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मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

चौथी लेश्‍या—तेज(लाल) लेश्‍या–

 
यह जो लाल लेश्‍या है, इसके संबंध में कुछ बातें समझ लेनी चाहिए। क्‍योंकि धर्म की यात्रा पर यह पहला रंग हुआ। आकाशी, अधर्म की यात्रा पर संन्‍यासी रंग था। लाल, धर्म की यात्रा पर पहला रंग हुआ। इसलिए हिन्‍दुओं ने लाल को, गैरिक को संन्‍यासी का रंग चुना; क्‍योंकि धर्म के पथ पर यह पहला रंग है। हिंदुओं ने साधु के लिए गैरिक रंग चुना है, क्‍योंकि उसके शरीर की पूरी आभा लाल से भर जाए। उसका आभा मंडल लाल होगा। उसके वस्‍त्र भी उसमे ताल मेल बन जाएं, एक हो जायें। तो शरीर और उसकी आत्‍मा में उसके वस्‍त्रों और आभा में किसी तरह का विरोध न रहे; एक तारतम्‍य,एक संगीत पैदा हो जाये।
      ये तीन रंग है धर्म के—तेज, पद्म, शुक्‍ल। तेज हिंदुओं ने चुना है, शुक्‍ल जैनों ने चुना हे। पद्म दोनों के बीच। बुद्ध हमेशा मध्‍य मार्ग के पक्षपाती थे, हर चीज में। क्‍योंकि बुद्ध कहते थे कि जो है वह मूल्‍यवान नहीं है, क्‍योंकि उसे छोड़ना है। और जो अभी हुआ नहीं वह भी बहुत मूल्‍यवान नहीं, क्‍योंकि उसे अभी होना है—दोनों के बीच में साधक है।
      लाल यात्रा का प्रथम चरण है, शुभ्र यात्रा का अंतिम चरण है। पूरी यात्रा तो पीत की है। इसलिए बुद्ध ने भिक्षुओं के लिए पीला रंग चुना है। तीनों चुनाव अपने आप में मुल्‍य वान है; कीमती है। कीमती है, बहुमूल्‍य है।
      यह जो लाल रंग है, यह आपके आस पास तभी प्रगट होना शुरू होता है। जब आपके जीवन में स्‍वार्थ बिलकुल शुन्‍य हो जाता है। अहंकार बिलकुल टूट जाता है। यह लाल आपके अहंकार को जला देता है। यह अग्‍नि आपके अहंकार को बिलकुल जला देती है। जिस दिन आप ऐसे जीने लगते है जैसे ‘’मैं नहीं हूं’’ उस दिन धर्म की तरंग उठनी शुरू होती है। जितना आपको लेंगे में हूं उतनी ही अधर्म की तरंग उठनी शुरू होती है। क्‍योंकि मैं का भी ही दूसरे को हानि पहुंचाने का भाव हे। मैं हो ही तभी सकता हूं, जब मैं आपको दबाऊ। जितना आपको दबाऊ, उतना ज्‍यादा मेरा ‘’मैं’’ मजबूत होता है। सारी दूनिया को दबा दूँ पैरों के नीचे, तभी मुझे लगेगा कि ‘’मैं हूं’’
      अहंकार दूसरे का विनाश है। धर्म शुरू होता है वहां से जहां से हम अहंकार को छोड़ते है। जहां से मैं कहता हूं कि अब मेरे अहंकार की अभीप्‍सा वह जो अहंकार की महत्वाकांक्षा थी, वह मैं छोड़ता हूं। संघर्ष छोड़ता हूं,दूसरे को हराना दूसरे को मिटाना दूसरे को दबाने का भाव छोड़ता हूं। अब मेरे प्रथम होने की दौड़ बंद होती है। अब मैं अंतिम भी खड़ा हूं, तो भी प्रसन्‍न हूं। सन्‍यासी का अर्थ ही यही है कि जो अंतिम खड़े होने को राज़ी हो गया। जीसस ने कहा है मेरे प्रभु के राज्‍य में वे प्रथम होंगे, जो पृथ्‍वी के राज्‍य में अंतिम खड़े होने को राज़ी है।
      लाल रंग की अवस्‍था में व्‍यक्‍ति पूरी तरह प्रेम से भरा होगा,खुद मिट जायेगा। दूसरे महत्‍वपूर्ण हो जायेंगे। पश्‍चिम के धर्म है—ईसाइयत, वह लाल रंग को अभी भी पार नहीं कर पाई। क्‍योंकि अभी भी दूसरे को कनवर्ट करने की आकांशा है। इस्‍लाम लाल रंग को पान नहीं कर पाय। गहन दूसरे का ध्‍यान है, कि दूसरों को बदल देना है, किसी भी तरह बदल देना है उसकी वजह है एक मतांधता है।
      आप जान कर हैरान होंगे की दुनिया के दो पुराने धर्म—हिंदू और यहूदी, दोनों पीत अवस्‍था में हे। हिंदुओं और यहूदियों ने कभी किसी को बदलने की कोशिश नहीं की। बल्‍कि कोई आ भी जाये तो बड़ा मुश्‍किल है उसको भीतर लेना। द्वार जैसे बंद है, सब शांत है। दूसरे में कोई उत्सुकता नहीं है। संख्‍या कितनी है इसकी कोई फिक्र नहीं है।
      संन्‍यासी अर्थ है, जिसने महत्व आकांशा छोड़ दि है। जिसने संघर्ष छोड़ दिया है। जिसने दूसरे अहंकारों से लड़ने की वृति छोड़ दी। इस घड़ी में चेहरे के आस-पास लाल, गैरिक रंग का उदय होता है। जैसे सुबह का सूरज जब उगता है। जैसा रंग उस पर होता है, वैसा रंग पैदा होता है। इसलिए संन्‍यासी अगर सच में सन्‍यासी हो तो उसके चेहरे पर रक्त आभा, जो लाली होगी। जो सूर्य के उदय के क्षण की ताजगी होगी। वही खबर दे देगी।

      ओशो
महावीर वाणी भाग:2,
प्रवचन—चौदहवां, दिनांक 29 अगस्‍त,1973,
पाटकर हाल, बम्‍बई





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