प्यारे
ओशो,
जरथुस्त्र
पहाड़ से अकेले
नीचे उतरे और
किसी से उनकी
मुलाकात नहीं
हुई। लेकिन जब
उन्होंने
जंगल में
प्रवेश किया, एक
बूढ़ा व्यक्ति
जो जंगल में
जड़िया खोजने
के लिए अपनी
पवित्र
कुटिया से
बाहर आया था, सहसा उनके
समुख था। और
वह बूढ़ा
व्यक्ति
जरथुस्त्र से
इस प्रकार बोला
:
'यह
परिव्राजक
मेरे लिए
अजनबी नहीं है : बहुत
वर्षों पहले
वह यहां से
गुजरा था। वह
जरधुस्त्र
कहलाता था; लेकिन वह
बदल गया है।
'तब तुम अपनी
राख पहाड़ों पर
ले गये थे :
क्या तुम आज
अपनी अग्नि
घाटियों में
ले
'हां, मैं जरथुस्त्र
को पहचान रहा
हूं। उसकी आंखें
निर्मल हैं और
उसके मुंह के आसपास
घृणा नहीं
झांक रही है।
क्या वह एक
नर्तक की तरह
नहीं आगे बढ़
रहा है?
'जरथुस्त्र
कितना बदल गया
है!
जरथुस्त्र बन
गया है — एक
शिशु एक
जाग्रत पुरुष
(संबुद्ध) :
अब तुम
सोनेवालों से
क्या चाहते हो?
'तुम
एकांत में रहे
जैसे सागर में
और सागर ने तुम्हें
जन्म दिया।
अफसोस क्या
तुम तट पर
जाना चाहते हो? अफसोस
क्या तुम फिर
से अपने शरीर
को खुद ही घसीटना
चाहते हो?' जरथुस्त्र
ने जवाब दिया : 'मैं
मनुष्यजाति
को प्रेम करता
हूं। '
जरथुस्त्र
अकेलेपन की
खोज में
पहाड़ों में
गये थे। भीड़—भाड़
में तुम स्वयं
का एकाकी
पा सकता है।
लेकिन अकेला
कभी नहीं। एकाकीपन
एक प्रकार की
भूख है दूसरे
के लिए। तुम
दूसरे की कमी
महसूस कर रहे
हो। तुम स्वयं
में ही
पर्याप्त
नहीं हो — तुम
रिक्त हो।
इसलिए हर कोई
भीड़ में होना
चाहता है, और
अपने
इर्दगिर्द
बहुत प्रकार
के संबंधों के
ताने—बाने
बुनता है केवल
स्वयं को धोखा
देने के लिए, यह भूलने के
लिए कि वह
अकेला है।
लेकिन वह
एकाकीपन बार—बार
उभर पड़ता है।
कोई भी संबंध
उसे छिपा नहीं
सकता। सारे
संबंध इतने
उथले और इतने
नाजुक हैं।
गहरे में तुम
भलीभांति
जानते हो कि
यद्यपि कि तुम
भीड़ में हो, फिर भी तुम
अजनबियों के
बीच हो। तुम
स्वयं अपने
लिए भी अजनबी
हो।
जरथुस्त्र
और सारे ही
रहस्यदर्शी
अकेलेपन की
तलाश में
पहाड़ों में
गये। अकेलापन
विधायक
अनुभूति है, तुम्हारे
अपने ही
अस्तित्व की
अनुभूति — और
यह अनुभूति कि
तुम अपने आप
में पर्याप्त
हो — कि
तुम्हें किसी
अन्य की जरूरत
नहीं है।
एकाकीपन
हृदय की एक
रुग्णता है।
अकेलापन
एक स्वास्थ्य—लाभ
है।
जो
लोग अकेलेपन
को जानते हैं
वे सदा—सदा के
लिए एकाकीपन
के पार जा
चुके। चाहे वे
अकेले हों
अथवा लोगों के
साथ,
वे स्वयं
में ही
अवस्थित होते
हैं। वे
पहाड़ों में
अकेले हैं, वे भीड़ में
अकेले हैं, क्योंकि यह उनका
बोध है कि
अकेलापन
हमारा स्वभाव
है। जगत में
हम अकेले आए
हैं और जगत से
हम विदा भी अकेले
ही होंगे।
इन
दो अकेलेपनों
के बीच, जन्म
और मृत्यु के
बीच भी तुम
अकेले ही हो; लेकिन तुमने
अकेलेपन के
सौंदर्य को
नहीं समझा है,
और इसीलिए
तुम एक प्रकार
के भ्रम में
पड गये हो —
एकाकीपन का
भ्रम।
अपने
अकेलेपन को
उद्घाटित
करने के लिए
व्यक्ति को
भीड़ से बाहर
जाना होता है।
धीरे—धीरे, जैसे—जैसे
वह जगत को
भूलता है, उसका
सारा होश
स्वयं पर सघन
होता है, और
फिर प्रकाश का
विस्फोट होता
है। पहली बार
उसे पता चलता
है अकेले होने
के सौंदर्य और
वरदानों का, अकेले होने
की अपरिसीम
स्वतंत्रता
और प्रज्ञा का।
जरथुस्त्र के
पास एक सर्प
और एक गरुड़
हुआ करते थे
जब वह पहाड़ों
में रह रहे थे।
पूरब में, सर्प
सदा ही
प्रज्ञा का
प्रतीक रहा है।
सबसे बड़ी
प्रज्ञा है.
अतीत से बाहर
खिसकते जाना,
बिना उसे
पकड़े, ठीक जैसे
कि सर्प अपनी
पुरानी
केंचुल से
बाहर खिसक
जाता है और
कभी लौटकर
पीछे नहीं
देखता। उसकी
गति सदा
पुराने से नये
में है।
प्रज्ञा
अतीत का
संग्रह नहीं
है;
प्रज्ञा
सतत नवीन हो
रहे जीवन की
अनुभूति है।
प्रज्ञा
पर स्मृतियों
की धूल नहीं
जमती; वह एक
स्वच्छ दर्पण
की तरह बनी
रहती है — उसे
प्रतिबिंबित
करती हुई जो
है — सदा ताजी, सदा नवीन, सदा वर्तमान
में।
गरूड़
स्वतंत्रता
का प्रतीक है।
अकेले वह सूरज
के आरपार उड़ान
करता है, सुदूर
असीम आकाश में,
बिना किसी
भय के।
प्रज्ञा और
स्वतंत्रता
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं।
पहाड़ों
में दस वर्ष
रहकर, जरथुस्त्र
ने अकेले होने
की अलमस्ती
उपलब्ध की, अकेले होने
की
परिशुद्धता, अकेले होने
की
स्वतंत्रता —
और यहीं वह
दूसरे
बुद्धपुरुषों
के मध्य अनूठे
हैं; जब
उन्होंने खोज
लिया, वे
अपनी
ऊंचाइयों पर
ही बने रहे, जरथुस्त्र ''
अधोगमन '' शुरू कर
देते हैं, भीड़
में वापस
उन्हें
मनुष्यजाति
तक यह संदेश
पहुंचाना है
कि तुम अनावश्यक
रूप से दुख
उठा रहे हो, तुम
अनावश्यक रूप
से पराश्रित
हो रहे हो, तुम
अपने लिए
स्वयं हर
प्रकार के
कारागार निर्मित
कर रहे हो —
मात्र
सुरक्षित और
निरापद महसूस
करने के लिए।
लेकिन
एकमात्र बचाव
और एकमात्र
सुरक्षा
स्वयं को
जानने में है,
क्योंकि तब
मृत्यु भी
नपुंसक है। वह
तुम्हें नष्ट
नहीं कर सकती।
जरथुस्त्र
पहाड़ों से
नीचे की तरफ
जा रहे हैं लोगों
को बताने के
लिए कि
प्रज्ञा
ज्ञान की पर्यायवाची
नहीं है; वास्तव
में, ज्ञान
प्रज्ञा का
ठीक विलोम है।
प्रज्ञा
मूलरूप से
निर्दोष
सरलता है।
ज्ञान अहंकार
है, और
प्रज्ञा
अहंकार का
विसर्जन है।
ज्ञान
तुम्हें
जानकारियों
से भर देता है।
प्रज्ञा
तुम्हें
नितांत रूप से
खाली बनाती है।
लेकिन वह
खालीपन एक नये
प्रकार की
भरावट है। वह
विस्तीर्णता
है।
वह
लोगों के पास
जा रहे हैं
उन्हें बताने
के लिए कि
प्रज्ञा
स्वतंत्रता
लाती है। अन्य
कोई
स्वतंत्रता
नहीं है —
राजनैतिक, आर्थिक,
सामाजिक, वे सारी
स्वतंत्रताएं
नकली हैं।
एकमात्र असली
स्वतंत्रता
आत्मा की है, जो एक गरुड़
बन सकती है और
अज्ञात तथा
अज्ञेय में
बिना किसी भय
के जा सकती है।
क्योंकि
उन्होंने परम
चैतन्य की यह
दशा उपलब्ध कर
ली है, वह
इसे बांटना
चाहते हैं।
उनका अनूठापन
यह है कि वह
अभी भी
मनुष्यजाति से
प्रेम करते
हैं। सोए हुए
लोगों के
प्रति, अंधे
लोगों के
प्रति निंदा
का कोई भाव
नहीं है। उनके
लिए विशाल
करुणा है। वह
नीचे की तरफ
जा रहे हैं
क्योंकि वह
जीवन को प्रेम
करते हैं। वह
जीवन के खिलाफ
नहीं हैं।
.........ऐसा
जरथुस्त्र
ने कहा।
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