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बुधवार, 3 दिसंबर 2025

34 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-(अध्‍याय-34)

गीदड़ों से मुठभेड़

कल जंगल के उस आनंद को मैं रात भर भूल नहीं पाया था। उसको अपनी सुंदर स्‍मृतियों में सजो रखना चाहता था। परंतु मुझे क्‍या मालूम था कि अगले दिन भी फिर से जंगल में जाने का आनंद मिलेगा। क्‍योंकि अभी राम रतन अंकल तो आये नहीं थे इसलिए पापा जी दुकान से जल्‍दी आ जाते और हम नियम से जंगल में जाने लगे। जब हम दुकान के पास से जा रहे होते तो मम्‍मी जी मुझे अपने पास बुलाना चाहती परंतु में कन्‍नी काट जाता था। क्योंकि मम्मी जी रोज जंगल नहीं जाती थी वह थक जाती थी फिर उन्हें घर का भी काम करना होता था। सोचता की अब दोस्‍ती ठीक नहीं है,  जंगल में जाने के दावे को में किसी पनीर या किसी दोस्‍ती की कीमत पर छोड़ना नहीं चाहता था। तब मेरी इस हरकत से मम्‍मी बहुत जोर से हंसती और मेरे पास आकर मुझे प्‍यार करती थी। एक पनीर का टूकड़ा जबरदस्‍ती मेरे मुंह में ठूस देती थी। मैं डर सहमा सा वहां से जल्‍दी जंगल की और जाने के छटपटाने लग जाता था। बीच—बीच में गली के चम्‍मच कुत्‍ते भी पास आकर मुंह चाटते और समर्पण कर के लेट जाते तब भी मुझे गुस्‍सा आता की नाहक टाइम खराब कर रहे हो।

सुबह का घूमना कितना अनमोल है यह मैंने पहली बार जाना था। वैसे हम अकसर तो दिन में 10—11 बजे ही जंगल जाते थे या श्‍याम 4—5 बजे परंतु आजकल हम सुबह सात बजे ही जा रहे थे, कई दिन से। पहले जब घूमने जाते तो जिस दिन घूमने जाते उस दिन तो बहुत अच्‍छा लगता परंतु अगले दिन बदन बहुत दुखता था। परंतु रोज—रोज जाने से थकावट महसूस नहीं होती। अभी प्रकृति पूरी तरह से जगी नहीं होती, दूर सूर्य की किरणें वक्षों के कोमल पत्तों को छूकर सहला रही थी। उन पर जमे उस ओस के लिबास को छू रही होती। तब वृक्ष के पत्ते की सोई आंखों में एक चुभन सी महसूस होती और वह करवट बदलने की नाहक सोने की कोशिश करते। पास का पीला पत्‍ता खड़खड़ाता और तब हवा भी मानो उस कोमल पत्‍ते को हिला जाती की उठो जनाब अब कितना सोओगे। लेकिन सच सोते में ही हर प्राणी का विकास होता है। इस कुदरत को विकास के लिए एक खास बेहोशी चाहिए।

धीरे—धीरे धूप की उष्णता बढ़ रही थी। और प्रकृति एक अंगड़ाई लेती हुई महसूस हो रही थी। ये भी एक बात थी की सुबह शरीर में प्राकृतिक उर्जा जग रही होती और आप दौड़ या खेल रहे होते हो तो वह एक समान्तर उर्जा आपको थकावट नहीं होने देती है। साथ-साथ इससे आपको एक नया पन एक ताजगी भी महसूस होती है। इसलिए सभी लोग सुबह उठ कर घूमने का आनंद लेते है। सुबह के समय उर्जा के पंख फैल रहे होते है। आप उन पर बैठ कर चल ही नहीं रहे होते दौड़ रहे होते है। गांव के खत्‍म होते ही मैं दौड़ना शुरू करता और एक ही सांस में नाले को छू लेता था। बीच में दशा मैदान भी कर लेता था। वह भी इधर उधर देख कर मुझे किसी के सामने दशा मैदान करना बहुत अजीब लगता है। जंगल में कई आदमीयों को झाड़ी की ओट में बैठे देख कर मैं समझ जाता की ये महाराज क्‍या रहे है। लेकिन एक  बात थी। जब पापा जी अकेले होते तो उनकी चाल की गति अधिक होती है। मैं अभी नाले में पहुँचा ही होता था और नीचे उतरा भी नहीं पाता था कि पीछे से पापा जी ने आकर मेरी पीठ को पकड़ लिया। मैं जोर से घबरा कर भागा और गुर्राया, परंतु मुड़ कर पीछे देखा तो पापा जी खड़े हंस रहे थे।

मुझे अचरज भी हुआ की इतनी जल्‍दी कैसे आ गये। और तब मैं उनकी छाती पर पैर रख कर भागा की मुझे पकड़ो तो जानु और हम नाले की ढलान की और दौड़े मिट्टी के साथ—साथ वहां सफेद—सफेद कंकड़ भी है जिसमें  पैर  फिसलने का डर हमेशा रहता था। इसलिए तो पापा जी जरा सम्‍हल कर दौड़ रहे थे। नालें में नीचे उतर कर मैंने खूब पानी पिया। सच सुबह का पानी कितना ठंडा था। मुझे सुबकियां आ गई। पापा जी भी मेरे देखा देखी अपनी चलू भर कर खूब पानी पीया। चलता पानी एक खास तरह की मिठास लिए होता है, क्या ठहरा पानी मृत हो जाता है। परंतु जंगल के पानी में एक ओषधिय गुण तो समाये होते है। पानी एक दम से पारदर्शी था। निर्मल ठंडा...आपने अंदर एक खास तरह कि सीतलता पिरोए रहा था। हम दोनों के होने की वजह से पापा जी की चाल इसलिए भी अधिक बढ़ जाती थी की उस समय पापा जी को अपने साथ—साथ मम्‍मी और बच्चों का भी ख्‍याल करना होता था।

लेकिन अब इन सब बातों की परवाह कोन करने वला था, लगे हाथों हम जंगल का हर कोना देखना चाहते थे। गहरे और गहरे और नई जगह देखने को मिलती मैं अपना ज्ञान भी बढ़ रहा था। सो मुझे अपना चिर परिचित कार्य जो टाँग उठा कर करना होता था, करता चलता था। ताकि एक चिन्‍ह बनते रहे और हम कहीं खो न जाये। सच में मैं अपने पर अधिक भरोसा करता था। पापा जी रास्‍ते को जानते है ये बात मैं मानता हूं परंतु अपना ज्ञान बढ़ने से कुछ कमी तो नहीं आ जायेगी। और सच कई बार मेरा ही ज्ञान काम आया जब हम घने जंगल में फंस जाते और पापा जी खड़े हो कर इधर उधर देख रहे होते तो में अपने ज्ञान का पिटारा  खोल कर आगे चल देता। तब पापा जी लाचार होकर मेरे पीछे आते। कई बार ये आँख मूंद कर मेरे पीछे आना पापा जो को भी भारी पड़ा क्‍योंकि कई बार मैं ऐसी जगह ले जाकर खड़ा कर देता जहां आगे जाने  का कोई रास्‍ता ही नहीं होता  था। तब पापा जी  मुझे देख कर हंसते और तब मैं अपने ज्ञान पर झेप जाता। खेर ये तो जंगल में चलता ही रहता है, यहां आये ही किस लिए है। यहां जंगल में घूमना और खोने का ही तो रस है, फिर इस भटकने का नाम देना कोई जरूरी तो नहीं। जरा इधर की बजाए उधर से मुड कर आ गये इतना ही होता था। कुछ जंगली फल खाना और मोज करना दौड़ना नये-नये स्थानों पर जाना उन पर चढ़ कर इधर उधर देखना।

आज हम दो नाले पार कर एक ऐसे गहरे में आ गये जहां आगे और पास तक देखना मुश्किल था। यहां जंगल बहुत घना और गहरा था। इससे  पहले हम इस और कम ही आये थे। हमने हर बार दो नाले ही देखे थे आज मैं तीसरे और अधिक लंबे चौड़ा नाले को देख रहा था। शायद वह बरसाती नाला था जो पूरे जंगल का पानी अपनी गोद में समेटता था। उसके आस पास के पेड़ पौधों से ही पता चलता था कितने  ही पेड़ पौधों की जड़ें तक दिखाई दे रही थी। कितने जमीन पर लेट गये थे शायद पानी के तेज बहाव के कारण। कुछ जड़े अब भी किनारों को पकड़े हुए थी जिसके कारण वे मरे नहीं थे। क्‍योंकि उनकी जड़ें अभी तक जमीन में गड़ी थी लंबा चौड़ा पहाड़ी क्षेत्र होने के वजह से बरसाती पानी बहुतायत से यहां आता होगा। पास ही एक पतला और लंबा लाल इंटों की पूल बना था। जो कुछ अधिक ही संकरा था केवल मानव या पशुओं के लिए ही बना था उससे आप गाड़ी वगैरह नहीं ले सकते थ। इतने जंगल में गाड़ी भला कौन लेकर यहाँ आयेगा।  इस जंगल में जो पुल और पुलिया का निर्माण कार्य किया गया था वह अंग्रेजों ने ही किया था। वह हर बारीक से बारीक बात का कितना ख्‍याल रखते थे। अगर सच ही इस पार आने के बाद बरसात आ जाये तो इस नाले को पार करना मौत को दावत देना ही है। इस सब के लिए पुलिया का निर्माण किया गया होगा जिससे कि गाय भैंसे भेड़ बकरियां या मनुष्‍य इस पर चलकर आराम से उस पार चले जाये या आ जाये।

यह पड़ता तो कुछ लम्बा था इसलिए इस का इस्तेमाल कम ही किया जाता था। वही पानी जो जीवन देता है अपनी विकरालता में कितना विध्वंसक हो उठता है। उसी पानी की बहुतायत के कारण वहां अधिक पेड़ उगे थे उसी बहुतायत से कितने वृक्ष गिरे पड़े थे। कुछ तो जड़ से ही उखड़ कर खत्‍म हो गये थे। ये कुदरत का एक खेल था, एक लीला थी। प्रकृति भी कैसी तन्मयता या नवीनता से वह अपना कार्य करती है। इसी सोच विचार के चलते हम उस पतली और लम्बी पुलिया को पार कर अचानक एक खुले मैदान में आकर खड़े हो गए। इस तरह का मैदान मैंने पहले कभी नहीं देखा था। वहां पर झाडियां बहुत ही कम थी बिलकुल न के बराबर थी। पेड़ पौधे भी रोंझ कैर और बबूल के ही थे। यहां पर जितनी बबूल थी वह मैंने पहले किसी और इलाक़े में नहीं देखी थी। क्योंकि पापा जी या तो बबूल या फिर नीम की दातुन ही करते थे। पेड़ पौधे भी अपने अंग संग अपने प्रिय पेड़ पौधों को ही साथ उगने देना पसंद करते है। इस सब से उनका एक अपना पन एक परिवार वाद के अलावा किस तरह सुरक्षित महसूस करती है।

जिस तरह से पशु पक्षियों के झूंड बनाकर अपने को सुरक्षित समझते है। इसी तरह से पेड़ पौधे भी झूंड में साथ संग में खड़े होकर अपने को अधिक सुरक्षित समझते होंगे। क्या इनकी की कोई भाषा होगी या ये यू ही अनबोले से खड़े एक दूसरे को देखते होगा। नहीं जो जीवित है उसमें भाषा-और भाव को होना जरूरी है। हम उस गहरी संवेदना को ने महसूस कर पाये तो अलग बात है। दूर कुछ नील गायों का झूंड अपने कान खड़े किए मेरी और देख रहा था। जंगल में नील गायों को देखना मुझे कितना अचरज और विषयः भरा लग रहा था। न वह गाय थी और घोड़ा। क्योंकि घोड़े की तरह उनके खुर थे। जो बीच से फटे नहीं होते अंगूठे की तरह। शायद इसी कारण घोड़े खच्चर, गधा, हिरण, आदि अधिक तेज भाग सकते है, गाय, बकरी, भेस,...आदि के खुर बीच से दो हिस्सों में बेटे होते है इस कारण वह जमीन पर जिस तरह से पड़ते है उससे अधिक तेज नहीं भागा जा सकता। और मुझे सबसे अधिक मजा आता उनके चिन्हों के पास जाकर उन्हें सुधना...क्योंकि सुध कर पहचाना हमारे लिए अधिक आसान है। शायद ही हमारे नाक सबसे अधिक गंध को चिन्हित कर लेता होगा इस संसार में। अचानक कुछ नील गाय भौचक्की हुई। मैंने समझा मेरे आगमन के कारण वह भौचक्की हो कर अपनी रक्षा के उपक्रम में मुझे देख रही थी।

तभी मैंने देखा की पास की झाड़ी में कुछ सरसराहट हुई वहां पेड़ो का एक बड़ा सा झूंड था। जिसकी दाई और कुछ गीदड़ों ने मिलकर एक गाये को घेर रखा था। शायद कई जगह से वह जख्मी भी हो गई थी। एक गीदड़ ने उसकी पूछ पकड़ रखी थी और दूसरा आगे से उसकी नाक पकड़ने की कोशिश कर रहा था। वह अपनी गर्दन हिला कर उसकी पकड़ से बचने की कोशिश कर रही थी। गाय की आंखों में मौत का भय साफ दिखाई दे रहा था। कम से कम छ: सात गीदड़ तो अवश्य ही रहे होंगे। कितने दिलेर और साहसी गीदड़ थे यहां के इनकी हिम्मत तो जरा देखो दिन के उजियारे में हमला कर रहे थे। मुझे मेरी मां की याद आ गई हो न हो यही व पाजियों का झुंड होगा, जिन्होंने मेरी मां को भी इसी तरह से मारा होगा। मैं तेजी से भाग और उनके सामने आ कर खड़ा हो गया। इस तरह से अचानक मुझे अपने बीच में आया देख कर उन्‍हें अच्‍छा नहीं लगा। लगता भी क्‍यों उनके शिकार में बाधा डली जा रही थी। शायद गाय अपना बचाव करते—करते थक गई थी। और वह अपने को दुश्मनों के हाथ सौपने ही वाली थी। तभी उसने भी मुझे देखा और एक आर्तनाद मांह....मांह... मां.....का नाद की जैसे तुम मुझे बचा लो। अंजान प्राणी भी कैसे दूसरे को देख कर समझ जाता है की मेरी रक्षा करने वाला कोई आ गया। कातर पुकार शायद खतरे की उस घड़ी में वह अपने दुश्मन को भी दोस्‍त समझ रही थी। प्रत्‍येक प्राणी को अपना जीवन कितना प्‍यारा होता है, प्रकृति ने कैसे प्रत्येक जीव में जीवेषणा भरी है। परंतु अपना पेट भरने के लिए वह भी कितने मजबूर हो जाता है। अब मैंने तो इतने साल से कभी मांसाहार नहीं किया क्‍या ये सब मेरे शरीर की जरूरत नहीं थी। नहीं तो यहां रह कर मुझे भी इसे खाना ही होता। समय, स्थान और संगत से ही जीवन कितना बदल जाता है। प्रकृति के इस क्रम में कुछ प्राणी शुद्ध मांसाहारी है। कुछ दोनों के बीच में और कुछ शुद्ध शाकाहारी। हम कुत्‍ते भेड़िया...गीदड़ बिल्‍ली...बीच के प्राणी है।

अगर मैं अकेले आता और वह चर रही होती तो वह मेरे या मेरे परिवार से भी इस तरह से डरती जिस तरह से इस समय वह गीदड़ों से डर रही थी। हम बड़े भय को देख कर छोटे को अपना रक्षक समझ लेते है। पीछे से पत्तों की चरमराहट जो धीमी थी अब तेज हो गयी थी। मैं समझ गया था की पापा जी और—और पास आते जा रहे है। इसलिए मैं हमले के लिए तैयार हो गया और जोर से गुर्राना....मेरी दहाड़ को देख कर दो गीदड़ मेरी और लपके।

गीदड़ पूरी तरह से खूंखार रूप में थे। एक तो उनकी संख्‍या अधिक थी और दूसरा उनके सामने शिकार था। याद है मुझे जब मैं छोटा था और एक मरे खरगोश को निकाल कर खा रहा था तो टोनी और हानि मेरे पास तक नहीं आ सके थे। वैसे तो वह मुझे धो—धो कर मरते थे। हानि तो पूरा कुत्‍ता था वह तो एक मिनट में हमारी प्याऊ बुला देता था। मेरा डील डोल को देख कर वह गीदड़ कुछ अचरज में भर गये। जो दो उनमें से अधिक तगड़े थे वह मेरी और भागे और दस कदम दूर खड़े होकर मुझे डराने लगे। मेरा शरीर तो जंगली था उस पर मुझे जो पौष्टिक भोजन मिला रहा था उससे सोने पर सुहागे वाली बात थी। मुझे जो फिर मेरा शरीर भी उनके शरीर से बड़ा था। एक भेड़ियां की तरह मेरी गर्दन और पूछ तो सब की चर्चा का विषय बन ही गई थी। मेरे शरीर की बलिष्ठता दो गुणी हो गई थी। जब गांव में कोई कुत्‍ता अपनी पूछ पीछे दबा कर मेरे सामने आत्‍म समर्पण करता था। तब मैं सबसे पहले उसकी पूछ ही देखता की इसमें तो चार बाल है। और सुखी सड़ी सहजन की फली की तरह होती थी। भला इसमें कहां से जान समायी होगी। पूछ ही हमारे अहंकार की जननी है। और वही हमारी ताकत है। कुत्ते या किसी प्राणी की पूछ अधिक मोटी और बालो वाली होगी तो वह अधिक ताकतवर जरूर होगा।

इस तरह से उन दो गीदड़ों का अपनी और आता देख कर मैं थोड़ा डर जरूर गया था। परंतु अब डरने का समय चला गया था और दुश्मन मैदान में सामने खड़ा होकर ताल ठोक रहा है और युद्ध का डंका बज चुका था। मैं पीछे पापा जी के पैरो की आहट को अपनी और आते सुन रहा था। मैं जानता था पापाजी किसी भी क्षण हमारे बीच में आ सकते है। तब मैं अकेला कहां था हम तो दो थे। अचानक मैंने जम्प लगा कर एक गीदड़ की गर्दन को पकड़ कर हिला दिया वह इस सब के लिए तैयार नहीं था। वह भी हमला करना नहीं चाहते थे वह शायद मुझे डर कर भगा देना चाहते थे। क्‍योंकि वह भी तो इस युद्ध में थक गए थे। जब गाय थक गयी है तो वह भी जरूर कुछ थके होंगे। उसकी तो मैंने प्‍यांऊ कर दी अब दूसरे को पीठ से पकड़ कर झकझोर दिया। ये खतरा देख कर जो गीदड़ गाय को घेर खड़े थे उन्‍हें भी अपना शिकार छोड़ कर मेरी और भाग कर हमला करना पड़ा परंतु इतनी ही देर में पापा जी भी जंग मैदान में कूद पड़े। पापाजी हाथ में हमेशा एक मोटा सोटा होता था। जिसने कितनी ही बार हमारी इस जंगल में रक्षा की थी। अगर आज पापा जी बिना हथियार के होते तो जरूर हम दोनों चोट खा चूके होते। पापाजी ने भी एक गीदड़ की पीठ पर डंडे से हमला किया जो मुझे पीछे से पकड़ने ही जा रहा  था। अचानक दो और से हमला वह सह न सके और पउँ...पउँ करते भागे....मैं दूर तक उनका पीछा करता हुआ भागा ...कुछ दूर जाने के बाद मुझे पापा जी की आवाज आई पौनी.....पौनी आगे मत जाओ....वापस आ जाओ....तब जाकर मुझे होश आया। सच ज्‍यादा अंदर जाने से मुझे खतरा था दुश्मन की माँद में कभी नहीं जाना चाहिए।

मैं रुका और वापस पापा जी की और चल दिया। परंतु पीछे से हमले के लिए भी सतर्क था। की कहीं वह दोबारा मुझ पर छुपकर हमला तो नहीं कर देंगे। पास ही नील गायों का झूंड खड़ा ये सब शौर्य पूर्ण गाथा को देख रहा था। मेरी चाल और अधिक मस्‍ती और गर्व से भर गई थी। मैं अपनी विजय पर फूला नहीं समा रहा था। आज के जंग मैदान का मैं हीरों था। मानो आज वे मेरा स्‍वागत कर रही है कि देखो वो वीर जा रहा है जिसने एक गाय की जान बचाई है।

मैं पापा जी के पास जाकर खड़ा हो गया। वह मेरे पास बैठ गये और मेरे शरीर पर हाथ फेर कर कुछ देखने लगे शायद देख रहे थे कि कहीं मुझे तो चोट नहीं आई थी। क्‍योंकि दोनों गीदड़ मुझसे चिपटे हुए थे। और पीछे से चार और आ रहे थे सच पापा जी नहीं होते तो मैं कभी उन पर हमला नहीं करता। इन्‍हीं में से किसी ने मेरी मां को जरूर मारा होगा। क्‍या मिला उनको क्‍योंकि उन्‍होंने उसका मांस तो खाया नहीं। फिर क्‍यों मारा....एक तरफ तो बात कुछ जमती है, कि चलो पेट भरने के लिए शिकार कर रहे हो। ये तो तुम्‍हारी दादा गिरी पर उतर आये हो की हम इस जंगल के राज है जो चाहे वही करेंगे। तुम्हारा खेल हो गया तुम्‍हारी नजरों में दूसरे की जान की कोई कीमत नहीं है।

इस समय तक मैं बहुत थक गया था और मेरी सांसे बहुत तेज चल रही थी। जीभ जितनी अधिक बहार निकाल सकता था उसे निकाल स्वांस ले रहा था। मेरी गर्दन के नीचे दर्द हो रहा था जहां में चाट नहीं सकता था। वहां पर अचानक पापा जी का हाथ रूक गया और दूसरा पीठ के पीछे की और तब उन्‍होंने बोतल से अपने चुलु में भर कर मुझे लाड़ से पानी पिलाया में पानी कम पी रहा था। और लाड़ से इधर—उधर देख अधिक रहा था। शायद मेरी गर्दन और पीठ पर किसी गीदड़ के दाँत लग गये थे। वहां पापा जी ने पानी डाल कर धो रहे थे मैं भी बहते पानी और चोट को चाटने की कोशिश कर रहा था। दूर खड़ी गाय अभी तक भागी नहीं थी। वह डरी सहमी सी केवल यहीं अचरज कर रही थी कि क्‍या मैं अभी तक जिंदा हूं। वह जोर से रंभ्‍भाई.....तब हमारा ध्‍यान उसकी और गया....तब पापा जी ने खड़े होकर कहा आओ.....आओ.....और वह हमारी और आने लगी....शायद वह समझ गई थी की इन्‍हीं के कारण मेरी जान बची थी।

वह हमारे पास आकर खड़ी हो गई। तब पापा जी ने उसे ध्‍यान से देखा और मेरी और मुख कर कहां की पोनी यह तो हमारे पड़ोसी मामा की ही तो गाय है। जिसे मैं पापा की भाषा समझता हूं, और यह कहकर पापा जी सहमें की मैं क्‍या कह रहा हूं। बचे पानी में से पापा जी ने चलू में भर कर गाये के आगे कर दिया....उसने पानी तो कम पिया परंतु पापा जी का हाथ चाटने लगी। मैं जानता था कि इस समय पापा जी के हाथ में कितनी खुजली हो रहा होगी। क्‍योंकि गाय की जीभ में एक तरह के कांटे होते है। मुझे भी कभी-कभी जब वह पीठ पर चाटती है तो गुदगुदी होती है....और मैं दूर भाग जाता था।

पापा जी ने देखा की गाय के शरीर पर कई जगह से खून निकल रहा था। पीठ गर्दन और पूछ तब पापा जी ने पानी को एक तरफ रख कर। गाय के सर पर हाथ फेरने लगे। गाय भी अपनी गिली आंखों से उस प्‍यार और स्नेह को पी रही थी। तभी पापा जी ने जमीन पर झूक कर कुछ रेत अपने हाथों में लिया और कुछ देर तक उसे हिलाते रहे जब वह आधा या उससे भी कम रह गया तब उसे गाय की गर्दन पर लगा दिया....ऐसा उन्‍होंने तीन चार बार किया। गाय तो पाप जी से मिट्टी ऐसे लगवा रही थी जैसे बरसो से जानती हो। असल में वह आदमी के साथ रही हुई थी इसलिए मनुष्य से कम डरती थी। कभी-कभी जब मुझे भी चोट लग जाती तब पापा जी मुझे भी रेत लगते थे। तब मैं कैसे बिदक कर दूर जा खड़ा हो जाता था। कि ये सब क्‍या पागल पन कर रहे हो। और अपने से अधिक किसी को समझदार समझता भी नहीं था। या मुझ अपने से अधिक भरोसा पापा जी या किसी दूसरे पर नहीं था। आज गाय को इस तरह से रेत लगवाते देख कर मुझे अंदर से अपने पर बहुत ग्लानि और घिन्‍नता आ रही थी। कि देखो इस गाय को जो अंदर प्‍यार और विश्‍वास से भरी है...अगर आप किसी को प्रेम करते हो तो आपको उस पर पूरा विश्‍वास करना ही होगा। उसके साथ आपको अपने होने को किसी सीमा तक तो छोड़ना ही होगा। मैं सच ही बहुत बेकार हूं...कुछ पता नहीं है और लगता है सब पता है। पल भर पहले अपने को महान समझता था और अब न कुछ।

उस दिन की बात मेरी आंखों के सामने चल चित्र की भांति चलने लगी जब मेरी गर्दन पर अधिक जख्‍म हो गया था। उसमें पस्‍स (मवाद) पड़ गई थी तब पापाजी जब उसमें दवा लगा रहे थे तो मैंने पापा जी की उंगली पर काट लिया था। तब उनकी उँगली से खून बहने लगा था। हालांकि कुछ पल बाद ही मुझे एहसास हो गया था कि ये तो गलत है वह तो मेरी सेवा कर रहे थे। और मैं नूगरा उन्‍हें काट रहा हूं तब मैं सर झुका कर पापाजी के पास ही खड़ा हो गया था। कि चाहो तो मुझे मेरी गलती के कारण आप मार भी सकते हो। पापा जी उस समय भी हंस रहे थे। और पास बैठी मम्‍मी मुझ पर गुस्‍सा करने लगी थी। मैं पापा जी की उस उँगली जिस से खून बह रहा था मैं प्यार से उसे चाटने लगा था। की मुझे माफ कर दो।

परंतु यह गाय का स्वभाव देखने जैसा है....इसने मनुष्‍य का दिल अपने प्रेम प्रीत और त्याग से उसके सहयोग से अपने और अपने वंश के दूसरों एक गुलाम की सेवा में अर्पित कर दिया था। मनुष्‍य के साथ वही रह सकता था है जो अपने अंदर प्रीत लिए हो। जो वफादार हो, जो हिंसक न हो, ये गुण तो कम से कम उसमें होने ही चाहिए। खैर अब खुशी का माहौल था, उसे याद करके अपना और आपका मन खराब नहीं करना चाहता। गाय के घाव पर पापा जी के रेत लगाने से उससे बहता खून रूक गया दूसरा उस पर मक्खियां नहीं बैठेंगी।

इस सब के बाद हम तीनों घर की और चल दिये। गाय हमारे साथ कुछ दूर तक आयी और फिर पानी वाले नाले की और चल दी वहां एक गायों का झुंड खड़ा था शायद वह उसका इंतजार कर रहा था। परंतु इतना साहस नहीं की अपने साथी को जाकर बचा ले। अभी हमारा तो आज के दिन घूमना तो पूरा हुआ नहीं था। इसलिए हम जंगल के दूसरी और चल दिये। अचानक हम एक अनजानी जगह पर आ गये। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे थे जंगल गहरा होता जा रहा था। पानी का एक बहुत बड़ा ताल भरा था एक दम उसका नीला पानी था। तब मैंने सोचा ये गाय यहां पानी की वजह से आकर विश्राम करती होगी। तब मैं भी उस पानी में जी भर कर नहाया...पापा जी पास एक पत्‍थर पर जुते उतार कर पैर डूबोकर बैठ गये। वह बार—बार इधर उधर देख रहे थे। मैं पापा जी के पास पानी में आकर खड़ा हो गया। पापा जी ने मोका देख कर मेरे जख्म भी खूब पानी से धो दिए। इस बार मैं उन्हें देखता रहा और उस सब का आनंद लेता रहा। बार-बार पापा जी इधर उधर देख रहे थे, जंगल में सतर्क रहना बहुत जरूरी है।

मैं सोच रहा था आज तो वह गाय हमारे आने के कारण बच गयी आगे, देखो प्रकृति का खेल हमें आना था और ये सब होना था। तो सब का रखवाला भगवान ही है, मैंने अपने विचारों को दूर हटाने के कोशिश की, लेकिन मन न जाने क्‍यों उन बातों को बार—बार दोहरा रहा था। जो मेरे अहंकार से भर रहे थे। ये आदत मुझे मनुष्‍य के संग रह लग गई थी। तब पापा जी ने जूते पहने तो मैं समझ गया की अब चलने का समय हो गया था। ठंडे पानी के कारण मेरे शरीर में जो थकावट भर गई थी वह ताजगी में बदल गई थी। परंतु पेट में भूख लग गई थी। खेर यहां खाने को क्‍या मिल सकता था। जैसे जंगल में खाने का स्वाद बढ़ जाता है इसी तरह यहां की भूख भी आपको एक अलग ही आनंद देने लग जाती है। हम आगे बढ़े परंतु दस बीस कदम चले ही थे कि यह जगह मुझे कुछ जानी पहचानी लगने लगी। झाडियों के बीच से वह ऊंचे पत्‍थरों की चट्टान को देख कर तो मेरा माथा ठनका। मुझे कुछ याद आने लगा। मैं धीरे—धीरे उस और आगे बढ़ने लगा, पापा जी अभी तक तो पीछे आ रहे थे। पत्‍थर की चट्टान तक आने के बाद वह तो उस पर चढ़ने की कोशिश करने लगे शायद उसकी ऊंचाई पर से जंगल को देखा जा सकता था। कि हम कहां और किस और है। इस तरह तो हम दशा भ्रम से बच सकते थे। परंतु पत्‍थर पर चढ़ने के बाद भी उन्‍हें चारों और पेड़ो का झुरमुट ही दिखाई दिया तब वह बोले पोनी तु कहा जा रहा है। हम जंगल में खो जायेंगे। ये रास्‍ता घर जाने का नहीं है। लेकिन तब तक में दूसरी और जाकर कुं, कुं, कुं कर के पापाजी को बुलाने लगा। पापा जी ने समझा कही उन गीदड़ों में से तो कोई इधर नहीं छुपा हो। और ये पागल पोनी है की आज मेरी बात सून ही नहीं रहा है। डांटने के अंदाज में कह रहा थे आगे मत बढ़ मैं आता हूं देखता हूं कि रास्‍ता किधर है।

मैं खड़ा होकर उनका इंतजार करने लगा, हम एक दूसरे के इतने पास थे परंतु झाडियों को भूलभुलैया इतना अधिक था कि कई चक्‍कर लगा कर पापाजी मेरे पास आये। मैं खड़ा हो कर भौंह...भौंह...कर के उन्‍हें अपने पास बुलाने की कोशिश करने लगा। और जोर-जोर से पूछ को भी हिला रहा था। और अब आगे एक ढलान थी जिस पर मैं उतरने लगा। अब शायद कोई चारा ने देख पापा जी भी मेरे पीछे आने लगे। वह और तेजी से चल रहे थे कि मैं किसी खतरे के मुंह में जा रहा हूं। अभी-अभी तो एक खतरा झेला है, क्‍या आज ही सारे खतरों से निबटारा करना चाहता था। नीचे उतरने के लिए झाडियां और छोटी और गहरी हो रहा थी जिनके बीच से मैं तो गुजर सकता था परंतु पापाजी को आना कठिन था उन्‍हें बहुत झुकना पड़ रहा था। मेरा शरीर पृथ्‍वी के समतुल्‍य और पापाजी खड़ा तब उन्हें तो अधिक झूक कर आना होगा। मैं बार—बार पीछे मुड कर देख भी रहा था कि पापा जी कितने पास है।

अब अचानक मैं एक सपाट जगह पर उतर गया और इधर—अधर देखने लगा। जगह मेरी जानी पहचानी सी लग रही थी। परंतु प्रकृति नित नूतन परिवर्तन करती रहती है। बदलाव ही प्रकृति का नियम है, परंतु मैं चाक चौबंद भी था। कि वहाँ दूसरा कोई खतरा तो नहीं है। कहीं में अपने साथ पापा जी की जान को खतरे में नहीं डाल रहा हूं। तब तो मेरी खैर नहीं और फिर तो पापा जी मुझे कभी जंगल में नहीं लायेंगे। जगह वहीं थी, उस जगह को देख कर मेरे शरीर के सारे रोम छिद्र सजग हो गये। बिलकुल यह वही जगह है। मेरा अपना घर, मेरी मां का घर, जहां पर मैं अभी कुछ साल पहले अपनी मां के साथ दो रातें गुज़ारी थी। मैं जगह को देख कर मंत्र मुग्ध हो रहा था। अपनी मात्र भूमि से हमें इतना प्रेम इतना लगाव क्यों रहता है? क्या हम वहां की हवा, पानी, मिट्टी से बने है इसलिए। या और कोई और कारण हो सकता है। मैं इन्हीं ख्यालों में खोया था इतनी देर में पापा जी मेरे पीछे आकर खड़े हो गये। उस जगह को पापाजी बड़ी तिरछी निगाह से देखने लगे।

मैंने एक बार ऊपर मुंह कर के उन्‍हें देखा, मेरी आंखें और चेहरे के भाव को देख कर उनका चेहरा एक दम से बदल गया। मैंने अपनी पूछ को इस तरह से गोल—गोल घुमाया जैसे यहां बहुत आनंद है। तब उन्‍होंने उस जगह को समझने कि कोशिश की। मैं दस कदम आगे और चला और एक जगह जाकर बैठ गया। पापा जी मेरे पीछे आये, अब उस रेत के स्‍थान में सूखी मुलायम घास उग गयी थी। मेरा इस तरह से बैठ जाने के कारण पापा जी समझ गये कि जरूर कोई—न—कोई बात तो है। अब तक वह जान चुके थे की यहां पर कुछ देर रहने के कारण कोई खतरा नहीं था। वह मेरी और आये और मेरे शरीर पर हाथ फेरने लगे। ठीक मेरे सामने मेरी मां की हड्डियां पड़ी थी, वह इसी जगह लेटी हुई थी और उसी पोज़ में मर गयी थी। आज उन हड्डियों के ढांचे में कंकाल में भी मुझे अपनी मां की छवि नजर आ रही थी। लेकिन समय पा कर अब उस जगह पर कुछ घास उग गयी है। पापा जी ने उस घास को अपने डंडे से हटा कर देखा तब उस कंकाल को देख कर समझ गये। तब उन्‍होंने मेरी आंखों को देखा और मैं रो रहा था। मेरी आंखों से झार-झार आंसू बह रहे थे।

आज मुझे अचानक लगा मेरी मां कि असहजता में मर गई। काश उस दिन पापा जी मेरे साथ होते तो वह इस तरह से उसे मरने नहीं देते....उसके जख्‍मों पर दवा लगते....इस तरह से तो मैं कितनी बार मर चुका होता अगर पापा और डा. ने मुझे नहीं बचाया होता। परंतु क्या मेरी मां भी पापा जी पर उतना ही विश्वास करती जितना मैं करता हूं। शायद करती वह तो उस समय लाचार थी। बेचारी...हिल भी नहीं पा रही थी। वह कर भी क्या सकती थी। और मुझे पापा जी के साथ देख कर तो उसे पूरा विश्वास हो जाता की यहीं मेरे मालिक है। तब वह जब मुझ पर विश्वास कर सकती थी तो मेरे मालिक पर नहीं जरूर करती।

तब पापा जी ने मेरा सर अपनी गोद में ले लिया और पापा जी एक मिनट में समझ गये कि यह जरूर मेरी मां का कंकाल है। मनुष्‍य भी कितना बुद्धिमान है वह आँख के इशारे से ही समझ जाता है। मैं ये सोचता हूं कि उसे भाषा की क्‍या जरूरत है। भाषा उसकी संवेदना को अपाहिज नहीं कर देती है, उसकी क्षमता उसकी गहराई को खत्‍म कर देती है। ये सब सोच-सोच कर मेरा दिल भर आया और में कुं...कुं..कुं....कर के कराहने लगा। आप उसे चाहे तो रोना या धधकना भी कह सकते हो। पापा जी मेरे दुखते ह्रदय को सहला रहे थे। जैसे कह रह है...मैं तेरे साथ हूं....तु अपने आप को अकेला क्‍यों समझता है। हम रो भी नहीं सकते मनुष्‍य की तरह दहाड़ें मर कर....कितनी लाचारी है....एक पत्‍थर की तरह.....बस सिसक सकते है, सुलग सकते है। मैंने अपनी गर्दन को जमीन पर टेक दिया। और आंखें बंद कर ली। तब पापा जी आस पास से कुछ पत्‍थर इकट्ठे करने लगे उन्होंने उस उगी घास को फाड़ दिया और मेरी मां के कंकाल के आस पास पत्‍थरों का एक चबूतरा बना दिया। मैं ये सब देख रहा था। आस पास मेरी मां के बालों के गुच्छे झाडियों में अटके पड़े थे। जो हूबहू मेरे बालों के रंग रूप के जैसे ही थे। तब पापा जी को जरूर यकीन आ गया होगा की हो न हो यह पोनी की मां का ही कंकाल है। और वह कुछ सालों पहले दो तीन दिन के लिए गायब भी हो गया था। जो हमारे लाख ढूंढने पर भी नहीं मिला था। वह यहीं रहा होगा। शायद अपनी मां का संग साथ किया होगा। जरूर वह अपनी मां से मिला होगा। अंतिम समय पर कितना सच्चा प्रेम है इन मां बेटों का जो कुदरत ने इन्हें इस तरह मिला दिया था।

मैं ये सब बैठा हुआ देखा रहा था। पापा जी ने मेरी मां की हड्डियों को भी कितना सम्‍मान दिया है। उन्‍हें एक सुरक्षित घर में पनाह दे दी है। मैं सोच रहा था कि क्‍या दूर कहीं मेरी मां ये सब देख रही होगी। अगर देख रही होगी तो कितनी खुश होगी कि और अपने पर गर्व करेगी की मैंने ऐसे भाग्‍यशाली बेटे को जन्‍म दिया था। जो आज कितने लाड़ प्‍यार में रह रहा है। कैसी जीवेष्णा है कुदरत कि बीज को किस तरह से सुरक्षित करती है। मां बाप बच्‍चों को किस सुरक्षा और परिश्रम से पालते है, ताकि वह सुरक्षित रह सके। वहीं बड़े होने पर कैसे दूर खड़ हो कर जीने लग जाते है। यहां पर रहने से तन और मन दोनों की मेरी थकावट कम हुई। कुछ देर बाद हम घर की और बौझल कदमों से चल दिये। सूर्य सर पर आग फेंक रहा था। लेकिन हम एक संताप और शौक के साये में चले जा रहा थे। मानो हमारे ऊपर एक मादकता-की बदली छा गई थी। कब हम किस तरफ से जंगल के बहार आये मुझे तो कम से कम भी यह आभास नहीं था। जैसे वह एक सम्मोहित जगह थी। एक अलकूफा। कितनी ही बार हम इधर से गुजरे परंतु मैं दोबारा यहां नहीं आ सका परंतु शायद आज एक नेक काम करने के बदले में कुदरत ने मुझे फिर वहां धकेल दिया था। ये एक रहस्य है जो मैं जिंदगी भर नहीं खोल पाया। और मैं ही क्‍या ये रहस्‍य तो पापा जी के लिए भी एक पहली जरूर बन गया होगा। जो शायद वह भी कभी खोल नहीं पायेंगे। आज बहुत देर हो गई थी। मम्‍मी जी दुकान से घर कब की चली गई होगी।

उन्‍हें वहाँ जरूर फिकर लगी होगी कि हम जंगल में आज कुछ अधिक देर कर दी है। शायद हम जब घर पहुंचते तक दोपहर हो चूकि थी। मैं एक कोने में जाकर लेट गया। पापा जी नहाने के बाद मम्मी के पास चले गए। उस दिन मैंने खाना नहीं खाया था।

शायद पापा जी ने मेरी मां की मृत्यु की बात मम्मी को बता दी होगी तभी तो मुझे देखने के लिए आई और मुझे खुब प्यार किया। केवल एक एहसास उनकी छुअन में एक ममत्व समाया था। वह अनबोली सी प्रेम से छूती रही  एक शब्द भी नहीं बोली बस बहती रही मेरी और। और में आपने भर दर्द में भी मात्रत्व का प्रेम पीता रहा। मन और तन शांत हो रहा था। परंतु भूख नहीं थी ये सब मम्मी समझ गई थी की पोनी को अब कुछ देर के लिए एकांत चाहिए।

भू......भू.... भू......

आज इतना ही

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