Hsin Hsin Ming (शुन्य की किताब)--ओशो
(ओशो की अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद)
सूत्र:
यहां शून्यता? कहा शून्यता
लेकिन असीम ब्रह्मांड सदा तुम्हारी आंखों के सामने रहता है
असीम रूप से बड़ा, असीम रूप से छोटा;
असीम रूप से बड़ा, असीम रूप से छोटा;
कोई भेद नहीं है
क्योंकि सभी परिभाषाएं तिरोहित हो गई हैं
और कोई सीमाएं दिखाई नहीं देतीं।
होने और न होने के साथ भी ऐसा है।
उन संदेहों और तर्कों में समय को मत गंवाओ
जिनका इसके साथ कोई संबंध नहीं है।
एक वस्तु, सारी वस्तुएं
बिना किसी भेदभाव के एक- दूसरे में गति करती हैं और
घुल- मिल जाती हैं।
घुल- मिल जाती हैं।
इस बोध में जीना अपूर्णता के विषय में चिंतारहित होना है।
इस आस्था में जीना अद्वैत का मार्ग है
इस आस्था में जीना अद्वैत का मार्ग है
क्योंकि अद्वैत व्यक्ति वह है जिसके पास श्रद्धावान मन है।
अनेक शब्द।
मार्ग भाषा के पार है
मनुष्य शब्दों प्रतीकों भाषा के कारण भटक गया है। तुम वास्तविकता में नहीं, भाषाजनित स्वप्न में खो गए हो- क्योंकि वास्तविकता सदा तुम्हारे सामने है लेकिन तुम सदा वास्तविकता के सामने नहीं होते हो। तुम कहीं और ही होते हो हमेशा कहीं और क्योंकि तुम मन हो और मन का अर्थ है कोई जो भटक गया है।
मन का अर्थ है अब तुम उसको नहीं देख रहे हो जो है तुम उसके विषय में सोच रहे हो। ' विषय में ' समस्या है, ' विषय में ' वास्तविकता को चूकने का उपाय है। दर्शनशास्त्र वास्तविकता को चूक जाने का उपाय है। जिस क्षण तुम उसके बारे में सोचते हो, तो तुम्हारा लक्ष्य तक कभी पहुंचना न हो पाएगा।
चिंतन क्या है? - वह विकल्प है। अगर तुम प्रेम को जानते हो, तो उसके बारे में कभी सोचते नहीं हो। उसके विषय में सोचने की आवश्यकता नहीं है। अगर तुम प्रेम को नहीं जानते तो तुम उसके बारे में सोचते हो- वास्तव में, तुम किसी और के बारे में सोचते नहीं हो। तुम चिंतन के माध्यम से प्रेम को कैसे जान सकते हो? -क्योंकि वह अस्तित्वगत अनुभव है। वह कोई सिद्धांत नहीं है वह कोई अनुमान नहीं है। उसे जानने के लिए, तुम्हें वही होना पड़ता है।
मन उन चीजों के बारे में क्यों सोचता है जिनका अनुभव नहीं हुआ है? –क्योंकि यह एक विकल्प है। पूरे प्राण उसकी आवश्यकता को अनुभव करते हैं, तो क्या किया जाए? सिर्फ उसके बारे में सोचने से तुम्हें थोड़ी राहत मिलती है जैसे कि कुछ घट रहा है, जैसे कि तुम उसे अनुभव कर रहे हो। वह स्वप्न में घटता है वह तब घटता है जब तुम जाग रहे होते हो- क्योंकि मन वही रहता है चाहे तुम सो रहे हो या जाग रहे हो।
सभी स्वप्न विकल्प हैं, सभी सोच-विचार भी क्योंकि सोच-विचार जाग्रत अवस्था के स्वप्न हैं! स्वप्न निद्रावस्था में सोच-विचार है। उनमें गुणात्मक भेद नहीं है उनकी प्रक्रिया समान है। अगर तुम स्वप्न की प्रक्रिया को समझ सको, तो तुम विचार- प्रक्रिया को भी समझ सकोगे।
स्वप्न देखना और भी आदिम है इसलिए अधिक सहज है। सोच-विचार अधिक जटिल है, अधिक विकसित है, इसलिए उसके भीतर अंत तक पहुंचना अधिक कठिन है। और जब भी तुम किसी चीज के भीतर गहराई तक जाना चाहते हो तो बेहतर है कि तुम उसके सरलतम रूप से उसमें प्रवेश करो।
अगर तुमने एक दिन पहले भोजन नहीं किया है तो रात में तुम्हें भोजन के सपने आएंगे तुम्हें किसी सम्राट ने आमंत्रित किया है तुम स्वादिष्ट भोजन खा रहे हो अगर तुम्हें कामवासना की भूख है तो तुम्हें कामवासना का स्वप्न आएगा। अगर तुम्हें पद- प्रतिष्ठा की भूख है, तुम्हें उसके विकल्प के अनुकूल स्वप्न आएगा कि तुम सिकंदर या नेपोलियन या हिटलर हो गए हो, तुम सारे संसार पर राज्य करते हो।
स्वप्न हमेशा उस चीज के बारे आता है जिसका तुम्हें जाग्रत अवस्था में अभाव हो जिसे तुम दिन के समय चूक गए हो, वह सपने में आता है। अगर तुम दिन के समय कुछ नहीं चूकते, तो स्वप्न नहीं आएगा। जो व्यक्ति पूरी तरह संतुष्ट है वह स्वप्न नहीं देखेगा। इसीलिए बुद्धपूरूष कभी स्वप्न नहीं देखते। अगर वे चाहें तो भी नहीं देख सकते क्योंकि सब पूरा हो गया है और समाप्त हो गया है, मन में कुछ अटका हुआ नहीं है।
सपना एक मदहोशी है कुछ अधूरा पूरा होने की कोशिश करता रहता है। और इच्छाएं ऐसी हैं कि तुम उन्हें कभी पूरा नहीं कर सकते, वे पैदा ही होती जाती हैं और-और बड़ी होती जाती हैं। तुम जो कुछ भी करो, कुछ न कुछ कमी अवश्य रह जाती है। उस कमी को कौन भरेगा? स्वप्न उस कमी को भरता है।
तुमने उपवास रखा तुम्हारे भीतर एक गड़ा बन गया है। उस गड्डे को ढोना असुविधापूर्ण है, इसलिए रात को स्वप्नों में तुम खाते हो। मन ने तुम्हें धोखा दिया है, वह खाना वास्तविक नहीं है वह तुम्हारे भीतर रक्त नहीं बन सकता, तुम स्वप्न को पचा नहीं सकते तुम उसके सहारे जी नहीं सकते। तो वह क्या करने वाला है? एक बात : वह अच्छी नींद लाने में सहायक हो सकता है, वह नींद के लिए सहायक है।
अगर स्वप्न न हो और तुम्हारी इच्छाएं अधूरी हों, तुम बिलकुल सो नहीं पाओगे, कई बार नींद टूट जाएगी। तुम्हें भूख लगी हो; तुम कैसे सो पाओगे? लेकिन सपना तुम्हें झूठा समाधान देता है ' कि तुमने खा लिया है, स्वादिष्ट भोजन कर लिया है, अब सो जाओ।
और तुम विश्वास कर लेते हो, क्योंकि यह जानने का कोई उपाय नहीं है कि वह सच है या झूठ। और तुम इतनी गहरी नींद में इतनी बेहोशी में सोए हो, तुम कैसे जान सकते हो कि वह सच है या झूठ? क्योंकि किसी भी चीज की सच्चाई को होश में ही जाना जा सकता है और तुम होश में नहीं हो। और फिर इसके अतिरिक्त स्वप्न सुंदर है, वह गहन आवश्यकता को पूरा करता है। इसलिए उसकी चिंता क्यों करें? इस बात की खोज करने की क्या आवश्यकता है कि वह सत्य है या असत्य?
जब भी तुम प्रसन्न होते हो तब कभी यह जानने का प्रयत्न नहीं करते कि वह सच है या नहीं। तुम चाहोगे कि वह सत्य हो क्योंकि वह इच्छा की पूर्ति है। और उसके बारे में सोचने की कोशिश भी खतरनाक है - हो सकता है वह झूठ सिद्ध हो, फिर क्या करें? इसलिए बेहतर है कि आंखें ही न खोलें। सपना सुंदर है नींद ठीक है क्यों न आराम करें?
रात को अगर तुम्हें शौचालय जाने की जरूरत महसूस हो, तो तुरंत एक सपना आता है तुम शौचालय में हो। इस तरह सपना तुम्हारी नींद की रक्षा करता है, नहीं तो तुम्हें जाना ही पड़ेगा। मूत्राशय भर जाता है और तुम बेचैन हो जाते हो और तुम्हें शौचालय जाना ही पड़ेगा।
लेकिन सपना सुरक्षा देता है, सपना कहता है हां ' यह शौचालय है, तुमने अपना बोझ उतार दिया है। अब सो जाओ। ' मूत्राशय भरा ही रहता है, बेचैनी बनी ही रहती है, लेकिन सपना एक सुखद परत चढ़ा देता है वह उसे सहन करना आसान बना देता है। वास्तव में स्थिति वही बनी रहती है, लेकिन सपना तुम्हें एक मिथ्या भ्रम देता है कि वास्तविकता बदल गई है।
तो स्वप्न का गहन अर्थ क्या है? गहन अर्थ है कि वास्तविकता अपने में बहुत कठोर है, तुम उसे सहन नहीं कर सकते। वास्तविकता, अपनी नग्नता में बहुत कठोर है, तुम उसे सहन करने के लिए तैयार नहीं हो। स्वप्न अंतराल को भरता है, वह तुम्हें एक ऐसी वास्तविकता देता है जिसे तुम सहन कर सकते हो। मन के द्वारा तुम्हें वास्तविकता इस प्रकार दी जाती है कि तुम उसके साथ समायोजित हो सकते हो।
जितना तुम विकसित होते तो उतना ही सपने देखना कम हो जाएगा, क्योंकि अब समायोजित होने की कोई समस्या न होगी। जितना अधिक तुम्हारा विकास होता है, उतने ही कम स्वप्न। अगर तुम सजगता में पूर्ण रूप से विकसित होते हो, स्वप्न समाप्त हो जाते हैं क्योंकि जब तुम, पूर्ण रूप से होश में हो, तुम वास्तविकता को बदलना नहीं चाहते। तुम बस उसके साथ एक हो जाते हो। तुम उसके साथ संघर्ष नहीं करते, क्योंकि पूर्ण रूप से सजग होकर तुम यह समझ जाते हो कि यथार्थ को बदला नहीं जा सकता है। वह सब जो बदला जा सकता है, वह है तुम्हारी मनोवृत्ति, तुम्हारा मन- वास्तविक वैसा ही रहेगा।
तुम वास्तविकता को नहीं बदल सकते, तुम मन की इस झूठी प्रक्रिया को बदल सकते हो। साधारणतया हम वास्तविकता को बदलने की कोशिश कर रहे हैं ताकि वास्तविकता हमारे साथ समायोजित हो जाए। धार्मिक व्यक्ति वह है जिसने इस मूढ़तापूर्ण प्रयास को छोड़ दिया है। अब वह स्वयं को समायोजित करने के लिए वास्तविकता को बदलने की कोशिश नहीं कर रहा है, क्योंकि वह मूर्खता है। पूर्ण अंश के साथ ठीक तरह से समायोजित नहीं हो सकता है, और पूर्ण किसी भी तरह अंश का अनुसरण नहीं कर सकता; अंश को पूर्ण का अनुसरण करना पड़ता है।
तुम वास्तविकता को नहीं बदल सकते, तुम मन की इस झूठी प्रक्रिया को बदल सकते हो। साधारणतया हम वास्तविकता को बदलने की कोशिश कर रहे हैं ताकि वास्तविकता हमारे साथ समायोजित हो जाए। धार्मिक व्यक्ति वह है जिसने इस मूढ़तापूर्ण प्रयास को छोड़ दिया है। अब वह स्वयं को समायोजित करने के लिए वास्तविकता को बदलने की कोशिश नहीं कर रहा है, क्योंकि वह मूर्खता है। पूर्ण अंश के साथ ठीक तरह से समायोजित नहीं हो सकता है, और पूर्ण किसी भी तरह अंश का अनुसरण नहीं कर सकता; अंश को पूर्ण का अनुसरण करना पड़ता है।
मेरे हाथ को मेरे जैविक शरीर का, मेरे संपूर्ण शरीर का अनुसरण करना पड़ता है; मेरा शरीर हाथ का अनुसरण नहीं कर सकता, यह असंभव है। अंश बहुत छोटा है। इस विराट वास्तविकता के सामने तुम कौन हो? तुम कैसे इस वास्तविकता को अपने अनुसार ढाल सकते हो?
यह अहंकार है जो कहता है ' कोशिश करते जाओ- एक न एक दिन वास्तविकता को तुम्हारे अनुकूल होना ही पड़ेगा। ' फिर तुम चिंता के बोझ में दब जाते हो, क्योंकि ऐसा होनेवाला नहीं है। चीजों की प्रकृति ऐसी है कि ऐसा हो नहीं सकता बूँद सागर को बदलने की चेष्टा कर रही है, बूंद अपने विचारों से सागर को प्रभावित करने का प्रयत्न कर रही है। तुम्हारा मन क्या है? इस महा सागर में एक बूंद भी नहीं है। और तुम क्या प्रयास कर रहे हो? तुम वास्तविकता को अपने पीछे चलाने की कोशिश कर रहे हो। सत्य तुम्हारी
परछाईं होना चाहिए। उन सभी सांसारिक लोगों की, उन सभी की जो सोचते हैं कि वे भौतिकवादी हैं, यही मूढ़ता है।
परछाईं होना चाहिए। उन सभी सांसारिक लोगों की, उन सभी की जो सोचते हैं कि वे भौतिकवादी हैं, यही मूढ़ता है।
फिर धार्मिक व्यक्ति क्या है, धार्मिक चित्त क्या है? धार्मिक व्यक्ति वह है जो समझ जाता है कि यह बिलकुल असंभव है, तुम दुरूह दीवाल से टकरा रहे हो। वहां द्वार का होना संभव नहीं है- तुम्हें सिर्फ चोट लगेगी, तुम्हें सिर्फ पीड़ा होगी तुम्हें सिर्फ निराशा होगी, तुम केवल असफल होओगे। और कुछ भी संभव नहीं है। प्रत्येक अहंकार के साथ अंत में यही होता है आहत, पीड़ित, निराश, चिंतित- अंत में हर अहंकार के साथ ऐसा होता है। अहंकार दुख भोगता है अहंकार को ही सदा सूली पर चढ़ाया जाता है- उसकी
ही मूर्खता के कारण उसे सूली पर चढ़ाया जाता है।
ही मूर्खता के कारण उसे सूली पर चढ़ाया जाता है।
जब समझ प्रकट होती है, जब तुम तथ्य को देख पाते हो कि तुम. एक अंश हो असीम फैले हुए ब्रह्मांड के एक अत्यंत छोटे अंश हो, बस तुम मूर्ख बनने की चेष्टा नहीं करते हो। तुम बस भटकना बंद कर देते हो। बल्कि उसके विपरीत तुम एक नई यात्रा आरंभ करते हो तुम वास्तविकता के साथ स्वयं को समायोजित करने का प्रयत्न करते हो। जब तुम वास्तविकता के अनुकूल होने की कोशिश शुरू करते हो स्वप्न धीरे- धीरे बंद हो जाते हैं- क्योंकि यह संभव है यही एक संभावना है जो घट सकती है और वह घटती
है। जब वह घटती है स्वप्न समाप्त हो जाते हैं।
है। जब वह घटती है स्वप्न समाप्त हो जाते हैं।
जब तुम वास्तविकता को अपने अनुकूल बनाने का प्रयत्न कर रहे हो तुम एक विचारक बन जाओगे क्योंकि तुम्हें वास्तविकता को बलपूर्वक अपने अनुकूल बनाने के उपाय खोजने पड़ेंगे कौशल ढूंढने पड़ेंगे। हो सकता तुम एक महान वैज्ञानिक बन जाओ हो सकता है तुम एक महान गणितज्ञ एक महान दार्शनिक बन जाओ लेकिन तुम चिंता और पीड़ा से ग्रस्त हो जाओगे।
तुम मीरा की तरह नृत्य करते हुए या बुद्ध की तरह मौन या सोसान की तरह आनंदित नहीं हो सकते, नहीं क्योंकि उनका जीने का पूरा ढंग विपरीत है। वे संसार के साथ समायोजित हो जाते हैं वे उसके साथ एक हो जाते हैं वे उसके साथ बहते हैं वे उसमें बस छायाएं बन जाते हैं। वे लड़ाई नहीं करते हैं उनका अस्तित्व के साथ कोई संघर्ष या विवाद नहीं है। वे बस उस सबको जो है, ही कहते हैं। वे न कहने वाले लोग नहीं हैं वे हां कहने वाले हैं।
धार्मिक होने का यही अर्थ है ही कहने वाले बनो। सवाल यह नहीं है कि तुम ईश्वर में विश्वास करते हो या नहीं। बुद्ध ने कभी किसी परमात्मा में विश्वास नहीं किया लेकिन वे धार्मिक व्यक्ति हैं क्योंकि वे ही कहने वाले व्यक्ति हैं। तुम किसको हां कहते हो इससे कोई मतलब नहीं है तुम कहते हो हां- सारी बात ही बदल जाती है।
चाहे तुम चार सिर वाले या चार सौ सिर वाले देवता को दो हाथ या एक हजार हाथों वाले देवता को कहो, चाहे तुम हिंदू ईसाई शा मुसलमान ईश्वर को हां कहो, या तुम प्रकृति या भाग्य, नियति को ही कहो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम किसे संबोधित करते हो यह महत्वपूर्ण नहीं है। अगर तुम हां कहते हो अपनी ओर से समग्र रूप से हां कहते हो तुम धार्मिक हो जाते हो।
अगर तुम न कहते हो, तो उसका अर्थ है तुम संघर्ष जारी रखोगे। तुम धारा से लड़ोगे तुम नदी के विपरीत तैरोगे। तुम सोचते हो कि तुम ' ताओ ' से अधिक बुद्धिमान हो, तुम सोचते हो कि तुम अस्तित्व से अधिक महान हो। फिर निस्संदेह, स्वभावत: स्पष्ट रूप से तुम निराश होओगे क्योंकि बात यह नहीं है।
जैसे ही तुम हां कहते हो तुम्हारा जीवन दूसरे ही आयाम में विकसित होने लगता है। हां का आयाम धर्म का आयाम है। न का आयाम राजनीति विज्ञान और अन्य सभी का आयाम है।
रहस्यदर्शी वह है जो नदी के साथ बहता है वह उसे धकेलता नहीं। वह उसमें तैरता भी नहीं है, क्योंकि तैरना भी लड़ाई है- वह बस बहता है। उसका कोई लक्ष्य नहीं है, जहां पर उसे पहुंचना है, क्योंकि तुम कैसे लक्ष्य निर्धारित कर सकते हो? तुम कौन हो? तुम मंजिल कैसे तय कर सकते हो?
जब तुम स्वयं को नदी में छोड़ देते हो तो नदी बहती है, तुम उसके साथ बहते हो। नदी की मंजिल तुम्हारी मंजिल है। तुम यह भी चिंता नहीं करते कि वह कहां है- वह कहीं भी हो। तुम हां कहने के गूढ़ रहस्य को समझ गए हो। वास्तव में तुम जहां भी हो मंजिल पर ही हो क्योंकि हां ही मंजिल है। प्रश्न यह नहीं है कि तुम कहां पहुंचते हो, तुम जहां भी हो तुम हां कहो और वही मंजिल है।
अगर तुम न कहने के आदी हो तो तुम जहां भी हो वह यात्रा ही होगी, वह कभी मंजिल नहीं होगी। तुम जहां भी पहुंचोगे तुम्हारी न तुम्हारे साथ वहां पहुंच जाएगी। यदि तुम स्वर्ग में भी प्रवेश करोगे तो न तुम्हारे साथ पहुंच जाएगी। तुम उसे कहा छोड़ोने
जैसे तुम हो अगर तुम्हारा अभी वैसे ही परम सत्ता से मिलना हो जाए तो तुम न ही कहोगे क्योंकि तुम उसमें ही प्रशिक्षित हो। अचानक तुम हां कैसे कह सकते हो? अगर तुम्हारा परमात्मा से भी साक्षात्कार हो जाए, तो तुम न कहोगे। तुम अनेक त्रुटियां ढूंढ लोगे क्योंकि न कहने वाले मन के लिए कुछ भी पूर्ण रूप से सही नहीं हो सकता कुछ भी परिपूर्ण नहीं हो सकता। और ही कहने वाले मन के लिए कुछ भी त्रुटिपूर्ण नहीं होता। हां कहने वाले मन के लिए अपूर्णता की अपनी पूर्णता होती है।
यह बात परस्पर विरोधी प्रतीत होगी वह कहेगा, ' कितने सुंदर ढंग से अपूर्ण है। कितने परिपूर्ण रूप से अपूर्ण है!' उसके लिए अराजकता में भी सुव्यवस्था है। और पदार्थ में भी हां भीतर गहरे प्रवेश करती है और भगवत्ता को पा लेती है। फिर प्रत्येक चट्टान उस दिव्य से ओतप्रोत है, वह सर्वत्र है।
जो ही कह सकता है, वह उसे सब जगह पा लेगा और जो केवल न कह सकता है वह उसे कहीं भी नहीं पाएगा। यह तुम पर निर्भर है, यह उस पर निर्भर नहीं है।
एक समझ जो रूपांतरण लाती है वह है पूर्ण के साथ संघर्ष मत करो। पूरा प्रयत्न ही व्यर्थ है। और पूर्ण इसकी वजह से कष्ट नहीं पाएगा क्योंकि पूर्ण तुम्हारे साथ लड़ नहीं रहा है। अगर तुम्हें ऐसा प्रतीत होता भी हो कि पूर्ण तुमसे लड़ रहा है और तुम्हें पूरी तरह से परास्त कर विजय प्राप्त करने की चेष्टा कर रहा है तो तुम गलत हो। अगर तुम उसके विरुद्ध संघर्ष करते हो, तो तुम्हारा अपना संघर्ष ही प्रतिबिंबित होता है। पूर्ण तुमसे लड़ नहीं रहा है, उसने तुमसे लड़ाई के बारे में सोचा भी नहीं है। वह तुम्हारा स्वयं का ही मन प्रतिबिंबित होता है, और पूर्ण उसे ही प्रतिध्वनित करता है। तुम जो भी करते हो वही प्रतिबिंबित होता है वह दर्पण है।
अगर तुम संघर्ष का भाव लेकर जाते हो तो तुम्हें लगेगा कि पूर्ण जो तुम्हारे चारों ओर है तुव्हें कुचल डारनने की चेष्टा कर रहा है। प्रवाह के प्रतिकूल तैरने की कोशिश करो पूरी नदी तुम्हें नीचे की ओर धकेलती प्रतीत होती है जैसे कि पूरी नदी तुम्हें हराने के लिए ही है। लेकिन क्या नदी बस तुम्हें हराने के लिए ही अस्तित्व में है? हो सकता है नदी को तुम्हारे बारे में कुछ पता भी न हो। और जब तुम वहां नहीं थे तब भी वह वहां इसी तरह बह रही थी। और जब तुम वहां नहीं होओगे तब भी वह उसी तरह बहती रहेगी। वह उस तरह तुम्हारे कारण नहीं बह रही है। और अगर तुम्हें लगता है कि वह तुम्हारे विरुद्ध है, वह तुम्हारे ही कारण है- तुम प्रवाह के प्रतिकूल जाने की चेष्टा कर रहे हो।
एक बार ऐसा हुआ मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी बाढ़ आई नदी में गिर गई। पड़ोसी दौड़ते हुए उसके पास आए और कहा तुम्हारी पत्नी नदी में गिर गई है, और नदी में बाढ़ आई है और वह तेजी से बह रही है। जल्दी चलो!
नसरुद्दीन नदी की तरफ दौड़ा नदी में छलांग लगाई- धारा के विपरीत तैरने लगा। जो लोग पास खड़े थे और देख रहे थे उन्होंने कहा? यह क्या कर रहे हो तुम नसरुद्दीन?
नसरुद्दीन ने कहा मैं अपनी पत्नी को भलीभांति जानता हूं-क्योंकि वह हमेशा धारा के प्रतिकूल जाने की कोशिश करती है। वह धारा के साथ नहीं जा सकती है, वह असंभव है। तुम भले ही नदी को जानते हो मैं अपनी पत्नी को जानता हूं। इसलिए कोशिश मत करो...।
कुछ लोग ऐसे हैं जो हमेशा प्रवाह के विपरीत चलते हैं वे सब जगह हैं। और अपनी कोशिश के कारण उन्हें लगता है कि नदी उन्हें रौंद रही है उनसे संघर्ष कर रही है, उन्हें हराकर विजयी होने की कोशिश कर रही है।
पूर्ण तुम्हारे विरुद्ध नहीं है, हो नहीं सकता-पूर्ण तुम्हारी मां है। तुम पूर्ण से आते हो, तुम पूर्ण में विलीन हो जाओगे। पर्णू तुम्हारे विरुद्ध कैसे हो सकता है? वह बस तुम्हें प्रेम करता है। चाहे तुम धारा के प्रतिकूल चलो या अनुकूल चलो, उससे पूर्ण को कोई अंतर नहीं पड़ता हैं-लेकिन पर्यू केवल प्रेम के कारण धारा के प्रतिकूल प्रवाहित नहीं हो सकता है।
और स्मरण रहे, अगर वह धारा की उलटी दिशा में प्रवाहित होने लगे, तुम उसके विपरीत बहने लगोगे-क्योंकि सवाल यह नहीं है। सवाल तुम्हारे न कहने वाले मन का है, क्योंकि न के द्वारा अहंकार को बल मिलता है। जितना तुम न कहते हो उतना ही अहंकार शक्तिशाली अनुभव करता है; जितना तुम ही कहते हो, उतना ही अहंकार मिटता है। इसीलिए किसी भी बात के लिए, साधारण सी बात के लिए भी ही कहना अत्यधिक कठिन है।
बच्चा बाहर खेलना चाहता है और वह पिता से पूछता है क्या मैं खेलने के लिए बाहर जा सकता हूं? नहीं! इसमें ऐसी क्या बात है? न इतनी आसानी से क्यों आती है? ही इतनी मुश्किल क्यों है? - क्योंकि जब तुम संघर्ष करते हो तुम महसूस करते हो कि तुम हो। अन्यथा सब इतने सुंदर ढंग से समायोजित हो जाता है तुम महसूस रहीं कर सकते कि तुम हो।
अगर तुम हां कहते हो तो तुम वहां नहीं हो। जब एक सच्ची ही कही जाती है, तुम अनुपस्थित होते हो। तुम कैसे महसूस कर सकते हो? तुम केवल ' विरुद्ध' को अनुभव कर सकते हो और तब तुम शक्तिशाली अनुभव करते हो। न तुम्हें शक्ति देती है। और न तुम्हें कैसे शक्ति दे सकती है? क्योंकि न कहते ही तुम सारी शक्ति के स्रोत से टूट जाते हो। वह एक झूठा अहसास है वह एक बीमारी है, एक रोग है। कहो हां, और रूपांतरण घटित होना आरंभ हो जाता है।
आमतौर पर जब तक कि तुम हां कहने के लिए विवश न होओ तुम न ही कहते हो। जब भी तुम हां कहते हो, तुम्हें बहुत अच्छा नहीं लगता है- तुम्हें लगता है जैसे कि तुम हार गए हो, जैसे कि तुम निस्सहाय हो। जब भी तुम न कहते हो, तुम्हें अच्छा लगता है तुम जीत गए, तुमने किसी को फिर उसके ठिकाने लगा दिया है, तुमने न कह दी है तुम अधिक शक्तिशाली हो। न हिंसक है, न आक्रामक है। हां प्रार्थनापूर्ण है हां प्रार्थना है। चर्च और मस्जिद और मंदिर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है- जीवन बहुत बड़ा मंदिर है। तुम बस हां कहना प्रारंभ कर दो और तुम सब जगह प्रार्थनापूर्ण अनुभव करोगे क्योंकि सब जगह अहंकार अनुपस्थित होगा। जब अहंकार नहीं होता तब अचानक पूर्ण तुम्हारी ओर बहने लगता है। तुम बंद नहीं हो तुम खुले हो। तब पूर्ण की ओर से एक नई हवा आती है एक ऊर्जा-तरंग तुम्हारे भीतर प्रवेश करती है। फिर तुम प्रति क्षण नये, ताजे हो जाते हो।
इसलिए पहली बात ' मन सोच-विचार और स्वप्न द्वारा पूर्ति करता है, लेकिन वह कभी वास्तविक नहीं हो सकता। वह नकल ही बना रहता है। वह भले ही वास्तविक जैसा दिखाई दे लेकिन वह है नहीं- वह हो नहीं सकता है। एक प्रतीक एक भाषा का प्रतीक कैसे वास्तविक हो सकता है?
तुम्हें भूख लगी है और मैं रोटी के बारे में बात किए जा रहा हूं। तुम्हें प्यास लगी है और मैं पानी के बारे में बात किए जा रहा हूं- केवल बात ही नहीं, मैं तुम्हें उसका सर्वोत्तम वैज्ञानिक सूत्र भी देता हूं। या मैं तुम्हें स्पष्ट परिभाषा देता है या मैं तुम्हें बताता है ' चिंता न करो, पानी का अर्थ है एच. टू. ओ.। तुम सिर्फ दोहराते जाते हो एच. टू. ओ. एच. टू. ओ. उसे एक मंत्र, भावातीत ध्यान बना लो एच. टू ओ. एच. टू. ओ. एच. टू ओं. और सब-कुछ हो जाएगा; प्यास मिट जाएगी क्योंकि यही सूत्र है। '
एच. टू. ओ सूत्र हो सकता है) लेकिन तुम्हारी प्यास उसे सुनेगी नहीं। सारी दुनिया में यही हो रहा है। ओम ओम ओम दोहराते जाओ ओम भी एच. टू ओ. की भांति एक सूत्र है। क्योंकि हिंदुओं ने तीन ध्वनियों की खोज की अ उ म- वे मूल ध्वनियां हैं, इसलिए ओम में सभी संभावित ध्वनियां सम्मिलित हैं। इसलिए किसी और मंत्र की क्या आवश्यकता है? तुम केवल ओम-ओम दोहराओ और ध्वनियों के पूरे वर्ग की मूल की आवृत्ति हो जाती है। इसलिए अगर तुम्हारे पास मूल है उसे दोहराते जाओ फूल जल्दी ही उसका अनुसरण करेंगे।
न तो एच. टू. ओं. न ओम न इस तरह का और कुछ तुम्हारी अधिक मदद करेगा क्योंकि कौन इसको दोहराएगा? - मन ही उसे दोहराएगा। और वास्तविकता तुम्हें चारों ओर से घेरे है; उसके बारे में दोहराने की कोई आवश्यकता नहीं है उसके बारे में सोचने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम बस देखो बस अपनी आंखें खोलो और देखो : वह सब कहीं है! चमत्कार तो यह है कि तुम उसे कैसे चूक गए हो। जब तुम उसे पा लेते हो तब वह चमत्कार नहीं रहता है।
स्मरण रहे मैं यह कभी नहीं कहता कि बुद्ध चमत्कार हैं या सोसान चमत्कार हैं-तुम हो चमत्कार! क्योंकि उन्होंने जो भी पाया है वह इतनी सरल बात है कि सभी को उसे पा लेना चाहिए। इसमें क्या रहस्यात्मक है जिसकी बात की जाए? बुद्धपुरुष ने उस वास्तविकता को देखा है और वास्तविकता ठीक तुम्हारे सामने भी है। बुद्धत्व को इतनी बड़ी इतनी महान घटना क्यों कहें? कुछ भी नहीं! वह सरल है।
वास्तविकता उतनी ही तुम्हारे सामने है जितनी एक बुद्धपूरूष या एक भैंस के सामने है। चमत्कार तो तुम हो-कैसे तुम उसको चूक गए, और कैसे उसे चूकते चले जा रहे हो। वास्तव में तुमने कोई ऐसी युक्ति आविष्कृत कर ली है, और जो इतनी परिपूर्ण है कि तुम
जन्मों-जन्मों से उसे चूकते चले जा रहे हो। और वास्तविकता कुछ नहीं कर सकती है, वह
ठीक तुम्हारे सामने है और तुम उसे चूकते चले जा रहे हो। क्या तरकीब है? कैसे तुम उसे
उपलब्ध कर लेते हो? तुम यह जादू कैसे कर लेते हो?
जन्मों-जन्मों से उसे चूकते चले जा रहे हो। और वास्तविकता कुछ नहीं कर सकती है, वह
ठीक तुम्हारे सामने है और तुम उसे चूकते चले जा रहे हो। क्या तरकीब है? कैसे तुम उसे
उपलब्ध कर लेते हो? तुम यह जादू कैसे कर लेते हो?
जादू है ' बारे में '। यह ' बारे में ' शब्द जादू है। एक फूल है वहां, तुम उसके बारे में सोचना शुरू कर देते हो- अब वहां फूल नहीं है शब्दों ने मन को दूसरी ओर लगा दिया है। फिर एक झीना सा पर्दा तुम्हारे और फूल के बीच आ जाता है। फिर सब धुंधला और दुविधापूर्ण हो जाता है तब शब्द वास्तविकता से अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है, फिर प्रतीक उससे अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है जिसका वह प्रतीक है।
अल्लाह क्या है? - एक शब्द। ब्रह्म क्या है? -एक शब्द। परमेश्वर क्या है? - एक शब्द। और हिंदू और ईसाई और मुसलमान शब्द को लेकर लड़ रहे हैं, और कोई इस बात की चिंता नहीं करता कि ये तीनों शब्द उसी के प्रतीक हैं। प्रतीक अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है।
अगर तुम अल्लाह के विरुद्ध कुछ कहते हो, तो मुसलमान तुरंत लड़ने के लिए, मरने-मारने के लिए तैयार हो जाता है। लेकिन हिंदू हंसता रहेगा क्योंकि यह अल्लाह के विरुद्ध कहा जा रहा है अच्छा है। लेकिन वही बात ब्रह्म के विरुद्ध कहो, तो वह अपनी तलवार बाहर निकाल लेता है अब यह सहन नहीं हो सकता है। कैसी मूर्खता है! क्योंकि अल्लाह, या ब्रह्म या परमेश्वर... तीन हजार भाषाएं हैं इसलिए परमात्मा के लिए तीन हजार शब्द हैं।
प्रतीक जिस वस्तु को अभिव्यक्त करता है उसका ज्यादा महत्व नहीं रह गया है। गुलाब का महत्व नहीं है ' गुलाब ' शब्द महत्वपूर्ण है।
और मनुष्य शब्द से इतना आसक्त हो गया है शब्द से इतना आविष्ट हो गया है कि शब्द से प्रतिक्रियाएं हो सकती हैं। कोई ' नीबू ' का नाम ही लेता है तो तुम्हारे मुंह में पानी आ आता है। यह शब्द का आदी हो जाना है। हो सकता है नीबू भी इतना प्रभावकारी न हो भले ही नीबू टेबल पर रखा हो और तुम्हारे मुंह में पानी भी न आए। लेकिन कोई कहता है ' नीबू ' और तुम्हारे मुंह में पानी आ जाता है। शब्द वास्तविक से अधिक महत्वपूर्ण हो गया है-यही उपाय है- और जब तक तुम इस शब्द-आसक्ति को नहीं छोड़ते, तुम्हारा वास्तविकता से साक्षात्कार नहीं होगा। दूसरा कोई और अवरोध नहीं है।
बिलकुल भाषारहित हो जाओ और अचानक वास्तविकता वहां है- वह सदा से ही वहां है। अचानक तुम्हारी आखें स्पष्ट होती हैं; तुम्हें स्पष्टता उपलब्ध होती है और सब आलोकित हो जाता है। सभी ध्यान-विधियों की बस यही चेष्टा है कि भाषा को कैसे छोड़ा जाए। समाज को त्याग देने से कुछ नहीं होगा, क्योंकि बुनियादी तौर पर समाज भाषा के सिवाय और कुछ नहीं है।
इसीलिए पशुओं के समाज नहीं हैं क्योंकि भाषा नहीं है। जरा सोचो अगर तुम बोल न सकते, अगर तुम्हारे पास कोई भाषा न होती, तो समाज का अस्तित्व कैसे होता? असंभव! कौन तुम्हारी पत्नी होती? कौन तुम्हारा पति होता? कौन तुम्हारी मां होती और कौन तुम्हारा पिता होता?
बिना भाषा के सीमाएं संभव नहीं हैं। इसीलिए पशुओं के समाज नहीं हैं। और अगर कोई समाज है, उदाहरण के लिए चींटियों और मधुमक्खियों का तो तुम सोच सकते हो कि भाषा जरूर होगी। और अब वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि मधुमक्खियों की भाषा होती है- बहुत ही छोटी भाषा, केवल चार शब्दों की, लेकिन उनकी एक भाषा है। चींटियों की कोई भाषा जरूर होगी, उनका इतना व्यवस्थित समाज है, वह भाषा के बिना नहीं हो सकता।
समाज का अस्तित्व भाषा के कारण है। जैसे ही तुम भाषा से बाहर हो जाते हो, समाज मिट जाता है। हिमालय जाने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि अगर तुम अपनी भाषा साथ ले जाते हो तो भले ही तुम बाहर से अकेले होओ लेकिन भीतर समाज होगा। तुम मित्रों से बात कर रहे होओगे अपनी या दूसरों की पत्नी से प्रेम कर रहे होओगे खरीद-फरोख्त चल रही होगी। जो कुछ भी तुम यहां कर रहे थे वहां भी वही जारी रखोगे। एक ही हिमालय है और वह है अंतर-चेतना की एक अवस्था, जहां भाषा नहीं है। और यह संभव है- क्योंकि भाषा एक प्रशिक्षण है, वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है। तुम भाषा के बिना पैदा हुए थे। भाषा तुम्हें दी गई है, तुम उसे प्रकृति से लेकर नहीं आए हो। वह प्राकृतिक नहीं है, वह समाज का सह-उत्पाद है।
प्रसन्न होओ, क्योंकि उससे बाहर निकलने की संभावना है। अगर तुम उसे जन्म से ही लाए होते तो उससे बाहर निकलने का कोई उपाय न होता। लेकिन तब उसकी आवश्यकता भी न होती, क्योंकि तब वह ताओ का एक हिस्सा होती। वह ताओ का हिस्सा नहीं है, आदमी ने उसकी रचना की है। वह उपयोगी है उसका एक प्रयोजन है समाज भाषा के बिना नहीं हो सकता।
व्यक्ति को दिन में चौबीसों घंटे समाज का हिस्सा होने की जरूरत नहीं है। कुछ मिनटों के लिए भी अगर तुम समाज का हिस्सा नहीं हो अचानक तुम पूर्ण में लीन हो जाते हो और ताओ का अंश बन जाते हो। और तुम्हें लचीला होना चाहिए। जब तुम्हें समाज में जाना हो तब भाषा का प्रयोग करना चाहिए; जब तुम्हें समाज में न जाना हो तब तुम्हें भाषा को छोड़ देना चाहिए। भाषा का एक कृत्य, एक तकनीक की भांति उपयोग होना चाहिए। तुम्हें उसे मानसिक बाधा नहीं बनाना चाहिए यही सारी बात है।
सोसान भी भाषा का प्रयोग करता है। मैं भी भाषा का प्रयोग कर रहा हूं क्योंकि मैं तुम तक कुछ पहुंचाना चाहता हूं। लेकिन जब तुम नहीं होते, तब मैं भाषा में नहीं होता हूं। जब मुझे बोलना पड़ता है, मैं भाषा का प्रयोग करता हूं; जब तुम वहां नहीं होते, मैं भाषा के बिना होता हूं फिर भीतर शब्द नहीं घूमते। जब मैं संवाद करता हूं मैं समाज का हिस्सा बन जाता हूं। जब मैं संवाद नहीं कर रहा हूं मैं ताओ का एक अंश, ब्रह्मांड का अंश प्रकृति या परमात्मा का अंश बन जाता हूं- जो भी तुम नाम उसको देना चाहो तुम दे सकते हो।
परमात्मा के साथ मौन ही संवाद है, मनुष्य के साथ भाषा संवाद है। अगर तुम परमात्मा के साथ संवाद करना चाहते हो मौन हो जाओ यदि तुम आदमी के साथ संवाद करना चाहते हो, तो बोलो, चुप मत रहो।
अगर तुम किसी मित्र के साथ चुपचाप बैठते हो तो तुम्हें भद्दा लगेगा और मित्र को भी भद्दा लगेगा। उसे लगेगा कि कुछ गलत हो गया है, वह पूछेगा, क्या बात है? तुम बोल क्यों नहीं रहे हो? क्या तुम उदास हो या कुछ और, निराश हो या कुछ और मामला है? क्या कुछ गड़बड़ हो गई है? अगर पति चुप बैठता है, तो पत्नी एकाएक मुश्किल खड़ी करना शुरू कर देती है तुम चुप क्यों हो? तुम मुझसे बात क्यों नहीं कर रहे हो।
अगर अचानक पत्नी चुप हो जाती है तो मुसीबत हो जाती है।
अगर अचानक पत्नी चुप हो जाती है तो मुसीबत हो जाती है।
किसी से बात करने की यह जरूरत क्यों है? क्योंकि अगर तुम बात नहीं करते तो उसका अर्थ है कि तुम अकेले हो तुम यह स्वीकार नहीं करते कि कोई वहां है। जब तुम बोलते नहीं तो दूसरा तुम्हारे लिए मौजूद ही नहीं है तुम अकेले हो। और दूसरे को पता चल जाता है कि तुम उसकी उपेक्षा कर रहे हो। इसलिए लोग बोलते ही रहते हैं। जब वे
बात नहीं करना चाहते, उनके पास संवाद करने के लिए कहने के लिए कुछ नहीं होता तो वे मौसम के बारे में या किसी भी चीज के बारे में बात करेंगे कोई भी बात काम चला देगी लेकिन बात करो क्योंकि हो सकता है बात न करने पर दूसरे को बुरा लगे। और दूसरे के साथ चुप रहना अशिष्टता है। लेकिन परमात्मा के साथ उलटा है. प्रकृति के साथ अगर तुम बात करते हो तो तुम चूक जाओगे।
बात नहीं करना चाहते, उनके पास संवाद करने के लिए कहने के लिए कुछ नहीं होता तो वे मौसम के बारे में या किसी भी चीज के बारे में बात करेंगे कोई भी बात काम चला देगी लेकिन बात करो क्योंकि हो सकता है बात न करने पर दूसरे को बुरा लगे। और दूसरे के साथ चुप रहना अशिष्टता है। लेकिन परमात्मा के साथ उलटा है. प्रकृति के साथ अगर तुम बात करते हो तो तुम चूक जाओगे।
प्रकृति से बात करने का अर्थ है तुम उस वास्तविकता के प्रति उदासीन हो जो तुम्हारे सामने है। वहां पर केवल मौन ही चाहिए। जब तुम पैदा होते हो तो संसार में तुम मौन लेकर आते हो। भाषा दी जाती है, वह एक उपहार है समाज का प्रशिक्षण है। वह उपयोगी है एक उपाय है एक कौशल है लेकिन मौन को तुम संसार में लेकर आते हो। फिर से उस मौन को उपलब्ध करो बस इतनी सी बात है- फिर बच्चे हो जाओ। सारी बात यही है, तुम यही निष्कर्ष निकाल सकते हो; सभी बुब्सरुष इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं
कि तुम्हें फिर से प्रकृति से नाता जोड़ना होगा।
कि तुम्हें फिर से प्रकृति से नाता जोड़ना होगा।
उसका अर्थ अनिवार्य रूप से समाज के विरुद्ध जाना नहीं है; उसका अर्थ केवल समाज के पार हो जाना है विरुद्ध नहीं। जब तुम पैदा हुए थे... तुम्हारे जन्म का पहला क्षण तुम्हारे जीवन का अंतिम क्षण होना चाहिए। तुम्हारी मृत्यु फिर तुम्हारे जन्म के समान होनी चाहिए तुम्हें फिर से बच्चा हो जाना चाहिए दुबारा जन्म लेकर।
जीसस कहते हैं ' जब तक तुम दुबारा जन्म नहीं लेते तुम परमेश्वर के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते हो। छोटे बच्चों की भांति जाओ। ' उनका क्या अभिप्राय है? -उनका कहना है कि बस प्राकृतिक हो जाओ। वह सभी कुछ जो समाज तुम्हें देता है वह अच्छा है लेकिन उसी में सीमित होकर न रह जाना, नहीं तो वह बंधन हो जाएगा। फिर से असीम हो जाओ। समाज कभी असीम नहीं हो सकता है उसे तंग सुरंग होना ही पड़ता है अपने स्वभाव के कारण उसे ऐसा होना ही पड़ता है।
इस सूत्र में प्रवेश करने से पहले दूसरी बात जो याद रखनी है अगर तुम मौन हो तो तुम नहीं हो, क्योंकि केवल एक बेचैनी ही महसूस होती है। क्या तुमने कभी मौन को महसूस किया है? कौन महसूस करेगा? - क्योंकि अगर तुम महसूस करते हो तो थोड़ी सी अशांति है।
ऐसा हुआ बोधिधर्म का एक शिष्य उसके पास आया और बोधिधर्म ने उससे कहा था ' बिलकुल शून्य और मौन हो जाओ तभी मेरे पास आना। '
शिष्य ने कई वर्ष साधना की फिर वह शून्य और मौन हो गया। फिर वह बोधिधर्म के पास आया और कहा सदगुरु अब मैं आया हूं और आपने कहा था शून्य और मौन हो जाओ। अब मैं मौन और शून्य हो गया हूं।
बोधिधर्म ने उससे कहा बाहर जाओ और इस शून्यता और मौन को भी फेंक दो। क्योंकि अगर तुम इसे अनुभव कर सकते हो तो वह संपूर्ण नहीं है विभाजन विद्यमान है। जो अनुभव करता वह अभी मौन नहीं है। मौन चारों तरफ वातावरण में हो सकता है लेकिन अनुभवकर्ता अभी मौन नहीं है अन्यथा कौन अनुभव करेगा?
जब तुम वास्तव में मौन हो तुम मौन भी नहीं हो क्योंकि मौन शोर के ठीक विपरीत है। जब कोई शोर नहीं है, मौन कैसे हो सकता है? जब शोरगुल विलीन हो जाता है मौन भी विलीन हो जाता है। फिर तुम यह भी नहीं कह सकते हो ' मैं मौन हूं। ' कहो और तुम चूक गए। इसीलिए उपनिषद कहते हैं वह जो कहता है, ' मैंने जान लिया है उसने जाना नहीं है। सुकरात कहता है कि जब कोई ज्ञानी हो जाता है वह केवल अज्ञानता को जानता है और कुछ भी नहीं।
जब तुम मौन हो जाते हो तुम नहीं जानते कि क्या क्या है। प्रत्येक चीज दूसरी सभी चीजों में विलीन हो जाती है; क्योंकि तुम वहां नहीं हो। तुम सिर्फ शोर के हिस्से हो; ' मैं ' इस संसार में सबसे अधिक कोलाहलपूर्ण चीज है। कोई जेट हवाई जहाज भी उतना शोर पैदा नहीं कर सकता जितना ' मैं ' कर सकता है! वह इस संसार में सबसे अधिक उपद्रवी है और शेष सब उसके उप-उत्पाद हैं। ' मैं ' सबसे अधिक कोलाहलपूर्ण घटना है।
जब तुम मौन हो जाते हो तुम नहीं होते। कौन अनुभव करेगा? जब तुम शून्य हो तुम अनुभव नहीं कर सकते ' मैं शून्य हूं ' नहीं तो तुम अब भी अनुभव करने के लिए वहां हो और घर भरा हुआ है वह खाली नहीं है। जब तुम वास्तव में खाली हो तुम स्वयं से भी खाली हो। जब शोर समाप्त हो जाता है तुम भी समाप्त हो जाते हो। तब वास्तविकता तुम्हारे सामने है, वह चारों ओर है। वह भीतर है, बाहर है, वह सब कहीं है, क्योंकि केवल वास्तविकता ही हो सकती है।
'मैं ' के साथ सारे सपने समाप्त हो जाते हैं क्योंकि मैं के साथ सब वासनाएं समाप्त हो जाती हैं। अगर कोई इच्छा नहीं है तो एक अधूरी इच्छा-जिसे सपनों के द्वारा पूरा करना है-कैसे हो सकती है? केवल शून्यता ही पूर्ण हो सकती है। सोसान का यही अभिप्राय है।
अब सूत्र में प्रवेश करने का प्रयत्न करें:
यहा शून्यता वहा शून्यता
लेकिन असीम ब्रह्मांड सदा तुम्हारी आंखों के सामने रहता है।
असीम रूप से बड़ा, असीम रूप से छोटा;
असीम रूप से बड़ा, असीम रूप से छोटा;
कोई भेद नहीं है?
क्योंकि सभी परिभाषाएं तिरोहित हो गई है?ं
और कोई सीमाएं दिखाई नहीं देतीं।
होने और न होने के साथ भी ऐसा है।
उन संदेहों और तर्कों में समय को मत गंवाओ
जिनका इसके साथ कोई संबंध नहीं है।
' यहां शून्यता ' का अर्थ है. भीतर शून्यता ' वहां शून्यता ' का अर्थ है बाहर शून्यता। क्या दो शून्यताएं हो सकती हैं? यह असंभव है। दो शून्यताएं संभव नहीं हैं, क्योंकि तुम कैसे उन्हें एक-दूसरे से अलग करोगे? दो शून्यताएं उनके अपने स्वभाव से एक हो जाएंगी। भीतर और बाहर मन का विभाजन है; जब मन मिट जाता है, यह विभाजन भी मिट जाता है।
' यहां शून्यता, वहां शून्यता '... वास्तव में, ' यहां ' और ' वहां ' कहना भी ठीक नहीं है बिलकुल सही नहीं है। लेकिन यह एक समस्या है शब्दों में कुछ भी बिलकुल ठीक- ठीक नहीं रखा जा सकता वे विकृत कर देते हैं। सोसान जानता है क्योंकि अब न यहां और न वहां हो सकता है। वे पुरानी सीमा-रेखाएं हैं। भीतर और बाहर पुरानी सीमा-रेखाएं हैं, अब और तब पुरानी सीमा-रेखाएं हैं, बिना भाषा के वे मिट जाती हैं।
ऐसा हुआ : बोकोजू के पास एक व्यक्ति आया और उससे कहा मैं जल्दी में हूं और मैं आपके पास अधिक समय तक रुक नहीं पाऊंगा। इस राह से गुजरते हुए मैंने सोचा कि आपके पास आकर केवल एक शब्द सुनना भी उचित होगा। मुझे ज्यादा की जरूरत नहीं है। आप सत्य की ओर संकेत करने वाला केवल एक ही शब्द कहें और मैं उसे अपने हृदय में संजो लूंगा।
बोकोजू ने कहा मुझे विवश मत करो, क्योंकि एक शब्द भी सत्य को मिटा देने के लिए पर्याप्त है। और चाहे तुम जल्दी में हो या नहीं मैं कुछ नहीं कह सकता हूं। केवल इसे ही ले जाओ कि तुमने बोकोजू से पूछा और उसने कहा ' मैं कुछ नहीं कह सकता। ' केवल इसे स्मरण रखना।
उस आदमी ने कहा यह पर्याप्त नहीं है और इससे मेरी कोई सहायता नहीं होगी। आप थोड़ा तो कहें, एक शब्द ही सही- मैं अधिक की मांग नहीं करता हूं।
बोकोजू ने कहा : एक शब्द भी पूर्ण को नष्ट करने के लिए पर्याप्त है। तुम बस मेरी ओर देखो और उसे अपने भीतर लेकर चले जाओ।
लेकिन वह आदमी देख न पाया क्योंकि वह कठिन है-तुम्हें मालूम नहीं कि कैसे देखें- अन्यथा बोकोजू के पास जाने की जरूरत न होती।
तुम सामने नहीं देख सकते। अपनी नाक के अग्रभाग को देखना सबसे कठिन है। एक तरफ से देखना आसान है तुम बाईं ओर जाते हो और तुम दाईं ओर जाते हो लेकिन मध्य में कभी नहीं ठहरते। इसलिए वामपंथी पागल लोग हैं और दक्षिणपंथी पागल हैं लेकिन तुम्हें मध्यपंथी व्यक्ति नहीं मिल सकता, ऐसा व्यक्ति जो पागल नहीं है। किसी भी अति की ओर जाओ और तुम पागल हो जाते हो, मध्य में रहो और तुम संबुद्ध हो जाते हो- लेकिन कोई मध्य में नहीं ठहरता। मध्य में तुम्हारा वास्तविकता से साक्षात होता है। शब्द आधा ही कहेंगे। शब्द सारी बात कह नहीं सकता है। अगर तुम कहते हो ' ईश्वर है, ' तो तुम यह इनकार करते हो, ' ईश्वर नहीं है ' - और वह दोनों है। अगर तुम कहते हो, ' जीवन है, ' तुम मृत्यु को अस्वीकार करते हो- और जीवन मृत्यु भी है। अगर तुम कुछ भी कहते तो वह आधा ही होगा, और आधा सत्य पूरे झूठ से अधिक खतरनाक है। उस आधेपन के कारण उसमें सत्य की सुगंध होती है और तुम धोखा खा सकते हो।
सभी संप्रदाय आधे सत्यों पर आधारित हैं; इसीलिए वे खतरनाक हैं। सभी पंथ हानिकारक हैं, क्योंकि वे आधे सत्यों पर आधारित हैं। और दूसरी बात संभव नहीं है क्योंकि एक पंथ, एक धर्म, एक संप्रदाय अनिवार्य रूप से शब्दों पर आधारित है। बौद्ध धर्म बुद्ध पर आधारित नहीं है, बुद्ध ने जो कहा उस पर खड़ा है। और जो बुद्ध ने कहा वह आधा है, क्योंकि पूर्ण को कहा नहीं जा सकता है। इस संबंध में कुछ किया नहीं जा सकता है।
या तुम पूर्ण को कहने की चेष्टा करो, फिर कुछ नहीं कहा जाता। अगर तुम कहो, ' जीवन दोनों है- जीवन और मृत्यु, ' तुम क्या कह रहे हो? अगर तुम कहते हो, ' परमेश्वर दोनों है- शैतान और ईश्वर, ' तुम क्या कह रहे हो? तुम विरोधाभासी वक्तव्य दे रहे हो तुम स्पष्ट नहीं हो और लोग सोचेंगे कि तुम पागल हो गए हो। परमात्मा दोनों कैसे हो सकता है अच्छा और बुरा? और जीवन जीवन और मृत्यु दोनों कैसे हो सकता है? मृत्यु को जीवन के विपरीत ही होना चाहिए।
यह? शून्यता वहां शून्यता
लेकिन असीम ब्रह्मांड सदा तुम्हारी आंखों के सामने रहता है।
असीम रूप से बड़ा, असीम रूप से छोटा;
असीम रूप से बड़ा, असीम रूप से छोटा;
कोई भेद नहीं है
क्योंकि अगर कुछ असीम रूप से बड़ा है और कुछ असीम रूप से छोटा है, तो असीमता के प्रश्न के कारण ही कोई अंतर नहीं हो सकता। अगर तुम नीचे की ओर चलो विभाजित करते हुए विश्लेषण करते हुए तो असीम रूप से छोटे तक पहुंच जाओगे। विज्ञान असीम रूप से छोटे इलेक्ट्रॉन तक पहुंच गया है। अब सब-कुछ विलीन हो गया है कुछ भी दिखाई नहीं देता। इलेक्ट्रॉन देखा नहीं गया है कोई भी उसे देख नहीं सकता। फिर वे क्यों कहते हैं कि इलेक्ट्रॉन है?
भौतिक विज्ञान अब लगभग अध्यात्म-विद्या बन गया है और भौतिक वक्तव्य भौतिक विज्ञानियों के वक्तव्य लगभग दार्शनिक रहस्यवादी लगते हैं, क्योंकि वे कहते हैं ' हम इलेक्ट्रॉन देख नहीं सकते हम केवल परिणाम देख सकते हैं। हम परिणाम देख सकते हैं लेकिन कारण नहीं। हम अनुमान लगाते हैं कि इलेक्ट्रॉन अवश्य होगा -क्योंकि अगर इलेक्ट्रॉन नहीं है ये परिणाम कैसे हो सकते हैं?'
रहस्यदर्शी सदा से यही कहते आ रहे हैं। उनका कहना है ' हम परमात्मा को देख नहीं सकते हैं लेकिन हम उसकी सृष्टि को तो देख सकते हैं। और परमात्मा कारण है और यह सृष्टि परिणाम है। हम परमात्मा को देख नहीं सकते लेकिन सृष्टि को देखते है- वह अवश्य होगा अन्यथा यह सृष्टि कैसे हो सकती है?'
अगर तुम मेरी आवाज सुनते हो और मुझे देख नहीं पाते, तुम्हें अनुमान लगाना पड़ेगा कि मैं अवश्य कहीं होऊंगा नहीं तो तुम मुझे कैसे सुन सकते हो? परिणाम दिखाई दे रहा है लेकिन कारण दिखाई नहीं दे रहा है। विज्ञान असीम रूप से छोटे तक तो पहुंच गया है, और लघु पूर्णतया विलीन हो गया है- क्योंकि वह इतना छोटा, इतना छोटा, इतना छोटा इतना सूक्ष्म हो गया है कि अब तुम उसे पकड़ नहीं सकते हो।
धर्म विराट असीम तक पहुंचता है। वह इतना बड़ा, इतना बड़ा, इतना विराट हो जाता है कि तुम उसकी सीमाओं को देख नहीं पाते। वह इतना विराट हो जाता है कि तुम उसे पकड़ नहीं पाते तुम उससे चिपक नहीं सकते, तुम उसकी सीमा-रेखा नहीं खींच सकते। असीम रूप से छोटे को देखा नहीं जा सकता, वह अदृष्य हो जाता है और असीम रूप से बड़ा भी नहीं देखा जा सकता, वह अदृश्य हो जाता है।
तब सोसान एक सुंदर बात कहता है वे दोनों ही समान हैं क्योंकि वे दोनों ही अनंत है। और अनंत चाहे छोटा हो या बड़ा इससे कोई अंतर नहीं पड़ता वे एक समान हैं।
असीम रूप से बड़ा, असीम रूप से छोटा;
कोई भेद नहीं है?
कोई भेद नहीं है?
क्योंकि सभी परिभाषाएं तिरोहित हो गई है?
और कोई सीमाएं दिखाई नहीं देतीं।
और कोई सीमाएं दिखाई नहीं देतीं।
होने और न होने के साथ भी ऐसा है।
जब तुम पूर्ण रूप से खाली हो, निर-अहंकार हो, घर के भीतर कोई नहीं है, क्या तुम 'होना' हो, या न-होना' हो? तुम हो, या तुम नहीं हो? कुछ भी कहा नहीं जा सकता है।
लोग बुद्ध से बार-बार पूछते ' जब कोई संबुद्ध हो जाता है तो क्या होता है? वह है, या वह नहीं है? क्या आत्मा होती है या नहीं होती है? जब संबुद्ध शरीर त्यागता है तो क्या होगा? वह कहां होगा? वह कहीं होगा भी या नहीं?'
और बुद्ध कहते हैं, ' तुम ये प्रश्न मत पूछो। तुम बस बुद्ध हो जाओ और देखो क्योंकि जो भी मैं कहूंगा वह गलत होगा। ' और वे ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने के प्रलोभन से सदा बचते रहे।
उन संदेहों और तर्कों में समय को मत गंवाओ?
जिनका इसके साथ कोई संबंध नहीं है।
जिनका इसके साथ कोई संबंध नहीं है।
वास्तविकता तुम्हारे तर्कों पर निर्भर नहीं है। चाहे तुम इस ढंग से सिद्ध करो या उस ढंग से, वह असंगत है- वास्तविकता वहां है। वह तुम्हारे होने से पहले भी थी और वह तुम्हारे बाद भी होगी। वह तुम्हारे मन पर निर्भर नहीं है; उसके विपरीत तुम्हारा मन उस पर निर्भर है। उसके लिए किसी प्रमाण या अप्रमाण की आवश्यकता नहीं है। उसका अस्तित्व स्वत: है। तुम उसे प्रमाणित नहीं कर सकते तुम उसे अप्रमाणित नहीं कर सकते।
लेकिन लोग बहस किए चले जाते हैं कि ईश्वर है या नहीं। हजारों पुस्तकें प्रतिवर्ष इस विषय को लेकर प्रकाशित होती हैं कि ईश्वर है या नहीं। सब मूर्खतापूर्ण है। जो कहते हैं हां और सिद्ध करते हैं, और जो कहते हैं नहीं और सिद्ध करते हैं दोनों एक ही नौका में सवार हैं- प्रमाण, विवाद, तर्क की नौका।
और अगर कहीं परमात्मा है, वह जरूर हंसता होगा। क्या उसे तुम्हारे तर्क की आवश्यकता है? तुम क्या कह रहे हो? तुम कह रहे हो कि अगर वह है, फिर उसका होना तुम्हारे सिद्ध या असिद्ध करने पर निर्भर करता है। जो भी तुम करो- सिद्ध या असिद्ध- लेकिन क्या तुम सोचते हो कि उसका होना तुम्हारे तर्कों पर निर्भर है?
अस्तित्व बिना किसी के तर्कों के है। किसी को गवाही के लिए बुलाया नहीं जाता और वहां कोई न्यायालय नहीं है जो निर्णय करेगा। तुम कैसे निर्णय कर सकते हो? और कौन है न्यायाधीश? और तर्क लगातार दिए जा रहे हैं; लाखों वर्षों से लोगों ने इस पक्ष के और उस पक्ष के तर्क दिए हैं। नास्तिक हैं, जो सिद्ध करते रहते हैं और कोई उनको मनवा नहीं सकता है आस्तिक हैं, जो सिद्ध करते रहते हैं और कोई उनके विश्वास को तोड़ नहीं सकता है। आस्तिक और नास्तिक दोनों तर्क देते हैं और कोई भी तर्क अंतिम सिद्ध नहीं होता, समस्या वही बनी रहती है।
सोसान कहता है? सभी तर्क असंगत हैं आस्तिक नास्तिक दोनों पक्ष, विपक्ष दोनों। तुम मूर्खता का काम कर रहे हो क्योंकि वास्तविकता है उसे किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। वह पहले से ही है वह सदा से है, वह सदा रहेगी।
सत्य का अर्थ है ' वह जो है। ' विवाद करने से तुम सिर्फ अपनी ऊर्जा और समय व्यर्थ गंवा रहे हो। इसके स्थान पर उसका मजा लो। बल्कि उसमें लीन हो जाओ। बल्कि उसमें प्रसन्न होओ। बल्कि उसे जीओ। और अगर तुम जीते हो तो तुम सत्य की सुगंध को अपने आस-पास लिए चलने लगते हो। अगर तुम उस में जीते हो और उसमें आनंदित रहते हो तो विराट का कुछ, अनंत का कुछ तुम्हारी सीमित सत्ता द्वारा व्यक्त होना शुरू हो जाता है। धीरे- धीरे तुम्हारी सीमाएं भी विलीन होने लगती हैं, धीरे- धीरे तुम खो
जाते हो। बूंद सागर में गिर जाती है और सागर हो जाती है।
जाते हो। बूंद सागर में गिर जाती है और सागर हो जाती है।
तर्क-वितर्क में समय न गंवाओ। दर्शनशास्त्री मूर्ख हैं और वे साधारण मूर्खों से अधिक खतरनाक मूर्ख हैं क्योंकि साधारण मूर्ख सिर्फ मूर्ख हैं और दर्शनशास्त्री सोचते हैं कि वे बुद्धिमान हैं। और वे ऐसा करते ही रहते हैं! मैं किसी हीगल या किसी कांट को देखता हूं- वे जीवन भर विवाद करते रहते हैं और कभी कहीं नहीं पहुंचते हैं।
ऐसा हुआ ' एक लड़की ने इमैनुअल कांट के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा, वह उससे विवाह करना चाहती थी। उसने कहा : ठीक है मैं इस बारे में सोचूंगा।
एक विचारक एक महान विचारक और एक महान तर्कशास्त्री कैसे कोई कदम उठा सकता है? अगर मामला प्रेम का हो तो भी पहले उसके बारे में उसे सोचना तो पड़ेगा। और कहा जाता है उसने सोचा, और-और सोचा। फिर उसने पक्ष और विपक्ष में सभी तर्क इकट्ठे किए- क्योंकि कुछ लोग हैं जो प्रेम के विरोध में हैं कुछ लोग हैं जो प्रेम के पक्ष में हैं; कुछ लोग हैं जो विवाह के विरोध में हैं कुछ लोग विवाह के पक्ष हैं और उनमें विवाद हुआ है। तो उसने विवाह प्रेम के पक्ष-विपक्ष में सारे तर्क इकट्ठे किए। कहते
हैं कि उसने विवाह के पक्ष-विपक्ष में तीन सौ तर्क इकट्ठे किए। वह बहुत दुविधा में पड़ गया। क्या किया जाए? कैसे निर्णय किया जाए?
हैं कि उसने विवाह के पक्ष-विपक्ष में तीन सौ तर्क इकट्ठे किए। वह बहुत दुविधा में पड़ गया। क्या किया जाए? कैसे निर्णय किया जाए?
फिर उसने बहुत कोशिश की और उसे विवाह के पक्ष में एक तर्क ज्यादा मिल गया। और वह तर्क यह था. कि अगर संभावना है, दो विकल्प जो एक समान दिखाई देते हैं तो हमेशा उस विकल्प को चुनो जो तुम्हें अधिक अनुभव देगा। विवाह या विवाह नहीं- अगर सारे तर्क बराबर हैं- फिर ' विवाह नहीं ' के बारे में तो उसे मालूम ही था, क्योंकि वह अविवाहित था। फिर विवाह करना बेहतर था क्योंकि वह बात कुछ नई तो थी। जब सारे तर्क बराबर हैं फिर कैसे निर्णय करें? इसलिए चलो और अनुभव से विवाह के संबंध में जानो।
इसलिए वह गया और लड़की के द्वार पर दस्तक दी। पिता ने दरवाजा खोला और इमैनुअल कांट ने कहा? मैंने निर्णय कर लिया है। आपकी बेटी कहां है?
पिता ने कहा - बहुत देर हो गई है- वह तीन बच्चों की मां बन चुकी है।
... क्योंकि बीस वर्ष बीत गए थे और स्त्रियां इतनी मूर्ख नहीं हैं कि इतनी देर तक प्रतीक्षा करें। वे सदा से अधिक बुद्धिमान हैं स्वभाव से ही बुद्धिमान हैं। इसीलिए स्त्रियां महान विचारक नहीं हुई हैं। वे इतनी छू नहीं हैं, वे अधिक स्वाभाविक होती हैं, उनके पास अधिक अंतर-बोध है वे प्रकृति के अधिक निकट हैं वे तर्क करने के बजाय जीने में अधिक रुचि रखती हैं।
इसी कारण पुरुषों को लगता है कि स्त्रियां हमेशा छोटी-छोटी बातों के लिए चिंतित होती है, बड़ी-बड़ी समस्याओं के लिए नहीं, बहुत ही छोटी बातें वेशभूषा, आभूषण। लेकिन देखो, वे छोटी-छोटी बातों के लिए चिंतित हैं, क्योंकि जीवन छोटी-छोटी बातों से ही बना है। बड़ी-बड़ी समस्याएं केवल मन में होती हैं जीवन में नहीं। यह निश्चित करने से कोई अंतर नहीं पड़ता कि ईश्वर है या नहीं। तुम्हें दिन में दो बार भोजन करना ही पड़ेगा जब बहुत सर्दी है तुम्हें शरीर को ढंकना ही पड़ेगा जब बहुत गर्मी है तुम्हें छाया में जाना
पड़ेगा- ईश्वर है या नहीं, यह प्रमाणित करने से कोई अंतर नहीं पड़ेगा। जीवन में छोटी- छोटी बातें हैं। और अगर जीवन में छोटी-छोटी बातें हैं तो फिर छोटी बातें छोटी नहीं हैं- क्योंकि वे जीवन उनसे मिल कर बना है, वे जीवन का आधार हैं।
पड़ेगा- ईश्वर है या नहीं, यह प्रमाणित करने से कोई अंतर नहीं पड़ेगा। जीवन में छोटी- छोटी बातें हैं। और अगर जीवन में छोटी-छोटी बातें हैं तो फिर छोटी बातें छोटी नहीं हैं- क्योंकि वे जीवन उनसे मिल कर बना है, वे जीवन का आधार हैं।
उन संदेहों और तर्कों में समय को मत गंवाओ
जिनका इसके साथ कोई संबंध नहीं है।
जिनका इसके साथ कोई संबंध नहीं है।
एक वस्तु सारी वस्तुएं
बिना किसी भेदभाव के एक- में गति करती हैं और
घुल- मिल जाती हैं।
घुल- मिल जाती हैं।
इस बोध में जीना के विषय में चिंतारहित होना है।
इस आस्था में जीना अद्वैत का मार्ग है?
इस आस्था में जीना अद्वैत का मार्ग है?
क्योंकि अद्वैत व्यक्ति वह है जिसके पास श्रद्धावान मन है।
बहुत ही महत्वपूर्ण शब्द हैं, और अगर शब्द के पार देख सकी तो और भी महत्वपूर्ण हैं।
एक वस्तु सारी वस्तुएं '
बिना किसी भेदभाव के एक- में गति करती हैं और
घुल- मिल जाती है
घुल- मिल जाती है
जीवन एक आर्गेनिक यूनिटी, सुघटित इकाई है। कुछ भी विभाजित नहीं है सब एक है। अगर तुम सोचते हो वह विभाजित है विभाजन मन द्वारा थोपा गया है। अन्यथा सब चीजें एक-दूसरे में घुल-मिल जाती हैं पिघलती हैं विलीन होती हैं। ऐसा सतत हो रहा है। तुम उसे देखते नहीं क्योंकि शब्दों ने तुम्हें पूरी तरह अंधा कर दिया है।
तुम एक फल खाते हो; फल तुम्हारा रक्त बन जाता है। पेड़ तुममें मिश्रित हो गया है, सीमा खो गई है। और हो सकता है यह फल पहले कई मनुष्यों के रक्त में रह चुका हो कई पशुओं, कई पौधों, कई चट्टानों में रह चुका हो। यह ऊर्जा जो कि फल है अस्तित्व में सदा से है- पिघलती हुई, विलीन होती हुई और प्रकट होती हुई इससे उसमें गति करती हुई सारी सीमाओं को पार करती हुई।
किसी भी घटना को गौर से देखो। पेड पर लगा फल वह क्या कर रहा है? वैज्ञानिक कहते हैं कि फल एक चमत्कार कर रहा है। वह मिट्टी को रूपांतरित कर रहा है सूर्य की किरणों को रूपांतरित कर रहा है वह पानी को रूपांतरित कर रहा है। यह एक चमत्कार है क्योंकि तुम मिट्टी नहीं खा सकते हो तुम सीधे सूर्य की किरणें नहीं खा सकते। यह फल एक सेब चमत्कार कर रहा है। यह सब-कुछ रूपांतरित कर रहा है और
उसे ऐसा बना रहा है ताकि तुम उसे आत्मसात कर सको और वह तुम्हारा रक्त बन जाए। और यह ऊर्जा गति करती रही है क्योंकि वह सदा से वहां रही है। पूरी ऊर्जा वैसी ही रहती है क्योंकि जाने के लिए और कोई स्थान नहीं है इसलिए ऊर्जा कम या अधिक नहीं हो सकती है। ब्रह्मांड में कुछ भी जोड़ा नहीं जाता और कुछ निकाला नहीं जाता है। तुम उसे कहां ले जाओगे? पूर्ण वैसा ही रहता है।
उसे ऐसा बना रहा है ताकि तुम उसे आत्मसात कर सको और वह तुम्हारा रक्त बन जाए। और यह ऊर्जा गति करती रही है क्योंकि वह सदा से वहां रही है। पूरी ऊर्जा वैसी ही रहती है क्योंकि जाने के लिए और कोई स्थान नहीं है इसलिए ऊर्जा कम या अधिक नहीं हो सकती है। ब्रह्मांड में कुछ भी जोड़ा नहीं जाता और कुछ निकाला नहीं जाता है। तुम उसे कहां ले जाओगे? पूर्ण वैसा ही रहता है।
एक दिन फल जमीन में था तुम उसे खा नहीं सकते थे। फल सूर्य में था विटामिन डी सूर्य में था। अब फल ने उसे आत्मसात कर लिया है अब मिट्टी रूपांतरित हो गई है- एक चमत्कार घट रहा है। किसी जादूगर के पास चमत्कार देखने के लिए क्यों जाएं? वह हो रहा है मिट्टी एक स्वादिष्ट आहार में बदल गई है।
और तुम उसे खाते हो वह तुम्हारा रक्त बन जाता है। तुम्हारे रक्त का निरंतर मंथन हो रहा है वह वीर्य बनाता है। अब एक बीज का जन्म हो गया है वह एक छोटा बच्चा बन जाता है। अब फल सेब बच्चे में आ गया है। कहा हैं सीमाएं? पेड़ तुम में चला जाता है, सूर्य पेड़ में चला जाता है सागर पेड़ में चला जाता है तुम बच्चे में चले जाते हो और यह चलता रहता है...
प्रत्येक चीज गतिमान है। वह श्वास जो तुम्हारे भीतर है कुछ समय बाद वह मुझमें होगी। और श्वास जीवन है इसलिए तुम्हारा जीवन और मेरा जीवन भिन्न नहीं हो सकता है क्योंकि जो श्वास तुम लेते हो वही मैं लेता हूं। जो श्वास मैं छोड़ता हूं तुम उसे भीतर लेते हो तुम श्वास निकालते हो मैं भीतर लेता हूं।
तुम्हारा हृदय और मेरा हृदय बहुत भिन्न नहीं हो सकते हैं। वे श्वास ले रहे हैं और उसी जीवन-शक्ति के सागर के साथ धड़क रहे हैं जो चारों तरफ है। मैं उसे मेरी श्वास कहता हूं लेकिन जब तक मैं यह कहता हूं वह मेरी नहीं रहती- वह चली गई है उसने घर बदल लिया है अब वह किसी और की श्वास है। जिसे तुम अपना जीवन कहते हो वह तुम्हारा नहीं है। वह किसी का भी नहीं है या वह सबका है।
जब कोई वास्तविकता को देखता है तब वह देखता है कि पूर्ण एक सुघटित इकाई है। सूर्य तुम्हारे लिए कार्य कर रहा है सागर तुम्हारे लिए कार्य कर रहा है, सितारे तुम्हारे लिए कार्य कर रहे हैं। संसार में चारों ओर जो लोग घूम रहे हैं वे तुम्हारे लिए काम कर रहे हैं और तुम उनके लिए काम कर रहे हो। तुम मरोगे और कोई तुम्हारे शरीर को खा जाएंगे, तुम उनका भोजन बन जाओगे।
तुम मरने के लिए किसी और का भोजन बनने के लिए तैयार हो रहे हो, पक रहे हो। और इसे ऐसे ही होना है- क्योंकि तुमने बहुत सी चीजों को अपना भोजन बनाया है, तो अंत में तुम्हें उनका भोजन बनना होगा। हर चीज किसी और के लिए भोजन है। यह एक श्रृंखला है.. और तुम हो कि जीवन से चिपके रहना चाहते हो। और सेब, वह भी जीवन से चिपका रहना चाहता है और गेहूं गेहूं भी गेहूं ही बना रहना चाहता है। तब तो जीवन ठहर जाएगा।
जीवन मृत्यु के माध्यम से जीता है। तुम यहां मरते हो, वहां कोई जीवित हो जाता है; मैं श्वास निकालता हूं और कोई श्वास को भीतर लेता है। जीवन और मृत्यु ठीक लयबद्ध श्वास-प्रश्वास की भांति है। जीवन श्वास है, मृत्यु उच्छवास है।
जब तुम पक जाओगे तुम धरती पर गिर जाओगे। तब कीड़े तुम्हें खा जाएंगे और शिकारी पक्षी आएंगे और तुम्हें खाने का मजा लेंगे। तुमने बहुत से भोज्य पदार्थों का रसास्वादन किया है और अब बदले में तुम्हें खाने का मजा लिया जाएगा। प्रत्येक चीज पिघलती है, मिल जाती है, विलय होती है। इसलिए चिंता क्यों करें? यह तो होने ही वाला है। यह हो ही रहा है। केवल पूर्ण जीवित रहता है, इकाइयां झूठ हैं। केवल परम जीवित रहता है- शेष सब उसमें तरंगें मात्र हैं वे आती हैं और चली जाती हैं।
जब कोई वास्तविकता को ठीक नाक के सामने देखता है, अचानक वहां कोई समस्या, कोई चिंता नहीं होती, क्योंकि तुम चाहे जीओ या न जीओ पूर्ण जीए चला जाता है। फिर तुम्हारी मृत्यु कोई समस्या नहीं है, फिर तुम्हारा जीवन कोई समस्या नहीं है। तुम लाखों-लाखों ढंगों से पूर्ण में जीओगे।
कभी तुम फल होओगे. हिंदुओं की लाखों योनियों की धारणा का यही अर्थ है। कभी तुम पशु थे और कभी तुम कीड़े थे और कभी तुम वृक्ष थे और कभी तुम चट्टान थे- और जीवन चलता रहता है।
इसलिए एक अर्थ में तुम कुछ भी नहीं हो और दूसरे अर्थ में तुम सब-कुछ हो। एक अर्थ में तुम रिक्त हो और दूसरे अर्थ में तुम परिपूर्ण हो। एक अर्थ में तुम नहीं हो, और दूसरे अर्थ में तुम सब हो- क्योंकि तुम अलग नहीं हो।
अलग होना चिंता लाता है। अगर तुम चिंतित हो, व्यथित हो उसका अर्थ यह है कि तुम स्वयं को अलग समझ रहे हो- तुम व्यर्थ ही अपने लिए समस्याएं खड़ी कर रहे हो। उसकी कोई जरूरत नहीं है क्योंकि पूर्ण जीए चला जाता है, पूर्ण कभी नहीं मरता है वह मर नहीं सकता है। केवल अंश मरते हैं लेकिन मृत्यु वास्तव में मृत्यु नहीं है वह पुनर्जन्म है। यहां तुम मरते हो वहां तुम जन्मते हो।
एक वस्तु, सारी वस्तुएं.
बिना किसी भेदभाव के एक- में गति करती हैं और घुल
मिल जाती हैं।
मिल जाती हैं।
इस बोध में जीना अपूर्णता के विषय में चिंतारहित होना है।
तो पूर्णता के विषय में चिंता क्यों करें? वह भी एक अहंकार का ही लक्ष्य है। इसे बहुत गहराई से समझ लेना चाहिए, क्योंकि धार्मिक लोग भी पूर्ण होने की चेष्टा करते हैं। लेकिन तुम पूर्ण होने वाले कौन हो? केवल समग्र ही पूर्ण हो सकता है तुम कभी पूर्ण नहीं हो सकते हो। तुम कैसे पूर्ण हो सकते हो? बुद्धपुरुष को भी बीमार होना पड़ता है, उसे भी मरना पड़ता है। तुम पूर्ण नहीं हो सकते हो! परिपूर्णता का लक्ष्य ही अहंकार की यात्रा है। समग्र पहले ही पूर्ण है तुम्हें उसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है- और समग्र
में तुम भी पूर्ण हो।
में तुम भी पूर्ण हो।
दो शब्दों को समझना जरूरी है - एक है ' परफेक्यान, पूर्णता;' दूसरा है, ' होलनेस, समग्रता। ' एक सच्चे धार्मिक व्यक्ति का संबंध समग्रता से होता है पूर्णता से कभी नहीं, और झूठा धार्मिक व्यक्ति समग्रता की नहीं पूर्णता की चिंता करता है।
समग्रता का अर्थ है ' ' मैं नहीं हूं समग्र ही है। ' और यह उचित है क्योंकि इससे अन्यथा कैसे हो सकता है? कोई तुलना नहीं है कोई दूसरा नहीं है। लेकिन अगर तुम पूर्णता नैतिकता, आदर्श चरित्र के संबंध में सोच रहे हो कि तुम्हें पूर्ण होना ही चाहिए, तो तुम पागल हो जाओगे।
सभी पूर्णतावादी पागल हो जाते हैं। वही उनकी अंतिम परिणति है क्योंकि पृथक इकाई के रूप में तुम अपूर्ण ही रहोगे तुम पूर्ण नहीं हो सकते। तुम कैसे पूर्ण हो सकते हो? -क्योंकि तुम्हारी ऊर्जा समग्र से आती है समग्र में चली जाती है तुम नहीं हो। एक लहर को लहर ही बने रहना पड़ता है वह सागर नहीं हो सकती है। यदि वह सागर बनने का बहुत अधिक प्रयत्न करती है तो वह पागल हो जाएगी।
इसीलिए धर्म के जगत में तुम्हें अत्यंत अहंकारी व्यक्ति देखने को मिलते हैं क्योंकि वे हर चीज के बारे में परिपूर्ण होने की चेष्टा कर रहे हैं। उनका जोर पूर्णता पर है। वे कभी विश्राम में नहीं हो सकते वे सदा तनाव में रहेंगे। और हमेशा कुछ न कुछ गलत हो जाएगा और उन्हें उसे ठीक करना होगा- वे हमेशा चिंताग्रस्त बने रहेंगे। पागलखानों में जाओ तुम्हें निन्यानबे प्रतिशत पूर्णतावादी लोग मिल जाएंगे।
समझ वाला व्यक्ति विश्राम में रहता है। उसका यह अर्थ नहीं है कि वह परवाह नहीं करता है। नहीं वह परवाह करता है लेकिन वह सीमाओं को समझता है। वह चिंता करता है लेकिन वह जानता है कि वह मात्र एक अंश है। वह स्वयं को कभी समग्र नहीं समझता, इसलिए वह कभी चिंतित नहीं होता है।
वह जो कुछ भी कर रहा है उसका आनंद लेता है, उसे यह अच्छी तरह से पता है कि वह अपूर्ण ही रहने वाला है वह पूर्ण हो नहीं सकता है। लेकिन वह उसे करते हुए आनंद लेता है और आनंदित होते हुए जो भी पूर्णता संभव है वह बिना चिंता किए हो जाती है। वह प्रेम करता है, भलीभांति यह जानते हुए कि वह कभी पूर्ण नहीं हो सकता है। वह हो नहीं सकता है कुछ अधूरा रह ही जाएगा। वस्तुओं का यही स्वभाव है।
यही कारण है कि पूरब में हमारा सदा से विश्वास यही रहा है - और वह विश्वास बिलकुल सत्य है- कि जब भी कोई पूर्ण हो जाता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता वह इस जगत से विलीन हो जाता है। उसे होना ही पड़ता है क्योंकि इस जगत में केवल अपूर्णता ही सँभव है। वह यहां ठीक नहीं बैठता है उसकी कोई जरूरत नहीं है वह समग्र में विलीन हो जाता है।
बुद्धपुरुष भी अपने जीवन के अंतिम क्षण तक अपूर्ण रहता है- लेकिन उसे इस बात की चिंता नहीं होती है। इसीलिए बौद्धों के पास निर्वाण के लिए दो शब्द हैं। परम संबोधि को वे ' महापरिनिर्वाण ' कहते हैं और संबोधि को वे निर्वाण कहते हैं। ' निर्वाण ' का अर्थ है बुब्सरुष शरीर में है। वह आलोकित हो गया है वह ज्ञाता हो गया है, लेकिन अभी वह देह में, अपूर्णता की देह में है। वह अभी अपूर्ण अंशों के संसार में है। यह
निर्वाण है बुद्धत्व है।
निर्वाण है बुद्धत्व है।
तो जब वह देह त्याग देता है जब वह परम शून्य में विलीन हो जाता है वह महापरिनिर्वाण है, वह परम संबोधि है। अब अपूर्णता विलीन हो जाती है अब कोई वैयक्तिकता नहीं है, वह समग्र है। केवल समग्र ही परिपूर्ण हो सकता है। अब बुद्धपूरूष परिपूर्ण हो सकता है, क्योंकि अब वह समग्र में विलीन हो गया है, वह महासागरीय है। इसलिए इसे भलीभांति स्मरण रखो क्योंकि सारा पूर्णतावाद एक अहंकारपूर्ण चेष्टा है, तुम सब चीजों के पीछे पागल हो जाते हो। तुम जितना अच्छी तरह कर सकते हो, उतना करने की कोशिश करो लेकिन उसके लिए पागल न हो जाओ उसे जितना अच्छी तरह कर सकते हो करो और उसकी सीमा को स्वीकार करो। सीमाबंधन तो होगा ही, यहां तक कि तुम्हारे चरित्र नैतिकता और सभी कुछ की भी सीमा है!
साधु को भी पापी के लिए थोड़ी जगह देनी ही पड़ेगी, क्योंकि पापी कहां जाएगा? इसलिए यह संभव है, कोई निन्यानबे प्रतिशत साधु हो, लेकिन एक प्रतिशत पापी तो वहां होगा ही। और उलटा भी हो जाता है तुम निन्यानबे प्रतिशत पापी हो सकते हो लेकिन एक प्रतिशत साधु भी वहां होगा। ऐसा होना ही चाहिए क्योंकि दूसरे को तुम कहां छोड़ोगे? तुम उसे बलपूर्वक अंतिम छोर तक ले जा सकते हो, लेकिन दूसरा एक प्रतिशत तो वहां रहेगा ही। अगर तुम इस संबंध में पागलपन करते हो तो कुछ होने वाला नहीं है।
समझ वाला व्यक्ति सीमाओं को स्वीकार करता है। वह संभावनाओं को स्वीकार करता है, जो संभव है वह उसे स्वीकार करता है। वह असंभव को जानता है वह असंभव के लिए कभी प्रयत्न नहीं करता। वह विश्राम में है और जो संभव है उसका आनंद लेता है। और वह जितना आनंदित होता है उतनी ही पूर्णता उसके जीवन में आती है। लेकिन अब वह कोई चिंता की बात नहीं है, वह प्रसादपूर्ण है- और यही अंतर है।
अगर तुम किसी सच्चे धार्मिक व्यक्ति के पास आते हो तो तुम्हें उसके चारों ओर प्रभु कृपा का अनुभव होगा, प्रयास रहित। उसने स्वयं के साथ कुछ नहीं किया है, वह बस परम में विश्राम करता है, और तुम उसके चारों ओर प्रयास रहितता को अनुभव करते हो।
अगर तुम ऐसे व्यक्ति के पास आते हो जो पूर्णतावादी है झूठा धार्मिक है, तो तुम जो भी देखोगे वह आदमी का बनाया हुआ होगा, उसमें कोई प्रसाद न होगा। हर चीज साफ-साफ हर चाल सोच समझ कर होशियारी से की गई होगी। वह जो कुछ भी कर रहा है वह संयम है, सहजता नहीं है। वह नियम में जीता है, उसका अपना नियम ही उसके लिए कारावास बन जाता है। वह हंस नहीं पाता वह बच्चा नहीं हो पाता वह फूल नहीं बन पाता। वह जो कुछ भी है, उसने इतना परिश्रम किया है कि हर चीज तनाव बन गई है
और गलत हो गई है। वह सहज प्रवाह नहीं है।
और गलत हो गई है। वह सहज प्रवाह नहीं है।
और यही कसौटी होनी चाहिए- अगर तुम किसी सदगुरु के पास जाते हो तो यही कसौटी होनी चाहिए- कि वह एक सहजस्फूर्त प्रवाह है। केवल तभी वह तुम्हें स्वयं सहज प्रवाह बनने में सहायता कर सकता है। अगर पूर्णतावादी होना उसकी मजबूरी है तो वह तुम्हें अपंग बना देगा वह तुम्हें पूरी तरह से मार डालेगा वह तुम्हें कई ढंगों से काट डालेगा और जब तक वह सोचता है कि तुम परिपूर्ण हो गए हो तुम मृत हो चुके होते हो।
केवल एक मृत वस्तु ही परिपूर्ण होती है। एक जीवित वस्तु को अपूर्ण होना ही पड़ेगा, इसे स्मरण रखना।
इस बोध में जीना अपूर्णता के विषय में चिंतारहित होना है।
व्यक्ति सिर्फ जीता है। वह पूर्णरूप से जीता है, वह समग्रता से जीता है, और वह परिणाम, जो भी होता है उसके संबंध में चिंता नहीं करता है।
इस आस्था में जीना,
और सोसान के लिए यह आस्था है और मेरे लिए भी यही आस्था है। यह श्रद्धा है। एक पूर्णतावादी कभी श्रद्धावान नहीं होता है, क्योंकि वह सदा त्रुटियों को खोजता रहता है। वह कभी किसी बात पर श्रद्धा नहीं करता है। अगर तुम उसे एक गुलाब भेंट करो वह तुरंत उसमें कमियों को खोज लेगा। वह गुलाब को नहीं देखेगा वह त्रुटियों को देखेगा। उसकी दृष्टि तर्क की है प्रेम की नहीं। वह हमेशा शंका से भरा है वह किसी पर
विश्वास नहीं कर सकता, क्योंकि वह स्वयं पर विश्वास नहीं कर सकता है।
विश्वास नहीं कर सकता, क्योंकि वह स्वयं पर विश्वास नहीं कर सकता है।
तुम अपने तथाकथित साधु-महात्माओं के पास जाते हो, वे स्वयं पर विश्वास नहीं कर पाते हैं। वे भयभीत हैं क्योंकि उन्होंने जबरदस्ती जो भी किया है, वह थोप। हुआ है वह स्वाभाविक नहीं है और वे जानते हैं कि अगर वे जरा भी ढीले हुए तो बात बिगड़ जाएगी। यदि एक सुंदर स्त्री महात्मा के पास आती है, तुम देख सकते हो कि वह परेशान बेचैन हो गया है। भले ही वह ऊपर से प्रकट न हो लेकिन अगर तुम गहरे झांको तो उसे महसूस कर सकते हो क्योंकि उसने ब्रह्मचर्य को थोप लिया है, और वह स्त्री एक खतरा
है। वह उस स्त्री को बहुत देर तक वहां रुकने नहीं दे सकता, क्योंकि फिर उसका आत्म- अविश्वास प्रकट हो जाएगा।
है। वह उस स्त्री को बहुत देर तक वहां रुकने नहीं दे सकता, क्योंकि फिर उसका आत्म- अविश्वास प्रकट हो जाएगा।
जिस व्यक्ति ने अपनी जीवन-ऊर्जा पर श्रद्धा नहीं की है, वह किसी का विश्वास नहीं कर सकता है। वह मनुष्य का शत्रु है, विष देने वाला है। और विष देने वाले बहुत अच्छे वक्ता होते हैं- वे होंगे ही, क्योंकि उन्हें तर्कसंगत होना पड़ता है और अपने को बचाना पड़ता है और उन्हें अपने मन पर निर्भर रहना पड़ता है।
और इन विष देने वालों ने बहुत गहरी क्षति पहुंचाई है, मानव-जाति को इतना गहरा घाव दिया है कि यह सोचना भी असंभव है कि मानवता कैसे इससे बाहर आ सकती है। उन्होंने सब-कुछ विषैला कर दिया है : यह बुरा है वह बुरा है, यह पाप है, वह अपराध है। और उन्होंने तुम्हारे चारों ओर इतनी गंदगी फैला दी है कि तुम जो कुछ भी करो तुममें अपराध- भावना पैदा होगी। अगर तुम नहीं करते तो तुम प्रकृति के कारण स्वयं को अपराधी अनुभव करोगे।
अगर तुम प्रेम करो तो तुम गिर गए; अगर तुम प्रेम न करो तो प्रेम करने की तीव्र इच्छा होती है। वह प्रकृति से आती है उसमें कुछ गलत नहीं है। वह वैसी ही प्राकृतिक है जैसे भूख और प्यास और उतनी ही सुंदर जितनी भूख और प्यास। लेकिन तुम्हारे संत- महात्मा तुम्हें प्लास्टिक के आदमी बनाना चाहते हैं- न भूख न प्यास, न प्रेम- फिर तुम परिपूर्ण हो।
अगर तुम्हारी यंत्र-रचना प्लास्टिक की हो तो यह आसान होगा। और वैज्ञानिक इस दिशा में, प्लास्टिक की यंत्र-रचना की दिशा में विचार कर रहे हैं। फिर तुम्हें किसी भोजन की आवश्यकता नहीं है तुम्हें किसी प्रेम की जरूरत नहीं है, तुम्हें किसी चीज की जरूरत नहीं है। तुम एक मशीन, एक रोबोट बन जाते हो। कभी जब कुछ बिगड़ जाए तो तुम्हें किसी वर्कशॉप में भेजा जा सकता है। हर रोज तुम आपूर्ति स्टेशन पर जा सकते हो और वे तुम्हारे भीतर कुछ पेट्रोल डाल सकते हैं और सब-कुछ ठीक हो जाता है। तब तुम पूर्णतावादी होओगे, फिर तुम परिपूर्ण होओगे!
लेकिन जैसा जीवन है जीवन नाजुक है वह प्लास्टिक नहीं है वह बहुत सूक्ष्म है। तुम्हारे भीतर तारें नहीं हैं स्नायु हैं। और संतुलन सदा गतिमान है। कुछ भी निश्चित नहीं है हर चीज दूसरी चीज में मिलती रहती है लीन होती रहती है। इसी कारण तुम जीवित हो।
समझ वाला व्यक्ति चिंता नहीं करता, वह अपूर्णता के बारे में चिंतित नहीं है। वह परिपूर्णता की दिशा में सोचता ही नहीं है, वह उस क्षण को जितना संभव हो उतनी समग्रता से जीता है जितना संभव हो उतनी पूर्णता से जीता है। और जितनी परिपूर्णता से जीता है उतना ही जीने में समर्थ हो जाता है।
एक दिन आता है वह आदर्शों को थोपे बिना बस जीता है अपने जीवन के विषय में कोई धारणा कोई नियम-नियमन बनाए बिना जीता है। वह बस जीता है, और प्रसन्न होता है, और आनंदित होता है।
इस आस्था में जीना अद्वैत का मार्ग है
और यही आस्था है
क्योंकि अद्वैत व्यक्ति वह है जिसके पास श्रद्धावान मन है।
और भीतर गहरे में, अगर तुम्हारे पास आस्थावान चित्त है तो अद्वैत तुम्हारे सामने होगा। अगर भीतर गहरे में संशय हैं तो सिद्धांत, विचारणा, शब्द, तत्वज्ञान, मत वहां होंगे और सामने से तुम बिलकुल अंधे होओगे। तुम निकट को नहीं देख सकोगे, तुम केवल दूर की सोचने में समर्थ होओगे। भीतर श्रद्धा, बाहर वास्तविकता, भीतर श्रद्धा, बाहर सत्य। श्रद्धा और सत्य का मिलन होता है- और दूसरा कोई मिलन नहीं है।
क्योंकि अद्वैत व्यक्ति वह है जिसके पास श्रद्धावान मन है।
अनेक शब्द।
मार्ग भाषा के पार है
क्योंकि उसमें न बीता हुआ कल है
न आने वाला कल है न आज है।
न आने वाला कल है न आज है।
आखिरी बात सोसान कह रहा है, अगर समय है तो भाषा संभव है; भाषा और समय दोनों का एक ही रंग-ढंग है। इसीलिए भाषा में तीन काल हैं भूत, वर्तमान, भविष्य- ठीक समय की भांति भूत, वर्तमान, भविष्य। भाषा समय है, समय के समान तीन वर्गों में विभाजित है। और जीवन उसके पार है। जीवन भूतकाल नहीं है। कहां है भूतकाल? तुम उसे कहीं नहीं खोज सकते हो।
मैंने सुना है, एक बार ऐसा हुआ एक आदमी एक बहुत बड़े संग्रहालय को देखने के लिए आया। आदमी बहुत धनी था, इसलिए उसे सबसे अच्छा गाइड दिया गया। उस आदमी ने एक सिर को देखा और पूछा यह कौन है?
गाइड वास्तव में जानता नहीं था, इसलिए उसने कहा यह नेपोलियन का सिर है। फिर एक छोटा सिर देखा और उस व्यक्ति ने गाइड से पूछा। गाइड उस धनी व्यक्ति से कुछ घबड़ाया हुआ था, इसलिए डरा हुआ था। सब गड़बड़ हो गया, और उसने कहा यह भी नेपोलियन का सिर है।
तो उस धनी व्यक्ति ने कहा क्या मतलब है तुम्हारा? दो सिर?
तो गाइड मुश्किल में पड़ गया और कुछ उत्तर तो देना ही था। इसलिए उसने कहा, हां, यह उसके बचपन का सिर है और वह उसके बुढापे का सिर है।
अगर अतीत है तो बचपन का सिर होगा, फिर कई सिर होंगे; जब तुम मरोगे तो तुम पीछे लाखों सिर छोड़ जाओगे। लेकिन तुम एक ही सिर छोड़ते हो, लाखों नहीं। अतीत तिरोहित हो जाता है, अतीत कहीं नहीं है, वह स्मृति में है। भविष्य कहां है? भविष्य कहीं नहीं है, केवल कल्पना में है। अतीत वह है जो अभी नहीं है और भविष्य वह है जो अभी नहीं है। इसीलिए रहस्यदर्शियों ने सदा कहा है केवल
वर्तमान है। लेकिन सोसान एक कदम आगे जाता है और कहता है
न बीता हुआ कल है नआने वाला कल है न आज है।
वर्तमान भी नहीं है। क्या अभिप्राय है उसका? - क्योंकि वह ठीक है, बिलकुल ठीक है। अगर अतीत नहीं है, और भविष्य नहीं है, तो फिर वर्तमान कैसे हो सकता है? क्योंकि वर्तमान केवल भूत और भविष्य के बीच में है।
वर्तमान क्या है? - एक मार्ग। अतीत से तुम भविष्य की ओर गति करते हो, उस गति में, केवल एक क्षण के लिए, वर्तमान है। वर्तमान क्या है? वह अतीत से भविष्य की ओर जाने का मार्ग है; वह इस कमरे से उस कमरे तक जाने के लिए एक द्वार है। लेकिन अगर न यह कमरा है, और न वह, तो दरवाजा कैसे हो सकता है? वह सेतु है, अतीत और भविष्य के बीच। और अगर दोनों किनारे नहीं हैं, तो सेतु कैसे हो सकता है?
सोसान ठीक है। सोसान कहता है न अतीत, न भविष्य, न वर्तमान। वह कह रहा है कि समय है ही नहीं। और सारी भाषा समय पर, भूत, भविष्य और वर्तमान पर आधारित है। भाषा मन की रचना है, समय भी मन की रचना है।
जब तुम भाषा को छोड़ देते हो, समय समाप्त हो जाता है। जब तुम सोच-विचार छोड़ देते हो, न अतीत है, न वर्तमान है, न भविष्य है। तुम समय के पार हो जाते हो, समय नहीं है। जब समय नहीं है, तो शाश्वतता है। जब समय नहीं है, तुम शाश्वत के जगत में प्रवेश कर जाते हो।
सत्य शाश्वत है। और जो भी तुम्हारे पास हैं वे सत्य की अस्थायी परछाइयां हैं।
वह ऐसे है जैसे चंद्रमा आकाश में निकल आया हो, पूर्णिमा की रात हो, और तुम झील में गहरे देखते हो और वहां चांद है। तुम्हारे पास केवल यही चांद है- झील में चांद। मन प्रतिबिंबित करता है, सारे सत्य जो तुम्हारे पास हैं मन के द्वारा प्रतिबिंबित होते हैं- वे परछाइयां हैं।
सोसान क्या कह रहा है? सोसान कह रहा है इस झील को भूल जाओ! क्योंकि यह एक दर्पण है। उस पार देखो, केवल तभी तुम वास्तविक चांद को देख सकोगे- और वह वहां है।
लेकिन तुमने झील के साथ, प्रतिबिंबित होने वाले मन के साथ अत्यधिक तादात्म्य स्थापित कर लिया है। मन को गिरा दो और अचानक सब-कुछ जो तुम चूक रहे थे ठीक बैठ जाता है, सब-कुछ जो तुम खोज रहे थे, घटित होता है, सब-कुछ जिसके तुमने सपने देखे थे और कामना की थी वह वहां है। वह सभी परिपूरित हो जाता है।
सारा संदेश यह है कि कैसे मन, भाषा और समय के पार हो जाएं।
आज इतना ही।
thank you guruji
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