तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision: (सरहा के गीत) भाग-पहला
दूसरा
प्रवचन-The
goose is out!-(हंस बाहर है)
(दिनांक
22 अप्रैल 1977 ओशो आश्रम पूना।)
प्रश्नचर्चा-
पहला
प्रश्न: ओशो,
शिव का मार्ग भाव का है, हृदय का है। भाव को रूपांतरित
करना है। प्रेम को रूपांतरित करना है ताकि यह प्रार्थना हो जाए। शिव के मार्ग में तो
भक्त और मूर्ति रहते हैं, भक्त और भगवान रहते हैं। आत्यंतिक शिखर
पर वे दोनों एक-दूसरे में विलीन हो जाते हैं। इसे ध्यान से सून लो: जब शिव का तंत्र
अपने आत्यंतिक आवेग में पहुंचता है, ‘मैं’ ‘तू’ में विलीन हो जाता है, और ‘तू- मैं’ में विलीन हो जाता है--वे साथ-साथ होते हैं,
वे एक इकाई हो जाते हैं।
जब
सरहा का तंत्र अपने आत्यंतिक शिखर पर पहुंचता है, तब यह पता चलता है: न तुम हो,
न तुम सत्य हो, न तुम्हारा अस्तित्व है,
न तुम सही हो, न तुम्हारा अस्तित्व है,
और न ही मेरा, दोनों ही वहां विलीन हो जाते हैं।
दो शून्य मिलते हैं--मैं नही, तू नहीं, न तू न मैं। दो शून्य, दो रिक्त आकाश एक दूसरे में विलीन
हो जाते हैं, क्योंकि सरहा के मार्ग पर सारा प्रयास यही है,
कि विचार को कैसे विलीन किया जाए, और मैं और तू
दोनों विचार के ही अंग हैं।
जब
विचार पूर्णतः विलीन हो जाए, तुम स्वयं को ‘मैं’
कैसे कह सकते हो? और किसे तुम अपना ईश्वर कहोगे?
ईश्वर विचार का अंग है, यह एक चिर-निर्मित,
विचार-सृजित, मन-सृजित बात है। अतः समस्त मन-सृजन
विलीन हो जाते हैं, और केवल शून्य रिक्तता उत्पन्न होती है।
शिव
के मार्ग पर,
अब तुम रूप को प्रेम नही करते, अब तुम व्यक्ति
को प्रेम नहीं करते--तुम समस्त अस्तित्व को प्रेम करने लग जाते हों। संपूर्ण अस्तित्व
तुम्हारा ‘तू’ हो जाता है; तुम संपूर्ण अस्तित्व को संबोधित होते हो। मालकियत खो जाती है, ईष्या गिर जाती है, घृणा मिट जाती है--भाव में जो-जो
भी नकारात्मक होता है वह छूट जाता है। और भाव शुद्ध-विशुद्ध होता चला जाता है। एक क्षण
आता है जब विशुद्ध प्रेम ही वहां बचता है। विशुद्ध प्रेम के उस क्षण में, तुम ‘तू’ में विलीन हो जाते हो
और ‘तू’ तुम में विलीन हो जाता है। विलीन
तुम भी होते हो पर तुम दो शून्यों की भांति विलीन नहीं होते, तुम ऐसे विलीन होते हो जैसे प्रेमिका प्रेमी में विलीन हो जाती है,
और प्रेमी प्रमिका में विलीन हो जाता है।
इस
बिंदु तक वे भिन्न हैं,
परंतु यह भी रूप की ही भिन्नता है। इसके पार फिर इस बात से क्या अंतर
पड़ता है कि एक प्रेमी और एक प्रेमिका की भांति विलीन होते हो या दो शून्यों की भांति?
मूलभूत बात, आधारभूत बात तो यह है कि तुम विलीन
हो जाते हो, कि कुछ बचता ही नही, कि पीछे
कोई चिंह तक नही छूटता। वह विलिनता ही संबोधि है।
अतः
यह बात तुम्हें समझ लेनी हैं: यदि प्रेम तुम्हें आकर्षित करता है, शिव तुम्हें
जचेंगे, और रहस्यों की पुस्तक (दि बुक ऑफ सीक्रेट) तुम्हारी बाइबिल
होगी। यदि ध्यान तुम्हें आकर्षित करता है, तब सरहा तुम्हें जचेंगे।
यह तुम पर निर्भर करता है। दोनों सही हैं, दोनों उसी यात्रा पर
जा रहे हैं। तुम किसके साथ यात्रा करना पसंद करोगे, यह तुम्हारा
चुनाव है।
यदि
तुम अकेले रह सको और आनंदित रह सको, तब सरहा; यदि
तुम आनंदित न रह सको, जब कि तुम अकेले हो, और तुम्हारा आनंद केवल तभी आता हो जब तुम संबंधित होते हो, तब शिव। हिंदू-तंत्र ओर बौद्ध-तंत्र में बस वही अंतर है।
दूसरा
प्रश्न: ओशो,
आप जो कुछ भी कहते हैं, मैं सदा उसके साथ राजी
हो जाता हूं। फिर मेरा जीवन क्यों नहीं बदल रहा?
शायद
इसी राजीपन के कारण। यदि तुम मुझसे राजी होते हो, या तुम मुझसे राजी नहीं होते,
तुम्हारा जीवन बदलेगा नहीं। यह राजी होने या न होने का प्रश्न नहीं है--यह
प्रश्न है समझ का। और समझ राजी होने न होने दोनों के पार है।
साधारणतः
जब तुम मुझसे राजी होते हो,
तुम सोचते हो कि तुमने मुझे समझ लिया। यदि तुमने मुझे समझ ही लिया तो
राजी होने न होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठेगा। कैसे तुम सत्य के साथ राजी हो सकते
हो? या राजी नहीं हो सकते हो? सूरज उगा
है--क्या तुम राजी होते हो या राजी नहीं होते? तुम कहोगे कि यह
प्रश्न ही असंगत है।
राजी
होना, न होना सिद्धांतों के विषय में है, सत्य के विषय में
नहीं। इसलिए जब तुम मुझसे राजी होते हो तुम वस्तुतः मुझसे राजी नहीं होते, तुम यह महसूस करने लग जाते हो कि मैं तुम्हारे सिद्धांत से, जिसे तुम सदा अपने साथ लिए फिरते हो, राजी हूं। जब कभी
भी तुम्हें लगता है कि ओशो तुमसे राजी है, तुम यह महसूस करने
लग जाते हो कि तुम ओशो से राजी हो। जब कभी भी मैं तुमसे राजी नहीं होता, समस्या उठ खड़ी होती है, तब तुम मुझसे राजी नही होते।
या फिर तुम उस पर कान ही नहीं देते, तुम उसे सुनते ही नहीं। जब
मैं कोई ऐसी बात कह रहा होता हूं जो तुमसे मेल नहीं खाती, तुम
बस अपनी को बंद कर लेते हो।
राजी
होने न होने का प्रश्न ही नहीं है। इसे छोड़ो! मैं यहां धर्म परिवर्तकों की तलाश में
नहीं हूं, मैं कोई दर्शन प्रतिपादित नहीं कर रहा हूं, मैं कोई अध्यात्मवाद
प्रस्तुत नहीं कर रहा हूं; मैं अनुयायी नहीं खोज रहा हूं। मैं
शिष्य खोज रहा हूं--और यह एक बिलकुल दूसरी ही बात है, एक पूर्णतः
भिन्न बात। शिष्य वह नहीं जो राजी होता है, शिष्य वह है जो सुनता
है, जो सीखता है। शिष्य शब्द सीखने से नहीं, अनुशासन से आता है।
शिष्य
वह है जो सीखने के प्रति खुला है। अनुयायी बंद होता है। अनुयायी सोचता है कि वह तो
राजी हो ही चुका है;
अब कुछ नहीं बचा है और नहीं अब खुले रहने की आवश्यकता है--वह बंद हो
सकता है, वह बंद होना सहन कर सकता है। शिष्य के लिए बंद हो जाना
संभव नहीं, अभी तो बहुत कुछ सिखाने को बाकी है। कैसे तुम राजी
या न राजी हो सकते हो? और शिष्य के पास अहंकार ही नहीं होता,
अतः कौन राजी होगा और कौन राजी नहीं होगा। शिष्य तो मात्र एक अनकाश है--वहां
राजी होने या न होने के लिए कोई भीतर है ही नहीं। तुम्हारा राजी हो जाना ही तो कठिनाई
निर्मित कर रहा है।
और
राजीपन से कभी कोई रूपांतरित नहीं होता। राजीपन तो बहुत सतही, बहत बौद्धिक
बात है। रूपांतरण के लिए तो आवश्यकता होती है समझ की। यह सदा समझ ही है जो बदलती है,
रूपांतरित करती है। और जब तुम समझ जाते हो, तुम्हें
कुछ करना नहीं पड़ता-समझ ही काम करना प्रारंभ कर देती है। ऐसा नहीं कि पहले तुम समझते
हो, फिर तुम अभ्यास करते हो-न! यह समझ ही, समझ का यह तथ्य ही तुम्हारे हृदय में गहरा जाता है। वहीं पैठ जाता है,
और रूपांतरण घटित हो जाता है।
रूपांतरण
तो समझ का परिणाम है।
यदि
तुम राजी होते हो,
तब समस्या उठ खड़ी होती है: अब क्या किया जाए? मैं
राजी तो हो गया हूं, अब तो कुछ अभ्यास किया जाना चाहिए। राजी
होना बहुत मूढ़तापूर्ण जितना राजी न होना।
और
फिर मन बहुत चालाक है। तुम कभी नहीं जानते कि राजी होने से तुम्हारा क्या तात्पर्य
है...।
कुछ
दृश्य-
पहला
दृश्य:
उस
लड़के की मां की मृत्यु हो गयी थी जब वह एक शिशु ही था, और उसके पिता
को उसे भलीभांति पालने में बड़ी मेहनत करनी पड़ी थी। आखिरकार वह लड़का कॉलेज गया। उसके
पहले पत्र को पढ़ कर उसके पिता को बड़ी निराशा हुई। निराशा तो हुई, पर बेचारे बूढ़े को पता नहीं चल पा रहा था कि क्यों। निश्चय ही पत्र में जो
बातें उसने लिखी थीं उनमें निराशा वाली बात नहीं थी। शायद उस पत्र के ढंग में कोई ऐसी
बात थी जो उसे परेशान कर रही थी।
पत्र
ऐसे था:
‘प्यारे पापा,
यहां
सब-कुछ ठीक-ठाक है। मुझे कॉलेज पसंद आ रहा है। मैं फुटबॉल टीम में हूं। मैं कॉलेज का
सर्वश्रेष्ठ छात्र हूं। मुझे बीज-गणित में ‘ए’ ग्रेड मिला
है...’
कुछ
सोच-विचार के बाद पिता की समझ में आ गया कि समस्या क्या थी। उसने पत्र के उत्तर में
लिखा:
‘देखो बेटा, मैं एक बुड्ढे खूसट कि तरह व्यवहार नहीं करना
चाहता, पर एक बात से मैं बड़ा प्रसन्न हो जाऊंगा। मैं यह तो जरा
भी नहीं सोचता कि तुम किसी भी तरह से कृतघ्न हो। परंतु तुम्हें बड़ा करने में और फिर
कॉलेज भेजने में मुझे बड़ा परिश्रम करना पड़ा है, और मुझे स्वयं
तो कभी कॉलेज जाने का अवसर मिला ही नहीं। मेरा मतलब यह है कि यह मुझे बहुत अच्छा लगेगा
यदि तुम ऐसा कहो कि ‘हमने यह किया, हमने
वह किया’ बजाय इसके कि ‘मैंने यह किया,
मैंने वह किया।’ इससे मुझे ऐसा महसूस होगा जैसे
कि मेरा भी इस सबमें कुछ योगदान है।
लड़का
तुरंत समझ गया और फिर उसके पत्र इस भांति आने लगे: ‘हां, पापा,
शनिवार को वह बड़ा मैच हमने जीता। एक खूबसूरत लड़की के साथ हमारी ‘डेट’ है। हमें इतिहास में ‘ए’
ग्रेड मिलने वाले हैं।’ बूढ़े पिता को इस साझा अनुभव
में बड़ा मजा आने लगा। दिन उसके लिए सुनहरे हो गए थे। एक दिन एक तार आया: ‘प्यारे पापा, हमने कुलपति की बेटी को मुसीबत में डाल
दिया। उसके जुड़वां बच्चे हुए हैं। मेरे वाला तो मर गया। अपने वाले का अब आप क्या करने
जा रहे हैं?’
मन
बड़ा चलाक है। देखो...जब तुम मुझसे राजी होते हो, क्या तुम सचमुच मुझसे राजी होते
हो? या कि तुम पाते हो कि मैं तुमसे राजी होता हूैं? और फिर मन बड़ा कानूनी है, मन एक वकील है: वह राजी होने
के उपाय भी खोज लेता है और फिर भी वही रहता चला जाता है। इतना ही नहीं, जब तुम राजी होते हो तुम यह महसूस करने लग जाते हो कि अब तुम्हें रूपांतरित
करना तो ओशो का कर्तव्य है--और इससे अधिक तुम क्या कर सकते हो? तुम तो राजी हो रहे हो, तुमने तो अपना भाग पूरा कर लिया।
अब और अधिक तुम क्या कर सकते हों? तुम राजी हो गए, तुम तो संन्यासी हो गए, तुमने तो आत्मसमर्पण कर दिया?
अब इससे ज्यादा तुम और क्या कर सकते हो?
अब, यदि कुछ भी
न घट रहा हो तो तुम मुझ पर क्रोधित होना शुरू कर देते हो। तब यदि मैं तुमसे कोई बात
कहता हूं, यह ठीक वही बात नहीं होती जो तुम सुनते हो। तुम अपने
ही ढंग से सुनते हो। तुम अपनी समस्त व्याख्याओं के साथ सुनते हो। तुम सुनते हो अपने
अतीत के माध्यम से, अपनी स्मृतियों के माध्यम से, ज्ञान के माध्यम से, संस्कारों के माध्यम से। तुम मन
के माध्यम से सुनते हो। और मन हर उस चीज को, जिसे तुम सुनते हो,
एक रंग दे देता है। यह तुरंत उस पर कूद पड़ता है, उसे बदल देता है, इसे तुमसे मेल खाता हुआ बना देता है,
अंतरालों को भर देता हैं। जो मैंने कहा है: उसका एक छोटा सा भाग ही इसमें
रहता है--और एक भाग रूपांतरित नहीं कर सकता, केवल पूर्ण ही रूपांतरित
कर सकता है।
परंतु
पूर्ण केवल तभी पूर्ण रह सकता है जब तुम इसके साथ राजी होने या न होने का कोई प्रयत्न
नहीं कर रहे होते हो। जब तुम राजी होने या न होने कोई प्रयत्न नहीं कर रहे होते, तुम मन को
उठा कर अलग रखा सकते हो। यदि तुम राजी होने का प्रयत्न कर रहे होते हो, तुम मन को उठा कर अलग कैसे रख सकते हो? यह मन ही तो है
जो राजी होता है या राजी नहीं होता।
समझ
मन से बड़ी चीज है। समझ तुम्हारे समस्त अस्तित्व में घटती है। यह तुम्हारे सिर में उतनी
ही होती है, जितनी तुम्हारे पैर के पंजे में। समझ एक सम्पूर्ण चीज है। मन एक बहुत छोटा
भाग है, परंतु बड़ा तानाशाही। और यह यही दिखावा करता रहता है कि
वही संपूर्ण है।
दूसरा
दृश्य:
वह
मध्य आयु वर्ग का एक व्यवसायी था जो अपनी पत्नी को पेरिस ले गया था। उसके साथा एक दुकान
से दूसरी दुकान तक भटकते रहने के बाद उसने एक दिन की छुट्टी और मांगी जो उसे मिल भी
गई। पत्नी के फिर से बाजार चले जाने के बाद, वह एक बार फिर से अकेला बाजार में चला
गया, जहां उसे एक मदमाती पेरिस की लड़की से उसकी मुलाकात हुई।
जब तक पैसों का सवाल नहीं उठा, उन में पटती रही। वह पचास अमरीकन
डालर चाहती थी जब कि वह दस ही देने को तैयार था। कीमत के ऊपर उनमें समझौता न हो सका
अतः उनका साथ भी न बन सका।
उसी
श्याम वह अपनी पत्नी को एक अच्छे रेस्ट्रोरेंट में ले गया, लेकिन तभी
द्वार के पास वही दोपहर वाली लड़की उसे एक मेज के पास बैठी दिखाई पड़ी। जैसे ही वे उसकी
मेज के पास से गुजरे, उस लड़की ने कहा: ‘देखा श्रीमान जी, आपके बेहूदे दस डालर के बदले में आप
को क्या हासिल हुआ।’
तुम्हारी
समझ तुम्हारी ही समझ है। तुम्हारी व्याख्या तुम्हारी ही व्याख्या है। तुम अपनी दृष्टि
से ही तो देख सकते हो।
जो
कुछ भी तुम सुनते हो वह तुम्हारी व्याख्या है, यह स्मरण रखना--इसके प्रति सावधान रहना।
यह वह नहीं है जो मैंने कहा है: यह वह है, जो तुम सोचते हो कि
तुमने सुना, और वह एक ही बात नहीं है। तुम अपनी ही प्रतिध्वनि
से राजी होते हो, तुम मुझसे राजी नहीं होते। तुम अपने ही विचार
से राजी होते हो। फिर तुम कैसे बदल सकते हो? विचार तुम्हारा है,
राजीपन तुम्हारा है, अतः वहां बदलाहट की कोई संभावना
नहीं रहती।
तुम
कृपया राजी होना या राजी न होना बंद कर दो। तुम बस मेरी बात सुनो।
राजी
होने की तुम्हारी विधि अपने को सुरक्षित रखने की ही तुम्हारी एक तरकीब हो सकती है, ताकि तुम्हें
धक्का न पहुंचे। यह एक अवरोधक की भांति कार्य करती है। मैं कुछ कहता हूं, तुम तुरंत राजी हो जाते हो। धक्का बचा लिया जाता है। यदि तुम मुझसे राजी न
हुए होते, इसका धक्का तुम्हारी जड़ों तक पहुंच गया होता। तुम भीतर
तक हिल गए होते। मैं कुछ कहता हूं, तुम कहते हो, ‘हां, मैं राजी हूं’ इस राजीपन के
साथ तुम बच जाते हो। अब झटका खाने की कोई भी आवश्यकता नहीं है--तुम राजी जो हो गए।
यदि तुम राजी या गैर-राजी नहीं हो रहे होते...गैर-राजीपन के साथ भी वही बात है। जिस
क्षण मैं कुछ कहता हूं और वहां कोई होता है जो यह कहता है, ‘मैं
राजी नहीं हूं’ उसने उर्जा को काट ही दिया। अब ऊर्जा उसकी जड़ों
तक नहीं जाएगी, अब यह उसे न झकझोर सकेगी।
हमने
बहुत से अवरोध,
बहुत सी सुरक्षाएं, अपने चारों और निर्मित कर ली
है। ये सुरक्षाएं तुम्हें बदलने न देंगी। बदलने के लिए तो तुम्हें धक्का खाना होगा,
बड़ा धक्का, गहरा। यह पीड़ादायक होगा, रूपांतरण तो पीड़ादायक होगा ही। राजी होना बहुत आरामदेह है, राजी न होना भी। मैं राजी होने और राजी न होने में बहुत भेद नहीं करता,
वे एक ही सिक्के के दो पहलू है।
वह
वास्तविक व्यक्ति जो मेरे निकट मेरे समीप होना चाहता है, जो सच में
ही मेरे संपर्क में होना चाहता है, वह बस मुझे सुनेगा-शुद्ध सुनना,
एकदम शुद्ध श्रवण, बिना किसी व्याख्या के। वह अपने
को तो अलग ही उठा कर रख देगा। वह मुझे अपने अंदर प्रवेश का मार्ग देगा।
तीसरा
दृश्य:
अध्यापिका
अपनी पहली कक्षा के बच्चों को अभी-अभी जीवन के मूलभूत तथ्यो पर बात कर चुकी थी। छोटी
मेरी ने अगली पंक्ति की अपनी सीट पर से हाथ उठाया। ‘क्या एक छह वर्ष का लड़का बच्चा
पैदा करने में सर्मथ होता है?’
‘नहीं’ अध्यापिका ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया,
‘यह असंभव है। क्या और कोई प्रश्न पूछना चाहेगा?’
मौन!
मेरी ने फिर अपना हाथ ऊंचा किया। ‘क्या एक छह वर्ष की लड़की बच्चा पैदा
कर सकती है?’
‘नहीं’ अध्यापिका ने
कहा। तभी मेरी के पास बैठे उस छोटे से लड़के ने आगे झुक कर मेरी के कान में फुसफुसाया,
‘देखा, मैंने कहा था न, तुम्हें
चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है।’
तुम्हारे सारे राजीपन, तुम्हारे सारे
गैर-राजीपन, मात्र उपाय हैं, जैसे तुम हो
वैसे ही बने रहने में, रूपांतरित न होने के। लोगों के सारे जीवन
एक ही कार्य में समर्पित हैं: कैसे बदला न जाए। वे कहे चले जाते हैं, ‘मैं दुखी नहीं होना चाहता’, और वे वही चीजें किए चले
जाते हैं जो उन्हें दुखी बनती है। वे कहे चले जाते हैं, ‘मैं
बदलना चाहता हूं’, लेकिन जब मैं उनमें गहरे से झांकता हूं और
पाता हूं कि वे बदलना ही नहीं चाहते। सच तो यह है कि इस इच्छा की अभिव्यक्ति कि वे
बदलना चाहते हैं, ये मात्र एक तरकीब है न बदलने की; ताकि वे संसार से कह सकें, ‘मैं बदलने की कोशिश कर रहा
हूं और मैं जोर से, चिल्ला कर यह कह रहा हूं कि मैं बदलना चाहता
हूं और फिर भी यदि कुछ नहीं हो रहा है तो मैं क्या कर सकता हूं?’
तुम
बदल ही नहीं सकते--जो आखिरी बात इस प्रश्न के बारे में मैं कहना चाहूंगा, वह यह है--तुम
बदल नहीं सकते। तुम बदलाहट को होने दे सकते हो। बदलने का प्रयत्न करने से तुम कभी न
बदल पाओगे। कौन प्रयत्न कर रहा है? वही पुराना? इसके भीतर के तर्क की और जरा देखो: तुम स्वयं को बदलने की कोशिश कर रहे हो।
यह लगभग ऐसा ही है जैसे तुम अपने ही जूते के फीते खींच कर स्वयं को उठाने की कोशिश
करो। इससे क्या होगा? इससे कुछ संभव नहीं होगा। तुम स्वयं को
बदल नहीं सकते क्योंकि यह कौन है जो बदलने का प्रयत्न कर रहा है? यह तुम्हारा अतीत है। यह तुम हो।
तुम
एक परिवर्तन को घटने दे सकते हो? इसे घटने देने के लिए तुम क्या कर सकते हो?
कृपया न तो मेरे साथ राजी होओ, न गैर-राजी तुम
बस सुनो। तुम बस यहां होओ। तुम बस मेरी उपस्थिति को एक उत्प्रेरक की भांति कार्य करने
दो। तुम बस मेरे से संक्रमित हो जाओ। तुम बस मेरी बीमारी को पकड़ लो, जो रोग मुझे है, उसे पकड़ लो। तुम बस मुझे अनुमति दो।
तुम स्वयं को बदलने का प्रयास मत करो।
यह
अनुमति देना ही तो बस समर्पण है।
संन्यासी
वह नहीं है जो मुझ से राजी हो गया है। यदि वह मुझ से राजी हो गया है, तो वह संन्यासी
नहीं है, तब वह केवल एक अनुयायी है। ठीक वैसे ही जैसे ईसाई,
ईसा मसीह के अनुयायी हैं--वे ईसा मसीह से राजी हो गए हैं, मगर इस राजी होने ने उन्हें बदला नही है। जैसे बौद्ध, बुद्ध के अनुयायी हैं--वे बुद्ध के साथ राजी हो गए हैं, परंतु इससे उनमें कोई बदलाट नहीं हुआ है। क्या तुम नहीं देखते कि सारा संसार
किसी न किसी का अनुयायी है?
इसलिए
अनुगमन करना,
बदलने से बचने का एक उपाय है। कृपया मेरा अनुगमन मत करो। तुम बस सुनो
जो यहां हो रहा है, तुम बस देखो जो यहां घट रहा है। तुम बस मुझमें
देखो और मुझे राह दो--ताकि मेरी ऊर्जा तुम पर कार्य करना प्रारंभ कर सके। यह कोई मन
की चीज नहीं है, यह एक संपूर्ण मामला है। ताकि तुम भी उसी तरंग
पर बैठ कर प्रतिकंपित होना प्रारंभ कर दो--कुछ क्षणों के लिए ही सही।
वे
क्षण बदलाहट लाऐंगे,
वे क्षण अज्ञात की झलक लाऐगे। वे क्षण तुम्हें इस बात के प्रति जागरूक
बनाऐंगे कि समय के पार शाश्वतता है। वे क्षण तुम्हें महसूस करवाएंगे कि ध्यान में होना
क्या होता है। वे क्षण तुम्हें परमात्मा का, ताओ का, तंत्र का, झेन का जरा सा स्वाद चखाऐंगे। वे क्षण बदलाहट
की संभावना लाएंगे क्योंकि वे क्षण तुम्हारे अतीत से नहीं वरन तुम्हारे भविष्य से आएंगे।
राजी
होने में तो यह तुम्हारा अतीत ही है जो मुझसे राजी होता है। खुलने में, अनुमति देने
में, यह तुम्हारा भविष्य है जो खुलता है, मेरे साथ खुलता है। रूपांतरण की तुम्हारी संभावना तुम्हारे भविष्य में है।
अतीत तो मृत है, वह जा चूका है, और समाप्त
हो चुका है। इसे दफना दो! अब इसमें कोई अर्थ न रहा। इसे अपने साथ मत लिए फिरो;
यह व्यर्थ का भार है। इस भार के कारण तुम बहुत ऊंचे नहीं जा सकते।
तुम्हारा
तात्पर्य क्या होता है,
जब तुम कहते हो कि ‘मैं आपसे राजी हो जाता हूं?’
इसका अर्थ है, तुम्हारे अतीत का राजी होना,
तुम्हारे अतीत को अच्छा लगना, सिर हिलाना और कहना,
‘हां, यहीं तो मैं सदा सोचता हूं।’ यह भविष्य से बचने की एक तरकीब है। इससे सावधान रहो।
मेरे
साथ मात्र होना--वही सत्संग है, वही उच्च संपर्क है। बस मेरे साथ होना...अपने बावजूद,
कुछ किरणें तुम्हारे अस्तित्व मे प्रवेश करेंगी और खेलने लगेंगी। और
तब तुम जानोगे कि अभी तक जो भी जीवन तुम जीते आए हो, वह जीवन
था ही नहीं, कि तुम एक भ्रम में रहते चले आए हो, कि तुम एक सपना देखते रहे हो। सच्चाई की थोड़ी सी झलकें भी तुम्हारे संपूर्ण
अतीत को छितरा देंगी। और तब वहां घटेगा, मात्र रूपांतरण।
यह
स्वाभाविक रूप से स्वतः आता है, यह समझ के पीछे-पीछे खूद ही चला आता है।
तीसरा
प्रश्न: ओशो,
कभी-कभी जब मैं लोगों को बार-बार वही पुराने खेल खेलते देखती हूं,
मेरी आंखें पुरानी और थकी हुई जान पड़ती है, और
मेरा हृदय कलांत और कुटिल।
मैं
सोचती हूं कि ऐसा शायद इसलिए है कि मैं स्वयं अपने खेल और तरकीबें अधिक और अधिक देख
रही हूं,
और मैं अपने कानों में आपकी पागल बना देने वाली आवाज सुनती हूं,
यह कहती हुई, यह ठीक है--बस तुम्हें स्वयं को स्वीकार
और प्रेम करना है, और फिर कोई समस्या नहीं बचती।
बस...?
मैं
सोचती हूं कि यदि आप इस शब्द को फिर से कहेंगे तो मैं चीख पडूंगी। क्या मैं तब अधिक
आनंदित नहीं थी जब मैं सोचती थी कि कोई लक्ष्य है?
यह
प्रश्न मा देव आनंदो का है। यह महत्वपूर्ण है। यह प्रश्न हर उस व्यक्ति का हो सकता
जो यहां मौजूद है। इसे सूनो। यह बस एक ऐसी स्थिति दर्शाता है जिससे हर साधक को गुजरना
पड़ता है।
कृपया
दूसरों का निरीक्षण करने का प्रयत्न मत करो--उससे तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है।
यदि उन्होंने पुराने खेल खेलने का निर्णय लिया है, यदि वे अपने पुराने खेल खेलने
से प्रसन्न हैं, यदि वे पुराने खेल खेलना चाहते हैं, तुम हस्तक्षेप करने वाली होती कौन हो? तुम निर्णय लेने
वाली भी तुम कौन होती हो?
दूसरों
के विषय में निर्णय लेने की यह सतत अभिलाषा छोड़नी होगी। यह दूसरों की सहायता नहीं करती।
हां, तुम्हें हानि जरूर पहुंचाती है, तुम्हें क्यों चिंतित
होना चाहिए? उसका तुमसे कुछ लेना-देना नहीं है। यह तो दूसरों
की अपनी खुशी है, यदि वे वही पुराने बने रहना चाहते है,
यदि वे उसी दलदल में, उसी दिनचर्या में बने रहना
चाहते हैं। तो अच्छा है! यह उनका जीवन है और उन्हें इसे अपने ही ढंग से जीने का पूरा
अधिकार है।
कुछ
ऐसी बात है कि हम औरों को उनके अपने ढंग से जीने नहीं देते। किसी न किसी तरह हम निर्णय
लिए चले जाते हैं। कभी हम कहते हैं वे सब पापी हैं, कभी हम कहते हैं वे नरक जाएंगे,
कभी हम उन्हें अपराधी कहते है, कभी यह,
कभी वह। यदि यह सब बदल गया है तो एक नया मूल्यांकन कि, वे वही पुराने खेल-खेल रहा हूं, और ‘मैं थक गई हूं।’ उनके खेलों से तुम्हें क्यों थकना चाहिए?
यदि वे चाहें तो उन्हें अपने खेलों से थकने दो, या यदि वे न चाहे तो भी यह उनका ही चुनाव है। कृपया दूसरों को मत देखो।
तुम्हारी
समस्त ऊर्जा तुम्हारे स्वयं के ऊपर केंद्रित होनी चाहिए। हो सकता है कि तुम दूसरो की, उनके पुराने
खेलो के लिए निंदा मात्र एक तरकीब के रूप में कार्य कर रही हो, क्योंकि तुम स्वयं की निंदा नहीं करना चाहती। यह सदा होता है, यह एक मनोवैज्ञानिक तरकीब है; हम दूसरों का प्रक्षेपित
करते हैं। एक चोर सोचता है कि हर कोई चोर है--उसके लिए यह सोचना बहुत स्वभाविक है,
उसके अहंकार को बचाने का यही उपाय है। यदि वह महसूस करे कि सारी दुनिया
ही बुरी है, उनकी तुलना में वह अपने आप को अच्छा अनुभव करता है।
एक हत्यारा सोचता है कि सारा संसार हत्यारों से भरा पड़ा है--इससे वह अच्छा ओर विश्रांति
में अनुभव करता है। यह सोचना सुविधाजनक है कि सारी दुनिया हत्यारों से भरी पड़ी हैं,
तब वह हत्या कर सकता है और फिर कोई अपराध-भाव अनुभव करने की उसे कोई
आवश्यकता ही नहीं रह जाती। उसे अपनी अंतरात्मा पर कोई बोझ रखने की आवश्यकता नहीं रह
जाती।
इसलिए
जो हम स्वयं में नहीं देखना चाहते उसे दूसरों में प्रक्षेति किए चले जाते हैं। कृपया
इसे बंद करो! यदि सच में ही तुम पुराने खेलों से थक गई हो, तब यही पुरान
खेल है--सबसे पुराना। कई जन्मों से तुम यह खेल खेलती आ रही हो: अपने दोष दूसरों के
ऊपर प्रक्षेपित करना और फिर अच्छा महसूस करना। और निश्चय ही, तुम्हें बढ़ा-चढ़ा कर देखना होगा, तुम्हें अतिशयोक्ति करनी
होगी। यदि तुम एक चोर हो, दूसरों की प्रतिमाओं को बड़ा करना
होगा।
कि वे तुमसे भी बड़े चोर हैं। तब तुम अच्छा महसूस करते हो, तुम तो एक
बेहतर इंसान हो।
यही
कारण है कि लोग समाचार पत्र पढ़ते रहतें हैं। समाचार पत्र तुम्हारी बहुत मदद करते हैं।
सुबह ही सुबह,
तुमने अभी चाय भी नहीं पी होती है, तुम समाचार
पत्र के लिए तैयार हो जाते हो। और ये समाचार पत्र समाचार जैसा कुछ भी नहीं है,
कुछ नया लाता ही नहीं। वही पुरानी सड़ी-गली बातें होती हैं। मगर तुम अच्छा
महसूस करते हो: कहीं, किसी कि हत्या हो गई है, कहीं किसी ने चोरी की है, कहीं किसी की पत्नी किसी के
साथ भाग गई है...वगैरा-वगैरा। यह देख कर तुम विश्रांत हो जाते हो, तुम महसूस करते हो: ‘तो मैं ही अकेला खराब नहीं हूं,
सारी दुनियां ही बदतर है। मैं तो फिर भी बहुत अच्छा हूं। मैं अभी तक
पड़ौसी की स्त्री को लेकर नहीं भागा। मैंने अभी तक किसी का खून नहीं किया--यद्यपि मैं
ऐसा सोचता रहा हूं, परंतु जहा लोग सच में ऐसा कर रहे हों,
वहां ऐसा सोचना तो अपराध नहीं है’ तुम अच्छा महसूस
करते हो। और जिस क्षण तुम अच्छा महसूस करते हो, तुम वही बने रहते
हो।
कृपया
दूसरों का निरीक्षण मत करो। इससे तुम्हें कोई सहायता नहीं मिलेगी। तुम अपनी ऊर्जा, अपना निरीक्षण
अपने ही ऊपर प्रयोग करो।
और
निरीक्षण में कुछ बड़ा रूपांतरित करने वाली बात है। यदि तुम स्वयं का निरीक्षण करने
लग जाओ, एक दिन अचानक तुम पाओगे कि इसमें इतनी ऊर्जा ने रही जितनी कि पहले हुआ करती
थी, इसमें अब इतनी आग नहीं है। इसमें कोई चीज मृत हो गई है। यदि
तुम स्वयं का निरीक्षण करना प्रारंभ कर दो, तुम पाओगे कि धीरे-धीरे
निषेध मरता जा रहा है और घनात्मक अधिक और अधिक जीवंत होता जा रहा है, कि दुख अदृश्य होता जा रहा है, और आनंद तुम्हारे जीवन
में प्रविष्ट होता जा रहा है, कि तुम अब अधिक मुस्काराने लगे
हो, कभी-कभी तो बिना किसी कारण के ही, विनोद
का एक भाव तुम्हारे भीतर जागने लगा है--यदि तुम देखना प्रारंभ कर दो, कि पुरानी हताशा, वह लटका लंबा चेहरा विलीन होता जा रहा
है। विनोद का एक भाव पैदा हुआ है। यदि तुम निरीक्षण करना प्रारंभ कर दो, तुम जीवन को अधिकाधिक खेल की भांति लेने लग जाते हो, गंभीरता असंगत, अधिक असंगत होती चली जाती है। तुम अधिक
से अधिक निर्दोष, श्रध्दावान होते जा रहे हो, कम और कम संदेहशील होते जाते हो।
मैं
यह नहीं कह रहा हूं कि तुम्हारे भरोसे का सदा सम्मान किया जाएगा। नहीं, वह बात ही
नहीं है। तुम्हें शायद ज्यादा धोखा दिया जाए क्योंकि जब ही तुम अधिक भरोसा करते हो,
इसी कारण तुम्हें अधिक धोखा दिया जा सकता है। परंतु यदि तुम्हें धोखा
भी दिया जाए, तुम्हारा भरोसा उससे खंडित नहीं होगा--सच तो यह
है कि यह और भी अधिक बढ़ सकता है। तुम यह सोचने लगोगे कि यदि तुम्हें धोखा दे भी दिया,
किसी ने तुमसे धोखा किया और कुछ धन ले भी लिया--तुम यह देख सकोगे कि
तुमने एक मूल्यवान चीज को तो बचा लिया है। वह है भरोसा और एक लगभग मूल्यहीन चीज चली
गई है, वह है धन। तुम धन को बचा ले सकते थे और भरोसा चला गया
होता--यह कहीं बड़ा नुकसान हुआ होता क्योंकि मात्र धन के कारण कभी कोई आनंदित होता नहीं
पाया गया है। लेकिन भरोसे की वजह से लोग पृथ्वी पर देवताओं की भांति रहे हैं। भरोसे
के कारण लोगों ने जीवन का इतना पूर्ण आनंद लिया है, वे ईश्वर
के प्रति कृतज्ञ हो सके। भरोसा एक आशीर्वाद है। धन अधिक से अधिक तुम्हें थोड़ा सा सुख
दे सकता है, उत्सव नहीं। भरोसा तुम्हें अधिक सुख नहीं दे सकता
परंतु वह तुम्हें महान उत्सव प्रदान कर सकता है।
अब, उत्सव की अपेक्षा
सुख चुनना मात्र मूढ़ता है--कयोंकि वह सुखद जीवन और कुछ नहीं बस एक सुखद मौत होगा। सुविधापूर्वक
तुम जी सकते हो और सुविधापूर्वक तुम मर भी सकते हो, परंतु जीवन
का सच्चा स्वाद तभी संभव है, जब कि तुम अधिकतम संभव उत्सव,
ज्यादा से ज्यादा उत्सव मना रहे हो, जबकि तुम्हारी
मशाल एक साथ दोनों सिरों पर जली रही हो। शायद एक ही क्षण के लिए...परंतु इसकी तीव्रता,
इसकी पूर्णता, इसकी समस्तता! और यह मात्र निरीक्षण
से ही घटता है।
निरीक्षण
रूपांतरण की महानतम शक्तियों में से एक है। तुम स्वयं का निरीक्षण करना प्रारंभ करो।
अपनी ऊर्जा को दूसरों को निरीक्षण करने में व्यर्थ मत करो--यह सिर्फ बर्बादी है। और
कोई कभी तुम्हें इसके लिए धन्यवाद न देगा, यह एक नाशुक्रा काम है। और जिस किसी
का भी तुम निरीक्षण करोगे, वह क्रोधि अनुभव करेगा--क्योंकि निरीक्षण
किया जाना कोई भी पसंद नहीं करता, हर व्यक्ति अपना जीवन निजी
रखना चाहता है। अच्छा हो या बुरा, मूढ़तापूर्ण हो या बुद्धिमत्त
पूर्ण हर कोई अपना स्वयं का निजी जीवन चाहता है। और हस्तक्षेप करने वाले तुम कोन होते
हो? इसलिए चोरी-चोरी दूसरों के जीवन में झांकने वाले मत बनो,
लोगों की चाबियों के छेदों से मत झांको, उन्हें
मत देखो। यह उनकी जिंदगी है। यदि वे ऐसा चाहते है, और वो वही
पुराना खेल खेलते रहना चाहते है, तो उन्हें खेलने दो।
इसलिए
पहली बात: कृपया दूसरों को देखना बंद करो, सारी ऊर्जा को स्वयं की और मोड़ो।
दूसरी
बात तुम कहती हो: ‘मैं सोचती हूं कि ऐसा शायद इसलिए है कि मैं स्वयं अपने खेल और तरकीबें अधिक
और अधिक देख रही हूं, और मैं अपने कानों में आपकी पगल बना देने
वाली आवाज सुनती हूं, यह कहती हुई कि यह ठीक है--बस तुम्हें स्वयं
को स्वीकार और प्रेम करना है, और फिर कोई समस्या नहीं बचती।’
मैं
इसे दोहरा दूं: कोई समस्या नहीं है। मैं किसी सच्ची समस्या के संपर्क में नहीं आया
हूं--अभी तक तो नहीं। और मैंने हजारों लोगों को, उनकी समस्याओं को सुना होगा।
मुझे अभी तक तो किसी सच्ची समस्या से सामना हुआ नहीं है। और मैं नहीं सोचता कि ऐसा
कभी हो भी सकेगा--क्योंकि सच्ची समस्या का आस्तित्व होता ही नहीं। समस्या एक निर्मित
चीज है। स्थितियां होती है समस्याएं नहीं। समस्याएं तो तुम्हारी परिस्थितियों की ही
व्याख्याएं है। वही परस्थिति किसी एक व्यक्ति के लिए समस्या नहीं होती, जबकि किसी दूसरे व्यक्ति के लिए वह समस्या हो सकती है।
अतः
यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम कोई समस्या निर्मित करते हो अथवा नहीं--लेकिन समस्या
जैसी कोई चीज होती ही नहीं। समस्याएं आस्तित्व में नहीं होती, वे आदमी के
मन में होती है।
जरा
देखो जब अगली बार तुम्हें कोई परेशानी हो या किसी समस्या का सामना करना पड़े--बस उसे
देखना। एक तरफ खड़े हो जाना और बस समस्या को देखाना। क्या यह सचमुच वहां है? या कि तुमने
ही इसे निर्मित किया है? इसमें गहराई से देखो और अचानक तुम पाओगे
कि यह बढ़ नहीं रही, यह घट रही है, यह छोटी
और छोटी होती चली जाती है। और एक क्षण आता है, जब वह अचानक वहां
होती ही नहीं...और तब तुम्हें अपने पर बड़े जोर की हंसी आती है।
जब कभी भी तुम्हारी कोई समस्या हो, इसे बस गौर
से देखो। समस्याएं कल्पलाएं होती है, उनका कोई आस्तित्व ही नहीं
होता। समस्या के चारों और घूमों, इसे हर कोण से देखो,
यह हो कैसे सकती है? यह तो एक प्रेत है! तुम इसे
चाहते थे, तभी तो यह आई है। तुमने इसे चाहा, तभी तो यह है, तुमने इसे खूद आमंत्रित किया है,
तभी तो यह आई है।
परंतु
लोग यह पसंद नहीं करते यदि तुम उनसे कहो कि उनकी समस्या-समस्या नहीं है--वे इसे पसंद
नहीं करते। उन्हें बड़ा सुन कर बड़ा खराब लगता है। यदि तुम उनकी समस्याओं को सुनो, उन्हें बड़ा
अच्छा लगता है। और यदि तुम कहो, ‘हां, यह
तो एक बड़ी समस्या है’ तब वे बड़े प्रसन्न होते हैं। यही कारण है
कि मनोविश्लेषण इस सदी की सबसे महत्वपूर्ण जरूरतों में एक हो गया हैं।
मनोविश्लेषक
किसी की सहायता नहीं कर पाता--शायद वह अपनी खुद की सहायता नहीं कर पाता, फिर किसी और
कि सहायता कैसे कर सकता है। वह कर नहीं सकता। परंतु फिर भी लोग चले जाते है,
उसे पैसे देते है। उन्हें मजा आता है--वह उनकी समस्याओं को स्वीकार करता
है, तुम कोई भी निरर्थक समस्या मनोविश्लेषक के पास ले जाओ,
वह बड़ी ईमानदारी से, बड़ी गंभीरता से उसे सुनता
है। जैसे कि वह समस्या बहुत बड़ी है। वह यह मान कर ही चलता है कि तुम बहुत अधिक पीड़ा
में जी रहे हो, और वह इस पर काम करना, इसका
विश्लेषण करना प्रारंभ कर देता है। और सालों लग जाते है।
सालों
के मनोविश्लेषण के बाद भी समस्या हल नहीं होती--क्योंकि अव्वल तो समस्या वहां थी ही
नहीं, तो कोई इसे कैसे हल कर सकता है। लेकिन वर्षों के मनोविश्लेषण के बाद तुम थक
जाते हो, और तुम पुरानी समस्या से ऊब जाते हो, अब तुम्हें कोई नई समस्या चाहिए होती है। इसलिए एक दिन अचानक तुम कहते हो,
‘हां, अब समस्या नहीं रही, यह चली गई है’, और तुम मनोविश्लेषक को धन्यवाद देते हो।
परंतु यह मात्र समय है, जिसने तुम्हारी सहायता कि है। जिसने समस्या
को हल किया है। यह मनोविश्लेषण नहीं है। मगर ऐसे लोग हैं जो बस प्रतीक्षा करना और देखना
पसंद नहीं करेंगे।
जब
तुम किसी पागल व्यक्ति को किसी झेन आश्रम में ले जाते हो, वे उसे बस
एक कोने में, एक छोटी सी झोपड़ी में, आश्रम
से दूर, बैठा देते है। वे उसे भोजन देते हैं, और उससे कहते हैं, ‘बस यहीं बैठे रहो, शांत।’ कोई उससे बात तक नहीं करता, उसे भोजन दिया जाता है, उसके आराम का ख्याल रखा जाता
है। परंतु उसकी चिंता कोई नहीं लेता। और मनोविश्लेषण जो काम तीन वर्ष में करता है,
वे उसे तीन सप्ताह में कर देते है। तीन सप्ताह के भीतर वह व्यक्ति बाहर
आता है और कहता है, ‘हां, समस्या समाप्त
हो गई।’
तीन
सप्ताह के लिए तुम अपनी समस्या के साथ छोड़ दिए जाते हो--कैसे तुम इसे देखने से बच सकते
हो? और कोई विश्लेषण नहीं किया जाता, अतः कोई विचलन नहीं
होता, तुम व्याकुल नहीं होते। मनोविश्लेषक तुम्हें व्यग्र कर
देता है। शायद तीन सप्ताह में वह समस्या मर गई होती, परंतु मनोविश्लेषक
के सहयोग के कारण वह मरेगी नहीं; तीन वर्ष तक, या उससे भी अधिक, जीवित रहेगी। यह इस बात पर निर्भर करता
है कि तुम कितने धनी हो। यदि तुम पर्याप्त धनी हो, समस्या तुम्हारे
जीवन पर्यान्त बनी रह सकती है। इसका अर्थ है कि यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम
कितना धन चुकाना सहन कर सकते हो।
निर्धन
व्यक्ति अधिक समस्याओं से पीड़ित नहीं रहते। धनी व्यक्ति रहते है--उनकी इतनी हैसियत
होती है। वे बड़ी समस्याओं से पीड़ित रहने के खेल का मजा ले सकते हैं। गरीब आदमी की न
तो इतनी हैसियत होती है और न वह इसका मजा ले सकता है।
अगली
बार जब तुम्हें कोई समस्या आए, तुम उसकी और देखो, उसको खूब
गौर से देखो। किसी विश्लेषण की कोई आवश्यकता नहीं है। उसका विश्लेषण न करो,
क्योंकि वश्लिेषण उससे बचने की एक विधि है। जब तुम वश्लिेषण करना प्रारंभ
करते हो, तुम समस्या की और देखते नहीं। तुम पूछना प्रारंभ कर
देते हो क्यों? कहां से? यह कैसे उत्पन्न
हुई? तुम्हारे बचपन में तुम्हारी मां का तुमसे संबंध,
तुम्हारे पिता का तुमसे संबंध। तुम विक्षिप्त हो गए। अब तुम स्वयं समस्या
को नहीं देख सकते हो। फ्रायड का मनोविश्लेषण सच में तो एक मन का खेल है और बड़ी दक्षता
के साथ खेला जाता है।
उसके
कारणों में मत जाओ। इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि कारण कोई है ही नहीं। अतीत
में मत जाओ, उसकी कोई आवश्यकता नही है, क्योंकि वह वर्तमान की समस्या से दूर जाना होगा। उसे यहां और अभी की तरह से
देखो, और उस में तुम बस प्रवेश करो। उसके कारणों, उसके प्रयोजनों के विषय में मत सोचो। समस्या को बस जैसी वह है, उसे वैसे ही देखो।
और
तुम हैरान होओगे कि उसको गौर से देखने से यह छिन्न-भिन्न होनी प्रारंभ हो जाती है।
इसे देखते चले जाओ और तुम पाओगे कि यह चली
गई।
समस्याएं
होती ही नहीं। हम उन्हें निर्मित करते है--क्योंकि हम समस्याओं के बिना जी नही सकते।
यही एकमात्र कारण है कि हम उन्हें निर्मित करते है। समस्या होने का अर्थ है व्यस्तता
होना। आदमी अच्छा महसूस करता है, कुछ करने को तो है। जब कोई समस्या नहीं होती,
तुम अकेले पड़ जाते हो, एक रिक्तता--अब क्या करें?
सब समस्याएं तो समाप्त हो गई।
जरा
सोचो: एक दिन परमात्मा आए और कहे, ‘अब और कोई समस्या नहीं--सब खत्म! सब समस्याएं समाप्त
हो गई।’ फिर तुम क्या कहोगे? उस दिन के
बारे में जरा सोचो। लोग एकदम ठगे से रह जाएंगे, तब वे परमात्मा
से बड़े नाराज होने लगेंगे। वह कहेंगे, ‘यह तो कोई आशीर्वाद नहीं
है। अब हम क्या करे? समस्याएं तो हैं ही नहीं?’ तब अचानक ऊर्जा कही नहीं जा रही होगी, तब तुम अटके हुए
महसूस करोगे। समस्या तो तुम्हारे लिए एक उपाय है, एक गति है,
चलने का, चलते रहने का, आशा
का, इच्छा का, स्वप्न का। समस्या व्यस्त
रहने की इतनी सारी संभावनाएं तुम्हें देती है।
और
अव्यस्त होना,
अव्यस्त होने के समर्थ होना ही वह चीज है जिसे में ध्यान कहता हूं: एक
अव्यस्त मन, जो अव्यस्सता के एक क्षण का आनंद लेता है,
वही मात्र ध्यानपूर्ण मन है।
कुछ
अव्यस्त क्षणों को आनंद लेना प्रारंभ करो। यदि समस्या वहां नहीं भी हो--तो तुम महसूस
करते हो कि समस्या वहां है,
मैं कहता हूं कि वहां नहीं है। पर तुम महसूस करते हो कि है--समस्या को
उठा कर एक और रख दो, और उससे कहो, ‘रूको!
जीवन अभी है, अभी तो सारी जिंदगी बाकी पड़ी है। मैं तुम्हें हल
करुंगा जरूर, परंतु अभी तो मुझे थोड़ा सा अवकाश लने दो,
जिसमें कि कोई समस्या न हो।’ कुछ ऐसे पल निकालना
प्रारंभ करो जो व्यस्त न हों, और एक बार तुम उनका आनंद उठा लो
तब तुम यह तथ्य देख सकोगे कि समस्याएं तुम्हारे द्वारा ही निर्मित की जाती है,
क्योंकि तुम अव्यस्त क्षणों का आनंद लेने में अभी समर्थ नहीं हो। समस्याएं
उस अंतराल को भर देती है।
क्या
तुमने कभी स्वयं को कभी देखा है? एक कमरे में बैठे हु, यदि
तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है, तुम्हें एक बैचेनी होने लगती है।
तुम परेशान हो जाते हो। तुम अधीर होने लग जाते हो--तुम रेडियो चलाओगे, या तुम टी वी देखने लग जाओगे, या तुम उसी समाचार-पत्र
को दुबारा पढ़ने लगोगे, जिसे तुम सुबह से तीन बार पढ़ चुके हो।
या अगर एक ही उपाय हो कि तुम सो जाओ, ताकि तुम स्वप्न निर्मित
कर सको और उसमें व्यस्त हो जाओ। या फिर तुम धूम्रपान करना प्रारंभ कर दोगे। क्या तुमने
कभी यह देखा है? जब कभी भी तुम्हारे पास करने के लिए कोई काम
नही होता, होना मात्र कितना कठिन हो जाता है।
मैं
फिर से कहूंगा: समस्या कोई नहीं है, आनंदो। इस तथ्य को ठीक से देख लो कि
जीवन में कोई समस्या नहीं है। यदि तुम समस्या रखना ही चाहती हो, तब यह तुम्हारी खुशी है--तुम इसका मजा लो, मेरे आशीर्वाद
तुम्हारे साथ हैं। परंतु सत्य यही है कि कोई समस्या है ही नहीं।
जीवन
में समस्या जरा भी नहीं है--यह तो एक रहस्य है जिसे जिया जाना है, जिसका आनंद
लिया जाना है। समस्याएं तुम्हारे द्वारा केवल निर्मित की जाती है, क्योंकि तुम जीवन का आनंद लेने से अभी डरते हो। समस्याएं तुम्हें एक सुरक्षा
कर देती है--जीवन से, प्रेम से, आनंद से।
तुम स्वयं से कह सकते हो, ‘मैं कैसे आनंद उठा सकता हूं?
मेरी इतनी समस्याएं हैं। आनंद मैं उठ कैसे सकता हूं? मेरे साथ इतनी सारी समस्याएं है। मैं कैसे किसी पुरुष या स्त्री को प्यार कर
सकता हूं? मेरे पास तो पहले ही इतनी सारी समस्याएं है,
मैं कैसे नाच सकता हूं, गा सकता हूं? असंभव है! तुम अधिक कारण खोज ले सकते हो, न गाने के,
न नाचने के, न ही उत्सव मनाने का। तुम्हारी समस्याएं
तुम्हें इन सबसे बचने का एक महान अवसर प्रदान करती हैं।
समस्याओं
में जरा झांको और तुम पाओगे कि वे काल्पनिक हैं। और यदि तुम्हारे पास कोई समस्या है
भी और तुम महसूस करते हो कि यह वास्तिविक है, मैं कहता हूं कि सब ठीक है। मैं क्यों
ऐसा कहता हूं कि सब ठीक है? क्योंकि जिस पल तुम यह अनुभव करना
प्रारंभ करते हो कि सब ठीक है, यह विलीन हो जाएगी। जिस पल तुम
समस्या से कहते हो कि चलो ठीक है, तुमने उसे ऊर्जा देना बंद कर
दिया। तुमने उसे स्वीकार कर लिया। जिस क्षण तुम समस्या को स्वीकार कर लेते हो,
वह फिर समस्या रहती ही नहीं। एक समस्या केवल तभी तक समस्या बनी रह सकती
है, जब तक तुम उसे अस्वीकार करते चले जाओ, जब तुम कहो कि ऐसा नहीं होना चाहिए...और वेसा नहीं होना चाहिए। तब समस्या शक्तिशाली
बन जाती है।
यही
कारण है कि मैं ऐसा कहता हूं। लोग मेरे पास अपनी बड़ी-बड़ी समस्याएं लेकर आते हैं और
मैं कहता हूं,
‘सब ठीक है, यह तो बहुत अच्छा है, तुम इसे स्वीकार कर लो।’ और मैं कहता हूं, ‘बस तुम्हें स्वयं को स्वीकार करना है और प्रेम करना है।’ और आनंदो कहती है, ‘यह बड़ी पागल बना देने वाली बात है,
आपकी आवाज जो निरंतर कहती है, सब ठीक है...और कोई
समस्या नहीं है।’
‘बस...’
और
आनंदो कहती है,
‘मैं सोचती हूं कि यदि आप इस शब्द को फिर से कहेंगे तो मैं चीख पडूंगी।’
तुम
अपना सारा जीवन केवल चीखती ही तो रही हो--तुम चीखती हो या नहीं, वह बात नहीं
है--तुम अपना सारा जीवन चीखती ही तो रही हो। अब तक तुमने कुछ और नहीं किया है। कभी
जोर से, कभी मौन रहकर, पर तुम चीखती ही
रही हो। ऐसे ही तो मैं लोगों को देखता हूं--चीखते हुए लोग, उनका
हृदय चीख रहा है, उनका आस्तित्व चीख रहा है। परंतु उससे तुम्हें
कोई सहायता नहीं मिलेगी। तुम चीख सकती हो पर उससे कोई मदद न मिलेगी।
चीखने
की अपेक्षा समझने की चेष्टा करो। मैं जो तुमसे कह रहा हूं, उसमें पूर्णता
से डूबने की कोशिश करो। और मैं जो तुम्हें बता रहा हूं, वह कोई
सिद्धांत नहीं है--वह एक तथ्य है। और मैं ऐसा कह रहा हूं क्योंकि मैंने उसे ऐसा ही
जाना है। यदि मुझे यह घट सकता है, तो कोई भी समस्या नहीं है,
कि यह तुम्हें क्यों नहीं घट सकता? इसकी चुनौती
को स्वीकार करो! मैं एक उतना ही साधारण व्यक्ति हूं जितने कि तुम हो। मुझमें और तुममें
एकमात्र अंतर यह है कि तुम स्वयं को ‘ठीक है’ नहीं कहते और मैंने स्वयं को एक सम्पूर्ण ‘ठीक है’
कह लिया है--यही एकमात्र अंतर है। तुम सतत अपने को सुधारने का प्रयत्न
कर रहे हो और मैं स्वयं को सुधारने का प्रयत्न नहीं कर रहा हूं। मैंने कह लिया है:
जीवन का ढंग अपूर्णता ही है। तुम पूर्ण बनने का प्रयत्न कर रहे हो और मैंने अपनी अपूर्णताओं
को स्वीकार कर लिया है। बस इतना ही अंतर है।
इसलिए
मेरे पास कोई समस्याएं नहीं है। जब तुम अपनी अपूर्णताओं को स्वीकार कर लेते हो, समस्याएं आ
ही कैसे सकती हैं? फिर चाहे कुछ भी होता होे, और तुम कह देते हो, ‘सब ठीक है’ तब समस्या आ कहा से सकती है? जब तुम सीमाओं को स्वीकार
कर लेते हो, तब समस्या कहां से आ सकती है? समस्या तुम्हारे अस्वीकार से ही तो उठती है। जैसे तुम हो उसे तुम स्वीकार नहीं
कर सकते, तभी तो समस्या पैदा होती है। और तुम कभी भी जैसे हो
उसे स्वीकार नहीं करोगे, इसलिए समस्या भी सदा बनी रहेगी। क्या
तुम कभी कल्पना कर सकते हो कि तुम उन्हें स्वीकार करोगें, जैसे
भी तुम हो उसे पूरी तरह से स्वीकार कर लोगे? यदि तुम कल्पना कर
सकते हो, तो तुम अभी ही ऐसा क्यों नहीं कर लेते? प्रतीक्षा क्यों करनी? किसके लिए? और क्यों?
जैसा
‘मैं’ हूं मैंने उसे स्वीकार कर लिया है, और उसी क्षण सारी समस्याएं विलीन हो गई। उसी क्षण तुम्हारी सारी समस्याएं विलीन
हो गई। उसी क्षण सारी चिंताएं मिट गई। ऐसा नहीं कि मैं पूर्ण हो गया हूं, परंतु मैंने अपनी अपूर्णताओं का आनंद उठाना प्रारंभ कर दिया हैं। पूर्ण तो
कभी कोई नहीं होता, क्योंकि पूर्ण होने का अर्थ है, पूर्णतः मृत हो जाना। पूर्णता तो संभव ही नहीं है, क्योंकि
जीवन शाश्वत है। पूर्णता कभी संभव नहीं है, क्योंकि जीवन सदा
चलता रहता है। चलता ही जाता है--इसका कोई अंत नहीं है।
इसलिए
इन तथाकथित समस्याओं से बाहर निकलने को एक मात्र उपाय यह है कि तुम अपने जीवन को, ठीक इस क्षण
में यह जैसा है, उसे वैसा ही स्वीकार कर लो, और इसे जिओ, इसका मजा लो, इसमें
आनंदित होओ। अगला क्षण और अधिक आनंद का होगा क्योंकि वह इसी क्षण में से तो निकलेगा,
तुम अधिक आनंदित होगे सुधार के द्वारा नहीं, बल्कि
इस क्षण को पूर्णता से जीने के द्वारा।
लेकिन
तुम अपूर्ण रहोगे। तुममें सदा कमियां रहेंगी, और ऐसी स्थितियां तुम्हारे पास आती
रहेगी। जहां कि तुम समस्याएं निर्मित करना ही चाहो, तुम तुरंत
उन्हें पैदा कर सकते हों। यदि तुम समस्याएं निर्मित न करना चाहो, तब निर्मित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम चीख सकती हो, परंतु उससे तुम्हें कोई मदद नहीं मिलेगी। यही तो तुम करती ही आई हो सदा से,
इसे सब ने कुछ तुम्हारी मदद की।
यहां
तक कि प्रथम-चिकित्सा भी अधिक सहायक सिद्ध नहीं हुई है। यह लागों को चीखाने में जरूर
सहायता करती है--हां,
इससे कुछ अच्छा जरूर महसूस होता है, यह एक आवेश
चिकित्सा है। यह उल्टी करने में तुम्हारी सहायता करती है। इससे थोड़ा सा अच्छा महसूस
होता है, क्योंकि तुम तनिक निर्भार, बोझ-हीन
अनुभव करते हो, लेकिन कुछ ही दिनों में ये सब समाप्त हो जाता
है; तुम फिर से वही के वही हो जाते हो, फिर से इन्हें इकट्ठा करने लग जाते हो। फिर से प्रथम चिकित्सा से गुजरों--तब
कुछ दिन तुम्हें अच्छा महसूस रहेगा...फिर से वही कि वही बात।
जब
तक तुम यह न समझ लोगे कि तुम्हें समस्याएं निर्मित करना बंद करना होगा, तुम समस्याएं
निर्मित करते चले जाओगे। तुम एककाउंटर ग्रुप में जा सकते हो, तुम प्राइमन थैरपी कर सकते हो, तुम हजार दूसरे ग्रुपों
में जा सकते हों, और हर ग्रुप के बाद तुम बहुत सुंदर महसूस करोगे,
क्योंकि तुमने कोई ऐसी चीज जो तुम्हारे सिर पर एक भार थी, उसे छोड़ दिया--परंतु तुमने उस यांत्रिक-व्यवस्था को नहीं छोड़ा है जो इसे निर्मित
करती आ रही है। तुम फिर से इसे निर्मित कर लोगे। यह तुम्हारी कोई अधिक सहायता नहीं
करेगी। यह तुम्हें मात्र एक विराम देगी, एक विश्रांत देगी।
लेकिन
यदि तुम सच में ही इस बात को समझ लो, बात बस यह है कि तुम्हें समस्याएं निर्मित
करना छोड़ना होगा--वर्ना तो तुम भटकते ही रह सकते हो एक ग्रुप से दूसरे ग्रुप तक,
एक मनोविश्लेषक से दूसरे मनोवश्लिषक तक, एक मनसःचिकित्सक
से दूसरे मनसःचिकित्सक तक, एक थैरेपी से दूसरी थैरेपी तक..और
फिर से तुम वही का वही करने लगोगे।
यहां
मेरा कुल प्रयत्न यही है कि सहायता को उसकी जड़ो से ही काट दिया जाए। कृपया समस्याएं
निर्मित मत करो--वह हैं ही नहीं, उनका कोई अस्तित्व ही नहीं है।
और
आखिरी बात आनंदो कहती है,
‘क्या मैं तब अधिक आनंदित नही थी, जब कि मैं सोचती
थी कि कोई लक्ष्य है?
हां, तुम अधिक आनंदित
थी, और अधिक दुखी भी थी--क्योंकि तुम्हारा आनंद आशा में था,
यह सच्चा आनंद नहीं था। इसलिए मैं कहता हूं कि तुम अधिक भी थी और दुखी
भी। दुखी तो तुम थी यहां वर्तमान में, और आनंदित तुम भविष्य में
थी--पर भविष्य में तुम कैसे आनंदित हो सकते हो? लक्ष्य तो भविष्य
में है।
दुखी
तुम यहां थी,
आनंदित तुम वहां थी। ‘वहां’ का अस्तित्व ही नही है--बस ‘यहां’ ही है। सदा ‘यहां’ ही है। हर जगह
‘यहां’ है। ‘वहां’
तो बस शब्द कोश में ही है। यही बात ‘तब’
के साथ भी है। सदा ‘अब’ ही
है। ‘तब’ का तो अस्तित्व ही नहीं है। हां,
लक्ष्य के बारे में सोचने के, एक सुंदर भविष्य
के विषय में सोचने के, अपने सपनों में तुम आनंदित थी। परंतु कोई
व्यक्ति क्यों एक सुंदर भविष्य के विषय में सोचता है? क्योंकि
वर्तमान में तो वह दुखी होता है।
मैं
किसी सुंदर भविष्य के विषय में नही सोचता हूं।
मैं
यह सोच भी नहीं सकता कि कैसे यह अधिक सुंदर हो सकता है। कैसे इससे अधिक सुंदर हो सकता
है, उससे जो यह इसी क्षण है? कैसे अस्तित्व उससे अधिक आनंदपूर्ण
और हर्षपूर्ण हो सकता है, जितना कि यह इस क्षण है? जरा देखो तो, कैसे यह अधिक आनंदित, अधिक उत्सव पूर्ण हो सकता है? परंतु यह एक तरकीब है,
फिर से मन की एक नई चालबाजी, जो वर्तमान से बचाने
के लिए हमें भविष्य के विषय में सोचते रहने को मजबुर करती है। ताकि हमें वर्तमान को
देखना न पड़े। और जो भी है वर्तमान ही तो है।
इसलिए
तुम ठीक कहती हो--तुम अधिक आनंति थी, आनंदित अपने सपनों में। अब मैंने तुम्हारे
सारे सपने छिन्न-भिन्न कर दिए हैं। तुम आनंदित थी अपनी आशाओं में, अब मैं आशाहीनता की स्थिति पैदा करने का हर संभव उपाय कर रहा हूं। ताकि तुम्हारी
कोई आशा बचे ही नहीं। मैं तुम्हें वर्तमान में लाने का प्रयत्न कर रहा हूं। तुम भविष्य
में विचार रही हो, मैं तुम्हें यहां-अब में वापस खींच रहा हूं।
यह बहुत मुश्किल काम है। और जब तुम किसी का लक्ष्य छीन लेना चाहते हो, तब आदमी को बहुत क्रोध आता है। कभी-कभी तुम मुझ पर बहुत क्रोधित होते हो। मैंने
तुम्हारी आशा छीन ली, तुम्हारे सपने छीन लिए, या छीन रहा हूं--तुम उनसे चिपके रहे हो; तुम आशा करने
के इतने आदी हो गए थे कि तुम मुझसे भी आशा करनी शुरू कर देते हो।
तुम
मुझसे भी आशा करने लग जाते हो: ‘ओशो यह कर देंगे।’ यह आदमी
कुछ नहीं करने वाला है। तुम आशा करने लग जाते हो कि ‘अब तो मैं
ओशो के साथ हूं, अतः डरने की कोई बात नहीं है। देर-सवेर मैं संबुद्ध
हो ही जाऊंगा।’ यह सब तुम भूल जाओ! संबोधि कोई आशा नहीं है। यह
कोई आकांक्षा नही है और न ही यह भविष्य में है। यदि तुम ठीक इस क्षण को जीना प्रारंभ
कर दो, तो तुम संबुद्ध हो। मैं हर रोज तुम्हें संबुद्ध बनाने
की चेष्टा कर रहा हूं, और तुम कहते हो, ‘कल।’ फिर जैसी तुम्हारी मर्जी...परंतु कल कभी आता ही
नहीं। या तो अभी या फिर कभी नहीं।
अभी
संबुद्ध हो जाओ! और तुम हो सकते हो क्योंकि तुम हो!...बस तुम भ्रम में हो, बस सोच रहे
हो कि तुम नहीं हो।
इसलिए
मत पूछो कि कैसे! जिस क्षण तुम पूछते हो कैसे, तुम आशा करना प्रारंभ कर देते हो। इसलिए
‘कैसे’ मत पूछो और यह भी मत कहो कि,
‘हां, हम हो जाएंगे।’ मैं
यह नहीं कह रहा हूं।
मैं
कह रहा हूं कि तुम हो! ‘सोमेंद्र!...बतख बाहर है।’ बतख कभी भीतर थी ही नहीं।
व्यक्ति को बस क्षण में सजग होना है। सजगता का बस एक क्षण, एक
धक्का और तुम स्वतंत्र होते हो। हर रोज मैं तुम्हें संबुद्ध बनाने का प्रयत्न कर रहा
हूं, क्योंकि मैं जानता हूं कि तुम संबुद्ध ही हो। परंतु यदि
तुम संसार का खेल खेलते रहना ही चाहते हो, तो तुम खेलते रह सकते
हो।
आनंदित, निश्चय ही,
तुम थी, और दुखी भी। मैंने तुम्हारा आनंद छीन लिया
है, क्योंकि अब और तुम आशा नहीं कर सकती। यदि तुम मुझे थोड़ी सी
अनुमति और दो, मैं तुम्हारा दुख भी छीन लूंगा। परंतु पहले आनंद
को जानना होगा, क्योंकि दुख का अस्सित्व तो आनंद की आशा की छाया
की ही भांति है। इसलिए पहले तो आनंद की आशा को जाना होगा, केवल
उसके बाद ही छाया भी जायेगी।
इसलिए
यदि तुम चीखना ही चाहती हो तो चीख सकती हो, परंतु मैं तो हजार बार दोहराऊंगा: आनंदो,
कोई समस्या नहीं है। बस तुम स्वयं को स्वीकार और प्रेम करना है--हां,
बस।
चोथा
प्रश्न: क्या तंत्र अतिभोग का ही एक मार्ग नहीं है?
रीको, ने एक बार
नानसेन से बोतल में बत्तख की पुरानी पहेली की व्याख्या करने को कहा।
‘यदि कोई व्यक्ति बतख के नवजात शिशु को एक बोतल में रख दे, और उसे तब तक भोजन देता रहे जब तक कि वह बच्चा बड़ा होकर पूरी बोतल ही न बन
जाएं, कैसे वह व्यक्ति बतख को बोतल से उसे बाहर निकाल सकता है।
कि न तो बतख ही मरे और न ही बोतल टूटे।’
नानसेन
ने जोर से अपने हाथों से ताली बजाई और चिल्लाया, ‘रीको!’
‘हां, गुरुजी,’ रीको ने चौंक कर
कहा।
‘देख’, नानसेन ने कहा, ‘बतख बाहर
है।’
.......
नहीं!
यह तो अति भोग से बाहर निकलने का एकमात्र मार्ग है। यह तो कामुकता से बाहर आने का एकमात्र
उपाय है। और कोई भी उपाय कभी भी मनुष्य के लिए सहायक नहीं हुआ है, बाकि और उपायों
ने तो मनुष्य को अधिक से अधिक कामुक बना दिया है।
काम
विलीन तो नहीं हुआ है। धर्मों ने बस इसे और अधिक विषैला बना दिया है। यह अभी भी है--एक
जहरीले रूप में। हां,
अपराध भाव तो मनुष्य में पैदा हो गया है, परंतु
काम अदृश्य नहीं हुआ है। यह अदृश्य हो सकता भी नहीं क्योंकि यह एक जैविक वास्तविकता
है। यह अस्तित्वगत है; इसका दमन करने मात्र से यह अदृश्य नहीं
हो सकता। यह केवल तभी अदृश्य हो सकता है, जब तुम इतने सजग हो
जाओ कि कामुकता में संपुरित ऊर्जा को तुम मुक्त कर सको--यह ऊर्जा दमन से नहीं बल्कि
समझ से मुक्त होती है। और एक बार ऊर्जा मुक्त हो जाए, कीचड़ से
कमल...कमल को कीचड़ से उठना ही होगा, इसे ऊपर जाना ही होगा,
और दमन तो इसे कीचड़ में और गहरा ले जाता है। यह उसे नीचे दबाये जाता
है।
तुम्हारे, सारे समाज
ने, अब तक जो किया है, वह है काम को अचेतना
के कीचड़ में देबा देना। इसे दबाए चले जाओ, इसके ऊपर चढ़कर बैठ
जाओ, इसे हिलने-डुलने मत दो, इसे मार ड़ालो,
उपवास द्वारा, अनुशासन द्वारा, हिमालय की किसी गुफा में चले जाने के द्वारा, किसी ऐसे
मठ में चले जाने के द्वारा जहां स्त्री को जाने की अनुमति न दी जाती हो। ऐसे मठ हैं
जहां सैंकड़ों वर्षो सेकिसी स्त्री ने प्रवेश नहीं किया है। ऐसे मठ हैं जहां केवल साध्वीयां
ही रहती है। जहां कभी किसी पुरुष ने प्रवेश नहीं किया है। ये दमन के उपाय हैं। और ये
(उपाय) निर्मित करते हैं अधिक से अधिक कामुकता और अतिभोग के अधिक से अधिक स्वप्न।
नहीं, तंत्र अति
भोग का मार्ग नहीं है। यह तो स्वतंत्रता का एक मात्र मार्ग है। तंत्र कहता है: जो भी
है उसे समझ जाना है--और समझ से परिवर्तन स्वतः घटित होते है।
इसलिए
मुझे सुनकर या सरहा को सुनकर यह सोचना प्रारंभ मत कर देना कि सरहा तुम्हारे अतिभोग
का समर्थन कर रहा है। यह कहानी, सुनो:
मार्टिन
नाम का एक प्रौढ़ व्यक्ति डॉक्टर के पास अपनी जांच करवाने गया। ‘मैं चाहता हूं
कि आप बाताएं कि मेरे साथ क्या गड़बड़ी है, डॉक्टर। मुझे यहा दर्द
होता है, वहा दर्द होता है और यह बात मेरी समझ में नहीं आती।
मैंने एक बड़ी साफ सुथरी जिंदगी जी है--न धूम्रपान किसा, न कभी
शराब पी,न कभी इधर-इधर दौड़ा। मैं प्रत्येक रात नो बजे बिस्तर
में चला जाता हूं, अकेला। फिर मुझे क्यों यह हो रहा, ये सब नहीं होना चाहिए?’
‘आपकी उम्र कितनी है?’ डॉक्टर ने पूछा।
‘अपने अगले जन्मदिन पर मैं चौहतर वर्ष का हो जाऊंगा।’ मार्टिन ने कहा।
डॉक्टर
ने उतर दिया,
‘आखिरकार अब आप उस उम्र में पहुंच गए हैं, जबकि
आपको ऐसी चीजों की आशा करनी ही होगी। पर आपके पास अभी भी काफी समय पड़ा है। बस इसे शांति
से लीजिए और चिंता मत कीजिये। मैं सुझाव दूंगा कि आप हॉट-स्प्रिंग्स चले जाएं।
इसलिए
मार्टिन हॉट-स्प्रिंग्स चला गया। वहां उसकी भेट एक और व्यक्ति से हुई जो इतना बूढ़ा
और जर्जर दिखाई दे रहा था कि उसकी तुलना में मार्टिन को कुछ हिम्मत महसूस हुई। ‘भाई’
मार्टिन कहता है: ‘तुमने निश्चय ही अपनी अच्छी
देखभाल कि होगी, तभी तो तुम ऐसी परिपकव आयु तक पहुंच पाए हो।
मैंने भी एक शांत और अच्छा जीवन जिया है, परंतु मैं शर्त लगता
हूं कि तुम्हारे जैसा नहीं। इस परिपकवता तक, इस वृद्धावस्था तक
पहुंच पाने का तुम्हारा सूत्र क्या है?
तब
वह झुर्रीदार बूढ़ा कहता है,
बात बिलकुल उलटी है, महोदय! जब मैं सत्रह वर्ष
का था, मेरे पिता ने मुझसे कहा, ‘बेटा जाओ
और जिंदगी का मजा लूटो। जी भर कर खाओ पियो और मस्त रहो। जीवन को पूरा जियो। एक स्त्री
से विवाह करने के स्थान पर कवांरे रहो और दस को भोगो। अपना पैसा पत्नी और बच्चों पर
खर्च करने के स्थान पर मौज-मस्ती पर और अपने ऊपर खर्च करो।’ हां,
शराब, स्त्री और गीत-संगीत, जीवन को पूरी तरह से जीना। यहीं मेरे सारे जीवन कि नीति रही है, मेरे भाई!’
‘बात तो तुम्हारी जमती है’, मार्टिन ने कहा। ‘तुम्हारी उम्र कितनी है?’
उस
व्यक्ति ने उतर दिया,
‘चौबीस वर्ष।’
अति
भोग आत्म-हत्या है--वैसे ही जैसे दमन। ये वे दो अतियां है जिनसे बचने को बुद्ध कहते
हैं। एक अति है दमन,
दूसरी अति है अति भोग। बस बीच में रहो; न दमन रत
रहो, न अतिभोग में डूबों। बस मध्य में रहो, चौकने, सजग, जागरूक। यह तुम्हारा
जीवन है। न तो इसका दमन करना है, न ही इसे बर्बाद करना है--इसे
तो समझा जाना है।
यह
तुम्हारा जीवन है--इसका ख्याल रखो! इसे प्रेम करो! इससे दोस्ती करो! यदि तुम अपने जीवन
से दोस्ती कर सको,
यह बहुत से रहस्य तुम पर खोल देगा, यह तुम्हें
परमात्मा के द्वार तक ले जाएगा।
लेकिन
तंत्र अतिभोग बिलकुल नहीं है। दमनकारी लोगों ने सदा यह सोचा हैं कि तंत्र अतिभोग है, उनके मन इतने
पूर्वा ग्रह से भरे है। उदाहरण के लिए: एक व्यक्ति जो किसी मठ में जाता है,
और बिना कभी किसी स्त्री को देखे वहां रहता है, वह कैसे यह विश्वास कर सकता है कि ‘सरहा’ जब वह किसी स्त्री के साथ रहता है, अतिभोग ग्रस्त नहीं
है? न वह केवल साथ रहता है, बल्कि वह अजीब-अजीब
हरकतें भी करता है: वह स्त्री के समक्ष नग्न बैठता है, स्त्री
भी नग्न होती है, और वह स्त्री को देखता चला जाता है,
या स्त्री से संभोग करते समय भी वह साक्षी रहता है।
अब
उसके साक्षीभाव को तो तुम देख नहीं सकते, तुम तो बस इतना ही देख सकते हो कि वह
स्त्री से संभोग कर रहा है। और अगर तुम दमकारी हो, तुम्हारी सारी
दमि कामुकता फूट पड़ेगी। तुम पागल हो जाने लगोगे। और जिस किसी चीज का भी तुमने अपने
भीतर दमन किया है, उस सबको सरहा के ऊपर प्रक्षेपित कर लोगे--और
सहरा तो वैसा तो कुछ कर ही नहीं रहा था, वह तो एक भिन्न ही आयाम
में गति कर रहा है। सच में तो देह में तो उसकी रूचि है ही नहीं, वह तो यह देखना चाहता है कि यह कामुकता है क्या, वह तो
यह जानना चाहता है कि कामोंमाद का आकर्षण है क्या; वह उस ऊर्ध्व
क्षण में ध्यान पूर्ण होना चाहता है, ताकि उसे सूत्र ओर कुंजी
मिल सके...शायद समाधि का द्वार खोलने की कुंजी वहां हो। सच में तो, कुंजी वहां है।
परमात्मा
ने कुंजी को तुम्हारी कामुकता में छिपा दिया है। एक और तो तुम्हारे काम के द्वारा जीवन
चलता रहता है;
यह तो तुम्हारी काम ऊर्जा का एक आंशिक उपयोग है। दूसरी और, यदि तुम पूर्ण जागरुकता के साथ अपनी काम ऊर्जा में गति करो, तुम पाओगे कि तुम्हारे हाथ एक ऐसी कुंजी लग गई जो कि शाश्वत जीवन में प्रवेश
हेतु तुम्हारी सहायता कर सकती है। काम का एक छोटा सा अंग तो यह है कि तुम्हारे बच्चे
जिएंगें। दूसरा अंग एक बड़ा अंग यह है-कि तुम शाश्वतता में जी सकते हो। काम-ऊर्जा,
जीवन-ऊर्जा है। साधारणतः तो हम बरामड़े से आगे बढ़ते ही नहीं, महल में तो हम कभी जाते ही नहीं। सरहा महल में जाने का प्रयास कर रहा है। अब
वे लोग जो राजा के पास आए वे दमित लोग रहे होंगे, जैसे कि सब
लोग दमित लोग हैं।
राजनेता
और पुरोहित को तो दमन सिखना ही होगा, क्योंकि केवल दमन से ही तो लोगों को
विक्षिप्त बनाया जा सकता है। और तुम स्थिरचित लोगों की अपेक्षा विक्षिप्त लोगों पर
अधिक आसानी से राज कर सकते हो। और वे लोग अपनी काम ऊर्जा में विक्षिप्त होते है,
वे अन्य दिशाओं में चलने लग जाते है--वे चलना शुरू कर देते है,
धन कि तरफ, या पद की तरफ, या प्रतिष्ठा की तरफ। उन्हें कहीं न कहीं तो अपनी काम ऊर्जा को दिखाना ही होता
है, यह उबल रही होती है--उन्हें किसी न किसी ढंग से तो मुक्त
करना ही होता है। इसलिए धन के प्रति पागलपन, या सता का लगाव उनकी
ऊर्जा-मुक्ति के तरीके बन जाते है।
सारा
समाज काम-ग्रसित है। यदि काम-ग्रस्तिता संसार से अदृश्य हो जाए, लोग धन के
पीछे पागल ही न होंगे। तब धन कि परवाह कौन करेगा? और लोग पद की
चिंता भी नहीं करेंगे। कोई भी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बनना नहीं चाहेगा--किस लिए?
अपने साधारणपन में जीवन इतना सुंदर है, अपने साधारणपन
में यह इतना श्रेष्ठ है, कि कोई भी कुछ विशिष्ट बनना क्यों चाहगा?
कुछ न बनने में यह इतना स्वादपूर्ण है--कुछ भी नहीं है। लेकिन यदि तुम
लोगों की कामुकता को नष्ट कर दो और उन्हें दमनकारी बना दो, तब
इतने कुछ की कमी हो जाती है। कि वे सदा बेचैन रहते है: कहीं और आनंद होगा, यहां तो है नहीं।
काम
प्रकृति और परमात्मा द्वारा प्रदत (रचित) एक ऐसा कृत्य है, जिसमें तुम
बार-बार वर्तमान क्षण में फेंक दिये जाते हो। साधारणतः तो तुम वर्तमान में कभी होते
ही नहीं, उस समय को छोड़ कर जबकि तुम संभोग में रत होते हो,
और वह भी मात्र कुछ क्षणों के लिए।
तंत्र
कहता है कि व्यक्ति को काम को समझना है, काम के रहस्य को जानना है। यदि काम
इतना महात्वपूर्ण है कि जीवन उससे आता हो तब इसमें कुछ ओर भी चाहिए। वह कुछ और ही कुंजी
है, दिव्यता की, परमात्मा की।
पांचवा
प्रश्न: मेरे साथ क्या गड़बझ है? जो आप कहते हैं वह मैं समझता हूं, मैं आपकी पुसतकें भी पढ़ता हूं, और उनका बहुत आनंद लेता
हूं, पर फिर भी किसी अत्यंत आवश्यक चीज की कमी जान पड़ती है।
वर्डसवर्थ
के इन सुंदर शब्दों पर धयान लगाओ:...
....
इसलिए
बस मुझे पढ़ने और सुनने से अधिक सहायता न मिलेगी...महसूस करना प्रारंभ करो। सुनते हुए
महसूस भी करो,
केवल सुनो ही मत। सुनते समय हृदय से सुनो। वही अर्थ है जब सब धर्म कहते
हैं कि श्रद्धा का, विश्वास का, उसके लिए
एक भरोसे की आवश्यकता पड़ती है। श्रद्धा का अर्थ है सुनने का एक ढंग--हृदय से;
संदेह से नहीं, तर्क से नहीं, युक्ति से नहीं, विवादपूर्ण बौद्धिकता से नहीं,
बल्कि हृदय से, एक गहन साझेदारी से।
जैसे
कि तुम संगीत सुनते हो,
मुझे वैसे ही सुनो। मुझे ऐसे मत सुनो जैसे कि तुम किसी दार्शनिक को सुनते
हो, मुझे ऐसे सुनो जैसे तुम पक्षियों को सुनते हो। मुझे ऐसे सुनो
जैसे तुम किसी झरने को सुनते हो। मुझे ऐसे सुनो जैसे कि तुम चीड़ के वृक्षों से गुजरती
हवा को सुनते हो। मुझे विवादग्रस्त मन से नहीं, सहभागी हृदय से
सुनो। और फिर उस चीज की कमी, जिसकी कमी तुम्हें निरंतर खल रही
है, महसूस नहीं की जाएगी।
हमारा
सिर आवश्यकता से अधिक विशेषज्ञ बन गया है, यह एकदम अति पर ही पहुंच गया है। इसने
तुम्हारी समस्त ऊर्जाओं को चूस लिया है। यह तानाशाह बन गया है। निश्चत ही यह काम तो
करता है, परंतु चूंकि यह काम करता है, तुमने
इस पर बहुत अधिक निर्भर रहना शुरू कर दिया है। और अति पर कोई भी सदा जा सकता है,
और मन की तो प्रवृति ही अति पर जाने की है।
नवयुवा
वारेन बहुत ही महात्वकांक्षी था, और जब उसे एक ऑफिस बाय की नौकरी मिली, उसने सब कुछ सीख लने का निश्चय किया ताकि वह अपने बॉस पर अपना प्रभाव जमा सके
और आगे बढ़ सके। एक दिन बॉस ने उसे बुलवाय और कहा: ‘आतायात विभाग
को कहो कि ग्यारह तारीख को छूटने वाले ‘कवीन मेरी जहाज में मेरे
लिए एक सीट सुरक्षित करवा दें।’
‘क्षमा करें, श्रीमान’, लड़के ने
कहा: ‘परंतु जहाज बारह तारिख को रवाना होगा।’
बॉस
ने प्रभावित होते हुए उसकी और देखा। फिर उसने कहा, ‘क्रय-विभाग को कहो कि अल्यूमिनियम
के लिए छह महीने की पूर्ति करने का ऑडर दे दें।’
‘क्या मैं सुझाव दे सकता हूं’, वारेन ने कहा: ‘कि ऑर्डर कल भेजा जाए क्योंकि कल दाम और गिर जाएंगे। इसके साथ ही, केवल एक महीने की पूर्ति का ही ऑर्डर दिया जाना चाहिए क्योंकि बाजार कि प्रवृति
से यह संकेत मिलता है कि कीमत अभी और कम होगी।’
बहुत
अच्छे नौजवान,
तुम्हें तरक्की मिलनी ही चाहिए। अब कुमारी केट को भेज दो, मुझे एक पत्र लिखवान है।
‘कुमारी केट आज नहीं आई है’, लड़के ने उतर दिया।
‘क्या बात है, क्या उसकी तबीयत खराब है?’
‘नहीं, श्रीमान, नौ तारीख तक तो
नहीं।’
अब
यह हुआ आवश्यकता से अधिक जानना, यह हुआ बहुत दूर तक चले जाना। और यही मानव मन के
साथ हुआ है, यह जरुरत से ज्यादा दूर चला गया है। इसने अपनी सीमाओं
को पार कर लिया है। और इसने उसकी सारी ऊर्जा को सोख लिया है, इस लिए हृदय के लिए कुछ बचा ही नहीं है। हृदय से तो तुम पूरी तरह से बच कर
ही गुजर गए हो। हृदय से तो तुम गुजरते ही नहीं। उस राह तो तुम कभी चलते ही नहीं। हृदय
तो एक मुर्दा चीज हो गया है। एक मृत-भार। बस यही तो कमी महसूस हो रही है। तुम मुझे
सुन सकते हो सिर से, और निश्चय ही जो मैं कह रहा हूं,
वह तुम समझ भी लोगे--और फिर भी तुम कुछ नहीं समझ पाओगे, एक शब्द भी नहीं, क्योंकि यह एक ऐसी समझ है जो ज्ञान
की अपेक्षा प्रेम के अधिक समीप है।
यदि
तुम मेरे प्रेम में हो,
केवल तभी...यदि तुमने मुझे महसूस करना शुरु कर दिया है। केवल तभी...यदि
मेरे और तुम्हारे बीच में एक स्नेह बढ़ रहा है, यदि यह केवल एक
प्रेम-संबंध है केवल तभी।
और
अंतिम प्रश्न: ओशो,
एक अच्छे व्याख्यान की आप क्या परिभाषा करेगे?
कहना
कठिन है। मैंने आज तक अपने जीवन में कई व्याख्यान दिया ही नहीं है। तुम एक गलत आदमी
से पूछ रहे हो। पर मैंने एक परिभाषा सुनी है जो मुझे पसंद आयी और मैं चाहूंगा कि तुम
भी इसे जान लो:
एक
अच्छा प्रारंभ ओर एक अच्छा अंत किसी व्याख्यान को बनाते हैं--यदि वे सच में ही करीब
हों, प्रारंभ और अंत। निश्चय ही,
श्रेष्ठ वक्तव्य में मध्य तो होता ही नहीं, और
सर्वश्रेष्ठ व्याख्यान तो वही है जो कभी दिया ही न जाए।
और
मैं सदा सर्वश्रेष्ठ व्याख्यान ही देता आया हूं, व्याख्यान जो कभी दिया ही न
गए। मैंने अपने पूरे जीवन में एक भी व्याख्यान दिया ही नहीं क्योंकि धंधा मौन का है,
शब्दों का नहीं। जब तुम शब्द सुनते हो, उद्देश्य
वह न था। जब मैं शब्दों का उपयोग करता भी हूं, शब्द केवल आवश्यक
बुराई की भांति उपयोग में लाए जाते हैं--क्योंकि उनका उपयोग करना पड़ता ही है,
क्योंकि अभी तुम मौन को नहीं समझ सकते।
मैं
तुमसे बोल नहीं रहा हूं। मेरे पास कहते को कुछ भी नहीं है, क्योंकि जो
मेरे पास है उसे कहा नहीं जा सकता, उसके विषय में कोई प्रवचन
दिया नहीं जा सकता। परंतु शब्दों के अतिरिक्त तुम कुछ समझते ही नहीं, इस लिए मुझे कष्ट उठाना ही पड़ता है। मुझे शब्दों का उपयोग करना पड़ता है जो
कि अर्थ हीन है। और मुझे वे बातें कहनी पड़ती है जो कि नहीं कही जानी चाहिएं--इस आशा
में कि धीरे-धीरे तुम मुझे में ही ज्यादा सीधे झांक सकोगे, धीरे-धीरे
तुम शब्दों को नहीं, संदेश को सुनने लगोगे। स्मरण रखो: माध्यम
संदेश नहीं है। शब्द मेरा संदेश नहीं है। संदेश तो शब्दहीन है। मैं न दिया गया व्याख्यान
तुम्हें सौंपने की चेष्टा कर रहा हूं। यह एक हस्तांतरण है, शब्दों
के पार का इसलिए केवल वे ही जो अपने हृदयों से मुझसे जुड़े है इसे प्राप्त करने में
सक्षम हो सकेंगे।
आज
इतना ही।
LIFE gyan.....Thank you so much.
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