहनाए जा सकते, वह चल ही नहीं सकती। लेकिन बड़े घर की लड़कियों को तो कोई चलने-फिरने का सवाल नहीं है, तो उनके पैर के जूते और छोटे होते। राजा-महाराजाओं की जो लड़कियां होतीं, उनके पैरों का तो कहना ही क्या, वे तो चलने में और खड़े होने तक में असमर्थ हो जातीं, इतने छोटे जूते होते।
चीन भर की औरतों के पैर पंगु कर दिए गए, सिर्फ गरीब औरतों को छोड़ कर। गरीब औरतों का सौभाग्य था कि वे गरीब थीं, इसलिए उनके पैर तो ठीक रहे, बाकी अमीरों के सबके पैर छोटे हो गए। औरतें चलना मुश्किल हो गईं। चीनी औरत का चलना देखने लायक हो गया, उससे पैर ही रखते न बने। क्योंकि जिसका पैर लोहे में कसा हो बचपन से, उसका पैर छोटा रह जाए और शरीर बड़ा हो जाए, पैर का अनुपात छोटा पड़ जाए, तो वह पैर देखने लायक भर रह जाए, कि वह कुर्सी पर पैर रख कर बैठे, तो आप देखें, बाकी और किसी काम का न रह जाए। अगर उन स्त्रियों से कोई कहे कि सब स्त्रियों के पैर बड़े हो सकते हैं, सब स्त्रियां चल सकती हैं, तो वे हैरान होंगी। वे कहेंगीः सब! यह कैसे संभव है कि सब स्त्रियां चल सकें अपने पैरों से? तो वे कंधे पर हाथ रख कर चलती थीं। दो स्त्रियां साथ होंगी रानी के, वह कंधे पर हाथ रख कर चलेगी, खुद के पैर तो बड़े पंगु।
और जब पहली दफा चीन में किन्हीं लोगों ने हिम्मत की और इसके खिलाफ विद्रोह खड़ा किया--इसके खिलाफ भी विद्रोह करना पड़ा कि औरतों के पैर में जूते नहीं पहनाएंगे--तो बड़े उपद्रव हुए, झगड़े हुए। ऐसे लोगों को कहा गयाः ये विद्रोही हैं, ये परंपरा के दुश्मन हैं, ये देश के अतीत को नष्ट कर रहे हैं। ये सारी बात बर्बाद कर देंगे, हमारी सभ्यता मिटा देंगे। हजारों साल से जो हमने नहीं किया, ये नास्तिक लड़के ऐसी बातें करने को कह रहे हैं कि स्त्रियों के पैर में जूते मत पहनाओ। यह कहीं हो सकता है कि स्त्रियां, खूबसूरत स्त्रियां और बड़े पैर की हों? यह नहीं हो सकता।
ऐसी ही हालत हमारे मस्तिष्क की भी हो गई है। हजारों साल से लोहे के जूते हमारे मस्तिष्क में कसे हुए हैं। हजारों साल से हमारे मस्तिष्क को और विचार को चलने की कोई स्वतंत्रता नहीं है। बैसाखी रखो और चलो। कृष्ण के कंधे पर हाथ रखो, महावीर के कंधे पर हाथ रखो, किसी को भी बैसाखी बना लो और चलो, लेकिन अपने पैर से मत चलना। हर आदमी कहीं अपने पैर से चल सकता है? यह तो कुछ थोड़े से सौभाग्यशाली लोगों का हक है कि वे अपने पैर से चलें। चूजन फ्यू, थोड़े से चुने हुए चुनिंदे लोग, जिन पर भगवान की कृपा है।
पता नहीं यह भगवान भी कैसा है कि कुछ लोगों पर कृपा करता है और कुछ लोगों पर नहीं करता! पता नहीं वहां भी कोई रिश्वत चलती है, क्या होता है! पता नहीं वहां भी खुशामद का बहुत प्रभाव होता है, क्या होता है! तो कुछ चुने हुए लोग कर सकते हैं विचार, सब नहीं कर सकते। यह पागलपन सिखाया गया है। इसका परिणाम यह हुआ कि मस्तिष्क पंगु हो गए, चलने की सामर्थ्य विवेक ने खो दी।
तो निश्चित ही आज यह बात लगती है, आज हजारों साल के बाद अगर कोई कहे कि हर आदमी मौलिक रूप से सोच सकता है, तो हमें विश्वास नहीं पड़ता। यह स्वाभाविक है। यह स्वाभाविक इसलिए नहीं है कि यह हमारा स्वरूप है, बल्कि इसलिए कि हजारों साल की हमारी आदत है। और आदत के खिलाफ सोचना बड़ी हिम्मत की बात है। कई कारणों से। क्योंकि आदत आसान होती है और तोड़ना कठिन होता है।
एक आदमी सिगरेट ही पीने लगता है तो तोड़ना मुश्किल होता है। एक बिल्कुल बेवकूफी की आदत है, जिसमें कोई भी मतलब नहीं है। एक रत्ती भर मतलब नहीं है। और कभी दुनिया अगर समझदार हुई, तो हैरान होगी कि ऐसे पागल लोग भी थे पहले जो मुंह में धुआं खींचते थे और निकालते थे। बड़ी हैरान होगी! और अरबों-करोड़ों रुपया खर्च करते थे इसमें, धुआं खींचने और निकालने में। तो बच्चे भविष्य में सोचेंगे कि हमारे मां-बाप या तो पागल थे या क्या खराबी थी? क्योंकि यह कल्पना भी उनके नहीं आ सकेगी कि ऐसे लोग भी थे जमीन पर जो धुआं पहले अंदर खींचते, फिर बाहर निकालते! और इसमें पैसा खर्च करते! और इससे बीमार होते, इससे परेशान होते, इससे अस्पताल में जाते, और उनके डाक्टर घोषणाएं करते कि कैंसर हो जाएगा, फलां हो जाएगा, वे सब सुनते और फिर भी पीते, और जो डाक्टर यह कहते, वे भी पीते! तो किसी न किसी दिन मनुष्य-जाति में कोई न कोई पीढ़ी यह विचार तो करेगी कि ये लोग कुछ गड़बड़ रहे होंगे, ये पागल रहे होंगे। क्या है इसमें? क्या होने जैसी बात है इसमें? लेकिन इसको भी छोड़ना कठिन है। इस निहायत एब्सर्ड, जिसमें कोई तुक, कोई संगति नहीं, कोई अर्थ नहीं, उसे छोड़ना भी कठिन है। प्राण निकल जाएं, उसे छोड़ना कठिन है।
उत्तरी ध्रुव के पास उन्नीस सौ तीस में यात्री गए, पहले यात्री। उनका जहाज फंस गया और पंद्रह दिन तक निकल नहीं सका, तो उनका राशन चुक गया। लेकिन राशन के चुकने से कठिनाई न हुई, वे भूखे रहने को राजी थे। लेकिन सिगरेट चुक गईं। और तब एक तूफान आ गया उस जहाज में, बिना सिगरेट के रहना असंभव था। लोग सुस्त पड़ गए, लोग आंखें बंद करके पड़ गए, लोग रोने लगे, चिल्लाने लगे कि हमें कोई न कोई तरह... आखिर हालत यह हो गई कि जहाज की रस्सियां काट कर लोग पी गए। और कैप्टेन परेशान हो गया कि तुम जहाज की रस्सियां काटे दे रहे हो, कल जब हम निकलेंगे, तो जहाज चलने योग्य न रह जाएगा। उन्होंने कहाः कल की कल पर छोड़ो, अभी तो हमको धुआं चाहिए। अब बचें या मरें, लेकिन मरेंगे तो भी कम से कम धुआं पीते हुए मरेंगे, यह तो राहत रहेगी। अब हम रुक नहीं सकते। वे जहाज की रस्सियां काट कर पी गए। जहाज मुसीबत में पड़ गया। बड़ी मुश्किल से उस जहाज को लाया जा सका। क्योंकि जहाज के लोग ही रस्सियां चोरी से काट-काट कर पी रहे थे।
तो यह हमको हंसी आती है। और हमको हंसी इसलिए आती है कि शायद हमको ख्याल नहीं कि हम भी बहुत सी ऐसी आदतों के बीमार होंगे जिन पर दूसरों को भी ऐसी हंसी आए। यह हो सकता है कि आप सिगरेट न पीते हों इसलिए मजे से हंस रहे हों, सोचते हों कि बगल वाला अच्छा मुश्किल में पड़ गया जो पीता है। लेकिन आपकी भी ऐसी आदतें होंगी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सिगरेट पीते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
एक आदमी सुबह से बैठ कर भगवान के सामने घंटी बजाता है। सिगरेट पीने से कोई भिन्न आदत है? कोई फर्क है इसमें? कोई समझदारी है इसमें? कि आप एक घंटी बजा रहे हैं भगवान के सामने बैठे हुए? अगर थोड़ा निष्पक्ष होकर सोचेंगे तो हैरान हो जाएंगे--मैं यह कर क्या रहा हूं? इस घंटी बजाने से क्या संबंध? इससे क्या अर्थ? एक आदमी टीका लगा रहा है सुबह से। इसमें कोई अर्थ है? सिगरेट पीने से कोई भिन्न है बात? और टीका लगा कर समझ रहा है कि मैं धार्मिक हो गया। कम से कम सिगरेट पीने वाला यह तो नहीं समझता कि मैं धार्मिक हो गया। एक आदमी तिलक लगा लेता है, समझता है कि हम धार्मिक हो गए। एक आदमी जनेऊ बांधे हुए है, कमर से एक रस्सी बांधे हुए है, सोचता है कि हम धार्मिक हो गए। ये कोई भिन्न बातें हैं? अगर आपका जनेऊ तोड़ दिया जाए, तो ऐसा लगेगा जैसे प्राण निकल गए।
एक साधु से मैं बात कर रहा था। वे मुंह पर पट्टी बांधे हुए थे। मैंने उनकी पट्टी खींच ली। वे ऐसे घबड़ा गए कि जैसे मैंने उनकी आत्मा ले ली हो। मैंने उनसे कहाः हद्द हो गई! आप तो कहते हैं कि मैं शरीर नहीं, आत्मा हूं, और यह पट्टी के खींच लेने से आप इतने घबड़ा गए कि जैसे आपके प्राण निकल गए हों? यह पट्टी...
उन्होंने जल्दी से पट्टी वापस ली और बांध ली। जब तक उन्होंने बांध न ली, तब तक वे इतने बेचैन थे, बांध कर वे निश्चिंत हुए और मुझसे बोलेः आपने भी हद्द कर दी, एकदम से आपने खींच ही ली मेरी पट्टी!
यह सिगरेट पीने से कोई भिन्न बात है? इसमें कोई फर्क है?
जड़ता वही है। हमारा माइंड ईडियॉटिक है, मूढ़ है। और उस मूढ़ मन में ऐसी हमने हजार जड़ताएं इकट्ठी कर रखी हैं। इनको छोड़ना मुश्किल है।
तो मैं तो आपसे कह रहा हूं कि मौलिक चिंतन करो और हजारों साल की गुलामी यह है कि हमने चिंतन कभी किया ही नहीं। हम तो हमेशा विश्वास करते हैं। कोई कह दे, और हम मान लेंगे। कोई कह दे कि यह सच है, और हम मान लेंगे। और जितने जोर से कह दे, उतने जल्दी मान लेंगे। जितनी ताकत से घूंसा बजा कर कह दे, और जल्दी मान लेंगे। और कह दे कि मैं भगवान हूं, तो हम और भी जल्दी मान लेंगे, कि जब भगवान खुद ही कह रहा है, तो फिर शक करने का कोई कारण नहीं है। इसलिए जो आपको मनवाना चाहते हैं, वे जरूर ये घोषणाएं करते हैं कि मैं भगवान हूं। कोई कहता है कि मैं तीर्थंकर हूं। कोई कहता है कि मैं ईश्वर का पुत्र हूं। कोई कहता है, मैं... अभी जमीन पर तीन सौ आदमी हैं इस वक्त, जो यह कहते हैं कि हम भगवान हैं।
एक दफे तो एक मेले में मैं गया, तीन आदमी वहीं मौजूद थे, जिनको यह ख्याल है कि हम भगवान हैं। एक ने तो अपना नाम श्रीभगवान ही रख छोड़ा है। एक ही मेले में तीन थे! और एक ही साथ भगवान तीन हो नहीं सकते, इसलिए हर एक बाकी दो की निंदा कर रहा था कि वे झूठे हैं, असली मैं हूं। तीन सौ आदमी हैं अभी जमीन पर, जिनके दिमाग में यह खराबी है, वे समझते हैं कि हम भगवान हैं। और बाकी दो सौ निन्यानबे की वे निंदा करते हैं, सिवाय इसके कोई उनके पास काम भी नहीं है, क्योंकि वे सब गलत हैं।
एक दफा ऐसा हुआ, बगदाद में एक आदमी ने यह घोषणा कर दी कि मैं पैगंबर हूं। अब मुसलमान यह बर्दाश्त नहीं कर सकते। मोहम्मद के बाद किसी को वे पैगंबर होने देने की आज्ञा ही नहीं देते। असल में हर धर्म बंद कर देता है दरवाजा, नये पैगंबरों के लिए गुंजाइश नहीं छोड़ता। क्योंकि नये पैगंबर खतरनाक हो सकते हैं। महावीर चौबीसवें तीर्थंकर, अब उसके बाबत आगे पच्चीसवां तीर्थंकर अगर कोई कहे, तो जैनी उसके दुश्मन हो जाएंगे कि रोको इसको। पच्चीसवां नहीं हो सकता कोई। चौबीस, मामला खत्म। क्योंकि अगर पच्चीसवां कुछ गड़बड़ बातें कहने लगे, पच्चीसवां टाई बांधने लगे, तो फिर क्या करो? फिर इसको करो क्या? तो फिर महावीर से, जो नग्न रहे, उनके साथ इसका मेल कैसे बिठाओ? तो इसलिए झंझट में पड़ो ही मत। नये का दरवाजा बंद। तो मुसलमान भी नहीं मानते कि मोहम्मद के बाद किसी पैगंबर की जरूरत है। फिर जरूरत भी क्या? वे कहते हैं कि मोहम्मद ने सारी बात लाकर बता दी, अब आगे बताने को है क्या? सारी बात जो कहने योग्य थी, वह कह दी गई, तो अब दूसरे को कोई अमेंडमेंट तो लाना नहीं है, कोई सुधार तो करना नहीं है कि अब दूसरे को भेजें।
एक आदमी ने घोषणा कर दी कि मैं पैगंबर हूं। तो उसको बगदाद के खलीफा ने पकड़ कर बुलवाया और कहा कि यह पागलपन छोड़ दो, नहीं तो सिवाय हत्या के और कोई परिणाम न होगा। तो मैं तुम्हें एक दिन का मौका देता हूं। उसको जेल में बंद करवा दिया और कहाः कल सुबह मैं आऊंगा, तुम सोच लो ठीक से। नहीं तो सिवाय गर्दन कटने के कुछ नहीं होगा और। यह बात गलत है, और यह बात हम बर्दाश्त नहीं कर सकते कि कोई अपने को पैगंबर कहे। बस मोहम्मद आखिरी पैगंबर, अब आगे कोई पैगंबर नहीं है। एक है परमात्मा और एक है उसका रसूल मोहम्मद, अब कोई और दूसरा नहीं। बस हो गया काम समाप्त, कुरान में सब है जो चाहिए, अब कोई और नई-नई किताबें लाने की भगवान के यहां से जरूरत नहीं है।
उसको बंद कर दिया। सुबह बादशाह उससे मिलने गया, खलीफा। वह जंजीरों में बंधा हुआ एक खंभे के पास बैठा हुआ था। खलीफा ने उससे कहाः मित्र, कुछ सोचा? विचार किया?
वह हंसने लगा, उसने कहाः तुम बड़े पागल हो। तुम्हें यह पता नहीं कि पैगंबरों पर हमेशा मुसीबतें तो आती ही हैं। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि मैं पैगंबर नहीं हूं, इससे यही सिद्ध होता है कि मैं पैगंबर हूं। ये तो मुसीबतें हमेशा पहले भी पैगंबरों पर आती रही हैं, पैगंबरों को सताया जाना हमेशा होता रहा है। तो यह तो कसौटी है। और तुम जितना मुझे सताओगे, उतना ही यह सिद्ध होगा कि मैं पैगंबर हूं। और तुमने मेरी हत्या कर दी, तो बस, फिर तो काम बन गया। पैगंबरों की हत्याएं होती रही हैं। देखो, क्राइस्ट को सूली पर लटका दिया, और सुकरात को जहर पिला दिया। यह तो होता रहा है। तो तुम करो जो तुम्हें करना है, यह तो भगवान ने मुझसे पहले ही कह दिया था कि तुझे भेज रहा हूं, बड़ी मुसीबतें झेलनी पड़ेंगी। वह झेलना शुरू हो गया। बात पक्की हो रही है।
अब तो वह खलीफा बहुत हैरान हुआ! लेकिन तभी एक दूसरा आदमी, जो किसी दूसरे खंभे से बंधा था, खिलखिला कर हंसने लगा।
खलीफा ने पूछा कि तू क्यों हंस रहा है?
उस आदमी ने कहाः मैं इसलिए हंस रहा हूं कि मैं स्वयं परमात्मा हूं और मैं तुमसे कहता हूं कि यह आदमी झूठ बोल रहा है! इसको मैंने कभी भेजा ही नहीं; मोहम्मद के बाद मैंने किसी को भेजा ही नहीं!
वे इसलिए पकड़े गए थे सज्जन कि वे अपने ईश्वर होने की घोषणा कर रहे थे।
लेकिन कोई भी चिल्ला कर कह दे, हम विश्वास कर लेते हैं। हम विश्वास करने के आदी हो गए हैं। हमें कोई भी बात विश्वास करवाई जा सकती है। हमसे कोई भी बात कह दी जाए कि विश्वास करो, हम कर लेंगे। हमारा न तर्क उठेगा, न विचार उठेगा, न ख्याल उठेगा। यह एक-दो दिन की गुलामी नहीं है, यह हजारों साल की गुलामी है। और इस गुलामी के खिलाफ जब मैं आपसे कहता हूं, मौलिक चिंतन, तो आपको ऐसा लगता है कि यह तो बड़ी दूर की बात है, जैसे कोई आकाश पर चढ़ने की बात कहे।
लेकिन मैं आपसे विश्वास दिलाना चाहूं, निवेदन करना चाहूंः आपके भीतर हजारों साल की गुलामी के बाद भी वह ज्योति मौजूद है, जो मौलिक चिंतन कर सकती है। वह विवेक मौजूद है। क्योंकि उस विवेक को कोई गुलामी नष्ट नहीं कर सकती। बांध सकती है, नष्ट नहीं कर सकती। उस विवेक के चारों तरफ दीवाल खड़ी हो सकती है, लेकिन वह मर नहीं सकता। वह भीतर मौजूद है। और आप जिस दिन हिम्मत करेंगे, वह जाग सकता है।
और बड़े रहस्य की बात तो यह है कि कुछ बड़ी अजीब सी बात यह है, एक घर में हजारों साल से अंधेरा भरा हो, तो भी उस अंधेरे को मिटाने के लिए एक दीया हम आज जला लें, तो वह अंधेरा मिट जाएगा। वह अंधेरा यह नहीं कहेगा कि मैं हजार साल पुराना हूं इसलिए मैं जाऊंगा नहीं। एक दिन का अंधेरा, हजार साल का अंधेरा एक ही दीये से मिट जाता है।
तो हजारों साल की जड़ता है, लेकिन अगर विवेक की छोटी सी किरण भी जगाने का आप प्रयास करें, तो वह विलीन हो जाएगी और एक नये जीवन का जन्म हो सकता है।
इस संबंध में और बातें हैं और कुछ प्रश्न हैं, उनके संबंध में कल आपसे विचार करूंगा। अभी रात के लिए इतना ही।
अब हम रात के ध्यान के लिए बैठेंगे। तो थोड़ी सी दो बातें रात के ध्यान के संबंध में आपको समझा दूं, फिर हम ध्यान का प्रयोग करें।

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