तंत्रा-विजन-(सरहा
के गीत)-भाग-पहला
पहला-प्रवचन--(One
whose arrow is shot) (जिसका एक तीर नीशाने पर)
(सरहा के पदों पर दिए गए ओशो के अंग्रेजी प्रवचनों का दिनांक 21 अप्रैल,
1977 ओशो सभागार, पूना में दिये गए बीस अमृत प्रवचनों
में से पहले दस प्रवचनों तथा उसके शिष्यों द्वारा प्रस्तुत प्रश्नों के उत्तरों का
हिंदी अनुवाद)
सूत्र:
महान मंजुश्री
को मेरा प्रणाम,
प्रणाम
हैं उन्हें
जिन्होंने
किया सीमित को अधीन
जैसे पवन
के आघात से
शांत जल
में उभर आती है, उतंग तरंगें,
ऐसे ही
देखते हो सरहा
अनेक रूपों
में, हे राजन!
यद्यपि
है वह एक ही व्यक्ति।
भेंगा है
जो मूढ़
दिखते उसे
एक नहीं, दो दीप,
जहां दृश्य
और द्रष्टा नहीं दो,
अहा! मन
करता संचालन
दोनों ही
पदार्थगत सत्ता का।
गृहदीप
यद्यपि प्रज्वलित, जीते अंधेरे में नेत्रहिन,
सहजता से
परिव्याप्त सभी,
निकट वह
सभी के,
पर रहती
सब परे मोहग्रस्त के लिए।
सहजता से
परिव्याप्त सभी, निकट वह सभी के,
पर रहती
सदा परे मोहग्रस्त के लिए।
सरिताएं
हो अनेक, यद्यपि,
सागर मे
मिल होती है एक,
हों झूठ
अनेक परंतु
होगा सत्य
एक, विजयी सभी पर।
मिटेगा
अंधकार, कितना ही हो गहन,
उदित होने
पर एक ही सूर्य के।
इस
प्रथ्वी पर जितने भी सदगुरु हुए हैं उनमें गौतम बुद्ध सर्वश्रेष्ठ हैं। ईसा
क्राइस्ट, महावीर, मोहम्मद और अन्य कई महान
सदगुरु हुए परंतु बुद्ध फिर भी इन सबमें श्रेष्ठ हैं। ऐसा नहीं है कि बुद्ध की
ज्ञानोपलब्धि किसी अन्य की ज्ञानोपलब्धि से अधिक है--ज्ञान की उपलब्धि न कम होती
है न ज्यादा। वस्तुतः गुणात्मक दृष्टि से तो बुद्ध भी उसी चेतना को प्राप्त हुए
जिस चेतना को महावीर, क्राइस्ट, जरथुस्त्रा
तथा लाओत्सु प्राप्त हुए। अतः यह सवाल ही नहीं है कि कौन किससे अधिक ज्ञानोपलब्धि
को प्राप्त हुआ। परंतु जहां तक सदगुरु होने का प्रश्न है, बुद्ध
अतुलनीय हैं, क्योंकि उनके द्वारा हजारों व्यक्तियों को
ज्ञान उपलब्ध हुआ।
परंतु जहां तक सदगुरु होने का प्रश्न है, बुद्ध
अतुलनीय हैं क्योंकि उनके द्वारा हजारों व्यक्तियों को ज्ञान उपलब्ध हुआ। यह घटना
किसी अन्य गुरु के साथ कभी नहीं हुई। बुद्ध की परंपरा सबसे अधिक फलदायी रही है। आज
तक बुद्ध का परिवार सर्वाधिक सृजनात्मक परिवार रहा है। बुद्ध एक विशाल वृक्ष की
तरह हैं जिसकी अनेक शाखाएं हैं, और प्रत्येक शाखा फलवती रही
है, फूलों से लदी हुई है।
महावीर
एक तरह से अधिक आंचलिक या स्थानीय घटना के रूप में रहे। कृष्ण की दुर्गति पंडितों
और शास्त्रज्ञों के हाथों हुई। क्राइस्ट को पुरोहितों ने पूरी तरह नष्ट कर दिया।
बहुत कुछ संभव था परंतु न हो पाया। बुद्ध इस दृष्टि से अत्यंत भाग्यशाली सिद्ध
हुए। ऐसा नहीं कि पुरोहितों और पंडितों ने बुद्ध पर भा अपने हथकंडे नहीं आजमाए, उन्होंने जो कुछ किया जा सकता था किया। परंतु बुद्ध ने अपनी शिक्षा कुछ इस
ढंग निर्मित की थी कि उसका नष्ट होना असंभव था। इसलिए वह अभी तक जीवत है। पच्चीस
सौ वर्ष बीत जाने पर भा कुछ फूल इस वृक्ष पर अभी भी खिल उठते है। बुद्ध का वृक्ष
अभी भी हरा-भरा है। अभी भी जब बसंत आता है तो यह वृक्ष अपनी सुगंध फैला देता है,
अभी भी उसमें फूल खिलते है।
सरहा
इसी वृक्ष का एक फूल है। सरहा का जन्म बुद्ध के कोई दो सौ वर्ष बाद हुआ था। वे एक
दूसरी ही शाखा से उदभूत परंपरा के अंग थे। एक शाखा चलती है महाकश्यप से बोधिधर्म
तक, जिसमें से झेन का जन्म हुआ और जो अभी तक फूलों से भरी है।
दूसरी शाखा निकलती है बुद्ध से उनके पुत्र राहुलभद्र, राहुलभद्र
से श्री कीर्ति, श्री कीर्ति से सरहा, और
सरहा से नागार्जुन तक यह तंत्र की शाखा तिब्बत में आज भी फूल दे रही है।
तंत्र
ने तिब्बत को बदल दिया, और जिस प्रकार बोधिधर्म झेन के जनक
हैं उसी प्रकार सरहा तंत्र के जनक हैं। उसी प्रकार सरहा तंत्र के जनक हैं।
बोधिधर्मा ने चीन, कोरिया तथा जापान पर विजय पायी, सरहा ने तिब्बत को विजय किया।
सरहा
के ये पद अति सूंदर हैं। वे तंत्र का मूल आधार हैं। लेकिन पहले तुम्हें यह समझना
होगा कि तंत्र का जीवन के प्रति दृष्टिकोण क्या हैं, जीवन
दर्शन क्या हैं।
तंत्र
का बिलकुल आधारभूत--परंतु अत्यंत विद्रोहात्मक, अत्यंत
क्रांतिकारी दर्शन यह है कि संसार ऊंच और नीच में बंटा हुआ नहीं है, वह एक है, संयुक्त है। इस संसार में उत्कृष्ट और
निकृष्ट दोनों हाथ में हाथ डाले हुए हैं। अच्छे में बुरा समाहित है और बुरे में
अच्छा मिला हुआ है। चूंकि क्षण में भी निकृष्ट छिपा हुआ है, इसलिए
जो निकृष्ट है उसका इंकार नहीं किया जाना चाहिए। उसकी निंदा नहीं करनी चाहिए,
उसे मार डालना चाहिए। जो निकृष्ट है उसका रूपांतरण होना चाहिए। जो
निकृष्ट है उसे यदि ऊपर उठने का मौका दिया जाए तो वह भी श्रेष्ठ बन सकता है। भगवान
और शैतान के बीच ऐसी कोई खाई नहीं है जिस पर सेतु न बनाया जा सके। शैतान के हृदय
की गहराई में भी परमात्मा छिपा हुआ है। एक बार हृदय धड़कना शुरू हो जाए तो शैतान
परमात्मा बन जाता है।
यही
कारण है कि शैतान के लिए अंग्रेजी में दिया गया शब्द ‘डेविल’ जिस धातु से बना है उसका भी वही अर्थ होता है
जो भगवान के लिए दिए गए शब्द ‘डिवाइन’ से
होता है। ‘डेविल’ शब्द ही ‘डिवाइन’ से बना है। शैतान का मतलब तो इतना है कि जो अभी
परमात्मा नहीं हुआ। शैतान न तो परमात्मा के विरोध में है, न
वह परमात्मा को नष्ट करने के प्रयास में है, वस्तुतः शैतान
तो परमात्मा की खोज में है। शैतान तो परमात्मा बनने के मार्ग पर है, शत्रु कहां, वह तो बीज है। परमात्मा अपने पुरजोश में
खिला हुआ वृक्ष है, जब कि शैतान अभी बीज है। परंतु बीज में
ही वृक्ष छिपा है, और बीज वृक्ष का दुश्मन नहीं है। असलियत
तो यह है कि बिना बीज के वृक्ष हो ही नहीं सकता। बीज वृक्ष विरोधी नहीं है,
बड़ी घनी मित्रता है दोनों में, दोनों एक साथ
जुड़े हैं।
जहर और
अमृत दोनों एक ही शक्ति के दो रूप हैं, वैसे ही जैसे
जीवन और मृत्यु, दिन और रात, प्रेम और
घृणा, संभोग और समाधि।
तंत्र
कहता है: किसी चीज की निंदा न करो, निंदा करने की
वृत्ति ही मूढ़तापूर्ण है। निंदा करने से तुम अपने विकास की पूरी संभावना रोक देते
हो। कीचड़ की निंदा न करो, क्योंकि उसी में कमल छिपा है। कमल
पैदा करने के लिए कीचड़ का उपयोग करो। माना कि कीचड़ अभी तक कीचड़ है कमल नहीं बना है,
लेकिन वह बन सकता है। जो भी व्यक्ति सृजनात्मक है, धार्मिक है, वह कमल को जन्म देने में कीचड़ की सहायता
करेगा, जिससे कि कमल की कीचड़ से मुक्ति हो सके।
सरहा
तंत्र-दर्शन के प्रस्थापक हैं। मानव-जाति के इतिहास की इस वर्तमान घड़ी में जब कि
एक नया मनुष्य जन्म लेने के लिए तत्पर है, जब कि एक नई
चेतना द्वार पर दस्तक दे रही है, सरहा का तंत्र-दर्शन एक
विशेष अर्थवत्ता रखता है। और यह निश्चित है कि भविष्य तंत्र का है, क्योंकि द्वंदात्मक वृत्तियां अब और अधिक मनुष्य के मन पर कब्जा नहीं रखा
सकतीं। इन्हीं वृत्तियों ने सदियों से मनुष्य को अपंग और अपराध-भाव से पीड़ित बनाए
रखा है। इनकी वजह से मनुष्य स्वतंत्र नहीं, कैदी बना हुआ है।
सुख या आनंद तो दूर इन वृत्तियों के कारण मनुष्य सर्वाधिक दुखी है। इनके कारण भोजन
से लेकर संभोग तक और आत्मीयता से लेकर मित्रता तक सभी कुछ निंदित हुआ है। प्रेम
निंदित हुआ, शरीर निंदित हुआ, एक इंच
जगह तुम्हारे खड़े रहने के लिए नहीं छोड़ी है। सब-कुछ छीन लिया है और मनुष्य को
मात्र त्रिशंकु की तरह लटकता छोड़ दिया है ।
मनुष्य
की यह स्थिति अब और नहीं सही जा सकती। तंत्र तुम्हें एक नई दृष्टि दे सकता है, इसीलिए मैंने सरहा को चुना है। मुझे जिससे बहुत प्रेम है सरहा उनमें से एक
है, यह मेरा उनके साथ बड़ा पुराना प्रेम-संबंध है। तुमने शायद
सरहा का नाम भी न सुना हो, परंतु वे उन व्यक्तियों में से
हैं जिन्होंने जगत का बड़ा कल्याण किया हो ऐसे अंगुलियों पर गिने जाने वाले दस
व्यक्तियों में मैं सरहा का नाम लूंगा, यदि पांच भी ऐसे
व्यक्ति गिनने हों तो भी मैं सरहा को नहीं छोड़ पाऊंगा।
सरहा
के इन पदों में प्रवेश करने से पहले कुछ बातें सरहा के जीवन के विषय में जान लेनी
आवश्यक हैं। सरहा का जन्म विदर्भ महाराष्ट्र...का ही अंग है, पूना के बहुत नजदीक। राजा महापाल के शासनकाल में सरहा का जन्म हुआ। उनके
पिता बड़े विद्वान ब्राह्मण थे और राजा महापाल के दरबार में थे। पिता के साथ उनका
जवान बेटा भी दरबार में था। सरहा के चार और भाई थे, वे सबसे
छोटे परंतु सबसे अधिक तेजस्वी थे। उनकी ख्याति पूरे देश में फैलने लगी और राजा तो
उनकी प्रखर बुद्धिमत्ता पर मोहित सा हो गया था।
चारों
भाई भी बड़े पंड़ित थे परंतु सरहा के मुकाबले में कुछ भी नहीं। जब वे पांचों बड़े हुए
तो चार भाइयों की तो शादी हो गई, सरहा के साथ राजा अपनी बेटी
का विवाह रचाना चाहता था। परंतु सरहा सब छोड़-छाड़ कर संन्यास लेना चाहते थे। राजा
को बड़ी चोट पहुंची, उसने बड़ी कोशिश की सरहा को समझाने की--वे
थे ही इतने प्रतिभाशाली और इतने सुंदर युवक। जैसे-जैसे सरहा की ख्याति फैलने लगी
वैसे राजा महापाल के दरबार की भी ख्याति सारे देश में फैलने लगी। राजा को बड़ी
चिंता हुई, वह इस युवक को संन्यासी बनते नहीं देखना चाहता
था। वह सरहा के लिए सब-कुछ करने को तैयार था। परंतु सरहा ने अपनी जिद न छोड़ी और
उसे अनुमति देनी पड़ी। वह संन्यासी बन गया, श्री कीर्ति का
शिष्य बन गया।
श्री
कीर्ति बुद्ध की सीधी परंपरा में आते हैं, गौतम बुद्ध,
फिर अनके पुत्र राहुल भद्र, और फिर आते हैं
श्री कीर्ति। सरहा और बुद्ध के बीच सिर्फ दो ही गुरु हैं, बुद्ध
से वे बहुत दूर नहीं हैं। वृक्ष अभी बहुत ही हरा-भरा रहा होगा; उसकी तरंगें अभी बहुत ताजी-ताजी रही होंगी। बुद्ध अभी-अभी जा चुके थे,
वातावरण उनकी सुगंध से भरा रहा होगा।
राजा
को और धक्का तब लगा जब उसे पता चला कि ब्राह्मण होते हुए भी सरहा ने हिंदू
संन्यासी बनना छोड़ एक बौद्ध को अपना गुरु चुना। इस घटना से सरहा का परिवार भी बहुत
चिंतित हुआ। वे सब सरहा के दुश्मन हो गए, क्योंकि यह तो
ठीक नहीं हुआ था। और बाद में तो हालत और भी बिगड़ गई जिसको हम आगे चल कर देखेंगे।
सरहा
का असली नाम था राहुल जो उनके पिता ने रखा था। वे राहुल से सरहा कैसे बने यह हम
आगे देखेंगे, वह बड़ी प्रतिकर कथा है। तो जब सरहा श्री कीर्ति के पास
पहुंचे, पहली बात जो श्री कीर्ति ने उनसे कही वह थी: ‘भूल जाओ तुम्हारे वेदों को, और तुम्हारा सारा ज्ञान,
और वह सारी बकवास’ सरहा के लिए यह बड़ा कठिन था,
परंतु वे सब-कुछ करने के लिए तैयार थे। श्री कीर्ति के व्यक्तित्व
में बड़ा अनूठा आकर्षण था। सरहा ने अपना सारा ज्ञान छोड़ दिया, वे पुनः अज्ञानी हो गए।
यह
त्याग बड़े से बड़े त्यागों में से एक था; धन छोड़ना आसान
है, बड़ा राज्य छोड़ना आसान है, परंतु
ज्ञान छोड़ना बड़ा कठिन है इस संसार में। पहली बात तो यह कि उसे कैसे छोड़ा जाए?
वह तो भीतर है तुम्हारे। तुम अपना राज्य छोड़ सकते हो, तुम हिमालय जा सकते हो, तुम अपना पूरा धन बांट सकते
हो, परंतु तुम अपना ज्ञान कैसे छोड़ोगे?
और फिर
पुनः सीखे को अनसीखा करना, फिर बच्चे की तरह भोला
बनना....परंतु सरहा इसके लिए तैयार थे।
साल पर
साल बीतते गए और धीरे-धीरे सरहा ने अपना सारा ज्ञान पोंछ डाला, वे बड़े ध्यानी बन गए। जैसे पहले उनकी ख्याति महा पंड़ित के रूप में फैली थी
वैसे अब उनकी ख्याति महान साधक के रूप में फैलने लगी। लोग दूर-दूर से इस नवयुवक की
झलक पाने के लिए आने लगे जिससे एक नये पत्ते सा या घास पर पड़े ओस के बिंदुओं सा
भोलापन आ गया था।
एक दिन
अचानक सरहा को ध्यान में यह दिखाई दिया कि बाजार में एक स्त्री बैठी हुई है जो
उनकी सच्ची गुरु बनने वाली है। श्री कीर्ति ने तो केवल उन्हें मार्ग पर लगा दिया
है, असली शिक्षा तो उन्हें स्त्री से ही मिलने वाली है। अब यह
जरा समझने जैसी बात है। एक तंत्र ही है जिसने कभी कट्टर पुरुषत्व नहीं दिखाया। सच
तो यह है कि बिना किसी ज्ञानी स्त्री का सहयोग से तंत्र के अटपटे जगत में प्रवेश
करना ही असंभव है।
सरहा
को बाजार में बैठी हुई स्त्री दिखाई दी। पहली बात तो स्त्री और फिर बाजार में!
तंत्र बाजार में ही फलता-फूलता है, बिलकुल जीवन की
सघनता में। उसका दृष्टिकोण नितांत विधायक है, नकारात्मक है
ही नहीं। तो सरहा खड़े हो गए, श्री कीर्ति ने पूछा: ‘कहां जा रहे हो?’ सरहा ने कहा: ‘आपने मुझे मार्ग दिखाया। आपने मेरा ज्ञान छीना। आपने आधा काम पूरा किया,
आपने मेरी स्लेट पोंछ डाली। अब मैं बचा हुआ पूरा करने को तैयार हूं।
श्री कीर्ति हंसे, उन्होंने आशीर्वाद दिया और सरहा ने विदा
ली।
सरहा
बाजार पहुंचे। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, सचमुच वही
स्त्री दिखाई दी जिसे उन्होंने ध्यान में देखा था। वह स्त्री तीर बना रही थी,
तीर बनाने वाली थी।
तंत्र
के बारे में जो तीसरी बात खयाल में रखनी चाहिए वह यह कि तंत्र के अनुसार कोई
व्यक्ति जितना ही सुसंस्कृत, जितना सभ्य होगा उतनी ही
उसके तांत्रिक रूपांतरण की संभावना कम होगी। जितना ही व्यक्ति कम सभ्य और अधिक
आदिम होगा उतना ही अधिक जानदार होगा। जितने ही तुम सभ्य बनते हो उतने ही तुम
प्लास्टिक के बन जाते हो, तुम कृत्रिम बन जाते हो, जरूरत से ज्यादा परिष्कृत बन जाते हो, तुम्हारी जड़ें
धरती में ही खो जाती हैं। तुम्हें संसार की गंदगी से डर लगता है इसलिए तुम उससे हट
कर जीने लगते हो, तुम ऐसा दिखावा करने लगते हो जैसे तुम इस
संसार के ही नहीं हो। तंत्र कहता है: जो अभी भी असभ्य हैं, असंस्कृत
हैं, वे अधिक जानदार हैं, उनमें अधिक
तेजस्वीता है। और यही आधुनिक मनस्विदों का भी कहना है। एक नीग्रो किसी अमरीकन की
तुलना में अधिक जानदार है और इसी बात से अमरीकी डरता है। अमरीकन नीग्रो से बहुत
डरता है। डर इस बात का है कि अमरीकन तो बन गया है बिलकुल प्लास्टिक, जब कि नीग्रो अभी भा जानदार है, अभी भा पार्थिव है।
अमरीका
में काले और गोरों का संघर्ष सच में काले और गोरे का नहीं है, यह संघर्ष असली और नकली के बीच है। और गोरा अमरीकन मूलतः बड़ा घबड़ाया हुआ
है, उसे यह डर है कि अगर नीग्रो को रोका न गया तो वह एक न एक
दिन अमरीकन अपनी स्त्री खो बैठेगा। नीग्रो अधिक प्राणवान है, उसमें अधिक काम-शक्ति है, वह अधिक सजीव है, उसकी ऊर्जा में अभी भी उद्याम आवेग है। और सभ्य जातियों में एक डर यह
समाया हुआ है कि कहीं वे अपनी स्त्रियां न खो बैठें। वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि
अगर बहुत सारे ऐसे प्राणवान व्यक्ति उपलब्ध हो गए तो वे अपनी स्त्रियों को वश में
न रखा पाएंगे।
तंत्र
कहता है: अदिवासियों में तंत्र के विकास की पूरी संभावना है। तुम्हारा विकास गलत
दिशा में हुआ है। उनका अभी विकास नहीं हुआ, वे अभी भी सही
दिशा चुन सकते हैं, उनमें संभावनाएं अधिक हैं। और उनके पास
अनकिया करने के लिए कुछ भी नहीं है, इसलिए वे सीधे बढ़ सकते
हैं। एक तो तीर बनाने वाली स्त्री के पास जाना प्रतीकात्मक है। जो पंडित हैं उसे
प्राणवान के पास जाना ही होगा, नकली को असली के पास जाना ही
पड़ेगा।
सरहा
ने उस स्त्री को देखा, जवान थी, उत्यंत
तेजस्वी और प्राणवान। तीर का फल बना रही थी, न दाहिने देखा
रही थी न बाएं, बस तीन बनाने में तल्लीन थी। सरहा को तत्काल
उस स्त्री के सान्निध्य में एक असाधारण अनुभूति हुई, ऐसी
अनुभूति उन्हें पहले कभी नहीं हुई थी। यहां तक कि उनके गुरु श्री कीर्ति भी उस
स्त्री के आगे फीके पड़ गए। उसमें एक अदभुत ताजगी थी।
श्री
कीर्ति बड़े दार्शनिक थे, और यद्यपि उन्होंने सरहा से अपना
सारा ज्ञान छोड़ देने के लिए कहा था, फिर भी वे स्वयं अभी तक
ज्ञानी थे। उन्होंने सरहा से सारे वेद और शास्त्र छोड़ देने के लिए कहा था, परंतु उनके अपने शास्त्र थे और अपने वेद थे। यद्यपि वे दर्शन विरोधी थे
लेकिन उनका दर्शन-विरोध भी एक तरह का दर्शन ही था। अब यह स्त्री न तो दार्शनिक है
और न ही दर्शन-विरोधी, जो यह तक नहीं जानती कि दर्शन क्या चीज
है, जो अपनी आनंदमग्नता में दर्शन और विचार के जगत से बिलकुल
बेखबर है। यह एक ऐसी स्त्री है जो कर्मनिष्ठ है और जो अपने काम में पूरी तरह डूबी
हुई है।
सरहा ने बड़े गौर से देखा, तीर तैयार था, स्त्री ने एक आंख बंद कर एक अदृश्य
लक्ष्य का भेद करने की मुद्रा बना ली थी। सरहा ने जरा और नजदीक से देखा। अब असल
में वहां कोई लक्ष्य वगैरह कुछ नहीं था, उसने सिर्फ एक
मुद्रा बना ली थी। उसकी एक आंख बंद और दूसरी आंख खुली हुई थी और वह किसी अदृश्य
निशान को ताक रही थी जो वहां था ही नहीं। सरहा को इसमें कोई संकेत दिखाई देने लगा।
मुद्रा प्रतिकात्मक थी, उन्हें धुंधली सी प्रतीति होने लगी
थी परंतु स्पष्ट कुछ नहीं हो रहा था।
तो
सरहा ने उस स्त्री से पूछा कि क्या तीर बनाना तेरा व्यवसाय है, यह सुन कर उस स्त्री को बड़े जोर की उद्याम हंसी आई और उसने कहा: ‘अरे मूढ़ ब्राह्मण! तूने वेदों को तो छोड़ दिया परंतु अब बुद्ध के बचन
धम्मपद को पूजना शुरू कर दिया है, तो फर्क क्या हुआ? तूने किताबें बदल ली हैं, दर्शन बदल लिया है,
परंतु अरे मूढ़ तू तो यह सारा समय वैसा का वैसा ही रहा।’
सरहा
को यह सुन कर बड़ा धक्का लगा, इस तरह से उनके साथ पहले
किसी ने बात नहीं की थी। एक असंस्कृत स्त्री ही इस प्रकार बोल सकती थी। और जिस तरह
वह हंसी थी वह इतना असभ्य था, इतना आदिम, परंतु फिर भी उसमें ऐसा कुछ था जो बहुत ही प्राणवान था और सरहा उस स्त्री
के प्रति ऐसे खिंचे जा रहे थे जैसे लोहा चुंबक के प्रति खिंचता है।
उस
स्त्री ने फिर कहा, ‘क्या तुम अपने आप को बौद्ध मानते
हो?’ सरहा ने बौद्ध साधुओं के पीले वस्त्र पहन रखे होंगे। वह
स्त्री फिर हंसी, और कहने लगी, ‘बुद्ध
जो कहते हैं उसका अर्थ सिर्फ कर्म द्वारा जाना जा सकता है, न
शब्दों द्वारा और न पुस्तकों द्वारा। क्या अभी तक तुम्हारा जी नहीं भरा? क्या अभी तक तुम्हें इनसे ऊब पैदा नहीं हुई? अब इस
तरह की खोज में और ज्यादा समय बरबाद मत करो, चलो मेरे साथ।’
और
एकाएक कुछ हुआ, एक भीतरी संवाद जैसा कुछ घट गया।
सरहा को इस प्रकार की अनुभुति पहले कभी नहीं हुई थी। उस घड़ी में वह स्त्री जो कर
रही थी उसका आध्यात्मिक अर्थ उन्हें एकाएक स्पष्ट हुआ। सरहा ने देखा कि न वह बाएं
देख रही थी न दाएं; उसकी दृष्टि मध्य में ग़ढ़ी हुई थी।
पहली
बार उनकी समझ में आया कि बुद्ध जिसे मध्य में होना कहते हैं उसका अर्थ हैं: अति से
बचना। पहले वे दार्शनिक थे, अब वे दर्शन-विरोधी बन गए है--एक
अति से दूसरी अति। पहल वे एक चीज की पूजा करते थे, अब वे
उसके बिलकुल विरोधी वस्तु की पूजा कर रहे हैं--परंतु पूजा जारी है। तुम बाएं से
दाएं जा सकते हो या दाएं से बाएं परंतु इससे तुम्हारा कोई फायदा नहीं होगा। तुम
सिर्फ एक घड़ी के पेंडूलम कि तरह बाएं से दाएं और दाएं से बाएं घूमते रहोगे।
और
क्या तुमने ध्यान से देखा है?--जब पेंडुलम दाहिने जाता है
तब वह केवल बाएं जाने के लिए गति पैदा कर रहा होता है, और जब
वह बाएं जाता हैं तब दाएं जाने के लिए गति पैदा कर रहा होता है। और इस तरह घड़ी
चलती रहती है। और संसार चलता रहता है। मध्य में होने का अर्थ है कि पेंडुलम बस
मध्य में लटका हुआ है, न दाएं जाता हैं न बाएं। तब घड़ी थम
जाती हैं, तब संसार थम जाता है, तब कोई
समय नहीं रहता--तब एक समयरहितता होती है।
यह सब
सरहा ने श्री कीर्ति के मुंह से कई बार सुना था; उन्होंने
इसके विषय में पढ़ा भी था, उस पर विचार किया था, मनन किया था; इस विषय में औरों से चर्चा भी की थी कि
मध्य में होना ही सबसे अधिक उचित हैं। परंतु यहां पहली बार उन्होंने इस सत्य को
घटते हुए देखा: वह स्त्री न बाएं देख रही थी न दाएं, वह
सिर्फ मध्य में देख रही थी, उसका पूरा ध्यान मध्य में
केंद्रित था।
मध्य
ही वह बिंदु हैं जहां से अतिक्रम होता है। इस बात पर जरा विचार करो, जरा मनन करो, अपने जीवन में देखो। आदमी धन के पीछे
भाग रहा हैं, पागल की तरह, धन ही उसका
परमात्मा है.....
एक
स्त्री ने दूसरी स्त्री से पूछा: ‘तुमने अपने
प्रेमी को क्यों छोड़ दिया क्या बात हुई? मुझे तो लगा था कि
तुम्हारी सगाई हो चुकी है और अब तुम्हारा विवाह होने वाला है--हुआ क्या?’
दूसरी
स्त्री ने जवाब दिया: ‘हमारे संबंध टूटने का कारण यह है कि
हमारे धर्म अलग-अलग हैं।’
पूछने
वाली जरा हैरान हुई, क्योंकि वह जानती थी दोनों कैथोलिक
हैं, तो उसने कहा, ‘तुम्हारे धर्म
अलग-अलग है इससे तुम्हारा क्या मतलब हैं?‘
स्त्री
ने कहा: ‘मैं धन की पूजा करती हूं, और उसकी
जेब खाली है।‘
ऐसे
लोग हैं जिनके लिए धन ही परमात्मा है। एक न एक दिन यह परमात्मा बेकार साबित हो
जाता है--वह बेकार साबित होकर रहेगा। धन कभी परमात्मा बन नहीं सकता। वह मात्र
तुम्हारा भ्रम था, तुम्हारा प्रक्षिप्तिकरण था। एक न
एक दिन तुम ऐसी जगह पहुंच जाते हो जहा से तुम्हें दिखाई देने लगता है कि उसमें
परमात्मा है ही नहीं, कि उसमें कुछ भी नहीं है, कि तुम सिर्फ अपना जीवन गंवा रहे थे। तब तुम उसके विरोध में हो जाते हो,
तब तुम एक विरोधी रूप अपना लेते हो, तुम
धन-विरोधी बन जाते हो। तब तुम धन छोड़ने लगते हो, तुम उसे
छूते भी नहीं। तुम निरंतर उसकी पकड़ में रहते हो, अब तुम धन
के विरुद्ध हो जाते हो, परंतु उसकी पकड़ फिर भा बनी रहती है।
तुम बाएं से दाएं हट गए, परंतु तुम्हारी चेतना का केंद्र अभी
भी धन ही है।
तुम एक
इच्छा छोड़ कर दूसरी पकड़ सकते हो। पहले तुम बहुत सांसारिक थे, किसी दिन तुम अध्यात्मवादी बन सकते हो--परंतु रहते तुम वही के वही हो,
तुम्हारा रोग बना रहता है। बुद्ध कहते हैं: ‘संसार
में होना तो सांसारिक होना है ही, परंतु अध्यात्मवादी होना
भी सांसारिक होना है। धन कमाने के लिए जीना तो धन के लिए पागल होना है ही, लेकिन धन के विरुद्ध होना भी धन के प्रति पागल होना है; सत्ता की खोज तो मूर्खता है ही, परंतु उससे भागना भी
मूर्खता है। विवेक का मतलब ही है दो अतियों के मध्य होना।
पहली
बार सरहा ने वह घटते हुए देखा जो उन्होंने श्री कीर्ति में भी नहीं देखा था। सच
में वह घट रहा था, और उस स्त्री ने ठीक ही कहा था,
‘तुम केवल कर्म द्वारा सीख सकते हो।’ और वह
इतनी तल्लीन थी कि उसने सरहा को देखा तक नहीं जो उसे वहां खड़े-खड़े देख रहे थे। वह
इतनी तल्लीन थी, अपने काम में इतनी डूबी हुई थी--यही बुद्ध
का संदेश है: कम में पूरे डूबो जिससे कर्म से ही मुक्ति मिल जाए।
कर्म
बनता ही इसलिए है क्योंकि तुम उसमें उतरते नहीं हो। अगर तुम कर्म में पूरे उतर
जाते तो उसका कोई निशान नहीं बचता। कोई भी काम अगर पूरा कर लो तो वह हमेशा के लिए
खत्म हो जाता है, फिर उसकी कोई स्मृति नहीं बचती।
अधूरा काम पीछा करता ही रहता है, और मन उसे पूरा किए बिना
छोड़ना नहीं चाहता।
मन सदा
चीजें पूरी करने के लिए तत्पर रहता है, कोई भी चीज
पूरी कर लो और मन विसर्जित हो जाता है। अगर तुम अपने काम पूरे करते रहो तो एक दिन
तुम पाओगे कि मन रहा ही नहीं। मन भूतकाल में घटे अधूरे कर्मो का संग्रह हैं।
तुम्हें
किसी स्त्री को प्रेम करना था और तुमने नहीं किया; अब वह
स्त्री मर चुकी है। तुम्हें अपनी गलतियों के लिये पिता से क्षमा मांगनी थी,
अब वे जिंदा नहीं है।
अब
उसकी पीड़ा बनी रहेगी, वह बात भूत की तरह पीछा करेगी। अब
तुम असहाय--क्या करूं? अब किसके पास जाकर क्षमा मांगूं?
तुम्हें किसी मित्र के साथ भलाई करनी थी परंतु फिर तुम उसके प्रति
संकुचित हो गए। तुम्हारे मन में अपराध-भाव बन गया, तुम
पश्चाताप करने लगे। और इस तरह चलता रहता है।
कोई भी
काम पूरी तरह कर लो और तुम उससे मुक्त हो जाते हो, फिर तुम
लौट कर नहीं देखते। असली आदमी पीछे लौट कर नहीं देखता, क्योंकि
वहां देखाने के लिए कुछ है ही नहीं। उसके सर पर कुछ हावी नहीं रहता, वह केवल आगे बढ़ता चलता है। उसकी आंखों पर भूतकाल का पर्दा नहीं गिरा होता,
उसकी दृष्टि में धुंधलापन नहीं होता। उस स्पष्टता में किसी को
वास्तविकता को बोध होता है।
तुम
अपने अधूरे किए हुए कर्मों से इतने चिंतित रहते हो, तुम
जैसे एक कबाड़खाना हो। एक चीज अधूरी यहा, एक चीज अधूरी
वहा--कोई चीज पूरी नहीं। क्या कभी तुमने इस बात पर ध्यान दिया है? क्या तुमने कभी कोई चीज पूरी की है? या सब
अधूरा-अधूरा? अभी एक काम पूरा हुआ नहीं और दूसरा शुरू कर
देते हो, और अभी वह पूरा हुआ नहीं कि तीसरा शुरू कर देते हो।
इस तरह तुम अधूरे कर्मों के बोझ के नीचे दबते चलते हो। इसी को कर्म कहते हैं--कर्म
का मतलब है अधूरा कृत्य।
पूर्ण
बनते ही तुम मुक्त हो जाते हो।
वह
स्त्री पूर्णतः डूबी हुई थी। इसीलिए वह इतनी तेजस्वी और सुदंर लग रही थी। वैसे तो
वह एक साधारण स्त्री ही थी, परंतु उसका सौंदर्य अलौकिक था।
उसका सौंदर्य इसीलिए खिला हुआ था क्योंकि वह अपने काम में पूरी तरह डूबी हुई थी,
क्योंकि वह अतिवादी नहीं थी। उस
का
सौंदर्य निखर रहा था इसीलिए क्योंकि वह मध्य में थी, संतुलित
थी। सतुंलन से शोभा आती है।
पहली
बार सरहा को एक ऐसी स्त्री मिली थी जिसने न केवल शारीरिक बल्कि आध्यात्मिक सौंदर्य
था। स्वभावतः वे समर्पित हो गए। कहना चाहिए समर्पण हो गया। वह स्त्री जो भी कर रह
थी उसमें सरहा पूरा डूब गए, और उसे देख कर वे पहली बार समझे कि
इसे कहते हैं ध्यान। ध्यान का यह अर्थ नहीं है कि तुम किसी खास समय पर बैठ कर
राम-राम जपो, या कि तुम चर्च जाओ, या
मंदिर, मस्जिद जाओ। ध्यान का अर्थ है जीवन में पूरी तरह
संलग्न होना, साधारण सा काम भी इतनी तन्यमता से करना कि काम
में से गहराई झलकने लगे।
पहली
बार सरहा की समझ में आया कि ध्यान क्या है? ध्यान तो वह भी
करते थे, बड़ी मेहनत करते थे, लेकिन यहा
पहली बार ध्यान वस्तुतः घटित हुआ था, एक दम सजीव। वे उसे
अनुभूत कर सकते थे, छू सकते थे, ध्यान
जैसे साकार हो उठा था। और तब उन्हें याद आया कि एक आंख बंद और दूसरी आंख खुली रखना
यह एक बौद्ध प्रतीक है।
बुद्ध
कहते हैं--और आज के मनस्विद उनसे सहमत होंगे; पच्चीस सौ साल
बाद मनोविज्ञान उस नतीजे पर पहुंचा है जहां बुद्ध इतने पहले पहुंच चुके थे। बुद्ध
कहते हैं, हमारा आधा मस्तिष्क तर्क करता है और आधा मस्तिष्क
अंतर्बोध (संप्रेषण) करता है। हमारा मस्तिष्क दो भागों में या दो क्षेत्रों में
बंटा हुआ है। बायां हिस्सा सोचता है, तर्क करता है, तर्कबद्ध दलील करता है, विश्लेषण करता है। वह दर्शन
और धर्मशास्त्र का क्षेत्र है, जिसमें शब्द ही शब्द भरे पड़े
हैं, जिसमें दलीलें ही दलीलें हैं। तर्क और निष्कर्ष है वह
बायां मस्तिष्क बिलकुल अरस्तु जैसा है।
दाहिना
मस्तिष्क अंतर्बोध करता है, वह काव्यात्मक प्रेरणा का स्रोत है,
वह द्रष्टा है; वह पूर्व-चेतना, पूर्व-बोध का केंद्र है। तुम बहस नहीं करते, तुम बस
जान जाते हो। तुम अनुमान नहीं लगाते, तुम्हें बस बोध हो जाता
है। पूर्व-बोध की स्थिति का अर्थ ही यह है, वह बस होता है।
सत्य
की प्रतीति दाहिने मस्तिष्क द्वारा होती है जबकि सत्य का अनुमान बाएं मस्तिष्क
द्वारा। लेकिन अनुमान-अनुमान है, वह अनुभव नहीं है।
एकाएक
सरहा को ख्याल आया कि उस स्त्री ने प्रतिकात्मक रूप में तर्क की आंख बंद कर ली थी
और दूसरी आंख प्रेम, आत्मज्ञान और बोध के प्रतिक के रूप
में खोल रखी थी। और फिर उन्हें वह जिस मुद्रा में थी उसका ध्यान आया।
अज्ञात
और अदृश्य को लक्ष्य बनाकर हम एक यात्रा पर चल पड़े हैं, वह जानने के लिए जो नहीं जाना जा सकता। वहीं सच्चा-ज्ञान है, वह जानना जो कभी जाना नहीं जा सकता, उसकी अनुभूति
करना जो कभी अनुभूत नहीं किया जा सकता, वह पाना जो कभी पाया
नहीं जा सकता। ऐसी असंभव अभीप्सा ही व्यक्ति को धार्मिक बनाती है। हां, असंभव अभीप्सा, लेकिन ‘असंभव’
से मेरा यह मतलब नहीं है कि वह कभी घटित होगी ही नहीं; ‘असंभव’ से मेरा मतलब यह है कि वह तब तक संभव नहीं है
जब तक तुम पूरे के पूरे रूपांतरित नहीं हो जाते। जैसे तुम हो वैसे तो यह संभव नहीं
लेकिन होने के भी अलग-अलग ढंगहोते है। और तुम एक बिलकुल ही नये आदमी बन सकते
हो....तब वह संभव है। वह एक दूसरे ही ढंग के आदमी के लिए संभव है। इसीलिए जीसस
कहते हैं: जब तक तुम्हारा पुनर्जन्म नहीं होता तब तक तुम नहीं जान सकोगे। एक नया
आदमी ही वह जान सकता है।
तुम
मेरे पास आते हो, लेकिन तुम नहीं जान सकोगे। पहले
मुझे तुम्हारी हत्या करनी होगी, पहले मुझे तुम्हारे साथ कठोर
बनना होगा, खतरनाक बनना होगा, तुम्हें
पहले मिटना होगा। और तब एक नये मनुष्य का जन्म होता है, एक
नई चेतना जन्म लेती है, क्योंकि तुममें कुछ है जो अविनाशी है,
जिसे नष्ट नहीं किया जा सकता; कोई उसे नष्ट
नहीं कर सकता। जो नाशवान है, वही नष्ट होगा, जो अनश्वर है वह बचा रहेगा। जब तुम अपने भीतर छिपे हुए उस अविनाशी तत्व को,
उस सनातन बोध को पा लेते हो तब तुम एक नये मनुष्य बन जाते हो,
एक नई चेतना बन जाते हो। और तब जो असंभाव है वह संभव बनता है,
जो अप्राप्त है वह प्राप्त होता है।
तो
सरहा को उस स्त्री की मुद्रा का स्मरण आया। उस एक अज्ञत, अदृश्य, अगाम्य की ओर लक्ष्य किये हुए थी। कैसे
अस्तित्व के साथ एक हुआ जाए? लक्ष्य है अद्वैत जहा विषय और
विषयी दोनों खो जाते हैं, जहां ‘मैं’
और ‘तू’ खो जाते हैं।
मार्टिन
बूबर की एक बड़ी प्रसिद्ध पुस्तक है: ‘आइ एंड दाउ।’
मार्टिन बूबर कहता है कि प्रार्थना की अनुभूति ‘मैं’ और ‘तू’ की अनुभूति है--और वह ठीक कहता है। प्रार्थना की अनुभूति ‘मैं-तू’ की ही अनुभूति है, जिसमे
परमात्मा है ‘तू’ ओर तुम होते हो ‘मैं’ और तुम्हारे और ‘तू’
के बीच एक भीतरी संवाद घटता है। लेकिन बौद्ध धर्म में प्रार्थना है
ही नहीं, वह उससे ऊपर उठता है। बौद्ध धर्म कहता है: ‘मैं-तू’ का संबध भी द्वैत का संबध है, तुम फिर भी अलग विषक्त रह जाते हो। तुम दूसरे के प्रति चिल्ला सकते हो,
लेकिन भीतरी संवाद घटित नहीं होगा। भीतरी संवाद तो तब घटता है जब ‘मैं-तू’ का द्वैत ही नहीं रहता; जब विषय और विषयी दोनों खो जाते हैं; जहां ‘मैं’ रहता है न ‘तू’ रहता है। जहा न खोजने वाला रहता है, न वह रहता है
जिसकी खोज है--जहां एक की ही सत्ता होती है, केवल एकता होती
है।
सरहा
ने जैसे ही यह जाना, उस स्त्री की क्रियाओं को परखा और
उन्हें सत्य की पहचान हुई, उस स्त्री ने उन्हें ‘सरहा’ कह कर पुकारा। उनका नाम तो राहुल था, उस स्त्री ने लेकिन उन्हें ‘सरहा’ कहा। ‘सरहा’ बड़ा प्यारा शब्द
है। उसका अर्थ होता है, ‘वह जिसने तीर मार लिया है।’
‘सर’ का अर्थ होता है ‘तीर’
‘हा’ का मतलब है ‘मार
लिया’ ‘सरहा’ का अर्थ है ‘वह जिसने तीर मार लिया’। जैसे ही उन्हें उस स्त्री
की क्रियाओं का भेद समझ में आ गया, उसकी वह प्रतिकात्मक
मुद्राएं, जैसे कि वह उन्हें कुछ देने का प्रयत्न कर रही थी,
वह क्या दिखाने का प्रयत्न कर रही थी उसका रहस्य समझ में आया,
वैसे ही वह स्त्री अति आनंदित हुई। वह नाच उठी और उसने उन्हें ‘सरहा’ कह कर बुलाया और कहा: ‘आज
से तुम सरहा कहे जाओगे: तुमने तीर मार लिया है। मेरी क्रियाओं का भेद समझ कर तुमने
प्रवेश कर लिया है।
सरहा
ने कहा: ‘तुम कोई साधारण तीर बनाने वाली स्त्री नहीं हो, मेरा ये सोचना है कि तुम एक सामान्य तीर बनाने वाली स्त्री हो, भूल थी, मुझे क्षमा करो, इस
बात का मुझे बहुत खेद है। तुम एक महान गुरु हो और तुम्हारे कारण मेरा पुनर्जन्म
हुआ है। कल तक मैं सच्चा ब्राह्मण नहीं था, लेकिन आज से मैं
जरूर ब्राह्मण हूं। तुम ही मेरी गुरु हो, और तुम ही मेरी
माता हो, और तुम्हीं ने मुझे नया जन्म दिया है। मैं अब वही
नहीं हूं। इसलिए तुमने ठीक ही किया जो मेरा पुराना नाम बदल कर मुझे नया नाम दे
दिया’
तुम
मुझसे कभी पूछते हो: ‘आप नया नाम क्यो देते हो?’--इसलिए कि तुम्हारा पुराना नामो निशान न बचे, कि तुम
अपने भूतकाल को भूल जाओ, जो बीत गया है उससे पूरा छुटकारा
जरूरी है, भूतकाल के साथ तुम्हें पूरी तरह संबंध-विच्छेद
करना होगा।
सो इस
प्रकार राहुल सरहा बन गए।
कहा तो
यह जाता है कि वह स्त्री और कोई न होकर गुप्त रूप
में स्वंय बुद्ध थे। शास्त्रों में जो बुद्ध का नाम दिया गया है, वह है सुखनाथ बुद्ध, जो सरहा जैसे बड़ी संभावना रखने
वाले व्यक्ति की सहायता के लिए आए थे। बुद्ध ने, या कहो किसी
सुखनाथ नाम के बुद्धपुरुष ने स्त्री का रूप
ले लिया था। लेकिन क्यों? क्यों स्त्री का रूप?
क्योंकि तंत्र यह मानता है कि जैसे मनुष्य का जन्म स्त्री से होता
है वैसे ही शिष्य के रूप में उसका नया जन्म भी स्त्री से ही होगा। असलियत तो यह है
कि सभी गुरु मां अधिक और पिता कम होते हैं। उनमें स्त्रैणता का गुण होता है। बुद्ध
स्त्रैण है, वैसे ही महावीर और वैसे ही कृष्ण भी स्त्रैण है।
इनमें तुम्हे स्त्रियोचित लावण्य और (सुडौलता) गोलाई, स्त्रियोचित
सौंदर्य दिखाई देंगे: इनकी आंखों में तुम देखो तो तुम्हें पुरुष की आक्रामकता नहीं
दिखाई देगी।
तो
बुद्ध का स्त्री रूप धारण करना बड़ा प्रतिकात्मक है। बुद्ध सदा स्त्री का रूप लेते
हैं; वे भले ही पुरुष के शरीर में रहते हो लेकिन मूलतः वे
स्त्री ही होते हैं। क्योंकि जो भी पैदा होता है वह स्त्री-शक्ति से ही होता है।
पुरुष शक्ति जन्म की प्रक्रिया का आरंभ तो कर सकती है लेकिन जन्म नहीं दे सकती।
गुरु
को तुम्हें अपने गर्भ में महीनों तक, सालों तक और
कभी-कभी तो जन्मों तक रखना पड़ता है। कोई नहीं कह सकता कब तुम जन्म लेने को तैयार
हो जाओ। गुरु को मां बनना पड़ता है। गुरु में स्त्री-शक्ति की भारी सामर्थ्य होना
जरूरी है तभी वह तुम पर प्रेम की वर्षा कर सकता है, तभी वह
तुम्हें खत्म कर सकता है। जब तक तुम्हें उसके प्रेम के बारे में पक्का नहीं होगा,
तुम उसे खत्म नहीं करने दोगे। तुम श्रद्धा करोगे कैसे? केवल गुरु का प्रेम ही तुम्हें श्रद्धा करने योग्य बनाएगा और उसी श्रद्धा
द्वारा वह धीरे-धीरे तुम्हारे अंग-प्रत्यंग काटेगा। और एक तुम एकाएक मिट जाओगे।
धीरे...धीरे...धीरे और तुम गए। गते गते पारगते। तब नये का जन्म होता है।
तीर
बनाने वाली स्त्री ने सरहा को स्वीकार कर लिया। असल में वह उसकी प्रतिक्षा कर रही
थी। गुरु, शिष्य की प्रतिक्षा करता है। पुरानी परंपराएं कहती है:
इससे पहले कि शिष्य गुरु को चुने, गुरु ने शिष्य को चुन लिया
होता है। ठीक वही इस कथा में भी घटित हुआ। सुखनाथ स्त्री के रूप में छिप कर सरहा
के आने की तथा उनके द्वारा रूपांतरित होने की प्रतीक्षी कर रहे थे।
यह और
भी अधिक तर्कसंगत लगता है, कि पहले गुरु ही चुने क्योंकि
उसमें बहुत अधिक प्रतिभिज्ञता है, वह जानता है। वह तुम्हारे
अस्तित्व में तुम्हारी संभावना में प्रवेश कर सकते हैं। वह तुम्हारा भविष्य देख
सकता है। वह उसे देख सकता है जो हो सकता है। जब तुम गुरु चुनते हो तब तुम यह सोचते
हो कि तुमने चुना-तुम गलत सोचते हो। तुम गुरु कैसे चुनोगे? तुम
तो अंधे हो, तुम कैसे पहचान सकोगे गुरु को? तुम तो बेहोश हो, तुम्हे गुरु की अनुभूति होगी कैसे?
अगर तुम्हे उसकी अनुभूति होने लगे तो उसका अर्थ है, गुरु ने तुम्हारे हृदय मे प्रवेश कर लिया है, और
तुम्हारी शक्तियों के साथ खेलना शुरू कर दिया है--इसीलिए तुम्हे उसकी अनुभूति होने
लगती है।
इससे
पहले कि शिष्य गुरु को चुने, शिष्य चुन लिया गया होता
है।
स्त्री
ने सरहा को स्वीकार कर लिया। वह असके आने की प्रतिक्षा कर ही रही थी। वे दोनो एक
श्मशान में आकर साथ-साथ रहने लगे। श्मशान में क्यों? इसलिए
कि बुद्ध ने कहा है: ‘जब तक तुम मृत्यु को नहीं समझते,
जीवन क्या है यह नहीं समझ पाओगे। जब तक तुम मर नहीं जाते, तुम्हारे पुनर्जन्म नहीं होगा।
सरहा
के बाद तंत्र के कई अनुयायी श्मशान में रह चुके हैं। वे इस परंपरा के जनक थे, वे श्मशान में ही रहे। लोग अरथियां लाते और जलाते, और
वे वहीं रहते। उन दोनों के बीच गहन प्रेम था--ऐसा नहीं जैसा किसी स्त्री और पुरुष
के बीच होता है, बल्कि गुरु और शिष्य का प्रेम जो
स्त्री-पुरुष के प्रेम से कहीं अधिक ऊंचा है, जो अधिक घनिष्ठ
होता है, निश्चय ही अधिक घनिष्ठ...क्योंकि स्त्री और पुरुष
का प्रेम तो केवल शारीरिक होता है। ज्यादा से ज्यादा कभी-कभी मन तक पहुंचता है,
वरना अक्सर तो शरीर तक ही सीमित रहता है।
गुरु
और शिष्य का संबंध, आत्मा का प्रेम-संबंध है। सरहा को
उनका आत्म-साथी मिल गया था। दोनों एक-दूसरे के गहन प्रेम में थे, ऐसा प्रेम जो इस पृथ्वी पर कदाचित ही होता है।
स्त्री
ने सरहा को तंत्र की शिक्षा दी। केवल स्त्री ही तंत्र सिखा सकती है। किसी ने मुझसे
पूछा कि मैंने कविशा को तंत्र का ग्रुप लीडर क्यों बनया? इसलिए कि केवल स्त्री ही तंत्र के ग्रुप की लीडर बन सकती है। पुरुष के लिए
कठिन होगा। हां, कभी-कभी पुरुष भी बन सकता है, लेकिन फिर उसे बहुत ही स्त्रैण बनना होगा। स्त्री तो होती ही है, उसमें पहले से ही वे गुण होते हैं--प्रेम और स्नेह के गुण। उसमें स्वभावतः
देखभाल, प्रेम, तथा कोमलता के गुण होते
हैं।
इस तीर
बनाने वाली स्त्री के मार्ग-दर्शन में सरहा तांत्रिक बन गए। अब उन्होंने ध्यान
करना छोड़ दिया। एक दिन उन्होंने वेद, शास्त्र,
ज्ञान आदि छोड़ दिया था, अब उन्होंने ध्यान भी
छोड़ दिया। सारे देश में अफवाह फैल गई कि सरहा अब ध्यान नहीं करते। वे गाते जरुर
हैं, नाचते भी हैं, लेकिन ध्यान बिलकुल
नहीं करते। अब संगीत ही उनका ध्यान बन गया, अब नृत्य ही उनका
ध्यान बन गया। अब उत्सव ही उनके सारे जीवन को ढंग बन गया।
श्मशान
में रहना और उत्सव। रहना जहां केवल मृत्यु घटती हो और जीना आनंद-विभोर होकर। यही
तंत्र की खूबी है--वह जहां भी विरोध है, जो भी विपरीत
है उसे जोड़ता है। अगर तुम कभी श्मशान जाओ तो उदास हो जाओगे, वहां
तुम्हारे लिए आनंद मग्न होना बड़ा कठिन होगा, ऐसी जगह जहां
लोग जलाये जाते हो, जहां लोग रोते-चिल्लाते हों, तुम्हारे लिए गाना और नाचना बड़ा कठिन होगा। और रोज मौत ही मौत, दिन रात मौत। कैसे तुम आनंद मनाओगे?
लेकिन
अगर वहां तुम आनंद नहीं मना सकते तो जिसे आज तक तुम आनंद समझते रहे हो वह झूठ है।
अगर तुम श्मशान में भी आनंद मना सको तब तो यह कहा जा सकता है, कि तुम में आनंद घटित हुआ है। क्योंकि अब वह बेशर्त है। अब इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता कि कही मृत्यु है या जीवन, कि किसी का जन्म हुआ या
मृत्यु हुई।
सरहा
गाने और नाचने लगे। अब वे पहले की तरह गंभीर नहीं रहे। तंत्र में गंभिरता है ही
नहीं। तंत्र है क्रीड़ा! हां, उसमें ईमानदारी है, लकिन गंभीरता नहीं। वह अत्यंत आनंदपूर्ण है। तो सरहा के आस्तित्व में
क्रीड़ा का प्रवेश हो गआ--तंत्र है ही क्रीड़ा, क्योंकि तंत्र
प्रेम का सबसे विकसित रूप है: प्रेम है क्रीड़ा।
कुछ
लोग हैं जो प्रेम को भी क्रीड़ा नहीं मानते। महात्मा गांधी ने कहा है: ‘संभोग तभी करो जब बच्चे पैदा करने हों। प्रेम तक को तो लोग एक काम बना
डालते हैं--बच्चे पैदा करना। यह तो बिलकुल ही घिनौनी बात हुई। बच्चे पैदा करने हो
तभी पत्नी के साथ संभोग करो--क्या पत्नी कोई फैक्टरी है! पत्नी से संभोग तब करो जब
तुम आनंद अनुभव कर रहे हो, उत्साहित हो, जब तुम अपने चरमोत्कर्ष पर हो। उस ऊर्जा को बांटो। पति के साथ प्रेम तब
करो जब तुम्हारा मन नृत्य, गीत और आनंद से आंदोलित हो।
प्रजोत्पादन या बच्चे पैदा करने के लिए नहीं! यह ‘प्रजोत्पादन’
शब्द ही अश्लील है। संभोग करो तो आनंद के साथ, घने आनंद के साथ करो, जब तुम्हारे पास बहुत आनंद हो
जाए तब बांटो।
तो
सरहा के जीवन में खेल और क्रीड़ा का प्रवेश हुआ। प्रेमी सदा क्रीड़ा के उत्साह में
होता है, और जैसे ही यह क्रीड़ा का उत्साह मरता है, तुम पति या पत्नी बन जाते हो, फिर तुम प्रेमी नहीं,
रहते, फिर तुम बच्चे पैदा करने में लग जाते
हो। और जैसे ही तुम पति या पत्नी बने कि तुम्हारे में जो सुदंर है उसकी हत्या हो
जाती है, उसमें प्राण नहीं रहते, उसमें
रस नहीं बहता। अब मात्र एक दिखावा, एक ढोंग रह जाता है।
सरहा
के जीवन में क्रीड़ा का प्रवेश हुआ, और उसके साथ ही
सच्चे धर्म का जन्म हुआ। उनकी भावविभोरता इतनी संक्रामक थी कि लोग उन्हें गाते और
नाचते हुए देखने आने लगे। और जब लोग उन्हें देखते तो वे भी उनके साथ नाचने लगते;
वे भी उनके साथ गाने लगते। वह पूरा श्मशान बड़े आनंद और उत्सव का
केंद्र बन गया। वहां मुर्दे तो अभी भी जलते थे, लेकिन सरहा
और तीर बनाने वाली स्त्री के आसपास अधिकाधिक भीड़ एकत्रित होने लगी, और उस श्मशान में बड़ा आनंद मनाया जाने लगा।
और यह
सब इतना संक्रामक हो गया कि जिंहें भावविभोरता क्या होती है उसका कुछ भी पता नहीं
था, वे लोग आकर नाचते और गाने लगे और भावविभोरता में डूबने
लगे, समाधि में उतरने लगे। सरहा की तरंगें, उनकी मौजूदगी ही इतनी प्रभावशाली बन गई कि अगर तुम उनके साथ जुड़ जाओ तो
तुम्हारे साथ भी वह घट जाए। वे इतने मस्त बन गए थे कि लोगों पर उनकी मस्ती उमड़
पड़ने लगी। वे इतने उन्मादित हो गए कि उनके साथ अन्य लोग भी अधिकाधिक आनंदग्रस्त
होने लगे।
लेकिन
फिर जो अपरिहार्य था वह हुआ: ब्राह्मणों ने, पंडित और
पुरोहितों ने, और तथा कथित धार्मिक लोगों ने सरहा को बदनाम
करना शुरू कर दिया--इसे ही मैं अपरिहार्य कहता हूं। जब भी सरहा जैसा आदमी होगा,
पंडित निश्चय ही उसके विरोध में हो जाएंगे, पुरोहित
विरोध में हो जाएंगे, और वे तथाकथित सदाचारी, नेतिकतावादी, धर्म परायण लोग विरोध में हो जाएंगे।
तो इन लोगों ने सरहा के बारे में बिलकुल बेबुनिया अफवाहें फैलानी शुरू की।
वे लोगों
से कहने लगे: ‘वह तो पतित हो गया है। भ्रष्ट हो
गया है। अब वह ब्राह्मण ही नहीं रहा। उसने ब्रह्मचर्य छोड़ दिया है। अब वह बौद्ध
भिक्षु तक नहीं रहा। वह एक निम्न जाति की स्त्री के साथ लज्जास्पद आचरण करता है और
एक पागल कुत्ते की तरह चारों और दौड़ता फिरता है।’ उन्हें
सरहा का भावविभोर होना पागल कुत्ते जैसा लगा--सब तुम्हारी व्याख्या पर निर्भर करता
है। सरहा पूरे श्मशान में नाचते फिरते थे। वे उन्मत्त तो थे, लेकिन किसी पागल कुत्ते की तरह नहीं--वे परमात्मा के नशे में उन्मत्त थे।
सब
तुम्हारी दृष्टी पर निर्भर है।
राजा
को भी इन बातों की खबर पहुंचाई गई। ठीक क्या हो रहा है, यह उसे भी जानने की उत्सुकता हुई। लोग आ-आ कर उसे खबरें पहुंचाने लगे,
और वह चिंतित होने लगा। वे लोग राजा को जानते थे, उनके मन में सरहा के प्रति बड़ा सम्मान है, यह उन्हें
ज्ञात था, वह उन्हें अपने दरबार का मंत्री बनाना चाहता था।
लेकिन सरहा ने तो संन्यास ले लिया था। राजा के मन में सरहा की विद्वत्ता के प्रति
बड़ा सम्मान था, सो लोग उसके पास उनकी खबरें लाने लगे।
राजा
को और भी अधिक चिंता हुई। उसे इस युवक से प्रेम था, उसके
प्रति सम्मान भी था, और वह उसके लिए चिंतित भी था। कुछ लोगों
को राजा ने सरहा को समझाने के लिए भेजा, और कहलवाया कि ‘अपने पुराने मार्ग पर लौट आओ। तुम ब्राह्मण हो, तुम्हारे
पिता बड़े पंडित थे, तुम स्वयं बड़े पंडित थे--यह तुम क्या कर
रह हो? तुम भटक गए हो। वापस घर लौट आओ। मैं अभी जिंदा हूं।
राजमहल आओ और मेरे परिवार के अंग बन जाओ। तुम जो कर रहे हो वह ठीक नहीं है।
जो लोग
सरहा का मन बदलने आए थे उनके आगे सरहा ने एक सौ साठ पद गाए। वे एक सौ साठ पद...और
वे लोग नाचने लगे, वे फिर लौटे ही नहीं।
राजा
को और भी अधिक चिंता हुई। राजा की पत्नी, रानी को भी इस
नवयुवक में रुचि थी। वह अपनी बेटी का विवाह उसके साथ करना चाहती थी, तो वह भी सरहा को समझाने गई। और सरहा ने रानी के आगे अस्सी गीत गए....और
रानी फिर राजमहल नहीं लौटी।
राजा
बड़ा हैरान हुआ: ‘वह यहां हो क्या रहा है?’ तो राजा स्वयं वहां पहुंचा और सराह ने केवल चालीस पद गाए और राजा का हृदय
परिवर्तन हो गया, और वह भी उस श्मशान में पागल कुत्ते की तरह
नाचने लगा।
तो
सरहा के नाम पर तीन ग्रंथ उपलब्ध हैं: पहला: सरहा के लोक-गीत, एक सौ साठ पद; दूसरा: सरहा के रानी के गीत--पहले एक
सौ साठ पद, दूसरे अस्सी पर: और फिर सरहा के राज-गीत जिन का हम
ध्यान करेंगे--वे हैं चालीस पद। एक सौ साठ पर आम लोगों के लिए क्योंकि उनकी समझ
कोई बहुत अधिक नहीं थी। अस्सी पद रानी के लिए क्योंकि उसकी समझ आम लोगों की समझ से
जरा अधिक थी; चालीस पद राजा के लिए क्योंकि वह आदमी
बुद्धिमान था, समझदार था, बोधयुक्त था।
राजा में परिवर्तन हो जाने के कारण धीर-धीरे
पूरे देश में धार्मिक परिवर्तन आ गया। और पुराने शास्त्र तो कहते हैं कि एक समय
आया जब पूरा देशा शून्य हो गया। ‘शून्य’..? यह बौद्ध शब्द है। इसका अर्थ हुआ कि लोग ना-कुछ हो गए, वे अहंकार-शून्य हो गए। लोग मिला हुआ क्षण आनंदपूर्वक बिताने लगे।
आपा-धापी, पतिस्पर्धा की हिंसा सारे देश में से गायब हो गई।
पूरा देशा शांत हो गया, वह शून्य हो गया...जैसे वहां कोई था
ही नहीं। उस देश में आदमी जैसे गायब ही हो गए; एक महान
दिव्यता उस देश में उतर आई। यह चालीस पद उसके मूल में थे, उसके
स्त्रोत थे।
अब हम
इस महा-यात्रा में प्रवेश करेंगे: सरहा के ‘राज-गीत’। इन्हें ‘मानव-कर्म के गीत’ भी
कहा जाता हैं--यह बड़ा विरोधाभासी है, क्योंकि इन पदों का
कर्म से कोई लेना-देना नहीं है। परंतु इसीलिए इन्हें ‘मानव-कर्म
के गीत’ कहा जाता हैं। इनका संबंध अस्तित्व से है, जब अस्तित्व में परिवर्तन होता है, तब कर्म भी बदल
जाता है। जब तुम बदलते हो तो तुम्हारा व्यवहार भी बदलता है--इसका उलटा नहीं होता।
ऐसा कभी नहीं हो सकता कि पहले तुम अपने कर्म बदलो और तब तुम्हारा आस्तित्व बदलेगा,
नहीं! तंत्र कहता है: पहले खुद अपना अस्तित्व बदलो और तुम्हारा कर्म
अपने आप बदल जाएगा। पहले एक दूसरी ही तरह की तरह की चेतना को प्राप्त करो, और उसके पीछे एक दूसरे ही तरह का कर्म, चरित्रय
व्यवहार चला आएगा।
तंत्र
अस्तित्व में होने में मानता है, कर्म और चारित्र्य में
नहीं। इसीलिए इसे ‘मानव-कर्म के गीत’ कहा
है--क्योंकि एक बार अस्तित्व बदल जाये तो तुम्हारे कर्म भी बदल जाते हैं। तुम्हारे
कर्म बदलने का एक मात्र यही मार्ग है। कर्म तो सीधे आज तक कौन बदल पाया है?
तुम केवल दिखाव भर कर सकते हो।
अगर
तुम में क्रोध है, और तुम अपना कर्म बदलना चाहते हो
तो तुम क्या करोगे? तुम अपना क्रोध दबाओगे और नकली चेरहा
दिखाओगे; तुम्हें नकली चेहरा लगाना ही पड़ेगा। अगर तुम में
कामवासना दबी पड़ी है तो तुम उसे बदने के लिए क्या करोगे? तुम
ब्रह्मचर्य का व्रत ले सकते हो और बाहरी दिखावा कर सकते हो, लेकिन
भीतर गहरे में तो ज्वालामुखी जलता ही रहेगा। तुम ज्वालामुखी पर बैठे हो, वह किसी भी क्षण फूट सकता है। इस तरह तो तुम सदा कंपते रहोगे, सदा भयभीत रहोगे।
तुमने
तथाकथित धार्मिक लोगों को नहीं देखा? वे सदा भयभीत
रहते है, नर्क का भय, और सदा स्वर्ग
जाने के चक्कर में लगे रहते हैं। लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि स्वर्ग क्या है;
उन्होंने कभी उसका स्वाद चखा ही नहीं है। अगर अपनी चेतना बदल डालो
तो स्वर्ग तुममें उतर आएगा, नहीं कि तुम स्वर्ग चले जाओगे। न
कभी कोई स्वर्ग गया है, और न कभी कोई नरक गया है। इस बात को
एक बार तय हो जाने दें: स्वर्ग तुम्हारे पास आता है, नरक तुम्हारे
पास आता है, सब तुम पर निर्भर है। जो भी तुम बुलाओगे,वह आयेगा।
अगर
तुम्हारा अस्तित्व बदल जाए तो स्वर्ग तुम्हें सहज उपलब्ध हो जाएगा, स्वर्ग तुम पर उतर आएगा। अगर तुम्हारा अस्तित्व नहीं बदलता तो फिर तुम
संघर्ष में रहते हो, तब तुम उस चीज को जबर्दस्ती करते हो जो
वहां है ही नहीं। तब तुम नकली और अधिक नकली बन जाते हो, और
तुम एक नहीं दो व्यक्ति बन जाते हो, तुम्हारा व्यक्तित्व
खंडित हो जाता है, तुम टूट जाते हो। तुम दिखाते कुछ हो,
होते कुछ और हो। तुम कहते कुछ हो, करते कुछ और
हो। और फिर तुम सतत अपने आप के साथ आंख-मिचौली खेलते रहते हो। ऐसी हालत में चिंता,
व्यथा की स्थिति स्वभाविक हो जाती है--यही फर्क है।
अब हम
सरहा के पदों में प्रवेश करेगें:
महान
मंजुश्री को मेरा प्रणाम,
प्रणाम
हैं उन्हें
जिन्होंने
किया सीमित को अधीन
यह ‘मंजुश्री’ शब्द समझना पड़ेगा। मंजुश्री, बुद्ध के शिष्यों में से थे, लेकिन बड़े अनूठे शिष्य
थे। वैसे तो बुद्ध के कई अनूठे शिष्य थे, अपने-अपने ढंग से
अनूठे। महाकश्यप अनूठे थे क्योंकि वे बुद्ध द्वारा निःशब्द में दिया हुआ संदेश समझ
सके...इत्यादि, इत्यादि। मंजुश्री इसलिए अनूठे थे क्योंकि
उनमें गुरु होने का बड़ा भारी गुण था।
जब भी
कोई कठिन समस्या बन जाता, कोई व्यक्ति समस्या बन जाता,
बुद्ध उसे मंजुश्री के पास भेज देते। मंजुश्री का नाम लेते ही लोग
कांपने लगते। वे निश्चय ही बड़े कठोर आदमी थे, बड़े उग्र। जब
भी कोई मंजुश्री के पास भेजा जाता, शिष्य कहते: ‘उसे मंजुश्री की तलवार के पास भेजा है’। मंजुश्री की
तलवार: यह वचन सदियों से प्रसिद्ध रहा है, क्योंकि मंजुश्री
एक वार से
सिर
(बुद्धि) के दो टुकड़े कर डालते थे। आहिस्ता-आहिस्ता नहीं। एक झटके से वे सिर के
टुकड़े कर डालते। उनकी करुणा इतनी थी, इसीलिए वे इतने
क्रूर बन सकते थे।
तो
धीरे-धीरे मंजुश्री का नाम सभी गुरुओं का प्रतिनिधि नाम बन गया, क्योंकि सभी गुरु करुणावान होते हैं और सभी को क्रूर बनना पड़ता है।
करुणावान इसलिए क्योंकि वे तुम्हें एक नये व्यक्ति के रूप में जन्म देते हैं;
क्रूर इसलिए कि उन्हें जो पुराना है उसे नष्ट करना पड़ता है।
तो पद
आरंभ करने से पहले जब सरहा नमन करते हैं, तो वे कहते
हैं: ‘महान मंजुश्री को मेरे प्रणाम’--वे
जो गुरुओं के गुरु हैं--‘प्रणाम हैं उन्हें जिन्होंने किया
सीमित को आधीन।’ और फिर वे बुद्ध को प्रणाम करते हैं,
जिन्होंने सीमित पर विजय पाई और जो असीम बन गए।
जैसे
पवन के आघात से
शांत
जल में उभर आती है, उतंग तरंगें,
ऐसे ही
देखते हो सरहा
अनेक
रूपों में, हे राजन!
यद्यपि
है वह एक ही व्यक्ति।
एक
सरोवर की कल्पना करें, बिलकुल शांत सरोवर जिस पर एक भी
लहर न उठ रही हो। और एका-एक पवन का झोंका आकर सरोवर को झकझोर देता है। और हजारों
लहरें उभर आती हैं। एक क्षण पहले जो पूनम का चांद उस सरोवर में चमक रहा था,
अब नहीं रहा। अब चांद का प्रतिबिंब तो है, मगर
हजार टुकड़ों में पूरे सरोवर में फैला है। पूरा सरोवर उस फैले हुए प्रतिबिंब के
कारण रूपहला बन जाता है। लेकिन असली प्रतिबिंब को तुम नहीं पकड़ पाते, क्योंकि वह तो तितर-बितर हो गया है।
सरहा
कहते हैं: यही हालत सांसारिक मन की है, मोहग्रस्त मन
की। एक बुद्ध में और जो बुद्ध नहीं है, उसमें बस यही फर्क
है। बद्ध वह है जिसमें अब पवन का झोका नहीं आता। पवन के उस झोंके का नाम है--‘तृष्णा।’ क्या तुमने कभी ध्यानपूर्वक देखा है?
जब भी इच्छा का जन्म होता है, तुम्हारे हृदय
में हजारों लहरें कांप उठती हैं। तुम्हारी चेतना हिल उठती है, व्याकुल हो जाती है। इच्छा के थमते ही तुम्हें आराम मिलता है, भीतर एक शांति का अनुभव होता है।
तो
इच्छा ही वह पवन है, जो मानस में विकृति पैदा करती है,
और जब मानस विकृत हो तो तुम असली सत्ता को प्रतिबिंबित नहीं कर
सकते।
जैसे
पवन के आघात से
शांत
जल में उभर आती है उतंग तरंगें,
ऐसे ही
देखते हो सरहा
अनेक
रूपों में, हे राजन!
यद्यपि
है वह एक ही व्यक्ति।
सरहा
दो बातें कह रहे हैं। पहले तो वह कहते रहे हैं: बेकार की बातों से तुम्हारा मानस
पहले ही बहुत अशांत है। पहले ही पवन के झोंकों ने तुम्हारा मानस आंदोलित कर रखा
है। तुम मुझे नहीं देख पाओगे, यद्यपि हूं मैं एक
ही--लेकिन तुम्हारा मन मुझें हजार रूपों में प्रतिबिंबित करता है।
सरहा
ठीक कह रहे थे। वे राजा के आर-पार देख सकते थे। राजा मुश्किल में पड़ गया। एक और तो
वह इस नवयुवक का बड़ा आदर करता था, एक और तो उसे इस नवयुवक में
बड़ी आस्था थी। राजा जानता था कि वह गलत नहीं हो सकता। लेकिन फिर इतने लोगों ने,
इतने तथाकथित ईमानदार, इज्जतदार, धनी, पढ़े-लिखे लोगों ने उसे आकर कहा था: ‘वह तो गलत रास्ते पर चढ़ गया है, वह तो लगभग पागल हो
गया है। वह तो विक्षिप्त है, भ्रष्ट हो गया है। एक निम्न
जाति की तीर बनाने वाली स्त्री के साथ रहता है। वह तो श्मशान में रहता है, भला यह भी कोई रहने की जगह है। वह सारे क्रियाकर्म भूल गया है; अब न वह वेदपाठ करता है, न परमात्मा का नाम लेता है।
ध्यान करते हुए भी नहीं देखा गया है। वह तो विचित्र, गंदी,
शर्मनाक करतूतों में डूबा रहता है।
जो लोग
कामवासना से ग्रस्त रहते हैं उन्हें तंत्र शर्मनाक ही लगता है। वे समझ नहीं पाते, दबी हुई वासनाओं की वजह से उनकी समझ में ही नहीं आता क्या हो रहा है। तो
ये तमाम बातें राजा के मानस पर पवन के बड़े झोंके का काम कर रही थी। राजा का एक
हिस्सा तो सरहा को प्रेम करता था, उसका आदर करता था; उसका दूसरा हिस्सा गहरी शंका में डूबा हुआ था।
सरहा
ने सीधे राजा की और देख कहा: ‘ऐसे ही देखते हो सरहा उनके
रूपों में, हे राजन! यद्यपि है वह एक ही व्यक्ति।’ यद्यपि सरहा एक ही व्यक्ति है: मैं एक पूर्णमासी के चंद्रमा की तरह हूं,
लेकिन तुम्हारे मानस सरोवर में हलचल मची है। इसलिए अगर तुम मुझे
समझना चाहते हो तो कृपा कर सीधे समझने की कोशिश न करो--मुझे समझने का एक ही रास्ता
है और वह यह कि जो पवन तुम्हारे मानस को सतह पर चोट कर रहा है उसे रोको। पहले
तुम्हारी चेतना शांत हो लेने दो...फिर देखो! पहले इन लहरों ओर मौजों को रूक जाने
दो, तुम्हारी चेतना को एक शांत जलाशय बन जाने दो, और तब तुम देखो। जब तक तुम देखने के काबिल नहीं हो जाते, मैं तुम्हें समझा नहीं सकता कि मेरे साथ क्या घटित हो रहा है, यह निश्चित है, और वह भी यहीं। मैं तुम्हारे सामने
खड़ा हूं! मैं एक ही व्यक्ति हूं, लेकिन मैं तुम में देखा
सकता हूं--तुम मुझे इस तरह देख रहे हो जैसे में एक नहीं हजार व्यक्ति हूं।
भेंगा
है जो मूढ़
दिखते
उसे एक नहीं, दो दीप,
जहां
दृश्य और द्रष्टा नहीं दो,
अहा!
मन करता संचालन
दोनों
ही पदार्थगत सत्ता का।
और फिर
सरहा उपमा, प्रतीक देते हैं। पहले तो वे कहते हैं तुम्हारे मानस
सरोवर में हलचन मची है। फिर वे कहते हैं: ‘भेंगा है जो मूढ़
दीखाते उसे एक नहीं दो दीप--वह एक देख ही नहीं सकता, वह दो
देखता है।
मैंने
सुना है, एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को शराबी होने के ढंग
सिखला रहा था। कुछ शराब पी लेने के बाद मुल्ला ने कहा: ‘लो,
अब चलो। हमेशा याद रखना, शराब पीनी बंद करने
का नियम यह है: जब भी तुझे एक की जगह दो आदमी दिखाई देने लगे, घर लौट जाना, समझना कि बस काफी है।’
जब एक
की जगह दो दिखाई देने लगे, लेकिन बेटे ने कहा: ‘कहां? है कहां वह एक आदमी?
मुल्ला
ने कहा: ’देख उस और, उस और, उस टेबल पर दो आदमी बैठे हैं।’
बेटा
बोला: ‘वहां तो कोई नहीं है!’ उसने पहले ही
बहुत पी ली थी।
स्मरण
रहे, जब तुम बेहोश होते हो तब चीजें वैसी नहीं दिखाई देती,
जैसी होती है; जब तुम बेहोश होते हो तब तुम
प्रक्षेपण करते हो। आज रात जब चांद को देखो तब अंगुली से अपनी एक आंख को दबाना और
तुम्हें दो चांद दिखाई देने लगेंगे और जब तुम दो चांद देख रहे होगे तब यह मानना
बड़ा कठिन होगा कि यह एक ही चांद है। क्योंकि तुम देख रहे होगे दो चांद। जरा सोचों!
कोई जन्म से ही दबी हुई आंख लेकर आया हो जिसके कारण उसे एक वस्तु दो दिखाई देती हो
तो वह हमेशा एक की जगह दो ही देखेगा। जहां तुम एक देखोगे वहां वह दो देखेगा।
हमारी
भीतरी दृष्टि अनेक चीजों से घिरी हुई है, इसके कारण हम
उन चीजों को देखते रहते हैं जो असल में हैं ही नहीं। और जब हम उन्हें देखते हैं तो
कैसे विश्वास करें कि वे नहीं हैं? हमें अपनी आंखों पर
विश्वास करना पड़ता है, यद्यपि हमारी आंखें चीजों को तोड़-मरोड़
कर देख रही होती हैं।
भेंगा
है जो मूढ़
दखिाते
उसे एक नहीं, दो दीप,
जहां
दृश्य और द्रष्टा नहीं दो,...
सरहा
राजा से कह रहे हैं: अगर तुम यह सोच रहे हो कि मै और तुम दो हैं, तब तुम बेहोश हो, तब तुम मूर्ख हो, तब तुम पीए हुए हो, तब तुम्हें देखना नहीं आता। अगर
तुम सही में देख सको तो मैं और तुम एक ही हैं, तब द्रष्टा ओर
दृश्य दो नहीं हैं। तब तुम्हें सरहा नृत्य करता हुआ नहीं दिखाई देगा, तुम स्वयं को नृत्य करता हुआ देखोगे। तब मैं जब समाधि में उतरुंगा तो तुम
उतरोगे और यही एक मार्ग है जानने का कि सरहा के साथ क्या घट रहा है, और कोई मार्ग नहीं। मुझे क्या हुआ है? अगर तुम जानना
चाहते हो तो एक तरीका यही है कि मेरे अस्तित्व में भागीदार बन जाओ। प्रत्येक की
भांति खड़े न रहो। तुम्हें मेरे अनुभव में साझीदार बनना पड़ेगा, तुम्हें अपने आप को मुझमें थोड़ा बहुत खोना पड़ेगा। तुम्हें अपनी सीमाओं से
बाहर आकर मेरी सीमाओं को छूना पड़ेगा।
संन्यास
का अर्थ ही यह है। तुम मेरे नजदीक आने लगो, तुम अपनी
सीमाओं को मुझमें खोने लगो, तभी जाकर एक दिन इस साझेदारी की
वजह से जब तुम्हारा मेरे साथ घनिष्ठ संबंध हो जाएगा, तब
तुम्हें कुछ दिखने लगेगा, कुछ तुम्हारी समझ में आने लगेगा।
और तुम उसको जो कि मात्र प्रक्षेपण बन कर खड़ा है, विश्वास
नहीं दिला पाओगे, क्योंकि तुम्हारी दृष्टियां भिन्न होंगी।
तुम साझीदार रहे हो जब कि वह तो मात्र देखता रहा है, ये दो
बिलकुल अलग दुनियां में जीना है।
गृह
दीप यद्यपि प्रज्वलित..
सुना
सरहा का यह सुदंर कथन:
गृहदीप
यद्यपि प्रज्वलित,
जीते
अंधेरे में नेत्रहिन,
सहजता
से परिव्याप्त सभी,
निकट
वह सभी के,
पर
रहती सब परे मोहग्रस्त के लिए।
वह कह
रहे है: देखो! मुझे ज्ञान प्राप्त हुआ है। ‘गृहदीप यद्यपि
प्रज्वलित’...मेरे भीतर अब अंधेरा नहीं है। देखो! मुझमें
कितना प्रकाश है। मेरी आत्मा जाग उठी है। अब मैं वही राहुल नहीं हूं जिसे तुम
जानते थे, मैं सरहा हूं, मेरा तीर
निशाने पर लग चुका है।
गृहदीप
यद्यपि प्रज्वलित,
जीते
अंधेरे में नेत्रहिन,
लेकिन
मैं क्या करूं? सरहा कह रहे हैं, अगर घर में दीये जल रहे हो और कोई अंधाबन अंधेरे में ही जीया करे। ऐसा
नहीं कि दीये जल रहे हैं और कोई अंधा बन कर अंधेरे में ही जीया रहे। ऐसा नहीं कि
दीये नहीं हैं। उसकी आंखें बंद हैं। इसलिए अंधों की न सुनो! जरा अपनी आंखें खोलो
और देखो मेरी और, देखो मुझे--देखो उसे जो तुम्हारे सामने खड़ा
है। जो तुम्हारा सामना कर रहा है।
गृहदीप
यद्यपि प्रज्वलित,
जीते
अंधेरे में नेत्रहिन।
सहजता
से परिव्याप्त सभी, निकट वह सभी के ...और मैं तुम्हारे
इतने निकट हूं....सहजता तुम्हारे इतनी निकट है, तुम उसे कभी
भी छू सकते हो, और खो सकते हो और पी सकते हो। तुम मेरे
साथ-साथ नाच सकते हो और मेरे साथ समाधि में डूब सकते हो। मैं तुम्हारे इतना निकट
हूं--फिर कभी सहजता को तुम अपने इतनी करीब नहीं पाओगे।
पर
रहती सदा परे मोहग्रस्त के लिए।
वे लोग
समाधि की बात करते हैं, और पतंजली के सूत्र पढ़ते हैं,
बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। लेकिन जब भी वह महान घटना घटती है, वे विरोध में हो जाते हैं।
मनुष्य
के मामले में यह बड़ी हैरानी की बात है। मनुष्य बड़ा अजीब जानवर है। तुम बुद्ध की
प्रशंसा कर सकते हो, लेकिन अगर स्वयं बुद्ध तुम्हारे
सामने आकर खड़े हो जाए तो तुम अनकी जरा भी फिकर नहीं करोगे, हो
सकता है तुम उनके विरोधी बन जाओ, उनके शत्रु हो जाओ। कयों?
जब तुम बुद्ध के बारे में किताब पढ़ते हो तब सब ठीक लगता है, पुस्तक तुम्हारे हाथ में रहती है। जब एक जिंदा बुद्ध का सामना करना होता
है तब वह तुम्हारे हाथ में नहीं होता, तुम उसके हाथ पड़ जाते
हो। इसलिए फिर भय, प्रतिरोध, फिर भाग
उठना चाहते हो वहां से।
और
भागने का बढ़िया तरीका यहीं है कि तुम अपने आप को विश्वस दिला दो कि गलत वह है तुम
नहीं, उसी में कुछ गड़बड़ है। यही एक तरीका है--तुम अपने आप को यह
सिद्ध करके दिखा दो कि वह गलत है। और बुद्ध में तो तुम एक नहीं हजार ऐसी बातें
पाओगे जो गलत दिखाई दे सकती हैं। क्योंकि तुम ही भेंगे हो, और
तुम ही अंधे हो, और तुम्हारे मन ही तूफान उठा है। तुम किसी
भी चीज का प्रक्षेपण कर सकते हो।
अब इस
व्यक्ति ने बुद्धत्व प्राप्त कर लिया है और लोग हैं कि निम्न जाति की स्त्री की
बातें कर रहे हैं। उन्होने उस स्त्री की वास्तविकता में जरा भी नहीं झांका है। वे
बस एक ही बात सोच रहे हैं, कि वह एक तीर बनाने वाली स्त्री
है। इसलिए निम्न जाति की है, शूद्र है, अछूत है। एक ब्राह्मण भला अछूत स्त्री को छू कैसे सकता है? एक ब्राह्मण वहां रह कैसे सकता है?
और
उन्होंने यह भी सुन रखा है कि वह स्त्री सरहा के लिए खाना पकाती है। यह तो बड़ा
भारी पाप हो गया; यह तो भ्रष्टता हो गई--एक ब्राह्मण
और शूद्र के द्वारा पकाया हुआ खाना खाए, एक अछूत के द्वारा,
एक निम्न जाति की स्त्री के द्वारा? और एक
ब्राह्मण को श्मशान में रहने की क्या जरूरत है? ब्राह्मण
श्मशान में कभी नहीं रहतें। वे तो मंदिरों में रहते हैं, राजमहलों
में रहते हैं। श्मशान में क्यों? ऐसी गंदी जगह जहां चारों और
खोपड़ियां और लाशें बिखरी पड़ी हो। यह तो निरी विकृति है।
लेकिन
उन्होंने इस तथ्य की और कभी नहीं देखा कि जब तक तुम मृत्यु को नहीं जानते तब तक
जीवन को भी नहीं जान पाओगे। अगर तुमने मृत्यु को उसकी गहराई में न देख लिया हो और
पाया हो कि जीवन कभी नहीं मरता, अगर तुमने देखा हो, मृत्यु में गहरे प्रवेश किया हो यह पाया हो कि जीवन तो मृत्यु के बाद भी
जारी रहता है, कि मृत्यु से कोई फर्क नहीं पड़ता, कि मृत्यु तो असार है....तुम्हें जीवन के बारे में कुछ भी पता नहीं--जीवन
सनातन है, समयातित है। तो केवल शरीर मरता है, जो मरा हुआ है, वही मरता है। जो जीवंत है वह जारी
रहता है। लेकिन यह जानने के लिए गहरे प्रयोग करने होंगे। वह इस बात की और ध्यान
नहीं देंगे।
अब
उन्होंने सुन रखा था कि सरहा तो बड़े विचित्र ढंग का व्यवहार करते हैं, और फिर उन्होंने कई तरह की बढ़ा-चढ़ा कर बातें की होंगी, निश्चय ही बात उनके बस के बाहर की हो गई होगी। हर आदमी बात को बढ़ा-चढ़ा कर
करता है। और तंत्र में तो ऐसे कई प्रयोग हैं जिनको लेकर उलटी-सीधी बातें उड़ाई जा
सकती हैं।
तंत्र
में एक प्रयोग होता है जिसमें पुरुष स्त्री के सामने बैठता है, नग्न स्त्री के सामने, और वह उस स्त्री के
अंग-प्रत्यंग को इतनी गहराई से देखता है कि एक दिन उसकी नग्न स्त्री को देखाने की
इच्छा ही विसर्जित हो जाती है। तब वह आदमी रूप से सदा के लिए मुक्त हो जाता है। अब
यह एक बड़ी भारी प्रक्रिया है, वरना तुम तो हरदम अपने मन में
नग्न स्त्री को देखते रहते हो। एक स्त्री सड़क से गुजरी कि तुम उसके कपड़े उतार लेना
चाहते हो--यह होता है।
अब तुम
एकाएक सरहा को एक नग्न स्त्री के साने बैठे हुए देखो तो क्या व्याख्या करोगे? तुम खुद जैसे हो वैसी व्याख्या करोगे। तुम कहोगे, ‘ठीक
है, जो हम करना चाहते थे, वह कर रहा है,
तो हम तो उससे बेहतर हैं, कम से कम हम वैसा कर
तो नहीं रहे हैं। हां, हम कल्पना जरूर कर लेते हैं, विचारों में, लेकिन क्रिया में वैसा कभी नहीं करते।
यह तो भ्रष्ट हो चुका है।’ और यह कहने का मौका तुम कभी नहीं
चूकोगे।
लेकिन, असल में सरहा कर क्या रहे हैं? वे जो कर रहे हैं वह
एक गुप्त विज्ञान है। तांत्रिक महीनों तक स्त्री को देखता है, उसके शरीर के रूप का ध्यान करता है, उसके सौंदर्य का
ध्यान करता है। वह स्त्री के अंग-अंग को देखता है, जो भी
देखाना चाहे। अगर स्तनों में कुछ आकर्षण है, तो वह स्तन
देखेगा, उन पर ध्यान करेगा। वह रूप से मुक्त होना चाहता है,
और रूप से मुक्त होने का एक मात्र तरीका यही है कि उसे इतनी गहराई
से जान लेना कि फिर उसके प्रति कोई आकर्षण ही न बचे।
अब यह
हवा उड़ाने वाले जो कह रहे हैं, उसके कुछ विपरीत ही यहां हो
रहा है। सरहा तो परे जा रहे हैं, अब वे कभी भी किसी स्त्री
के कपड़े उतारना नहीं चाहेंगे--मन तक में नहीं, स्नान तक में
नहीं। अब वे दमित भाव से ग्रसित कभी नहीं रहेंगे। लेकिन भीड़, भीड़ की अपनी ही धारणाएं हैं। अज्ञानी, बेहोशी में
पड़े हुए, तरह-तरह की बातें किए चले जाते हैं।
सहजता
से परिव्याप्त सभी, निकट वह सभी के,
पर
रहती सदा परे मोहग्रस्त के लिए।
सरिताएं
हो अनेक, यद्यपि,
सागर
मे मिल होती है एक,
हों
झूठ अनेक परंतु
होगा
सत्य एक, विजयी सभी पर।
मिटेगा
अंधकार, कितना ही हो गहन,
उदित
होने पर एक ही सूर्य के।
और
सरहा कह रहे हैं, जरा मेरी और देखो--सूरज उग गया है।
मैं जानता हूं, अंधकार कितना ही गहरा क्यों न हो, एक दिन तो वह मिटेगा। देखो मेरी और...मुझसे सत्य का उदय हुआ है! इसलिए
तुम्हारे पास मेरे बारे में भले ही अनेक झूठ हों, लेकिन सत्य
एक साथ उन सब पर विजयी होकर रहेगा।
सरिताएं
हो अनेक, यद्यपि,
सागर
में मिल होती है एक, जरा मेरे नजदीक आओ। जरा तुम्हारी
सरिता को मेरे सागर में गिर जाने दो, और तुम्हें मेरा स्वाद
मिल जाएगा।
हो झूठ
अनेक परंतु
होगा
सत्य एक विजयी सभी पर।
सत्य
एक है। झूठ ही अनेक होते हैं, झूठ हो ही अनेक सकते
हैं--सत्य अनेक नहीं हो सकते। स्वास्थ्य एक है: बीमारियां कई हैं। और अकेला
स्वास्थ्य सभी बीमारियों को जीत लेता है। और अकेला सत्य सभी झूठों पर विजय पा लेते
हैं। मिटेगा अंधकार, कितना ही गहन,
उदित
होने पर एक ही सूर्य के।
इन चार
सूत्रों में सरहा के राजा को उनके अंतर्तम में प्रवेश करने का आमंत्रण दे दिया है, उन्होंने अपना हृदय खोल दिया है। और वे कहते हैं: ‘मैं’
यहां कोई तुम्हें तर्क के आधार पर मनवाने के लिए नहीं हूं। मैं तो
यहां तुम्हें अस्तित्वगत रूप में विश्वास दिलाने के लिए हूं! ने मैं तुम्हें कोई
प्रमाण दूंगा, और न ही मैं तुम्हें अपनी सफाई मैं कुछ
कहूंगा। मेरा हृदय खुला है--तुम अंदर प्रवेश करो, तुम भीतर
आओ। तुम देखो क्या घटित हुआ है....सहजता कितनी निकट है, परमात्मा
कितना निकट है, सत्य कितना निकट है। सूरज उग चुका है। अपनी
आंखें खोलो!
समरण
रहे बुद्ध के पास कोई प्रमाण नहीं होता। बात ही ऐसी है कि उसके पास कोई प्रमाण ही
नहीं हो सकता। वह स्वयः एक प्रमाण है--इसलिए वह अपना हृदय तुम्हारे सामने खोल सकते
हैं।
ये पद, सरहा के ये गीत गहन ध्यान करने योग्य हैं। प्रत्येक गीत तुम्हारे हृदय में
एक फूल खिला सकता है। जिस तरह राजा के अंतर्तम में खिलें। इस बात की मैं आशा रखता
हूं। राजा मुक्त हुआ--तुम भी हो सकते हो। सरहा ने तो लक्ष्य भेद लिया। तुम भी सरहा
बन सकते हो--वह जिसका तीर लग चुका है।
आज
इतना ही
Thanks for life knowledge sharing with us.
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