सोमवार, 27 अगस्त 2018

जीवन की कला-(विविध)-प्रवचन-12

बहारवां-प्रवचन-(जीवन का आमूल परिवर्तन)

मेरे प्रिय आत्मन्!
जीवन तो सभी को मिलता है। लेकिन फिर भी जीवित बहुत थोड़े लोगों को कहा जा सकता है। अधिक लोग ऐसे ही जीते हैं कि जैसे वे जीते ही न हों। जीवन का न कोई अर्थ, ऐसे जीते हैं, जैसे मजबूरी में एक व्यर्थ बोझ उठाना पड़ रहा हो। ऐसे जीने को जीना कहना शब्दों के साथ खिलवाड़ करना है। जीने की संभावना सबको मिलती है लेकिन उस संभावना को वास्तविक रूप से बहुत थोड़े लोग जान पाते हैं। और जीवन के साथ हम जो करते हैं, अवसर तो जैसा मैं एक कहानी कहता हूं--एक सम्राट था और उसके तीन बेटे थे। वह चिंतित था कि इन तीनों में से किसको साम्राज्य सौंपू। कौन है इस योग्य जो साम्राज्य का मालिक बन सकेगा। तीनों एक जैसे थे। कैसे जानूं कि कौन योग्य है। उसने एक फकीर को पूछा। फकीर ने रास्ता बताया। और सम्राट ने संध्या को तीनों लड़कों को बुलाया और कहा कि एक हजार रुपये लो और बस कल तक एक हजार में जो भी सामान ला सको, लाकर महल को भर दो। बस केवल हजार रुपये खर्च करने हैं और महल अधिक से अधिक भर जाए। ऐसा आयोजन करें। कल संध्या मैं आऊंगा और तुम्हारी परीक्षा इसी से हो जाएगी कि तुममें से साम्राज्य का मालिक कौन बनेगा। जो सफल होगा वही सम्राट बनेगा। इसलिए सोच कर, समझ कर, इस कार्य को पूरा करो।

वे सब बड़े सोच में पड़ गए कि इतने रुपये में क्या हो सकता है। महल बड़ा था। हजार रुपये में क्या हो सकता है। शायद लाख रुपये होते तो कुछ सार्थक लायक हो भी सकता था। हजार रुपये तो उसके सजाने में ही खर्च हो जाएंगे। पहले लड़के ने बहुत चिंता की और रात भर सो न सका। दूसरे दिन भी बड़ा बेचैन था और दिन ढलता जा रहा था सांझ करीब बाती जाती थी। फिर क्या होगा? आखिर में वह इतना घबराया, इतना चिंतित और परेशान हो गया कि सोचा जाऊं मधुशाला और थोड़ी शराब पी लूं--तो शायद थोड़ी राहत मिले, चिंता से, और तब शायद कुछ कर सकूं। वह मधुशाला गया। उसने पहला प्याला तो स्वयं पिया और सोचा कि एक प्याली पीकर लौट आऊंगा। लेकिन एक प्याली पीकर कोई कभी उस द्वार से आज तक लौट न सका। पहली प्याली आदमी पीता है और फिर दूसरी प्याली जाम और फिर इसी तरह तीसरी प्याली...और फिर प्यालियों का जो सिलसिला चलता है, उसका उसको पता भी नहीं चलता कि कितनी शराब पीयी। उसने खूब शराब पी और बेहोश हो गया। बेहोश पड़ा देखकर उसे कुछ लोग उठा कर ले आए और महल की सीढ़ियों पर उसे छोड़ गए। जब सम्राट संध्या आया तो महल अंधकार से भरा था। द्वार पर ताले पड़े थे। और राजकुमार बेहोश सीढ़ियों पर पड़ा था। सम्राट ने उसे जगाया और उसने कहा कैसे पड़े हो यहां? उसने कहा कैसे रोकें, कहां से रोकें, तुम कौन हो?
उसके पिता ने कहा कि तुम पागल हो गए हो। मुझे भी स्मरण नहीं कर रहा कि मैं कौन हूं? मैं तेरा पिता हूं। वह हंसने लगा और कहने लगा--कैसा पिता, कौन पिता, मुझे कुछ भी याद नहीं पड़ता। फिर उसने आंखें बंद कर लीं और बेहोश हो गया। अधिक लोग इस मृत्यु की भांति जीवन जीते हैं और जीवन का अंतिम क्षण उनका अंधकार से भरा होता है और द्वार पर ताले पड़े होते हैं और अंदर अंधकार होता है। मौत अधिकतर लोगों को इस हालत में ही पाती है।
दूसरा राजकुमार भी बहुत चिंतित हुआ। बहुत सोचा और अंत में एक ही बात उसके खयाल में आ सकी कि हजार रुपये में ही महल को भरना है तो सिवाय कूड़े और कचरे के और कैसे महल भरा जा सकता था, तो उसने गांव से कचरा, जो गांव के बाहर फेंका जाता था, कचरे के मालिकों से प्रार्थना की कि सब कचरा महल में डाल दें। शाम होते-होते महल कचरे, कूड़े बदबू और गंदगी से भर गया। क्योंकि सामथ्र्य थी कम, शक्ति थी कम, रुपये की सीमा थी, इसलिए उतने रुपये में सिर्फ कचरा ही भरा जा सकता था। शाम तक महल कचरे की बदबू और गंदगी से भर गया। क्योंकि कचरा ही फेंका गया था। अतः शाम तक वह महल इतने दुर्गंध से भर गया कि रास्ते से गुजरना मुश्किल हो गया था। जो कचरे से भरा गया हो, उसमें दुर्गंध ही तो उठेगी। कचरे से कभी सुगंध नहीं उठ सकती। सम्राट महल के द्वार से गुजरा तो नाक दुर्गंध से भर गई और उसकी हिम्मत ही नहीं पड़ी द्वार को खोलने की। बेटा ने कहा कि हमने उतने रुपये में पूरा महल भर दिया है।
कचरे से कोना-कोना भरा हुआ है, इसलिए मेरी विजय निश्चित ही है। इतना कचरा! दुर्गंध, बदबू। राजकुमार ने कहा, महल भरने का था। सवाल यह कहां था किससे? महल भर दिया। जीवन को अधिक लोग उस कचरे से, कूड़े से भरे हुए जीते हैं, क्योंकि वे कहते हैं कि जीवन भरने का सवाल था तो भर दिया जीवन। फिर उनका जीवन एक दिन यात्रा बनता है जिसको वे स्वयं जीते हैं और उनके आस-पास जो हैं वे भी वैसे ही जीते हैं। हम एक दूसरे को दुख इसीलिए दे पाते हैं क्योंकि जीवन में इतना कचरा है कि सिवाय कचरा और कूड़े और दुर्गंध के और कुछ होता ही नहीं। जिसका हाथ पकड़ते हैं, और जिसका साथ पकड़ते हैं, उसका जीवन दुख भरने का संबंध बनता है। पति-पत्नी का जीवन दुख से भर देता है। पत्नी पति का, और पिता बेटा का जीवन दुख से भर देता है और बेटा पिता का जीवन दुख से भर देते हैं। इसी तरह एक मित्र पड़ोसी, राष्ट, एक जाति दूसरे जाति का जीवन दुख से भर देते हैं और हम सब एक ही काम में संलग्न होते हैं। कि एक दूसरे का जीवन को दुख से भर देते हैं। यह जो हमारे भीतर पड़ा हुआ है, वह है कचरा और गंदगी। तो कैसे संभव है कि इस गंदगी से प्रेम की भावना पैदा हो सकती है कि सुगंध के फूल खिल सकें और गीत संगीत पैदा हो। और जो पैदा होता है वह वही हो सकता है जो मेरे भीतर है। लेकिन कोई स्वप्न में भी इसे नहीं देखता। सोचता और एक दूसरे की तरफ देखता है और सोचता है कि दूसरे लोग दुख पैदा कर रहे हैं। और हरेक यही सोचता है कि दुख पैदा कर रहा है।
कौन दुख पैदा कर रहा है--प्रत्येक आदमी अपनी अनंत धारणा को जन्म देता है। क्योंकि जो जीवन है, वस्तुतः वह वही हो सकता है जो उसके भीतर है। कुछ दूसरे लोग इस दूसरे राजकुमार की तरह से जीवन व्यर्थ करते रहते हैं। कोई धन से भर लेता है जीवन को, और कोई यज्ञ से। और धन से भरना कचरे से भरना है, यश से भरना कचरे से भरना है। क्योंकि धन से जो भी अपने को भरेगा तो ख्याल किया जाए कि जितना ही धन इकट्ठा किया जाएगा, उसके चारों तरफ उतना ही दुख की अंध धारणाएं उसके सामने छा जाएंगी। धन के आसपास कोई दुर्गुण उसको नहीं दिखाई देंगे। इसलिए मैं कहता हूं कि धन कचरा है। अगर धन सचमुच धन होता तो उसके आस-पास से सुगंध पैदा होती। लेकिन धन के आसपास से दुर्गंध फैलती है। एक आदमी बड़ा होने लगता है तो पड़ोस के लोग ईष्र्या करने लगते हैं। एक आदमी धन के ऊपर बैठता है और अधिकतम आदमी की जिंदगी मृत्यु के ऊपर बैठनी शुरू हो जाती है। इसलिए धन कचरा ही होगा निश्चित, क्योंकि उससे कोई सुखी नहीं हो सकता। एक आदमी यश और पद कुछ भी हो, और जब वह आदमी यश और पद की यात्रा में संलग्न होता है तो न मालूम कितने लोगों के कंधों की सीढ़ियों उसे बनानी पड़ती हैं। और न मालूम कितने लोगों की उसे गर्दनें काटनी पड़ती हैं। बिना हिंसा के पद और यश की यात्रा कभी संभव ही नहीं है।
दूसरे मनुष्यों के साथ दुव्र्यवहार किए बिना कोई किसी यात्रा के पहुंच नहीं सकता है। जीसस क्राइस्ट कहते हैंः धन्य हैं वे लोग जो अंतिम घंटों तक में समर्थ होते हैं। बड़ी अजीब बात हुई। धन्य हैं वे लोग जो अंतिम खड़े हुए। लेकिन यश का और पद का यात्री कहता कि प्रथम खड़े हुए बिना मुझे चैन नहीं। जो अंतिम खड़ा होता है, वह जीवन को ईष्र्या, द्वेष और घृणा से नहीं डरता है। यहां तक कि उसमें खड़े होने में जो प्रतिस्पर्धा है, उससे मुक्त हो जाता है। लेकिन जो प्रथम होने की स्वांग से भरता है उसकी सारी आकांक्षाएं हिंसा में ले जाती हैं। और महत्वाकांक्षा में कोई अतिरिक्त अहिंसा नहीं है, कोई एंबीशन नहीं, एकमात्र हिंसा है। और जितना महत्वाकांक्षी व्यक्ति होगा उतना ज्यादा जीवन दुर्गंध से भरा हुआ होगा। इसलिए मैं कहता हूं कि पद और यश की यात्रा कचरे और कूड़े से भरने की जीवन की यात्रा है। और अधिक लोग इस जीवन को कचरे से भरते हैं, इसीलिए जो जगत इतना दुखी है, इसीलिए तो जीवन इतना पीड़ित है, इसीलिए तो एक-एक आदमी उदास और निराश है। लेकिन हमें यह याद भी नहीं है कि हमने कब से यह यात्राएं शुरू कर दी हैं।
पहले दिन एक छोटा सा बच्चा स्कूल में भर्ती होता है तो मां-बाप, शिक्षक, पड़ोसी सब उसके पीछे पड़ जाते हैं कि पहला आना जरूरी है। और शायद हमें पता नहीं है कि हम उसे जहर देते हैं और उसके जीवन को सारे कीचड़ से भरने की दौड़ करते हैं। जब वह प्रसंग खड़ा हो जाएगा उसके साथ, तो यह मत सोचो कि मुझे जो खुशी है कि वह इस बात की खुशी है कि वह पहला आ गया है, वह भ्रम है कि उसने उनतीस लड़कों को पीछे छोड़ दिया है। अगर एक क्लास में एक ही लड़का प्रथम आ जाए तो किस मां, बाप को खुशी नहीं होगी, और तीन हजार में हो जाए तो खुशी और बढ़ जाएगी। और फिर तीन करोड़ हो जाए तो फिर कहना ही क्या है और तीस करोड़ हो जाए तो राष्टपति हो जाएगा। राष्टपति होने की यह खुशी नहीं है कि आप राष्ट्रपति हो गए। राष्टपति होने की खुशी यह है कि चालीस करोड़ लोगों को पीछे छोड़ा जा रहा है, जो चिंता की ऊंची दौड़ है। इसलिए जितने हिंसक आदमी हैं उतनी पद्धति गहरी से गहरी यात्रा को संलग्न होता है और परिणामतः उसके, चूंकि सारे जीवन में दुर्गंध होती है, इसलिए मैं कहता हूं कि वह कचरा है। जीवन उससे आनंदित नहीं होता।
सम्राट तीसरे राजकुमार के भी द्वार पर पहुंचा। बहुत निराश और बहुत थका हुआ कि क्या तीनों पुत्र अयोग्य सिद्ध हो जाएंगे। वह बहुत डरा हुआ था। लेकिन उसे क्या पता था कि उसे यह सब घटना देखने को मिलेगी। पहुंचा और देखा घर सूना और शांत था। वहां कुछ भी भरा गया नहीं था। अंधेरी रात थी, दीये जरूर उस घर में जल रहे थे। हजार-हजार दीये जल रहे थे। सम्राट घर में गया। उसने कहा दीये किसने जलाने को कहा था। भवन को भरना था। राजकुमार ने कहा कि आंख हो तो देख सकते हैं कि भवन का कोना-कोना भर दिया गया है। एक तिल भी जगह नहीं जहां भवन खाली हो। सम्राट ने कहा कि मुझे तो कुछ दिखाई नहीं देता, भवन खाली है। उस राजकुमार ने कहा कि संभालो अपने साम्राज्य को, मुझे नहीं लेना है। लेकिन इतना कहे देता हूं कि देखते नहीं कि प्रकाश से भरा हुआ है। और प्रकाश बाहर दूर-दूर तक महल के बाहर पहुंच रहा है।
एक इंच भी जगह खाली नहीं जहां प्रकाश से सारा घर भर न दिया गया हो। सम्राट को पहे तो दिखाई नहीं पड़ा कि घर प्रकाश से भरा हुआ है। क्योंकि सम्राट का सारा जीवन कचरे और कूड़े की भांति भरा हुआ बीता था। क्योंकि उसे पता ही नहीं था कि प्रकाश से भी घर को भरा जा सकता है। इसलिए इस राजकुमार की तरफ कितने मनुष्य जीते हैं, जिनका जीवन प्रकाश से भरा हुआ है। और केवल वे ही लोग सारे जीवन को प्रकाश से भर देते हैं, केवल वे ही लोग जीवित कहे जाने के अधिकारी भी हैं, जो अपने जीवन को प्रकाश से भर पाते हैं। क्योंकि उस जीवन के प्रकाश में ही जीवन के नृत्य और जीवन के संगीत का पूरा अनुभव होता है। उस प्रकाश में ही जीवन के सारे रहस्य खुलते हैं। प्रकाश में जीवन कभी न कभी रूपांतरित हो जाता है। तब जीवन ही परमात्मा बन जाता है और किसी एक व्यक्ति का जीवन प्रकाश से भरता जाता है, तो दूसरों के अंधेरे रास्ते पर वे शूल बन जाते हैं। और जब एक एक घर में दिया जलता है तो सैकड़ों मील दूर तक प्रकाश पहुंच जाता है।
और न मालूम कितने लोगों को प्रकाश की यात्रा की प्रेरणा की याद संकल्पकारी बना देती है। प्रकाश से भरे हुए जीवन को मैं जीवन कहता हूं। ऐसे जीवन पाने के क्या सूत्र हैं? इन्हीं सूत्रों पर मैं कुछ आपसे बात करूंगा। क्या मार्ग हैं, क्या द्वार हैं, कैसे यह जीवन इतना आनंदित और अमृत इतना प्रकाश का अधिकारी और हकदार हो जाता है और एक एक व्यक्ति का हो सकता है। अगर दुनिया में एक भी आदमी का जीवन प्रकाश से भरा हुआ हो तो यह निश्चय हो गया कि हर दूसरे आदमी का जीवन प्रकाश से भर सकता है। जब एक मनुष्य के भीतर भर सकता है, तब हर प्रत्येक दूसरे मनुष्य से भर सकता है। क्योंकि मनुष्य और मनुष्य के बीच में मंदता और जड़ता है। एक एक बीज उसमें से अंकुरित होता है और वह फूल खिल जाता है, तो सब बीज हकदार हो गए कि हम क्यों अनखिले हैं, हम भी क्यों न अन्य फूलों से बढ़ जाएं। लेकिन कितने ऐसे लोग हैं जो इस तरह से उनके फूल खिल जाते हैं। शायद हमें इस जीवन के सूत्रों का ख्याल नहीं। यदि हम जिन्हें जीवन के सूत्र समझते हैं, वे हैं जीवन से उलटे रास्ते में ले जाने का। तीन छोटे सूत्र आपको स्मरण दिलाना चाहता हूं।
पहला सूत्र जीवन में सबसे आधारभूत क्या है? कौन सा सूत्र है जीवन में सबसे आधारभूत, इस बात की संभावना और इस बात की आशा और इस बात की निष्ठा की स्वीकृति है कि मैं भी प्रकाश से भर जाऊं। जिसको यह भी संभावना का ख्याल नहीं वह कैसे आने जीवन को प्रकाशित करेगा। मैं भी आनंद को उपलब्ध हो सकता हूं, इस बात का स्पष्ट बोध न हो, तो आनंद की खोज कैसे हो सकती है और हम सब लोग बचपन से ही निराश होने की रूढ़ियां विक्षिप्त किए जाते हैं। जो भी मिलेगा वही कहता है जीवन निरर्थक है, निराशा है, जीवन व्यर्थ है। मैं अभी एक महानगरी में था। और एक छोटी सी लड़की ने पूछा जिसकी उम्र मुश्किल से नौ वर्ष की थी। उसने मुझसे आकर पूछा कि जीवन से मुक्त होने का उपाय क्या है?
मैं तो बहुत हैरान हो गया। नौ वर्ष की लड़की पूछे कि जीवन से मुक्त होने के उपाय क्या हैं, नब्बे वर्ष का बूढ़ा पूछे तो समझ में भी आ सकता है, कैसे वह भी बहुत जो शोभा योग्य नहीं, क्योंकि नब्बे वर्ष का बूढ़ा भी पूछे जीवन से मुक्त होने का मार्ग क्या है? कि जीवन में बार-बार न आना पडे? तो वह इस बात का सबूत है कि उस आदमी ने नब्बे वर्ष गंवा दिए हैं और जीवन का अनुभव करने में असमर्थ रहा है। लेकिन नौ वर्ष का बच्चा पूछने लगे कि जीवन से मुक्त होने का उपाय क्या है। हमने उसके सारे व्यक्तित्व को, सारे जीवन को अंधकार से भर दिया। हमने उससे कहा कि जीवन की संभावनाओं की जड़ें कहां हैं?
जीवन की संभावनाओं की जड़ें कहां हैं? जीवन वहीं बनते हैं जिसकी आशा और जिसकी संभावना के संकल्प को लेकर हम यात्रा शुरू करते हैं।
जापान में कोई तीन सौ वर्ष पहले एक अदभुत घटना घटी। एक छोटे से राज्य पर एक बड़े राज्य ने हमला किया। राज्य इतना छोटा था और सैनिक इतने कम थे कि जो ना के बराबर थे। जीत की कोई उम्मीद न थी। लड़ना हारना ही था। सम्राट के सामने सेनापति ने जाकर कहा कि अब मैं क्या करूं? असमर्थ हूं--सैनिकों को युद्ध पर नहीं ले जा सकता। यह तो व्यर्थ ही उनको मृत्यु की गर्त में झोंकना है। दुश्मन दस गुना बड़ा है। हम कैसे मुकाबला कर सकते हैं। जीत असंभव है। सम्राट यह जानता था और डरा हुआ था कि सेनापति कहीं यही न कह दे। लेकिन सम्राट ही क्या कि बिना लड़े हार जाए, बहुत से लोग हैं, जो बिना लड़े ही हार जाते हैं। निराशा ही हरा देती है। हार की संभावना ही हार बन जाती है। सम्राट अभी डरा था और सोचता था कि क्या करूं? और सेनापति जब अहंकार करता है तो सम्राट ने वजीर से कहा कि मैं एक संन्यासी के पास चलता हूं और जब तक कोई समस्या मैंने उसे वैसा नहीं दिया जिसका समाधान उसने न किया हो। आप कृपा करें, उस संन्यासी तक मेरे साथ चलें और फिर कोई निर्णय लें। अंत में उस संन्यासी के पास गए। बूढ़ा वजीर था। उसने सारी बातें बताईं। उस संन्यासी ने सुना तो हंसने लगा और कहा कि यह सेनापति तो हार ही चुका, इसकी छुट्टी कर दें। इसकी तो कोई आवश्यकता ही नहीं थी। मैं इसकी जगह चला जाता हूं। सम्राट ने कहा कि आप? शायद आपको तलवार पकड़ना भी नहीं आता हो। आप युद्ध पर जाएंगे सेनापति की जगह। उस संन्यासी ने कहा कि युद्ध मैं जीतने के लिए नहीं जाता हूं लेकिन तलवार की कर्णधार मैं हूं। युद्ध वे ही जीतते हैं जो जीतने के खयाल से उद्यत होते हैं। तलवार पकड़ना आ सकता है। मैं जाता हूं। आप चिंता छोड़ दें। फिर आपने हारने का तो तय ही कर लिया है। एक मौका दें।
संन्यासी ने हाथ में तलवार और टुकड़ी ली और चल पड़ा। सैनिक घबड़ाए कि यह और भी पागलपन हो गया। सेनापति होता तो थोड़ी बहुत आशा भी थी, बहुत कम थी आशा, सौ में दस थी। लेकिन फिर भी सेनापति होता तो आशा थी। लेकिन उसकी जगह यह संन्यासी खुशी से घोड़ा हांके जा रहा है, इससे क्या होगा? यह क, ख, ग, भी नहीं जानता युद्ध का। लेकिन उन्हें यह पता नहीं था कि संन्यासी क्या जानता है? युद्ध न कभी युद्ध विद्या जानने से जीत गए और न कभी जीते जा सकते हैं। इसका मतलब कि संन्यासी और कुछ जानता था। फिर वह नगर के बाहर पहुंच गए। जहां नदी थी और उसके पार दुश्मन का खेमा खड़ा था। सैनिक थरथराने लगे। विशाल सेना थी। दूर-दूर तक जहां तक आंखें जाती थीं, उतनी थी दुश्मन की सेना। छोटी सी टुकड़ी यह क्या कर सकेगी? संन्यासी जाकर रुका एक मंदिर के पास और उसने कहा, इससे पहले कि इस युद्ध में कूदें, जरा इस मंदिर के देवता से पूछ लें कि हम हारेंगे कि जीतेंगे। मेरा इस देवता से पुराना नाता है, इसलिए हम हमेशा पूछ लिया करते हैं। सेना ने कहा कि देवता ने क्या उत्तर दिया आप तो जानेंगे, लेकिन हम लोग कैसे जानेंगे? कि देवता ने क्या कहा, तुम घबड़ाओ मत! तुम्हारे सामने ही पूछूंगा। उसने खूंटे से एक चमकता हुआ सोने का रुपया निकाला और कहा कि हे परमात्मा अगर हम जीतते हैं तो यह रुपया पृथ्वी पर सीधा गिरे और यदि यह सीधा गिरा तो याद रखें कि दुनिया की कोई ताकत नहीं, जो हमें हरा सकें। उसने
रुपया फेंका, सूरज की रोशनी में चमकता हुआ रुपया आकाश की ओर उठा। उन सैनिकों की आंखें एकटक वहीं लगी रह गईं, जैसे आंख बंद ही न हों, क्योंकि जीवन-मरण का सवाल था। वह रुपया गिरने लगा और वह रुपया पृथ्वी पर सीधा गिरा। उस संन्यासी ने रुपया उठाया और उन्हें दिखाया कि यह रुपया सीधा गिरा है। अब तुम हारना चाहो तब भी नहीं हार सकते। अब जीत अनिवार्य है और वे युद्ध में कूद पड़े। और दस दिन बाद वे युद्ध जीत कर लौटते हैं। फिर लौटने लगे तो सैनिक कहने लगे कि उस मंदिर के देवता को धन्यवाद तो दे दें। उन संन्यासी ने कहा कि छोड़ो उस देता को, यदि धन्यवाद देना है तो मुझे दो, देवता का इससे क्या संबंध है। सेना ने कहा कि क्या पागलपन की बातें करते हो? उसी देवता ने कहा था कि हम जीत कर लौटेंगे। उस संन्यासी ने कहा कि अब मैं तुझे कहे देता हूं उसने खीसे से रुपया निकाला और कहा कि देख लो यह रुपया दोनों तरफ से सीधा है। यह कैसा भी गिरता सीधा ही गिरता। वह दोनों तरफ से सीधा था। लेकिन आदमी ख्याल से गिरे, वह ख्याल ही आदमी की सबसे बड़ी कमजोरी है। और वह ख्याल लड़ने से मरने की लंबी यात्रा में अगर कोई हारने का ख्याल लेकर चलेगा तो जीवन में कभी सफल नहीं हो सकता। कोई संभावना नहीं है। मनुष्य की हार और जीत उसके प्राणों का प्रबलतम हार है।
एक और घटना मैं तुमसे कह दूं। रूस में एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक कुछ प्रयोग कर रहा था। वह एक यूनिवर्सिटी में गया। तुम्हारे जैसे पड़ते थे विद्यार्थी। वह एम. ए.के विद्यार्थियों की कक्षा में गया और कहा कि मैं एक प्रयोग कर रहा हूं। तीस विद्यार्थी थे। उनको दो टुकड़ों में तोड़ दिया। पंद्रह एक कमरे में और पंद्रह दूसरे कमरे में बिठा दिया और पंद्रह पहले कमरे के विद्यार्थियों के कमरे में जाकर बोर्ड पर एक सवाल लिखा और कहा कि यह सवाल इतना कठिन है कि शायद ही कोई तुममें से इसे हल कर सके, सपने में भी नहीं हल कर सकता। हल करना तो बहुत दूर एकाध-दो कदम इसकी ठीक विधि में कलम उठा सके, यह भी असंभव है। मेरी जानकारी में पृथ्वी पर दस-बारह गणितज्ञ हैं, जो इस सवाल को हल कर सकते हैं। क्या हुआ कि यह बात सुनकर विद्यार्थियों के मनोबल ढीले हो गए, उनके ज्ञान शिथिल हो गए। जब दस-बार गणितज्ञ इस पृथ्वी पर हैं, तो संभावना बहुत छोटी है। सबकी कलमें बंद हो गईं। उनमें से एक विद्यार्थी ने कहा कि फिर हमें यह हल करने को क्यों दिया जा रहा है। वैज्ञानिक ने कहा कि मैं जानूं कि क्या एम. ए. के विद्यार्थियों में भी इतनी प्रतिभा, बुद्धिमत्ता हो सकती है कि वे ठीक विधि में एकाध दो कदम ठीक हल कर सकें। पूरे की तो संभावना ही नहीं लेकिन तुम संभावना ही छोड़ दो। लेकिन अगर तुमने ठीक दिशा में काम किया तो बड़ा गुण होगा और बड़ी योग्यता होगी। मैं जांच करना चाहता हूं।
तुम कोशिश करो, शायद कोई, बहुत कमजोर तो नहीं लेकिन शायद कोई थोड़ा बहुत कर पाए। वह बार-बार दोहराने लगा कि उम्मीद नहीं है कि कोई हल कर पाए। उम्मीद नहीं यह सुझाव लड़कों के कान में बैठ गए। उन्होंने कलमें उठाईं लेकिन जानते हैं कि व्यर्थ है। उन्होंने चेष्टाएं कीं सवाल हल करने की दिशा में, लेकिन जानते हैं कि व्यर्थ है। सफल नहीं हो सकता। वह सवाल हल करने लगे और वह वैज्ञानिक दूसरी कक्षा में गया। उसने वही सवाल बोर्ड पर लिखा और उसने कहा कि यह सवाल इतना सरल है कि तुमसे नीचे की कक्षा के विद्यार्थी भी हल कर सकें। मैं यह भी कल्पना नहीं कर सकता कि तुममें से एक भी विद्यार्थी इसको हल करने में असमर्थ हो जाए। असंभव है। लेकिन तुम एम. ए. तक ऊंचे कक्षा तक आ भी गए हो। यह तो गणित के अ ब स जानने वाले भी हल कर सकते हैं। उसमें से एक विद्यार्थी ने कहा कि फिर हमें क्यों हल करने को दिया जा रहा है? उसने कहा कि मैं एक प्रयोग कर रहा हूं कि ऐसा भी संभव है, हालांकि यह संभव नहीं कि एम.ए. की कक्षा में थोड़ा भी भूल करें, इस सवाल में। इस सवाल में क्या है? मैं एक रिसर्च करता हूं, एक शोध करता हूं, शायद तुममें से कोई असमर्थ हो जाए, कोशिश करो, तुम थोड़ी कोशिश करके देखो आशा नहीं है कि कोई असफल हो जाए। लेकिन मैं इस खोज में हूं कि इतनी ऊंची कक्षा में भी इतना सरल सवाल हल नहीं हो सकता। सवाल वही था। विद्यार्थी उसी वर्ग और योग्यता के थे। लेकिन उनके आंख और कान बिलकुल जकड़ गए।
लेकिन एक को यह कहा गया कि यह सवाल इतना सरल है कि नीचे के कक्षा के विद्यार्थी भी हल कर सकते हैं और उनकी आत्मा पूरी आशा से भरी प्राण पूर्वक विश्वास था। क्या हुआ फल? पहले वर्ग के केवल दो विद्यार्थी हल कर पाए सवाल और तरह असफल हो गए। और दूसरी कक्षा में केवल एक विद्यार्थी नहीं कर पाया और पंद्रह विद्यार्थियों ने हल कर दिया। वैज्ञानिक ने हजारों प्रश्न इस तरह के किए और इस नतीजे पर पहुंचा कि आदमी जिस भावना को लेकर काम शुरू करता है सौ में से निन्यानबे वे मौके ऐसे बनते हैं कि वह उसके भाव को, उसकी पूर्णाहुति पर पहुंचा देते हैं। यह जीवन का पहला सूत्र मैं तुमसे कहता हूं कि जीवन को प्रारंभ करना अत्यंत आशा से भरे हुए हो। निराशा पास भी खड़ी न होने पाए। निराशा मौत है। निराशा तुम्हारे प्राणों के मध्य में होती है उसे जगह भी मत देना। उससे बड़ा शत्रु जीवन में और कोई भी नहीं हो सकता है। अगर जीवन में कोई भी संभावना जाग्रत बनानी है तो निराशा उसका आधार नहीं है। और आज पृथ्वी पूरी ही निराशा से भरी है। इसलिए जीवन पर इतना आघात हुआ और इतने कम लोग जीवित हैं।
और पृथ्वी रोज-रोज निराशा से भरती चली जाती है। हर पीढ़ी निराशा से भरती चली जा रही है। निराश प्राण निष्प्रम हो जाते हैं, इंपोटेंट हो जाते हैं। निराश व्यक्ति सब कुछ खो देता है, आत्महारा होता है और हम सब आत्महारा होते जा रहे हैं। लड़ने से पहले हमने हार सुनिश्चित मान लिया है। खोजने से पहले हमारे पैर रुकते हैं जन्म के साथ हम सिर्फ मरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जीवन में कुछ संपन्न करने की नहीं, जीवन में कुछ निर्मित करने की नहीं, जीवन में कुछ क्रिएटिव कुछ सृजन करने की नहीं, कि जीवन एक मूर्ति बन जाए, जीवन में एक सौंदर्य, जीवन में एक प्रकाश बन जाए, यह पहला सूत्र है।
दूसरा सूत्र अकेली आशा क्या हो सकती है? अकेली आशा कोई लेकर बैठ जाए, उससे क्या होगा। अकेली आशा क्या कर सकती है? अकेली आशा को लेकर कोई बैठ जाए तो वह सिर्फ सपने ही देख सकता है, सुंदर सपने देख सकता है और उसी सपने में ही खोया रहेगा। अकेली आशा क्या करेगी? अकेली आशा से क्या हो सकता है। आशा के बिना कुछ भी नहीं हो सकता, लेकिन अकेली आशा से भी कुछ नहीं हो सकता। आशा के पीछे, आशा के साथ, सातत्य चाहिए श्रम की, एक सतत श्रम की, अनवरत धारा चाहिए। सारा जीवन श्रम की साधना है।
और हमारा जीवन जैसे आज है, आलस्य की एक लंबी कहानी है। जहां हम समय को गुजारते हैं। जहां हम समय को व्यर्थ जाने देते हैं, जहां हम लोगों को कहते हैं टाइम पास कर रहे हैं, समय गुजार रहे हैं। हर आदमी समय गुजारता है। समय गुजारने वाला मनुष्य कभी कहीं पहुंच सकता है? समय गुजारने वाला अपने को ही गुजार रहा है। समय को कौन गुजारता है। हम नहीं थे, तब भी समय था। हम नहीं होते तब भी समय था। समय को कोई भी नहीं गुजार सकता है। सिर्फ हम ही गुजर जाएंगे। इसलिए मत कहिए कि टाइम को पास कर रहा हूं। जानना कि समय को गुजरना जीवन को गुजारना है। एक एक पल महत्वपूर्ण है और एक एक पल से जूझना महत्वपूर्ण है और एक एक पल में जो भी रस दिया है उसे प्रकट करना जरूरी है। एक एक पल बेकार न चला जाए, उसे जी लेना है, उसमें से पूरे प्राण को निचोड़ लेना है।
यह कहने को न रह जाए कि जिंदगी में आया था और समय और बह गया और मैं उसे जी नहीं पाया। लेकिन सारे जगत का जीवन दर्शन आलस्य का है। श्रम का नहीं। सारे जगत का जीवन-दर्शन जीवन को गुजार देने का है। जीवन एक उपभोग का नहीं, जीवन एक अवसर है और उसको निकाल लेना है। उसको कोई खयाल नहीं करता है। एक पत्थर पड़ा हो गौर वह पड़ा ही रहेगा तो वह पड़ा ही रहेगा करोड़ों वर्ष तक पत्थर की तरह ही, जब तक किसी कलाकार की छैनी और हथा.ैड़ी उस पर पड़ेगी नहीं। छैनी, हथौड़ी पड़ेगी और उस पत्थर के टुकड़े छिटकने लगेंगे और वह अनगढ़ पत्थर निश्चित ही एक मूर्ति में परिवर्तित हो जाएगा। लेकिन करोड़-करोड़ वर्ष प्रतीक्षा करनी पड़ेगी उस पत्थर को उठाने की, जो पत्थर को तोड़ने में संलग्न हो जाएगा तब पत्थर मूर्ति बनता है। जीवन भी प्रतीक्षा करता है उनकी, जो जीवन को तोड़ कर मूर्ति बनाने के लिए आबद्ध होते हैं। लेकिन हम सारे लोग एक अनगढ़ पत्थर की तरह जीवन गुजार देते हैं। पत्थर वैसे ही पड़ा रहता है और प्रतीक्षा करता है कि कोई आएगा और तोड़ेगा और मूर्ति प्रकट हो जाएगी। एक-एक जीवन अनगढ़ पत्थर है जो श्रम करता है और उससे एक सुंदर मूर्ति निकालने में समर्थ होता है। युवक मुझसे पूछते हैं स्कूलों में, कालेजों में, जीवन क्या है?
जीवन में अर्थ क्या है? जीवन में अर्थ बिलकुल नहीं है । जीवन में उतना ही अर्थ होता है जितना तुम पैदा करते हो। तो तुम यह मत पूछो कि जीवन का क्या अर्थ है? यह पूछो कि जीवन में अर्थ दृढ़तापूर्वक कैसे उपलब्ध हो सकता है? जीवन में अर्थ मिला हुआ, बना हुआ, रेडीमेड नहीं है। जीवन में अर्थ नहीं दिखाई पड़ता है। हर आदमी पूछता है कि जीवन में अर्थ क्या है? और जीवन में अर्थ नहीं दिखाई पड़ता है तब दार्शनिक कहते हैं कि जीवन अर्थ ही न है। निरर्थक है...। जैसे पश्चिम के लोग कहते हैं कि जीवन में कोई अर्थ नहीं है। अर्थहीन है, ये जैसी बैठी हुई हैं वीणा लिए हुए, और हम पूछें कि वीणा में अर्थ क्या है? वीणा में क्या अर्थ है? तार है? तंबूरा है? अर्थ क्या है। अर्थ उसको प्रकट होता है जो वर्षों तक वीणा के साथ श्रम करेगा। और तब वीणा, तार और तंबूरा नहीं रह जाएगी। वीणा एक अलौकिक संगीत के अवतरण का अवसर बन जाएगी।
मैंने सुना है कि एक घर में बहुत दिनों से एक वीणा रखी थी। न मालूम ब.ूढों के समय से रखी थी। घर के बच्चों को पता भी न था कि कौन उसे बजाता है। वह वीणा एक कोने में रखी थी। उस वीणा को कभी कोई बिल्ली या चूहा हिला देता है और उसके तार झनझना जाते हैं। रात आधी हो और तार झनझना जाते हैं तो घर के लोग कहते हैं कि इस वीणा को फेंको। रात नींद खराब कर दे रही है। कभी कोई बच्चा उसके तारों को छू देता है और तब घर के लोग कहते हैं कि वीणा एक डिस्टर्बेंस हो गई। क्या अर्थ है इस वीणा को घर में रखने का। घर में कूड़ा कर्कट इकट्ठा करने का। कभी गिर जाती है तो आवाज इधर कभी जाती है, कभी उधर जाती है। अलग करे इस वीणा को। फिर आखिर में उस घर में लोगों ने कहा कि अलग ही कर दो। और एकदम फेंक आए उसे कूड़े पर उसको। वीणा अर्थहीन थी उनके लिए। जीवन के साथ भी हम कुछ ऐसे ही करते हैं।
लेकिन उसी सांझ को एक भिखारी गुजरता था उस मार्ग से और उस वीणा को उठा कर बजाने लगा। और उस वक्त मंत्र-मुग्ध होकर उस भिखारी के पास घर के सब लोग खड़े हो गए और भीड़ कर दिए। सारा गांव वहां धीरे-धीरे जुट गया। और अंत में उस घर के लोगों ने कहा कि यह वीणा हमारी है, यह हमने ही फेंकी थी, हमें वापस दे दो। उस भिखारी ने कहा कि तुम कचरे में फेंक आए थे, अब वीणा तुम्हारी नहीं, वीणा हमारी है। जो वीणा को बजाना जानता है, वीणा की और कोई मालकियत नहीं होती है, बजाने की कुशलता और कला ही, वीणा की मालकियत है। जीवन भी उसी का है, जो जीवन को बजाना जानता है। जीवन मिल गया उससे कुछ भी नहीं मिल गया। उसे कैसे जीना, उस जीवन को, इस वीणा के उदाहरण से प्रकट हो सकता है। कैसे प्रतीक्षा करने से, राह देखने से, या कुछ श्रम करने से, श्रम पर तो खयाल ही नहीं रह गया। श्रम का कंसेप्ट श्रम की धारणा ही इस दुनिया से मिट गई।
हम एक ही खोज में लगे हैं कि श्रम से कैसे बच जाएं सारा विज्ञान एक खोज में लगा है कि आदमी का प्राण कैसे बच जाए। और आदमी खोज कर रहा है कि बिना श्रम के हम कैसे जीएं। निश्चित ही मैं कहता हूं कि पांच सौ वर्ष तक ऐसी ही स्थिति चलती रही तो सारी दुनिया एक ही नतीजे पर पहुंच जाएगी कि आत्म हत्या कर लेनी चाहिए, जीवन की गुंजाइश नहीं है। जीवन एक कचरा है। वीणा जैसे कूड़े और कचरे घर में फेंक देना चाहिए और आज मनुष्य करीब-करीब इस निष्कर्ष पर पहुंचने लगा है। पिछले पचास वर्षों में पश्चिम के बड़े-बड़े विचारकों के आत्म हत्याएं की हैं और उनसे पूछा गया कि आप क्यों मरने को इतने उत्सुक हैं? जिसने आत्म हत्याएं कीं, तो उसने एक पत्र लिखा मरने से पहले अपने एक मित्र के नाम कि तुम यह मत सोचना कि मैं दुखी था इसलिए मर रहा हूं, तुम यह मत सोचना कि मैं किसी कठिनाई में था, इसलिए मर रहा हूं। मैं मर इसलिए रहा हूं कि जीवन व्यर्थ था और तुम यह भी मत सोचना कि मैं कायर था इसलिए मर रहा हूं। मैं तुम से इसलिए कह जाता हूं कि तुम कायर हो इसीलिए जी रहे हो, नहीं तो कभी के मर जाते। युग यह कहता है कि जो जी रहे हैं, वे कायर हैं कावर्ड हैं। मरने की हिम्मत नहीं इसलिए जीते हैं। और उसकी बात थोड़ी दूर तक सच भी है। अगर जीवन व्यर्थ हो तो जीने की जरूरत क्या है? सिवाय कायरता कि और कौन जिलाएगा। या तो जीवन को सार्थक बनाओ, अन्यथा जीने के हक को खो देते हैं हम। किस मुंह से हम कह सकते हैं कि जीने के हम हकदार हैं। क्या हक है कि मैं जीऊंगा और पृथ्वी पर वजन बनूंगा। अगर मुझे कोई हक नहीं है कि विदा हो जाने का, अगर विदा नहीं हो जाना है, तो उस अर्थ को पैदा करने के लिए हमें संलग्न हो जाना--इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं है। या तो आत्महत्या इन दो के सिवाय कोई उपाय नहीं है। और जो युग जीवन को निर्मित करने की साधना श्रम छोड़ देता है, वह धीरे-धीरे सभी आत्म हत्याकारी होती चली जाती है। अभी मैं एक घंटे बोलूंगा और एक घंटे में साठ लोग आत्महत्या कर लेंगे। यानि प्रति बूढ़ों एक आदमी आत्महत्या करता है। और यह संख्या रोज-रोज बढ़ती ही जा रही है।
हजारों लोग रोज आत्महत्याएं करते हैं, क्या हो गया है उनको? एक घटना अजीब घट गई और जीवन अर्थहीन है। जीवन अर्थहीन होगा तो उसमें जीवन पैदा होता है श्रम से। और अर्थ मनुष्य का क्रिएशन है, उसका निर्माण है, अर्थ कहीं है नहीं। इसलिए तुम्हारे जीवन में उतना ही अर्थ होगा, जितना तुम अर्थ पैदा करने की तत्परता रखते हो। बुद्ध के जीवन में उतना ही अर्थ है, जितना उन्होंने श्रम किया, महावीर के जीवन में उतना ही अर्थ है जितना उन्होंने श्रम किया। तुम्हारे और मेरे जीवन में उतना ही अर्थ होगा, जितना तुम और हम रम करेंगे। इसलिए तुम यह मत पूछना कि जीवन में अर्थ क्या है? यह पूछना कि जीवन में श्रम कितना किया है? श्रम का पुरस्कार है अर्थ।
इसलिए मैं दूसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं कि जीवन एक सतत श्रम पाने की आवश्यकता है। एक क्षण भी खोना उचित नहीं। क्योंकि दूसरे क्षण को कोई भरोसा नहीं है।
मैं अभी एक गांव से गुजर रहा था। वर्षा हुई थी। एक नदी पर पानी भर गया था। और मुझे उसके कारण कुछ क्षण के लिए अपनी गाड़ी रोक देनी पड़ी। मेरे पीछे एक और कार आ रही थी। उसमें दो-चार लोग बैठे थे। मैं तो उन्हें नहीं जानता था, वे मुझे जानते होंगे। मैं बैठा था एक चट्टान पर गाड़ी से उतर कर। तो वे भी गाड़ी से उतरे और बैठ गए और बातचीत होने लगी। जब पानी उतरने लगा, तब वे चलने और चलते वक्त क्योंकि उनके पास बड़ी गाड़ी थी, और मेरी छोटी थी तो मैं दस मिनट बाद निकला, जब और पानी उतर गया उन्होंने कहा कि आपने जो बातें कहीं, वे बहुत ठीक कहीं। हम उस दिशा में कभी ठीक काम करेंगे। तब मैंने कहा कि कभी, तब यह कहो कि वह ठीक नहीं था, क्योंकि कभी कब आए? और बीच में कह क्या करें? वे कहने लगे लौट कर हम आपसे मिलेंगे। हमने कहा कि लौटकर, लौटकर मिलने का क्या भरोसा! हो सकता है कि हम दोनों की समाप्त हो जाएं, और मिलने की कोई संभावना न हो। चलते-चलते उनको मैंने एक कहानी कही।
मुझे पता भी न था कि कहानी एक सच्ची घटना बन जाएगी और प्रमाण बन जाएगा। मैंने उनसे कहा कि आप जाते हैं तो मैं एक छोटी-सी कहानी आपसे कह दूं। चीन में एक सम्राट ने अपने वजीर को पांच वर्ष की सजा दे दी। कुछ नाराजगी थी, कुछ भूल हो गई थी। लेकिन उस सम्राट को यह नियम था कि फांसी के एक दिन पहले सम्राट उसके पास जाता था और कहता था कि यदि तेरी कोई इच्छा या मर्जी हो तो वह पूरी कर लो। फिर यह तो सम्राट का अपना वजीर था और बड़ा प्यारा वजीर था। तो सम्राट एक दिन पहले गया और उनसे अपना घोड़ा कारागार के बाहर बांधा। खिड़कियों के बाहर घोड़ा दिखाई पड़ता था। सम्राट आया वजीर के पास। वजीर बड़ा हिम्मतवर आदमी था, लेकिन सम्राट को देखते ही उसके आंखों में झर-झर आंसू गिरने लगे।
सम्राट ने कहा तुम रोते हो। यह विश्वास के बाहर है। तुम्हारी आंखों में आंसू? तुम कभी मैदान में युद्ध के पीछे नहीं हटे, तुम कभी शेरों से जूझने से पीछे नहीं हटे, तुम मौत को देखकर डरते हो? उस वजीर ने कहा, मौत को देखकर मैं नहीं डर रहा हूं। मौत को देखकर कौन डरता है। तो किस बात की संभावना है, कहो। और पूरा कर लो। उसने कहा कि अब वह पूरा नहीं होगा। सम्राट ने कहा, फिर भी। मैं इसीलिए आया हूं। तो उसने कहा कि पच्चीस साल मेहनत करके एक सीक्रेट आर्ट सीखा, एक गुप्त कला सीखी--मैं घोड़े को आकाश में बढ़ना सिखा सकता हूं। लेकिन जिस जाति के घोड़े को उड़ना सिखाता, वह खोजता था, नहीं मिला और आज आप जिस जाति के घोड़े पर बैठ कर आए हैं। वह उसी जाति का घोड़ा है। सम्राट ने कहाः खैर, छोड़ो उस बात को। लेकिन कल सुबह मर जाना है।
सम्राट के मन में लोभ समाया। घोड़ा भी आकाश में उड़ सके, तो दुनिया में उस जैसा कोई सम्राट नहीं रह जाएगा। अगर घोड़ा आकाश में उड़ सके, तो युद्ध में कोई मुकाबला न रह जाए। छोड़ फिकर फांसी की। कितने दिन में घोड़ा आकाश में उड़ सकता है। उसने कहा, ज्यादा नहीं एक वर्ष लग जाएगा। बादशाह ने कहा कि घोड़ा एक वर्ष में आकाश में उड़ना सीख जाएगा तो भविष्य में न तू वजीर रह जाएगा, बल्कि आधे राज्य का मालिक हो जाएगा। और घोड़ा उड़ना न सीख सका तो समझ लेना कि फांसी हो जाएगी। वजीर घोड़े पर अपने घर बढ़ना लौट आया। पत्नी और बच्चे उसके रोते थे।
वजीर को लौटने देख कर उसकी पत्नी कहने लगी कि तुम लौट कैसे आए।उसने कहा कि मैंने सम्राट से कहा कि मैं घोड़े को उड़ना सिखा सकता हूं आकाश में। उसने कहा कि तुम घोड़े पर बैठना भी नहीं जानते, तुम आकाश में उसे उड़ा कैसे सकते हो? तुमने कब सीखा था? उसने कहा कि मैंने कभी नहीं सीखा था, लेकिन मुझे वर्ष भर की मोहलत मिल गई। उसकी पत्नी छाती पीट कर रोने लगी कि तुम पागल हो गए हो। यह वर्ष तुम्हारे हमारे मर जाने के बराबर है। वह दिन कब आएगा, जब तुम मर जाओगे। अगर मांगना ही था तो दस-पच्चीस वर्ष मांगते वर्ष भर क्यों मांगा। उसने कहा पागल तुझे समय का कुछ भी पता नहीं। कौन जाने वर्ष भर में घोड़ा मर जाए, मैं मर जाऊं, सम्राट मर जाए। वर्ष भर बहुत होता है। क्षण भर भी बहुत लंबा है। और घटना बड़ी अजीब है कि उस वर्ष घोड़ा भी मर गया, वजीर भी मर गया और सम्राट भी मर गया। तीनों ही मर गए। तो मैंने जाते वक्त उनसे कहा कि कल का क्या भरोसा? एक क्षण का भी भरोसा नहीं। जो करना है, वह अभी और यहीं...। लेकिन वे चल पड़े और मैं दस मिनट बाद निकला और जब मैं रास्ते में पहुंचा तो वे मुझे मरे हुए मिले।
मुझे उम्मीद नहीं कि ऐसा हो जाएगा। मेरे डरइवर ने कहा कि आपने कैसे कहानी कही। मैंने कहा कि ऐसी आशा हो सकती है। जीवन का एक-एक क्षण इतना मूल्यवान है और दूसरे क्षण का कोई भरोसा नहीं, इसलिए तुम यह मत सोचना कि कल, परसों, जो पोस्टपोनमेंट की भाषा में सोचता है, वह जीवन को खो देता है। आज और यहीं जीवन एक स्पंदन है। सतत श्रम एक अर्थ की खोज, एक इंक्वायरी, एक जिज्ञासा एक यात्रा। इसलिए बैठे-बैठे तुम जिंदगी को मत खो देना। जिंदगी को बताना है कि मौत के वक्त तुम कैसे जिंदगी को बता सकते हो कि जिंदगी तुम्हारी है। और जो जिंदगी को बनाने में और सोचने में समर्थ हो जाता है, हैरान होओगे तुम कि उसके लिए मौत समाप्त हो जाती है। मरते वक्त वह जानता है कि जो अर्थ उपलब्ध हुआ है, वह नहीं मर सकता है। वह मरते वक्त जानता है कि जो जीवन जाना है वह कोई मृत्यु नहीं। और इसलिए दूसरा सूत्र है--सतत श्रम।
और तीसरा सूत्र--और अंतिम सूत्र क्या है? किस बात की आशा करेंगे, किस बात पर श्रम करेंगे? तीसरा सूत्र है कि जीवन को बाहर मत खोजो। जो जीवन को बाहर खोजते हैं, वे कुछ भी जीवन को उपलब्ध नहीं कर पाते। खोजना जीवन को भीतर स्वयं में है, और अपने में है स्वयं, वहां जहां प्राणों का प्राण है, वहां जहां मेरे अस्तित्व के पल्लव उगते हैं, फूल आते हैं, जहां से श्वास चलती है, खून आता है, जहां से विचार जन्मते हैं, जहां से चेतना उठती है, वहां खोजना भीतर जड़ों में। स्वयं के भीतर। तो वह जीवन हो सकता है।
तीसरा सूत्र हैः खोजना भीतर स्वयं में।
और आज सारी पृथ्वी बाहर-बाहर खोज रही है। हमारी आंखें बाहर खोज रही हैं, हमारे हाथ बाहर खोज रहे हैं, हमारे प्राण बाहर खोज रहे हैं, हमारी बुद्धि बाहर खोज रही है, बाहर, बाहर, बाहर। हमारा सारा जीवन बाहर का एक जोड़ है। जब कि असली जीवन भीतर का जोड़ हो जाता है। भीतर क्या खोजा है तुमने? भीतर गए हो कभी? कभी कोई परिचय बनाए हो उससे कि तुम्हारे भीतर हो। शायद कभी नहीं बनाया होगा। तुम बनाओगे क्या? बूढ़े और वृद्धा भी जब भीतर की खोज की बात से भरते हैं तब भी बाहर मंदिर जाकर बैठ कर पूजा करते हैं। बूढ़े भी जब भीतर के ख्याल को भरते हैं तो बाहर से किताबें पढ़ते रहते हैं। गीता, कुरान और बाइबिल बूढ़े भी जब भीतर की यात्रा का खयाल करते हैं, तो भी बाहर की यात्रा चालू रखते हैं। मंदिर, तीर्थ, लेकिन भीतर न कोई मंदिर है, न कोई तीर्थ है, चर्च है। लेकिन भीतर की हमने कभी सोचा ही नहीं और उसका कोई पता ही नहीं। तो तीसरी बात तुमसे कहना चाहता हूं कि भीतर की यात्रा अंतर्यात्रा कैसे करोगे तुम?
बाहर की यात्रा के बहुत से उपाय हैं। बैलगाड़ी से लेकर राकेट तक। लेकिन भीतर की यात्रा के उपाय क्या हैं? किस वाहन पर सवारी करोगे? भीतर की सीढ़ियों के पास वे ही जा सकते हैं जो अपने जीवन को प्रकाश से भर पाते हैं और जिज्ञासा के साथ सतत जो श्रम करते हैं, वे ही उन सीढ़ियों तक पहुंचने का अंततः जिज्ञासा के साथ सतत श्रम ही भीतर का वाहन है। कभी चैबीस घंटे के लिए अकेले में बैठ जाइए और पूछते चले जाना कि मैं कौन हूं, मैं कौन हूं? सिर्फ इतना ही पूछते चले जाना कि मैं कौन हूं और सारे विचारों को छोड़ देना। सिर्फ सीखेंगे, उत्तर नहीं दे देना कि मैं आत्मा हूं, परमात्मा हूं, उत्तर बाहर से आएगा। और जब यह उत्तर आए कि मैं आत्मा हूं, परमात्मा हूं, तब जीवन पूर्ण और शांत हो जाएगा। और ऐसी शांति जिसे तुमने कभी जाना नहीं, ऐसी शांति जिससे तुम्हारा कोई परिचय भी नहीं, ऐसी शांति जो बिलकुल अजनबी है और वह शांति तुम्हें दबाती चली जाएगी और तुम पूछते चले जाओगे कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? और एक घड़ी आएगी कि प्रश्न बिलकुल मिट जाएगा और प्रश्न भी तुम्हें बाधा मालूम पड़ेगा। और वह इतनी घनीभूत होगी कि उससे तुम यह भी न पूछ सकोगे कि तुम कौन हो। और तुम जहां शत्रु हो जाओगे उस पथ पर, वह जो भगवान का मंदिर है, और वहां तुझे आंतरिक मौन जीवन की झलक, जीव के अंतरंग, जीवन की अमृत...।
तीन बात--आशा से भरे हुए श्रम के लिए दया और मैं कौन हूं, इसकी जिज्ञासा से भरे हुए जो आदमी यात्रा करता है, वह तब जीवन ही हो जाता है। उसका जीवन हमेशा प्रकाश तक पहुंच जाता है, उसका जीवन आत्मा और परमात्मा की खोज तक पहुंच जाता है। इसे मैं कहता हूं जीवन की शांति, इसे मैं कहता हूं जीवन का आनंद। परिवर्तन जीवन का आमूल परिवर्तन ट्रांसफार्मेशन आॅफ लाइफ। सारे धर्म का इतना ही सार है।

मेरी बातों को इतने ध्यानपूर्वक सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरा प्रणाम स्वीकार करें।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें