सोमवार, 27 अगस्त 2018

जीवन की कला-(विविध)-प्रवचन-13

तेरहवां-प्रवचन-(अहंकार का बोध)

........इसमें पत्थर का कोई हाथ न था। यह पत्थर का स्वभाव है। यह कांच का स्वभाव है। ये दोनों स्वभावतः टकराएं तो कांच चूर-चूर हो जाता है। इट जस्ट हेपंस। यह कोई करना नहीं है। कोई पत्थर उपाय नहीं करता कांच को चूर-चूर करने में। कांच बस चूर-चूर हो जाता है। यह कांच और पत्थर के स्वभाव के मिलने का सहज परिणाम है। इसमें पत्थर का कहीं भी कोई हाथ नहीं है। लेकिन कांच के टुकड़े क्या कहते और क्या इनकार करते हो गए थे चूर-चूर। इसलिए मान लेना पड़ा कि पत्थर ठीक ही कहता है। नीचे पड़े हुए पत्थरों की आंखों में और कांच के टुकड़ों में यह बात देखकर कि जो मैंने कहा है, वह स्वीकृत हो गया। पत्थर को स्वीकृति भी मिल गई। वह प्रमाणीभूत हो गया कि मैं हूं। फिर वह गिरा नीचे कालीन पर जहां और बहुमूल्य कालीन बिछे थे। गिरते ही उसने राहत की सांस ली और कहा मालूम होता है शायद इस भवन के लोग बड़े शिष्ट और संस्कारी हैं।

मेरे आने के पहले ही ज्ञात होता है कि खबर मिल गई। कालीन इत्यादि बिछा रखे हैं। पता भी न था लेकिन उस पत्थर ने जाना कि मेरे लिए कालीन बिछाने का आयोजन किया गया है। फिर भी बहुत कम उसने जाना। वह चाहता तो यह भी जान सकता था कि महल मेरे लिए निर्मित किए गए हैं, फिर भी कम था। वह यह भी मान सकता था कि महल में रहने वालों को सिर्फ महल की सुरक्षा के लिए छोड़ा गया है, ताकि जब मैं आऊं तो वे मेरे लिए व्यवस्था कर सकें। और कौन इनकार करता? और कोई इनकार करता भी तो पत्थर कहीं मानने को कभी राजी होते हैं?
महल का पहरेदार भागा। आवाज है कांच टूटा है पत्थर आया है। उसने पत्थर को उठाया हाथ में फेंक देने के लिए। लेकिन पत्थर ने कहा, धन्यवाद। हजार-हजार धन्यवाद। मालूम होता है भवन का मालिक हाथ में लेकर सम्मान प्रकट कर रहा है। कोई गलती तो नहीं कर रहा था वह पत्थर। आदमी क्या करता है? और आदमी क्या समझता है? उस पत्थर को फेंक दिया गया। और जब फेंक दिया गया उस पत्थर को, तो उसने यह नहीं समझा कि मैं फेंका जा रहा हूं, कौन ऐसे समझने की भूल करता है? उस पत्थर ने कहा संभालो अपने महल होंगे तुम्हारे महल बड़े, लेकिन कहां वह मजा? कहां वह आजादी पत्थरों के ढेर पर रहने का। मैं अपने घर वापस लौटता हूं।
मुझे मित्रों की याद आती है होम-सिकनेस मालूम होती है। जब दिल्ली से कोई साथी लौटता है तो यही तो कहता है कि बहुत याद आती थी आप सब की। इसलिए वापस चला आया। दिल्ली से फेंक दिया गया हूं। नहीं-नहीं, होम-सिकनेस मालूम होती थी। आप सबकी बहुत याद आती थी। होगी दिल्ली अच्छी। लेकिन कहां वह मजे काशी के? कहां मित्रों के साथ होना? कहां पत्थर का ढेर? और पत्थर का ढेर का मजा? उस पत्थर ने भी यही कहा कि कोई अड़चन है आपको? उस पर हंसते हैं आप। पूछना यह है कि अपने पर कब हंसेंगे। और उस पत्थर की कहानी आपकी मेरी, आदमी की कहानी से कुछ भिन्न है? अज्ञात शक्ति फेंक देती है हमें जीवन में । और हम कहते हैं मेरा जन्म। जैसे जन्म भी हमने लिया हो। जैसे जन्म में भी हमारा कोई कर्तव्य हो ।
जन्म के भी हम कर्ता हों। मेरा जन्म जैसे कोई जन्म से पहले किसी ने पूछा हो कि वहां जाना चाहते हैं, जन्म लेना चाहते हैं कि नहीं? न कोई पूछता? न कोई निर्णय है? मेरा कोई संबंध कोई अज्ञात हाथ जैसे सागर में लहरें उठा जाता है, कोई अज्ञात हाथ जैसे वृक्ष के पत्तों को हिलाता है, वैसे कोई अज्ञात जीवन की धारा मुझे फेंक देती है। और जब मैं फेंक दिया जाता हूं, तब मुझे पता चलता है कि मैं हूं। लेकिन मैं कहता हूं कि मेरा जन्म। और कोई एतराज नहीं करता। क्योंकि सभी लोग एक ही कुएं का पानी पीए हुए हैं। कोई नहीं कहता कि तुम्हारा जन्म कैसे है। कहता हूं, मेरा बचपन, मेरी जवानी, मेरा बुढ़ापा। जैसे मेरे कोई चेष्टा हो इस सबमें। बच्चे वैसे ही जवान होते हैं जैसे बीच से अंकुर फूटता है। बच्चों से जवानी वैसे ही निकलती है जैसे वृक्ष में पत्ते आते हैं। फूल आते हैं। ये घटनाएं हो रही हैं। आप कर नहीं रहे हैं। मत कहिए--मेरी जवानी। लेकिन यह तो दूर की बात है। हम तो यहां तक कहते हैं कि मैं श्वास ले रहा हूं।
अदभुत है आदमी भी? अगर आदमी श्वास ले रहा होता तब किसी आदमी की, मौत असंभव थी। मौत आ जाती द्वार पर बाहर बैठकर प्रतीक्षा करती, आप श्वास लिए ही चले जाते। क्या करती बेचारी लौट जाती। लेकिन हम जानते हैं श्वास हम ले नहीं रहे हैं, श्वास चल रही है। लेना हमारे हाथ में नहीं। श्वास बाहर गई और नहीं लौटी तो बस नहीं लौटी। हमारे हाथ में नहीं। सच तो यह है कि श्वास बाहर गई और नहीं लौटी तो हम भी नहीं हैं। उसी के साथ हम भी गए बाहर। और कहां गए? और किसी अज्ञात में खो गए ? जिसका हमें कुछ पता नहीं। लेकिन हम कहते हैं कि मैं श्वास ले रहा हूं। जीवन को हमने उसी भ्रम पर खड़ा किया है जिस भ्रम पर उस पत्थर ने यात्रा की थी। और उसी भ्रम से अहंकार पैदा होता है। कि मैं हूं, मैं कर रहा हूं मैं जी रहा हूं। इस सबका इकट्ठा, पूंजिभूत जब परिणाम होता है तो लगता है मैं हूं। अहंकार से मुक्ति की खोज में अहंकार के संगठन की प्रक्रिया को जान लेना जरूरी है। इसके जानते ही, इसे पहचानते ही अहंकार की छाया विलीन होने लगती है। उसके संगठित होने की बुनियाद खो जाती है। उसके संगठन का मूल-सूत्र, मूल कीमिया नष्ट हो जाती है। हम नहीं जानते हैं तो उसके संग्रह का कोई कारण नहीं।
इसलिए न तो अहंकार छोड़ना है, न पकड़ना है, न भरना है, न खाली करना है। अहंकार जानना है। अहंकार पहचानना है। अहंकार के बोध से जीवन को भरना है। यह मैं दूसरा सूत्र आपसे कह रहा हूं। अहंकार जानने से विसर्जित होता है। अहंकार का ज्ञान अहंकार की मृत्यु है। वह मरा हुआ ही है। उसमें कभी जीवन है ही नहीं, उस मृत्यु को हम पकड़े हुए हैं। इसलिए हम मरते हैं, जीते हैं, मालूम होते हैं। अहंकार गया तो मौत एक झूठ बन जाती है, असत्य हो जाती है। फिर जो ज्ञात होता है वह अमृत है। फिर जो ज्ञात होता है वह जीवन है। लेकिन कैसे हम इस अहंकार के प्रति परिपूर्ण रूप से जाग सकते हैं। उसकी चर्चा मैं कल आने वाले तीसरे सूत्र में करने वाला हूं।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरा प्रणाम स्वीकार करें।

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