तंत्र-सूत्र—विधि—32 (ओशो)
देखने के संबंध में तीसरी विधि:
देखने के संबंध में तीसरी विधि:
‘’किसी
सुंदर व्यक्ति
या सामान्य
विषय को ऐसे
देखो जैसे उसे
पहली बार देख
रहे हो।‘’
पहले कुछ
बुनियादी
बातें समझ लो,
तब इस विधि का
प्रयोग कर
सकते हो। हम
सदा चीजों को
पुरानी आंखों
से देखते है।
तुम अपने घर
आते हो तो तुम
उसे देखे बिना
ही देखते हो।
तुम उसे जानते
हो, उसे देखने
की जरूरत नहीं
है। वर्षों से
तुम इस घर में
सतत आते रहे
हो। तुम सीधे
दरवाजे के पास
आते हो, उसे
खोलते हो और
अंदर दाखिल हो
जाते हो। उसे
देखने की क्या
जरूरत है?
यह पूरी
प्रक्रिया
यंत्र-मानव
जैसी, रोबोट
जैसी है। पूरी
प्रक्रिया
यांत्रिक है,
अचेतन है। यदि
कोई चूक हो
जाए ताले में
कुंजी न लेग,
तो तुम ताले
पर दृष्टि
डालते हो।
कुंजी जब जाए
तो ताले को क्या
देखना।
यांत्रिक
आदत के कारण,
एक ही चीज को
बार-बार दुहराने
के कारण तुम्हारी
देखने की
क्षमता नष्ट
हो जाती है।
तुम्हारी
दृष्टि का
ताजापन जाता
रहता है। सच
तो यह है कि
तुम्हारी
आँख का काम ही
खत्म हो जाता
है। इस बात को
ख्याल में रख
लो तो अच्छा।
तुम बुनियादी
रूप से अंधे
हो जाते हो।
आँख की जरूरत
न रही।
स्मरण
करो कि तुमने
अपनी पत्नी
को पिछली दफा
कब देखा। संभव
है, तुम्हें
अपनी पत्नी
या पति को
देखे वर्षों
हो गए हो।
हालांकि दोनों
साथ ही रहते
हो। कितने
वर्ष हो गये
एक दूसरे को
देखे। तुम एक
दूसरे पर
भागती नजर
डालकर निकल
जाते हो।
लेकिन कभी उसे
देखते नहीं।
पूरी निगाह
नहीं डालते।
तो जाओ और
अपनी पत्नी या
पति को ऐसे
देखो जैसे कि
पहली बार देख
रहे हो। क्यों?
क्योंकि
जब तुम पहली
बार देखते हो
तो तुम्हारी
आंखों में
ताजगी होती
है। तुम्हारी
आंखें जीवंत
होती है। समझो
कि तुम रास्ते
से गुजर रहे
हो। एक सुंदर
स्त्री
सामने से आती
है। उसे देखते
ही तुम्हारी
आंखें सजीव हो
उठती है। दीप्त
बन जाती है।
उनमें अचानक
एक ज्योति
जलने लगती है।
हो सकता है, यह
स्त्री किसी
की पत्नी हो।
उसका पति उसे
नहीं देखना
चाहेगा। वह इस
स्त्री के प्रति
वैसे ही अंधा
है जैसे तुम
अपनी पत्नी के
प्रति अंधे
हो। क्यो? क्योंकि
पहली बार ही
आंखों की
जरूरत पड़ती
है। दूसरी बार
उतनी नहीं और
तीसरी बार
बिलकुल नहीं।
कुछ पुनरूक्तियां
के बाद हम
अंधे ही जीते
है।
जरा होश से
देखो। जब तुम
अपने बच्चें
से मिलते हो,
क्या तुम उन्हें
देखते भी हो? नहीं,
तुम उन्हें
नहीं देखते।
नहीं देखने की
आदत आंखों को मुर्दा
बना देती है।
आंखें ऊब जाती
है। थक जाती
है। उन्हें
लगता है कि
पुरानी चीज को
ही बार-बार क्या
देखना।
सच्चाई
यह है कि कोई
भी पुरानी
नहीं है, तुम्हारी
आदत के कारण
ऐसा दिखाई
पड़ता है।
तुम्हारी
पत्नी वही
नहीं है। जो
कल थी; हो नहीं
सकती अन्यथा
वह चमत्कार
है। दूसरे
क्षण कोई भी
चीज वही नहीं
रहती जो थी।
जीवन एक
प्रवाह है। सब
कुछ बहा जा
रहा है। कुछ
भी तो वही
नहीं है।
वही सूर्य
कल नहीं होगा।
जो आज ऊगा है।
ठीक-ठीक
अर्थों में
सूरज कल वही
नहीं रहेगा।
हर रोज वह नया
है। हर रोज
उसमें
बुनियादी
बदलाहट हो रही
है। आकाश भी
कल वही नहीं
था। आज की
सुबह कल नहीं
आयेगी। और
प्रत्येक
सुबह की अपनी
निजता है,
अपना व्यक्तित्व
है। आसमान और
उसके रंग फिर
उसी रूप में
प्रकट नहीं
होंगे।
लेकिन तुम
ऐसे जीते हो
जैसे कि सब
कुछ वही का वही
है। कहते है
कि आसमान के
नीचे कुछ भी
नया नहीं है।
लेकिन सचाई यह
नहीं है।
लेकिन सच्चाई
यह है कि
आसमान के नीचे
कुछ भी पुराना
नहीं है।
सिर्फ तुम्हारी
आंखें पुरानी
हो गई है।
चीजों की आदती
हो गई है। तब
कुछ नहीं है।
बच्चों
के लिए सब कुछ
नया है। इसलिए
उन्हें सब
कुछ उत्तेजित
करता है। सुबह
का सूरज,
समुद्र-तट पर
एक रंगीन पत्थर।
किसी लकड़ी को
टुकड़े को देख
कर भी वह मचल
उठता है। और
तुम स्वंय
भगवान को भी
अपने घर आते
देख कर भी उत्तेजित
नहीं होते।
तुम कहोगे, कि
मैं उन्हें
जानता हूं,
मैंने उनके
बारे में पढ़ा
है। बच्चे
उत्तेजित
होते है। क्योंकि
उनकी आंखें नई
और ताजा है।
और हरेक चीज
एक नई दुनिया
है, नया आयाम
है। बच्चों
की आंखों को
देखो। उनकी
ताजगी उनकी प्रभा
पूर्ण सजीवता,
उनकी जीवंतता
को देखो। वे
दर्पण जैसी है—शांत,
किंतु गहरे
जाने वाली और
ऐसी आंखें ही
भीतर पहुंच
सकती है।
यह विधि
कहती है: ‘’किसी
सुंदर व्यक्ति
या सामान्य
विषय को ऐसे
देखो जैसे उसे
पहली बार देख
रहे हो।‘’
कोई भी चीज
काम देगी।
अपने जूतों को
ही देखो। तुम
वर्षों से
उनका इस्तेमाल
कर रहे हो। आज
उन्हें ऐसे
देखो जैसे कि
पहली बार देख
रहे हो और फर्क
को समझो। तुम्हारी
चेतना की
गुणवत्ता
अचानक बदल
जाती है।
पता नहीं,
तुम ने वान गाग
का अपने जूते
का बना हुआ
चित्र देखा है
या नहीं। यह
एक अति दुर्लभ
चित्र है। एक
पुराना जुता
है—थका हुआ,
उदास, मानो
मृत्यु के
मुंह में हो।
यह एक महज
फटा-पुराना
जूता है।
लेकिन उसे
देखो, उसे
महसूस करो। यह
इतना दुःखी
है, बिलकुल
थका-मांदा है,
जर्जरित है,
कि बूढे आदमी
की तरह यह
बूढा जूता
प्रार्थना कर
रहा है कि है
परमात्मा,
मुझे दुनियां
से उठा लो।
सर्वाधिक
मौलिक चित्रों
में एक चित्र
की गिनती है।
वान गाग के
चित्र को गोर
से देखो, और तब
तुम्हें पता
चलेगा कि उसे
जूते में क्या–क्या
दिखाई पडा था।
उसमें सब कुछ
है—उसके पहनने
वाले का
संपूर्ण
जीवन-चरित्र।
लेकिन उसने यह
कैसे देख होगा?
चित्रकार
होने के लिए
बच्चे की
दृष्टि की
ताजगी फिर से
प्राप्त
करनी होती है।
तभी वह किसी
चित्र को देख
सकता है। छोटी
से छोटी चीज
को भी देख
सकता है। और
केवल वही देख
सकता है।
सिझान ने
एक कुर्सी का
चित्र बनाया
है—महज मामूली
कुर्सी का। और
तुम हैरान
होगे कि एक
कुर्सी का क्या
चित्र बनाना।
उसकी जरूरत क्या
है। लेकिन
उसने उस चित्र
पर महीनों काम
किया। तुम उस
कुर्सी को
देखने के लिए
एक क्षण भी नहीं
देते और सिझान
ने उस पर
महीनों काम
किया। कारण कि
वह कुर्सी को
देख सकता था।
कुर्सी के
अपने प्राण है।
उसकी अपनी
कहानी है।
उसके अपने सुख
दुःख है। वह
जिंदगी से
गुजरी है।
उसने जिंदगी
देखी है। उसके
अपने अनुभव
है। अपनी स्मृतियां
है। सिझान के
चित्र में ये
सब अभिव्यक्त
हुआ
है।
लेकिन क्या
तुम अपनी
कुर्सी को कभी
देखते हो।
नहीं, कोई नहीं
देखता है और न
किसी को ऐसा
भाव ही उठता
है।
कोई भी चीज
चलेगी। वह
विधि तुम्हारी
आंखों को ताजा
और जीवंत बना
देगी। इतना
ताजा और जीवंत
कि वे भीतर
मुड़ सकें और तुम
अपने अंतरस्थ
को देख लो।
लेकिन ऐसे
देखो, मानों
पहली बार देख
रहे हो। इस
बात को ख्याल
में रख लो कि
किसी चीज को
ऐसे देखना है
जैसे कि पहली
बार देख रहे
हो। और तब
अचानक किसी
समय तुम चकित
रह जाओगे। कि
कैसा सौंदर्य
भरा हुआ है संसार
में।
अचानक होश
से भर जाओ और अपनी
पत्नी को
देखो—ऐसे कि
पहली बार देख
रहे हो। और आश्चर्य
नहीं कि तुम्हें
उसके प्रति
फिर उसी प्रेम
की प्रतीति हो
जिसका उद्रेक
प्रथम मिलन में
हुआ था। ऊर्जा
की वह लहर,
आकर्षण की वह
पूर्णता तुम्हें
अभिभूत कर
देती है।
लेकिन ‘’किसी सुंदर
व्यक्ति या
सामान्य
विषय को ऐसे
देखो जैसे कि
पहली बार देख
रहे हो।‘’
उससे क्या
होगा। तुम्हारी
दृष्टि
तुम्हें वापस
मिल जायेगी।
तुम अंधे हो।
अभी जैसे हो
तुम अंधे हो। और
वह अंधापन
शारीरिक
अंधेपन से ज्यादा
घातक है; क्योंकि आँख के
रहते हुए भी
तुम नहीं देख
सकते।
प्रत्येक
क्षण अपने को
अतीत से
तोड़ते चलो।
अतीत को अपने
भीतर प्रवेश
मत करने दो।
अतीत को अपने
साथ मत ढ़ोओ।
अतीत को अतीत
से ही छोड़
दो। और प्रत्येक
चीज को ऐसे
देखो जैसे कि
पहली बार देख रहे
हो। तुम्हें
तुम्हारे
अतीत से मुक्त
करने की यह एक
बहुत कारगर
विधि है।
इस विधि के
प्रयोग से तुम
सतत वर्तमान
में जीने
लगोगे। और धीरे-धीरे
वर्तमान के
साथ तुम्हारी
घनिष्ठता बन
जाएगी। तब
हरेक चीज नई
होगी। और तब
तुम हेराक्लाइटस
के इस कथन को
ठीक से समझ
सकोगे। कि तुम
एक ही नदी में दोबारा
नहीं उतर
सकते।
तुम एक ही
व्यक्ति को दुबारा
नहीं देख
सकते। क्यो? क्योंकि
जगत में कुछ
भी स्थायी
नहीं है। हर
चीज नदी की
भांति है—प्रवाहमान
और प्रवाहमान।
यदि तुम अतीत
सक मुक्त हो
जाओ और तुम्हें
वर्तमान को
देखने की दृष्टि
मिल जाए तो
तुम अस्तित्व
में प्रवेश कर
जाओगे। और यह
प्रवेश दोहरा
होगा। तुम प्रत्येक
चीज में, उसके
अंतरतम में प्रवेश
कर सकोगे; और तुम
अपने भीतर भी
प्रवेश कर
सकोगे।
वर्तमान
द्वारा है। और
सभी ध्यान
किसी न किसी
रूप में तुम
वर्तमान से
जोड़ने की
चेष्टा करते
हो। ताकि तुम
वर्तमान में जी
सको।
तो वह विधि
सर्वाधिक
सुंदर
विधियों में से
एक है और सरल
भी है। और तुम
इसका प्रयोग
बिना किसी
हानि क कर
सकते हो।
तुम किसी
गली से दूसरी
बार गुजर रहे
हो। लेकिन अगर
उसे ताजा
आंखों से
देखते हो तो
वही गली नई
गली हो जाएगी।
तब मिलने पर
एक मित्र भी
अजनबी मालूम पड़ेगा।
ऐसे देखने पर
तुम्हारी
पत्नी ऐसी
लगेगी जैसी
पहली बार
मिलने पर लगी
थी। एक अजनबी।
लेकिन क्या
तुम कह सकते
हो। कि तुम्हारी
पत्नी या
तुम्हारा
पति तुम्हारे
लिए आज भी
अजनबी नहीं है।
हो सकता है।
तुम उसके साथ
बीस, तीस या
चालीस वर्षों से
रह रहे हो।
लेकिन क्या
तुम कह सकते
हो कि तुम
उससे परिचित
हो।
वह अभी भी
अजनबी है। तुम
दो अजनबी एक
साथ रह रहे
हो। तुम एक
दूसरे की बाह्य
आदतों को,
बाहरी
प्रतिक्रिया ओर
को जानते हो;
लेकिन अस्तित्व
का अंतरस्थ
अभी भी
अपरिचित है,
अस्पर्शित
है। फिर अपनी
पत्नी या पति
को ताजा निगाह
से देखो। मानो
पहली बार देख
रहे हो।
नये-नये।
यह प्रयोग
तुम्हारी दृष्टि
को ताजगी से
भर देगा। तुम्हारी
आंखें
निर्दोष हो
जाएगी। वे
निर्दोष
आंखें ही देख
सकती है। वे
निर्दोष ही
अंतरस्थ जगत में
प्रवेश कर
सकती है।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग—2
प्रवचन—21
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